Book Title: Samdarshi Acharya Haribhadra
Author(s): Jinvijay, Sukhlal Sanghavi, Shantilal M Jain
Publisher: Rajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur

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Page 58
________________ ४४ ] समदर्शी प्राचार्य हरिभद्र भी एक दर्शन के रूप में मान्य रखकर पूर्ण करना चाहिए। ऐसा कहकर वे चावकि के प्रति समभाव प्रदर्शित करते है । यहाँ यह बात भी ध्यान में रखनी चाहिए कि सर्वसिद्धान्तप्रवेशक के कर्ता ने दर्शनो को छ को सख्या की पूर्ति के प्रन्न की चर्चा किये बिना ही अन्त मे चार्वाक दर्शन का निरूपण किया है। इस प्रकार उनके मतानुसार सात दर्शन होते है । हरिभद्र के पहले ही शताब्दियो से चार्वाक मत के प्रति भारतीय श्रात्मवादी दर्शनों की श्रवज्ञापूर्ण दृष्टि रही है । ऐसा मालूम होता है कि हरिभद्र मे यह अवगणना न रही। उन्होने अपनी मूल प्रकृति के अनुसार सोचा होगा कि जीवन श्रीर जगत् को देखने और विचारने की विविध उच्चावच कक्षाएँ हैं । उनमें चार्वाक मत को भी स्थान है । जो मात्र वर्तमान जीवन को सम्मुख रखकर दृश्यमान लोक की ही मुख्यतया विचारणा करते है वे सिर्फ इसी कारण वगरणना के पात्र हैं ऐसा नही कहा जा सकता । इसीसे उन्होने वैमे मत को भी दर्शन-कोटि मे स्थान देकर अपनी दृष्टि की उदात्तता सूचित की है । सामान्यत प्रत्येक ग्रन्थकार करता है वैसे ही सर्वसिद्धान्तसंग्रह एवं सर्वदर्शनसंग्रह के रचयिता अपने अभिप्रेत इष्टदेव का ही स्तवन- मंगल आरम्भ मे करते हैं । इसी प्रणालिका के अनुसार हरिभद्र ने, सर्वसिद्धान्तप्रवेशक के कर्ता ने तथा राजशेखर ने भी अपने अभिप्रेत देव 'जिन' का प्रारम्भ मे वन्दन किया है । इसके पश्चात् प्रत्येक ने अनुक्रम से दर्शनो का निरूपण किया है, किन्तु इस निरूपण का क्रम पाँचो ग्रन्थो मे एक-सा नही है । सर्वसिद्धान्तस ग्रहकार सर्वप्रथम वैदिक विद्याओ और उनमे समाविष्ट होने वाले वैदिक दर्शनो का स्पष्ट वर्णन करते है, जो कि महिमन्- स्तोत्र के सातवे श्लोक की व्याख्या मे प्रस्थान -भेद के रूप मे मधुसूदन सरस्वतीकृत वर्णन की पद्यबद्ध छायामात्र है । उस वर्णन का मुख्य स्वर यह है कि वैदिक दर्शन ही प्रास्तिक है और उन्हे चाहे जिस तरह वेदबाह्य चार्वाक, जैन और बौद्ध मतो का निरास करना ही चाहिए । मधुसूदन सरस्वती ने भी प्रस्थान -भेद में यही बात शब्दान्तर से कही है । वह कहते हैं कि विश्वव्यापी परम तत्त्व का दर्शन अनेक तरह ८ नँयायिकमतादन्ये भेद वैशेषिकै सह । न मन्यन्ते मते तेपा पचैवास्तिकवादिन ॥ ७८ ॥ पड्दर्शनसख्या तु पूर्यते तन्मते किल । लोकायतमतक्षेपे कथ्यते तेन तन्मतम् ॥ ७६ ॥ - हरिभद्रीय षड्दर्शनसमुच्चय

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