Book Title: Samdarshi Acharya Haribhadra
Author(s): Jinvijay, Sukhlal Sanghavi, Shantilal M Jain
Publisher: Rajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur

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Page 119
________________ योग-परम्परा मे हरिभद्र की विशेषता १०५ परन्तु वे तो जो गुजराती मे लिखते उसे संस्कृत मे भी लिखते ही थे। उन्होने बत्तीस बत्तीसियां लिखी हैं, और उन सब पर स्वोपज्ञ टीका भी । वे बत्तीसियाँ यानी प्राचार्य हरिभद्र के योग-विषयक ग्रन्थो का नवनीत । उन्होने इन बत्तीसियो का संकलन इस तरह किया है कि जिसमे हरिभद्र के द्वारा प्रतिपादित योग-विषयक समन वस्तु श्रा जाय और विशेप रूप से उन्हे जो कुछ कहना हो उसका भी निरूपण हो जाय । उपाध्यायजी ने अपनी स्वोपज्ञवृत्ति मे अनेक स्थानो पर ऐसे कई मुद्दो का विशेष स्पष्टीकरण किया है जिनका स्पष्टीकरण हरिभद्र की कृतियों की व्याख्या मे कम देखा जाता है। उपाध्यायजी की कृतियो का अवगाहन करनेवाले को दो लाभ है. एक तो यह कि वह उनके विचारो के सीधे परिचय मे आ सकता है, और दूसरा लाभ यह है कि वह उपाध्यायजी के ग्रन्थो के द्वारा ही हरिभद्र की विचारसरणी को पूरी तरह समझ सकता है। उपसंहार भारतभूमि मे दर्शन एवं योगधर्म के बीज तो बहुत पहले ही से बोये गये हैं। उसकी उपज भी क्रमश. बहुत बढती गई है। अपने समय तक की इस उपज का प्राचीन गुजरात के एक समर्थ ब्राह्मण-श्रमरण आचार्य ने जिस तरह संग्रह किया है और उसमे उन्होने अपने निराले ढंग से जो अभिवृद्धि की है, उसके प्रति विशिष्ट जिज्ञासुओ का ध्यान, इस अल्प प्रयास से भी, आकर्षित हुए बिना नही रहेगा ऐसी मेरी श्रद्धा है।

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