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कूल किसी व्यक्तिको उसके कर्मका फल न होने देनेका सामर्थ्य रखता हो, अथवा यों कहिये कि परम भक्तिभावसे की हुई अर्हन्तदेवकी पूजाके अवश्यंभावी फलको, वह अपनी पूजा न होनेके कारण रोक सकता हो । इस लिये शासनदेवताओंकी पूजाके समर्थनमें उक्त युक्तिप्रयोग निर्बल तथा असमीचीन जरूर है और उसे समाजमें उस समय प्रचलित शासनदेवताओंकी पूजाका मूल ग्रंथके साथ सामंजस्य स्थापित करनेका प्रयत्न मात्र समझना चाहिये । परंतु किसीकी श्रद्धाका विषय ही यदि निर्बल हो तो उसे उसके समर्थनार्थ निर्बल युक्तियोंका प्रयोग करना ही पड़ेगा, और इस लिये केवल इन वाक्योंपरसे ही यह नहीं कहा जा सकता कि यह टीका प्रमेयकमलमार्तडादिके कर्ता प्रभाचंद्राचायकी बनाई हुई नहीं है, अथवा नहीं हो सकती। उसके लिये उक्त आचार्य महोदयके माने हुए ग्रंथों (प्रमेयकमलमार्तडादिक ) परसे यह दिखलानेकी जरूरत है कि उनके विचार इस शासनदेवताओंकी पूजाके विरुद्ध थे अथवा ग्रंथके 'साहित्यकी जाँच, आदि दूसरे मार्गोसे ही यह सिद्ध किया जाना चाहिये कि यह टीका उन आचार्यकी बनाई हुई नहीं हो सकती। अभीतक ऐसी कोई बात सामने नहीं आई जिससे शासन देवताओंकी पूजाके विषयमें इन आचार्यकी श्रद्धा तथा विचारोंका कुछ हाल मालूम हो सके और इस लिये दूसरे मार्गोसे ही अब इस बातके जाँचनेकी जरूरत है कि यह टीका उनकी बनाई हुई हो सकती है या कि नहीं।
प्रमेयकमलमार्तड और न्यायकुमुदचंद्र भी, दोनों टीकाग्रंथ हैं-एक श्रीमाणिक्यनन्दी आचार्यके 'परीक्षामुख' सूत्रकी वृत्ति है तो दूसरा भट्टाकलंकदेवके 'लघीयस्त्रय' ग्रंथकी व्याख्या । इन टीकाओंका 'रत्नकरण्डक'की इस टीकाके साथ जब मीलान किया जाता है तो दोनोंमें परस्पर बहुत बड़ी असमानता पाई जाती है। एककी प्रतिपादनशैली-कथन करनेका ढंग-और साहित्य दूसरेसे एकदम भिन्न है, दोनोंके आदि अन्तके पद्योंमें भी परस्पर कोई सादृश्य नहीं देखा जाता, रत्नकरण्डकटीकाके प्रत्येक परिच्छेदके अन्तमें प्रतिपादित विषयकी सूचनादि रूपसे कोई पद्य भी नहीं हैं, प्रमेयकमलमार्तडादिकमें साहित्यकी प्रौढता और अर्थगभीरतादिकी जो बात पाई जाती है वह इस टीकामें नहीं है, और यह बात तो बहुत ही स्पष्ट है कि यह टीका विवेचनोंसे प्रायः शून्य है, जब कि प्रमेय कमलमार्तण्डादिक टीकाएँ प्रायः प्रत्येक विषयके विवेचनोंको लिये हुए हैं और इस टीकाकी तरह शब्दानुवादका अनुसरण करनेवाली अथवा उसीपर अपना प्रधान लक्ष रखनेवाली नहीं हैं। दोनोंकी इस सब विभि
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