________________
१२४
स्वामी समन्तभद्र ।
System) के गुप्ततत्त्वका परिचय प्राप्त करने की इच्छासे एक गुलामके वेषमें दक्षिणकी यात्रा की, वहाँ यह मालूम करके कि कुमारिल ब्राह्मण इस विषयका अद्वितीय विद्वान् है, अपने आपको उसकी सेवामें रक्खा और अपनी सेवासे उसे प्रसन्न करके उससे उक्त दर्शनके गुप्त सिद्धान्तोंको मालूम किया । इस सब कथनसे यह स्पष्ट ध्वनि निकलती है कि धर्मकीर्ति ६३५से पहले ही कुमारिलकी सेवामें पहुँच गये थे, और उस समय कुमारिल वृद्ध नहीं तो प्रायः ४० वर्षकी अवस्थाके अवश्य होंगे। ऐसी हालत में कुमारिलका समय पीछे की ओर ई० सन् ६०० के करीब पहुँच जाता है, और यही समय, ऊपर, समन्तभद्रका बतलाया गया है। दूसरे शब्दोंमें यों कहना चाहिये कि विद्याभूषणजीने, वास्तवमें, समंतभद्र और कुमारिलको प्रायः समकालीन ठहराया है। परंतु कुमारिलने, अपने ' श्लोकवार्तिक' में, अकलंकदेवके ' अष्टशती' ग्रंथ पर, उसके आज्ञाप्रधाना हि.... ' इत्यादि वाक्योंको लेकर, कुछ कटाक्ष किये हैं, ऐसा प्रोफेसर के० बी० पाठक ' दिगम्बर जैन साहित्यमें कुमारिलका स्थानं' नामक अपने निबंधमें, सूचित करते हैं और साथ ही यह प्रकट करते हैं कि कुमारिल अकलंकसे कुछ बाद तक जीवित रहा है, इसीसे जो आक्षेप अष्टशतीके वाक्योंपर कुमारिलने किये उनके निराकरणका अवसर स्वयं अकलंकको नहीं मिल सका, वह काम बादमें अकलंकके शिष्यों (विद्यानंद और प्रभाचंद्र ) को करना पड़ा । उक्त शती' ग्रंथ समंतभद्रके ' देवागम ' स्तोत्रका भाष्य है, यह पहले जाहिर जा चुका है । इससे पाठक स्वयं समझ सकते हैं कि समंतभद्रके एक ग्रंथ के ऊपर कई शताब्दी पीछेके बने हुए भाष्य पर, भाष्यकारकी
6
6
अष्ट
१ ' अष्टशती ' भाष्य कई शताब्दी पीछेका बना हुआ है, यह बात आगे चलकर स्वयं मालूम हो जायगी ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org