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समय-निर्णय ।
१८५ लेके विद्वान् ठहरते हैं और उस वक्त दशपूर्वधारियों जैसे महाविद्वान् मुनिराजोंकी उपस्थितिमें 'कुन्दकुन्दान्वय' के प्रतिष्ठित होनेकी बात कुछ जीको नहीं लगती । इस लिये कुन्दकुन्द उन्हीं भद्रबाहु द्वितीयके शिष्य होने चाहिये जिन्हें प्राचीन ग्रंथकारोंने 'आचारांग' नामक प्रथम अंगके धारियोंमें तृतीय विद्वान् सूचित किया है और पट्टावलीमें जिनके अनन्तर गुप्तिगुप्त, माघनंदी और जिनचंद्रकी कल्पना की गई है । परन्तु पट्टावलीमें इनके आचार्यपदपर प्रतिष्ठित होनेका जो समय वि० सं० ४ दिया है वह कुछ युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होता-वह उस कालगणनाको लेकर कायम किया गया मालूम होता है जिसके अनुसार एकादशांगधारियोंका समय २२० वर्षकी जगह १२३ वर्ष माना गया है और जिसका किसी प्राचीन ग्रंथसे कोई समर्थन नहीं होता । उस समय पट्टोंकी ऐसी कोई व्यवस्था भी नहीं थी जैसी कि वह बादकी परिपाटीको लक्ष्यमें लेकर लिखी हुई पट्टावलियों अथवा गुर्वावलियोंसे पाई जाती है; और न ऐसा कोई नियम था जिससे एक आचार्यकी मृत्युपर उनके शिष्यको चाहे वह योग्य हो या न हो-विरासतमें आचार्य पद दिया जाता हो; बल्कि उस समयकी स्थितिका ऐसा बोध होता है कि जब कोई मुनि आचार्यपदके योग्य होता था तभी उसको आचार्यपद दिया जाता था और इस तरह पर एक आचार्यके समयमें उनके कई शिष्य भी आचार्य हो जाते थे और पृथक् रूपसे अनेक मुनिसंघोंका शासन करते थे; अथवा कोई कोई आचार्य अपने जीवनकालमें ही आचार्य पदको छोड़ देते थे और संघका शासन अपने किसी योग्य शिष्यके सपुर्द करके स्वयं उपाध्याय या साधु परमेष्ठिका पद धारण कर लेते थे। इस लिये बहुत प्राचीन आचार्योंके सम्बंधमें "पट्टावलियोंमें दिये हुए उनके आचार्यपद पर प्रतिष्ठित होनेके समय
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