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स्वामी समन्तभद्र ।
पूछा। उत्तर में योगिराजने यह कह दिया कि ' तुम्हारा यह रागी द्वेषी देव मेरे नमस्कारको सहन नहीं कर सकता। मेरे नमस्कार को सहन करनेके लिये वे जिनसूर्य ही समर्थ हैं जो अठारह दोषों से रहित हैं और केवल - ज्ञानरूपी सत्तेजसे लोकालोकके प्रकाशक हैं । यदि मैंने नमस्कार किया तो तुम्हारा यह देव (शिवलिंग) विदीर्ण हो जायगा — खंड खंड हो जायगा -- इसीसे मैं नमस्कार नहीं करता हूँ ' । इस पर राजाका कौतुक बढ़ गया और उसने नमस्कार के लिये आग्रह करते हुए, कहा - ' यदि यह देव खंड खंड हो जायगा तो हो जाने दीजिये, मुझे तुम्हारे नमस्कारके सामर्थ्यको जरूर देखना है । समंतभद्रने इसे स्वीकार किया और अगले दिन अपने सामर्थ्यको दिखलाने का वादा किया। राजाने 'एवमस्तु ' कह कर उन्हें मंदिर में रक्खा और बाहर से चौकी पहरेका पूरा इन्तजाम कर दिया । दो पहर रात बीतने पर समंतभद्रको अपने वचन - निर्वाहकी चिन्ता हुई, उससे अम्बिकादेवीका आसन डोल गया । वह दौड़ी हुई आई, आकर उसने समंतभद्रको आश्वासन दिया और यह कह कर चली गई कि तुम " स्वयंभुवा भूतहितेन भूतले " इस पदसे प्रारंभ करके चतुर्विंशति तीर्थकरों की उन्नत स्तुति रचो, उसके प्रभावसे सब काम शीघ्र हो जायगा और यह कुलिंग टूट जायगा । समंतभद्रको इस दिव्यदर्शन से प्रसन्नता हुई और वे निर्दिष्ट स्तुतिको रचकर सुखसे स्थित हो गये । सवेरे ( प्रभातसमय ) राजा आया और उसने वही नमस्कारद्वारा सामर्थ्य दिखलाने की बात कही । इस पर समन्तभद्रने अपनी उस महास्तुतिको पढ़ना प्रारंभ किया । जिमवक्त ' चंद्रप्रभ' भगवानकी स्तुति करते हुए ' तमस्तमोरेरिव रश्मिभिन्नं ' यह वाक्य पढ़ा गया उसी वक्त वह 'शिवलिंग' खण्ड खण्ड हो गया और उस स्थान से 'चंद्रप्रभ' भगवानकी चतुर्मुखी प्रतिमा महान्
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