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गुणादिपरिचय। ओरसे मंगल तथा कल्याणको प्रदान करनेवाली होवे, इस प्रकारके आशीर्वाद भी दिये हैं।
कार्यादेर्भेद एव स्फुटमिहनियतः सर्वथाकारणादेरित्यायेकान्तवादोद्धततरमतयः शांततामाश्रयन्ति । . प्रायो यस्योपदेशादविघटितनयान्मानमूलादलंध्यात्
स्वामी जीयात्स शश्वत्प्रथिततरयतीशोऽकलंकोरुकीर्तिः॥ अष्टसहस्रीके इस पद्यमें लिखा है कि वे स्वामी ( समंतभद्र ) सदा जयवंत रहें जो बहुत प्रसिद्ध मुनिराज हैं, जिनकी कीर्ति निर्दोष तथा विशाल है और जिनके नयप्रमाणमूलक अलंध्य उपदेशसे वे महाउद्घतमति एकान्तवादी भी प्रायः शान्तताको प्राप्त हो जाते हैं जो कारणसे कार्यादिकका सर्वथा भेद ही नियत मानते हैं अथवा यह स्वीकार करते हैं कि वे कारण कार्यादिक सर्वथा अभिन्न ही हैं--एक ही हैं।
येनाशेषकुनीतिवृत्तिसरितः प्रेक्षावतां शोषिताः यद्वाचोऽप्यकलंकनीतिरुचिरास्तत्त्वार्थसार्थद्युतः। स श्रीस्वामिसमन्तभद्रयतिभृद्भूयाद्विभुर्भानुमान् विद्यानंदघनप्रदोऽनघधियां स्याद्वादमार्गाग्रणीः ॥ अष्टसहस्रीके इस अन्तिम मंगल पद्यमें श्रीविद्यानंद आचार्यने, संक्षेपमें, समंतभद्रविषयक अपने जो उद्गार प्रकट किये हैं
१ अष्टसहस्रीके प्रारंभमें जो मंगल पद्य दिया है उसमें समंतभद्रको 'श्रीवर्द्धमान, 'उद्भूतबोधमहिमान्' और 'अनिंद्यवाक्' विशेषणों के साथ अभिवंदन किया है । यथा
श्रीवर्द्धमानमभिवंद्यसमंतभद्रमुद्भुतबोधमहिमानमनियवाचम् । . शास्त्रावताररचितस्तुतिगोचराप्तमीमांसितं कृतिरलंक्रियते मयास्य ॥
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