Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
View full book text
________________
व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ १०८५
"अन्वय-व्यतिरेक-समधिगम्यो हि सर्वत्र कार्यकारण भावः। तौ च कार्यप्रति कारण-व्यापार-सव्यपेक्षावेवोपपद्यते कुलालस्येव कलशम्प्रति । यथा कुलालस्य कलशं प्रत्यन्वयध्यतिरेकत्वं वर्तते, यतः सति कुलाले कलशस्योत्पत्तिर्जायते, अन्यथा न जायते । व्यापारस्यव्यपेक्षौ यथा।"(प्र. रत्नमाला)
सर्वत्र कार्य-कारणभाव अन्वय-व्यतिरेक से जाना जाता है । सो ये दोनों ( अन्वय और व्यतिरेक ) कार्य के प्रति कारण के व्यापार की अपेक्षा में ही घटित होते हैं। जैसे कि कुम्भकार का घट के प्रति अन्वय-व्यतिरेक पाया जाता है । कुम्भकार होने पर ही कलश की उत्पत्ति होती है और कुम्भकार के अभाव में कलश की उत्पत्ति नहीं होती है । ( प्रमेय रत्नमाला पृ० १८५)
"अन्वयव्यतिरेकसमधिगम्यो हि हेतफलभावः सर्वम् ।" ( मूलाराधना पृ० २३ )
जगत् में पदार्थ का सम्पूर्ण कार्य-कारणभाव अन्वय-व्यतिरेक से जाना जाता है। इस अन्वय-व्यतिरेक की दृष्टि से ही श्री अमृतचन्द्राचार्य को पुरुषार्थसिद्धय पाय श्लोक २१८ में सम्यक्त्व और चारित्र को तीर्थकर व आहारकशरीर के बन्ध के लिए उदासीन अर्थात् अप्रेरक कारण स्वीकार करना पड़ा। जब भी अमृतचन्द्राचार्य स्वयं तत्त्वार्थसार में बंध के प्रति सम्यक्त्व की हेतुता ( कारणता ) स्वीकार कर चुके हैं फिर पुरुषार्थसिद्धय पाय में वे उसका विरोध कैसे कर सकते थे।
यद्यपि पुत्र की उत्पत्ति माता व पिता दो के संयोग से होती है, न मात्र माता से पुत्रोत्पत्ति होती है और न मात्र पिता से पुत्रोत्पत्ति होती है, किन्तु जब वह पुत्र अपने पितामह ( बाबा ) के यहाँ रहता है तो वह अपने पिता का पुत्र कहलाता है और जब वही पुत्र अपने नाना के यहाँ चला जाता है तो वह अपनी माता का कहलाता है। ( यथा स्त्री-पुरुषाभ्यां समुत्पन्नः पुत्रोविवक्षावशेन देववत्तायाः पुत्रोयं केचन वदंति, देवदत्तस्य पुत्रोऽयमिति केचन ववंति दोषो नास्ति ( समयसार पृ० १०१ ) इसीप्रकार सम्यक्त्त्व और राग दोनों के संयोग से तीर्थंकरप्रकृति का बन्ध होता है और चारित्र व राग इन दोनों के संयोग से आहारकशरीर का बन्ध होता है। मात्र राग से या मात्र चारित्र व सम्यक्त्व से बन्ध नहीं होता है। इनप्रकृतियों के बन्ध कारणों में कहीं पर राग को गौण करके सम्यक्त्व व चारित्र को मुख्य करके कथन कर दिया जाता है और कहीं पर सम्यक्त्व व चारित्र को गौण करके राग को मुख्य करके कथन कर दिया जाता है । नयवेत्तानों के लिये इन दोनों कथनों में कोई विरोध नहीं है । कहा भी है
सम्यक्त्वचारित्राभ्यां तीर्थकराहारकर्मणो बन्धः ।
योऽप्युपविष्टः समये न मयविवां सोऽपि दोषाय ॥२१७॥ पुरुषार्थ सिद्धच पाय द्वादशांग में अथवा तत्त्वार्थसारादि शास्त्रों में जो यह उपदेश दिया गया है कि तीर्थकरप्रकृति व आहारकशरीरप्रकृति का बन्ध सम्यक्त्वचारित्र से होता है, वह उपदेश भी नयवेत्ताओं को दोष के लिये नहीं है।
तीथंकरप्रकृति का बन्ध सम्यक्त्व व राग दोनों से होता है और आहारकद्विक का बन्ध संयम व राग इन दो से होता है, न मात्र राग से या मात्र सम्यग्दर्शन व संयम से बन्ध नहीं होता है, क्योंकि दोनों से ही उत्पन्न होने वाले कार्य की उनमें से एक के द्वारा उत्पत्ति का विरोध है।
"दोहितो चेवुष्पज्जमाणकज्जस्त तत्थेक्कादो समुप्पत्ति विरोहादो।" ( धवल पु० ८ ० ८३ )
वीतराग निर्विकल्प समाधि में बुद्धिपूर्वक राग का अभाव हो जाने से वहाँ पर जो बन्ध होता है वह कर्मोदयवश से उत्पन्न हुए प्रबुद्धिपूर्वकराग से होता है। वीतरागसम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र से बन्ध नहीं होता है। इसी दृष्टि से पुरुषार्थसिद्धय पाय में श्लोक २११ से २२२ तक कथन किया गया है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org