Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan

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Page 625
________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ १४८९ अर्थ-प्राणियों पर दया भाव रखना, यह धर्म का स्वरूप है । वह धर्म गृहस्थ (श्रावक ) और मुनि के भेद से दो प्रकार का है। वही धर्म सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यकचारित्र रूप उत्कृष्ट रत्नत्रय के भेद से तीन प्रकार का है। वही धर्म उत्तम क्षमादि के भेद से दस प्रकार का है। मोहनीय कर्म के निमित्त से उत्पन्न होने वाले मानसिक विकल्पसमूह ( मोह-क्षोभ ) से रहित तथा वचन एवं शरीर के संसर्ग से भी रहित जो शुद्ध प्रानन्द रूप मात्मा की परिणति होती है, वह धर्म नाम से कही जाती है । "भावपाहुड़' गाथा ८१ में श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने दसवें गुणस्थान तक के रत्नत्रय रूपी धर्म को पुण्य की संज्ञा दी है, क्योंकि इससे सातिशय पुण्य का बन्ध होता है और वह तीर्थकर प्रकृति प्रादिरूप पुण्य-बन्ध मोक्ष के लिये सहकारी होता है । गाथा ८१ की टीका में श्री श्रुतसागर आचार्य ने कहा है 'सर्वज्ञवीतराग-पूजालक्षणं तीर्थकरनामगोन-बंधकारणं विशिष्टं निनिदान-पुण्यं पारम्पर्येण मोक्ष-कारणं गृहस्थानां श्रीमदभिर्भणितं।' अर्थ-आचार्यों ने गृहस्थियों के ऐसा विशिष्ट पुण्य बतलाया है जो तीर्थंकर नामकर्म के बन्ध का कारण है और परम्परा से मोक्ष का कारण है । उस विशिष्ट पुण्य का लक्षण सर्वज्ञ वीतराग की पूजा है। इस प्रकार 'भावपाहु' गाथा ८१ से यह सिद्ध होता है कि पुण्य मोक्ष का कारण है। 'भावपाहुड' की गाथा ८२ इस प्रकार है सद्दहदि य पत्तेदिय रोचेदि य तह पुणो वि फासेदि । पुण्णं भोयणिमित्तं ण हु सो कम्मक्खयणिमित्त ॥२॥ इसकी संस्कृत टीका यों है 'बद्दधाति च तत्र विपरीताभिनिवेशरहितो भवति । प्रत्येत्ति च मोक्षहेतुभूतत्वेन यथावत्तत्प्रतिपद्यते । रोचते च मोक्षकारणतया तत्रैव रुचि करोति । मोथित्वात्तत्साधनतया स्पृशति अवगाहयति । एतत्पूजाविलक्षणं पुण्यं मोक्षाथितया क्रियमाणं साक्षात् भोगकारणं स्वर्गस्त्रीणामालिंगनादिकारणं तृतीयादिभवे मोक्षकारणं निर्गलिगेन । न भवति स्फुटं निश्चयेन साक्षात्तद्भवे गृहलिगेन कर्मक्षयनिमित्त-तद्भवे केवलज्ञानपूर्वकमोक्षनिमित्त पुण्यं न भवतीति ज्ञातव्यं ।' अर्थात्-गृहस्थ श्रद्धान करता है, रुचि करता है, प्रतीति करता है, स्पर्श करता है, कि पुण्य मोक्ष का हेतु है, कारण है, साधन है। मोक्षार्थी द्वारा किया गया पूजा आदि रूप पुण्य साक्षात् स्वर्गादि के भोगका कारण है। तीसरे भव में निर्ग्रन्थ लिंग द्वारा मोक्ष का कारण है। यह निश्चित है कि ग्रहस्थ के उसी भवसे वह पण्य कर्म निमित्त नहीं होता है । अर्थात् उसी गृहस्थ भवसे केवलज्ञानपूर्वक मोक्ष नहीं होता है, ऐसा जानना चाहिये । मोक्ष का साक्षात् कारण मुनिलिंग-निर्ग्रन्थ लिंग है, गृहस्थलिंग साक्षात् कारण नहीं है। इस गाथा में तो यह बतलाया है कि गृहस्थ का जिनपूजादिरूप पुण्य परम्परासे मोक्ष का कारण है, क्योंकि गृहस्थलिंग से मोक्ष नहीं हो सकता, इसलिये वह पुण्य साक्षात् मोक्षका कारण नहीं है। इसी 'भावपाड़' की गापा १५१ में श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने कहा है कि जिनेन्द्र की भक्ति रूपी पुण्य से संसार के मूल का नाश होता है । वह गाथा इस प्रकार है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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