Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan

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Page 617
________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ १४८१ जीव और पुद्गल धर्मद्रव्य के सद्भाव में ही गमन करते हैं, उसके अभाव में वे गमन नहीं कर सकते इसलिये गतिहेतुत्व लक्षण वाला धर्मद्रव्य जीव और पुद्गल की गति में उदासीन कारण है, प्रेरक कारण नहीं है। उसी प्रकार सम्यक्त्व व चारित्र के सद्भाव में ही योग और कषाय तीर्थंकर प्रकृति आदि का बन्ध कर सकते हैं और सम्यक्त्व व चारित्र के प्रभाव में योग व कषाय उसका बन्ध नहीं कर सकते, इसीलिये धर्मद्रव्य के समान सम्यक्त्व व चारित्र को उदासीन कारण कहा है, प्रेरक कारण नहीं कहा है। इस प्रकार श्री अमृतचन्द्र आचार्य के 'तत्त्वार्थसार' व 'पुरुषार्थसिद्धय पाय' इन दोनों ग्रन्थों के कथनों में कोई विरोध नहीं है । जिनको नय-विवक्षा का ज्ञान नहीं है अथवा जिनकी एकान्तदृष्टि है, उनको ही श्री अमृतचन्द्र आचार्य के दोनों कथनों में विरोध प्रतिभासित होता है। शंकाकार ने जो 'पुरुषार्थसिद्धच पाय' का श्लोक २१५ अपनी शंका में उद्धृत किया है उससे भी 'तत्त्वार्थसार' के इस कथन में कि दर्शन व चारित्र से तीर्थंकर आदि का बन्ध होता है, कोई बाधा नहीं आती, क्योंकि श्लोक २१५ में शुद्ध निश्चय नय की अपेक्षा कथन है । 'सव्वे सुद्धाहु सुद्धणया' अर्थात् शुद्ध निश्चय नयसे सब जीव शुद्ध हैं अथवा 'सुद्धणया सुद्धभावाणं' शुद्ध नय से जीव शुद्ध भावों का कर्ता है अर्थात् बन्ध का कर्ता नहीं है। श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने भी कहा है कि रत्नत्रय से बंध भी होता है और मोक्ष भी होता है दसणणाणचरित्ताणि मोक्खमग्गो त्ति सेविदव्याणि । साधूहि इदं मणिवं तेहिं दु बंधो व मोक्खो वा ॥१६४॥ ( पंचास्तिकाय ) अर्थ-दर्शन-ज्ञान-चारित्र मोक्षमार्ग हैं, इसलिये वे सेवने योग्य हैं ऐसा साधुओं ने कहा है परन्तु उनसे बंध भी होता है और मोक्ष भी होता है । इसकी टीका में अमृतचन्द्राचार्य ने कहा है 'यह दर्शन-ज्ञान-चारित्र यदि अल्प भी पर-समय प्रवृत्ति के साथ मिलित हों ( यदि दर्शन-ज्ञान-चारित्र पर-समय अर्थात् ये तीनों अन्तरात्मा के आश्रय हों ) तो, अग्नि के साथ मिलित घृतकी भांति, कथंचित् विरुद्ध कार्य के कारणपने की व्याप्ति के कारण, बन्ध के कारण भी हैं। जब वे दर्शन-ज्ञान-चारित्र समस्त परसमय ( अन्तरात्मा ) की प्रवृत्ति से निवृत्त होकर स्वसमय ( परमात्मा ) की प्रवृत्ति के साथ संयुक्त होते हैं तब, अग्नि के मिलाप से निवृत्त घी के समान, विरुद्ध कार्य-कारण भाव का प्रभाव होने से, साक्षात् मोक्ष का कारण होते हैं। _इस प्रकार अन्तरात्मा के आश्रित जो सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र हैं, वे बंध के भी कारण हैं और संवरनिर्जरा के भी कारण हैं तथा परम्परया मोक्ष के भी कारण हैं। शंकाकार का यह कहना कि सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र मोक्ष के ही कारण हैं, बंध के कारण नहीं हैं, ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा एकान्त नहीं है। (७) शुभ परिणामों से अतिशय पुण्यबंध शंका-शुभ परिणामों से पुण्यबन्ध होता है । पुष्य से भोगोपभोग की सामग्री मिलती है। भोगोपभोग में आसक्त होकर जीव संसार में भ्रमण करता है, अतः पुण्य हेय है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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