Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan

View full book text
Previous | Next

Page 630
________________ १४६४ ] [पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : 'क्रोधमानमायालोमानां तीवोदये चित्तस्य क्षोभः कालुष्यम् । तेषामेव मंदोदये तस्य प्रसादोऽकालुष्यम् । तत् कदाचित् विशिष्ट कषाय-क्षयोपशमे सत्यज्ञानिनो भवति ।' पञ्चास्तिकाय गा० १८० टीका अर्थ-क्रोध, मान, माया और लोभ के तीव्र उदय से चित्त का क्षोभ सो कलुषता है। उन्हीं क्रोध प्रादि के मंदोदय से चित्त की प्रसन्नता सो अकलुषता (विशुद्धि ) है। यह अकलुषता कदाचित् कषाय का विशिष्ट क्षयोपशम होने पर अज्ञानी के होती है । यह कथन तो श्री अमृतचन्द्राचार्य की टीकानुसार किया गया है। अब श्री जयसेन आचार्य की टीका के अनुसार कथन किया जाता है 'तस्य कालुष्यस्य विपरीतमकालुष्यं भव्यते । तच्चाकालुष्यं पुण्यानवकारणभूतं कदाचिदनंतानुबंधिकषायमंदोदये सत्यज्ञानिनो भवति ।' ( पञ्चास्तिकाय गा. १८० श्री जयसेन की टीका) अर्थ-कालुष्यता की प्रतिपक्षी अकालुष्यता है। वह अकालुष्यता पुण्य ( सातावेदनीय आदि ) कर्म का कारण है । कदाचित् अनन्तानुबन्धी कषाय के मन्दोदय में यह अकालुष्यता अज्ञानी के भी होती है । इससे यह भी सिद्ध होता है कि कालुष्यता प्रसाता आदि पाप कर्म के आस्रव का कारण है। इसी बात को श्री वीरसेन आचार्य कहते हैं'को संकिलेसो णाम? असावबंधजोग्गपरिणामो संकिलेसो णाम । का विसोही? सादबंधजोग्गपरिणामो।' [धवल पु० ६, पृ० १८० ] अर्थ-संक्लेश नाम किसका है ? असाता के बन्धयोग्य परिणाम को संक्लेश कहते हैं। विशुद्धि नाम किसका है ? साता के बन्धयोग्य परिणामों को विशुद्धि कहते हैं। 'परियत्तमाणियाणं साद-थिर-सुभ-सुभग-सुस्सर-आवेज्जावीणं सुभपयडीणं बंधकारणभूवकसायट्ठाणाणि विसोहिट्ठाणाणि, असाद-अथिर-असुह-दुभग-दुस्सर अणादेज्जादीणं परियत्तमाणियाणमसुहपयडीण बंधकारणकसायउदयटाणाणि संकिलेसट्टाणाणि त्ति एसो तेसिं भेदो।' (धवल पु. ११, पृ. २०८) अर्थ-साता, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर और प्रादेय आदिक परिवर्तमान शुभ प्रकृतियों के बन्ध के कारणभूत कषायस्थानों को विशुद्धि स्थान कहते हैं । असाता, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर और अनादेय आदि के परिवर्तमान अशुभ प्रकृतियों के बन्ध के कारणभूत कषाय के उदयस्थानों को संक्लेशस्थान कहते हैं। यह संक्लेश और विशुद्धि में अन्तर है। यद्यपि संक्लेश और विशुद्ध परिणामों को अशुभ और शुभ कहा जा सकता है तथापि ऐसा कथन प्रायः नहीं पाया जाता है । मिथ्यादृष्टि के संक्लेश तथा विशुद्ध परिणामों को अशुभ और सम्यग्दृष्टि के संक्लेश व विशुद्ध परिणामों को शुभ कहा जाता है । बहुधा ऐसा कथन पाया जाता है । ( देखो प्रवचनसार गाथा ९ की श्री जयसेन आचार्य कृत टीका) मिथ्यादृष्टि जीव को भी विशुद्ध परिणाम हितकारी हैं क्योंकि विशुद्ध परिणामों के कारण मिध्यादृष्टि दुर्गति के दुःखों से बच जाता है और उसे यथार्थ देव गुरु शास्त्र की रुचि होती है जिससे सम्यक्त्व की प्राप्ति हो जाती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 628 629 630 631 632 633 634 635 636 637 638 639 640 641 642 643 644 645 646 647 648 649 650 651 652 653 654 655 656 657 658 659 660 661 662 663 664