Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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विभिन्न अनुयोगों की अपेक्षा परिग्रह की व्याख्या
शंका- भरत महाराज के पास में तीन खण्ड की सामग्री तथा छियानवे हजार स्त्रियाँ होते संते उनको वैरागी कौनसा अनुयोग कहता है ? और एक भिखारी के पास में परिग्रह नहीं है तो भी उनको महापरिग्रहधारी कौनसा अनुयोग कहता है ?
[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
क्षेत्र, वास्तु, हिरण्य और सुवर्ण आदि दस प्रकार का परिग्रह कौनसे अनुयोग की अपेक्षा से किया गया है और मूर्च्छा परिग्रह कौन से अनुयोग की अपेक्षा से किया है ?
समाधान-भरतजी महाराज चक्रवर्ती थे अतः वे तीनखण्ड के नहीं, किन्तु भरतक्षेत्र के छहों खण्डों के राजा थे । भरतजी महाराज सम्यग्दृष्टि थे, वे बाह्य परिग्रह में लीन नहीं थे । इस अपेक्षा से प्रथमानुयोग में उनको वैरागी ( वीतरागी ) कहा है । मो० मा० प्र० अ० ८ में इसप्रकार कहा है- "बहुरि कहीं जो शब्द का अर्थ होता होई सो तो न ग्रहण करना । श्रर तहाँ जो प्रयोजनभूत अर्थ होय सो ग्रहण करना जैसे कहीं किसी का अभाव का होय र तहाँ किचित् सद्भाव पाइए, तौ तहाँ सर्वथा अभाव ग्रहण न करना । किंचित् सद्भाव को न गिण अभाव का है, ऐसा अर्थ जानना । सम्यकदृष्टि के रागादिक का प्रभाव कह्या तहाँ ऐसा श्रर्थं जानना ।" भिखारी के पास परिग्रह न होते हुए भी परिग्रह की इच्छा अधिक है अतः उसको प्रथमानुयोग, चरणानुयोग आदि ग्रन्थों में परिग्रही कहा है ।
क्षेत्र, वास्तु आदि को और मूर्च्छा को परिग्रह, चरणानुयोग कहता है । सर्वार्थसिद्धि अ० ७ ० १७ में कहा है मूर्छा परिग्रहः ||१७|| का मूर्छा ? बाह्यानां गोमहिषमणिमुक्ताफलादीनां चेतनाचेतनानामाभ्यन्तराणां च रागादीनामुपाधिनां संरक्षणार्जनसंस्कारादिलक्षणाव्यावृत्तिमूर्छा । अर्थ- मूर्छा परिग्रह है ॥१७॥ मूर्छा क्या है ? गाय, भैंस, मरिण और मोती आदि चेतन प्रचेतन बाह्यउपाधि का तथा रागादिरूप श्राभ्यन्तर उपाधि का संरक्षण, अर्जन और संस्कार श्रादि व्यापार ही मूर्छा है । क्षेत्र, वास्तु आदि बाह्यपदार्थ मूर्छा के श्राश्रयभूत हैं अतः इनको परिग्रह कहा है और इनका निषेध किया है। कहा भी है— तह किमर्थी बाह्यवस्तुप्रतिषेधः । अध्यवसान प्रतिषेधार्थः । अध्यवसानस्य हि बाह्यवस्तु आश्रयभूतं । न हि बाह्यवस्त्वनाश्रित्य अध्यवसानमात्मनं लभते । अर्थबाह्यवस्तु का निषेध किसलिये किया जाता है ? श्रध्यवसान के निषेध के लिये बाह्यवस्तु का निषेध किया जाता है । अध्यवसान को बाह्यवस्तु प्राश्रयभूत है, बाह्यवस्तु का प्राश्रय किये बिना श्रध्यवसान अपने स्वरूप को प्राप्त नहीं होता ( उत्पन्न नहीं होता ) ।
- जै. सं. 23-5-57 / .... / जैन. स्था. मण्डल, कुचामन
धर्म से वास्तविक शान्ति तथा भोग-सामग्री दोनों मिलते हैं
शंका- धर्म से क्या वास्तविक शांति ही मिलती है, भोग सामग्री क्या नहीं मिलती ?
समाधान — धर्म से वास्तविक शांति तो मिलती ही है, किन्तु भोग सामग्री भी मिलती है। जिन भावों
से मोक्षसुख मिलता है उन भावों से स्वर्गसुख मिलना तो कोई कठिन बात नहीं है । जिसमें दो कोस ले चलने की शक्ति है वह आधा कोस तो सुखपूर्वक ले चल सकता है। कहा भी है
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'यत्र भावः शिवं दत्त द्यौः कियद्दूरवर्तिनी ।
यो न्यत्याशु गति कोशाधें कि सीदति ? ॥४॥ ' ( इष्टोपदेश )
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