Book Title: Pushkarmuni Abhinandan Granth
Author(s): Devendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
Publisher: Rajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन अन्य : पंचम खण्ड
बुद्धि, लक्ष्मी, इला, सुरा, रस और गन्ध इन दस देवियों के नाम मिलते है। उमास्वाति आदि आचार्यों ने भी इनमें से कतिपय देवियों का नामोल्लेख किया है। उत्तरकाल में यक्ष, यक्षिणियों; शासन देवी-देवताओं तथा चैत्यवृक्षों की भी कल्पना समाहित हो गई। इतना ही नहीं, धारिणी, चामुण्डा, घटकर्णा, कर्ण पिशाचिनी, भैरव, पद्मावती आदि जैसी वैदिक-बौद्ध परम्पराओं में मान्य देवी-देवताओं की उपासना से भी जैन परम्परा बच नहीं सकी। आकाशगामिनी जैसी विद्याओं की भी सिद्धि की जाने लगी। प्रतिष्ठा, विधि-विधान आदि ग्रन्थों के अतिरिक्त निर्वाणकलिका, रहस्यकल्पद्र म, सूरिमन्त्रकल्प आदि शताधिक छोटे-मोटे ग्रन्थ भी रचे गये। स्तोत्रों की भी एक लम्बी परम्परा इसी यन्त्र-मन्त्र परम्परा से अनुस्यूत है।
समूची मान्त्रिक परम्परा के समीक्षण से यह स्पष्ट हो जाता है कि भिक्षु को मूलतः मन्त्रादिक तत्वों से दूर रहने की व्यवस्था थी। पर उत्तरकाल में प्रभावना आदि की दृष्टि से जैनेतर परम्पराओं का अनुकरण किया गया । इस अनुकरण की एक विशेषता दृष्टव्य है कि जैन मन्त्र परम्परा ने कभी अनर्गल आचरण को प्रश्रय नहीं दिया। लौकिकता को ध्यान में रखते हुए भी वह विशुद्ध आध्यात्मिकता से दूर नहीं हटी। इसलिए वह विलुप्त और पथभ्रष्ट भी नहीं हो सकी।
जहाँ तक योग का प्रश्न है, हम कह सकते हैं कि जैनयोग जहाँ समाप्त होता है वैदिक और बौद्ध योग वहाँ प्रारम्भ होता है । हठयोग की परम्परा से जैनयोग का कोई मेल नहीं खाता, फिर भी लौकिक आस्था को ध्यान में रखकर उत्तरकालीन आचार्यों ने उसके कुछ रूपों को आध्यात्मिकता के साथ सम्बद्ध कर दिया। जैनयोग के क्षेत्र में यह विकास आठवीं-नवमी शताब्दी से प्रारम्भ हो जाता है और बारहवीं शताब्दी तक यह परिवर्तन अधिक लक्षित होने लगता है । आचार्य सोमदेव, हेमचन्द्र, शुभचन्द्र आदि मनीषियों ने जैनयोग को वैदिक और बौद्धयोग की ओर खींच दिया। धर्मध्यान के अन्तर्गत आने वाले, आज्ञा, अपाय, विपाक और संस्थान विचय के स्थान पर पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ
और रूपातीत ध्यानों की परिकल्पना कर दी गई। पाथिबी, आग्नेयी, वायवी और मारुती धारणाओं ने ज्ञान, दर्शन, चारित्र और भावना का स्थान ग्रहण कर लिया। प्राणायाम, काल ज्ञान और परकाया प्रवेश जैसे तत्वों का शुभचन्द्र और हेमचन्द्र ने खुलकर अपना उल्लेख किया । सोमदेव इस प्रकार के ध्यान को पहले ही लौकिक ध्यान की संज्ञा दे चुके थे। इसलिए चमत्कार-प्रदर्शन की ओर कुछ मुनियों का झुकाव भी हो गया। यन्त्र-मन्त्र-तन्त्र की साधना ने आध्यात्मिक साधना को पीछे कर दिया। प्रतिष्ठा और विधान के क्षेत्र में बीसों यन्त्रों की संरचना की गई। कोष्ठक आदि बनाकर उनमें विविध मन्त्रों को चित्रित किया जाने लगा। प्रसिद्ध यन्त्रों में ऋषिमण्डल, कर्मदहन, चौबीसी मण्डल, णमोकार, सर्वतोभद्र सिद्धचक्र, शान्तिचक्र आदि अड़तालीस यन्त्रों का नाम उल्लेखनीय है । जैन-बौद्ध योग साधना की तुलना
बौद्धधर्म में वर्णित उपयुक्त ध्यान के स्वरूप पर विचार करने से यह स्पष्ट है कि बौद्धधर्म में ध्यान को मात्र निर्वाण साधक माना है पर जैन धर्मोक्त ध्यान संसार और निर्वाण दोनों के साधक हैं । जैन धर्म के प्रथम दो ध्यान संसार के परिवर्धक हैं और अन्तिम दो ध्यान निर्वाण के साधक हैं। धर्मध्यान शुभध्यान है और शुक्लध्यान शुद्धध्यान है । शुक्लध्यान का पृथक्त्ववितर्क ध्यान मन, वचन, काय इन तीन योगों के धारी आठवें गुणस्थान से ग्यारहवें गुणस्थान तक के जीवों के होता है। द्वितीय एकत्ववितर्क ध्यान तीनों में से किसी एक योग के धारी बारहवें गुणस्थानवर्ती जीव के होते हैं । तृतीय सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति ध्यान मात्र काययोग के धारण करने वाले तेरहवें गुणस्थान के अन्तिम भाग में होता है और चतुर्थ व्युपरतक्रियानिवति ध्यान योग रहित (अयोगी) जीवों के चौदहवें गुणस्थान में होता है।
तत्त्वार्थ सूत्रकार आचार्य उमास्वाति ने वितर्क को श्रु तज्ञान कहा है और अर्थव्यञ्जन तथा योग का बदलना विचार बताया है।" प्रथम पृथकत्ववितर्क शुक्लध्यान वितर्क-विचार युक्त होता है और द्वितीय एकत्ववितर्क विचाररहित और वितर्कसहित मणि की तरह अचल है। प्रथम शुक्लध्यान प्रतिपाति और अप्रतिपाती, दोनों होता है। बौद्धधर्म में वितर्क की अपेक्षा विचार का विषय सूक्ष्म माना गया है। उसकी वृत्ति भी शान्त मानी गई है। प्रथम शुक्लध्यान में वितर्क और विचार, दोनों का ध्यान किया गया है। द्वितीय शुक्लध्यान में विचार नहीं है। बौद्धधर्म में सभी ध्यान प्रतिपाति कहे गये हैं जबकि जैनधर्म में प्रथम ध्यान ही प्रतिपाति और अप्रतिपाती, दोनों हैं।
आर्तध्यान और रौद्रध्यान के संदर्भ में बौद्धधर्म में स्पष्ट रूप से कुछ नहीं मिलता पर चित्त के प्रकारों में हम उसका रूप पा सकते हैं । सराग, सदोष सम्मोह आदि जो अकुशल मूलक चित्त हैं उनसे राग-द्वेषादि भावों को उत्पत्ति होती है । कामच्छंद, व्यापाद, स्त्यानगृद्धि, औद्धत्य-कौकृत्य और विचिकित्सा से पांच नीवरण भी उत्पन्न होते हैं । ऐसे ही संयोजन, क्लेश, मिथ्यात्व आदि धर्मों को प्रहातव्य माना गया है। मैत्री, करुणा, प्रमोद और माध्यस्थ ये चार भावनायें
SANSAR
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