Book Title: Pushkarmuni Abhinandan Granth
Author(s): Devendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
Publisher: Rajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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योग : स्वरूप और साधना
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से मुक्ति प्राप्ति करना, बहुत ही सहज बताया गया है । इन संकेतों के सम्बन्ध में आधुनिक युग में दो प्रकार के मत हैं । एक वर्ग यह मानता है कि ये सभी बातें साहित्यिक अतिशयोक्तियाँ हैं; वस्तुतः इनमें कोई तथ्य नहीं है । दूसरा मत यह है कि पूर्वजों ने जो बातें कहीं हैं वे अक्षरशः सत्य हैं, उनमें कोई शंका नहीं करनी चाहिए। इस सम्बन्ध में हमारा निवेदन है कि इस प्रकार के संकेतों को 'त्याग' अथवा 'ग्रहण करने से पूर्व, बौद्धिक विवाद में न पड़ते हुए, उन्हें प्रायोगिक कसौटी पर कसना चाहिए । आज विश्व में करोड़ों लोग आसन-प्राणायाम का उपयोग करते हैं । परन्तु प्रयोगात्मक सिद्धान्त के लिए किसी एक आसन को तीन साल, छः साल, नौ साल, बारह साल तक एक घंटा, दो घंटे, तीन घंटे नियमित रूप से करने वाले कितने लोग हैं ? जबकि हठयोग साहित्य में इस प्रकार के काल और अभ्यास का स्पष्ट निर्देश है । हठयोग के इस प्रभाव की जाँच-पड़ताल के लिए कई स्थानों पर वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं को स्थापना हुई है और जहाँ तक प्रामाणिक रूप से योग अभ्यासी उपलब्ध हुए हैं वहाँ तक योग सिद्धान्तों की पुष्टि में कोई अड़चन उत्पन्न नहीं हुई है। परन्तु जहाँ पर्याप्त और अनुकूल साधक ही उपलब्ध नहीं हैं, वहाँ प्रयोग अधूरे पड़े हुए हैं । अधूरे प्रयोगों के निष्कर्ष तो त्रुटिपूर्ण ही होंगे या भ्रान्तियाँ निर्माण करेंगे।
हठयोग में शोधन क्रियाओं का विस्तार से वर्णन किया गया है। वास्तव में शोधन क्रियाओं के बाद ही आसन तथा प्राणायाम करने का निर्देश है । स्थूल रूप से शोधन क्रियायें शरीर की तत्कालीन अनियमितताओं से मुक्ति कराने के लिए हैं । परन्तु वास्तव में इनका प्रभाव बड़ी सूक्ष्मता के साथ शरीर पर पड़ता है। आवश्यकता इस बात की है कि इस प्रभाव का आसन-प्राणायामों की तरह ही, वैज्ञानिक रूप से, समायोजन और संशोधन किया जाय । आसन और प्राणायाम की तरह अधिकार के साथ 'शोधन-क्रिया' सिद्ध करने वाले व्यक्ति समाज में क्यों नहीं होने चाहिए?
अष्टांग योग की श्रेणियों में 'प्रत्याहार' के सम्बन्ध में बहुत कम लिखा गया है। वास्तव में प्रत्याहार, अपरिग्रह तथा यम-नियम आदि एक ही दृष्टिकोण के विविध आयाम हैं । परन्तु ये बातें शास्त्रों की शोभा बढ़ाने के लिए नहीं कही गयीं । दार्शनिक, मनोवैज्ञानिक, समाजशास्त्री आदि इस बात को मान्य करते हैं कि मनुष्य के अन्तर्मन में ये जीवन मूल्य निहित हैं अर्थात् मनुष्य स्वभावत: अहिंसक, सत्यभाषी, ब्रह्मचारी, आदि है परन्तु सामाजिक वातावरण और परिस्थितियों के कारण वह हिंसा, असत्यता आदि सीखता है। तर्कशास्त्र के अनुसार जो बातें सीखी जा सकती हैं वे भुलाई भी जा सकती हैं। प्रत्याहारमय जीवन जीने वाले कुछ आदर्श व्यक्ति प्रत्येक समाज में होते आये हैं, जिन्हें हम ऋषि, मुनि, पीर, फकीर, सेंट, मोंक, भिक्ष, आदि कहते हैं। ये व्यक्ति अपने-अपने समाजों के लिए प्रेरणास्रोत रहे हैं। परन्तु जब ये व्यक्ति अपने उत्तरदायित्व का निर्वाह नहीं करें तो शास्त्रों का दोष नहीं है। समाज में आज एक ऐसा वर्ग भी है जो किसी सम्प्रदाय या शास्त्र को नहीं मानता है परन्तु आधारभूत नैतिक मूल्यों की आवश्यकता को वह चरम सीमा तक स्वीकार करता है । आज ऐसे वर्ग की आवश्यकता भी है कि जो साम्प्रदायिकता से ऊपर उठकर जीवन मूल्यों को स्वीकार करे । वास्तव में आज के सामाजिक जीवन में कृत्रिमता इस हद तक घर कर गयी है कि प्रत्याहारमय जीवन ही अप्राकृतिक और अत्यन्त कठिन लगता है। परन्तु सत्य यह है कि प्रत्याहारमय जीवन ही मानव का स्वाभाविक जीवन है। इस स्वाभाविक जीवन की अधिक चर्चा नहीं की जा सकती।
अष्टांग योग में, यम-नियम, आसन-प्राणायाम और प्रत्याहार को 'बहिरंग योग' तथा धारणा, ध्यान और समाधि को 'अंतरंग योग' के नाम से अभिहित किया जाता है। 'बहिरंग-योग' पर चित्रों से भरी हुई अनेक पुस्तकें बाजार में उपलब्ध हैं । आसन-प्राणायाम की कुछ क्रियायें चर्म चक्षुओं से दिखाई देती हैं और उनके चित्र बनाये जा सकते हैं । परन्तु यम-नियम, प्रत्याहार और आसन-प्राणायाम की सूक्ष्म क्रियाओं और प्रभावों के चित्र निर्माण करना क्या सम्भव है ? इसी प्रकार धारणा, ध्यान और समाधि का वर्णन करना और चित्रों से समझाना असम्भव ही है । परन्तु ऐसी भी पुस्तकें दिखायी देती हैं जिनमें 'समाधिस्थ' साधक के चित्र दिये गये हैं। सोये हुए अथवा मरे हुए तथा समाधिस्थ आदमी के चित्रों में कोई अन्तर नहीं होता। पता नहीं इस प्रकार के चित्र देकर, लेखकगण किस प्रकार योग-साधना समझाना चाहते हैं ?
योग की दार्शनिक शब्दावली के स्पष्टीकरण की भी एक समस्या है। पुरुष, प्रकृति, गुण, चित्त, मन, बुद्धि, अहंकार, सविकल्प-निर्विकल्प समाधि, सप्तधा, प्रान्तभूमि, धर्ममेध समाधि, कैवल्य, पुरुषार्थ, शून्य, प्रतिप्रश्व, आदि अनेक शब्दों का प्रयोग शास्त्रों में मिलता है। हठयोग में खेचरी, बज्रोली, सहजोली, अमरोली, चंडी, रण्डी,
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