Book Title: Pushkarmuni Abhinandan Granth
Author(s): Devendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
Publisher: Rajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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महामहिम आचार्य
[१] पूज्य श्री ज्ञानमलजी महाराज
महामनस्वी आचार्यश्री ज्ञानमलजी महाराज का व्यक्तित्व विराट था । उनका तेजस्वी व्यक्तित्व जन
जन के लिए प्रेरणा-स्रोत था । उन्होंने अपने जीवन का ही निर्माण नहीं किया किन्तु अनेकों व्यक्तियों का भी निर्माण किया। उनके जीवन की समताओं को पल्लवित पुष्पित और फलित होने का सुअवसर प्रदान किया। जीवन का निर्माण वही व्यक्ति कर सकता है जिसके हृदय में सद्भावना हो, स्नेह का सागर लहराता हो । आचार्य प्रवर ज्ञानमल कोमल था वहाँ अनुशासन की दृष्टि से वज्र से भी अधिक कठोर था । स्नेहसहायक होता है।
जी महाराज का मानस जहाँ कुसुम सा सहानुभूतियुक्त अनुशासन ही निर्माण में
आचार्यश्री ज्ञानमल जी महाराज का जन्म राजस्थान के सेतरावा ग्राम में हुआ था । आपके पूज्य पिताश्री का नाम जोरावरमलजी गोलेछा और माता का नाम मानदेवी था । ओसवाल वंश और गोलेछा जाति थी । वि० संवत् १८६० की पौष कृष्णा छठ मंगलवार को आपका जन्म हुआ । जन्म के पूर्व माता ने स्वप्न में एक प्रकाशपुञ्ज को अपनी ओर आते हुए देखा और उस प्रकाशपुञ्ज में से एक आवाज आयी - माँ, मैं तुम्हारे पास आ रहा हूँ । माता मानदेवी ने कहा- जरूर आओ, मैं तुम्हारा स्वागत करती हूँ। मानदेवी ने प्रातः अपने पति जोरावरमल जी से स्वप्न की बात कही कि आज मुझे इस प्रकार का श्रेष्ठ स्वप्न आया है। जोरावरमलजी ने प्रसन्नता से कहा – तुम्हारे पुत्र होगा, प्रकाशपुञ्ज ज्ञान का प्रतीक है । लगता है तुम्हारा पुत्र लक्ष्मी पुत्र के साथ सरस्वती पुत्र भी बनेगा और वह हमारे कुल के नाम को रोशन करेगा ।
सवा नौ मास पूर्ण होने पर बालक का जन्म हुआ । जोरावरमलजी ने ज्योतिषी से उसकी कुण्डली बनवाई | कुण्डली के आधार पर ज्योतिषी ने कहा- यह बालक योगीराज बनेगा । यह बहुत ही भाग्यशाली है, किन्तु तुम्हारे घर पर नहीं रहेगा। जिसने भी बालक को देखा वह हर्ष से नाच उठा। उस बालक का नाम ज्ञानमल रखा गया ।
वि० संवत् १८६९ में आचार्यप्रवर जीतमलजी महाराज अपने शिष्यों के साथ विहार करते हुए सेतरावा पधारे । आचार्यप्रवर के पावन प्रवचन को सुनकर बालक ज्ञानमल के अन्तर्मानस में वैराग्यांकुर उबुद्ध हुआ । उसने अपने माता-पिता से दीक्षा की अनुमति माँगी। माता-पिता ने विविध उदाहरण देकर संयम साधना की दुष्करता बताकर और संसार के सुखों का प्रलोभन देकर उसके वैराग्य के रंग को मिटाने का प्रयास किया, किन्तु उसका वैराग्य-रंग हल्दी का रंग नहीं था जो जरा से प्रलोभनों की धूप लगते ही धुल जाता। बालक ज्ञानमल की उत्कृष्ट वैराग्य भावना को देखकर माता-पिता को अनुमति देनी पड़ी और संवत् १८६६ पौष कृष्णा तीज बुधवार को झाला मण्डप, जो जोधपुर के सन्निकट है, वहाँ हजारों मनुष्यों की उपस्थिति में दीक्षा की विधि सम्पन्न हुई । दीक्षा देने वाले थे आचार्य अमरसिंहजी महाराज के चतुर्थ पट्टधर आचार्य जीतमलजी महाराज और दीक्षित होने वाले थे ज्ञानमलजी ।
मुनि ज्ञानमलजी में विनय और विवेक का मणि- कांचन योग था । उनकी बुद्धि बहुत ही प्रखर थी। साथ ही चारित्र की अनुपालना में भी वे अत्यधिक जागरूक थे। उनकी विशेषताओं ने आचार्यश्री को आकर्षित किया । आचार्यश्री ने आगम ग्रन्थों का अध्ययन कराया, लिपि-कौशल सिखाया, और साथ ही अन्य तत्त्वों का भी परिज्ञान
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