Book Title: Pushkarmuni Abhinandan Granth
Author(s): Devendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
Publisher: Rajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
View full book text
________________
६
श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : नवम खण्ड
99
की है । विष्णुपुराण में योग की परिभाषा एक विशेष प्रकार से की गई है-"आत्मप्रयत्नसापेक्षा विशिष्टा या मनोगतिः ।" हठयोग साहित्य में भी कुछ इसी प्रकार के शब्दों द्वारा योग को परिभाषित किया गया है।
पतंजलि ने योग की एक परिभाषा 'यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽष्टावंगानि" इस प्रकार भी की है । यदि सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाय तो एक दूसरी भी परिभाषा योगसूत्रों में उपलब्ध है। इस परिभाषा के आधार पर क्रियायोग नामक एक योग प्रचलित हुआ है। वह परिभाषा इस प्रकार है-"तपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि ।" कुछ लोग "अभ्यास वैराग्याभ्यां तन्निरोधः" अथवा "तत्प्रतिषेधार्थमेकतत्त्वाभ्यासः" भी करते हैं। संक्षेप में हम यही कह सकते हैं कि पतंजलि के सूत्रों में हमें एक क्रमबद्ध प्रणाली मिलती है ।
अष्टांग योग के विषय में बहिरंग और अन्तरंग शब्दों द्वारा आधुनिक योग साहित्य में विश्लेषणात्मक भ्रम निर्माण हो गया है और इस प्रकार का कुछ साहित्य भी उपलब्ध है । अष्टांग योग के प्रथम पाँच अंगों को कुछ लोगों ने बहिरंग योग के स्वरूप में लिया है और धारणा, ध्यान, समाधि को अन्तरंग योग के नाम से प्रचलित किया है। वास्तव में योग की सारी प्रक्रिया चित्तवृत्तिनिरोध के लिए है । और चित्त की व्याख्या न देकर पतंजलि ने उसके कार्य की ओर संकेत किया है । अतः यम और नियम जिनका परिणाम मनुष्य के व्यवहार पर पड़ने वाला है, किस प्रकार बहिरंग हो सकते हैं ? उसी प्रकार आसन और प्राणायाम करते हुए लोग यद्यपि हमें दिखते हैं, तो भी उनका परिणाम क्या सिर्फ शरीर पर ही होता है ? प्रत्याहार किस प्रकार बाह्य क्रिया हो सकती है ? वास्तव में इन शब्दों को समझने में थोड़ा-सा भ्रम हो गया है और शाब्दिक भ्रम के कारण कुछ लोग इस प्रकार की व्याख्या कर बैठे हैं।
अष्टांग योग को आधारभूत मानकर कुछ अन्य साधना पद्धतियाँ योग के अन्तर्गत समय-समय पर विकसित हुई हैं और मनुष्य स्वभाव की विविधता के अनुरूप आज सब अपना-अपना स्वतन्त्र स्थान प्राप्त कर चुकी हैं।
हठयोग सर्वविदित और बहुश्रुत साधना पद्धति है। हठयोग-प्रदीपिका के अनुसार योग के अंग इस प्रकार स्वीकार किये गये हैं—आसन, कुम्भक (प्राणायाम), मुद्रा और नाद-अनुसन्धान । हठयोग-प्रदीपिका के ही चौथे उपदेश के अन्त में “समाधिलक्षणं नाम चतुर्थोपदेशः" है परन्तु समाधि का विवेचन ग्रन्थ में उपलब्ध नहीं है। हठयोग का दूसरा प्रमुख ग्रन्थ 'घेरण्डसंहिता' है । इसके अनुसार योग के सात अंग बताये गये हैं-षट्कर्म, आसन, मुद्रा, प्रत्याहार, प्राणायाम, ध्यान और समाधि ।' हठयोग के अन्य साहित्य में शिवसंहिता, गोरक्षशतक, सिद्धसिद्धान्त पद्धति आदि में इसका विशेष उल्लेख नहीं है, परन्तु अमृतनाद उपनिषद् में प्रत्याहार, ध्यान, प्राणायाम, धारणा, तर्क और समाधि योग के ये छ: अंग बताये हैं।' [छः अंगों का क्रम यहाँ विचारणीय है, साथ ही तर्क नामक अंग अन्यत्र कहीं भी समाविष्ट नहीं किया गया है । इस उपनिषद् को यदि आधार माना जाय तो बहिरंग और अन्तरंग विभाजन करने की इच्छा के लिए एक नयी समस्या खड़ी हो जायेगी । परम्परागत धारणा, ध्यान और समाधिक्रम उपनिषद्कार को मान्य प्रतीत नहीं होता। इस क्रम में प्रत्याहार और प्राणायाम के मध्य में ध्यान को रखा गया है और सम्भवतः यहाँ पर ध्यान का अर्थ कुछ भिन्न भी हो सकता है। दूसरी महत्त्वपूर्ण बात ध्यान के बाद धारणा को रखना है । यह एक चिन्तन और मनन का विषय है।] तेजबिन्दु उपनिषद् में योग के पन्द्रह अंग दिखाये हैं
यमो हि नियमस्त्यागो मौनं देशश्च कालतः । आसनं मूलबन्धश्च देहसाम्यं च दृस्थितिः ॥१५॥ प्राणसंयमनं चैव प्रत्याहारश्च धारणा।
आत्मध्यानं समाधिश्च प्रोक्तान्यांगानि वै क्रमात् ॥१६॥ सम्भवतः योग अंगों की यह विस्तृत सूची है। परम्परागत अष्टांग योग इसमें निश्चित क्रम के अनुसार ही मान्य है । सम्भवतः उपनिषद्कार ने कुछ विश्लेषण साधुओं की सुविधा के लिए कर दिया है । दर्शन उपनिषद् में अष्टांग योग तथाक्रम मान्य किया है। यहाँ हमें एक नयी चीज यम और नियमों के विस्तार सम्बन्धी दिखती है। पतंजलि ने अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ऐसे पाँच यम बताये हैं। दर्शन उपनिषद् में दस यम इस प्रकार बताये गये हैं-(१) अहिंसा, (२) सत्य, (३) अस्तेय, (४) ब्रह्मचर्य, (५) दया, (६) आर्जव, (७) क्षमा, (८) धृति, (8) मिताहार, (१०) शौच । पतंजलि के अनुसार शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वरप्रणिधान पाँच नियम हैं। दर्शन उपनिषद् के अनुसार दस नियम ये हैं
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org.