Book Title: Pushkarmuni Abhinandan Granth
Author(s): Devendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
Publisher: Rajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
View full book text
________________
१६८
श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन पन्थ : नवम खण्ड
योग और नारी
0पं. गोविन्दराम व्यास भारतीय दर्शनों का चरम लक्ष्य मोक्ष है और मोक्ष दुःखों की एकान्तिक व आत्यन्तिक निवृत्ति है। कितने ही दार्शनिकों ने दुःखों की आत्यन्तिक निवृत्ति के स्थान पर शाश्वत व सहज सुख-लाभ को मोक्ष माना है । इन दोनों बातों में कोई अन्तर नहीं है, क्योंकि सुख की उपलब्धि होने पर दुःखों की आत्यन्तिक और एकान्तिक निवृत्ति अपने आप हो जाती है। वैशेषिक, नैयायिक, सांख्य, योग एवं बौद्धदर्शन दुःख की निवृत्ति को मोक्ष मानते हैं तो वेदान्त और जैनदर्शन शाश्वत व सहज सुख-लाभ को मोक्ष मानते हैं। वेदान्तदर्शन में ब्रह्म को सच्चिदानन्दस्वरूप माना है तो जैनदर्शन में भी आत्मा को अनन्तसुखस्वरूप माना है। उस अनन्तसुख की अभिव्यक्ति मोक्ष प्राप्त होने पर होती है।
विभिन्न दर्शनों ने मोक्ष-प्राप्ति के लिए विविध उपाय प्रतिपादित किये हैं। महर्षि पतंजलि ने योग साधना का एक बहुत ही सुन्दर क्रम प्रस्तुत किया है । अन्य दर्शनों ने भी अपनी परम्परा, बुद्धि, रुचि तथा शक्ति की दृष्टि से उसका निरूपण किया है । भारत की वैदिक, बौद्ध और जैन इन तीनों परम्पराओं ने योग जैसी महत्त्वपूर्ण व्यावहारिक और विकास प्रक्रिया से सम्बन्धित विषय पर उत्कृष्ट साहित्य का सृजन किया है। तीनों ही परम्पराओं के मूर्धन्य मनीषियों ने अनेक योग विषयक ग्रन्थ विविध भाषाओं में लिखे हैं।
पुरुषों ने ही योग साधना नहीं की है अपितु महिला वर्ग भी योग साधना में सदा अग्रसर रहा है। योग वह आध्यात्मिक साधना है जिसमें लिंग-भेद बाधक नहीं है। चाहे पुरुष हो चाहे नारी हो, वे समानरूप से योग की साधना कर सकते हैं और अपने जीवन को आध्यात्मिक दृष्टि से पूर्ण विकसित कर सकते हैं।
जैनयोग पर लिखने वाले सर्वप्रथम आचार्य हरिभद्र हैं। उनका समय आठवीं शती है। आचार्य हरिभद्र ने योगशतक तथा योगविशिका ये दो ग्रन्थ प्राकृत भाषा में तथा योगबिन्दु और योगदृष्टिसमुच्चय ये दो ग्रन्थ संस्कृत भाषा में लिखे। योग के सम्बन्ध में उन्होंने जो कुछ लिखा है वह केवल जैनयोग साहित्य में ही नहीं अपितु योग विषयक समस्त चिन्तनधारा में एक नयी देन है। जैन साहित्य में आध्यात्मिक विकास-क्रम का वर्णन चतुर्दश गुणस्थानों के रूप में किया है। संक्षेप में बहिरात्मा, अन्तरात्मा, परमात्मा इन आत्म-अवस्थाओं को लेकर भी आध्यात्मिक विकास का वर्णन किया गया है। आचार्य हरिभद्र ने इस अध्यात्म विकास क्रम को योग रूप में निरूपित किया है। उन्होंने इस निरूपण में जो शैली अपनायी वह अन्य योग-विषयक ग्रन्थों में प्राप्त नहीं होती। उन्होंने प्रस्तुत क्रम को आठ योगदृष्टियों के रूप में विभक्त किया है। योगदृष्टिसमुच्चय में उन्होंने आठ प्रकार की योगदृष्टियां बतायी हैं
मित्रा तारा' बला' दीप्रा स्थिरा' कान्ता प्रभा' परा।
नामानि योगदृष्टीनां लक्षणं च निबोधत ॥ __ इन आठों दृष्टियों के नाम स्त्रीलिंगवाची हैं। मेरी दृष्टि में उस युग में इन नामों वाली योग में पूर्ण निष्णात महिलाएँ होंगी। उन्हीं के नामों पर ये आठ दृष्टियाँ रखी गयी हों। सर्वप्रथम दृष्टि का नाम 'मित्रा' है। महिला वर्ग में मित्रता का भाव सहज रूप से होता है। एतदर्थ ही महाभारतकार व्यास ने "साप्तपदिन मैत्र" लिखा है। पौराणिक आख्यान है कि सत्यवान की आत्मा को यमलोक ले जाते हुए यमराज के साथ सावित्री सात कदम चलकर जाती है जिससे यमराज के साथ उसका मैत्री-सम्बन्ध हो जाता है। फलस्वरूप सत्यवान को पुनः जीवित लेकर योग-शक्ति से वह पृथ्वी पर आती है। मेरी मान्यता है कि नारी अपने मैत्री बल पर यम पर भी विजय प्राप्त कर सकती है । एतदर्थ ही योगदृष्टि में सर्वप्रथम 'मित्रा' दृष्टि रखी गयी है। इससे यह सिद्ध है कि जहाँ पर मित्रा दृष्टि है और अपने प्रिय के प्रति देवत्व भाव है उसे अपनी इच्छाओं के प्रदर्शन करने की आवश्यकता नहीं होती। यही बात निम्न श्लोक में भी प्रतिध्वनित हो रही है
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org