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दुर्गति से मरने पर प्रायः साधारण जीवो मे तीव्र कषाय उत्पन्न हो ही जाते है | तब बकरा भी पाप मे डूब रहा था या नही ? पर आचार्य श्री भीखणजी की समझ में यह नही आया और उन्होने समझ लिया कि बकरा तो ऋण उतारने वाला यानी कर्मों को खपाने वाला जीव बन रहा है । मारने वाले दोषी पर तो इतनी करुणा और मरने वाले निर्दोपी की इतनी स्वामीजी वाह 11
उपेक्षा '
वाह !
वस्तुत बकरे की मृत्यु ने ही मुनिराजो को बकरे मारने वाले को समझाने के लिए प्रेरित किया । अपने कार्य से बकरे को प्रत्यक्ष बचता देख, बचाने की जिम्मेवारी से हाथ खीच लेना कानून की ओट में सत्य का शिकार है ।
"यदि यह कहें कि प्राणी की रक्षा हम कहाँ-कहाँ करेगे ? यह न तो हमारी जिम्मेवारी है और न पूर्ण हमारे सामर्थ्य के भीतर ही । एक बार प्रयत्न से किसी को बचा भी देगे तो भी समस्या सुलझ थोडे ही जाती है । न मालूम वह आगे चल कर बचा रह सकेगा या नही और बचा रह भी गया तो भी न मालूम वह आगे कौन - २ से अनर्थ करेगा, कारण अव्रती जीव जो ठहरा। इसलिए न तो ऐसा उद्देश्य बनाना ही और न ऐसे उद्देश्य को लेकर कार्य करना ही उचित है ।"
हे मेरे सर्वज्ञों की बराबरी करने वाले अवज्ञ ! हम हमारे सामर्थ्य और क्षेत्र की मर्यादा एव आवश्यकता का विचार करें । सभव है हम किसी जिम्मेवारी मे न भी बंधे हों, हमारे किये सब कुछ न भी होता हो-तब भी जितना सभव हो उतना सहयोग ही रक्खे | किसी की थोडी-सी भलाई करना भी हमारी भलाई ही कही जायेगी, हमारी महानता ही मानी जायेगी । फिर जो उनके भाग्य में लिखा है, वही होगा । बकरे मारने वाले को उपदेश देकर, आप उसे भी पाप से न बचाते तो आपके ऊपर इसके लिए कोई दोषारोपण थोडे ही किया जाता । सभी मारने वालो को समझाने के लिए न तो उनके पास आप पहुँच ही सकते हैं, और न सबको समझाने में सफल ही हो सकते हैं । आप से जितना संभव हुआ उतना आपने किया । इस थोड़ी मात्रा को भी बुरी कैसे माने ? यह तो आपके हृदय का पूर्व अर्जित अत्यन्त दया और करुणा का भाव ही था जिसने आपको उस हिंसक का हृदय परिवर्तन करने के लिए प्रेरित किया ।
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