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सहयोग का हकदार है, विवेक पूर्वक उतना सहयोग तो उसके साथ हमें अवश्य रखना चाहिए । यही हमारे मनुष्य जन्म की सार्थकता है और इसी में हमारा परम कल्याण है । इसका अर्थ यह नही है कि जिस व्यक्ति ने या जिस समाज ने हमे जितनी सहायता पहुँचाई है, बदले मे हम उसे उतनी ही सहायता पहुँचाये । सम्भव है भाग्यवश हमे बहुतो से सहायता की आवश्यकता ही न पडी हो पर ऐसे अवसर आ सकते है कि उन्ही को सहायता पहुँचाना जरूरी हो जाय, तो हमे उदारता पूर्वक, उनकी सहायता बार-२ करते ही जाना चाहिए। सामर्थ्य हो तो दूर वालो को भी हम सहयोग पहुँचा सकते हैं । यही हमारा सच्चा सहयोग कहा जा सकता है । हमे तो इतना ही ध्यान में रखना चाहिए कि समाज की सेवा हमारे अपने ही हित की रक्षा है । इसमें किसी पर एहसान नही है । हम मे इतनी कमी अवश्य रहती है कि समान आवश्यकता अनुभूत करनेवालो में हम अपने समीप वाले को ही सहयोग का पहला मौका देते है । गाव की आग के साथ - २ यदि हमारे घर मे भी आग लग जाये तो पहले हम अपने घर की आग को ही बुझाने की चेष्टा करते है । वस्तुत मोह या स्वार्थ की यह भावना समान रूप से मनुष्य मात्र मे है ।
इस स्वार्थ की मात्रा सभी मे समान रूप से है इसलिए चाहे इसे बुरा न माने पर प्रश्न यह उठता है कि यदि हमे समाज के सहयोग की आवश्यकता नही होती तो क्या ऐसा सम्बन्ध हम समाज के साथ रखते ? उत्तर है- 'नहीं' । पर यहाँ परिस्थिति भिन्न है । यदि हम पैनी दृष्टि से देखे तो पता चलेगा कि इस परिश्रम का सारा सुफल हमे ही प्राप्त होता है । महापुरुष जितनी दौड-धूप हमारे लिए कर रहे हैं, वे हमसे कुछ पाने के लिए नही कर रहे है और प्रत्यक्ष मे न उन्हे हमसे कुछ मिलता ही है, पर इससे उनके आत्मवल मे निरंतर वृद्धि होती है और उन्हे अतुलित तरिक सुख की प्राप्ति होती है उसका कारण अप्रत्यक्ष रूप में हम ही है । समाज की हम चाहे जितनी सेवा करे निष्फल नही जाती । आखिर यह हमारे निज की सेवा जो ठहरी ।
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असहयोग के कारण
समाज में ऐसे भाई भी है जो उचित सहयोग की बात तो दूर रही, उल्टे अज्ञानतावश समाज को धक्का पहुँचाते रहते हैं । ऐसे व्यक्तियो के अनुचित ढंग के कारण समाज के सही कार्यो मे रुकावटे आने लगती हैं और उसका शुद्ध प्रवाह
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