Book Title: Pooja ka Uttam Adarsh
Author(s): Panmal Kothari
Publisher: Sumermal Kothari
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We shall work with you immediately. -The TFIC Team. Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूजा का उत्तम आदर्श (जैन परम्परा में) लेसक पानमल कोठारी महावीर निर्वाणोत्सव, २४९२ ] [ मूल्य ३ रु. Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक सुमेरमल कोठारी २०, मल्लिक स्ट्रीट कलकत्ता-७ सर्वाधिकार सुरक्षित मुद्रक परमानन्द पोद्दार युनाइटेड कमर्शियल प्रेस लि. १, राजा गुरुदास स्ट्रीट कलकत्ता-६ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ のののののののののののののののののののの Ladi また ののののののののののじスクルクル श्री वीराय नमः भगवान श्री महावीर のののののののののののののののののかの மிமிமி Page #6 --------------------------------------------------------------------------  Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Panor.awraaaraaaaaaaaaaams ॥ गुरुदेवाय नमः ॥ JanuVM DiumLLLLLMIJIW - nunenaletasuneamweavancuarasemneavovwwwwww. aliquepiawaiamegeacacariguamansara aumentamaan EN -- दादा साहब श्री जिनदत्त सूरिजी-कुशल सूरिजी श्रद्धा के इन क्षुद्र सुमनो को श्री चरणों में समर्पित करने के अतिरिक्त अकिंचन के पास और है ही क्या ? इन्हें स्वीकार करें। anamninganginnvandannannania Page #8 --------------------------------------------------------------------------  Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो शब्द अनन्त सुखो को देने वाला 'मनुष्य-भव' जहाँ एक ओर अत्यन्त महत्वपूर्ण है, वहाँ दूसरी ओर खतरनाक भी कम नहीं । धोखे में आ जाँय तो अनन्त दुखों में ढकेलते भी यह देर नहीं करता । ऐसी स्थिति में नीर-क्षीर विवेको बन कर ही हम इसे सार्थक बना सकते हैं । प्रस्तुत पुस्तिका में नवीनता कुछ भी नहीं है । मूर्ति के उपयोग से सरलता पूर्वक मन को, परम पुरुषो के चरणचिह्नो का अनुगामी बनने के लिए, कैसे प्रेरित और प्रभावित किया जा सकता है, इसी सम्बन्ध में गुरुजनो द्वारा व्यक्त उपदेशों का यह आकलन मात्र है । साथ ही ऐसे उपयोग को तथ्य शून्य, निर्वल, अनुचित या हिंसा पूर्ण बतलाने वाले मत-मतान्तरो को मात्र सत्य के सरक्षण में आलोचना अवश्य है, किन्तु है सप्रमाण एव युक्ति युक्त | साधारण पाठक भी इसमें अवगाहन कर सत्यासत्य का निर्णय करने में समर्थ हो सकता है । यो तो तेरापंथी भाई, जो स्थानकवासी भाइयो के ही कटे-छंटे, निखरे हुए नवीन रूप हैं, इस तरह की गलत मान्यता फैलाने में कम जिम्मेवार नहीं, पर वस्तुत समाज में यह मिथ्यात्व उत्पन्न करने का सम्पूर्ण श्रेय स्थानकवासी ( क ) Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाइयों को ही है । उनके आचार्यों ने जब मूर्ति-पूजा में जल, फूल, फल आदि द्रव्यों के प्रयोग को हिंसायुक्त बतलाया तो उन अनुकर्ताओं को सरल समझ में यह आना स्वाभाविक था कि अरिहंत भगवान् की भक्ति द्वारा परम उत्कृष्ट चारित्र - उत्थान जैसे निर्मल हेतु में ऐसे द्रव्यों का उपयोग यदि हिंसा पूर्ण है, तब अन्य स्थानों पर भी चाहे वे गुरुओं को भक्ति से मिलने वाले लाभ के निमित्त काम में लिए गये हों, चाहे धर्म प्राप्ति के अन्य साधनों के निमित्त काम में लिए गये हों, चाहे अपने जीवन को स्थिर रखने के निमित्त काम में लिए गये हों और चाहे अन्य जीवों की प्रति-रक्षा या प्रतिपालना से मिलने वाले लाभ के निमित्त काम में लिए गये हों; निश्चय ही हिंसायुक्त होंगे । विष तो हर जगह विष हो रहता है । इसी मिथ्या दृष्टि ने समस्त तथ्यों को तोड़-मरोड डाला और विचारों और व्यवहारों में एक भयानक विषमता उत्पन्न कर दी । हमारा तो अब भी निवेदन है कि वे तथ्य को समझे और जैन परपरा की निर्मल मान्यता और व्यवहारो को संसार के सामने यथारूप रखें ताकि कोई भी व्यक्ति भ्रमवश उन्हें मिथ्या या अनुपयुक्त समझ उचित लाभ से वंचित न रहे और न हमारे नादान मतभेदों के कारण जैन दर्शन ससार के लोगों को दृष्टि में उपहास का कारण बने । समय थोड़ा है । हमें मनुष्य-भव से लाभ उठाना है | अपने अमूल्य समय को व्यर्थ नष्ट न कर, निरन्तर आगे बढ़ना ही हमारे लिए अधिक श्रेयस्कर है । मैने अपनी अल्प बुद्धि के अनुसार मूर्ति-पूजा के सम्बन्ध में इस ग्रन्थ में अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है । इसमें भाषा दोष, कटुता, कटाक्ष, व्यंग्य, अन्योक्ति, कम जानकारी [ख] Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के कारण त्रुटियां अयवा कमियां अवश्य रही हैं पर जहाँ तक मेरे हृदय को भावना का प्रश्न है, भिन्न प्रकार की मान्यता रखने वालों या अन्य किसी भी भाई को नीचा दिखलाने अथवा जी दुखाने के लिए मैंने यह प्रयत्न नहीं किया है। केवल तय्यातथ्य का विचार कर गुणानुरागी बनने के लिए विनती करना ही मेरा मुख्य ध्येय रहा है। पडित देवचन्द्रजी, परम योगीराज आनन्दवनजी, उपाध्याय यशोविजयजी प्रभृति महान् तत्त्ववेत्ताओ को, जो इस पुस्तिका के आधार स्तम्भ हैं, भाव पूर्वक वन्दन करता हुआ मै मभी धर्मानुरागी बन्धुओ से आदर सहित विनय करुगा कि थोडा समय निकाल वे इसे पढने की अवश्य कृपा करें। पुस्तिका की भाषा-शुद्धि, लालित्य-वृद्धि एव स्थल २ पर व्यर्थ के कलेवर एवं कटुता में कटौती लाने में मेरे माननीय भूपराजजी जैन एम० ए० ने जो प्रशंसनीय सहयोग दिया है उसके लिए मैं उनका अत्यन्त आभारी हूँ। विज्ञ जनो से विनम्र विनती है कि वे इसमें सुधार की अवश्य राय दें। उनका सुझाव सहृदयता पूर्वक स्वीकार किया जायेगा। मूर्ति का उपयोग यदि आपको रुचिकर लगा और उसकी महत्ता में आपको धारणा अधिक दृढ़ बनी तो मै अपने इस लघु प्रयास को अवश्य सार्थक समझूगा। अन्त में,-किमी भाई को किसी कारण, मेरे इस प्रयत्न से ठेस लगी हो या कमी खटकी हो तो मै मन, वचन, काया से क्षमा याचना करता हुआ, आशा करता है कि स्नेह पूर्वक वे मुझे क्षमा कर देंगे। --लेखक [ग] Page #12 --------------------------------------------------------------------------  Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री हंसराज बच्छराज नाहटा सरदारशहर निवासी द्वारा जैन विश्व भारती, लाडनू को सप्रेम भेंट C ऐतिहासिक तथ्य इतिहास का सजीव अंग : - हम जैनो के तीर्थ और मंदिर जो सम्पूर्ण भारत में फैले हुए हैं, हमारी पुरानी सभ्यता के प्रतीक हैं । हमारे पूर्वज कला के कितने मर्मज्ञ, कितने उच्च आदर्श वाले, कितने न्यायी, कितने शान्ति प्रिय और गुरुजनो के प्रति कितने श्रद्धालु थे, यह इन तीर्थो के विशाल वक्ष स्थल पर पूर्णतया प्रति है । अतीत में अज्ञानी तत्वो के कोप, विधर्मी सत्ताघारियो की कठोर दुधारी तलवार, समय-समय पर आनेवाले प्राकृतिक प्रकोप और इनसे भी बढकर हमसे ही अलग हुए मतभेदी भाइयो का खडखड कर देने वाला घातक खडनवाद; जैसे अनेक कठोर आघातो को अनुपम सयम और दृढता पूर्वक सहते हुए इन तीर्थराजो ने अत्यन्त भीषण अग्नि परीक्षा दी है। सौभाग्य की बात है कि आज भी ये उच्च मस्तक हमारे वीच विद्यमान है और सूर्य के समान चमक रहे हैं । धार्मिक भावना के रक्षक - प्रेरक - सावधानी पूर्वक अवलोकन से Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पता चलता है कि ये केवल जिनराज भगवान के ऐतिहासिक चिह्न मात्र ही नहीं हैं वरन् इससे भी आगे ये हमारे हृदय कमल में परमात्मा के प्रति प्रगाढ श्रद्धा पैदा करने वाले एव अजैनो में जैनत्व का महत्व पूर्ण प्रचार करने वाले पुनीत स्तम्भ भी है। आप जानते हैं कि अनेक दुर्गम स्थानो में जहाँ हमारे भाई अनेक पीढियो से रह रहे हैं और जहाँ मुनिराजो के आवागमन के साथ-साथ धर्म के अन्य साधन भी अवरुद्ध हैं, केवल इन्ही की कृपा से वहाँ जैनत्व की रक्षा हुई है। कहाँ गुजरात, कहाँआसाम और कहाँ कन्याकुमारी अन्तरीप, इनकी विशाल भुजाओमें जैनत्वका दीपक जगमगा रहा है। ___ आज जहाँ हमारे धर्म प्रचारक मुनि महाराज विलायत या अमेरिका नहीं जा सकते, इस साधन द्वारा वहाँ भी, हम चाहे तो वह कार्य कर सकते है जिसका अनुमान नही लगाया जा सकता। प्रचार के साधन धर्मग्रन्थ भी पढ़े-लिखे मनुष्यो की रुचि और अवकाश की ही वस्तु हैं, परन्तु मन्दिर तो पास से गुजरने वाले प्रत्येक व्यक्ति को थोड़ी देर के लिये अपनी तरफ खीच ही लेता है । इतने पर भी दु.ख का विषय तो यह है कि अत्यन्त निर्मल उद्देश्य होते हुए भी दूसरे देशो में इनका प्रचार करना तो दूर रहा, हमारे अपने ही देश में, अपने ही लक्ष २ भाई, विरोधी वन इनसे दूर जा बैठकमा विरोधी भावों का विस्तार :-किसी कारणवश मतभेद फैला और वह धोर-२ वढ़ती ही गया। जो स्थिति है वह हमारे सामने है।. दोष किसको 'द सभी समान रूप से दोषी हैं । एक समझन सकातो दूसरा समझा न सका। अव अमूर्ति पूजक दलों में सम्मिलित हुए भाइयो के लिए पूजा औरदर्शन करने या न करने का कोई प्रश्न ही पैदा नहीं होता परन्तु आज मूर्ति-पूजेकोमै भी दिन प्रति"दिन इस ओर से रुचि कम होती जा रही है और थोड़े से पूजा इत्यादि करने वालो में भी वहुतो को पूजा का वास्तविक महत्व ही मालूम नही है। इसका मुख्य कारण यही है कि शिक्षा के अभाव में हमारा इस दिशा का ज्ञान अपूर्ण एवं अपरिपक्व है । . मूर्ति का तो विपय ही भिन्न हैं। उसमें न शब्द है,न उच्चारण, नव्याकरण है, न लिपि । वह तो संकेत मात्र ही करती है जिसको अनुभव प्राप्त व्यक्ति ही समझ सकता है। ऐसी परिस्थिति में हमारा यह कर्तव्य हो जाता है कि हम अपने "पूर्वजो के अपार परिश्रम और धन राशि से-खडी की गई इस कला पूर्ण वस्तु का उचित ज्ञान प्राप्त करे और उससे उचित लाभ उठावें । Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका-समाधान किसी लाभ की आशा नही भ्रान्ति बहुवा हानि का वडा भारी कारण बन जाती है। यही हाल मूर्ति-पूजा का हुआ। कई एक भ्रान्तियाँ तो स्वाभाविक पैदा हुई और कई एक वाद में अपनी मान्यता को पुष्टि एव प्रचार के लिए गढ ली गई । भ्रान्ति चाहे जैसी हो एवं चाहे जिस तरह से पैदा हुई हो, हमें उस पर पूरी सहृदयता पूर्वक विचार करते हुए तय्यातथ्यको ठीक से समझना है ताकि भविष्य में और अधिक हानि न हो। - किसी लाभ को आशा नहीं कहा जाता है कि मूर्ति तो जड पदार्थ है। जड को चेतन के समान समझना सरासर भूल है। जड मूर्ति में असली वस्तु सी क्षमता कहाँ सम्भव ? यदि यह सम्भव हो तो पत्य रके वीज उगाने से उग आते; पत्थर की वनी गाय, गाय की तरह दूध देती, पत्थर के बने फलो के आहार से क्षवा बान्त हो जाती और पत्थर के फूलो से सुगन्व महक उठती। जब हम यह प्रत्यक्ष देखते हैं कि इनमे ऐसी पूर्ति कतई नही होती और कोई लाभ नहीं मिलता तो पत्यर को वनी भगवान की मूति से भी हम किसी लाभ की आशा नही कर सकते। पत्थर को बनी गाय और वास्तविक गाय में कितना भारी अन्तर है उसे हम सब अच्छी तरह जानते है। पत्यर को गाय दूध नही देतो, घास नही खाती, रम्भाती नही, चलती-फिरती नही, बीमार नही पडती और मरती भी नहीं। इस तरह हम देखते हैं कि गाय में और गाय को मूर्ति में काफी असमानता भरी पड़ी है। किन्तु उनमें समानता कौन सी है, यही चिन्तनीय है । पत्थर के टुकड़े को गाय क्यो कहा:-नत्यर के टुकडे को गाय क्यो कहा? भेड़, चकरी,भैस या भालू तोनही कहा? पत्यरके और भो हजारो टुकडे देखते हैं, उन्हें तो गाय नही कहते ? निश्चय, यह उसके आकार-प्रकार का प्रभाव है। कलाकार ने उस पत्थर में एक ऐसी सजीदगी पैदा कर दी कि बुद्धिमान व्यक्ति को भी उसे Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाय शब्द से सम्बोधित करने के लिए वाध्य होना पड़ा? इससे भी आगे अधिक महत्व की बात तो यह है कि-"आकार प्राप्त इस पत्थर के टुकडे ने कुछ क्षणों के लिए सम्पूर्ण ससार से हमारे ध्यान को हटाकर केवल गाय परही केन्द्रित कर दिया।" यह मूर्ति की महान् विशेषता है ! यही असली रहस्य है !! प्रत्येक मूर्ति हमारे मन्तिाक पर अपना-अपना असर करती है। मुख्य रहस्य :-असली वस्तु की याद आते ही उसके गुण-दोप तो स्वतः हमारे मस्तिष्क में टकराने लगते हैं। उन गुण-दोपो से ओत-प्रोत होना या नहोना हमारी इच्छा और शक्ति पर निर्भर है पर एक बार तो हमारा ध्यान उस भोर चला ही जाता है। तथ्य यही है कि गाय की मूर्ति को देखकर गाय की विशेष रूप से याद हो आती है। उसकी उपयोगिता पर भी ध्यान जाता है और उसके सम्बन्ध में कई तरह के विचार उत्पन्न होते है। ऐसा होता है या नहीं इसका निर्णय तो हम स्वय ही कर सकते हैं। शंका में जो भी कमी महसूस की गई है वह 'द्रम वस्तुओ की प्राप्ति" की ही कमी है। द्रव्यो की प्राप्ति तो मूर्ति से सम्भव नही परन्तु मूल वस्तु के गुण-दोपो के स्मरण का मन के साथ गहरा सम्बन्ध है। "द्रव्य वस्तुओ की प्राप्ति" को प्रधान लक्ष्य के रूप में आगे रख कर, वस्तु के स्वरूप को विशेष रूप से याद दिलाने वाली मूर्तिकला के महान् महत्व कोन समझना ही अपने विवेक की कमी है। ____ महान सहारा: अव्यात्मवाद मे तो मूर्ति का सहारा सोने में सुगन्ध के समान है । भगवान की मूर्ति तो हमारे लिए और भी अधिक उपयोगी है। सोचिये, ध्यान नाथा में रहे खुद भगवान को यदि हम वन्दन, नमस्कार करते तो हमें क्या लाभ होता ऐसी अवस्था में न तो वे वाणी मुनाते, न आहार इत्यादि लेकर ही हमे करते और न अन्य किसी द्रव्य वस्तु की प्राप्ति ही हमें उनसे होती। उस समय तो वे मूर्तिवत् ही होते। उस अवस्था में जो भी लान हमें होता, वही लाभ उनकी मूर्ति को भावयुक्त वन्दन-नमस्कार कर प्राप्त किया जा सकता है। भावना चाहे ध्यानस्थ भगवान के सामने उपाजित की जाय अथवा उनकी मूर्ति के सामने,दोनों नवस्थाओं में हितकारी ही है। संभव है एक अवल्या से दूमरी अवस्था की भिन्नता के कारण हमारे भावो की तीव्रता में अन्तर रह । जाय पर परिणाम दोनो जगह समान ही होगा। मन भर सोना न मिले, रत्ती भर ही नही, सोना सोना ही होगा। आज जब ससार में भगवान वर्तमान नहीं Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं, उनकी मूर्तिद्वारा उनके गुणो का स्वल्प आभास भी हमें मिले तो क्या बुरा है ? भगवान की सौम्य मूर्ति का अवलोकन कर हमें उनकी शान्त एवं वैराग्यमय वृत्ति, उनकी प्रकाण्ड तपस्या, उनकी महान् क्षमा प्रगाढ रूप से स्मरण हो आती है। थोडी देर के लिए सारे झझटो को भूल कर उनके अनन्त गुणो में हम लीन हो जाते हैं और उन्ही गुणो को आत्मा में जगाने में बडी प्रेरणा मिलती है। मूर्ति का यह प्रभाव क्या कम है ? इससे अधिक और हम मूर्ति से क्या चाहते हैं ? उपयोगिता :-मूर्ति हमें परम लक्ष्य की प्राप्ति में बहुत सहायता पहुंचा सकती है यदि हम उसकी वास्तविक उपयोगिता को समझ कर उसे काम में लें। उपयोगिता न समझना ही इस तरह की शका का मूल कारण है। द्रव्यों का प्रयोग सरासर-हिंसा' शका का एक बहुत बडा कारण जो हमारे अनेक भाइयो के मनो में, घर कर गया है और जिसके कारण वे मूर्ति से अत्यधिक घृणा करते है, वह है"पूजा में द्रव्यो का प्रयोग।" ऐसे प्रयोगो को वे हिंसा युक्त, निरर्थक और वालको की गुडियो का खेल समझते हैं। शका करने वालो को शका हो सकती है। यदि हमारी विचारधारा ठीकहै तो हमें उसका कारण सहित उत्तर देना चाहिए जिससे उनको पूर्ण सतोष हो और बुरा मानने की जगह उन्हें अपनी भूल महसूस हो। पूजन का ध्येय :-प्रत्येक कार्य के पीछे एक ध्येय रहता है। मूर्ति स्थापित करने में भी एक ध्येय है, और वह है-"चचल मन को; जो स्वभाव ही से विषयासक्त और कामी है, शुद्ध गुणो की ओर प्रेरित किया जा सके।" चंचल - मन की गति किसी से छिपी नही है । इसलिए महापुरुषो ने साधारण व्यक्तियों - के लिए कुछ ऐसे अवलम्बनो की विशेष आवश्यकता समझी, जिनके सहारे इस चचल मन* को यत् किंचित् सुधार कर सन्मार्ग की ओर प्रवृत्त किया जा सके। मूर्ति-पूजा के व्यवहार से चचल मन को कुछ २ परमात्मा के शुद्ध गुणों में * जैसे-महाराज आनन्दघनजी भगवान कुथुनाथ स्वामी की स्तुति में फरमाते है- : बीजी वाते समरथ छै नर, ऐहने कोई न झेले" हो कुंथुजिन, मनड़, किम ही न वाजे Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभ्यस्त किया जा सके, महापुरुषो की तो यही निर्मल भावना रही है। इसके सहारे पहले परमात्मा में बहुमान और अनुराग बढता है, फिर धीरे-२ मनुष्य उनके शुद्ध गुणो मे ओत-प्रोत हो विषयो से हटने लगता है। इस रुचिकर अवलम्वन से; रुचि न रखने वालो अथवा बहुत कम रुचि रखने वालो मे भी, शुद्ध गुणो मे रुचि उत्पन्न हो जाती है और मनुष्य सत्पथगामी बन जाता है । अधिक क्या कहा जाय, पूजा के प्रत्येक अग-प्रत्यग को इसी आलोक में अच्छी तरह परखा जा सकता है। इसमे कही भी अनुचित स्वार्थ अथवा विषयो का हेतु लेश मात्र भी नही है। न तो परमात्मा को इसमे कुछ लेना देना है और न हमें ही इसमें किसी द्रव्य वस्तु की प्राप्ति हे ती है। अनुराग पूर्वक परमात्मा के गुणो का अनुमोदन करते हुए उन्ही गुणो को अपनी आत्मा मे जगाना ही सब समय हमारा ध्येय रहता है । • कई कह सकते है कि "अच्छे भाव तो दर्शन मात्र से पैदा हो सकते है, अनुमोदन हो सकता है फिर इतनी द्रव्य सामग्रीसे पूजा-पाठ की क्या आवश्यकता ?" सभी मनुष्यो को लाभ पहुँच सके ऐसे सभी प्रकार के साधन, जहाँ तक वर्न सके रखने की ही कोशिश की जाती है। बिना मूर्ति के सहारे ही यदि किसी महानुभावों के उत्तम भाव जागृत हो जाते हो तो द्रव्यो-से पूजापाठ की बात दूर, उनके लिए मूर्ति को सहारा भी न लेना उचित हो सकता है और भगवान के नाम की माला जपनी भी अनावश्यक हो सकती है, परन्तु जिनकी शक्ति इतनी सबल नही, वे उनकी बराबरी कैसे करे अपनी-२ शक्ति के अनुसार, सहारे की अपेक्षा सवको रहती है। अपनी शक्ति के अनुसार दूसरों के लिए निर्णय करना उचित नहीं। यदि इतना हम समझ लेते तो आज आपस में, मतभेदो की यह स्थिति उत्पन्न ही नहीं होती। भगवान के उत्तम गुणो को आत्मा मे जगाने के निर्मल उद्देश्य को ध्यान में रखजरूरत समझें तो हम किसी का सहारा ले, जरूरत न समझें तो न ले परन्तु जो सहारा लेना चाहते हैं, उसे भी न्याय-दृष्टि से समझे, यही उचित एवं स्पृहणीय है। - --- शक्ति समान नहीं :-पूजा के हेतु को भी हमे गहराई से समझना चाहिए। अनेक इससे लाभान्वित होते है या नहीं इसे भी हमे देखना चाहिए। एम० ए० पढे हुए मनुष्य के लिए "क माने ककड़ी" की रट निरर्थक हो सकती है पर नव शिक्षार्थी वालक के लिए तो शिक्षा ग्रहण का एक प्रभावशाली उपाय है। Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठीक इसी प्रकार हम अपने आपको कितना भी दक्ष एवं प्रवुद्ध क्यो न समझते हों पर जब हम अपने चचल मनकी चचलताको तौलते हैं तो यही अनुभव करते... हैं कि आत्मसयम की दृष्टिसे तो अभी हम निरे बालक ही है। इसलिए द्रव्यो द्वारा पूजा इत्यादि हम जैसे लोगो के मनो में परमात्मा में अनुराग उत्पन्न कराने का एक वडा सहारा है और मन से कपाय श्रीर विषयो को हटाने का एक प्रभावशाली उपाय है । तत्वज्ञानी पुरुषो को यदि हमारी यह किया "वाल किया" ही लगे तो भी उन्हें प्रसन्नता ही होनी चाहिए, यही सोच कर कि खेल ही खेल में उनके वालको में भविष्य के लिए अच्छे संस्कार तो जम रहे हैं । - - पूजा में परमात्मा को लक्ष्य में रख कर ही वन्दना की जाती है, जय बोली जाती हैं और बहुमान किया जाता है । इससे परमात्मा में अटूट अनुराग उत्पन्न होता है जो हमारे लिए महत्वपूर्ण प्राप्ति है। धीरे-२ अभ्यास से आत्मा स्वत उनके शुद्ध गुणो में रमण करने लगती है । द्रव्य-पूजन की यही महान् उपयोगिता है । -- हिंसा का स्वरूप :- पूजा में द्रव्यो के प्रयोग को इसलिए अनुचित मानना कि यह तो प्रत्यक्ष हिंसा है, सरासर हिंसा के स्वरूप को न समझता ही है । बिना सोचे समझे "हिंसा है, हिंसा है" के अनर्गल प्रलाप से अपने भाइयो में भ्रम पैदा कर उन्हें जैनत्व से परे ढकेलना अपने पैरो पर आप कुल्हाडी मारने जैसी भूल है । तत्वज्ञ पुरुपो से निवेदन है कि वे इस पर निष्पक्षता पूर्वक विचार करें। द्रव्य-प्रयोग अनिवार्य :- मूर्ति पूजा में पदार्थों का प्रयोग अवश्य किया जाता है पर उन्ही का जिनको हम सभी अपने जीवन निर्वाह में बराबर प्रयुक्त करते हैं । यहाँ तक कि मुनिराजो का भी जीवन निर्वाह, इन्ही पदार्थो पर ही निर्भर है, जो पूर्ण अहिंसक माने जाते है । मकान, जल, फूल, फल, दूध, मिठाई इत्यादि सभी पदार्थ हम सभी के जीवन में वरावर काम में आने वाले - पदार्थ हैं । इन पदार्थो के अभाव मे क्या किसी महानुभाव का जीवन सम्भव : है ? सम्भव है कोई कम द्रव्यो से काम चला लेता हो और किसी को अधिककाम में लेने पडते हो परन्तु अधिक द्रव्यो को काम में लेने वाला, कम द्रव्यो से उतना ही कार्य करने वाले की तुलना में, बुरा नही कहा जा सकता, भले . ही कमजोर कहा जाय । जैसे आहार करने वाले मुनिराज को, तुलना में तपस्वी मुनिराज को विशेष मानते हुए भी, बुरा नही मान सकते । द्रव्यो के अभाव में हम एक कदम भी आगे नही बढ सकते । " ७ 1 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रस जीवों को "हिंसा अहिंसा" :- एक स्त्री अपने सतीत्व की रक्षा के लिए अपना प्राणान्त कर देती है और दूसरी अपने प्रेमी के न मिलने के वियोग मे अपना जीवन त्याग देती है । स्थूल दृष्टि से दोनो जगह प्राण-हानि समान है पर भाव दृष्टि से पहली प्राणहानि अहिंसा है और अनुकरणीय है क्योकि वहाँ चारित्र्य की रक्षा है, और दूसरी पूर्ण हिंसा है । यह त्याज्य है क्योकि वह विषय-वासना से परिपूर्ण है । एक माता ने, बच्चे को भूल से एक औषधि के बदले दूसरी औषधि जो पास ही पडी हुई थी, दे दी और बच्चे का प्राणान्त हो गया । एक अन्य स्त्री कामातुर हो, अपने कार्य में बाधक समझ अपने ही बच्चे की हत्या कर देती है । प्राण-हानि की दृष्टि से शिशुओं का प्राणान्त एक समान है पर पहली प्राण-हानि हिंसा नही कही जा सकती । जहाँ दूसरी महान् हिंसा और घोर पातक है । वहाँ पहली प्राण-हानि का, हिंसा न होने पर भी, अनुमोदन नही किया जा सकता क्योकि वह एक भूल है, जिसको करने का कर्त्ता को भी बड़ा भारी पश्चाताप है । जैन दर्शन का यह निर्णय वस्तुतः अनुपम है । चारित्र रक्षा के लिए हुई प्राण-हानि पूर्ण अहिंसा, अनुकरणीय एव अनुमोदनीय । भूलसे हुई प्राण हानि स्वीकारोक्ति से क्षम्य । बुरे हेतु से हुई प्राण-हानि पूर्ण हिंसा और महान् पापों का उदय । साध्वी के चारित्र्य की रक्षा : किसी साध्वी जी महाराज के चारित्र्य को भ्रष्ट करने वाले दुष्ट के प्रयास को विफल करने की चेष्टा में उसका प्राणान्त हो गया तो ऐसी प्राण हानि को क्या समझें? क्या यह हिंसा है ? यदि यह हिंसा और पाप है तो साध्वीजी को बचाना कभी उचित नही कहा जा सकता । यदि बचाना उचित है जैसा कि हम बराबर मानते हैं तो हमें दिल खोल कर कहना चाहिए -- साध्वीजी महाराज को बचाना " परम धर्म, परम अहिंसा ।" वास्तव मे जैनी इसे 'हिंसा' नही कह सकता क्योंकि उसका उद्देश्य किसी को मारने का नही, अपितु एक मात्र चारित्र्य - रक्षा है । 1 देश की रक्षा : - देश पर हमला होता है । क्या घर में बैठकर अहिंसा का जाप करें ? क्या दुष्टो का सामना करना हिंसक कृत्य समझें ? क्या प्राण-हानि से डर कर उनको अपने सत्व पर चोट करने दें ? नही ! कभी नही !! जैनी तो यही सोचेगा कि अपने चारित्र्य या चारित्र्य उदय के साधनो की हर संभव उपाय से रक्षा की जाय । यदि ऐसा नही किया जाता है तो उसका ८ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ है-अपने मुनिराजो को घानी में पिलवाना, अपने अमूल्य शास्त्र-भडारो को जलवाना, अपने स्वाध्याय पोषक धार्मिक स्थानो को तुड़वाना और अपने भाइयो को विधर्मी वननकी मजबूरी में गिरने देना। यह कृत्य चारित्र्य की हानि ही नही प्रत्युत भीपण हिंसा का उदय है। इसलिए जैनी वचाव के लिए खून की आखिरी वूद को भी वहा देना उचित समझता है। देश को बचाना, चारित्र्य मार्ग को चचाना है। सारांश यह कि चारित्र्य रक्षा के निमित्त उस पर खतरा उत्पन्न करने वाले पचेन्द्रीय जीवोकी प्राण-हानि हो जाय तो भी वह (प्राण हानि) हिंसा की कोटि में नहीं रखी जा सकती बल्कि कर्तव्यपरायण श्रावक के लिए तो सच्ची अहिंसा ही है। इसे गभीरतापूर्वक समझने की महती आवश्यकता है । जैनी एक निर्दोप चीटी को भी मारना महान् पाप समझता है तो परिस्थिति उत्पन्न होने पर किसी तरह की प्राण-हानि को भी पूर्ण 'अहिंसा' की ही कोटि में रखता है। यही उसके स्याद्वाद की महान् विशेषता है । इसी अनेकान्तवाद के आधार पर वह आज संसार में अजेय खडा है। रोग से रक्षा :-प्रश्न उठ सकता है कि किसी मुनिराज का जीवन यदि रोग के कारण खतरे में पड गया हो तो ऐसी हालत में, उनको बचाने की दृष्टि से किसी जीव की हत्या के सहारे उनका उपचार किया जा सकता है ? एक जीव की प्राण-हानि यदि एक चरित्रवान को बचा देती है तो चारित्र्य रक्षा या वृद्धि को देखते हुए ऐसी प्राणहानि को क्या अहिंसा की कोटि में रख सकते है ? प्रश्न विचारणीय है। एक तरफ चारित्र्य वृद्धि सामने है तो दूसरी तरफ निश्चित रूप से हत्या । ऊपर विचार कर चुके हैं कि चारित्र्य रक्षा के लिए जरूरत आ पड़े तो दिल खोल कर वाधको की प्राण-हानि की परवाह किये विना कार्य करें। परन्तु इसका यह अर्थ कदापि नही कि निर्दोषो की हत्या की जाय या अन्य उपाय रहते हुए भी,कार्य को शीघ्र सम्पन्न करने की आशा में पहले ही यह रास्ता अपनालें। यह तो अपने वचाव भर के लिए एकदम अन्तिम साधन है। __ महात्मा गाधी ने अथक प्रयास किया कि पाकिस्तान पागलपन न करे, शान्ति से रहे परन्तु वह न माना। अन्त मे जब वह छाती पर चढ बैठा तब महामानव ने कहा-"नेहरू ? काश्मीर को वचा।" पाकिस्तान के इतने बुरे रवैये को देख कर भी ऐसा नहीं कहा कि पाकिस्तान को रोद डाल। जव नेहरूजी ने देखा कि काश्मीर को बचाने के लिए शक्ति को काम में लेने के सिवाय और Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोई उपाय शेष नही, तब उन्होने अन्यमनस्क होकर वह आखिरी कदम उठाया। इसी तरह साध्वीजी महाराज के बचाव में भी जो प्राण-हानि हुई, वह भी सभी सम्भव उपायोंकी असफलताके पश्चात् उठाये गये आखिरी कदमका ही परिणाम था। यह सभव है कि कभी-२ अन्य उपाय के रहने पर भी कार्यकर्ता सर्व उपाय शेष समझ ले और वह आखिरी उपाय को काम में लेने पर उतार हो जाय या ले ले परन्तु यह कर्ता की योग्यता पर ही निर्भर है । जहाँ तक उसके हृदय की सच्चाई से सम्बन्ध है ऐसा कदम आगे उठाने पर भी वह पूर्ण निर्दोष है। जैन तो इतना ही कहेगा कि प्रयासो में यह हमारा अन्तिम प्रयास होना चाहिए। प्रश्न में मुनिराज के उपचार के सम्बन्ध मे जो पूछा गया है, जैनमुनि तो क्या साधारण व्यक्ति भी ऐसा उपचार कभी स्वीकार नहीं करेगा और ऐसी प्राण हानि को पूर्ण हिंसा की ही कोटि में रखेगा। __हम यह अच्छी तरह जानते है कि यह हमारे चारित्र्य या जीवन पर उस जीव का आक्रमण नही है। मर जाना, मार दिया जाना या चारित्र्यहीन बना देना इन सब तथ्यों में बहुत फरक है। रोग होना, मर जाना यह तो प्राकृतिक नियम है। मरना आज नहीं तो कल पडेगा। यह निर्विवाद एव सुनिश्चित है। इसमें विचारे उस जीव का क्या दोष ? फिर ऐसे उपचार के बाद भी । यदि न बच सके तो? बहुधा हम यह देखते हैं कि ऐसे उपचार के बाद भी अनेक नहीं बच पाते । इसी उपचार मे ही यदि यह करामात होती तो आज तक कोई नहीं मरता। यह तो हमारी भ्रान्ति है। रोग के उपचार का यह आखिरी उपाय भी नहीं माना जा सकता। इससे भी अच्छे-२ अन्य अहिंसात्मक बहुत से उपाय अभी भी शेष है । यदि मान भी ले कि बचाव का और कोई उपाय शेष नही, बचाव का यही आखिरी उपाय है तब हम कहेंगे कि आप इस उपाय को भी दफनां दीजिए। चारिश्य वृद्धि की ओट में एक निर्दोष जीव की हत्या कैसे स्वीकार की।जा सकती है ? निर्दोष को जान बुझकर मारना ही घोर चारित्रिक पतन है । भविष्य की चारित्रय वृद्धि की आशा में अन्यायपूर्वक प्राण बचाने का कोई भी उपाय जैनी को कभी स्वीकार नहीं हो सकता। इसे चारित्र्य वृद्धि नहीं कह सकते । कहाँ दोषी से बचने का भाव, कहाँ निर्दोषी की हत्या; इन दोनो मे आकाश-पाताल का अन्तर है। निर्दोष जीव के प्रति दया और करुणा का भाव रखते हुए मृत्यु का हसते हुए आलिंगन करना कही अधिक श्रेयस्क रहै, श्लाघनीय है । यही उदात्त भाव चारित्र्य की सच्ची रक्षा है। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . अन्यायी जीवो से रक्षा :-ऐसे. और भी अनेक प्रसंग उपस्थित हो सकते है । जैसे किसी गाव में नरभक्षी वाघ घुस आया हो,कुत्ता पागल वन काटने लगा हो, साड विगड कर मारने लगा हो, साँप खुले मैदान में पीछा करता हो इत्यादि । ऐसे प्रसगो पर भी उसी नीरस भाव से अन्तिम क्षणो मे अन्तिम उपाय को व्यवहृत करना चाहिये। हालाकि यह हमारे चारित्र्य पर हमला नही है फिर भी हम पर उनका अनुचित आक्रमण तो है ही.। इसलिए ऐसे जीव भी एक निश्चित. सीमा में दोपी कहे जा सकते है। उनकी विकृत्ति, अव्यावहारिकता और अप्राकृतिक ढग हमें अपने और अपने समाज के वचाव के लिए विवश कर देते हैं। हमारा ध्येय उनके अनुचित आक्रमण को रोकते हुए हमारे बचाव में है। उन्हे मारने, सताने या वदला लेने से नहीं। यहाँ भी हम हिंसक नही कहे जा सकते वल्कि समाज व्यवस्था की अपेक्षा से उचित ही कहे जायेगे। यहाँ मुनिराज का व्यवहार हमारे से भिन्न हो सकता है। उनका अन्तिम हथियार उनका कायोत्सर्ग है। हमारी जिम्मेवारी उनसे भिन्न है, सफलता प्राप्ति भिन्न है, शक्ति भिन्न है, और आवश्यकता भी भिन्न है । न्याय की तराजू हमारे हृदय पटल पर स्थित है.। सच्चा न्याय जव चाहे तव प्राप्त कर सकते है । ऐसे प्रसगो से हमारे ग्रन्थ भरे पडे है। महापुरुषो ने तो हमारे दिल के भावो के आधार पर ही निर्णय किया है और उसी को प्रधानता दी है। 'त्रस एवं स्थावर' को अन्तर :-हमारा मुख्य विपय स्थावर जीवो की हिंसा पर विचार करने का है क्योकि प्रभु-पूजा में द्रव्य ही काम में लिए जाते हैं। सजीवो की हिंसा का प्रसग तो इस कारण ले लिया गया कि उनकी हिंसा तो और भी अधिक वुरी मानी गई है। जब त्रस जीवोकी हिंसा का स्वरूप हमारी समझ में आ जाता है तो स्थावर जीवो से सम्बन्धित हिंसा का स्वरूप समझने में हमें देर नही लगेगी। .. , . उपयोग लेते दया रखने का कहना शर्मनाक :-कई लोगो की यह धारणा है कि "त्रस और स्थावर जीवोकी हिंसा एक समान है । हम अपने स्वार्थको दृष्टि से.चाहे कुछ भी समझें।" पर यह धारणा सही नही है । अपनी स्थितिको समझते हुए बस और स्थावर जीव एक समान नहीं समझे जा सकते। जहाँ एक हमारे जीवन के साथी है वहाँ दूसरे हैं हमारी देह की खुराक । हम भोजन करने वैठे, तरकारी में एक मक्खी या मच्छर गिर गया। कितना अफसोस करते है कि Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बेचारी या बेचारा मर गया। रंधे हुए चावलों के लिए जरा भी दया नही आती । 'पीसी हुई चटनी पर कोई ख्याल नही दोडाता । जो हालत हमारी है वही हालत हमारे मुनिराजो की भी है। भोजन में किसी त्रस जीव के मरे हुए मिलने पर उनके हृदयमें भी अत्यधिक करुणा पैदा होती है । उसे वे भी अलग रख देते है । स्थावर tata लिए ऐसी ही करुणा पैदा हो तो आहार करना तो दूर, आहार लेने 'को भी नही निकलेंगे । } तिब्बत के धर्म गुरु मान्यवर दलाईलामा से पूछा गया कि आप अहिंसा धर्मी होकर ' जीव का पकाया हुआ मास, उवाले अंडे इत्यादि कैसे खा लेते हैं ? उन्होंने उत्तर दिया- "मैं न तो जीवोको मारता हूँ, न पकाता हूँ । भक्तजन दे देते हैं, खा लेता हूँ।” हमारी अन्तरात्माको शायद ऐसे उत्तर से संतोष नही होगा । प्रत्येक विज्ञजन इस सम्बन्ध में गहराई से विचार करें एवं अपनी अन्तरात्मा से इसका स्पष्टीकरण -करें कि कमी कहाँ पर है | अस्तु ऐसे मुनिराजो का वह कथन जो स्थावर जीवो को खाते हुए, उन्ही पर दया रखने का उपदेश दिया करते हैं, कैसे शोभनीय हो सकता है ? ऐसे पदार्थों का उपयोग यदि हिंसा पूर्ण है तो अहिंसा की बात करना ही व्यर्थ है । फिर किसी श्रावक का घर किसी कसाई खाने या बूचडखाने से कम नही कहा जा सकता; और पूर्ण अहिंसक प्राणी तो सिर्फ मोक्ष में ही मिल सकते हैं । पर इस धरती पर विचरनेवाले मुनिराजो को हम पूर्ण अहिंसक, बीस बिसवा अहिंसक कहते हैं । तव पूर्ण अहिसक कहे जाने वाले इन मुनिराजो के व्यवहारो को हम देखें और जैन धर्म के सारगर्भित निर्णय को समझे । जीवों के साथ मुनि का व्यवहार :-मन, वचन -न करने की प्रतिज्ञा करने वाले मुनिराजो को और काया से हिंसा दिन चर्य्या देखना → " यहाँ अपेक्षित है । क्या हम उन्हें पूछ सकते है कि उनके सिर या कपडे बेचारी को अपने निवास स्थान से तो कपडे में जकडकर उसको देना अपने हाथो से उसे मृत्यु के मुख में भेजना नही है ? पैर पर बाँध कर रखना क्या उसे सताना नही है ? क्या यह अत्रत का पोषण नही है ? क्या यह कार्य उनकी बिना इच्छा के हो रहा है ? अपने पीने के जल में पडी हुई मक्खी को वे इसलिए निकाल कर बाहर 1 उत्पन्न हुई जू का वे क्या हाल करते हैं ? हटा कर जमीन पर रख देते हैं या बहुत हुआ "पैर पर बाँध लेते है । क्या जमीन पर रख १२ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रख देते है कि कही वह जल में मर न जाय पर सिर से जू को निकाल कर बाहर रख देने का क्या तात्पर्य है ? उसे बचा रहे है या उसके जीवन को खतरे में डाल खुद बचना चाहते है ? चपेट में आकर मरने वाले जीवो का तो हिसाव ही अलग है पर जान-बुझकर मुनिराज अपने दोनो हाथो से जो अकार्य करते हैं, उपरोक्त उदाहरण से इसे अच्छी तरह परखा जा सकता है। __एक और उदाहरण लें। मुनिराज के पेट में कृमि हो गई या शरीर पर दाद हो गये। वे औपधि का सेवन करेंगे या नहीं? औषधि के प्रयोग से जीवो का नाश होगा या नही? फिर जीवो का नाश क्यो? जिन्हें हिंसा करनी ही नहीं, जो छ काया के जीवो के रक्षक कहे जाते हैं उनका यह व्यवहार कसा वेचारे गरीबो का नारा ? वह भी एक पच महाव्रतधारी मुनिराज से ? यह सब केवल स्यूल शरीर के लिए है या किसी और के लिए? उत्तर इतना ही देना है कि जान-बुसकर जीवो के प्रत्यक्ष मरने का कारण बनते हुए भी मुनिराज पूर्ण अहिंसक कमे कहलाते है ? यदि कहला सकते हैं तो यह कहा जा सकता है कि जैन धर्म अपेक्षा से प्राणी से जान-बूझकर प्राण-हानि होने पर भी 'अहिंसा' ही स्वीकार करता है। स्थावर जीवो के साथ मुनिराजो के व्यवहारो का भी निरीक्षण करें। भक्तो द्वारा मारे जाने के बाद उनकी लागें तो रोज विना रहम दांतो के नीचे चवाई जाती हो है, वर्षा में ठल्ले (गौच जाते) पधारते हुए, हम निळले हिंसक लोगों के ममान अभागे अपकाय जीवो की घात, अपनी पूरी समझदारी के साथ, ये करते जाते हैं। कहां गया दया का भाव ? जिस शरीर को समस्त जीवो का रक्षक घोषित किया था, उसके द्वारा ऐसी क्रिया। कितनी विडम्वना है यह कि रक्षक ही भक्षक बन जाय। अपने को निर्दोप सिद्ध करने के लिये वे कहते हैं -'भगवान की ऐनी उन्हें आज्ञा है, धर्म तो भगवान की आज्ञा में है।' स्वय को निर्दोप सिद्ध करने के लिये भगवान पर दोपारोपण । तव यह कहा जा सकता है कि भगवान ही उन जीवो की मृत्यु के कारण है। अस्तु ऐसी आज्ञा देकर परमात्मा ने जीव तो निश्चित रूप से हनन करवाये ही पर मुनिराज को अहिंसक घोषित करके हमारे इन समझदार भाइयो के सुसिद्धान्त का हनन क्यो करवा डाला? प्रत्यक्ष जीव मारे जाय और हिंसा न समझी जाय ? उन जीवो को मनिराज द्वारा मारे जाने पर कप्ट हुआ या नहीं ? क्या वे स्वेच्छा Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से प्रसन्नता पूर्वक मरना चाहते थे? क्या उनकी अन्तर आत्मा मे वेदना नही हुई ? क्या मरते समय उन्होने आहे नही भरी जीवो को 'जान बुझकर वेदना पहुँचाई जाती है और उन्हें मारा जाता है फिर भी हिंसा नही ? और उन हिंसको को कोई दड नही ? सबसे बडी बात तो यह कि पूजा के काम में लिए जानेवाले कच्चे पानी की एक बूद के लिए तोश्रावको के सामने ये मुनिराज उदासी, दुख और करुणा का वह नाटक दिखाते है जिसकी कोई सीमा नही और यहाँ अपने ही सिर पर पडते घडो पानी के लिए कोई दुःख, दर्द या करुणा कुछ भी नहीं। पात्रे भर-२ कर श्रावकोके घरसे पानी लाकर गट-२ पीते हुए भी जो ऐसी करुणा प्रदर्शित किया करते है क्या उन जीवो पर उन्हें वास्तव में करुणा है या निपट निराला 'ढोग ? पाठक वृन्द इस पर विचारें।' साध्वीजी की डूबने से रक्षा:-सूत्र में यह स्पष्ट आज्ञा है कि नदी में गिरी हुई साध्वी को साघु अवश्य वचावे। ऐसी आज्ञा क्यो ?, यह प्रत्यक्ष हिंसा है या नहीं? कई इस प्रश्न को "भगवान की यहाँ आज्ञा है" इस प्रोट के साथ-२ भुलावेमें डालने के लिए अपने त्यागकी बडी-२ वातें जैसे-"नाव डूब जाय, तो भी हम जरा भी चू चाँ नही करते, नाविक कह दे तो नदी के बीच में ही हमें उतरना पडे; चक्कर खाकर जाना मजूर पर वनती कोशिश नदी पार नही होते", आदि आदि खडी कर देते है। पर इस तरह कभी कोई असलियत छिप सकती है? लखपति अपने लाखो के व्यापार की चर्चा करे, वडी-२ दान की बातें वताये पर यदि हमारे पाँच रुपये न देतो बाकी सबसे हमे क्या लेना-देना ? 'उसी -तरह मुनिराज द्वारा मारे जाने वाले जीवो के लिए मुनिराज को महानता का क्या मूल्य ? वे तो रोते है अपने प्राणो के लिए। तव उन्हे.उत्तर देना है कि ऐसी 'प्रत्यक्ष हिंसा करके वे अपना बचाव क्यो करते हैं ? निश्चय ही ऐसी हिंसा करके साधु महाराज का वचना, बचाना यदि अच्छा न होता तो परमात्मा द्वारा ऐसी आज्ञा कभी नहीं दी जाती। चाहे यह आज्ञा साध्वीजी महाराज को बचाने के लिए ही क्यो न दो गई हो पर साध्वीजी महाराज का जीवन, महत्व की दृष्टि से मुनिराज के जीवन से कोई अन्तर नही रखता । तव उन्हें यह समझना है कि 'परमात्मा ने ऐसी हिंसा उनसे कराके भी उन्हें अहिंसक कैसे कहा? ___यदि आज ठाणाग सूत्र उपलब्ध न होता तो हमारे ये नवीन मतवाले भाई कभी यह स्वीकार नहीं करते कि नदी में गिरी हुई साध्वी को, साधु को बचाना Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाहिए। वे तो यही फरमाते - “ जव साधु को ही अपना प्राण त्यागना स्वीकार है पर किमी जीव को मारना स्वीकार नही तव इतनी हिंसा करके साध्वी को चचाने का तो उनके लिए कोई प्रश्न ही पैदा नही होता । नदी में उतरने से तो अपकाय जीवो की हिंसा के साथ-२ मेढक, मछली आदि सकाय जीवो की भी विराधना हो सकती है । फिर साब्त्री का सघट्ठा (स्पर्श) और वह भी भीगी हुई अवस्था में । इसपर भी साध्वी बचे या न बचे । साघु अवस्था में उन्हें कोई नदी तैरनी तो सिखाई नही जाती। इसलिए जैन साधु के लिए ऐसी मान्यता स्थापित करना मरासर गलत है, मिथ्या दृष्टि है, पाखण्ड है । पर किया क्या जाय? परमात्मा ने ही सूत्र में ऐमी आज्ञा दे रक्ती है । यहाँ उनको "चूके" कहने की भी कोई गुजाइश नही | यह है जिनेश्वर भगवान की आज्ञा । भव उन्हे अपनी तथाकथित मान्यता को इस आज्ञा से मिला लेना चाहिए । प्रत्यक्ष जीव मारे जां और फिर भी हिंमा न समझो जाय ? यह कैसी प्रवचना है ? सतार जोवो का सागर :-- -- लोगो के मनो में अरुचि और घृणा उत्पन्न करा, उन्हें मूर्ति पूजा से हटाने के लिए द्रव्यो के प्रयोग को इन महानुभावो हिंसायुक्त तो बतलाया पर उन्हें यह ध्यान नही रहा कि जिसे वे बुरा बतला रहे हें अपने अच्छे के लिए उमे ही वे जोरो से अपनाये बैठे है और अपनाये जा रहे हैं । अरे । जल मे रही हुई मछली क्या जल के स्पर्श से अछूती रह सकती है ? अलग होकर क्या लाभ में रहेगी ? भाग्यशाली ! श्रदारिक शरीर की रचना को तो समझने का प्रयास करते । दया के अवतार -- जिनकी दसो अगुलियो के दसो नखो में ऐसे जीवीका कलेवर फँसा पडा हो, जिनके बत्तीसो दाँतो की रग-२ में ऐसे जीवो का कलेवर चौवीमो घटे सडा करता हो, जिनके हाड़, मास और रक्त का एक- २ कण ऐने ही जीवो के कलेवर में बना हो, जिनकी पेट रूपी भट्टी ऐसे ही जीवो के कलेवर का अर्क निकालने के लिए निरतर घवका करती हो और यहाँ तक कि जिनके प्रत्येक श्वासोच्छवास से ऐमे ही जीवो के कलेवर की सत्यानाशी दुर्गन्ध हर समय निकला करती हो, उनसे में विनय पूर्वक पूछता हूँ कि हे परमात्मा के पाट विराजने वाले दया के अवतार | आपने यह उपदेश देना कैसे उपयुक्त समझा क्या ऐसे अवलम्बन के बिना भी किसी की देह खडी रह सकती है ? शाप्त होने वाले उचित लाभ मिल सकते हैं ? यदि नही तो यह उपदेश देहधारियो "के उपयुक्त नही है । "इसको छोड़ कर उल्टे वे और अधिक घाटे ही में रहेंगे । ? १५ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐसे अवलम्वनो के विना ही यदि जीवित रहना बतलाते और मोक्ष प्राप्ति का लाभ दिला देते तव तो जरूर दुनिया भी शाबाशी देती कि वाह रे महारथियो । जीना तो तुमने सिखाया, शुद्ध उपाय तो तुमने वतलाये जो आज हम ऐसी हिंसा को छोड कर जी रहे हैं। यदि अन्य शुद्ध अवलम्बन नही वतला सकते है तो आपके ऐसे उपदेश कोडी की कीमत भी नही रखते। देह का पोषण पाप नहीं :-बिना ऐसे अवलम्वनो के देह खडी नही रहती और विना इस देह के धर्म उदय में नही आता।यानी इस अपेक्षा से ऐसे अवलम्बनों को अपनाना धर्म का ही पोषण है,इसमें जरा भी संदेह नहीं। चारित्र्य प्राप्तिके बाद जब ऐसे अवलम्बनो की जरूरत रहती है तो चारित्र्य तक पहुंचने में इनकी जरूरत के सम्बन्ध में कुछ कहने की जरूरत ही नहीं रहती। आत्मा, आत्मा होनेपर भी इस मनुष्य देह के सहारे के बिना कर्मों से मुक्त नहीं हो सकती। तब देह का भी मूल्य समझा जाना चाहिए। इसे खड़ी रखना पाप नही । पाप की तरफ ,झुकाना पाप है और धर्म की तरफ झुकाना धर्म । यह आत्मा का निवास स्थान है। यह आत्मा की पूर्व अर्जित सपत्ति है। यह तो आत्मा की संसार-समुद्र तैरने की नौका है। यह आत्मा का वह तीक्ष्ण शस्त्र है जिससे उसे अपने कर्मरूपी बंधनो को शीघ्र विवेक पूर्वक काटने हैं। यही कारण है कि इस देह के लिए तो देवता तक तरसते हैं । हम भी इसे प्राप्त करने के लिए भव-भव में तरसते रहे है । इसे गदी मत वतलाइये, गदगी से बचाइये। इसे कमजोर मत समझिये, अधिक सबल और सतेज बनाइये । इसे रखना पाप मत समझिये धर्म प्राप्ति का स्वच्छ आधार मानिये। इसे निकम्मी मत बतलाइये, सत्पथ पर द्रुतगामी वन सके ऐसी चुस्त बनाइये। शरीर की प्रतिपालना आत्मा की ही सेवा है। इससे उचित सेवा लीजिए। आगे चलकर शुद्ध आत्म-रमणता इसी देह के ही सहारे प्राप्त होती है। व्यावहारिक कार्यों में हिंसा वतलाना अनुचित :-निवृत्ति-मार्ग की तुलना में प्रवृत्ति मार्ग को भिन्नताओ को देखकर उनमें "पाप है, पाप है, हिंसा है, हिसा है" ऐसा कहना व्यावहारिकता का स्पष्ट उल्लघन है। ऐसा कहने का परिणाम वडा अहितकर हुआ है। साराश यह निकला कि अधिकाश वाजिव कामो के करने से लोगो का मन स्वत. खीच गया। पाप सुनने के वाद । भला पाप का कार्य कौन करे। पूजा करने में पाप, स्कूल बनाने में पाप, अस्पताल बनाने में पाप, 'कुँआ खुदवाने में पाप, वाप रे वाप! पाप ही पाप Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुनकर लोग ऐसे कामों से बचने लगे । बहुत थोडे लोगो ने ऐसे कामो में भाग लिया। लिया भी तो ऊारी मन से । अन्तकरण से ऐसे कामो को कभी अच्छा नही समझा । वास्तव में पहले ही "पाप" सुन लेने के बाद भला उनका मन ऐसे कामो में आगे कैसे बढ सकता था। एक तो स्वाभावत ऐसे परमार्थ के कार्यो में हमारी रुचि का अभाव, ऊपर से ऐमे उपदेशांका सहयोग, फिर क्या था मानो 'ऊँघते को खाट मिल गई ।' खुर्ग -२ भाई लोग शीघ्र ही इस ओर झुक गये । उन्हें यह ध्यान नही रहा कि मनुष्य देह जो 'मोक्ष-साधना' में अपना प्रधान भाग रखती है इन उचित अवलम्बनो के बिना ज्ञानवान, नीरोग और सशक्त कैसे रहेगी और मोक्ष साधना में आगे कैसे बढ सकेगी । इन सती ने इतनी कृपा जरूर की कि साधु के ठिकाने जाने में 'पाप' नही वतलाया । यदि आज श्रावक लोग कही ऐसा समझ लेते कि साधु के ठिकाने जाने में भी 'पाप' है तो हम उनको कौन-सा उदाहरण देकर समझाते कि ऐसा बोलना ही 'पाप' है । मुनिराज के ठिकाने जाने में धर्म माना पर उस क्रिया को जरा परख लें मुनिराज के ठिकाने चाहे दिन में गये हो या रात में, घूप में गये हो या वर्षा में, मोटर या रेल से गये हो या पैदल, जूते पहन कर गये हो या नगे पैर, समीप से गये हो या हजार मील दूर से, अपनी आँखो से देखते हुए गये हो या दूसरो को लकडी पकडा कर, जीवो की हिंसा तो मुनिराज के दर्शन होने से पहले ही हो जाती है । फिर भी किया के पहले ग्रग को प्रधानता न देते हुए पूछने पर यही कहेंगे - " मुनिराज के ठिकाने जाने में धर्म है ।" जीव हानि प्रत्यक्ष देखते हुए भी 'पाप' नही कहते श्रीर न ऐसे कार्य को अपनाने की मनाई ही करते है, न बुरा ही समझते है । वास्तव में 'पाप' कहना ही पाप है, व्यवहार के विपरीत है । ऐसा कहते तो समाज पर विपरीत प्रतिक्रिया होती । हर एक मनुष्य में इतना विवेक नही होता कि वह शीघ्र यह समझ जाय कि आप किस आशय से पाप कह रहे है । वह तो सिर्फ 'पाप' या 'धर्म' के कहने पर गौर करता है। 'पाप' कह देने से उस कार्य को करने की मनाई समझता है और 'धर्म' कह देने से उस कार्य को करने का समर्थन । तव श्रीर व्यवहारी के लिये भी यही उपयोग क्यो नही रक्खा गया ? जिस शरीर ने आत्मा को साधु के ठिकाने तक पहुंचाया और उनके दर्शनो का लाभ दिलाया, क्या उसके सहारे के बिना यह सम्भव है ? क्या उसकी उपेक्षा से हम १७ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाभान्वित रहेगे ? यदि नही तो उचित कार्य, जो शरीर को खड़ा रखने के लिए अथवा मन को शुद्ध करने के लिए, समाज को करने जरूरी है, उन कामो मे पाप कहना कितना अज्ञान है, पाठक वृन्द ही विचारे । शरीर से काम मुनिराज को भी लेना है और श्रावक को भी । मुनिराज अधिक ऊँचे पहुँच जाने के कारण, शरीर से बहुत सीमा तक सेवा ले चुक्ते हैं । श्रावक को उस ऊँचे पद तक पहुँचने के लिए शरीर की अधिक आवश्यकता रहती है । कार्य सिद्धि के पहले यदि वह शरीर की लापरवाही करता है तो वह भुल करता है । इसके ठीक नही रहने से वह लक्ष्य तक पहुँचने में असमर्थ हो जायेगा । मुनिराज की देखादेखी उसका वह कदम असामयिक और घातक होगा । हमे अपनी शक्ति और पहुँच को समझना है । अपने हित को ध्यान में रखना है । पशु से मनुष्य भव क्यो अच्छा है ? विचारे पशु को जितनी भूख हुई, उतना खा लिया । सग्रह का नाम निशान नही, बिलकुल अपरिग्रही । झूठ बोलने का प्रश्न ही कहाँ, कुछ बोलते ही नही । चोरी भी नही करते। कुछ पशु तो हिंसा भी अपने लिए नही करते । जो कुछ उन्हें प्रकृति से मिल जाता है या मनुष्य अपने मे से दे देता है उसी पर सतोप कर लेते है । मकान भी नही बनाते । शीत, ताप का भी पूरा परिषह सहते हैं। तो क्या सच्चे महाव्रत धारी या अहिंसक इन्हें मानें ? या इन से भी बढ कर सर्वोपरि व्रतधारी एकेन्द्री जीवो को मानें ? मनुष्य देह क्यो मूल्यवान है ? यदि वह मूल्यवान है तो उसे अपनी खुराक चाहिए या नही ? अपने कार्य क्षेत्र में वह ठीक से कार्य कर सके इसलिए उसको नीरोग रखना उचित है या नहीं ? सत्पथ पर चलाने के लिए और मन को साधने के लिए कुछ अवलम्वनो की आवश्यकता है या नही ? देह की रक्षा तो श्रावको को ही नही मुनिराजो को भी करनी पडती है और उसके लिए उनको भी किसी भी रूप में हो, छोटे से छोटे प्रश में ही सही ऐसी प्राण हानि तो अपनानी ही पडती है । अक्रियशीलता की उच्चता के सामने तो आहार, विहार का व्यवहार अपनाना भी नही टिकता । उपदेश सुनाने और सुनने का व्यवहार भी नही टिकता। इसलिए अवसर के पहले ही शुक्ल ध्यानी की समानता करना हमारे लिए उचित और लाभकारी नही कहा जा सकता । द्रव्यों का सहयोग मुनिराज भी लेते है और श्रावक भी । पाप समझना और छोड़ने की शक्ति रहते अपनाये जानां कपट- पूर्ण नीति का परिचायक है। シ १८ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जोवो को कैसे खाया जाय :-इसी तरह किसी को जीव समझना और उसी को जान बूझकर खाना, फिर उस पर दया दिखलाने की रट लगाना, निहायत शर्म की बात है। या तो हमें समझ लेना चाहिए कि हम जो कुछ खाते है वे सव एकेन्द्रीय जीवो के त्याज्य पदार्थ है या उनके जीवन का पूरा उपभोग हो जाने के वाद के अवशेष है या वे एक प्रकार के पदार्थ हैं, जो प्रति प्रदत्त हमारी सहज खुराक है, जिन्हे ग्रहण करने मे हमे पाप नही लगता। __व्या हमें आम और आम के वृक्ष में अन्तर नही मालूम पडता? क्या दोनों एक कोटि के जीव है ? क्या गेहूँ और गेहूँ का पौधा समान है ? सम्भवतःवे समान नही है। उनके अकूरित होने की क्रिया को देख कर उन्हें भले ही जीव मान लें पर इस पर भी हमें गम्भीर विचार करने की आवश्यकता है। भिगोने पर दालो(चना, मोऽ इत्यादि)में अकुर फूट आते है पर धान(गेहूं, ज्वार) में ऐसे अंकुर नही फूटते। किसी की टहनी उग आती है तो किसी के बीज उगते है। कभी-२ सूखे लछो और पक्के मकानो में भी कोपलें निकल आती हैं। घास काटने पर भी वालो की तरह वढती ही रहती है । सूखे लछ भी निमित्त पाकर अग्निकाय जीवो का गरीर धारण कर लेते है। दूध दही के सहयोग से दही रूप में परिणत हो जाता है पर पानी दही के रूप में नही जमता । प्रश्न उठता है कि अग्नि को प्रधान माने या सूखे लट्ठ को, दही को प्रधान माने या दूध को? यानी प्रकृति का रहस्य अपार है। पानी उबालने पर भी पानी ही रहता है, भाप बनने पर भी पानी ही रहता है, वर्फ जमने पर भी पानी ही रहता है । अन्न को महीनों राख में लपेटकर रखिये, हवाशून्य वर्तन में रखिये, धूप में सुखाइये उसमें शीघ्रकोई परिवर्तन नहीं होता। अकुरित होने के लिये भी उन्हें मिटी, पानी और हवा तीनों का सहयोग आवश्यक होता है। बहुत सम्भव है मिट्टी, पानी और हवा में रहे सूक्ष्म जीव इस दाने को अपना खाद्य वना उत्पन्न हो जाते हो, या ये जीव इतने शक्तिशाली हो कि हमारे व्यवहार मे लेने पर भी वच निकलते हो। फिर भी यह मान लें कि गेहूं भी गेहूँ के पौधे के समान ही जीव है, भले ही उगाने पर उगने के सिवाय और कोई भी गति उसमें नजर न आती हो । अत अपने लिए ऐसे जीवों का उपयोग न लेना ही उचित है। शरीर रखने के लिए जैसे आम, सतरे, केले, अगूर, तरबूज, खरबूजा, पपीता इत्यादि खाकर ही रहना चाहिए, जिनके उगनेवाले वीज आसानी से बचाये जा सकते हैं, या दही, दूध, मेवे इत्यादि का ही उपयोग Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करना चाहिए। मान ले कि हमसे ऐसा कडा निर्वाह होना कठिन है पर हमारे दयावन्त मुनिराज तो इसे निभाते! शरीर रहे तो क्या, न रहे तो क्या; भला जीवों को कैसे खाया जाय? छः काया के जीवो को अपने पुत्र के समान समझने वाले ये मुनिराज अपने ही पुत्र का कलेवर खा कैसे लेते हैं ? ___ सम्भवत' वायुकाय, तेऊकाय और अपकाय इत्यादि सूक्ष्म जीवो की भी हिसा हमारे द्वारा नहीं होती। कारण उनकी शक्ति अत्यन्त प्रबल होती है (जैसे अत्यन्त महीन जुगलियो के बालो में, चक्रवर्ती की सारी सेना ऊपर से गुजरने पर भी, मोच तक नही आती)। हमे अपने लिए यह समस्या हल करनी होगी ताकि व्यर्थ मे गलत धारणा की उत्पत्ति से हम अपने उचित लाभ से वचित न रहें। जहाँ पाप हो वहा धर्म समझना जैसे मिथ्या दृष्टि है उसी तरह जहाँ धर्म होता हो वहाँ पाप समझना भी मिथ्या दृष्टि का ही कारण है। ऊपर हम विचार कर चुके है कि पाप-बन्ध का सम्बन्ध मन के भावो से है जीव मारे जाने से नहीं। जयणा सहित कार्य करने की जो आज्ञा परमात्मा ने दी है उस पर भी विचार करना आवश्यक है ।। अन्तर स्वतः सिद्ध है :-बस और स्थावर जीवो के बीच में तो हमें अन्तर रखना ही पड़ेगा। तत्वज्ञ पुरुष इतने मात्र से अन्दाज लगा लें कि साधु, मुनिराज को आहार देते समय उनके सामने अनिच्छा से यदि एक भी सजीव जैसे चोटो, माखी, मच्छर आदि का हनन हो जाय तो वे उसी समय से उस दिन के लिए उस घर का आहार लेना स्त्रीकार ही नहीं करते परन्तु स्थावर जीवों की इतनी जन-वझकर की गई हिंसा और उनके सामने होती हुई हिंसा को (जैसेगर्म पानी, खीर, तरकारी या अन्य पदार्थ जव उनके पात्रो में उँडेलते है तो उनके मतानुसार-भिवरवु द्रष्टान्त ३२, पृष्ठ १५-वायुकायों के जीवो की विराधना होनी निश्चित ही है। कारण वायुकाय के जीवो का छेदन-भेदन करते हुए ही ये पदार्थ उनके पात्रो तक पहुँचते हैं।) देखकर भी वे मन में कुछ भी विचार नहीं लाते और खुशी से आहार ले जाते है । तब निश्चिय ही यह हिंसा नही है। द्रव्यों का 'कम या ज्यादा उपयोग :-ऐसी एक शका उत्पन्न हो सकती है कि यदि इन खाये जाने वाले पदार्थो के उपयोग में हिंसा नहीं है तो इनके अधिक उपयोग को 'पाप' और कम उपयोग को 'धर्म' क्यो मानते है ? Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यहाँ यह समझ लेना मावश्यक है कि ससार में सिर्फ जीवो को मारना ही 'पाप' नही है बल्कि और भी अनेक प्रकार से मनुष्य को पाप लगते हैं जैसे व्रत लेकर भग करना, झूठ बोलना, चोरी करना आदि। इसी प्रकार अधिक पदार्थों को काम में लेना इसलिए बुरा माना गया है कि इनके उचित से अधिक उपयोग पर मनुष्य स्वार्थी, विलासी, रोगी, प्रमादी, आश्रित, सामर्थ्यहीन और दूसरो के अतराय या द्वेष के कारण वन जाते है जो निश्चय ही बुरा है, पाप है। कम पदार्थों से अपना काम सुचारु रूप से चला लेना इसलिए अच्छा है कि इसके अभ्यस्त होने से मनुष्य स्वावलम्बी बनते हैं | पदार्थ कम मिलने या न मिलने के समय मे भी अपने शरीर की रक्षा कर सकते हैं, दूसरो के अन्तराय और कपाय के भी कारण नहीं वनते । अधिक पदार्थों के सग्रह में जो समय लगता उसे बचाकर अपने स्वाध्याय में लगा सकते है और रोगादिक कारणों से, जो धर्म में महा अंतराय के कारण है, वच सकते है । हिंसा का प्रश्न यहीं नही है । यदि इसमें हिंसा मानेंगे तब तो हृष्ट-पुष्ट, अच्छी क्षमता वाले, नीरोग और लम्बी उमर वाले व्यक्ति, रोगी, कमजोर दुबले पतले तथा अति अल्प आयु वाले व्यक्तियो की अपेक्षा अधिक हिंसक समझे जायेंगे क्योकि ये इनको अपेक्षा अधिक पदार्थों का उपयोग करेंगे। तो क्या रोगी, कमजोर, अल्पायु होना हमारे लिए अच्छा होगा ? तब हम कम हिंसक होगे ? श्रावक अधिक सहुलियत का हकदार : - यह सोचना कि मुनि - महाराज की, अपने महान व्रतो के कारण ऐसे व्यवहारो में जीव हानि होने पर भी, 'हिंसा' नहीं गिनी जाती पर श्रावक की, उन्ही व्यवहारो को एक ही उद्देश्य को लेकर अपनाने पर भी, अवश्य हिंसा मानी जायेगी, असगत जान पडता है । उल्टे परमात्मा की आज्ञाम्रो में तो 'छूट' शक्ति श्रोर आवश्यकता के परिमाण से है । कमजोरो को तो और विशेष छूट दी गई है । जैसे मुनिराज अपने लिए न तो ठिकाने के दरवाजे खुलवा सकते है और न वन्द ही कर सकते है । यदि ऐसा करें तो उन्हें पाप लगे। पर साब्वीजी महाराज ऐसा व्यवहार अपना सकती हैं और उन्हें पाप नही लगता । यह इसीलिए कि उन्हें इस व्यवहार की आवश्यकता है, भले ही कुछ जीवो की हानि हो । वर्षा में मुनिराज ठल्ले पधार सकते हैं पर गोचरी नही पवार सकते | देखिये, एक ही वर्षा है, एक ही मुनि है, जीवों की विराधना का प्रसंग भी एक ही है और आज्ञा प्रदान करने वाले भी वही भगचान है | यहाँ जीवो की विराधना का ध्यान रक्खा गया या मुनि के २१ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उचित निर्वाह का? यदि परमात्मा ऐसा विवेक न रखते तो कोई भी प्राणी उनके मार्ग को निभा ही नही सकता । श्रावक तो मुनि महाराज के सामने अत्यन्त ही कमजोर पडता है इसलिए उसे तो और भी अधिक छूट की आवश्यकता रहती है । फिर जो सुविधाये मुनि को मिली हो वे भी श्रावक को न मिलें, नितान्त असम्भव ही है । यदि श्रावक का वैसा निर्मल उद्देश्य नहीं बन पाता तो मुनिराजो को छोड़ हम दो श्रावको के व्यवहारो को ही मिला कर देख ले | दो श्रावक तो हम निश्चय ही एक समान है | सामान्य तौर पर यह देखा जा सकता है कि किसी भी श्रावक के शरीर से ऐसा एक भी धर्म - कार्य नहीं हो सकता जिसमे तथा कथित द्रव्यो का प्रयोग न होता हो या ऐसी प्राणहानि न होती हो । भले ही हम कम बुद्धि के कारण एक दूसरे को हिंसक बतलाने की भूल किया करे । बकरे के साथ फूल की तुलना हो गलत - - एक बहुत ही शान्त प्रकृति क्रे श्रावक भाई से मैने प्रश्न किया " प्रभु-पूजा में आप हमे किन - २ व्यवहारों से हिंसक समझते है ?" उन्होने उत्तर दिया--" अधिक तो मै नही कहूँगा । मोटा-मोटी मदिरों में फूल और कच्चे पानी का जो प्रयोग किया जाता है, सरासर हिंसा करना है । जीव हिंसा करके भगवान की भक्ति करनी कैसे अच्छी मानी जाय ? आप ही सोचिये यह कहाँ तक उचित है ? बकरा चढानेवाले जव हिंसा करके अपने प्रभु की भक्ति करते देखे जाते हैं तो आप और हम सभी हाय-तोवा मचाने लगते है पर बकरे की बलि चढा कर भक्ति करने वाले को अपनी भूल थोडे ही दिखाई देती है ? ठीक उसी प्रकार आपको भी अपनी भूल दिखाई नही देती ।" असल मे जब कोई बात दिमागमें ठूस जाती है तो वह निकालने से भी बाहर नही निकलती । इन भाइयोके मनोमे यह बात ठूसी हुई है कि जीव सव समान है चाहे त्रत हो अथवा स्थावर और प्राण-हानि को तो हिंसा ही कहेंगे चाहे किसी व्यवहार को लेकर हुई हो । सोचिये, एक ने अपने खाने के लिए मास पकाया और दूसरे ने अपने लिए अन्न । दोनो अपनी-२ थाली पर भोजन करने बैठे और भोजन के पहले दोनो ने धर्मगुरु को श्रद्धा से याद किया कि कोई मुनिराज पधारे तो दानादिक का लाभ लें । २२ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या दोनों को लाभ होगा ? भाग्यवगा यदि मुनिराज पधार जाँय तो क्या वे आहार लेकर दोनो को लाभ देंगे ? यदि नही तो उन्हें समझना चाहिए कि वकरा चढाने में और फूल चढाने में कितना अन्तर है। एक को लाभ की प्राप्ति होती है और दूसरे को क्यों नहीं होती । फूल के जीव की वकालात करने वालो को तो श्रीर भी दो बार सोचना चाहिये । यद्यपि हमारा उद्देश्य उसकी भलाई करने का नही है तो भी अप्रत्यक्ष रूप से ही सही अन्य प्रयोगो को देखते हुए हमारे इस व्यवहार ने उन जीव की भलाई ही हुई है । इम प्रयोग से हमारे विषय सुखो में न्यूनता आती है एव फूलकी वेदनामें भी भारी कमी पड जाती है । क्या इन्हें उसकी भी भलाई अच्छी नही लगती ? महक से मोहित हो विपय सुखो के लिए पहन कर मनोमने तो उन्हें जरा भी विचार उत्पन्न नही होता । कच्चे फूलो को भट्टी पर उबाल कर उनमे बनाये गये सरम गुलकद और गुलावजल को खाते समय श्रावकों को ही नही पच महाव्रतवारी मुनिराजों को भी फूलो पर जरा दया नही आनी और यहाँ इतने दुख दर्द के आँसू बहाते है मानो उनके पुत्र का ही वध हो रहा हो । इमे कहना चाहिए - "भीम के लिए धृतराष्ट्र का रोना ।" पूजा में फूल न तो उवाला जाता है और न ममोमा ही । फूल यदि बोलता तो वह जरूर कहता कि "माला पहन कर ममोसने वालो एव उबाल कर अर्क निकालने वालो के हाथो मे नरी दशा में पहुँचने की अपेक्षा पूजा के स्थान में आकर समाप्त होना * चूंकि घृतराष्ट्र के सारे पुत्रो को युद्ध में भीम ने ही मारे थे, इसलिए मन ही मन धृतराष्ट्र को भीम पर बडा ही क्रोध था । जव युद्ध समाप्त हुआ तो भीम को दबोच कर मार डालने की इच्छा से, उन्होने श्रीकृष्ण भगवान से कहा- "मैं भीम को गले लगाना चाहता हूँ ।" भगवान उनका भावार्थ समझ गये । एक भीमकाय आहे का पुतला बनाया और अन्दर गुड का पानी भर दिया । धृतराष्ट्र से कहा गया भीम यहीं खडा है, मिल लीजिए । धृतराष्ट्र अधे तो थे ही भीम समझ उस पुतले को ऐसा जोर से दवाया कि उसका कचूमर निकल गया । उसमें जो पानी भरा हुआ था वह जोरो से उछला । समझा, भोम चल वसा । जोर-२ मे चिल्लाये - 'हा भीम ! हा भीम ! भगवान कृष्णचन्द्र वोले -- "शान्त होइये, यह तो आटे का पुतला था । भीम जीवित है ।" बिचारे बहुत लज्जित हुए । २३ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरे लिए कही श्रेष्ठ है। यहाँ कम से कम मुझे शान्तिप्रद स्थान तो मिलेगा। कई सासारिक प्राणियो को परम पिता परमात्मा की भक्ति करते हुए तो अनुभव करूंगा।" पाठक-वृन्द सोचे कि क्या हमें हिंसक समझने वालो के मनो में फूल के प्रति दया या करुणा का भाव है ? जब कि वे नित्य ही उनका अपने व्यवहारो में प्रसन्नता पूर्वक उपयोग करते है। हम बकरा न तो मारते है और न किसी के द्वारा मारे जाने के बाद उसके किसी अश को खाते है इसलिए बकरा मारनेवाले को बुरा कह भी सकते हैं पर वे हमे फूल के प्रयोग के लिए कैसे बुरा कहते है, जव कि वे खुद उसका उपयोग करते नही थकते। यदि आप कहें कि आज से वे, फूलो, या उनसे बनाये गये द्रव्यो के उपयोग को बिलकुल छोड देगे तो वे क्या-२ छोड़ देंगे? जल, तरकारी, रोटी आदि भी छोड देगे? यदि नही, तो उन्हें समझ लेना चाहिए कि जब तक वे इस ससार को नही छोड देगे हम उनका पीछा छोडने वाले नहीं है, क्योकि हमे मालूम है कि वे अपनी देह को कैसे खडी रख रहे है। __गर्म पानी आया कहाँ सेः--यही हाल पानी के प्रयोग का है। तपस्या और त्याग को तो सभी धर्म का कार्य मानते हैं। कच्चे पानी के पीने का जो त्याग करते है, उस त्याग को भी परखना आवश्यक है। कच्चा पानी जो पूजा के काम मे लिया जाता है, हिंसा की ही दृष्टि से बुरा माना गया है। पर आप आश्चर्य करेंगे कि जीव हिंसा तो कच्चे पानी की अपेक्षा गर्म पानी मे अधिक होती है। पानी को गर्म करने में तो त्रस-काय तक के जीवो के मरने की सम्भावना रहती है। त्रसकाय न भी मरे पर अग्नि-काय, वायु-काय आदि के जीव तो निश्चित रूप से अधिक काम में आये दीखते ही है। फिर भी उसे व्रत माने, धर्म माने, अधिक हिंसा अपना कर ! यह क्यो? ___ कई लोगो का कहना है कि एक बार अधिक जीव मरेगे किन्तु बाद मे उस पानी में, 'समय-२ पर उत्पन्न होने और मरने वाली क्रिया' रुकने से अनेक जीव जन्म-मरण से बच जायेगे। ऐसा समझना सरासर भूल है। जीवो को मार कर जीवो की उत्पत्ति रोकना ही यदि दया मान लिया जायेगा तव तो जैन धर्म का सिद्धान्त ही बदल जायेगा। फिर तो समय-२ पर घर में जो अनेक मक्खी, मच्छर इत्यादि उत्पन्न होते है उन सब को मार दे और बाद मेन अधिक ३४ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्पन्न होगे न मरेंगे, ऐमा जान कर महा. दया मान लें! तव हमें कहना पडता है कि हिंसा की दष्टि मे कच्चे जन की अपेक्षा गर्म जल के प्रयोग में अधिक हिंसा है। फिर अधिक हिंसा वाले कार्य को त्याग कैसे माना गया ? उत्तर में कई सज्जन ऐमा कह देते है कि ससार भर के कच्चे पानी को तो अभयदान दिया।" ऐमा समझना भी उचित नहीं है। कच्चा पानी पीने का त्याग किया है, उबालने या अन्य कामो में लेने का त्याग थोडे ही किया है। क्या उवालने से उन जीवो का नाम नहीं होता ? उवाला जाना तो किसी जीव के लिए और भी ज्यादा भयकर वेदना है। फिर यह अभयदान कैसा? गर्म पानी पीने वाला तो प्यास की अनिश्चितता के कारण एक लोटे की जगह पांच लोटे उबालता है। इस दृष्टि से भी वह हिंसा अधिक ही करता है, जो इस त्याग की ही कृपा मममिये। फिर जहाँ इच्छा हुई वहां वह पानी पी लेता है, बस पानी गर्म किया हुआ मिलना चाहिए। इमलिए गर्म किये जाने वाले ससार भर के पानी का दोप भी उसे उठाना पडता है। अब विचारिये, गर्म पानी पीने वाला हिंना अधिक करता है या कम स्वास्थ्य एव अन्य कई दृष्टिकोणो से गर्म पानी निन्चय लाभकारी है और यही कारण है कि गास्त्रकारो ने इस व्यवहार की आज्ञा दी है परन्तु हिना कम है, का यहां कोई प्रश्न ही नही है। ___ जब प्रत्यक्ष हिमा अधिक की जा रही है तो फिर उसे त्याग मानें, धर्म मानें यह क्यो? "त्याग तो है, त्याग तो है" ऐमा कहने से काम नहीं चलेगा। क्या, दिन में भोजन करने का त्याग, त्याग माना जायेगा ? क्या, 'सत्य बोलने का त्याग' त्याग माना जायेगा? क्या मुनिराज सत्य बोलने का भी त्याग करा देंगे? महानुभावो | त्याग अवगुणो का किया जाता है। गुणो का त्याग, त्याग थोडे ही माना जा मकता है ? ऐसे व्यवहार से पाप मानने वालो के सिद्धान्त का तो यहां उन्ही के हाथो खडन हो जाता है जब कि अधिक हिंसा वाली क्रिया को अपना कर भी, वे उसमे त्याग और धर्म मानते है। रास से पानी को पक्का बनाने की जो प्रया है वह तो और भी दयनीय है। वै मन में तो बढे सुग होते है कि पानी को गर्म करने मे जो हिंसा होती उससे तो वच गये पर वात बहुत ही उलटी हो गई। श्रावक लोग घडो पानी को जरूरत के बहुत पहले ही, इसलिए मौत के घाट उतार कर छोड देते है कि वार-२ यह तकलीफ न करनी पडे। कई दिनो तक वे इस पानी का व्यवहार Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाहिए | धार्मिक पुस्तको के छपाने में, व्याख्यानो से धर्म प्राप्त करने के लिए बडे-वडे उपाश्रय या पडाल बनाने में, मुनिराजो से धर्म प्राप्त करने के लिए रेल या मोटर से आने-जाने में, दीक्षा लेने वाले महापुरुषो के सम्मानार्थ जुलूस निकालने एव उनका दीक्षा महोत्सव आयोजित करने में, देव लोक हुए मुनिराजो की ठाठ से अर्थी निकालने में तथा उनकी स्मृति में स्मारक बनाने में, पचमी जाते हुए मुनिराजो के पीछे - २ बरातियो की तरह चलने में, बिहार करते हुए मुनिराजो के साथ (सेवा के बहाने ) रह कर लश्कर की तरह तम्बुओ के ढेर तथा पानी की टकिये आदि ढोने में, 'चौमासे' मे पधारनेवाले भाइयो के लिए लकडी पानी, जगह इत्यादि का प्रबन्ध करने में, रात के व्याख्यानो निमित्त गैस की बत्तिया जलाने आदि आदि सैकडो ठिकानो पर हिंसा कम करनी बाकी रह जायेगी । कोई अपना रहा है, इसलिए इसे अनिवार्य नही कहा जा सकता । इन सब व्यवहारो को अपनाये विना भी उनका शरीर मजे में खड़ा रह सकता है । किसी दूसरे ससारी काम के लिए भी नही अपना रहे है, अपना रहे हैं, धर्म प्राप्ति के लिए। इसलिए प्रार्थना इतनी ही है कि स्वेच्छानुसार हिंसा को कम से कम न समझ, अति आवश्यक व्यवहारो को ही वे अपनावे | तब उन्हे समझ मे आ जायेगा कि बिना हिंसा के धर्म की प्राप्ति कैसे की जाती है और धर्म प्राप्ति के लिए हिंसा अपनाना कैसे आवश्यक है । हिंसा समझने के बाद अपनाते वे भी हैं - अस्तु, कुछ भी हो इतना तो शायद उनकी समझ मे भी आ गया है कि हिंसा को हिंसा समझने के बाद अपनानी तो उन्हें भी पडती है और अपनानी पडती है धर्म प्राप्ति के लिए । कम और ज्यादा हिंसा के विषय में मैने क महानुभाव से प्रश्न किया "लक्षणो से मुझे ऐसा लगता है कि आजकल आप लोग भी हिंसा में अधिक प्रवृत्त होने लगे है । पुस्तको तथा साधु सन्तो के चित्र इत्यादि छपाने का काम आगे की अपेक्षा बहुत अधिक बढ रहा है । साधु सन्तो की सेवाओ में तथा दर्शनार्थ पधारने में वसो, मोटरो इत्यादि का उपयोग विशेष रुप से होने लगा है । क्या जव मोटरें नही थी, अथवा कम थी तो लोग धर्म ध्यान नही कर पाते थे ? फिर आप जैसे हिंसा के स्वरूप को समझने वालो के लिए ऐसे हिंसा युक्त अवलम्वनो का धर्मप्राप्ति में अधिक उपयोग क्यो ? और अफसोस तो इस बात है कि ऐसी हिंसा को छोडने की सामर्थ्य रहते हुए भी, हिंसा को कम करने की ३२ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जगह और अधिक अपनाते हुए कुछ ठाठ-बाट अधिक ही करते नजर आते हैं। हिना को हिमा' यानी अफीम या गोवर के समान समझाने और समझने के वाद मदिरो को तो आपने क्षणमात्र में छोड़ दिया। इससे आगा तो यही थी कि और ठिकाने भी आप हिंसा दिन-पर-दिन कम ही करने पर जैसा मैने ऊपर कहा है उल्टे आप तो दिनो-दिन हिंसा मे और अधिक ही प्रवृत्त हो रहे है।" तब उन्होंने नक्षेप में उत्तर दिया-"हम हिंसा अधिक अपनावें या कम, हिमा को हिंमा समझ कर अपनाते हैं। सही दृष्टिकोण को लेकर चलते हैं। गोवर को गुड नमझने की भूल करने वाले नहीं हैं।" ___ सवाल विलकुल नीचा है कि हिंसा की भयकरता को समझने वाले, सामर्थ्य रहते उसको कम करने के स्थान पर अधिक क्यो करने लग गये? हिंसा की भयकरता को न नमझने वाला यदि हिमा करता है तो उसकी अज्ञानता को देखते हुए उस पर गम खा सकते है, उसे समझाने का प्रयत्न भी कर सकते है और भविष्य में उनके नुवर जाने की आगा भी रख सकते है पर हिंसा की भयकरता को जानने वाले यदि हिमा करें और दिन-२ अविक करने लगें तो क्या वे भी दया के वैसे ही पात्र है? भला यह कोई उत्तर है-"हिंसा को हिंसा समझ कर ही अपनाते हैं।" बकरे मारने वाला, यदि यह कहे-"मैं मारता जरूर हूँ पर इसे हिंसा समझता हूँ, यानी हिंसा समझ कर ही मारता हूँ।" यह कहकर यदि वह और अधिक बकरे मारने लगे और पूछने पर बार-२ यही उत्तर दे-"मैं कम मातं या ज्यादा हिंसा को हिंमा समझता हूँ। हिमा समझ कर ही अपना रहा हूँ।" तो अव उसे क्या समझावं? कैसे समझाव ? क्या हमें आश्चर्य नही होगा कि हिंसा समझता है और फिर भी उसे करता है और अधिक करता है | निश्चय ही उसके ऐना कहने पर हमे अत्यधिक हैरानी होगी। ____इसी तरह हमारे इन मुयोग्य भाइयो की भी हमें प्रशसा करनी चाहिए। ये भी हिंसा को हिंसा समझ कर ही अपना रहे हैं और अपनाते जा रहे है अधिकाविक मात्रा में। इनका दृष्टिकोण बहुत सही हो गया है। इनके हिसाव मे हिना छोड़ने की चीज नही, वह तो सिर्फ समझने भर की है। ___मजबूरी में, विपयो या कपायो के जोश में या आदत के वशीभूत किसी की लाचारी को स्वीकार भी करने पर उसकी समझदारी को कैसे स्वीकार कर - लें जो विना कारण के हिंसा करते है और दूसरो को भी हिंसा करने के लिए प्रेरित Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करते हैं। साहित्य प्रकाशन के व्यवहार को ही लीजिए, क्या यह किसी के लिए मजबूरी है ? क्या विपयो और कषायो के जोश में ऐसा किया जा रहा है ? फिर सहज ही त्याज्य ऐसी हिंसा को भी अपनाते जाना और न चाहने पर भी लोगो को करने के लिए प्रेरित करना, उनसे चदे मागना, उन्हें सब्ज वाग दिखाना, आखिर किस लिए ? हिंसा करने का वढावा देने के लिए या भविष्य के किसी लाभ के लिए? ___ भूतकाल मे ऐसी हिंसा ये नही छोड सके उसका इन्हें पूरा दुख है, भविष्य में भी ऐसी हिंसा छोड़ने की इनकी पक्की भावना है। सिर्फ वर्तमान में अपनी इक्छानुसार चर्खा चलाते रहना है। गलत मान्यताएं अनेक अनियमितताओं को कारण-भावार्थ यही है कि इस तरह के व्यवहारो को हिंसामुक्त मानने से हमारे सामने अनेक अनियमिततायें उत्पन्न हो जायेगी। फिर हम धर्म के किनी क्षेत्र में भी नहीं ठहर सकेगे। एक तरफ हिंसापूर्ण क्रिया कम होगी तो दूसरी तरफ धर्म की प्राप्ति । जैसे मुनिराज को दान देने की शुद्ध क्रिया को ही लीजिये। मुनिराज को दान देकर लाभ ले, या उन दिये जाने वाले पदार्थो को न देकर, भविष्य की कुछ हिंसा ही को कम करने का लाभ लें? (यानी जो कुछ मुनिराज को देना चाहते है उन्हें न देकर, बचा कर अपने पास रख लें। उनोदरी तप का कहे तो वह भी शक्ति अनसार रखते चले। जब भी खाने-पीने की आवश्यकता आ जाय, उन बचाये गये पदार्यों से जितना काम निकल सके, निकाल ले। इस तरह उतने अन्य पदार्थ व्यवहार मे लेकर जो हिंसा करते वह निश्चय ही टल जायेगी।) कहिये आत्मा क्या गवाही देती है ? मुनिराज को देने से अधिक लाभ होगा या हिंसा को कम करने से ? कम-से-कम हिंसा को अपना कर अपना कार्य चला लेने की भावना रखनेवाले इस पर अवश्य विचार करें। __हिंसा को हिंसा समझ कर आवश्यकतानुसार अपनाने वाले ऐसी सहज ही में कम की जा सकने वाली हिंसा को भी क्यो अपनाये बैठे हैं ? क्या उनकी हिसा छोड़ने की रचि नहीं है? दूसरोही से हिंसा छड़वाना चाहते है? हम लोगो के स्पष्ट मत में हिंसा तीन काल में भी स्वीकार नही की जा सकती, न उसका समर्थन ही किया जा सकता है। वह सदा के लिए बुरी है। क्रिया जब निर्मल उद्देश्य के प्रभाव से 'अहिंसा' की कोटि में आ जाती है (ठीक उसी प्रकार जिस Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तरह गोबर से खाद, खाद मे गन्ना और गन्ने से गुड वन जाता है ) तभी हम उमे अपनाते है | यहाँ हमे इतना ही कहना है कि जब समतदार हिंसा समझने के बाद भी उन क्रिया को करना स्वीकार कर लेते है और हम तरह करने लगते है तो हम आगा करनी चाहिए कि निकट भविष्य मे अव प्रार अधिक हानि होने की सम्भावना नहीं है । वर्तमान मे अपनी नासमझी के कारण यदि ये गुड़ की गांवर ही नमज्ञ रहे हो तब भी न तो गुड़ के मिठान में की पड़ रही है नीरन येने दूर हो जा रहे हैं। हां, वे खाते हुए भी स्वाद न लें या अनमने मन से माने हुए अपने स्वाद को हो faगा ले तो समझना चाहिए, यह उनकी दशा काही फेर है । विषय सेवन में निर्मल उद्देश्य हो असम्भव - " अशुद्ध यानी हिमायुक्त किया निर्मल उद्देश्य की प्रोट में कैसे उचित बताई जा मकती है ? वह हिंसा की कोटि में कैसे जा सकती है? उनकी भयकरता छिनाई जा सकती हाउसका समर्थन कैसे किया जा सकता है ?" इस सम्बन्ध मे शफा करते हुए एक अनुभवी महानुभाव ने प्रश्न किया- "महापुरुष अवतीर्ण होगे, सत पुस्प उत्पन्न होगे और ममार का बडा उपकार होगा- ऐसा निर्मल उद्देश्य बनाता हुआ परम पुनीत भावो मे यदि मं विषय भोग अपनाऊँ, भोगू, तो क्या मेरे ऐसे विनय-भोग उपयुक्त, हितकारी और जहसा पूर्ण समझे जा सकते है ? क्या ऐसे पियों का नमर्थन किया जा सकता है ? महान् उद्देश्य तो सबके सामने साट ही है ।" पाठक वृन्द, प्रश्नकर्ता का प्रश्न सामने है । अपना समझ के अनुसार अब उन्हें उत्तर देना है । प्रश्नकर्ता की सास नमन यह है कि जैसे यहाँ निर्मल उद्देश्य होते हुए भी, अशुद्ध क्रिया यानी विपय-भोग की कि उचित नही कही जानकती ठीक वैसे ही भगवान की भक्ति या अन्य धर्म कार्यों में, निर्मल उद्देश्य दिखा कर का प्रयोग (जो उनकी समझ से हिंसा युक्त है ) उचित नही ठहराया जा सकता । अस्तु, उनकी समझ कुछ भी हो, वात तो यह है कि यदि उद्देश्य निर्मल हो जाय तो किया की अशुद्धि रहती ही नही । वहाँ किसी भी प्रकार से क्रिया को शुद्धि अनिवार्य है । जैमे केवल ज्ञान को प्राप्ति के बाद, चरित्र्य निर्मलता का कोई प्रश्न शेष नहीं रह जाता । हाँ, उद्देश्य मे खोट हो या क्रिया उद्देश्य का मिचन करने में ही असमर्थ हो और हम अज्ञानता के कारण या जान ३५ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'बूझ कर उससे उद्देश्य पूर्ति होती है या हो रही है, ऐसा मान बैठे तो मामला किरकिरा होना निश्चित है । प्रश्नकर्ता महानुभाव के उद्देश्य में यानी हृदय के भावो में कहाँ भूल या कपट है उसी को हम पाठको के सामने स्पष्ट करेंगे । कोई " साधु पद पाना अच्छा या बुरा है १" या "मनुष्य भव पाना अच्छा या बुरा है ?" तो झट कहेंगे-अच्छा है । अब यदि कोई साधु पद पाकर अपने लक्ष्य की तरफ न बढे या मनुष्य भव पाकर भी अपनी जिम्मेवारी नही निभावे तो हम उस व्यक्ति विशेष को हो बुरा कहने के अधिकारी है । पर कभी कभी व्यवहार से कई ऐसा भी कह देते है- आखिर अन्न के कीडे ही तो ठहरे । यहाँ अन्न खाने वाले समस्त समाज पर एक आक्षेप आता है । पर यह तो हम जानते ही है कि समस्त समाज यहाँ दोषी थोडे ही है । ठीक इसी प्रकार जब आप पूछते हैं- "विपय भोग अच्छा या बुरा ? तो तुरन्त कहेंगे - " बुरा" । विपय को अपनाना भी बुरा, विषय का समर्थन करना भी बुरा । यदि मैं आत्म हत्या की दृष्टि से कुएँ में पड जाऊँ और देवयोग से बच कर खजाने सहित बाहर निकल आऊँ तो भी मेरा कुएँ मे पडना अच्छा नही कहा जा सकता । पर आगे चलकर कुछ प्राप्ति समझ यदि दुनिया कह बैठे कि चलो अच्छा ही हुआ तो कह सकती है । इसी प्रकार विषयो के बारे मे सम्भव है आगे चलकर कोई अच्छा फल प्राप्त हो जाय और दुनिया उस अच्छे फल को देखकर उस अपनाये हुए विषय को भी लाभकारी वतलाने लगे, तो अपेक्षा से ऐसा कहा जा सकता है । जैसे तीर्थंकरो या साधु-सन्तों को देखकर दुनिया उनके माता-पिता की बडी प्रशसा करने लगती है और उन्हें धन्य -२ कहने लगती है और ऐसे नर रत्न की भेट के लिए वडा उपकार मानती है । हमारे तेरापथी भाई आज भी बडे भाव मग्न होकर गाते है"छोगा रत्न कुक्षि की धरनी । " छोगाजी उस समय गृहस्थी में ही थी । आचार्य श्री कालुरामजी भी रत्न नही बन पाये थे । जन्मे, खेले - कूदे । रत्न तो दीक्षा लेने के बाद मे बने । फिर छोगाजी की इसमे क्या प्रशसा ? माता-पिता भी इस उपज को अपने बिपयो की करामात नही समझते है क्योकि वे जानते है कि यह तो उनकी अनजानी, अनिश्चित और अनिर्धारित प्राप्ति है । विषय का सेवन तो उन्होने स्वेच्छा से, काम वासना से प्रेरित होकर ही किया था, जो निश्चय ही बुरा था । वे तो यह भी जानते हैं कि उनकी आत्मा का उद्धार इस सुफल के उदय से ही हो गया, यह निश्चित नही है । , '३६ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यहाँ प्रश्नकर्ता को भी सोचना चाहिए कि उन्हें अपनी विना पहुँच का उद्देश्य वनाना कैने उचित लगा ? बानक जन्मेगा, वालिका जन्मेगी, नपुसक जन्मेगा, डाकू जन्मेगा, निनव जन्मेगा, या कुछ जन्मेगा नी ? ऐसी अनिश्चितता मे,"सत पुग्प उत्पन्न होगे", ऐना निर्मल उद्देश्य बना डालना हम जैसे साधारण व्यक्तियो वो भाग्नयं चरित किये बिना नहीं रहता। कुछ भी हो, आशा तो अच्छी ही रखनी पाहिए । यह मानना पडेगा कि प्रश्नकर्ता का उद्देश्य बा निर्मल है । सत पुरुष पैदा फग्गे, ननार को इतनी भलाई चाहनेवाले को भला कैने अच्छा न समझे ? परन्तु कभी-नभी ऐमा भी देखने में आता है कि कई कपटी जन, दीन दुखियो के दुख दूर करने के निर्मल उद्देन्य के बहाने, लोगो से धन ठग ले जाते है। हमें वह नो विश्वास करना ही होगा कि हमारे प्रश्नकर्ता गायद ऐसे कपटी नहीं है। मरन स्वभाव मे ही उन्होंने यह वात नोची होगी। प्रश्नकर्ता निश्चय हो नरल हदयी होगे, ऐमी आगा है। क्या मै प्रश्नकर्ता को पूछनगना है-इन निर्मल उद्देश्य की प्रोट में आपका हेतु विपय सेवन का तो नहीं है । विषय भोग ने तो आपको पूर्ण घृणा है ? क्या आप उन साघु मुनिराज कोतरह है, जो रसीली यम्नुमो का सेवन करते हुए भी उनका रस नहीं लेते ? आप सम्पूर्ण भोग नीरस भाव मे हो भोगेगे? आपकी भार्या जितने बच्चे उत्पन्न कर सकती है उममे अधिक भोग, भोगने की तो आपकी भावना नहीं है? वे भोग भी, मिर्फ निर्मल उद्देश्य पूतिके लिए अत्यन्त नीरम भाव से ही, आप भोगेगे?"हे सौभाग्यवान | यदि हाँ भरते हुए आप सत्य बोलते है तो आप नर-भव को सफल बना रहे है और हमारे आदर के पात्र हैं । आपके मद्-प्रयत्न की कृपा से, आपके जन्मे बच्चों के माथु बनने के बाद आपका कल्याण होगा या नहीं यह ज्ञानी जानें, पर ममार मे अन्य अनेको का तो भला ही होगा। यदि आप अपने उद्देश्य में सफल हुए तो निश्चय ही तीर्थकरो या माधु-सतो के माता-पिता की प्रशसा की तरह, हम आपको भी प्रगमा करने मे नहीं चूकेंगे। यदि आप असफल हुए तो भी, किसके हाय की वात, कोई अफसोम नहीं। आपकी परम उत्तम भावना को लक्ष्य में रखते हुए, हम यह समझ कर सतोप कर लेंगे कि आप अधिक घाटे से तो वचे। मापने कम-से-कम, वहतो से तो अनेक गणा ज्यादा विपय भोगो को छोडा और जो अपनाने पडे उनमें भी नीरस भाव रखा। आपका निर्मल उद्देश्य आपको ठीक रास्ते पर ही ले गया। आपके विषयो में कमी ही आई। पर हे देवानुप्रिय ! Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है कि इनमें पाप है बल्कि इसलिए कि वे और भी ऊँची श्रेणी में पहुँच जाँय | ध्यान में लीन मुनिराज, यह जानते हुए भी कि मन्दिर जाने में धर्म है, महीनो इसलिए मन्दिर नहीं जाते हैं कि ऊँची श्रेणी में पहुँचने के कारण वे उससे भी अनेक गुणा अधिक लाभान्वित है । लाख दो लाख का उपार्जन करने वाला व्यापारी पाँच, दस रुपये के उपार्जन को लाभ का काम समझते हुए भी, उसे नहीं अपनाता क्योकि उससे भी अनेक गुणा अधिक मुनाफा उसे मिल रहा है। आखिर काम मुनाफे से है । थोडा मुनाफा अधिक मुनाफे के सामने व्यवहार मे घाटे का ही काम समझा जाता है। अधिक मुनाफे को छोड न तो कोई कम मुनाफा अपनाता है, न उसका अपनाना ही उचित कहा जा सकता है । द्रव्य-पूजा किसी हद तक परमात्मा में अनुराग उत्पन्न करने के लिए और द्रव्यो में आसक्त प्राणियो की आसक्ति कम करने के लिए है । परमात्मा के गुणो के पूर्ण रागी और द्रव्यो की आसक्ति से बिलकुल परे जो भावस्थ साघु वन गये है वे इतने ऊँचे पहुँच जाते हैं, इतने आगे बढ जाते है कि द्रव्य-पूजा जैसी लाभ पहुँचाने वाली क्रिया तो उनकी उस उच्चता के सामने, अत्यन्त निम्न श्रेणी की क्रिया रह जाती है । अत द्रव्य - पूजा मुनिराजो की उच्चता की अपेक्षा से घाटे की ही क्रिया हो जाती है और यही कारण है कि उसे वे नहीं अपनाते । हालाकि हम जैसे द्रव्यो मे आसक्ति रखनेवाले कमजोर और पिछड़े लोगो के लिए तो वह बहुत कुछ है । लाभ हो तो प्रतिमा-पूजन अपना सकते हैं कई लोगो का कहना है, "भविष्य मे कुछ लाभ यदि हो तब ता क्रिया से उत्पन्न कुछ हिंसा भी स्वीकार की जा सकती है । जैसे मुनिराजो के दर्शनार्थ जाने-आने से कुछ हिंसा जाने-आने में जरूर करनी पडती है पर बाद में उनके मुखारविन्द से, अमृत समान जिनराज भगवान की वाणी सुनने को मिलती है और जीते-जागते चरित्र - गुण की अनुमोदना करने का लाभ भी मिलता है । मूर्ति से तो कोई लाभ होता नही दीखता फिर व्यर्थ में हिंसा अपनाने से क्या लाभ ? 11 यह कहना उचित होगा कि क्रिया तभी अच्छी समझी जा सकती है जब उससे कुछ लाभ की आशा हो । व्यापारी व्यापार करता है लाभ की आशा से । पहले कुछ खर्च भी मंजूर करता है भविष्य में लाभ की प्राप्ति को देख कर | ५० Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन प्रश्न से प्रसन्नता इसलिए हो रही है कि लाभ को गर्त के साथ, कम से कर्म प्रम्न- कर्ता में इन व्यवहार को अपनाने की इच्छा है। सभी अमूर्ति पूजक भाइयों को यह शर्त मजूर है या नहीं, नहीं कह सकते लेकिन जिन्हे मजूर है उनकी महृदयता को हम नह वीकार करते है । अब इन्हें यदि हम मूर्ति-पूजा मे लाभ दिया के तीर उज्ज्वल भविष्य की बागा की जा सकती है । एक मुनि महाराज ने मौन ले रखता है । तपस्या चल रही है । वे ध्यान में लीन कार्यान्य मुद्रा में विराजमान है । ऐमे मुनिराज के स्थान पर यदि हम जी और उनके दर्शन करते हुए उनको चन्दन इत्यादि करें तो हमें कुछ लाभ होगा या नहीं ? उत्तर स्पष्ट है- "लाभ ही होगा" 1 यदि कोर्ट उच्छ गल विभागवाला भाई पाठकों ने ही पूछ बैठे"क्या लाभ होगा मुनिराज ने कोई उपदेन नहीं दिया, न आहार इत्यादि ग्रहण के लिए हम उनने प्रार्थना ही कर सके । उल्टे जाने-आने की हिसा हमने को। हिना का लाभ हुआ गमने तो बात अलग है, लेकिन श्रीर लाभ होता दिलाई नहीं देना ।" पाठकवृन्द नीचे | क्या उनका कहना उचित है ? यदि उचित नहीं है तो नमजाइये वह कं भूल कर रहा है। आप कहेंगे"व्यानी, तपस्वी मुनि - महाराज के दर्शन मे लाभ ही हुआ । वे नही बोले और उन्होंने उपदेश नहीं दिया तो इसमें क्या हुआ ? उनके दर्शन और वन्दन का तो लाभ मिला। यह लाभ भी कम नही । ऐमे मुनिराजो के पास जाना ही अत्यन्त लाभ का कारण होता है ।" किन्तु आपके इतना नमझाने पर भी उने मतोप नहीं होता। वह फिर आप ने पूछना है- "दर्शन और वन्दन मे कौन-सा श्रीर कितना लाभ होता है, मुझे तो यही जानना है। मुझे इसमें कुछ भी लाभ नजर नही आता । उनके दर्शनी से ही लाभ यदि हो तब उन वृक्षों और पशु-पक्षियों को हम मे अधिक लाभ होता होगा जो प्रायः चौबीसो घंटे उनके सामने रहते हैं, वे दर्शन भी करते है और झुक-२ कर वन्दन भी। मुझे स्पष्ट समझाइये, कैसे लाभ पहुँचा और कितना लाभ पहुँचा ? मैं तो जैना गया वैसा ही चला आया । न कुछ सुना, न समझा ।" उनके असंतोष को देखते हुए, बाप उसे और अधिक तत्परता से समझायेंगे । ५१ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदि वह पूरा जिद्दी या नास्तिक निकला तो वात दूसरी हे। नहीं तो समझा कर रहेगे, ऐसी आपको आशा है। आप कहेगे--- ___"धर्म का लाभ, 'मन मे उत्तम भावो की उत्पत्ति' को ही कहते है। धर्म कोई दिखाई देने बाती वस्तु नही है जो तेरा हाथ पकडकर दिखाई जा सके कि तेरे को मिलने पर भी तू 'ना' कैसे कह रहा है।" मुनि महाराज के स्थान पर जाने से, उत्तम भाव तेरे मन में उत्पन्न हुए या नहीं, उसको तू स्वय ही समझ सकता है। इस विषय मे तेरे कहने से ही हमें कुछ मालूम पडेगा। चाहे तू झूठ बोले या सत्य, सब तेरी ईमानदारी ही पर निर्भर है। अव तू अपने भावो को परख । मनि महाराज के सामने जाते ही उनके गुण याद आते है या नहीं? उनको देखकर यदि ऐसी भावना मन में उत्पन्न हो-"कैसे त्यागी, कैसे सयमी, कितने निर्मोही। अहा ! कितना परिपह (कण्ट) सहन कर रहे है। ससार के सुखो की विलकुल इच्छा नहीं । काम और क्रोध को जीतने वाले हे मुनि ! आप धन्य हैं ! जो भव रुपी अथाह समुद्र को तैर कर पार कर रहे है। कोई आप को अवर्णवाद भी वोले तो भी आप क्षमा सहित समभाव रखते है। आपके क्षमा गुण की कहाँ तक प्रशसा करे। समता रस का पान करने वाले हे गणिराज | आप धन्य है | धन्य है । इत्यादि-२" ऐसे विचार आने से दिल मे हलकापन अनुभव होता है या नहीं? मन मे आनन्द उत्पन्न होता है या नही ? मन मे कोमलता पैदा होती है या नहीं? उनके निर्मल गुणो मे हमारी रुचि पैदा होती है या नही ? ऐसे भाव मन में आने के बाद हम उन्हे नमस्कार करते है तो उस नमस्कार में कितनी श्रद्धा, कितना विनय होता है ? उत्तर दे ऐसी स्थिा मे 'हमे धर्म का लाभ मिला ऐसा माने या नहीं? तब वह फिर कहता है--"किसी के गुणो को याद करके यदि लाभ उठाया जा सकता है, तो ऐसा लाभ गुणो को याद करके घर पर भी उठाया जा सकता है। फिर यहाँ तक आने की क्या जरुरत ? इसमे मुनि महाराज ने हमारी कोई सहायता नहीं की। हमने ही गुणो को याद किया और हमने ही गुणो की अनुमोदना की। सारे काम हमने ही किये। घर पर भी हम ही करने वाले होगे। भावना का ऐसा लाभ तो घर पर भी मिल सकता है। फिर यहाँ तक आकर, आने-जाने की हिंसा करने की और समय नष्ट करने की क्या आवश्यकता?" पाठकवृन्द अब आपने समझ लिया कि वह सीधे रास्ते पर आ गया है। आप उससे शीघ्र प्रश्न करेंगे---- Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "घर पर भावना से लाभ उपार्जन की जो वात कहता है उसे तो तेरा दिल ठीक से मजूर करता है ? गुणों की अनुमोदना मे तो लाभ मानता है ? घर पर लाभ उठाने का समर्थन तो करता है ?" वेचारा फैमा। मोचा-"कह दू, यह सब तुम जानो" फिर सोचा-"ऐसा कहना ठीक नहीं होगा। ये लोग हठी है। विवाद चान रखेंगे और मेरी 'नासमझी' की कमजोरी पहले ही प्रकट हो जायेगी। 'हाँ' या 'ना' कुछ नो मुझे कहना ही पडेगा। ___ "लाभ नही होता" ऐना कहने पर उसने थोडा विचार किया। ऐसा कहना उने नलिए उचित नहीं जंचा कि अभी-२ गुणो की अनुमोदना से लाभ उठाने का समर्थन खुद ही कर चुका था, और कुछ आप ही (पाठक वृन्द) के मुख ने मुनिराज के गुण ग्रामो को सुन कर ऐसा प्रभावित भी हो चुका था कि उसने यह दृढ निश्चय कर लिया कि 'लाभ नहीं होता',ऐसा तो वह कदापि नहीं कहेगा। 'लाभ ही होगा' ऐसा कहने के ऊपर भी उसने थोडा-सा विचार किया। सोचा-"लाम" कहूंगा तो उन 'लाभ' को तो में भी समझा नही सकूगा। यदि मुझमे पूछ लेगे-'गुणो की थोथी अनुमोदना से क्या लाभ होने की आशा है ? गुण तो आत्मा में उतर आवे, और सामनेवाला उतारदे, तव लाभ मिला' समझना चाहिए। वरना यह तो ढोग है, व्यर्थ है, इत्यादि-२" तो क्या उत्तर दूगा? विचारो के द्वन्द में उसके मुख से निकला "लाभ ही होगा" भाग्य मे मतभेद न होने के कारण उस 'लाभ' के सम्बन्ध मे उससे कोई प्रश्न नहीं किया गया जैसी उसके मन मे आशका थी, इसलिए मन-ही-मन उसने समझा 'झझट टला'। पाठकवृन्द | आप उससे 'लाभ' ही मजूर कराना चाहते थे। आप कहेगे'मुनि महाराज जब ध्यान में लीन थे, तव वहां जाकर, उनके गुणो को याद करके, उनको नमस्कार करने के सिवाय, हमने कुछ भी नही किया। मुनि महाराज ने भी हमारी इसमें कुछ सहायता नही की। ऐसा नमस्कार, उन गुणो को याद करके हम घर पर भी कर सकते थे'-ये सव बातें ठीक है और यह भी ठीक है कि लाभ दोनो ही जगह होता। वात इतनी ही है कि अब 'लाभ' 'लाभ' में कितना अन्तर है, उसे समझना है। लाभ पांच रुपये का भी होता है और पांच लाख ५३ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रुपये का भी । कौन-सा लाभ लेना चाहेगे ? निश्चय, अधिक लाभ को । लाभ दोनो जगह होते हुए भी 'लाभ', 'लाभ' में अन्तर है या नही ? गुणो की अनुमोदना एक तो घर पर करते हैं, जहाँ गृहस्य के हजार घधे रहते हैं । बच्चे रोते हैं । कोई कुछ वकता है, कोई कुछ । ऐसे वातावरण मे हमारा मन पूरी तरह जम नही पाता यहाँ हमारा ध्यान इवर-उधर वॅटता रहता है इसलिए गुणो मे पूरी तल्लीनता उत्पन्न नही हो पाती । इधर हम मुनिराज के ठिकाने अनुमोदना करते हैं और वह भी महान तपस्वी और ध्यानस्थ मुनिराज के ससर्ग मे । वहाँ आने-न नेवालो का भी हमारी तरह एक ही काम - " भाव से नमस्कार" । यह भी मन को एक बड़ा भारी सहयोग | अपार शान्तिमय स्थान, प्रत्यक्ष गुणो के अवतार सामने होने से मन की एकाग्रता का क्या कहना ? उत्तम भावो में जो तीव्रता आती है उसका वर्णन नही किया जा सकता । वह तो हमारा मन ही समझ सकता है । ऐसी तीव्र भावना, ऐसा उल्लास, ऐसी मन की एकाग्रता लाख प्रयत्न करने पर भी, घर पर उत्पन्न होनी बडी टुप्कर है। अनुभव से ही तू अपने अतर में इस अंतर को समझ 1 "यदि लाभ में इतना अन्तर नही होता तो यहाँ तक आने का कौन कष्ट करता ? कौन अपने आने-जाने के समय को नष्ट करता ? फिर जिस 'हिंसा' का तू अफसोस कर रहा है उसे कौन अगीकार करता " पाठक वृन्द ! हम भी आपकी साक्षी मे अपने प्रश्नकर्त्ताओं को संतोषजनक उत्तर देने का प्रयास करेगे परन्तु आपके प्रश्नकर्त्ता की तरह हमारे प्रश्नकर्तागण साधारण व्यक्ति नही हैं । उनके हिसाब से, छद्मस्थ रूप में भगवान, चार ज्ञान के स्वामी भले ही चूक जाँय पर ये पन्य-मोह-मस्त शून्य के स्वामी मूर्ति पूजा की नस-२ ढीली करने में कभी नही चूक सकते । अपने गुरुओ के गुरु, ये वीर वच निकलने मे उस चतुर सेठ से कम नही जो चदा न देने की अपनी इच्छा को जानते हुए भी, आमने सामने अपने मुख से 'नहीं' न कहने के अभिमान में, सग्रहकर्ताओ से किसी दूसरे ऐसे सेठ से चंदा ले आने का आग्रह इसलिए करता है कि उसको यह पूरा भरोसा है कि वह चंदा कभी नही देगा । जव वह चदा नही देगा तो स्वत. ही उसे भी चंदा नही देना पड़ेगा और "नहीं" कहने से जो उसकी हेठी होती, या दूसरे लोग, चंदा न देने के लिए उसको 'बहाना' बनाते या संग्रह कर्तात्रो से माथा-पच्ची करनी पडती अथवा उन चतुर व्यक्तियो के वाक् जाल में ૪ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फँसने का मौका उपस्थित होता, आदि समस्त झझटो से भी वाल - २ वच जायेगा । परन्तु मान लीजिये उसके दुर्भाग्य से, दूसरे सेठ ने उसकी आशा पर पानी फेरते हुए, चदा दे ही दिया तो भी क्या हुआ, वह तो विना घवडाये, अपनी होशियारी से चदा देने से बचता ही जायेगा । अन्त मे यह बात कह कर ही कि उन्होने दे दिया तो क्या हुआ, इस कार्य में वडा चदा देने को तो में आवश्यकता नही समझता, और छोटा चदा देना मेरी शान के खिलाफ है, साफ बच जायेगा । हमारे प्रश्नकर्त्ता भी उस सेठ की तरह, अभी तो यही समझकर कौडी फेक रहे है कि ऐसा सिद्ध थोडे ही होगा या यह सिद्ध हो ही नही सकता । पर जब उन्हें सारी बातें सिद्ध होती नजर आने लगेंगी, तव यह कहने से उन्हें कौन रोक सकेगा - "हम तो ऊँची- २ क्रियाएँ करनेवाले हैं । ऐसी निम्न श्रेणी की क्रिया की हमें आवश्यकता नही । चाहे वह किसी के लिए उपयुक्त है तो हमें क्या अस्तु, देखें क्या गुल खिलता है । यदि ये ऐसा स्वीकार कर लेगे तो भी कोई हर्ज नही । हानि इसमें हमारी भी नही है । -- इतने विवाद के पश्चात् शायद हमारे प्रश्नकर्त्तागण भी ध्यानस्य मुनिमहाराज को वदन नमस्कार करने में धर्म ही मानेगे । कदाचित् ऐसी मान्यता से, मूर्ति पूजा की पुष्टि होते देख, भविष्य में कुछ लोग ऐसी घोषणा भी कर दे - कि ध्यानस्य मुनि - महाराज के दर्शन और उनके वन्दन से लाभ नही होता, प्रत्युत जाने-आने की क्रिया से हिंसा होती है । छ काया के जीवो की विराधना होती है तो कोई आश्चर्य की बात नही । जिनका ध्येय ही मूर्ति पूजा का विरोध करना है, उन्हें हजार विपरीत वातें अपनानी स्वीकार हैं, पर मूर्ति-पूजा की पुष्टि होते देखना, उन्हें स्वीकार नही । ऐसी मान्यता अपनाने पर भी, मूर्तिपूजा की जडे काटने में वे समर्थ होगे या नही, ज्ञानी जानें पर उनके लिए तो यह अहितकर ही होगा । वे मूर्ति माने या न मानें, हमारे मन में उनके प्रति किसी प्रकार की दुर्भावना नही है । स्वघर्मी की दृष्टि से हम उनकी हानि के सम्बन्ध में उन्हें सचेत कर देना अपना कर्त्तव्य समझते हैं। हम उनकी ऐसी घोषणा को इसलिए हानि - पूर्ण समझते हैं कि ऐसा मानने से ध्यानस्थ एव अस्वस्थता या वृद्धावस्था के कारण उपदेश देने में असमर्थ अनेक साधु साध्वियो की महा आशातना से महा पाप का उदय तो होगा ही, साथ ही उपदेश को न समझने वाले, उपदेश न होता हो उस समय दर्शन निमित्त आनेवाले, विहार और पचमी के समय सेवा ܕ ५५ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - स्वामी श्री भीखणजी ने इसे क्यो पाप पूर्ण समझा और वह क्यो अनुचित है? इस सम्बन्ध में विचार करना यहाँ उचित है। "मरने वाला मरता है, मारने वाला मारता है, कोई बुरा मानेगा कोई भला, हम वीच में पड़ व्यर्थ राग, द्वेप क्यों मोल लें? हम अपनी तटस्थता को क्यो त्यागे?" ऐसी तटस्थता का भग जान, या अपनी शान्ति और स्वाध्याय में वाधा जान, बुरा समझा हो तो ऐसा हो सकता है। वालक उपदेश से (ज्ञान से) न बचाया जाकर शक्ति-पूर्वक, 'पाप' से बचाया गया इसलिए बुरा समझा हो तो ऐसा हो सकता है। “अवती चीटियो को बचाने के उद्देश्य से कार्य किया गया", इसलिए बुरा समझा हो तो ऐसा हो सकता है । और तो कोई कारण दिखाई नहीं देता। पर सिद्धो जैसी तटस्थता की नीति तो स्वामीजी भी नहीं अपना सके। उनके शिष्य भी नहीं अपना सके। आज भी उनके शिष्य नही अपना रहे है। उपदेशो का तारतम्य तो जोरो से चालू ही है। भवि जीवो को तारने का ठेका तो उनकी तरफ से चल ही रहा है। तब ऐसी तटस्थता या अक्रियशीलता की वकालत वे किस मुह से करे? इसलिए इस सम्बन्ध मे हम निश्चिन्त हुए। ___ "अब शक्ति-पूर्वक जीव को पापो से बचाने और अवती जीव के जीवन को बचाने पर," विचार करना शेप रहा। पर स्वामीजी ने भी ज्ञान द्वारा समझा कर हिंसा छुडाने को तो धर्म पूर्ण ही माना है ।* तव इतना कहा जा सकता है कि बालक को पाप से बचाने के लिए, उपदेश द्वारा उसका वह पाप-पूर्ण कार्य उसी से रुकवा सकते तो स्वामीजी श्री को हमें अवश्य अच्छा समझना ही पडता जैसा कि बकरे मारने वाले के उद्धार पर, उ होने अपने शिष्यो को अच्छा समझा है। तब चीटियो के वचने पर भी, उनको बचाने का कोई प्रश्न ही खडा नही किया जाता और न उस कार्य को बुरा ही माना जाता। स्वामीजी ने अपने शिष्यो को इस तरह अच्छा तो समझा पर मन की भावनामो को अभी अलग रख कर हम यह देखे कि उन मुनिराजों और हमारे - - - *भिक्षु दृष्टान्त १२८, पृष्ठ-५४ ... जद स्वामीजी बोल्या : ज्ञान सुं समझाय ने हिंसा छोड़यां तो धर्म छ । ७४ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्य करने के बाद व्यावहारिक दृष्टि से क्या फरक रहा ? सम्भवत कुछ भी नहीं । वकरे मारने वाला वकरे मारने के पान ने वचा और चीटियाँ मारने वाला चीटिय मारने के पाप से बचा । नारे जाने वाले बकरे जान से बचे श्री वर मारी जाने वाली चीटियां जान से वची । यहाँ चीटियो और बकरी का बचना तो विल्कुल ममान हैं । वचने पर दोनो ही अव्रती हर्पित हुए और अपने -२ रान्ते गये * 1 रहा मारने, मारने वालो मे तथा नारना छुडाने वालो में भेद । मारने वालो में-त्रकरे मारने वाले में अधिक समझ है, ज्ञान सहित हिंसा को बुरी समझी हैं, हिना न करने या व्रत लिया है यानी ज्ञान सहित, भाव महित महान् पाप को छोडा है । फिर त पुग्यो के गुणो की अनुमोदना की है, उपकार माना है, saलिए धर्म भी किया है। उधर चीटिये मारने वाला तो अवोध बालक है । जीवो को मारना उसका जरूर बंद हुआ पर हुआ उनकी बिना समझ और सुधार के । वर्तमान मे लाभ इतना ही कि आगे और अधिक चीटियाँ मारने का जो पाप उसे लगता वह उसे नहीं लगा । यहाँ यह भी कोई कह सकता है कि हमारे कठोर व्यवहार में या अपने खेल के अतराय के दुख से क्रोध आने के कारण बच्चे को कुछ पार भी लग नक्ता है पर ऐसा क्रोव तो गुरु-शुरु में प्राय सभी जीवो को हुआ करता है। बकरे मारने वाले को भी उपदेश के समय पहले-पहल उपदेश अच्छा नही लगा हो । सम्भव है गुस्से में उसने भी ऐसा सोच लिया हो - "यह वला कहाँ से आ टपकी, मेरे को नही तो न सही पर बच्चो को तो बहका कर ही छोड़ेगा । क्या इसे और घवा नही है, जाओ दूसरी जगह देखो । ऐसे उपदेश बहुत सुने है, अपना और दूसरो का समय, क्यो नप्ट करते हो, आदि ।” कई बार तो अजानी-बालक ही नही, वडी उमर वाले भी उपदेशको ने मारपीट तक कर बैठते हैं, गालियाँ वक देते है । फिर भी कोई अपना सद्प्रयत्न वद थोडे ही करता है या उसे बुरा थोडे ही मान लेता है । मुनिराजो ने भी अपना प्रयत्न किया और हमने भी अपना प्रयत्न किया। हो सकता है उनका प्रयत्न अधिक मफल रहा हो। पर किमी की शक्ति कम हो या साधन कम हो *भिक्षु दृष्टान्त १४८, पृष्ठ- ६२... कसाई सावांरा गुणगावै मौने हिंसा छोड़ाई तार्यो । बकरा जीवता बचिया ते पिण हरखित हुआ । ७५ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और इन कारणों से उसकी आमदनी कम हो तो यह किसके हाथ को वात है । मुनिराज व्याख्यान देते हैं सबके लिए एक समान । उसी व्याख्यान से कई अधिक लाभान्वित हो जाते हैं, तो कई कम ही रह जाते है । बतलाइये, इसमें मुनिराज का क्या दोष ? उसी तरह वालक को या हमको कम लाभ मिला, तो इसमे उस प्रयत्न का क्या दोष ? पाप या धर्म की मात्रा तो जीवो के भावो की उत्पत्ति पर ही निर्भर है । । यदि कम खर्च वाले के कम आमदनी हो तो उतने अफसोस की बात नही । बच्चे के हल्के ही कर्म बघते है तो लाभ भी हल्का ही होता है। लाभ न भी होता हो, हानि ही यदि कम हो तो भी लाभ ही समझा जाता है फिर जिस जीव का जैसा सयोग । पापो से बचाने वालो के प्रयत्न के हिसाव से उन्हें उतना लाभ अवश्य मिल जाता है जितना उन्हें मिलना चाहिए। चाहे समझने वाला समझे या न समझे । माने या न माने । क्या आप कह सकते हैं कि वकरा मारने वाला यदि न समझता तो मुनिराज को उस प्रयत्न से धर्म का लाभ होता ही नही ? नहीं, ऐसी बात नही है । धर्म का लाभ तो अपने उत्तम भावो पर ही निर्भर है, किसी दूसरे पर आश्रित नही । अभवि जीव अनेक जीवो के उपकार का कारण बनने पर भी उसे कुछ नही मिलता । इसका कारण उसके हृदय के भावो का मैलापन ही है । हाँ, किसी के समझ जाने से, धर्म का अधिक उद्योत देख, अधिक उल्लसित होने के कारण, कोई अधिक लाभान्वित भी हो जाता है यानी लाभ अपने भावो पर ही निर्भर है । चीटियाँ न मारने के कारण बच्चा भी पाप से बचा और बकरे न मारने के कारण बकरे मारने वाला भी पाप से बचा । इतना लाभ तो दोनो का हमारे सामने स्पष्ट है बाकी और क्या - २ लाभ या हानि उन्हे हुई यह तो केवली भगवान हो जानें । यहाँ तक तो मुनि महाराज का और हमारा प्रयत्न समान रहा । इधर बकरे बचे, उधर चीटियाँ बची, इधर बकरे मारने वाला पापो से बचा, उधर चोटियाँ मारने वाला भी पापो से बचा । अब रहा यही देखना कि बचानेवालो मे क्या अन्तर है ? यहाँ एक को तो स्वामी श्री भीखणजी धर्म की प्राप्ति और दूसरे को पत्थर की प्राप्ति यानी पाप की प्राप्ति बतलाते है । ऐसा क्यो ? यही हमारे मुख्य विचारने की बात है । यहाँ स्थिति यह है कि उनका पात्र एक ज्ञानवान व्यक्ति है और हमारा पात्र एक अज्ञानी, अवोध बालक । ७६ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फिर इन त्यागी, तपस्वी, ज्ञानवान महापुरुपो के और हम जैसे अल्प ज्ञानियो के कार्य में समानता कैसे हो सकती है ? कहाँ उनकी सामर्थ्य, कहाँ हमारी सामर्थ्य । पर पाठक वृन्द, निर्णय के समय आप इतना ध्यान जरूर रखें कि करोडपति के पांच सौ रुपये से, रोज कमाकर पेट भरने वाले गरीब की एक पाई भी अधिक मूल्यवान होती है । पर हम लाचार उन्होने अपने उद्देश्यानुसार अपना तरीका अपनाया और हमने अपने उद्देश्यानुमार अपना तरीका । मुनिराज ने उपदेश देकर हिंसक का हृदय परिवर्तित किया, मन से हिंसा छुडवाई और कुमार्ग से उसे सुमार्ग पर ले आये पर हम यह सब नही कर सके कारण हम तो कमजोर हैं ही, हमारा पात्र भी अति कमजोर है | हम भी बच्चे को उपदेश द्वारा ही उस पाप से बचाते। हम भी जानते है कि काम समझ और प्रेम से ही निकालना चाहिए । सुधार का यही सही मार्ग है । हम थोडे ही चाहते थे कि वालक के साथ कठोरता से काम ले या वह हिंसा का स्वरूप न समझे या ज्ञान सहित समझ कर हिंसा न छोडे । स्थिति में थे । चाहने पर भी यह अवलम्वन नही ले सके । एक तो अबोध बालक उपदेश को समझते नही और शायद कुछ समझते हो और समझाये भी जाँय तो भी उद्दडता या चचलता के वशीभूत शीघ्र मानते नही । इतना समय हाथ में कहाँ था कि कुछ और सोचा जाय । समय रहता तो शायद खिलौने इत्यादि अन्य प्रलोभन की वस्तुएँ सीप, उसको प्रसन्न कर, उसका ध्यान मारने से हटाते हुए अपने उद्देश्यानुसार चीटियाँ और उसको बचा लेते या समय और साधन उपलब्ध होते तो बिना उसके खेल में अतराय दिये यानी स्वामीजी द्वारा कथित बिना उस पाप - पत्थर को छुए, चीटियो को ही हटा देते जैसे शिप्य अपने गुरु के पाट पर विराजने के लिए, श्रौघे से पूज कर धूल हटाया करते है । पत्थर न छीन कर, बालक का हाथ पकड अलग लेते हुए चीटियो को बचाने की वात भी कह सकते हैं पर इस तरह कहने से तो हमारे हाथ, पत्थर की जगह वालक ही आ जाता और तव स्वामी श्री भीखणजी और उनके अनुयायियो को चुटकी लेते हुए एव उत्तर देने की अपनी विचक्षणता पर मोद मानते हुए, वचाने वालो के हाथो पत्थर पकडाने मे जो मनोरजन हुआ वह नष्ट हो जाता । बालक पाप से बचा यह बुरा नही । बालक को पाप से बचाने का प्रयत्न भी बुरा नही । स्वामीजी के विचारानुसार बचाना चाहिए था ज्ञान से समझा ७७ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर। इस उपयोग से काम बनता न देख मान लीजिए पत्थर छीन कर हमने शक्ति से काम लिया पर शक्ति के प्रयोग से किसी जीव को तो नही मारा। जुल्म हुआ तो इतना ही कि बालक के विनोद मे कुछ कमी पडी। पर ऐसा विनोद भी किस काम का जिसमे जीवो का हनन होता हो। जैनी ऐसे विनोद का समर्थन नही कर सकते। बालक अबोध होने के कारण उसके साथ हमने शक्ति का प्रयोग जरूर किया पर किया गया यहाँ उसी के पूर्ण हित की दृष्टि से। यहाँ बालक को नही बचाया जा रहा है, बचाई जा रही है बालक के पापो की वृद्धि । अबोध जीवो के हित की दृष्टि से किये गये ऐसे शक्ति के प्रयोग को कोई बुरा कह ही कैसे सकता है ? जब कि मुनिराज स्वय अबोध जीवो के प्रति रात और दिन शक्ति का प्रयोग किया करते है। इनमे आचार्य श्री भीखणजी के सुशिष्य भी सम्मिलित है। पाठक-वृन्द देखे, जगह पूज कर सूक्ष्म जीवो को ये दूर फेकते हैं या नहीं? मुंह पर या भोजन पर बैठी मक्खी को झटके से उडाते है या नही? तो क्या यह शक्ति का प्रयोग नही है ? पूजने में बिच्छू या साप आ जाय तो ये मुनिराज शक्ति के प्रयोग में कुछ तोवता लाते हैं या नहीं? लाइये ना यह ज्ञान काम में ? शक्ति का प्रयोग क्यो? हमने शक्ति के प्रयोग से यदि उस बालक का जीव दुखाया या अतराय दी तो यहाँ मुनिराज ने क्या किया? शक्ति का प्रयोग करके क्या मक्खी का जी नही दुखाया? बेचारी किसी आशा से भोजन पर आकर बैठी थी, उनके मुंह पर बैठी थी। झपट्टा देकर उडाने से क्या मक्खी का जीव नही दुखा' क्या मुनिराजो को ऐसे अवती जीवो को बचाने से पाप होता है ? शक्ति का ऐसा प्रयोग क्या अनुचित है ? उन्होने शक्ति को काम में लेकर किन्ही जीवो के प्राण ही बचाये है पर हमने तो शक्ति के प्रयोग से किसी जीव को, पापो से बचाया है। फिर भी क्या हमारा यह व्यवहार बुरा माना जायेगा? जहाँ अबोध जीव की सम्पूर्ण भलाई से मतलब हो,शक्ति से कुछ काम ले भी ले तो भी उसे अनुचित नहीं कहा जा सकता। इसलिए हमारा बालक के हाथ से, उसको पाप से बचाने की दृष्टि से पत्थर को छीन लेना, विल्कुल उचित थाधर्म पूर्ण ही था, ऐसा तो सम्भवत. स्वामीजी के अनुयायी भी मानेंगे। तो बच्चे की भलाई की दृष्टि से किया गया काम और बकरे मारने वाले को मलाई,की दृष्टि से किया गया काम लाभ की दृष्टि से एक समान हैं इसलिए ७८ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यहाँ मुनिराज के उद्देश्य मे और हमारे उद्देश्य मे कोई अंतर नही । अब जो कुछ अतर है वह इतना ही है कि वे बकरो को बचाने की दृष्टि से कार्य बिल्कुल नही करते हैं और हमने पहले से ही प्रधानत चीटियो को बचाने ही की दृष्टि से इस कार्य को शुरु किया । मुनिराज के श्रीर हमारे भावो में अंतर है तो यही है और यह प्रतर भी बहुत वडा है । ठीक कौन है, इसका पाठको को निर्णय करना है । रकम व्याज पर देने वाला रकम उधार देता है अपने व्याज के लिए न कि उधार लेने वाले की भलाई के लिए । अव यदि उसकी भलाई होती है और उधार लेने वाला, उधार देने वाले का उपकार मानता है तो भी हम कह सकते है कि इस उपकार का अधिकारी उधार देने वाला नही है । मुनिराजो ने जब यह स्पष्ट घोषित कर दिया कि बकरे की भलाई के उद्देश्य से उन्होने यह कार्य किया है तो ठीक है अब यदि उनके हाथो से बकरे की भलाई होती है तो भी उस भलाई का लाभ उन्हें नही मिल सकता मुनिराज बकरे की भलाई के लिए कार्य नही करे यह उनकी अपनी इच्छा है पर सोच कर यदि देखा जाय तो अप्रत्यक्ष रूप से ही सही, विशेष भलाई उसी की होती है । जैसे कि किसी स्नी को सौभाग्यवती बनी रहने का आशीर्वाद देने पर, उसके पति का जीवन, न बछने पर भी, अक्षुण्ण ही बनाया जाता है, उसी प्रकार आचार्य भीखणजी के शिष्य मुनिराजो ने चाहे बकरे के जीने की मंगल कामना विल्कुल न की हो पर बकरे मारनेवाले को समझाने का जो अथक प्रयत्न किया वह 'वकरे को जीवन-दान के पारितोषिक' से किसी प्रकार कम नही कहा जा सकता । उनके कथनानुसार उस समय बकरे को वचा कर उसकी भलाई करने की भावना चाहे उनके हृदय में रत्तीभर भी न रही हो पर उनकी महानता को देखते हुए यह तो शत-प्रतिशत कहा जा सकता है कि उस समय उनके हृदय में बकरे को बुराई करने की भावना तो अशमात्र भी नही थी । उत्तम पुरुष यदि भलाई न कर सके या न करे तो न भी करें, पर बुराई कभी नही करते । बकरे के वचने मे यदि वकरे का बुरा होता तो मुनिराज उस कार्य को करना स्वीकार ही नही करते । एक का बुरा करके दूसरे का भला करना मुनियो को कल्पता ही नही । आचार्य * भिक्षु दृष्टान्त १२८, पृष्ठ ४५ पिण साधु वकरांनो जीवणो वाछै नहीं । .. ७९ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीभिक्षु स्वामी का तो यह मूल सिद्धान्त था कि ऐसे जीवो के बीच में साधु तो क्या, श्रावक को भी नही पडना चाहिए जहाँ एक को अतराय और दूसरे को लाभ हो, एक का पोषण और दूसरे का नाश हो । लेकिन बकरा और बकरा मारने वाले के वीच बचाव में मुनिराजो का पडना उन्होने भी अपने श्री मुख से उचित ठहराया है और जब उनके इस कार्य से बकरा बचता है तब इसमे कोई सन्देह नही रह जाता कि कम-से-कम बकरे के वचने मे बकरे का अहित तो नहीं है। इतना होने पर भी मुनिराजो ने बकरे के बचने को क्यो नही चाहा और क्यो नही उसको बचाने के उद्देश्य से कार्य किया, यह विचारणीय विषय है। __ जहाँ इस तरह का प्रसग या स्थिति होती है, वहाँ हमे उपयोग और विवेक पूर्वक सब ओर ध्यान रखना ही पड़ता है। यदि हम सावधानी नही रखें और विना सोचे समझे, कार्य प्रारम्भ कर दें और उसके कारण कोई अप्रिय घटना घटित हो जाय तो उसका दायित्व हमारा ही होता है। यही कारण है कि दीक्षा लेने वाले महापुरुषो से सम्बन्धित उनके कुटुम्बीजनो को भी राय लेनी होती है। शीलवत स्वीकार करने वाले पति-पत्नी दोनो की स्वीकृति ली जाती है। हालाकि यहाँ तो पूर्ण व्यक्तिगत आत्मोन्नति का प्रश्न है। अन्य किसी पक्ष को हानि पहुंचने या पहुँचाने का कोई कारण ही नही है । तव बकरे और बकरे मारने वाले, एक प्राण जैसे मामले के बीच में पड मुनि यदि यह कहते है कि बकरे से उनका कोई सम्बन्ध नही तो समझ लीजिए उनमे साधुत्व तो क्या, मनुष्यत्व भी नहीं है । सफाई में आचार्य श्री भिक्षु स्वामी फरमाते हैं कि. जो जीव डूब रहा हो बचाने का प्रश्न तो उसके लिए ही पैदा होता है । जो डूब ही न रहा हो* उल्टे तिर रहा हो, उसको बचाने का तो प्रश्न ही पैदा नहीं होता। पर बकरा और बकरा मारने वाले के प्रसग को देखते हुए ऐसा कहना नितान्त असगत है। इसका मतलब यह हुआ कि एक की क्रिया से दूसरा, किसी *भिक्षु दृष्टान्त-१२८, पृष्ठ-५४. ... स्वामीजी बोल्या : साधु वुड़ता ने तारे। ... ऋण माथै करै तिणनें वर पिण उतारै तिण ने न बरजै ।...मारन वालो तो कर्मरूप ऋण माथ कर है अने बकरा आगला कर्मरूप ऋण भोगव : उतारै है ।... ८० Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकार से सम्वन्धित ही नही । स्वामीजी के विचारानुसार बकरा मारने वाला तो डूब रहा था और वकरा तिर रहा था । पर यहाँ बकरे का तिरना कैसे माना जा सकता है ? इस तरह की असगत मृत्यु से ऐसा साधारण जीव कैसे धर्म प्राप्त कर मकता है ? कैसे कर्मों से हल्का हो सकता है ? फिर भी आचार्य श्री भीखणजी के कथनानुसार यदि यह मान लें कि बकरा इस प्रकार की मृत्यु का भोग, भोगकर अपने कर्मों को काटने में समर्थ हो रहा था, अपने ऋण को चुका रहा था तो मुनि यह जानते -बूझते उसके हित मे अतराय के कारण क्यो बने ? डूबता तो एक मारने वाला ही डूबता बाकी उसके हाथ से हजारो, लाखो बकरे तो कर्मों के भार से मुक्त ही होते, अपने ऋण से उऋण ही होते । लाखो तिरे और एक डूब भी जाय तब भी घाटे का काम थोडे ही होता ? उचित था मुनि ऐसे अवसर पर मौन रह जाते । मुनि के प्रयत्न पर, मारने वाले ने यदि उसे न मारा तो वकरा कर्म काटने का वह सुवर्ण अवसर ही नही पा सकेगा और तव निश्चय इस अतराय के कारण वनेंगे मुनि । भविष्य में भी ऐसा सुयोग उसे मिलेगा या नही, भगवान जानें | वकरा श्रीर वकरा मारनेवाला एक दूसरे के कार्य से कैमे सम्बन्धित है, कैसे प्रभावित होते है, यह समझना निता त आवश्यक है । एक बाप के दो बेटो की तरह वे यहाँ अपना-अपना अलग व्यापार नही कर रहे हैं कि जिसके लिए यह कहा जा सके कि एक तो ऋण चुका रहा है और दूसरा ऋणी वन रहा है बल्कि यहाँ तो प्रत्यक्ष डकैती है । एक लूटा जा रहा है और दूसरा लूट रहा है । एक मारा जा रहा है, दूसरा उसे मार रहा है । द्रव्य-दृष्टि छोड कर भाव दृष्टि से भी यदि देखें तो भी यही देखेंगे कि हानि दोनो ही उठा रहे है । वकरा मारने वाला वकरा मार नही रहा है खुद ही मर रहा है यानी पापो मे डूब रहा है । बकरा भी मर रहा है और मरने को वाध्य किया जा रहा है यानी पाप करने को मजवूर किया जा रहा है । मृत्यु को सामने खडी देख और मरने की भयानक वेदना का अनुभव कर उसका रोम-२ कपित हो उठता है । उसका हृदय अत्यन्त भयभीत होता जाता है एवं उसकी कातर दृष्टि मे असीम वेदना झलक उटती है । ऐसी असगत एव अयाचित मृत्यु के समय साधारण जीवो में इस तरह का भाव उत्पन्न होना स्वाभाविक है । 6 ८१ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्गति से मरने पर प्रायः साधारण जीवो मे तीव्र कषाय उत्पन्न हो ही जाते है | तब बकरा भी पाप मे डूब रहा था या नही ? पर आचार्य श्री भीखणजी की समझ में यह नही आया और उन्होने समझ लिया कि बकरा तो ऋण उतारने वाला यानी कर्मों को खपाने वाला जीव बन रहा है । मारने वाले दोषी पर तो इतनी करुणा और मरने वाले निर्दोपी की इतनी स्वामीजी वाह 11 उपेक्षा ' वाह ! वस्तुत बकरे की मृत्यु ने ही मुनिराजो को बकरे मारने वाले को समझाने के लिए प्रेरित किया । अपने कार्य से बकरे को प्रत्यक्ष बचता देख, बचाने की जिम्मेवारी से हाथ खीच लेना कानून की ओट में सत्य का शिकार है । "यदि यह कहें कि प्राणी की रक्षा हम कहाँ-कहाँ करेगे ? यह न तो हमारी जिम्मेवारी है और न पूर्ण हमारे सामर्थ्य के भीतर ही । एक बार प्रयत्न से किसी को बचा भी देगे तो भी समस्या सुलझ थोडे ही जाती है । न मालूम वह आगे चल कर बचा रह सकेगा या नही और बचा रह भी गया तो भी न मालूम वह आगे कौन - २ से अनर्थ करेगा, कारण अव्रती जीव जो ठहरा। इसलिए न तो ऐसा उद्देश्य बनाना ही और न ऐसे उद्देश्य को लेकर कार्य करना ही उचित है ।" हे मेरे सर्वज्ञों की बराबरी करने वाले अवज्ञ ! हम हमारे सामर्थ्य और क्षेत्र की मर्यादा एव आवश्यकता का विचार करें । सभव है हम किसी जिम्मेवारी मे न भी बंधे हों, हमारे किये सब कुछ न भी होता हो-तब भी जितना सभव हो उतना सहयोग ही रक्खे | किसी की थोडी-सी भलाई करना भी हमारी भलाई ही कही जायेगी, हमारी महानता ही मानी जायेगी । फिर जो उनके भाग्य में लिखा है, वही होगा । बकरे मारने वाले को उपदेश देकर, आप उसे भी पाप से न बचाते तो आपके ऊपर इसके लिए कोई दोषारोपण थोडे ही किया जाता । सभी मारने वालो को समझाने के लिए न तो उनके पास आप पहुँच ही सकते हैं, और न सबको समझाने में सफल ही हो सकते हैं । आप से जितना संभव हुआ उतना आपने किया । इस थोड़ी मात्रा को भी बुरी कैसे माने ? यह तो आपके हृदय का पूर्व अर्जित अत्यन्त दया और करुणा का भाव ही था जिसने आपको उस हिंसक का हृदय परिवर्तन करने के लिए प्रेरित किया । ८२ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राण-रक्षा के अवसर पर 'व्रत, अव्रत' की ग्रोट मे अकारण भविष्य की गहराई में जाना, पाप समझना और प्राणी की प्राण रक्षा करनेमे अपने सामर्थ्य का जानबूझ कर प्रयोग न करना भयकर भूल ही कही जायेगी । व्रती कौन से अवती - नही बनते और अव्रती कौन से व्रती नही बनते ? ऐसे मोके पर गलत दृष्टान्त से भाइयो को भ्रम में डाल, कर्त्तव्यच्युत करना घोर पाप है ।* बकरे मारने वाले को उपदेश देकर जो उससे हिंसा छुडाई, आपने उपकार किया और उसे धर्म माना, विपरीत प्रतिक्रिया तो उसमें भी उत्पन्न हो सकती है । बचे हुए बकरे किमी का खेत उजाड सकते है । किसी की धान की वोरियो मुँह डाल, हानि पहुँचा सकते । ऐसे अवसर पर यदि क्रोधवश कृपक या दूकानदार बकरे पर डंडा उठाने के साथ-साथ आप पर भी डंडा उठाले और कहने लगें - " मरी खाय इन उपदेश देने वालो को, आग लगे इन उपदेशो में | उपदेश दे दे कर सत्यानाश कर दिया । मार रहे थे, नही मारने दिये । अव इसके कडवे फल भोगे हम, इत्यादि । " यही क्यो, वाल-दीक्षा के लिए भी कितने उग्र विरोध आते हैं । भगवान -के दो शिष्य भगवान के सामने ही मार डाले गये । गजसुकमालजी के मस्तक पर अगारे रख दिये गये । बहुतो की खालें खीच ली गईं। पाँच सौ क्षमावन्त मुनिराज घानी में पिलवा दिये गये । शास्त्र और साहित्य की होली जलाई गई । बतलाइये, आप क्या करेंगे ? ससार को तो यही धारा है । विरोधी तो अच्छे - का भी विरोध कर बैठते हैं । तो क्या आप उपदेश देना वद कर देंगे ? क्या आप अपने सत्य के मार्ग को छोड देंगे ? या धर्म- ध्यान से मुँह मोड लेगे ? मान लें कि किसी जीव को व्यवहार से बचाना उचित ही नही समझते तो फिर उसके लिए दूसरो को "न मारने का उपदेश" देना भी उचित नही ठहरता । मृत्यु के समय प्राणी को जो कष्ट होता है उसी के लिए ज्ञानी पुरुषो ने किसी प्राणी को मारने में पाप बतलाया है । वस्तुत. किसी प्राणी को यह वेदना न *भिक्खू दृष्टान्त - १४०, पृष्ठ ५८ ... • संसार नो उपकार इसो है । मोक्ष नो उपकार कर ते मोटो तिण में कोई जोखो नहीं । ८३ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहुंचाई जाय यानी उसका जीवन बना रहे, यही तथ्य सामने आता है। मुनिराज भी यही चाहते है कि प्रत्येक प्राणी के जीवन में शान्ति बनी रहे। वे भी सवको "आत्मवत् सर्व भुतेपु" समझते है।* फिर यह क ना कि प्राणी के जीने को अच्छा नही समझते या उसके जीने को नहीं च हते या उमकी जीवन-रक्षा के लिए कोई कार्य करना नहीं चाहते, सचमुच आश्चर्यजनक है। हकीकत यह कि 'अवती जीवो के जीवन को बचाना पाप है ऐसा समझ, ये सब तरफ से उलट गये। उचित था ये न उपदेश देने से मतलव रखते न किसी को तारने से। सिद्धो की तरह ध्यान लगाये बैठे रहते । दुनिया की भलाई में भी पडना और तथ्यातथ्य का ध्यान न रखते हुए उसी को पाप पूर्ण वताना अत्यन्त शोचनीय है । उनका उद्देश्य कितना त्रुटि और कपट पूर्ण है, इस सम्बन्ध में यहाँ विचार करना आवश्यक है। भविष्य का फलाफल समझ में न आया हो या अच्छा समझने के बाद भी कर्म सयोग से विपरीत वातावरण में चला गया हो तो बात दूसरी है । फलाफल को स्पष्ट जानते हुए और अपने ही मुख से प्रारम्भ में बचाने के लिए पूरी तरह दलीलें देते हुए भी, जैसे-'अरे वकरे को मत मार' * ; फिर ऐसा कहना कि 'वकरे के जीवन से हमारा कोई मतलव नहीं', उनके कपट का पहला चरण है। कपट का दूसरा चरण, बकरे की अकाल और असगत मृत्यु से कर्मों के भार को हल्का समझना और तीसरा - * भिक्खू दृष्टान्त-२३६, पृष्ठ ९६ ...। सजीव पिण इम हिज जाण । मार्यो दुःख पावे है । भिक्खू दृष्टान्त-भूमिका, पृष्ठ १० ... । “अमवत् सर्व भूतेषु" की भावना के वे (भीखगजी स्वामी) एक सजीव प्रतीक थे। 'छहों ही प्रकार के जीवों को आत्मा के समान मानों भगवान को यह वाणी उनकी (स्वामीजी की) आत्मा को भेद चुकी थी। • * भिक्खू दृष्टान्त-१२८, पृष्ठ ५४ ...समझाव, 'वकरा ने मारयां तूं गोता खासी ।... भिक्खू दृष्टान्त-१४८, पृष्ठ ६० ... | चकरा मारवा रा जाव जीव पचखाण कराया ... ८४ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरण बकरे के वचने मे जो धर्म का लाभ मिलता है उसे न समझना है। यानी विषय की गभीरता को न समझ ये अपनी इनका उद्देश्य भूलो से भरा हुआ है । डफली बजाने में ही मस्त हैं । जहाँ दो जीव आपस मे जूझते हो, एक को छुडाने का अर्थ ही दूसरे को छुडाना है | कारण एक का छोडना और दूसरे का छूटना एक समय में ही घटता है । तब फिर निरपेक्ष व्यक्ति तो दोनो की भलाई चाहता है और दोनो की भलाई को दृष्टिगत रख कर कार्य करता है । एक से मतलब रखना पक्षपात पूर्ण है, पाप है । कह नही सकते आचार्य श्री भीखणजी यह क्यो नही समझ पाये । हम भी दोनो जीवो के बीच में पड़े बालक और चीटियो के । दोनो को बचाने की दृष्टि रखते हुए भी चीटियो से हमारी विशेष सहानुभूति रही क्यो कि चीटियाँ निर्दोष थी । उनके प्रति अन्याय किया जा रहा था । उन्होने ही हमें पुकारा, 'बचाओ'। मरने की वेदना को लक्ष्य कर हमे रोमाच हो आया । हृदय मे दया उमड पडी । 'चीटियाँ बचें एव वालक उन्हें दुख न दे, उन्हे न मारे' यह हमारे हृदय की पुकार थी । चीटियो से हमारा कोई सासारिक स्वार्थ नही । 'मभी को जीवन प्यारा है' ऐसा समझ हमने बालक के हाथ से शीघ्र पत्थर छीना और मन ही मन कहा - "रे नादान हमारे सामने यह क्या अनर्थ कर रहा है ? जीवो को दुख देकर, उन्हें अशाता पहुँचा कर, उनके आत्म-प्रदेश में अनन्तानन्त कपायों की वृद्धि का कारण वन क्यो पाप का भागी हो रहा है । पत्यर छोड, ऐसा पाप का भागी मत वन ।" इघर चीटियो को भी वचने पर महान् हर्ष हुआ जैसा भी जीवो को होता है । उनका रोम-रोम उत्फुल्लित हो यह कहेगा ( कहा होगा), "हे बचानेवालो, हे प्राणदान देनेवालो, आपने वडा उपकार किया । हमे वडे क्लेश से बचाया । इस दुर्गति-पूर्ण मरण से उत्पन्न हुए महान् पायो के उदय मे और महान् आर्त, रौद्र-ध्यान की चपेट से न मालूम हम किस नरक में जाकर गिरती । आपने बचाया, आपका धर्म अति निर्मल है । हम भी कभी ऐसा मनुष्य-भव मिलेगा ? ऐसा धर्म मिलेगा ? हमें भी कभी दुखी जीवो के प्रति उपकार कर, ऋण से उऋण होने का ऐसा सुयोग मिलेगा ? हे भाग्यशाली, आप महान् उपकारी है, आदि ।” वचने पर प्राय जीव, बचानेवाले के धर्म की अनुमोदना किया ही करते है और ऐसे प्रयत्न से यदि वे समकित को भी स्पर्श कर ले, तो कोई आश्चर्य नही । ८५ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है, सिर दबाते है और वैयावच्च का खूब लाभ लेते है। यदि हम भी मुनिराज के हाथ पर दबावे और ऐसी ही वैयावच्च करे तो हमे लाभ होगा या नहीं? मुनिराज हमारी ऐसी वैयावच्च स्वीकार करेंगे या नहीं? जिस कार्य से मुनिराजो को लाभ हो रहा है हमे लाभ क्यो नहीं होगा? वात यह है कि हमे तो उल्टा यहाँ पाप होगा यदि हम ऐसी वैयावच्च करे। मुनिराज को भी पाप होगा यदि वे हमारे से ऐमी वैयावच्च स्वीकार करें। इससे अधिक और क्या स्पष्ट किया जा सकता है। ___ मुनिराज की और हमारी कोई वरावरी नही। यह काटा हमें अपने दिमाग से निकाल कर फेक देना चाहिए। बच्चे से पत्थर छीनने की जो बात पूछी जाती है इस सम्बन्ध में हमारा उत्तर है-"प्राय मुनिराजो को हमने ऐसे अवसर पर पत्थर छीनते देखे है।" हमारे और उनके पत्यर छीनने मे अन्तर इतना ही है कि हम द्रव्य से छीनते है और वे भाव से । उनकी दृष्टि पडते ही वे कहते है-"बच्चे का उपयोग रखिये।" व्याख्यान मे बच्चे जव शोर करते है या रोते है तो मुनिराज यही फरमाते है-"बच्चो का उपयोग रखिये।" खुले मुंह जब हम उनके सामने बोलते है तो वे फरमाते है-"जीवो की जयणा रक्खो" यानी वायुकाय के जीवो की विराधना न हो इसलिए "मुंह पर कपडा रखकर, बोलने का उपयोग रखने कोही" कहते है। यह उनकी भापा समिति है। हमारा ध्यान आकर्षित कर मुंह पर कपडा उन्होंने ही वववाया है। वे हममे पुस्तके छपवाते है, चिठ्ठियाँ लिखवाते है। ये सब क्या है ? एक नही, अनेक उपकार के कार्य हमसे मुनि करवाते है । तब बच्चे से पत्थर उन्होने ही छिनवाया है। पत्थर छीने जाने का श्रेय उन्ही को है। मान लीजिए, पास में कोई नहीं मिला और उनके ध्यान में आ गया कि बच्चा भूल कर रहा है तो कोमलता पूर्वक, जयणा सहित उसके हाथ से पत्थर लेकर एक तरफ रख दे, तो रख भी सकते है। वे इधर-उपर कोई वस्तु रसते नहीं, ऐसी वात नहीं है। वडे-२ पात्रे, गरियाँ आदि इधर-उधर रखते ही है। फिर यह कौन-सा नित्य का काम है ? वे ध्यान में लीन हो, उनके ध्यान ही में न आवे या अन्य उपायों में कार्य कराया जा सकता हो तो वात अलग है। गुरु को कौन कष्ट देना चाहेगा। धर्म-स्थानक मे यदि कोई बालक पत्थर से पात्र फोडने लगे या सावु-मानियो ९२ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के सिर फोडने लगे तो मुनिराज उसे ऐसा करने देगे? मुनिराज उसे अलग नहीं हटायेंगे? क्या अपने पात्रे या सिर फुडवा लेंगे? उस समय यदि हम स्थानक मेंहो तो क्या उस बालक को ऐसा करने से नहीं रोकेंगे? रोकने की चेष्टा की तो, वतलाइये रोकने में और पत्थर छीनने में अन्तर क्या है ? रोकने पर भी न रुका तो पत्यर छीनेंगे या नहीं? छीनेंगे, तो पत्थर यहाँ भी हमारे हाथो में आयेगा। तो क्या यहां हमे पाप लगेगा ? ऐसा करना अनुचित होगा? यदि नही तो चिंटियो ने किमी का क्या विगाडा है ? थोडा समय निकाल उनको वचाने से, हम जैसे अनेक प्रमाद सेवन करने वालो की कौन सी तन्मयता या सिद्धता में बाधा आती है ? उल्टे ऐसे कार्यों में तो हमारा प्रमाद कुछ हल्का ही होगा। मन में कोमलता पैदा होगी। आत्मा में जीवो के प्रति दया उत्पन्न होगी और अनादि काल से जो जीवो को मारने की हमारी वुरी प्रवृत्ति है, वह हल्की ही पडेगी। जिनके मन में जीव बचाने की भावना नहीं है या जो जीव वचे उसे अच्छा नही समझते, अव्रत का पोपण जान बुरा समझते है, वे जीव न मारने का उपदेश क्या खाक देंगे। वे तो उसके जीवन के मूल्य का मुख ने उच्चारण ही नहीं कर सकते। उमका तो प्रमगही नहीं ला सकते। उसके लिए कोई दलील ही नहीं दे सकते। काग! वे 'विपय पोपण, और प्रति-पालन से 'शरीर पोपण' के अन्तर को न समझ सके तो न सही पर कम-से-कम, 'प्रति-पालन' और 'प्राण-रक्षा' के अन्तर को तो समझते। जीव के अपने-२ क्षेत्र की आवश्यकता को तो समझते। 'प्राण-रक्षा' मे घवडाने की क्या बात है। किमी की 'प्राण-रक्षा करने से 'प्रति-पालन' की जिम्मेवारी थोडे ही आ जाती है ? जीव न मारने का भाव किनी के उपदेश से, शीघ्र ही पनप आयेगा, यह सौदा इतना मस्ता नहीं है। जीव न मारने का भाव प्राणी में उपदेश से नही स्वयमेव तव उत्पन्न होता है जब उसका मन, जीवो के प्रति दया भाव से, उपकार भाव से छलाछल भर जाय। दया भाव की वृद्धि जीव में तवपैदा होती है जब वह पहले उसकी प्रतिपालना करता है और उसको मृत्यु से बचाता है यानी प्राण-रक्षा करता है। साथ ही उसके जीवन के मूल्य को यानी इस तरह की असगत मृत्यु से उत्पन्न होती हुई अनन्त वेदना को और उससे बघते महान् कर्मो को समझ लेता है। इस व्यवहार से उसके जी में जीवो के प्रति अनन्त दया और करुणा की भावना पैदा होती है और Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तब वह चाहता है कि यह वेदना और हानि किसी प्राणी को न पहुँचे, सभी सुख पूर्वक जीवे । ऐसी स्थिति मे वह जीव नही मारेगा अर्थात् जीव न मारने की भावना उसमें उत्पन्त होगी । इसलिए जीव की 'प्राण-रक्षा' करना और उसका 'प्रति - पालन' करना प्रथम उसके लिए अनिवार्य हैं । फिर बचाने मे या प्रतिपालन मे पाप वतला कर, इस व्यवहार से उसे दूर हटाते हुए या उसमें अरुचि उत्पन्न करते हुए यह आशा रखना कि हम उसमें अहिंसा का भाव भर देंगे, दुराशा मात्र है, असम्भव है । ऐसे उपदेश से तो कमजोर प्राणी अधिक निर्दयी और हिंसक ही बनेगे । ऐसे उपदेश के प्रभाव से आज वह यह समझ बैठा है- " मरता है तो मैं क्या करू ? बचाने की जिम्मेवारी मेरी थोडी ही है । मैं क्यो ऐसे पाप करूँ ? मे थोडे ही मार रहा हूँ । जो कुछ हो रहा है उसका अपना भाग्य है । इसके लिए में दोषी थोडे ही हूँ। मै अपना काम करू या इसको बचाता फिरू । में किस-२ को बचाऊँ, इत्यादि - २ ।" न बचाये जाने पर, मरने वाला प्राणी अपना अवसर तो खोता ही है, साथ -२ अधिक कषाय और असतोष उत्पन्न होने के कारण भारी कर्मी भी बन जाता है । 'पाप समझने के कारण - बचाने की स्थिति में होने पर भी वह नही बचाता है । इस कारण उस न बचाने वाले पर अपने अतकाल मे उसे बडी झुंझलाहट पैदा हो जाती है । वह सोचता है मुझे बचा । मेरा ऐसा विधर्मीपना क्यो तेरे देव, गुरु सब झूठे "अरे पापी ' अरे निर्दयी । तेरा हृदय क्या पत्थर का हो गया है ? तेरे में इतनी भी दया नही । मै तेरे लिए ऐसे अनेक पाप सह लूगा, तेरा सारा ऋण चुका दूंगा । कम से कम इस सकट में तो तो अवसर ही जा रहा है । किस की सीख में पड गया ? अपना रहा है ? तब तो तेरा धर्म महान् निकृष्ट है । हैं । क्षेत्र का सहयोगी होकर, सहयोग नही रखता ? भला इस सहयोग मे भी "कोई पाप है ? तब तेरा पथ बडी गलत दिशा में गया है । कल तेरे को भी किसी बचाने वाले की आवश्यकता पड सकती है। अरे, उस आवश्यकता को समझ कर ही मुझे बचा, मेरे प्राणो की रक्षा कर । क्या नही बचायेगा ? पाप ही समझता रहेगा ? मालूम पडता है- "पत्थर ही पत्थर" सुनते सुनते तेरा दिमाग ही पत्थर हो गया है ।" ९४ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐसा निर्दयी होना कभी उचित नही । ससार की सम्पूर्ण प्रवृतियां अपनाते हुए जी जान से अपना बचाव करते हुए, और बचाव के लिए पीरो से सहारा लेते हुए भी साथियो को बचाने में पाप वताना क्या उचित है ? क्या यह ऋण चुकाने से जी चुराना नहीं है ? क्या यह परिश्रम से बचना नही है ? क्या यह घोर स्वार्यवृति नहीं है ? कुटिल कपट नहीं है । पर क्या किया जाय, यह उस भोले जीव का दोप नही। यह दोप उन महान् उपदेशको का है जिन्होंने उस मे उल्टा भाव भर दिया है। इसी कारण स्वार्थ और निर्दयता की महा दुर्गन्ध उसके अन्तःकरण में व्याप्त हो गई है। उसका हृदय भयानक कठोर बन गया है। वह अपनी आवश्यकता को ही भूल बैठा है। दूसरे को बचाना तो समय पर अपने आपके 'बचाव' का हो वचाव है। यदि कहा जाय-"सव तरह से समर्थ, सर्वनानी केवली भगवान, या सत मुनिराज भी ऐमा सयोग अन्य जीवो के साथ नही अपनाते है। फिर उनको तो हम वरा नही कहते ? उनमे असतोप क्यो नही उत्पन्न होता ? उल्टे वे तो दिन-२ ऊँचे ही जाते हैं। इस व्यवहार से हटे है तभी ऊँचे पहुँचे है, पहँच रहे हैं। फिर कोई हमें भी ऐसे व्यवहार को न अपनाने का उपदेश दे, तो उसे बुरा क्यों मानें ?" ___ मानते हैं केवली भगवान तो मरते, मारते, वचते, बचाते, सभी कुछ देखते है, सभी कुछ जानते हैं और इतना ही क्यो वे तो जीव के कर्मों के सभी खेलो को भी जानते हैं। फिर भी, 'परमात्मा का जीवो को न बचाने का जो प्रश्न उठाते हैं उन्हें विचारना चाहिए कि मारे जाने वाले प्राणियो को बचाना उचित न समझ न बचाया तो कोई बात नही पर मारनेवाले प्राणियो को ज्ञान द्वारा समझाकर, हिंसा तो छुड़वाते। वह तो धर्म का ही कार्य होता। समझ रखने वाले हमारे सुयोग्य भाई कह सकते है कि परमात्मा ने ऐसे प्रत्येक हिंसक के पास पहुँचने की कोशिश की, समझाने गये ? तव समझाने के जिस व्यवहार को वे अपनाये बैठे है वह भी नहीं टिकता। यदि यह कहे कि वे बहुतो को समझा गये है तो यह भी सही है कि उससे भी अनेक गुणा अधिक वे वचा भी गये है। एक को समझाना लाखो को बचाने के वरावर होता है। इस विषय का थोडा विवेचन "मुनिराज द्रव्य-पूजा क्यो नही अपनाते" में ९५ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया जा चुका है। मुनिराज अणुव्रत न अपनावें या सिद्ध भगवान मनुष्य-भव की इच्छा न करे तो भी अणुव्रत या मनुष्य-भव बुरा नहीं हो जाता। मुनि अपनी आत्म रमणता में लीन हो जाते हैं। अपने ज्ञान, ध्यान, और स्वाध्याय मे तल्लीन रहते है । ससार की सारी सुध-बुध ही भूल जाते हैं। यहाँ तक कि वे अपने शरीर कोही भूल जाते है। उनकी हमारी क्या बराबरी? उन्होने इस सहयोग को बुरा समझ कर छोडा है या आज भी बुरा समझ रहे है, ऐसी बात विल्कुल नही है। वे तो आज भी प्राणी मात्र का हित चाहते है। सब के जीवन में शान्ति रहे, ऐसा चाहते है। ऊँचे पहुँचने के कारण या मर्यादा निभाने के लिए हमारे साथ ऐसा सहयोग नहीं कर रहे है तो क्या हुआ? इससे भी ऊँचे दर्जे का सहयोग रख कर उससे भी अनेक गुणा लाभ वे हमें पहुंचा रहे है। राजा अपने सिहासन पर स्थित रह कर हजारो सुभटो द्वारा जो हमारी रक्षा करते है वह उन्ही की कृपा मानी जाती है । इसी तरह उपदेश द्वारा अनेक प्राणियो में हमे 'न मारने का और 'बचाने का भाव भर कर सन्मार्ग मे प्रवृत करते हुए हमारे लिए हजारो हाथो को वे सहायक वनने में समर्थ बना रहे है। उपदेश देकर कितना पथ प्रदर्शन कर रहे हैं, कितनी ठोकरो से वचा रहे हैं। भला फिर भी कोई दुख और असतोष की बात है ? इनसे भी ऊँचे, महान् ऊँचे और सबसे ऊँचे सिद्ध भगवान इनके जैसा उपदेश देने का सहयोग भी आज हमारे साथ नही रख रहे है। तो क्या मुनिराजो के उपदेश के सहयोग को हम इसलिए बुरा मान ले कि सिद्ध भगवान तो ऐसा व्यवहार नही अपनाते है ? क्या 'उपदेश देना किसी मनि का बुरा माना जायेगा? उसी तरह हमारा आपस का सहयोग भी बुरा नहीं माना जा सकता चाहे मुनि उसे न भी अपनावे । उनके पहले के जीवन को ही देखे। इस व्यवहार का कितना जबरदस्त अनुकरण उन्होने किया था। वे इसे छोडकर नही, अपितु अपना कर ही ऊंचे पहुँचे हैं। गौतम स्वामी के व्यवहार को ही लीजिए जब तक परमत्मा में अनुराग बना रहा केवल ज्ञान प्राप्त नही कर सके। पर इसका मतलब यह नहीं कि गुरु से अनुराग रखना बुरा है, और इसलिए हमें गुरु की वन्दना, भक्ति छोड देनी चाहिए। गुरु की भक्ति छोड, क्या यह माने कि मोह जितना हल्का हुआ उतना ही अच्छा है? Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदि ऐमा निर्णय हम ससार के सामने रखेंगे तो साधारण जन, और कुछ छोडें अथवा न छोडें, बुरे का वहाना बनाते हुए इसे तो अवश्य छोड़ बैठेंगे । जैसे पूजा, दया, दान आदि को बुरा बताने की देर थी कि अनेक भाई उन्हें तबियत से छोड बैठे । 1 ( हालांकि अन्य बुराइयो को लाख समझाने पर भी आज तक उन्होने नही छोड़ा ) । स्वतत्रता की सास ली । मन में प्रमन्न हुए, सोचा - "चलो काया- कप्ट और खर्च की आफत से बचे ।" धर्म-कार्य मे तो यो ही रुचि कम होती है फिर ऐमा नहारा मिल जाय तो कहना ही क्या ? यह यहाँ, बुराई श्रीर कमजोरी में जो अन्तर है, उसे समझ हमें निर्णय करना चाहिए । तो 'गुरु का मोह ही था जिसने गोतम स्वामी को केवलज्ञान के दरवाजे तक पहुँचाया। मोटर घर के दरवाजे पर लाकर छोड़ दे, फिर घर के भीतर पहुँचने के लिए मोटर छोटे या नही ? मोक्ष पहुँचने के लिए शरीर और साधुवेश छोडे या नही? 'केवल - जान' की अपेक्षा से 'गुरु का मोह' भले निम्नतर हो पर गुरु के मोह की करामात देखिए- "ऊँचा हो ऊँचा ले जाता हुआ, लक्ष्य प्राप्ति के अन्तिम क्षण तक नाय देता है और कभी नीचे नही गिरने देता । लक्ष्य को जब चाहें प्राप्त कर लें ।" जिसके सहारे के बिना लक्ष्य तक पहुँचना तो दूर रहा, लक्ष्य को समझना ही बनम्भव है | भला, उमे हम बुरा समझें, बुरा कहें । राग और द्वेप को बुरा कहना मरल है पर हमारा मार्ग सरल कैसे बनेगा, उन्हें छोडने में हम मफल कैसे होगे यह समझना अति कठिन है। दोनो को एक नाथ छोडना माधारण जीवो के लिए न कभी सभव हुआ है और न हो सकता है । पहले हमें द्वेप कम करना होगा । इसके लिए हमे राग को और भी जोरो से अपनाना पड़ेगा । इस तरह जब हम द्वेप को कम करने में सफल हो जायेंगे तब हम वीरे -२ राग को भी कम कर सकेंगे। हमारी अपनी स्थिति को देखते हुए यदि इस प्रकार के राग को बुरा समझ कर नही अपनायेंगे तो हमारे में रहे राग को कम करना या छोडना तो दूर रहा, हम द्वेप को भी कम नही कर सकेंगे । ऐसे मोक्ष मार्ग के जाननहार महान् तेजस्वी रत्न, स्वामी श्री भीखणजी ने मूर्ति-पूजा में ही पत्थर नही बतलाया चीटियो को बचाने मे भी पत्थर वतलाकर अपनी अभूतपूर्व प्रतिभा का परिचय दिया है । ९७ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तुतः श्री भीखणजी स्वामी के अन्न और जल जैसे जीवनोपयोगी पदार्थों के उपयोग को हिंसा-पूर्ण समझ लेनेही के कारण सारा मामला किर-किरा हो गया। उसी कारण वे शुरु से अंत तक चूकते ही गये। कुछ उदाहरण और ले। . छद्मस्थ चूके 'प्राणी के प्राण वचाने में और प्राणी की प्रतिपालना में क्या अंतर है कितना अतर है, इसको विना सोचे समझे ही स्वामी श्री भीखणजी ने 'प्राणी के प्राण बचाने मे एकान्त पाप है' इसकी सत्यता कायम रखने के लिए "तीर्थकर भगवान चूक गये", एक जगह यहाँ तक कह डाला।। सफाई में आचार्य श्री भीखणजी का यह फरमाना कि तीन ज्ञान सहित जन्म लेने वाले तीर्थकर भगवान तो खेलते-कूदते भी है, विवाह भी करते हैं, विषय-भोग भी भोगते है, राजगद्दी पर भी बैठते हैं और मौका उपस्थित हो जाय तो संम्भवत. युद्ध भी कर लेते हैं परन्तु उनके ऐसे व्यवहारो को धर्म-पूर्ण थोडे ही माने जा सकते है ? तीन ज्ञान के धणी तीर्थंकरों के अपनाने के कारण उनका समर्थन थोडे ही किया जा सकता है ? इसलिए सभी स्वीकार करेंगे कि यहाँ तो परमात्मा प्रत्यक्ष चूके है। इसी प्रकार जब तक परमात्मा केवल ज्ञान प्राप्त नही कर लेते सयमी यानी छमावस्था में भी चूक सकते है। आचार्य श्री का ऐसा समझना या समझाना हमें यथोचित नही लगता। पहले हम गृहस्थावस्था के सम्बन्ध में ही सोचें-भोले जीवो को अध्यात्मवाद की तरफ आकर्षित करने और उसमें रुचि उत्पन्न करने के लिए, हम गृहस्थावस्था की कठिनाइयो का, मोहजाल के फदे का चाहे जितना दिग्दर्शन करावे; उसकी कमियो को सामने लाकर, उसमें अरुचि उत्पन्न कराने की चाहे जितनी चेष्टा करे, तुलना में चाहे जितनी नीची श्रेणी की वतलावे, अध्यात्मवाद के शुद्ध स्वरूप को चाहे जितना बखाने; महावत की महानता को चाहे जितना समझावें; परम सुख की विशेषता को चाहे जितनी उच्च कहें कोई आपत्ति नही, पर गृहस्थावस्था मे कुछ है ही नहीं, वह व्यर्थ है, एकान्त निकम्मी है, सम्पूर्ण पाप-पूर्ण है, उससे कुछ प्राप्त हो ही नहीं सकता, इत्यादि ऐसा कभी नहीं कह सकते। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार शुक्लध्यान की तुलना में हम धर्म-ध्यान को निकम्मा नहीं कह सकते । Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसका भी अपना एक क्षेत्र है, अपनी मर्यादाये है और अपनो उपयोगिता है । यानी गृहस्वावस्या में भी अपनी उपज है, ऊसर नहीं है, ऐसा मानना ही पड़ेगा। इसी प्रकार सयमी क्षेत्र की भी अपनी मर्यादायें है, अपना मन्य है और अपनी उपयोगिता है भले मोन क्षेत्र मे वह कितना ही गीण क्यो न हो। यहाँ भी मुनिराज नाहार लाने हैं, निद्रा लेते हैं और शोचादि से निवृत्त होते है । तो क्या कह दे कि वे वुरे है, दोपी हैं, अलमस्त है या यमस्य चूकते है । यदि नहीं, तो क्या उनके मल-याग को 'त्याग' मानेगे? धर्म मानेंगे? पुण्य मानेगे? पाप मानेंगे? आखिर कुछ तो मानेगे। घबराइये मत, धर्म मानने पर भी हम मुनिराजो को जुलाव लेने की गय नहीं देंगे। अस्तु। कोई कुछ माने या न माने, अथवा इस चर्चा को ही बुरी माने पर हमें तो इमे मुनिराज के अपने जान-पने में अपनाने के कारण शुद्ध मयमी जीवन की क्रिया का एक अग मानना ही पड़ेगा, यह सब जानते हुए भी कि यह नो हिनापूर्ण, अनुचिपूर्ण और परिग्रह-पूर्ण क्रिया ही है। कारण स्वाध्याय को छोड कर मवेरे-नवेरे मुनिराज को, पानी लेने और वाहर(मलत्याग) के लिए, जाना ही पड़ता है और यह कोई उनके कारथोपी जाने वाली क्रिया भी नही है। लाते हैं, साते है, चबाते है और पचाते हैं तव जाते हैं। सम्भवत स्वामीजी भी मुनिराज के ऐमे व्यवहार को देखते हुए भी इसे अथवा मुनिराज के सयमी जीवन को बुरा नहीं कह सकते या मुनिराज को चूका नही बतला सकते। ठीक इसी प्रकार गृहस्थावस्या के भगवान के व्यवहारो को भी हम उसी के पैमाने से मापन वे अधिकारी है न कि ऊँचे क्षेत्र के व्यवहारो के पैमानो से । क्या स्वानीजी कह सकते थे कि भगवान ने जो गृहस्थावस्था में व्यवहार अपनाये वे अनैतिक, अविवैको, अमर्यादित या किमी व्रत भग के दोप से परिपूर्ण थे? क्या तोकर भगवान ने कोई व्रत लेकर वन तोडा ? क्या उनके कर्म भारी पडे ? खेती करने से साधु का मावपना भग हो जाता है पर श्रावक का श्रावकपना भग नहीं होता। फिर भी स्वामीजी का निर्णय क्या होता और थोडी देर के लिए मान लें कि कुछ ऐसी ही वात थी तो फिर शास्त्रकारी ने परमात्मा के पाँच कल्याणक क्यो माने ? केवलजान और मोल के दो कल्याणक हो गानते। देवता भी परमात्मा के सम्मान में पांच बार क्यो आये ? एक जैसा सम्मान क्यो किया ? विवाह इत्यादि के मौके पर छठी वार क्यो नही आये ? स्वामीजी ने भी पाँच कल्याणक क्यो माने ? ९९ - Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रकार और देवता तो केवलज्ञान न होने के कारण चूक भी सकते है पर स्वामीजी तो भूल न करते । भगवान को 'भगवान' तभी कहेंगे जब वे केवल - ज्ञान प्राप्त कर लेगे । फिर भगवान के 'पाँच कल्याणक', यह कैसे ? परमात्मा के किसी भी कार्य मे हमें जरा भी शका या बराबरी नही करनी चाहिए। वे तो हर क्षण अपने कर्मो को हल्के करने वाले महान् पुरुष ही होते है । उनके भोग भोगने पर भी उनके शेष रहे भोगावली कर्म ही क्षीण होते है । फिर भी यदि अपने कर्म दोष से हमे, उनके जीवन में कोई विपरीतता जान पडे या उनका कोई कार्य अच्छा न लगे तब भी हम अपनी समझ ही की कमी या भूल समझें । भला हमने केवलज्ञान थोडे ही प्राप्त कर लिया है । वडे - २ ज्ञानियों ने भी महापुरुषो के जीवन की विशेष - २ घटनाओ को 'अछेरा - भूत' कह कर ही सतोप कर लिया है पर उसमे शका करके, 'भूल हुई है, ऐसा कभी नहीं कहा है । जिनको भूल निकालने की आदत है वे तो छद्मस्थ भगवान की ही नही किसी भी प्रकार से केवली भगवान की भी भूल निकाल कर ही छोड़ेगे । यह कहकर ही कि समर्थवान होते हुए भी वे इतने वर्षो तक इस ससार में बैठे रहे, मोक्ष नही पधारे, बडी भूल की । इतनी देसना देते रहे, मौन व्रत नही रक्खा भारी चूके । सच्चा-त्याग न अपनाकर, समवसरण जैसी विलासिता स्वीकार करते रहे, बेहद चूके ; आदि । इसी तरह स्वामीजी की भी ऐसी निरर्थक दलीलो से उनके मनतव्य की कभी पुष्टि नही हो सकती । तीन ज्ञान सहित जन्म लेनेवाले, दीक्षा के साथ चौथा ज्ञान भी प्राप्त कर लेने वाले तथा ज दी ही महान् केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष पधारने वाले ऐसे महान् तीर्थंकर भगवान ने अपनी पूर्ण चार ज्ञान सहित छद्मावस्था में भूल की ऐसी अकारण, अनहोनी बात कह कर स्वामीजी ने जो भूल की है उसको लेखनी से व्यक्त करने के लिए हमारे पास कोई शब्द नही है। अच्छे से अच्छा विद्वान् शिष्य भी अपने भोले-भाले गुरु के लिए भी 'भूले', 'चूके' अपने मुख से ऐसा कहना शायद उचित नही समझेगा । क्या स्वामी श्री भीखणजी के लिए, किसी शिष्य का यह कहना कि हमारे आचार्य श्री यहाँ चूक गये उचित हो सकता है ? क्या उसका ऐसा कहना लाभकारी या शोभायमान हो सकता है ? क्या ऐसा कहना हमारे १०० Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिलो में गुरु के प्रति श्रद्धा असतोप या बहुमान में कमी आने का कारण नही वनेगा ? सत्य भी हो तो भी यह व्यवहार के प्रतिकूल है। गुरु की भूल भी हो जाय तो भी शिष्य के लिए यो फटे मुंह बोलना उचित नही कहा जा सकता। ऐसा कहना उसके दभ और विनय-हीनता ही का लक्षण होगा । तीर्यकर जैसे महापुरुषों के लिए ऐसे अनहोने, अनुचित वचन बोलने वालो को तो बलिहारी ही है । जन्म चूके सिद्ध करने के लिए उनके पास यही तो उत्तर है - " केवली भगवान ने ही आगे चल कर ऐसे व्यवहार को पाप पूर्ण कहा है। धर्म हो तो अगे चल कर जाने दोगियों को ही उन्होंने क्यो नही बचाया होता ? अपनी तरफ मे थोडे ही कुछ कह रहे हैं। हम तो उनकी प्ररूपणा के आशन पर ही निर्णय करते हैं ।" पर हमे समझना है कि भगवान के आगय को समझने और समझाने वाले आप है कीन? पाँचो ज्ञान में मे, बिना एक भी ज्ञान के धणी । ने मृत्यु पर्यन्त पूर्ण एक भी ज्ञान को प्राप्त न कर सकने वाले शून्य के स्वामी। महापुरुषों के कथन का आगय समझना भी मामूली बात थोडे ही है । क्या यही आय नमन पाये । पहले किसी आगय समझने वाले ने जन्म ही नही लिया। यदि इनके हिसाब से भगवान ही चूक सकते है, तो कही ये भी आशय नमलने में चूक रहे हो तो क्या वडी बात है ? इनके आशय समझने में भी तो चूक हो सकती है । यह कार्य ठीक वैसे ही हुआ है जैसे एक अर्ध पागल व्यक्ति बिना आगा-पोछा विचारे, किनी की भी भूल निकालने में ही अपनी शान समझता हो। वह यही समझ कर इतराता है- "म किसी को माफ नही कर सकता, मेरे सामने कौन होता है यह १" मावारण श्रेणी का व्यक्ति भी भूल होने पर अपनी भूल स्वीकार करता है तो क्या तीर्थकर भगवान जैसे परम पुरुष अपनी भूल स्त्रीकार नही करते ? पीछे तो उसके लिए दंड लेते, आलोयणा करते । मुनिराज से भी भून होने पर आज वेद लेते है | आचार्य श्री भीखणजी के हिसाव से परमात्मा भूल कर गये । शायद आवेश में कर गये होगे, आवेश आ गया होगा । पर वाद में तो उनका आवेश उतरा होगा या समझ आई होगी, भूल समझी होगी । उसके लिये उन्होने दड लिया था, क्या ? १०१ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह भी मान ले कि भगवान ने उस भूल को समझ ली थी और फिर उसके लिए दड भी ले लिया था, तो पूर्व शास्त्रकारो ने, जिनकी कृपा से आज हम शास्त्रो के अर्थ समझने में समर्थ हुए हैं, उसका स्पष्टीकरण क्यो नही किया। इतनी बड़ी घटना के लिए कुछ तो उन्हें भी अपनी तरफ से लिखना चाहिए था, अपनी राय ही देते। क्या वे भी आशय समझ नहीं पाये। स्वामीजी श्री आगे-पीछे का आशय समझाते हैं, फर्क समझाते हैं और विपरीतता सिद्ध करते हैं पर भगवान की अन्य आज्ञाओ को भी तो मिलाते। क्या उनमे विपरीतता नहीं है ? __ मुनिराजो को अपनी-२ शक्ति के अनुसार व्यवहार अपना कर, कार्य करने की भिन्न-२ प्रकार की आज्ञाये तो है ही, एक ही मुनिराज को देश, काल, भाव समझकर, भिन्न प्रकार से व्यवहार अपना कर अनेक प्रकार की भिन्न-२ आज्ञाये भी तो है और कई-२ आज्ञायें तो एक दम एक दूसरी के विपरीत है । जैसे मुनिराज को चौमासे मे एक ही जगह चार महीने तक रहने की आज्ञा है पर उसी मुनिराज को मौका उपस्थित होने पर चौमासे में भी विहार कर जाने की आज्ञा है। वर्षा मे मुनिराज को बाहर न जाने की आज्ञा है पर उसी मुनिराज को अन्य कारण से बाहर जाने की भी आज्ञा है। ये सब विपरीत क्रियाए है या नहीं ? मुनिराज दोनोही प्रकार की आज्ञाओ को, समय समय पर आवश्यकतानुसार अपनाते है या नहीं ? एक तरफ-जीव हनने वाले को, परमात्मा मुनि ही नही मानते, दूसरी तरफ-वे स्वय साध्वीजी की प्राण रक्षा के लिये नदी उतरने, औषधि आदि लेने की आज्ञा फरमाते हैं। तो क्या ऐसी विपरीतता को देखकर कह दें कि मुनिराज चूकते हैं या केवली भगवान आज्ञा देने में चूक गये । जव विपरीत क्रियानो को अपनाते हुए भी मुनिराज चूके नही कहे जा सकते तो तीर्थकर भगवान को भी हम चूका क्यो कहें? वहाँ भी द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव मे फरक आ गण होगा। तीर्थंकर भगवान ने कारण समझ कर ही कार्य किया होगा। जो कुछ किया, उन्होने ठीक ही किया। इसमें अश मात्र भी सन्देह नही। उनसे भूल कभी नही हो सकती, यह नितान्त सत्य है । आचार्य श्री भिक्षु स्वामी को यदि अपनी यह मान्यता ही बचानी थी कि 'जीव बचाने में पाप है तो वे भगवान को विना 'चूके' बतलाये ही वडे आराम Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और आसानी से बचा सकते थे। दुनिया यही तो कहती-'भगवान ने भी प्राणी के प्राण वचार्य, धर्म था तभी बचाये इसलिए प्राणी के प्राण वचाने में धर्म है।" यहाँ साफ-२ कह देते कि भगवान ने किसी प्राणी के प्राण वचाये,तो क्या,न बचाये, तो क्या ? लब्धी फोडी तो क्या ? उनकी और हमारी वरावरी कैसी ? क्या उनको शक्ति के बरावर हमारी गक्ति है । उन गक्तिगाली पुरुषो के व्यवहारो का अनुकरण करना हमारे जैने कमजोरो के लिए लागू नहीं होता। यदि ऐमा होता तो छोटे और बडे सर्व मुनिराज के लिए एक जैसी ही आनाये होती। वात तो यहाँ तक है कि गिप्य, गुरु की भी बराबरी नहीं कर सकता। वे महापुरुष थे, अपने लिए जैमा उचित समझा, उन्होने किया । हमे तो उनकी आज्ञा का पालन करना है। उनकी आजा ही हमारे लिए सिद्धान्त स्प है। इन तरह स्वामीजी विना परमात्मा को चूका कहे ही अपनी मान्यता को वाल-२ वचा मरते थे पर उन्हें मतलव था समाज पर अपनी समझ का प्रभाव जमाने का। पर ऐमा प्रभाव जमा कि अपने महापुरुपो की भूल बतला कर, अपने हाथो अपने लिए ही घाटा मोल लिया। जिन तीर्थकर भगवान को गुरु की भी आवश्यकता नहीं होती। जिनको विना गुरु के ही दीक्षा लेने का अधिकार है ऐसे तीर्थकर भगवान को, हम ही भल करने वाले घोपित कर दें, चके वतला दे तव तो समझ लीजिए हमने सारी नुटिया ही डुबो दी। एक जगह भूल करने वाले से किसी भी जगह भूल हो जाने की सम्भावना रह सकती है। फिर उन्हें किसी पूर्ण जिम्मेवारी का कार्य कैसे नोपा जा सकता है ? स्वामीजी श्री को समझाना चाहिए था कि विना गुरु के ही, ऐमे चूकने वाले छमस्यो को दीक्षा लेने जैनी अत्यन्त महत्व-पूर्ण पद्धति को स्त्रय संचालन करने का अधिकार क्यो मोपा गया? यामीजी का इसमें क्या स्वार्थ सवा ? सिर्फ इतना ही कि उनके मानने वालो ने यह कह कर उनकी खूब प्रशना की कि "हमारे स्वामीजी ऐसे वैसे नही हैं, सब खरे है। किमी की रेख नही रखते, चाहे भगवान स्वय ही क्यो न हो।" कमाल | तव स्वामीजी तो 'कर्मों के कीट' ही मिद्ध हुए। कर्मों ने किसी को १०३ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहयोग का हकदार है, विवेक पूर्वक उतना सहयोग तो उसके साथ हमें अवश्य रखना चाहिए । यही हमारे मनुष्य जन्म की सार्थकता है और इसी में हमारा परम कल्याण है । इसका अर्थ यह नही है कि जिस व्यक्ति ने या जिस समाज ने हमे जितनी सहायता पहुँचाई है, बदले मे हम उसे उतनी ही सहायता पहुँचाये । सम्भव है भाग्यवश हमे बहुतो से सहायता की आवश्यकता ही न पडी हो पर ऐसे अवसर आ सकते है कि उन्ही को सहायता पहुँचाना जरूरी हो जाय, तो हमे उदारता पूर्वक, उनकी सहायता बार-२ करते ही जाना चाहिए। सामर्थ्य हो तो दूर वालो को भी हम सहयोग पहुँचा सकते हैं । यही हमारा सच्चा सहयोग कहा जा सकता है । हमे तो इतना ही ध्यान में रखना चाहिए कि समाज की सेवा हमारे अपने ही हित की रक्षा है । इसमें किसी पर एहसान नही है । हम मे इतनी कमी अवश्य रहती है कि समान आवश्यकता अनुभूत करनेवालो में हम अपने समीप वाले को ही सहयोग का पहला मौका देते है । गाव की आग के साथ - २ यदि हमारे घर मे भी आग लग जाये तो पहले हम अपने घर की आग को ही बुझाने की चेष्टा करते है । वस्तुत मोह या स्वार्थ की यह भावना समान रूप से मनुष्य मात्र मे है । इस स्वार्थ की मात्रा सभी मे समान रूप से है इसलिए चाहे इसे बुरा न माने पर प्रश्न यह उठता है कि यदि हमे समाज के सहयोग की आवश्यकता नही होती तो क्या ऐसा सम्बन्ध हम समाज के साथ रखते ? उत्तर है- 'नहीं' । पर यहाँ परिस्थिति भिन्न है । यदि हम पैनी दृष्टि से देखे तो पता चलेगा कि इस परिश्रम का सारा सुफल हमे ही प्राप्त होता है । महापुरुष जितनी दौड-धूप हमारे लिए कर रहे हैं, वे हमसे कुछ पाने के लिए नही कर रहे है और प्रत्यक्ष मे न उन्हे हमसे कुछ मिलता ही है, पर इससे उनके आत्मवल मे निरंतर वृद्धि होती है और उन्हे अतुलित तरिक सुख की प्राप्ति होती है उसका कारण अप्रत्यक्ष रूप में हम ही है । समाज की हम चाहे जितनी सेवा करे निष्फल नही जाती । आखिर यह हमारे निज की सेवा जो ठहरी । 1 असहयोग के कारण समाज में ऐसे भाई भी है जो उचित सहयोग की बात तो दूर रही, उल्टे अज्ञानतावश समाज को धक्का पहुँचाते रहते हैं । ऐसे व्यक्तियो के अनुचित ढंग के कारण समाज के सही कार्यो मे रुकावटे आने लगती हैं और उसका शुद्ध प्रवाह १२२ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विकृत होने लगता है। अत जिस 'समाज' को हम अपने लिए रक्षा की ढाल समझते है, उल्टे हमारे प्राण ले लेता है। महात्म गाधी के प्राण समाज ही ने लिए। युद्ध समाज ही लडता है। हमे यह देखना है कि इतनी सुन्दर वस्तु में यह खरावी क्यो उत्पन्न हो जाती है ? आखिर इस सडान के क्या कारण है ? यह सडान कैसे रोकी जा सकती है ताकि हम अपनी इच्छित शान्ति को अक्षुण्ण रख सके । कइयो की ऐसी धारणा है कि भूख ही के कारण लोग लाचार हो जाते हैं और विकृति उन्हें जवरदस्ती धर दवाती है। ऐसी स्थिति मे ज्ञान-ध्यान धरा रह जाता है। __ मानते है कि कई एक ऐसे प्रसग उपस्थित हो जाते है जहाँ मनुष्य की इच्छा न होते हुए भी, कारणो से विवश होकर उसे विकृत होना पडता है। पर कारणो से अपनाइ गई विकृति क्षणिक होती है और किसी अग में उसे विकृति न कहना ही ठीक है। वह तो एक भौतिक पदार्थों की छोना-झपटी है जो आज्ञानता के कारण उत्पन्न हुई हमारी कमजोरी है। कमजोरी और विकृति मे अन्तर है। रेल मे जगह कम होतो एक दूसरे को धक्का देकर भी हम बैठने की कोशिश करते हैं। यहाँ किसी को धक्का मारने का भाव नही होता। पर-साधन, विवेक और त्याग-भावना की कमी के कारण ऐसा कर बैठते है। भौतिक पदार्थों की कमी में मनुष्य को सयम से काम लेना सीखना चाहिए। मान लीजिये अकाल पड गया। सभी चाहेंगे कि पेट भर कर खाना मिले। पूरा न मिला तो क्या एक दूसरे को मार डालेगे ऐसा करना हमारे लिये ही अहितकर होगा। अपने से कमजोर को यदि हम मार डालते है तो हमसे ताकतवर हमें मार डालने में क्यो सकोच करेंगे। फिर हमने अपना ख्याल भी कहाँ रक्खा ? समाज रचना को कहाँ समझा ? खुशी दिल से आधे-पेट रहना, लड-झगडकर भरे-पेट से हजार गुनी अविक ताकत उत्पन्न करता है। पर यह सव तव होता है जब हमें पूरा ज्ञान हो और समाज की शक्ति को हम समझते हो। अकेली गाय सिंह का सामना नही कर सकती। दस बीस सघटित होती है तो रक्षा-व्यूह बना कर सव की सव वच जाती हैं। हम तो मनुष्य है। किसी भी स्थिति का सामना करके वच सकते है। हममें ज्ञान, धैर्य, प्रेम और विश्वास होना चाहिए। यदि अच्छे १२३ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयत्न मे प्राणो से भी हाथ धोना पडे, तो क्या हुआ? अन्त में एक दिन सवको मरना ही है। आप अनुभव करेंगे कि जहाँ उस मरने में भी अनत आनन्द है, वहाँ लड-झगड़कर जीना भी महान् दुःखपूर्ण है। क्या यह कहा जा सकता है कि पेट का प्रश्न यदि हमारे सामने नहीं होता तो हम विकृति के शिकार नहीं होते ? सम्भव है उस समय हमे समाज के साथ इतना सम्पर्क नही रखना पडता । हमें ऐसा अनुभव होता है कि हम वडे सुखी होते। न किसी को नौकरी करनी पडती, न किसी के आश्रित होना पडता। शान्तिपूर्ण एकान्त स्थान में जाकर अपने कुटम्ब के साथ या अकेले ही आनन्द मे दिन व्यतीत करते । निन्यानवे प्रतिशत झझटें टल जाती। किन्तु दूर के ढोल ही सुहावने लगते हैं। जब तक जन्म, मरण, रोग, शोक, ईर्ष्या, द्वेष आदि हमारे सामने मौजूद है तब तक छाती ठोककर नहीं कहा जा सकता कि हम सुखी हो ही जाते। पाकिस्तानियो के समर्थको ने सोचा था कि हिन्दुओ को मार भगाने के बाद वेबडे सुखी हो जायेगे पर उनको ऐसा सुख हुआ कि मार्शल-ला की लौ मे जलना पडा। ऐसे-२ करोडपति जिनके खाने-पीने आदि की कोई समस्या ही नही, विचारे पहले से कही अधिक दुखी है। न तो उन्हें पूरी नीद आती है और न उनके मन में आगे जैसी शान्ति ही है। भेषधारी जन सापुत्रो को ही देखिये-उन्हें न जुटाना पडता है, न पकाना। भोजन तो उन्हें जितना चाहिए, गृहस्थो के घर खुले है। फिर भी उनका आपसी मन-मुटाव छिपा थोडे ही है। विचार कर देखा जाय तो पेट का प्रश्न विकृति-उत्पन्न होने का मुख्य कारण नहीं है। पेट भरने का भार, प्रकृति ने पहले ही से अपने ऊपर ले रखा है। बच्चे की खुराक उसके जन्म लेने के पहले ही उसकी मां के पेट में तैयार हो जाती है। विना परिश्रम के ही जब बच्चे की खुराक वच्चे को मिल जाती है तो कोई कारण नहीं दीखता कि हमे परिश्रम करने पर भी अपनी खुराक नहीं मिलेगी। अबोल पशु-पक्षी भी अपना पेट भर लेते है। फिर मनुष्य जैसे बुद्धिमान प्राणी के लिए क्या कमी रह सकती है ? वास्तव मे विकृति का कारण 'भूख' नहीं है । उल्टे 'विकृति' ही जिसके कारणो पर हम आगे विचार करेंगे, इस भूख की जननी है। वडे-२ युद्धो को लड कर लाखो-२ टन खाद्य-पदार्थों को नष्ट कर डालना, भयंकर वमो के प्रयोग से जमीन को खेती के लायक ही न रहने देना और लोगो १२४ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के परिश्रम को जीवनोपयोगी पदार्थों के संग्रह से हटा कर अन्य तरफ झुका देना आदि ऐसे-२ कार्य, भूख की जननी नही तो और क्या है ? जीवनदायिनी औपधि न बना कर आज हम मनुष्य के प्राण लेने वाली बन्दूक की गोली तैयार करते है। मकट में सहयोग रखने की जगह तुच्छ स्वार्थ के लिए प्राण लेने की चेप्टा करते हैं। तव हमारा भला कैसे हो सकता है ? विकृति चाहे पेट के प्रश्न को लेकर उत्पन्न हुई हो अथवा अन्य कारणो से, उसका उत्पन्न होना ही भयावह है। यही हमारी आशान्ति का मुख्य कारण है। विकृति से विकृति ही बढती है और उस की ज्वाला में हम सभी झुलसते रहते है। जब सवकी समस्या एक है और समस्या का सच्चा हल सवका प्रेम पूर्वक सम्मिलित मप्रयत्न ही है फिर हमारे कुछ भाई या हम सभी विपरीत दिशा में क्यो चले जाते है ? क्यो विकृत हो जाते है ? यदि भूख इस विकृति का असली कारण नहीं है, तो इसका सही कारण क्या है ? "हम क्यो विकृत हो जाते है ? हम आपस मे क्यो टकरा जाते है ? क्यो एक दूसरे का अनिष्ट करने पर उतारू हो जाते है ?" इनका एकमात्र उत्तर है --"हमारी अज्ञानता, हमारे विपयो और कपायो का जोर।" विपय सुखो में पागल हम उसी तरह अनियत्रित हो जाते हैं जिस तरह मनुष्य, मनुष्य होते हए भी नशे में अनियत्रित हो जाया करता है। इसी कारण हम अपने मन को वश में नहीं रख सकते और हमे या समाज को हानि हो या लाभ विना-विचारे हम कार्य करने लगते हैं। युद्ध करने वालो ने क्या सोच कर युद्ध किया ? यही न कि वे और अधिक आराम में रहेंगे। वे न रहे, तो भी कम-से-कम उनकी आने वाली पीढी तो मौज करेगी। भारत को अधीन करने के लिए मरने वाले अंग्रेजो ने भी यही सोचा होगा कि कम-से-कम उनकी अगली पीढी तो बड़े मौज से रहेगी। पर आज उनकी पीढी कैसी मौज ले रही है ? उनकी धारणा झूठी सिद्ध हुई या नहीं? यही हालत घोखा, चोरी इत्यादि करने वालो की है। ऐसा सोच कर अनर्थ करना कितनी भयकर भूल है, यह इतिहास से जाना जा सकता है। भूख के सताये विचारे भीख मागने लगते है या मर मिटते है पर अन्याय नही १२५ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करते । अन्याय तो विपयो के मारे भरे पेट वाले ही दिन-दहाड़े करते है । विपयो और कषायों के सम्बन्ध में, शास्त्रकारो ने भिन्न- २ रूप से महान् विवेचन किया है, जिनका विस्तार पूर्वक ज्ञान उनके लिखे ग्रन्यो से प्राप्त कर सकते है । सही चिन्तन ( सम्यक् ज्ञान ) यदि हमारा मन यह मानता हो कि प्रेम पूर्वक रहने से हम सब का परम मंगल है, फिर कठिनाई किस बात की है । जिसको प्राप्त करने मे गाठ की एक कौडी और क्षण मात्र समय की भी आवश्यकता न हो, ऐमी सफलता की कुजी को ग्रहण न करे तो हम कैसे चतुर और वुद्धिमान मनुष्य है, यह हमे सोचना चाहिए । यदि कोई ज्ञान के सम्पर्क में न आने के कारण भूल करे तो हो सकता है उसे अधिक दोप न दें पर उस 'भूल' के लिए समाज को तो सजा मिल ही जाती है । इसलिए हर हानि से बचने के लिए प्रत्येक का ज्ञानवान होना बहुत जरूरी है । आज भी हम प्रत्यक्ष देख रहे हैं कि हमारी बहुत वडी हानि इसी ज्ञान के अभाव में हो रही है। हम किसी भी नारा लगानेवाले के पीछे नारा लगाने लगते है अत. ज्ञान प्राप्त करना हमारा प्रथम कर्त्तव्य है । कठिनाई यदि इतनी ही होती तो हमारी समस्या कभी हल हो गई होती । ज्ञान की प्राप्ति हमें हो सकती है और हम कर भी लेते है । जैसे वैद्य मना करता है कि अमुक वस्तु मत खाना। रोगी को भी पूर्ण ज्ञान हो गया है कि अमुक वस्तु खाना ठीक नही है, फिर भी वह खा ही लेता है । एक नही हममे से अनेक इसी प्रकार की गलती करते है । इसका क्या कारण ? अन्ततोगत्वा यही मानना पडता है कि मन वश में नही रहा । हम मन पर नियंत्रण नही रख सके । आधुनिक उन्नतिशील लोगो को भौतिक उन्नति और उनके साहित्य को देखकर, यह कहा जा सकता है कि उनमें प्रचुर मात्रा में ज्ञान है । पर उनकी स्थिति अति भयानक है । अवसर आने पर वे एक दूसरे को समूल नष्ट कर सकते हैं । इस विनाशकारी वृत्ति का कारण कम-से-कम उनकी अज्ञानता या उनके पेट का प्रश्न तो नही है । थोडी देर के लिए मान लें - " इसका कारण उनमें 'ज्ञान की कमी' ही है । उनमें वास्तविक आत्म-ज्ञान नही है । विषयो का उन्हें भान नही है । ससार की क्षणभंगुरता का बोध नही है । परभव का डर नही है ।" हो सकता है यह सत्य हो । १२६ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ? पर क्या हमारे जैन साधुग्रो को भी आत्मा का ज्ञान नही है ? विपयो के सम्बन्ध में जानकारी नही है नमार की क्षणभग्रता का ध्यान नही है ? यदि है, तो वे क्यो कलह में फँसे हुए हैं ? साबुनो की बात जाने दीजिये, घुरघर अचार्यों को ही देस लें। हमें यह स्वीकार करना ही होगा कि "ज्ञान की कमी" ही इन कलहो का एकान्त कारण नहीं है । तव दूसरे कारणो को भी ठीक से समझने की आवश्यकता है । ज्ञानियों की लडाई समुद्र में लगी आग के समान है । अज्ञानियो की लडाई, अज्ञान दूर हो जाने पर मिट जाने की आगा तो रहती है पर ज्ञानियो की लडाईहरे राम । ज्ञानियों के कथनानुसार इस कलह के बीज है- " मान और मद, ईर्ष्या और द्वेष ।" ताक्तवर को मान और मद का रोग अधिक रहता है, कमजोर को ईर्ष्या श्रीर द्वेप का । वस्तुत यह एक अत्यन्त आश्चर्य की बात है कि यह कमजोरी बडे-बडे ज्ञानियो भी विद्यमान है । हम जानते है कि क्रोध करना बुरा है, काम-वासना बुरी है । फिर भी हम इन्हें रोक नही सकते, इनसे बच नही सकते । क्या इनसे वचाव नही हो सकता ? यदि वचाव न हो सकता हो तव बचाव की परेशानी मे पडना बेकार है और यदि वचाव मभव हो तो उन उपायो को हमे जानना चाहिए ताकि हमें भी अपने जीवन में उचित लाभ की प्राप्ति हो सके । यह निश्चित है कि बचाव हो सकता है। सफल न हो, यह दूसरी बात है । इसके लिए अभ्यास की आवश्यकता है । हम बहुत से सफल हुए हैं । पूर्ण अनुभव और निरतर कठोर किमी से वस्तु उधार या माग कर लानी हो, या किसी दूसरे को समझाना हो तो मामला दूसरो पर आश्रित होने के कारण वहां सफलता सन्दिग्ध हो सकती हे परन्तु 'अपनी ही भलाई के लिए, अपने ही मन पर, अपना ही नियंत्रण कायम करना है --- यह इतना सरल और सीधा लगता है कि हम शीघ्र यह सोच लेते है - "ऐसा तो हम कभी का कर लेते ।" पर सुनने और समझने में यह जितना सरल लगता है, जीवन में उतारना उतना ही कठिन है । हमारा मन चचल घोडे के समान है । लगाम लगा कर हमें उसे उचित रास्ते पर चलाना है । वह कभी भी विगड कर रास्ता छोड सकता है और हमें १२७ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो भविष्य के लिए 'शान्ति' की कन अपने हाथो से खोदते है। क्या विचित्र दशा है हमारी ? इघर देखते हैं तो कुआं और उधर खाई। आज हम अपनी रक्षा की दृष्टि से ही, अस्त्रो-शस्त्रो से लैश हो जायेंगे। कल आपस में ही मन मुटाव हो गया तो? निश्चय ही ये अस्त्र-गस्त्र हमारे ही सर तोड़ने वाले होगे। मनुष्य होकर मनुष्य को समझा नहीं सकते, मनुष्य की तरह रह नहीं सकते, यही हमारी महान् विडम्वना है। शत्रु यानी अन्याय का सामना करना हो तो आत्म-बल से सामना करना चाहिए, तव जीत होती है । अन्यायियो का संगठन टिक नहीं सकता। अन्या येयो में प्रति नहीं निभ सकती। यह तो वन्ध्या पुत्र को खेलाने जैसी वात है। मान लें कि कुछ देर के लिए उन्हें थोड़ी सफलता मिल गई तो भी उनका अन्त होने में देर नहीं लगती। भोले लोग जो उनका साथ दे बैठते है उन्ही की हरकतों से घबड़ाकर वैसे ही उनकी छाती पर चढ वैठते हैं जैसे कई देशो मे रातों रात फौजी शासन वने है। उनका अन्त सुवह तक का भी इन्तजार नहीं करता। , आप ही सोचिये, उनका वहुमत कैसे होगा और कैसे टिकेगा? संसार का बहुमत अपना अहित नहीं चाहता। जव सव अपना हित चाहते हैं तब हमारे बहुमत में सन्देह ही कौन-सा है ? निश्चय ही बहुमत हमारा होगा और सारा संसार हमारे पीछे होगा। हमारे संगठन में वह ताकत होगी कि हमारे अन्यायी के अन्याय का ही खात्मा हो जायेगा। क्या हम अपने पूज्य वापू को भूल गये ? क्या उनके हाथ में तलवार या वन्दुक थी ? जिनका उन्होने सामना किया, क्या उनके हाथ में वन्दूक और तोप नही थी? फिर ऐसे शक्तिगालियो के हाथ से अपनी वस्तु उन्होने कैसे प्राप्त कर ली? करोड़ो के दिलो को उन्होने कैसे जीत लिया? ससार उनके पीछे कैसे हो गया ? मृत्यु पर्यन्त किस प्रकार न्याय पर डटे रहे ? वे ऐसी नौरभ छोड गये, कि आज भी संसार का कोना-२ सुवासित हो रहा है। न्याय पर डटे रहने से किस प्रकार सफलता मिलती है उसका यह एक जीता जागता ज्वलत उदाहरण है। हमें समझना चाहिए कि न्यायी, एक मनुष्य भी, क्या कर सकता है और उसमें कितनी अपूर्व गक्ति होती है ? फिर हम अपने आप को कमजोर महसूस क्यो करे और क्यों न्याय पर डटे रहने से धवड़ावें। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहा जा सकता है-"सिंह का सामना एक ढग से ही होगा। वहाँ हमारे माधुपने से काम नहीं चल सकता। पाकिस्तान और चीन जैसे भयानक देशों का सामना बातो मे नही हो सकता और न शान्ति, शान्ति की रट से। उत्तर दीजिये ऐने ठिकाने-अपना वचाव कैसे करे ?" __ प्रश्न विल्कुल यगर्य है। उनकी बुरी मनोवृत्ति को न वढने, और उदय में न आने देने के लिए हमें हर तरह से गक्तिशाली बने रहना अति आवश्यक प्रतीत होता है। बात इतनी ही है कि उन शक्ति को नियत्रित रखते हुए हमें उसका उचित उपयोग मान करना होगा और हमें यह समझना होगा कि हमारा 'आपम में प्रेम' मब अम्लो-शस्ती से हजारो गुना अधिक गक्तिशाली अस्त्र है।. निह, मिह होने पर भी गाव पर जल्दी मे हमला नहीं करता। हमारे आपस के दृढ प्रेम को जब शत्रु समझ लेगा तब वह भूल कर भी हमारी तरफ नही ताकेगा। एक एक धागा जब रस्मी का रुप ग्रहण कर लेता है तो वडे-२ मदमस्त हाथियों को भी वाव देता है। यह ठीक है कि हवा जैनी चलती है विवेक पूर्वक हमे अपने बचाव का रुख भी बदलना पड़ता है। पचास वों में ही समार ने कैसा पलटा खाया है और आगे के मन्त्र-शस्त्र कैने निकम्मे हो गये है, यह सब हमारे सामने है। कुछ ही वर्षों बाद कौन जाने क्या परिवर्तन आयेगा और आज के ये अस्त्र-शस्त्र भी कितने मूल्य वाले रहेंगे, कोई नही कह सकता। कुछ-न-कुछ सभी में कमजोरी होने के कारण, आज जो हमारेमायी है, कल उनका क्या रवैया रहेगा कोई नहीं जानता। इतना तो मोचें कि हमारे जैसे वडे देश को ही यदि अस्त्रो-शस्त्रो के विना खतरा हो जायेगा तो अति छोटे-२ देश ने अफगानिस्तान, लका, इत्यादि की स्थिति कमे नभनी रहेगी, जो चाहने पर भी इतने साधन-सम्पन्न नही बन सकते। यदि वै बचे रह सकते है-(जसे कि अन्य इतने गक्ति सम्पन्न देशो के रहते हुए भी आज तक वचे हुए हैं)-फिर हमारा ही बिगाड क्यो हो जायेगा? कुछ तो हमें अपने ऊपर भरोमा होना चाहिए। अन्तरात्मा यही गवाही देती है कि हमारा अस्वोगस्त्रो मे लग होने का रास्ता सही नहीं है। सही यही है कि सभी भाइयो से अपने मन मुटाव को दूर करके समझदारी से जितनी जल्दी हो सके किसी भी कीमत पर भेद-भाव दूर करते हुए, अन्त करण का शुद्ध प्रेम बढा ले। आज हमे यह १३५ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपना अपमान जैसा लग सकता है या हमे कुछ भौतिक पदार्थों की हानि हो सकती है किन्तु कालान्तर मे अपने हृदय की सच्ची सेवा-भावना के कारण हमे व्याज सहित अपना मूल्य वापिस मिल जायेगा । मनुष्य होने के नाते हमारा भी कुछ फर्ज है । मनुष्य मात्र का स्थायी कल्याण चाहने वाले तो आपस के प्रेम को ही सफल, अजय और शक्तिशाली अस्त्र समझते हैं । अन्यायी के अन्याय को रोकना हो तो पहले हमे न्याय पर चलना चाहिए । उसके अन्याय को हम इसलिए नही दवा पाते कि हम स्वय न्याय का रास्ता छोड बैठते है । यही हमारी मुख्य कमजोरी है । यही असली कारण है कि हमे पूर्ण सफलता नही मिलती । दूर क्यो जावे, क्या हम अपने भाइयो के साथ न्यायपूर्ण व्यवहार आज भी अपना रहे हैं ? क्या हममे सच्चा प्रेम है ? क्या हमारे सरकारी कर्मचारी न्याय करने मे ईमानदार है ? नेता लोग पदो के लिए आपस मे नही लड रहे है ? जब शस्त्र ही जग लगा हो तो मैदान जीतने का प्रश्न ही कैसा ? हम सफलता की आशा ही कैसे करें ? यदि विजय प्राप्त कर भी लेगे तव भी हम आपस मे कट मरेगे । सत्य और न्याय के बिना सब शून्य ही है । जब हम न्याय पर दृढ रहेगे तो सारा ससार हम से सहयोग रखेगा । यही एक उपाय है जिससे अन्यायी रास्ते पर लाया जा सकता है । आशा है हम मे उचित ज्ञान का उदय होगा और हम सब जो थोडे समय के लिए यहाँ रहने आये है, शान्तिमय जीवन व्यतीत करने में सफल होगे । संसार की अशान्ति और अन्यायी के अन्याय को देखकर हमे घवडाना नही चाहिए । ससार में कैसी भी अशान्ति क्यो न हो उसे दूर करने का या उससे दूर रहने का यही उपाय है कि हम न्याय पर डटे रहे। शान्ति की शीतलता हमे बराबर मिलती रहेगी । हमारा यह धन हमसे कोई छीन नही सकता । स्वनियत्रण दूसरो से हमारा बचाव अपने सुधार पर ही निर्भर है । हमारी रक्षा हमारे गुण ही कर सकते है । सोचना यही है कि हम अपना सुधार कैसे बनाये रखें। समाज या सरकार हमारी रक्षा या हमारा ऊपर - २ का सुधार कर सकती है १३६ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और शायद कमजोर पड जाय तो न भी कर सके पर वाहर के किसी भी उपाय से हमारा स्थायी सुधार नही हो सकता। हमारा वास्तविक सुधार तभी हो सकता है जब हम न्याय समझने के वाद उस पर डटना सीख लेंगे। यानी अपने मन पर अपना नियत्रण रखना सीख लेगे । यही एकमात्र उपाय है जिस पर हमारी सम्पूर्ण सफलता निर्भर करती है। इस कला मे हमारे लिए निपुण होना अत्यन्त आवश्यक है। मन को अन्याय से रोक कर, न्याय पर लाने के लिए उस पर नियत्रण कायम करना हो तो हमें सात्विक-जीवन का महत्व और अनैतिकता से हानि के सम्बन्ध में ठीक से समझना चाहिए ताकि सात्विकता में मन की रुचि बन जाय । विचारें___"हे जीव | इस ससार में बहुत अल्प काल का मेरा निवास है। , मै नही जानता, कव चला जाऊँगा? मेरे साथ एक कौडी चलने वाली नहीं है। फिर अन्याय किस लिए करू ? यदि सोचू-भावी पीढी या समाज वाले तो सुखी होगे, यह भी निरा भ्रम है । प्रत्यक्ष देख रहा हूँ कि जिनके वाप-दादा करोडो रुपये छोड गये उनके वंशज आज भीख माग रहे है और देख रहा हूँ-भगवान महावीर, भगवान रामचन्द्र, भगवान कृष्णचन्द्र जैसे महारथियो की समाज को छिन्न-भिन्न अवस्था में। फिर मै किस खेत की मूली हूँ ? अनैतिक प्रयलो से थोडी देर के लिए कुछ प्राप्त कर भी लूगा तव भी पासा पलटते क्या देर लगेगी ? प्रकृति जव चाहे उजाड सकती है। द्वीपो के समुद्र और समुद्रो के द्वीप वनना कुछ क्षणो का मामला है। एक भूकम्प के धक्के से सव धूलि-धूसरित हो सकता है। "ऐसे नश्वर ससार में फिर अन्याय क्यो करू एव ऐटम तथा हाइड्रोजन वम जैसे घातक अस्त्र बनाकर इस नश्वरता को और तीक्ष्ण क्यो करू ? तलवार चमकाता हुआ या वन्दूक ताने रह कर में भी सुख की नीद सो नही सकता और जब मेरा जीवन ही गान्तिमय नहीं हो सका तव ऐसे प्रपचो का मेरे लिए क्या मूल्य ? इसका अर्थ कदापि यह नहीं है कि मुझे, मेरे या किसी दूसरे के लिए, कुछ नही करना है। मेरा तो जीवन ही कार्य करने के लिए है, पर अन्याय के लिए नही। __"मैं अपनी मेहनत पर ही जीऊ, यही मेरी वहादुरी है। औरो के परिश्रम पर जीना भयकर कमजोरी है। कोई खुशी से भी यदि अपनी मेहनत को मुझे दे तब भी उसे स्वीकार करना मेरे लिए उचित नही । फिर दूसरो की मेहनत को १३७ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जबरदस्ती हड़पने की कोशिश करूँ, यह मेरी कितनी नादानी है। बेहतर है इससे मेरा प्राणान्त ही हो जाय । " माता पिता ने मुझे बडा कर दिया, यह उनका मेरे ऊपर बडा उपकार हुआ है । इससे अधिक मैं उनसे और क्या चाहता हूँ ? उचित तो यही है कि इस उपकार का बदला, उनकी बुढापे में सेवा करके, चुका दूँ । ऐसा न करके उल्टे मैं उनसे, तुच्छ स्वार्थ के लिए कलह करूँ, इससे अधिक और क्या मेरी भूल हो सकती है ? में उनके दुख का कारण बनू यह मेरे लिए अत्यन्त अशोभनीय बात है | "यदि मेरी आय से दो मनुष्यो का पेट नही भरता तो मुझको विवाह नही करना चाहिए। ऐसा करने से अन्याय का प्रश्रय लेना पड सकता है जो मेरे लिए आत्म-घात से भी अधिक बुरा होगा । मुझे मेरे बच्चो का लालन-पालन बडी खुशी और न्याय - पूर्वक करना चाहिए । अकारण उनके मन को चोट पहुँचे या उनके मन मे शका पैदा हो ऐसा कोई भी कार्य करना मेरे लिए उचित नही । मुझको वही कार्य करना चाहिए जिससे वे बल और बुद्धि में किसी भी तरह से अयोग्य न रहे । वे तो अवोध है, मेरे आश्रित है। उनकी पूरी जिम्मेवारी मेरे ही ऊपर है । यही मेरी सच्ची सम्पत्ति है जिसे मे भविष्य में समाज को भेट करने जा रहा हूँ । "मेरी यह दलील कि मेरी आय कम है, कभी नही सुनी जा सकती लालन-पालन ठीक से न कर सकने वाले माता-पिता को बच्चे पैदा करने का कोई अधिकार नही । ऐसी स्थिति में मुझे ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना चाहिए था । वच्चो को अयोग्य रखना समाज को ही नही, समाज की नीव को धक्का पहुँचाना है । ससार में यदि कोई वडा से बडा पाप है तो वह अपने बच्चे को अयोग्य रखना ही है । "जब में मनुष्य हूँ तो मुझे दीन होने की क्या आवश्यकता है ? मैं मृत्यु का आलिंगन करना अच्छा समझूगा अपेक्षाकृत इसके कि किसी के आगे जाकर हाथ पसारू । मेरे लिए किसी को कष्ट देना उचित नही है । यदि मेरी स्थिति ? खराब हो गई है तो सोचना चाहिए कि मेरी ऐसी स्थिति होने का कारण क्या है मनुष्य प्राय. तीन तरह से दुखी होता है--स्वकृत, समाजकृत, एव देवकृत । १३८ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "स्वकृत, जैसे कार्य न करना, अधिक खर्च करना, कुव्यसनो में पडना, नियम पूर्वक न रहना, आदि । "समाजकृत, जैसे-चोरी हो जाना, युद्ध और कलह का हो जाना,उधार डूब जाना, आदि। ___ "देवकृत, जैसे-आग, भूकम्प, अति वृष्टि, अल्प वृष्टि, रोग, बुढापा, स्वजन की मृत्यु आदि का होना एव कार्य करने की इच्छा और शक्ति के होते हुए भी कार्य का न मिलना। "पहले कारण के अवसर पर यदि कोई मेरी सहायता करता है तब मै तो दोपी हूँ ही, वह भी दोपी ठहरता है। ऐसी स्थिति मे किसी को मुझसे बात भी नही करनी चाहिए। चाहे मै कल मरता होऊँ तो आज ही क्यो न मर जाऊँ। मेरे मर जाने से समाज तो स्वस्थ रहेगा। दूसरे और तीसरे कारण के अवसर पर समाज से सहायता ली जा सकती है और समाज दे भी सकता है। "दूसरा कारण, समाज की अस्वस्थता का लक्षण है जो समाज के स्वस्थ होने से अपने आप ही मिट जायगा पर तीसरा कारण जो 'देव-कृत' है जिसका सामना करने के लिए हम सब को मिलकर ही रहना चाहिए। हमारी सारी समाज रचना का उद्देश्य भी यही है। "पहले कारण का पूरा जिम्मेवार मै हूँ। यदि मै इसका उचित सुधार नही करता हूँ तो मेरे लिए वडी शर्म की बात है और इसका फल मुझे ही भोगना चाहिए। दूसरे दो कारणो मे भी मुझे उचित सावधानी बरतनी चाहिए। समाज को मेरी सहायता करनी चाहिए, समाज पर ऐसा दवाव नही डालाजा सकता। यह तो समाज की स्वेच्छा पर निर्भर करता है। ___ "मेरे घर में आग लग गई, मेरा घर वाढ मे वह गया। इसमें समाज का क्या दोप? मुझे रोग हो गया या मेरा एक स्वजन चल बसा, इसमें समाज क्या करेगा ? अधिक से अधिक समाज मेरे साथ सहानुभूति प्रगट कर सकता है। रोग की पीडा मुझे ही भुगतनी होगी। मृतक स्वजन का वियोग मुझे ही झेलना पडेगा। समाज न तो रोग की पीडा बटा सकता है, न मृतक को ही लौटा सकता है। समाज द्रव्य वस्तुप्रो की पूर्ति चाहे कर भी दे पर आन्तरिक यत्रणाये कोई नही मिटा सकता। इनका सामना तो मुझको अपने आत्म-बल से ही करना १३९ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदि कोई रूपवान स्त्री को देखकर, विचलित हो जाने वाले मन को बचाने में अपने को सव तरह से असमर्थ पाकर, अपने बचाव के लिए अपनी आँखें ही फोड ले तो हो सकता है इस उपाय को उसके अपने तक सीमित होने के कारण या दूसरो के साथ अनुचित व्यवहार नहीं होने के कारण या पहले उपाय की अपेक्षा अधिक लाभप्रद होने के कारण, कुछ अच्छा मान ले पर यह उपाय भी पूर्ण उचित उपाय नहीं कहा जा सकता। क्योकि एक बुराई को रोकने में उसे प्राप्त होने वाली बहुत सी अच्छाइयो से भी हाथ धोना पड़ रहा है। तव उचित उपाय क्या हो सकता है ? इसका एक मात्र उत्तर हे-"हमारे मन पर हमारा नियत्रण" । ___ इसलिए कारणो को नष्ट करने के उपाय को पूर्ण विश्वसनीय नही कहा जा सकता। ऐसे उपाय को काम में लेने के बाद भी क्या हम कह सकते है कि रूसवाले राग और द्वेप से रहित हो गये? क्या आज वे सब समान हैं ? यह तो धधकती आग पर थोडे समय के लिए एक परत मात्र है । ज्योही परत हटी कि विकराल अग्नि मुंह खोले हमे भस्मीभूत करने को तैयार मिलती है। जब हम जन्म से ही असमानता को साथ लेकर आते है फिर यह असमानता तो रहेगी। कोई लम्बा होगा, कोई मोटा होगा, कोई अधिक बुद्धि वाला होगा और कोई अधिक ताकत वाला होगा। यदि कहे-"जिस असमानता को नहीं मिटा सकते उसकी बात क्यो करे, जिसको मिटा सकते है उसे क्यो रहने दे ? विशेप कर हमारा झगडा, भौतिक पदार्थों के लिए ही होता है इसलिए इतनी समानता को ही बनाये रक्खे तो क्या बुरा है ?" पर यह इस अस्थिर जीवन में सम्भव नही दीखता । कइयो ने यहाँ तक सोचा और किया__"सव भाई एक कुटुम्ब की तरह रहें, काम करें और अपनी आवश्यकतानुसार पदार्थ लेते जाँय, और आनन्द से जीवन निर्वाह करते चले। न सग्रह का भाव रक्खें न एक दूसरे को नीचा दिखाने का।" कितना सुन्दर आदर्श है ? पर यहाँ भी अनैतिकता और अकर्मण्यता पनप आती है। बहुत से सोच लेते हैं-"कडी मेहनत की क्या आवश्यकता है ? जितना चाहिए उतना तो कम परिश्रम से ही मिल जायेगा, फिर आपाधापी क्यो ? यानी इस तरह देखा-देखी स्वार्थ-परायणता और अकर्मण्यता धीरे-२ बढने लगती है और सारा ढाँचा विगड कर अवनति शुरू हो जाती है। १४६ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माना आपने अथक परिश्रम से सब को समान कर दिया पर क्या वह समानता स्थिर रह सकेगी? एक उदाहरण लें "एक पिता ने चारो पुत्रो को, अपनी सपत्ति का एक समान बटवारा कर दिया। इतना करने पर भी थोडे वर्षों बाद ही उनमे बडी असमानता आ गई। पहले के चार लडके हुए, बडे होकर कार्य में सहारा देने लगे और बडी उन्नति कर ली। दूसरे के मात लडकियाँ हुई और उसे सहारा न मिलने से वह जैसा था वैसा ही रहा। तीसरा स्वास्थ्य ठीक न रहने में कार्य ही न कर सका और पहले से अधिक कमजोर पड़ गया। चौथे ने कुब्धमनी मे पड कर अपने धन को तो बर्वाद किया ही, ऊपर से ऋणी भी वन बैठा।" जिस समानता के लाने के लिए आप जो अथक परिश्रम कर रहे है या लाने की मोच रहे है या उसे महान उपयोगी समझ रहे हैं या समस्या के हल का सच्चा उपाय समझ रहे है, ले आने पर भी उसमे स्थायित्व है ? ___काटे कम पैदा हो, रास्ते में न विखरें यह ध्यान जरूर रखे, पर जूतो का उपयोग निश्चिन्तता प्रदान करता है। असमानता को न देखने की जो कमजोरी हमारे में है उसे मिटाने की कोशिश हमे जरूर करनी चाहिए। यदि यह कमजोरी वनी रही तो अन्य न मिटने वाले कारगी के सामने हमे हार खानी होगी। फिर हम प्रवान मत्री के मत्रीत्व में और कुली के कुलीत्व में जो गहरी असमानता है, उसे कैमे देव मकेंगे दुर्भाग्यवश यदि कलह हो जाता है तो पहले के प्रयत्लो पर पाला पड जायेगा या नहीं ? व्यावहारिक असमानता तो हर क्षेत्र में रहेगी कारण हमारा जन्म ही असमानता को लेकर होता है। इसे मिटाने का एक ही उपाय है कि इसे हम अपने मन में न खटकने दें। हम अपने मन पर पूरा नियत्रण कायम रखे। अपने दुःख को दुख और सुख को सुख न समझे। भावना को सम वनावे। समान होने का यही स्थायी हल है। अन्यथा ससार का कोई उपाय हमें ममान नहीं कर सकता। ___ यह निश्चित है कि अपने क्षेत्र में 'समाज का अकुश' अपना पूर्ण प्रभाव रखता और अनेक अग में हमारा गहरा उपकार करता है पर इसकी भी एक सीमा है। हमारे मन पर स्थायी, सच्चा और पूर्ण नियत्रण तो हमारा अपना अकुश ही रख सकता है। तब हमारे सामने एक ही रास्ता रहा-"अपने मन को सभाल कर सही रास्ते पर चलाना।" १४७ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन की विचित्र गति को देख कर हम दग रह जाते है । कभी - २ उसके हाव-भाव से हमे ऐसा लगता है कि अव यह बिल्कुल सीधा हो गया है और कही नही भागंगा । फिर उसी मन को ऐसा सपाटा भरते देखते हैं कि हाथ ही नही आता A मन अपने ही वग में न रहे इससे ज्यादा और क्या हमारी कमजोरी हो सकती है ? हमे यह समझ कर भी हिम्मत नही हारनी चाहिए कि जब हम से भी अधिक गक्तिगाली पुरुषो को अथक परिश्रम करने पर भी पूरी सफलता जल्दी से नही मिलती तो हम इतनी जल्दी सफलता की आशा कैसे करते है हालांकि यह कोई राजन का क्यू ( कतार ) नही है कि आगे वाले को मिलने पर ही पीछे वाले की बारी आयेगी । मन की कमजोरी को मिटा डालना अति दुष्कर कार्य है । ही उपाय है कि यह जब - २ गिरे इसे ऊंचा उठाने की चेष्टा रखें । हमें सीखनी पड़ती है जो एक शतरज के खेल के समान है । गतरज के खेल की चाले सीख लेने के वाद भी चतुर खिलाड़ी हम तभी वन सकते है जव बार-बार अभ्यास करते रहे । चतुर खिलाड़ियो के खेल को देख कर भी हम अच्छे खिलाडी वन सकते हैं । यहाँ भी हमे पक्का खिलाड़ी बनना है । हमें अपने मन को वश में रखने का खेल सीखना है । अन्याय की बात छोडिये, जरा-सी भूल के लिए हमें क्रोव आ जाता है। मामूली लोभ में आकर दूसरे का अनिष्ट कर बैठते हैं । साठ-२ वर्ष तपस्या मे तपे वडे - २ मुनिराज तक के मन का कर्मसंयोग से पतन हो जाता है । फिर गृहस्थी एव नवयुवको के सम्बन्ध मे क्या कहा जाय ? उनका मन तो सब तरह का ऐशो आराम और सुख-सुविधा चाहता ही है । ऐसे समय इतने चंचल मन को वश में रखना हँसी खेल नही । इसमें बहुत अधिक विवेक और परिश्रम की आवश्यकता है । इसलिये ऐसे चचल मन को वग मे रखने के लिए महापुरुषो ने अनेक प्रकार के अवलम्वन बताये है । यह कार्य शायद सबसे अधिक कठिन है । श्रम जीवन पर्यन्त निरंतर चालू रखना होगा । इसमें मन को जरा भी ढीला नही छोड़ सकते । सफलता हमारे निरतर अभ्यास पर ही निर्भर है । ऐसे अभ्यास को हम "धार्मिक आचरण" के नाम से पुकारते हैं । इसलिए हमें अपना अथक परि -- १४८ इसका एक यह चेप्टा Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कइयो के मन में शका उत्पन्न हो सकती है कि इस तरह का आचरण अपनाने से हमें ससार के हर कार्य में अरुचि उत्पन्न हो जायेगी। हमारा जीवन नीरस और अकर्मण्य बन जायेगा। इसी चिन्ता में, 'क्या जाने कव मर जाऊँगा, या मुझको रहना नही है हमारा दिल पहले ही बैठ जायेगा और किसी भी कार्य को करने का मन नही होगा और हम अमूल्य जीवन को ही निकम्मा बना बैठेंगे । फिर इस तरह के पुरुषार्थहीन जीवन से क्या लाभ ? भविष्य मे हमारा क्या होगा यह कोई नही कह सकता। इस प्रकार का चिन्तन हमें अकर्मण्य बना देगा, यह निरा भ्रम है। सुख पूर्वक जीवन व्यतीत करने के लिये ही हम भाग-दौड करते है। उसी के लिए हम कुछ करना चाहते है। यदि विना ऐसे द्रव्यो के उससे भी अच्छा सुख मिल जाय, तो आपको क्या एतराज है ? आप कहेंगे-"असम्भव", मैं कहूँगा-"सम्भव"। चूकि इस वहस की लम्बाई का अत नही है इसलिए थोडे मे ही विचारें कि रेशम छोड कर खादी धारण करने वाले काग्रेसजनो को रेशम छोडने का क्या कोई दुख है ? यदि कुछ नही तो जो रेशम ही मे, सुख समझ बैठा है उसको कैसे समझा कि यह असली सुख नही है। वडप्पन दिखाने के सिवाय और आप भी रेशम मे क्या सुख समझते है ? समझ का फरक इतना ही है कि कई सुख ऐशो आराम मे मानते हैं और ज्ञानी ऐशो आराम से हटने को मानते है। धर्म हमें अकर्मण्य नही वनाता बल्कि एक क्षण भी व्यर्थ न खोने की चेतावनी देता है। वीतराग फरमाते है--"समय गोयम ! मा पमाइये"- गौतम | क्षण भर भी प्रमाद न कर । धर्म सही दिशा को समझा कर हमें लक्ष्य की तरफ बढने मे बडी सहायता पहुंचाता है। यदि वह हमारे जीवन को न्यायी, स्वस्थ, सवल, स्वावलम्बी और चिन्ता रहित बना दे तो इससे अधिक और मनुष्य के लिए क्या अच्छा हो सकता है ? भेषधारी ढोगी साधुओ की भिक्षावृत्ति देख कर ही हमें धर्म का मूल्याकन नही कर लेना चाहिए। धर्म की गहराई बहुत ही अधिक है। इसे सहज ही मापना सभव नही है। जैनियो ने अध्यात्मवाद को धर्म का शिखर स्वरूप अवश्य माना है पर अन्य सभी क्षेत्रो मे अपनी जिम्मेवारी को पूरी तरह समझाने वाला "धर्म" ही है, यह भी पूर्णतया स्वीकार किया है। माता-पिता और बाल-बच्चो की मरजी के विना १४९ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोई भी व्यक्ति अध्यात्मवाद की तरफ झुक नही सकता हालाकि यह पूर्ण रूपेण उसी से सम्बन्धित विषय है । ससार की सारी जिम्मेवारी को समेट कर, ससार के कार्यो से विमुक्त हो, अध्यात्म मार्ग ग्रहण भी कर ले तब भी उसे समाज पर भार वन कर जीने का अधिकार नही है हर समय उसमे अपना कायोत्सर्ग करने का आत्मवल जरूर होना चाहिए । समाज की सहायता, वह तभी ले सकता है जब समाज स्वेच्छा से सहायता देने को राजी हो । असल में यह पवित्र सहायता भी वह मुफ्त ग्रहण करना नही चाहता । यदि मैं किसी प्रकार से समाज पर भार का कारण न बनू श्रीर उल्टे समाज को लाभ पहुँचाता हुआ समाज की सेवा करू तो क्या कोई मेरे ऐसे रास्ते को भी गलत समझेगा ? क्या फिर भी ससार मे मेरा जीना किसी को अखरेगा ? फिर दूसरे कौन-से चार चाँद लगा लेते है ? आप ईश्वर न मानें, स्वर्ग न मानें, नरक न माने, परलोक न मानें, मोक्ष न माने और धर्म- पाप आदि भी न माने तो कोई बात नही । हम भी इसके लिए आप पर दबाव नही दे सकते क्योकि हमारे पास भी ऐसे साधन नही है जिससे प्रत्यक्ष इन सब के सम्वन्ध में कुछ सिद्ध करके दिखाया जा सके। हमारी मान्यता भी मान लेने तक ही सीमित है । पर आप यह तो मानते हैं- "आप का कुछ अस्तित्व है । अन्य छोटे-मोटे सुखी, दुखी प्राणी आपके साथ इसी धरती पर है । कलह, स्वजन के निधन या रोगादिक अन्य कारणो से मन को ठेस लगती है; और आपस मे प्रेम, शान्ति और सहयोग रहने से मन में प्रसन्नता रहती है ।" आपसे एक ही प्रश्न पूछना है, "आप इस तरह की ठेस को पसन्द करते हैं या मन की प्रसन्नता को ?" निःसकोच कहा जा सकता है कि आप भी मन की प्रसन्नता ही चाहते है | अब खूब ठडे दिल से सोच कर हमे ऐसा उपाय बतला दें जिससे हममे कलह न हो और खूब प्रेम रहे । यदि इतना बतला देंगे तो हमे आपको गुरु मानने में कोई आपत्ति नही । जो भी उपाय आप वतलायेगे, आप आश्चर्य करेगे' कि उनमें और हमारे धार्मिक आचरणो मे कुछ भी अन्तर नही है । हम इन्ही उपायो को 'धर्म' के नाम से पुकारते है । आपको धर्म के नाम से यदि चिढ़ है तो आपको उनके लिए एक कोई नया नाम और गढना होग । जैसे कोई इन्हें 'नियम' कहते हैं, कोई 'कानून' १५० Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहते हैं, कोई कुछ और कोई कुछ । आखिर हैं सव एक । विना कुछ व्यवहारो को अपनाये, हम में प्रेम रह नही सकता, हमारा कलह मिट नही सकता । कानून और धर्म में कोई खास अन्तर नही होता । एक सामाजिक नियंत्रण के अन्तर्गत है और दूसरा स्व-नियत्रण । है दोनो ही मन पर नियत्रण लाने के आधार | कानून का सुधार 'दबाव' से और धर्म का सुधार 'भाव' से सम्बन्धित होता है। धर्म का अर्थ है - "हमारे मन पर हमारा नियत्रण । हमारे सुधार के हम रखवाले, हम जिम्मेवार ।" कानून और धर्म में कुछ अन्तर हो अथवा न हो, अपने -२ स्थान पर दोनो उपयोगी है । एक हमारी अवोय अवस्था में काम करता है तो दूसरा हमारी ज्ञान- अवस्था मे । यह तो मानी हुई बात है कि हर प्राणी को दोनो अवस्थाओ से होकर गुजरना पडता है इसलिए हमें विवेक पूर्वक दोनो का ही सम्मान रखना पडता है। कई धर्म का उल्टा अ समझ, गलत धारणा बना लेते है । है उनका कहना "धर्म एक थोयी बकवास है । प्रथम तो ऐमे आदर्शो पर हमारा दृढ रहना असम्भव, यदि दृढ रह जाय तो भी पेट का प्रश्न इससे हल होने का नही है ।" परिश्रम करने वाले देशो को देखिये कैमी उन्नति कर ली है । इसलिए अच्छा यही है कि हम अपनी आवश्यकता को समझते हुए सही परिश्रम को ही अपनावे ।' 1 धर्म पर बहुतो को दृढ रहते न देख या द्रव्य वस्तु की प्राप्ति न जान, निराश होने वाले मेरे वन्धु किसी भी निर्णय के पहले हमे अपने, 'लाभ या हानि', दोनो ही पर हर दृष्टि से विचार कर लेना अति आवश्यक है । कई प्रयास प्रत्यक्ष लाभ या हानि पहुँचाते हैं तो कई अप्रत्यक्ष रूप से । वैसे ही हानि का रुकना भी हमारे लिए एक अपेक्षा से लाभप्रद ही है । माना कि पेट का प्रश्न हमारे जीवन का सबसे पहला और गुरुतर प्रश्न है और यह भी मानते है कि धर्म के प्रभाव से इस प्रश्न को हम चाहे जितना सकुचित या सीमित कर डालें, फिर भी कुछ-न-कुछ हमारे लिए यह बना रह ही जायेगा । जव इस 'कुछ' के लिए ही हमें कुछ ऐसे परिश्रम की आवश्यकता है १५१ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षमा मागने की यह पद्धति अत्यन्त महान् है । मनुष्य से ही नहीं, हम हमारे साथ रहने वाले समस्त जीवो से क्षमा मागते है। किसी प्राणी को दुःख देना नहीं चाहते। फिर भी ससारी हैं। किसी कारण से उनके दुख का कारण बन ही जाते है, भूल से अथवा अशुभ कर्मो के उदय से। उसके लिए पश्चाताप करें, क्षमा मागें तो यह क्रिया प्रशसनीय ही समझी जायेगी। साधु-सतो के व्याख्यानो से मन को रास्ते पर रखने मे बडी मदद मिलती है। वे भी कुछ समय निकाल कर हमे उपदेश देते हैं और अच्छी बातो का ज्ञान कराते है। मन को किन उपायो से सही रास्ते पर चलाया जा सकता है यह समझाने मे वे हमारी बड़ी सहायता करते है। अच्छा साहित्य तो हमारे लिए कल्पतरु के समान है जो चौबीसो घटे हमे लाभ पहुंचा सकता है। पूजा का अवलम्बन स्वाध्याय के कुछ उपायो मे से एक उपाय ऐसा है जो हमारे मन को सबल बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। वह उपाय है जिनराज भगवान की "मूर्ति पूजा"। आपका ध्यान इसी पोर आकृष्ट करने का मेरा मुख्य ध्येय है। हमारे मन मे यह विचार आ सकता है कि जब हम हमारे मन को सामायिक,प्रतिक्रमण, साधुओ एव विद्वानो की सगति और सत् साहित्य मनन आदि द्वारा अच्छे रास्ते पर स्थिर रख सकते हैं तब मूर्ति-पूजा जैसी इतनी खर्चीली और परिश्रमी क्रिया को क्यो अपनावे ? ___ अन्य उपायो से तुलना:-यह बात माननी पडेगी कि दूसरी कई क्रियानो की अपेक्षा मूर्ति-पूजा मे खर्च अधिक है और परिश्रम भी। हमे इसे अपनाने मे काफी परिश्रम करना पडता है। पर जव हम इसकी उपयोगिता पर सहृदयता पूर्वक ध्यान देते है तो हमे अपने पूर्वजो पर, जिन्होने अपने अथक परिश्रम और अपार धन राशि से यह अमृत घट बनाया है, बहुत ही गौरव होता है। स्वाध्याय के अग पौपध, प्रतिक्रमण और सामायिक बहुत ही अच्छी और ऊँचे दर्जे की क्रियाएँ है पर है एक खासी अच्छी जानकारी रखने वालो के लिए ही। १५८ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधु-मतो के व्यात्यान निश्चय ही हम सबके लिए बडे हितकर होते है पर कठिनाई यह है कि उनकी प्राप्ति अति दुर्लभ होती है। वे तो अपने ज्ञान, ध्यान तपस्या, यानी स्वाध्याय में इतने तल्लीन रहते हैं कि उन्हे इतना समय कहाँ कि रोज-२ हमें अपनी आवश्यक्तानुसार व्यास्यानो से लाभ पहुंचाते रहे। माना कभी कोई विहार करते-२ आ गये, तो भी उनका निवास, हमारे साथ अति अल्प काल का होता है। कभी-कभी हम ऐसे दूर देशो में जा वसते है जहाँ उनका आवागमन ही नहीं होता। इतने वडे देश में इतने कम साधु, और उनके पास उपदेश देने का अति कम समय, फिर ऐमा सुन्दर सुयोग हमारी आवश्यकतानुसार हमे नित्य कैसे प्राप्त हो सकता है ? कई कह सकते है कि अब वह जमाना थोडे ही रहा है कि मुनि वर्षों तक तपस्या और ध्यान में मौन रह कर अपनी पलक ही न खोले या शहरो के वाहर बहुत दूर ठहर कर जब चाहें तव विहार कर जाये। अव तो इन उदार महापुरुपो ने अपने उपदेशो द्वारा भविजीवो को तारने के लिए अपना जीवन ही अर्पण कर दिया है। ये करुणा सागर अति दूर-२ तक, अति उग्न विहार का कप्ट उठाते हुए पहुंचने की कोशिश करते ही रहते है और दिनमें एक बार नही, दिन-रात में चार-२ वार,गला वैठने पर भी गला फाड-२ कर जन साधारण के हित की दृष्टि से घटो व्याख्यान देते है । अत्यन्त सतोप इस बात का है कि कोई सुश्रावक व्यस्तता के कारण, अरुचि अथवा प्रमादके कारण या अस्वस्थता के कारण उनका सदुपदेश सुनने को उनके ठिकाने तक न पहुँच सका हो तब भी ये महा तेजस्वी उस मुश्रावक की समृद्धि अथवा उसके सरकारी, या सामाजिक पद की महत्ता को मद्दे नजर रखते हुए श्रीमान् के भवन, वगले अथवा निवास - निक्तन तक जाकर भी उपदेश का लाभ पहुंचा आते है। इस स्थिति मे महगी मूर्तिपूजा की क्या आवश्यकता है ? मूर्ति-पूजा की तरफ यदि हमें झुका दिया जाता है तो हमे उपदेश ग्रहण करने वालो से भी अधिक इन उपदेश देने वालो को, कितनी गहरी अतराय पडेगी, सोचा भी है ? वस्तुत व्याख्यान सुनने वालो को व्याख्यान सुनने में उतनी रुचि नहीं है, जितनी व्यास्यान देनेवालो को व्याख्यान देने में है। व्याख्यान आज कल सस्ते जरूर हो गये है पर बात इतनी ही है कि इन्हें मुनि-व्याख्यान नही कह सकते । ये १५९ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्यान तो स्वकीति के इच्छुक भेद-भाव बढाने वाले चतुरो के है जो मान अभिमान मे डुवे, अपनी उदर पूर्ति करते फिरते है। यह इन्ही महानुभावो की कृपा है कि आज हम जैनी ऐसी छिन्न-भिन्न अवस्था में अपने आप को पा रहे हैं और ऐसी जर्जर अवस्था को देख करही, इच्छा न होते हुए भी कुछ अप्रिय लिखने को विवश होना पड़ा है। प्रभु-पूजा तो वालक से वृद्ध, जड़ से महान् पडितराज तक को, किसी न किसी रूप मे हित पहुंचाने वाली बहुत ही सरल क्रिया है। साथ-२ यह व्यवहार इतना प्रभावोत्पादक है कि पत्थर मे भी फूल खिला देता है। ऊँचे से ऊँचे अध्यात्मवादी से लगा कर वालक जैसे अति सुकोमल मन की रुचि के अनुकूल, गुणो की तरफ बढने के सभी साधनो का इसमे सागोपाग समावेश है। बालको की दृष्टि से तो मंदिरो का उपयोग अपना सानी नही रखता। जब एक बालक को भाव से झुक कर, हम परमात्मा की मूर्ति को वन्दन करते, चन्दन की विंदी लगाते, पुष्प चढाते अयवा जय वोलते देखते हैं तो हम अपने इस प्रयत्न को बडा ही महत्वशाली अनुभव करते है। बालक पन ही से बच्चो मे परम पिता परमात्मा में अनुराग उत्पन्न हो, उनकी अति कोमल वृत्ति पर प्रभु-गुणो का रग जमे एव प्रभु गुणो में उनकी रुचि बढे इससे अधिक उपयुक्त सरल क्रिया और कौन-सी हो सकती है ? बालको के हृदय की सरलता और तन्मयता को देखकर हमारा हृदय भी आनन्द-विभोर हो जाता है और हम प्रभु गुणो में और अधिक भाव से झुक जाते है । मूर्ति-कला का रहस्य महान् है । जितना ही हम इस पर गहराई से चिन्तन करेगे, उतने ही हम अधिक आकृष्ट होते जायेगे। हमे तो विवेक से अपने हित को प्रधानता देनी है। खर्च का जो भय हम महसूस करते है वह नितान्त हमारी ना-समझी है। आगे आप देखेंगे कि अति उच्च श्रेणी की सामाजिक प्रणाली के कारण बहुत वडा लाभ कितने कम-सेकम खर्च में लिया जा सकता है। आर्थिक दृष्टि से कमजोर स्थिति वाले भाई, उल्टे अधिक फायदे में रहते हैं। खर्च के लिए किसी को भी धवडाने की कोई आवश्यकता नही। अधिक खर्च करें यह हमारी इच्छा पर निर्भर है । उद्देश्य भिन्नता :--हमे पूजा के असली रहस्य को समझने की आवश्यकता है। लोगो ने जो शंकाये की थी वे कितनी निर्मूल है, उनका विचार हम १६० Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीछे कर चुके है । अव हमें इसकी उपयोगिता परखनी है । जैन परपरानुसार इसमें न तो अन्य मतावलम्बियो की तरह परमात्मा से द्रव्य वस्तुनो की प्राप्ति की बाधा है और न अन्य किसी प्रकार की सहायता के लिए, दीनता ही है । महान् आत्माओ के शुद्ध गुणो का आदर मात्र है । वह भी परम निर्मल-निमित्त कि इस तरह के व्यवहार से ऐसे शुद्ध गुणो मे हमारी भी सोई हुई रुचि जाग जाय । इसलिए हमारे लिए यह आवश्यक है कि पहले हम अपने और दूसरो के उद्देश्य मे क्या अन्तर है, इसे भली प्रकार समझें । बहुतो की ऐसी धारणा है कि थोडी बहुत द्रव्य वस्तुओं की प्राप्ति या अन्य किसी प्रकार की सकट के समय सहायता मिलने की आशा रखे बिना, कम ज्ञान वाले या हम सभी सहज स्वार्थ प्रवृत्ति वाले होने के कारण, दिल से अपने परमात्मा या इष्ट की न तो सच्ची आराधना कर सकते है और न इसके लिए दूसरो को अधिक आकर्षित ही, अपितु और अधिक अभिमानी बन जाने का ही भय है । इसलिए चाहे इस तरह हमारी आशा की पूर्ति हो अथवा न हो, पर आशावादी रहने ही में लाभ है । उनमे ऐसी धारणा, उनके सरल स्वभाव से हमारे हित की दृष्टि से उत्पन्न हुई हो, अथवा उनके कपट पूर्ण किसी स्वार्थ साधन की दृष्टि से, जैन मान्यता इसका समर्थन नही करती बल्कि इसे गलत और बुरी समझती है । बच्चा किसी इनाम या किसी वस्तु मिलने की आशा में जी जान से कार्य करे और फिर भी यदि आशानुसार उसे न मिले तो वह अत्यन्त निरुत्साहित हो जाता है और उसका सम्पूर्ण विश्वास जाता रहता है। ऐसा धोका खाकर, वह भविष्य में अधिक सक्रिय रहना तो दूर रहा उल्टे निष्क्रिय हो जाता है । इसी तरह यदि हम किसी आशा को लेकर दौड लगाते हैं और जब समय पर हमारी आशा फलवती नही होती तो हमारे मन में एक बडी भारी निराशा और अश्रद्धा पैदा हो जाती है । हम सोचने लगते है कि यह सब झूठ, प्रपच, और ठग वाजी है । न देव है, न देवता । हमें मूर्ख बनाने का एक रास्ता है । इस गहरी निराशा से हमारे मन में एक ऐसी ग्लानि पैदा हो जाती है कि हम एक दूसरा ही रूप ले लेते हैं । यानी हम नास्तिक बन जाते है । हमे रोग हो गया, हमारा धन चला गया या हम किसी प्रकृति-प्रकोप में फँस 11 - १६१ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गये तो रात-दिन परमात्मा का स्मरण करते हुए प्रार्थना करते है - "हे भगवन् हमारी सहायता कीजिये और हमें ऐसे सकट से उवारिये ।" इतने पर भी जव कुछ नही होता और काम बिगड जाता है तो हमारा दिल टूट जाता है । परमात्मा के प्रति हमारे दिल मे अश्रद्धा पैदा हो जाती है और हम नास्तिक बन जाते है । भाग्य से नास्तिक न भी बनें तो भी हममें अन्य दोप उत्पन्न हो जाते है और हम अकर्मण्य बन जाते है । संकट के समय विश्वास के आधार पर हम अपने पुरुषार्थ को ही छोड़ बैठते है । सोचते है -- “ आज नही तो कल वे ही उवारेंगे, वे ही सभालेंगे", फल यह होता है कि हम अधिक दीन-हीन होते जाते है । अत यह मान्यता अत्यन्त अहितकर लगती है । यही कारण है कि परम पिता परमात्मा की पूजा में हम पूर्ण न होने वाली किसी भी स्वार्थ पूर्ति की इच्छा नही करते । केवल उनके शुद्ध गुणो का प्रसन्नता से आदर करने का भाव रखते हैं और वह भी इसलिए कि इस तरह के प्रयत्न से हमारी आत्मा मे भी ऐसे गुण, जो दबे पडे है, सरलता पूर्वक शीघ्र विकसित हो जावें । ठीक वैसे ही- जैसे कवि, गवैया या खिलाडी आदि की कलात्मक कृतियो को देख कर हमारे में भी वही कला उभर आती है । अप्रत्यक्ष रूप में यह अवलम्ब क्या महत्व रखता है, उसके मूल्य का बोच, चिन्तन करने पर ही होता है। एक बिल्कुल सहायता नही करता । दूसरा सिर्फ अपने कलात्मक ढग के मनन ही मनन से चाहे वह देख कर हो, चिन्तन कर हो या पढ कर हो, बेहद लाभान्वित हो जाता है । महा भाग्यशाली एकलव्य ने गुरु द्रोण में श्रद्धा स्थापित कर, सिर्फ उनकी मूर्ति के सहारे ही, अपनी प्रतिभा से कैसा अपूर्व लाभ उठाया था, महा-भारत यह आज भी हमें मुक्त कठ से बतला रहा है । , परमात्मा की पूजा में अपने ही लिए और वह भी अपने आप से ही लाभ उठाने के सिवाय, न हम किसी को राजी करना है, न कुछ मागना है । यदि स्वार्थ ही को हम 'मन से कार्य करने की रुचि' का कारण मान ले तो 'शुद्ध गुणो के विकास' का स्वार्थ तो हम यहाँ भी स्थापित कर सकते है और यह अच्छी तरह देख सकते है कि इस तरह के प्रयत्न से हमारे इस शुद्ध स्वार्थ की पूर्ति कम या ज्यादा, जल्दी या देर से अवश्य होती है या नही ? चूकि परमात्मा में गुणो की किसी प्रकार की कमी नही रहने और भविष्य में भी किसी प्रकार की न्यूनता उत्पन्न होने की गुजा १६२ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यश न होने के कारण, हमारी क्षमता के अनुसार लाभ में किसी प्रकार की कमी नही रहती इसलिए यहां हमारे निराश होने का तो कोई मौका ही उपस्थित नही होता और न हमारे हृदय में किसी प्रकार का उचाट ही होता है । बल्कि ज्यो-२ हम परमात्मा के निर्मल गुणो के महत्व को अधिकाधिक समझते हुए इस प्रकार से प्राप्त लाभ को देखते हैं त्यो त्यो हमारा शुद्ध प्रेम दिनोदिन शुक्न पक्ष के चन्द्रमा की तरह बढ़ता ही जाता है। इस पर भी कइयो की यह धारणा कि यदि परमात्मा कुछ नहीं करते है तो प्रकृति की जो यह महान उथल-पुथल हम देख रहे है उसका सचालन कैसे हो रहा है ? हमारा भला-बुरा क्यो हो जाता है ? यह अवश्य विचारने लायक है। जैन मान्यता ने अपना दिल खोल कर सभी के सामने कह दिया है कि परमात्मा किसी का भला या बुरा कुछ भी नहीं करते। सब कुछ अपने-२ प्रयत्लो पर ही निर्भर है। प्रकृति पर जब हम दृष्टिपात करते है तो ये बातें हमे बडी गहन लगती है। इतनी विशाल पृथ्वी कैसे थमी हुई है ? ये तारे, यह चन्द्र, यह सूर्य इन सबका नियामक कौन है ? दिन और रात क्यो नियमानुसार होते हैं ? हमारे जन्म और मृत्यु का क्या तात्पर्य है ? आदि। कुछ भी हो इतने शक्ति शाली और आश्चर्यजनक पदार्थो को सभाल कर रखने वाली शक्ति भी कोई महान् शक्ति ही होगी। इस आपार गक्ति के सम्बन्ध में हम क्या सोचे ? आखिर यह रचना है क्या ? इसका क्या महत्व है ? ब्रह्माड के इन रहस्यो का उद्घाटन क्या सम्भव है ? __ अनेक प्रकार के विचार हमारे मन मे उत्पन्न हो सकते है और हमे कुछ सोचने के लिए विवश कर सकते हैं। कहना इतना ही है कि इन विषयो मे हमारा ज्ञान पूर्ण नही है और हम सभी अनुमान को आवार मानकर यह खेल, खेल रहे हैं। कोई इस विपुल शक्ति को देव के नाम से सम्बोधित करते है, कोई इसको शक्ति ही समझ कर सतोप कर लेते है। कुछ भी हो, इतना हम अवश्य अनुभव करते है कि समय-समय पर प्रकृति के प्रकोप हमारे ऊपर आते रहते हैं और हमें सकट में भी डाल देते हैं । प्रकृति में यह अनियमितता क्यो उत्पन्न होती है और क्यो हमारे जीवन के साथ यह खिलवाड़ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया जाता है इसका उत्तर देना हमारी सामर्थ्य के बाहर है । कई इसे देवीदेवता का प्रकोप समझते है और कई स्वाभाविक प्रकृति-प्रकोप । हम ऐसे सकटो से अपना बचाव अवश्य चाहते है । देवी-देवता का प्रकोप मान भी लें तब भी दीन बनकर दया की भीख मागना कदापि उचित नही है । देवी-देवता माना कि उशर है और हमारा कुछ भला कर सकते हैं तो वे अवश्य हमारा भला करेगे और ऐसे सकटो को हमारे ऊपर आने नही देगे । फिर भी यह निविवाद है कि सकट हमारे ऊपर आ ही जाते है । कभी-कभी हमे इन्हें जीतने में सफलता मिलती है और कभी-कभी असफलता भी । और अन्त मे हम काल कवलित हो हो जाते है | लाख विनती करने पर भी जब हमारी हानि हो जाती है तब किसी के सामने सहायतार्थ हाथ पसारने से क्या लाभ ? मानते हैं कि विवश हालत मे क्षणिक सान्तवना के लिए हम ऐसा कर बैठते हैं, परन्तु इस पर भी गहराई से विचार करना जरूरी है । सकट से हम घबडा अवश्य जाते हैं पर ऐसे समय मे भी यदि हमारा दृष्टिकोण सही हो तो हम उसका सामना आसानी से कर सकते है । हमें समझना चाहिए कि नमस्कार नमस्कार में कितना अंतर होता है । रास्ते चलती एक अनजान युवती को यदि नमस्कार करें तो वह तुरन्त समझ जाती है कि उस नमस्कार के पीछे कौन-सा भाव छिपा हुआ है । शायद वह उस नमस्कार से बुरी तरह चिढ सकती है । न की सहायता के लिए प्रार्थना के बाद दूसरे ही दिन कही मिलने पर उसी सेठ को यदि नमस्कार करें तो वह समझ जाता है कि किस आशय से उसे नमस्कार किया जा रहा है । अपने देश के स्वतंत्रता सग्राम में शहीद हुए वीर की मृतक देह को किये जाने वाले नमस्कार मे कौन-सा भाव भरा है, वह किसी से छिपा थोडे ही है । इसी तरह परम त्यागी, तपस्वी मुनिराज को जो नमस्कार किया जाता है, वह तो विशेष होता ही है । अपने ऊपर ही इसे घटाकर देखा जाये । एक पडोसी बिना किसी स्वार्थ के आपको प्रणाम करता है और कष्टके समय मे भी सहायता भागना तो दूर रहा आपके प्रस्ताव पर भी सहायता स्वीकार करना नही चाहता या वडी हिचकिचाहट से स्वीकार करता है । पर एक दूसरा पडोसी उससे भी अधिक विनम्र भाव से नमस्कार करता हुआ कुछ न कुछ सहायता के लिए प्रार्थना करता ही रहता है 1 १६४ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और जो देते हैं लेता ही रहता है । आपके ऊपर दोनो की क्या प्रतिक्रिया होती है ? जहाँ पहले के सकट पर आप तन-मन-धन से सहायता के लिए उद्यत रहते है वहाँ दूसरे के लिए आँख-मिचौनी करते हुए घृणा भाव से वचने की चेष्टा करते है । वस्तुत स्वार्थ के वशीभूत होकर किये गये नमस्कार से हमें एक बदबू की अनुभूति होती है । सकट हमारे ऊपर आते रहते हैं, आते रहेंगे पर सकटो में भी हमें सभल कर रहना है । हाथ जोड कर प्रार्थना करने से कोई हमारे सक टाल देगा या अधिक सुख प्रदान कर देगा ऐसा समझना हमारी नितान्त भूल है र महान् दीनता है । थोडी देर के लिए यदि यह मान भी ले कि देव चाहें तो हमारी सहायता कर सकते हैं तब भी, वे हमारी इस स्वार्थपरायणता के कारण कभी खुश नही हो सकते । यदि वे हमें इस तरह के सकटो से बचा सकते तो उनके दो एक भक्त मृत्यु- मुख से बचे हुए, इस धरती पर जरूर मिल जाते । वे ही यदि सकट से बचा सकते तो धर्म-परायण भारत यवनो और अग्रेजो के पजे में हजारो वर्षो तक rest नही रहता और न लाखो गायें हो काटी जाती । जब ऐसे प्रश्नो के हम सतोषजनक उत्तर नही दे सकते तो हमें समझना चाहिए कि हम भूल कहाँ कर रहे हैं ? इस तरह की गलत मान्यता से हमें नीचा देखना पडता है और हम अपने देवो को भी नीचा दिखाते है । सकट के समय हम अपने परमात्मा को याद करे, यह विल्कुल उचित है और ऐसा हमें बरावर करना चाहिए पर यह समझकर नही कि वे हमारी सहायता कर देंगे बल्कि यह समझ कर कि ऐसे सकटी का, जो उनके जीवन काल में उन पर भी आये,वडे आत्म-वलसे डटकर, बहादुरी से उन्होने सामना किया और विजयी हुए । हमें भी वैसी ही बहादुरी रखनी है । जैसा शरीर उन्हें मिला था वैसा ही शरीर हमें भी मिला है, हम भी उन्ही की सतान है । फिर क्यो न वैसे ही शक्तिशाली बन कर डटे रहे । दुख में हो अथवा सुख में, ऐसे विजयी महापुरुषो को याद रखने का यही अर्थ कि उचित रास्ते पर चलने से हिम्मत न हार जायें । उनको याद रखने से हमारा आत्मबल सगठित हो जाता है । उनके पद चिह्न के मनुकरण से हमारा मार्ग सही और सरल बन जाता है और कार्य में जोश बना रहता है; जैसे, बटोही भटक जाने पर किसी के पदचिह्नों के सहारे गाव का रास्ता १६५ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · पा लेता है । पद-चिह्न बटोही को गांव नहीं पहुँचा रहे हैं। गाँव तो वह 'तभी पहुँचेगा जब वह खुद चलेगा, पर पद चिह्नों का सहारा भी कम सहारा नही कहा जा सकता। इसलिए हमे भी यह बराबर ध्यान में रखना चाहिए कि हमारे लिए जो कुछ होगा वह हमारे करने ही से होगा । हम अपने लिए क्यो किसी को कष्ट दे ? क्यो दीन बने ? विनय तो हम सबका करेंगे पर किसी गरज से नही । यह हमारा अभिमान नही है । कार्य क्षेत्र में कार्यरत होने की सच्ची प्रेरणा है । सच्चा आत्म गौरव है । आखिर देव - देवियो का हमारे से प्रसन्न होने या नाराज : ने का कारण ही क्या है ? वे तो हमसे कुछ भी लेते हुए नही दीखते । भोग भी जो कुछ उनके नाम से लगाते है आखिर पाते तो हम या हमारे पुजारी ही है। उन्हें हमसे क्या प्राप्त हुआ ? क्या वे हमारी चापलूसी पसन्द करते है ? धनवान पड़ोसी के लिए भी हम कभी काम आ ही जाते है, चाहे कम-से-कम उनकी हा मे - हा मिलाने का हो मौका मिले, पर देव - देवियो के तो किसी भी कार्य को करते हुए हम नजर ही नही आते । देखा-देखी जैन परपरा मे भी अधिष्ठायको की पूजा - भक्ति इसी प्रकार की गलत धारणा से होने लगी है। यह वहुत ही दुःख का विषय है । शुद्ध परंपरा में यह एक धब्बा है । हम देवी-देवताओं की योनि मान सकते है । उन्हे याद करके बहुमान पूर्वक आह्वान भी कर सकते है, सिर्फ इसी भाव से कि हे महाभाग । यदि आप कही विराजते हो तो जिनराज भगवान के शुद्ध गुणो के बहुमान करने की मंगलमय कृति मे सम्मिलित होने के लिए, जिस किसी भी रूप में सभव हो, आप अवश्य पधारे और हमारे साथ-२ अपनी आत्मा मे ऐसे शुद्ध गुण अपनाने का लाभ लें । इसके अतिरिक्त हम आपसे कुछ नही चाहते। उनके प्रति ऐसा विनय भाव रखना ही हमारे लिए पर्याप्त है । इस विनय से वे इतने प्रसन्न होगे कि यदि वे हमारे लिए कुछ कर सकते हैं तो सब कुछ करेगे । मोत-मार्ग को अपने पद चिह्नों से सुशोभित करते हुए और उस मार्ग को तय करने के तरीको को समझा कर हमारे लिए उसे सरल बनाने वाले महान् उपकारी जिनराज भगवान का; या अपने बुद्धि बल से, तप बल से इस चिह्नित मार्ग की रक्षा करने वाले हमारे प्रवीण प्रहरी महान् आचार्य या मुनि महाराज का; १६६ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मा उस मार्ग में वढने में कारण स्वरूप वन सहयोग देने वाले अन्य तमाम देव-देवियो या भाइयो का हम चाहे जितना उपकार मानें, चाहे जितनी इस उपकार या उनकी सफलता प्राप्ति के लिए उनकी प्रशसा करें, हमारे लिए कोई विशेष वात नही। पर किसी प्रकार की दीनता हमारे मन में नही रहनी चाहिए। हम मनुष्य हैं, महान् आत्मवल के स्वामी हैं। सव शक्ति हमारे भीतर है। हमें अपनी असलियत को समझने की आवश्यकता है। यदि देव हमारी सहायता कर सकते हैं तो हमारे स्वार्य रहित नमस्कार से खुश होकर वे जरूर हमारी सहायता करेंगे। यदि हमारी सहायता नहीं की जाती है और हम कष्ट में पड़ जाते हैं तो भी हमारे लिए निराश होने की कोई बात नही। हमने तो उनसे सहायता के लिए याचना ही नहीं की थी। ___ जिनराज भगवान की भक्ति से भी यदि हमें किसी प्रकार का लाभ न पहुंचे तो भी हमें जरा-सी निराशा या अत्रद्धा पैदा नहीं होनी चाहिए। कारण सब जगह हमारा प्रयल ही काम आता है। इस प्रकार के अवलम्बन से, आत्मवल को संगठित कर सकटो का सामना करने में हम कुछ अधिक ही समर्थ हुए हैं। ____सफलता प्राप्ति में नैमित्तिक रूप से सम्पूर्ण उपकार महापुरुषो का यदि मान ले तो यह हमारी विनम्रता ही है पर असफलता के लिए तो हमें, अपने आपको ही पूर्ण जिम्मेवार समझना चाहिए न कि किसी दूसरे को। जैन प्रतिमा पूजन में और अन्य लोगो को प्रतिमा पूजन में उद्देश्य की भिन्नता के कारण हमें महान् अंतर की अनुभूति होगी। हमारे दवे गुणो को विकास में लाने के उद्देश्य से, इस प्रयल को प्रभावशाली, सरल और निश्चित समझकर ही हम इसे अपनाते है। हमें यह समझना चाहिए कि इस महान् प्रभावशाली और सरल प्रयत्न से हम अधिक-से-अधिक लाभ उठाने में कैसे समर्थ और सफल हो सकते है। ___मूर्ति रचना की विशेषता:-समस्त मन्दिरो में, भिन्न-२ रगो और पदार्थों, धातु, पाषाण आदिसे निर्मित जिनराज भगवान की अनेक मूर्तियो को हम देखते हैं। यद्यपि रूप-रेखाम्रो में सव मूर्तियाँ एक जैसी हैं किन्तु केवल मूर्ति को देख कर यह नहीं बताया जा सकता कि यह किस तीर्थंकर की मूर्ति है । ध्यानस्य भाव, शान्त वृत्ति, प्रसन्नचित्तता एव अन्य शुद्ध लक्षणो को देखकर केवल इतना ही Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बतलाया जा सकता है कि यह हमारे किन्ही जिनराज भगवान की मूर्ति है। मूर्ति विशेष को पहचानने के लिए उस पर अकित नाम या उनके पहचान का लक्षण ही काम में लाना पडता है । मूर्ति का पहले वाला नाम और लक्षण परिवर्तन करके दूसरा नाम और लक्षण लिख दें तो वही मूर्ति पहले भगवान की न रह कर दूसरे भगवान् की बन जाती है | महात्मा गाधी की मूर्ति को, कोई सरदार पटेल की मूर्ति नही मान सकता । गाधीजी की मूर्ति के नीचे यदि पटेल का नाम लिख दें तो लोग शीघ्र भूल पकड लेगे । कारण स्पष्ट है, महात्माजी की आकृति सरदार पटेल की आकृति से विलकुल भिन्न है । जब दो पुरुषो की आकृति भी एक मूर्ति द्वारा नही दिखाई कती तब एक ही मूर्ति से समस्त तीर्थंकरो की आकृति का कैसे बोघ हो रहा है ? द्रव्य शरीर की रूप-रेखाये तो तीर्थंकरो की भी जरूर ही भिन्न-भिन्न रही होगी । तव यह मूर्ति उनके द्रव्य शरीर की नही है, ऐसा निश्चय पूर्वक कहा जा सकता है | एक ही मूर्ति जब सब जिनराजो की कही जा सकती है तब निश्चय ही इसका कोई गंभीर एवं सूक्ष्म कारण है । जब हम इस कारण का पता लगाते हैं और किसी ऐसी समानता को खोजते हैं जो सब जिनराजो में एक-सी रही हो तो हमे पता चलता है कि उनमें 'गुण' समान रूप से अवस्थित थे । तब निश्चय यह मूर्ति जिनराज भगवान के गुणो ही की रूप-रेखा है । इतना समझने के बाद, हम कह सकते है कि हम परमात्मा के द्रव्य शरीर के पुजारी नही सिर्फ उनके गुणो के पुजारी है । हम गुणो का बहुमान करते हैं और गुणों को ही प्रधानता देते हैं । प्रश्न किया जा सकता है कि जब यह गुणो की मूर्ति है तब इसे किसी व्यक्ति विशेष के नाम से क्यो सम्बोधित करते है ? यदि आप से कहा जाय कि मुस्कराहट का चित्र बनाइये तो किसी व्यक्ति को आधार माने विना कैसे बनायेगे ? यदि दस हँसते हुए बालको की तस्वीर आपके सामने रखी जाय और आप से पूछा जाय कि इनमे किसकी मुस्कान आपको ज्यादा अच्छी लगती है तो आप उस चित्र में किस $ वस्तु को देखेगे ? मुस्कराहट को ही न ? आप उन बालको को नही पहचानते । आप उन बालको को नही देख रहे हैं । आप देख रहे हैं सिर्फ उनकी "मुस्कराहट " । निष्कर्ष यह कि बिना माध्यम के हमारा काम चल नही सकता । १६८ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसी प्रकार गुणो को दर्शाने के लिए भी हमें एक माध्यम की आवश्यकता होती है। ऐसे महान् गुणो को धारण करने वाले तो केवल भगवान ही हो सकते हैं। इसलिए हमने उन्ही को माध्यम चुना। उनका व्यक्तिगत नाम तो इसलिए दे देते है कि उनका सम्पूर्ण उज्जवल इतिहास हमारे मन को मजबूत बनाने मे अविक सहायता कर सके। आखिर हमें तो अपना हित देखना है । 'मूर्ति भगवान के द्रव्य शरीर की नही उनके गुणो की है-ऐसा ठीक से समझ लें तो हमारे आपस में फैले बहुत से मतभेद अपने आप समाप्त हो जायेंगे। फिर यह कोई नही कहेगा कि त्यागी भगवान को भोगी कैसे बना दिया, या मूर्ति में गुप्त अग या आँख का दिखाया जाना जरूरी है। जब मूर्ति भगवान् के द्रव्य शरीर की नही तव ऐसे विचारों का जो केवल उनके द्रव्य शरीर ही से सम्बन्ध रखते है, मूल्य ही क्या है। फिर तो हमारा एक ही लक्ष्य रहेगा-मूर्ति को अधिक से अविक भाव-पूर्ण वनाना। ताकि परमात्मा के अनन्त गुणो की अच्छी से अच्छी झलक हमें अधिकाधिक रूप में मिल सके। माध्यम को हम जितना ही कलापूर्ण ढग से वनायेगे गुणो की झलक उतनी ही प्रभावशाली, स्पष्ट और स्वच्छ होगी। ___ वारीको मे देखें तो पता चलेगा कि मूर्ति का प्रत्येक अग-प्रत्यग गुणो को दर्शाने में पूर्ण सक्षम है। किन्तु इस भावपूर्ण मुद्रा में गुणो की झलक, मुखारविन्द से ही अधिक मिलती है । इसमें भी आँखो का अपना विशेष स्थान है । यद्यपि भावो का प्रदर्शन मुखारविन्द से ही अधिक होता है पर दूसरे-२ अग-प्रत्यग भी अपना-२ सहयोग देकर उन भावो में तीव्रता या पूर्णता अवश्य उत्पन्न करते है। विना 'घड' के मुंह, और विना 'मह' के घड को देखने से पता चलता है कि दोनो के सहयोग की कितनी आवश्यकता है। एक के न रहने से कितनी विद्रुपता आ जाती है। __ भगवान की ध्यानावस्था का ज्यो का त्यो स्वरूप-उनका सीधा बैठना या खडे रहना, दोनो हाथो की स्थिर अजली, बद नेत्र और हँस-मुख चेहरा आदि से चलता है। __ हमारी यह धारणा कि भगवान की समवसरण की अवस्था को लक्ष्य में रख, आँखो को खुली दिखाना ही उपयुक्त है, सहज ही जंच जाय ऐसी बात नही है, Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारण पद्मासन और हाथो की स्थिर अजली सम्भवतः भगवान के समवसरण के अवसर के उपयुक्त आसन न भी हो। फिर भी, तर्क के आधार पर नही, रुचि सगत कहना चाहेंगे कि परमात्मा की मूर्ति में नेत्रो को अधिक फाड़ कर दिखाया जाना उपयुक्त नहीं जंचता । __ बद नेत्र अल्पज्ञो के लिए कम प्रभावक हो सकते हैं पर उनका कार्य अर्घ-खुले नेत्री से निकल सकता है। अब चूकि समाज में अल्पज्ञ ही अधिक होते हैं इसलिए उनके लाभ की दृष्टि से खुले नेत्रो वाली प्रतिमाओ को ही अधिक महत्व दिया है। कुछ बद नेत्रो वाली प्रतिमाये भी साथ-२ रखते है ताकि ऐसी प्रतिमाओ में रुचि रखने वालो का भी काम निकल जाय । भगवान के गुणो को दर्शाने में गुप्त-अग के आकार का मूर्ति के साथ कैसा और कितना सहयोग है, इसका ज्ञान अभी तक हमे नही है। यदि इस प्रकार के आकार-प्रकार का दिखाया जाना गुणो से सम्बन्ध न रख, सिर्फ उनके स्थूल शरीर ही से सम्बन्ध रखता हो तव तो ऐसा दिखाने की हठ करना भूल है क्योकि आम लोगो पर इसका बहुत उल्टा असर पड़ता है। प्राय. लोग मूर्ति के शान्त मुखारविन्द को देखना छोड, इसी अग को देखने पर अधिक केन्द्रित हो जाते हैं और फल यह होता है कि हमारी यह परम मंगल कृति उनके विकार या हंसी का कारण बन जाती है। जब भगवान के द्रव्य शरीर से मूर्ति का कोई सम्बन्ध ही नहीं फिर हमारे बहुसंख्यक भाइयो के मनो में सहज ही विकार उत्पन्न करने वाले इस अग को सामने न लाना ही उचित है । पूजनीय माता-पिता के दर्शन हमारे लिए कितने ही हितकारी क्यो न हो, उनकी नग्नता तो हमारे लिए विकारयुक्त, लज्जा पूर्ण या अखरने वाली ही होगी। मानलें कि मूर्ति में इस अग के आकार-प्रकार का दिखाया जाना अच्छे भावोत्पादक में अधिक सहायक है, फिर बैठी मूर्तियो को न अपना कर अधिक भावोत्पादक खडी मूर्तियो को ही हमें अपनानी चाहिए ? पर ऐसा तो नहीं किया जाता। यदि कहे कि किन्ही-२ को वैठी से और किन्ही-२ को खडी से अधिक भाव उत्पन्न होते हैं इसलिए दोनो ही प्रकार की मूर्तियो का उपयोग रखना पड़ता है जैसे कई बद और खुले नेत्रो की मूर्तियो को साथ-२ रखकर सभी का ध्यान रखा करते है। पर यहाँ हमें और अधिक गहराई से विचारने की : १७० Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यकता है। वंद और खुले नेत्रो की प्रतिमायें सबके लिए समान लाभकारी न होने पर भी किसी के विकार या रोप का कारण नही होती लेकिन यह नग्नता तो अनेको के विकार का कारण जो ठहरी । वडे-२ शहरो में तो महान् पवित्र मुनिराजी पर आम जनता कुद्ध होकर पत्थर तक फेक कर अपना रोप प्रदर्शित करती देसी गई है। यह सब इसी कारण कि मुनिराजो की यह नग्नता उन्हें खटकती है। ऐनी स्थिति पर हमें जरूर विचार करना चाहिए । आम लोगो का ध्यान रखना एक जैन का बहुत बडा फर्ज होता है। इसलिए कम-से-कम बहु नत्यक लोगो के हित की दृष्टि से भी ऐसी नग्न मूर्तियो को तो हमें एकान्त में ही रखनी चाहिए जहाँ यह बोर्ड लगा हो-"सिर्फ पहुँचे हुए पुरुषों के लिए।" जैने बच्चों के हित की दृष्टि से बहुत-सी फिल्मो के लिए लिखा रहता है-'सिर्फ वयस्को के लिए'। इसमे सभी का काम बखूबी निकल जायेगा । आखिर अव हम जगल के रहने वाले नहीं है। हमें इस प्रकार के मतभेदो को ज्ञान ने सुलझा लेने चाहिए । हमारे हित को हमें सर्वोपरि स्थान देना है न कि मत को। मूर्ति की बनावट का अधिक विचार करना कलाकारो और इस सम्बन्ध में अनुभव प्राप्त विजजनो का है। हमे इतना ही अधिकार है कि उनकी इस कलापूर्ण वस्तु ने हममे किस-२ प्रकार के भाव पैदा होते हैं यही उनके कानो तक पहुंचा दें । रुचि भिन्न होने के कारण विचारों में भी भिन्नता हो सकती है इमलिए पडित लोग विवेक से उचित समझे तभी सुधार करें। हमारे मन के अनुसार इसमें गीघ्र परिवर्तन हो जाना चाहिए, ऐसा हमारा आग्रह नहीं है। बहुत सम्भव है कही हमारी ही भूल हो रही हो। आखिर यह अकेले की वस्तु नहीं है । इसलिए इसमें सबके हित का ध्यान रखना अति आवश्यक है। पूजा में उपयोग :-मूर्ति ही हमारे मदिरो में प्रधान वस्तु है और कोई एसी वस्तु वहां नहीं होती जिस पर हमें विशेष रूप से विचार करने की आवश्यकता हो। मूर्ति को स्थापित करने का हमारा एक मात्र ध्येय यही है कि हमारा चचल मन गुणो की तरफ झुके और अवगुणो से हटे। मदिर मनुष्य मात्र की मपत्ति है। सभी इनसे लाभ उठाने के समान हकदार है । इस बात को ध्यान में रखकर पूरे विवेक के साथ हमे अपने लिए १७१ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इनका उपयोग लेना चाहिए। मंदिर प्रवेश के बाद हमें वहां क्या करना चाहिए और कैसा उपयोग रखना चाहिए यह जानना हमारे लिए अति आवश्यक है। पूरे विधि-विधान को जानने के लिए तो हमें ऐसी पुस्तकों का सहारा लेना पडेगा जिनमे दर्शन और पूजा की विधि विस्तार से लिखी हो। वस्तुत भूलो से जो हमें क्षति पहुँचती है हम उन्हें रोके और उपयोग की कमी से जो हमे कम लाभ मिलता है उसे सीख कर अधिक लाभ उठावे। __ हमारा उद्देश्य यही है कि मन का विपयो और कषायो की तरफ झुकने का जो आनादि काल का स्वभाव है, उसे रोकें। मन जब विषयो और कषायो से हट जायेगा तभी हमे परम आनन्द की प्राप्ति का अनुभव होगा। पुरुषार्थ ही प्रधान :-यह हम जानते है कि अभी हम बहुत कमजोर है और हमारे मन का वेग बडा प्रबल है इसलिए अपने उद्देश्य पूर्ति के लिए, हमने ऐसे महापुरुषो की मूर्ति का सहारा लिया है, जिन्होने अपने जीवन में सफलतापूर्वक अपने मन पर विजय प्राप्त की थी। ये विजेता अपनी सहायता देकर हमें विजयी बना देगे, चाहे हम कमजोर ही क्यो न हो, ऐसी बात बिल्कुल नहीं है। विजय हमारी तभी सभव होगी जब हम विजय के लिए पुरुषार्थ करेंगे। वे हमारी विजय के उतने ही निमित्त बन सकते हैं जितना एक पहाड की चोटी का विजयी, किसी ऐसे अन्य का जो वैसी ही सफलता की कामना रखता हो, निमित्त बनता है। चोटी पर विजय मे वह तभी सफल होगा जव स्वय प्रयत्ल करेगा। विजेता के तौर-तरीको का अनुकरण करके वह अपने मार्ग को सरल बनाता हुआ, अच्छा लाभ उठा सकता है। अनेक भूलो और ठोकरो से बच सकता है और विजेता की देखा-देखी करता हुआ-अपने में अपूर्व जोश और रुचि की मात्रा जगा- आसानी से शीघ्र सफलता भी प्राप्त कर सकता है। सौभाग्य से यदि उसे, विजेता के उस प्रयत्न की फिल्म देखने को मिल जाय तो वह अवलम्बन उसके लिए कितना सहायक रहा, यह तो सही-२ वह पथिक ही हमे बतला सकता है। एक प्रश्न उठ सकता है कि पहाड की चोटी के विजेता के अनुभवो को जानकर अथवा उसके कार्य-कलापो की साक्षात् फिल्म को देख कर, ऐसा ही प्रयास करने वाले को, कुछ प्रेरणा मिलने की अवश्य सम्भावना है; पर उसकी मूर्ति को देखकर या पूज कर उसके लिए किस लाभ की सम्भावना है ? १७२ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असल में बात यह है कि किसी के कार्य-कलापो को याद कर और साथ-२ उसकी मूर्ति को प्रत्यक्ष देख, दोनो के सहयोग से हमे बुद्धि से अपने मस्तिष्क में एक कल्पित फिल्म बनानी पडती है, जिसमे काफी योग्यता की आवश्यकता है, पर फिल्म में हमे इन दोनो का मिश्रण स्पष्ट रूप में बना-बनाया सरलता पूर्वक मिल जाता है । मूर्ति की उपयोगिता के सम्बन्ध मे सफलता न मिलने के कारण, निराश हुए उस पथ के पथिकमे पूछिये कि ऐसे पथके विजेता की मूर्ति उसके सामने रखने मात्र से ही उस पर क्या प्रभाव पडता है ? वह उसी समय उस महान् विजेता के चरणो में नत मस्तक हो जायगा, इसलिए कि ऐसी विकट स्थितियों का सामना करने मे वह कमजोर रहा पर वे धन्य है जिन्होंने ऐसे महान् दुष्कर कार्य में भी सफलता प्राप्त की । सम्भव है ऐमे निराग काल मे विजेता की दृढता को तेजी से याद करके उसमें भी नया जोग उमड पडे, उसे फिर से नई प्रेरणा मिल जाय । वह अपनी शक्ति संगठित करने में सफल हो जाय और सम्भव है वह विजयी भी बन जाय । हमारी तरह पूज्य भाव से तो विजेता की मूर्ति को वह इसलिए नही अपना पाता कि हमारे विजेता मे, जैसी हमारी श्रद्धा है वैमी उस विजेता मे उसकी श्रद्धा नही है । तुलना में अत्यन्त कमजोर होने के कारण एव विशेषकर उनके द्वारा किये गये उपकार की उदारता की दृष्टि से हम हमारे विजेता को बहुत ही अधिक पूजनीय समझते हैं जहाँ वह अपने आप को उस विजेता के समान समझता है । ऐसा होते हुए भी विजेता की मूर्ति को देखते ही उसके मन मे विजेता के प्रति इतना सम्मान पैदा हो जाना कम महत्वपूर्ण नही । श्रद्धा की विशेषता :- गावीजी की मूर्ति भी हमें उतनी ही पूज्य लगेगी जितनी उनके प्रति हमारी श्रद्धा होगी । आज वे हमारे बीच नही हैं पर उनकी मूर्ति या चित्र को देखते ही भिन्न -२ लोगो पर भिन्न- २ प्रकार का प्रभाव पडता है । कुछ की आँखो में आंसू छलक आते हैं तो कुछ वेपरवाही से ऊपर-२ ही से हाय जोड लेते हैं । गावीजी के चित्र या मूर्ति को देखते ही श्रद्धा वालो के मस्तिष्क में उपदेश, उनकी विशेषताएँ और उनके जीवन की विशेष - २ घटनायें इस तेजी से याद हो आती है मानो वे अपने मस्तिष्क में एक घटना चक्र को प्रत्यक्ष देख रहे हैं। मुख्य बात यह है कि हमारा इस दिमागी फिल्म का हीरो (नायक) मूर्ति रूप में हमारे सामने होने से घटनाचक्र का दृश्य विशेष रूप से अधिक स्पष्ट १७३ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीखता है जो हमारे प्रत्येक के लिए अनुभव करने की बात है । यदि गाधीजी में किसी की पूर्ण श्रद्धा हो और परमात्मा मे हमारी श्रद्धा की तरह, उनके वतलाये रास्ते के सिवाय एक इच भी इधर-उधर जाने का इरादा न हो तो वह उनकी मूर्ति के चरणो मे श्रद्धा से दो फूल अवश्य चढायेगा । प्रत्यक्ष में इस व्यवहार से हमे लाभ का अनुभव न भी हो पर यह शत-प्रतिशत सत्य है कि, इस प्रकार के व्यवहार से वहाँ उन के बतलाये रास्ते पर चलने मे कुछ अधिक ही सक्षम होगा । कारण इस व्यवहार से उसे नित्य प्रति एक प्रेरणादायक स्फूर्ति प्राप्त होती रहती है । यह तो हुई उसकी बात जिसने गाधीजी को प्रत्यक्ष देखा है और उनके सम्पर्क मे आने के कारण उनके गुणो मे श्रद्धा स्थिर कर चुका है पर उस बालक को हम गाजी के गुणो की तरफ किस प्रकार आकृष्ट कर सकते हैं, जिसने कभी उन्हे देखा ही नही ? यह हम अच्छी तरह जानते है कि गुणो ही के कारण हमारा किसी मे पूज्य-भाव उत्पन्न होता है पर असली करामात हमारे उस पूज्य-भाव की है जो गुण की तरफ हमें अधिकाधिक खीच ले जाता है । किसी के प्रति यदि हमारा पूज्य-भाव शेष हो जाय, चाहे वे हमारे माता-पिता ही क्यो न हो, तो हम उनके अच्छे-अच्छे उपदेशो की भी अवहेलना करने लगते है । यदि हमारा पूज्य - भाव दृढ है तो उनकी हर बात को हम पूर्ण विश्वास के साथ मान लेते है । यह है श्रद्धा का महत्व | पूर्ण श्रद्धा की तो बात ही अलग है पर बहुमान का व्यवहार तो हम थोडी श्रद्धा वालो मे भी देखते है । आज भी बड़े-बड़े लोग गाधीजी की समाधि पर बडी - २ पुष्प मालाये रखते है । इससे क्या लाभ है ? गाधी जी को न कुछ लेना न देना और न चढाने वालो को ही इस व्यवहार से किसी द्रव्य-वस्तु की प्राप्ति है । पर इससे चढाने वालो के मनो मे प्रेरणा श्रीर शक्ति तो मिलती ही है । साथ ही वे हमारे मन में और विशेष कर उन अबोध बालको के मन में जिन्होने कभी गाँधीजी को नही देखा है, श्रद्धा उत्पन्न कराने मे महान् सहायक बनते है । यह सब देख कर, बालक यही सोचते है कि महात्माजी जरूर एक बडे भारी महान् पुरुष हुए है, तभी इतने बडे - २ महानुभाव उनका इतना आदर सत्कार करते हैं और अपना मस्तक झुकाते है । बचपन ही से यदि किसी गुणवान के प्रति हमारे १७४ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्य-भाव (श्रद्धा) उत्पन्न हो जाय तो समझना चाहिए हमें बहुत कुछ मिल गया। आगे चलकर उनके गुणो को धारण करने में और उनके कहे अनुसार चलने में हमारा मार्ग वडा सरल हो जाता है। यह उपलब्धि कम नहीं है । जीवन-चरित्र को जानकारी. दूसरी बात जो हमारे सामने आती है, वह है भगवान के गुणो ने परिचित होकर उनको धारण करने की । गुणो की जानकारी उनके जीवन चरित्र से हो जाती है। उनके जीवन के सम्बन्ध में जितनी अधिक हमें जानकारी होगी, लक्ष्य-प्राप्ति में हमे उतनी ही अधिक सहायता मिलेगी। इसलिए यदि उनकी मूर्ति से अधिक लाभ उठाना हो तो हमे उनके जीवन-चरित्र पर अच्छी तरह मनन करना चाहिये।। हम चौवीस तीर्यकरो की मूर्तियां देखते है पर जिनका जीवन चरित्र हमें याद होता है, उनकी मूर्ति को देख कर जितने विचार हमारे मस्तिष्क में दौड़ते हैं उतने विचार उन की मूर्तियो को देखकर नही दौडते जिनका जीवन-चरित्र हमारी जानकारी मे नही है । भगवान् पर्श्वनाथ की मूर्ति को देखते ही, कमठ द्वारा उनको दिये गये कष्ट और ऐसे समयमें भी वे कितने शान्त रहे आदि घटनाक्रम शीघ्र हमारे दिमाग में आ जाता है । भगवान नेमीनाथ की याद आते ही अन्य जीवोंके वचावमे उनके जीवन का महान् त्याग तथा विवाह को महान् उमग को सयमी जीवन में पलटना आदि घटनाएँ दिलमें रोमाच पैदा कर देती है । भगवान महावीर स्वामी की मूर्ति को देखते ही उनके पैरो पर खीर का पकाया जाना, कानो मे कीलो का ठोका जाना, सर्प का भयानक दशन फिर भी महान् शान्ति, महान क्षमा, अविचल ध्यान, प्रचण्ड तपस्या आदि अनेक प्रकार की घटनाये हमारी आँखो के सामने नाचने लगती है। पर जिन तीर्थंकरो का जीवन चरित्र हमारे ख्याल मे नही है, उनके सम्बन्ध में अधिक क्या सोचेगे? इतना ही कि वे एक तीर्थकर थे। उनके जीवन चरित्र को ठीक से जाने बिना हम अपने मस्तिष्क में भावो की विस्तृत फिल्म तैयार नही कर सकते। हाँ, इतनी सुविधा हमे जरुर है कि सब तीर्थकरो की मूर्तियां एक जैसी होने के कारण तया उनके गुण समान होने के कारण-क्षमा, शान्ति, करुणा, त्याग आदि-हम किसी भी मूर्ति को उन्ही की मान कर देख सकते हैं जिनका कि जीवन हमें याद है, या उनके विशेष-२ गुणो को याद करके सराहना. अनुमोदन आदि करते हुए लाभ उठा सकते है पर विस्तार पूर्वक जीवन-चरित्र १७५ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ याद होने से उनके जीवन की विभिन्न घटनाओ को स्मरण कर हम अधिक लाभान्वित हो सकते है। स्तवन, स्तुति, पूजा आदि की विशेषता :--पूर्वाचार्यों ने हमारी सुविधा के लिए भगवान के गुणो को अनेक छदो, स्तुतियो, स्तवनो तथा पूजामो में अनेक प्रकार से लिपिबद्ध किया है। उन्हे जान लेने से भी हमे मूर्ति से लाभ उठाने मे वडा सहयोग मिल सकता है। गायन कला का अभ्यास तो हमे होना ही चाहिए। यह सोने में सुगन्धि के समान है। परमात्मा की शान्त मूर्ति के सामने उनके गुणगान और साथ-२ महान् गायन-कला का उपयोग। आनन्द की जो लहर मन मे उत्पन्न होती है कहते नही बनती। गायन-कला के सम्बन्ध में अधिक कहने की आवश्यकता नहीं। यह कला मनुष्य को तो क्या, पशुओ तक को प्रभावित करने वाली है। इसके प्रभाव मे मनुष्य तल्लीन होकर थोडी देर के लिए संसार के सर्व सुख-दुख ही भूल जाता है। इसलिए अच्छे लाभ के लिए गायन-कला का अभ्यास होना हमारे लिए बहुत आवश्यक है। दिल भर कर जब तक परमात्मा के गुणो के दो एक गान नही कर लेते, हमारे उद्देश्य की पूर्ण पूर्ति हो नही पाती। हमे यह भी अनुभव होता है कि गायन-कला को पराकाष्ठा तक पहुंचाने के लिये मूर्ति का सान्निध्य बडा सहायक सिद्ध हो सकता है। एक गायन मूर्ति के सामने गाइये और एक यो हो । सुनने वालो से पूछिये या अपने दिल में अनुभव करिये कि मिठास किस में अधिक रहा, मन मे स्थिरता कहाँ अधिक रही और तल्लीनता किसमे अधिक आई ? फिर तय करिये कि मूर्ति का योग हमारे लाभ की दृष्टि से कितना महत्वपूर्ण और निराला है। पूजा में द्रव्य की उपयोगिता :--द्रव्य-पूजा का विधि-विधान और इसके वास्तविक हेतु को हमे समझना चाहिए। परमात्मा में हमारा बहुमान यानी श्रद्धा और विशेष कर हमारे भटकते हुए मन को उनके गुणो मे टिके रहने मे सहारा मिल सके इसीलिए यह अवलम्बन विशेष रूप से लिया गया है। हम यह भी अनुभव करेगे कि हमारे इस प्रकार के व्यवहार से,अन्यमति, अल्पज्ञ और विशेष कर हमारे बच्चो को, जो कच्ची फूनवाडी के सदृश है, परमात्मा की तरफ आकर्षित करने का इतना अच्छा ढग है कि जिसका मूल्याकन नही किया जा सकता। १७६ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदि शुरु ही से उनके हृदय में परमात्मा के प्रति पूज्य-भाव जागृत हो गये तो भविष्य में उन्हें बहुत बडी सफलता प्राप्त होना कठिन नही होगा। जब परमात्मा में प्रगाढ श्रद्धा रहेगी तभी वे अपने मन को सरलता और सफलता पूर्वक उनके बतलाये मार्ग की ओर प्रवृत्त कर सकेगे। द्रव्य-पूजा से बच्चो और अल्पज्ञो पर तो अच्छा प्रभाव पडता ही है हमारे मन पर भी कम प्रभाव नही पडता। परमात्मा के गुणो में श्रद्धा रख कर जब चन्दन की एक विन्दी लगाते है या दो फूल अर्पित करते है तो मन प्रफुल्लित हो उठता है। मानो आज हम धन्य-२ हो गये। गुणो को धारण करने की मीज तो जव मिलेगी तव मिलेगी पर आज महाभाग्यशाली ऐसे गुणवान पुरुपो की प्रशसा करने का अवसर तो मिला। यह आनन्द तो प्राप्त हुआ। उस समय हमारा हृदय गद्-गद् हो जाता है। श्रद्धा से हम नत हो जाते है। आज गाधीजी ससार में नहीं रहे पर लोग उनकी समाधि पर दो फूल चढाकर ही अपने को सौभाग्यवान समझते है। फूल चढाते समय उनका रोम-रोम पुलकित हो जाता है। आंखो मे प्रेमाश्रु छलक आते हैं। उनका इतिहास मन में तरो-ताजा हो उठता है। उनके गुणो को याद करके मन को एक नयी स्फूर्तिदायक प्रेरणा मिलती है। हमारी शिथिलता दूर होती है और हम उन गुणो में शक्तिशाली बन जाते है। हम मनुष्य है, ढग से हमें प्रत्येक वस्तु से लाभ उठाना चाहिए। ___ इसी तरह मिठाई, फल इत्यादि चढाने का उपयोग है। हम स्वय न खाकर, स्वय व्यवहार में न लेकर पहले ही दिन से 'परमात्मा की सेवा में भेंट करेगे', इस आनन्द मे मग्न हो जाते हैं। कभी-२ सोचते हैं कि कही यह हमारा बचपन तो नहीं है? परमात्मा को न लेना न देना, न खाना न पीना। भेंट करेगे? किसको भेंट करेंगे? वे अब इस मसार में कहाँ रहे ? परमात्मा यहाँ है कहाँ ? पर नही, परमात्मा इस मसार में न रहे तो न सही। परमात्मा तक यह वस्तु न पहुंचे तो न सही अत्यधिक प्रेम के कारण हमारे हृदय में उनके प्रति इस तरह उत्पन्न हुए वे पूज्य-भाव अति तीव्र गति से उन तक अवश्य पहुंच जाते हैंमानो हमारा साक्षात्कार हो चुका-इसमें कोई सन्देह नहीं। स्वय न साकर, उन पदार्थों को अपने लिए उपभोग में न लेकर और उन पदार्थो का मोह छोडकर इस तरह परमात्मा के बहुमान मे बडी खुशी से उन्हें अर्पण १७७ 12 Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर डालना पौद्गलिक सुखो की होली जलाते हुए अक्षय आत्मिक सुख को ही प्राप्त करना है। जब परमात्मा में प्रगाढ अनुराग उत्पन्न होता है तभी ये सव व्यवहार मनुष्य अपना सकता है अन्यथा अपने सुखो को न्योछावर कर डालना खेल-तमाशा नहीं है। साधारण जन को, जो आनन्द पाने और खाने मे आता है वह त्याग कर चढाने में जल्दी नहीं आता। कुछ भी हो परमात्मा से तादात्म्य स्थापित करने की यह एक महान् कड़ी है। मूर्ति-पूजा में आस्था रखने वालो में से कुछ श्रद्धालु अपने ढग से पूजा करते है पर किसी द्रव्य वस्तु का,चढाने या सजाने के निमित्त, मूर्ति से स्पर्श कराना उचित नहीं समझते। उनका यह भी कहना है कि स्त्रियो को पूजा करने का हक नहीं है कारण जब मूर्ति को परमात्मा के समान समझ लेते है तब उसके साथ वे ही व्यवहार करने चाहिए जो परमात्मा की मौजूदगी मे उनके साथ किये जाते थे। क्या उस समय स्त्रियाँ उनको छू सकती थी? उस समय आप उनके शरीर पर फूल रखते या चदन का लेप करते ? उनको गहने पहनाते ? यदि नही, तो फिर उनकी मूर्ति के साथ यह व्यवहार क्यो ? ___मनुष्य के मस्तिष्क मे कब क्या विचार उत्पन्न हो जाते है कोई नही कह सकता। यह भी एक तरह की शका ही है। ऐसे विचार का उत्पन्न होना बिल्कुल स्वाभा- . विक है। वस्तुत भगवान की अनुपस्थिति में, मूर्ति तो उनके गुणो को आत्मा मे जगाने का एक अवलम्बन मात्र है। शकाग्रस्त व्यक्तियो से ही पूछा जाय कि जब मूर्ति को उन्होने भगवान के समान मान लिया और उसके साथ प्रत्यक्ष भगवान के साथ जैसा ही व्यवहार करना उचित समझा, तब उसे तालो मे वन्द करने का क्या अर्थ है ? उसका प्रक्षालन आदि क्यो करवाते है ? यदि कहे कि जब तक पूजा करते हैं तब तक के लिए ही भगवान मानते है, वाद मे नही। तो बाद में क्या मानते है ? यदि बाद में मूर्ति मानते है तब वे उस जादूगरनी से कम नही जो मनुष्य को भेड बनाकर रखती थी। जब चाहती, उसे मनुष्य बना लेती, जब चाहती भेड़ बनाकर रखती। क्या ऐसा सोचना हमारे लिए उचित है ? दुनिया इसीलिये हमारी मूर्ति-पूजा के सम्बन्ध में अनेक तरह की शकार्य करती है। हमें गहराई से विचारना है कि मूर्ति को भगवान के सदृश मान लेने से भी मूर्ति भगवान नही 'मूर्ति' ही रहती है। १७८ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *'शका समाधान में यह अवश्य स्वीकार किया गया है कि मूर्ति को भगवान जैसी ही समझकर अपनाने से वडा लाभ है जैसे किसी समस्या को हुन करन के लिए उनी के उत्तर को, क, ख, ग, आदि मान कर चलते है । यहां आगय नमझने की आवश्यकता है । इस प्रकार ना कर चलने से पूर्ति में मन को बडा सहारा मिलता है परन्तु क,जग को प्रश्न का उत्तर मान लेने पर भी यह मतलब नहीं होता कि उसका उत्तर भी यही है और अब प्रग्न को हल करने की जरूरत नही रही । वन्नुत इम सहारे से प्रश्न के सही उत्तर तक पहुँचना है । मूर्ति को देखकर 'भगवान है' ऐसा भाव धारण करने पर एक अनोखी तल्लीनता उत्पन्न होती है । केसर, चन्दन, फूल, गहने गौर यहाँ तक कि मूर्ति भी क्षण भर के लिये हमारे मामने से अदृश्य हो जाती है। उस समय परमात्मा के दिव्य ध्यान मे हमारे नामने कोई वस्तु नही रहती । ज्योही हमारी तन्मयता शेप हो जाती है त्योही मूर्ति सारे पदार्थों सहित, फिर अपने रूप में प्रगट हो जाती है । ये मत्र परिवर्तन मन की गति से सम्बन्धित है । यह गति अत्यन्त सूक्ष्म और गहन होने के कारण पहचान में तभी आती है जब कठिन नावना की जाती है । चूकि यह गति अपने अनुभव से ही पहचानी जा सकती है इसलिए इनको और स्पष्ट करना कठिन है । मूर्ति को 'अन्तर्ध्यान हो जाने वाली' घटना सदिग्ध लगती है पर हे परखने लायक । चिडिया की आंख भेदने के समय गुरु द्रोण ने अर्जुन 1 पूछा - " अर्जुन क्या दे रहे हो ?" अर्जुन ने कहा- "आचार्य । चिडिया की ख-ही-जाँख दीख रही है ।" विचारिये, पेड और चिडिया का सारा शरीर चना गया ? वन यही सोचने और समझने की बात है । सम्भव है हमे किसी व्यवहार की आवश्यकता न रहे या वह हमारे मन की रुचि के अनुकूल न हो । पर वह गलत है, व्यर्थ है-ऐसा निर्णय कर डालना उचित नहीं । मूर्ति नव नमय मूर्ति ही रहती है । चाहे उसके सामने कोई गाये, वजाये, सजाये या जो चाहे करे । * साक्षात भगवान समझ, मन को कैले घोसा दें ? १७९ ( देखिये पृष्ठ ४७-४८ ) Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूजा का स्वास्थ्य से सम्बन्ध :--- पूजा से पूर्ण लाभ प्राप्त करने के लिए मन को स्वस्थ और प्रसन्न रखना बहुत जरूरी है । जितना वह प्रसन्न रहेगा उतना ही वह अपने लक्ष्य में अधिक सफल हो सकेगा । मन की प्रसन्नता शरीर कीनोगता पर ही निर्भर है । इसलिए पूजा में शरीर की स्वस्थता का आधार स्वच्छ एवं अन्यान्य उपायो का भी बडा ध्यान रखा गया है । स्नान, स्वच्छ वस्त्रो का उपयोग, पचामृत से प्रक्षालन, धूप इत्यादि का प्रयोग, फूल, इत्र, चन्दन, ब्रास, केसर, कस्तूरी आदि द्रव्यो का प्रयोग- शरीर की नीरोगता और मन की प्रसन्नता से घनिष्ट सम्बन्ध रखते है । अनेक राज-रोगो से हमारा सहज ही में बचाव होता रहता है । जैसे- पचामृत के स्पर्श से नखो का विष हलका पड जाता है । चन्दन और ब्रास का तिलक, और पूजा के समय उसके उगली द्वारा स्पर्श से शरीर के कई तरह के विषो का प्रकोप शान्त हो जाता है। फूलो की सुगन्ध से मस्तिष्क सम्बन्धी अनेक रोगादिक उत्पन्न नही होते । धूप से अनेक विपैले जीवो से बचाव रहता है । पहाडो की चढाई से, खून की शुद्धि के साथ-साथ रक्त चाप आदि भयकर रोग उत्पन्न नही होते । मन के हर्पित रहने से मन की चिन्ता तो दूर होती है, शरीर में रोमाच होने से एक प्रकार की प्रभावशाली विद्युत - लहर उत्पन्न होकर, शरीर के भयकर कष्टो को भी दूर कर देती है । वास्तव मे नीरोग रहकर ही हम धर्म-ध्यान का कुछ लाभ प्राप्त कर सकते हैं । सैकडो भाई एक साथ एकत्रित होते है । श्वास- उच्छवास या वायु की दुर्गन्ध आदि के कारण भी मन में उचाट या शरीर मे रोगादिक पैदा हो सकते है इसलिए ऐसे साधन रन से ये सब सकट भी टल जाते है । आत्म- बल की वृद्धि के लिए तो कहना ही क्या ? परमात्मा के शुद्ध गुणो की याद आनन्द की सृष्टि हो जाती है, - " उत्तम ना गुण गावता, गुण उपजै निज अग ।" पूजा में उपयोग और विवेक भाइयों से बर्ताव :- चूकि मदिरो मे सैकडो भाई लाभ उठाने के लिए एक "साथ आते हैं और मंदिर तो मनुष्य मात्र की सपत्ति होती है इसलिए आपस के व्यवहार का ध्यान रखना बहुत जरूरी है । यदि व्यवहार का उचित ध्यान १८० Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न रखें तो सारा मामला वैसे ही बिगड सकता है जैसे बना बनाया हलवा मुट्ठी भर वालू के मिला देने से विगड जाता है। हम वहां इसलिए जाते हैं कि मन में सहज ही उत्पन्न होने वाले विषयो और कषायो को रोका जा सके। यहाँ आकर भी इनको कम न करे और उल्टे तीनतर बनाये तो हमारा आना ही निरर्थक है। मैले कपडे को तालाब पर साफ करने के लिए जाते हैं। यदि साफ न किया उल्टा अधिक मैला किया, तो फिर हम बुद्धिमान कैसे ? मदिर प्रवेश के साथ-२ हम यह प्रतिज्ञा कर लें कि हम किपर क्रोध नही करेगे, हुक्म नही चलायेंगे, रौव नही झाडेगे और बडा धैर्य व विनय रखेंगे। हो सकता है किसी से भूल हो जाय। ऐसे स्थान पर हमारे लिये शान्ति रखना उचित है। मदिर में प्रवेश के बाद किसी भी वाद-विवाद के विषय पर या गृहस्थ सम्बन्धी झगडो इत्यादि पर हम कुछ भी बातचीत करे। इसलिए अच्छा यही है कि हम विशेषकर मौन ही रखें। यदि कोई ऐसा ही प्रसग उपस्थित हो जाय कि किसी से कुछ वात कहनी पडे तो सक्षेप में धीरे से कह दें ताकि हमारे कारण दूसरो का ध्यान जरा भी इधर-उधर न बटे। औरो का ध्यान रखते हुए हम प्रत्येक कार्य को शीघ्र समाप्त कर लें,चाहे वह स्नान का हो अथवा पूजा का । इससे अन्य भाई यही समझेगे कि हमने उनका भी वडा ध्यान रक्खा। यदि हम प्रमादवश आवश्यकतासे अधिक समय लगाते है तो दूसरे भाइयोके मनो मे हमारे प्रति असतोष यानी कषाय पैदा हो सकता है जो किसीके लिए अच्छा नही कहा जा सकता। सम्भव है हमारे भाई उपयोग की कमी के कारण, पूजा इत्यादि करने मे अधिक समय ले लें और हमें पूजा करके किसी कार्य वश जल्दी जाना है तो उत्तम यही है कि द्रव्य-पूजा किये विना परमात्मा की जय बोलते हुए,भाव पूजा करके ही चले जाय, अपेक्षाकृत इसके कि धक्का-मुक्की करते हुए पूजा करके जाय । हम पहले आयें हो तब भी पीछे आनेवाले भाइयो को यदि पहले ल भ लेनेके लिए. प्रार्थना करें तो हमारा प्रेम इतना अधिक बढेगा कि क्या कहे। वहुत सम्भव है वे इस प्रस्ताव को स्वीकार ही न करें। यदि कर लें तो हमे अहोभाग्य मानना चाहिए कि उत्तम कार्य में हमें एक भाई को सहयोग देने का मौका मिला। १८१ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जल, पुष्प या केसर-चन्दन कम हो तो हमे बडे विवेक और सतोष पूर्वक बहुत ही कम पदार्थो से काम निकाल लेना चाहिए। ये सव वस्तुएँ परमात्मा के चरणो में ही अर्पण की जाने वाली है। हम अर्पण करे तो क्या, और दूसरे भाई करें तो क्या। हम ही चढावे ऐसा आग्रह हमारे दिलो मे उत्पन्न ही न हो । इन पर तो सभी भाइयो का समान अधिकार होता है। इसलिए हमे शान्ति रखना उचित है । परमात्मा के बहुमानमे दूसरो द्वारा चढता हुआ या चढा हुआ पदार्थ देखकर भी हम उत्तम भावना का उपार्जन कर सकते है। जव थोडे पदार्थो से काम निकाला जा सकता है फिर अन्य भाइयो के मनो मे क्यो उचाट पैदा करे और क्यो उनके अतराय के कारण वने। सभी कार्य हम खूब हिलमिल कर करे। ___पर्व के दिन यदि पूजा करने वाले भाइयो की भीड अधिक हो जाय, तो रोज न आने वाले भाइयो को पूजा करने का पहले मौका देते हुए हमें हर प्रकार के सुन्दर व्यवहार से उनका आदर करना चाहिए ताकि उनका मन फिर पूजा करने के लिये लालायित हो। मूल-नायकजी के सामने दर्शन या चैत्यवन्दन करने वाले भाइयो की भीड अधिक हो तो हम उनकी पूजा करने में बहुत थोडा समय लगावें। वहाँ नौअगो की पूजा न कर, एक अगूठे की पूजा मे ही सतोष मान ले। इसका कारण यह है कि वहाँ मूर्ति बडी होती है और सजावट भी अधिक । इसलिए अल्प जानकारी रखने वाले भाई सहज ही उधर अधिक आकर्षित हुआ करते है। वस्तुत भगवान की मूर्ति तो सब जगह एक समान ही है। इसलिए समझदार तो दूसरी जगह रक्खी मूर्तियो से भी वैसा ही लाभ उठा सकते है। अत मूल-नायकजी के वहाँ अधिक समय लगाकर दूसरो के अतराय या कषाय का कारण न बनना ही उचित है। __ कोई भाई परमात्मा को नमस्कार करता हो तो हम उसके सामने से लापरवाही पूर्वक न निकले। दूसरा रास्ता न होने के कारण यदि हमारे लिए जाना जरूरी हो तो हमे वडे विनय के साथ झुककर शीघ्र धीरे से निकल जाना चाहिए ताकि उनकी भक्ति मे अतराय उत्पन्न न हो। इसी तरह कोई भाई स्तुति करता हो तो उस समय हमें अधिक उच्च स्वर से नही गाना चाहिए। बात-बात में हमें यही १८२ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान रखना उचित है कि हमारे कारण किमीकी प्रभु भक्ति में जरा भी अंतराय न पडे और न किसी प्रकार ने कपाय ही उत्पन्न हो । आपन का प्रेम बढाने के लिए हमे क्षमावान होना जरूरी है। किसी से भूल हो जाय, कोई अविनय कर बैठे तो भी हमे क्षमावृत्ति रखनी चाहिए । वास्तव में इमे हम अपना परीक्षा- काल हो नमने । हमे समाज के साथ रहकर कार्य करना है । अपना आंतरिक ध्यान —पूजा में हम अपना भी पूरा-पूरा ध्यान रखे । हमें अपने आप ने भी बडा धोखा होता रहता है । 'मान' हमारा जबरदस्त पोछा करता है । उनके कारण पूजा ने हमें जितना लाभ पहुंचना चाहिए उतना पहुँच नहीं पाता और उल्टे कभी-२ हानि हो जाती है । अपनी वढिया पोशाक, रंगीली कैमर, उत्तम चढावा, सुन्दर रूप, सिलता योवन, ज्ञान गरिमा, सुरीले कठ विपुल नमृद्धि आदि मे नम्वन्धित अनेक प्रकारका अभिमान हमारे जी में आ ही जाता है । हम अपने आप को दूसरो ने बहुत अधिक नमझने लगते है। दूसरी से प्रशमा प्राप्त करने के लिए या उन पर रौब डालने के लिए अनेक तरह की हरकते हम जानबूझ कर करते है । वस्तुत ये भाव हीरे को कीडी के बदले वेचने के बराबर है । हमें व्रत करग मे प्रसन्नतापूर्वक परमात्मा का गुणगान करना है । न किसी ने वाह-वाही लूटनी है, न अपना वैभव ही दिखाना है । हृदय के ऐसे भाव अत्यन्त महितकर होते है । पूजा मे गाने के समय प्राय हम बहुत कम उपयोग रखते हैं । कठ हमारा मुरोला हो लयवा न हो, राग ठीक मे आती हो या न आती हो और परमात्मा की दिल में हो अथवा न हो, आगे होकर गाने में हम बडी गान समझते है । क्या माय-२ गाने ने परमात्मा में हमारा अनुराग नही बढेगा ? ऐसे तो मंदिर मे पांच मिनट भी बैठकर हम नही गायेंगे पर जहाँ समाज इकट्ठा होकर पूजा इत्यादि का कार्यक्रम रखेगा वहाँ लड-झगड, ताल को वेताल कर गायेंगे जरूर। मानो परमात्मा के भक्त तो हम हो है । वस्तुत यह अपने वैशिष्ट्य का प्रदर्शन मान ही है । यदि हम गाना बहुत अच्छा गाते हो और समाज गाने के लिए आग्रह करे तो १८३ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमें तुरन्त वह बात बहुमान पूर्वक माननी चाहिए। ज्यादा विनती करवाना और तब गाना, यह भी उचित नही । अभिमान रहित, कपट रहित, वडे ही भाव और सरलता पूर्वक हमे परमात्मा के गुणो की तरफ बढना है और दूसरे भाइयो को भी इस तरफ बढने में सहायता देनी है । एकान्तरूपेण यह कभी स्थिर नही किया जा सकता कि अमुक कार्य हमे मन्दिरमे करना चाहिए और अमुक नही, फिर भी इतना कहा जा सकता है कि दूसरे भाइयो को क्लेश, अतराय या कपाय उत्पन्न न कराते हुए और न खुद करते हुए सबके साथ प्रेम वढे और परमात्मा के गुणो में अनुराग जागे, ऐसे ही अवलम्वन हम ले । हमे समझ लेना है कि यह परमात्मा की पूजा नही, यह तो अपनी पूजा है यानी इसमे हमारी अपनी महान् भलाई छिपी हुई है । इस तरह मन को स्थिर रख सके तो अति उत्तम है पर जैसा हम देखते है मन को रास्ते पर रखना बडा ही विकट है। वर्षो तपस्या करके साधे हुए मन कभी बात की बात में ही पतन हो जाता है । जब -२ हमारे मनका पतन हो इसे ऊँचा उठानेका सतत् प्रयत्न हम चालू रखे । यही प्रयत्न करना मूर्ति पूजा का मुख्य उद्देश्य है । परमात्मा की मूर्ति को देख कर उनके परम गुणो को याद करते हैं, उनकी प्रशंसा करते है और अपने मन की कमजोरी को लतेडते है । यदि अभिमान के कारण मन पतन की ओर गया हो तो उसे समझाते है"छि. छि क्या कर रहा है ? किस बात का तुझे अभिमान है ? साहिबी का, रूप का, पडिताई का, ताकत का ? भूल कर रहा है । यह तो ससार का एक क्षणिक नाटक मात्र है । फिर भी इतना अभिमान, धिक्कार है ! जब महापुरुषो ने ऐसा अभिमान नही किया फिर तू ऐसी भूल क्यों कर रहा है ?" इसी तरह परमात्मा के क्षमा-गुण की सराहना करते है और अपने छिछलेपन को या बदले की भावना को धिक्कारते हैं । " इस परम मागलिक प्रयत्न मे यदि किसी की भूल या दुष्टता पर क्रोध आ जाय तो हमे शीघ्र सभल जाना चाहिए। सोचना चाहिए "मैं यहाँ क्या करने आया हूँ ? जहाँ मेरा लक्ष्य आत्मा में सयम उत्पन्न, करना है, वहाँ मुझको किसी पर किसी भी तरह का कषाय करना कदापि उचित नही । माना कि किसी ने मेरे प्रति अन्याय किया है । अन्याय क्यो सहन १८४ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करूं पर नही, मेरी वलिहारी सहनशीलता ही में है। आखिर, मै किस प्लेटफार्म पर हूँ" यह मदिर है, मदिर | मन को साधने आया हूँ। परमात्मा के जीवन पर जव दृष्टिपात करता हूँ तो मालूम पडता है कि इससे भी अनेक गुणा अधिक अन्याय उनके साथ किया गया, पर वे अपने विचारो से जरा भी विचलित नहीं हुए। खूब वीरता पूर्वक उसे सहर्ष सहन किया। तभी आज दुनियाँ उनके चरणो पर मस्तक झुकाती है। उनके जितना तो कहां, उनकी मूर्ति जितना नम्मान भी, अपने जीवन में बहुत कम पुरुपो को मिलता है। यह सब उनके महान गुणो ही का बोलवाला है। फिर में भी ऐसा ही बनने की चेष्टा क्यो न करूं। मुझे भी हर समय क्षमावान् और शान्त रहना चाहिए।" बहनो की तरफ देख कर भी मन मे विकार उत्पन हो सकता है। यहाँ भी हम खूब मावधान रहे। तभी हमारा वचाव हो सकता है। सोचना चाहिए__ "एनी बुरी भावना हो तो मेरे पतन का मूल कारण है। फिर मैं अपने पतन को क्यो न्योता दे रहा हूँ। मवाद, खखार, दस्त, वदबू, रोग आदि से भरी इस देह को टकटकी लगा कर क्या देख रहा हूँ ? क्यो अपने तेज को मिटा रहा हूँ? यह क्या अनर्थ नोच रहा हूँ ? तीर्थकर भगवान कैसे निप्काम रहे । मनुष्यभव रूपी चिन्तामणि को काग उडाने में क्यो व्यर्थ खो रहा हूँ। नही, ऐसे महापुरुषो को मतान होकर, में इतना नही गिरुगा। मै इतना अशक्त कभी नही वनूगा।" इस तरह के गुभ-चिन्तन मे मभव है हमारा बचाव होता रहे। परमात्मा की शान्त मुद्रा को देख कर हम सोचें "हे मेरे प्रभु | महसा विश्वास नहीं होता कि आपने इतने चचल मन पर विजय प्राप्त कर ली। आप धन्य हैं। हे दया-सिन्धु । क्या मैं भी इस दल-दल मे निकलने में समर्थ हो सकूगा? कार्य वडा ही दुष्कर है। अनुमान से आगा नहीं है, कारण मै तो दिन-२ दल-दल में फंसता जा रहा हूँ। हे करुणानिधान ! मेरे हृदय में कपायो का महा घोर अंघड चल रहा है,विपयो की अथाह धारा वह रही है। आप जैसा बनना तो असम्भव-सा लग रहा है। हे नाय | अनन्त वेदना और यत्रणा सहते हुए वडी कठिनता से अनन्त समय बाद तो यह मनुष्य भव मिला है। मेरा जीवन बहुत छोटा है । कौन जाने आगे १८५ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किस योनी मे जन्म लूंगा ? महापुरुषो के गुणो की प्रशसा करने का अवसर भी मुझे मिलेगा या नही ? हे क्षमासागर | मुझे अत्यन्त खुशी है, कि आप जैसे वीतराग महाप्रभु के गुणो की प्रशसा करने का इस जीवन में यह अवसर मिला हैं और आपके परम शान्त स्वभाव का मै आस्वाद कर रहा हूँ । फिर यह सुयोग मिलना बडा कठिन है । हे जिनेन्द्र । जितना हो सके मैं आपके समता रस रूपी अमृत का पान कर लू और अपने भवोभव की मान, अभिमान और काम वासना की इस भयानक दावाग्नि को थोडी देर के लिए कुछ तो शान्त कर लूं । हे देवाधिदेव । असलियत को समझता हुआ भी में असलियत पर कायम नही रह सकता, यही मेरे लिए एक विकट दुविधा है । हे स्वामी । बाहर तो अशान्ति की ज्वाला जल रही है । यहाँ आपके परम शीतल मुखारविन्द को निरख कर मुझे बडी सान्त्वना मिली है ।" इस प्रकार जिनराज भगवान की शान्त मूर्ति को देखकर हम अनेक प्रकार से चिंतन करना और मन पर प्रभाव डालना सीखें । परमात्मा में "कितनी शान्ति, कितनी क्षमा, कैसी शान्ति, कैसी क्षमा, " - इस रट से अपने हृदय घट को जितना भर सके, शीघ्र ठसाठस भर लें। आगे भवो भव मे यह दर्शन हमारे लिए बहुत काम आयेगा । इस तरह के प्रयत्न से हमारा चचल मन थोडा बहुत अवश्य सुधरेगा । इस तरह हम अनेक प्रकार से परमात्मा के गुणो की प्रशसा और हमारे अवगुणों की निंदा करते हुए, मन की रुचि, गुणो की तरफ झुकाने और अवगुणों से हटाने की, बना सकते हैं। असल में मन पर चाबुक लगाने या प्रकुश जमाने की कला को सीखते हुए हम उसमे प्रवीण हो सकते हैं । लाभ के अन्य उपाय :-कहा जा सकता है कि इस तरह की प्रवीणता तो परमात्मा के चित्र के सहारे भी प्राप्त हो सकती है। श्यकता है जो 'प्रबन्ध' और 'सम्पत्ति' के निमित्त के कारण बन जाते हैं और बन जाते है-बहनो और से- 'विषयों' के भी कारण । १८६ फिर मंदिरो की क्या आव समय - २ पर कलह या चिन्ता भाइयो के साथ-२ इकट्ठे होने Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाभ चाहे किमी महारे ने हो, होना चाहिए लाभ। नाम, चित्र, या मूर्ति के सहारे मे प्राप्त लाभ को हम परख सकते है कि उनमे काफी अतर है या नहीं? हमारे तो यही समझ में आता है कि नाम या चित्र मे अनेक गुणा अधिक लाभ हमे मूर्ति ने पहुंचता है। घर पर भी जिनराज भगवान की प्रतिमा रखकर हम यह लाभ उठा सकते है और कई उठाते भी है पर समुदाय के नहयोग मे जो विशेप लाभ प्राप्त होता है वह प्रत्येक को घर पर नही हो सकता। घर पर तो खर्च भी बहुत अधिक पड जाता है जिसको साधारण स्थिति वाला व्यक्ति वहन नही कर सकता। जब हम नव मम्मिलित होकर पूजा करते है तो हमे भी बहुत अधिक आनन्द और लाभ की प्राप्ति होती है। यहाँ नभी का एक ही काम ‘परमात्मा का गुणगान करना है । ध्यान इधर-उघर चला भी जाता है, तो भी गीघ्र सभलने का अवसर मिल जाता है। मतलब यह कि एक दूसरे के सहयोग और देखा-देखी मनमें अधिक उमग चार उल्लास उत्पन्न होने के कारण हमे हमारे उद्देश्य में बहुत अधिक मफलता प्राप्त हो जाती है। हमें समाज के साथ ढग से रहना भी तो मीखना है । समुदाय की कृपा मे यह अभ्यास भी हो जाता है। फिर भी यदि किसी की रुचि भिन्न हो या ऐमे सुयोग की प्राप्ति न हो सके, तो वात भिन्न है। अब रही विपयो और कपायो के वृद्धि की वात सो निश्चय ही हमे इनसे घृणा होनी चाहिए। परन्तु जब तक हम इनके असली कारणों का पता नहीं लगा लेंगे, हम अपना उचित सुधार या वचाव कभी नहीं कर सकते। किमी भाई की जरा-नी कमी या भूल को देखकर हम शीघ्र पूजा, प्रतिक्रमण,व्याख्यान या धर्म को ही बुरा समझ लेते हैं और यहां तक कि उन्हें छोड बैठते है पर यह हमारा सही निर्णय नहीं कहा जा सकता। वालो के वढ जाने पर, उनको न काट कर, मस्तक को काट डालना अच्छा नहीं। 'मन्दिर'-हमारे विपयो और कपायो के कारण है', ऐमा मान लें तो हमारी बडी भारी भूल होगी । मदिर छोड देने से हमारे कलह और विषय शान्त हो जायेगे, ऐसा भी सभव नही है। जो मन्दिर, मस्जिद कुछ भी नहीं मानते है कलह या अन्य अवगुण तो उनमें भी विद्यमान है । फिर मन्दिर को ही दोप क्यो दे ? कपायो और विपयो के कारण हमारे मन्दिर नहीं हैं । इनका असली कारण है हमारे विवेक और उपयोग १८७ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की कमी और हमारे मन की कमजोरी । जब हमने मन पर नियत्रण रखना सीखा ही नही, तब हम ऐसी विषम स्थिति को कैसे रोक सकते है ? मन्दिर मन को नियंत्रित करने की एक स्वाध्यायशाला है । मन्दिर मन के गुप्त रोगो का एक मुफ्त इलाज है । यह आत्मा को सबल बनाने का एक साघन है । अन्य स्थानो पर हम उपायो का अनुभव ही प्राप्त करते हैं पर मन्दिर हमारा अभ्यास क्षेत्र और कर्म क्षेत्र दोनो है । यह कषायो और विषयो को बढाने वाला नही, उनसे निवृत्ति दिलाने वाला स्तम्भ है । कषायों का निवारण : कषायो और विषयो की जो समय-२ पर वहाँ भी वृद्धि हो जाया करती है, उसका कारण मन की कमजोरी ही है । जव तक मन सबल नही होता यह हानि रुकती नही और इवर आत्मा को सवल बनाने वाले इस प्रयत्न को त्यागना भी उचित नही । इसलिए हमे पूरी सावधानी रखनी चाहिए । विषय-वासना या विकार उत्पन्न न हो इसके लिए स्त्री-पुरुष दोनो ही यदि उपयोग रखे तो ज्यादा अच्छा हो । प्रत्येक को अपनी - २ दृष्टि संभाल कर रखनी चाहिए | स्त्रियो का यह कर्त्तव्य है कि वे अपनी वेश-भूपा मंदिर के लिए विल्कुल सीधी-सादी रखे । ऐसी तडकीली-भड़कीली पोशाक, जिससे मनुष्य आकपित न होता हो तो भी आकर्षित हो, पहन कर मंदिरो मे कदापि न आवे । पोशाक स्वच्छ जरूर हो, पर पाँच मनुष्य देखे या अंग-प्रत्यग दीखे ऐसी भावना से पहनना उचित नही है । स्त्रियो पर तो उनके शरीर की बनावट के कारण भी, बहुत ast जिम्मेवारी आती है । यदि वे जरा गभीरता और विवेक से काम ले तो पुरुषो को भी सुधारने में बडा सहयोग मिल सकता है और मगलमय कार्य को सब बहुत अच्छी तरह कर सकते है । वह्नो को देख कर ही यदि विकार उत्पन्न हो जाता है, तो क्या किया जा सकता है ? इस ससार को छोड कर वे जायेगी कहाँ ? उपाश्रय, मोहल्ला, गाव यानी सभी जगह वे रहेंगी ही । फिर मंदिरो में ही उनके आने का इतना भय क्यो ? उनका मदिरो मे आना वद करना भी तो उचित नही ठहरता। उनका सुधार भी हमारे सुधार के समान ही महत्वपूर्ण है । इतने पर भी यदि स्थिति अनुकूल न वने, तो हम अपने मंदिर आने-जाने के समय को थोड़ा आगे-पीछे भी रख सकते है । विवेक और उपयोग से ही यह समस्या हल हो सकती है । १८८ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कपायो के कारणो को भी हमें विवेक पूर्वक रोकना चाहिए । आजकल मदिरो में या मदिरों के लिए कलह अधिक हो रहा है, यह हमे मानना पडता है। वास्तव में यह बहुत बुरा है। इसको देखकर यदि कोई वहा जाने से घृणा करने लगे और जाना छोड़ दे तो उगको दोप नहीं दिया जा सकता। कलह मे महान् कपायों का ही उदय होता है जो हमारे लिए कभी हितकर नहीं है । मदिरो का यही महत्व है कि हम गापायो में निवृत्ति प्राप्त हो। ___ "आगफल पलह हीं नहीं है ? मदिरो मे भी यदि कलह हो गया, तो क्या सान बात हो गई ? मदिर भी आतिर इनी तसार में है।" ऐसी दलीले कभी स्वीकार नहीं की जा सकती। फिर दूसरे ठिकानो में और मदिरो में कोई फा नहीं रहेगा। दूमरी की गलती या कमजोरी को आगे रखकर अपनी गलती या कमजोरी की भयकरता को कम समझना, छिपाना या नमर्थन करना कदापि उचित नहीं। औपधि मे ही यदि रोग बढे, तो फिर उस ओपधि का महत्व ही क्या? __उनित यही है कि हम अपनी कमजोरी समझे,उसे स्वीकार करे और उसे दूर करने के उचित उपाय अपनावें। हमारा यह परम कर्तव्य है कि कम-से-कम हम अपने पवित्र मदिरो को तो इस कलह स्पो महान् कीचड से अछूता रखें। हमें कलह के कारणो को ढूढकर उनका उचित निवारण करना चाहिए। मदिरो मे कलह के मुरपतया दो कारण है,एक विधि-विधान का और दूसरा उसके उचित प्रवन्ध का । कुछ कलह का कारण, पूजा के समय हमारे उपयोग की कमी भी है, पर वह कलह प्राय हल्का और क्षणिक होता है। पहला कारण तो पडितो की मेहरबानी का ही फल है और दूसरा कारण हमारी 'शिथिलता' ने सम्बन्धित है। पहला कारण तभी दूर हो सकता है जब हमारे में पूर्ण ज्ञान और विवेक जागे । हम पडित लोगो को भी अपना उपदेश वापिन लेने के लिए समझा सकते हैं। मक्षेप में उन्हें इतना कह सकते हैं कि मदिर का विवान हमारे कपायो को कम करने के लिए है, विपयो को छुड़ाने के लिए है, उन्हे तोय करने के लिए नहीं। हम आपके ऐमे एक भी उपदेश को नहीं मान सकते जिससे हमारे उद्देश्य को ठेस पहुँचती हो । जब मदिर प्राणी मात्र के है और जब प्राणी, प्राणी की रुचि भिन्न होती है, फिर हमारी अपनी खीच १८९ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तान ही किस बात की। तब पडित लोग भी अपने हठ का त्याग कर देंगे और अपेक्षा से हर क्रिया के लिए उदारता अपना लेगे। इस तरह यह कलह समाप्त किया जा सकता है। दूसरा कारण, जो हमारी 'शिथिलता' से सम्बन्धित है, हमारे लिए गभीर विचार का विषय है। समाज का प्रत्येक व्यक्ति यदि अपने-अपने कर्तव्य के प्रति जागरुक रहे तो कार्य मे शिथिलता व्याप्त हो नही होगी। पर मदिरो के कार्य में शिथिलता आ हो जाती है। कहावत है 'सीर को मा को सियालिये खाते है, 'या अधिक मामो का भानजा भूखा रह जाता हे। वही यहाँ भी चरितार्थ होती है। सोचने वाला सोच लेता है, “मदिरो की व्यवस्था तो करनेवाले करते ही है, वडो के बैठे इसमे मेरे हस्तक्षेप की आवश्यकता ही क्या है ?" ऐसा विचार वह कोई विनय भाव से नही अपना रहा है बल्कि व्यवस्था के परिश्रम से बचने के लिए ही यह वहानेवाजी है। तब हमे सोचना चाहिए कि सभी यदि इसी प्रकार सोचने लग जाय तो मदिरो की रक्षा और व्यवस्था कैसे सभव होगी? यदि हम मदिरो से लाभ उठाना चाहते है तो अपने हिस्से का कार्य हमे करना ही होगा। फिर भी कार्य करना समाज की इच्छा पर ही निर्भर है। इसमे किसी की जोर जबरदस्ती नहीं चल सकती। जब हमारी समझ में यह आ जाय कि समाज के लोगोकी कार्य मे रुचि कम होती जा रही है या किन्ही कारणो से वे समय नही दे पा रहे है तो उचित यही है कि कार्य के फैलाव को सीमित करते हुए हम उसे समेटते चले। यदि हम गौर से देखे तो मदिरो की यह भी एक विशेषता मालूम पडेगी कि उनके कार्य को जितना सीमित करना चाहे हम कर सकते है । फिर हम विवेक से क्यो न उचित उपाय अपनावे । हमे दुख पाने की कोई आवश्यकता ही नहीं है । अच्छी साहिवी है तो मन भर फूलोसे पूजा कर सकते है, गरीव हैं तो फूल की एक पखुडी भी यथेष्ट है। अवकाश है तो रात-दिन स्वाध्याय में लग सकते है। कार्यवश अवकाश नहीं है तो पाच मिनट ही सही। मिला, उतना ही लाभ । यदि हमारा गाव छोटा है तो एक झोपडी में परमात्मा की छोटी सी प्रतिमा स्थापित कर उसी से काम चला लेना हमारे लिए लाख गुना अच्छा है अपेक्षाकृत १९० Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसके कि बडा और सुन्दर मदिर बनाने के लिए बाहर के दूसरे भाइयो से सहायता लें। इस तरह मूल्यवान मदिर वनाना उचित नहीं। मदिर कैसा भी क्यो न हो, काम तो मूर्ति ने है । मूर्ति बडी हो तो क्या, छोटो होतो क्या? धातु की हो तो क्या, पापाण की हो तो क्या ? मूर्ति के मूल स्त्प में कहीं भी कोई अन्तर नही होता। परमात्मा की प्रत्येक मूर्ति बडी सौम्य होती है। फिर हमारे लिए कमी ही क्या ? क्यो किमी के आगे जाकर हाथ पसारें और दीन बने ? माग-माग कर लाना तो उनके माय हमारी जवरदस्ती भी हो सकती है। इस तरह के चदो मे वे ऊब सकते है । हमारे कारण,हमारे किनी भी भाई के मन मे जरा भी सकाच या क्लेग न हो हमे वरावर यही ध्यान रखना चाहिए। उचित यह है कि प्रत्येक गामवामी अपने मदिर की आमदनी में से कुछ वचाकर अपने तीर्थराजो को नहायता भेजा करे पर देखते यह है कि आजकल हम गाव वाले ही, तीयों के मामने,अपने ग्राम के मन्दिर की मरम्मत के लिए हाथ पमारते रहते है। कश्यो की धारणा है कि जव तीयों में पैसा व्यर्थ पड़ा हो, उसका दुरुपयोग होने लगा हो या नप्ट होने की स्थिति उत्पन्न हो गई हो तो अच्छा यही है कि अगक्त गावो के मदिरो के जीर्णोद्वार मे लगा डाले। हमारे विचार से इन तरह नहायता देना या लेना हानिप्रद होने के कारण इस धन को हमे देवगत या राजगत मकट के समय और वह भी मिर्फ उधार रूप में ही लेने के सिवाय साधारण अवस्था में लेना ही नहीं चाहिए,चाहे तीर्थ का धन नष्ट होता हो या गाव का मदिर । हमें यही सोचना है कि हमारी यह मागने की स्थिति क्यो उत्पन्न हो गई ? इस तरह हम अपने तीर्थों को ही भिखारी बना डालेंगे। आज तीर्थों की सहायता मे मदिर खडा रख लेंगे,कल तीर्थों मे ही धन न रहा तव ? यदि आगे मभल जाने का आश्वासन देते है तो वह भी गलत है। इतने वर्षों में हम क्यो नही सभल पाये ? विचारना यही है कि आज हम सहायता मागने की इस स्थिति में क्यो पहुँच गये ? तीर्थ दूमरे तीर्थों की सहायता कर सकते है पर ग्राम-मदिरो को सहायता पहुंचाना अव्यावहारिक लगता है। बच्चे के सयाना होने के बाद, दूसरो की महायता पर जीना, चाहे वह अपने माता-पिता की सहायता ही क्यो न हो, उसकी आन, मान और शान के खिलाफ है। पूर्व मे मदिर अधिक वने हो, बाद में गाव छोटा पड़ गया हो और अव गाव १९१ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वालो से उनके खर्च न चल सकते हो या सभाले न जा सकते हो तो आवश्यकता से अधिक मदिरो को बंद कर देना ही अच्छा है । यह सुनने में बहुत अटपटा लगता है कि बनाने वालो ने तो बनाये और आज हम बद करने का कह रहे हैं या सोच रहे हैं । इस तरह तो हमारे सभी मंदिरो में ताले पड जायेंगे । पर नही, हमे स्थिति को समझ कर हो चलना पडेगा । दस अव्यवस्थित मंदिरो को खुला रखने की अपेक्षा दो व्यवस्थित मंदिरो को खुला रखना ज्यादा अच्छा है और इसी मे हमारे उद्देश्य की पूर्ति है। मंदिर हमारे स्वाध्याय के लिए है । किराये - दारो से पूजवाने के लिए थोडे ही हैं । भविष्य में आवश्यकता पडने पर मंदिर बनाते कौन-सी देरी लगेगी । किसी के मन मे हमारे कार्यो से जरा भी सकोच या उचाट पैदा हो गई तो समझ लीजिये अभी हमने पूजा के वास्तविक अर्थ को नही समझा है । यदि हम आर्थिक दृष्टि से अच्छी स्थिति वाले है तो हमे दिल खोलकर प्रभु भक्ति मे अपना धन लगाना चाहिए । पर जो कुछ लगावे किसी पर एहसान न लादते हुए, अपनी पूरी प्रसन्नता एव बिल्कुल निर- अभिमान पूर्वक । यदि हम गरीब है तो हम कम-से-कम में, लाभ उठाना सीखना चाहिए । पूजा मे द्रव्यों के निमित्त या अन्य उचित व्यवस्था के निमित्त जो भो खर्च हमारे हिस्से मे पड़ता हो और देने की हमारी शक्ति हो तो हमे नि. सकोच भाव से, कम-से-कम उतना तो दे हो देना चाहिए। सभव है मंदिर में इकट्ठे हुए करोडो रुपये पड़े हो और अभी व्यवस्था के लिए हमसे लेने की आवश्यकता न भी पड़ती हो या बहुत से श्रीमत अपनी जेब से अधिक धन देकर उस व्यवस्था को चला देते हो पर यह स्वीकार करना हमारे लिए उचित नही है । हमारी शक्ति रहते हम किसी का क्यो ले और क्यो अपने मे न देने की, या मुफ्तखोरी की आदत उत्पन्न होने दें। यदि हम अपने पेट की खुराक पचास रुपये निकाल सकते है, तो आत्मा की 'खुराक ' के लिए पाँच रुपये क्या न निकाल सकेगे ? अन्य पर हम आश्रित क्यो रहे ? ? हमारी तरह छो मनोवृत्ति रखते तो क्या कभी इतना धन इकट्ठा होता इकट्ठा हो गया है, वह तो कभी भी शेष हो सकता है । तव ऐसी प्रवृत्ति रखने वाले हम जैसो से क्या हो सकेगा ? हमारी व्यवस्था में कितनी शिथिलता १९२ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ जायेगी ? हमारी आय के हिसाब से यदि हमें केसर, चन्दन, प्राप्त होने की गुजाइश न हो तो कोई हर्ज नही, कलश में थोडा जल लेकर, परमात्मा में बहुमान उत्पन्न कर लेना ज्यादा अच्छा है बनिस्बत इसके कि हम दूसरो की सहायता पर खूब चदन घिसा करे। इतने शुद्ध हेतु के लिए भी यदि हम कलह कर लेते है तो यह महान् दुःख की बात है। पूर्वजो के स्वच्छ नियमो की हमे अवहेलना नहीं करनी चाहिए। मदिर तो मनुष्य मात्र को सपत्ति है। इस पर सभी का समान अधिकार है। यहाँ जरा भी भेदभाव ऊँच-नीच, गरीब-अमीर का प्रश्न ही पैदा नहीं होता। रग भेद के उत्पन्न होने का कोई कारण नही । जिन परमात्मा के हम उपासक हैं वे खुद ही गोरे, काले, नीले, पीले, लाल इत्यादि रगो के हुए है। यही नहीं, किसी भी वात का भेद-भाव हमारे महान् विवेकी पूर्वजो ने रक्खा ही नहीं है। घृणा की है तो अवगुणो से, पूजा की है तो गुणो की। शुद्ध समाज रचना की उनको कितनी विशाल दृष्टि रही, यह हमारे सामने ही है । आज ससार के महान् लोग समाज रचना के सम्बन्ध में खूब विचार करते है पर क्या ही अच्छा होता यदि वे हमारी इस समाज रचना पर भी दष्टिपात कर लेते। हमें पूर्ण विश्वास है कि ऐसी समाज रचना से,अति अल्प काल में ही विकट से विकट समस्या वडी आसानी से हल की जा सकती है। सु-व्यवस्या: हमारे पूर्वजो ने मदिरो को शुद्ध सार्वजनिक सम्पत्ति माना है। जिससे सभी उसको अपना समझ सकें और उससे लाभ उठाने में या उसकी रक्षा करने में किसी के मन में जरा भी सकोच उत्पन्न न हो। करोडो रुपये लगाने वालो ने भी कभी अपना आधिपत्य नही जमाया। अपना नाम तक उसमें नही लिखवाया। आज तो हम मदिरो पर अपना-अपना अधिकार समझते है। यह सकीर्णता बहुत बुरी है। इस सकीर्णता को हमें दूर करना चाहिए। हम मदिरो की व्यवस्था में अधिक भाग लेते है तो क्या हुआ? हमारा किसी पर एहसान नहीं है या इससे यह सपत्ति हमारी नही बन जाती है। ___ हमारी सेवा का समाज उपकार माने या न माने, इसका हम जरा भी विचार न करें। मान तया वडाई की भूख से किया गया कार्य उतना अच्छा नहीं होता जितना अपना हित और कर्तव्य समझ कर । हम हर समय यही ध्यान रखें १९३ 13 Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूल हो सकती है ? पूर्वजो की कृपा से हमारे मदिरो की आर्थिक नीवे इतनी मजबूत बनी हुई है या बन जाती है जिसके लिए हमें कभी चिन्ता करने की आवश्यकता ही नहीं रहती। ___"नित्य प्रति अपनी-२ शक्ति के अनुसार सव लोगो का कुछ-न-कुछ सहायता के रूप मे देना, कम-से-कम खर्च मे भी अच्छा काम चला लेना, गरीव से गरीब भाई को भी एक जैसा लाभ और सम्मान की प्राप्ति"-ऐसे उत्तम नियम है जो ससार के सामने समाज रचना का एक अति उत्तम आदर्श उपस्थित करते है। मूर्ति-पूजा की महानता मे हमे जरा भी सन्देह नहीं। यह एक ऐसा सरल साधन है जहाँ हम अपने मन को अच्छे-से-अच्छे इच्छित साँचे मे ढाल सकते हैं। अशान्ति के कारणो से कैसे बचा जा सकता है, उन्हें कैसे दूर रक्खा जा सकता है, यह हम अच्छी तरह सीख सकते है। ___ इस लघु पुस्तिका में हमने कुछ विचार अभिव्यक्त किये है । विज्ञ जन और भी अनेक प्रकार से विचार कर सकते है। पूजा, परम पिता के गुणो मे रुचि पैदा करने का एक प्रभावशाली किन्तु सरल साधन है। परम पिता परमात्मा के इन गुणो मे न तो किसी का मतभेद है, न किसी का विद्वेष। इनसे समस्त दुविधाये शान्त पड़ जाती है। इन गुणो की अनुमोदना मात्र से इतना लाभ और आनन्द मिलता है कि रोम-रोम पुलकित हो उठता है। लेखनी से उस आनन्द का उसी प्रकार वर्णन नही किया जा सकता जिस प्रकार हम पदार्थ के स्वाद को व्यक्त नहीं कर सकते। पदार्थ हम देखते है, स्पर्श करते है, सूघते है और खाते है पर उसके असली स्वाद को व्यक्त नही कर सकते। हम कह सकते है-शहतूत जैसा मीठा, चीनी जैसा मीठा, शहद जैसा मीठा, पर उसके असली स्वाद का पता उसको खाने ही से मिलता है। इसी प्रकार पूजा के आनन्द का पता भाव से पूजा करने पर ही मिलेगा। प्रभु-पूजा हमारी सफलता की कूजी वन सकती है यदि इसकी वास्तविक उपयोगिता को समझ कर इसे सही ढग से अपनावे। २०० Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जायेगी और हमारी प्रीति का सारा रूझान एक परमात्मा पर ही आकर टिक जायेगा। हम अनन्त से एक पर आ जायेगे। फिर प्रीति छोडनी रहेगी तो 'एक' से ही। इस तरह यह मार्ग सरल हो जायेगा। यही एक बहुत बड़ा लाभ परमात्मा की प्रीति में समाया हुआ है इसलिए भविजनो को निसकोच भाव से परमात्मा से प्रीति जोडनी चाहिए।* अजीतनाथ स्वामी के स्तवन मे महाराज फरमाते है अज कुल गत केसरी लहेरे, निज पद सिंह निहाल । तिम प्रभु भक्ते भवि लहरे, आतम शक्ति संभाल ॥अजित०॥ _ अजित जिन तारजो रे-- *(१) परमात्मा परम पुरुष हैं, गुणों के सागर हैं। हमें गुणों को अपनाकर ही विश्राम लेना है। इसलिए परमात्मा से प्रीति करना-गुणों ही से प्रीति करना हुआ अर्थात् हम सोधे गुणों पर ही पहुंचते है। इसलिए यहाँ सम्पूर्ण कार्य-सिद्ध हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में परमात्मा से प्रीति छोडने का भी कोई प्रश्न शेष नहीं रह जाता। जैसे अस्त्र प्राप्ति की इच्छा से यदि देव की आराधना करें और देव-दर्शन के पहले ही अस्त्र की प्राप्ति हो जाय-उद्देश्य पूर्ण हो जाय- तो 'देव-दर्शन' मिल गया, ऐसा ही समझा जाता है। दर्शन न हो तो भी कोई बात नहीं। (२) 'राग और द्वेष' की परणिति को कम करने का उपाय समझना आवश्यक है। हम दोनो को एक साथ छोड़ने में समर्थ नहीं हैं। 'द्वेष' को कम करने के लिए, पहले हमें 'राग' को और अधिक मात्रा में अपनाना पडता है। जैसे मैले कपड़े में-इच्छा और आवश्यकता न होते हुए भी- पहले पानी और साबुन पहुंचाते हैं। जब मैल छंट जाता है तो पानी के सहयोग से मैल और साबुन को निकाल फेंकते है। फिर पानी को भी सुखाकर निकाल देते हैं। इस तरह विवेक पूर्वक अपना इच्छित मनोरथ पूर्ण करते हैं। यदि 'पानी और साबुन को ग्रहण करना अगीकार न करें, तो क्या हम मैल को हटाने में सफल हो सकते हैं ? इसी तरह मुमुक्षु प्राणियों को समझना चाहिए कि राग को अपना कर ही वै देष को हटाने में सफल हो सकते हैं। २०२ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "आपके अनन्त गुणो को याद करके मेरी आत्मा मे दवे वैसे ही गुण, उसी तरह विकसित हो आये जैने सिंह को गर्जना सुन कर सिंह के बच्चे में, (जो भेडो मे रहा अपना मान भल, देखा-देखी भेडो का मा आचरण अपना रहा था)सिंहत्व जागृत हो जाता है।" पडितजी का यह कथन महज ही मोई हुई शक्ति को जगाने एव हममें अपूर्व दृढता (आत्म-बल) उत्पन्न करने में अत्यन्त प्रेरणादायक है। परमात्मा की दृढता का स्मरण कर हमारे में भी दृढता पनप आती है,चाहे परमात्मा कुछ भी महायता न करें। इसलिए हे भव्य आत्मायो । परमात्मा के गुणो का स्मरण करना हमारे लिए महान् हितकारी है। सम्भवनाथ स्वामी के स्तवन में पडितजी ने अत्यन्त हृदय-स्पर्शी भाव व्यक्त किये हैं जन्म कृतारय तेहनो रे, दिवस सफल पण तास । जिनवर०॥ नगत शरण जिन चरणने रे, वदे घरीय उल्लास जिनवर०॥ जिनवर पूजोनी, पूजो-पूजो रे भविक जनजन्म उसी का धन्य है और यही दिन उसके लिए हितकारी है जिसने ससार के सर्वप्राणियोको शरण देनेवाले परम उपकारी परमात्मा के चरणो में बडी प्रसन्नता के साय भक्ति-यूर्वक नमस्कार किया है । साधारण जीवो मे ऐसा भावपूर्ण नमस्कार तभी उदय मे आता है जब वे पदार्यों से परमात्मा का बहुमान करने का व्यवहार अपना कर उसमें पूर्ण रुचि लेते हैं। इसलिए हे भवि प्राणियो। परमात्मा का पूजन बडे ठाठ-बाट से अवश्य करना। पद्म-प्रभु स्वामी के स्तवन में पडितजी ने परम स्तुत्य भाव व्यक्त किये है बोजे वृक्ष अनन्तता रे लाल, पसरे भू जल योग रे ॥वालेसर०॥ तिम मुझ मातम संपदा रे लाल, प्रगटे प्रभु सयोग रे ॥वालेसर०॥ तुझ दरिसण मुझ बाल होरे लाल २०३ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृक्ष की सम्पूर्ण सत्ता पूर्णरूप से विद्यमान है, पर बिना थल और जल के सयोग के वह अपने आप को वृक्ष-रूप में पल्लवित नही कर सकता । उसी प्रकार चाहे आत्मा में अनन्त गुण विद्यमान है पर विना प्रभु की उपासना और भक्ति के योग के, वे विकास को प्राप्त नही हो सकते । इसलिए हे परमात्मन् ' एक मात्र आपके अवलम्ब ही से कार्य सिद्धि सभव है । संरक्षण विण नाथ छो, द्रव्य बिना धनवन्त हो । जिनजी० ॥ कर्ता पद किरिया बिना, सन्त अजय अनन्त हो ॥ जिनजो० ॥ श्री सुवास आनन्द में- हे परमात्मन् । हम जानते है कि आप हमारी रक्षा नही करते फिर भी हम आपको अपना नाथ मानते है । आपके पास चाहे द्रव्य (धन) न हो फिर भी आप आत्मलक्ष्मी के महान् धणी है। आप चाहे कुछ भी न करे पर आपके अवलम्ब से जो हमारा हित हो जाता है, हम तो ऐसा ही मानते है कि आप ही हमारे इस उपकार के कर्ता है । हे स्वामी । आप अक्षय परम पद को प्राप्त करने वाले महान् योद्धा है । अहा ! आप तो वडे आनन्द मे विराज रहे है । श्री सुविधिनाथ स्वामी के स्तवन के प्रत्येक चरण मे पडितजी ने ऐसा अनूठा रसभरा है कि उसका पान करते-करते तृप्ति ही नही होती - मोहादिकनी घूमि, अनादिनी उतरे हो लाल || अनादिनी० ॥ अमल अखण्ड अलिप्त, स्वभावज साभरे हो लाल ॥ स्वभावज० ॥ तत्व रमण शुचि ध्यान, भगी जे आदरे हो लाल ॥ भणी० ॥ ते समता रस धाम, स्वामी मुद्रा वरे हो लाल ॥ स्वामी० ॥ दीठो सुविधि जिणन्द- हे देवाधिदेव | जो आपकी समता रस से परिपूर्ण मुद्रा को यथोचित अपना लेता है, पहचान लेता है, अनादि काल से पीछे पडा उसका 'मोह' का नशा हवा हो जाता है एव उसके स्वभाव मे शुद्धता व्याप्त हो जाती है । उसको सही तत्व और ध्यान आदि का बोध हो जाता है । अन्ततोगत्वा वह आप जैसे ही परमपद को प्राप्त कर लेता है । आगे चल कर पडित जी लिखते हैं- २०४ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हवे, सम्पूर्ण सिद्धि तणी, शी वार छै हो लाल ॥तणी० ॥ देवचन्द्र जिनराज, जगत आवार छै हो लाल ॥ जगत०॥ दीठो सुविधि जिणन्दहे दीनानाथ ! जब आप जैने परम पुरुप का हमे आधार मिल गया है तव यह शत-प्रतिगत निश्चय हो गया है कि हमारी पूर्ण सफलता प्राप्ति मे अव विलम्ब का कोई कारण नहीं है यानी हमे अति शीघ्र सर्व सिद्वियो की प्राप्ति निश्चित रूपेण हो जायेगी। देवचन्द्रजी महाराज फरमाते है-“हे जिनराज भगवन् । ससार के सर्वप्राणियों के लिए आप परोक्ष रूप मे परम सहायक है। वासुपूज्य स्वामी के स्तवन मे तो पडितजी ने हृदय खोल कर रख दिया है। इससे अधिक और क्या स्पष्ट हो सकता है ? ऐमे सार गभित भावो के लिए हम पडितजी को कोटि-कोटि नमन करते है कि जिनकी कृपा से हमे भी सही तत्व का अल्पाग समझने में एव जिनेश्वर-भगवान की शुद्ध भक्ति मे, यत् किंचित् प्रवृत्त होने में बडी सहायता मिली है। वे फरमाते है अतिशय महिमारे अति उपगारता रे, निर्मल प्रभु गुण राग । सुरमणि, सुरघट, सुरतर तुच्छ तेरे, जिनरागी महाभाग ॥ पूजना० ॥ पूजना तो कोजे रे वारमा जिनतणी रेहे परमात्मन् | आप मसार के प्राणियो का अत्यन्त उपकार करने वाले हैं। आपकी महिमा अपार है। उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। जिस प्राणी ने आपके निर्मल गुणो का रस-पान कर लिया है, उनमे आनन्द मग्न हो गया है उसके लिए तो सुरमणि, सुरघट और सुरतरु भी कुछ नही रहे । आपके गुणो की महान्ता के सामने उसके लिए ये सव गौण हो गये है। वस्तुत. जिसकी आपके गुणो में रुचि हो गई है वहीं महा भाग्यशाली है अर्थात् सौभाग्य से ही किमी प्राणी को आपके गुणों में रुचि वनती है। पडितजी के स्तवनो में कहीं भी दूसरो की निन्दा, कटाक्ष, दीनता, व्यर्थ का फैलाव, सकीर्णता आदि खटकने वाला कोई अश ही नहीं है। केवल परम पुरुषो के गुणों का अनुमोदन एव प्रशसा करते हुए अपनी कमजोरी को मिटाने एव अपने को ऊँचा उठाने का एक शुद्ध प्रयत्न मात्र है। २०५ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आप फरमाते है---"यह पूजा इत्यादि का व्यवहार परमात्मा के लिए नही है अपितु यह तो हमारी आत्मा की पूजा है। अपनी आत्मा को निर्मल बनाने के लिए, अपनी ही भलाई के लिए ये सर्व व्यवहार हम अपनाते है। ‘परमात्मा की पूजा--यह तो एक बहाना मात्र है।" आप अकर्ता सेवाथी हुवे रे, सेवक पूरण सिद्धि । निज धन न दिए पण आश्रित लह रे, अक्षय अक्षर ऋद्धि ॥पूजना०॥ पूजना तो कोजे रे बारमा जिनतणो रे-- चाहे आर कुछ भी न करे पर आपकी सेवा में सेवक अपनी इच्छित सम्पूर्ण सिद्धि को प्राप्त कर लेता है। आप अपनी सपदा मे से कुछ भी नहीं देते यह विल्कुल यथार्थ है पर जो अपने मन से ही आपकी शरण ग्रहण कर लेता है वह निश्चय मोक्ष-सुख प्राप्त कर लेता है। इसलिए हे भवि प्राणियो | दिल खोल कर परमात्मा की पूजा करो। जिनवर पूजा रे ते निन पूजनारे, प्रगटे अनन्य शक्ति । परमानद विलासी अनुभवे रे, देवचन्द्र पद व्यक्ति ॥पूजना० ॥ • पूजना तो कोजे रे बारमा जिन तणी रे--- हे ससारी प्रागियो । जिनराज भगवान की जो हम पूजा करते हैं इससे उनको कोई लाभ नही पहुँचता कारण वे तो पूर्णता को पहले ही प्राप्त कर चुके है। अब इस व्यवहार से जो कुछ लाभ मिलने वाला है वह हमे ही मिलेगा। इसलिए भगवान की पूजा तो एक बहाना मात्र है । असल में यह पूजा तो हमारी है यानी हम ही लाभान्वित होते है। इससे सर्व प्रकार के गुण हममे प्रगट हो जाते है । अनुभव के आधार से यह कहा जा सकता है कि एकाग्रता से पूजन करने वाले व्यक्ति, 'परमानन्द' को-परमात्मा के समान पद को प्राप्त कर लेते है। धन्य है पडितजी आपके वाणी-विलास को। मन तृप्त ही नहीं होता। वस्तुत. महाराज के एक-एक पद में रस-सागर लहरा रहा है। पार्श्वनाथ स्वामी. के स्ववन में आप फरमाते हैं Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वार्थी लोगों के सम्बन्ध में क्या कहा जाय ? अग्रगण्य बने हुए वे लडाईist को प्रोत्साहन देते रहते हैं और जिधर प्रसिद्धि देखते हैं उधर ही शीघ्र झुक जाते हैं। अपने आप को उसी सम्प्रदाय का अनुयायी बतलाने लगते हैं । ऐसे व्यक्ति शुद्ध धर्म के मर्म को वस्तुत समझ ही नही पाये है । आत्मा का मुख्य गुण तो उसमे किसी भी प्रकार के कषाय का उत्पन्न न होना है। इसके विपरीत कोई भी आचरण 'धर्म' नही माना जा सकता यदि कोई कहता है तो वह धोखा है, मानने योग्य नही है । तत्व रसिक जन थोड़ला रे, बहुलो जन सम्वाद । जाणो छो जिनराजजी रे, सधला एह विवाद रे ॥ चन्द्रा० ॥ चन्द्रानन-जिन, सांभलिए अरदास रे सही हित की बात बहुत ही कम व्यक्तियो को रुचिकर लगती है क्योकि उसमे मन को काबू में रखना होता है । सहज विषय प्रेमी होने के कारण लोगो का एक बडा समूह व्यर्थ के क्रिया-कलापो मे ही अधिक रुचि लिया करता है । है जिनराज । सर्वज्ञ होने के नाते इन समस्त वाद-विवादो के सम्बन्ध में आप जानते ही हैं । नाथ चरन वन्दन तणो रे, मन मां घणो उमंग । पुण्य बिना किम पामिये रे, प्रभु सेवन नो रंगरे ॥ चन्द्रा० ॥ चन्द्रानन- जिन, सांभलिए अरदास रे हे जिनराज ! आपके चरणो में वन्दन करने के लिए मन मे बडा उल्लास उत्पन्न हुआ है । मन होता है तुरन्त आकर आपके चरणो मे अपना मस्तक रख दूँ पर बिना प्रबल पुण्य के आपकी सेवा का सयोग कैसे प्राप्त हो सकता है ? यह सब तो महान् पुण्योदय से ही प्राप्त होता है । परम योगीराज दादा आनन्दघनजी के स्तवनो से भी ऐसा ही अनूठा रस अन्तः स्तल तक पहुँच कर आलोड़ित करने वाला है । स्वामी के स्तवन में फरमाते हैं महाराज, अभिनन्दन २.०८ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हे स्वामी | यह 'मन' वश में माना वडा ही कठिन है। मै जाण्यु ए लिंग नपुंसक, सकल मरदने ठेले। बीजी बातें समरथ छै नर, एहने कोई न झेले // हो० कुंथु०॥ कुंयुजिन मनडु किम हो न बाजेचाहे मन जड ही क्यो न हो, यह मर्द कहे जाने वाले पुरुपो पर भी अकुश जमाये रहता है। मनुप्य सब प्रकार विजय प्राप्त कर सकता है पर इस चचल मन पर तो कोई एक आध ही विजय प्राप्त करने में समर्थ हो सकता है। हे देवाधिदेव / इस चंचल मन के विषय में अधिक क्या कहा जाय' आपने इसको वश में किया इसलिए आप धन्य है। ___ इसी प्रकार उपाध्याय यगोविजयजी महाराज के स्तवनो में भी वडे भावपूर्ण पद आये हैं। वस्तुत जिनराज भगवान के गुणग्नाम ही ऐसे हैं जो हर विषय को हमारे लिए अत्यन्त प्रिय बना देते है। आप प्रथम तीर्थकर ऋपभदेव स्वामी के स्तवन में फरमाते हैइन्द्र, चन्द्र, रवि, गिरी तणा; गुण लही घडियुं अंग लालरे। भाग्य किहां थको आवियु, अचरिज एह उतंग लाल रे ॥जगजीवन०॥ जग जीवन जग वाल होमाना परमात्मा के शरीर की रचना के लिए इन्द्र, चन्द्र, सूर्य और पर्वत आदि से 'शक्ति और विशेषता' विधि ने प्राप्त कर ली होगी परन्तु तीर्थ कर भगवान का इतना वडा भाग्य कहाँ से लाया गया ? यह आज भी हमारे लिए आश्चर्य का विपय बना हुआ है। है ससार का महान उपकार करने वाले जिनराज! आप हमें अत्यन्त वाले (प्यारे) लगते हैं / श्री सुमतिनाथ स्वामी के स्तवन में महाराज फरमाते है सज्जन शुं जे प्रोतडीजी, छानी ते न रखाय / परिमल कस्तुरी तणोजी, मही माहे महकाय सोभागी०॥ सोभागी जिन शं लाग्यो अविहड़ रंग 211