________________ हे स्वामी | यह 'मन' वश में माना वडा ही कठिन है। मै जाण्यु ए लिंग नपुंसक, सकल मरदने ठेले। बीजी बातें समरथ छै नर, एहने कोई न झेले // हो० कुंथु०॥ कुंयुजिन मनडु किम हो न बाजेचाहे मन जड ही क्यो न हो, यह मर्द कहे जाने वाले पुरुपो पर भी अकुश जमाये रहता है। मनुप्य सब प्रकार विजय प्राप्त कर सकता है पर इस चचल मन पर तो कोई एक आध ही विजय प्राप्त करने में समर्थ हो सकता है। हे देवाधिदेव / इस चंचल मन के विषय में अधिक क्या कहा जाय' आपने इसको वश में किया इसलिए आप धन्य है। ___ इसी प्रकार उपाध्याय यगोविजयजी महाराज के स्तवनो में भी वडे भावपूर्ण पद आये हैं। वस्तुत जिनराज भगवान के गुणग्नाम ही ऐसे हैं जो हर विषय को हमारे लिए अत्यन्त प्रिय बना देते है। आप प्रथम तीर्थकर ऋपभदेव स्वामी के स्तवन में फरमाते हैइन्द्र, चन्द्र, रवि, गिरी तणा; गुण लही घडियुं अंग लालरे। भाग्य किहां थको आवियु, अचरिज एह उतंग लाल रे ॥जगजीवन०॥ जग जीवन जग वाल होमाना परमात्मा के शरीर की रचना के लिए इन्द्र, चन्द्र, सूर्य और पर्वत आदि से 'शक्ति और विशेषता' विधि ने प्राप्त कर ली होगी परन्तु तीर्थ कर भगवान का इतना वडा भाग्य कहाँ से लाया गया ? यह आज भी हमारे लिए आश्चर्य का विपय बना हुआ है। है ससार का महान उपकार करने वाले जिनराज! आप हमें अत्यन्त वाले (प्यारे) लगते हैं / श्री सुमतिनाथ स्वामी के स्तवन में महाराज फरमाते है सज्जन शुं जे प्रोतडीजी, छानी ते न रखाय / परिमल कस्तुरी तणोजी, मही माहे महकाय सोभागी०॥ सोभागी जिन शं लाग्यो अविहड़ रंग 211