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दान देना और दान लेना, ये छह कर्म हैं। शेष क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र - इन तीन वर्णोंके पूजन करना, पढ़ना और दान देना; ये तीन कर्म हैं ?' 'भावसंग्रह' पूजासार आदि अनेक प्रन्थोंमें शोंके
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इन अधिकारोंका उल्लेख है। प्रत्युत 'सारत्रय' के टीकाकार श्री जमसेनाचार्य तो सच्छूद्रको मुनि दीक्षाका भी अधिकारी बतलाते हैं।" श्वेतांबरीय शास्त्रों में चाण्डाल और म्लेच्छों तकको मुनि होने देनेका विधान है । दिगम्बर शास्त्र भी म्लेच्छों की कुल शुद्धि करके उन्हें अपने में सिहा लेने तथा मुनिदीक्षा आदिके द्वारा ऊपर उठानेकी आज्ञा देते हैं । महान सिद्धात ग्रंथ जमधनल " में यह उल्लेख निम्नप्रकार है..
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जड़ एवं कुदो तत्थ संजमग्गणसंभवोति णा संकणिज्जं । दिसा विजयपयद्धचक्क वट्टिसंधावारेण सह मज्झिमखण्डमागयाणं मिलेचयाणं तत्थ चक्षट्टि आदिहिं सह जादवेा हियसम्बन्धाणं संजमपडिबत्तीए विरोहाभावादो || अहवा तत्तत्कन्यकानां चक्रवर्त्यादि परिणीतानां गर्भेषूत्पन्ना मातृपक्षापेक्षया स्वयमकर्मभूमिजा इलीह बिबक्षिता ततो न किंचिद्विप्रतिषिद्धं । तथाजातीयकानां दीक्षाई प्रतिषेघाभावादिति !" - जयधवल, आराकी प्रति पृ० ८२७ -८२८ ।
१ - [भावसंमडू (.......... ) पूजासार (हो० १७-१८) २ - ' एवं गुणविशिष्टपुरुषो जिनदीक्षाग्रहणयोग्यो भवति । यथायोग्यं सच्छूद्राद्यपि ' - प्रवचनसार तात्पर्यवृत्ति, पृ० ३०५ ।
३- 'सक्व खु दीसइ तवो विसेसो, न दीसह जाइ विसेसकोई । सोवागपुत इरिएससाई जस्सेरिसा इडि महाणुभाषा ॥ १२॥ -उत्तराध्ययन सूत्र