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THE FREE INDOLOGICAL
COLLECTION
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-The TFIC Team.
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वीर सेवा मन्दिर दिल्ली
क्रम संख्या
काल न०
XXXX
खण्ड
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XXXX
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सेठ किसनदास कापडिया स्मारक ग्रंथमालानं० १.
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लेखक:श्री० बाबू कामताप्रसाद जैन, एम. आर. ए. एस., सम्पादक "वीर" और " जैनसिद्धान्त भास्कर " एवं
भगवान महावीर, भ. पाश्वनाथ, जैन इतिहास, सत्यमार्ग, वीर पाठावलि प्रादि २ ग्रंथोंके
रचयिता-अलगंज (एटा)।
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प्रकाशक:
मूलचन्द किसनदास कापडिया, सम्पादक, दिगम्बर जैन और मालिक, दि० जन पुस्तकालय
कापडियाभवन, गाधः चौक-सूरत । प्रथमावृत्त ] वीर सं० २४६२ [प्रति १०००
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बात निवासी स्व. सेठ कितमास पूनमयावधी : कापडियाके स्मरणार्थ "दिगम्बर जैन "के
२९ वर्षके माइकोका भेट।
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मूल्य-सवा रुपया।
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" जैनविजय" प्रिन्टिग प्रेस-सूरतमें मूलचन्द किसनदास कापड़ियाने
मुद्रित किया।
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हो शन्द। गीचो वि होइ चो, उचो णीचचणं पुण ब्रह। जीवाणं खुकुलाई, पवियस्स व विस्समंताणं ॥३॥
___ारामनासार। मायाम श्री विष्ट राजका महादेश हम लोगोंके लिये उपाय है कि अगसमें नीच है जानेवाले लोग उच्च भी होते हैं और उच्च होकर नीच भी होजाते हैं। इसलिये जाति और कुलको अधिक महत्व देना तय है-यह तो मात्र पत्रिके लिये विश्रामगृहके समान है। जैसे पथिक एक विश्राम-स्कयको त्यागकर दूसरेमें और फिर उसे लाकर तीसरेमें जा ठहरता है वैसे ही जीव नीच-उँच कुलोंमें परिश्रमम-करता है।
इसका अभिमान करना व्यर्थ ही नहीं हानिकर है। किन्तु खेद है कि माधुनिक लोग इस सत्यको भूलगये हैं। जाति और कुलका घमण्ड बड़ा अनर्थ कर रहा है। जैनसाहित्य महारथी श्री० ० जुगलकिशोरजी मुल्तार (सरसावा ) को यह अनर्थ अखरा। उन्होंने चाहा कि एक ऐसा अन्य प्रगट किया नाय जोबन धर्मके अतितोद्धारक स्वरूपको प्रकाशित करे । इसके लिये अहीने पुरस्कार भी रक्खा, किन्तु खेद है कि इस विषयपर इस मेरी रचनाके अतिरिक्त और कोई रचना न रची गईहर्ष है कि श्री० सेठ मूलचन्द किसनदासजीकापडिया सूरतने इसे खात्र ही प्रगट कर दिया है, इस कृपा के लिये में आभारी हूं। जनता इससे सत्यके दर्शन करके अपना भात्मकल्याण करे, यही भावना है। इति शुभं भूयात् ।
अलीगंज (एटा) । विनीतसा. ११-१-१९३६ । कामतामसाद जैन ।
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उत्सर्ग।
श्रीमान् दानवीर स्व० लाला शिवचरणलालजी जसवन्तनगरकी पवित्र स्मृतिमें यह उनकी भा व ना पूरक कृति सादर
सप्रेम उत्सर्ग
Baal -कामताप्रसाद ।
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स्वर्गीय -
सेठ किसनदास पूनमचंद
कापडिया
स्मारक ग्रन्थमाला नं० १.
अपने पूज्य पिताजीके अंत समय हमने २०००) इसलिये निकालने का संकल्प किया था कि इस रकमको स्थायी रखकर उसकी आयमेंसे पूज्य पिताजीके स्मरणार्थ एक स्थायी ग्रन्थमाला निकाल कर उसका सुलभ प्रचार किया जाय । उसको कार्यरूपमें परिणत करने के लिये यह ग्रन्थमाला प्रारम्भ की जाती है । और उसका यह प्रथम ग्रन्थ " पतितोद्धारक जैनधर्म " प्रगट किया जाता है। इसी प्रकार आगे भी यह ग्रन्थमाला चालू रखने की हमारी पूर्ण अभिलाषा है ।
हमारी यह भी भावना है कि ऐसी अनेक 'स्थायी ग्रंथमालायें जैन समाजमें स्थापित हों। और उनके द्वारा जैन साहित्यका जैन अजैन जनता में सुलभतया प्रचार होता रहे ।
-प्रकाशक ।
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निवेदन |
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आज हमें यह पतितोद्धारक जैनधर्म प्रगट करते हुये महान् हर्ष होरहा है । एक तो इसका विषय ही रोचक, कल्याणकर एवं प्रभावना पूर्ण है, दूसरे इसके सुप्रसिद्ध विद्वान लेखक बाबू कामताप्रसादजी जैनकी लेखनी ही ऐसी प्रशस्त है कि जिससे यह ग्रन्थ सर्वप्रिय बन गया है।
इस ग्रंथ में प्रारम्भसे अन्ततक यह बतानेका प्रयत्न किया गया है कि जैन धर्म महानसे महान पतित प्राणियोंका उद्धारक है। इसमें जातिकी अपेक्षासे धर्मका बटवारा नहीं किन्तु योग्यता के आधारपर धर्म धारण करनेकी आज्ञा दी गई है। जैनधर्मका प्रत्येक सिद्धान्त, उसकी प्रत्येक कथायें और तमाम ग्रन्थ इस बातको पुकार पुकारकर कह रहे हैं कि धर्मका किसी जाति - विशेषके लिये ठेका नहीं है। चाहे कोई ब्राह्मण हो या क्षत्रिय, वैश्य हो या शूद्र सभी धर्म धारण करके आत्मकल्याण कर सकते हैं ।
जैनाचार्योंने स्पष्ट कहा है कि
विमक्षत्रियविट्शूद्राः प्रोक्ताः क्रियाविशेषतः । जैनधर्मे पराः शक्तास्ते सर्वे बांधवोपमाः ॥
इसके साथ ही जैनधर्म किसीको पापी या धर्मात्मा होनेका
बिल्ला सदाके लिये नहीं लगा देता, किन्तु वह स्पष्ट प्रतिपादन करता है कि:
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महापापपकर्ताऽपि माणी श्रीजैनधर्मतः । भवेत् त्रैलोक्यसम्पूज्यो धकि मो पर शुभम् ॥
इसी प्रकार यह भी कहा है कि-" अनार्यमाचरन् किंचिजायते नीचगोचरः ।" तात्पर्य यह है कि मनुष्यकी उच्चता नीचता शुद्ध आचार विचार और धर्मपालन या उसके विपरीत चलनेपर आधार रखती है । जन्मगत ठेका किसीको नहीं दिया गया है।
इन्हीं सब बातोंका प्रतिपादन हमारे विद्वान लेखकने इस पुस्तकमें बड़ी ही उत्तमतासे किया है। इस पुस्तकके प्रारम्भिक ३६ पृष्ठोंसे पाठक जैनधर्मकी उदारताको भलीभांति समझ सकेंगे। और उसके बाद दी गई २० धर्मकथाओंसे ज्ञात कर सकेंगे कि जैनधर्म कैसे कैसे पतितोंका उद्धार कर सकता है और उसकी पावन पाचकशक्ति कितनी तीव्र है। इस पुस्तकको अन्तिम दो कथाओंको छोड़कर बाकी सभी कथायें जैन शास्रोंकी है। विद्वान लेखकने उन्हें कई पुस्तकोंके आधारसे अपनी रोचक भाषामें लिखा है । आशा है कि जैनसमाज इनका मनन करेगी और जैनधर्मकी पतितोद्धारकताको समझकर अपने पतित भाइयोंका उद्धार करनेकी उदारता बतायगी। ___ साथ ही हमें एक निवेदन और कर देना है कि इन कथाओंका हेतु जैन धर्मकी पतितोद्धारकता प्रगट करना है । इससे कोई ऐसा अनर्थ न करें कि जब भयंकरसे भयंकर पाप धुल सक्के हैं तब पापोंसे क्यों डरा जाय ? पानी और साबुनसे वस्त्र शुद्ध होसके हैं, इसलिये मैले वनोंको साफ करना चाहिये, किन्तु
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(८) यदि कोई जानबूजकर पानी और साबुनके भरोसे अपने वस्रोको कीचड़में सान ले तो यह उसकी मूर्खता होगी। इसलिये सर्वदा अपनी आत्माको पापसे बचाते हुये अन्य पापी, दीन, पतित मानवोंके उद्धारमें अपनी शक्ति लगाना चाहिये, यही विवेकियोंका कर्तव्य है। आशा है कि समाज संकीर्णता और भीरुताको छोड़कर जैनधर्मकी पनितोद्धारकताका उपयोग करेगी और विद्वान लेखककी इस अपूर्व कृतिका अच्छा प्रचार करेगी।
इस ग्रन्थका सुलभ प्रचार हो इसलिये इसे 'दिगंबर जैन ' के ग्राहकोंको भेटस्वरूप वितरण करनेका हमने प्रबंध किया है तथा जो 'दिगंबर जैन' के ग्राहक नहीं हैं उनके लिये अमुक प्रतियां विक्रयार्थ भी निकाली गई हैं।
अंतमें हम इस ग्रन्थ के विद्वान लेखक बा० कामताप्रसादजीका ऐसी उत्तम उद्धारक रचनाके लिये आभार मानते हुए उन विद्वानोंका भी आभार मानते हे जिनकी पुस्तकोंके आधारपर इस ग्रंथकी रचना हुई है।
मुरत-वीर सं० २४६२ । मूलचंद किसनदास कापडिया, ज्येष्ठमुदी १५ ता०५-६-३६।।
-प्रकाशक।
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म्वगीय मठ किमनदाम पूनमचदमी कापडिया-सुग्न । जन्म
स्वर्गवासम० १९०८ आश्विन वदी ८. स. १९९० माघ सुदी९.
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(९) संक्षिप्त जीवनचरित्रस्व० सेठ किसनदास पूनमचन्दजी कापड़िया-सूरत।
करीब सवासौ वर्षकी बात है कि गंगराड ( मेवाड़) निवासी वीसा हुमड़ दि.जैन श्रीमान् हरचंद रूपचंदजी अपनी आर्थिक स्थिति ठीक न होनेसे नौकरीके लिये सूरत आये थे। सूरतमें उनने प्रमाणिकता पूर्वक नौकरी की। उनके पुत्र पुनमचंद हुये। उनका लालनपालन साधारण स्थितिमें हुआ था। बड़े होनेपर उनने अफीमका व्यापार प्रारम्भ किया ।
श्रीमान् पुनमचंदके दो पुत्र थे-एक कल्याणचंद और दूसरे किसनदास । श्रीमान् कल्याणचंदजीके मात्र एक पुत्री ( श्रीमती काशीबाई ) हुई थी, जो भारत० दिगम्बर जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी बम्बईके भूतपूर्व महामंत्री स्व. सेठ चुन्नीलाल हेमचंद जरीवालोंकी धर्मपत्नी हैं। श्री० किसनदासजीका जन्म विक्रम सं० १९०८ की आश्विन वदी ८ को सूरत में हुआ था। उससमय कौटुम्बिक स्थिति साधारण ही थी और आपकी अल्पावस्थामें ही आपके पिताजीका स्वर्गवास होगया था । इसलिये गृहस्थीका सारा भार आपपर ही आपड़ा । इसी लिये आप चौथी गुजरातीसे आगेका ज्ञान प्राप्त नहीं कर सके।
श्री० किसनदासजी कुछ दिनतक तो अपने पिताजीकी अफीमकी दुकान देखते रहे और फिर बम्बई जाकर मोती
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( १० )
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धनेका काम करने लगे। कुछ समय बाद आप वहांसे वापिस सूरत आगये । यहां आकर एक दो जगह नौकरी की। फिर टोपी और कपड़े की दुकान प्रारम्भ की। किन्तु वह ठीक नहीं चली, तब सूरती पगड़ी बांधनेका काम प्रारम्भ किया । फिर कुछ समय बाद आपने वैष्णवोंके बृहत् मंदिरमें काचकी चूड़ियोंकी और उसके साथ ही साथ कपड़े की एक दूकान खोली । इस दुकानसे आपको उत्तरोत्तर अच्छी आमदनी होती गई और धीरे२ वहां अन्य कई कपड़की दुकानें होगईं तथा यहां एक अच्छा बाजार बन गया । कपड़े के अच्छे व्यापारके कारण आप 'कापड़िया' कहलाने लगे । बृहत् मंदिरके कपड़े के बाजार के संस्थापक आप ही थे ।
सेठ किसनदासजीके ६ संतानें हुईं। उनमें चार पुत्र १ -मगनलालजी, २ - जीवनलालजी, ३-मूलचंदजी, ४ - ईश्वरलालजी और दो पुत्रियां १ - मणीबहिन, २ - नानीबहिन थीं। इनमेंसे मगनलालजीका २४, और जीवनलालजीका ४९ वर्षकी आयुमें स्वर्गवास होगया। तीसरे मूलचंदजी कापड़िया (हम) ने गुजराती, गंगरेजी, हिन्दी, संस्कृत और धर्मका ज्ञान प्राप्त करते हुये पिताजीके व्यापार किया और फिर ' दिगंबर जन' पत्र निकालना प्रारम्भ किया। उसके बाद 'जैन विजय प्रेस', जैनमिश्र, जैन महिलादर्श और दिगम्बर जैन पुस्तकालय आदि द्वारा जैन समाजकी जो सेवा बन सकी सो की और कर रहे हैं, तथा आजन्म करनेकी हार्दिक अभिलाषा है।
हमारे भाई ईश्वरकाजी बम्बई ममकी दुकान करते हैं।
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तथा भाई जीवनलालजी सूरतमें ही कपड़ेकी दुकान करते रहे जो सं० १९८४ में उनका स्वर्गवास होनेसे बन्द कर देना पड़ी।
इसप्रकार हमारे पिताजी श्री० सेठ किसनदासजी कापड़ियाने अपनी साधारण स्थितिसे क्रमशः अच्छी उन्नति की थी। वे धन, जन, संतान एवं प्रतिष्ठासे सुखी बने और वृद्धावस्थाके कारण धीरे २ शारीरिक शक्ति क्षीण होनेसे वीर सं० २४६० माघ सुदी ९ बुधवार ता० २४ जनवरी सन् १९३४ की रात्रिको ८२ वर्षकी मायुमें धर्मध्यानपूर्वक स्वर्गवासी होगये। आपकी स्मृतिमें उस समय इसप्रकार दान प्रगट किया गया था:---
२०००) स्थायी विद्यादान आदिके लिये। २०००) स्थायी शास्त्रदानके लिये। ( हमारी मोरसे )
५१) बिहार भूकम्पफंडमें। २००) वीस संस्थाओंको।
इस प्रकार ४२५१) का दान किया गया था । आशा है कि ऐसे दानका अनुकरण अन्य श्रीमान् भी करेंगे।
निवेदक-मूलचन्द किसनदास कापड़िया-सूरत ।
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(१२)
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विषयसूची। क्रम विषय १-धर्मकी सार्वभौमिकता २-धर्मका स्वरूप ३-जैनधर्म ४-जैनधर्म सार्वधर्म है ५-जैनधर्म पतितोद्धारक भी है .... ६-धर्म जातिगत उच्चता नीचता नहीं देखता ७-श्वेताम्बरीय मान्यता . ८-चारित्रभ्रष्टका उद्धार संभव है.. ९-प्रायश्चित्त ग्रंथोंका विधान . १०-शूद्रादि भी धर्मपालन कर सकते हैं ११-गोत्रकर्मका संक्रमण होता है .... १२-स्व० ५० गोपालदासनीका अभिमत १३-भारतीय साहित्यमें पतितोद्धारक जैनधर्म १४-पतितोद्धारक बतानेवाले ऐतिहासिक प्रमाण.... १५-उपसंहार .... .... .....
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(१३)
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(१६) चाण्डाल धर्मात्मा। १-यमपाल चाण्डाल २-अमर शहीद चाण्डाल चण्ड ३-जन्मांध चाण्डाली दुर्गंधा .... ४-चाण्डाल साधु हरिकेश ....
(१७) शूद्र जातीय धर्मात्मा। १-सुनार और साधु मेतार्य ... ... २-मुनि भगदत्त ३-माली सोमदत्त और अंजनचोर ४-धर्मात्मा शूदा कन्यायें ... ...
(१८) व्यभिचारजात धर्मात्मा। १-मुनि कार्तिकेय .... .... १०९ २-महात्मा कर्ण
१२५ (१९) पापपङ्कसे निकलकर धर्मकी गोदमें । १-चिलाती पुत्र
१३७ २-ऋषि शैक ... ... १४३ ३-राजर्षि मधु
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१६०
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(१४) ४-श्री गुप्त .... .... ५-चिलातीकुमार
(२०) प्रकृतिके अंचलसे। १-उपाली २-वेमना .... ३-चामेक बेश्या
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४-रदास
.....
१९४
५-कबीर
१२.
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शुद्धाशुद्धि पत्र। पृष्ठ पंक्ति
आचार
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आहार मिलना चाहिए
कष्ट आज्ञाप्रधान
नष्ट आज्ञाप्रदान
करके
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होगा
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अपना
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सुनारने
अपने अभीवन्दना
जसे मेवारा खतखता एपी नहीं
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जैसे संवारा खनखना पापी
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उज्जैन के लिए
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कुरुवंशके कारण
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कुमारकों को
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श्रीमान् बाबू कामताप्रसादजी जैन-अलीगंज।
[इस पन्थ के विधान लेखक]
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। ॐ नमः सिद्धेभ्यः॥
पतितोद्धारक जैनधर्म।
सूर्यका धवल प्रकाश सर्वोम्मेवी है। गङ्गाका निर्मल नीर सबको
ही समान रूपमें मुखद है। प्रकृति इस धर्मकी सार्वभौ- भेदको नहीं जानती कि वह प्राणियोंमें किसीके मिकता। साथ प्रेम करे और किसी के साथ द्वेष !
सूर्यका प्रकाश यह नहीं देखता कि यह किसी अमीरका ऊंचा महल है अथवा किसी दीन हीन रककी कुटिया ! गङ्गाकी निर्मल धारा यह नहीं देखती कि गंगाजलको भग्नेवाला कुलीन ब्राह्मण है अथवा एक न कही। मृद ! प्रकृतिकी यह स्वामाविक सहनता धर्मका वास्तविक रूप और उसके उपयोगका यथार्थ अधिकार सिद्ध करने के लिये पर्याप्त है। सूर्य प्रकाशकी तरह ही धर्म
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२]
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पतितोद्धारक जैनधर्म आत्मा या जीबका स्वामाविक प्रकाश है और जब धर्म जीवात्माका स्वाभाविक प्रकाश है तब उसके उपभोगका प्रत्येक जीवधारीको अधिकार है। अधिकार क्या । वह तो उसकी अपनी ही चीज है। मर्यका प्रकाश और गंगाका निर्मल नीर तो जीवसे दुरकी वस्तुयें है। पर प्रत्येक जीवधारी उनका उपभोग करनेमें पूर्ण स्वतंत्र है ! अब भला कहिये. वे स्वयं अपनी चीज, अपने स्वभाव, अपने धर्म के अधिकारी क्यों न होवें ? अतः मानना पडता है कि 'धर्म' जीवमात्रका जन्मजात ही नहीं स्वभावगत अधिकार है। और अपन स्वभावमे कोई कभी वंचित नहीं किया जासक्ता । वह तो प्रकृतिकी देन है, उसे भला कौन छीने ? छीननेसे वह छिन भी नहीं सकती। सूर्यसे कौन कहे कि तुम अपना प्रकाश एक दीन हीन रंककी कुटियामें मत जाने दो ? और कहनेकी कोई धृष्टता भी करे तो वह अरण्यरोदन मात्र होगा । प्रकृतिको पलटनेकी सामर्थ्य भला है किसमें ? किन्तु प्रश्न यह है कि जीवका धर्म अथवा स्वभाव है क्या ?
इस प्रश्नको हल करनेके लिये हमें जगतके धर्मका स्वरूप। प्राणियोंपर एक दृष्टि डालनी चाहिये । देखना
चाहिये कि जगतके प्राणी चाहते क्या है ? उनकी सहज सामूहिक क्रिया क्या है । उनपा जरा गहरी दृष्टि डालनेसे पता चलता है कि प्रत्येक प्राणी मुखसे जीवन व्यतीत करना चाहता है। उसे आनंद की वाञ्छा है और उस आनंदकी प्राप्तिके लिये वह अपने ज्ञानको विसन करने तथा अपनी शक्तिको उस ज्ञानके इशारे पर व्यय कानक लिय प्रयत्नशाल है। चाहे नन्हासा
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Nimesunneylarusummer कीड़ा हो और चाहे श्रेष्ठ नर, दोनोंका पुरुषार्थ एक ही उद्देश्यको लिये हुये है। ज्ञान और शक्तिकी हीनाधिकता उनके उद्देश्यमें कुछ भी मन्तर नहीं डालती ! प्रत्येक अपनी परिस्थितिके अनुकूल 'सुख' पाने के लिये उद्यमी है। अत प्राणियोंकी इस साहजिक क्रियाके आधारसे हमें उसके स्वभाव, उसके धर्मका ठीक परिचय मिल जाता है। प्रत्येक जीव-प्राणीका स्वभाव-उसका धर्म मुख तथा ज्ञान और शक्तिरूप है। इसलिये प्रत्येक वह नियम-मनुस्यका मोकबह कार्य नो प्राणीके लिये सुख, ज्ञान और शक्तिको प्रदान करे, 'धर्म' के अतिरिक्त और कुछ नहीं कहा जासकता।
___ आज संसारमें ऐसे नियम और किन्हीं खास मनुष्यों के, जिनको संसारने महापुरुष माना है, महत् कार्योको ही पन्थ और सम्प्रदायके रूपमें 'धर्म' कहा जाता है। किन्तु वे पन्ध और सम्प्रदाय तथा उनके नियम तब ही तक और वहीं तक 'धर्म' कहे जासकते हैं जबतक और जहातक वे जीवके स्वभाव-सुख, ज्ञान और वीर्यके अनुकूल हों और उन्हें प्रत्येक जीवको उपभोग करने देने में बाधीनता प्रदान करते हों । इसके प्रतिकूल होनेपर उन्हें 'धर्म' मानना 'धर्म' का गला घौटना है। जैनाचार्योंने 'धर्म' की व्याख्या ठीक वैज्ञानिक-प्राकृत
रूपमें की है । वे कहते हैं कि ' वस्तुका जैन धर्म। स्वभाव धर्म है ।' जिसप्रकार सूर्यका स्वभाव
प्रकाश, जलका स्वभाव शीतलता और अमिका स्वभाव उष्णता उन प्रत्येकका अपना-अपना धर्म है, ठीक
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४]
पतितोद्धारक जैनधर्म ।
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वैसे ही जीवका अपना- आत्मस्वभाव उसका धर्म है । और वह स्वभाव सुख, ज्ञान तथा वीर्यरूप है, यह हम ऊपर लिख चुके है। जैनाचयाने अनेक शास्त्रोंमें जीवके इस स्वाभाविक धर्मका निरूपण बड़े अच्छे ढंगसे किया है। नये और पुराने सबही समयके जैनाचार्य इस निखर सत्यका निरूपण करते है । देखिये कहा गया है
|
गाणं च दंसणं चैव, चरितं च तवो तहा ।
वीरियं उबओगो य, एयं जीवस्त लक्खणं ॥ ११-२८-३० ॥
अर्थात- 'ज्ञान, दर्शन, चारित्र तप, वीर्य और उपयोग यही जीवके लक्षण है ।' एक अन्य जैनाचार्य इसी बात को और भी स्पष्ट करते हुये कहते है:
'ज्ञानदर्शनसम्पन्न आत्मा चैको ध्रुवो मम ।
शेषा भावाव मे बाह्या सर्वे संयोगलक्षणाः || २४|| सारसमुच्चय
अर्थात्- 'मेरा आत्मा एक अविनाशी, ज्ञान-दर्शन से पूर्ण द्रव्य है - अन्य सर्व रागादि भाव मेरे से बाहर है और जड़के संयोगसे होनेवाले हैं।'
इस प्रकार धर्मकी व्याख्याका अनेक जैन ग्रन्थोंमें सारगर्भित विवेचन है । बहार धर्म निखर सत्य-जीवका अपना स्वभाव ही घोषित किया गया है । व्यवहारिक रूपमें वे सब साधन भी जो जीवको अपना निश्चयधर्म प्राप्त करने में सहायक हों 'धर्म' के अन्तर्गत गृहण कर लिये गये है ।
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पतितोद्धारक जैनधर्म |
५].
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अब चूंकि जैनाचार्य भी धर्मको प्राकृत जीवका स्वभाव घोषित
करते हैं, तब यह उनके लिये अनिवार्य है। जैन धर्म सार्वधर्म है। कि वे जीव मात्रको उस यथार्थ धर्मको पालन करनेके लिये उत्साहित करें उन्हें आत्मज्ञानकी शिक्षा देवें और धार्मिक क्रियाओंको पालने देनेका अवसर प्रदान करें । सचमुच गत कालमें अनेक जैन तीर्थंकर ऐसा ही कर चुके हैं। उन्होंने भटकते हुए अनेकानेक जीवोंको सच्चे धर्मके रास्तेपर लगाया था। मार्गभ्रष्ट जीवोंको सन्मार्गपर लेआना उन्होंने अपना महान् कर्तव्य समझा था । इस कर्तव्य की पूर्ति के लिए उन्होंने राजपाट, धन, ऐश्वर्य, सत्ता, महत्ता और रत्न रमणी सभी कुछ त्याग डाला ! अपनेको महलोंका राजा बनाये रहना उन्हें प्रिय न हुआ। वे रास्तेके फकीर बने और तनपर एक बज्जी भी न रक्खी। मान अपमान, ताड़न-मारन, सब कुछ उन्होंने समभावसे सहन किया और यह सब कुछ सहन किया एक मात्र अपना कर्तव्य पालन करनेके लिये जीव मात्रका कल्याण करनेके लिये । सचमुच वे महान् जगदुद्धारक थे - जीव मात्रका उन्होंने उपकार किया । उनका धर्मोंपदेश किसी खास देशके गोरे-काले या लाल-पीले मनुष्योंके लिये arrar किसी बिशेष सम्प्रदाय या जातिके लिये ही नहीं था । उस धर्मोपदेश से लाभ उठाने के लिये प्रत्येक समर्थ प्राणी स्वाधीन था । जैन शास्त्र कहते हैं कि मनुष्य ही नहीं, उनके धर्मको श्रवण करनेके किये उनके सभागृह में पशुओं तकको स्थान प्राप्त था। जैनधर्मकी १ - इरिवंशपुराण, सर्ग २ छो० ७६-८० ।
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पतितोदारक जैनधर्म। यह विशेषता उसकी अपनी है और यही कारण है कि उसकी छत्रछायामें आकर प्रत्येक प्राणी अभय होजाता है । जैनाचार्योने यह स्पष्ट घोषित किया है कि:
'एस धम्ने धुवे णितए, सासए जिणदेसिए। सिदा सिजति चाणणं, सिझिसत तहावरे ॥१७॥१६॥
अर्थात्-'जिनेन्द्र द्वारा कहा हुआ यह धर्म ध्रुव है-नित्य है-शाश्वत् है । इस धर्मके द्वारा अनंत जीव भूतकालमें सिद्ध हुए हैं
और वर्तमान कालमें सिद्ध होरहे है, उसी तरह भविष्यत् कालमें भी सिद्ध होंगे।' श्री कुंदकुन्दाचार्य कहते है कि'पयलयमाण कसाओ पयलियमिच्छत्त मोह समचिंती। पावई तिहुवण सारं वोही जिणसासणे जीवो ।। ७८॥'
भावार्थ-'जिनशासनकी शरणमें आकर जीव मात्र तीनलोकमें सारभूत सुबोधि-विवेक नेत्रको पाजाता है और मानकषाबसे प्रगलित, कुलीन, अकुलीनके घमंडसे निकलकर, मिथ्याभावको छोड़कर मोहसे नाता तोड लेता है।' अर्थात् जैन धर्मको पाकर जीवमात्र पापासे एट जाता है। इस तरह जैनाचार्य किसी खास जाति या वर्गको ही धर्म पालनेका अधिकार नहीं देते। वह तो कहते हैं कि 'मन, पवन, कायसे सभी जीव धर्म धारण कर सकते हैं।' (मनोवाक्काय बर्माय मताः सर्वेऽपि जन्तव.।'-श्रीसोमदेवसरिः) और यह प्रांत सुसंगत है।
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___उपरीक्त विवेचनसे स्पष्ट है कि मन धर्म एक वैज्ञानिक धर्म
है जिसपर प्राणीमात्रका समान अधिकार है। जैन धर्म पतितोद्धारक किन्तु प्रकृत विषयके स्पष्टीकरणके लिये यह भी है। विशेष रूपमें देख लेना आवश्यक है कि
क्या पतित जीव भी जैन धर्मसे लाभ उठा सकते हैं ? क्या सचमुच जैन धर्म पतितोद्धारक है ? इस प्रश्नका ठीक ठीक उत्तर पाने के लिये ‘पतित ' शब्दका भाव स्पष्ट होजाना नितान्त उपयोगी है । साधारणतया 'पतित' शब्दका अर्थ अपने पद-अपने स्वभाव अथवा अपनी स्थितिमे च्युत होना प्रचलित है
और वह है भी ठीक । किन्तु जीवके सम्बन्धमें उसका अर्थ क्या होगा ? निःसंदेह जीवको वह अपने स्वभाव और अपनी स्थितिसे च्युत हुआ प्रगट करता है । वास्तवमें यह है भी सच, क्योंकि जीवका स्वभाव पूर्ण ज्ञान दर्शन और सुखरूप है, किन्तु आज प्रत्येक जीवमें उसकी अभिव्यक्ति पूर्ण रूपसे दृष्टिगोचर नहीं होती। ___ जीव तीन लोककी विभूतिसे अधिक विभूतिका स्वामी होकर भी इस मंसारमें न कहींका होरहा है। अधिकांश जीव तो अपने इस 'स्वाभाविक संपत्ति' से बिल्कुल हाथ धोये होते है। वे क्रोध, मान, माया, दम्भ, अज्ञान, व्यभिचार आदि दुर्गुणोंमें ऐसे रत होने हैं कि लोग उन्हें 'अधर्मी' 'पापी' कहते हैं। सचमुच ये सब पतित हैं-कोई कम है और कोई ज्यादा । अपनी अच्छी बुरी कषाय जनित मन, वचन, क्रियाके वशवर्ती होकर जीव अनादिकालसे अपनेसे भिन्न एक सूक्ष्म पुद्गलरूप मैलको अपनेमें जमा करता आरहा है, जिसे जैनदर्शनमें
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पतितोद्धारक जैनधर्म ।
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कर्ममल' कहते है । इस 'कर्ममल' के कारण ही जीव अपनी स्वाभाविक स्थितिको खोये बैठा है । वह 'पतित' है ।
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किन्तु अब प्रश्न यह है कि क्या यह संभव है कि यह पतित जीव अपना उद्धार कर सकेगा ? अपनेको पतन - गहर से निकालकर आत्मस्वभावकी ऊँची शैल शिखरपर बिठा सकेगा / निःसन्देह यह संभव है । यदि यह संभव न होता तो आज संसारमे 'पंथ' और मत' दिखाई न पड़ते धर्म कर्मका प्रचार कहीं न होता । प्रकृतिका यह नियम है कि वह अपने पद से भृष्ट हुएको सत्संगति दिलाकर श्रेष्ठ पद- उसका वही पद उसे दिलादे जिसे वह खो बैठा है। गंगाजलको मनुष्य काममें लाते है। वह ढलकर नाली में जाकर गंदा होजाता है- अपनी पवित्रता और श्रेष्ठता खो बैठता है । कोई भी उसे हने तकको तैयार नहीं होता । किन्तु जब वहीं पतित' पानी गंगाकी पवित्र धारामें जा मिलता है तो अपना गंदापन खो बैठत है और उमीको फिर मनुष्य भरकर लाने है तथा देव प्रतिमाओंका उससे अभिषेक करने है
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प्रकृतिकी यह क्रिया पतितोद्धारको महज साध्य प्रमाणित करती है। मेघके कोटि पटल सूर्यके प्रकाशको छुपा देते है; परन्तु फिर भी वह चमकता ही है। ठीक यही बात जीवके सम्बन्ध में
| संसार में वह अपने स्वभावको पूर्ण प्रकट करने में असमर्थ हो रहा है, परन्तु वह है उसीके पास ! वह उसका धर्म है ! बाहरी ' मैटर ' कब तक उसको घेरे रहेगा ? आखिर एक अच्छे-से दिन वह उससे छूटेगा और वह अपना
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पतितोद्धारक जनधर्म। अवश्य प्राप्त करेगा। उसका पतित जीवन नष्ट हो जायगा। लोकमें प्रत्यक्ष अनेक चारित्र हीन मनुष्य समयानुसार धर्मात्मा बनते दृष्टि पड़ते हैं। अतएव पतितका उद्धार होना स्वाभाविक है। जैनधर्म पतितोदारक एक वैज्ञानिक विधानके सिवाय और कुछ नहीं है । उसकी शिक्षा यही सिखाती कि अपने पदसे भ्रष्ट अथवा पतित हुआ जीव संसारसे मुक्त होकर अपना स्वाभाविक पद प्राप्त करे ।
और इसके सुलभ प्रचारके लिये वह अपने धर्म प्रचारकोंके निकट मनुष्य ही नहीं पशुओं तकके आने और धर्मामृत पान करनेकी उदारता रखता है, क्योंकि विना संत-समागमके सन्मार्ग मिलना दुर्लभ है । इसीलिये भगवान महावीरका यह उपदेश है कि -- 'सवणे नाणे विण्णाणे, पञ्चक्खाणे य संजमे । अणाहए तबे चेव बोदाणे, अकिरिया सिद्धी ॥२॥५॥ भगवती'
अर्थात्-"ज्ञानीजनोंके संसर्गमें आनेसे धर्म श्रवण होता है। धर्म श्रवणसे ज्ञान होता है, ज्ञानसे विज्ञान होता है, विज्ञानसे दुराचारका त्याग होता है। और इस त्यागसे संयमी जीवन बनता है। संयमी जीवनसे जीव अनावी होता है और अनावी होनेसे तप-. वान् होता है । तपवान् होनेसे पूर्व संचित कर्मोका नाश होता है
और कर्मोका नाश होनेसे जीव सावध क्रिया रहित होता है । बस, सावध क्रिया रहित होनेसे उमे सिद्धि- मुक्ति प्राप्त होती है।" एक पतित जीव धर्म-जैनधर्मका ज्ञान पाकर परम पूज्य मुक्त आत्मा हो जाता है।
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प्रभु महावीरने अपने इस धर्मका द्वार प्रत्येक जीवके लिये
खुला रक्खा था, किन्तु खेद है कि उनकी धर्म जातिगत उच्चता इस समुदार शिक्षाको उनके शिष्योंने कुछ नीचता नहीं देखता। समयसे भुला दिया है। इसमें मुख्य कारण
देशकालकी परिस्थिति थी। पौराणिक हिन्दू धर्म के प्रचार और प्राबल्यके सम्मुख नैनी अपने समुंदार सिद्धांतको अक्षुण्ण न रख सके। प्रवृत्तिमें वे अपने पड़ोसी हिन्द भाइयोंकी नकल करनेके लिये लाचार हुये। किन्तु अब देश-कालकी परिस्थिति बदल गई है। प्रत्येक मनुष्यको अपने मतको पालने
और उसका प्रचार करनेकी स्वाधीनता है । अतएव इस समय तो प्रत्येक जैनीको भगवान महावीरके धर्मोपदेशकी महान् उदारताका प्रतिधोष जोरके साथ करना उचित है। प्राचीनसे अर्वाचीन प्रत्येक जैनाचार्य इस उदारताकी घोषणा स्पष्ट रूपेण करते हैं। उनका विदर्शन निन्न पंक्तियों में करके प्रत्येक वीरभक्तके प्रति कर्तव्यपालन करने के लिये हमारा सादर निमंत्रण है। जनधर्ममें मनुष्योंकी एक जाति बताई गई है। वह मनुष्योंमें पशु जगतके समक्ष मेद स्थापित १- मनुष्यतिरेकैव जातिकर्मोदयोद्रया। वृत्तिमेदा हि तभेदाचातुर्विध्यमिहास्नुते ॥ ३८-४३ ॥
-मादिपुराणे जिनसेनः । भावार्य-जाति नाम कर्मके उदयसे मनुष्य जाति एक है, परन्तु वृत्तिके मेदसे उसमें क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य, शुद्ध रूप चार वर्णों की कल्पना की गई है।
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नहीं करता । हां, आहार या वृत्तिके आधारसे उसमें भी मनुष्योंको क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य और शख वर्गामें विभक्त किया गया है।' १-वर्णात्यादि मेदानां देहेऽस्मि च दर्शनात् । ब्राह्मण्यादिषु शूदागर्भाधानप्रवर्तनात् ॥ नास्ति जातिकृतो मेदो मनुष्याला गवाऽश्ववत् । भाकृतिहणात्तस्मादन्यथा परिकल्पते ।।
-महापुराणे गुणमदः । भावार्थ-" इन जातियोंका भाकृति मादिके मेदको लिये हुए कोई शाश्वत् लक्षण भी गो-अश्वादि जातियोंकी तरह मनुष्य शरीर में नहीं पाया जाता, प्रत्युत इसके शूद्रादिके योगसे ब्राह्मणी मादिकमें गर्भाधानकी प्रवृत्ति देखी जाती है, जो वास्तविक जातिमेदके विरुवा है।"
'माचारमात्रभेदेन जातीनां मेदकल्पनं । न जातिाह्मणीयास्ति नियता कापि तात्विकी ॥१७-२४॥
-धर्मपरीक्षा। अर्थात्-" जातियोंकी जो यह ब्राह्मण, क्षत्रियादि रूपसे मेद कल्पना है, वह भाचार मात्रके मेदसे है-वास्तविक नहीं। वास्तविक दृष्टिसे कहीं भी कोई शाश्वत् ब्राह्मण (आदि) जाति नहीं है।
श्री रविषेणाचार्य मी जातिको कोई तात्विक मेद न मानकर माचारपर ही उसे अवलंबित कहते है:
'चातुर्वर्य यथान्यच चाण्डालादिविशेषणं ।
सर्वमाचार मेदेन प्रसिद्धं भुबने गलम् ॥' पर्यात-बामण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्ध या चाण्डालादिकका तमाम विभाग बाचरणके मेदसे हो लोकमें प्रसिद्ध हुमा है।''त: जिस बातिका जो भाचार है उसे जिस समय कोई व्यक्ति नहीं पालता है,
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पतितोद्धारक जैनधर्म
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किन्तु यह वृत्तिभेद मनुष्योंमें किसी प्रकारका मौलिक भेद स्थापित नहीं करता । इसीलिये जैनधर्ममें कोई भी मनुष्य जन्म गत जातिके कारण गति नहीं ठहराया गया है। जन्मका एक ब्राह्मण और चांडाल दोनों ही समान रीतिमें धर्म पालनेके अधिकारी हैं। डिगंबर जैनाचार्य श्री कुन्दकुन्दस्वामी इसीलिये कहने है कि -
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-
उस समय वह उस जातिका नहीं रहता; बल्कि वह तो उस जातिका व्यक्ति वस्तुतः होजाता है, जिसका बाचार वह पालन करता है । ऐसी दशा में ऊँची जातिवाले नीच और नीच जातिवाले ऊँच होजानेके अधिकारी ठहराये गये हैं । " धर्म परीक्षा " में श्री अमितगति आचार्यने गुणोंके होनेपर जातिका होना और गुणोंके नाश होनेपर जातिका विनाश माना है। ('गुणैः संपद्यते जातिगुणध्वंसर्विपद्यते ' ) उन्हींका वचन है कि:
(
'ब्राह्मणोऽवाचि विप्रेण पवित्राचारधारिणा ।
विप्राया शुद्धशीलाया जनिता नेदमुत्तरम् ॥ २७ ॥ न विप्राविप्रयोर स्ति सर्वदा शुद्धशीलता | कालेनाsनादिना गोत्रे स्खटन क न जायते ||२८|| ' अर्थात्- 'यदि यह कहा जाय कि पवित्रा आचारधारी ब्राह्मणके द्वारा शुद्ध शीला ब्राह्मणी के गर्भसे जो पुत्र उत्पन्न होता है उसे ब्राह्मण कहा गया है- तुम ब्राह्मणाचारके धरनेवाले को ही ब्राह्मण क्यों कहते हो ? तो यह ठीक नहीं है; क्योंकि यह मान लेनेके लिये कोई कारण नहीं है कि उन ब्राह्मण-ब्राह्मणी दोनों में सदा कालसे शुद्ध शीलताका मस्तित्व (अक्षुण्णरूपसे) चला बाता है । अनादिकाल से चली बाई हुई गोत्र सतति में कहीं दोष नहीं लगता ? लगता ही है।
भावार्थ- इन दोनों श्लोकोंमें माचार्य महोदयने जन्मसे जाति
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'णवि देहो बंदिज्जइ नवि व कुलो नवि य जाइ संजुत्तो । को बंदिय गुणहीणो ण हुं सबणा णेय साबओ होइ ॥ २७॥' अर्थात- 'देहकी वंदना नहीं होती और न कुलको कोई पूजता हैं । न ऊंची जातिका होनेसे ही कोई वंदनीय होता है । गुणहीन की कौन वंदना करे ? सचमुच गुणोंके विना न कोई श्रावक है और न कोई मुनि है।' श्री समंतभद्राचार्य इसीलिये एक चाण्डालको सम्यग्दर्शन- सत् श्रद्धान से युक्त होनेपर 'देव' कहकर पुकारते हैं:
-
मानने वालोंकी बातको निस्सार प्रतिपादन किया है । जन्मसे जातीयताके पक्षपाती जिस रक्त शुद्धिके द्वारा जाति-कुल अथवा गोत्रशुद्धिकी डुगडुगी पीटा करते हैं उसीकी निस्सारताको घोषित किया है और यह बताया है कि वह अनादि प्रवाह में बन ही नहीं सकती - विना किसी मिलावट के अक्षुण्ण रह ही नहीं सकती । इसी कारण आचार्य महाराजने कहा है कि:
6 न जातिमात्रतो धर्माभ्यते देहधारिभिः । सत्यशौचतपःशीलध्यानस्वाध्यायवर्जितः ॥ २३ ॥'
अर्थात् - ' जो लोग सत्य, शौच, तप, शील, ध्यान और स्वाध्यायसे रहित हैं उन्हें जाति मात्र से महज किसी ऊँची जातिमें जन्म ले लेने से धर्मका कोई लाभ नहीं होसकता है।'
श्री रविषेणाचार्य भी जन्मसे जाति माननेकी भ्रातिका निरसन निम्न श्लोकों द्वारा करते हैं:
चातुर्विध्य च यज्जान्या तन्न युक्तमहेतुकं ।
ज्ञानं देहविशेषस्य न च शूद्रादिसम्भवात् ॥ ११-१९४॥दृश्यते जातिभेदस्तु यत्र तत्रास्य सम्भवः । मनुष्यहस्तिवाकेयगौवा जिप्रभृतौ यथा ॥ १९५ ॥
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'सम्यग्दर्शनसम्पन्नमपि मातंगदेहर्ज । देवा देवं विदुर्मस्मगूढांगारान्तसैजसम् ॥२८॥रत्नक०' श्री रविषेणाचार्य इसी बातको और भी स्पष्ट शब्दोंमें यों
बच जात्यतरस्थेन पुरुषेण त्रिया कचित् । क्रियते गर्मसम्भूतिविप्रादीनाञ्च जायते ॥ १९६ ॥ भवाया रास भेनास्ति समवोऽस्येति चेन सः । नितांतमन्यजातिस्पशूद्रादितनुसाम्यतः ॥ १९७ ॥ यदि था तबदेव स्यात्तयोर्विसदृशः सुतः । नात्र दृष्ट तथा तस्माद्गुणैर्वर्णव्यवस्थितिः ॥ १९८-११।।
भावार्थ-"जातिसे जो ब्राह्मण आदि भेद माने जाते हैं वह ठीक नहीं हैं। किसी भी तरह ब्राह्मणके शरीर में और शुदके शरीग्में अंतर नहीं मालूम देता । इसलिये यह जातिभेद आहेतुक है । जहापा जाति दिखती है वहींपर वह सम्भव है, जैसे-मनुष्य, हाथी, गधा, बेल, वोडा मादि में जातिमेद है । किसी दूसरी जातिका पुरुष किसी दूसरी जातिकी स्त्रीमें गर्भाधान नहीं कर सक्ता मिलना चाहिये, किन्तु ब्राह्मणके द्वारा शुदमें और शुदके द्वारा ब्राह्मणमें गर्भाधान होसक्ता है। इसलिये ब्राह्मण, क्षत्रिय, शूद्र-ये जुदी जुदी जातियां न कहलाई। कोई यह प्रश्न करे कि घोड़ीमें गधेसे तो गर्भ रह जाता है तो यह ठीक नहीं; क्योंकि घोड़ा और गधामें पूर्ण जातिभेद नहीं है क्योंकि खुर वगैरहर दोनोंके समान होते हैं अथवा घोड़ी गधेसे जो सन्तान पैदा होती है वह बिल्कुल तीसरे प्रकारकी (खच्चर) होती है। लेकिन ब्राह्मणीके शद्रके सम्बन्धसे पैदा होनेवाली सन्तान इसप्रकार विसदृश नहीं होती। इसलिए ब्राह्मणादि भेद व्यवस्था गुणसे मानना ही उपयुक्त है।"
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DIRHANIH
'न जानिगडिता काचिद् गुणाः कल्याणकार व्रतस्थमपि चाण्डालं तं देवा ब्राह्मण विदुः ॥११-२०॥पम०
भावार्ष-'कोई भी जाति गहित नहीं है-गुण ही कल्याणके कारण हैं। व्रतसे युक्त होनेपर एक चाण्डालको भी श्रेष्टजन ब्राह्मण कहते हैं।
यही बात श्री सोमदेव आचार्य निम्न प्रकार स्पष्ट करते हैं:
श्रीमत्प्रमाचंद्राचार्यजीने ' प्रमेयकमलमार्तण्ड ' नामक प्रथमें भी जातिवादका खासा खंडन किया है । उस प्रकरणके मुख्य बाक्य की यहा हम उपस्थित करते हैं:
'न हि तत्तथाभूतं प्रत्यक्षादिप्रमाणन: प्रतीयते ।' 'प्रत्यक्षादि किसी भी प्रमाणसे जातिका ज्ञान नहीं होता है।' 'मनुष्यत्वविशिष्टतयेव ब्राह्मण्य विशिष्टतयापि प्रतिपत्यसंभवात् ।'
'सविकल्पक प्रत्यक्षसे भी जातिका ज्ञान नहीं होसक्ता क्योंकि जैसे किसी व्यक्तिको देखनेसे उसमें मनुष्यताका प्रतिमास होता है उस तरह ब्राह्मणपनका प्रतिभास नहीं होता । अर्थात् एक मनुष्य जातिकी तरह ब्राह्मण कोई जाति नहीं है।'
"अनादौ काळे तस्याध्यक्षेण ग्रहीतुमशक्यत्वात्। प्रायेण प्रमदानां कामातुरतया इह जन्मन्यपि व्यभि व रोपलम्भाच कुतो योनिभिबन्धनो ब्राह्मण्यनिश्चयः ? न च विप्लुतेतापित्रापत्येषु बेरक्ष्यं रक्ष्यते । न खलु वडवायां गर्दभाश्च प्रापत्येडि६५ ब्रह्मण्यां ब्राह्मणशवप्रभवापत्येष्वपि वेलक्षण्य टक्ष्यते क्रिपाविलो त् ।" ___ "मनादिकालसे मातृकुल और पितृकुल शुद्ध हैं, इसका पता लगाना हमारी आपकी शक्ति के बाहर है। प्राय: स्त्रिया कामातुर होकर व्यभिचारके चक्क में पड़ जाती हैं । झिा जन्मसे जातिका निश्चय कैसे होसकता है ? अभिवारो माता पि' की सन्तान मोर निर्दोष माता
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१६] पतितोदारक जैनधर्म ।
'दीलायोग्यास्त्रयों वर्णाश्चतुथश्च विघोचितः ।
मनोशकायधर्माय मताः सर्वेऽपि जन्तवः ।' यशपिताको सन्तानमें फरक तो नजर नहीं पाता। जिसप्रकार गधे और घोडेके सम्बन्धसे पैदा होनेवाली गधीकी सन्तान भिन्न २ तरहकी होती है, उस प्रकार ब्राह्मण और शदके सम्बन्धसे पैदा होनेवाली ब्राह्मणीकी सन्तान में अन्तर नहीं होता, क्योंकि अगर अन्तर होता तो संस्कारादि क्रियाओंकी क्या आवश्यकता थो ?"
"क्रियाविशेषादिनिबन्धन एव ब्राह्मणा दिव्यवहार:।............ नापि संस्कारस्यास्य शूद्रपालके कर्तु शक्तितस्तत्रापि तत्प्रसङ्गात् । किञ्च सस्कारात्माग्ब्राह्मणकालस्य तदस्ति न वा ? यदस्ति संस्कारकरण वृथा। अथ नास्ति तथापि तद् वृथा, अब्राह्मणस्याप्यतो ब्राह्मण्यसम्भवे शूद्रबालकस्यापि तत्सम्भव : केन वार्यत"
" इसलिये कर्मसे ही ब्राह्मणादि व्यवहार मानना चाहिये ।.... सस्कार में भी जाति नहीं है क्योंकि सस्कार तो शूद्र बालकका भी किया जासकता है-उसमें सस्कार करानेकी योग्यता है । मच्छा, यह बताइये कि संस्कार के पहले ब्रह्मण बाळक ब्राह्मण है या नहीं ? मगर है, तो संस्कार करना वृथा है। मगर नहीं है तो और भी वृथा है, क्योंकि जो ब्रह्मण नहीं है उसे संस्कारके द्वारा ब्राह्मण कैसे बना सकते हैं ? अब्राह्मण मगर सस्कार से ब्राह्मण बन सके तो शुद्र बालकके संस्कारको कौन रोक सकता है ?” -प्रमेयकमलमार्तण्ड ।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि जनधर्ममें मनुष्यों में कोई मौलिक भेद नहीं माना है, जिसके माधारसे कोई ऊँच और नीच ही बना रहे, प्रत्युत जातिको कर्मानुसार मानकर प्रत्येक मनुष्यको मात्मोन्नति करने देनेका अवसर प्रदान किया है।
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पतितोदारक जैनधर्म । [१७ अर्थात- "बामग, क्षत्रिय, वैश्य-ये तीनों वर्ण (आमतौरपर ) मुनिदीक्षाके योग्य हैं और चौथा शूद्र वर्ण विधिके द्वारा दीक्षाके योग्य है । ( वास्तवमें । मन, वचन. कायमे किये जानेवाले धर्मका अनुष्ठान करने के लिये सभी जीव अधिकारी है।" यही आचार्य और भी कहते हैं कि'उच्चावचजनप्रायः समयोऽयं जिनेशिनां । नैकस्मिन्पुरुषे ति देकस्तम्भ इवालयः ।।-यशस्तिलके ।' ___ अर्थात-"जिनेन्द्रका यह धर्म प्रायः ऊँच और नीच दोनों ही प्रकार के मनुष्योंके आश्रित है । एक स्तंभके आधारपर जैसे मकान नहीं ठहरता, उसी प्रकार ऊंच नीन में से किसी एक ही प्रकार के मनुप्य समूहके आधारपर धर्म टग हुआ नहीं है।" बात असलमें यह है कि समारमें वे ही मनुष्य उच्च कहलाते है जिनका आचरण शुभप्रशंसनीय होता है। अब यदि उन अच्छे ऊंचे आदमियोंमें ही धर्म सीमित कर दिया जाय तो फिर निन्न कोटि के धर्म नियम बेकार हो जाने है। और उसपर धर्म प्रत्येक प्राणीकी स्वभावगत चीज होनेके कारण उससे वंचित भला कौन किया जासकता है ? इसीलिये जैनाचार्य ऊंच नीच दोनों प्रकारके मनुष्यों के आश्रित धर्मको ठहराते है। क्योकि दोनों ही प्रकार के मनुष्य आने अच्छे बुरे कर्मों के अनुमार उच्च और नीच होजाने है। श्री अमितगति आचार्य के निम्नलिखित वचन इस कथन के पोषक है
'शीलवन्तो गताः स्वर्ग नीचजातिभा अपि । कुलीना नरकं प्रामाः शीलसंयमनाशिनः ॥"
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अर्थात- 'जिन्हें नीच जातिमें उत्पन्न हुआ कहा जाता है वे शीधर्मको धारण करके स्वर्ग गए हैं और जिनके लिये उच्च कुलीन होनेका मद किया जाता है, ऐसे दुराचारी मनुष्य नरक गये हैं।' सच है, गुण ही मनुष्यको बनाते और बिगाडन है । गुण ही मनुष्य जीवनकी दिव्य आभा है ! शरीर-सौन्दर्य-जैसे विंशुक फूल और उच्च जातिका जन्म गुणबिन कुछ मूल्य नहीं रखते' इसीलिये श्री जिन'सेनाचार्य 'आदिपुराण' में उस मनुष्यको ही ' हिन' कहते हैं जो विशुद्धवृत्ति - आचारका धारी है। और उसकी गिनती किसी भी वर्ण जाति नहीं करते '* गर्ज यह कि चारों ही वर्णके मनुष्य धर्म धारण करनेकी योग्यता रखते हैं !
श्वेताम्बर जैनाचार्य भी मनुष्यमात्रको धर्मका अधिकारी घोषित करते है। उन्होंने स्पष्ट कहा है कि जिनेन्द्रका
श्वेताम्बरीय मान्यता | धर्मोपदेश प्राणीमात्रके लिये होता था । मनुष्यों में आर्य और अनार्य - द्विपद-चतुष्पददोनों ही उसमे समानरूपमें लाभ उठाते थे उन दोनोंको लक्ष्य करके
*
विशुद्धवृत्तयस्तस्माज्जना वर्णोत्तमा द्विजाः ।
वर्णान्तःपातिनो नेते जगन्मान्या इति स्थितम् ॥३९॥१४२॥ '
(
भावार्थ- 'विशुद्र वृत्ताले जैन हो सब वर्णों में किसी वर्ण में शामिल नहीं है। और वे हो जगतमान्य दूसरे शब्दों में यू कहना चाहिये कि या जातिमे कोई मतलब नहीं, जिस किसी व्यक्तिकी वृत्ति विशुद्ध है व्हीजन और जन्नान्य द्विज है । "
उत्तम हैं-वे
द्विन है ।
"
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Imaan.
MOHITTORROUGHOUDHAINimISIROHI
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पतिनधारक - [१९ ही जिनेन्द्रनै धर्मोपदेश दिया था। जातिगत कास्पनिक होनाविकताके कारण कोई भी मनुष्य धर्माराधना करनेसे वंचित नहीं ठहराया गया है। जिसप्रकार एक तृणभक्षी अहिंसक हाथी और एक मामिरमक्षी कर सिंह समानरूपमें धर्मपालन करते हुवे शाम मिलते हैं
और दोनों ही आत्मोन्नति करके सर्वज्ञ तीर्थकर होने हैं; वैसे ही मन ही प्रकारके मनुष्य-चाहे वे सदाचारी, उस, कुलीन हो अथवा दुराचारी, नीच, अकुलीन हों, धर्मका सेवन करकर अपना आत्मकल्याण कर सक्ते हैं ! अपनी चीजको भोगनेका अधिकार चिरमिथ्यात्वकी लम्बी अवधिके कारण छीना नहीं जासक्ता और न जाति मर्यादाकी कल्पना उसे कष्ट कर सकी है, क्योंकि श्वेताम्कराचार्य भी जातिको जन्मसे-मौलिक न मानकर कर्मानुसार कल्पित कहते हैं। उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है:
'कम्मुणा बम्मणो होइ, कम्मुणा होइ खत्तिओ। बइसो कम्मुणा होइ, सुद्दो हवइ कम्मुणा ॥२५॥
अर्थात्-कर्मसे ब्राह्मण होता है, कर्मसे ही क्षत्री । वैश्य भी कर्मसे होता है और शूद्र भी कर्मसे । इसलिये जातिगत विशेषता कुछ नहीं है-विशेषता तो विशुद्धवृत्ति तपश्चरण आदिसे दृष्टि पड़ती
है। ('सक्खं खु दीसइ तवो विसेसो, न दीसह जाइविसेस कोई।'* उत्तराध्यन सूत्र । ) इसलिये जातिका मद नहीं करना चाहिये ।
१-भगवंचणं अद्धमागहीए भासाए धम्ममाइक्खा । सवियणं मद्धमागहीमासा भासिज्जमाणी तेसिं सव्वेति मारियमणारियाणं, दुप्पय, चउप्पय मियपसुपक्खिसरीसिवाणे मयप्पणोहिय सिवसुइदाय मासजाए परिणामह।
-समवायांग सूत्र।
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२० ]
पतितोद्धारक जैनधर्म 1
जातिमद तो संसार और नीच गोत्रका कारण है।' 'ठाणांग सूत्र ' में लिखा है कि:
'न तस्स जाई व कुलं व ताणं, गण्णत्थ विज्जाचरणं सुचिनं । णिक्खम्म से सेवइ गारिकम्पं, ण से पारए होइ विमोयणा ॥ ११॥
अर्थात् - 'सम्यग्ज्ञान और चारित्र विना अन्य कोई जाति व कुल शरणभूत नहीं है। जो कोई चारित्र अंगीकार करके जाति गोत्रादिकका मद करता है वह संसारका पारगामी नहीं होता है ।' क्योंकि सिद्धिपद जाति और गोत्र रहित महान् उच्चपद है। (उच्चं अगोत्तं च गर्ति उवेंति) इमलिये लोक में कल्पित उच्च जाति या कुलका फालेना मनुष्यके लिये शरण नहीं है।" शरण तो एक मात्र आत्मधर्म है ।
अधिकांशतया जनतामें यह भ्रम फैला हुआ है कि जो मनुष्य सन्मार्गसे अधिक दूर भटककर भ्रष्ट होता है चारित्रभ्रष्टका उद्धार अथवा जो व्यक्ति पूर्व संचित अशुभोदय से संभव है । अपने मर्यादित पदमे पतित होजाता है, वह धर्म पालने का अधिकारी नहीं रहता है 1 ऐसा चारित्रभ्रष्ट और समाज नियमोंको उल्लंघन करनेवाला मनुष्य जैन संघमें रखने योग्य नहीं माना जाता और उसे संघ या बिराद
१ - " जातिमदेण कुलमदेणं बलमदेणं जाव इस्सणिमदेणं णीयगोयकम्मासरीर जावप्पयोग बँधे " - भगवती सूत्र (हैदराबादका छपा ) पृष्ठ १२०६ ।
२- खलु गातिसंजोगा जो ताजाए वा णो सरणाए वा । "
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--ठाण!ङ्गसूत्र
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पतितोलारक जैनधर्म । [२१ रीमे बहिष्कृत कर दिया जाता है ! किन्तु यह प्रवृत्ति धर्ममर्यादासे मर्वथा प्रतिकूल है; क्योंकि पूर्वोक्त विवेचनसे यह स्पष्ट है कि धर्मकी आवश्यक्ता पतितोद्धारके लिये ही है और जैनधर्म वस्तुतः पतितोद्धारक है । जैनाचार्योंने स्पष्टतः चारित्रहीन मनुष्योंके उद्धारके लिये धर्मका विधान पद पदपर किया है। उनका कहना है कि:
"महापापप्रकर्ताऽपि प्राणी श्रीजैनधर्मतः। भवेत् त्रैलोक्यसंपूज्यो धर्माकि भो परं शुभम् ॥"
अर्थात - "घोर पापको करनेवाला पाणी भी जैन धर्म धारण करनेसे त्रैलोक्य पूज्य होजाता है ! धर्मसे अधिक श्रेष्ठ और वस्तु है ही क्या ? चारित्रभ्रष्टको तो जैन धर्म सर्वथा भ्रष्ट नहीं बतलाता; क्योंकि यदि मनुष्यका श्रद्धान आत्मधर्ममें ठीक रहेगा तो वह एक दिन अवश्य अपनी गलती महसूम करके उसको सुधार लेगा। इसी लिये श्री कुन्दकुन्दाचार्यजीका यह कथन सार्थक है:
'दंसणभट्टा भट्टा, देसणभट्टस्स णस्थि णिव्याणं । सिझति चरियभट्टा, सणमट्ठा ण सिजति ॥३॥
अर्थात्-“ दर्शन-सम्यक्त्वसे भ्रष्ट ही भ्रष्ट हैं । दर्शन प्राके लिये निर्वाण नहीं है । चारित्र अष्ट सीझेंगे-सिद्ध होंगे ! दर्शनभ्रष्ट नहीं सीझेंगे-सिद्ध नहीं होंगे।"
जैनाचार्योने एक सम्यक्त्वीका यह कर्तव्य ही निर्धारित किया है कि यदि कोई व्यक्ति अपने पदसे भ्रष्ट हुआ हो तो उसे पुनः उस पद पर स्थापित करे । 'पंचाध्यायी' में यही कहा गया है:
'सुस्थितीकरण नाम परेषां सदनुमहात् । भ्रष्टानां स्वपदाचत्र स्थापनं तत्पदे पुनः ८.३॥
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११ ।
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अर्थात्-" दूसरों पर सत् अनुग्रह करना ही पर-स्थितिकरण
-
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| ब्रह अनुग्रह यही है कि जो अपने पदसे भ्रष्ट हो चुके हैं, बन्हें उसी पदमें फिर स्थापित कर देना।' इस विषय श्री सोमदेवाला विन उपदेश खास ध्यान देने योग्य है :नबैः संदिग्धनिर्वाहैर्विदध्याद् गणवर्धनम् । एकदोषको त्यान्यः सत्यः कथं नमः ॥ यहः समग्रकार्यार्थी नानापंचजनाश्रयः । अतः संबोध्य यो यत्र योग्यस्तं तत्र योजयेत् ॥ उपेक्षायां तु जावेत तत्वाद दूरतसे नरः । तवस्तस्य भवो दीर्घः समयोऽपि च हीयते ॥'
अर्थात्-" ऐसे ऐसे नवीन मनुष्योंसे अपनी जातिकी समूह वृद्धि करनी चाहिये जो संदिग्ध निर्वाह है-यानी जिनके विषयमे यह सन्देह है कि वे जातिके आचार विचारका यथेष्ठ पालन कर सकेंगे । ( और जब यह बात है तब ) किसी एक दोषके कारण कोई नर जातिसे बहिष्कार के योग्य कैसे होसकता है ? चूंकि जैन सिद्धान्ताचार विषयक धर्मकार्योका प्रयोजन नाना पंचजनोंके आश्रित
-उनके सहयोग से सिद्ध होता है । अत. समझाकर जो जिस कामके योग्य हो उसको उसमें लगाना चाहिये - जातिसे पृथक् न करना चाहिये । यदि किसी दोषके कारण एक व्यक्तिकी उपेक्षा को जाती है-उसे जातिमें रखनेकी परवाह न करके जातिसे पृथक किया जाता है, तो उस अपेक्षा से वह मनुष्य तत्वके बहुत दूर जापड़ता है। वलसे दूर उड़ने का संसार बढ़ जाता है और
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पतितोद्धारक जैनधर्म। .......[ २३ धर्मकी भी क्षति होती है । अर्थात् समाजके साथ २ धर्मको भी भारी हानि उठानी पड़ती है । उसका यथेष्ट प्रचार और पालन नहीं हो पाता।" अतः पनित हुये मनुष्यको प्रायश्चित्त देकर पुनः धर्ममार्गमें लगाना श्रेष्ठ है। श्री जिनसेनाचार्यजी भी · आदिपुराण' (पर्व ४० श्लोक १६८-१६९.) में यही निरूपण करते हैं:"कुतश्चित्कारणाघस्य कुलं सम्माप्तदूषणं । सोपि राजादिसम्मत्या शोधयेत्स्वं यदा कुलम् ॥१६८॥ तदाऽस्योपनयाहत्वं पुत्रपौत्रादिसन्ततो। न निषिद्धं हि दीक्षा कुले चेदस्य पूर्वजाः ॥१६९॥"
भावार्थ-" किसी कारणमे किसी कुलमें दोष लगा होवे तो वह राजादिकी आज्ञामे अपना कुल शुद्ध करें तब उमके जिनदीक्षा ग्रहण करनेकी योग्यता आती है; क्योंकि उसका कुल दीक्षाके योग्य है। उसके पूर्वज साधु-मुनि हुए है । इसलिये जो सिरझे वहीं सिरझे. कुलनिषेध नहीं है । इन अच्छे कुलोंमें कदाचित् कोई भ्रष्ट हुआ हो-श्रावकके आचारसे रहित हुआ हो- उसके पुत्रपौत्रादिमें कोई जिनदीक्षा धारण करे तो योग्य है।" पतितावस्याकी अशुद्धिको मेंटने के लिये जैनसाहित्यमें प्राय
श्चित्त ग्रंथों की रचना की गई है। उनमें मुनि प्रायश्चि ग्रन्थोंका हत्यारे जैसे महान पापीको भी शुद्ध करकेविधान। उसको विशेष रूपमें व्रत-उपवास आदि
कराकर रुतपापका दोष निवारण करके उसके पूर्वपद (भावक या मुनिपद) पर स्थापित करने तकका विधान
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२४] पतितोद्धारक अनधर्म। मिलता है।' 'प्रायश्चित्त समुच्च' नामक शास्त्र में स्पष्ट लिखा है कि
" आगाहकारणे कश्चिन्छेवाशुद्धोऽपि शुद्धयति "
अर्थात् - " देव, मनुष्य, नियंच या अचेतनकृत उपमर्गवश या व्याधिवश दोष मेवन कर लेने पर रोष असरकारी अमानुवीची
और अयानमेवी पदोंकर अशुद्ध होते हुए भी कोई पुरुष शुद्ध हो जाता है । भावार्थ -वह उम दोष योग्य लघु प्रायश्चित्तको ग्रहण कर शुद्ध होता है ।" प्रायश्चित्तके विना चाग्विधर्मका यथाविधि पालन दोना अशक्य है। इसीलिये कहा गया है कि - • प्रायश्चित्तेऽसति स्यान्न चास्त्रि तद्विना पुनः । न तीर्थ न विना तीर्थानिवृत्तिम्तद् वृथा व्रतं ॥ ५॥"
-प्रायश्चित्तसमुच्चय । अर्थ-" प्रायश्चित्तके अभावमें चारित्र नहीं है। चारित्रके अभावमें धर्म नहीं है, और धर्म के अभावमें मोक्षकी प्राप्ति नहीं है। इसलिये व्रत धारण करना व्यर्थ है :" बनधर्ममा ग्रहण कग्ना तब ही सार्थक है जब कृत दापोंके लिय प्रायश्चित्त लिये और दिये जाने की व्यवस्था हो-पतितोद्धारकी विधिका निर्वाध पालन किया जाता हो । इसीलिये कहा गया है कि महान पतित-नीचमे नीच कहा जानवाला मनुष्य भी इमे धारण करके इमी लोकमें अति उच्च बन सकता है।
१-प्रायश्चित्त समुच्चय, श्लोक १३९ । पृष्ठ २०६) २-'यो लोके त्वानत: सोऽतिहीनोऽप्यतिगुरुर्यतः । बालोऽपि त्वाश्रितं नौति को नो नीतिपुरुः कुर: ॥८२॥'
-जिनशतके, ममन्तभद्रः ।
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पतितोद्धारक जैनधर्म |
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कुछ लोगोंका खयाल है कि धर्मको ऊपर के तीन वर्ण-ब्राह्मण,
क्षत्रिय, वैश्य ही धारण कर सक्ते हैं । शूद्रादि भी धर्मका पालन शूद्र और चांडाल तथा म्लेच्छ उसको कर सक्ते हैं ! धारण करनेके अधिकारी नहीं हैं, किंतु
उनकी यह मान्यता निराधार है। जैन धर्म में जातिगत उच्चता-नीचताको कोई स्थान नहीं है, यह पहले ही लिखा जा चुका है। फिर भी उक्त विचारकी निस्सारता प्रकट करनेके लिये शूद्रादिको धर्माराधनाका स्पष्ट आज्ञाप्रधान करनेवाले शास्त्रोल्लेख हम यहा उपस्थित करते हैं। देखिये, 'नीति वाक्या'मृत' में श्री सोमदेवाचार्य लिखते है कि :--
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“आचाराऽनवद्यत्वं शुचिरूपस्कारः शरीरशुद्धिश्व करोवि शूद्रानपि देवद्विजातितपस्विपरिकर्मसु योग्यान् । ”
अर्थात् -" मद्य मासादिकके त्यागरूप आचारकी निर्दोषता, गृह पात्रादिककी पवित्रता और नित्य स्नानादिके द्वारा शरीर शुद्धिये तीनों प्रवृत्तियां शूद्रोंको भी देव, द्विजाति और तपस्वियोंके परिकमके योग्य बना देती है । " श्री पंडितप्रबर आशाधरजी इस विषयको और भी स्पष्ट करते हुए लिखते हैं:'शूद्रोऽप्युपस्कराचारवपुः शुध्याऽस्तु तादृशः । जात्या हीनोऽपि कालादिलब्धौ यात्मास्ति धर्ममाक || २|२२||
सभी मृत । उपकरण जिसके शुद्ध चरण पवित्र हो और नित्य
अर्थात् - "आसन और बर्तन
हो, मद्यमांसादिके त्यागले जिसका
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परिवार धर्म |
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२६ ]
स्नानादि द्वारा जिसका शरीर शुद्ध रहता हो, ऐसा शूद्र भी ज्ञानादिक वर्णोंके सदृश धर्मका पालन करनेके योग्य है; क्योंकि जाति से हीन आत्मा भी कालादिक लब्धिको पाकर जैन अधिकारी होता है इस प्रकार संघके स्वास्थ्यकी रक्षा और परिपूर्णता के लिये बाबा शुद्धिका न्यान रखकर शूद्रादिको धर्मपालनेका अधिकारी शास्त्रोंमें ठहराया गया है। वैसे शरीर - पूजाके लिये जैन धर्ममें कोई स्थान नहीं है-जैनत्व तो गुण-पूजाके आश्रय टिका हुआ है। इसलिये श्री समन्तभद्राचार्य कहते हैं कि :-- "स्वभावतोऽशुचौ काये रत्नत्रयपवित्रिते । निर्जुगुप्सा गुणप्रीतिर्मता निर्विचिकित्सिता ।।"
भावार्थ-" शरीर तो स्वभावसे अपवित्र है ( उसमें पवित्रता देखना भूल है ) उसकी पवित्रता तो रत्नत्रय अर्थात स धर्मसे है। इस लिए किसी भी शरीरसे वृणा न करमें गुण-धर्म में प्रेम रखना चाहिए, यह निर्विचिकित्सता है, " जिसका पालन करना प्रत्येक बैनीक लिए अनिवार्य है ।
शूद्रादि जातिके लोग भी यथाविधि जिनेन्द्र पूजन, शास्त्रस्वाध्याय और दान देकर पुण्य संचय कर सक्ते हैं। श्री धर्मसंग्रह आवकचार' में लिखा है:
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'यजनं याजनं कर्माऽध्ययनाध्यापने तथा ।
दानं प्रतिगृह्येति षट्कर्माणि द्विजन्मनाम् ॥ २२५ ॥ यजनाऽध्ययने दानं परेषां त्रीणि ते पुनः ।'
अर्थात् -' ब्राह्मणके पूजन करना, पूजन कराना, पढ़ना, पढ़ाना,
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दान देना और दान लेना, ये छह कर्म हैं। शेष क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र - इन तीन वर्णोंके पूजन करना, पढ़ना और दान देना; ये तीन कर्म हैं ?' 'भावसंग्रह' पूजासार आदि अनेक प्रन्थोंमें शोंके
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२७१
इन अधिकारोंका उल्लेख है। प्रत्युत 'सारत्रय' के टीकाकार श्री जमसेनाचार्य तो सच्छूद्रको मुनि दीक्षाका भी अधिकारी बतलाते हैं।" श्वेतांबरीय शास्त्रों में चाण्डाल और म्लेच्छों तकको मुनि होने देनेका विधान है । दिगम्बर शास्त्र भी म्लेच्छों की कुल शुद्धि करके उन्हें अपने में सिहा लेने तथा मुनिदीक्षा आदिके द्वारा ऊपर उठानेकी आज्ञा देते हैं । महान सिद्धात ग्रंथ जमधनल " में यह उल्लेख निम्नप्रकार है..
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जड़ एवं कुदो तत्थ संजमग्गणसंभवोति णा संकणिज्जं । दिसा विजयपयद्धचक्क वट्टिसंधावारेण सह मज्झिमखण्डमागयाणं मिलेचयाणं तत्थ चक्षट्टि आदिहिं सह जादवेा हियसम्बन्धाणं संजमपडिबत्तीए विरोहाभावादो || अहवा तत्तत्कन्यकानां चक्रवर्त्यादि परिणीतानां गर्भेषूत्पन्ना मातृपक्षापेक्षया स्वयमकर्मभूमिजा इलीह बिबक्षिता ततो न किंचिद्विप्रतिषिद्धं । तथाजातीयकानां दीक्षाई प्रतिषेघाभावादिति !" - जयधवल, आराकी प्रति पृ० ८२७ -८२८ ।
१ - [भावसंमडू (.......... ) पूजासार (हो० १७-१८) २ - ' एवं गुणविशिष्टपुरुषो जिनदीक्षाग्रहणयोग्यो भवति । यथायोग्यं सच्छूद्राद्यपि ' - प्रवचनसार तात्पर्यवृत्ति, पृ० ३०५ ।
३- 'सक्व खु दीसइ तवो विसेसो, न दीसह जाइ विसेसकोई । सोवागपुत इरिएससाई जस्सेरिसा इडि महाणुभाषा ॥ १२॥ -उत्तराध्ययन सूत्र
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२८) पतितोदारक जैनधर्म ।
__ म्लेच्छों-अनार्योंकी दीक्षायोग्यता, सकल संयम ग्रहणकी पात्रता और उनके साथ वैवाहिक संबंध आदिका ऐसा ही विधान संभवतः 'जयधवलके आधारसे ही 'लब्धिसार टीका' (गाथा १०३) में इस प्रकार है___म्लेच्छभूमिजमनुष्याणा सकलसंयमग्रहणं कथं भवतीति नाशं. कितव्यं ! दिग्विजयकाले चक्रवर्तिना सह आर्यखण्डमागतानां चक्रवादिभि. सह जातवैवाहिकसंबंधाना मंयमप्रतिपत्तेरविरोधात् । अथवा चक्रवर्त्यादिपरिणीताना गर्भवृत्पन्नस्य मातृपक्षापेक्षया म्लेच्छ. व्यपदेशभाजः संयमसंभवात् । तथाजातीयकाना दीक्षाईत्वे प्रनिषेधाभावात् ॥
अर्थात-" कोई यों कह सक्ता है कि म्लेच्छभूमिज मनुष्य मुनि कैसे होसक्ते है ? किन्तु यह शंका ठीक नहीं है। क्योंकि दिग्विजयके समय चक्रवर्तीके साथ आर्यखंडमें आए हुए म्लेच्छ राजाओंको संयमकी प्राप्ति में कोई विरोध नहीं होसक्ता । तात्पर्य यह है कि वे म्लेच्छभूमिमे आर्यखण्डमें आकर चक्रवर्ती आदिसे संबंधित होकर मुनि बन सकते है । दूसरी बात यह है कि चक्रवनींके द्वारा विवाही गई म्लेच्छकी कन्यासे उत्पन्न हुई संतान माताकी अपेक्षासे म्लेच्छ कही जासक्ती है और उसके मुनि होने में किसी भी प्रकारसे कोई निषेध नहीं होसक्ता।"
जैनधर्ममें गुण ही देखे जाते है-गुणों के सामने हीन जाति और अस्पृश्यता न कुछ है। यही कारण है कि धर्मको धारण करके कुत्ता देव होसकता और पापके कारण देव कुत्ता होसकता । जैना
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पतितोद्धारक जैन धर्म ।
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चार्य बताते है । (श्राऽपि देवोऽपि देवः श्वा जायते धर्मकिल्विषात् ) इसीलिये ऊंची मानी जानेवाली जातियों के मनुष्योंको चेतावनी देते हुये आचार्य कहते है :.
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'चाण्डालोsपि व्रतोपेतः पूजितः देवतादिभिः । तस्मादन्यैन विमाद्यैर्जातिगव विधीयते ॥ ३० ॥ '
अर्थात् - ' व्रतोंसे युक्त चाण्डाल भी देवों द्वारा पूजा गया है। इसलिये ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्योको अपनी जातिका गर्व नहीं करना चाहिये ।
किन्हीं का ऐसा भी भ्रम है कि लोक में जातिगत उच्चता और नीचता जीव के पूर्व संचित उच्च और नीच गोत्र कर्मका संक्रमण गोत्र कर्मके कारण है । इसलिये नीच गोत्र के होता है । उदयमें रहने के कारण नीच लोग धर्मधारण
करनेकी पात्रता नहीं रखते । किन्तु यहां वह भूलने है। जैन सिद्धातमें गोत्र कर्मका जो स्वरूप माना गया है, उससे यह बात बनती ही नहीं। देखिये, श्री अकलंकदेवजी 'रामवार्तिक' में ऊंच नीच गोत्रकी व्याख्या निम्नप्रकार करते है -
I
यस्योदयात् लोकपूजिनेषु कुलेषु जन्म तदुच्चैर्गोत्रम् | गर्हितेषु यत्कृतं तन्नीचैर्गोत्रम् ॥
गर्दितेषु दरिद्राऽप्रतिज्ञातदुःखाः कुलेषु यत्कृतं प्राणिनां जन्म तनीचैर्गोत्रं प्रयेतव्यम् ।
इससे प्रगट है कि जो जीब पूजित - प्रतिष्ठित कुलोंमें जन्म
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पतितारक मेमन लेते हैं वे उच्च गोत्री हैं और जो गर्हित अर्थात् दुःखी दरिद्री कुलमै उत्पन्न होते हैं, वे नीच गोत्री हैं। इस व्याख्या जानिके लिये कोई स्थान नहीं है ! क्योंकि लोक प्रचलित उंच नीचपन आचरणकी श्रेष्ठता और हीनतापर अवलंबित है। ब्राह्मण होकर भी कोई निध आचरणवाला, दीन दुःखी हो सकता है और एक शूद्र इसके प्रतिकूल प्रशस्त आचरणवाला सुखी देखनेको मिलता है। ___इमलिये ब्राह्मण होते हुए भी पहला नीच गोत्री और दूसरा शुद्र होनेपर भी उच्च गोत्री है। इसके अतिरिक्त यह बात भी नहीं है कि एक जीवके जन्मपर्यंत एक उच्च या नीच गोत्र कर्मका ही उदय रहे; बल्कि गोमट्टसार (कर्मकाण्ड ४२२१४२३) से स्पष्ट है कि गोत्र फर्ममें संक्रमण होता है अर्थात् नीच गोत्र कर्म उच्च गोत्र कर्मके रूपमें पलट जाता है। इसलिये गोत्रकर्मके कारण किसी जीवकोचाहे वह जातिसे कितना ही गर्हित क्यों न हो, धर्म धारण करनेमे वञ्चित नहीं किया जासकता । वर्तमानकालके प्रमिद्ध जैन पंडित और तत्वज्ञानी म्याद्वाद
वारिधि, वादिगजकेशरी स्व० श्री. पं० स्व०५० गोपालदासजीका गोपालदासनी बरैया भी उक्त प्रकार अभिमत । शूद्र और म्लेच्छों तकको धर्मका पालन
करनेके योग्य ठहराते है। देखिये, वह लिखते हैं कि 'ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य-इन तीनों वर्गों के वनस्पतिमोजी आर्य मुनिधर्म तथा मोक्षके अधिकारी है। म्लेच्छ और
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पतिकोतारक मार्ग शूद्र नहीं हैं (अर्थात् वे एकदम साधु नहीं होसह) परन्तु म्लेच्छों
और शुद्रोंके लिए भी सर्वथा मार्ग बन्द नहीं है क्योंकि उस जीवोंकी संकल्पी हिंसासे आजीविकाका त्याग करके कछ कालमें म्लेच्छ आर्य होसकता है और शूद्रकी आजीविकाके परिवर्तनसे शूद्र विज होसकता है. ..ब्राह्मणसे लेबर चाण्डाल और म्लेच्छतक अवत सम्यग्दृष्टि रूप चतुर्थ गुणस्थान के धारक ( जैनी गृहस्थ ) होसकने है। मासोपजीवी म्लेच्छ अपनी वृत्तिका परित्याग करके जिस वर्णकी आजीविका करेंगे, कुछ कालके पश्चात उस ही वर्णके आर्य होनावेंगे।" ( जैन हितैषी भा० ७ अंक ६) अस्तु । अब हम पाठकोंके सम्मुख ब्राह्मण और बौद्धोंक प्राचीन जैन
माहित्यसे ऐमे उल्लेख उपस्थित करते हैं, भारतीय साहित्य जैन- जिनसे जैन संघकी उपर्युल्लिखित उदारताका धर्मको पतितोद्धारक पोषण होता है। यदि प्रो० ए० चक्रवर्ती के प्रगट करते हैं। मतानुमार वैदिक साहित्य के प्रात्यों' को
जैनी माना जाय, तो 'अथर्ववेद के वर्णनसे स्पष्ट है कि प्राचीन कालमें जैन धर्मके अनुयायी हीन जातियोंके लोग भी होते थे।' हिन्दु ‘पद्मपुराण' से भी वही प्रगट होता है। उसके 'भूमिखण्ड ' (अ० ६६ ) में दिगम्बर जैन मुनिके द्वारा धर्मके स्वरूपका विवेचन कराते हुये यह भी कहलाया है कि:
१-अग्रेजी जनगनट, भा० २१:१० १६१६ "भ० पार्धनाथ" की प्रस्तावना।
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पतितोतारक जैनधर्म । " दयादानपरो नित्यं जीवमेव प्ररक्षयेत् , चाण्डालो वा स शूद्रो वा सवै ब्राह्मण उच्यते ।"
भावार्थ-"दयादानमें सदा तत्पर हो जीव मात्रकी रक्षा करनेवाला, चाहे वह चाण्डाल हो या शूद, वही जैन संघमें ब्राह्मण कहा गया है।" अर्थात् धर्मवृत्ति संयुक्त चाण्डाल और शूद भी उस समय जैनी होते थे। इसी तरह · पञ्चतन्त्र के मणिभद्र सेठवाले आख्यानमे प्रगट है कि एक नाईक यहा दिगम्बर जैनमुनि आहारके निमित्त पहुंचे थे। संभवतः नाई भोज्य शूद्रोंमें गिने गये है और पूर्व स्थापित शास्त्रीय मतानुसार उनके यहां जैन साधुआंका आहार लेना असङ्गत नहीं प्रतीत होगा।
बौद्धोके मज्झिमनिकाय (१-२-४)के 'दु खवखवन्ध-सुत्त में गौतम बुद्ध एक स्थल पर कहने है " निगंठो ' नो लोकमें रुद्र (=भयंकर) खून- रंगे-हाथवाले, ऋर-कर्मा, मनुष्योमें नीच जातिवाले हैं वह निगडोंमें साधु बनते हैं !" 'थेरीगाथा में पति-हत्या. करनेवाली कुन्दलकेशाको जन संघमें आर्यिकाकी दीक्षा लेकर केशलोचन करने लिखा है। 'मिलिन्द एण्ह' में वर्णन है कि पाचसौ योङ्का (यूनानी) भगवान महावीरकी शरणमें पहुंचे थे। इन उल्लेखोसे भी जैन धर्ममे उच्च-नीच मबही प्रकारके मनुष्योको स्थान मिलनेकी बातका ममर्थन होता है।
१-पञ्चतत्र ( निर्णयसागर प्रेमावृत्ति १९०२) तंत्र ५ । २-साम्स आव० दी सिष्टर्स, पृ० ६३ । ३-मिलिन्दपणह S. B.E. Vol. XXXV पृ०८।
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पतितोद्धारक जैनधर्म |
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ऐतिहासिक उल्लेख भी ऐसे अनेक मिलते हैं जो उपरोक्त
व्याख्याकी पुष्टिमें अकाट्य प्रमाण हैं ।
पर उकेरे हुये शब्द - हजार वर्ष पहलेके, जैन
asnawanens
जैनधर्मको पतितोद्धारक पत्थर और नावे बताने वाले ऐतिहासिक सो भी करीब दो
प्रमाण
धर्मकी उदारताको पुकार पुकार कर कह रहे हैं। मिन्दर महानको तक्षशिलाके
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पास कई दिगम्बर मुनि मिले थे। अपने दूत ओनेसिक्रिटस ( Onesieritus ) को सिकन्दरने उनके पास हाल-चाल लेने भेजा श्रा। यूनानी इतिहासवेत्ता प्लूटार्क (Plutaroh ) कहता है कि दिगम्बर मुनि कल्याणने उससे दिगम्बर होने के लिये कहा था। मुनि कल्याण मिकन्दर के साथ ईरान तक गये थे । अथेन्सनगर ( यनान ) के एक लेख से प्रगट है कि वहा पर एक श्रमणाचार्यका समाधि स्थान था, जो भृगुकच्छ से वहा पहुंचे थे। उन्होंने यूनानियोको अवश्य ही जैन धर्ममें दीक्षित किया प्रतीत होता है। दक्षिण भारत में कुरुम्ब लोग शिकारी और मासमक्षी असभ्य मनुष्य ये, जैनाचार्यने उन्हें जैनी बनाकर सभ्य कर दिया। आखिर वह जैन धर्म कट्टर रक्षक हुये और धर्मरक्षा के भावमे शैवों में उन्होंने कईवार लड़ाईया लड़ीं। यदि इन असभ्योंसे जैनाचार्य घृणा करने तो उनके द्वारा जैन धर्मका उत् कैसे होता ? शक जातिके शासक
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१ - जर्नल ऑव दी गॅयल ऐगि गटिक सोसायटी, भा० ९१०२३२ स्ट्रंबो, ऐन्शियेन्ट इंडिया पृ० १६७ । २ - इंडियन हिस्टॉरिकल काटेल, मा० २पृ० २९३ । ३-ऑरीजिनल इन्हें बीटेन्ट ऑफ भारतवर्ष पृ० ९३ ।
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३४] पतितोद्धारक जैनामर्म । छत्रप, नहपान और रुद्रसिंह भी जैन धर्म में दीक्षित किये गये थे। एक समय अरन, ईरान, अफगानिस्तान आदि देशोंमें दि० जैन मुनियोंका विहार होता था । और वहाके यवनादि जातिके मनुष्य जैनी थे। श्रवणबेलगोलके म्व० पण्डिताचार्यजीने दक्षिणके जैनियोंमें कितनोहीको अरब देशसे आया हुआ बताया था। यह तो हुये थोडसे ऐतिहासिक उदाहरण । _अब जरा शिलालेखीय साक्षीको भी दृष्टिगत कीजिये । मथुराके कंकालीटीलासे प्राप्त कुशनकाल - आजसे लगभग दो हजार वर्ष पहले-के जैन पुरातत्वसे प्रकट है कि वहाकी अनेक मूर्तिया नीच जातिके लोगोंने निर्माण कराई थीं। नर्तकी शिवयशा द्वारा निर्मित आयागफ्ट पर जैनस्तूप बना है और लेख है कि -
"नमो अईनानं फगुयशस नतकस भयाये शिवयशा ....इ . आ ..आ....काये आयागपटो कारितो अरहत पूजाये।" __अनुवाद-“ अतों को नमस्कार ! नर्तक फगुयशा (फल्गुयशस) की स्त्री शिवयशाने ....अर्हतोंकी पूजाके लिये आयागपट बनवाया।" (प्लेट नं० १२)
मथुराके होली दरवाजेसे मिले हुये स्तूपवाले आयागषट पर एक प्राकृत भाषाका लेख निम्न प्रकार है...
"नमो अईतो वर्धमानम आराये गणिकायं लोगशोभिकाये धितु शमण साविकाये नादाये गणिकाये वसु (ये ) आहेतो देविकुल,
१-संक्षिप्त जन इति:, भा०२ खड २ पृ० १९-२१ । २-जैन होस्ठल-गजीन । ३-ऐशि टिक रिमचंज, भा० ३ ० ६ ।
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पतितोदारक जैनधर्मः। भाषागसमा, प्रपाशिल (I)प (टो) पतिस्ट (1) पितो निगंवानं बह (ता) यतने स (हा) म (1) तरे भगिनिये चितरे पुत्रेण सर्वेन च परिजनेन महत् पूजाये।"
अनुवाद-" अर्हत् वर्द्धमानको नमस्कार! श्रमणोंकी भाविका मारायगणिका लोणशोभिका (लवणशोभिका) की पुत्री नादाय (नन्दायाः ) गणिका वसुने अपनी माता, पुत्री, पुत्र और अपने सर्व कुटुम्ब सहित अर्हत्का एक मंदिर, एक आयाग सभा, ताल (और ) एक शिला निग्रंथ अर्हतोंके पवित्र स्थान पर बनवाये।"
उपरोक्त दोनों शिलालेखोंसे 'नटी' और 'वेश्याओं' का जैन धर्ममें गाढ़ श्रद्धान और भक्ति प्रगट होती है। वे एक भक्तवत्सल जैनीकी भांति जिन मंदिरादि बनवाती मिलती हैं । मथुरा जैन पुरातत्वकी दो जिन मूर्तियोंसे प्रकट है कि ईस्वी० पूर्व सन् ३ में एक रंगरेजकी स्त्रीने और सन् २६ ई० में गंधी व्यासकी स्त्री जिनदासीने बहत् भगवानकी मूर्तिया बनवाई थीं।
प्रवणबेलगोलके एक शिलालेखमें एक सुनारने समाधि मरण करनेका उल्लेख है।' वहींके एक अन्य शिलालेखमें आर्यिका श्रीमती
और उनकी शिष्यामानकव्वेका वर्णन है। शिलालेखमें दोनों नामोंके साथ 'गणित' (Ganti) शब्द आया; जिससे प्रो० एस० आर० शर्मा इन आर्यिकाओंको 'गाणिग' अर्थात् तेली जातिकी बताने हैं। विजयनगरमें एक तेलिनका बनवाया हुआ जिनमंदिर " गाणगित्ति
१-पीग्रेफिया इंडिका, ११३८४१२-जर्नल मार दीरॉयक ऐशियाटिक सोसायटी भा०९ पृ०१८४।३-मद्रास-मैसूरके प्राचीन जैन स्मारक ।
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पतितोलारक जैनधर्म। जिन भवन " नामसे प्रसिद्ध है । चालुक्य वंशी राजा अम्म द्वितीयके कलचुम्बाके दानपत्रसे पता चलता है कि चामेक वेश्या जैन धर्मकी परम उपासिका थी। दानपत्रमें उसे राजाकी अनन्यतम प्रियतमा और वेश्याओंके मुखसरोजोंके लिये सूर्य तथा जैन सिद्धांतसागरको पूर्ण प्रवाहित करनेके लिये चन्द्रमा समान लिखा है। वह बड़ी विदुषी भी थी। सर्वलोकाश्रय जिनभवनके लिये उसने मूल. संपके अट्टकलि गच्छीय मुनि अर्हनन्दिको दान दिया था, जिससे उसकी खूब प्रशंसा हुई थी। ये ऐतिहासिक उदाहरण जैन धर्मको स्पष्टतया पतितोद्धारक घोषित करते हैं ! जैनधर्मका पालन प्रत्येक देश, प्रत्येक जाति और प्रत्येक
परिस्थितिका मनुष्य कर सकता है। चाहे उपसंहार। कोई आर्य हो या अनार्य, सदाचारी हो या
दुराचारी, पुण्यात्मा हो या पापात्मा-वह इस धर्मका पालन कर अपनेको जगत् पुज्य बना सक्ता है। लोकमान्य मर्यादाके नाश होनेका भय यहांपर वृथा है; क्योकि लोक मर्यादा-खानपानादिकी छुआछूतका विधान धर्मके आश्रित है। भौर जब धर्मका पालनेवाला हर कोई होगा तो वह प्राकृत सङ्गत है कि लोकमर्यादाकी भी अभिवृद्धि हो-खान-पान, असन-वसन आदिकी शुद्धि होना तब अनिवार्य होगा। जैन धर्मको धारण करके अनेक पतित जीव गतकालमें अपना आत्मोत्कर्ष कर चुके हैं उनकी कुछ कथायें आगे दीजाती हैं:
१-पीफिया इंडिका, मा० ७ पृ० १८२ ।
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१ चाण्डाल-धर्मात्मा।
"न जातिर्गर्हिता काचिद् गुणाः कल्याणकारण। व्रतस्थमपि चाण्डालं तं देवा ब्रामणं विदुः॥
--श्री रविषेणाचार्यः
कथायें:
१. यमपाळ चाण्डाल। १. पहीद चण्ड चाण्डाल। १. चाण्डाली दुर्गन्धा । १. हरिकेश पल।
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यमपाल चाण्डाल।*
पोदनपुरके बाहर चाण्डालोंकी पल्ली थी। उन चाण्डालोंके सरदारका नाम यमपाल था। यमपाल अपनी कुल परम्परीण आजीविकामें निष्णात था। वह बिना किसी झिझक और सोच विचार के सैकड़ों आदमियों को तलवारके घाट उतार चुका था । यह उसका धंधा था और इस धंधेमें वह जलप्रवाहकी तरह वहा चला जा रहा था। उसने कभी क्षणभरको यह न सोचा कि वह महापाप कर रहा था। मचमुच वह महा पापी था। उसके हाथ ही नहीं हृदय भी खूनसे रंगा हुआ पूरा हिंस्र था। मनुष्योंको मारकर वह अपनी आजीविका चलाता था। आह ! कितनी भीषणता? यह उसे पता न था।
जीवन क्षणिक है-बिजलीकी चमक है। इस सत्यकी ओर यमपालका ध्यान कभी न गया ! और न उसने यह कभी सोचा कि जितना उसे अपना जीवन प्यारा है उतना ही प्रत्येक प्राणीको भी वह प्यारा है । कच्चे धागेसे बंधी हुई यमकी तलवार उसके सिरपर लटक रही है, यह उसने कभी न देखा । कोई दिखाता तो भी शायद वह न देख पाता ! किन्तु प्रकृतिको उसकी इस दशा पर दया आ गई-वह उसके साथ एक नटखटी कर बैठी।
- 'माराधना कथाकोष' तथा 'नकरण्ड श्रा०' संस्कृत टीकामें वर्णित कथाके माधारसे।
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४.] पतितोद्धारक भैनधर्म ।
यमपाल कहीं बाहर गया था। रास्ताकी थकान उतारने के लिये वह एक पेड़ तले जरा पड़ रहा । उसने पांव मीधे किये ही थे कि उसे एक जोरकी फुपकार सुनाई दी। वह झटमे उठा तो सही पर यमका घातक वार उस पर हो चुका था। पेड़की जडमें रहनेवाले काले नागने उसे डंस लिया था।
बेचारा यमपाल हक्का-बक्का हो-प्राण लेकर सीधा घरकी ओरको भागा । भागने हुये उसे एक ऋद्धिधारी जैन मुनि दिखाई दिये । यमपाल के पैर लड़खड़ा रहे थे । दयाकी मृतिन्वरूप उन साधुको पाकर वह उनके चरणों में जा गिरा। माधुको उमकी दशा समझनेमे देर न लगी। वे एक बड़े योगी थे और उनकी योगनिष्ठासे यमपालका सर्पविष दूर हो गया ! वह ऐसे उटा मानो सोने मे जाग गया हो । किन्तु साधु महाराजको देखकर उसे आपबीती सब याद आ गई। वह गद्गद होकर उनकी चरणरजमे अपने को पवित्र बनाने लगा। उसने जाना--यही तो उसके जीवनदाता हैं।
___ साधु अपना और पराया उपकार करना जानने है। उन साधु महाराजने यमपालको जीवनदान ही नहीं दिया बल्कि उसके जीवनको उन्होंने सुधार दिया। वह बोले- 'वत्स ! तुम कौन हो ? क्या करने हो ?' यमपालने मीधसे अपना हिंमरूप उन साधु महा. गज पर प्रकट कर दिया । उस पर साधु बोले-' अच्छा वत्स ! बताओ, क्या तुम्हें मरना प्रिय था ?'
चाण्डाल बोला-'नहीं, महाराज !' साधुने फिर कहा- यदि यही बात है यमपाल, तो जरा सोचो, दुसरेको मारनेका तुम्हें
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[ ४१
यमपाळ चाण्डाल । क्या अधिकार है ? क्या दुसरेको अपना जीवन
प्यारा नहीं है ?" यमपाल निरुत्तर था । उसके हृदय में विवेकने उथल-पुथल मचा दी थी। अब उसे होश आया था अपने भीषण कर्मका ! वह एकबार फिर साधु महाराजके चरणोंमें आगिरा और अपने नेत्रोंसे जलकी नदी बहाने लगा । साधुने उसे ढाढस बंधाया और मनुष्य कर्तव्यका उसे बोध कराया ।
111
यमपालने अपने कियेका परिशोध कर डालना निश्चित किया । वह बेचारा चाहता तो यह था कि मैं अब कभी किसीके प्राण न लूं, परन्तु राज आज्ञाके सन्मुख वह लाचार था । प्राचीनकालमें यह नियम था कि कोई भी मनुष्य अपनी आजीविका - वृत्ति विना राजाकी आज्ञाके बदल नहीं सकता था । यमपाल बेचारा चांडाल ! कौन उसे राजासे आज्ञा प्राप्त कराये और कैसे वह अपनी आजीविका बदले ! अपनी इस असमर्थताको देखकर उसने पर्व दिनोंपर हिंसा न करनेकी प्रतिज्ञा लेकर सन्तोषकी सांस ली ।
साधु महाराजके पैर पूजे और उनसे बिदाले यमपाल खुशी खुशी अपने घर गया । घरके लोगोंको उसने यह सारी घटना कह सुनाई ! वे सब ही सुनकर बड़े प्रसन्न हुए और साधु महाराजके उपकारने उनके हृदयों में क्रांति मचा दी । उनमें से भी किसी किसीने यमपालके समान अहिंसा व्रतको ग्रहण किया । प्रकृतिकी जरासी नटखटीने उनके जीवन बदल दिये। धर्मका बीज उनके हृदयमें बो दिया ! अब वह जीवनका ठीक मूल्य आंकने में समर्थ हुये, उनके हृदय शुद्ध होगये ।
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४२]
पतितोवारक जैनधर्म ।
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पोदनपुरके राजदरबारमें भीड़ लगी थी। मानब मेदनी महान थी वहा ! आज और किसीका नहीं बल्कि स्वयं राजाके इकलौते बेटे और सो भी युवराजके अपराधका न्याय किया जानेवाला था। न्यायाधीश थे स्वयं पोदनपुरके नरेश महाबल ! राजाने पूछा" राजकुमार ! तुमपर जो अपराध लगाया गया है, उसके विषय में क्या कहते हो ?" राजकुमार चुप था। इस चुप्पीने राजा महाबलकी कोषामिमें घीका काम किया। वह कड़क कर बोले कि-" चुप क्यों हो ? बोलते क्यों नहीं ? क्या तुमको मालम नहीं था कि अष्टाहिका पर्वमें हिंसा न करनेकी राजाज्ञा हुई थी ?"
राजकुमार लड़खड़ाते हुए बोला-" महाराज ! मालम थी।"
राजा.-"मालम थी ' फिर भी तुमने हिसा की ! रानाज्ञाका उल्लंघन किया ।"
राजकुमारका सिर अनायास हिल गया ! अपने इकलौते बेटे और राज्यके उत्तराधिकारीके इस तरह अपराध स्वीकार करनेपर भी राजा महावकका हृदय द्रवित न हुआ। उन्होंने राजकुमारको प्राणदण्डकी आज्ञा दे दी ! एक पशुके प्राणों के बदलेमें एक युवराजके प्राण ! सोना और मिट्टी जैसा अन्तर था उनमें। किन्तु एक पदार्थ-विज्ञानीके निकट सोना और मिट्टी एक ही खनिज पदार्थ है-दोनों ही मिट्टी हैं। संस्कारित होने पर उनके मूल्यमें भले ही अन्सर पड़े। इसी तरह जीवात्मा-मनुष्य और निर्या-सबका एक समान है। कर्म संस्कारके वशवर्ती हो-प्राणोंकी हीनाविकता के कारण
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यमपाल चाण्डा
[४३ उनके महत्वमें कमीवेशी होना दुसरी बात है। राजाको सव ही प्रकारके जीवोंके अधिकारोंकी रक्षा करना इष्ट था और सुखी जीवन विताना यह तो संसारमें प्रत्येक जीवका जन्मसुलभ प्रमुख अधिकार है। साम्यभाव इसीका नाम है। राजाने इसीलिये एक पशुके प्राणोंके घातका दंड युवरानके प्राण लेकर चुकाया । आह ! कितना महान् त्याग था उनका ! इकलौते बेटेको कर्तव्यकी बलिवेदी पर उत्सर्ग कर देनेका सत्साहस दर्शाकर न्याय और साम्यवादकी रक्षाके लिये सच्चे राजत्वका आदर्श उन्होंने उपस्थित किया । धन्य थे राजा महावल!
आर्य जगतमें प्रत्येक मासकी अष्टमी और चतुर्दशी पवित्र तिथिया मानी गई है। अज्ञात कालसे धर्मात्मा सजनवृन्द इन तिथियोंके दिन विशेषरूपमें धार्मिक अनुष्ठान करते आये हैं; जिसके कारण यह तिथियां धर्मसे खासी संस्कारित हुई हैं । यही इनके पुण्यरूप होनेका रहस्य है। अच्छा, तो उस दिन भी चतुर्दशी थी जिस दिन पोदनपुरके राजकुमार शूली पर चढ़ाये जानेको थे। निर्दयी यम उनके सामने खड़ा मुस्करा रहा था; परन्तु साथ ही उसके कर नेत्र यमपाल पर भी पड़ रहे थे। यमपालके सामने भी जीवन-मरणका प्रश्न उपस्थित था। चतुर्दशीका पवित्र विन-यमपाल अहिं. सावती-वह हत्या कैसे करे ? यदि वह राजकुमारको शुलीपर चढ़ाये तो उसका व्रत भङ्ग हुमा जाता है और यदि व्रतकी रक्षा वह करे तो राजाकी कोपामिमें उसे सशरीर भस्म होना पड़ेगा! बेचारा यमन
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४४] पक्तिोदारक जैनधर्म । पाल बड़ी द्विविधामें पड़ा था। आखिर उसे एक युक्ति सूझ गई। 'साप मरे और न लाठी टूटे' की बातको चरितार्थ करना उमे ठीक जंचा। क्योंकि न तो वह आत्मवञ्चना करके व्रतभर कर मक्ता था और न अपनेको खोकर कुटुम्बको अनाथ बना सकता था । यमपालके जीमें जी आया- उसने सन्तोषकी सांस ली ही थी कि बाहरसे आवाज आई-" यमपाल !"
आवाज सुनते ही यमपालने कानोंपर हाथ रख लिये । वह अपनी झोंपड़ीके पिछले कोनेमें जा छिपा । पर छिपनेके पहले अपनी पत्नीके कानमें न जाने क्या मंत्र फूंक गया। इतनेमें दरवाजेसे फिर आवाज माई । 'यमपाल ! ओरे, यमपाल !' यमपालकी स्त्रीने देखा कि राजाके सिपाही खड़े है । उसने धीरसे कहा- वे आज बाहिर गाव गये हैं। ____ यह सुनकर सिपाही बोला- तुम लोग हो ही अभागे ! जन्मभर आदमियोंकी हत्या करते वीता, फिर भी रहे रोटियोंको मुहताज ! देखती है री ! आज यमपालको तू रोक रखती तो मालामाल होजाती-पान राजकुमार शूलीपर चढ़ाये जायगे और उनके लाखों रुपयेके मूल्यवाले वस्त्राभूषण हत्यारेको मिलेंगे । पर कम्बख्त ! तेरा आदमी जाने कहां जा मरा !' ___लाखों रुपयोंके मिलनेकी बातने चाण्डालीको विहल कर दिया, वह लोभको संवरण न कर सकी। चुपकेसे उसने झोंपड़ीकी ओर इशारा कर दिया । रामाके सिपाहियोंने यमपालको ढूंढ़ निकाला और वे उसे मारते-पीटते राजदरबार लेगये ।
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समपाल पाण्डाल।
[४५ ___ यमपाल तो पहलेसे ही अपने व्रतपर दृढ़ था। कुटुम्बमोह उसे किंचित् शिथिल बना रहा था। किन्तु पत्नीके विश्वासघातने अब उसकी वह शिथिलता भी दूर करदी । वह निश्चय लेकर राजाके सम्मुख जा डटा । अब वह अभय था। अहिसाधर्म उसके रोम रोममें समा रहा था । सिपाहियोंने राजासे कहा
'सरकार ! यमपाल राजाज्ञाके अनुसार आज किसीको भी प्राणदण्ड देनेसे इनकार करनेकी धृष्टता कर रहा है ।'
___ " है ! उसकी इतनी हिम्मत ! यमपाल ! तू राजाज्ञाका उल्लंघन करनेका दुःसाहस करता है ? क्यों नहीं अपराधीको शूलीपर चढ़ाता ?'-राजाने कड़क कर कहा।
यमपाल बोला-'सरकार अन्नदाता हैं-सरकारका नमक मैंने खाया है-पर सरकार, मैं अपने व्रतको भङ्ग नहीं कर सक्ता ! सरकार, यह अधर्म मुझसे न होगा।' ___रा०--'चाण्डाल! क्या बकता है ? धर्मका मर्म तू क्या जाने ? नेरे लिये और कोई धर्म नहीं है । राजाकी आज्ञा पालना ही तेरा धर्म है ।"
यम०-'नाथ ! मैं अपने कर्मके कारण चाण्डाल हं अवश्य; पर वह सब कुछ पापी पेटके लिये करना पड़ता है ! पापी पेटकी ज्वाला शमन करनेके लिये किया गया काम, अन्नदाता, धर्म कैसा ?'
___ रा०-हैं-हैं ! धर्मका उपदेश देने चला है, बदमाश ! अपनी औकातको देख ! छोटे मुंह बड़ी बात ! याद रख, जिन्दा नहीं बचेगा !'
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४६ ]
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पतिवोक्षारक जैनधर्म । ____ यमपाल के भीतरका पुण्यतेज चमक रहा था-वह निशा था ! राजाके रोषका उसे जरा भी भय नहीं था। वह भी दर्पके साथ बोला-'राजन् ! धर्मासनपर बैठकर धर्मका उपहास मत करो। धर्म जाति और कुल, धनी और निर्यनी-कुछ भी नहीं देखता । सीर जैसी नगण्य वस्तुमें मोती उत्पन्न होता है ! धर्म-स्वातिकी बून्द मुनिमहाराजके अनुग्रहसे मुझे मिल गई है। मुझे सीप जैसा नगण्य लोक भले कहे, परन्तु निश्चय जानो, राजन् ! मेरे रोमरोममें धर्म समा रहा है ! मेरा वही सर्वस्व है ।
राजा आग बबूला होकर बोला-'अच्छा, तो रख अपने सर्वम्वको ! और चख अपनी धार्मिकताका फल-समुद्रके अनन्तगर्भमें विलीन होकर !'
चाण्डाल उद्वेगमें-आत्मावेशमें था । बड़े दर्पसे उसने कहा"तैयार हूं अपने धर्मका मजा चखनेको । पर राजन् ! एक बार सोच तो सही ! चाण्डाल कर्म-मनुष्य मारना, मेरा धर्म कैसे है ? उसके करनेके कारण ही तो लोग मुझे नीच और घृणा योग्य समझते हैं । क्या धर्म करनेसे कोई नीच और घृणित होता है ? फिर धर्म सबके लिये एकसा है। यदि चाण्डालकर्म धर्म है, तो वह सबके लिये एकसा होना चाहिये । फिर उस कर्मको चाण्डालोंतक ही क्यों सीमित रक्खा जाय ?....
राजा-'चुप रह-बक मत! यह ढीठता ! सिपाहियो ! लेजाओ इसे और पटकदो समुद्र में राजकुमार के साथ इसको भी! राजाज्ञाका उल्लंघन नहीं होसक्ता।
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बममा चापाला
[४७
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· विश्वासो फलदायकः '-विश्वास कहो या अटल निश्चय मीठा फल अवश्य देता है। इसका एक कारण है। आत्मामें अनंत शक्ति है । उस शक्ति पर विश्वास यदि लाया जाय, तो उसका प्रकाशमान होना अवश्यम्भावी है। जैसा मन होगा वैसा ही होगा कार्य । मनका अटल निश्चय सुमेरुको भी हिला देता है। यमपालका आत्मविश्वाम ऐसा ही चमत्कारी सिद्ध हुआ । सिपाहियोंने राजकुमारके साथ उसके हाथ-पैर बांध कर समुद्रमें फेंक दिया । किन्तु इस पर भी वे अपने पुण्य प्रतापसे जीवित निकल आये । लोगोंने उनको जीवित देखकर निश्चय किया कि 'यमपाल सचमुच धर्मात्मा है । यह उसके धर्मका ही प्रभाव है कि काल जैसे गंभीर समुद्रसे बचकर वह जीवित उभर आया ! चाण्डाल होकर भी उसने धर्मके लिये प्राणोंकी बाजी लगा दी । यमपाल सचमुच देवता है। आओ, उसका हार्दिक स्वागत करें।' और निस्सन्देह लोगोंने उसका अद्भुत स्वागत किया।
राजाने जब यह बात सुनी तो उसे भी कुछ होश आया । प्रजा एक स्वरमे जिसका आदर-सत्कार कर रही है, वह उपेक्षणीय कैसे ? राजाने अब विचार किया कि 'यमपाल चाण्डाल है नो क्या ? दया धर्म उसकी नस-नसमें समाया हुआ है। दया करनेसे ही मनुष्य जगत्पूज्य बनता है और हिंसा करनेसे वही लोक-निन्द्य पापी कहलाता है। मुझे भी यमपालका समुचित सत्कार करना चाहिये । वह धर्मात्मा श्रावक है।'
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४८] पतितोदारक जैनधर्म।
राजदरबारमें अपार जनसमुदाय एकत्रित था । राजसिहासन पर राजा महाबल बैठे हुये थे। पासमें ही यमपाल भी बैठा हुआ था। राजाने शांतिभंग करते हुये कहा-'सज्जनो ! लोकमें गुणोंकी पूजा होती है-जाति, कुल, ऐश्वर्यादिको कोई नहीं पूंछता । निर्गुणीको पूछे भी कौन ? लोकमें प्रसिद्धि और प्रतिष्ठा गुणों के कारण ही मनुष्य प्राप्त करता है । आज आपके सम्मुख यमपाल मौजूद है । चाण्डालोंके घर इन्होंने जन्म लिया अवश्य; परन्तु अपने आत्मधर्म-अहिंसाभावको प्रगट करके यह लोकमान्य हुये हैं । देवने इन्हें कालके मुखसे बचाकर मेरा और मेरे राज्यका उपकार किया है। यमपाल एक आदर्श श्रावक है और उनका आदर करना हमारा अहोसाग्य !' ___इतना कहकर राजा महाबलने यमपालका अपने हाथोंमे अभि षेक किया और उन्हें वस्त्राभूषणोंमे समलंकृतकर लोकमान्य बना दिया । धन्य है चाण्डाल यम् पाल, जो धर्मकी आराधना करके इस गौरवको प्राप्त हुये ! अपने धर्मके लिये उन्होने अपने प्राणोंको न्योछावर करनेकी ठानी। उनमे धर्म प्रकाशमान है-चाण्डाल थे वह तो क्या । उन्होन तो अपने आदर्शमे जाति सम्बन्धी उच्चता नीचताकी कल्पनाओंको धर श यी बना दिया । मिथ्यादृष्टी जातिको शाश्वत् माननेकी कल्पनाके विरुद्ध प्रत्यक्ष प्रमाण पाकर भले ही कुढ़ें, पर यमपाल स्वयं ही उनके सिद्धान्तका खण्डन है ! धर्मका यही महत्व है।
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अमर शहीद पाण्डाल चण्ड ।
पुष्कलावतीदेशमें पुण्डरीकिणी नामकी एक नगरी थी। गुण. पाल उम देशका राजा था। राज्य करने हुये उसे बहुत दिन होगये थे । बाल उसके पक गये थे। उसका सपूत बेटा बसुपाल भी स्याना होगया था। गुणपालने मोचा कि राज्यभार वसुपालके सुपुर्द करूं
और मैं कुछ अपनी आत्माका भी हित कर लू । राजगट तो खून किया, अब आखिरी वक्त तो सुधार लं।' गुणपाल यही सोच रहा था कि उसके बनपालने आकर उसके सम्मुख मम्तक नवा दिया। राजाने पूछा- वत्स ! क्या समाचार है ? "
वनपालने उत्तर दिया--' महाराज ! जो पानमे एक पोधन श्रमण महात्मा पधारे है । वे महान योगी है।'
वनपाल के मुखसे अपने मन चेनं मम चार सुनकर राना गुणपाल को बडी प्रपन्नता हुई। उन्होंने वनप को खूब इनाम देकर विदा किया और स्वय उन साधु महात्म की वन्दना करने के लिये व चर पड़े।
नम-दिगम्बर साधु महाराज के दर्शन करके राजा गुणालने अपने भाग्यको सराहा । सचमुच साधु महाराजका भात्मतेज उनके मुखपर छिटक रहा था। जो मनमें होता है, वह मुंह पर चमकता ही है । वह योगी थे। योगीका योग-आत्माका प्रभाव उनके मुखसे ___x पुण्याला याकोष पृ० २२८.और बाराधना कथा कोषमें वर्णित कथाके लाधारसे।
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पतितोद्धारक
धर्म ।
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क्यों न प्रकट होता राजा उनके चरणोंमें बैठ कर धर्मामृत पान करनेके लिये उनकी ओर निहारने लगा ।
५० ]
किन्तु यह क्या ? माधु महाराज तो उनकी ओर देख भी नहीं रहे थे । राजाको आश्चर्य हुआ । आखिर बात क्या है ? माधुकी - दृष्टिके साथ राजाने भी अपनी दृष्टि दौड़ाई। उन्होंने देखा वहां एक तिलकधारी द्विज एक दीन मानवको ठोक रहे है । चिल्लाहट में उन्होंने सुना भी कि 'देखो, कम्बख्त अछूत चाण्डाल कहा आमग-द्विजोंकी समामें इसका क्या काम पीटो-मागे - भगाओ यहां से सालेको !” राजाको परिस्थिति समझने में देर न लगो । उनका इशारा पाने ही सियोन उन झगडालुओं को जा पकडा । राजाने सामने वे दोनों लाकर उपस्थित किये गये ।
झगड़ालुओंमें एक नंग-धडंग काला-कलूटा भयानक आहतिका मनुष्य था । राजाने देखते ही उसे पहचान लिया । वह शाही जल्लाद था । लोग उसे चाण्डालचड कहते थे । राजाके सामने बेचारा थर-थर काप रहा था। दुसरा गोरा-पीला तिलकधारी एक द्विजपुत्र था । राजाने कहा- 'चण्ड ! तुम्हारी यह शरारत !"
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चण्ड पर मनोगत हुआ। वह कुछ बोले ही कि द्विजपुत्र दाल भातमें मुमरचंदकी तरह बात काट कर आ धमका। वह बोला'देखिये न इमनीचकी धृष्टता ! यह महान् अछूत और इसकी यह हिमाकन- ब्राह्मणोंकी बराबरी करने चला है। धर्म सभ में आया है बदमाश ।' द्विजपुत्रका यह जातिमद देखकर हितोपदेशी वह साधु महाराज बोले-'वत्स ! क्या कहा ? धर्ममें जातिगत उच्च ना नीचता कैसी ?' ब्रह्मण सिटपिटा गया और उसमें बोला- 'महात्मन् ! लोक में
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MAHARAmmausionaomausHOTamananSUBamariounismatamaraansmiteIBABIRIRIDUMINI
अमर शहीद चाण्डाल चट। हमने यही सुना है कि चाण्डाल शूद्रोंसे भी गये बीते होते हैं। उनकी छाया भी अपने पर नहीं पड़ने देना चाहिये ।'
साधु०- द्विजपुत्र ! तुमने ठीक सुना है; किन्तु इसका मर्थ यह नहीं है कि चाण्डालों के साथ करताका व्यवहार किया जाय । जानते हो कि उनकी संगति क्यों नहीं करना चाहिये ? '
द्विज --- महाराज ! चाण्डाल महान् हत्यारे होने हैं। हत्यारोंकी संगति अच्छी नहीं होती।'
साधु- ठीक है। पर सोचो तो। यदि कोई ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य हत्यारा है तो क्या तुम उमे नहीं छूते ? उससे दुनिया. दारीका व्यवहार नहीं रखने ? '
द्विन०-' महाराज ! वह हत्याग, चाण्डाल नहीं है, इसलिये वह अछूत नहीं है। हम-सब उसके साथ उठने बैठने खाने-पीते है।'
साधु महारान मुस्कगते हुये बोले कि । मोचो जरा, जब हत्या करनेके कारण चाण्डाल अछूत है तर वैमा ही हिला कर्म करते हुये ब्राह्मण-क्षत्रियादि क्यों नहीं - क्या हिसा जनित पापके कारण वे दुर्गतिको नहीं जायगे?'
द्विज हिंसा करना पाप है और पाका परिणाम दुर्गति है महाराज !'
साधु०-' वत्स ! तो फिर जानिका अभिमान क्यों करते हो? मंसारमें कोई वस्तु नित्य नहीं है। जानि-कुल भी संसारकी चीज है। आत्मामें न नाति है न कुल है, और न वर्ण है। वह एक विशुद्ध अद्वितीय द्रव्य है। धर्मका सम्बन्ध आत्मामे है और आत्मा प्रत्येक पाणीमें मौजूद है । तब भला कहो, धर्म वामण-चाण्डालका भेद
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पविवोद्धारक जैनधर्म
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कैसा ? धर्म ब्राह्मणके लिये है और एक चाण्डालके लिये भी है । हिंसी-बोरी-असत्य - कुशील आदि पापोंमें लिप्त होकर एक ब्राह्मण चाण्डालसे भी गया बीता हो सकता है और एक चाण्डाल हिंसा - सत्य - शीळ आदि धर्मगुणोंको धारण करके जगतपूज्य बन जाती है । इसलिये एक ब्राह्मणको तो जीव मात्र पर दया करनी चाहिये । शरीरकी बाहरी अशुचिको देखकर वह कैसे किसीसे घृणा करेगा ? सखा ब्राह्मण जानता है कि शरीर तो जड़से ही अशुचिताका घर है - मैलका थैला है। इस गरीब चण्डको तुमने व्यर्थ ही मारा-पीटा। समझाओ इसे धर्मका स्वरूप और करने दो इसे अपनी आत्माका कल्याण |
"
गुरूमहाराजके इस धर्मोपदेशका प्रभाव उपस्थित मण्डली पर खूब ही पड़ा । राजा गुणपालका चोला वैराग्यके गाढ़े रंगसे खूब रंग गया था । उन्हें संमार में एक घड़ीभर रहना दूभर होगया। अपने पुत्र वसुपालको उन्होंने राजपाट सौंग और वह स्वयं उन नुनिराजके निकट मुनि होगये । राजाके इस त्यागका प्रभाव अन्य लोगों पर भी पड़ा। उन्होंने भी यथाशक्ति व्रत ग्रहण किया । चण्डका हृदय भी करुणा से भीज रहा था । साधु म०के पैरों पर वह गिर कर बोला-' नाथ ! मुझ दीनको भी उबारिये ।
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कहना न होगा कि साधु महाराजके निकट चण्डने अहिंसाव्रत ग्रहण कर लिया । उसने अब किसी भी जीबको न सतानेकी दृढ़ प्रतिज्ञा कर ली । पर्व दिनों पर वह उपवास भी करता था । शुद्ध-सादा जीवन वह व्यतीत करने लगा । वह पूरा धर्मात्मा हो गया । और उसके धर्मात्मापनेका प्रभाव उसके कुटुम्बियों पर भी
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अमर शहीद चाण्डाल चट।
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पड़ा । वे भी धर्मका महत्व जान गये । पशु जीवन व्यतीत करनेसे उन्हें भी घृणा हो गई । धन्य है जैन मुनि जिन्होंने चाण्डालोंको भी सन्मार्गमें लगाया।
“ सुनते हैं रंभाका रूप अद्वितीय है। पर यह तो लोग कहते हैं। किसीने आज तक रंभाको देखा भी है ? बाहरी दुनियां! खूब बेपरकी उड़ाया करती है। मेरी रंभाके सौन्दर्यको वह देखे ! कैसा सुन्दर है उसका मुखड़ा । बादलोंमें जैसे पूर्णमासीका चंद्रमा चमकता है, ठीक वैसी ही प्रभा मेरी प्रियतमाके मुख में देखनेको मिलती है । लोग गाते हैं बिन बादल बिजली कहां चमकी !' मैं कहता हूं उनसे, वह इसका उत्तर पानेके लिये मेरी रंमाको देखें । उसके उन्नत भाल पर सोनेकी बिन्दी गजब ढाती है । भौर हां, उसकी नाक तो जरा देखो ! कैसी नुकीली है ! भौहें कमानकी तरह सीधी कानों तक तनी चली गई हैं। और उसकी चितवन सचमुच बिजलीका काम करती है । उसका हंसना मुझपर फूल बरसा देता है, मेरा दिल उसको देखते ही बाग-बाग हो जाता है।
किन आज कई दिनसे वह उदास है। उसके कुमलाये हुये मुखडेको देखते ही मुझ पर वज्रपात हुआ। मैं भूल गया अपने तन-मनको। बड़ी अनुनय-विनय करने पर कहीं उसने अपने मनकी बात कही। बड़ी लजीली है वह। लेकिन उसकी बात सुनकर में उलझनमें आ गिरा ई। राजाके यहांका एक सिपाही-स रुपल्लीका एक नौकर, भला कैसे राजा-महाराजाओंकी रीस करे.! उनके चार प्रवाह बहता है-चाहे कुछ खाये-पीय, पहने-ओहैं।
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मेरी उनकी निस्बत क्या ? लेकिन बात रंगाकी है ! उसको कैसे
हरगिज नहीं । मैं अपनी दूंगा-दिल दुःखना तो दूर
मनाऊं ? मेरे रहते उसे कष्ट होवे ? बिसात उसकी अंगली भी नहीं दुःखने रहा ! उस रोज उस नंगे भिखमंगे को देखकर वह डर गई । मैं यह कैसे देख सक्ता था । मैंने उस भिखमंगेका सर ही घड़से अलग कर दिया। मैं रंभाको अवश्य प्रसन करूंगा । राजा है तो क्या ? उसे मिलता तो धन प्रजामे ही है। वह बैठा-बैठा गुलछर्रे उड़ाये और हम मुंह ताका करें ! कहीं लड़ाई छिड़े तो जान हथेली पर धर कर लड़ने हम जायें और राजा सा० महलमें पडे-पडे मौज मारे ! यह नहीं होनेका ! मैं लाऊंगा राजाके गहने और पहनाऊंगा अपनी प्यारी रंभाको आजही लो यह मैं करके मानूंगा । "
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राजा बसुपालकी सेनाका एक मावुक सिपाही यह बैठा सोच रहा था । राजाके अंगरक्षकोंमें उसकी तैनाती हुई थी । वह जवान था और कामुक भी। अपनी प्रियतमाको प्रसन्न करनेके लिये उसने राजमहल में चोरी करनेकी ठानी। रात आते ही वह मौका पाकर महलोंमें जा घुसा और काखों रुपयेका माल बटोर कर अपनी प्रियतमाको उसने जा सौंपा। रंभा इस अपार धनको पाकर फूले अंब न समाई, किन्तु उसे यह न मालूम था कि यह पापका धन उसके जीवनाधारको ले बैठेगा ।
बात भी यही हुई। कोतवालने उसके यहांसे सारा धन बरामद किया | राज दरबारसे उसे फांसीका दण्ड मिला । इन्द्रिय वासनायें होनेका कटुफल उसे चखना पड़ा। अब रंभा भी पछताती थी और सिपाही भी, पर अब होता क्या ? चिड़ियां तो खेतको चुग गई थीं।
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अमर शहीद चाण्डाल चण्ड ।
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पुण्डरीकिणी नगर्गके बाहर एक छोटासा लाखका घर बनाया गया था। राजा वसुपालन शाही जल्लादको प्राणदण्डका मजा चखानेके लिये उसे बनवाया था । राजाके लिये उसकी आज्ञाका भर होना, महान् असम अपमान है। राजसत्ताका आधार ही राजाकी आज्ञा है । यदि कहीं उसका उल्लघन होने लगे तो राजा न कहींका होरहे। इसीलिये राजद्रोहीको प्राणदण्ड देना राजनीतिमें विधेय है। राज्यके इस नियम के सम्मुख धर्मनीति पङ्ग हो जाती है । राजा न्याय भन्याय पीछे देखता है; पहले तो वह अपनी आज्ञाकी पूर्ति चाहता है। गजा वसुगाल इस नियमका अपवाद कैसे होता ? उसका ही. जल्लाद उनकी आज्ञाका उलंघन करे, इससे अधिक गुरुतर अप. राध और क्या हो सक्ता है ? चण्डने अहिंसावत ग्रहण किया अवश्य था; किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि वह राज्य व्यबस्थामें अडंगा डाले । उसको प्राणदण्ड मिलना चाहिये । सचमुच अपने इस अदुत तर्कके बल पर राजा वसुपालने धर्मात्मा चण्डको प्राणदण्ड दे डाला था । चण्ड था तो चाण्डाल ही, परन्तु उसके भीतर का देवता जागृत होगया था। उसने अपनी पतिज्ञाके सामने अपने शरीरकी कुछ भी परवा नहीं की ! अपने प्राणों को देकर उसने व्रतरक्षाका मूल्य चुकाया।
रामा बसुपालने लाखके घरमें चोर सिपाहीके साथ चण्डको जला मारनेका हुक्म दे डाला। जल्लाद और सिपाही-दोनों ही उसमें पन्दथे। पण्डको प्राण जानेका भय नहीं था, बल्कि ब्रत
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रक्षा के भाव से उसके रोम-रोम से प्रसन्नता निकल रही थी । किन्तु
उसके साथी मुनि घातक और चोर सिपाहीका बुरा हाल था । वह अपनी जान जानेके भयमे विह्वल था । कुछ उसे चण्डका भी ध्यान आगया । वह चाण्डालसे बोला- भाई ! तू मुझे मारकर -सुखी क्यों नहीं होता? मैं तो मरूंगा ही तू नाहक अपनी - जान देता है ! "
चण्ड उसकी बात सुनकर हंस पड़ा। और उत्तर में उससे कहा- भाई ! मुझे भी अपनी जान प्यारी है और मैं उसे अपनी विसात जाने न देता | किन्तु मैं देखता हूँ कि उसका मोह करनेसे मेरी उससे भी अधिक मूल्यकी प्यारी वस्तु खोई जाती है । उसकी रक्षा मैं करूँगा। मरनेका मुझे जरा भी डर नहीं है ।"
सिपाही यह सुनकर चंड मुंडकी ओर ताकने लगा । उसकी इस विवशतापर चंड और भी हंसा । वह बोला -" अरे भोले ! तु अभी शरीर के मोहमें ही पड़ा है, जिसका मिलना दुर्लभ नहीं है । देख तू यह कुरता पहने है। यह फट जायगा । तू इसे फेंक देगा और दूसरा नया पहन लेगा । ठीक ऐसे ही हमारे भीतर के देवताआत्माराम का यह शरी चोला है - यह नष्ट होगा तो दूसरा नया मिलेगा | फिर इसके लिये चिंता किस बातकी ! हमें तो अपना कर्तव्य - अपना धर्म - पालन करना चाहिये ।"
सिगहीको अब कुछ होश आया | चंडको यह देखकर प्रस
अंता हुई। वह बोला-' माईं ! धर्मका माहात्म्य ऐसा ही है । धर्म किसी को कष्ट देना नहीं सिखाता। मैं अपना धर्म पागा । प्राणीकों
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समर बहीद बागील पाट ५७. मुझे परवा नहीं। मेरे अहिंसावत है। मैं स्वयं मर जाऊंगा, पर दुसरेको मारूंगा नहीं। अन्याय-अधर्मके सन्मुख कभी भी मस्तक नहीं नवाऊंगा । यही मेरे धर्मका अतिशय है !'
सिपाही चाण्डालके मुखसे धर्मका यह मार्मिक उपदेश सुनकर स्थंभित होरहा । उसने भी किसी जीवको अकारण कष्ट न पहुंचानेका नियम ले लिया। उसे अपनी आत्माके अमर-जीवन में विश्वास हो गया। चाण्डालके संसर्गसे उस 'कुलीन'के भी सम परिणाम हो मये । अब उन्हें मरनेका भय नहीं था। चाण्डालने 'कुलीन'का जीवन सुधार दिया ! मनीषी स्वयं तरते हैं और दूसरोंको तार देते हैं।
लाखका घर धू-धू करके जल रहा था । चण्ड उसमें निश्रक ध्यानारूढ़ बैठा हुआ था। आगके शौले उसके शरीरको जैसेजैसे भस्म करते थे वैसे-वैसे ही उसका आत्म तेज प्रकट होता था। वह महान् आत्मवीर था और धर्म-रक्षाके लिये अपने प्राणों की आहुति देकर सचमुच वह अमर शहीद हुआ! धन्य हो चण्ड ! तुम चांडाल थे तो क्या ? तुमने काम एक ब्राह्मणका कर दिखाया।
धर्मात्मा मनुष्योंने सुना कि चण्डने प्राण देदिये पर अपना धर्म न छोड़ा-वे दोड़े-दौड़े वहा आये जहां चण्डका शरीर अमिकी ज्वालाओंसे अठखेलिया कर रहा था। उन्होंन चाण्डाल चण्डके अन्तिम दर्शन पाकर अपनेको सराहा-उसपर फूल वर्षाये । भूक उन्होंने ही नहीं वर्षाये-विमानमें बैठे हुये देव-पुरुषोंने भी फूल - वर्षाकर चाण्डालकी आत्मदृढताका सम्मान किया ।
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पवितोदारक जैनपर्य। * उपरान्त लोगोंने किसी सर्वज्ञ-जीवन्मुक्त परमात्मासे सुना कि चण्ड स्वर्ग में देव हुआ है । यह उसकी धर्मपरायणताका मीठा फल था । जन्मका चाहाल भी अहिंसा धर्मका पालन करके स्वर्गका देवता हुमा जानकर लोगोंने जातिमदको एकदम छोड़ दियागुणोंकी उपासना करनेका महत्व उन्होंने जान लिया । गुण ही पूज्य है -गुणोंसे रह राव बनता है । गुणहीन कुलीनको कौन पूछे ?
कोगोंने यह भी देखा था कि चण्डका पुत्र अर्जुन भी उसीके सहश धर्म-वीर है। पिताको आगमें जलते हुये देखकर भी उसके मुंहसे न नो एक 'आह' निकली, और न आखसे एक आंसू टपका! उमका हृदय आत्मगौरवसे ओतप्रोत था । जैसा पिता वैसा ही उसका वह पुत्र था। अपने जीवनभर उमने अहिंसाधर्मका पूरा पालन किया था। वंशगत आजीविकाको--उदर धर्मको परमार्थके लिये छोड़ देनेका साहस उनही जैसे महान वीरमें था। पापी पेटके लिये तो न जाने कितने तिलकधारी धर्मका खून कर अलते है ।
और वे अपनेको चाण्डालमे श्रेष्ठ बतलाने का भी दम्भ करते नहीं हिचकते। अर्जुनने अपनी आजीविकाकी परवा नहीं की। उसका पिता चण्ड उसे यही तो स्वयं नमूना बनकर बता गया था। वह महिंसक वीर रहा और उसने अपने जीवनका अन्त भी एक वीरकी भाति किया । यह कायरोंकी तरह खाट पर नहीं मरा । पिताकी तरह उसने मी समाधिस्थ हो इस नश्वर शरीरको छोड़ा था और स्वर्ग जा देवता हुआ था।
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जन्मान्ध चाण्डाली दुर्गन्धा । ... [५९
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जन्मान्ध चाण्डाली दुर्गन्धा।।
पतितोद्धारक भगवान महावीर जैन तीर्थहरों में सर्व अन्तिम थे। आजसे लाभग ढाईहजार वर्ष पहले वह इस भारतभूमिको अपनी चरण-रजसे पवित्र कर रहे थे। मगधका राजा श्रेणिक बिम्बसार उनका समकालीन और अनन्य भक्त था। एक दफा भगवान महावीर विहार करते हुए मगधकी राजधानी राजगृहके निकट अवस्थित विपुलाचल पर्वतपर आ विराजमान हुये। राजा श्रेणिकने उनके शुमागमनकी बात सुनी । वह शीघ्र ही उत्साहपूर्वक प्रभ वीरकी वन्दनाके लिये गया। भगवान महावीरको नमस्कार करके वह उनके पादपद्मोंमें बैठकर चातककी भांति धर्मामृत पानेकी प्रतीक्षा करने लगा।
भगवानकी दीनोद्धारक वाणी खिरी। श्रेणिकको उसे सुनते हुये अमित आनन्दका अनुभव हुआ। उसे अब दृढ़ निश्चय होगया कि धर्म वह पवित्र वस्तु है जो अपवित्रको पवित्र और दीन-हीनको महान् लोकमान्य बना देता है। मनुष्य चाहे जिसप्रकार जीवन परिस्थितिमें हो, वह धर्मकी आराधना करके जीवनको समुन्नत बना सकता है-'वसुधैव कुटुम्बकम्' की नीतिका अनुसरण करके वह लोकप्रिय होता है । इस सत्यको जान करके श्रेणिकके मनमें यह जिज्ञासा हुई कि वस्तुतः क्या कोई दीन हीन धर्मकी शीतल छाया भाकर परमोत्कषको प्राप्त हुआ है ! उन्होंने भगवानसे अपनी शहा
x पुण्याश्रय कथाकोष पृ. १०९ व हरिवंशपुराण पृ. ४१८॥
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पतितोलरकन।
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निवेदन की और उत्तरमें उन्होंने सुना-"एक नहीं, अनेक उदाहरण इसतरहके जगतमें मिलने है।"
श्रेणिकने कहा-"प्रभू । मुझे मी एकाध सुना दीजिये।"
भगवानने उत्तर दिया- 'वत्स ' राजकुमार अभयके पूर्वमव तुमने सुने है। जातिमदमें मत्त वह किस तरह अपने एक पूर्वभवमें धर्मसे पराजमुख था । एक श्रावकने उसका यह जातिमदका नशा उतार फेंका था और उसे सुदृष्टि प्रदान की थी।"
श्रे०-"हा, नाथ । यह तो मैं सब सुन चुका है और मुझे जातिकुलकी निस्सारता खुब *च गई है। अब तो कौतूहलवश यह पूछ बैठा हूं।"
“श्रेणिक, तुम दृढ़ श्रद्धानी हो। तुम्हारा प्रश्न प्रशंसनीय है। माओ. सुनो, तुम्हें धमेक पतितोद्धार रूपके उदाहरण बतायें ?"
श्रेणिकके प्रश्नके उत्ता में सर्वज्ञ प्रभू महावीरकी को वाणी खिरी उसे सब ही उपस्थित जीवोंने प्रसन्नचित्त होकर सुना। मगवद्वाणीमें उन्होंने सुना कि कोई भी प्राणी यह चाहे कि मैं उन्नतिकी चरमसीमाको एकदम प्राप्त करल तो यह असंभव है । प्राणी धीरे धीरे उमति करके पूर्णताको प्राप्त होता है। प्राणियोंकी आत्मायें मन ही एक समान ज्ञानदर्शनरूप है। उनके स्वरूप और शक्तिमें तिल मात्रका अन्तर नहीं है ! किन्तु इच्छा-पिशाचीके कारण वह अपने स्वभावअपने धर्मसे दूर भटक रहे हैं। कोई ज्यादा दर भटका है और कोई कम । किसीकी इच्छायें ज्यादा है, उसके कषाय प्रवृत्ति अधिक है, वह भामरूपसे बहुत दूर है। इसके विपरीत जिसकी इच्छायें
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बाब माली का।......! कम हैं कमाय मन्द है, वह सतोषी है और आत्मरूपके निकट है। इच्छा-पिशाचीका कोई एकदम दलन नहीं कर सक्ता । सस्कारों के प्रभावको कोई एकदम नहीं मेंट सका । कम-कम का प्रमी हो संस्कारोंको छोडता और अच्छे सरकारों को ग्रहण करता है। श्रेणिका क्या ममझते हो ? मैं जीवन्मुक्त परमात्मा इस शरीरको पाते ही झे गया हमही ! एक समय था नब मेरा आत्मा एक ऐसे मनुष्य शरीरमें था जो शिकार खेलने और मास खाने में आनन्द मानता था। आह ' कितनी विषमता थी वह । 'जीवोंका मारना अधर्म है, यह पाठ मैंने अपने उस जावनस पढ़ना आरम्भ किया था। मालूम है, युधिष्ठिस्न सत्यका स्वरूप समझनेक लिय वर्षों उद्यम किया था, तब वह उसको ठीकर समझ पाया था। उसके भाइयोंने बड़ी जल्दी ही कह दिया था कि हमन सत्यको समझ लिया। किन्तु उनके जीवन बताते हैं कि वस्तुत किमने पर्वका रूप समझा था । अदु समझ श्रेणिक धर्म किसतरह दीन मनुष्यको जगत्पुज्य बनाता है।"
नतमस्तक होकर श्रेणिकने कहा-“ प्रभो । खूब समझा। नाथ । आप अहिसाक अवतार है। प्राणीमात्रके लिये आप शरण है। यह नृशस पशु भी तो आपकी निकटतामें अपनी करता खोबैठे हैं। निस्सन्देह भाप पतितोद्धारक है।"
प्रभू महाबीरने श्रेणिकके भक्ति भावेशको बीचमें ही राककर कहा-" श्रेणिक ! अभी और सुनो। भूली भटकी दुनिया आज चाण्डालों, शद्रों और स्त्रियोंको धर्मारापनासे वंचित रखनेमें गर्व करती है। इनको धर्म सस्कारसे सस्कारित करने-उन्हें भामस्या
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पतितोद्धारक जैनधर्म
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पके बोध कराने में वह पाप समझती है। मैं पूछता हू, तुम अपनी एक मूल्यवान् वस्तु एक पड़ोसीके यहा भूल आओ और अन्य विषयों में ऐसे रम जाओ कि उसकी सुध ही न लो । अब बताओ, क्या तुम्हारे डोमी यह धर्म नहीं होगा कि वह तुम्हें तुम्हरी मूली हुई वस्तु बतला दे उसे तुम्हें प्राप्त करादे
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श्रे०-" नाथ ! अवश्य ही यह उसका कर्तव्य होगा । "
होगा न वह तो उसीकी वस्तु है। बस, श्रेणिक ' टीक हा धर्म भी प्रत्येक आत्माकी अपनी निजी वस्तु है । वह उसका अपना स्वभाव उसे वह भूला हुआ है। अब एक धर्मज्ञका यह कर्तव्य है कि वह उन्हें उनकी भूल सुझा द और धर्मका बोध उन्हें कराद । चाण्डाल शद्र और स्त्रिया यदि अपनी भूलसे धर्मक मर्मका नहीं समझ हुय है तो तुम तो ज्ञानी हो धर्मज्ञ हो उन्हें आत्म बोध कराओ । जैन श्रमण सदा यही करते है । सुना, एक कथा बताऊ । एक दफा चपामगरीमें एक चाण्डाल रहता था । नील उसका नाम था 1 कौशाम्बी नामकी उसकी पत्नी थी। उन दानोंके एक पुत्री हुई। पर दुर्भाग्यवश वह ज मसे अभी थी और उसपर भी उसके शरीग्से दुर्गध अती थी। पहले तो बह चाण्डाल के घर जन्मी, सो लोग उसे वैसे ही दुरदुराते थे। उसपर कोढ़ में खाजकी तरह वह दुगधा थी । उस भाई बन्धु भी उसे पास न चेटने देते थे। बचारी बड़ी परेशान थी । वह दुखिया अकेली एक जामुनके वृक्ष तले पडी२ दिन करती थी किन्तु सदा दिन किमी+ एकसे नहीं रहत । चम्पानगरी में सूर्य मित्र और अभिभूति नामके दो जैन मुनि भय । सूर्यमित्रने वहा उपवास माड़ा मो वह नगर में आहारके लिये नहीं
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गये, परन्तु अमिभूति आहारचर्याके लिये गये | उन्हें यह दुर्गधा दृष्टि पड़ गई।
यपि उस चाण्डाल पुत्रीकी देहसे दुर्गध आरही थी उसके शरीरसे कोढ़ चुरहा था और मक्खिया बहद मिनभिना ही थी, फिर भी अमित दयाक आगार मुनि अमिभतिने उससे घृणा नहीं की। करणाका श्रोत उनके हृदयसे ऐसा उठा कि वह आखोंसे बाहर वह निकला। किन्तु दुसरेकी करनीको कोई मेटे कैसे अपनी करनी अपने साथ ' हा उस जन्माध चाण्डालीमें यह सामर्थ्य थी कि वह उस करनीपर अपनी नई करनमि पानी फेर दे। जानते हो श्रेणिक | वह च ण्डाली उस दीनदशामें - भाग्य थी अवश्य परन्तु उसकी आत्मामें अनन्तशक्ति विद्यमान थी। आ मा अपने स्वभावसे, शक्तिमे कभी भी क्मिी भी दशामें न्युन नहीं होसक्ता । यह दूसरी बात है कि प्रकृति पुलक प्राबल्यमें कालविशषक लिए यह हीनप्रभ होजाय और नब अपर शौयको यक्त न कर सक' किन्तु निश्चय जानो कि उसकी शक्ति उसका वीय तब भी अक्षुण्ण रहता है। अमिभूति जन्माध चाण्ड लीकी गत सोचने २ आचार्य मर्यमित्रक पास पहुचे और उनमे चाण्ड लागी बात कही
सूर्यमित्र विशष नी ये माघ लाण्ट लीका अन्तर दीख गया। वह उसका निर्मक विय जान गय ' वह बोले-'यह ससार दुर्निवार है। प्रणी इममें न हुअ तरह तम्हके रूप धारण करता है। अ० २ काम करके स लोक्में वह भला दीखता है। वही प्राणी यदि खोटी मगतिमें का बुर २ काम करता है तो लोक्में सब उसे बुरा कहने और वह देखने में भी बुरा होजाता है।
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बजा ! बर माह होगा, अयोध्या में पूर्णमधु और मणिभद्र नामको रहते थे। उन्होंने एक दिन एक चाण्डाल और एक कुतियाको देखा था; नि देखकर उनके हृदयों में अकारण नेह उमड़ पड़ा था। दोनों सेठोंने ध्यानी ज्ञानी मुनिराजसे उसका कारण पूछा था और जाना 'पा कि वह चाण्डाल तथा कुतिया उनके पहले जन्मके पिता माता हैं। यह बात जानकरके दोनों सेठोंने जाकर उस चाण्डाल और कुतियाको धर्मका उपदेश दिया था, जिसके परिणामसारूप चाण्डालने प्रावकके व्रत ग्रहण किये थे। वह जैनी होगया था। कुतिया चाण्डालके साथ रहती थी। उसने देखा कि मेरा मालिक चाण्डाल अब न पशुओंको मारता है और न उनका मास खाता है तो उसने भी जानवरोंको मारना और मास म्बाना छोड़ दिया। चाण्डालकी देखादेखी कुतिया भी धर्मका अभ्यास करने लगी! निस्सन्देह सत्सं गति हो कश्याणकारिणी है। भाई अमिभूति! आखिर वह चाण्डाल समाधिमरण करक सोलहवें म्वर्गमे देव हुआ और उसकी अच्छी मंगति पाकर कुतिया अयोध्याके राजाकी रूपवती नामकी सुदर राज कुमारी हुई ! यह धर्मका माहात्म्य है, अमिभूति । मिस जन्माष चाण्डाल पुत्रीको तुम देख आये हो, वह भी निकट भव्य है ! उसे धर्मका स्वरूप समझाओ । उसका जीवन भी समाप्त होनेवाला है, धर्मामृत पिलाकर उसे भमर जीवनकी झाकीभर तो करावो फिर देखो वह एक दिन अवश्य ही लोकबन्ध हो जायगी !"
श्रेणिक ! सचमुच अमिभूति मुनि यह सुनकर तत्क्षण उठे और बड़े प्यार तथा सहानुभूतिसे उन्होंने उस इत्माग्य चाण्डालपुक्तिको धर्मका मर्म मुझाया। तरह तरहसे समझाबुझाकर उसके परि
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जन्मान्य चाण्डाली दुर्गन्धा
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जामोंको धर्ममें स्थिर किया ! निस्सन्देह सच्चे साधु, प्राणीमात्रका उपकार करना अपना कर्तव्य समझते हैं ! अभिभूतिके उपदेश से उस चाण्डाल कन्याने पंच अणुव्रतों को धारण कर लिया और उसी समय समताभावसे उसने सन्यास मग्ण किया ! श्रेणिक ! जैसे प्राणीके अन्तिम समयमे परिणाम होते है वैसी ही उसकी गति होती है। चाण्डालपुत्रीको मरते दम तक अभिभूति मुनिने धर्मका स्वरूप समआया था, उसके भाव धर्ममे ओतप्रोत थे ! वह उन भावोंको लेकर मरी सो वैसे ही शुभभावके धारी चम्पानगरके ब्राह्मण नागशर्माके पुत्री हुई। देखा श्रेणिक वह चाण्डाली धर्मके सहायसे परिणामों को उज्ज्वल बनाकर ब्राह्मणी होगई "
श्रेणिकने मस्तक नमाकर कहा-' दीतचन्धो ! आप और आपका धर्म ही इस भयंकर भव वनवे एक मात्र शरण है ।"
श्रेणिकने वीर वाणीमें यह भी सुना कि उसी जन्मात्र चाण्डालोकt ata फिर आगे बराबर कल्याण मार्गमै उन्नति करता गया और आखिर वही महात्मा सुकुम ल हुआ, जिनकी पुण्यकथा हरकोई जानता और मानता है। श्रेणिक यह रूच कुछ सुनकर बहुत ही प्रसन्न हुआ। वह उठा और उसने प्रभु महावीर के पादपद्मोंमें शीश नाकर प्रणाम किया ।
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राजगृहको लौटते हुये वह बराबर धर्मके पतितपावन रूपका चितवन करता रहा ! उसका हृदय निरन्तर यही कहता-' धन्य है प्रभू महाबीर और धन्य है उनका धर्म जो पतित भीवका भी उद्धार करता है,
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[५] , चाण्डाल-साधु हरिकेश !
वसन्त अपनी पूरी बहारपर था। उसने चहुंओर सरस.म.दकला । फैला दी थी। वनलतायें और वृक्ष तो प्रणय लिका आनन्द बद्ध ही रहे थे, किन्तु रसभरे मनुष्य भी कामके पंचशरोंसे विधे प्रेम मधुको चखने के लिये मतवाले होहे थे। युवक और युवतिया टोली टोली बनाकर वनविहारको जाते थे और वान्तोत्सव मना कर आनन्दविमोर होते थे। कहीं वीणाकी मधुर झकार और प्रेसियके सुरील कंदरवमें भी जकर प्रेमीजन संगीतका स्वर्गीय आनन्द लूरते थे। कहीं पर प्रमोन्मत्त दम्पति जलक्रीड़ा द्वरा एक दुसरेके दिलोंमें गुदगुदी उत्पन्न करते थे। वमन्तने सचमुच उनमें नया जोश और नई बवानी लादी थी। वे उमका रस लुटने में बेसुध थे । प्राचीन भारतका यही तो राष्ट्रीय त्योहार था। इस त्योहारको भारतीयजन बड़े उल्लास और कौतुकमे मनाने थे।
मृत गङ्गाके किनारे कुछ झोपड़िया थीं। उनके पास ही हड्डि. योका ढेर था और गढेमें लोहू और १५ पहा पड रहा था, जिनपर चौल करवे महान रहन थे। उन झोपडयामे ना डाल लोग रहते थे। अपने हिसार्मक कारण वे मनुष्य ममान द्वारा निरस्कृत अछूत थे। कोई उन चाण्डालों को अपने पास होकर निकलने नहीं देता था।
xउत्तरायगन सूत्र ( श्वेन म प्र) माधारसे ।
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पर क्या होता! बालि मनुष्का और उनके दिल था, न मसलय मनाने वे किसीसे पीछे न रहे। ___ उन चण्डालीको मता बलिकोटी था, उसको गौरी और गोवा नामकी दो पत्निया की। गौरीकी कौससे एक पुत्र जन्मा था, वह जबाम था और उसका नाम हरिकेश था। किन्तु वह था बड़ा ही कुकर और उतना ही अधिक चंचल । बसन्तोत्सवमें उसने मी खुब भाग लिया। खराब पीकर वह बदहोश होगया और उसने अपशब्द बकना तथा ऐसी घृणित चेष्टा करनी आरम्भ की कि स्वयं बलिकोटी उनको सहन नहीं कर सका। हठात् उसने चाण्डालों से कहा कि 'हरिया बदमाश है। इसे अपनेमेसे निकालकर बाहर करो।' . ____ चाण्डाल हरियाकी नटखटीसे ऊब ही रहे थे। उन्होंने उसे मारकूटकर अपनेमेसे निकालकर बाहर कर दिया और वे फिर आकर उत्सव मनाने में मम होगये।
. जब जीवको अच्छा होना होता है तो बुरा भी भला होजाता
हकिलको चाण्डालोंने अपनेमेसे निकाला क्या उसका जीवन सुघर गया । हरिबलकी प्रकृति अक्खड़ थी, वह देखने में ही भया नक नहीं, वयमें भी भयानक था। अपने मनकी करना उसे इष्ट था।जब चारकोंने उसे अपने उत्सवमे से निकाल दिया तो वह उनके पास ही क्यों जाय ? उसकी मा भी तो वहा थी और बाप मी । उन्होंने भी तो उसका कुछ ज्याल नहीं किया माकी ममता तो जामसिक है, पर उसके लिये यह पत्थर होगई । उमे क्या पड़ी
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Re पवितकन जो वह उनके पास आये। ऐम ही सोच विचारकरहरिकेशने निश्रय कर लिया कि अब वह लौटकर अपने गांव नहीं जावंगा। वह बन रहेगा, वनफलोको स्वारगा और पूर्ण स्वतंत्र होकर विचरण करेगा। उसके समान और कौन सुखी होगा ?
हरिवेशबलने किया भी ऐसा ही। वह वनमें सिंहके समान स्वतंत्र घूमता, फिरता और मो कुछ फल मादि मिलते उनको खाता।
एक दिन घूमते२ वह एक आमवाटिकाके पास जा पहुंचा। वहांफर एक जैन मुनि बैठे हुये थे। हरिकेशके भयानक रूपको देखकर वह मुस्करा दिये । चाण्डाकका भी साहस बढ़ा, वह उनके पास चला गया। बहुत दिनोंसे उसने कोई मनुष्य देखा भी तो नहीं था। उन मुनिको देखकर उनके पास बैठनेको उसका भी कर आया। सुनिने उसे धर्मका महत्व समझाना आरम्म किया। हरिवेश एकदम चौंक पड़ा और बोला-" महाराज ! मैं तो चाण्डाल ई, मुझे तो जोग छूते भी नहीं, धर्म मैं कैसे पालुंगा!"
मुनि बोले-"चाण्डाल हो तो क्या हुआ ? हो तो मनुष्य न? दुनियां तुम्हें नहीं छती, मत छूमो! किन्तु धर्मका ठेका तो किसीने नहीं ले रखा है। तुम चाहो तो धर्म पाल सकते हो।"
हरिकेश अचरजमें पड़ गया और अपनी असमर्थताको व्यक्त करने के लिए फिर कहने लगा-"प्रभो ! मैं तो देव-दर्शन भी नहीं कर सक्ता!"
मुनि हंस पड़े और बोले-"भूलते हो, चाण्डालपुत्र ! तुम्हें कोई नहीं रोक सकता। तुम चाहते हो देवके वर्सन करना तो सपने
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अन्तरको शुद्ध बनाओ। अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य मादि सातोंक पालन जो कोई करता है वही उप है, देवता है ब्राह्मण है। इन अतों का पालन करनेसे हृदय इतना पवित्र होता है कि सके देवके दर्शन वहीं होते हैं !"
हरिकेशको अब कुछ होश आया वह भी मनुष्य है, उसे भी धर्म पालना चाहिये । उमने पूछा- "तो नाथ ! क्या मैं धर्म पास सक्का ?"
मुनिने उत्तर दिया-"क्यों नहीं वत्स ! जीवोंको मत मारो, हमसे बने उतनी उनकी सेवा करो; झूठ कभी मत बोलो, हमेशा हितमित वचन बोलो, चोरी मत करो, पराई वस्तु भूलकर भी न लो, पूरे ब्रह्मचारी बनो, जगतकी स्त्रियोंको मां बहन समझो और पके संतोषी रहो, एक धेलेकी भी आकांक्षा न करो ! बोलो, इन बातों को करनेसे तुम्हें कौन रोक सकता है ? कोई नहीं, यही धर्म-पालन है !"
मुनिमहाराज के इस धर्मोग्देशका प्रभाव हरिकेशपर खूब हो पड़ा। उसने मैन धर्मकी दीक्षा लेली और वह उन मुनिके पास ह. कर ज्ञान-ध्यानका अभ्यास करने लगा और खूब ही उसने तप तपा। जब बह हरिया चाण्डाल नहीं था, उसे लोग महात्मा हरिकेश कहते थे। महात्मा हरिवेश रूपमें उसकी प्रसिद्धि भी चहुंमोर होगई थी।
महात्मा हरिकेश विहार करते हुये एक दिन तिंदुक नानके -रूमीचे मा विराजमान हुये। मौर वहांवर भरकर उस
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परक: जैनधर्म ।
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पतितोद्धारक
सपने बगे । बगीचेमें एक यक्षमंदिर था । यक्षने हरिकेशको देखा और उनके उम्र तपको देखकर वह उनका भक्त होगया ।
उसी समय उस नगरके राजाकी पुत्री भद्रा अपनी सखियों सहित वायुसेवन के लिये वहा आ निकली। मद्राने तो नहीं, परन्तु उसकी सखियोंने हरिवेशको ध्यान में मम बैठा देखा । वे सब उनके पीछे लग गई, तरहर के कामभाव दर्शाकर वह उन्हें सताने बर्गीीं । वे एक दूसरे से हरिकेशको उनका पति बतातीं और चुहल करती थीं। भद्राने भी यह देखा । उसने उन्हें शिड़का और कहा कि "कहीं ऐसा कुरूपी किसीका पति होगा ?"
1
हरिकेशने न भद्रा के वचन सुने और न सखियोंकी करनीपर ध्यान दिया । वह अपने ध्यान में निश्चल रहे । सचमुच वह जिते द्रिय थे। स्त्रियोंकी कामुकता उनका कुछ भी न बिगाड़ सकी महाभट कामको उन्होंने चारों खाने चित्त पछाड़ मारा था। धन्य वे वह महानुभाव ! चाण्डाल के घर जन्म लेकर भी वह पूर्ण ब्रह्मचारी हुये।
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किन्तु महात्मा हरिकेाके भक्त यक्षसे स्त्रियोंकी उपरोक्तू क्रूरतूत सहन नहीं हुईं। उसने मद्राको कुरूपा बना दिया । सह बेचारी बड़ी बगड़ाई पर आखिर करती क्या होना था सो होगया हां, हरिवेशका माहात्म्य उसके दिलपर असर कर गया ।
?
राजपुरोहित (ब्राह्मण) के साथ भद्रा व्याह दी गई। वर हरिवेश उग्रोम तप तपने बगे, जो भी सुनता उनके तपश्चरणकी सुतकंठसे प्रशंसा करता ।
राजकुमारी भद्रा और उसका प्रति राजपुरोहित नैट्रिक
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चोण्डा- साधु
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धर्मानुयायी थे। उन्होंने सोचा कि भगवानकी देन है ' हैं। आओ दानपुण्यमें कुछ खर्च करें । चचल लक्ष्मीको लगाकर यश और पुण्य दोनों प्राप्त करें । इष्टमित्रोंसे सलाह करके उन्होंने एक महायज्ञ रचना बिचारा और तदनुसार उन्होंने सब प्रबन्ध किया | लोगोंने चारोंओर धूम मचा दी कि राजकुमारी महांने बड़ा भारी यज्ञ माड़ा है। बड़ी२ दूरसे सैकड़ों ब्राह्मणगण आये हुये यज्ञ सम्पन्न कर रहे हैं ।
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हरिकेश |
खूब भरें पूरे कृतमे
सचमुच एक बड़ेसे मण्डपमें सैकड़ों ब्राह्मण पडित बैठे हुबे अग्निहोत्र पढ़ रहे थे । धूम्रमय अमिकी ज्वला बलिवेदी मे उठकर आकाशसे बातें कर रही थी। मास लोलुपी जीव उसको देखकर मैंके ही प्रसन्न होते हों, परन्तु उसमें जीवित होमे जानेवाले पशुगण उसको देखकर थर थर काप रहे थे । वे बेचारे पशु थे तो क्या ? उनके भी प्राण थे और प्राणोंसे प्रेम होना स्वाभाविक ही है। किन्तु इस बासको देखनेवाला वहा कोई नहीं था।
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बहाकी एक खास बात और थी। लोगोंको हिदायत थी कि शूद्र चाण्डाल आदि कोई भी नीच समझे जानेवाले लोग यज्ञ के पासेसे म मिलने पावें । वेदश्रुतिकी ध्वनि उनके कानोंमें न पढ़ने पावे । कैसी विडम्बना थी वह । वह धर्मकी ध्वनि थी तो उसे प्रत्येक मनु म क्यों न सुने ' शूद्र चाण्डालादि यदि अपनी हिंसक आजीविकाके कारण अछूत थे तो पशु होमकर मान लेना क्या वैसा ही निव कर्म न था ?
चाण्डाल महात्मा हरिकेश वहीं पास में तप तप रहे थे क
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maranamannamamIMHAHENMananmmommamimaramanemataramanamamminews
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पतितोद्धारक जेनर्म। महीनका उपवास उनका पूरा हुआ था. वह पारणाके लिए नगरकी भोर चले। रास्ते जाते वह भद्राके यज्ञमण्डपके पास जानिकले। बामणोंने देखा कि वह चाण्डाल है, अछुन है। वे क्रोधके मारे लाल पीले होगए और बोले "कम्बख्त ! धर्मकर्मका नाश करते तुझे बरा भय नहीं है । चल हट यहांसे, नहीं तो तेरी खैर नहीं है।"
महात्मा हरिवेशपर इन कटुवचनों का कुछ भी असर न हुमा। बह तो अपने बैरीका भी भला चाहते थे। उन ब्राह्मणों को सत्यका मर्म सुझाना उन्हें उचित प्रतीत हुआ । आखिर निरपराध जीवोंका वध क्यों हो ? क्यों मनुष्य भ्रान्तिमें पड़कर अधर्मका संचय करें। जैन मुनि अज्ञान अंधकारको मेंटना अपना परम कर्तव्य समझते है। म० हरिकेशने अपना मौन भन्न कर दिया। वह बोले-" विप्रो' जातिका घमंड व्यर्थ है और प्राणियों की हिंसा कभी धर्म हो नहीं सका, यह निश्चय जानो।"
विप्रोंकी कोवामिमें इन वचनोंने घीका काम किया। ये गालियां मुनाते हुये बोले- 'चल-चल, तू जातिका चाण्डाल क्या जाने ब्रह्मकी बातें ! ब्रमको ब्राह्मण ही जानते हैं।" ।
म० हरिवेश अहिंसक सत्याग्रही थे, उन्होंने गालियोंकी कुछ भी परवा न की, बल्कि वह कहने लगे कि-"भाई ! ठीक है, परन्तु बामणों के घर जन्म लेनेसे कोई ब्रह्मको नहीं जान जाता। आन काखों ब्रामण मिलेंगे जो आत्मज्ञानकी · मोनम' भी नहीं जानते। सचमुच गुणोंसे मनुष्य ब्राह्मण और देवता बनता है। पूर्ण अहिंसक बमचारी ही सबा ब्रामण होता है।...
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। हरिक्शकी बात काटकर सकत fakt
रहो ! ब्रमके दर्शन ब्राह्मण ही करता है। जाओ, धर्मानुष्ठानमें विज्ञ , मत डालो।"
हरिकेशने शांति और दृढ़तापूर्वक कहा- सच करते हैं माय, बामण ही ब्रह्मके दर्शन कर सक्ता है, पर ब्राह्मण वही मनुष्य है जो निरतर ब्रह्ममें चर्या करता है, जिसकी दृष्टि बाह्य रूप और नाम 'र नहीं अटकी है, बल्कि जो सदैव चिन्मगत परमात्माके ध्यान छीन है वह ब्राह्मण है। परमात्मा पद वर्ण और जातिसे रहित है, इस कथाको तुमने क्या नहीं सुना है ?"
सब बोले-'कौनसी कथा ? चल हट, हमें फुरसत नहीं है । कथा कहनेकी।"
हरिकेश बोले-अच्छा भाई ! मत कहो कथा । पर सुनो तो । सही। क्या वैदिक जग में यह प्रसिद्ध नहीं है ! देखो एक भक्त शिवजीकी उपासना करने चला और उसने स्तुति बन्दना करके यह प्रार्थना की कि मैं खूब धनवान होऊं और नैवेद्य चढ़ा दिया। 'फिर भी असंतोषी हो वह शिवप्रतिमाकी ओर ताकता रहा । शिवसीको उसका यह असंतोष बहुत अखरा। उन्होंने उसे शिक्षा देने की ठान ली । भक्तने देखा, शिवजी के सामने उसका चढ़ाया हुना मैवेद्य नहीं है। उसे अचम्भा हुआ। उसने फिा नैवेद्य चढ़ाया और एक ओर हटकर देखने लगा कि उसे कौन लेता है। इसमेटे एक पुलिन्द-म्लेच्छ धनुष-बाण लिए भाया और नैवेष हटाकर उसने भक्तिभाक्से अपने फल फूल चढ़ा दिये । शिवजी उस पुकिबकी निष्काम भकिसे प्रसन होकर उससे सामान हो बातें करने
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को इसपर उस भाको बड़ी हानि हुई और बह कहने लगा कि देवता भी कैसे होगए हैं कि एक पुलिन्द-मीचकी पुषांजलिसे तो प्रसन होगए और मुझ कुलीन ब्रामण भक्त के कीमती धार मान भी दिया। खैर, कल मैं भी फूलपती ही लाऊंगा।"
हसरे दिन वह भक्त शिवजीको फूलपत्ती चढ़ाने आया । पस्तु देला कि शिवजीकी एक आंख नहीं है। बटसे वह बड़बड़ाया । 'यह कलकी दुश्भेष्टाको दुष्परिणाम है। नीच पुलिन्दसे मुंह चलाना
कहीं देवताओं का काम है । खैर, एक स्त्र तो बची। और उसने ..अपनी मनोकांक्षा प्रगट करके फूलगती चढ़ादी। शिवनी अब भी रससे मस नहीं हुए । भक्त निगश होकर एक ओर जा बैठा । इतनेमें नीच पुनिन्द आया। उसने भी शिवनीकी एक आंख देखी।
बटसे उसने तीर लिया और अपनी आंख निकालकर उनको लगा -बी ! मकिकी हद होगई। शिवजीने प्रसन्न होकर उस पुलिसको गले लगा लिया और उस कुलीन भक्तको नो नाममात्रका भक्त या खुब झिड़का। बस भाई, समझो, देवता भी गुणों के प्रेमी है। पर जातिपांति नहीं देखते। सचमुच हरको मजे सो हरका होय, मह बकि सोलह भाने सप है।"
बे-सब लोग अपने धैर्य खो बैठे थे, एक चाण्डाल उनके पास माना अद्रव मनाये, यह वे भला कबतक बरदाश्त परते.
हरिकेशकी नवीतुली बातोंका कायल उनका दिल भले ही हुमाहो, अपरन्तु मस्तकाव भी नहीं नमा था। उसमर मानके पहारकाश जाकर बठे और कमको सहरिकको
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साधु हरिकेश ।
इटानेका उद्यम करने लगे। बाहरी नृशसता ! तेरा आसरापर सत्यामी वीर हरिकेशको वह भी न डिगा सकी, वह बडग रहे ।
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(५)
राजकुमारी भद्रा म० हरिकेशके चरणोंमें मस्तक नमागे बेटी कह रही थी- "नाथ ! मुझ अपराधिनीको क्षमा कीजिये। मैं धर्मके मर्मको न समझ सकी थी, आप दीनोद्धारक हैं। आपने अपने प्राणोंकी बाजी लगाकर इन पशुओंकी रक्षा की है और हम अमका उद्धार किया है। भले ही बड़े घरोंमें हमने जन्म लिया था परन्तु हमारे हाथ निरपराध प्राणियों के खून से लाल होरहे थे। हम महान् पापी बे, उसपर भी हमें अपनी जातिका बड़ा भारी अभिमान था । आपने उस अभिमान के शतखण्ड करके हमें सुबुद्धि प्रदान की है। चाण्डाक नहीं, आप परमपूज्य महात्मा है, हम सब आपकी शरणमें हैं। प्रभो ! क्षमा कीजिए हमारे अपराध और हमें कल्याण मार्ग में लगाइए।"
म० हरिकेश बोले- “भद्रा ! तू धर्मात्मा है, मेरा कुछ भी किसीने नहीं बिगाड़ा है। धर्म ही एक शरण है। माओ, उसकी ater छायामे बैठो और अपना तथा प्रत्येक प्राणीका मला करो।"
कहना न होगा कि राजकुमारी भद्रा और उसके साथियनि म० हरिकेशके निकट धर्मकी दीक्षा ली ! अब वे सब जातिमदलेपरे थे और हर किसीसे कहते थे
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'पर्येण सत्येन तपसा संयमेन च । मातंगऋऋषिर्मतः शुद्धिं न शुद्धिस्तीर्थयात्रया
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शूद्र जातीय धर्मात्मा!
'एहु धम्म जो आपरइ बभणु सुदवि कोइ । सो सावन, कि सावयह अण्णु कि सिरि मणि होह ।।
-श्री देवसेनाचार्य। __“ इस (जैन) धर्मका जो आचरण करता है, बामण चाहे शुद्र, कोई भी हो, वही श्रावक (जैनी) है। और क्या श्रावकके सिर पर कोई मणि रहता है ?" कषायें.
१-सुनार और साधु मेतार्य। २-पनि भगदच । ३-माली सोमदच। पदया।
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मुनार और साधु मेला
राजगृहनगर में एक सुनार रहता था। वह अपने कर्म बडा ही कुशल था। राजा श्रेणिक सारी गहना गाया सीसपदवाते थे दिन भेणिकने जिन पूजाके लिये सोनेकेर फूड बनाने के लिये उसे मोना विया । सुनार जिवन्द्रा नकार बनाको फल बनाने लगा।
एकदिन वह सुनार बैठा २ फूल बढ़ रहा था कितने उसने देखा कि एक साधु उ घकी ओर आहारचर्याकार लिया आरहे है। मक्तबाल सुनारने फूलोंका बढमा छोड दियो । यह दौड़ा दौड़ा गया मौ उसने साधुको भक्तिपूर्वक आहार प्रदान कि। साधु अपने सस्ने गये और सुनार अपनी दुकानपर माता
किंतु दुकान पर बैठते ही उसने देखा कि एक सोनेको फूल गायब है । सारी दुकान उसने दृढ डालो परन्तु मोनेका पूर्व कहीं नहीं था । वह सोचने लगा कि 'यहा कोई भी सराबादमी नहीं पाया जो फूल ले जाता । हा, साधु जहर यहासे निकले। हो न हो सोना देखकर उनका मन डिम गया । वह ही फूल उठा ले । गये । बला, उन्हींको पकडू! दुनिया सी पावडी की। मोट लेकर लोग कैसे २ अनर्थ कन्ने है। इस माम्बडीको कामना खाना चाहिये। x “माथिया योनी' पृ० १४'पर वर्णित कथाte
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पवितोदारक मैनर्म। सुनार यह विचारते ही दुकानसे नीचे उतरा और उस मोरको पर दौड़ा विवरको साधु गये थे । बाजारके एक छोर पर बह उसे मिल गये । उसने पुकार कर कहा-' सुनो तो महागन ! बड़ा अच्छा भेष बनाया है आपने । रोजगारका ढग बड़ा अच्छा है। अब वह फूल मेरे हवाले कीजिये, नहीं तो खैर नहीं है।'
माधुको बस्तुस्थिति समझने में देर नहीं रगी। उन्होंने ' अपने ऊपर उपसर्ग आया जानकर मौन धारण कर लिया और। चुपचाप वहींके वहीं खड़े होगये । सुनार उनको चुप देखकर और मी मागबबूला होगया । उसे अब पूरा विश्वास होगया कि फूल साधुके पास है; तब ही तो वह चुपचाप खडा है । सुनार उन्हें उल्टी सीधी सुनाने लगा। जब इतनेसे भी उसे संतोष न हुआ तो उसने साधुके सिर पर ऐसी टोपी चढा दी को धूप लगनेसे सिकुड़ती जाती थी और साधुको असह्य वेदना देती थी। साधु ध्यान । स्थिर चित थे। किंतु देखो सुनार की बुद्धिको ! जगसे सोनेने उसे बुदिहीन बना दिया, उसकी भक्ति काफूर होगई और पशुता उसमें जागृत होगई। धन है ही बुरी बला ।
कड़ी धूम्में स धु खडे थ । पैरों नीचे धरती जल रही थी और सिर पर चढ़ी टोपी ज्यों २ सुकड़ती त्यों २ माथा फाड़े डाल रही थी। उसकी प्राणशोषक असह्य वेदनाको वह साधु समतामाक्से सहन कर रहे थे । वह अहिंसक वीर थे । स्वयं सारे कष्ट सहसेंगे; परन्तु किसीको भी जरा पीड़ा नहीं पहुंचायंगे। उधर सुनार सोने लोगों, अंधा हुमा इस इन्तजारमें भ कि मेरी मारसे बड़ा कर
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Dhanasansar.18.1
1.BaatayaMDIBASIBIOSIMUBIDIOBUDIISISSUBASu
चाहार-माधु परिया। [ १ इनसे अभी सोनेका फूल निकल' आता है। प्रकाश और अंधकार ! पुण्य और पाप ! दोनोंका नंगा नाच वहा होरहा था !
उन माधुका नाम मेतार्य था। अपने एक पूर्व मवये ग्रह लावस्ती नगरीमें यज्ञदत्त नामक ब्राह्मण थे। कदाचित उन्हें सासा. रिक वैभवमे वृशा होगई । धनसम्पदामे मो : छूट गया । उन्होंने
आईनी दीक्षा ग्रहण कर ली। वह माधु होगये. तप तपने लगे, कितु एक बातका त्याग वह न कर सके। कुलमदका नशा उनके पुनीत भेषमें चंद्रमाके कलंकके समान दिखता था। जन्मक वह ब्राह्मणः भल कमे अपने कुलकी मर्यादाका ध्यान छोड़ दें ! किंतु उन्होंने यह न जाना कि अती दीक्षा समभाव ही प्रधान तत्व है । एक अर्हत् भक्त यह निय जानता है कि उसका आत्मा वर्ण और कुल रहित एक विशुद्ध द्र-य है। ससारमें भटकता हुआकर्मकी विडम्बनामें पड़ा हुआ वह नाना प्रकारके शरीर धारणा करता है । आज जो ब्राह्मणके शरीरमे है कल वही महतरके शरीमें दिम्वाई पडेगा; और फिर महतर ही क्यों ? यदि वह दुष्कर्म करने पर ही उतारू है तो पशु और नर्क गतियों के दारुण दुःख. भोगनेको उनमें जा जन्मेगा अब भला कोई कुल या जातिका घमड क्या करे ? कितु यज्ञदत्त इस सत्यको न समझ सका । वह कुलमदमें मम्त हुआ, मरा और ही। जातिका देव हुआ। तथा देव आयुको पूरी करके इसी भारतमें उमे एक हरिजन ( अछूत शूद) के नीच कुलमें जन्म लेना पड़ा। किया हुमा कर्म अपना फर
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दिखाकर ही रहता है। उश्चताके घमंडने उस बयं नीचा बना दिया।
किंतु पूर्वभवमें उसने तप भी तपा था, वह अकारथ कैसे जाता ? उसने अपना अमर दिखाया। पुण्योदयसे उसी ग्राममें धनदत्त नामका एक संठ रहता था। उसकी सीके उसी समय एक पुत्री हुई थी । सेटने उस पुत्रीको उपरोक्त हरिमन पुत्रसे बदल लिया और उसका नाम मेतार्य रख दिया। सारी दुनिया मेतार्य को मेट धनदत्तका पुत्र समझती थी।
श्रेणिकने अनी एक राजकुमारी का विवाह मेतार्यमे किया था। उस विवाहका बड़ा भारी उत्सव ग गृहमें हुआ था. एक दिन शामको मंठ धनदत्ता घर के सामने नाचरंग होरहा था लोग देखने आरहे थे । मेतार्य अली मा -पित भी देखन चले आए।
मेनार्य की जिन माताने ब अपने पुत्रका ऐसा महान सौभ भ्य और श्वर्य देव तो वह फूले अंग न समाई। माताका नह उसके उमड़ पड़ा। उसकी 3 तीमे दुध भर . या औ. वह छलछल करके बाहर निकल पडा । मातृस्नेहमे वह ५गली होगई । मेतार्यने भी लोगों के साथ यह सब कुछ देखा । उसे बडा आश्चर्य हुआ। माकी ममता ही ऐसी होमकती है, प.तु यह कौन कहता कि भेतार्यको यथार्थ मा दही हरिजन है ? मेत.र्य असमंजस में पड़ गया।
भाग्यवशात् त्रिकालदर्शी भगवान महावीर विहार करते हुये मेनायके नगरकी ओर आ पहुंचे। मत र्यने भी भगवानका शुमागमन सुना। वह उनकी वन्दना कर के लिये गया, और उन
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शामाल-साधु हरिका [८३. त्रिकालदर्शी भगवान् महावीरसे उसने अपनी शंका निवेदन की । भगवानने मेतार्यको उसके सब ही पूर्वभव सुना दिये। उनको सुनकर मेतार्यका हृदय चोटल हुआ, संसारसे घृणा होगई, उसे जातिस्मरण हो आया और अपने पूर्वमवके कुलमदपर उसे बड़ा पश्चाताप हुआ। वह विचारने लगा कि
'नाहं नारकी नाम, न तिर्यक् नापि मानुषः। न देवः किन्तु सिदात्मा सर्वोऽयं कर्मविभ्रमः ।।
"मैं नारकी नहीं हूं. तिर्यच नहीं हूं. मनुष्य नहीं हूं और नहीं ही देव इ, क्योंकि ये सब तो कर्मपुद्गल के विभ्रम हैं ! मोहमें पडा हुआ मैं अपनेको मनुष्य और ब्राह्मण समझनेके भ्रममें पड़ा था। वस्तुतः निश्चयरूपमें मैं सिद्धात्माके समान हूं।" ___इस प्रकार वैराग्यचित्त होकर मेतार्यने अपने पिता धनदत्तमे आज्ञा ली और वह साधु होगया। अब वह साधु मेतार्यके नामसे प्रसिद्ध हुए। सुनारने इन्हीं साधुपर महान उपसर्ग किया। नीचकुममें जन्म लेने पर मी अपने पूर्वसंचित चारित्रजनित दृढ़ताके प्रभावसे यह अच्छे तपावी हुये । कुलमद अब उन्हें छू भी नहीं गया था।
सुनार बैठा इन्तजार ही करता रहा कि सब साधु कबलें और फूल मिले, परन्तु उवर लीली टोपी इसनी संकुचित हुई कि उमने साधु मेतार्यके मायेके दो टूक कर दिये । मायके दो टक हुये, मी. रकी स्थिति क्षीण हीन होगई; परन्तु मेतार्यका आमगौर्य पूर्व और निश्चल था। वह सद्गतिको प्राप्त हुये ! धन्य ये साधु मेतार्य !
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८४ ]
परिवोद्धारक जैनधर्म ।
उधर जब साधु मेतार्यका माथा फटा तो उससे एक बड़ी आवाज हुई । उसको सुनकर पासवाली छतपरसे पंख फड़फड़ा कर एक क्रोंच पक्षी उड़ा और उसकी चौचसे छूटकर सोनेका फूल सुनारके आगे आ गिरा ! सुनार यह देखकर स्थंभित होरहा, उसके काटो तो खून न था ! अब उसे अपनी गळतीका मान हुआ - अपनी नृशंसता देखकर उसका हृदय टूक टूक होरहा था। वह खूब ही पश्चाताप करने लगा और अपने कृत पापसे छूटनेके लिये वह जिनेन्द्र भगवान् की शरण में पहुंचा | सुनार साधु हो गया और आत्मशोध करने कया । परिणामस्वरूप वह समाधिमरण कर उच्च गतिको प्राप्त हुआ
!
साधु मेतार्य चाहते तो कोंचपक्षीका पता बताकर अपने प्राम बचा लेते; किन्तु वे तो अहिंसक वीर थे। अपने स्वार्थ- शरीर मोहके लिए वह कौंचपक्षी के प्राणोंको कैसे संकटमें डालते ? सुनार उसे पकड़ता, मारता । उसे भी पाप लगता । उधर कौंचपक्षी रौद्र परिणामोंसे मरता तो और भी दुर्गतिमें जाता ! उत्तरोत्तर सबका बुरा होता ! एक जैन मुनि भला कैसे किसीका बुरा करे ? वह तो समताभावका उपासक है और उसके लिये अपना सर्वस्व अर्पण करने के लिए तत्पर रहता है। साधु मेतार्यने इस सत्यको मूर्तिमान बना दिया। धन्य थे वह !
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मुनि भगदत्त ।
[ २ ]
मुनि भगदत्त !
*
[ ८५
(१)
बनारस में चंद्रवंशी राजा जितारि राज्य करता था । कनकचित्रा उसकी रानी थी । उनके एक पुत्री हुईं। उसका नाम उन्होंने मुंडिका रक्खा | मुंडिकाको मिट्टी स्वानेकी बुरी आदत पड गई थी; जिसके कारण वह सदा बीमार रहती थी ।
मुंडिका स्थानी होगई थी। एक रोज वह वायु सेवनके लिये बाहर बगीचे में गई । वहा उसकी भेंट वृषभश्री नामक जैन स्वाध्वी होगई | वृषभश्रीने उसे धर्मका स्वरूप समझाया और वह जैनी होगई । उसने अभक्ष्य वस्तुओंको भक्षण न करनेका नियम ले लिया । व्रत संयमको पालनेसे उसका जीवन स्वस्थ्य होगया । वह अव एक अनुपम सुन्दरी थी ।
राजाने मुंडिकाको विवाह योग्य देखकर उसका स्वयंवर रचा । दूर दूरसे राजा महाराजा आये । मुंडिकाने सबको देखा, परन्तु उनमें उसे कोई भी पसंद नहीं आया । उसने किसीके गलेमें भी बरमाला नहीं डाली । बेचारे सब ही अपने २ देशको निराश होकर लौट गये। मुंडिका धर्मसेवन करती हुई जीवन विताने लगी । ( २ ) तुंड देशका राजा भगदत्त था । श्री । राजा मगदत्तका जैसा बड़ा
चक्रकोट उसकी राजधानी चढ़ा वैभव था, वैसा ही वह २ पर मूळ कथा दी हुई है।
x 'सम्यक्त्व कौमुदी' पृ०
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८६] पतितोदारक जैनधर्म। दानशील था। किंतु वह था हीन जातिका । दूसरे क्षत्री राजा उसे नीची दृष्टि से देखते थे। गजा बन जानेपर भी उसकी जातिगत हीनताको वे लोग नहीं भूले थे। कुल और जातिके घमंडका यह दुष्परिणाम था।
भगदत्तने मुंडिकाके सौंदर्यकी बात सुनी। उसने जितारिसे उसे मागा । जितारिने कहला भेजा कि 'जब अच्छे २ राजकुमारोंके साथ तो मुंडिकाने ब्याह किया नहीं तो तुझ नीचके–ओछी जातिके पुरुष के साथ उसका ब्याह कैसे होसक्ता है ? खबरदार, अब मुंडिकाका नाम मुंह पर मा लाना।'
भगवत्तने फिर दुन भेजकर मितारिसे निवेदन किया कि " वस्तुतः मनुष्यमें गुण होना चाहिये । जाति कोई भी हो, उससे कुछ काम नहीं । मुंडिकाका ब्याह मेरे साथ कर दो इसीमें तुम्हारी
जितारि मगदत्तके इस संदेशको सुनकर आगबबूला होगया । उसने दुतसे कहा कि " जाओ, भमदत्तसे कह दो कि राजा जितारि उसकी मनोकामना युद्धमें पूरी करेंगे।"
जितारिका यह, उत्तर पाते ही भगवत्तने युद्ध के लिये तैयारियां प्रारम्भ कर दी। उसके मंत्रियोंने उसे बहुत कुछ समझाया और बतलाया कि मैत्री और सम्बन्ध बसवर वालोंका ही शोमता है, राजाको हठ नहीं करना चाहिये ! किन्तु भगदत्तको उनके यह बचन रुचे नहीं। उसने कहा-" जितारिको अपने क्षत्रीपने-उच्च
आतिका घमंड है। इस घमंडको यदि मैं चूर-चूर न करतो लोक मुझे गुणी कैसे जानेगा और कैसे आदर करेगा ? लोकमें गुणवान होकर जीना ही सार्थक है। क्या तुमने यह नीतिका वाक्य नहीं सुना:
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मुनि भगदत्त। 'यज्जीव्यते क्षणमपि प्रथितमनुष्यैः,
विज्ञानशौर्यविभवार्यगुणैः समेतः । तस्यैव जीवितफलं प्रवदन्ति सन्तः,
काकोपि जीवितचिरं च बलिं च मुक्त।" "संसारमें एक क्षणमात्र भी क्यों न ना हो, पर वह जीना उन्हीं पुरुषोंका सफल है जो विज्ञान, शू वीरता, ऐश्वर्य और उत्तम२ गुणोंसे युक्त है और बडे बडे प्रतिष्ठित लोग जिनकी प्रशंसा करते हैं। यों तो जुठा स्वाकर कौआ भी जीता रहता है; पर ऐसे जीनेसे कोई लाभ नहीं।"
भगदत्तके दृढ़ निश्चयके सामने मंत्रियोंकी एक नी न चली। वास्तवमें भगदत्तको अपनी विशिष्टता प्रकट करना वाञ्छनीय था। लोग उसे नीच और हीन जातिका कहते ही है और बुरी निगाहसे देखते ही हैं, उसे उनकी यह धारणा अपना शौर्य प्रकट करके मिथ्या सिद्ध करना थी। बस, वह शीघ्र ही अपना लाव-लश्कर लेकर बनारसकी ओर चल पड़ा!
घमंडका सिर नीचा होता है । प्रकृति अन्यायको सहन नहीं करनी। जितारिके जातिमदने उसके सर्वनाशका दिन नजदीक ला रक्खा। उसे जरा भी होश न था कि भगदत्त उसपर चढ़ा चला
रहा है। जब उसने बनारसको चारों ओरसे घेर लिया तब कहीं उसे भगदत्तके आक्रमणका पता चला ! उसने भी अपनी सेना तैयार करानेकी आज्ञा निकाल दी; किन्तु मंत्रीने उसे समझाया कि शत्रुकी शक्तिका मन्वान किये बिना ही उसके सन्मुख मा डटना उचित
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८८] पतितोद्धारक जैनधर्म । नहीं है। जितारिके सिर पर तो घमंडका भूत चढ़ा था। वह चटसे बोला-"उस कमीने भगदत्तकी शक्ति ही क्या होसक्ती है ? कहा जितारि क्षत्री और कहा वह कमीना ? बस उसको प्राण दंड देकर ही मैं कल लंगा ।"
मत्री चुप हो रहे । राजा जितारि रणचण्डीका सप्पर मरने के लिए उद्धत सेनाको लेकर नगरसे बाहर निकला। उस समय अकाल वृष्टि हुई, पृथिवी कंप गई और प्रचंड उल्कापात हुआ। इन अप. शकुनोके द्वारा मानो प्रति जितारिको सचेत कर रही थी कि घमंड मत करो। गणों का आदर करना मीखो। परन्तु जितारि मानके घोड़ेपर सवार हो अंधा बना हुआ था। वह भगदत्तसे जा भिडा। दोनों में नायें जूझने लगी। मारकाटमे रणभूमि लाल-लाल होगई। देखने ही देखते भगदत्तकी मेनाने जितारीकी मेनाको तितर-वितर कर दिया। उसके पैर उखड गये और वह ग्वेत छोड़कर भागने लगी। भगदत्तने जितारिको अब भी मचेत किया, परन्तु उसका काल सिरपर मडरा रहा था। उसने भगदत्तकी बात नहीं सुनी । भादत्त क्रोधमे काप उठा और उसपर कड़े बार करने लगा। जिनारि उसके चार सहन न कर सका और प्राण लेकर भाग खड़ा हुआ। भगदत्त तब भी उसका पीछा नहीं छोड़ता था, किन्तु मंत्रियों के समझानसे उसने भागते हुए जितारिको छोड़ दिया।
भगदत्तकी मेनाने विजय घोष किया। और उसने मगर्व बनारसमें प्रवेश किया।
मुंडिकाने सुना कि उसका पिता युद्ध में परास्त हुआ है, जमीन
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मुनि भगदत्त ।
[ ८९
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उसके पैरों तलेसे खिसक गई। उसने सोचा कि ' भगदसने जिस लिये यह युद्ध ठाना था उसे अब वह अवश्य पूरा करेगा - बलात्कार वह मुझसे व्याह करेगा । किन्तु नहीं, मैं ऐसा कदापि नहीं करूंगी। मैं स्त्री हूं तो क्या ? मेरी इच्छा के विरूद्ध किसकी सामर्थ्य है जो मुझसे व्याह करेगा ? मैं ब्याह नहीं करूंगी- किसी के भी साथ ! मैं अशरण शरण जिनधमकी शरणमें जाऊँगी । वही तो जगतमें सच्ची त्राण है । आजन्म अखंड शीलधर्मका पालन करूँगी ।' अपने इस निश्चयके अनुसार वह एक जैन साध्वीके पास पहुंची और साधुदीक्षा ले भिक्षुणी होगई ।
बनारस में प्रवेश करनेपर भगदत्तने मुंडिकाका सारा वृतान्त सुना; जिसे सुनकर उसका हृदय दयासे भीज गया। वह दोड़ा दोड़ा गया और मुंडिकाके पैरों पड़कर उससे क्षमा मांगने लगा । सच है गुणी ही गुणका आदर कर सक्ता है । भगदत्त हीन जातिका होनेपर भी गुणवान था । मुंडिका के धार्मिक निश्चयने भगदत्तके हृदयको नमा दिया । उसे वैराग्यसे परिपूर्ण कर दिया । जितारिके पुत्रको उसने बनारसका राजा बनाया और वह स्वयं जैनधर्मकी शरणमें पहुंचा - जैन साधु होगया । उसने उग्रोग्र तप तपा, जिससे उसकी प्रसिद्धि चहूं ओर होगई और लोग अभीबन्दना करके अपने भाग्यको सराहते थे । अब यह कोई नहीं कहता था कि भगदत्त हीन जातिका है - उसे कौन माने । क्षमा, शील, शांति, समता प्रभृत गुणने भगदत्तको लोकमान्य बना दिया । गुणोंकी उपासना ही सार्थक है ।
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पतितोद्धारक जैनधर्म ।
[ ३ ]
माली सोमदत्त और अंजनचोर !*
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(१.)
राजगृहमें सोमदत्त नामका माली रहता था, और उसी नगरमे जिनदत्त नामक सेठ भी रहने थे। सेठ जिनदत्त जैनी थे, वह प्रातः काल उठते ही जिन मंदिरोंमें पूजा करने जाते थे । सोमदत्त मालीने देखा कि सेठ जिनदत्त एक चील जसे यंत्रमें बैठे-बैठे घुर घुर कर रहे हैं। थोड़ी ही देर में वह चील जैसा यंत्र सरे से ऊपरको उड़ गया। मालीने कहा- 'अरे ! यह तो वायुयान है ।' और वह उसकी ओर निहारता रह गया !
सोमदत्त सेठजीको प्रतिदिन उस विमानमें बैठकर उड़ते देखकर आश्चर्यमें पड़ गया । वह सोचने लगा कि 'आखिर सेठजीको ऐसा क्या काम है जो सबेरे ही सबेरे विमान में बैठकर रोजमर्रा कहीं जाते हैं ? धर्मवेलाके समय उनका इस तरह रोजाना जाना रहस्यसे खाली नहीं है। आनेदो आज उन्हें; मैं उनसे पूछूंगा !"
सोमदत्त यह विचार ही रहा था कि सरे-से सेठजीका विमान उसके सामने आ खड़ा हुआ। मालीने झटसे जाकर सेठजीके पैर पकड़ लिये। सेठजी बेचारे बड़े असमंजस में पड़े, वोले- 'आखिर बात भी कुछ है !"
सोमवत्तने उत्तर दिया- 'आप क्षमा करें तो एक बात पूछूं।" सेठने कहा- 'पूछं, तुझे क्या पूछना है ?'
* माराधना कथाकोषकी मूळ कथाके माधारसे ।
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माली सोमदव और अंजनचोर ।
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[ ९१ सोमदत्तने अपनी शंका उनपर प्रगट करदी; जिसे सुनकर सेठजी खिलखिलाकर हंस पड़े और बोले- बस, "इस जरासी बात के लिए इतना तूमाल !' किन्तु इस जगसी बात में मालीकी हृदगत धार्मि कता ओतप्रोत भी । वह उसे एक पुण्यात्मा प्रगट करनेके लिये प्रर्याप्त थी। सेठजीने भी उसकी धार्मिकताको देखा और वे प्रसन्न हो कहने लगे- 'प्रिय सोमदत्त, मैं धर्मवेलामें धर्माराधना ही करता हूं । विमानमें बैठकर तीर्थोंकी वन्दना करने जाता हूं, यह मेरा नित्य नियम है ।"
धर्मवत्सल सोमदत्त यह सुनकर पुलकितगात्र होगया और बोला - " मालिक, मुझपर भी मिहर होजाय ! आपकी जरीसी दयासे मेरा बेडा पार होजायगा !"
सेठ जो दृढ़ सम्यक्ती थे, वह चटसे बोले- हां हां, सोमदत्त तुमने यह बड़ा अच्छा विचारा। जिनेन्द्र की पूजा भव-भवमें सुखदाई होती है। तुम तो मनुष्य हो, जिन पूजा करके महत् पुण्य संचय कर सक्ते हो । जानते हो, इसी राजगृहमें एक मेंढक था जो जिनेन्द्र पूजाके मावसे एक फूल लेकर तीर्थंकर महावीर के पासको चला था, परन्तु बेचारा रास्ते में हाथी के पैर तले आकर मरा और पूजाके पुण्यमई भावसे फलस्वरूप देवता हुआ। आओ, मैं तुम्हें विमान बनानकी विद्या बतादूं, तुम उसे साध कर जिन पूजा करो। तुम माली हो तो क्या ! तुम्हारा हृदय पवित्र है !"
खूब तीर्थ वंदना और
सोमदत्तने सेठजीसे विमान विद्याकी विधि जान ली। अब
वह उस विद्याकी सिद्धिमें लगगया ।
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पतितोद्धारक जैनधर्म ।
(२) सोमदत्तने हजारों-लाखों पौधोंको लगाया, बढ़ाया और सेवारा था। उसके हाथके लगे हुए सैकडों पेंड अपने सौन्दर्यसे लोगोंका मन मोहते थे; परन्तु यंत्र-विद्यामें वह अपनेकी कुशल सिद्ध न कर सका । कई दिन बीत गये परन्तु लाख सिर धुनने पर भी वह विमानका ढांचा भी न डाल सका । अपनी इस असमर्थता पर बेचारा हैरान था तो भी वह हताश न हुआ।
उस दिन सोमदत्त विमान-विद्या साध रहा था। राजगृहका नामी चोर अंजन उघरमे आ निकला। उसने सोमदत्तसे मारा वृत्तांत पूछा और उसकी कठिनाई जानकर उसने कहा-" भाई, घबड़ाओ मत, मुझे जरा यह विद्या बताओ। मैं इसे अभी साधे देता हूं।
सोमदत्तने कहा- भाई, मैं तुम्हें इस विद्याकी विधि एक शर्त पर बता सकता हूं और वह यह कि तुम मुझे विमानमें बैठा कर सारे तीर्थोकी यात्रा करा दो।'
अंजन बोला- अरे, इसके कहनेकी क्या जरूरत थी। विमान बन जाय तो एकबार क्या अनेकबार आपको तीर्थयात्रा करा दूंगा।
सोमदत्त यह सुनकर प्रसन्न हुआ और उसने चोरको विद्या साधने की विधि बतला दी । चोर निशक और दृढ पुरुषार्थी था । यह विमान बनानेमें बेसुध हो जुट गया और उसने उसे बना भी लिया; किन्तु उसमें बैठकर आकाशमें उड़ना भी कोई सरल काम
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माली सोमदर और मजनबोर। [१३ नहीं था ! अंजनने कहा-'आमो भाई सोमदत, बैठो यह विमान बन गया ।'
सोमदत्त सीधे से बैठ गया; परन्तु ज्योंही विमान उपरको उठा कि वह घबड़ाने लगा और ऐसा घबड़ाया कि अंजनको विमान चलाना रोकना पड! ! किन्तु अंजन निशङ्क और अभय था, उसे विमानमें बैठकर उडनेमें जरा भी डर न मालूम हुआ।
विगन बन गया, अंजन बैठकर उसमें उडने भी लगा; परंतु फिर भी सोमदत्त अपनी मानसिक दुर्बलताके कारण उससे लाभ न उठा सका । सोमदत्त दुखी था और अंजनको मलाल था।
'अरे ! अभी उठा ही नहीं ! भाई, खोल किवाड़ !'
'अरे भाई सोमदन ! सुनता ही नहीं ! सोता रहेगा क्या ? देख कितना दिन चढ़ आया ।'
• कौन ? भाई अंजन ? इतने तड़के कहां ?'' ' कहां कहा ? उठो भी-चलो दिलकी मुराद पूरी होगी ?" 'कहां चलूं।" • जहा मैं कहूं । जल्दी नहा-धो लो । मैं यहां बैठा इं।'
'अच्छा'-कहकर सोमदत्त माली नहाने चला गया और नहा-धोके वह लौटा तो उसने देखा कि उसका मित्र अमन बैठा उसका इन्तकार कर रहा है। वह अटपटा होकर बोला-'भाई' भाज तो तुम पहेली बुझ रहे हो। आखिर कुछ तो बताभो, कहां चढूं?'
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९४ परिवोदारका । ___ अंजन मुंह चढ़ाके बोला-'मुझपर विश्वास नहीं है, तो लो मैं यह जाता हूं। अब कभी आपको कष्ट...
सोमदत्तने बीचमें ही उसे रोक लिया और कहा-'वाह, इतनी जल्दी नाराज होगए । लो चलो, देर मत करो।'
अंजन खुशी खुशी सोमदत्तको हाथसे पकड़कर ले चला। बाहर एक अच्छी सी कोठरीमें उसे बैठा दिया और बोला- भाई, जरा देर तुम इस कोठरीको देखो भालो मैं अभी आता हूँ !'
सोमदत्त कोठरीको देखने लगा। उसमे बैठने के लिये अच्छे गद्वे-तकिये लगे थे-बढ़िया फर्श बिछा हुआ था। छतमें झाड़फानुम लटक रहे थे । दीवालो र सुन्दर चित्र और निर्मल दर्पण लगे हुये थे। सोमदत्त कोठरीके इस सौदर्यको देखने में मम होगया। उसे इसका जग भी भान न हुआ कि कोठरी हिल रही है-झाडफानुम हिल हिल कर खतखता रहे है । पृथ्वी करवट थोड़े ही बंदल रही थी जो मोमदत्त कुछ और सोचता !
(४) अंजनने सोमदत्त के कवेपर हाथ रखकर कहा-' भई स्वब ! तुमने अभी यह जरासी कोठरी भी नहीं देख पाई ! मै तो अपना सब काम भी कर आया ।'
मोमदन सिट पिटाकर रह गया । अंजनने उसके मंकोचको काफूर करने हुए कहा-'अच्छा भाई ' अर चलो, बाहरका वैचित्र्य देखो।"
सोमदत्तने ज्योंही कोटरीके बाहर कदम रखा कि यह भौच
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माली सोमदत और मनलचोर । कासा हो वहीं खड़ा होगया-मानो उसे काठ मार गया हो। अंजन ताली बजाकर हंसने लगा । सोमदत्तको उसका यह बर्ताव अखर गया । वह झुंझलाकर बोला-' यह नटखटी । मेरेपर जादू किया है तुमने । मित्र होकर यह विश्वासघात !'
अजनने कहा-'विश्वासघात है या प्रतिज्ञा पूर्ति यह अभी मालूम हुआ जाता है । जरा आगे बढ़िये ।"
सोमदत्तने अँजनके साथ आगे बढ़कर एक अति रम्य और विशाल जिनमंदिर देखा । वह स्वर्ण शैलपर बड़ा ही मनोहर दिखता था। इस दिव्य दृश्यको देखने ही सोमदन अपनेको संभाल न सका । वह अंजनसे लिपट गया और पूछने लगा-'भाई, तुम मुझे कैसे किस तीर्थमे ले आए ! तुम बड़े अच्छे हो !'
अंजन बोला- नहीं नहीं, मै बुग हैं। ले कहां आया ? देखने नहीं यह मेरुार्वत है और यह वहां का जिन चैत्यालय । विमानमें बैठकर तुम बहा आrcो '
___ है : विमानमें बेटकर ? वह कोटरी विमान थी " पूछा सोमदत्तने आश्चर्यचकित हो!
अंजनने उत्ता दिया - खुले बिमानमें आपका जी पड़ाता था । इसलिये मैंने बिमानको कोठीके रूपमें पलट दिया !'
__ अंजनको छानीमें लगकर मोमदत्तने कहा-'माई ! तुम धर्मात्मा हो । तुम्हारा उपकार मैं कभी नहीं भूल सकता। चलो, अब हिकी पूजा करके अपना जन्म । र करें :
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९६]
पवितोद्धारक जैनधर्म।
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निष गुरु विराजमान थे और उन्हीं के निकट सेठ मिनदत्त बैठे हुये थे। देवपूजा करके अंजनचोर और सोमदत्त माली वहा पहुंचे। उन्होंने पहले सेठजीको नमस्कार किया और बादमें गुरु महाराजको ! देखनेवाले उनके मुंहकी ओर ताकने लगे। सेठ जिनदत्तसे न रहा गया । उन्होंने कहा- मूखों ! तुम्हें यह भी तमीज़ नहीं कि पहले गुरु महाराजकी वंदना की जाती है।
अंजनने विनयपूर्वक कहा- हमने अपने गुरुकी ही पहले वंदना की है। सेठजी ! यदि माप दया करके जिनपूजाका महत्व
और विमान विद्या सोमदत्तको न बताते तो हममे दीन हीन पापपंक लिप्त आत्माओंका भला कैसे होता ? कैसे हम यहा पहुंचने ? आप ही हमारे सच्चे हितैषी है ." ____ गुरुमहारामने कहा-'ठीक कहने हो, अजन ! लोक भेष और रूपकी पूजा करनेका दंभ करते है, परन्तु नंगे होकर जंगलमें जा बैठनेसे न कोई साधु होता है और न कोई शरीरसे हीन, व कुरूप होनेसे ही कोई पापी नहीं होता और न सुन्दर शरीर और उच्च भातिको पाकर कोई धर्मात्मा होजाता है। मनुष्यमें पूजत्व और वड़प्पन गुणोंसे आता है और गुणोंकी वृद्धि उनका विकास करनेसे होती है । सेठ जिनदत्त गुणवान महानुभाव हैं और तुम दोनों यद्यपि लोकमें नीच और हीन कहे जाते हो, परन्तु तुम हो भव्य धर्माकांक्षी ! गुणोंका भादर करना तुम जानते हो। और आदरविनय करना ही धर्मका मूल है। सिद्धसे पहले भरहंतकी विनय
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माली सोमदत और अंजननोर करके हम गुणग्राहकता और कृज भाव का महत्व प्रगट करते हैं। तुमने भी आज यही किया है । भाई ! अपने परिणामोंको और भी उज्ज्वल बनानेका प्रयत्न करी । यह शरी। नाशवान् है। दुनियां की सम्पत्ति क्षणिक है-स्त्री पुत्र भ.दि सरन्धी मतलबके साथी है । उनमें क्या पगे हो ? हृदय के संकोचको दूर कर दो-सारे विश्वको अपना कुटुम्ब बना लो और निर्द्वन्द होकर आत्म-शौर्य प्रकट करनेमें लग जाओ। क्या कहते हो, अंजन ! हे हिम्मत ? अभी तक चोर रहे ? अब चोरको दण्ड देने का उद्यम करो : " ___अंजन मुनिराजके पैरों में पडकर बो- " प्रभू ' आप सत्य कहते है । आशीष दीजिये कि मैं अपना आत्मशौर्य प्रकट करने में मफल प्रयाम होऊँ।"
गुरुने अपनी शान्तिमय छायामें अंनको ले लिया। उस अंजनको जो कल तक चोर था, f में लोग वृणाकी दृष्टि से देखते थे
और राज कर्मचारी जिसको पकडसर शूली चढाने की फिराक में रहते ' उस दीन हीन पापी अंजनको निर्य थ गुरुने जगत-पूज्य बना दिया।
अंजनने आत्मशौर्य प्रकट करने के लिये हाथोंमे आने बाल उपाड कर फेंक दिया, वस्त्रों क वनको उतार फेंका। प्रकृत भेषमें निर्द्वन्द हो वह तर तरने लगे। स्टजी और माली उन्ह · धन्य - धन्य ' कहने लगे और शक्ति के अनुमा व्रत लेकर वापिपघा अथे।
थोडे समय बाद उन्होंने सुना कि अंजन संपार-मुक्त होगये - वह सिद्ध परमात्मा हुये है। भक्तिम उन्होंने मस्तक नमा दिया और भगवान का पूजन किया।
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९७ ]
पतितोद्धारक जैमथ
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[ ४ ]
धर्मात्मा शूद्रा
( १ )
उज्जन के उद्यानमें तपोधन निर्ग्रन्थाचार्य संघ सहित आकर बिराजे थे । वे महान योगी और ज्ञानी थे। उज्जैनकी भक्तवत्सल जनताने जब उनका शुभागमन सुना तो उसने अपने भाग्यको सराहा । स्त्री-पुरुषों, बालक-बालिकाओं और युवा वृद्धोंने उनकी सत्संगतिमे लाभ उठानेका यह अच्छा अमर पाया। स्वाति नक्षत्रका जल चातक को हर समय नहीं मिलता । योगियोंका समागम भी सुलभ नहीं होता । बनमें रहने से कोई योगी हो भी नहीं जाता । कामिनी कंचनका मोहत्याग कर जो इन्द्रियोंको दमन करने में सफल होकर जीवमात्रका कल्याण करनेके भी तलर होता है, वह सच्चा साधु संसार दुर्लभ है। उज्जैनकी विवेकी जनताने निर्ग्रन्थाचार्य में एक सच्चे साधुके दर्शन किये, उसने अपनेको कृतकृत्य माना ।
उज्जैन के राजा राव उमराव, धर्मी व्यापारी, सामान्य- विशेष सब ही निर्यथाचार्यका धर्मोपदेश सुनने गये। सब ही एकटक होकर धर्मोपदेश सुनने लगे । आचार्य महाराज बोले- भव्यो ! मानवजन्मका पाना महान पुण्यका फल है। समुद्र मेसे राईके दानेको ढूंढ निकालना कदाचित् सुगम होसक्ता है परन्तु मनुष्य होना खतना सुगम नहीं है । ऐसे अमूल्य जीवनको पाकर व्यर्थ ही आयु पूरी कर देना- सुखसे म्वानेपीने और मौज उड़ाने में ही अपने
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* 'गौ चरित्र' में मूल कथा है ।
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धर्मालाशदा कर्तव्यकी इतिश्री समज लेना अपने आपको धोखा देना है। क्योंकि मौनशोखमें सुख नहीं है। वह जबतक सहन होता है तबतक प्रिय लगता है। किंतु जहां इन्द्रियां शिथिल हुई और युवावस्था खिसकी कि वही भोगपभोग काले नागसे दिखने लगते हैं । भाइयो, यदि मौजशौकमें ही सुख होता तो बुढापेमें भी उनसे सुख मिलना चाहिये; परन्तु वह नहीं मिलता। इससे स्पष्ट है कि संसारके इन्द्रियजनित भोगोंसे सुख नहीं मिल सक्ता-वह उनमें है ही कहां? सुख वस्तुनः अपनेसे बाहर कहीं है ही नहीं ! आत्मा परसे जहां आकुलताका बोझ हल्का हुआ कि उसे सुखका अनुभव हुआ । सचमुच सुख प्रत्येक आत्माका निजी गुण है। यदि सुखी होना चाहते हो तो अपने भीतरके 'देव' को-' आत्माराम' को पहचाननेका प्रयत्न करो- तुम्हारा कल्याण होगा !'
निग्रंथाचार्यका यह धर्मो देश सुनकर सब लोग प्रसन्न हुये और किन्होंने अपनी शक्तिके अनुसार धार्मिक वा नियम भी लिये । थोड़ी देरमें भक्तों की संख्या घट गई। निर्ग्रन्याचार्य के पास इनेगिने आदमी रह गये। उससमय उन्होंने देखा कि तीन महाकुरूपा गेगीमी शूद्रा कन्यायें उनके सन्मुख हाथ जोडे खड़ी हैं । आचार्य महाराजने उन्हें भाशीर्वाद दिया।
वे शूद्रा कन्यायें उनके पाद-पद्मोंका आश्रय लेकर बोली" नाथ ! क्या हम-सी दीन-हीन व्यक्तियां भी सुख पानेकी मधिकारिणी हैं।"
निग्रन्थाचार्यका मुखकमल खिल गया। उन्होंने उत्तरमें कहा
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१०० ]
पतितोद्धारक जैनधर्म -
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"हां, पुत्रियो ! क्यों नहीं तुम भी सुख पानेकी अधिकारिणी हो ? तुम तो मनुष्य हो - पशु-पक्षी भी सुखी होसते हैं।'
कन्यायें - 'पशु पक्षी भी ?'
निर्ग्र० – 'हां, पशुपक्षी भी । उनके भी आत्मा है और सुख प्रत्येक आत्माका अपना निजी गुण है । अब भला कहो, उस अपने उपभोग कौन नहीं कर सक्ता ? गुणका
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कन्यायें - तो नाथ ! हमें सुख कैसे मिले ? '
निग्रे० ' सुख आकुलताके दूर होने से मिलता है और आकुळता धर्म कर्म करनेसे मिटती है । इसलिए यदि तुम सुख चाहती हो तो धर्मकी आराधना करो !
शूद्रा०- भगवन् ! हम धर्म कैसे पालें ??
निर्ग्र० - ' देखो, जैसा अन्न खाया जाता है वैसा ही मन होता है और मनके पवित्र होनेपर इष्ट मनोरथ सिद्ध होते है । इसलिये पहले तुम शुद्ध भोजन करनेका नियम हो । जिस भोजन के पानेमें हिसा होती हो और जो बुद्धिको विकृत बनाता हो, उसे मत ग्रहण करो । मधु, मांस, मदिरा - ऐसे पदार्थ हैं जो मानव शरीर के लिये हानिकर है, तुम उन्हें मत खाओ और देखो, हमेशा पानी छानकर साफ - सुथरा पियो !"
शूदः ०–' नाथ, यह हम करेंगी । सादा और शुद्ध हमारा अशन-पान होगा ।'
निर्ग्र० - धन्य हो पुत्रियो ! अब देखो, जैसे तुम सुख चाहती हो वैसे ही प्रत्येक प्राणी सुखी होना चाहता है । अतः तुम भरसक
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धर्मात्मा शुद्रा कन्यायें । प्रत्येक प्राणीका उपकार करना न भूलो ! दुसरेका भला करोगी तुम्हारा भला होगा ।'
शूदा० -' नाथ ! हम यह भी करेंगी ! किंतु नाथ, हम रोगमुक्त कैसे हों ? दवाइयां बहुत खाईं पर उनसे कुछ नफा न हुआ ।' निर्ग्र० - पुत्रियो, संसार में साता और असाता प्रत्येक प्राणके पूर्वोपार्जित कर्मका परिणाम है। यदि तुम दूसरोंको बहुत कष्ट दोगी, किसीको रोगी- शोकी देखकर उसका तिरस्कार करोगी तो तुम भी दुखी और तिरस्कृत होओगी । जैसा बीज बोओगी वैसा फल मिलेगा । बस, रोग-शोक से छूटना चाहती हो तो दीन-दुःखी जीवोंकी सेवा करो और व्रत पूर्वक जिनेन्द्र भगवानकी पूजा करो, तुम्हारा रोग दूर होगा ।
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शूद्रा० - नाथ ! जीवोंकी सेवा और व्रत उपवास तो हम कर लेंगी; परन्तु भगवत्पूजन हम कैसे करें ? हमसी दीन दरिद्रियोंको मंदिर में कौन घुसने देगा ?'
निर्म० - जैनी निर्विचिकित्सा धर्मको पालते हैं। वे जानते हैं कि यह काया स्वभावसे ही अशुचि और मलिन है। कायाके कारण किसीकी भी घृणा नहीं करना चाहिये । कायाका सौन्दर्य धर्म धारण करनेसे होता है। तुम जैन मंदिरमें जाओ और भगवानकी पूजा करो, तुम्हारा कल्याण होगा ।'
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निर्मन्थाचार्यकी आज्ञा शिरोधार्य करके उन शूद्रा कन्यायने उनके चरणोंमें मस्तक नमा दिया । उनका रोम-रोम कृतज्ञताज्ञापन करता हुआ कह रहा था कि ' प्रभु ! तुम पतितपावन हो ।'
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२०२] पबित्येदारक जैन ।
(२) मा०-'देवालयसे पवित्र स्थानमें शूद्र ! सो भी कंगाल और कोटी 1. जैन- देवालय पतितपावन है, वहां पतित और नीच न मावतो उद्धार किनका हो?'
-'धर्मका उपहास न करो।
यह धर्मका उपवास नहीं, सचा आदर है ! रोगीको ही औषधि पावश्यक होती है । भच्छा भला आदमी औषधिका क्या करे ? इसीतरह पापीको पापसे छूटनेके लिए धमकी आराधना करना चाहिए।'
ब्रा०-'तभी तो जैनी नास्तिक कहे गये । जाओ, वह बड़े नास्तिक तुम्हारे गुरु आये ।'
जैनीने देखा निम्रन्याचार्य आरहे हैं। उसने उनको नमस्कार किया और चैत्यालयमें भाकर वह उनकी धर्मदेशना सुनने लगा। मोवाओमसे एक भक्तने पूछा- ये दयालु प्रभु ! आज मैंने तीन कुरुपा कन्यायोंको जिनेन्द्रकी पूजा करते देखा है। नाथ, वे महान दरिद्री और रोगिल हैं । उनको देखकर मेरा हृदय रोता और सता है । प्रभू ! इस भेद्रका रहस्य बतानेकी कपा कीजिये।'
निर्य० बोले-मव्योत्तम ! संसारमें फिरता हुमा यह ,जीव ब्रा और नीच सब ही गतियोंने जाता है । जैसे कर्म करता है वैसे फल पाता है। इन श्रद्रा कन्याोंने पूर्व जन्ममें भाभ कमाई.की उसीका फल अब मोग रही है। किंतु अब उनका जीवन सुपर गया
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है, वह पर्ममार्थपर गई है, उनका कल्याण अवश्यम्भावी है। तु धर्मवत्सल है-तेरे हृदयमें अनुकम्पा और आस्तिक-भाव है। उनके दुःखको तू कैसे देखे ? और उनके पुण्यकर्म पर तू क्यों न प्रसन्न हो ??
भक्तने मस्तक नमाकर कहा-' नाथ ! माप सच करने हैं। जिसे धर्मसे प्रेम होगा उमे धर्मात्मासे भी प्रेम होगा, क्योंकि धर्मका आश्रय धर्मात्मामें है।
निम्र०- ठीक समझे हो, वत्म ! धर्मात्मा रूप-कुरूप जातिपाति-ऊँचनीच-कुछ नहीं देखता, वह गुणोंको देखता है । जानते हो हीरा और सोना मैलमे भरे ढेलों से निकलते हैं । तन मलीन और कृष्णान होते हुये भी मनुष्य धर्मात्मा होते है । ऐसे धर्मात्माओंको देख कर ग्लानि नहीं करना चाहिये । सुनो एक दफा इसी देशमें एक सोमशर्मा नामका ब्राह्मण रहता था। उसकी स्त्रीका नाम लक्ष्मीमती था । उन दोनोंको अपने शरीर-सौन्दर्य और उच्च जातिका बड़ा अभिमान था। ये अपने सामने किसीको गिनते नहीं थे। एक दिन एक महान दिगम्बर जैन तपस्वी लक्ष्मीमतीके द्वारसे निकले ! रूप और कुलके नशेमें मस्त बनी लक्ष्मीमतीने उन तपोधनको नंगा और बेला कुबैका देखकर बहुत उल्टी-सीधी सुनाई और मुंहसे पान उमाल लेकर उनके फेंक मासा ! वह सच्चे साधु थे, शत्रु और मित्रमें
के समभाव थे। कुमबाप कह बनको चले गये। लक्ष्मीमतीके हा-हुमाने आरामकी सांस ली। पर जानले हो, वह रूप कुलो प्रोमोडी श्री गौर फरमाया नहीं कर साहितर
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पतितोदारक जैनर्म। लक्ष्मीमतीको एक दिन ऐसा क्रोध आया कि वह स्वयं भागमे कूदकर जल मरी ! मरते समय भी उसके परिणाम रौद्र-विकराल थे।
सो वह वैसे ही कर स्वभाववाले पशुओंके जीवन में दुख भुगतती फिरी। मनुष्य जीवन में जो पशु बना वह मरने पर क्यों न पशु हो ? किंतु समय बीतने पर उस ब्राह्मणीका पशुमाव क्षीण होगया और मानवता उसमें पुनः जागृत हुई। अब कहो, पशु होकर भी जो मानवों जैसा विवेक दर्शाये, वह मानव क्यों न हो ? आखिर लक्ष्मीमतीका जीव फिर मनुष्य शरीमें आया । मगधदेशमें एक मल्लाह रहता था। उसीके घर उस ब्राह्मणीका जीव आकर जन्मा । वह उम मल्लाहकी काणा नामक कन्या हुई । प्रतिदिन वह नाव खेया करती और लोगों को नदी पार उतारा करती; किंतु दुनिया ऐसी कृतघ्न कि वह उस बेचारीको नीच समझकर हल्की निगाहसे देखती। काणा फिर भी कुछ बुरा न मानती । इस कृतनी दुनियाका वह बगबर उपकार करती-अपने मानव धर्मको वह उत्तरोत्तर विकसित कर रही थी। हठात् एक दिन सौभाग्य उसके सामने आ उपस्थित हुआ; किंतु वह सौभाग्य या उसी नंगे और मलीन रूपमें, जिसका उसने लक्ष्मीमतीके भवमें तिरस्कार किया था। वह बोली-' नाथ, मैंने आपको कहीं देखा है ?' तपोधन मुनिराजने उसे सब पूर्व कथा बता दी । काणा उसे सुनकर अपने संवेगको न रोक सकी। मनुष्य जीवनको सफल बनानेके लिये वह माता-पिताके मोहको खो बैठी ! सारे विश्वको उसने अपना कुटुम्ब बना लिया और उसकी सेवा करना अपना धर्म ! वह भिक्षुणी होगई
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धर्मात्मा शुद्रा कन्यायें ।
[ १०५
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और नगर ग्राम फिर कर प्राणियोंका हित साधने लगी । नीच ऊंच, रूप- कुरूपको अब वह नहीं देखती थी वह प्राणीमात्रका दुःख दूर करना जानती थी और सबको अपने समान आत्मा समझती थी । इसतरह उस नीच समझी जानेवाली काणाने खूब तप तपा। लोग अब उसके भक्त थे । आखिर समभावोंसे उसने शरीर छोड़ा और स्वर्ग में देवता हुई । वहांसे आकर श्रीकृष्णके पुज्य पूर्वज वासुदेचकी वह रानी हुई। देखा भाई ! यह है धर्मका प्रभाव ! शरीर और कुल जातिके मोहमें मत पड़ो । धर्मको देखो और उसका आदर करो।'
भक्तने निर्ग्र० के मुखारविंदसे उपरोक्त कथा सुनकर अपनेको धन्य माना । सबने समझा कि धर्म पतित और उन्नत - सबके लिए समान हितकारी है । '
( ३ )
कुरूप
दिव्य क्षेत्र था और वहांकी दिव्य सामिग्री थी । शूद्रा कन्यायें मानो सोते जाग उठीं ! उन्होंने देखा, अब उनका वैसा और रोगी शरीर नहीं है - वह तो अपूर्व, दिव्य और प्रभावान् था। उनके आश्चर्यका ठिकाना न रहा । चकित होकर जो उन्होंने नेत्रोंको ऊपर उठाया तो ऐश्वर्य देखकर वे स्थंभित होगई ! उन्होंने और भी देखा कि उनका शरीर अब पुरुषोंका है- अनेक अप्सराएं उनका स्वागत कर रहीं हैं । अब उन्हें जरा होश आया । अपने दिव्य ज्ञानसे उन्होंने विचारा ! वे जान गई, यह उनका दूसरा जीवन है। कन्यायोंके शरीरका अन्त उन्होंने समाधि धारण करके किया और
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. १५६ ]
पतिः ।
अर्माताका मीठा फल उन्हें स्वर्णने ले गया है। सार्गक्री विभूति देखकर उनके बीन फूले अंग न समाये । दीर्घकाल तक उन्होंने स्वर्ग सुख भोगे । अन्तमें वे तीनों मगनदेश के गौरवग्राम में एक आरण के पुत्र हुये, वे बडे विद्वान थे । बहुओर उनकी कीर्ति विस्तृत थी । अन्ततः भगवान महावीर के वे तीनों माई प्रमुख शिष्य हुये और सिद्ध परमात्मा बने ! आज वे जगत्पूज्य हैं । शूद्रा जन्मसे विनयगुण द्वारा आत्मोत्कर्ष करके वे लोकबन्ध हुये । धन्य है वे और धन्य है जिनधर्म, जिसने घृणायोभ्य शूद्राओंको ऐसा महान पद प्रदान किया ।
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V
व्यभिचारजात-धर्मात्मा ।
" न विप्रा विप्रयोरस्ति सर्वथा शुद्धशीलता । कालेननादिजा गोत्रे स्खलनं क न जायते ॥ संयमो नियमः शीलं तपो दानं दमो दया । विद्यन्ते तात्विका यस्यां सा जातिर्महती मता ।। " अर्थात - "ब्राह्मण और अब्राह्मणकी सर्वथा शुद्धिका दावा नहीं किया जासकता है, यह कहकर कोई भी रक्तशुद्धिका टिंढोरा नहीं पीट सक्का कि उसके कुलमें किसीने व्यभिचार सेवन नहीं किया और तत्सम्बन्धी दोष उसके कुलमें नहीं चला आया । क्योंकि इस अनादिकालमें न जाने किसके कुल या गोत्रका कब पतन हुआ हो ! इसलिए वास्तवमे उच्च जाति तो वही है जिसमें संयम, नियम, शील, तप, दान, दम और दया पाई जाती हो ।”
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-" जैनधर्मकी उदारता पृ० १८ "
कथाएं:१ - कार्तिकेय । १-कर्ण ।
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मुनि कार्तिकेय।
[१] मुनि कार्तिकेय ।*
नगरमें राजा राज्य करते थे। उनके राजदरबारमें बड़े २ दिग्गज विद्वानों और वेदपाठी पण्डितोंका जमघट रहता था। उस दिन उनमें बड़ी चहलपहल थी, अदभ्य उत्साह था, सब ही पण्डित और विद्वान प्रसन्नचित्त थे। बात यह थी कि उस दिन राजा एक महत्वशाकी प्रश्नका निर्णय करानेकी सूचना जनसाधारणको दे चुके थे। राजदरबार ठसाठस भरा था। मंत्री और उमराव, पण्डित और विद्वान सब ही अपने यथायोग्य आसनों पर बैठे हुए थे। एकदम सभाजन उठ खड़े हुये और एक ध्वनिसे सबने कहा'श्री महाराजाधिराजकी जय हो !'
___ राजा आये और सिहासन पर बैठ गये । पण्डितोंमें उनके प्रश्नको जानने के लिये उत्कंठा बढ़ी । राजाने मंत्रीकी ओर इशारा किया । मंत्रीने खडे होकर कहना शुरू किया:
" सज्जनों ! हमारे महाराज कितने न्यायशील और सरल है, यह आप लोगोंसे छिपा नहीं है। आप जो भी कार्य करते है उसमें अपनी प्रमुख प्रजाकी संमति ले लेते हैं । आम भी आपके सम्मुख एक ऐसा ही प्रश्न विचार करनेके लिये उपस्थित करनेकी आज्ञा श्रीमानने दी है। आप सोच विचार कर उत्तर दीजिये । प्रश्न यह है कि जिस वस्तुका जो उत्पादक होता है वह उसका
* भाराधना कथाकोषमें वर्णित कथाके अनुसार ।
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पतितोदारक जनधन स्वामी होता है या नहीं ? यदि स्वामी होता है, तो उसे उस वस्तुका मनमाना उपयोग करनेका अधिकार होना चाहिये ।" मंत्री अपना वक्तव्य समाप्त करके बैठ गया। सभा निस्तब्धता छागई। पण्डित मण्डलीमें थोड़ी देरतक कानाफूसी होती रही। आखिर उनमेसे उग्र पण्डितने खड़े होकर सभापर दृष्टि दौडाई और राजाके आगे शीश नमा दिया। फिर वह बोले
“हमारे प्रजावत्सल राजाधिराज न्याय और बुद्धिमत्ताकी मूर्ति है । हमारे इस कथनका समर्थन उनके द्वारा उपस्थित किये गये प्रश्नसे होता है । साधारणसा प्रश्न है, किन्तु महाराज इस साधारणसे प्रश्नका निर्णय भी प्रजाकी सम्मति लेकर करते हैं, इसी लिये यह असाधारण है । सीधीसी बात है-जो जिस वस्तुका उत्पादक होता है वह उसका स्वामी और अधिकारी होता ही है। वह उस वस्तुका मनमाना उपयोग क्यों न करें ? सजनो! आप हमारे इस निर्णयसे सहमत होंगे।"
उपस्थित मण्डलीने 'महाराजकी जय बोलकर अपनी स्वीकृति प्रगट की। अब राजाकी हिम्मत बढ़ गई-गजा अनाचार पर तुला हुआ था--वह अपनी ही पुत्रीको अपनी पत्नी बनानेकी अनीति करना चाहता था । प्रजाकी अनुमति सुनकर वह मंत्रीमे बोला• मैत्रिन् ! अब कोई आपत्ति ननक बात नहीं है। प्रमा भी मेरे मससे सहमत हैं । अब विवाह सम्पन्न होने दो।"
मंत्रीने कहा- 'राजन् ! यह तो ठीक है किन्तु प्रमाके निकट यह विषय और भी स्पष्ट हपमें आजाना चाहिये।"
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राजा कड़क कर बोला- " तुम मंत्री नहीं - राजद्रोही हो । चुप रहो । सज्जनो ! जिस वस्तुकी आज रक्षा और पालन-पोषण करते मुझे बारह वर्ष होगये, क्या अब मुझे उसका मनमाना उपयोग करनेका अधिकार नहीं हैं ?"
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प्रजाने एक स्वरसे कहा- 'अवश्य है, महाराज ! अवश्य है ।' नीति के आगार मंत्रीने फिर साहसपूर्वक कहा - " यह अधिकार अचेतन पदार्थोंपर होसक्ता है, सचेतन मनुष्यपर नहीं हो सका । किसी मनुष्यकी इच्छा के प्रतिकूल कोई कार्य करनेका अधिकार किसीको नहीं है । उसपर कन्याके विवाह में उसकी इच्छा ही प्रधान होना चाहिये ।"
राना क्रोध से थरथर कापने लगा और दात पीसते हुये बोला'दुष्ट ! उच्चपदको पाकर तू बौखला गया है। देखता नहीं, दास दामी मनुष्य है या और कोई ? घोडे हाथी, गाय, भैंस, सचेतन पदार्थ है या अचेतन ? मैं उनका सामी और अधिकारी नहीं हूं ? अब मुंह खोला तो जवान निकलवा लूंगा |
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प्रजा राजा के अवार्मिक उद्देश्य अपरिचित हुई उसका साथ देरही थी, बेचारा मंत्री करता भी क्या ? जनताको धोखा देकर गगने अपनी रमिलाको पूर्ण कर मुखपर कालिमा लगा ली ।
(२)
उक्त घटनाको घटित हुये वर्षो बीन गए। राजाने अपनी उनीको गनी बना लिया ! यह बात भी अब किसी पर नहीं सुन पड़ती ' हाँ, सभी के हृदय में वह शल्यकी तरह चुभ रहीं थी; पर
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११२] पतितोद्धारक जैनधर्म। बेचारी क्या करती ! वह पतिके आधीन थी और पति भी उसका पिता और राजा था। इस दुख और अपमानपर परदा डालकर वह उन्हें हृदयमें छुपाये हुवे थी, किन्तु एक रोज इस भेदका उदघाटन अनायास होगया । राजमहलके आगे बहुतसे लड़के खेल रहे थे। सावनका महीना था, तीजोंका मेला अभी ही हुआ था, सब लड़के अपने २ खिलौने ला-लाकर दिखा रहे थे। एक लड़केने एक रेश. मकी कढ़ी हुई गेंद निकालकर दिखाई। सब लड़के देखकर खुश होगये। पकने पूछा-"भाई, यह कहासे लाये ?" दूसरेने बात काट कर कहा-"काये कहासे होगे ? इनके नानाने मेलेमें ले दी हे गी!''
जिसकी गेंद थी उस लड़के को अपनी नई गेंदका मोह था। वह डरा कि यह लोग छीनकर उसकी गेंद खो न दें। झटसे उसने गेदको अपनी जेबमें छिग लिपा और तब बोला-" हाँ, ले तो दी है मेरे नानाने इसीसे मैंने लुक ली ई, मै खेलंगा नहीं यह खोजायगी "
सब कड़के एक स्वरसे बोरे - वाहजी ! वहीं खेलनेसे भी गेंद खोती है। लाओजी गेंद ग्वेलेंगे। और इसके साथ ही वे उसकी गेंद छीनने लगे।
इतने में एक सौम्य और गंभीर लड़केके आनेसे छीना छप टीमें बाधा पड गई। नये लड़ने कहा- 'छोड़ो । उस बेचारेको । लो, इस गेंदसे खेलो।'
गेंद पाकर लड़के बहुत खुश हुये, एक लड़के ने कहा-' यह गेंद उससे भी अच्छी है।'
दुसरेने पूछा- क्यों कुंवरजी, यह गेंद तुम्हारे नानाजीने दी होगी ?'
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मुनि कार्तिक ।
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(१९३
एक स्थान कड़का डपटकर बाळा-चुप रह न ।'
इसपर एक अन्यने पहलेकी हिमायत लेकर कहा कि " चुप क्यों रहे? क्या इनके नाना नहीं है सो बह न कहे !" स्थाने लड़के को भी ताव आ गया- 'उसने कहा कि' होने तो काहेको मना करता।"
दूसरेने बीचमें ही कहा- ' तो क्या रहे नहीं ?" स्यानेने एक धौल जमाते हुए कहा - ' इनके नाना जममे नहीं है । इनके और इनकी माके बाप एक है ।'
यह सुनते ही लड़के खिलखिला पड़े । कुंबरने गेंद व वकर एक पीठमें जड़दी । खेल शुरू होगया, लड़के उसमें मग्न होगये । किन्तु कुमार अपनेको सम्हाल न सके । वह चुपचाप महलोंको चले गये । साथियों द्वारा हुआ अपमान उन्हें चाट गया ।
( ३ )
रानीको कार्तिकेय बड़ा प्यारा था वह अपने लालको एक क्षणक लिये अपने नेत्रोंसे ओझल नहीं होने देती थी। उस दिन शामको जब बहुत देर होगई औ कुमार कार्निश्य नहीं आये तो वह एकदम घबडा उठी । दास दासिंग चारों ओर उनको ढूंढने लगीं, परन्तु कुमार कहीं न मिळे । लड़कों से पूछा- उन्होंने उत्तर दिया कि वह मुद्दतके महलों में चले गये ह ।'
लड़कों का उत्तर सुनकर एक दासी को भी याद आगया कि 'हा, उस ओरको जाते हुये मैंन कुंवरजी को देखा तो था ।'
रानी एकदम उस ओरको दौड़ गई। उस छोरपर एक कमरा था । रानीने उसे थपथपाया, पर उत्तर न मिला । धक्का देकर देखा
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११४] पतितोदारक मैनधर्म । तो मालूम हुआ अन्दरसे बन्द है। रानीने घबड़ाकर कहा-" भैया कार्तिक !" __इसके उत्तरमें भीतर से आवाज आई-" माईसे क्या कहती हो, मां ?" और इसके साथ ही कुमार रानीके सामने आ खड़ा हुआ । रानी हड़बड़ा गई ! कुछ संमले संभले कि कुमारने फिर कहा-' मा ! मैं तुम्हारा भाई ई ? '
रानीका माथा ठनका, उसने कहा- इसका मतलब !' ___ 'मतलब यह कि हमारे तुम्हारे पिता एक हैं।' कुमारके इन वचनोंको रानी सहन न कर सकी, उसे चक्कर आगया, वह बेहोश होगई । लोगोंके उपचार करनेपर उसे होश आया तो वह कुमाग्मे लिपटकर रोने लगी। दास-दासी, मा-बटको अकेला छोड़कर हट गए, दोनों पेट भरकर रोये ।
अब रानीकी छाती जरा हल्की हुई थी, उसने कार्तिकेयके आसू पूंछने हुये कहा- बेटा, भूल जाओ इस पापको ! मुझ अभागिनीको और मत मताओ।
कार्तिस्यने कहा मा । मैं तुम्हें में भी दरवी नहीं दस्व सक्ता, किन्तु फिर भी मै या नहीं होगा।'
गनी- 'बेटा ' मुझ ओलीको छोडकर कहा जाअंगे ? यहा जन्हें कोई भी कष्ट नहीं होने दूंगी।'
कानिय - 'मा, कष्ट ! अन्याय औ• अयमके गडय सुन्व ??? जहा मानु नाति ।। कुछ य न हो. महिला को को अपने मुग्वदुःख की 17 कहने नकी ताना न १ वहा सुम्ब कैमा ।
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मुनि कार्तिकेय । - [११५ महिलाओंमें भी प्राण हैं. वह भी सन्मानपूर्वक सुखी जीवन वितानेकी लालसा रखती हैं। उनकी अभिलाषाओंको कुचलने का किसीको क्या अधिकार है। वह भी मनुष्य हैं--मनुष्यजातिका अधिक मूल्यशाली अङ्ग है। राष्ट्रको बनाने और बिगाडनेवाले लाल उन्हींकी गोदमें पलते और बड़े होते हैं। उनका अपमान राष्ट्रका अधःपात है। मा, मैं ऐसे पतित राज्यमें नहीं रह सक्ता।'
कुमारके इन वचनोंने रानीका स्वात्माभिमान जागृत कर दिया। उसकी आखोंमें तेज चमकने लगा, दृढ़ निश्चयसे उसने कहा.-'बंटा! तुम ठीक कहते हो, यह अन्यायी राज्य है। धर्मात्मा लोग यहां नहीं रह सक्ते । चलो, मैं भी तुम्हारे साथ दूसरे देशको चलगी!'
पहाडी प्रदेश था, चारो ओर भोले-भाले पहाडी लोग ही दिखते थे, किन्तु उनके बीच सौम्य मूर्तिके धारक एक स्त्री और एक युवक थे। एक छोटीसी पहाड़ीपर उन्होंने अपनी कुटिया बना ली थी । उमीमें वह रहने थे और उसके सामने ही बैठ कर वे भोले पहाड़ियोंको मनुष्य जीवनका रहस्य समझाते थे। पासमें ही खेत था-युवक उसको जोतता और बोता था तबतक स्त्री घरका काम धंधा करती थी। फिर दोनों ही मिलकर उन पहाड़ी गंवारोंको सरस्वतीका पाठ पढ़ाने थे। उनके सुख दुखकी बातें सुनते थे और यथाशक्ति उनके कष्टोंको मेंटते थे। उनके मैत्रीभावने सच ही पहा. ड़ियोंको उनका सेवक बना लिया था । वे सब उ, अाना महान् उपकारक समझते थे। यह कोई नहीं जानता था कि यह राजकुमार हैं और स्त्री गजगनी । सचमुच वे कार्तिक और उसकी मा थे !
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११६ ]
पतितोद्धार
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इसप्रकार परोषकारकी महान तपस्या तपते हुए वे मां-बेटा वहां रह रहे थे । उन्होंने अपना वह सीधा सादा विवेकमय जीवन बना लिया था । मनुष्य जीवनका सार वह उसमें पा गये थे खा पीकर आरामसे जिन्दगी विताना तो पशु भी जानते हैं, मनुष्य जीवन इससे कुछ विशेष होना चाहिये । वह विशेषता स्वयं जीवित रहने और अन्योंको जीवन विताने में सहायता प्रदान करने में है । कार्तिकेय और उसकी मांने इस सत्यको मूर्तिमान बना दिया था !
मा बेटा दोनों इस जीवन में बड़े सुखी थे, परन्तु देवसे उनका यह सुख देखा न गया एक दिन दोपहरको रानीने बनमें चिल्लाहट सुनी। वह कुटिया से बाहर निकली । देखा, एक चीत्ता एक लकड़हारिनकी ओर झपट रहा है। रानीका रोम रोम परोपकार मे सुवासित था, उसे अपने प्राणोका भी मोह न आया । तलवार लेकर वह लकड़हारिनकी रक्षा करने के लिये झट दोड़ी । चीत्तेपर उसने तलवारका बार किया । चीत्ता घायल होकर उसपर झपटा। रानीका पैर फिसला और वह गिर गई। चीतेका पंजा उसके वक्ष थक और पेटको लहूलुहान कर गया । चित्ता फिर झपटा; किन्तु अबकी एक सनसनाते हुये तीरने उसको प्राणान्त कर दिया ! दूसरे क्षण कार्तिकेय भगते हुये घटनास्थलपर पहुंचे । देखा, उनकी मा अचेत पड़ी है, किन्तु लकड़हारिन बाल-बाल बच गई है। 'लकहारिनकी रक्षा में रानीने अपने अमुल्य प्राण उत्सर्ग कर दिये ।' यह स्वबर विजलीकी तरह चारों और फैल गई । अनेक नरनारी इकट्ठे होगये और रानीके साहसको सराहने लगे ।
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कार्तिकेय मांके पास बैठे उसकी अंतिम सेवा कर रहे थे । रानीने आंखें खोली । कार्तिकको देखकर वह मुस्करा दी, फिर पूछा-'लकड़हारिन बच गई ?' कार्तिकने उसकी रक्षाके शुभ समाचार सुनाये । रानीकी आंखोंमें मांसू छलछला आये । वह थोड़ी देर कार्तिकको एकटक निहारती रही । दूसरे क्षण उसने अस्पृष्ट स्वरमें कहा-'बेटा कार्तिक ! ले मैं चली। अ ..र....हं...त...." ___ चहुंओर अंधकार छागया। कुमार रोये नहीं ! वह बड़े गंभीर बन गये ! गांववाले उनकी पवित्रता देखकर हाथ जोड़कर नमस्कार करते और चले जाते । उनसे घुल २ कर बातें करनेकी उनकी हिम्मत न होती। हां, जहां रानीके शबकी दाइक्रिया हुई थी, वहा लोगोंने चबूतरा बना दिया था और उसपर नरनारी फूल चढ़ाना नहीं भूलते थे !
वेद मंत्रोंका पाठ उच्च स्वरसे होरहा था। मगणित ब्रह्मचारीगण आचार्य महाराजकी सेवा कर रहे थे। कुछ यसका सामान जुटा रहे थे। कुछ आचार्य महाराजसे पाठ रहे थे। इतनेमें एक तेजधारी युबकने आकर आचार्यका अभिवादन करके कहा-'महाबुभाव ! मुझे भी दीक्षा देकर शिष्य बनानेकी उदारता दिखाइये ।' ___आचार्यने कहा-'वत्स ! तुमने यह ठीक विचारा ! जरा बताओ तो तुमने किस वंशको अपने जन्मसे सौभाग्यशाली बनाया है।'
उत्तरमें युवक बोला- महाराज ! मेरे पिताने अपनी ही कल्याने विवाह कर लिया था, उसीका कल मेरा बह करीर है।'
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११८] पवितोसारक जैनधर्म ।
आचार्य-'हा, महान् पाप ! मैं तुम्हें दीक्षा नहीं देसकता ।'
युवक-'किन्तु महाराज ! यह पाप तो मेरे पिताने किया है, मैंने नहीं।'
आ०-'भाई, कुछ भी हो । तुम व्यभिचार जातके तुल्य हो। शाखाविधिके प्रतिकूल मैं तुम्हें दीक्षा देकर धर्म नहीं डूबा सकता।'
युवक कुछ न बोला । वह उठकर दूसरी ओर चला गया । पाठको, यह कुमार कार्तिकेय है । उन्होंने अपने परिणामोंमें त्याग
और वैराग्यकी मात्राको अधिक बढ़ा लिया था। इसीलिये इस युवावस्था में साधु दीक्षा लेनेकी उन्होंने ठानी थी। सचमुच जबतक हृदय पवित्र न बना लिया जाय तबतक इन्द्रियोंपर अधिकार नहीं किया जासक्ता।
कुमारने आगे जाकर एक दिगम्बर जैनाचार्यको तप तपते देखा । वह उनके चरणोंमें जा बैठा। आचार्यका ध्यान भङ्ग हुआ! उन्होंने कुमारको 'धर्मवृद्धि' रूप आशीर्वाद दिया। कुमारने मस्तक नमाकर दीक्षाकी याचना करते हुये कहा-'नाथ, यधपि मेरा यह शरीर पिता-पुत्रीके शारीरिक संभोगका फल है, तथापि यदि धर्मका भाषात न हो तो आत्मकल्याण करनेका अवसर प्रदान कीजिये ।'
__ आचार्य बोले-'वत्स ! तुम्हारा विचार स्तुत्य है। तुम्हारे मातापिता कैसे भी हों, धर्म यह कुछ नहीं देखता। क्योंकि धर्मका निवास आत्मामें है, हाड़मांस और चमड़ेमें नहीं है। उसपर हाइमांस किसका शुद्ध होता है, जो उसपर विचार किया जाय ? व्यभिचार पाप है, व्यभिचारजातता पाप नहीं है। बेटी, बहनसे संभोग
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मुनि कार्तिकेय
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[ ११९ करना पाप है, परन्तु ऐसे सम्बन्धमें पैदा होनेवाला पापी नहीं है । धर्म तो मनुष्य मात्रका ही नहीं प्राणी मात्रका है।'
कुमार - 'धर्म में क्या पात्र अपात्रका विचार नहीं किया जाता ?" आचार्य - ' किया जाता है, कीड़े मकोड़े आदि तुच्छ प्राणी धर्म नहीं धारण कर सकते, इसलिये अपात्र हैं । परन्तु पशुपक्षी और मनुष्य - स्त्री-पुरुष, ऊच-नीच, सङ्कर अमङ्कर सभी धर्म धारण करने के लिए पात्र है। समझदार प्राणियों में वे ही अपात्र है जो धर्मके मार्ग में स्वयं चलना नहीं चाहने या अपनी शक्ति लगाना नहीं चाहते।'
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कु० -- 'क्या दुराचारी अपात्र नहीं है ?'
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आ०-- ' दुराचारी तभीतक अपात्र है जबतक वह दुराचार में लीन हैं । दुराचारका त्याग करनेवाला व्यक्ति या दुराचारसे पैदा होनेवाला व्यक्ति अपात्र नहीं है।'
कु० - 'क्या ऐसे लोगों के पास धर्मके चले जाने से धर्मकी हंसी न होगी ?"
आ० - 'यदि नीचसे नीच व्यक्तिके ऊपर सूर्यकी किरणें पड़नेपर भी सूर्यकी हंसी नहीं होती तो महासूर्य के समान धर्मकी हंसी क्यों होगी ?'
कुमार मन ही मन प्रसन्न हुये। जिस रत्नकी खोज में वे आज: तक फिर रहे थे वह उन्हें मिल गया। माता के अवसान के बाद उन्हें सैकडों साधुवेषी मिले थे, परन्तु आज उन्हें एक सच्चा साधु मिला । वह सत्यका पुजारी था, संसारका हितेच्छु था, पर उसका गुलाम न था । उसे सत्य प्रिय था। लोगों के बकवादका उसे जरा भय न था ।
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१२० पतितोदारक जैनधर्म । वह बेलाग था। कुमाग्ने फि' पूंछ: महाराज ' मैंने ऐसा क्या किया जो इस जन्ममें मुझे ५ पी होना पड़ा ?' ___उत्तरमे आचर्य बोले.. वत्स, तुम भूलते हो, तुम इस जन्ममें पापी नहीं हो । जानने हो, पाप करने वाला पापी कहलाता है। पापका फल भोगनेवाला पापी नहीं कहलाता । कष्ट और आपत्तियां पापके ही फल है और ये सच्चेसे सच्चे महात्माके ऊपर भी आती है। क्या इसलिये वे पापी कहलाने हे ? यदि तुम्हारा जन्म तुम्हारे लिए कष्टप्रद हुआ तो वह पापका फल महा नायगा, पाप नहीं। फिर तुम पापी कैमे "
कुरके नेत्र यह सुनकर मजल डोगए। उनने प्रार्थना कीगुरुवर्य ' मै मत्गुरुकी खोज में था। सौभाग्यमे आपमे आज वे मुझे मिल गये । अब मैं मोक्षमार्गमें चलना चाहता हूं। आप मुझे साधु-दीआ देकर कृतार्थ कीजिए ।'
गुरुवर्य कुछ चिन्तामें पड़े । फिर बोले- तुम दीक्षाके योग्य हो, वत्म ! इसमें कुछ सन्देह नहीं, परन्तु यह ख्याल रक्खो कि अपने जीवनको दूसरोंके मिरका बोझ बना देने से कोई साधु नहीं बनता। साधु, आत्मोद्धार और परोपकारकी अप्रतिम मूर्ति होता है।'
__ कुमार - 'गुरुवर्य ! आप जो आजा करेंगे उसका मैं तन और वचनसे ही नहीं, मनसे भी पालन करूंगा!' ___गुरुवर्यने तथास्तु' कहकर कुमारकी इच्छा पूर्ण की । कुमास्ने उनके चरणोंमें नमस्कार किया। ऐसा नमस्कार करनेका कुमारके जीवनमें यह पहला ही अवसर था। अब वह कुमारसे
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लोकपूज्य साधु महाराज होगये। ज्ञान-ध्यानमें लीन होकर वह अपना आत्मोत्कर्ष करते और जीवोंके कष्ट निवारण कर उन्हें सन्मार्ग पर लगाते थे ! लोग उन्हें महान तपस्वी कार्तिकेय कहते थे । ( 4 )
एक शिष्यने गद्गद होकर कहा - ' भैया ! देखो आज गुरुवर्यंने कैसा अनूठा सुभाषित कहा:
4
' सिंहस्स कमे पडिद सारंग जह ण रक्वेद को वि । तह मिच्चुणा य गहियं जीवं पिण रक्वेद को वि ।।
9
भावार्थ-' जैसे वनमें सिंह के चुंगल में फंसे हुये हिरणके लिये कोई रक्षा करनेवाला व रण नहीं है, वैसे ही इस संसार में काल द्वारा ग्रस्त प्राणीकी रक्षा करनेके लिए कोई सामर्थ्यवान नहीं है !' दूसरेने कहा- हा भाई स्वामीजीके सुभाषित रत्न अनुपम हैं। देखो उस रोज उन्होंने क्या खूब कहा था:
4
' मणुआणं असुमयं विहिणा देहं विणिम्मियं जाण । तेर्सि विरमणकज्जे ते पुण तत्थे व अणुरचा ।। '
भावार्थ - ' हे भव्य ! मनुष्योंकी यह देह विधनाने अशुचि बनाया है सो मानो इन मनुष्योंको वैराग्यका पाठ पढ़ानेके लिए ही बनाया हैं; परन्तु आश्चर्य है कि यह मनुष्य ऐसी देहसे भी अनुराग करते है ।
एक तिलकधारी मनुष्यने आकर पूछा-' भाई, तुम्हारे गुरु कौन हैं ?' उत्तर में शिष्योंने बतलाया-' स्वामी कार्तिकेय निर्मन्थाचार्य हमारे गुरु हैं। वे कोंसर के बाहर उथानों विराजमान हैं।'
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१२२] पतितोद्धारक जैनधर्म।
ति-तो यह हम लोगोंका सौभाग्य है। भला, यह तो बतायो वह ब्राह्मण साधु है या क्षत्रिय ? अथवा उनकी जाति क्या है ?'
शिष्य यह सुनकर हंस पडे और बोले- साधु भी कहीं ब्राह्मण क्षत्री होते है । धर्ममें जातिके लिये कोई स्थान नहीं है ।'
ति-क्या कहा ? धर्ममें जाति नहीं ? क्या धर्मको डुबाना चाहते हो ?'
शिष्य- धर्म ऐसा गम्भीर और उदार है कि वह किसीके डुबायेसे नहीं डूब सक्ता । जानते हो, साधुगण मुक्तिके उपासक होते हैं-भुक्तिके नहीं । और मुक्ति न ब्राह्मण है-न क्षत्रिय और न वैश्य या शूद्र ! हमारे गुरुवर्य जीवन्मुक्त होना चाहते हैं और इसीका उपदेश देते हैं । फिर भला वह वर्ण जातिके झंझटमें क्यों पडे ? '
ति०-'वाह भाई, यह खूब सुनाई ! तो वर्णाश्रम धर्म सब व्यर्थ हैं !'
शि०-'हां धर्मकी आराधना करनेवालेके लिए तो वह निष्प्र. योजन ही है । संसारके पीछे दोडनेवाले गृहस्थ उनसे अपना व्यवहार चलानेमें सुविधा अवश्य पाते है ।'
ति०-'छिः छिः यह मैं क्या सुन रहा हूं। वर्णाश्रम धर्मके परम रक्षक महाराजाधिराज कोंचपुरेशके धर्म राज्यमें यह अधर्म वार्ता ! अच्छा, इसका मजा तुम्हारे गुरुको चखाऊँगा ।'
तिलकधारी आखें लाल पीली करता हुआ चला गया । शिष्योंने उसकी आकृतिसे भविष्यमें आनेवाली आपत्तिका अनुमान कर लिया । वे गुरुवर्य के पास पहुंचे और सारा हाल उनसे कह
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मुनि कार्तिकेय। [१२३ मुनाया। गुरुमहाराजको भी आपत्तिका अनुमान करके शिष्यों सहित समाधि धारण करनेका आदेश दिया! बाहरी दुनिया, सच बोलना भी तेरे निकट अपराध है।
(७) राजाके सिपाहियोंने कार्तिकेय महाराजको जा घेरा । जब वह न बोले तो उन्होंने पाशविक बलका प्रयोग किया। उन्हें जबरदस्ती उठाकर वे गजाके सम्मुख लेगये । राजानें देखकर कहा' यह क्या ?"
सिपा०-'महाराज ! न तो यह बोलता है, और न हिलता डुलता है। राजाने क्रूरतापूर्वक हंसते हुए कहा-'जरा इसकी मरम्मत. कर दो।'
सिपाही भूखे भेडियेकी तरह साधु महाराज पर टूट पड़े। शोर होने लगा। रानीने भी यह कोलाहल सुना। वह दौड़कर नीचे आई। उसने देखा कि कार्तिकेयका शरीर खूनसे लथपथ हो रहा था । रानीने चिल्लाकर कहा- ' अरे यह क्या करते हो ? यह साधु मेरा भाई है।' राजा एक क्षणके लिये चौका, परन्तु दूसरे क्षण उसने कहा-'कोई भी हो, जो राजद्रोही है-राजधर्मका अपमान करता है, उसकी यही दशा होना चाहिये ।' रानी यह न देख सकी । वह खूनसे सने कार्तिकेयसे लिपट गई । राजाने उसे अलग करवा कर कार्तिकेयको अर्धमृतक करके एक तरफ डलवा दिया !
राजाका यह कर कृत्य विजलीकी तरह चारों ओर फैल गया। महान तपस्वी और लोकोद्धारक कार्तिकेयके भक्त भी जनतामें थे
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१२३ ]
पविदारक
धर्म ।
उन्होंने जनताको राजाके इस अत्याचारकी भीषणता बतलाई । प्रजा एकदम राजाके विरुद्ध होगई । राजा घेर लिये गये । और पकड़ कर कार्तिकेयस्वामीके सामने उपस्थित किये गए । प्रजाने कहा - 'इस धर्मद्रोहीको हम प्राणदण्ड देंगे महाराज !' धर्मकी मूर्ति कार्तिकेय इस वेदना में भी मुस्करा कर बोले - " मैं इसे क्षमा करता हूं। तुम इन्हें छोड़ दो ।' प्रजाने बड़े आश्चर्यमे यह आज्ञा सुनी । धर्म उदाररूपका उसने इसमें दर्शन किया । राजा यह सुनकर लज्जाके मारे गल रहा था । उसने प्रायश्चित्त चाहा । गुरुवर्यने तप ही प्रायश्चित्त बताया और वह निम्नभावको दर्शाते हुए स्वर्गघामको सिधार गये:
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कोण जो ण तप्पदि सुरणरतिरिएहिं कीरमाणे वि । उसमे वि रहे तस्स खिमा णिम्मला होदि ॥
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भावार्थ- जो मुनि देव, मनुष्य, तिर्येच आदिकर रौद्र भयानक उपसर्ग होनेपर भी क्रोषसे तप्तायमान नहीं होते, उस मुनिके ही निर्मल क्षमा होती है।'
स्वामी कार्तिकेयने उत्तम क्षमा धर्मका पालन मरते मरते दम तक किया । लोगोंने उठाकर उनके शबको अपने मस्तकपर रक्खा और चन्दन- पुष्पादिसे उसे सम्मानित किया। उनकी स्मशानयाबामें हजारों आदमी साथ थे और सब ही महात्मा कार्तिकेयकी जय ' के नारे लगा रहे थे ।
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[ १२६
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[ २ ]
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( १ )
मालती लता भौंरोंके नेहसे विकसित होरही थी और चकवी anant देखकर आनन्द मना रही थी लतायें वृक्षोंसे लिपटकर प्रणयकेलि कर रहीं थीं और हिरणी हिग्णको चाटकर प्रेम मधुरिमा विग्वेर रही थी । तब वहाँ चहुँ ओर प्रेम और नेहका ही साम्राज्य था । कुरुवंशक कारण सम्राट् पाण्डु उस आनन्दी प्रकृतिमें आत्मविस्मृत होरहे थे । माधवीलता के कुँज में बैठे हुये वह कुछ सोच रहे थे। सायंकालकी कालीमा विलीन होरही थी, पर साथ ही रात्रिका अंधकारपूर्ण चंद्रके धवल प्रकाशके शुभागमनसे दुम दबाकर भाग रहा था । पाण्डुको इस लुकाछिपी और भाग-दौड़का कुछ भी ध्यान न था, किन्तु उनका ध्यान एक रमणीकी पगध्वनिमे भंग होगया । वह हड़बडाकर कुंजके कोने में छिप रहे । रमणी सामने आगई थी - पाण्डुने समझा पूर्ण शशि ही इस वसुधाको रंजायमान करनेके लिये वहां आई है । वह एकटक रमणीकी ओर निहारता रहा । उन्नत मालमें हिरणीकीसी बड़ी २ आंखें उन्हें बड़ी प्यारी लगीं। पीठपर लहराते हुये काले केशपाशने उनपर अपना जहर चढ़ा दिया | वह दिव्यता भूलकर मानवता आफंसे । कामनेत्रोंसे रमणीमें उन्होंने अपनी हृदय सम्राज्ञी कुन्ती के दर्शन किये - पाण्डुका मन-मयूर नाच उठा । उसने कहा- 'हां! यही तो कुन्ती x हरिवंशपुराण पृ० ४३० पर मूळ कथा है ।
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१२६ ]
पतितोद्धारक जैनधर्म |
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है। और कोई है भी तो नहीं इसके साथ ।” पाण्डु दबे पाव कुन्तीके पीछे जा खड़े हुये । कुन्तीकी आँखोंको उनके हाथने ढक लिया । कुन्ती अचकचाकर सिहर उठी । साहससे हाथोंको टटोला 1 जरा संभलकर बोली- 'यह ठठोली अच्छी नहीं लगती। कोई देख लेखा !"
पाण्डु - 'देख लेगा तो क्या होगा। क्या तुम मुझे प्रेम नहीं करतीं '
कुन्ती - प्रेम ! पर जानने हो लोग कहते है कुँवारी कन्याको परपुरुषमे बात नहीं करना चाहिये ।'
पा० - 'लोग कहते है, कहने दो। तुम्हारे लिये तो मै परपुरुष नहीं हूं ।'
यह कहकर पाण्डुने कुन्तीको अपने दृढ़ बाहुपाशुमें वेति कर लिया । कुन्तीके अरों पर पाण्डुका मुख था और उनके पग धीरे धीरे मालती- कुञ्जकी ओर उन्हें लिये जारहे थे ।
जब वे कुञ्जके बाहर निकले तब उनके मुखोंपर केलिश्रम छारहा था । पाण्डुको अपनी प्रेयसी आज अंतिम विदा लेनी थी । कुन्ती पाण्डु के विशाल वक्षस्थल में मुंह छिपाये थी। दिलमें न जाने उसे अदेखा डर डरा रहा था । पाण्डुको उसने जोरसे थाँभ रक्खा था। पाण्डुने अपना सिर झुका दिया और वह बड़े प्यारसे कुन्तीको सान्त्वना देने लगा | उसने कुन्ती वायदा किया कि वह हस्तिना यपुर पहुचते ही उसे बुला भेजेगा । वह कुरुवंशकी राजधानी होगी। कुन्तीके चित्तको प्रसन्न करनेके लिये पाण्डुके यह शब्द काफी थे;
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महात्मा कर्ण। [१२७ किन्तु कुन्ती प्रसन्न न हुई। कोशिस करने पर उसे कुछ ढाढस जरूर बंधा । आखिर पाण्डुसे विदा होकर वह राजमहलको गई। उस समय दोनों प्रेमी एक दुसरेको लौट लौटकर देखने जाते थे !
(२) 'धाय मा, अब मेरी लाज तुम्हारे हाथ है ' कहा कुन्तीने । उसकी धायको उससे मा जैसी ममता थी। उसने आश्वासन भरे शब्दोंमें कहा-'बेटी, घबड़ाओ नहीं। यह संसार दुर्निवार है । तुम भोलीभाली पुरुषोंकी बानोंको क्या जानो !'
पर मा, राजेन्द्र पाण्डु मुझे लिगले जानेका वचन देगये थे!' बात काटकर कुन्ती बोली।
धायने गहरी सांस लेकर कहा-'बेटा ! राजाओंको बड़े २ गजकाज लगे रहते है-वह जो न भूल जाय वह थोड़ा।'
कु०- तो क्या मा, पाडुने मुझे भुला दिया ?' __ धा०- यह कैसे कह बेटी ? पर एक बात निश्चित है कि पुरुष होने बड़े स्वार्थी और पाखण्डी है। स्त्रियोंकी मान मर्यादाका मूल्य वह नहीं आते। वे तो हमें अपने विषयभोगकी सामग्री समझने है ।' ___ कु०-'होगा मा, किन्तु पाण्डु ऐमे पुरुष नहीं है। वह मेरा समुचित मन्मान करते है, वह मुझल कैमे गये ?'
धाc- बेटी : धीरज धो। यह दुनिया बडी ठगनी है । इसमें जो चमकता है यह सब मोना ही नहीं निकला।'
कु० तुम धीजकी कहनी हो पर ..
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११९ पतितोला ।
का०-'पर क्या ? पाण्डुका गर्भ है-बड़मे दो इसे । तेजस्वी पुत्र जनना ।'
कु०-'छि: ! दुनियां हँसेगी और कहेगी-'कुमारी कन्याने बेटा जना।' यह अपमान कैसे सहन होगा ?' ।
धा०- तो क्या हिसा करके पाप कमाओगी ?' कु०-- न मां. यह मैं कब करती हूँ ।'
धा०-' नहीं कहती, तो धीरज धरो। भगवान सब अच्छा करेंगे !!
कुन्ती एक दीर्घ निःश्वास छोड़कर क्षितिजो अनन्त रूपको निहारने लगी।
" अरे देखो तो, गंगाके प्रवाहमें वा सोनेसा चमकता क्या मटका वहा जारहा है ।" मल्लाने अपनी स्त्रीके मुखमे यह शब्द सुनते ही गंगाकी शरण ली । गंग.की प्रचण्ड तरेंगे थीं और मल्लाह उनमें अठखेलिया कर रहा थ । दखते ही देखते वह सोनेसा चमकता मटका वह पकड़ लाया । उसकी बीन देखते ही कहा' अरे यह तो रत्नमंजूपा है ।
'टपक पडील र यह तो बनता नहीं कि सूखे कपड़े लादे। कहा मल्लाहने । उसकी पत्नीने सूखी धोतीका दी--मल्लाहने उसे पहन लिया । अब वह रत्नमंजूषाकी ओर झुका । पत्नी हर्षातिरेकसे विह्वल बोली- 'भाग्य मराहो, रत्नोंका पिटारा मिला है !'
मल्लाहने दहा-'इसमें कौनसा अचंभा, जब तुम लक्ष्मी मेरे सामने बैठी हो!'
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महात्मा कर्ण
[१२९ पत्नीने पतिको प्यारेका धक्का लगाते हुये कहा- चलो रहने दो ठठोली, खोलो भी इसे ।'
मल्लाहने देखा, मंजुषाके एक कोरमें चावी लटक रही है। चाबी लेकर उसने उसे खोला। पहले एक पत्र मिला; फिर बहुमूल्य रेशमी डुपट्टेमें लिपटा हुआ एक नवजात शिशु ! बालकका मुख पूर्णिमाके चन्द्रमाके सदृश विकसित होरहा था। मल्लाह और उसकी पत्नी इस अपूर्व निधिको देखकर अचंभेमें पड़ गये। पत्रको उठाकर देखा । उसपर राजमुद्रा लगी हुई थी। वे घबड़ा गये, इस मंजूषाके कारण उनपर कोई आपत्ति न आए। यह सोचकर मल्लाहने उस रत्नमंजुषाको राजदरवारमें पहुंचा देना निश्चित किया।
उस समय राजगृहमें जरासिधु नामका राजा राज्य करता था। उस भाग्यशाली बालकको देखकर वह फूले अंग न समाया। राजमुदा और सौम्य मूर्तिसे उसने बालकको एक राजपुत्र समझा और उसे पालनपोषण करनेके लिये धायको देदिया ! जब वह जरा बड़ा हुआ तो लोग उसे कर्ण कहकर पुकारने लगे। कर्ण एक होनहार बालक निकला । जरासिधु उसपर बहुत प्यार करता था।
कुरुक्षेत्रके रणागनमें दोनों सेनायें आमने-सामने डटी हुई थीं। एक ओर महाराज जरासिधुकी चतुरगिणी सेना थी। दूसरी ओर श्रीकृष्ण और अन्य यादवगण तथा उनके सम्बंधी पांडवोंकी सेना थी। घमासान युद्ध होनेको था, दोनों ओर बड़े बड़े योद्धा थे।
पाण्डवोंके शिविरमें राज-रानियां भी साथमें थी। कुन्ती उनमें
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१३० । पतितोद्धारक जैनवर्म । मुख्य थी। उस दिन वह अशोकके पेड़ तले बैठी अपने कौमार जीवनकी घटना याद कर रही थी। अनायास वह बोली- ऐसा तो था ही उमका मुखड़ा और शरीकी आमा ! उसे देखते ही मेरे म्तनोंमें दूध झरने लगा। वह अवश्य मेरा ही पुत्र है !' ' यह कहकर का चुप हो फिर मोचने लगी। मातृस्नेहने उसे विहल बना दिया। मेरे क्षण वह ताकमे उठी और एक परिचा. रिकाको उ• ने कुछ आज्ञा दी।
कुन्ती फिर अपने ध्यान में लीन होगई। उसी समय एक वीर मैनिकने आकर प्रणाम किया। कुती चौक गई। उसने देखा यही वह युवक है जिसे देखकर उसका हृदय ममतासे रो उठा था । कुन्तीने नवागत क . आदर सत्कार किया । उसके मुग्वको गौरमे देवकर उमे दृढ़ निश्चय होगया कि यही मेरे कुमारी जीवनका पुत्र है । कु तीन मार कर पूछ। - वी. यु क ' तुमने अपने जन्ममे किम कुलको सुशोभित किया है "
सैनिक यह प्रश्न सुनकर अचकचा गया-बोला, ' मा मै तो राजा जरामिधुको ही अपना पिता समझना हु ।'
कुन्नी-समझने और होने में इत अर होता है युवक ! अकुलाओ मत । मै तुम्हें अम्म नित नहीं करना चाहता पा तुम्हारे जन्मके रहस्यका उदघाटन करन चाती है। शायद तुम यह नुन कर आश्चर्य करोगे कि अर्य : 'हु तुम्हारे पा और मैं तुम्हारी माना है
इके माथ ही कुनी री कथा रह सुन ई, जिसे
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महात्मा कर्ण। सुनकर कर्णके हृदय में भी मातृस्नेह जागृत होगया । वह झटसे मांके पैरोंमें गिर पड़ा । कुन्तीने उसे उठाकर छातीसे लगा लिया । बड़ी देर तक मां-बेटेका यह मौन संमिलन चला। आखिर कुन्ती बोली-'कर्ण! युधिष्ठिर आदि तुम्हारे छोटे भाई हैं। मो, तुम इन्हें अपनी छत्रछाया में लो। अपने ही इष्टजनोंका महित अब तुम कैसे करोगे?
___ कर्ण-'मां, तुम सच कहती हो । यह मेरे भाई हैं; परन्तु बांधवोंके प्रेममें मनुष्यको अपना कर्तव्य भुलाना उचित नहीं । जरासिन्धुने मेरी रक्षा की है । यह शरीर उसीका है; मैं उसकी आज्ञा मानूंगा । हां, अपने भाइयोंसे युद्ध नहीं करूंगा; यह वचन देता हूं।'
कु० - पाण्डुका पुत्र ही कर्तव्य पालन कर सक्ता है । धन्य हो, मैं तुम्हें पाकर अपने कुमारी जीवन के कलङ्कको भूल गई हूं!'
___ कर्ण यह सुनकर उठ खड़ा हुआ। मा, यदि जीवित रहा तो फिर मिलूंगा।' कहकर उसने कुन्तीका चरणस्पर्श किया !
कर्ण विचारमम हो अपने शिविरको चला गया। वह सोचता था कि दुनियां में कैसा दम्भ है ? अपनी प्रतिष्ठा और सम्मानके झूठे मोहमें लोग अपनी संतानको भी जलप्रवाह कर देते है । इस पावंडकी धज्जियां उड़ना चाहिये । लोकका कल्याण सत्यकी शरणमें आनेसे होगा। इस युद्धके उपरान्त मै इस पाखण्डसे युद्ध लड्नेका अनुष्ठान करूंगा, यही कर्ण की प्रनिज्ञा है !
सुदर्शन उद्यानमें निर्गन्धाचार्य दम विराजमान थे। वर्ष
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पतितोद्धारक जैनधर्म ।
१३२ ]
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उनकी बन्दना करके एक ओर बैठ गये । उनको देखकर मुनिराजने पूंछा - 'बत्स, किस फिकरमें हो ?'
कर्ण - हे नाथ ! हृदयमें एक ज्वाला जल रही है । अपनी शीतलगिरासे उसे बुझानेकी उदारता दिखाइये।'
मुनि- 'वत्स ! साधु स्वपर कल्याण करना ही जानते हैं ।' कर्ण - ठीक है प्रभो ! किन्तु दुनियां बड़ी दम्भी है, वह रुड़की उपासना करती है ।'
मुनि- 'उपासना नहीं, अपना पतन करती है। रूढ़िकी दासता विवेकहीनताका परिणाम है और विवेकहीन महान् पतित होता ही है।' कर्ण - 'रूढिके बिना मनुष्यका नैतिक जीवन कैसे पनपे ? सब तो ज्ञानवान होते नहीं ।'
मुनि-'भूलते हो बस, रूढ़िसे मनुष्यका नैतिक पतन होता है । जिस बातको वह स्वयं सत्य और उपादेय समझता है, उमीको रूढ़ि के भयके कारण वह नहीं करता और अपने को धोखा देता है।' कर्ण - 'महाराज, सो कैसे ?'
मुनि- 'देखो, आज लोग स्त्रियोंको भोगकी सामग्री मात्र समझते हैं और उनके वैयक्तिक जीवनको जरा भी महत्व नहीं देते। अब मान लो एक नरपिशाच किसी कुंवारी कन्याका शील अपहरण करता है और उसके गर्भ रह जाता है। वह नरपिशाच तो चार घड़ीका मज़ा लेकर अपने रास्ते जाता है । भोली कन्या अब रूढ़िका शिकार बनती है। गर्भको वह एक कलङ्क समझती है, क्योंकि दुनियां उसे बालक जन्मता देखकर इंसेगी और नाम धरेगी ।
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महात्मा कर्ण। [१३३ हठात् रूड़िकी बलि वेदीपर वह अपने नवजात शिशुको उत्सर्ग कर देती है। देखो, यह मनुष्यका कितना भीषण पतन है ? नैतिक साहसके अभावमें वह कन्या उस अत्याचारीको दण्ड दिलाने और अपना जीवनसाथी बनाने के लिये लाचार नहीं करती !'
कर्ण-महाराज ! यदि ऐसा होने लगे तो वर्णशङ्करता फैल जावे और विवाह धर्मकी पवित्रता नष्ट होजावे !'
मुनि-'यहां भी तुम भूलते हो। वर्णशङ्करता अपनी कुल परम्परीण आजीविकाको त्याग देनेसे होती है। वय प्राप्त युवक-युवती यदि अपना जीवनसाथी स्वयं ढूंड़ते हैं, तो उसमें कौनसा दोष है ? विवाह मनुष्य जीवनकी सुविधाके लिये है और यह सुविधा स्वयं पति-पत्नी चुनने में अत्यधिक होगी। गांधर्व विवाह शास्त्रोक्त है ही। इस क्रियासे महिलाओंमें आत्मस्वातंत्र्य जागृत होगा और उनका जीक्न महत्वशाली बनेगा।'
कर्ण-'नाथ, फिर कुलकी रक्तशुद्धि कैसे रहेगी ?'
मुनि-'क्या बातें करते हो ? रक्त भी कभी किसीका शुद्ध हुआ है ? शरीर तो स्वभावसे अशुचि है। उसकी शुद्धिका एकमात्र उपाय धर्माराधना है, सत्यको उपासना करना है। पति-पत्नी न बनकर वैसे ही अंधाधुंध कामसेवन करना व्यभिचार है; किन्तु गांधर्व विवाह उससे मिल है। उसपर व्यभिचार जातको पापकला और अशुद्ध रक्तधारी बताना महान् मूर्खता है। व्यभिचार जात और विवाह जात दोनोंके शरीर एकसे होते हैं। उनमें कुछ अंतर नहीं होता। वे दोनों अपने शरीरोंको धर्मसे ही पवित्र कर सके हैं।
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२३४] पतितोदारक जैनधर्म । किन्तु रूढिके नामपर व्यभिचारको उत्तेजना देना धर्म नहीं होसका। भब समझे कादिका हानिकारक रूप ।' ___कर्ण-'प्रभू ! मैं खूब समझा। मेरा शरीर आपकी व्याख्याका प्रत्यक्ष प्रमाण है । मैं कुंवारी कन्याके गर्भसे जन्मा हूं। महाराज ! मुझे साधु दीक्षा प्रदान कर इस शरीरको पवित्र बनाने दीजिये।'
आचार्य दमवरने 'कल्याणमस्तु' कहकर कर्णको मुनि दीक्षा प्रदान की । 'जे कम्मे सूरा ते धम्मे सूरा' की वीरोक्तिको कर्णने मूर्तिमान बना दिया ! कुरुक्षेत्रके रणाङ्गणमें उन्होंने वैरियोंके दांत खट्टे किये थे, अब वे विधि विधानोंके पाखंडको जड़मलसे मेंटने के लिये ज्ञान तलवार लेकर जुझ पड़े । कर्मवीर ही धर्मवीर होने हैं। ___कर्णने जिस स्थानपर अपने वस्त्राभूषण उतारकर फेंके थे, उस रोजसे वह स्थान 'कर्ण सुवर्ण' के नामसे प्रसिद्ध होगया। सुनिवर कर्णकी स्मृतिको वह अपने अङमें छिपाये था।
महात्मा कर्णने खूब तप तपा और अपने आत्माका ऐसा विकास किया कि चहुंओर उनकी प्रसिद्धि होगई। उनका साधु. जीवन मात्मोद्धारके साथ-साथ लोकोद्वारको लिए हुए था। उन्होंने अपने निश्चय के अनुसार लोकमें सत्यका ज्ञान फैलाया और अन्तमें समाधिमरण द्वारा वह सद्गतिको प्राप्त हुये।
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पाप - पडू से निकलकर धर्मकी गोद में ।
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" महापापप्रकर्ताऽपि प्राणी श्रीजैनधर्मतः । भवेत् त्रैलोक्य संपूज्यो धर्मात्कि भो परं शुभम् ॥” अर्थात् 'घोर पापको करनेवाला प्राणी भी जैनधर्म धारण करनेसे त्रैलोक्य पूज्य होजाता है। धर्मसे बढ़कर और शुभ वस्तु है ही क्या ? '
कथायें:
१-चिलाती पुत्र | २- ऋषि शैलक ।
३ - राजर्षि मधु ।
४- श्रीगुप्त । ५- चिलातिकुमार |
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चिलाती पुत्र। _____ [१३७
[२] चिलाती पुत्र
'औं भौं' कर रोते हुये पड़ोसीके लड़के ने सेठ धनवाहसे भाकर चिलातीपुत्रकी शिकायत की। लड़के के मुंहसे खून निकल रहा था
और हाथके कड़े गायब थे। लड़केकी सूरत देखते ही सेठजी चिलातीकी नटखटीको ताड़ गये थे। उसकी यह पहली शिकायत नहीं थी। ऐसी नटखटी देना उसका स्वभाव होगया था। सेठजी भी परेशान आरहे थे। आज वह उसकी नटस्वटी सहन न कर सके। लड़केको पुचकार कर उन्होंने शान्त किया और चिलातीपुत्रको बुलाया । सेठजी कुछ कहें ही कि इसके पहले उसने लड़के के कड़े निकालकर कहा-'कड़े तो मैंने खेलमें लेलिये थे, यह गिर पड़े, चोट लग गई, सो भागे चले आये।' ___ गिर पड़ा था ?- अ, तूने मुझे मारा नहीं ?' लड़का बोला।
सेठजीने आखें लाल पीली करके कहा-'बस, बहुत हुआ चिलातीपुत्र ! अब तुम मेरे यहां नहीं रह सक्ते।'
___ उद्दण्ड चिलातीपुत्रने इसकी जरा भी परवाह नहीं की। उसने मनमें कहा- राजगृहमें क्या तू ही अकेला सेठ है ? मैं नौकरी करना चाहूंगा तो उसकी कभी नहीं ।' किन्तु चिलातीपुत्रने नौकरी नहीं की। वह नटखट, बदमाश और हरामी था। सेठ धनवाहके
x ‘सामाषिकना प्रयोगो' पृ. २६ और 'धर्मकपालो' पृ. १५६ पर वर्णित कथामोंके माधारसे ।
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१३८ ] पतितोद्धारक जैनधर्म। यहां उसको कुछ काम नहीं करना पड़ता था। उनकी पुत्री सुखमाको वह खिलाता भर रहता था। आखिर वह बेकार आवारह घूमने लगा।
राजगृहके बाहर सिंहगुफाके पास चोरोंकी पल्ली थी। चिलातीपुत्र उन चोरोंमें जा मिला। और कालान्तरमें वही उनका सरदार होगया।
चिलातीपुत्र अब डाके डालता और चोरी करता हुआ जीवन विता रहा था। फिर भी वह सुखी नहीं था। उसका मन रह-रह कर सेठ धनवाहके घरकी दौड़ लगाता था । वात यह थी कि वह अपनी सखा सुखमाको भूला नहीं था। वह सोचता, अब सुखमा मेरीसी जवान होगई होगी। उसके साथ आनन्द केली करूं तो कैसा अच्छा हो। एक रोज उसने अपने इस विचारको कार्यमें पलट दिया। ___राजगृहमें सब सोरहे थे । हा, चौकीदार यहां-वहा अवश्य दिखाई पड़ते थे । चिलातीपुत्रको उनकी जरा भी परवाह नहीं थी। वह अपने साथियोंके साथ दनदनाता हुआ सेठ धनवाहके घरमें जा घुसा । सेठने जब यह जाना कि डाकुओंने घर घेर लिया है तो वह प्राण लेकर भागा। इस भगदड़में सुखमा पीछे रह गई। चिलातीपुत्रने झट उसे उठा लिया और धन लटकर वे सब सिंहगुफाकी ओर भाग गये।
सेठ धनवाहने देखा कि मुखमा नहीं है तो वह विकल-शरीर होगये ! कोतवालको उन्होंने बहुत्सा धन दिया और उसके साथ वे अपने लड़कोंको लेकर चोरपल्लीकी भोर मुखमाकी खोजने गए।
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चिलाती पुत्र । । १३९ चोरोंने देखा कि उनका अड्डा राजकर्मचारियोंका शिकार बना है तो वे सब इधर उधर भाग खड़े हुए । चिलातीपुत्र भी सुखमाको लेकर गहन वनको भागा। सेठने अपने पुत्रों सहित उसका पीछा किया।
चिलातीपुत्र यद्यपि हट्टा-कट्टा और एक दासपुत्र था, पर था वह भी मनुष्य ही । आखिर उसकी शारीरिक शक्ति जवाब देने लगी और सेठ उसका पीछा कर ही रहे थे। उस दुष्टने आव गिना न ताव, झटसे सुखमाका सिर काटकर ले लिया और उसका शब वहीं फेंक दिया ! सिरको लिये वह पहाड़ी परको चढ़ता चला गया । सेठ धनवाहने सुखमाका शब देखकर उसका पीछा करना छोड़ दिया। उनके मुंहसे 'हाय' के सिवा कुछ न निकला । उन्हें काठ मार गया-वे वहीं बैठ गये !
शोक ज़रा कम होनेपर सेठने शबको लेकर राजगृहकी ओर लौटनेकी ठानी। वह थोड़ी दूर चले भी; परन्तु रास्ता कहीं ढूंढ़े नहीं मिलता था। वह रोते-रोते बैठ गये । भूखे प्यासे शोकाकुलित एक वृक्ष तले पड़ रहे । आखिर भूखने उन्हें ऐसा सताया कि वह बेहाल होगये । खानेको एक कण भी उनके पास न था। बेचारे सेठ बड़े संकट में पड़े । सुधबुध उनकी जाती रही। भूखने उन्हें नर-राक्षस बना दिया। अपने प्राणों के मोहमें वह बेटीका शोक भूलगये । बेटीका निर्जीव शब उनके सामने था और भूख भी मुंह बाये खड़ी थी। सेठने उस शबका भक्षण करके पेटकी ज्वाला शांत की! और ज्यो-त्यों करके वह राजगृह पहुंचे ! प्राणोंका मोह महाविकट है।
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१४० ]
पतितोद्धारक जनधर्म ।
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तूफान मेल जैसे खड़ी मालगाड़ीसे टकराता है, वैसे ही चिलाती पुत्र बेतहाशा भागता हुआ एक ध्यानमें बैठे हुए चारण मुनिसे जा टकराया ! मुनिका ध्यान भङ्ग हुआ। उन्होंने चिलाती पुत्रका बीभत्सरूप देखा। अनायास उनके मुखसे निकल पड़ा'मरे ! यह क्या अधर्म !'
चिलाती पुत्र आवेशमें था। मुनिके उपरोक्त शब्द सुनते ही वह बोला-'तो धर्म क्या है ?
जिज्ञासाका भाव होता तो मुनिवर शायद उसे धर्मका विस्तृत रूप सुझाते; परन्तु चिलाती पुत्र तो आपेमें नहीं था। मुनिवर 'उपशम, संवर, विवेक' शब्दोंका उच्चारण करते हुए अन्तर्धान होगये ।
मुनिको इस तरह आकाशमे विलीयमान होते देखकर चिलाती पुत्र बचभेमें पड़ गया। उसे सोचने-विचारनेका तनिक अवकाश मिला। उसने दुहराया-'उपशम, संवर, विवेक यह क्या ? धर्म यही है क्या ? पर इनका मतलब ?' उसकी समझमें कुछ भी न आया, पर वह उन तीनों शब्दोंको रटने लगा। रटते-रटने उसका मन
और भी शान्त हुआ। उसने सोचा 'विवेक' तो उसने सुना है। महात्माओंको लोग विवेकी कहते है-महात्मा अच्छा बुरा चीनते हैं, तो क्या विवेकके अर्थ मला-बुरा चीनना है ? इस विचारके साथ ही उसने अपने हाथमें सुखमाका सिर देखा। उसे देखते ही वह सिहर उठा, बोला-'आह ! यह कितना बीमत्स दिखता है। सुखमाका रूप अब कहा गया ? विवेकने उसकी बुद्धिको सतेज
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चिलाती पुत्र |
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किया, मोइका परदा फट गया, उपशमभाव जागृत हुआ । चिलातीपुत्रने तलवारको देखा और कहा- कोषकी निमित्तभूत इस तलवारका क्या काम ? फेंको इसे ।" तलवार उसके हाथ से छूट पड़ी। फिर भी वह उन तीन शब्दोंकी जाप जपता रहा ।
जाप जपने हुए उसने विचारा - मुनिमहाराजने इन्हींको तो धर्म बताया था, तो यही धर्म है ? पर संबर क्या ? कुछ भी हो; मैं मेठ और कोतवालपर क्रोध क्यों करूं? दूर फेंक दूं इस तलवारको ' और इसके साथ ही तलवारको उसने एक गारमें फेंक दिया। उसका चित्त अपूर्व शांतिका अनुभव करने लगा। अब उसने सोचा- 'यही धर्म है, यही संवर है, मेरा चोला इसीसे चैनमें है। मै आराधूंगा मुनिराजके धर्मको ।' चिलातीपुत्र अपने निश्चयमें दृढ़ रहा !
हत्यारे और चोर दासपुत्रकी धर्मके तीन शब्दोंने काया पलट दी। उन शब्दोंसे उसकी बुद्धि और हृदयको शान्ति मिली-भीतरकी आकुलता मिटी । हाथ कङ्गनको आरसी क्या ? चिकातीपुत्रने धर्मका यथार्थरूप पहचान लिया। वह शान्तचित्तसे विवेक, उपशम और ध्यानमें लीन रहा । उसे यह भान भी नहीं हुआ कि उसके खून से सने हुये शरीरमें चीटियां लग रहीं है- जानवर उसे स्वारहे हैं । उन धर्ममय परिणामोंसे उसने शरीर छोड़ा और वह स्वर्गलोक मेंदेव हुआ ! हत्यारा अपने पापका प्रायश्चित्त कर चुका, उसका अंतर पशु मर गया- संसार उसका क्षीण हुआ । आत्मारामका जाज्वल्यमई प्रकाश उसके मुखमंडलपर नाच रहा था । व्यय उसे कौन हत्यारा कहे ? धर्मने उसकी काया पलट दी । ऋषियोंने कहाकि देवगतिके.
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पतितोदारक जैनधर्म । सुख भोगकर वह शास्वत निर्वाणपदको प्राप्त करेगा। पाप-पकसे निकलकर चिलातीपुत्र धर्मकी गोदमें आया और उसे वहां वह शांति और सुख मिला जो संसारमें अन्यत्र दुर्लभ है।
राजगृहके विपुलाचल पर्वतपर भ० महावीरका शुभागमन हुआ था। लोगोंमें उनकी बड़ी चर्चा थी । सब कोई कहता था कि वह बड़े ज्ञानी है, सर्वज्ञ है. सार्वदशी है, जीवमात्रका कल्याण करनेवाले है । जब गजा श्रेणिक उनकी वन्दनाके लिये गया, नब तो सारा नगर ही उन भगवान के दर्शन करने के लिये उमड़ पड़ा। सेठ धनवाहके लिये यह अवसर सोने सा हुआ। सुखमाका वियोग होनेके बादसे संसार उन्हें भयावना दीखता था। मेठको सत्संगतिमें सान्त्वना मिलती थी। एकान्तमें जब वह अपने जीवनका सिहावलोकन करते तो सिहर उठने, सोचने-'जिम बेटी सुखमाको प्यारसे पाला था उसीको खागया। हाय, मुझसा निर्दयी कौन होगा ?' यह मोहका माहात्म्य था, किन्तु दूमरे क्षण विवेक आकर कहता• भूलने हो; बेटी कहा ? वह तो पुद्गलपिड मात्र था। शरीर आत्मा नहीं है।' इस विवेकके माथ ही सवेग भाव उन्हें सत्संगति करनेकी प्रेरणा करता था। अत सेट धनवाह भी वन्दना करने गये । भ० महावीरके अपूर्व नेज और ज्ञानको देखका उनका हृदय नाचने लगा । हृदयमें वैराग्य उमड़ आया । वह बोले...
प्रभु ! मुझ पतितको उबारिये । मैं ऐसा पापी हूं जो 'प्राणोंके मोहमें अपनी बेटीका शब भक्षण करगया।'
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ऋषि शैलक !
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भगवान मुस्कराये - ' सेठ ! तुम अब पापी नहीं हो । पापसे तुम भयभीत हो । तुम्हारा भविष्य उज्ज्वल है । तुमने तो मृतमास ही खाया है; परन्तु धर्मकी शरणमें आकर नर-हत्यारे भी कृतकृत्य होगये हैं । चाहिये एक मात्र हृदयकी शुद्धि ।'
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[ २४३
1
सेठ - 'नाथ ! मैं आपकी आज्ञा का पालन अक्षरशः करूंगा ।" भं० महावीरके निकट सेठ धनवाह दीक्षा लेकर साधु होगये साधु होकर उन्होंने खूब तप तपग, संयम पाला, जीव मात्रका उपकार किया और ग्यारह अंगका ज्ञान उपार्जन किया । समाचारको पालकर वह भी स्वर्गगतिको प्राप्त हुये ।
? }
ऋषि शैलक !*
(१)
इन्द्रकी अमरावती जैसी द्वारिका नगरी सौराष्ट्रदेशकी राजधानी थी। वहां वसुदेव के पुत्र श्रीकृष्ण राज्य करते थे । वैत व्यगिरी तक समूचे दक्षिणार्ध भरतपर उनका अधिकार था, वह आनन्द मे सुखपूर्वक राज्य कर रहे थे ।
उस समय द्वारिक में थावचा नामक एक समृद्ध और बुद्धिशाली सेठानी रहती थी । थावच्चापुत्र उसका इकलौता बेटा था । थावाने उसे लाचावसे पाला पोषा और पढ़ाया लिखाया था । पढ़ लिखकर जब थावचा पुत्र एक तेजस्वी युवक हुआ तब उसका 'धर्म मो' पृ० ४७ के मनु |. |
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१४...] पतितोद्धारक जैतवर्म । विवाह हुआ। वह वैवाहिक जीवनका आनन्द लुटनेमें व्यस्त था।
श्रीकृष्णके चचेरे भाई भगवान् अरिष्टनेमि थे। जरासिंधुसे जब यादवोंका युद्ध हुआ था तब कृष्णके साथ अरिष्टनेमिने भी अपना भुजविक्रम दिखाया था । जरासिंधुकी पराजय और यादवोंकी विजय हुई थी। श्रीकृष्ण अरिष्टनेमिके बलके कायल होगये थे। उन्होंने अरिष्टनेमिका विवाह कुमारी राजमतीसे निश्चित किया। बारात चढ़ी, मरिष्टनेमि दूल्हा बने, परन्तु उन्होंने ब्याह नहीं किया। मार्गमे पशुओंको घिरा देखकर उन्हें उनपर दया आगई, पशुओं को उन्होंने छुड़ा दिया। साथ ही इस घटनासे वे संवेगको प्राप्त हुये। संसार भी तो बंदीगृह है, कोई क्यों बंधनमें रहे। अरिष्टनेभिने आत्मस्वातंत्र्य पानेके लिये बनका रास्ता लिया, वे महान योगी हुये। सर्वज्ञ-सर्वदर्शी बनकर उन्होंने लोककल्याणके लिए सारे देशमे घूमधूमकर मुमुक्षुमोंको सत्यका स्वरूप मुझाना प्रारम्भ कर दिया।
विहार करते हुये भ० अरिष्नेमि द्वारिकामें आये । श्रीकृष्ण तथा अन्य यादवगण उनकी वन्दनाको गये। थावच्चापुत्र भी गया। उसने भगवान के मुखारविंदसे धर्मोपदेश सुना। शगैरवन्धनमें पडा रहना उसे असह्य होगया। मातासे उसने विदा ली, पत्नीको सान्त्वना दी और सबकी अनुमति पाकर थावच्चपुत्र साधु होगया ।
__ मा बोली-'बेटा, इस मार्गमें सदा यत्न करना, पराक्रम दिखाना, कभी प्रमादमें न फंसना !'
यावयापुत्रने माताके इन वचनोंको सार्थक कर दिखाया। वह एक सच्चे साधुके समान सावधानी और साहससे धर्ममार्गका
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ऋषि क्षेत्रका
[१४५ 'पर्यटक बना । गांव-गाव पैरों चलकर वह सत्यका संदेश लोगों को सुनाता और उन्हें धर्म के कल्याणमई मार्गमें लगाता था।
सौगंधिका नामक नगरीमें शुक नामक परिव्राजक रहता था। बह शौचालक धर्मका उपदेश देता था। स्नान आदि बाह्य शुद्धि और मंत्रादि उच्चारण रूप वह आन्ताशुद्धि मानता था। थावश्चा पुत्र चुमने हुये उस नगरीमें पहुंचे । शुकसे उनका समागम हुआ। शुकने उनमे पूछा:---
"हे भगवन् ! आपके यात्रा है ? यापनीय है ? और क्या अध्यावाधपना तथा प्रासुक विहार है ?"
उत्ताचे थावच्च। पुत्र बोले-" हे शुक ! मेरे यात्रा, यापनीक अन्याबाध और प्रासुकविहार है।"
शुक-" हे भगवन् ! यात्रासे आपका मतलब क्या है ?'
था०-" हे शुक : सम्यक् दर्शन. ज्ञान. चारित्र, तप और मंयमादि योगोंमें तत्परता ही यात्रा है ! "
शुक- ' और प्रभू यापनी यमे आपका प्रयोजन क्या है ? " ___ था-" हे शुक ! यापनीय मेरे निकट दो नाहकी है-(१) इन्द्रिय यापनीय (२) नो:न्द्रिय यापनीय । श्रोतृ, चक्षु, प्राण, जिल्हा
और स्पर्श-यह पाचों ही इन्द्रिया विना किसी प्रकारके उपद्रवके. मरे वशमें हैं, इसलिये मेरे इन्द्रिय याश्नीय है। तथा क्रोध, मान, माया लोभरूप कषाय संस्कारोंमे कुछ तो मेरे क्षीण होगए है और कुछ शम गये हैं, इसलिए मेरे नाइन्द्रिय याश्नीय भी है।"
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Bis....
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१४६ । पतितोद्धारक जैनर्म।
शु०- अब अव्याचाधका स्वरूप बताइये "
था०- 'हे शुक ! वात, पित्त, कफ अथवा तीनोंके संक्रमणसे उत्पन्न होनेवाले रोग मुझे त्रास नहीं देने, यही मेरा अव्यायाध है।"
शु०-'प्रभो ! प्रासुक विहार भी निरूपिये।'
था०-'हे शुक ! मैं बाग बगीचे, मंदिर आदि स्त्री-पुरुषादि रहित स्थानोंमें रहता हूं, यही मेग प्रासुकविहार है !"
शु०- भगवान् ! बताइए क्या आप एक हैं, वो हैं, अक्षत हैं, अव्यय है, अवस्थित है या अनेक भूत भविष्यत् रूप हैं ?'
था- 'द्रव्यकी अपेक्षा मै एक हू तथा ज्ञानदर्शनकी अपेक्षा दो हूं। मेरे अनेक अवयव है. इस दृष्टि में अनेक हैं । आत्मप्र देशकी अपेक्षा अक्षत हूं, अव्यय हू और अवस्थित हूं। उपयोगकी अपेक्षा भूत, वर्तमान और भविष्यका ज्ञाता होने के कारण भृत वर्तमान और भविष्यरूप हूं।' ___यह सुनकर शुक संतुष्ट हुआ और बोला-'ज्ञानियोका कहा हुआ धर्म आप मुझे समझ इथे ।"
थावच्चापुत्र के निकट धर्मा स्वरूप हृदयगम करके शुकन माधु होगया । थावच्च पुत्र के साथ वह भी गाव गावमें धर्मोपदेश देता वूमने लगा। पुंडरीक पर्वतसे न यावच्चापत्र मुक्त हये तब वह उनके पास था। शुक्ने उम स: । ग्ख । ना. धना की !
शुक अनगार फि'ने फिन ल FIके उद्य में आ विगजमान हुये । उनके शुभागननी चान ग कर गजा शै तथा
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अपि सैक...........[१४७ अन्य नगरवासी वन्दना करने और धर्म सुननेके लिये उनके निकट पहुंचे। शुकऋषिके धर्म प्रवचन सुनकर वह राजा बोला
“हे देवानुप्रिय ! मैं आपके निकट दीक्षा लेकर विषय कषायोंसे मुक्त होना चाहता हूं। मैं मंडूककुमारको राज्यमार देकर अभी आपकी शरणमें माता है।" * शुक बोले- हे राजन् ! तुझे रुचे वह कर। ।
शैलकने मंडूकको राजतिलक किया और सबसे क्षमा कगकर वह थावश्चापुत्रके निकट आकर मुनि होगया। मुनि होकर शैलक खुब ही ज्ञान ध्यानमें रत रहने लगे। संयमपूर्वक अपना जीवन बिताते हुये वह चहुंओर विहार करने लगे। कालान्तरमें शुक्राचार्य ने उन्हें पंथक आदि पाचसौ मुनियों का गुरु नियत किया।
शैलकाचार्य उन मयमका आचरण करने थे, रूखा सुखा बो कुछ मिलता वह भोजन करते और ज्ञानध्यानमें समय व्यतीत करते थे। अकसर वह भूखे पेट म्हते थे । इस प्रकारके आहारविहारसे शैलकऋषिका सुकुमार शरीर पित्तज्वरसे मूखने लगा। किन्तु उसके कारण उन्होंने अपने संयमाचरणमें जराभी असावधानी न की ! जा. अस्त वह स्वपरकल्याण करने में ग्त रहे ।
शैलकाचार्यको ज्वरग्रस्त कृषकाय देखकर मंडूक राजाने उनमे प्रार्थना की कि " हे भगवान् ! आप यहीं विश्राम लीजिये। मैं अपने योग्य वैद्यों द्वारा आपकी चिकित्सा कराऊंगा।"
मंडूकके इन बचनोंने शैलकके हृदय में मोह नगा दिया। उसने
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पतितो
धर्म ।
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मंडूककी विनय स्वीकार की । कुशल चिकित्सक उनकी चिकित्सा करने लगे । औषधियोंमें मद्य भी था। मोहग्रस्त शैलक उसे भी पी गये। धीरे धीरे वह खूब हम्रपुष्ट होगए ।
शैलक के प्राचसौ शिष्य बिचारे परेशान थे । वे सोचते थे- अब गुरु महाराज विहार करते हैं; किन्तु गुरुके डाढ़ तो मद्य लग गया था। वह उसे कैसे छोड़ें? आखिर शिष्यगण ही उन्हें छोड़कर चले गये, रह गया एकमात्र पंथक वह गुरूके इस भ्रष्टाचार में भी उनका साथी रहा
"
चातुर्मासिक प्रतिक्रमण - गुरुके निकट अपने अपराधोंको स्वीकार करके क्षमायाचना करनेका अवसर आया। पंथकने गुरुके चरणोंमें शीश नमाया । पादप्रहार करते हुये शैलकने क्रोधपूर्वक कहाकौन न दुष्ट है जो मुझे सोतेसे जगाता है ? "
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सचमुच पंथक सोते से जगाने के लिये पाप पंकसे शैलकको बाहर निकालने के लिए उसके पास रह गया था । उसने विनम्रस्वर में उत्तर दिया- "प्रभो ! और कोई नहीं, आपका शिष्य पंथक है । चातुर्मासिक प्रतिक्रमणकी क्षमायाचना करने आया हूं । मेरे इस कार्यसे आपको कष्ट हुआ है तो क्षमा कीजिये ।"
शैलक इन बचनोंको सुनने ही उठकर बैठ गया, उसका आत्मभाव जागृत होगया । वह सोचने लगा कि " देखो तो विषयवासनाबोका स्याग करके फिर मैं उनमें फंसा हूं, यह मेरा घोर पतन मदिरा पीकर मस्त होना और मौज उड़ाना मैंने जीवनका उद्देश्य कैसे समझ किया ? छि: धिक्कार है मुझको ! वह मेरा उग्र तप और
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ऋषि कफ ।
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स्वादेन्द्रियको जीतने की वह मेरी महान् साधना आज कहां गई ? अरे ! अरे ! यह क्या हुआ ? मुझसा पापी और नीच कौन होगा ? उगालका भक्षण भला कौन करेगा ? उठो, चलो, छोड़ो इस स्थानको! यह मेरे पतन, मेरे कलङ्कका जीताजागता चिह्न है । धन्य है यह पथक ! इसने मेरा बड़ा उपकार किया !"
इस विचार के साथ ही शैलक वहांसे विदा होकर पथक के साथ अन्यत्र विहार कर गये !
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पुण्डरीक पर्वतपर शुकाचार्य तप माढ़े बैठे थे। शैलकऋषि पंथकके साथ वहां जाकर उनके चरणोंमें गिर पड़े। बोले-'प्रभो ! मुझ पतितको उबारिये !"
शुकाचार्य मुस्करा दिये। उन्होंने कहा- 'वत्स ! विषय दुर्निचार है, इनके मोहमें फंसना कुछ अनोखा नहीं है। अनोखापन तो इनके चंगुल से छूटने में है । तुम शरीरके मोहमें पड़कर मद्यासक्त हो गये; किन्तु अपने इस कुकृत्यपर तुम्हें ग्लानि है, यही विशेषता है।'
शैलक- 'नाथ ! मैं महापापी हूं, मेरा उद्धार कीजिये ।'
शुक० - ' शैलक ! अब तुम पापी नहीं, पुण्यात्मा हो ! बशिष्ट मुनिकी बात याद नहीं ? वह भी मद्यमांसादि भक्षणमें आनन्द लेता था; किन्तु धर्मवार्ताने उसके हृदयको पकट दिया। मद्यमांसादिसे उसे घृणा होगई, वह सच्चा साधु होगया । हृदयकी शुद्धि ही मोक्षमार्ग आवश्यक है । हृदयशुद्धिके विना जपतप आदि सभी व्यर्थ हैं।' शैलक- 'गुरुवर्य ! मुझे वही साधन बताइये जिससे मेरा हृदय और भी पवित्र बन सके !"
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पवितोद्धारक जैनधर्म |
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शुक० - 'पापसे ग्लानि होना ही हृदयशुद्धिकी पहिचान है, तुम पापसे भयभीत हो ! अब तुम निशक होकर संयमकी आराधना करो। पहले संवेग और कायोत्सर्गका अनुसरण करो, तुम्हारा कल्याण होगा । सवेरेका भूला शामको रास्ते लग जाय तो उसे भूला नहीं कहते । तुम मार्गभ्रष्ट नहीं हुये हो, अपना आत्मकल्याण करो !”
गुरुसे प्रायश्वित लेकर शैलक धर्ममार्गमें पहलेकी तरह फिर पर्यटन करने लगे। उनसे पाँचसौ शिल्प फिर उनकी शरण में आगए। खोई हुई प्रतिष्ठा पूज्यता उन्हें फिर प्राप्त होगई। सच है, गुणोंसे मनुष्य पूज्य बनता है और अवगुणोंसे वह लोकनिन्ध होता है । धमकी शरण ही त्राणदाता है। मार्गभ्रष्ट लोगोंको मार्ग सुझाना, उन्हें उनके पूर्वपद पर बिठाना महान धर्मका कार्य है ! स्थितिकरण धर्म मही तो है। पंथकने इस धर्मको निभाया और अपने भूले हुए गुरुको फिर वह धर्म मार्गपर ले आया ! गुरुसे उसने घृणा नहीं की, यद्यपि उनकी इन्द्रियाशक्तिसे उसे तीव्र घृणा थी ! पापीसे नहीं, पापसे ही घृणा होना चाहिये । सम्यक्त्वी तो पापी और धर्मात्मा सब ही पर अनुकम्पा रखता है !
शैकक अब पूर्ववत् धर्माचार्य थे। पुण्डरीकपर्वत पर रहकर उन्होंने अपना शेष जीवन धर्माराधनामें व्यतीत किया। अंतर्फे समाधिमरण द्वारा वह सद्गतिको प्राप्त हुए ।
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राजर्षि मधु '
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राजर्षि मधु !*
अयोध्याके राजा मधुका प्रताप अतुल था। सब ही राजा उसका लोहा मानते थे। केवल एक राजा था जो उनकी आज्ञा माननेके लिये तैयार न था। मधुको वह शल्यकी तरह चुभता था। उसको वश किये विना उन्हें चैन न पड़ी। ____ अयोध्या चारों ओर धूम मच गई। जिधर देखो उधर मिपाही ही सिपाही नजर आने थे। कोई अपनी तलवार पर शाम धरा रहा था तो कोई ढालकी मरम्मत करा रहा था। कोई योद्धा अपनी प्रेयसीके बाहुपाशमें फँमा विकल होरहा था; तो कोई अन्य अपनी बहादुर पत्नीसे विदा होते हुये हर्षके अश्रु टपका रहा था । आखिर शत्रुपर आक्रमण करने के लिये गमन करनेका दिन आगया !
राजसेना खूब सजधजके साथ अयोध्यासे बाहर निकली। नागरिकोंने उसपर मागलिक पुष्प वर्षाये । राजमाताने राजा मधुको दही चखाया और मुहरसे दहीका तिलक कर दिया। राजमाताकी आशीष लेकर मधु शत्रुविजयके लिये चल पडा ।
मार्गमें वटपुर पड़ता था। वीरसेन वहांका राजा था। महाराज मधुका वह करद था। अपने प्रभूका शुभागमन जानकर उसने उनका स्वागत किया। सब ही भागन्तुकोंकी उसने खुद ही आवभगत की। वटपुरमें उन दिनों खूब चहल पहल रही।
* हरिवंशपुराण पृष्ट १६९ ६ ४२२के माधारसे ।
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१५२ ]
पतितोद्धारक जैनधर्म
राजा मधु राजमहल में निमंत्रित हुए। वीरसेनने उत्तम अशनपान द्वारा उन्हें खूब ही संतुष्ट किया। वीरसेनकी रानी चंद्रामाने मधुको सोने लगे बीड़े भेंट किये। राजा उन्हें पावर स्नेहातिरेक से विळ होगया | चंद्राभा यथानाम तथा गुण थी । उसकी मुखश्री चंद्रमा को भी चिनौती देती थी मधु एक टक उसकी ओर निहारता रह गया !
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3
शत्रुको विज्य करके राजा मधु अयोध्या वापस आये है
यह समाचार बिजली की तरह नगरके आबाल वृद्ध जनता में फैल गया । सबने अपने उत्साहको प्रकट किया । नगरको खूब सजाया और दिल खोलकर विजयी सेना का स्वागत किया । अयोध्या में कई दिनांक विजयोत्सव होता रहा, किन्तु इस उत्सव में गजा मधुने नगण्य भाग लिया । वह दोजके चन्द्रमाकी तरह कदाचित् ही कहीं दिख जाते थे । सो भी वह मुख ग्लान और चिन्तायुक्त दिखते थे। प्रजाने समझा यह युद्धश्रमका परिणाम है; किन्तु चतुर मंत्रियोंने कुछ और ही अर्थ निकाला । वह भी अपनी मंत्रणा में संलम होगये ।
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• 7
आखिर मंत्रियोंकी आशङ्का ठीक निकली। राजा चन्द्राभाको भृला नहीं । उसने मंत्रियोंमे कहा - ' अब और कितने दिन मुझे वियोग ज्वालामें जलाओगे मंत्रीगण चुप थे 1 उनमें से एकने साहस करके कहा-' प्रभो ! हमें आपकी क्षेम ही इष्ट है, किन्तु नाथ ! ऐसा कोई काम भी उतावली में नहीं होना चाहिये, जिससे आपका अपयश हो और प्रजा विरुद्ध होजाय ! '
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राजर्षि
मधु ।
[ १५३
राजा अधीर था । बोला- उतावली कहां ? महीने से बीत रहे हैं और तुम मुझे प्रत्यीक्षाकी अनिमें भून रहे हो ! '
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मंत्री - ' नहीं, नाथ ! हम इसका उपाय अब शीघ्र करेंगे । ' राजा कामातुर था उसकी बुद्धि नष्ट होगई थी, स्वानापीना उसे कुछ भी नहीं सुहाता था, एकमात्र 'चन्द्राभा, चन्द्राभा' कहकर गरम २ सांसें वह लेता था। मंत्रियोंने उसकी प्राणरक्षाका एकमात्र साधन चन्द्राभाको जानकर उसको प्राप्त करना ही आवश्यक समझा ! ( ३ )
राजा मधुने बड़े समारोहसे विजयोत्सव मनवाया था। उसके राज्यके सब ही राजा, उमराव सपरिवार निमंत्रित किये गये थे मौर सब ही अपने लाव लश्कर महित अयोध्या पधारे थे। खूब दी आनन्दरेलिया होने लगीं। प्रमाने कहा - ' देखो, ये बातें ठीक निकल न ? तब महाराज युद्धश्रमसे आक्रान्त थे; इसी से रूखेर रहे । अब देखो, किस जोशोखरोश से वह उत्सवमें भाग लेरहे हैं । परन्तु राजाके भेदको वह क्या जानें ट
राजा वीरसेन
महीनेभर तक खूब उत्सव हुआ । वटपुरसे और रानी चंद्राभा भी आई थी। राजा उनकी संगतिमें रहकर आनंद विभोर होजाता था । आखिर राजाओंने मधुसे विदा चाही । सबका समुचित आदर सत्कार करके उसने विदा किया। वीरसेनपर अधिक स्नेह जतलाकर उसने उसे रोक रक्खा। राजमहलमें चंद्राभाको विश्राम मिला । कुछ समय बीतनेपर वीरसेनने फिर कहा- 'प्रभो, अब आज्ञा दीजिये। मेरे पीछे न जाने राज्यमें क्या होता होगा ।'
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ARIDAIMIUSBusiOSHSMUSLIMBISISM
१५४] पतितोदारक जैनधर्म ।
मधु बोला-'प्रियवर, मैं तुम्हारे वियोगको कैसे सहन करूँगा ! खैर, तुम्हारा जाना आवश्यक है, जाओ भाई ! थोड़े दिन राज्य प्रबन्ध देखकर लौट आना, तबतक चन्द्राभाके वस्त्राभूषण भी बनकर आजांयगे। तब ही मैं रानीकी विदा करूंगा।'
राजाका अपनेपर अतिनेह देखकर वीरसेन उनकी बात अस्वीकार न कर सका । चन्द्राभासे जब वह विदा होने लगा तब वह रो पड़ी और आतुर हो कहने लगी- प्रिय, मुझे यहां न छोड़ो, साथ ले चलो, वरन् धोखा खाओगे ! ' किन्तु वीरसेनने उसकी एक न सुनी। वह भोलामाला स्वामीकी भक्तिमें अन्धा होरहा था। उसने कहा--'महाराज मधु धर्मज्ञ हैं। वह ऐसा पाप नहीं कर सक्ते । मैं उनको रुष्ट नहीं करूँगा !'
शास्त्रकारका वचन है. 'जो जासु रत्त सो तासु णारि।' सचमुच प्रेम ही वह बन्धन है जो दो शरीरोंको एक बना देता है और दाम्पत्य सुख सिरजता है । जो जिसमें अनुरक्त है वस्तुतः वही उसकी पत्नी है । राजा मधुने चंद्राभा पर अतुल प्रेम दर्शाया । चंद्रामा उस प्रेमके सामने अपनेको संभाल न सकी। दोनों ही प्रेममत्त हो आनन्दकेलि करने लगे। मधुकी मनचेती हुई। चंद्रामा रनवासकी सिरमौर हुई।
एक रोज मधु और चंद्राभा महलके झरोखेमें बैठे हुये थे । उन्होंने देखा कि मैला कुचैला फटे कपड़े पहने हुए एक मनुष्य विकाप करता हुमा जारहा है। ज्योंही वह महलके नीचे आया, रानी चंद्रामा उसे देखकर घबड़ा गई । उसका हृदय दयासे पसीज
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राजर्षि मधु।
[१५५ गया । मधुसे उसने कहा-'कृपानाथ ! देखिये वह मेरा पति मेरे प्रेममें मत्त हुआ कैसा धूम रहा है ?'
मधुने चन्द्राभाकी यह बात सुनी अनसुनी करदी अवश्य; परन्तु वीरसेनके करुण रूपने मधुके दिलको ठेस पहुंचाई। वह उस चोटको भूलनेके लिए उठकर राजदरबारमें चला गया।
रानी चंद्राभा भी उसके पीछे पीछे चली और राजदरबारके. झरोखेमें जा बैठी।
गजा मधुके सामने एक अपराधी उपस्थित किया गया । कोतवालने कहा-'महाराज ! इसने परस्त्रीके साथ व्यभिचार किया है । इसे क्या दंड मिलना चाहिये ?'
राजा बोले-'परस्त्रीको ग्रहण करना महा पाप है । इसलिये इसके हाथ पैर काटकर शिरोच्छेदनका दंड इसे मिलना चाहिये।'
___कोतवाल-'तथास्तु' कहकर अपराधीको लेजाने लगा। उसी समय राजाने सुना- जरा दर्पणमें मुंह देखिये !' इन शब्दोंने रामाको काठ मार दिया। दरबार बरखास्त हुआ। राजा उठे और सीधे राममहलको चले गये । जाते ही चंद्रामासे बोले-'प्रिये ! तुम मेरा सच्चा हित साधनेवाली हो । मैं स्वयं महा पापी ई, मैं न्याय करने-दंड देनेका अधिकारी नहीं हूं।'
चंद्रामा प्रेमसे बोली-'नाथ ! यह मोग मनुष्यको अंधा बना देते हैं । असार भोगनेमें यह भोग मीठे उगते हैं, परन्तु परिणाम
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१९६] पतितोद्धारक जैनधर्म । इनका बड़ा कडुवा होता है । राजन् ! साधुओंने भोग उन्हींको कहा है जो स्व और पर दोनोंको महा संताप देनेवाले हैं।'
गनीके ये वचन सुनकर मधु भयभीत हो कांपने लगा। कुछ विचारकर वह बोला-प्रिये ! इस समय तुमने मुझे डूबनेसे बचा लिया । विषयभोग सचमुच दुःखोंके आगार हैं। कामकी तीव्र वासनाको जीतना ही श्रेय है । मैं अब तप धारण करके इस दुष्ट वासनाका नाश करूँगा !'
चंद्रामा मधुके इस पुण्यमई निश्चयको सुनकर हर्षसे गद्गद हो उनके गलेमे लिपट गई और बोली-'नाथ, तुमने खूब बिचारा ! तुम्हारा कायापलट हुआ जानकर मैं प्रसन्न हूं ! चलो, हम दोनों अपने कृत पापोंका प्रायश्चित्त करें।'
गजा मधु-पतित पावन प्रभू मैं महान पापी हूं, पराई स्त्रीको घरमें डालनेका घोरतम पाप मैं संचय कर चुका हं ! नाथ! कोई उपाय है जो मैं इस पापसे छूटू ?" । _आचार्य विमलवाहन अयोध्याके सहस्राम्रवनमें विराजित थे । राजा मधुने चन्द्रामा सहित जाकर उनके चरणोंमें अपने पापका प्रायश्चित्त करना चाहा ! विमलवाहन महारानने उत्तर दिया:
__ 'गजन् ! संसारमें ऐसा कोई पाप नहीं है जिससे मनुष्य छूट न सक्ता हो। अंधेरी रातके साथ उजाली रात और रातके साथ दिन लगा हुआ है । पाप अंधकार है, पुण्य प्रकाश है। पापसाम्राज्य शरीरके आश्रय है और पुण्य-प्रकाशका पवित्रस्थक आत्मभागार
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बिधु
[ १५७
अवलंबित है। जबतक मनुष्य शरीरका दास रहता है - इन्द्रियों की गुलामी करता है. तबतक वह पापसे मुक्त नहीं होता; किन्तु जिस क्षण वह शरीरको विनाशशील और उसके सुखको विषतुल्य समझता है उसी क्षण से वह आत्मभावको प्राप्त होता है, पुण्य प्रकाश उसे मिल जाता है ! समझे राजन् ! पाप कितना ही गुरुतर क्यों न हो, अपने हृदयको शुद्ध बनाइये और देखिये, पाप कैसे दुम दबाकर भागता है !"
मधु - 'महाराज ! हम दोनोंके हृदय पापसे घृणा करते हैं ।'
Radissimagisane
आ - तो राजन् ! तुम्हारा उद्धार होना सुगम है। परस्त्रीको घरमें डाल देना अथवा परपुरुषके साथ रमण करना, यह इन्द्रियबासना की अंधदासता की निशानी है। मोहनीबकी महत् कृपाका यह परिणाम है कि पुरुष स्त्री एक दूसरेको रमण करनेके लिये व्याकुल होजाते हैं। इस आकुलताको सीमामें रखकर विषयभोगोंको भोगने का विधान संसारी जीवोंने अपनी सुविधाके लिये बना लिया है। इसी सीमाका नाम विवाह है और इस सीमाका उल्लंघन करना विषयवासनाके तमतम उद्वेगका सबूत है। किन्तु हैं सब ही विषयवासना के गुलाम; कोई कम, कोई ज्यादा ! यदि विषयवासनाका कम शिकार बना हुआ मनुष्य धर्मकी आराधना करके पाप मोचन कर सका है तो उसमें अधिक सना हुआ मनुष्य क्यों नहीं ?
मधु-' नाथ ! लोग कहते हैं कि इससे विवाह मर्यादा नष्ट होजायगी !"
आ० - 'पापभीरु ! व्यभिचारसे हाथ धोलेनेवाले मनुष्यको धर्माराधना करने देनेसे विवाह मर्यादा कैसे नष्ट होगी ? संसारमे गती
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पतितोदारक मैनधर्म । किससे नहीं होती ? गलतीको सुधार लेना ही बुद्धिमत्ता है । अब कोई गलती सुधारनेको तत्पर हो तो क्या उसे रोकना ठीक होगा !'
मधु-नहीं महाराज ।'
आ०- बस, पापमोचन करने के लिये धर्मकी आराधना प्रत्येक मनुष्यको-चाहे वह स्त्री हो या पुरुष करने देना चाहिये । कौशाम्बीके राजा सुमुखकी कथा क्या तुमने नहीं सुनी ?'
मधु-'महाराज ! उनकी क्या कथा है "
आo-' उनकी कथा भी तुम जैसी है। सुनो-कौशाम्बीमें जा राजा सुमुख राज्य करता था तब वहा वीरक नामका सेठ म्हता था । सेठको पत्नी वनमाला अत्यन्त रूपवती थी। सुमुखने वनमालाको देखा और वे दोनों एक दूसरेपर आसक्त होगये । वनमाला वीरकको छोड़ कर सुमुखके पास चली आई और उसकी गनी बनकर रहने लगी ! वनमाला और सुमुखने विवाहकी पवित्रताको अवश्य नष्ट कर दिया; किन्तु फिर भी उन्होंने अपनी विषयवासनाको पशुतुल्य असीम नहीं बनाया दाम्पत्य जीवनको उन्होंने महत्व दिया । पति-पत्नीरूप वे धर्ममेवन करने में अपना समय और शक्ति लगाने गे। तपोधन ऋषियोंकी उन्होंने पूजा-वंदना की और उन्हें आहारदान देकर महत् पुण्य संचय किया । परिणाम स्वरूप वे दोनों महापातकी भी उम पुण्य प्रभावसे मरकर विद्याधर और विद्याधरी हुये । राजन् ! धर्मकी आगधना निष्फल नहीं जाती । जिसने पाप किये है उमे तो और भी अधिक धर्मको पालना चाहिये । तुमने यह अच्छा विचार किया है। 'आओ, मुनित्रत अंगीकार करो और गों का नाश कर डालो।
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राजर्षि मधु ।
[ १५९
-Hilaimanandnaindiasisionindanardan
राजा मधुने मस्तक नमा दिया वस्त्राभूषण उतार फेंके। पांच मुट्ठियोंसे बालोंको उखाड़कर उन्होंने शरीरसे निर्ममता और आत्मशौर्यको प्रकट किया। विमलवाहन महागजने उन्हें मुनिदीक्षा दी। उपस्थित मंडलीने जयघोष किया, मधु मुनियोंकी पंक्तिमें जा विरामान हुये !
बेचारी चन्द्राभा आसू बहाती अकेली खड़ी वह सब कुछ देख रही थी; किन्तु आजकलकी तरह उसे दर दर भटकने और और अधिक पाप कमानेके लिये नहीं छोड़ा गया था। वह योग्य अवसरकी प्रतीक्षा थी। अवसर पाते ही उसने भी दीक्षाकी याचना की ! आचार्य महाराजने कहा
"बेटी ! तेरा निश्वय प्रशमनीय है. स्त्रियाँ भी धर्माचारका पालन करके पापके संतापसे छूट सक्ती है ।"
उपरान्त चन्द्रामा भी अर्यिका होगई, कालीनागिनसी अपनी लम्बीर केशरश्मियोंको उसने - परको संतापदायक जानकर नोंच फेंका ! शरीरसे निष्पृह हो वह तप तपने लगी !
मुनि धारण करके मधुने उग्रोग्र तपश्चरण किया । वह अब निरतर आत्मोद्धार और लोकोद्ध ' कानेमें लग गये । आखिर कृशकाय ढोकर वह विहारदेशकं प्रसिद्ध तीर्थ सम्मेदशिखर पर्वत (पार्श्वनाहिल) पर आ विजे। अपने अतिम समय में उन्होंने विशेष परिणाम विशुद्धिको प्रकट किया और समाधि द्वारा शरीर छोड़कर ११ वें आरण स्वर्ग में देव हुये ! परदारगलटी धु धर्मकी शरण में आकर अतुल पोर्य का भोक्ता बना औ महाम प्रद्युम्न
का श्रीकृष्ण नारायणका प्र
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पतितोबारक जैनधर्म। नामक पुत्र हुआ ! मुनि होकर प्रद्युम्नने मोक्षपद पाया, और आज व्यभिचारी मधुका जीव सिद्ध भगवानके रूपमें त्रिलोकपूज्य होरहा है! धर्मका माहात्म्य अचिन्त्य है ! महान रोगी ज्यों अमृतौषधिको पाकर स्वस्थ्य होजाता है त्योंही महान पापी धर्म निर्मलीको पाकर अपनेको पापमलसे निर्मल कर लेता है। मधुकी तरह चंद्राभा भी सद्गतिको प्राप्त हुई ! धन्य है वे !
[४] श्रीगुप्त ।
'तुम चोर हो।"
कौन मुझे चोर कहता है वह सामने आये।
'मैं कहता हूं। मैं वैजयन्तीका राजा नल जिसन तेरे अपरा घोंको कई वार क्षमा किया है।'
'धन्यवाद है. राजन ! अ.पी उदारताके लिये परन्तु इसका अहसान मुझपर नहीं मेरे पिता और आपके मित्र महीधरपर होगा, सचमुच मैंने कभी कोई अपराध किया ही नहीं .'
‘कृतनी ! दुष्ट '! पिता के पवित्र नामको कलंकित करता है। तू पितृमोहका अनुचित लाभ उठाना चाहता है। अच्छा. दे अपने निर्दोष होने का प्रमाण "
'जलती हुई अमिमें से निकलकर मै अपनी निर्दोषताका प्रमाण x श्वेताम्बराचार्य भवदेवसरिके 'पाश्वपरित्' के आधारसे।
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BHAISITINDIBIDIO BIRIema
दूगा। गम् ! मैं अपने पिता नामको कलंकित नहीं लेकिन उज्ज्वल करूंगा।'
उपस्थित लोगोंने सेठ महीधरके पुत्र श्रीगुप्त के इस निश्चयको' सुनकर दातों तले उंगली दबा ली, किन्तु राजा नलपर इसका कुछ भी असर न हुमा । उसे अच्छी त-ह मालूम था कि श्रीधर चोरी करनेका बेहद आदी होगया है । वह एक नम्बरका जुआरी है। इसलिये उसके अतिसाहसकी निस्माता प्रगट करने के लिये उन्होंने अग्निचिता बनाये जाने की आज्ञा देदी । श्रीगुप्त वैसा ही दृढ़ रहा। चिता तैयार हुई। राजाने परीक्षा देनेकी आज्ञा दी। श्रीगुप्त बेधड़क हो अमिमें प्रवेश कर गया !
जब वह अमिसे बाहर निकला तब उसका शरीर कहीं जरासा भी नहीं जला था। लोगोंने उसकी 'जय' बोली ! राजा यह देखकर परेशान हुआ। दरबार बरखाम्त होगया! श्रीवर निडर होकर अपने चौर्यकर्म और द्यूतव्यसनमें लीन होगया । लोग कहने लगे, वह जाद. गर है!
— आज फिर वही अपराध : जानते हो चोरीकी सजा ? प्राणदण्ड ?"
'मुझे उसका डर नहीं मैं निर्दोष हूं !' श्रीधरने कहा।
रामा बोले-'आज सारी चैजयन्ती तुम्हारे दोषको पुकार पुकार कर कह रही है। अब तुम निहों। कैमें ।
श्रीघर-'राजन् ! यदि मैं नि। नहीं तो अग्नि मुझे जला म.रेगी !'
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१६२ ] पतितोद्धारक जैनधर्म ।
राजा-मच्छा, तुम्हारी यही इच्छा है तो हमें कोई विरोध नहीं।'
किन्तु श्रीधरके मुखपर आज निर्भीकता नहीं थी। अमिचिता सैयार हुई । श्रीधरने उसकी लाल लपटोंसे अपना हाथ छुमाया, वह झुलस गया। उसकी हिम्मत काफूर होगई । चिता धू-धू करके जल रही थी; किन्तु श्रीधर मुंह लटकाये खड़ा था।
राजाने कड़क कर कहा- श्रीधर ! तुम निरपराधी हो तो अब अमिमें प्रवेश क्यों नहीं करते ? तुमने स्वयं यह परीक्षा देना कबूल की है ?'
श्रीधर- कबूल की थी राजन् ! मत्रवादके बलपर ! किन्तु आज दुष्ट कुशलिन्ने मुझे धोखा दिया है !'
राजा-कुशलिन् कौन ?
श्री०-'कुशलिन् एक मत्रवादी है। मैं अपराधी हूं, मैने चोरिया की हैं. जुआ खेला है, उसके मंत्र की सहायतासे मै मागको धोखा देता आया। किन्तु आन स्वयं रम मत्रवादीने मुझे धोखा दिया। राजन् ! मुझे जल्दी ही प्रणरण्ड देकर इस अपमानमे मुक्त कीजिये।
राना- 'छिः श्रीगुप्त ! तुम कितने बुरे हो ! पहले ही तुमने अपना अपराध क्यों नह वी।। कि ? खै', मैं तुमपर फिर भी दया करता है । जाओ तुम आजन्म वैजयन्तीम निर्वासित किये जाते हो।'
मिपाही अपराधीको पाकर ले जयन्तीकी जनताने इस नामी चोक पकड़े जानपर नमकी - - ली।
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राजर्षि मधु ।
(१)
6 आह ! वह घर, वह माताका प्यार, पिताका दुलार, बचपनके साथियोंका सलौना संग, बौर आह ! वह चुतागार ! अब कभी देखने को नहीं मिलेगा ! अरे सिपाहियो ! जरा मुझपर करुणा लाओ, दो घड़ी इस प्यारी वैजयन्तीकी शोभा तो देख लेने दो ! अच्छा भाई ! नहीं ठहर सक्ते तो न सही-लो, मैं यह चला । अरे ! यह कौन ? माताजीकी पालकी है ! अब ममता जताने आई है । आने दो, इसे भी ! रोती क्यों हो, मा ! ममता थी तो क्यों नहीं छुड़वा लिया पितासे कह कर ! अच्छा, मैं पापी हूं-दुराचारी हूं। मुझे जाने दो जहन्नममें । मेरा समय खराब क्यों करती हो ? यह क्या ? इसे लेकर क्या करूंगा ? परदेशमें पुरुषार्थं काम देगा। खैर, लाओ । लो, अब जाता हूं ! सिपाहियो ! क्यों नाक में दम किया है। अब श्रीधरकी छाया भी तुमको नहीं मिलेगी। पर यार ! एक बात ठीक २ बताओ । वह बदमाश कुशलिन किधर गया ? सालेने चार पैसे के लोभ में मेरी आवरू मिट्टी में मिला दी ! सालेका खून पीऊंगा, तब मुझे चैन मिलेगी। अच्छा, इधरको गया है तो मैं भी इधर ही जाऊंगा |
Lamina
[ १६३
श्रीधर यूंही बड़बड़ाता हुआ वैजयन्तीको सदाके लिये छोड़कर चल दिया । वह कुशलिन मंत्रवादीको उस ओर गया जानकर बेतहाशा उघरको चला गया। सूरज छिपते २ वह राजपुर जा पहुंचा और वहीं कहीं पड़कर उसने रात बिताई।
( ४ )
गजपुरके चौराहे पर अगर भीड़ थी । एक कुशल मत्रवादी
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१६४ ]
SHIRISpin
तरह तरहके जादू भरे करतब दिखाकर लोगोंको आश्चर्यमें डाल रहा
था। जिस समय श्रीगुप्त वहां पहुंचा उससमय वह कह रहा था कि भाइयो! देखो, यह युवक तुम्हारे सम्मुख है ! खूब मजबूती से पकड़ लो! यह देखो गायब न होजाय ! "
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इसे
पतितजारक जैनधर्म
इसके साथ ही मंत्रवादीने युवक के मुँहपर हाथ घुमाया। हाथ घुमानेमें अदृश्यकारिणीवटिका उसके मुँह में उसने घुसेड़ दी ! युवा लोगोंकी ननरोंसे ओझल होगया। लोग आश्चर्यमें पड़ गये । इतने में श्रीगुप्त भीड़को चीरता हुआ गोलके भीतर जा खड़ा हुआ और बोला- ' भाइयो ! इसने युवाको अदृश्य किया है। मैं इसको महश्य
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करता हूं ! देखिये मेरी करामात । '
लोग आँखें फाड़कर उसकी ओर देखने लगे- दूसरे क्षण चिल्ला उठे - अरे यह क्या करने हो ? बेचारेको क्यों मारते हो !" कोषमें भमकते हुए श्रीगुप्तने कहा- यह दुष्ट है, इसने मेरा जीवन नष्ट किया है- मैं इसका जीवन नष्ट करता हूं ।' और इसके साथ ही उसने मंत्रवादीको मार डाला ! वह मंत्रवादी श्रीगुप्तका शत्रु कुशलिन था ।
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खून होगया ' के भयंकर समाचार गजपुरके कोने २ में पहुंच गये। राजकर्मचारियोंने श्रीगुप्तको गिरफ्तार किया । न्यायालय में उसने अपना अपराध स्वीकार किया। श्रीगुप्तको फांसीकी सजा मिली !" ( ५ )
चरररर ' करके पेड़की वह डाक टूट गई, जिससे लटकाकर श्री गुप्तको फांसी दीगई थी। श्रीगुप्तके प्राण बच गये । संसारमें अब उसे "अपना कोई नहीं दिखता था। वह एक ओर बनमें घुसकर चैल
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मधु ।
[ १६५०
•garmaniram Santhade
वनमें बहुत दूर चले जानेके बाद श्रीगुप्तको एक मुनिराज के दर्शन हुये । वह उनके चरणोंमें बैठ गया। मुनिने तुम कौन हो ? '
पूछा- 'वत्स !
श्रीगुप्तने कहा - ' नाथ ! मैं क्या बताऊँ ? मेरा इस दुनियांमें कोई नहीं है ! '
मुनि- 'वत्स ! तुम ठीक कहते हो, संसारमें कोई किसीका नहीं है । यह शरीर जिसको तुम अपना मानते हो, यह भी तुम्हारा नहीं है । तुम्हारा आत्मा अकेला - शाश्वत- ज्ञातादृष्टा है । तुम्हारे आत्माकी शक्ति तुम्हारी रागद्वेषमयी कषायजनित परणतिने नष्ट कर रक्खी है। संसार में किसपर क्रोध करते हो ? क्रोध करना है तो इस कषायपरणति पर करो । क्रोध, मान, माया, लोभका नाश करो । यही तो तुम्हारे शत्रु हैं ! प्रेम करना है तो अपनी वस्तुसे प्रेम करो जो कभी तुमसे दूर नहीं होगी । तुम्हारी आत्मा ही तुम्हारी वस्तु है, उसका तुम्हारा कभी विछोह नहीं होगा ! उसमें तुममें अन्तर ही नहीं है, बोलो करोगे उससे प्रेम ?'
श्री ०. १०- 'नाथ ! जो आप कहेंगे वह करूंगा, संसार में आप ही शरण हैं। मैं हत्यारा हूं, मनुष्यहत्या मैंने की है, यमके दूत मेरे पीछे लगे हुये हैं।'
मुनि - अरे भोले ! पाप और यम तो हरएकके पीछे लगे हुबे हैं । इस अनादि संसार में कौन हत्यारा नहीं है ? पर अब नरभव पाकर हत्यारा बना रहना ठीक नहीं है। नरतन सद्गुणोंसे शोभावमान होता है। नीतिका बचन
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१६६ ]
पतितोद्धारक जैनधर्म ।
'गुणैरिह स्थानच्युतस्यापि जायते महिमा महान । अपि भृष्टं तरोः पुष्पम् न कैः शिरसि धार्यते ।।" गुणोंके कारण मनुष्य महान् महिमाको प्राप्त होता है, यद्यपि वह स्थानसे च्युत भले ही हुआ हो। पेड़से गिरी हुई ( सुगंधमय ) कलीको कौन नहीं अपने सिरपर धारण करता ? सो भाई, धर्ममार्ग च्युत होनेपर भी यदि तुम गुणोंको अपनाओगे-धर्मकी आराधना करोगे तो निस्सन्देह तुम्हारी महिमा अपार होगी '
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श्री ० - 'प्रभो ! मुझे महिमा नहीं, आत्मकल्याणकी वाञ्छा है।'
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मुनि- 'बत्स, तुम निकट भव्य हो ! आओ, अपनी काया पलट करो, त्यागो इस पापभेषको । बनावट ही तो पाप हो । प्रकृत रूपमें रहो और अपने आत्माके प्रकृतभावका आराधन कगे, तुम्हारा कल्याण होगा ।'
श्रीगुप्त मुनिराजके निकट कपड़े लत्ते त्यागकर साधु होगया । उसने अपने हृदयको भी शान्त और उदार बना लिया । उसने खूब तप तपा, जिससे उसके पापमळ घुल गये और वह एक बड़ा ज्ञानी महात्मा बन गया ! गुरु महाराजकी उदारताने एक हत्यारे ज्वारीको महात्मा बना दिया ! धन्य हैं पतितपावन गुरु और धन्य है उनका धर्म !
( ६ )
वैजयन्तीमें धूम मच गई कि एक बड़े पहुंचे हुये धर्मात्मा साधु आकर राज्योद्यानमें ठहरे हैं। वह बड़े ज्ञानी हैं और जो जाता है उनके दर्शन पाकर निहाल होजाता है। सेठ महीघरने भी साज महाराजकी यह प्रशंसा सुनी। वह भी उनके दर्शन करने गये ।
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DIDIORNOMROHARDaat
பாமயாயன்மாய்யாயா MISTRIBUnr
राजर्षि मधु । जब वह उनके निकट पहुंचे तो उन्हें अपने नेत्रोंपर विश्वास न हुआ। उनका चोर और जुगारी पुत्र साधु होगा, यह वह सहसा न समझ पाये । प्रकृति के रहस्यको समझना है भी कठिन । सेठने फिर गौर से देखा। निश्चय वा श्रीगुप्त था । सेठक नेत्रोंमें मोहके आंसू आगये।
श्रीगुप्तने भी उन्हें देखा, वह बोला-'देखो, कैसी भ्रान्ति है; लोग माता, पिता, पुत्र. पुत्री, पत्नी आदिका रिश्ता बनाकर उनसे मोह करते है और वैसे ही मनुष्य जब उनके घरके नहीं होते तो आख उठाकर भी उनकी ओर नहीं देखते। एक बालक जो उनके घरमें जन्मा है यदि वही पड़ोसीके जन्मता तो उससे वह कुछ भी रिश्ता नहीं रखते। किन्तु भाई ! बालक तो वही है, यह विराग क्यों ? इसीलिये न कि उससे उनका कोई स्वार्थ नहीं सधेगा। संसारकी यही विडम्बना है। यहां स्वार्थका ताण्डवनृत्य होरहा है। संकी
हृदय विश्वप्रेमका महत्व नहीं समझते, वह साधुनोंमें भी अपना और परायापन देखते है ! पर साधु तो प्रकृतिके जीव हैं उनमें ममत्व कैसा १ ममत्व करते हो तो उन जैसे होजाओ।'
महीधर यह धर्मप्रवचन सुनकर पुलकितगात हो श्रीगुप्तके चरगोंमें गिर पड़ा। राजा नलने जब यह वार्ता सुनी तो वह भी उनकी वन्दना करने आया। पापमें लिप्त मनुष्य भी अवसर मिलनेपर कितनी आत्मोनति कर सक्ते है, इस बातको उन्होंने श्रीगुप्तमें प्रत्यक्ष देखा । राजा नलने अपने राज्यमें पापियोंको धर्मशिक्षा देनेका विशेष प्रबन्ध किया। मंदिरों में पहुंचकर वह अपना आत्मकल्याण करने लगे!
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१९८] पतितोद्धारक जैनधर्म ।
__ श्रीगुप्तने अपनी आयु सात दिन शेष रही देखकर विशेष तपश्चरण और ज्ञानागधन किया और शुभपरिणामोंसे शरीर त्यागकर वह स्वर्गमें देव हुआ। ज्ञानियोका कहना है कि आगे वह सिद्ध परमात्मा होगा ! लोक उमकी वन्दना करेगा।
चिलाति कुमार।
'अरे, यह कौन बला है ?'
'कलसा अटका तो कहीं नहीं है। किसीने पकड़ रक्खा है। मालूम होता है, कोई कुयेमें गिर पड़ा है।'
• खींचो-खींचो !' 'भाई. उदरो। मैं अभी तुम्हारे निकलवानेका प्रबंध करती हूं।'
यह कहती हुई युवती तिलका जल्दी जल्दी एक ओरको चली गई। वह भीलोंके सरदारकी कन्या थी। राजगृहके पासमें कहीं गहन वनके बीच उन भीलोंकी पल्ली थी। एक तरह दुनियांमे बिल्कुल न्यारे वे वहा बस रहे थे। तीरतरकससे युक्त वे हरसमय शिकारकी फिराक में रहते थे। यही उनका धन्दा था। बापदादोंसे उसको उन्होंने सीखा था-वे और कुछ अधिक नहीं जानते थे । तिलकाका बाप उन भीलोंका सरदार था। तिलका दौड़ी दौड़ी गई
x बाराधना कथाकोषकी मूल कथाके बाबारणे।
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बिलाती कुमार। और उसने कुयेमें किसीके गिरनेकी बात कही। भील पल्लीमें भगदड़ मच गई। देखते ही देखते कुये में गिरा हुआ आदमी निकाल लिया गया। वह भील नहीं, कोई आर्य सज्जन था। राजोंका-सा उसका ठाठ था; पर था वह बेहाल ! भीलोंने देखकर कहा- अरे, यह तो कोई राजा है !"
सरदारने पूछा-'भई, तुम कौन हो ? कहांसे आये हो ?' बदहोश मनुष्यने लड़खड़ाते हुये कहा- 'उपश्रेणिक-राजगृह ।'
'राजगृहका यह कोई गजकुमार है '-यह जानकर भील सरदार उन्हें अपने डेरोंमें ले गया और उनकी सेवा-सुश्रुसा कराने लगा। सचमुच यह नवागंतु 6 मगधके सम्राट उपश्रेणिक क्षत्रोजस थे। एक बदमाश धोड़ेने उन्हें कुयेमें ल डाला ! वहांसे उनका उद्धार तिलकाने किया !
(२) 'तिलका!'
'क्यों ? क्या है ? तुमने तो घरका काम करना भी मुहाल कर दिया।'
'अब काम करके क्या करोगी ? आओ, यहा आओ मेरे हृदयकी रानी ! ' तिलकाको बरबस अपनी ओर खींचते हुबे उपनेणिकने कहा।
भील पल्लीमें रहते हुये उपश्रेणिकका प्रेम युवती तिलकासे हो गया । उपश्रेणिक उसके प्रेममें ऐसे मस्त हुये कि उन्होंने उसको अपनी ची कमानेकी ठान ली !
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१७.] पतितोदारक जैनधर्म ।
तिलकाने कहा- पिताजीसे पूछ लिया है ? उसपर मैं जन्मकी भीलनी-तुम्हारे रनवासमें मेरा कहां ठिकाना ?'
उपश्रेणिकने तिलकाके कपोलोपर प्यारका चपत जड़ते हुये कहा-'अभीतक पिता और जातिके भयमें ही पड़ी हो । लो, तुम्हारे पिताको आज राजी कर लूंगा । और भीलनी हो सो क्या ? हो तो गुणवती ! कौन तुम्हें देखकर आर्य कन्या नहीं कहेगा ?
तिलका- मुझे तो कुछ भी भय नहीं है। परन्तु सोचो तो, आपकी क्षत्री-रानी मेरेसे कैसा व्यवहार करेंगी 2'
उप० - मेरे रहते तुम्हारा कौन अपमान कर सक्ता है ।
उपश्रेणिकने वात भी पूरी नहीं कर पाई कि भील सरदार वहा पहुंचा। तिकका सहम गईं; परन्तु उपश्रेणिकने तिलकाके विवा. हका प्रस्ताव उसके सन्मुख उपस्थित कर दिया।
वह वोला-'मैं भील, तुम मगध के राजा ! मेरा तुम्हारा सम्बन्य कैसा ?'
उपश्रेणिकने कहा-'भूलते हो सरदार ! हम तुम हैं मनुष्य ही। मनुष्योंमें कोई तात्विकभेद नहीं है, गुणोंकी हीनाधिकता और राष्ट्रव्यवस्था के लिए वर्ण-जाति आदिकी कल्पना करली गई है। तुम्हारी कन्या गुणवती है, उसे ग्रहण करनेमें मुझे गौरव है। शास्त्रकी भी आज्ञा है कि 'किं कुलु जोइज्जइ भकुलीणवि थीरयणु कहलइ ।' अर्थात् कुलका क्या देखना ? यदि कन्या अकुलीन भी स्त्री रत्न हो तो उसे ग्रहण कर लेना चाहिये । तीर्थकर चक्रवर्ती श्री शान्तिकुन्यु मादिने स्वयं म्लेच्छ कन्यामों तकको ग्रहण किया था। चरमशरीरी
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चिलाति मार। [१७१ नागकुमारने एक वेश्याकी कन्यासे विवाह किया था। तुम्हारी कन्या तो कुलीन और गुणवती है, तुम निश्चिन्त होकर मेरा प्रस्ताव स्वीकार करो। विजातीयविवाह धर्म और समाज दोनोंके लिये हितकर है। यह सम्बन्ध क्या भीलोंके जीवनको उन्नत नहीं बनायेगा !'
सरदार बोला-'राजन् ! आपका आग्रह विशेष है तो एक शर्तपर मैं अपनी कन्या तुम्हें प्रदान करसक्ता हूं।'
उपश्रे०- बताओ, वह शर्त ।' | सरदार-शर्त यही कि तिलकाका पुत्र ही मगधका सम्राट होगा!' उपश्रे०-'मंजूर, यही होगा।'
मांगलिक तिथिको उपश्रेणिकका ब्याह तिलकाके साथ होगया। भील-सेनाके साथ नववधूको लेकर राजा राजगृह पहुंचे । खुब आनन्दोत्सव मनाया। तिलकाके साथ वह भोग भोगने में तल्लीन होगये। तिलकाको राजप्रेमकी निशानी भी मिल गई। उसने अपने पुत्रका नाम चिलाति रक्खा ! युवराज भी वही हुआ। उसके सौतेले दुसरे भाई श्रेणिकको निर्वासित कर दिया गया ।
राजगृहके चौराहेपर अपार जनसमूह एकत्रित था । एक ऊंचेसे मंचपर राजगृहके प्रमुख पुरुषाप्रणी और पुराने मंत्री बैठे हुये थे। एक युवक जिसके मुखमण्डलपर प्रतिमा नृत्य कर रही थी, जनताको सम्बोधित करके कह रहा था-" भाइयो ! राजाका स्थान पिताके तुल्य है। पिताका कर्तव्य है कि वह अपने आश्रय रहनेवाले बालक बालिका, पुरुष स्त्री सबकी रक्षा और समृद्धिका ध्यान रक्खे। उसी
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१७२]
पतितोद्धारक जैनधर्म ।
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प्रकार राजाका कर्तव्य प्रभाकी समुचित रक्षा करना, उसके दुखोंको मेंटना और आवश्यक्ताओंको पूरी करना है । यदि राजा अपना कर्तव्यपालन नहीं करता है, तो वह प्रजाका पिता कैसे है ? भाइयो! चिलातीकुमारने अपने कुकर्मोंसे यह सिद्ध कर दिया है कि वह राजा कहलाने योग्य नहीं है । वह कर वसूल करना जानता है, आपकी बहूबेटियोंकी इज्जत लेना जानता है और जानता है आपको मनमाने दुःख देना । क्या आप यह अत्याचार सहन करेंगे ? मां-बहनोंका अपमान आप सहन करेंगे 2 "
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प्रजाने एक स्वर से कहा - 'नहीं, हरगिज नहीं !"
युवक ने कहा- 'तो फिर अपने नेताओं का कहना मानो । नगरके अग्रणी पुरुषों और पुरातन राजमंत्रियोंने यह निश्चय कर लिया है कि चिलातिको राजच्युत किया जाय और श्रेणिक बिम्बसारको बुलाकर उन्हें राजा बनाया जाय ।'
प्रजा चिल्ला उठी- 'बिल्कुल ठीक ! बुलायो श्रेणिकको ।' युवक - परन्तु श्रेणिक आकर क्या करें ? आप धन और जनसे उनकी सहायता करने को तैयार होइये । शपथ लीजिये कि हम प्राण रहते श्रेणिकका साथ देंगे ।
प्रजाने यही किया । श्रेणिक बुलाये गये। प्रजाने उनका साथ दिया । चिलति अपने मुक्तभोगी सैनिकोंको लेकर लड़ा जरूर, परन्तु उसका पाप उसके मार्गमें आड़ा आया हुआ था । हठात् उसकी पराजय हुई और वह मैदान छोड़कर एक ओर भाग गया !
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चिळाति कुमार।
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विपुलाचल पर्वतपर जैन ऋषियोंका आश्रम था। वहापर जैन मुनिगण निरंतर तप तपा करते थे । संसारमें अपनेको अशरण जानकर चिलाति उन निम्रन्थ गुरुओंकी शरणमें पहुंचा। उसने आचार्य महाराजसे दीक्षाकी याचना की। गुरु महाराजने उसे निकट भन्य जानकर दीक्षा प्रदान की। चिलातिकुमारका हृदय वैराग्यके गाढ़े रंगसे सराबोर था । अब उन्हें इन्द्रियोंके भोग काले नागमे दिखते थे। उन्होंने खुब तप तपा और जिनवाणीका विशेष अध्ययन करके ज्ञानोपार्जन किया । गुरुमहाराजके साथ यत्र-तत्र विहार करके उन्होंने अनेक जीवोंको सुखी जीवन बिताना सिखाया। भूले भटकोंको रास्ता लगाया, और अनगिनती लोगोंका उद्धार किया । अब वह ' योगीराट् ' कहकर पूजे जाने लगे। यह कोई नहीं कहता था कि यह भीलनीके जाये है. पापी हैं, राजभ्रष्ट हैं। मो भी उनके दर्शन करता उनके गुणोंपर मुग्ध होजाता !
इस प्रकार एक दीर्घ समय तक मुनिराज चिलातीने. अपना और पराया हित साधन किया। अन्तमें समाधिका आश्रय लेकर इस नश्वर शरीरको छोड़कर सद्गतिको प्राप्त किया ! धन्य है वे ! उन्होंने धर्मके प्रकाश द्वारा अपनेको उज्ज्वल और अमर बना लिया ! और साथ ही कुल जातिकी विशिष्टताकी निस्सारता प्रमाणित कर दी!
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प्रकृतिके अंचलसे !
" ऊँचा उदार पावन, सुख-शांति पूर्ण प्यारा; यह धर्म-वृक्ष सबका, निजका नहीं तुम्हारा 1 रोको न तुम किसीको, छाया में बैठने दो: कुल- जाति कोई भी हो, संताप मेंटने दो !!" कथायें :
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१ - उपाली ।
२- वेमना
२- चामेक वेश्या ।
४
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५- कबीर ।
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उपल
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उपाली !*
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तीर्थकर भगवान महावीरके समय में महात्मा गौतम बुद्ध एक अनन्य प्रख्यात् मतप्रवर्तक थे। उन्होंन बौद्धमतकी स्थापना करक जीवमात्रको अपने मध्यमार्गका सन्देश सुनाया था। हर प्रकारके मनुष्य उनकी शरण में पहुंचे थे। उन्होने मा, यह सिद्धात प्राकृत माना था कि जीवमात्र धर्मनी आराधना करके उच्चादको पासक्ता है । म० बुद्ध के शिष्योंमें एक शिष्य था जो जन्म से नीच समझा जाता था। लोग उसे शूद वहते थे; किन्तु उसने अपने में गुणोंकी वृद्धि करके अपनेको लोकमान्य बना लिया था और इसतरह लोगों की इस धारणको गलत सिद्ध कर दिया था कि दुनिया जिनको नीच कहती है वे वस्तुतः नीच नहीं है। वे भी अपना आत्मोन्नति करके उच्च और प्रतिष्ठित पदको पासक्ते है ।
1
[ १७७
उम शिष्यका नाम उपाली था और उसका जन्म एक नाईके घरमें हुआ था। राहुल कुम रोको प्रत्रजित करके म० बुद्ध मल्क देश में चारिका करते अनृपियाके म्रवनमें पहुंचे। बहाके अनुरुद्ध अ. दि शाक्यकुमार बौद्ध दीक्षा लेनेको आगे आये उपाली का सेवक था । उनके उतारे हुये वस्त्र को जब उसने उनके कहने
"
कि 'इतना धन देखकर प्रचंड
पर ग्रहण किया तो उसे ध्यान आया शाक्य मुझे जीता न छोड़ेंगे जब मेरे स्वामी यह शाक्यकुमार
·
* 'बुद्धचर्याके' के माधा |
१२
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१७८ ) पतितोद्धारक जनधर्म। ही प्रवजित हारहे है तो मैं क्यों न दीक्षा ल ?' यह सोचकर उपाली उनके पास लौट गए। कुमारोंने पूछ .-- ___उणली ! किम लिये लौट आये ?'
उ०- आर्य पुत्रो ! लौटने ममय मुझ शाक्योंकी चंडताका ध्यान आया, मो धनका मोह छोडकर मैं म० बुद्धमे प्रवा लेने आया हूं।'
कु०-' उपाली ' अच्छा किया, जो लौट आये ।'
इसके बाद वे शाक्यकुमार उ ली को लेकर गौतमबुद्ध के पास पहुच कर बोले- मन्ने । हम दाक्य अभिमानी होते है। यह उपाली नाई है, चिकाल तक हमाग विक रहा है। आप इसे पहिले प्रत्रजित करायें, जिसमे कि हम इसक अभाद करें और अपने कुल अभिमानको हम मदित कर सकें।
'तथास्तु' कह का गौ मन पहले उपली ही को बौद्ध भिक्षु बनाया । भिक्षु शेन के उपरान्त उगली बौद्ध सिद्धातक अध्ययन ओर चारित्रको पालन कर मे दत्तचि 1 14 | थोड़े ही ममयमें व संघ अग्रणी गिना जान लगा। बौद्ध महाश्रावकों (भिक्षुओं) मे उनको दशवा स्थान प्राप्त हुभा । स्वयं गौतम बुद्ध न उनके गुणोंकी प्रशंसा की। जब वह गृद्धकूट पर्वत ये तब एक रोज भिक्षुओंमे बोले
" देख रहे हो तुम भि अं : लिको, बदतमे भिक्षुओंके सथ टहलने ? "
"हाँ : " भिक्षु भो' यह भी
भिज्ञ हैं। 7 ली वियव है।"
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उपाली।
[१७२ बौद्ध चारित्र नियमोंका ठीक ज्ञान उपाली ही को प्राप्त था। कपिलवस्तुका नाई-यह उपाली ही विनयधरोंमें प्रमुख हुआ ! गुणोंने उसे प्रतिष्ठित पदपर का बिठाया। शुम अध्यवसायसे क्या नहीं प्राप्त होता ? बुद्ध के बाद उपालीने ही विनय धर्म (बौद्धचारित्र) का स्वरूप संबको बताया था।
उपालीने अपने उदाहरणसे चारों ही वर्गों की शुद्धि प्रमाणित कर दी। चहुं ओर यह बात प्रसिद्ध होगई। कट्टर ब्राह्मणोंको यह बात बहुत खटकी । श्रावस्तीमें नाना देशोंके पाचसौ ब्राह्मण आ एकत्र हुये । वहा उन्होंने गौतमबुद्धसे चारों वर्णोकी शुद्धि ( चातुवण्णी सुद्धि) पर शास्त्रार्थ करना निश्चय किया। ब्राह्मणोंने अपने प्रकाण्ड पंडित आश्वलायन माणवकको शास्त्रार्थ करनेके लिये तैयार किया। आश्वलायन माणवक बड़े भारी ब्राह्मणगणके साथ गौतमबुद्धके पास पहुंचे। उनसे बोले कि 'ब्राह्मण ही श्रेष्ठ वर्ण है, इस विषयमें गौतम आप क्या कहते हैं ?'
वुद्ध -"आश्वलायन ! ब्राह्मणोंकी ब्राह्मणियां ऋतुमती. गर्भिणी, जनन करती, पिलाती देखी जाती हैं। योनिमे उत्पन्न होते हुये भी वह ब्रामण ऐसा कहते हैं यही आश्चर्य है । "
'किन्तु ब्राह्मणों की मान्यता तो वैसी ही है !" ___ "तो क्या मानते हो आश्वलायन ! तु ने सुना है कि यवन और कम्बोजमें और अन्य सीमान्त देशोंमें दो ही वर्ण होते हैं।*
* जनोंके तत्वार्थसूत्र में मनुष्य जातिके कार्य और बनार्य-रही दो मेद किये है। ।
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१८०] पतितोदारक जैनधर्म । आर्य और वास । आर्य हो वह दास होसक्ता है और दास आर्य।"
"हां गौतम ! मैंने यह सुना है !"
"अच्छा आश्वलायन ! बताओ ब्राह्मण अपनेको श्रेष्ठ किस बलपर कहते है और कैसे अन्योंको नीच ? "
"ब्राह्मण श्रेष्ठ हैं, यह मान्य विषय है !"
"तो क्या मानते हो आश्वलायन ! क्षत्रिय प्राणिहिंसक. चोर. दुराचारी, झुठा, चुगलखोर, कटुभाषी, बकवादी, लोभी, द्वेषी हो तो क्या काया छोड़, मरने के बाद वह दुर्गति-नरकम उत्पन्न होगा या नहीं ? ऐसे ही ब्राह्मण इन दुष्कमौके करनेसे उस गतिको प्राप्त करेगा या नहीं है और वैश्य या शूद्र क्या वैसे दुष्कर्मी हो उस गतिको प्राप्त नहीं होंगे।"
'हे गौतम ! सभी चारों वर्ण प्राणिहिसक आदि हो नरकमें उत्पन्न होंगे किन्तु ब्राह्मण तो श्रेष्ठ ही माने जाते है ।'
'तो क्या मानते हो आश्वलायन ! क्या ब्रामण ही प्राणिहिंसा आदि पापोंसे विरत होता है और मरणोपरान्त स्वर्गमें जाता है ? क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र नहीं ?'
'नहीं, गौतम ! चारों ही वर्ण शुभ कर्मोसे स्वर्ग पाते है।'
'आश्वलायन ! तो फिर ब्राह्मण अपनेको कैसे सर्वश्रेष्ठ और अन्योंको नीच कहते हैं।'
आश्वलायन बिचारा क्या कहता ? गौतमबुद्ध इसपर फिर बोले:
"माश्वलायन ! मानलो एक अत्रिय राजा नाना जातिके सौ पुरुष इकट्ठे करे और उनसे कहे कि तुमसे जो ब्राह्मण, क्षत्री और
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उपाली।
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वैश्य हों वह आगे आये और चन्दनकाष्ठ लेकर आग बनावें, तेज प्रादुर्भूत करें। फिर वह राजा चाण्डाल, निषाद, वसोर आदि कुलोंके लोगोंसे धोबीकी कठरीकी अथवा एरेन्डकी लकड़ीसे आग सिलगानेको कहे और वे आग सिलगावें। अब आप बतायें कि क्या ब्रामगादि द्वारा सिलगाई गई आग ही आग होगी और उसीसे आगका काम लिया जायगा ? चाण्डालादि द्वारा सिलगाई गई आग क्या आग नहीं होगी और क्या वह आगका काम नहीं देगी ?"
'नहीं, गौतम ! दोनों ही आग आगका काम देंगी।' 'तो फिर वर्णगत श्रेष्ठता कैसे मानी जाय ?' 'ब्राह्मण तो जन्मसे ही अपनेको श्रेष्ठ मानते हैं।'
'तो क्या मानते हो आश्वलायन ! यदि क्षत्रियकुमार ब्रामणकन्याके साथ सहवास करे, उनके सहवाससे पुत्र उत्पन्न हो । भो क्षत्रियकुमार द्वारा ब्रामण कन्यासे पुत्र उत्पन्न हुआ है, क्या वह माताके समान और पिताके समान, 'ब्राह्मण है' 'क्षत्रिय है', कहा जाना चाहिये।
"हे गौतम कहा जाना चाहिये।"
"आश्वलायन ! यदि ब्रामणकुमार क्षत्रियकन्यासे संवास करे और पुत्र उत्पन्न हो तो क्या उसे 'बाषण है' कहा जाना चाहिये।"
"हां, गौतम ! कहा जाना चाहिये !"
"अच्छा आश्वलायन ! अब मान लो, घोड़ीको गदहेसे जोड़ा मिलायें। उनके जोड़से बछड़ा उत्पन हो। क्या यह माता-पिताके समान 'घोड़ा गया है। कहा जाना चाहिए ?"
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पतितोद्धारक जैनधर्म ।
१८२ J
" हे गौतम ! वह तो अश्वतर (खच्चर) होता है। यहां भेद देखता हूं, उन दूसरोंमें कुछ भेद नहीं देखता ।"
"भाश्वलायन ! मानलो दो माणवक जमुवे भाई हों। एक अध्ययन करनेवाला और उपनीत है; दूसरा अन् अध्यापक और अन् उपनीत है । श्राद्ध यज्ञ या पाहुनाईमें ब्राह्मण किसको पहले भोजन करायेंगे ? "
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" हे गौतम! जो वह माणवक अध्यापक व उपनीत है, उसीको प्रथम भोजन करायेंगे । अनु अध्यापक अन्उपनीतको देने से क्या महा फल होगा ?"
“आश्वलायन ! तो फिर जातिका क्या महत्व रहा ! गुण ही पूज्य रहे । जानते हो उपालीको, वह अपने गुणोंके कारण विनयघरोंमें प्रमुख है ।"
हाथ कंगन को आरसी क्या करे ? बेचारा आश्वलायन यह सब कुछ देख सुनकर चुप होरहा । म० बुद्ध फिर बोले:
"
'पूर्वकालमें ब्राह्मण ऋषियोंको जात्यभिमानने जब घेरा तब असित देवऋषिने वृषलरूप धारण करके उनका मिथ्याभाव छुड़ाया था । ब्राह्मणोंसे असित देवल ऋषिने कहा कि तुम ब्राह्मण ही श्रेष्ठ वर्ण समझते हो किन्तु जानते हो क्या कि ब्राह्मण जननी ब्राह्मणके पास गई, अब्राह्मणके पास नहीं ? ब्राह्मणोंने नकार में उत्तर दिया । सब फिर देवल ऋषिने उनसे पूछा कि क्या आप जानते हैं कि ब्राह्मणमाताकी माता सात पीढ़ीतक मातामह युगल (नानी) ब्राह्मण हीके पास गई, अवाक्षण के पास नहीं! त्राह्मणोंने उत्तर दिया कि नहीं
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उपाली।
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[१८३ जानते । उपरान्त देवलऋषिने उन पितामहको सात पीढ़ीतक ब्राह्मणीके ही पास जानेकी साक्षी चाही; जिसे भी वे ब्राह्मण न देसके। उसपर देवलऋषिने उनमे प्रश्न किया कि “ जानते है आप गर्भ कैसे ठहरता है ?" ब्राह्मणोंने कहाकि जब मातापिता एकत्र होते हैं, माता ऋतुमती होती है और गर्व (=उत्पन्न होनेवाला, सत्व) उपस्थित होता है। इस प्रकार तीनोंके एकत्रित होनेसे गर्भ ठहरता है।" देवलने पूंछा कि वह गंधर्व क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य या शूद्र कौन होता है ? ब्राह्मणोंने कहाकि हम नहीं जानते कि वह गंधर्व कौन होता है ? ऋषि बोले कि जब ऐसा है तब जानते हो कि तुम कौन हो ? ब्राह्मणोंने कहा कि हम नहीं जानते हम कौन है।"
_ 'इस प्रकार हे आश्वलायन ! मसित देवल ऋषि द्वारा जातिवादके विषयमें पूछे जानेपर वे ब्राह्मण ऋषिगण भी उत्तर न देसके; तो फिर आज तुम क्या उत्तर दोगे ?"
यह सुनकर आश्वलायन माणवकने बुद्धको नमस्कार किया और वह बोला- आजसे मुझे अजलिबद्ध उपासक धारण करें।"
उपस्थित सजनोंपर इसका अच्छा प्रभाव पड़ा। उपालीने और भी दृढ़ताके साथ गुणोंकी वृद्धिमें चित्त लगाया ! कहां कपिलवस्तुका नाई उपाली और कहा विनयधर भिक्षु उपाली ! जाति. कुल, शरीरमें अन्तर न होनेपर भी गुणों के कारण नाई उगाली और विनयधर उपालीमें जमीन आसमान जैसा अन्तर पड़ गया। अतः मानना पड़ता है कि जाति, कुल, शरीर नहीं, गुण ही पूज्य है।
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१८४] पतितोद्धारक जैनधर्म
[२]
वेमना। “चित्त शुद्धि गलिग चेसिन पुण्यवु कोंचमैन नदियु कोयवु गादु वित्तनंबु भरि वृक्ष नकुनेंत विश्व ·
· मा !" एक नंगा साधु गोदावरी तटपर उक्त काव्यका उच्चारण मधुर कंठध्वनिसे करता हुआ विचर रहा था,। जैसा ही उसका मधुर कंठरव था उससे अधिक मधुर और मूल्यमयी काव्यका भाव था। सच है, उसे कौन नहीं मानगा कि “चित्त शुद्धिसे जो पुण्य प्राप्त होता है, थोडा होनेपर भी उसका फल बहुत है; जैसे वटवृक्ष के बीज !' देखने में तो वह जसे होते है, परन्तु उनसे वृक्ष कितना विशाल उपजता है। उस बीन की तरह ही तो चित्त शुद्धि धर्मक्षेत्रमें मोक्षप्राप्तिका मूल बीज है। एक दिगम्बर जैनाचार्यने इस चित्तशुद्धिको ही मोक्षप्राप्तिका मूल उपाय बताया है। वह कहते है कि:-- "जहिं भावइ तहिं जाहि जिय, जं भावइ करि तंज केम्बइ मोक्खु ण अत्थि पर, चित्तहं मुदि ण जंजि !"
मनमें आवे वहां जाइये और दिल आये वह कीजिये; पर याद रखिये कि मोक्ष तबतक नहीं मिल सक्ता जबतक चित्तकी शुद्धि न हो। वस्तुतः चित्तशुद्धि ही धर्म-मार्गमें मुख्य पथ प्रदर्शक है।
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वेमना।
[१८५ जाति-पाति, वेष-भूषा, कुरूप-सुरूपसे कुछ मतलब नहीं ! बड़ी जातिका बड़ा सुरूपवान बड़े मूल्य के वस्त्राभूषण धारण करते हुए भी चित्तशुद्धिके विना शोभा नहीं पासक्ता ! इसके विपरीत एक नीच
और कुरूप दरिद्री चित्तशुद्धिके द्वारा उस शोभाको प्राप्त होता है कि देवता भी उसकी प्रशंसा करते हैं । गोदावरीके तटपर जो नंगा साधु इस निखर सत्यका प्रतिघोष कर रहा था वह उसका प्रत्यक्ष उदाहरण भी था । आइये पाठक, उसके जीवनपर एक दृष्टि डाल लें !
दक्षिण भारतके आन्ध्रदेशमें गन्तुर शहर मशहूर है । इसी नगरसे वीस कोसकी दुरीपर 'कोंडवीड' नामका एक ग्राम था, जो अब नष्टप्राय होगया है । उपरोक्त नंगे साधुका जन्म इसी ग्राममें सन् १४१२ ई० में हुआ था। उसका नाम वेमना था । मद्रास प्रान्तके सभी लोग उसके नाम और कामसे परिचित हैं।।
आन्ध्रदेशके शूद लोगोंमें रोड नामकी एक जाति है । वेमना उसी जातिके थे । बचपनमें उन्होंने कोई शिक्षा नहीं पाई थी। वह अपनी जातिके राजाके पुत्र थे। पिताके बाद उनके बड़े भाई राजा हुये और वह भोगविलासमें जीवन विताने लगे। एक वेश्याके प्रेममें वह अंधे होगये। भाई बन्धुओं और मित्रोंका समझाना सब निष्फल गया ! किंतु इतने वेश्यासक्त होनेपर भी वेमना अपनी भावजको श्रद्धाकी दृष्टिसे देखते रहे।
एक वार उस वेश्याने वेमनाकी परीक्षा लेना चाही। यह उनसे बोली
"प्यारे, तुम मुझे खूब प्यार करते हो; लेकिन अब तुमसे
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पतितोद्धारक जैनधर्म ।
अपनी एक कामना पूरी करवाना चाहती हूं। क्या तुम पूरी कर
सक्के हो ?"
१८६ ]
stero
"
क्यों नहीं ! तुम्हारा यह दास दुनियांकी सब चीजें लाकर तुम्हारे चरणोंपर रख सकता है । निशक होकर अपनी इच्छा बतलाओ !"
61
• सचमुच 2 "
"हां, सचमुच ! "
44 अच्छा; तो यहाकी परमसुन्दरी रानी - तुम्हारी भावज जो बहुमूल्य गहने पहनती हैं, एकबार उन गहनोंको पहनने की इच्छा मुझे बहुत दिनोंसे है । क्या उन्हे लाकर मुझे दोगे ?"
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भवश्य !
""
बेमनाने कहने को तो 'अवश्य' कह दिया, परन्तु वह मांके समान अपनी भावजसे यह बात कैसे कहें ? हिम्मत न हुई ! वह अनमने होकर एक पलंगपर जा पड़े ! भोजनकी बेला हुई, सबने स्वाया; परन्तु वेमना न गये। नौकरोंने ढूँढा । फिर भी वेमना नहीं मिले। आखिर भावज स्वयं ढूँढने गई उन्हें मिल गये । मर्यान्वित हो उन्होंने कहा:
" वेमना ! तुम क्या कर रहे हो ? सबने भोजन कर लिया और तुम यहीं पड़े हो ? चलो, भोजन करो !"
" मुझे आज भूख नहीं है
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क्यों नहीं है ?
""
" ऐसे ही ! "
46
बताओ तो सही ! "
32 /
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INIRUDDHIDHIRUDDHIM BIHSSINH-110uminium
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वेमना।
[१८७ " कुछ नहीं, मेरी प्रेमिका वेश्याकी एक इच्छा है। आप उसे पूरी करें तो मैं भोजन करूँगा।"
“वह क्या ?" ' आपके सब गहने एकवार पहनना चाहती है !"
' इसीके लिए तुम इतने उदास हो ? तुमने सीधे भाकर मुझसे क्यो नहीं कहा ''
" हिम्मत नहीं थी !"
• अच्छा " कहकर भौजाईने एक बुलाकके सिवा सब गहने उतारकर देदिये । वेमना खुशी-खुशी वेश्याके घर पहुंचे। वेश्याने सब कुछ देखकर कहा:
'प्यारे ! तुमने बहुत अच्छा किया, लेकिन एक भूल की है .' "वह क्या है ?"
" सब गहने हैं। लेकिन एक बुलाक नहीं है; जिसपर हीरे जड़े हैं। इसलिए जल्दी जाकर वह भी ले आओ।"
“ वेमना ! फिर क्यों आए ? क्या हुआ ? "
“ कुछ नहीं ! बुलाक तो आपने दी ही नहीं !" ___“ सब गहने होनेपर यह एक बुलाक नहीं हुआ तो क्या
“ऐसा नहीं, जल्दी वह भी दे दीजिये । नहीं तो मेरी जान बचनी कठिन हो जायगी!"
भावजने हँसकर कहा-"वेमना, अपनी माता, बड़े बाई और सन परवार छोड़कर इस वेश्यापर इवने लट्ट क्यों हो?"
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४८ पतितोद्धारक जैनधर्म ।
" वह बहुत सुन्दरी है।" " ऐमा ! तुम एक काम करो तो बुलाक भी देदूंगी। करोगे?"
" तुम जाकर अपनी प्यारी वेश्याका नंगा बदन सिरसे पैरतक खूब देखकर आओ, मैं बुलाक देदूंगी।"
वेमनाने जल्दी ही वेश्याके पास जाकर अपनी भावजकी बात कही। मान और लज्जाको तिलाजलि देकर वेश्याने गहनोंके लालचसे अपना नंगा बदन वेमनाको दिखाया। वेमनाने ध्यानसे उसे सिरसे पैरतक देखा। देखते ही एकदम वैगग्यसे उसका हृदय ओतप्रोत होगया। वह तुरन्त वापिस अपनी भावजके पास पहुंचे और उनके पैरोंपर गिरकर बोले:
"भौजाईजी ! आप अब मेरे लिये माता और देवीके समान है। अबतक मैं बड़ा मूर्ख था, मैं अभीतक नहीं जानता था कि जिसके लिये लाखों रुपये खर्च किये और लाखों गालियां खाई, वह केवल दुर्गध और मल मूत्रका स्थान है। वेश्या दुनियाके कलुषित पापोंकी जड़ है, केवल वेश्या ही नहीं, सारा संसार भी ऐसा है। माता ! तुम्हारे द्वारा मुझे ज्ञानदीक्षा मिली है और तुम्हारे ही कारण मैं संसारके बंधनोंसे छूट गया हूं। मैं अब इस कलुषित दुनियां में पलभर भी न रहूंगा, जाता हूं. विदा दीजिए।"
यह कहकर उन्होंने अंतिमवार भावजसे विदा ली और सदाके लिए घर छोड़ दिया!
घर छोड़कर वेमनाने योगाभ्यास किया और जंगलोंमें अकेले
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वेमना।
[ १८९ घूमने लगे। तनपर एक कपड़ा भी नहीं रक्खा। कौपीन तक छोड़कर वह नग्न दिगम्बर होगये! प्रकृतिके होकर वह प्रकृतिका रहस्य समझने के लिये तल्लीन होगये। जो जन्मका शुद्र और जिसने वेश्याके प्रेममें डूबकर दिन बिताये थे, वह कपड़ा भी छोड़कर नंगे बदन जंगलमें घूमे ! कितना परिवर्तन और कितना त्याग !! गुणोंकी
आसक्ति और उपासना मनुष्यमें कायापलट कर देती है ! वेमबाकी त्यागशक्ति और ज्ञानको देखकर बहुतसे लोग इनके शिष्य होगये। अपने शिष्योंको उन्होंने ये सात नियम बतलाये थे.--
(१) चोरी नहीं करना, (२) सब पाणियोंपर दया करना, (३) जो कुछ है उसीसे संतुष्ट होना, (४) किसीका दिल न दुखाना, (५) दूसरोंको न छेड़ना, (६) क्रोध छोड़ना, (७) हमेशा परमास्माकी आराधना करना। ___आत्मधर्मकी प्राप्तिके लिये निस्सन्देह उक्त नियम साधक हैं। वेमना प्रायः हमेशा मौन रहते थे, न किसीसे बोलते भौर न किसीसे भिक्षा मागते। जब भूख लगती तब किसी पेड़के पत्ते या फल तोड़कर खालेते । राहमें जाते समय जब शिष्यगण भिन्न भिन्न विषयों पर बहुतसे प्रश्न पूछते तब वह उन सबके उत्तर पद्यमें देते थे। इस समय उनके ५००० पद्य मिलते है । वह पद्य आकारमें छोटे, परन्तु भावों में समुद्रके समान गंभीर हैं । वेमनाके योगने उन्हें एक उच्च कवि भी बना दिया!
धर्मका प्रचार और योगाभ्यास करते हुए मन्तः ६८ वर्षकी मायुमें वेमनाने सन् १४८०ई० की चैत्र शुक्ला नवमीके दिन
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१९० ]
शरीर छोड़ा। उनके वंशज एक छोटासा
कटापल्ली नामके गांव घर, खड़ाऊ और पोशाक अभीतक उनकी ही बतलाते हैं । अब
जरा इस शूद कवि और योगीके पद्योंका रस लीजिये:
पतितोद्धारक जैनधर्म ।
Senaissaamanandamaina
66
आलिमादुल विनि अन्त दम्मुल बासि, वेरे पोड ब ड वेरि वाड;
कुक तोकवह गोदावरी दुना,
विश्व
अर्थात् - ' बेमना ! स्त्रियों की बातोंमें फंसकर ( वासनावश ) जो अपने भाई बंधुओंको छोड देता है, वह मूर्ख है । कहीं कोई वृत्ती पूंछ पकडकर गोदावरी नदी पार कर सकता है। "
"वेमा "
1
" उप्पु कप्पुरंबु नोक्कु पेलिकलंड, चूड चूड रुचुन्न जाडवेरु;
पुरुषलदु पुण्य पुरुषत्र वेरया.
विश्व
"वेमा । "
66
जैसे नमक और कपूर एक ही रंगके है तो भी उनके
39
........
वादों में भेद होता है, उसी तरह पुरुषोंमें भी पुण्यात्मा और पापी
पुरुष होने है !
64
ओगु नोगु मेच्चु नोनरंग न ज्ञानी,
आव मिचि मेच्चु परम टुद्ध;
पंदि र मेच् पनीरु मेच्चुना, far
'येमा । "
1
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चानक वेश्या। "मना ! बुरा आदमी बुरे बादमीकी प्रशंसा करता है, लोभी दिल खोलकर अपने जैसे कंजुसको प्यार करता है, जैसे सूअर कीचड़को प्यार करता है और इनको नहीं पूंछता।" *
[३] चामेक वेश्या मनुष्य प्रकृति सब ठौर एकसी है। वह स्त्री पुरुष, काले-गोरे, लंबे बौनेकी अपेक्षा नहीं रखती। मनुष्य मात्रकी यह इच्छा रहती है कि वह सुखी रहे और लोक.में उसकी प्रतिष्ठा हो। एक शीलचान् पुरुष और घीकी भी यही भावना होती है और एक चारित्र. हीन वेश्याकी भी । वेश्यायें भी दुखी और अपमानजनक जीवन विताना नहीं चाहती । पापी पेट और दुश्चरित्र मनुष्योंकी नृशंसता उन्हें अपना रूप और योवन बंचन के लिये लाचार कर देता है। वैमे भला कौन अपने शरीको उस आदमीको छूने देगा जिसे उसकी आत्मा पास बिठाने के लिये भी तैयार नहीं होता। यह मनुष्य प्रकृति ही अनेक वेश्यायोंको एक पुरुषके साथ जीवन विताने अथवा विवाह करने के लिये उ । बना देती है और वे वैसा करती भी हैं । दक्षिण भारतकी एक वे यांने ऐमा ही किया था। वह पक पुरुष व्रती होकर ऋषियों द । प्रशंमित हुई थी ! कहा एक वेश्या नारकी जीवन और कहां धर्मात्माकी पवित्रता ! किन्तु मनु
* 'त्यागभूमे' स सस्कृत उद्ध ण । x पी० इंडिका, भा० ७ पृ० १८२ दिये दान पत्रके भाधारसे।
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१९२] पतितोदारक जैनधर्म । ध्यकी चित्तशुद्धि उसमें अचिन्त्य परिवर्तन का उपस्थित करती है फिर वह चाहे पुरुष हो या ली ! इससे कुछ मतलब नहीं । चित्तशुद्धिको प्राप्त करनेकी योग्यता मनुष्य मात्रमें हैं ।
दक्षिण भारतमें ईस्वी ६वीं-७वीं शताब्दियों के मध्य चालुक्य वशी राजा विजयादित्य-अम्म द्वितीय राज्य करते थे। वह एक वीर और धर्मात्मा राजा थे । ब्राह्मणोंपर अत्यधिक सदय होते हुये भी उसने जैनधर्मके उत्कर्षके लिये दान दिया था। उस धर्मात्मा राजाने अपने समयकी प्रसिद्ध वेश्या चामेकको देखा । अन्य वेश्यायें उसके सम्मुख न-कुछ थीं। वे कुमुदिनी थीं और चामेक उनके लिये सूर्य । निस्सन्देह सौंदर्यकी वह मर्ति थी । अम्मने उसे देखा। उन्हें यह न रुचा कि उनके राज्यका सर्वोतम सौदर्य योंही बाजारू वस्तु बना रहे । उन्होंने उसका मुख्य आका और उस नयनाभिराम रूपको अपने राजमहलों में स्थान दिया।
चामेकको राजाकी प्रेयसी बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। वह थी भी इसी योग्य । रूप ही नहीं गुण भी उसके पास थे । विद्याकला और नीति चातुर्य में वह अद्वितीय थी।
, खरबूजेको देखकर खरबूजा २ग पर टता है। पारसकी संगतिसे लोहा सोना हो जाता है। चा क धर्मात्मा अम्मकी संगति पाकर बहुत कुछ बदल गई। अब उसका सारा समय बनाव-शृङ्गारमें ही व्यतीत नहीं होता था। उसका, हृदय कोमल था और चरित्र पवित्र ! अन्य वेश्याओंके समान धर्मधनको लुटाकर द्रव्यधनको लेने में उसे मजा नहीं आता था। वह धर्मधनको संभाले हुये थे और द्रव्यधनको लुटानेमें
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दान देनेने उसे बड़ा मार्ननंद आता था । सपुरुषों और विद्वानास चर्चा- बांती करनेमें वह जितना रस अनुभव करता यो उतनी रखें वई संगीत नहीं पाती थी । सत्संगति करते करते वह बहुत उठ गई, लोग उसे धर्मी देवी' समझने लगे
।
7
उस समय बल रिंगण और अद्दकलिगच्छके दिगम्बर जैनाचार्य प्रसिद्ध थे । चामेक एकशे व उनके पास पहुंची और चरणों शीश नमाकर उन आचार्यसे उसने विनय की कि 'प्रभो ! मैं बड़ी अभागिन हूं जो एक गणिकाके गृह में मेरा जन्म हुआ; किंतु धन्यबाद है सम्राट् अम्मको जिन्होंने पापपकमे निकालकर मेरा उद्धार किया । प्रभो ! मुझे आत्मकल्याण करनेका अवसर प्रदान कीजिये ।”
14
"
१२
आचार्य ने कहा- "मेक ! तुम 'अमागिन नहीं सौभं म्यवती हो। जानती हो, रत्न कैसी भद्दी और भौडी जगहसे और कैसे मैले रूप में निकलते हैं? वही रत्न राजा-महाराजाओंके शीशपर शोमते हैं।" चामेक- "नाथ ! आप पतितपावन हैं, मुझे जैनधर्मकी उपासिका बना लीजिये ।"
"
आचार्यने बड़े हर्ष और उल्लामसे चामेकको भावकके व्रत प्रदान किये। अब चामेक ' श्राविका चामेक' नामसे प्रसिद्ध होगई और वह अपने नामको सार्थक करने के लिये खूब दान पुण्य और धर्मकार्य करने लगी। उस समय के प्रसिद्ध जिनमंदिरं सर्वलोकाश्रयजिनभवन" के लिये उसने मूल संघ के सहन्दि आचार्यको दान दिया। इससे उसकी निर्मल कीर्ति दिगंतपापी होगई । सचमुच उसे समय जैन मंदिर वास्तविक जैन मंदिर थे वह सर्वाक अभियये।
१३.
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१९४] ...... पक्तिोद्धारक जैनधर्म । सारा ही लोक उनमें शांतिमई विश्राम पाता था। श्राविका चामेकने एक दानशाला खुलवाई, अम्मने उसके सम्मानके लिये अपना नाम उसके साथ जोड़ दिया। चामेक इन धर्मकार्योको करके कृतकृत्य हुई । अम्मद्वितीयने एक ताम्रपत्र खुदवाया और उसमें चामेककी कीर्ति-गरिमाको सुरक्षित कर दिया। वह ताम्रपत्र आज "कुलचुम्बाई दानपत्र" के नामसे अभिहित है। उसमें लिखा है कि "चामेक सम्राट् अम्मकी अन्यतम प्रियतमा और वेश्यायोंके मुखसरोजों के लिये सूर्य तथा जैन सिद्धान्तसागरको पूर्ण प्रवाहित करनेके लिये चन्द्रमाके समान है। उसे विद्वानोंपे धर्मो देश सुननमें बहुत आनंद आता है !
ऐसी थी वह जन्मकी वेश्या ! धर्मको उसने अपनाया, उसे महत्वशाली समझा और धर्मने उमे महान् यश और सुख प्रदान किया । साधु लोग भी उसके गुणों की प्रशसा करने लगे। सचमुच -
"बड़ो अपावन ठऔर 4, कंचन तन न कोय !"
[४]
. रैदास ।* चमारोंके मुरले एक छोटामा बालक खेल रहा था । एक एक हिन्द सन्यासी उधा आ नि ले । उनका नाम रामानन्द था । बालक दौड़ता हुआ गया और उनके कग लोट गया । गमानंदन उसे गौरसे देखा । या तो वह जन्मका चमार, परन्तु उसके सुन्दर
* भक्तमाल' के माध रस ।
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[१९५
"मुखपर उसका उज्ज्वल भविष्य प्रतिबिम्बत था । रामानन्दने उसका नाम रैदास रख दिया ! रैदास खेलता-कूदता बड़ा होगया । उसका ब्याह एक चमार कन्यासे कर दिया गया। पति-पत्नी आनन्द से रहने लगे ।
रदास ।
Harisisadusama
रैदास जूते बनाने और बेचनेका काम करने लगा; किन्तु और चमारोंसे उसमें एक विशेषता थी। वह बड़ा संतोषी था और साधु संतों के प्रति उसके हृदयमें भक्ति थी । जब कभी वह किसी फकीर को अपने घर के सामने से निकलता देखता, वह झटसे उसे लिवा लाता और बड़े प्रेमसे बढ़िया जूता उसके पाँव में पहना देता । ग़रीब माता-पिता के लिये रैदासकी यह उदारता असह्य होगई । एक रोज़ माँने कहा- 'बेटा ! इन भिखमंगोंमें ऐसे धनको लुटाओगे तो गृहस्थी कैसे चलेगी ? अब तुम सयाने हुये, जरा समझसे काम लो !' रैदास माँका उलहना सुन मुस्करा कर घरमें एक ओर भाग गया और अपना उदार व्यवहार न बदला ।
1
रैदासके बापने सोचा, यह ऐसे नहीं मानेगा । उसने खासकी अक्ल ठिकाने लानेके लिये उसे घर से अलग कर दिया । घरके पिछवाड़े मढ़या डालकर रैदास अपनी पत्नी के साथ रहने लगा और जूते बना- बेचकर अपना गुजारा करने लगा; किन्तु इस अर्थ संकटापन्न दशामें भी उसने अपनी उदारतामय बात न भुलाई । वह भुलाई भी कैसे जाती ? मनुष्य संस्कार सहज नहीं मिटता और शुभ संस्कार तो पूर्वजन्मकी अच्छी कमाई ही से मिलता है । रैदास जीवने पूर्वभवमें धर्ममय जीवन विताया कि उसे अच्छा सा स्वभाव मिला;
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......पत्तिोदारवानपर्य। . aniantertainment ......... ... ................. शिमाल होता है उसे अपनी जातिका आममान रहा इसीलिया उस बमारके घर जन्म लेना पड़ा। मी काही कि चंपारीक मारक लिही पुण्यात्मा उनी जम्मा था।
रदास अपनी थोडी-सी आमदनी-रोटी दाल भरके पैसे कमाने ही संतुष्ट था ! अपनी उस दशाका वह दरिदती नहीं समझती था। सचमुचरिती और धनसम्परताको सम्बन्चे मनस है। तृष्णारहित भाचिन्य, लखपतीस लाख दो सुखी होता है। दौसकी तृष्या नहीं थी। इसीलिये वह अभी भोड़ी सी कमाईमें खुश थी और उसने मी दोन पुण्य कर लेती था।
एक रोज एक सन्त उसके यहाँ आये। उन्हें रासकी गरीबी पर सरस नागया । एक पारसमाण उनके पास भी। सन्तने उसे रैदासको देना चाहा। रैदासने अनमनें भावसे उसे लेकर अपने छप्पर धुरस दिया । सन्त कुछ दिनों बाद फिर आया। रैदासकी वहीं होनावस्था देखकर उसे आश्रय हुआ। उसने पूछा- रदास । पारसा तुम क्या किया।"
रैदासमें उत्तर दिया-"यही इस छप्पर, घरस दिया था।" सत रैदासको निस्पृहता और संतोषको देखकर आश्रयंचकित हो बोला- भाई ! तुम विवेको हो । लक्ष्मीकी चंचलताको जानते हो, इसलिये उसके लिये मोह नहीं रखते, पर माई, पुण्यसे जो स्वयमेवं मिले उसका उपयोग करो, तुम अभी गिरस्वी हो।"
रैदासने संतके कहनेसे आवश्यक्तानुसार पन लिया, परन्तु उसे गाडेकर नहीं रक्ला और न मोजलीको मना ननस
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[२१७
MORE खर्च किया । उस रुपयेसे उसने मंदिर और धर्मशाला बनवाये । अलबत्ता उसने अपना घर भी पक्का बनवा लिया और उसको मूर्ति पधराकर भगवान् रामकी उपासना करने लगा।
रूढ़िके दास हुए मनुष्य विवेकसे काम लेना नहीं जानते । र्णाश्रमधर्मके अन्धभक्त ब्राह्मणोंने जब यह सुना कि एक चमार मतिको पधराकर उसकी पूजा कर रहा है तो उनके दिमागका पारा ऊंचे आस्मानको चढ़ गया। क्रोधमें भरे हुवे वे राजाके पास ही शिकायत लेकर गये । राजाने रैदासको बुला भेजा और फूछा कि "क्या तुमने मर्तिकी स्थापना की है।"
रैदासने उत्तरमें मूर्ति स्थापनकी बात स्वीकार की। राजाने कहा-" यह बात तो नई है।"
रैदास बोला-" महाराज ! संसारमें नया कुछ भी नहीं है-- दृष्टिका भेद ही नये-पुरानेकी कल्पना डालता है। हां, कोई भी काम हो, बुरा न होना चाहिये । देवकी आराधना करना क्या बुरा
राजा-" बुरा तो नहीं है; परन्तु ये ब्राह्मण कहते हैं कि चमार मूर्तिकी पूजा नहीं कर सक्ता।"
रैदास-" महाराज ! यह इनका भ्रम है। जातिसे कोई जीवात्मा अच्छा पुरा नहीं होजावा-मला बुरा तो वह मच्छे बुरे काम करनेसे होता है। उसपर मर्ति तो ध्यानका एक सायन मात्र है। सके सहारेसे आराध्य देकके दर्शन होते हैं। यह सामना पीक मनाय त्यो नजरें। इसपर भी बाबच । प्रविन मास
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१९८] पतितोदारक जैनधर्म । णोंको अपनी जातिका अभिमान है तो यह मूर्तिको अपने पास बुला में, मुझे कोई आपत्ति न होगी। मेरे देवता मुझसे रुष्ट होंगे तो वहा चले आयेंगे।"
रैदासकी अंतिम बातपर ब्राह्मण मी राजी होगये । वे वेद मंत्रोंका पाठ करने में दत्तचित्त हुए-सब क्रियाकाण्ड उन्होंने कर डाला, पर मूर्तिके वहा कहीं भी दर्शन न हुये । अब रैदासका नंबर माया । रैदासने एकाग्रचित्त हो यह राग अलापा - "देवाधिदेव ! आयो तुम शरणा; कृपा कीजे जान आफ्नोजना !"
___ राग पूरा भी नहीं हुआ था, कहते हैं उसके पहले ही मर्ति रैदासकी गोदमें आ बैठी ! ब्राह्मण हत्प्रभ हुये। रैदासका यह प्रभाव देखकर राजाकी रानी झाला उनकी भक्त होगई ! उसके बाद और मी अनेकों उनके भक्त हुये । रैदासने अपने सदुद्योगसे ब्राह्मणों के सिरसे जातिमूढताका भूत उतार दिया !
एक चमार लोगोंद्वारा मान्य हुमा, यह सब गुणोंका माहात्म्य है। इसलिये विवेकी पुरुषोंको जाति कुलका घमंड नहीं करना चाहिये।
[५]
कीर x बनारसमें नरी जुलाहा और उसकी पत्नी नीमा रहते थे। मुसलमान होनेके कारण लोग उन्हे ' म्लेच्छ ' कहते थे। कबीर उन्हींका बेटा था। वह था जन्मसे जुलाहा और काम मी करता •'भक्तमा मोर 'हिन्दी विश्वकोष' मा०४ पृष्ठ २८-३२ केभाधारहे।
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कबीर। था जुलाहेका, परन्तु उसे ज्ञानकी बातें करनेमें मज़ा आता था। इसे उसका पूर्वभवका शुभ संस्कार कहना चाहिये ।
उस समय बनारसमें वैष्णव सन्यासी गमानन्द प्रसिद्ध थे । कबीरने उनका नाम सुना । वह उनका शिष्य बनने के लिये आतुर हो उठा । किन्तु उसके पड़ोसी हिन्दुओंने कहा कि 'पागल होगया है-तू म्लेच्छ-तुझे रामानंद कैसे अपना शिष्य बनायेंगे ?' कबीर इससे हताश न हुआ। एक दिन उसके जान पहचानके हिन्दुने एक उपाय बताया-कबीरने वही किया ।
रामानंद अर्द्धरात्रिको गगास्नान करने जाते थे। कबीर रात होते ही उनके दरवाजेपर जा पडा । रामानंद ज्योंही निकले उनके पैर कबीरके शरीरसे लगे, कबीरने उन्हें चूम लिया । रामानंद हड़. बड़ाकर बोले- राम ! राम ! कौन रास्तेमें आ पड़ा!' कबीरने यही गुरुमंत्र समझा । रामानंद गंगाको गये और कबीर अपने घर ! जबतक मनुष्यको अन्तर्दृष्टि नहीं मिलती वह बाहरी क्रियाकाडमें ही धर्म मानता है; यद्यपि वह होता उससे बहुत दूर है। गंगास्नानकी बात भी ऐसी ही है। गंगाजल निर्मल है, श्रेष्ठ है, शरीर मल धोनेके लिए अद्वितीय है; किन्तु उससे अंतरका मैल, क्रोधादि कषायोंका मिटना असंभव है। क्रियाकाण्डी दुनिया इस बातको जान ले तो उसका कल्याण हो । कबीरने इस सत्यको जान लिया था। इसलिये ही उसने कोरे क्रियाकाण्डका विरोध किया था। खैर;
कबीरने अब अपनेको रामानन्दका शिष्य कहना प्रारम्भ कर दिया। हिन्दु यह सुनकर आश्चर्य करने लगे और उनसे अधिक
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२००] पतितोदारक जैनधर्म । आश्चर्य तथा संताप व बीके माता - पिताको हुआ। एक मुसलमानके घरमें 'राम-राम' का जाप किया जाय, यह कैसे वह सहन करते ? मताध लोग नाम और भेषमें ही अटके रहते हैं; किन्तु मत्यके पोषक नामरूपको न देखका तत्वको देखते हैं । राम कहो चाहे रहीम, मुख्य बात जाननेकी यह है कि आराध्यदेवमें देवत्वके गुण हैं या नहीं ! मुख्यतः देवका पूर्ण ज्ञानी, हितोपदेशी और निर्दोष होना आवश्यक है। ऐसे देवको चाहे जिस नामसे जपिये, कुछ भी हानि नहीं है । व बीरको संभवतः यह सत्य सूझ पड़ा था। इसीलिये उन्हें 'राम' नाम जपने में भी संकोच नहीं था।
किन्तु मताध दुनियाको यह बुरा लगा। एक म्लेच्छका गुरु और ब्राह्मणोका गुरु एक कैसे हो । बनारसमें तहलका मच गया। रामानंदने भी यह सुना । उन्हें बड़ा क्रोध आया। झटसे कबीर उनके सामने पकड़ बुलाये गये । रामानंदने पूछा- कबीर ! मैंने तुझे कब शिष्य बनाया, जो तू मुझे अपना गुरु बताता है ?
कबीरने उम रातवाली बात बतादी, किन्तु रामानन्दका वर्णाश्रमी हृदय एक म्लेच्छको-मुसलमानको शिष्य मानने के लिये तैयार न था । यह देखकर कबीरमे न रहा गया । उसने कहा
" जातिपांति कुल कापरा, यह शोभा दिन चारि । कहे कबीर सुनहु रामानन्द, येहु रहे शकमारि ॥ जाति हमारी बानिया, कुल करता उरमांहि । कुटुम्ब हमारे सन्त हो, मूरख समझत नांहि ॥" कबीरकी ज्ञान बातें सुनकर रामानंद क्रोष करना भूल गये ।
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कबीर । उनने हंसते२ कबीरको आशीर्वाद दिया। उस दिनसे लोग कबीरकी एक भक्तवत्सल जीव समझने लगे।
कबीरके हृदयमें अमित दया थी । एक रोज यह कपड़ेका थान लेकर बाजारमें बेचने गये। रास्ते में एक गरीबने उनसे वह कपड़ा मांगा । जाड़ेके दिन थे, वह बेचारा ठिठर रहा था । कबीरका दिल उसकी पीड़ा न देख सका । उसको पूरा थान देदिया । वह गरीब खुशी खुशी चला गया । कबीर सोचने लगे कि अब मांको क्या दूंगा ? वह मेरी प्रतीक्षामें होगी ? पैसे न होंगे तो माज अन्न कहांसे आयगा ? दूसरे क्षण उनके मनने कहा कि मन आये चाहे न आये परन्तु गरीबका दुख निवारनेसे जो मानंद मिला वह अपूर्व है । कबीरका हृदय आनंद विभोर हो थिरकने लगा।
पुण्यकर्म अपना फल दिये बिना नहीं रहता । कहते भी हैं, इस हाथ दे उस हाथ ले। कबीरकी परोपकार वृत्ति एक महात्माको ज्ञात हुई और उन्होंने उनका अन्न संकट भी जाना । झटसे मनों भन्न उनके घर भेज दिया । कबीरने घर पहुंचकर जब वह देखा तो उसे देवी परिणाम जानकर खूब दान पुण्य किया। सारे बनारसमें उसका नाम होगया। बनारसके राजाने भी उनका आवरसत्कार किया।
कबीर दान देते, राम मजन करते और नीर्थ-यात्राको जाते हुये अपना जीवन विताने को। ऐसा झला जीवन बिताते हुए भी उनके दुश्मन मंद और मुसलमान होनों ही थे। बोनीके सिर, उससमय दिल्लीके बादशाह सिकन्दर लोदी अपना लाम-जाकर लिये
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पतितोद्धारक जैन धर्म |
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बनारस में आ जमे । कबीर के दुश्मनोंने इसे सोने सा अवसर समझा । कबीर की माको साथ लेकर ब्राह्मणोंने जाकर बादशाहसे शिकायत की कि 'हुजूर ! कबीर बड़ा जुल्म ढारहा है । उल्टा-सीधा उपदेश देकर लोगों को बहका लेता है । न वेद मानता है और न कुरान | उसका शिष्य होकर मनुष्य न मुसलमान रहता है और न हिन्दु ।' बादशाह को भी यह बुरा लगा उसने कबीरको पकड़वा मंगवाया | कबीर के हृदयमें बादशाहके लिये जरा भी आदर या उसका भय नहीं था । उसने बादशाहको सलाम भी नहीं किया । बादशाह गुस्से से लपलपाता हुआ बोला कि "कबीर ! तू लोगों को दीन व धर्मसे गुमराह कर रहा है।"
२०२ ]
कबीरने हंसते हुये कहा - " गुमराह नहीं बल्कि राहे रास्तपर उनको लगाता हूं। हिन्दुओंके राम और मुसलमानोंके रहीम भिन्न नहीं हैं; अनुसन्धान करनेसे वे मनुष्यको अपने भीतर मिलेंगे । "
बादशाहको कबीरका यह मत नहीं रुचा । उसने कबीरको प्राण दण्डकी सजा दी; किन्तु कबीरका आयुकर्म प्रबल था वह बाल बाल बच गया। अब लोग उसे एक सन्त पुरुष समझने लगे । कबीर चित्त शुद्धि पर अधिक जोर देते थे। और क्रियाकाण्डके वह हिमायती नहीं थे। वह कहते थे -
44 मनका फेरत युग गयो, गयो न गनका फेर । करका मनका छोड़कर, मनका मनका फेर ॥ "
कबीर जाति-पांतिको एक तात्विक भेद नहीं मानते थे ।
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कवीर।
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[२०३६ उनके निकट ब्राह्मण, शूद्र बराबर थे। इस विषयमें उनका कहना था
काहेको कीजे पांडे छूत विचारा । तिहि ते अपना संसारा॥ हमरे कैसे लोहू, तुम्हरे कैसे दक्ष । तुम कैसे बांमन पांडे, हम कैसे सुद ॥ छूति छूति करता तुम्हहीं जाये। तो गर्भवास काहेको आये ॥ जनमत छूति मरत ही छूति ।
कहं 'कबीर' हरिकी निरमळ जोति ॥ सच है जब बडेसे बडे छूत-ब्राह्मणादिको जन्मते और मरते मछूतके बिना गति नहीं मिलती, तब व्यवहारिक कल्पनाके आधारपर उनसे घृणा करना और अपनी जातिके मदमें अंधे होजाना उचित नहीं कहा जा सक्ता । एक तत्वदर्शीको जाति मद हो ही नहीं सक्ता ! तत्वदर्शी जैनाचार्य भी तो यही कहते है:--
"छोपु अछोपु कहे वि को बंचउ।
मई जहं जोवउं तई अप्पाणउ ।। छूत अछूत कहकर किसकी वंचना करूँ ? मैं जहां जहां देखता हूं वहां आत्मा ही आत्मा दिखाई पड़ती है। वस्तुतः संसारी जीव मात्र में दर्शन-ज्ञानमई आत्मा विद्यमान है। शरीर पुदलको देखकर उसे कैसे भुला दिया जाय ? धर्मविज्ञान तो तात्विक दृष्टि प्रदान करता है और उसीसे मात्माका कल्याण होता है। कबीरने
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इस तरह ठीक ही जातिमटका निषेध किया था । वह स्वयं इस क्षेत्र एक जीता जागता प्रमाण था । जुलाहा होकर भी वह अनेarer श्रद्धास्पद और मार्गदर्शक बना था ।
पतितोद्धारक जैनधर्म
आखिर बनारस में ही मणिकर्णिका घाटके उस पार कबीरने अपने इस शरीर को छोडकर परलोकको प्रस्थान किया था । मरते-मरते भी उन्होंने लोकमुढताका प्रतीकार किया, क्योंकि लोगों को विश्वास था कि उस पार जाकर शरीर छोड़ने से मनुष्य दुर्गतिमें जाता है ।
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सागश यह कि जन्म से मनुष्य चाहे जिस जाति और परिस्थिति रहे; परन्तु यदि उसे श्रेष्ठ गुणोंको अपनानेका अवसर दिया जाय तो वह अपनी बहुत कुछ आत्मोन्नति कर सक्ता है । इस खण्ड में वर्णित उपरोक्त ऐतिहासिक कथायें हमारे इस कथन की पुष्टि करती हैं । मतः मनुष्य मात्रका यह धर्म होना चाहिये कि वह जीव मात्रको आत्मोन्नति करनेका अवसर, सहायता और सुविधा प्रदान करे किसीसे भी विरोध न करे ! विश्रप्रेमका मूलमन्त्र ही जगदोद्धारक है । निःसन्देह अहिंसा ही परमधर्म है ।
कालीगंज (एटा) १९॥. बजे मध्याह्न
अहिंसा परमो धर्मः, यतो धर्मस्ततो जयः
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कामताप्रसाद जैन । ता० १२-१० - ३.४
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________________ वोर सेवा मन्दिर पुस्तकालय जैन-- कालन. काल न शीर्थक पातही झारक-अना लेखक जैन लालप्रसाद