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समर बहीद बागील पाट ५७. मुझे परवा नहीं। मेरे अहिंसावत है। मैं स्वयं मर जाऊंगा, पर दुसरेको मारूंगा नहीं। अन्याय-अधर्मके सन्मुख कभी भी मस्तक नहीं नवाऊंगा । यही मेरे धर्मका अतिशय है !'
सिपाही चाण्डालके मुखसे धर्मका यह मार्मिक उपदेश सुनकर स्थंभित होरहा । उसने भी किसी जीवको अकारण कष्ट न पहुंचानेका नियम ले लिया। उसे अपनी आत्माके अमर-जीवन में विश्वास हो गया। चाण्डालके संसर्गसे उस 'कुलीन'के भी सम परिणाम हो मये । अब उन्हें मरनेका भय नहीं था। चाण्डालने 'कुलीन'का जीवन सुधार दिया ! मनीषी स्वयं तरते हैं और दूसरोंको तार देते हैं।
लाखका घर धू-धू करके जल रहा था । चण्ड उसमें निश्रक ध्यानारूढ़ बैठा हुआ था। आगके शौले उसके शरीरको जैसेजैसे भस्म करते थे वैसे-वैसे ही उसका आत्म तेज प्रकट होता था। वह महान् आत्मवीर था और धर्म-रक्षाके लिये अपने प्राणों की आहुति देकर सचमुच वह अमर शहीद हुआ! धन्य हो चण्ड ! तुम चांडाल थे तो क्या ? तुमने काम एक ब्राह्मणका कर दिखाया।
धर्मात्मा मनुष्योंने सुना कि चण्डने प्राण देदिये पर अपना धर्म न छोड़ा-वे दोड़े-दौड़े वहा आये जहां चण्डका शरीर अमिकी ज्वालाओंसे अठखेलिया कर रहा था। उन्होंन चाण्डाल चण्डके अन्तिम दर्शन पाकर अपनेको सराहा-उसपर फूल वर्षाये । भूक उन्होंने ही नहीं वर्षाये-विमानमें बैठे हुये देव-पुरुषोंने भी फूल - वर्षाकर चाण्डालकी आत्मदृढताका सम्मान किया ।