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पवितोदारक मैनर्म। सुनार यह विचारते ही दुकानसे नीचे उतरा और उस मोरको पर दौड़ा विवरको साधु गये थे । बाजारके एक छोर पर बह उसे मिल गये । उसने पुकार कर कहा-' सुनो तो महागन ! बड़ा अच्छा भेष बनाया है आपने । रोजगारका ढग बड़ा अच्छा है। अब वह फूल मेरे हवाले कीजिये, नहीं तो खैर नहीं है।'
माधुको बस्तुस्थिति समझने में देर नहीं रगी। उन्होंने ' अपने ऊपर उपसर्ग आया जानकर मौन धारण कर लिया और। चुपचाप वहींके वहीं खड़े होगये । सुनार उनको चुप देखकर और मी मागबबूला होगया । उसे अब पूरा विश्वास होगया कि फूल साधुके पास है; तब ही तो वह चुपचाप खडा है । सुनार उन्हें उल्टी सीधी सुनाने लगा। जब इतनेसे भी उसे संतोष न हुआ तो उसने साधुके सिर पर ऐसी टोपी चढा दी को धूप लगनेसे सिकुड़ती जाती थी और साधुको असह्य वेदना देती थी। साधु ध्यान । स्थिर चित थे। किंतु देखो सुनार की बुद्धिको ! जगसे सोनेने उसे बुदिहीन बना दिया, उसकी भक्ति काफूर होगई और पशुता उसमें जागृत होगई। धन है ही बुरी बला ।
कड़ी धूम्में स धु खडे थ । पैरों नीचे धरती जल रही थी और सिर पर चढ़ी टोपी ज्यों २ सुकड़ती त्यों २ माथा फाड़े डाल रही थी। उसकी प्राणशोषक असह्य वेदनाको वह साधु समतामाक्से सहन कर रहे थे । वह अहिंसक वीर थे । स्वयं सारे कष्ट सहसेंगे; परन्तु किसीको भी जरा पीड़ा नहीं पहुंचायंगे। उधर सुनार सोने लोगों, अंधा हुमा इस इन्तजारमें भ कि मेरी मारसे बड़ा कर