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( ११६ ) शाली और मानने योग्य है। हम पहले देख चुके हैं कि स्थविरवादी त्रिपिटक के स्वरूप का अन्तिम निश्चय और स्थिरीकरण अशोक के काल में अर्थात् तृतीय शताब्दी ईसवी पूर्व हो चुका था और उसी समय से वह लंका में उसी रूप में सुरक्षित रहा है । कम से कम प्रथम शताब्दी ईसवी पूर्व (वट्टगामणि अभय का समय-- मिलिन्दपञ्ह का समय भी) के बाद तो उसमें एक अक्षर का कहीं परिवर्तनपरिवर्द्धन हुआ ही नहीं है । इसके विपरीत सर्वास्तिवादी साहित्य की परिस्थिति बड़ी संकटग्रस्त और असमंजसमय रही है। पहले तो अशोक ने ही स्थविरवादियों के अतिरिक्त सारे बौद्ध सम्प्रदायों के अनुयायियों को मिथ्यावादी समझ कर प्रवज्या-हीन कर दिया ।' 'फिर शुंग राजाओं के काल में उन पर जो आपत्तियाँ ढाई गई, उनसे तो अपनी मूल परम्परा से उनका कदाचित् उच्छेद ही हो गया। सम्भवतः यही कारण है कि उनके मूल विशाल साहित्य का, जोसंस्कृत में था, आज कोई पता नहीं चलता और वह केवल चीनी अनुवादों में सुरक्षित है। आज पुरातत्व का कोई भी भारतीय विद्यार्थी धार्मिक कट्टरता के परिणामस्वरूप उत्पन्न इस ज्ञान-विलुप्ति के लिए लज्जित हुए बिना नहीं रह सकता। सर्वास्तिवादी सम्प्रदाय की साहित्य-विलुप्ति के अन्य चाहे जो कारण दिये जा सकें, वह भारतीय संस्कृति की उदारता और धर्म-सहिप्णता की एक कटु टिप्पणी भी अवश्य है । 'पुष्यमित्र' २ नाम तक के प्रति चीनी बौद्ध साहित्य में जो गहरी अवज्ञा का भाव विद्यमान है, वह इस साहित्य-विलुप्ति से असम्बन्धित नहीं हो सकता। यहाँ कहने का तात्पर्य यही है कि अपनी मूल परम्परा से विच्छिन्न होकर ही सर्वास्तिवाद बौद्ध धर्म चीन और
१. देखिये महावंश ५।२६८-२७० २. प्रसिद्ध शुङ्ग वंशीय राजा, जिसने बौद्धों पर बड़े अत्याचार किये, जिनके
कारण अनेक बौद्धों को देश छोड़ कर बाहर भाग जाना पड़ा। केवल आन्ध, सौराष्ट्र, पंजाब, काश्मीर और काबुल में बौद्ध धर्म इस समय रह गया। चीनी बौद्ध साहित्य में बिना अभिशाप के 'पुष्यमित्र'का नाम नहीं लिया जाता। देखिये बुद्धिस्टिक स्टडीज (डा० लाहा द्वारा सम्पादित) पृष्ठ ८२०