Book Title: Pali Sahitya ka Itihas
Author(s): Bharatsinh Upadhyaya
Publisher: Hindi Sahitya Sammelan Prayag
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - GOVERNMENT OF INDIA DEPARTMENT OF ARCHAEOLOGY CENTRAL ARCHAEOLOGICAL LIBRARY SUCRE R umah Acc. no 8684 Call No. 891,3709_upa CALL No. D.G.A. 79. Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पालि साहित्य का इतिहास Fali Sahitya Kä iti häsa लेखक भरतसिंह उपाध्याय, एम० ए० अध्यक्ष हिन्दी - विभाग, जैन कालेज, बड़ौत Bhavat chusk apaliyane 891.3709 Ира 8834 साहित्य सम्मेलन प्रयाग २००८ हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग 7-137% Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल्य १०) CENTRAL ARCHAIC! ICA biokY, NEW iww.il: No....... ........ .... ......... Vase..................५: 5:............. Call Npuramma1:2221. upar मुद्रक-रामप्रताप त्रिपाठी, सम्मेलन मुद्रणालय, प्रयाग Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणमित्र श्री तुलसीराम वर्मा को - Antan Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ L. Ac. D 14. дят 6.5.2 1309 120 1 ират Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय श्री भरत सिंह उपाध्याय एम० ए० के इस ग्रन्थ 'पालि साहित्य का इतिहास - का प्रकाशकीय लिखना मैं अपने लिए विशेष महत्त्व की बात मानता हूँ। विद्वान लेखक बौद्ध और जैन साहित्य के पण्डित हैं। “बौद्ध-दर्शन और अन्य भारतीय दर्शन" पर इन्हें बंगाल हिन्दी मण्डल से १५०० ) का 'दर्शन' पारितोषिक मिल चुका है। पर यह ग्रन्थ अभी अप्रकाशित है। गंभीर साहित्य पर लिखने वाले हिन्दी में अभी बहुत कम हैं। जिन इने गिने व्यक्तियों का नाम उँगलियों पर गिना जा सकता है उनमें एक उपाध्याय जी हैं यह इनके इस प्रकाशित ग्रन्थ के आधार पर पूरे विश्वास के साथ कहा जा सकता है। लेखक ने चार वर्षों के अध्यवसाय और र तपस्या से इस ग्रन्थ का प्रणयन किया है। संसार के प्राचीनतम उपलब्ध साहित्य को हिन्दी जनता के लिए सुगम बनाने का श्रेय लेखक को मिल कर रहेगा। इस ग्रन्थ का लाभ देश की दूसरी भाषाओं को भी मिलेगा। साहित्य के विद्यार्थी इमसे ईसा पूर्व के सामाजिक जीवन, भाव और विचार से परिचित होंगे। ___यह ग्रन्थ दस अध्याय और उनमें वर्णित वैज्ञानिक विभागों में पूरा हुआ है। > विषय-सूची को एक बार देख लेने पर सामान्य हिन्दी पाठक का बौद्धिक क्षितिज अनायास विस्तृत हो उठता है और ग्रन्थ के भीतर पैठने की जिज्ञासा जाग जाती है। हिन्दी साहित्य के विकास और उन्नयन के लिए संस्कृत की जानकारी जितनी आवश्यक है उतनी ही आवश्यक है पालि की जानकारी भी। संस्कृत का परिचय संस्कार और अभ्यास से शिक्षित वर्ग को थोड़ा बहुत मिलता रहा है पर पालि परिचय के लिए हिन्दी में अब तक के प्रकाशित ग्रन्थों में यह ग्रन्थ सर्वश्रेष्ठ है, यह कहने में हमें संकोच नहीं है। वौद्ध, जैन और ब्राह्मण दर्शनों में लेखक की रुचि और जिज्ञासा पाठक के भीतर दर्शन और साहित्य दोनों की रुचि जगा & देती है। पालि साहित्य में शाक्यमुनि के आचार-विचार, धर्म और संघ के विवरण के साथ इस देश का वह इतिहास जो ईसा-पूर्व और बाद की कई शताब्दियों का Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास है, हमें मिल जाता है। पालि में उपलब्ध सामग्री जो न मिलती तो फिर उस काल का हमारा इतिहास भी लुप्त हो गया होता। दो सहस्र वर्ष पहले का हमारा समाज, हमारे जीवन का तल, हमारी आशा आकांक्षायें, हमारी दिनचर्या, बुद्धि और कौतुक के सभी क्षेत्र कम या अधिक इस ग्रन्थ से हमें सुगम बन जाते हैं। संस्कृति का वह सूत्र जिसे हम भूल चुके थे, लेखक ने जिस मनोयोग से खोज निकाला है, उसका अभिनन्दन हम इसलिए करेंगे कि महत्त्व के ऐसे कठिन कार्य अर्थ और यश की कामना से सम्भव नहीं होते। गहरी निष्ठा, कठोर संकल्प, अडिग समाधि और अनासक्त बुद्धि से, व्यक्ति जब निर्माण में लगता है तभी वह ऐसी रचनायें दे सकता है। श्री उपाध्याय जी का सरल स्वरूप कितनी सरलता से पाण्डित्य का पर्वत उठा सका है, देख कर विस्मय होता है। अभी वे तरुण हैं और कार्य करने के अनेक वर्ष उनके सामने हैं। संकल्प और साधना की यही योगवृत्ति जो उनमें बनी रही तो वे अभी और कई ग्रन्थ रत्न हिन्दी भाषा को दे सकेंगे। लक्ष्मीनारायण मिश्र साहित्य मन्त्री Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकथन भारतीय वाङ्मय में बौद्ध साहित्य और उसमें भी पालि-साहित्य का बहुत महत्त्व है, इतना कहने से भी हम पालि साहित्य के महत्त्व को अच्छी तरह प्रकट नहीं कर सकते। वस्तुतः ईसवी सन् के पहले और पीछे की पाँच शताब्दियों के भारत के विचार, साहित्य, समाज सभी क्षेत्रों की हमारी जानकारी बिलकुल अधूरी रह जाती यदि हमारे पास पालि साहित्य न होता। हमारे इतिहास के कितने ही अन्धकारावृत भागों पर पालि साहित्य ने प्रकाश डाला है। हमारे ऐतिहासिक नगरों और गाँवों में से बहुतों को विस्मति के गर्भ में से बाहर निकालने का श्रेय पालि साहित्य को है। फिर भारत के सर्वश्रेष्ठ पुरुष गौतम बुद्ध के मानव रूप का साक्षात्कार करने के लिए पालि साहित्य तो अनिवार्यतया आवश्यक है। ___ दुनिया की प्रायः सभी उन्नत भाषाओं में पालि साहित्य की अनमोल निधियों के अनुवाद हुए हैं, पालि साहित्य के ऊपर परिचयात्मक ग्रन्थ लिखे गए हैं, यह खेद की बात है कि हमारी हिन्दी भाषा में ऐसी कोई पुस्तक नहीं लिखी गई थी। कुछ महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों के अनुवाद अवश्य हुए हैं, लेकिन वहाँ भी वहुत थोड़े भाग में काम हो सका है। श्री भरत सिंह उपाध्याय ने पालि साहित्य के इतिहास पर एक विस्तृत ग्रन्थ लिख कर हिन्दी साहित्य की एक बड़ी कमी को पूरा किया है। उनके ग्रन्थ में पालि साहित्य और तुलनात्मक भाषा के सम्बन्ध में भी पर्याप्त सामग्री दी गई है। इस ग्रन्थ के सब गुणों का परिचय देना यहाँ सम्भव नहीं है । किन्तु मैं समझता हूँ कि यह पुस्तक पालि साहित्य के उच्च विद्यार्थियों एवं अध्यापकों के लिए तो बहुत सहायक साबित होगी ही, साथ ही माहित्य में रुचि रखने वाले पाठकों के लिए भी बहुत उपयोगी सिद्ध होगी। दिल्ली राहुल सांकृत्यायन Page #9 --------------------------------------------------------------------------  Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स भूमिका हिन्दी में पालि साहित्य सम्बन्धी अध्ययन का अभी सूत्रपात ही हुआ है। कुछ महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों के अनुवादों के अतिरिक्त पालि साहित्य सम्बन्धी कार्य हिन्दी में प्रायः बहुत कम ही हुआ है । अनुवाद भी प्रायः विनय-पिटक और सुत्त-पिटक के कुछ ग्रन्थों के ही हुए हैं। सुत्त-पिटक के भी संयुत्त और अंगुत्तर जैसे निकाय अभी अनुवादित नहीं हो पाए हैं। खुद्दक-निकाय के भी अनेक ग्रन्थ अभी अनुवादित होने को बाकी हैं। सम्पूर्ण अभिधम्म-पिटक पर तो अभी हाथ ही नहीं लगाया गया। इसी प्रकार सम्पूर्ण अनपिटक साहित्य, जिसमें बुद्धदत्त, बुद्धघोष और धम्मपाल की अट्ठकथाएँ और अन्य विशाल साहित्य सम्मिलित है, अभी अनुवाद की बाट देख रहा है । इस साहित्य में से केवल 'मिलिन्द-प्रश्न' और 'महावंश' तथा कुछ अन्य अल्पाकार ग्रन्थ ही हिन्दी रूपान्तर ग्रहण कर सके हैं। 'विसुद्धिमग्गो' जैसा ग्रन्थ अभी हिन्दी जनता को अविदित है। ऐसा लगता है कि एक महान् उत्तराधिकार से हम वंचित हो गए हैं । जिस दिन अवशिष्ट पालि साहित्य हिन्दी रूपान्तर ग्रहण कर लेगा, उस दिन भारतीय मनीषा को एका नड़े स्फूर्ति मिलेगी । उसकी आध्यात्मिक प्रेरणा के स्रोत, जो आज सूखे पड़े हैं, पुनः आप्लावित हो उठेंगे, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं। ___ जो दशा पालि ग्रन्थों के अनुवादों की है, वही उनके मूल पाठों के नागरी मंस्करणों की भी है। सन् ३७ में पुण्यश्लोक बर्मी भिक्षु उत्तम ने भिक्षुत्रय, महामति राहुल सांकृत्यायन, भदन्त आनन्द कौसल्यायन और भिक्ष जगदीश काश्यप द्वारा सम्पादित खुद्दक-निकाय के ११ ग्रन्थों को नागरी लिपि में प्रकाशित किया था। तब से बम्बई विश्वविद्यालय की ओर से निदान-कथा, महावंस, दीघ-निकाय (दो भाग), मज्झिम-निकाय (मज्झिम-पण्णासक), थेरीगाथा, Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १० ) थेरगाथा, मिलिन्दप हो तथा पातिमोक्ख आदि का प्रकाशन नागरी लिपि में हो वुका है । पंडित विधुशेखर भट्टाचार्य के भिक्खु और भिक्खुनी पातिमोक्ख के तथा डा० विमलाचरण लाहा के 'चरियापिटक' के नागरी संस्करण भी स्मरणीय हैं। इसी प्रकार मनि जिनविजय का 'अभिधानप्पदीपिका' का संस्करण, प्रोफेसर वापट के 'धम्मसंगणि' और 'अट्ठसालिनी' के संस्करण, आचार्य धर्मानन्द कोसम्बी के 'विसुद्धिमग्ग' एवं स्वकीय नवनीत-टीका सहित 'अभिधम्मत्थ संगह' के संस्करण तथा भिक्षु जगदीश काश्यप का मोग्गल्लान-व्याकरण पर आधारित 'पालि महाव्याकरण' ये सब हिन्दी में पालि-स्वाध्याय के महत्त्वपूर्ण प्रगति-चिन्ह हैं। इनके अलावा कुछ अन्य ग्रन्थों के भी नागरी संस्करण निकले हैं और धम्मपद, सुत्तनिपात, तेलकटाहगाथा, खुद्दक-पाठ आदि कुछ ग्रन्थों के मूल पालि-सहित हिन्दी अनुवाद भी प्रकाशित हुए हैं। फिर भी जो कुछ काम अभी तक हो चुका है वह उसके सामने कुछ नहीं है जो अभी होना बाकी है । भारतीय विद्वानों के सामने एक भारी काम करने को पड़ा हुआ है । यह काम सफलतापूर्वक हो, इसके लिए अथक परिश्रम और आर्थिक व्यवस्था दोनों की ही बड़ी आवश्यकता है । महाबोधि सभा की कई योजनाएँ आर्थिक अभाव के कारण अपूर्ण पड़ी हुई हैं। भिक्षु जगदीश काश्यप-कृत संयुत्त-निकाय का हिन्दी-अनुवाद वर्षों से पड़ा हुआ है और उसके प्रकाशन की व्यवस्था अभी-अभी हुई है। इसी प्रकार उनके द्वारा संकलित बृहत् पालि-हिन्दी शब्द कोश के प्रकाशन का सवाल है। अनेक पालि ग्रन्थों के मूल पाठ, जिन्हें विद्वान् भिक्षुओं ने नागरी अक्षरों में लिख लिया है, विद्यमान हैं, किन्तु उनके छपने की कोई व्यवस् । नहीं। यही अवस्था अनेक अनुवादों की है। यह अत्यन्त आवश्यक है कि महाबोधि सभा या कोई पुरानी या नई साहित्य-संस्था सम्पूर्ण पालि साहित्य के मूल पाठ और हिन्दी-अनुवाद को प्रकाशित करने का महत्त्वपूर्ण कार्य अपने हाथ में ले और विद्वानों के सहयोग से उसे निकट भविष्य में पूरा करे। सरकार और जनता का भी कर्तव्य है कि वह इममें महत्त्वपूर्ण आर्थिक सहयोग दे। ब्रिटिश साम्राज्यवाद के दिनों में हम प्रत्येक स्वाधीनता-दिवम पर अंग्रेजों पर यह आरोप लगाया करते थे कि अन्य अनेक ह्रासों के साथ उन्होंने हमारा सांस्कृतिक ह्रास भी किया है। आज स्वतंत्रता प्राप्ति के चौथे वर्ष में भारतीयों को यह याद दिलाने की आवश्यकता Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतीत नहीं होगी कि जब कि हमारी अपनी भाषा में कुछ गिने-चुने पालि ग्रन्थों के मूल पाठों और अनुवादों के अतिरिक्त कुछ नहीं है, अंग्रेजों ने बीसों वर्ष पहले सम्पूर्ण पालि साहित्य के मूल पाठ और अंग्रेजी अनुवाद को रोमन-लिपि में रख दिया था। क्या पालि साहित्य भारतीय संस्कृति और सभ्यता की अपेक्षा अंग्रेजी संस्कृति और सभ्यता से अधिक घनिष्ठ सम्बन्धित है ? क्या हमारी अपेक्षा पालि साहित्य का महत्त्व और ममत्व अंग्रेजों के लिए अधिक था? क्या ५०० ई० पूर्व से लेकर ५०० ई० तक का भारतीय इतिहास हमारी अपेक्षा अंग्रेज लोगों के लिए अधिक ज्ञातव्य विषय था ? सन् १९०२ में 'बुद्धिस्ट इंडिया' लिखते समय रायस डेविड्स ने अपने देश की सरकार की उदासीनता की शिकायत करते हुए लिखा था कि इंगलैण्ड में केवल दो जगह संस्कृत और पालि की उच्च शिक्षा का प्रवन्ध है जब कि जर्मनी की सरकार ने अपने यहाँ बीस से अधिक जगह इसका प्रवन्ध किया है "जैसे कि मानो जर्मनी के स्वार्थ भारत में हमसे दस गुने से भी अधिक हों।" आज सन् १९५१ में भारत में पालि के उच्च स्वाध्याय की अवस्था और उसके प्रति सरकार के शून्यात्मक सहयोग को देख कर कोई भारतीय विद्यार्थी यह दुःखद अनुभूति किए बिना नहीं रह सकता कि सन् ५? में भारतीय सरकार का जितना हित इस देश की संस्कृति और साहित्य के साथ दिखाई पाड़ता है उसके कदाचित् दुगुने और वीस गुने से भी अधिक क्रमशः इंगलैण्ड और जर्मनी का सन् १९०२ में था ! जब पालि ग्रन्थों के हिन्दी अनुवाद और उनके मूल पाठों के नागरी-संस्करणों की उपर्युक्त अवस्था है तो पालि साहित्य पर हिन्दी में अभी विवेचनात्मक ग्रन्थ लिखने का कोई आधार ही नहीं मिलता। किसी भी साहित्य के विस्तृत शास्त्रीय अध्ययन एवं उस पर विवेचनात्मक ग्रन्थ लिखने के लिए पहले यह आवश्यक है उसके मूल संस्करण और अनुवाद उपलब्ध हों, जिनके आधार पर उपादानमामग्री का संकलन किया जा सके। हिन्दी इस शर्त को पूरा नहीं करती। इसीलिए मिर्फ दो-एक निवन्धों के अतिरिक्त पालि साहित्य के इतिहास के सम्बन्ध में यहाँ कोई विवेचनात्मक ग्रन्थ हमें नहीं मिलते। पूज्य भदन्त आनन्द कौसल्यायन जी ने सिंहल में अपने अध्ययन के परिणामस्वरूप पालि ग्रन्थों का एक संक्षिप्न विवरण लिखा था जो ‘पालि वाङ्मय की अनुक्रमणिका' शीर्षक से काशी विद्यापीठ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की पत्रिका 'विद्यापीठ' के संवत् १९९३ के आश्विन-पौष अंक में निकला था। एक दूसरा पालि साहित्य सम्बन्धी निबन्ध आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के ग्रन्थ 'हिन्दी साहित्य की भूमिका' के चतुर्थ परिशिष्ट के रूप में है। सरसरी तौर पर यहाँ पालि साहित्य के विकास को दिखाने की चेष्टा की गई है। महापंडित राहुल सांकृत्यायन, भदन्त आनन्द कौसल्यायन और भिक्षु जगदीश काश्यप के अनुवादों की प्रस्तावनाओं में उन उन ग्रन्थों सम्बन्धी विवरणों के साथ-साथ सामान्यतः पालि साहित्य सम्बन्धी परिचयात्मक विवरण भी कहीं-कहीं दे दिया गया है। विशेषतः महापंडित राहुल सांकृत्यायन की 'बुद्ध-चर्या', 'दीघ-निकाय', 'विनय-पिटक' एवं 'अभिधर्म-कोश', आदि की भूमिकाएँ, भदन्त आनन्द कौसल्यायन की 'जातक' (प्रथम खण्ड) और 'महावंश' की भूमिकाएँ और भिक्षु जगदीश काश्यप को 'उदान' और 'पालि महाव्याकरण' की भूमिकाएँ इस दृष्टि से देखने योग्य हैं। भदन्त श्री शान्ति भिक्ष जी के भी पालि साहित्य सम्बन्धी निबन्ध इधर 'विश्व भारती पत्रिका' और 'विशाल भारत' में निकलते रहे हैं। 'धर्मदूत' में भी पालि साहित्य सम्बन्धी निबन्ध त्रिपिटकाचार्य भिक्षु धर्मरक्षित जी, भिक्षु शीलभद्र जी, भिक्षु धर्मरत्नजी, तथा अन्य अनेक वौद्ध विद्वानों के पालि साहित्य सम्बन्धी लेख प्रायः निकलते रहते है । इधर बौद्ध धर्म और दर्शन सम्बन्धी कुछ विवेचनात्मक ग्रन्थ भी हिन्दी में निकले हैं । उनमें भी यथास्थान पालि साहित्य का कुछ विवरण है । पर उनमें कोई ऐसी मौलिकता या विशेषता दृष्टिगोचर नहीं होती जिससे उसे विशिष्ट महत्त्व दिया जा सके। अतः प्रकीर्ण निबन्धों, प्रस्तावनाओं और गौण संक्षिप्त विवरणों के अतिरिक्त पालि साहित्य के इतिहास पर हिन्दी में अभी कुछ नहीं लिखा गया है। ___ हाँ, अंग्रेजी में पालि साहित्य के इतिहास पर कई महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ हैं। मेबिल बोड का 'दि पालि लिटरेचर ऑव बरमा' (लन्दन, १९०९) और जी० पी० मललसेकर का 'दि पालि लिटरेचर ऑव सिलोन' (लन्दन, १९२८) क्रमशः बरमा और लंका के पालि साहित्य पर अच्छे विवेचनात्मक ग्रन्थ हैं। डा० विन्टरनित्ज़ ने अपने महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ 'हिस्ट्री ऑव इन्डियन लिटरेचर' (कलकत्ता, १९२३) को दूसरी जिल्द (पृष्ठ १-४२३) में पालि साहित्य का संक्षिप्त किन्तु Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३ ) अत्यन्त प्रामाणिक विवरण दिया है । पालि भाषा और साहित्य का अत्यन्त सूक्ष्म और गम्भीर विद्वत्तामय विवेचन जर्मन विद्वान् डा० विल्हेल्म गायगर ने अपने ग्रन्थ 'पालि लिटरेचर एण्ड लेंग्वेज' (अंग्रेजी अनुवाद, कलकत्ता, १९४३) में किया है । इस महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ में पालि साहित्य का निर्देश तो अपेक्षाकृत संक्षिप्त रूप में किया गया है (पृष्ठ ९ - ५८), किन्तु पालि भाषा का शास्त्रीय दृष्टि से जितना सूक्ष्म और विस्तृत विवेचन (पृष्ठ १-७ तथा ६१ - २५० ) इस ग्रन्थ में उपलब्ध होता है उतना अन्यत्र कहीं नहीं । पालि भाषा और साहित्य दोनों के परिपूर्ण और श्रृंखलाबद्ध विवेचन की दृष्टि से डा० विमलाचरण लाहा का दो जिल्दों में प्रकाशित 'हिस्ट्री ऑव पालि लिटरेचर' ( लन्दन, १९३३) एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है, यद्यपि इसका भाषा सम्बन्धी विवेचन डा० गायगर के ग्रन्थ के सामने नगण्य सा है । पालि साहित्य सम्बन्धी इन महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों के अलावा उसके विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डालने वाले अनेक प्रबन्ध एवं परिचयात्मक निबन्ध आदि हैं, जो पालि टैक्स्ट् सोसायटी के 'जर्नल' में अनुसन्धेय हैं। रॉयल एशियाटिक सोसायटी के ' जर्नल' तथा एन्साइक्लोपेडिया ऑव रिलिजन एण्ड एथिक्स में भी प्रासंगिक तौर पर पालि साहित्य सम्बन्धी प्रभूत सामग्री मिलती है । पालि टैक्स्ट सोसायटी लन्दन के अंग्रेजी अनुवादों की भूमिकाओं और अनुक्रमणिकाओं में भी भारी सामग्री भरी पड़ी है, जिसका उपयोग पालि साहित्य के किसी भी इतिहासकार के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हो सकता है । सम्पूर्ण पालि साहित्य में प्राप्त व्यक्तिवाचक नामों का विवरणात्मक कोश (पालि डिक्शनरी ऑव प्रॉपर नेम्स ) जिसे अत्यन्त परिश्रम और विद्वत्ता के साथ सिंहली विद्वान् डा० मललसेकर ने, विशेषतः पालि टैक्स्ट सोसायटी के अनुवादों की अनुक्रमणियों के आधार पर, ग्रथित किया है, पालि साहित्य के विद्यार्थियों के लिए सदा एक प्रेरणा की वस्तु रहेगी । पालि साहित्य के विभिन्न पहलुओं पर विवेचन हमें कर्न के 'मैनुअल ऑव इन्डियन बुद्धिज्म (स्ट्रैसबर्ग १८९६), रायस डेविड्स के 'बुद्धिज्म: इट्स हिस्ट्री एण्ड लिटरेचर' ( लन्दन, १९१०) एवं 'बुद्धिस्ट इंडिया' ( लन्दन, १९०३) आदि अनेक ग्रन्थों में मिलते हैं । वंश - साहित्य पर डा० गायगर का 'दीपवंस एण्ड महावंस' ( अंग्रेजी अनुवाद, कोलम्बो १९०८) एक महत्त्वपूर्ण समालोचनात्मक ग्रंथ है । अभिधम्मपिटक के विषय का विवेचन करने वाले प्रबन्धों और ग्रन्थों में स० ज० Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४ ) औंग का 'अभिधम्म लिटरेचर इन बरमा' (जर्नल ऑव पालि टैक्स्ट सोसायटी, १९१०-१२), डा० सिलवा का 'ट्रीटाइज़ औन बुद्धिस्ट फिलासफी' श्रीमती रायस डेविड्स की ‘ए बुद्धिस्ट मेनुअल ऑव साइकोलोजीकल एथिक्स' (धम्म संगणि का अंग्रेजी अनुवाद, लन्दन १९००) की भूमिका, महास्थविर ज्ञानातिलोक की 'गाइड थू दि अभिधम्म पिटक (लुज़ाक एण्ड कं०, लन्दन, १९३८) एवं भिक्षु जगदीश काश्यप की 'अभिधम्म फिलॉसफी) (दो जिल्दें, सारनाथ १९४२) अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं । इसी प्रकार सुत्त-पिटक, विनय-पिटक, पालि काव्य,व्याकरण, अभिलेख-साहित्य, अट्ठकथा-साहित्य आदि पालि-साहित्य के विभिन्न पहलुओं पर इतनी विवेचनात्मक सामग्री अंग्रेजी और यूरोप की अन्य भाषाओं जैसे फ्रेंच और जर्मन में भरी पड़ी है कि उसके संक्षिप्त तम निर्देश के लिए भी एक महाग्रन्थ की आवश्यकता पड़ेगी। यह कहना अतिशयोक्ति न जान पड़े इसलिए यहाँ यह बता देना जरूरी है कि गत सत्तर-अस्सी वर्षों में पश्चिमी देशों में भारतीय विद्यासम्बन्धी जो खोज-कार्य हुआ है, उसका तीन-चौथाई बौद्ध धर्म, दर्शन, साहित्य और संस्कृति से ही सम्बन्धित है।। ___ जैसा ऊपर निर्दिष्ट किया जा चुका है, हिन्दी या अन्य किसी भारतीय भाषा में पालि साहित्य के इतिहास पर लिखी जाने वाली यह प्रथम पुस्तक है। इस पृष्ठभूमि से देखने पर इसमें अनेक अनिवार्य कमियाँ मिलेंगी, जिनकी पूर्ति भावी विद्वानों की कृतियाँ करेंगी। १२-१-४७ के अपने कृपा-पत्र में पूज्य भदन्त आनन्द कौसल्यायन ने मुझे उत्साहित करते हुए लिखा था--"हिन्दी में 'पालि साहित्य का इतिहास' लिखा जाय तो ऐसा ही लिखा जाय कि अंग्रेजी इतिहास फीके पड़ जायें और १९४७ तक की साहित्यिक खोज का पूरा पूरा सार रहे।......अपनी राष्ट्र-भाषा में 'पालि साहित्य का इतिहास' लिखा जाय तो वह ऐसा ही होना चाहिए कि उसे ही पढ़ने के लिए लोगों को हिन्दी पढ़नी पड़े”। मैं नहीं कह सकता कि पूज्य भदन्त जी ने मुझसे जो बड़ी आशा बाँधी थी, उसे पूरा करने में मैं कहाँ तक सफल हुआ हूँ। परन्तु मुझे विश्वास है कि वरमा, सिंहल और स्याम के निवासी भी यदि बुद्ध के देश के इस माणवक के पालि साहित्य सम्बन्धी विवरण को पढ़ेंगे तो अधिक निराश नहीं होंगे। महापंडित राहुल सांकृत्यायन और पूज्य भिक्षु जगदीश काश्यप जी के अनुवादों से मुझे इस पुस्तक के लिखने में बड़ी Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५ ) सहायता मिली है। पूज्य भिक्षु काश्यप जी के अभिधम्म-सम्बन्धी अध्ययन के फलों और निष्कर्षों को (जैसे कि वे अभिधम्म फिलॉसफी में प्रस्फुटित हुए है) पाठक इन पृष्ठों में हिन्दी-रूप में प्रतिबिम्बित देखेंगे और पूज्य राहुल जी की विद्वत्ता के फलों से मैं कितनी प्रकार लाभान्वित हुआ हूँ, इसकी तो कोई इयत्ता नहीं। उन्होंने कृपा कर इस पुस्तक का प्राक्कथन लिखा है, जिसके लिए उनका अत्यन्त कृतज्ञ हूँ । पूज्य आचार्य श्री वियोगी हरिजी ने इस रचना में आदि से ही बड़ी रुचि दिखाई है, यह मेरे लिए एक बड़ी प्रेरणा और आश्वासन की बात रही है। उन्होंने ही श्री राहुल जी से मेरा परिचय कराया और इस ग्रन्थ के प्रकाशन में सहायता भी की । आचार्य श्री नरेन्द्रदेव जी ने इस ग्रन्थ की रूपरेखा को देखकर मुझे अत्यधिक उत्साहित किया, जिसके लिए उनका हृदय से कृतज्ञ हूँ । पूज्य गुरुवर आचार्य श्री जगन्नाथ तिवारी जी, आचार्य श्री धर्मेन्द्रनाथ जी शास्त्री, आचार्य श्री सीताराम जी चतुर्वेदी एवं आचार्य श्री कृष्णानन्द जी पन्त का मैं हृदय से कृतज्ञ हूँ, जिन्होंने कृपा कर पांडु लिपि के कई अंशों को ध्यानपूर्वक पढ़ा और सत्परामर्श दिये। राजर्षि श्री पुरुषोत्तमदासजी टंडन, श्री चन्द्रबलीजी पाण्डेय, श्री कृष्णदेव प्रसादजी गौड़, श्री दयाशंकरजी दुबे, श्री पं० लक्ष्मीनारायणजी मिश्र, श्री रामप्रतापजी त्रिपाठी, एवं सम्मेलन की साहित्य समिति के सदस्यों का हृदय से कृतज्ञ हूँ, जिन्होंने इस पुस्तक को सम्मेलन के द्वारा प्रकाशन के योग्य समझा। अन्त में मैं श्री सीतारामजी गुण्ठे, व्यवस्थापक सम्मेलन मुद्रणालय तथा उनके सहयोगियों के प्रति हृदय से कृतज्ञता प्रकाशित करता हूँ, जिन्होंने बड़ी दक्षता से इस पुस्तक को छापा है। भगवान बुद्ध का अनुभाव उन पर अभिवर्षित हो ! किसी खोजपरक विवेचनात्मक ग्रन्थ के लेखक के लिए आजकल यह प्रायः आवश्यक माना जाता है कि वह यह बताये कि कहाँ तक उसने अपने पूर्वगामियों का अनुसरण किया है अथवा कहाँ तक उसने मौलिक स्थापनाऍ और निष्कर्ष उपस्थित किए हैं। मैं समझता हूँ यह काम तो पालि साहित्य के मर्मज्ञ समालोचक ही, जिन्होंने पूर्वी और पश्चिमी विद्वानों के ग्रन्थों को पढ़ा है, कर सकेंगे। जहाँ तक समझता हूँ मैंने इस पुस्तक के पृष्ठ पृष्ठ, पंक्ति पंक्ति, शब्द-शब्द, अक्षर-अक्षर का विश्लेषण कर देखा तो मुझे कहीं 'मैं' या 'मेरा' नही मिला, 'अपना' कुछ दिखाई Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं दिया। जो 'मैं' नहीं है, जो मेरा 'अपना' नहीं है, उसको जितना जल्दी हो छोड़ देना हो मेरे लिए कल्याणकारी होगा। इसी विचार के साथ मैं समाप्त करता हूँ। जैन कालेज, बड़ौत, १०-९-५१ भरतसिंह उपाध्याय Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची पहला अध्याय पालि भाषा 'पालि' शब्दार्थ-निर्णय–पालि भाषा-भारतीय भाषाओं के विकास में पालि का स्थान—पालि किस प्रदेश की मूल भाषा थी? पालि और वैदिक भाषा-पालि और संस्कृत–पालि और प्राकृत भाषाएँ: विशेषतः अर्द्धमागधी, शौरसेनी और पैशाची–पालि के ध्वनि-समूह का परिचयपालि का शब्द-साधन और वाक्य-विचार-पालि भाषा के विकास की अवस्थाएँ–पालि भाषा और साहित्य के अध्ययन का महत्त्व, उपसंहार। पृष्ठ १-७३ दूसरा अध्याय पालि साहित्य का विस्तार, वर्गीकरण और काल-विभाग पालि साहित्य का उद्भव और विकास–पालि साहित्य का विस्तार मामान्यतः दो विभागों में उसका वर्गीकरण—पालि या पिटक साहित्य ---अनुपालि या अनुपिटक साहित्य-पिटक साहित्य के ग्रन्थों का संक्षिप्त परिचय और काल-क्रम -अनुपिटक साहित्य का काल-विभाग, उपसंहार। पृष्ठ ७४-११० तीसरा अध्याय सुत्त-पिटक पालि त्रिपिटक कहाँ तक मूल, प्रामाणिक बुद्ध-वचन है ? सुत्त-पिटक-विषय, शैली और महत्त्व-मुत्त-पिटक के अन्तर्गत ग्रन्थों के वस्तु-विधान का संक्षिप्त परिचय और उनका साहित्यिक और ऐतिहासिक महत्त्व: अ. दीघ-निकाय आ. मज्झिम-निकाय Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८ ) इ, संयुत्त-निकाय ई. अंगुत्तर-निकाय उ. खुद्दक-निकाय पृष्ठ १११-३०१ चौथा अध्याय विनय-पिटक त्रिपिटक में विनय-पिटक का म्यान--विनय-पिटक का विषय और संकलन काल-विनय-पिटक के भेद-~-विनय-पिटक के नियम-विनय-पिटक के वस्तु-विधान का संक्षिप्त परिचय--सुत्त-विभंग-खन्धक-परिवार, उपसंहार। पृष्ठ ३०२-३३३ पांचवाँ अध्याय अभिधम्म-पिटक अभिधम्म-पिटक-रचना-काल-विषय, शैली और महत्त्व-अभिधम्म-पिटक के ग्रन्थ-पालि अभिधम्म पिटक और सर्वास्तिवाद सम्प्रदाय के अभिधर्म पिटक की तुलना--अभिधम्म-पिटक के ग्रन्थों के वस्तु-विधान का संक्षिप्त परिचयः अ. धम्मसंगणि आ विभंग इ. धानुकथा ई. पुग्गलपनि उ. कथावत्यु ऊ. यमक ए. पठान पृष्ठ ३३४--४६४ छठा अध्याय पूर्व-बुद्धघोष-युग (१०० ई० पू० से ४०० ई. तक) नेत्तिपकरण--पेटकोपदेश-मिलिन्दपञ्हो-अन्य साहित्य । पुष्ठ ४६५-४९५ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११ ) सातवाँ अध्याय बुद्धघोष - युग (४००ई० से ११००ई० तक) अट्ठकथा - साहित्य — अट्ठकथा साहित्य का उद्भव और विकास -- अट्ठकथासाहित्य, संस्कृत भाष्य और टीकाओं से तुलना -- अट्ठकथाओं की कुछ सामान्य प्रवृत्तियाँ - पालि त्रिपिटक के तीन बड़े अट्ठकथाकार - बुद्धदत्त - बुद्धोष -- धम्मपाल -- बुद्धदत्त - जीवन-वृन और रचनाएँ—– अभिधम्मावतार — रूपारूपविभाग — विनय विनिच्छय -- उत्तर - विनिच्छय-बुद्धघोष -- जीवन-वृत्त - रचनाएँ -- विमुद्धिमग्गो - - समन्तपासादिका -- कंखावितरणी – सुमंगलविलासिनी — पपञ्चसूदनी -- सारत्थपकासिनी -- मनोरथपूरणी—-परमत्थजोतिका - अट्ठसालिनी - सम्मोहविनोदनीधातुकथा, पुग्गलपञ्ञत्ति, कथावत्थु, यमक और पठान, इन पाँच अभिधम्म-ग्रंथों पर अट्ठकथाएँ ( पञ्चुप्पकरणट्ठकथा ) - धम्मपदट्ठकथाजातकत्थवण्णना- - बुद्धवोप की अन्य रचनाएँ -- पालि साहित्य में बुद्धधोप का स्थान --धम्मनाल-- - जीवन-वृत्त - रचनाएँ-- विमानवत्थु अट्ठकथा -- पेतवत्थु-अट्ठकथा--थेर-थेरी गाथाओं पर अट्ठकथाएँ — उदान, इतिवृत्त और चरियापिटक पर अट्ठकथाएँ -- अनिरुद्ध और उनका अभिवम्मत्यसंगह——-अभिधम्मत्थसंग्रह के सिद्धान्तों का संक्षिप्त विश्लेषण -- बुद्धघोष-युग के अन्य अट्ठकथाकार, उपसंहार । पृष्ठ ४९६-५३६ आठवाँ अध्याय बुद्धघोष - युग की परम्परा अथवा टीकाओं का युग ( ११०० ई० से वर्तमान समय तक ) सिहली भिक्षु सारिपुन और उनके शिष्यों की टीकाएँ--बर्मी पालि साहित्यइस युग की अन्य रचनाएँ, उपसंहार । पृष्ठ ५३७-५४६ नवाँ अध्याय वंश - साहित्य 'वंश' शब्द का अर्थ और इतिहास से भेद - - वंग-ग्रंथ - दीपवंस - महावंस -- चूलवंस -- बुद्धवोसुप्पत्ति -- मद्धम्मसंगह महाबोधिवंस थपवंस— Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २० ) अत्तनगलुविहारवंस - दाठावंस -- छकेसधातुवंस - गन्धवंस - सासनवंस, उपसंहार । पृष्ठ ५४७-५८२ दसवाँ अध्याय काव्य, व्याकरण, कोश, छन्दःशास्त्र, अभिलेख आदि विषय-प्रवेश - काव्य-ग्रंथ - अनागतवंस तेलकटाहगाथा -- जिनालंकार -- पञ्चगतिदीपन लोकप जिनचरित - पज्जमधु -- सद्धम्मोपायन दीपसार या लोकदीपसार - रसवाहिनी करण बुद्धालंकार -- सहस्सवत्थुप्पराजाधिराजविलासिनी - पालि का व्याकरण - साहित्य और उसके तीन सम्प्रदाय -- कच्चान- व्याकरण और उसका सहायक साहित्यमोग्गल्लान-व्याकरण और उसका सहायक साहित्य - अग्गवंस-कृत सद्दनीति और उसका सहायक साहित्य - अन्य पालि व्याकरण -- पालि कोशअभिधानप्पदीपिका -- एकक्खरकोस – छन्दः शास्त्र --- बुत्तोदय आदि---- काव्य - शास्त्र -- -सुबोधालंकार -- पालि का अभिलेख - साहित्य, उपसंहार । पृष्ठ ५८३-६४३ V -- - उपसंहार भारतीय वाङ्मय में पालि साहित्य का स्थान -- पालि और विश्व - साहित्य | पृष्ठ ६४४–६४७ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला अध्याय पालि भाषा 'पालि' शब्दार्थ-निर्णय जिसे हम आज पालि भाषा कहते हैं, वह उसका प्रारम्भिक नाम नही है । भाषा-विशेष के अर्थ में पालि शब्द का प्रयोग अपेक्षाकृत नवीन है। कम से कम ईसा की तेरहवीं या चौदहवीं शताब्दीसे पूर्व उसका इस अर्थ में प्रयोग नहीं मिलता। 'पालि' शब्द का सब से पहला व्यापक प्रयोग हमें आचार्य बुद्धघोष (चौथी-पाँचवीं शताब्दी ईसवी) की अट्ठकथाओं और उनके 'विसुद्धिमग्ग' में मिलता है। वहाँ यह शब्द अपने उत्तरकालीन भाषा-सम्बन्धी अर्थ से मुक्त है। आचार्य बुद्धघोष ने दो अर्थों में इस शब्द का प्रयोग किया है . (१) बुद्ध-वचन या मूल त्रिपिटक के अर्थ में, (२) 'पाठ' या 'मूल त्रिपिटक के पाठ' के अर्थ में । चूंकि 'मूल त्रिपिटक' और 'मूल त्रिपिटक के पाठ' में भेद कहने भर को है, अतः मोटे तौर से कहा जा सकता है कि 'मूल त्रिपिटक' या 'बुद्ध-वचन' के सामान्य अर्थ में ही बुद्धघोष महास्थविर ने 'पालि' शब्द का प्रयोग किया है। जिस किसी प्रसंग में उन्हें पोराणअट्ठकथा (प्राचीन अर्थकथा) से विभिन्नता दिखाने के लिये मूल त्रिपिटक के किसी अंश को उद्धृत करना पड़ा है, वहाँ उन्होंने 'पालि शब्द से बुद्ध-वचन या मूल त्रिपिटक को अभिव्यक्त किया है, जैसे 'विसुद्धिमग्ग' में “इमानि ताव पालियं, अट्ठकथायं पन ...." (ये तो ‘पालि' में हैं, किन्तु 'अट्ठकथा' में तो......" तथा वहीं "नेव पालियं न अट्ठकथायं आगतं” (यह न ‘पालि' में आया है और न 'अट्ठकथा' में) । इसी प्रकार 'सुमंगलविलासिनी' (दीघ-निकाय की अट्ठकथा) की सामञफलसुत्त-वण्णना में "नेव पालियं न अट्ठकथायं दिस्सति" (यह न ‘पालि' में दिखाई देता है और न ‘अट्ठकथा' में) तथा पुग्गलपत्तिअट्ठकथा में "पालिमुत्तकेन पन अट्ठकथानयेन". ('पालि' को छोड़कर 'अट्ठकथा' की प्रणाली से) आदि । इसके अलावा जहाँ उन्हें त्रिपिटक की व्याख्या करते हुए कहीं कहीं उसके पाठान्तरों का निदश करना पड़ा है, वहाँ उन्होने 'इति Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पि पालि' (ऐसा भी पाठ है) कह कर पालि' शब्द से मूल त्रिपिटक के 'पाठ' को द्योतित किया है, जैसे 'सुमंगलविलासिनी'की सामञफलसुत्त-वण्णना में 'महच्चराजानुभावेन' पद को व्याख्या करते हुए पहले उन्होंने उसका अर्थ किया है ‘महता राजानुभावेन' और फिर पाठान्तर का निर्देश करते हुए लिखा है 'महच्चा इति पि पालि' अर्थात् 'महच्चा ऐसा भी पाठ है। यहाँ 'पालि' का अर्थ निश्चित रूप से 'पाठ' ही है, यह इस बात से प्रकट होता है कि समान प्रसंगों में 'पालि' के समानार्थ वाची शब्द के रूप में 'पाठ' शब्द का भी प्रचुर प्रयोग आचार्य बुद्धघोष ने किया है। कुछ एक उदाहरण ही पर्याप्त होंगे। “सेतकानि अट्ठीनि ... सेतठ्ठिका ति पि पाठो” (समन्तपासादिका--वेरञ्जकण्डवण्णना) तथा “अपगतकाळको.....अपहतकाळको ति पि पाठो' (समन्तपासादिका-वेरजकण्डवण्णना) आचार्य बुद्धघोष के कुछ ही समय पूर्व लंका में लिखे गये 'दीपवंस' ग्रन्थ में भी जा चौथी शताब्दी ईसवी की रचना है, 'पालि' शब्द का प्रयोग बुद्ध-वचन के अर्थ में ही किया गया है ।' आचार्य बुद्धघोष के बाद भी सिंहल देश में 'पालि' शब्द का प्रयोग उपर्युक्त दोनों अर्थों में होता रहा। आचार्य धम्मपाल (पाँचवीं-छठी शताब्दी ईसवी) ने अपनी परमत्थदीपनी' (खुद्दक-निकाय के कतिपय ग्रन्थों की अट्ठकया) में भी ‘पालि' शब्द का प्रयोग मूल त्रिपिटक के 'पाठ' के अर्थ में किया है, यथा “अयाचितो ततागच्छोति ....आगतो ति पि पालि"। इसी प्रकार 'बुद्धवचन' के अर्थ में भो ‘पालि' शब्द का प्रयोग वहाँ उपलक्षित होता है। 'चूलवंस (तेरहवीं शताब्दी) में भी , जो 'महावंस' (छठी शताब्दी) का उत्तरकालीन परिवद्धित अंश है, 'पालि' शब्द का प्रयोग बुद्ध-वचन, अटठकथा से व्यतिरिक्त मल पालि त्रिपिटक, के अर्थ में ही किया गया है। उसका एक अति प्रसिद्ध वाक्य है--"पालिमत्तं इधानीतं नत्थि अट्ठकथा इध"२ (यहाँ केवल 'पालि' ही लाई गई है, 'अट्ठकथा' यहाँ नहीं है)। इसी प्रकार 'पालि महाभिधम्मस्स' अर्थात मल विपिटक के अन्तर्गत अभिधम्म का' ऐसा भी प्रयोग वहीं मिलता है। उसी के. १. २०१२० ( ओल्डनबर्ग का संस्करण ) २. ३७४२२७; मिलाइये वहीं ३३३१०० (गायगर का संस्करण) ३. ३७५२२१ (गायगर का संस्करण) Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समकालिक 'सद्धम्मसंगह' (तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी) में भी पालि' शब्द का . प्रयोग इमी अर्थ में किया गया है।' उपर्युक्त उद्धरण ‘पालि' शब्द के अर्थ-निर्धारण में बड़े महत्व के हैं। चौथी शताब्दी ईसवी से लेकर चौदहवीं शताब्दी ईसवी तक जिन अर्थों में पालि' शब्द का प्रयोग होता रहा है, उसका वे दिग्दर्शन करते हैं। अतः उनसे हमें एक आधारमिलता है, जिसका आश्रय लेकर हम चौथी शताब्दी ईसवी से पहले 'पालि' शब्द के इतिहास पर विचार कर सकते हैं। त्रिपिटक में तो 'पालि' शब्द मिलता नहीं। त्रिपिटक को आधार मान कर लिखे हुए साहित्य में भी बुद्धघोष की रचनाओं या 'दीपवंस' के समय से पूर्व किसी ग्रन्थ में पालि शब्द का निर्देश नहीं मिलता ! फिर आचार्य बद्धघोष ने किस परम्परा का आश्रय ग्रहण कर पालि' शब्द को उपर्युक्त अर्थों में प्रयुक्त किया, यह हमारे गवेषण का मुख्य विषय है। दूसरे शब्दों में, बुद्धघोष के समय से पहले ‘पालि' शब्द का इतिहास हमें जानना है । भाषाओं के विकास में, स्थान और युग की विशेष परिस्थितियों के कारण, शब्दो के रूपों, अर्थों और ध्वनियों में नाना विकार होते रहते हैं। ध्वनि, रूप और अर्थ के उन विकारों को हमें ढूंढना है, जिनका अतिक्रमण कर ‘पालि' शब्द बुद्धघोष के ममय तक 'बुद्ध-वचन' या 'मूल त्रिपिटक के पाठ' के अर्थ में प्रयुक्त होने लगा और फिर तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी तक उसी अर्थ को धारण करता रहा। उसके बाद के अर्थ-विकार की बात तो बाद में । उपर्युक्त महत्वपूर्ण उद्धरणों में पालि' शब्द के जो अर्थ व्यक्त किये गये हैं, उन्हीं को आधार मानकर कुछ आधुनिक विद्वानो ने 'पालि' शब्द की निरुक्ति के सम्बन्ध में कुछ महत्त्वपूर्ण स्थापनाएँ की हैं, जिनमें तीन अधिक प्रभावशाली हैं। पहली स्थापना इस बात को प्रमुखता देकर चलती है कि बुद्धघोष की अट्ठकथाओं में चूंकि पालि' शब्द 'बुद्ध-वचन' या 'मूल त्रिपिटक के अर्थ को व्यक्त करता है, इसलिये उसका मूल रूप भी कोई ऐसा शब्द रहा होगा जो बुद्ध-काल में इसी अर्थ को सूचित करता हो। दूसरी स्थापना इसी प्रकार 'पालि' शब्द के 'पाठ' अर्थ को प्रमुखता देकर चलती है । तीसरी स्थापना संस्कृत शब्द पालि' जिसका अर्थ पंक्ति है. को प्रधानता देकर उसे बुद्धघोष आदि आचार्यो १. पृष्ठ ५३ (सद्धानन्द द्वारा सम्पादित एवं जर्नल ऑव पालि टेक्स्ट सोसायटी, १८९०, में प्रकाशित संस्करण) Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के द्वारा प्रयुक्त ‘पालि' शब्द के अर्थो के साथ संगत करने का प्रयत्न करती है। इन तीनों स्थापनाओं की समीक्षा हमें करनी है। पहली स्थापना के अनुसार ‘पालि' शब्द का प्राचीनतम रूप हमें 'परियाय' शब्द में मिलता है। 'परियाय' शब्द त्रिपिटक में अनेक बार आया है। कहीं कहीं 'धम्म' शब्द के साथ और कहीं कहीं अकेले भी इस शब्द का व्यवहार हुआ है। उदाहरणत: 'को नामो 'अयं भन्ते धम्मपरियायो ति' (भन्ते ! यह किस नाम का धम्म-परियाय है) 'भगवता अनेक परियायेन धम्मो पकासितो'२ (भगवान् ने अनेक पर्यायों से धर्म को प्रकाशित किया) आदि, आदि । स्पष्टतः ऐसे स्थलों में परियाय' शब्द का अर्थ बुद्धोपदेश है। बाद में 'परियाय' शब्द का ही विकृत रूप पलियाय' हो गया। अशोक के प्रसिद्ध भाव शिलालेख में 'पलियाय' शब्द का प्रयोग इसी अर्थ में मिलता है। मगध के भिक्षु-संघ को कुछ चुने हुए बुद्ध-वचनों के स्वाध्याय करने की प्रेरणा देते हुए प्रियदर्शी 'धम्मराजा' कहते हैं “भन्ते ! ये धम्म-पलियाय हैं। मैं चाहता हूँ कि सभी भिक्षु-भिक्षुणियाँ, उपासक और उपासिकाएँ, इन्हें सदा सुनें और पालन करें।"३ 'पलियाय' शब्द के 'पलि' उपसर्ग का दीर्घ होकर बाद में पालियाय' शब्द बन गया। ‘पालियाय' शब्द का ही संक्षिप्त रूप बाद में 'पालि' होकर 'बुद्ध-वचन' या 'मूल त्रिपिटक' के अर्थ में प्रयुक्त होने लगा। इस मत की स्थापना भिक्षु जगदीश काश्यप ने अपने 'पालि महाव्याकरण' की वस्तुकथा में योग्यतापूर्वक की है।४ । दुसरा मत, जिसकी स्थापना भिक्षु सिद्धार्थ ने अपने अंग्रेजी निबन्ध “पालि भाषा का उद्गम और विकास, विशेषतः संस्कृत व्याकरण के आधार पर"में की है, इससे कुछ भिन्न है । उनके मतानुसार ‘पालि' या ठीक कहें तो 'पाळि' शब्द १. ब्रह्मजाल-सुत्त (दोघ. ११) २. सामाफल-सुत्त (वीघ-श२) ३. इमानि भन्ते धम्मपलियायानि...........एतान भन्ते धम्मपलियायानि इच्छामि किति बहुके भिखुपाये भिखु निये चा अभिखिनं सुनयु च उपधालेयेय च। हेवं हेवा उपासका च उपासिका चा। ४. पृष्ठ आठ-बारह। ५. बुद्धिस्टिक स्टडीज़ (डा० लाहा द्वारा सम्पादित) पृष्ठ ६४१-६५६ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५ ) का मूल उद्गम संस्कृत 'पाठ' शब्द है । इस मत के अनुसार संस्कृत 'पाठ' शब्द का काही विकृत या परिवर्तित रूप 'पाळि' या 'पालि' है । यह विकास क्रम भिक्षु सिद्धार्थ के मतानुसार कुछ-कुछ इस प्रकार चला । प्राचीन काल में 'पाठ' शब्द का प्रयोग ब्राह्मण लोग विशेषतः वेद-वाक्यों के 'पाठ' के लिये किया करते थे । भगवान् बुद्ध के समय में भी यह परम्परा ब्राह्मणों में चली आ रही थी । जब अनेक ब्राह्मण-महाशाल बुद्ध-मत में प्रविष्ट हुए तो उन्होंने इसी शब्द को, जिसे वे पहले वेद के पाठ के अर्थ में प्रयुक्त करते थे, अब बुद्ध वचनों के लिये प्रयुक्त करना आरम्भ कर दिया। यह स्वाभाविक भी था । जब उन्होंने बुद्ध को 'मुनि' 'वेदज्ञ' 'वेदान्तज्ञ' कह कर अपनी श्रद्धा अर्पित की, तो उनके वचनों के निर्देश के लिये भी वे पवित्र 'पाठ' शब्द का अभिधान क्यों न करते ? भिक्षु सिद्धार्थ ने ठीक ही 'पाठ' शब्द के अतिरिक्त कुछ अन्य शब्दों की सूची दी है, जो पहले वैदिक परम्परा के थे किन्तु बौद्ध संघ में आकर जिन्होंने नये स्वरूप ग्रहण कर लिये थे । 'संहिता' 'सहित' होगई, 'तन्त्र' 'तन्ति' हो गया, 'प्रवचन' 'पावचन' हो गया । अतः प्राचीन 'पाठ' शब्द का भी बौद्ध संस्करण असम्भव न था । किन्तु बौद्धों ने जो कुछ लिया उसे एक नया स्वरूप भी प्रदान किया। संस्कृत 'पाठ' शब्द भिक्षु संघ में आकर 'पाळ' हो गया । यह ध्वनि परिवर्तन भाषा - विज्ञान के नियमों के आधार पर सर्वथा सम्भव भी था। संस्कृत के सभी मूर्द्धन्य व्यञ्जन ( ट् ठ् ड् ढ् ण् ) पालि और प्राकृत भाषाओं में 'लू' हो जाते हैं। उदाहरणतः संस्कृत 'आटविक' पालि में 'आळविक' है, सं० 'पटच्चर' पालि में 'पळन्चर' है, मं० 'एडक' पालि में 'एलक' है। इसी प्रकार सं० वेणु-पालि वेलु, सं० दृढ़-पालि दल्ह, आदि आदि । 'पाळ' शब्द का ही बाद में विकृत रूप 'पालि' हो गया । यह भी भाषा विज्ञान सम्बन्धी नियमों के असंगत न था । अन्त्य स्वर-परिवर्तन का विधान पालि में अक्सर देखा जाता है, जैसे संस्कृत' अंगुल' से पालि 'अंगुलि -अंगुली; मं० 'सर्वज्ञ' मे पालि सब्बञ्ज आदि, आदि । अतः मिथ्या सादृश्य के आधार पर 'पाठ' शब्द का विकृत रूप 'पालि' हो गया । 'पालि' शब्द में 'ल्' व्यञ्जन वैदिक मूर्द्धन्य 'व्' ध्वनि का प्रतिरूप था। इस ध्वनि का विकास कई आधुनिक भारतीय भाषाओं में 'ड' के रूप में हुआ है । यह वैदिक ध्वनि अन्तःस्थ 'ल' से भिन्न थी । किन्तु 'ल' और 'ल' के उच्चारणों में भेद न कर सकने के कारण बाद में मिथ्या - सादृश्य के आधार पर 'पालि' शब्द को 'पालि' शब्द के साथ मिला दिया गया, जो वास्तव में व्युत्पत्ति और अर्थ की दृष्टि से एक विलकुल भिन्न शब्द था । 'पालि' शब्द के साथ इस Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकार मिल कर पालि' शब्द भी बुद्ध-वचन के ही अर्थ में प्रयुक्त होने लगा । भिक्षु सिद्धार्थ के मतानुसार 'पालि' शब्द की यही निरुक्ति है। तीसरे मत का निर्देश करने से पूर्व इन दोनों मतों की कुछ समीक्षा कर लेना आवश्यक होगा। भाषा-विज्ञान की दृष्टि से दोनों मत निर्दोष हैं। ध्वनि-परिवर्तन सम्बन्धी नियमों पर दोनों खरे उतरते हैं। दोनों एक दूसरे के विरोधी भी नहीं हैं। जहाँ तक वे भिन्न भिन्न हेतुओं से 'पालि' शब्द का तात्पर्य 'बुद्ध-वचन' में दिखलाते हैं, वे एक दूसरे के पूरक हैं। किन्तु ऐतिहासिक दृष्टि से भिक्षु सिद्धार्थ के मत की एक निर्बलता है। उन्होंने 'पाठ' शब्द का विकृत रूप 'पाळ' बतलाया है और फिर उससे 'पाळि' या 'पालि' शब्द की व्युत्पत्ति की है। इसे ऐतिहासिक रूप से ठीक होने के लिये यह आवश्यक है कि पाळ' शब्द का प्रयोग पालि-साहित्य में उपलब्ध - हो। तभी उसके आधार पर 'पालि' शब्द की व्युत्पत्ति की स्थापना की जा सकती है। ऐसा कोई उदाहरण भिक्षु सिद्धार्थ ने अपने उक्त निबन्ध में नहीं दिया। आचार्य बुद्धघोष की अट्ठकथाओं से जो उदाहरण उन्होंने दिये हैं, उनमें भी 'इति पि पाठो'ही बुद्धघोषोक्त वचन है, 'इति पि पाळो नहीं । जब वुद्धघोष के समय अर्थात् ईसा की चौथी-पाँचवीं शताब्दी तक 'पाठ' शब्द का वैसा ही संस्कृत का सा रूप पालि-साहित्य में मिलता है, तो फिर इम स्थापना के लिये क्या आधार है कि बुद्धकाल में ही संघ में आकर उसका रूप पाळ' हो गया था ? वास्तव में ऐतिहासिक दृष्टि से तो यही अधिक युक्तियुक्त जान पड़ता है कि 'इति पि पालि' के बाद ही, उससे पहले नहीं, 'इति पि पाठो' लिखना आरम्भ किया गया होगा, जव कि त्रिपिटक के पठन-पाठन का प्रचार कुछ अधिक बढ़ा होगा। श्रीमती रायस डेविड्स का भी यही मत है । अतः भिक्षु सिद्धार्थ की व्युत्पत्ति के लिये कोई अवकाश नहीं रह जाता। इस ऐतिहासिक आधार की कमी के कारण वह प्रामाणिक नहीं माना जा सकता। भिक्षु जगदीश काश्यप के मत में ऐसी कोई कमी दिखाई नहीं देती। भाव शिलालेख का अद्वितीय साक्ष्य उसे प्राप्त है। 'पेय्यालं' शब्द में भी यही तत्व निहित है । अतः एक पूरी परम्परा का आधार लेने के कारण और इस कारण भी कि पालि साहित्य में उपलब्ध ‘पालि' शब्द के समस्त विकृत १. देखिये उनका शाक्य और बुद्धिस्ट ऑरोजिन्स, पृष्ठ ४२९-३० २. देखिये पालि महाव्याकरण, पृष्ठ तेतालोस (वस्तुकथा) Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ या विकसित रूपों के साथ उसकी संगति लग जाती है, वह मत हमार वतमान ज्ञान की अवस्था में एक मान्य सिद्धान्त है। ___ 'पालि' शब्द की व्युत्पत्ति के विषय में तीसरा मत पं० विधुशेखर भट्टाचार्य का है। उनके मतानुसार 'पालि' शब्द का अर्थ 'पंक्ति' है और इस प्रकार वह संस्कृत 'पालि' शब्द का पर्यायवाची है। इस मत को पालि भाषा और साहित्य का भी कुछ समर्थन प्राप्त न हो, ऐसी बात नहीं है। प्रसिद्ध पालि कोश 'अभिधानप्पदीपिका (बारहवीं शताब्दी) में 'पालि' शब्द के 'बुद्धवचनं' अर्थ के साथ साथ 'पवित अर्थ भी दिया गया है। "तन्ति बुद्धवचनं पन्ति पालि"। पालि-साहित्य में 'अम्बपालि' 'दन्तपालि' जैसे प्रयोग भी ‘पालि' शब्द के 'पंक्ति' अर्थ को ही द्योतित करते हैं। अत: 'पालि' शब्द का अर्थ पंक्ति' और बाद में 'ग्रन्थ की पंक्ति' इस आधार पर कर लिया गया है और बुदृघोष द्वारा प्रयुक्त अर्थ के साथ उसकी संगति भी मिला ली गई है। किन्तु इस मत में दोष फिर भी स्पष्ट हैं। भिक्षु जगदीश काश्यप ने उसमें प्रधानतया तीन कमियाँ दिखाई हैं।' (१) 'पंक्ति' के लिये लिखित ग्रन्थ का होना आवश्यक है। त्रिपिटक प्रथम शताब्दी ईमवी पूर्व से पहले लिखा नहीं गया था। अतः उस समय के लिये त्रिपिटिक के उद्धरण के लिये 'पालि' या 'पंक्ति शब्द इस अर्थ में नहीं उपयुक्त हो सकता था। (२) 'पालि' शब्द का अर्थ यदि 'पंक्ति' होता तो उस अवस्था में उदान-पालि' जैसे प्रयोगों में 'उदानपंक्ति' अर्य करने से कोई समझने योग्य अर्थ नहीं निकलता (३) 'पालि' शब्द का अर्थ यदि पंक्ति होता तो अट्ठकथाओं आदि में कहीं भी उसका बहुवचन में भा प्रयोग दृष्टिगोचर होना चाहिये था, जो नहीं होता । अत: 'पालि' शब्द का 'पंक्ति' अर्थ उसके मौलिक स्वरूप तक हमें नहीं ले जा सकता। हाँ, भिक्षु जगदीश काश्यप ने जो आपत्तियाँ उठाई हैं, उनमें से प्रथम के उत्तर में आंशिक रूप से यह कहा जा सकता है कि त्रिपिटक की अलिखित अवस्था में पालि' या 'पंक्ति' शब्द से तात्पर्य केवल शब्दों की पठित पक्ति से लिया जाता रहा होगा और उसके लेखबद्ध कर दिये जाने पर उसकी लिखित पंक्ति ही ‘पालि' कहलाई जाने लगी होगी। श्रीमती राययस डेविड्स ने इसी प्रकार का मत प्रकाशित किया है। १. पालि महाव्याकरण, पृष्ठ आठ (वस्तुकथा) २. देखिये उनका शाक्य और बुद्धिस्ट ऑरीजिन्स, पृष्ठ ४२९-३० Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फिर भी इस मत से 'पालि' शब्द की व्युत्पत्ति पर कुछ प्रकाश नहीं पड़ता। अतः प्रस्तुत प्रसंग में वह हमारे लिये महत्वपूर्ण नहीं हो सकता। - उपर्युक्त मतों के अलावा एक मत जर्मन विद्वान् डा० मैक्स वेलेसर ने सन् १९२४ और फिर १९२६ में प्रकाशित किया था। इस मत के अनुसार ('पाटलि' या 'पाडलि' (पाटलिपुत्र की भाषा) शब्द का ही संक्षिप्त रूप ‘पालि' है। चूंकि 'पालि' शब्द का प्रयोग भाषा-विशेष के अर्थ में अट्ठकथाओं तक में कहीं मिलता नहीं, अतः मैक्स वेलेसर का मत अपने आप गिर जाता है। डा० थॉमस द्वारा उसका पर्याप्त प्रतिवाद कर दिये जाने पर आज उसका कोई नाम नहीं लेता। यही भाग्य कुछ अन्य अल्प प्रसिद्ध मतों का भी हुआ है,जिनमें ऐतिहासिक सत्य की अपेक्षा उनके उद्भावकों का बुद्धि-वैचित्र्य ही अधिक दिखाई पड़ता है । इस प्रकार कुछ 'पल्लि' (गाँव) शब्द से ‘पालि' भाषा की उत्पत्ति बताकर उसे ग्रामीण भाषा बताना चाहते हैं, कुछ प्राकृत-पाकट-पाअड-पाअल-पालि इस प्रकार उसकी व्युत्पत्ति करना चाहते हैं, कुछ संस्कृत 'प्रालेय' या 'प्रालेयक' (पड़ोसी) शब्द से उसकी व्युत्पत्ति बताकर उसमें एक विशिष्ट ऐतिहासिक तथ्य की खोज करना चाहते हैं । यह सब अन्धकार ही अन्धकार है। हाँ, 'अभिधानप्पदीपिका' के 'पालि' शब्द के महत्वपूर्ण अर्थ को लेकर हमें कुछ और विचार कर लेना चाहिये । 'पालि' शब्द को तन्ति ' (संस्कृत तन्त्र) 'बुद्धवचन' और 'पंक्ति' का समानार्थवाची मानते हुए इसकी व्युत्पत्ति वहाँ की गई है--"पा-पालेति रक्खतीति पालि' अर्थात् जो पालन करती है,रक्षा करती है, वह 'पालि' है। किसको पालन करती है ? किसकी रक्षा करती है ? स्पष्टतम उत्तर है बुद्ध-वचनों को। 'पालि' ने किस प्रकार बुद्ध-वचनों का पालन किया, किस प्रकार उनकी रक्षा की ? एक उत्तर है त्रिपिटक के रूप में उनका संकलन कर के, १. इंडियन हिस्टोरिकल क्वार्टरली, दिसम्बर १९२८ पृष्ठ ७७३; मिलाइये विटरनित्जः इंडियन लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ ६०५ (परिशिष्ट दूसरा); लाहाः पालि लिटरेचर, जिल्द पहली, पृष्ठ १८ (भूमिका); देखिये बुद्धिस्टिक स्टडीज (डा० लाहा द्वारा सम्पादित) पृष्ठ ७३०-३१ में डा० कीय द्वारा मैक्स वेलेसर के मत का खण्डन भी। २. देखिये जहांगीरदार-कृत कम्पेरेटिव फिलॉलॉजी आँव दि इन्डो आर्यन लेंग्वेजेज में पालि-सम्बन्धी विवेचन। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा उत्तर है लंकाधिपति वट्टगामणि के समय में उनको लेखबद्ध कर के। त्रिपिटक का संकलन किया, इसलिये ‘पालि' 'बुद्ध-वचन' है, त्रिपिटक को लेखबद्ध किया, इसलिये ‘पालि' 'पंक्ति' है। ऐसा मालूम पड़ता है 'अभिधानप्पदीपिका' कार ने 'पालि' शब्द के इस पालन करने या रक्षा करने सम्बन्धी अर्थ पर जोर देकर उस महत्वपूर्ण ऐतिहासिक कार्य की ओर संकेत किया है,जो सिंहल में सम्पादित किया गया और जिसके विषय में 'महावंश' में लिखा है “त्रिपिटक की पालि (पंक्ति) और उसकी अट्ठकथा को, जिन्हें पूर्व में महामति भिक्षु कंठस्थ कर के ले आये थे, प्राणियों की (स्मृति-) हानि देख कर, भिक्षुओं ने एकत्रित हो, धर्म की चिरस्थिति के लिये पुस्तकों में लेखबद्ध करवाया।"१ कुछ भी हो, ‘पालि' शब्द के इतिहास की दृष्टि से 'अभिधानप्पदीपिका' की निरुक्ति अवश्य महत्वपूर्ण है, यद्यपि वह ‘पालि' शब्द के मौलिक रूप 'परियाय' पर विचार नहीं करती। वह केवल उसका समानार्थवाची 'बुद्ध-वचन' शब्द दे देती है । कुल मिलाकर हम कह सकते हैं कि 'पालि' शब्द की निरुक्ति और उसका अर्थ-निर्वचन जो 'परियाय' या 'पलियाय शब्द में उसके मुल रूप को खोजता है, हमारे. वर्तमान ज्ञान की अवस्था में एक मान्य सिद्धान्त है । 'तत्तु समन्वयात्' । पालि भाषा ऊपर हमने चौदहवीं शताब्दी तक का 'पालि' शब्द का इतिहास देखा है। इस बीच हमें एक भी उदाहरण ऐसा न मिला जिसमें 'पालि' शब्द का प्रयोग भाषा-विशेष के अर्थ में किया गया हो। फिर कब इस शब्द का प्रयोग बुद्ध-वचन के स्थान पर जिस भाषा में बुद्ध-वचन लिखे गये, उसके लिये होने लगा, इसका निर्धारण करना कठिन है । फिर भी हुआ यह बड़े स्वाभाविक नियम के आधार पर। पहले तन्ति' या त्रिपिटक की भाषा को द्योतित करने के लिये सिंहल में 'तन्तिभाषा' जैसा सामासिक शब्द प्रचलित हुआ। उसी का समानार्थवाची शब्द 'पालि-भाषा' भी वाद में प्रयुक्त होने लगा। पालि-भाषा' अर्थात् पालि (बुद्धवचन) की भाषा। बाद में स्वयं 'पालि' शब्द ही भाषा के लिये प्रयुक्त होने लगा। आज 'पालि' से तात्पर्य हम उस भाषा से लेते हैं, जिसमें स्थविरवाद बौद्धधर्म का ४. ३३।१००-१०१; देखिये महावंश पृष्ठ १७८-७९ (भदन्त आनन्द कौसल्या यन का अनुवाद) Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १० ) तिपिटक और उसका सम्पूर्ण उपजीवी साहित्य रक्खा हुआ है। किन्तु 'पालि' शब्द का इस अर्थ में प्रयोग स्वयं पालि-साहित्य में भी कभी नहीं किया गया है। जिस भाषा में तिपिटक लिखा गया है, उसके लिये वहाँ मागधो, मगध-भाषा, मागधा निरुक्ति, मागविक भाषा जैसे शब्दों का ही व्यवहार किया गया है, जिनका अर्थ होता है मगध-देश में बोले जाने वाली भाषा । इस प्रकार के प्रयोगों के कुछएक उदाहरग ही यहां पर्याप्त होंगे, यथा, मागधानं निरुत्तिया परिवत्तेहि (मागधो भाषा में रूपान्तरित करो)--महावंश, परिच्छेद ३७ ...... भातिस्तं मागवं सद्द लक्खमं (मागधो भाषा के व्याकरण का निरूपण करूँगा)मोग्गल्लान-व्याकरग का आदि श्लोक, आदि। सिंहली परम्परा के अनुसार मागवो ही वह 'मूल' भाषा है, जिसमें भगवान् बुद्ध ने उपदेश दिये थे और जिसमें ही उसका संग्रह 'तिपिटक' नाम से किया गया था। इसी अर्थ को व्यक्त करते हुए कच्चान-याकरण में कहा गया है “सा मागवी मूल भासा....सम्बुद्धा चापि भासरे" (मागधी ही वह मूल भाषा है जिसमें ..... सम्यक् सम्मुद्ध ने भी भाषण दिया )अकथाचार्य भगवान् बुद्धघोष की भी यही मान्यता थी सम्मामम् द्वेन वृत्त पकारो मागधको वोहारो" (सम्यक् सम्बुद्ध के द्वारा प्रयुक्त मागधी भाषा-त्रयोग)--सतन्तपासादिका । इस रूप में मागधी भाषा की प्रतिष्ठा स्थविरवादी बौद्ध साहित्य में इतनी अधिक है कि कहीं कहीं उसके गौरव के विषय में इतना अधिक अर्थवाद कर दिया गया है कि वह आधुनिक ऐतिहासिक बुद्धि को कुछ अवरता भी है। मागधी भाषा को यहाँ सम्पूर्ण प्राणियों की आदि भाषा ही मान लिया गया है। आचार्य बुद्वयोष ने 'विसुद्धिमग्ग' में कहा है "मागधिकाय सब्बसत्तानं मूलभासाय” (सम्पूर्ण प्रागियों को मूल भाषा मागधी का)। इसो प्रकार महावंश, परिच्छेद ३७ में कहा गया है "सब्बे मूलभासाय मागधाय निरुतिया" (सम्पूर्ग प्राणियों की मूल भाषा मागधी भाषा का) आदि। निश्चय ही सिंहली परम्परा अपनी इस मान्यता में बड़ी दढ है कि जिसे हम आज ‘पालि' कहते हैं. वह बुद्धकालीन भारत में बोले जाने वाली मगव को भाषा ही थी। कहाँ तक या किन अर्थों में यह परम्परा ठीक है, यह हमारे अध्ययन की सम्भवतः सब से अधिक महत्वपूर्ण समस्या है। पालि स्वाध्याय के प्रयम युग में उपर्युक्त सिंहली परम्परा सिंहली भिक्षुओं की एक मनगढ़त कल्पना मानो जातो थो। ओल्डनबर्ग ने इस मान्यता के प्रचार में काफी योग दिया था। अनेक प्रसिद्ध भारतीय विद्वान् भी उनके इस प्रवाह में बह गये Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थे। किन्तु उसके बाद इस दिशा में जो महत्वपूर्ण गवेषण-कार्य हुआ है, उससे अब हमें पथभ्रष्ट होने की आवश्यकता नहीं है । इस महत्वपूर्ण समस्या पर हम अभी भारतीय भाषाओं के विकास में पालि की पृष्ठभूमि को देखने के बाद आयेंगे। भारतीय भाषाओं के विकास में पालि का स्थान भारतीय भाषाओं का इतिहास तीन युगों या विकास-श्रेणियों में विभक्त किया गया है (१) प्राचीन भारतीय आर्य-भाषा युग (वैदिक युग.से ५०६ ईसवी पूर्व तक (२) मध्यकालीन भारतीय आर्य-भाषा युग (५.०० ईसवी पूर्व में १००० ईसवी तक (३) आधुनिक आर्य-भाषा युग (१००० ईसवी से अब तक) ! प्रथम युग की भाषा का नमूना हमें ऋग्वेद की भाषा में मिलता है। उसमें तत्कालीन अनेक बोलियों का सम्मिश्रण है। ऋग्वेद की भाषा का विकास अन्य वेदों. ब्राह्मण-ग्रन्थों और सूत्र-ग्रन्थों में हुआ है । मध्यकालीन भारतीय आर्य-भाषा युग में एक ओर वेद की भाषा की विविधता को नियमित किया गया, उसे एकरूपता प्रदान की गई, जिसके परिणाम स्वरूप एक राष्ट्रीय, अन्तर्घान्तीय साहित्यिक भाषा का 'संस्कृत' के नाम से विकास हुआ और दूसरी ओर उसी के समकालिक. ऋग्वेद की विविधतामयी भाषा अनेक प्रान्तीय बोलियों के रूप में विकास ग्रहण करती गई । जब भगवान् बुद्ध ने मगध-प्रान्त में भ्रमण करते हुए वहाँ की जनभाषा में उपदेश दिया तो यह वही ऋग्वेद की विविधतामयी भाषा के प्रान्तशः विकसित रूपों में से एक थी। तथागत के 'वाचनामग्ग' होने का गौरव मिलने के कारण इसका भी रूप बाद में राष्ट्रीय हो गया और इसी कारण अनेक बोलियों, प्रान्तीय भाषाओं और उपभाषाओं का संमिश्रण भी इसमें हो गया। इसे हम आज 'पालि' भाषा कहते हैं। इस प्रकार संस्कृत और पालि का विकास समकालिक है। मध्यकालीन भारतीय आर्य-भाषा युग में इस जन-भाषा के विकास के हम तीन स्तर देखते हैं (१) पालि और अशोक की धर्मलिपियों की भाषा (५०० १. डा० विमला चरण लाहा जैसे आधुनिक विद्वान् भी हम मोह से मुक्त नहीं हो पाये हैं। देखिये उनका हिस्ट्री ऑव पालि लिटरेचर, जिल्द पहली, पृष्ठ, ११ (भूमिका) जहां उन्होंने मागधी निरुक्ति को सिंहली भिक्षुओं की शुद्ध गढंत कहा है। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) ईसवी पूर्व से १ ईसवी पूर्व तक (२) प्राकृत भाषाएँ (१ से ५०० ईसवी तक ) (३) अपभ्रंश भाषाएँ (५०० ईसवी से १००० ईसवी तक । आधुनिक युग में आकर इन्हीं अपभ्रंश भाषाओं से हमारी हिन्दी, मराठी, गुजराती आदि वर्तमान प्रान्तीय भाषाओं का विकास हुआ है। इस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के बाद अब हमें पालि भाषा के स्वरूप आदि पर कुछ अधिक स्पष्टता के साथ विचार करना है । पालि किस प्रदेश की मूल भाषा थी ? पालि भाषा के विषय में सब से अधिक महत्वपूर्ण प्रश्न है - वह किस प्रदेश की मूल भाषा थी ? सिंहली परम्परा उसे मागधी या मगध की भाषा मानती है, यह हम अभी कह ही चुके हैं । किन्तु यह समस्या इतनी सस्ती निबटने वाली नहीं है । विद्वानों के एतद्विषयक मतों का यदि संग्रह किया जाय तो वह एक लम्बी सूची होगी। सभी मत उसे भिन्न भिन्न प्रान्तों की भाषा मानने के पक्षपाती हैं । कुछ विद्वानों के मतों का निदर्शन करना यहाँ आवश्यक होगा । (१) प्रोफेसर रायस डेविड्स ' -- पालि भाषा का आधार कोशल प्रदेश में छठी और सातवीं शताब्दी ईसवी पूर्व में बोले जाने वाली भाषा थी । कारण (१) भगवान् बुद्ध कोशल प्रदेश के थे, अतः उनकी मातृभाषा यही थी और इसी में उन्होंने उपदेश दिये थे (२) भगवान् बुद्ध के परिनिर्वाण के बाद सौ वर्ष के भीतर प्रधानतः कोशल प्रदेश में ही उनके उपदेशों का संग्रह किया गया । (२, ३) वैस्टरगार्ड और ई० कुहन -- पालि उज्जयिनी - प्रदेश की बोली थी । कारण (१) गिरनार (गुजरात) के अशोक के शिलालेख से इसका सर्वाधिक साम्य है (२) कुमार महेन्द्र ( महिन्द ) जिन्होंने लंका में बौद्ध धर्म का प्रचार किया और पालि त्रिपिटक को वहाँ पहुँचाया, की मातृ भाषा यही थी । (४) आर० ओ० फ्रैंक ४ -- पालि भाषा का उद्गम स्थान विन्ध्य-प्रदेश १. बुद्धिस्ट इन्डिया, पृष्ठ १५३-५४; केम्ब्रिज हिस्ट्री अव इन्डिया, जिल्द पहली, पृष्ठ १८७; पालि डिक्शनरी, पृष्ठ ५ ( प्राक्कथन ) २. ३,४,५ लाहाः पालि लिटरेचर, जिल्द पहली, पृष्ठ ५०-५६ ( भूमिका ) ; बुद्धिस्टिक स्टडीज (डा० लाहा द्वारा सम्पादित ) पृष्ठ २३३ देखिये गायगरः पालि लिटरेचर एंड लेंग्वेज पृष्ठ ३-४ (भूमिका) विंटरनित्ज: इंडियन लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ ६०४ (परिशिष्ट दूसरा ) Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। कारण (१) गिरनार-शिलालेख से उसका सर्वाधिक साम्य है । निषेधात्मक कारण देते हुए फ्रैंक ने कहा है कि पालि उत्तर भारत के पूर्वी भाग की भाषा नहीं हो सकती, उत्तर-पश्चिमी भाग के खरोष्ट्री लेखों से भी उसकी समानताएँ और असमानताएं दोनों हैं, इसी प्रकार दक्षिण के लेखों की भाषा से भी उसकी विभिन्नता है। अधिकतर उसका साम्य मध्य-देश के पश्चिमी भाग के लेखों से है, यद्यपि यहाँ भी कुछ असमानताएँ हैं। अतः पालि भाषा का उद्गम-स्थान 'विन्ध्य के मध्य और पच्छिमी भाग का प्रदेश' है। (५) स्टैन कोनो५----विन्ध्य-प्रदेश पालि-भाषा का उद्गम-स्थान है। कारण (१) पैशाची प्राकृत से पालि का अधिक साम्य है । (२) पैशाची प्राकृत विन्ध्य-प्रदेश में उज्जयिनी के आसपास बोली जाती थी। यहाँ यह स्मरण रखना आवश्यक होगा कि पैशाची प्राकृत-सम्बन्धी स्टैन कोनो का यह मत प्रसिद्ध भाषातत्वविद् ग्रियर्सन के मत से नहीं मिलता, जिसके अनुसार पैशाची प्राकृत केकय और पूर्वी गान्धार की बोली थी। ग्रियर्सन का मत ही अधिक युक्तियुक्त माना गया है। (६) डा० ओल्डनबर्ग पालि कलिग देश की भाषा थी। कारण (१) लंका के पड़ोसी होने के कारण कलिंग से ही लंका में धर्मोपदेश का कार्य शताब्दियों के अन्दर सम्पादित किया गया। (२) खंडगिरि के शिलालेख से पालि का अधिक साम्य है । ओल्डनबर्ग के मत को समझने के लिये यह जानना आवश्यक होगा कि महेन्द्र द्वारा लंका में बुद्ध-धर्म के प्रचार की बात को ओल्डनबर्ग ने ऐतिहासिक तथ्य नहीं माना है। उनके मतानुसार कलिंग के निवासियों ने लंका में बुद्ध-धर्म का प्रचार किया और इसमें कई शताब्दियाँ लगीं। (७) ई० मुलर२--कलिंग ही पालि का उद्गम-स्थान है। कारण, यहीं से सब से पहले लोगों का लंका में जाकर बसना और धर्म प्रचार करना अधिक संगत है। आगे के मतों का निर्देश करने के पूर्व उपर्युक्त मतों की कुछ समीक्षा कर लेना आवश्यक होगा। इन मव मनों में मव मे मुख्य बात यह है कि ये सभी मत १. विनय-पिटक (डा० ओल्डनबर्ग द्वारा रोमन अक्षरों में सम्पादित) जिल्द पहली, पृष्ठ १-५६ (भूमिका) २. सिम्पलीफाइड ग्रामर ऑव दि पालि लेग्वेज, पृष्ठ ३ (भूमिका) Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४ ) पालि भाषा की उत्पत्ति केविषय में सिंहली परम्परा से असहमत हैं। पालि भाषा के मागधी आधार को वे किसी भी अर्थ में स्वीकार नहीं करते। केवल रायस डेविड्स के मत में उसके लिये कुछ अवकाश अवश्य है। भगवान् कोशल में उत्पन्न हुए, मगव में घूमे-फिरे, अतः उनके उपदेशों का माध्यम कोशल की भाषा भी हो सकती थी, मगध को भाषा भी और उनका संमिश्रण भी। किन्तु रायस डेविड्स का अपने मत को सिद्ध करने के लिये यह अनुमान करना कि अशोक के अभिलेखों की भाषा छठी और सातवीं शताब्दी ईसवी पूर्व की कोशल प्रदेश में बोले जाने वाली भाषा का ही विकसित रूप है, अथवा यह कि अशोककालीन मगध-शासन की राष्ट्र-भाषा कोशल प्रदेश की टकसाली भाषा ही थी, ठीक नहीं माना जा सकता। प्रतिवेशी कोशल राज्य के मगध में सम्मिलित हो जाने के बाद मगध साम्राज्य जब अपनी चरम उन्नति पर पहुंचा तो यही मानना अधिक युक्तिसंगत है कि भगध की भाषा को ही राष्ट्र-भाषा होने का गौरव मिला। हाँ, चारों ओर की जनपद-बोलियों को भी, जिनमें एक प्रधान कोशल प्रदेश की बोली भी थी, उसमे अपना उचित स्थान मिला। एक सार्वदेशिक, टकसाली, राष्ट्र-भाषा के निर्माण में प्रादेशिक बोलियों का इस प्रकार का सहयोग सर्वथा स्वाभाविक है। अतः कोशल-प्रदेश की बोली का भी अन्तर्भाव मगध की राष्ट्र-भाषा (मागधी भाषा) में हो गया था, ऐसा हम कह सकते हैं। वैसे यदि रायस डेविड्स के मत को उसके मौलिक रूप में देखा जाय तो उसका कोई आधार ही नहीं मिलता, क्योंकि जमा डा० विन्टरनित्ज़ ने भी कहा है, छठी और सातवीं शताब्दी ईसवी पूर्व की कोशल प्रदेश की बोली की आज हमारी जानकारी ही क्या है, जिसके आधार पर हम उसे पालि का मूल रूप मान सकें' : वैस्टरगार्ड, ई० कह न, फ्रैंक और स्टैन कोनो के ऊपर निर्दिष्ट मत भी, जो किसी न किसी प्रकार विन्ध्य-प्रदेश को पालि का जन्म-स्थान मानते हैं, एकांगदर्शी हैं। अधिक से अधिक वे पालि भाषा के मिश्रित रूप को, जो एक साहित्यिक एवं अन्तर्घान्तीय भाषा के लिये सर्वथा अनिवार्य है, अंजित करते हैं। इससे अधिक उनका और कुछ महत्व नहीं है। फ्रैंक ने विन्ध्य १. इंडियन लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ ६०५ (परिशिष्ट २); डा० कोथ ने भो रायस डेविड्स के मत का खंडन किया है। देखिये इंडियन हिस्टोरिकल क्वार्टरली, सितम्बर १९२५ में प्रकाशित कीथ का 'पालि दि लेंग्वेज ऑव सदर्न बुद्धिस्ट्स्' शीर्षक निबन्ध । Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५ ) प्रदेश के मध्य और पच्छिमी भाग को पालि का उद्गम स्थान बताने के अतिरिक्त एक और विचित्र बात कही है। उन्होंने सामान्यतः पालि समझे जाने वाली भाषा ( अर्थात् त्रिपिटक और उसके उपजीवी साहित्य की भाषा) के लिये तो 'साहित्यिक पालि' शब्द का प्रयोग किया है और 'पालि' शब्द से उन्होंने बुद्धकालीन भारत में बोले जाने वाली अन्य सब आर्य भाषाओं को अभिप्रेत करना चाहा है । फ्रैंक का यह पारिभाषिक शब्द निर्माण भ्रमात्मक ही सिद्ध हुआ है । जिन आर्यभाषाओं को उन्होंने 'पालि' कहा है, उनके लिए भारतीय साहित्य में प्राकृत भाषाओं का नाम रूढ़ है और आज भी उनका यही नाम प्रचलित है । अत: उसी का प्रयोग करना अधिक उचित जान पड़ता है । त्रिपिटक की भाषा के लिए केवल 'पालि' नाम पर्याप्त है । उसके साथ 'साहित्यिक' लगाने से भ्रम पैदा होने की आशंका हो जाती है । स्टैन कोनो का मत पैशाची प्राकृत को उज्जयिनी प्रदेश की बोली बतलाता है और इस प्रकार भाषातत्वविदों के सामने एक नई समस्या खड़ी कर देता है । वास्तव में उनका यह मत विद्वानों को कभी ग्राहय नहीं हुआ है और पैशाची को केकय और पूर्वी गान्धार की बोली मानना ही सब प्रकार ऐतिहासिक और भाषावैज्ञानिक तथ्यों से संगत है । ओल्डनबर्ग और ई० मुलर के मत प्रधानतः कल्पनाप्रसूत हैं । ओल्डनबर्ग को अपने मत-स्थापन में महेन्द्र के लङ्का में धर्म-प्रचार संबंधी कार्य को भी, जो अन्यथा सब प्रकार ऐतिहासिक तथ्यों से सिद्ध है, अनैतिहासिक मानना पड़ा है। इसी से उनके मत की गंभीरता का पता लग जाता है । खंडगिरि के शिलालेख के साक्ष्य पर पालि का जन्म-स्थान कलिंग बतलाना उतना ही अपूर्ण सिद्धांत है जितना गिरनार के शिलालेख के आधार पर उसे उज्जयिनी - प्रदेश की बोली ठहराना । पालि के प्रांतीय कारणों से उत्पन्न मिश्रित स्वरूप को दिखाने के अतिरिक्त इन मतों का अन्य कोई साक्ष्य या महत्व नहीं है । जिन विद्वानों ने पालि-भाषा के मागधी आधार को स्वीकार किया हैं, अथवा जिन्होंने सिंहली परम्परा को कुछ विशिष्ट अर्थों में समझने का प्रयत्न किया है, उनमें जेम्स एल्विस, चाइल्डर्स, विंडिश, विन्टरनित्ज़, ग्रियर्सन और गायगर के १. देखिये आगे दूसरे अध्याय में 'पालि साहित्य का उद्भव और विकास' सम्बन्धी विवेचन Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६ ) अधिक प्रसिद्ध हैं । भिक्षु सिद्धार्थ' और भिक्षुजगदीश काश्यप जैसे भारतीय बौद्ध विद्वानों ने भी इसी मत का प्रतिपादन किया है । जेम्स एल्विस और चाइडर्स की यह मान्यता है कि 'मागधी' ही पालि भाषा का मौलिक और सबसे अधिक उपयुक्त नाम है । जेम्स एल्विस के मतानुसार बुद्धकालीन भारत में १६ प्रादेशिक बोलियाँ प्रचलित थीं । इनमें 'मागधी' बोली में, जो मगध में बोली जाती थी, भगवान् बुद्ध ने उपदेश दिये थे । विंडिश ने भी पालि के 'मागधी' आधार को सिद्ध करने का प्रयत्न किया है । विंटरनित्ज़ का मत भी इसी के समान है। उनका कहना है कि पालि एक साहित्यिक भाषा थी, जिसका विकासअनेक प्रादेशिक बोलियों के समिश्रण से हुआ था, जिनमें 'प्राचीन मागधी' प्रधान थी । ग्रियर्सन ने पालि मागधी आधार को तो स्वीकार किया है, किन्तु पालि में तत्कालीन पश्चिमी वोलियों के प्रभाव को देखकर उन्हें यह मानना पड़ा है कि पालिका आधार विशुद्ध मागधी न होकर कोई पश्चिमी बोली है। इसी को सिद्ध करने के लिए उन्होंने यह कल्पना कर डाली है कि पालि का विकास मागधी भाषा के उस रूप से हुआ जो तक्षशिला विश्वविद्यालय में बोला जाता था और जिसमें ही त्रिपिटक का संस्करण वहाँ किया गया था । किन्तु न तो मागधी भाषा के वहाँ शिक्षा के माध्यम के रूप में प्रयुक्त होने की और न उसमें त्रिपिटक के वहाँ संकलित होने की कोई अकाट्य युक्ति ग्रियर्सन या अन्य किसी विद्वान् ने अभी तक दी है । ५ जर्मन विद्वान् गायगर का मत उपर्युक्त सभी मतों से अधिक परिपूर्ण और ग्राहय है। उनके अनुसार पालि मागधी भाषा का ही एक रूप है, जिसमें भगवान् बुद्ध ने उपदेश दिये थे । यह भाषा किसी जनपद - विशेष की बोली नहीं थी, बल्कि सभ्य समाज में बोले जाने वाली एक सामान्य भाषा थी, जिसका विकास बुद्ध-पूर्व युग से हो रहा था । इस प्रकार की अन्तर्प्रान्तीय भाषा में स्वभा १. बुद्धिस्टिक स्टडीज़ (डा० लाहा द्वारा सम्पादित ) पृष्ठ ६४१-५६ २. पालि महाव्याकरण की वस्तुकथा । ३. इंडियन लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ १३ ४. भांडारकर कमेमोरेशन वोल्यूम, पृष्ठ ११७- १२३ ( ग्रियर्सन का 'दि होम ऑव लिटररी पालि' शीर्षक लेख) ५. यह आलोचना डा० कीथ की है। देखिये उनका 'दि होम अाँव पालि' शीर्षक निबन्ध, 'बुद्धिस्टिक स्टडीज' (डा० लाहा द्वारा सम्पादित ) पृष्ठ ७३९ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वतः ही अनेक बोलियों के तत्व विद्यमान थे। एक मगध का निवासी इसे एक एक प्रकार से बोलता था, कोशल का दूसरी प्रकार से और अवन्ती का किसी तीसरे प्रकार से यद्यपि भगवान् बुद्ध मगध प्रदेश के नहीं थे, किन्तु उनका जीवन-कार्य अधिकांश वहीं संपादित किया गया था। अतः मगध की बोली की उनकी भाषा पर अमिट छाप पड़ी होगी। इसलिए उनकी भाषा को आसानी से 'मागधी' कहा जा सकता है, फिर चाहे उसमें मागधी बोली की कुछ विशेषताएँ भले ही उपलब्ध न हों। अतः गायगर के मतानुसार पालि विशुद्ध मागधी तो नहीं थी, किन्तु उस पर आश्रित एक लोक-भाषा थी, जिसमें भगवान् बुद्ध न अपने उपदेश दिये थे । वास्तव में पालि कहाँ तक या किन अर्थों में मागधी थी या नहीं, यह हमारे अध्ययन की सबसे बड़ी समस्या है । जिस मागवी का विवरण उत्तरकालीम प्राकृत-वैयाकरणों ने दिया है या जिसके स्वरूप का दर्शन कतिपय अभिलेखों या नाटक-ग्रन्थों में होता है, उससे तो पालि निश्चयतः भिन्न है, ऐसा कहा जा सकता है। प्राकृत-व्याकरणों ,अभिलेखों और नाटक-ग्रन्थों की मागधी का विकास पालि के बाद हुआ है। इस प्रकार की मागधी भाषा के रूप की दो प्रधान विशेषताएँ हैं (१) प्रत्येक र् और स् का क्रमशः ल और श् में परिवर्तित हो जाना (२) पुल्लिङ्ग और नपुंसकलिङ्ग अकारान्त शब्दों का प्रथमा विभक्ति एक वचन का रूप एकारान्त होना। पालि में र् रहता है, उसका 'ल' में परिवर्तन केवल अनि यमित रूप से कभी-कभी होता है, सर्वथा नियमानुसार नहीं। उदाहरणतः अशोक के पश्चिम के लेखों में राजा, पुरा, आरभित्वा जैसे प्रयोग मिलते हैं, किन्तु पूर्व के लेखों में उनके क्रमशः लाजा, पुलुवं, आलभितु रूप हो जाते हैं। 'स्' का 'श' में परिवर्तन तो पालि में होता ही नहीं। 'श्' पालि में है ही नहीं। केवल अशोक के उत्तर (मनसेहर) के शिलालेख में इसका प्रयोग अवश्य दृष्टिगोचर होता है, जैसे प्रियदशिन, प्रियदशि, प्राणशतसहस्रानि, आदि । पुल्लिङ्ग और नपुंसक लिंग अकारान्त शब्दों के रूप भी पालि में प्रथमा विभक्ति एकवचन में क्रमशः ओकारान्त और अनुस्वारान्त होते हैं, एकारान्त नहीं । 'राहुलोवादः' की जगह 'लाघुलोवादे' ,'बुद्धः' की जगह बुधे' 'मृगः' की जगह 'मिगे' आदि प्रयोग अशोक के कुछ शिलालेखों में अवश्य पाये जाते हैं और सुत्त-पिटक के कुछ अंशों में १. पालि लिटरेचर एंड लेंग्वेज, पृष्ठ ४-५ (भूमिका) Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी। किन्तु नियमतः ये प्रयोग नहीं पाये जाते । अतः जिस मागधी का निरूपण प्राकृत-वैयाकरण करते है, उसे पालि का आधार नहीं माना जा सकता । उसका विकास तो ,जैसा अभी कहा गया है, पालि के बाद हुआ है। पालि का आधार तो केवल वही मागधी या मगध की बोली हो सकती है जो मध्य-मंडल अर्थात् पश्चिम में उत्तर-कुरु से पूर्व में पाटलिपुत्र तक और उत्तर में श्रावस्ती से दक्षिण में अवन्ती तक फैले हुए प्रदेश की सामान्य सभ्य-भाषा के रूप में प्रतिष्ठित थी और जिसका विकास अनेक कारणों से गौरव प्राप्त करने वाली मगध की भाषा से हुआ और अनेक कारणों से ही जिसमें नाना प्रदेशों की बोलियों का संमिश्रण हो गया, जिसका साक्ष आज हम उसके सुरक्षित रूप ‘पालि' में पाते हैं। जिस प्रकार प्राकृत वैयाकरणों द्वारा विवेचित मागधी को पालि भापा का आधार नहीं माना जा सकता, उसी प्रकार जैन सत्रों की भापा अर्द्ध-मागधी या 'आर्ष' को भी उसका आधार स्वीकार नहीं किया जा सकता। उसका भी विकास पालि के वाद हुआ है । पच्छिम में शौरसनी और पूर्व में मागधी प्राकृत के बीच के क्षेत्र में जो भाषा बोली जाती थी, वह अपने मिश्रित स्वरूप के कारण 'अर्द्धमागधी कहलाती है। ध्वनि-समूह, शब्द-साधन और वाक्य-विचार की दृष्टि से पालि और अर्द्धमागधी में क्या समानताएँ या असमानताएं हैं, इसका विवेचन हम आगे पालि और प्राकृत भाषाओं का तुलनात्मक अध्ययन करते समय करेंगे । अभी लडर्स के उस मत का निर्देश करना है,जिसके अनुसार प्राचीन अर्द्धमागधी पालि भाषा का आधार है। लूडर्स का मत है कि मौलिक रूप में पालि त्रिपिटक प्राचीन अर्द्धमागधी भाषा में था और बाद में उसका अनुवाद पालि भाषा में, जो पच्छिमी वोली पर आश्रित थी, किया गया। अतः उनके मतानुसार आज त्रिपिटक में जो मागधी रूप दृष्टिगोचर होते हैं, वे प्राचीन अर्द्धमागधी के वे अवशिष्ट अंश मात्र है जो उसका पालि में अनुवाद करते समय रह गये थे' । लूडर्स का यह तर्क बिलकुल अनुमान पर आश्रित है । जिस प्राचीन अर्द्धमागधी को लूडर्स ने त्रिपिटक का मौलिक आधार माना है,उसके रूप का निर्णय करने के लिए सिवाय उनकी कल्पना के और कोई आधार नहीं है । जैसा कीथ ने ने कहा है, यह सिद्ध नहीं किया जा सकता कि लूडर्स द्वारा निर्मित या परिकल्पित प्राचीन अर्द्ध-मागधी का विकास १. देखिये बुद्धिस्टिक स्टडीज, पृष्ठ ७३४; गायगरःपालि लिटरेचर एंड लेंग्वेज,पृष्ठ ५; लाहाःहिस्ट्री ऑव पालि लिटरेचर, जिल्द पहली, पृष्ठ २०-२१(भूमिका) Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाद में अर्द्ध-मागधी प्राकृत के रूप में ही हुआ है । अतः लूडर्स ने तथाकथित 'प्राचीन अर्द्ध-मागधी' के रूप का निर्माण अशोक के शिलालेखों और बाद में अश्वघोष के नाटकों के अवशिष्ट अंशों से किया है। किन्तु यह अनुमानित निर्माण कार्य प्रमाण-कोटि में नहीं आ सकता। पालि भाषा में प्राप्त विभिन्नताओं की व्याख्या उसके प्रांतीय विकास और संमिश्रण, मौखिक परम्परा और एक भिन्न देश में त्रिपिटक के लिपिबद्ध किये जाने के परिणाम स्वरूप भी की जा सकती है। लूडर्स के समान ही एक मत प्रसिद्ध फ्रेंच विद्वान् सिलवाँ लेवी का है। उन्होंने यह प्रमाणित करने का प्रयत्न किया था कि पालि-त्रिपिटक मौलिक बुद्ध-वचन न होकर किसी ऐसी पूर्ववर्ती मागधी बोली का अनुवादित रूप है जिसमें ध्वनि परिवर्तन पालि भाषा की अपेक्षा अधिक विकसित अवस्था में था। पालि के ‘एकोदि' एवं 'संघादिसेस' जैसे शब्दों की उनके संस्कृत प्रतिरूप ‘एकोति' 'संघातिशेष' जैसे शब्दों के साथ तुलना कर उन्होंने त्रिपिटक के अन्दर एक ऐसी बोली के अवशिष्ट चिन्ह खोजने का प्रयत्न किया है, जिसमें शब्द के मध्य स्थित संस्कृत अघोष (कु, च, त्, प आदि) स्पर्शों के स्थान पर घोष (ग, ज, द्, ब् आदि) स्पर्श होने का नियम था। पालि त्रिपिटक और अशोक के शिलालेखों के कुछ विशेष शब्दों में, जिनमें उपर्युक्त नियम लागू होता है, लेवी ने प्राचीन मौलिक बुद्ध-वचन (जिन्हें उन्होंने ऐसा समझा है) में प्रयुक्त शब्दों के रूपों को खोजने का प्रयत्न किया है। उदाहरणतः भाव अभिलेख में 'राहुलोवाद' की जगह 'लाघुलोवादे' है, 'अधिकृत्य की जगह 'अधिगिच्य' है। लेवी का कहना है कि क (अघोष स्पर्श) के स्थान पर ग् (घोष स्पर्श) का होना पालि में तो बहुत अल्प ही होता है, इसी प्रकार अधिगिच्य' में 'च्य' भी पालि की प्रवृत्ति के अनुकूल नही है । इससे उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला है कि वर्तमान पालि त्रिपिटक एक ऐसी भाषा से अनुवाद किया हुआ है, जिसमें अघोप स्पर्शो (क्, त्, प आदि) का घोष स्पर्शो (ग, द्, ब् आदि) में परि• वर्तित हो जाना अधिक सीमा तक पाया जाता था। नीचे के कुछ उदाहरण लेवी के तर्कों को स्पष्ट करने के लिए अलं होंगे-~-- १. बुद्धिस्टिक स्टडीज (डा० लाहा द्वारा सम्पादित) पृष्ठ ७३४, पद-संकेत २ २. गायगर : पालि लिटरेचर एंड लेंग्वेज, पृष्ठ ५ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २० ) संस्कृत पालि माकन्दिक मागन्दिय कचंगल कजंगल अचिरवती अजिरवती पाराचिक पाराजिक ऋषिवदन इसिपतन इन उद्धरणों के आधार पर लेवी ने अनुमान किया है कि पालि त्रिपिटक अपने मौलिक रूप में उस ऐसी भाषा में था जिसमें शब्द के मध्य-स्थित अघोष स्पर्शों के घोष स्पर्शों में परिवर्तित होने का नियम था। लेवी के मत को गायगर ने प्रामाणिक नहीं माना है । उन्होंने इसके तीन कारण दिये हैं (१) लेवी ने 'संघादिसेस' ‘एकोदि' 'पाचित्तिय' (प्राचित्तिक) आदि शब्दों की जो निरुक्तियाँ दी हैं, वे सभी अनिश्चित है (२) अघोष स्पर्शों का घोष स्पर्शों में परिवर्तित होना केवल उपर्युक्त शब्दों में ही नहीं पाया जाता, अन्य अनेक शब्दों में भी इस नियम का पालन देखा जाता है, उदाहरणतः पालि उताहो उदाहु ग्रथित गधित व्यथते पवेधति (३) लेवी द्वारा निर्दिष्ट नियम का ठीक विपरीत अर्थात् संस्कृत घोष स्पर्शों का अघोष स्पर्शों में परिवर्तित हो जाना भी पालि में दृष्टिगोचर होता है-- संस्कृत पालि संस्कृत अगरु अकल परिघ पलिघ कुसीत मृदंग मुतिंग शावक चापक प्रावरण अतः गायगर के मतानुसार लेवी द्वारा निर्दिष्ट ध्वनि-परिवर्तन संबंधी उदा कुसीद पापुरण Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१ ) हरणों से हम उनके द्वारा निश्चित सिद्धांत पर नहीं पहुँच सकते । लेवी का मत पालि भाषा की केवल एक विचित्रता को बतलाता है और वह विचित्रता है उसका विविधतामय रूप, जिसकी व्याख्या हम नाना बोलियों के संमिश्रण के आधार पर ही कर सकते हैं। अत: लेवी का मत भी अन्ततोगत्वा पालि के मिश्रित स्वरूप को ही प्रकट करता है ।। ऊपर कुछ विद्वानों के मतों का उल्लेख और उनकी समीक्षा की जा चुकी है । अब बुद्ध-युग की परिस्थितियों और स्वयं त्रिपिटक के साक्ष्य पर पालि भाषा के मागधी आधार पर हम कुछ और विचार कर लें। यह निश्चित है कि भगवान् बुद्ध ने पैदल घूम घूम कर अपने उपदेश मध्य-मण्डल (मज्झिमेसु पदेसु) अर्थात् कोसी कुरुक्षेत्र से पाटलिपुत्र और विन्ध्य से हिमाचल के बीच के प्रदेश में दिये। यह भी निश्चित है कि उनके शिष्यों में नाना जाति, वर्ग और प्रदेशों के व्यक्ति सम्मिलित थे। इसी प्रकार यह भी निश्चित है कि भगवान् बुद्ध के उपदेश मौखिक थे और उनके महापरिनिर्वाण के अनन्तर दो-तीन शताब्दियों में उनका संकलन किया गया । उनका लिपिवद्ध रूप तो प्रथम शताब्दी ईसवी पूर्व में आकर हुआ, जब से वे उसी रूप में चले आ रहे हैं। इस इतने विकास की परम्परा में अनेक परिवर्द्धनों और परिवर्तनों की संभावना हो सकती है। भगवान् बुद्ध की 'चारों वर्णों की शुद्धि' और उसके विषय में उनकी कोई 'आचार्य-मुष्टि' (रहस्य-भावना) न होने के कारण हम यह तो स्वाभाविक ही मान सकते हैं कि नाना प्रदेशों से आये हुए भिक्षु अपनी-अपनी बोलियों में ही बुद्ध-वचनों को समझने का प्रयत्न करते होंगे। कम से कम अन्तरांतीय मागधी भाषा का व्यवहार करने पर भी उस पर अपनी बोलियों की कुछ छाप तो वे लगा ही देते होंगे । बाद में उन्हीं लोगों ने जब अपने सुने हुए के अनुसार बुद्ध वचनों का संकलन किया तो उनमें उन विभिन्नताओं का भी चला आना सर्वथा संभव था। अतः बुद्धवचनों की भाषा मल रूप से मागधी होने पर भी उसमें प्राप्त विविधरूपता की व्याख्या उपर्युक्त ढंग पर की जा सकती है। किन्तु गायगर ने मागधी को पालि का मूलाधार सिद्ध करने के लिए और यह दिखाने के लिए कि भाषा और विषय दोनों की ही दृष्टि से पालि-त्रिपिटक ही मूल बुद्ध-वचन है, एक ऐसे तर्क का उपयोग किया है जिसके बिना भी उनका काम चल सकता था। विनय-पिटक के चुल्लवग्ग में एक कथा है, जिसमें दो ब्राह्मण भिक्षु इस बात पर बड़े क्षब्ध होते दिखाये गये है कि नाना जाति और गोत्रों Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४ ) जाने तक का विरोध किया तो फिर वे किसी साधारण बोल चाल की भाषा में उन्हें रक्खे जाने का किस प्रकार आदेश दे सकते थे? उस दशा में तो उनके मौलिक अर्थों और प्रभाव में ही काफी अन्तर हो जाता।' “अतः निःसन्देह भगवान् बुद्ध ने अपने उपदेश मगध-देश की टकसाली भाषा में ही दिये और उसी में उनके शिष्यों ने उन्हें सीखा और फिर उपदेश किया।"२ भिक्षु सिद्धार्थ के इस मन्तव्य से किसी को विरोध नहीं हो सकता। चूंकि भगवान् बुद्ध ने मध्य-मंडल की सामान्य सभ्य-भाषा में ही अपने उपदेश दिये और उसी के विभिन्न स्वरूपों में उनके शिष्यों ने उन्हें सीखा, अतः आज हम कहना चाहें तो कह ही सकते हैं कि मागधी भाषा ही भगवान् बुद्ध के उपदेशों का माध्यम थी और उसी में उनके शिष्य उन्हें सीखते और उपदेश करते थे। इस दृष्टि से बुद्धघोष, गायगर और भिक्षु सिद्धार्थ के अर्थ ठीक हैं । किन्तु यदि उनके अर्थों से हम यह समझें कि स्वयं भगवान् बुद्ध और उनके शिष्यों को भगवान् बुद्ध की उपर्युक्त अनुज्ञा से वही अर्थ अभिप्रेत था जो बुद्धघोष, गायगर और भिक्षु सिद्धार्थ ने उसे दिया है, तो यह विलकुल गलत है। वास्तव में, हम बुद्ध की उपयुक्त अनुज्ञा की व्याख्या करने में बुद्धघोष या गायगर की अपेक्षा उस अनुज्ञा के ही पूर्वापर प्रसंग और बुद्ध की भावना से भी, जैसी वह अन्यत्र प्रस्फुटित हुई है, अधिक सहायता लेने के पक्षपाती हैं। विन्टरनित्ज ने कुछ स्पष्टतापूर्वक यह दिखाया है कि 'सकाय निरुत्तिया' का सम्बन्ध 'भिक्खवे' के साथ लगाने के लिये उसके साथ 'वो' शब्द का आना अनिवार्यत: आवश्यक नहीं है जैसा कि गायगर ने आग्रह किया है। उसे प्रसंग-वश भी समझा जा सकता है।३ डा० विमलाचरण लाहा ने पालि के मागधी आधार को स्वीकार नहीं किया है,अतः उन्होंने कुछ विस्तार से गायगर के मत का प्रतिवाद किया है।४ कीथ ने भी, जो १. बद्धिस्टिक स्टडीज़ (डा० लाहा द्वारा सम्पादित) पृष्ठ ६४८ 2. “There can be no doubt as to the fact that the Buddha preached his doctrine in the standard vernacular of the Magadha country and his disciples studied and taught it in that very language." बुद्धिस्टिक स्टडीज, पृष्ठ ६४९ ३. इन्डियन लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ ६०२ (परिशिष्ट दूसरा) ४, पालि लिटरेचर, जिल्द पहली, पृष्ठ ११-१६ (भूमिका) Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५ ) पालि को किसी पच्छिमी वोली पर आधारित मानते हैं, गायगर के परम्परावादी मत को स्वीकार नहीं किया है। वास्तव में बात यह है कि व्याकरण की दृष्टि से निर्दोष होते हुए भी गायगर की बुद्ध-अनुज्ञा की उपर्युक्त व्याख्या उस प्रसंग में ठीक नहीं बैठती, जिसमें वह आई है। अतः पालि भाषा के स्वरुप के सम्बन्ध में उस मत को सिद्ध करने के लिये, जो दूसरे प्रमाणों के आधार पर उनके द्वारा ही सुनिश्चित कर दिया गया है, पर्याप्त नहीं ठहरती। सामान्यतः गायगर का अर्थ इन कारणों से प्रमाणिक नहीं माना जा सकता। (१) प्रसंग में वह ठीक नहीं बैठता। पहले भिक्षु लोग ‘सकाय निरुत्तिया' (अपनी अपनी भाषा में) बुद्ध-वचनों को दूषित करते दिखाये गये हैं। इस पर ब्राह्मण भिक्षुओं ने उन्हें 'छन्दस्' में करने का प्रस्ताव रक्खा है। भगवान् ने इस प्रस्ताव का विरोध करते हुए ‘सकाय निरुतिया' बुद्ध वचनों को सीखने की अनुज्ञा दे दी है। स्पष्टतः प्रसंग के अनुसार यहाँ 'सकाय निरुत्तिया' का वही अर्थ लेना ठीक है जो पहले लिया गया है, अर्थात् 'अपनी अपनी भाषा में'। (२) किसी विशेष भाषा में बुद्ध वचनों को सीखना ६ कर देना भगवान् तथागत की प्रवृत्ति के विपरीत है। इस प्रकार उनका ‘धम्म' प्रकाशित नहीं होता, जो सारी प्रजाओं के लिये खुलने पर ही प्रकाशित होता है २ (३) भगवान बुद्ध का जोर शब्दों पर नहीं था, अर्थों पर था। कोई भी भाषा किसी अन्य भाषा से उनकी दृष्टि में उच्च अथवा हेय नहीं थी। न उन्हें संस्कृत से द्वेष था, न मागधी से मोह । वे केवल जीवित भाषा में उपदेश देना चाहते थे, जिससे लोग उन्हें आसानी से समझ सकें। मागधी का ऐसा ही माध्यम उन्हें अनायास मिल गया, जिसे उन्होंने प्रयुक्त किया। (४) जनपद-निरुक्तियों अर्थात भाषा के स्थानीय प्रयोगों में तथागत को अभिनिवेश नहीं था। किसी एक भाषाप्रयोग में उनका आग्रह नहीं था। उन्होंने स्वयं कहा है कि एक ही वस्तु 'पात्र' के १, इन्डियन हिस्टोरिकल क्वार्टरली, १, १९२५, पृष्ठ ५०१; बुद्धिस्टिक स्टडीज़ पृष्ठ ७३० २. ऐसाही अंगुत्तर-निकाय के तिक निपात में कहा गया है। देखिये विन्टरनिजः इन्डियन लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ ६३-६४; मिलिन्द-प्रश्न (भिक्षु जगदीश काश्यप का अनुवाद) पृष्ठ २३१ ३. किन्तिसुत्त (मज्झिम.३।१।३) Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) लिये किसी जनपद में 'पाति', किसी में 'पत्त' किसी में वित्थ' किसी में 'सराव.' किसी में 'धारोप' किसी में 'पोण' किसी में 'पिसील' शब्द का प्रयोग होता है, तो भिक्षुओं को किसी एक शब्द को ही लेकर यह समझ कर नहीं बैठ रहना चाहिये कि यही प्रयोग ठीक है और सब गलत । बल्कि उन्हें तो अपने भी जनपद के प्रयोग के प्रति ममता न रख कर जहाँ जैसा प्रयोग चलता हो, वहाँ उसी के अनुसार वरतना चाहिये ' । अतः मगध- जनपद के प्रयोग के प्रति भी तथागत का अभिनिवेश या पक्षपात - व्यवहार कैसे हो सकता था ? अतः गायगर का अर्थ ग्रहण नहीं हो सकता । १ जैसा हम ऊपर कह चुके हैं, गायगर की 'सकाय निरुत्तिया की व्याख्या के साथ असहमत होते हुए भी पालि भाषा के मागधी आधार को हम अस्वीकार नहीं कर सकते। अब तक हमने इस विषय सम्बन्धी जो विवेचन किया है वह हमें इमी निष्कर्ष की ओर पहुँचने के लिये वाध्य करता है कि पालि भाषा का विकास मध्यमंडल में बोले जाने वाली उस अन्तप्रान्तीय सभ्य भाषा से हुआ जिसमें भगवान् बुद्ध ने अपने उपदेश दिये थे और जिसकी संज्ञा बौद्ध अनुश्रुति के अनुसार 'मागधी' है । इसी 'मागधी' के विकसित, विकृत या अधिक ठीक कहें तो विभिन्न जनपदीय स्वरूप हमें अशोक के अभिलेखों की 'मागधी' में मिलते हैं । निश्चय ही इस अशोक-कालीन मगध-भाषा की उससे तीन सौ चार सौ वर्ष पूर्व बोले जाने वाली मगध-भाषा से, जो त्रिपिटक में सुरक्षित है, विभिन्नताएँ भी हैं। इन विभिन्नताओं के आधार पर ही ओल्डनवर्ग आदि विद्वानों ने यह निष्कर्ष निकाल डाला था कि पालि मागधी नहीं है । पालि को मागधी न मानने से उनका तात्पर्य, जैसा डा ई० जे० थॉमस ने दिखाया है, सिर्फ यही था कि पालि अशोक के अभिलेखों की भाषा नहीं है।` किन्तु यहाँ पर यह नहीं सोचा गया कि जो कुछ भी विभिन्नताएँ त्रिपिटक की भाषा और अशोक के अभिलेखों की भाषा में हैं, वे सब एक अन्नप्रान्तीय राजभाषा के प्रान्तीय प्रयोगों के आधार पर समझी जा सकती हैं। अशोक का उद्देश्य अपने विशाल साम्राज्य के विभिन्न जनपदों की सामान्य जनता तक अपने सन्देश को पहुँचाना था। जनपद-निरुक्तियों का अभिनिवेश उसके हृदय में १. देखिये अरणविभंग सुत्त ( मज्झिम. ३ | ४ |९ ) २. बुद्धिस्टिक स्टडीज, पृष्ठ २३४ (डा० ई० जे० थामस का " बुद्धिस्ट एजूकेशन इन पालि एंड संस्कृत स्कूल्स "शीर्षक निबन्ध) Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७ ) था नहीं । उसने जैसा प्रयोग जिस जनपद में चलता देखा, वैसा ही शिलालेखों में अंकित करवा दिया। इसी कारण उनमें उच्चारण आदि की अल्प विभिन्नताएँ मिलती हैं । एक ही लेख के पूर्व ( जौगढ़ ) पश्चिम ( गिरनार ) और उत्तर ( मनसे हर ) इन तीन संस्करणों का मिलान करने से यह भेद स्पष्ट हो जाता है । स्थानाभाव के कारण हम यहाँ इन तीनों अभिलेखों को उद्धृत तो नहीं कर सकते, ' किन्तु उनके आधार पर विभिन्न भाषा-स्वरूपों का अध्ययन करना आवश्यक है। उनके भाषा-स्वरूपों में मुख्य विभिन्नताएँ इस प्रकार हैं । (१) पश्चिम ( गिरनार) के शिलालेख में 'र्' का 'लू' में परिवर्तन नहीं होता । उदाहरणतः 'राजा', 'राज्ञा', 'पुरा', 'आरभित्वा' जैसे प्रयोग वहाँ दृष्टिगोचर होते हैं । उत्तर के शिलालेख (मनसेहर) में भी 'र्' का 'ल्' में परिवर्तन नहीं होता, किन्तु वहाँ प्रादेशिक उच्चारण-भेद अवश्य दृष्टिगोचर होता है । 'राजा', की जगह वहाँ 'रज', 'राज्ञा' की जगह 'राजिने', 'पुरा' की जगह 'पुर' और 'आरभित्वा' की जगह 'आरभितु' मिलते हैं । पूर्व के शिलालेख (जौगढ़) में 'र्' का 'लू' में परिवर्तन हो जाता है । वहाँ 'राजा' की जगह 'लाजा' है, 'राज्ञा' की जगह 'लाजिना' है, 'पुरा' की जगह 'पुलुवं' है और 'आरभित्वा' की जगह 'आलभितु' है । ( २ ) पश्चिम के लेख में ( सामान्यतः पालि के समान) केवल दन्त्य 'म्' का ही प्रयोग है । तालव्य 'श' और मूर्द्धन्य 'ष' वहाँ नहीं मिलते। इनकी जगह भी दन्त्य 'स्' का ही प्रयोग मिलता है । 'प्रियदसि' इसका उदाहरण है । पूर्व के लेख की भी यही प्रवृत्ति है । किन्तु उत्तर के लेख की आश्चर्यजनक प्रवृत्ति 'श्' और 'ष' दोनों को रखने की है । वहाँ 'प्रियदसि' ' (पश्चिम) या 'पियदसि' ( पूर्व ) की जगह 'प्रियदर्श' है । इसी प्रकार 'प्रियदसिना' या 'पियदसिना' की जगह 'प्रियदगिन' है। 'प्राणसतसहस्रानि (पश्चिम) या 'पानमत सहसानि ' ( पूर्व ) की जगह 'प्राणशतसहस्रानि' है । 'आरभरे (पश्चिम) या 'आलभियिसू' की जगह आश्चर्यजनक रूप से 'अरभिषंति' है ! ( ३ ) पुल्लिङ्ग अकारान्त शब्द के प्रथमा एक-वचन का रूप पश्चिम के अभिलेख में ओकारान्त है, जैसे 'एको मगो' । किन्तु पूर्व और उत्तर के अभिलेखों में वह एकारान्त हो गया है, जैसे 'एक मिगे' (पूर्व), 'एके ग्रिगे' (उत्तर) । (४) पूर्व के अभिलेख में व्यंजन रेफयुक्त होने पर रेफ की ध्वनि लुप्त होकर व्यंजन में ही मिल गई १. जिसके लिये देखिये भिक्षु जगदीश काश्यपः पालि महाव्याकरण, पृष्ठ तेतीस - चौंतीस ( वस्तुकथा) Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८ ) है, जैसे प्रियदर्शी से 'पियदसि'; प्राणाः से 'पानानि'। किन्तु पश्चिम और उत्तर के अभिलेखों में यह परिवर्तन नहीं हुआ है। वहाँ 'प्रियदसि', 'प्राणा' (पश्चिम) एवं 'प्रियशि' 'प्रणनि' (उत्तर) शब्दों में रेफध्वनि सुरक्षित है। (५) 'ऋ' के परिवर्तन में भी असमानता है। मृग से 'मगो' पश्चिम में है, 'मिगे' पूर्व में है, 'निगे' उत्तर में है। (६) पश्चिम का शिलालेख संस्कृत के अधिकतम समीप है। मिलाइये, पुरा महानसम्हि देवानं प्रियस प्रियदसिनो राओ अनुदिवसं बहुनि प्राणसतसहस्रानि आरभिस सूपाथाय (पश्चिम); पुलुवं महानससि देवानं पियस पियदसिने लाजिने अनुदिवसं बहुनि पानसतसहसानि आलभियिसु सुपठाये (पूर्व); पुर महनससि देवनं प्रियस प्रियदर्शिस राजिने अनुदिवसं बहुनि प्राणशत-सहस्रानि आरभिस सुपथये (उत्तर)। इन विभिन्नताओं के स्वरूप पर विचार करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि वे मौलिक न होकर एक ही सामान्य भाषा के प्रान्तीय या जनपदीय रूप हैं, जो उच्चारण-भेद से उत्पन्न हो गये हैं। मूल तो उन सब का एक ही है-- मगध की राज-भाषा-मागधी,जिसमें ४०० वर्ष पहले भगवान् बुद्ध ने अपने उपदेश दिये थे और जो आज तक अपने उसी प्रामाणिक किन्तु मिश्रित रूप में पालि त्रिपिटक में सुरक्षित है। पालि और वैदिक भाषा ऊपर अशोक की धर्मलिपियों में पाई जाने वाली पालि की विभिन्नताओं की ओर संकेत किया गया है। वास्तव में ये विभिन्नताएं पालि की जन्म-जात हैं। ये उसे वैदिक भाषा से उत्तराधिकार-स्वरूप मिली हैं। पालि का वैदिक भाषा से ऐतिहासिक दृष्टि से क्या सम्बन्ध है, इसका हम पहले विवेचन कर चुके हैं। यहाँ हम इन भाषाओं के स्वरूप की दृष्टि से ही विचार करेंगे। ऋग्वेद की रचना अनेक यगों में अनेक ऋषियों द्वारा की गई। अतः उसमें अनेक प्रादेशिक बोलियों का संमिश्रण मिलता है। ब्राह्मण-ग्रन्थों और सूत्र-ग्रन्थों में इसी भाषा के विकसित १. अशोक के पूर्वी, पश्चिमी और उत्तरी अभिलेखों के ही भाषा-तत्व पालि में मिलते हैं। जिन्होंने पूर्वी तत्त्वों पर जोर दिया है उन्होंने पालि को मागधी या अर्द्ध-मागधी पर आधारित माना है, जिन्होंने पश्चिमी तत्त्वों पर जोर दिया है, उन्होंने उसमें शौरसेनी के तत्त्व ढूंढ़े है और जिन्होंने उत्तरी तत्वों को प्रधानता दी है, उन्होंने उसमें पैशाची तत्त्व ढूंढ़े हैं। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २९ ) स्वरूप के दर्शन होते हैं । बाद में पाणिनि ने इसी भाषा की भिन्नरूपता को सुसम्बद्ध कर उसे साहित्यिक रूप प्रदान किया। यही संस्कृत' अर्थात् संस्कार की हुई भाषा कहलाई। ब्राह्मण-ग्रन्थों और यास्क या पाणिनि के काल के बीच में इस भाषा का व्यवस्थापन-कार्य हुआ। प्राचीन वेद की भाषा के साथ इसका विभेद दिखाने के लिये इसके लिये 'संस्कृत' शब्द का प्रयोग किया जाता है, जब कि वेद की भाषा का उपयुक्त नाम 'छन्दस्' है। वेद की भाषा जिस समय यास्क और पाणिनि के समय में और उसके कुछ पहले से सुसम्बद्ध होकर 'संस्कृत' के रूप में आर्यों के विज्ञान और धर्म की भाषा बन रही थी, उसी समय आर्यों की बोलचाल की भाषा भी विकसित होकर नया स्वरूप प्राप्त कर रही थी। मगध या कोशल के प्रान्तों में उसने जो स्वरूप प्राप्त किया, उसी के दर्शन हमें आज ‘पालि' के रूप में होते हैं। मगध-साम्राज्य के विकास के साथ इसी बोली ने एक व्यापक रूप धारण कर लिया। इस प्रकार हम देखते हैं कि एक ही वैदिक भाषा के आधार पर, एक ही मध्यकालीन आर्यभाषा-युग में, संस्कृत और पालि का विकास भिन्न भिन्न ढंगों से हुआ। वैदिक भाषा के एक ही शब्दों के क्रमशः पालि और संस्कृत में विकसित स्वरूपों को मिलान कर देखने से यह ऐतिहासिक तथ्य अच्छी तरह से समझा जा सकता है। वैदिक भाषा की सब से बड़ी विशेषता उसकी अनेकरूपता है। स्वभावतः इस अनेकरूपता का उत्तराधिकार संस्कृत की अपेक्षा पालि को ही अधिक मिला है। इस तथ्य का विशेष विवरण हम आगे पालि के शब्द-शोधन और वाक्यविचार का विवेचन करते समय करेंगे। यहाँ कुछ उदाहरण ही पर्याप्त होंगे। अकारान्त शब्दों के तृतीया बहुवचन में वैदिक भाषा में 'देवेभिः' 'कर्णेभिः' जैसे रूप मिलते हैं। संस्कृत ने इन रूपों को छोड़ दिया है। किन्तु पालि में ये 'देवेभि' 'देवेहि' 'कण्णेभि' 'कण्णेहि' आदि के रूप में सुरक्षित हैं। वैदिक भाषा में 'विश्वन्' 'च्यवन्' जैसे नपुंसक लिंग शब्दों के प्रथमा और सम्बोधन के बहुवचन के रूप 'विश्वा' 'च्यवना' जैसे आकारान्त होते हैं। पालि में यह प्रवृत्ति 'चित्ता' 'रूपा' जैसे प्रयोगों में दिखाई पड़ती है, किन्तु संस्कृत में नहीं पाई जाती। उत्तम पुरुष बहुवचन का वैदिक प्रत्यय ‘मसि' पालि में 'मसे' (वयमेत्थ यमामसे) के रूप में सुरक्षित है। इसी प्रकार प्रथम पुरुष बहुवचन में वैदिक भाषा में 'रे' प्रत्यय लगता है । संस्कृत में यह नहीं पाया जाता। किन्तु पालि में यह ‘पच्चरे' 'भासरे' जैसे प्रयोगों में सुरक्षित है । वेद में निमित्तार्थक 'तवे' प्रत्यय का बहुत प्रयोग होता है। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३० ) पालि में भी 'कातवे' 'गन्तवे' जैसे रूपों में यह सुरक्षित है। संस्कृत ने इस प्रयोग को छोड़ दिया है। इसी प्रकार अन्य अनेक शब्दों में हम यह प्रवृत्ति देखते हैं । संस्कृत 'आम्र' शब्द का वैदिक रूप 'आम्' है । पालि में यह 'अम्ब' है । पालि ने 'ब्' को रख लिया है ।" वैदिक अकारान्त पुल्लिङ्ग शब्दों के प्रथमा बहुवचन के रूप में 'असुक' प्रत्यय लग कर 'देवास:' जैसा रूप बनता था । पालि में भी यह 'देवासे' 'धम्मासे' 'बुद्धासे' जैसे रूपों में सुरक्षित है। संस्कृत ने इन रूपों को ग्रहण नहीं किया है । पालि और संस्कृत पालि और संस्कृत के ऐतिहासिक सम्बन्ध का विवेचन हम पहले कर चुके है । दोनों ही मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषाएँ हैं। दोनों ही समान स्रोत वैदिक भाषा से उद्भूत हुई हैं । किन्तु जैसा कबीर ने पन्द्रहवीं शताब्दी में लोकभाषा हिन्दी का संस्कृत से मिलान करते हुए संस्कृत को 'कूपजल' कह कर (हिन्दी) 'भाषा' को 'बहता नीर कहा था, वही बात हम पालि के विषय में भी कह सकते हैं । पालि वह बहता हुआ नीर था जो वैदिक काल से लेकर अप्रतिहत रूप से मध्य-मंडल में प्रवाहित होता हुआ चला आ रहा था। इसके विपरीत संस्कृत वह बद्ध महासरोवर था, जिसमें समस्त आर्य ज्ञान-विज्ञान अनुमापित कर दिया गया था। एक की गति अवरुद्ध थी, दूसरे में आवर्त -विवर्तों की लहरें सतत चलती रहीं । परिणामतः प्राकृतों की सीमा पार कर, अपभ्रंग के नाना विवर्त धारण कर, वह आज हमारी अनेक प्रान्तीय बोलियों के रूप में समाविष्ट हो गई है । संस्कृत 'पुराण युवती' है। पुरानी होते हुए भी वह सदा अपने मौलिक अभिराम रूप को धारण करती है। उसके जरा-मरण नहीं। इसके विपरीत पालि के कुमारी, युवती, वृद्धा स्वरुप हमें दृष्टिगोचर होते हैं । अन्त में वह अपनी सन्तानों के रूप में अपने को खो भी चुकी है। पालि त्रिपिटक में उसके बाल्य और तारुण्य का सामान्यतः दिग्दर्शन होता है, अनुपालि-साहित्य में सामान्यतः उसके वृद्धत्व का। उसके ये विभिन्न भाव एक ही व्यक्तित्व के विकार हैं, जो उसने काल और स्थान के भेद से ग्रहण किये हैं। जिन भाषा तत्व -विदों ने उसके इस रहस्य १. देखिये बुद्धिस्टिक स्टडीज़, पृष्ठ ६५५-५६ ( भिक्षु सिद्धार्थ का पालिभाषा सम्बन्धी निबन्ध) Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को नहीं समझा है, उन्होंने उसके आदि निवास-स्थान और स्वरूप आदि के विषय में अनेक एकांगदी मत प्रकट किए है, यह हम पहले देख ही चुके हैं। उद्गम की दृष्टि से पालि और संस्कृत सहोदरा है। जैसे दो सगी बहनों में एक का रूप कुछ अधिक निखरा हो, दोनों के स्वर-तन्त्रियों और शब्दों के समान होते हुए भी एक कुछ अधिक परिष्कार के साथ बोले, यही हालत पालि और संस्कृत की है। ध्वनि-समूह में तो कुछ अल्प विभिन्नताएँ है भी, किन्तु रूप-विधान में तो उतनी भी नहीं हैं। दोनों के ध्वनि, रूप और अर्थ का विस्तृत तुलनात्मक में अध्ययन करते समय यह हम अभी देखेंगे। पहले विकास-क्रम को पूरा करते हुए पालि-भाषा का सम्बन्ध प्राकृत भाषाओं के साथ देखें। पालि और प्राकृत भाषाएँ: विशेषतः अर्द्धमागधी, शौरसेनी और पैशाची प्राकृतों का विकास (१-५०० ई०) पालि के बाद का है। यह भी कहा जा सकता है कि पालि प्राकृत की प्रथम अवस्था का ही नाम है। हम पहले कह चुके कि अशोक के समय में पालि या तत्कालीन लोक-सामान्य भाषा के कम से कम तीन स्वरूप प्रचलित थे। पूर्वी, पश्चिमी और पश्चिमोत्तरी। इन्हीं बोलियों का विकासवाद में प्राकृतों के रूप में हुआ। मागधी और अर्द्धमागधी अशोककालीन पूर्वी बोलीके, गौरमेनी पश्चिमी बोली के और पैशाची पश्चिमोत्तरी बोली के विकसित रूप हैं,ऐसा हम कह सकते हैं। पहले ये बोलियाँ मात्र थीं,किन्तु साहित्य में प्रयुक्त होने पर इसका स्वरूप अवरुद्ध होगया। भरत मुनि ने सात प्राकृत भाषाओं का उल्लेख किया है, (१) मागधी प्राकृत, (२) अवन्ती प्राकृत, (३) प्राच्या, (४) शौरसेनी, (५) अर्द्धमागधी, (६) वाल्हीक और (७) दाक्षिणात्य' । वाद में वैयाकरण हेमचन्द्र ने इनमें पैशाची और लाटी को और जोड़ दिया है। साहित्य की द प्टि से प्राकृतों में चार मुख्य है, मागधी, अर्धमागधी. शौरसेनी और महाराष्ट्री। प्राकृत के वैयाकरणों ने महाराष्ट्री को अधिक महत्व दिया है। महाराष्ट्री प्राकृत का विस्तृत विवेचन करने के बाद उन्होंने अन्य प्राकृतों की केवल कुछ विशेषताओं का दिग्दर्शन कर 'शेप महाराष्ट्रीवत्' कहकर छोड़ दिया है। - - - - - १. मागध्यवन्तिजा प्राच्या शूरसेन्यर्द्धमागधी । वाह्नीका वाणिणात्याश्च सप्त भाषाः प्रकीर्तिताः॥ २. महाराष्ट्राश्रयां भाषांः प्रकृष्टं विदुः । दण्डी Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२ ) भाषा-तत्व की दृष्टि से पालि औरप्राकृतों में अनेक समानताएं हैं । उपर्युक्त विकास-विवरण से स्पष्ट है कि मागधी, अर्द्ध-मागधी, शौरसेनी और पैशाची प्राकृत ही पालि के तुलनात्मक अध्ययन में अधिक ध्यान देन े योग्य हैं । पहले हम सामान्यतः पालि में पाये जाने वाले प्राकृत-तत्वों का निर्देष करेंगे और फिर मागधी, अर्द्धमागधी, शौरसेनी ओर पैशाची के साथ उसका संक्षिप्त तुलनात्मक अध्ययन करेंगे । पालि और प्राकृत भाषाओं का ध्वनि - समूह प्रायः एक सा ही है । ऋ, ऋ, लृ, ऐ और औ का प्रयोग पालि और प्राकृतों में समान रूप से ही नहीं पाया जाता । केवल अपभ्रंश में ऋ ध्वनि अवश्य मिलती है । पालि और प्राकृतों में ॠ ध्वनि अ, इ, उ, स्वरों में से किसी एक में परिवर्तित हो जाती है । ह्रस्व ए और ह्रस्व ओका प्रयोग पालि और प्राकृत दोनों में ही मिलता है । विसर्ग का प्रयोग पालि और प्राकृत दोनों में ही नहीं मिलता । श्, ष् की जगह मागधी को छोड़ कर और सब प्राकृतों और पालि में 'स्' ही हो जाता है । मूर्द्धन्य ध्वनि 'ळ' पालि और प्राकृत दोनों में ही पाई जाती है । विशेष रूप से प्राकृत-तत्त्व पालि में व्यंजन- परिवर्तनों में ही पाये जाते हैं । ये परिवर्तन इस प्रकार हैं (१) शब्द के अन्तः स्थित अघोष स्पर्श की जगह य या व् का आगमन (२) शब्द के अन्तःस्थित घोष महाप्राण की जगह ह हो जाना (२) शब्द के अन्तःस्थित अघोष स्पर्शो का घोष हो जाना । ( ४ ) महाप्राणत्व (ह-कार) का आकस्मिक आगमन या लोप ( ५ ) आकस्मिक वर्ण - व्यत्यय । ये परिवर्तन पालि में अनियमतः कहीं-कहीं और प्रायः अन्य सब प्राकृतों में नियमतः पाये जाते हैं | आगे पालि के ध्वनि-समूह के विवेचन में इनका सोदाहरण विवरण दिया जायगा । वास्तव में बात यह है कि जिन ध्वनि- परिवर्तनों का पालि में सूत्रपात ही हुआ है, उन्हीं का विकास हमें प्राकृतों में देखने को मिलता है । यही इन समानताओं का कारण है । इसका कुछ विस्तार से विवेचन हम आगे पालि के ‘व्यंजन-परिवर्तन' पर विचार करते समय करेंगे । यहाँ इतना ही कह देना आवश्यक है कि पालि के जिस रूप के साथ प्राकृत की समानता है अथवा उसके जिस रूप में प्राकृत-तत्त्व मिलते हैं, वह पालि का प्राचीन रूप न होकर उसका विकसित रूप है । इसीलिये पालि-भाषा के विकास में भी हम तारतम्य देखते हैं, जिसका वर्णन हम अभी आगे करेंगे । Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मागधी और पालि के सम्बन्ध का विवेचन हम पहले कर चुके ह । अद्धमागधी के सम्बन्ध में भी कुछ कह चुके हैं । यहाँ केवल इतना ही कहना है कि जिस रूप में अर्द्धमागधी के स्वरूप का साक्ष्य हमें जैन आगमों में मिलता है, उसकी ध्वनि और रूप की दृष्टि से पालि से समानताएँ तो हैं किन्तु अर्धमागधी को पालि का उद्गम या आधार स्वीकार नहीं किया जा सकता। प्रत्युत उसका विकास पालि के बहुत बाद हुआ है । पालि और अर्द्धमागधी की कुछ समानताएँ इस प्रकार हैं--(१) संस्कृत 'अस्' और 'अर्' के स्थान में 'ए' हो जाना। पालि के पुरे (पुरः); सुवे (श्वः); भिक्खवे (भिक्षवः); पुरिसकारे (पुरुषकारः); दुक्खे (दुःखं) जैसे शब्दों में यह अर्द्धमागधीपन की प्रवृत्ति दृष्टिगोचर होती है। (२) संस्कृत 'तद्' के स्थान पर 'से' हो जाना। यह प्रवृत्ति 'सेय्यथा' (तद्यथा) जैसे पालि के प्रयोगों में रूढ़ हो गई है। (३) इसी प्रकार संस्कृत यद् के स्थान पर 'ये' हो जाना (४) र का ल हो जाना अर्द्धमागधी की एक बड़ी विशेषता है। पालि में भी यह कही-कहीं दृष्टिगोचर होती है, नियमानुसार नहीं (५) स्वरों और अनुनासिक स्वरों के बाद आने पर 'एव' का अर्द्धमागधी में 'येव' हो जाता है। पालि में भी यह प्रवृत्ति कहीं कहीं दृष्टिगोचर होती है। (६) कहीं कहीं वर्ण-परिवर्तन का विधान भी पालि में अर्द्ध-मागधी के समान ही है। उदाहरणतः संस्कृत' पालि अर्द्धमागधी साक्षं (आँखों के सामने) सक्खि (सक्खिं भी) सक्खं त्सरु (मूंठ, तलवार) थरु थरु (छरु भी) वेणु (बाँस) वेळु वेळु लांगल (हल) नंगळ नंगळ लूडर्स ने, अर्द्धमागधी के प्राचीन स्वरूप को पालि का आधार माना है, अतः उन्होंने उपर्युक्त समानताओं पर अधिक जोर दिया है । किन्तु इन समानताओं की एक मर्यादा है। केवल कुछ छुटपुटे उदाहरणों को छोड़ पालि में ये प्रवृत्तियाँ नियमित दृष्टिगोचर नहीं होतीं। उदाहरणतः, सं० अस् की जगह 'ए' हो जाना, 'र' की जगह 'ल' हो जाना आदि प्रवृत्तियां जो अर्द्धमागधी की अनिवार्य विशेषताएँ हैं, पालि में कहीं कहीं ही पाई जाती हैं। शौरसेनी प्राकृत शूरसेन अर्थात् ब्रज-मंडल या मध्य-मंडल की भाषा थी। यह प्राकृत संस्कृत के अधिकतम समीप है। उत्तरकालीन पालि में भी यही प्रवृत्ति Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४ ) दिखाई देती है। पालि भी मध्य-मंडल की ही लोक-भाषा रही थी। अतः उसका प्रभाव शौरसेनी पर आवश्यक रूप से पड़ा है। जिन विद्वानों ने पालि का आधार कोई पूर्वी बोली (मागधी या अर्द्ध-मागधी) न मान कर किसी पच्छिमी बोली को माना है, उन्होंने शौरसेनी प्राकृत के साथ उसकी सर्वाधिक समानताएँ दिखाने का प्रयत्न किया है। कुछ समानताएं इस प्रकार है। (१) शौरसेनी के प्राचीन रूप में शब्द के मध्य में स्थित व्यंजन का लोप नहीं होता और अघोप स्पर्शों का घोष स्पर्शों में परिवर्तन भी बहुत कम दिखाई पड़ता है; (२) शब्द के मध्यस्थित 'न्' में भी साधारणतः परिवर्तन नहीं होता; (३) शब्द के आदि में स्थित 'य की जगह 'ज्' नहीं होता, जैसा उत्तरकालीन प्राकृतों में हो जाता है; (४) 'दानि और 'इदानि' शब्द दोनों में ही समान रूप से प्रयुक्त होते हैं; (५) इसी प्रकार 'पेक्ख' 'गम्मिस्सिति ‘सक्किति' जैसे रूपों में भी समानता है। इन समानताओं के विषय में हमें यही कहना है कि इनमें से बहुत सी केवल पालि और शौरसेनी में ही नहीं मिलती, बल्कि अन्य प्राकृतों में भी पाई जाती है। ___इसी प्रकार पालि और पैशाची प्राकृत के सम्बन्ध का सवाल है। इन दोनो भाषाओं की मुख्य समानताएं इस प्रकार हैं--(१) घोष स्पर्शी (ग, द्, ब्,)के स्थान पर अघोष स्पर्श (क, त्, प्) हो जाना; (२) शब्द के मध्य में स्थित व्यंजन का सुरक्षित रहना; (६) 'भारिय' 'मिनान 'कसट' जैसे शब्दों में संयुक्त वर्णों का विश्लेषण (युक्त-विकर्ष) पाया जाना; (८)ज्ञ, ण्य्, और न्य का 'न' में परिवर्तन होता; (५) य का ज् में परिवर्तन न हो कर सुरक्षित रहना; (६) अकारान्त पुल्लिङ्ग शब्दों के प्रथमा एकवचन में ओकारान्त हो जाना; (७) धातु-रूपी में समानताएँ; (८) र काल में परिवर्तन न होकर सुरक्षित रहना। पालि की ये समानताएँ भी केवल पैशाची प्राकृत के साथ ही नहीं है। अन्य प्राकृतों में भी ये पाई जाती हैं। उदाहरणतः ञ, ण्य और न्य् की जगह ' मागधी और अन्य अनेक प्राकृतों में भी पाया जाता है। इसी प्रकार य का ज् में परिवर्तित न होकर 'य' ही बने रहना मागधी तथा अन्य प्राकृतों में पाया जाता है। इसी प्रकार अकारान्त शब्दों का ओकारान्त हो जाना केवल पैशाची प्राकृत में ही नहीं, किन्तु सभी पच्छिमी बोलियों में पाया जाता है और संस्कृत के मिथ्या-सादृश्य के आधार पर उद्भूत है। इसी प्रकार पालि का धातु-रूप-विधान न केवल पैशाची से ही अपितु मामान्यतः सभी पच्छिमी बोलियों से ममानता रखता है। यही हाल 'र' के पालि में परिवर्तित न होने का है। पश्चिमी वोलियों में भी ऐमा ही पाया जाता है। पैशाची Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५ ) प्राकृत के सब रूपों में 'र' सुरक्षित ही मिलता हो, ऐसी भी बात नहीं है । शब्द के मध्य में स्थित व्यंजन का सुरक्षित बने रहना प्राचीनता का लक्षण अवश्य है, किन्तु पैशाची के साथ पालि के घनिष्ठ सम्बन्ध का द्योतक नहीं। घोष स्पर्शों के स्थान पर अघोष स्पर्श हो जाना पालि में यत्र-तत्र ही अनियमित रूप से पाया जाता है और पैशाची में भी यह नियम अनिवार्य नहीं है। अतः पैशाची प्राकृत के साम्य के आधार पर हम पालि के स्वरूप के सम्बन्ध में कोई निश्चित सिद्धान्त स्थापित नहीं कर सकते। उपर्युक्त अध्ययन से स्पष्ट है कि किसी एक प्राकृत या उसके प्राचीन स्वरूप से पालि को सम्बद्ध कर देना कितना एकांगी और भ्रामक सिद्धान्त है। वास्तव में तथ्य यही है कि पालि एक मिश्रित, साहित्यिक भाषा है जिसमें अनेक बोलियों के संमिश्रण के चिन्ह मिलते हैं। उसके ध्वनि-समूह का विस्तृत विवरण, प्राकृतों के साथ उसके सम्बन्ध को, जिसे हमने अभी तक अत्यन्त संक्षिप्त रूप से ही निर्दिष्ट किया है, अधिक स्पष्टता से व्यक्त करेगा। पालि के ध्वनि-समूह का परिचय __पालि के ध्वनि-समूह को समझने के लिये पहले वैदिक और संस्कृत भाषा के ध्वनि-समूह को समझ लेना आवश्यक है। वैदिक ध्वनि-समूह में ५२ ध्वनियाँ थीं, जिनमें १३ स्वर थे और ३९ व्यंजन । इनका वर्गीकरण इस प्रकार हैस्वर-- (१) नौ मूल स्वर : अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, , ऋ, ऋ ल, (२) चार संयुक्त स्वर : ए, ऐ, ओ, औ व्यंजन(१) सत्ताईस स्पर्श व्यंजन - कंठ्य क्, ख्, ग, घ, ङ् तालव्य च, छ, ज, झ, ञ मूर्धन्य --ट्, , , , ण, ल, ल्ह दन्त्य -त्, थ्, द्, , न् ओप्ठ्य -प्, फ, ब, भ्, म् (२) चार अन्तःस्थ -~~य्, र, ल, व् (३) तीन ऊप्म -- श् ष् स् (५) अनुनासिक -- (अनुस्वार) Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६) तीन अघोष ऊष्म विसर्जनीय या विसर्ग : जिह्वामूलीय' उपध्मानीय२ वैदिक ध्वनि-समूह ही प्रायः संस्कृत में उपलब्ध होता है। कुछ विशेष परिवर्तन इस प्रकार हैं--(१)ल, ल्ह, जिह्वामूलीय तथा उपध्मानीय ध्वनियों का प्रयोग संस्कृत में नहीं मिलता (२) कुछ स्वरों और व्यंजनों के उच्चारणों में भी परिवर्तन हुआ है। इस पृष्ठभूमि को ध्यान में रख कर अब हम पालि के ध्वनिसमूह पर विचार करें। पालि का ध्वनि-समूह इस प्रकार है-- स्वर अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ह्रस्व ए, ए, ह्रस्व ओ, ओ व्यंजन कंठ्य -- क् ख् ग् घ् ङ.. तालव्य -- च, छ, ज, झ, ञ मूर्द्धन्य -- ट, ठ, ड्, द, ण, ल, ल्ह दन्त्य -- त्, थ्, द्, ध, न् ओष्ठ्य -- प, फ, ब, भ, म् अन्तःस्थ -- य, र, ल, व् ऊष्म -- स् प्राणध्वनि - ह. संस्कृत से मिलान करने पर उपर्युक्त पालि ध्वनि-समूह में ये विशेषताएँ दृष्टिगोचर होती हैं--(१)ऋ,ऋ,ल, ऐ,औ स्वरों का प्रयोग पालि भाषा में नहीं मिलता (२)पालि में दो नये स्वर ह्रस्व ए और ह्रस्व ओ मिलते हैं, (३) विसर्ग पालि में नहीं मिलता (४) श्, ष् पालि में नहीं मिलते, (५) ल, ल्ह, व्यंजनों का प्रयोग पालि में संस्कृत से अधिक होता है। दो स्वरों के बीच में आने वाले ड का १. क् से पहले आने वाला विसर्ग। 'ततः कि' में विसर्ग की ध्वनि इसका उदाहरण है। २. 'ए' से पहले आने वाला विसर्ग। 'पुनः पुनः' में प्रथम विसर्ग की ध्वनि इसका उदाहरण है। 10/ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७ ) स्थान यहाँ 'ळ्' ने ले लिया है, इसी प्रकार 'द' का स्थान 'ल्ह'ने । मिथ्या-सादृश्य के कारण 'ळ' का प्रयोग 'ल' के स्थान पर भी देखा जाता है। (६)स्वतंत्र स्थिति में 'ह' प्राणध्वनि व्यंजन है, किन्तु य, र, ल, व् या अनुनासिक से संयुक्त होने पर इसका उच्चारण एक विशेष प्रकार से होता है, जिसे पालि वैय्याकरणों ने 'ओरम' या 'हृदय से उत्पन्न' कहा है। इस संक्षिप्त निर्देश के बाद अब उन ध्वनिपरिवर्तनों का उल्लेख करना आवश्यक होगा, जो संस्कृत की तुलना में पालि में होते हैं। पहले हम स्वर-परिवर्तनों को लेंगे,बाद में व्यंजन-सम्बन्धी परिवर्तनों को। स्वर-परिवर्तनों में भी क्रमशः ह्रस्व स्वर, दीर्घ स्वर, संयुक्त स्वर, विसर्ग आदि का विवेचन किया जायगा। इसी प्रकार व्यंजन-सम्बन्धी परिवर्तनों में असंयुक्त और संयुक्त व्यंजनों की दृष्टि से शब्द में उनकी स्थिति के अनुसार विवेचन करेंगे, यथा आदि-व्यंजन, मध्य-व्यंजन, अन्त्य-व्यंजन, आदि। इसके साथ ही स्वर और व्यंजन-सम्बन्धी कुछ विशेष ध्वनि-परिवर्तनों का दिग्दर्शन करना भी आवश्यक होगा। स्वर-परिवर्तन ह्रस्व स्वर (अ इ, उ, ए, ओ) १. साधारणतया संस्कृत ह्रस्व स्वर अ, इ, उ, पालि (एवं प्राकृतों) में सुरक्षित रहते हैं। उदाहरण संस्कृत वधूः (प्राकृत वहू) अग्नि अग्गि प्राकृत में पालि के अर्थ अट्ठ समान ही रूप प्रिय पिय रूक्ष रुक्खो ) मुखम् मुखं (प्राकृत मुहं) २ यदि संस्कृत में असंयुक्त व्यंजन से पहले होता है, तो पालि में उसका कहीं कहीं ए (हस्व ए) हो जाता है। उदाहरण संस्कृत पालि फल्ग (सारहीन) फेग्ग Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शय्या विष्णु ( ३८ ) सेय्या (प्राकृत सेज्जा) ३. इकारान्त और उकारान्त पालि शब्दों के रूपों में विभक्तयन्त इकार और उकार का दीर्घ होकर क्रमशः ईकार और ऊकार हो जाता है, यथा ईहि, ऊहि, ईसु, ऊसु । इस प्रकार 'अग्गि' (अग्नि) और 'भिक्खु' (भिक्षु) शब्दों के रूपों में क्रमशः अग्गीहि, भिक्खूहि (तृतीया बहुवचन) एवं अग्गीसु, भिक्खूसु (सप्तमी बहुवचन) रूप होते हैं। (४) यदि संस्कृत में इ और उ संयुक्त व्यंजन से पहले होते हैं, तो पालि में वे क्रमशः ए और ओ (ह्रस्व ए और ह्रस्व ओ) हो जाते हैं । उदाहरणसंस्कृत पालि वेण्हु (कहीं कहीं विण्हु भी) निष्क नेक्ख उष्ट्र ओट्ठ उल्कामुख ओक्कामुख पुष्कर पोक्खर (५) संस्कृत में जहाँ संयुक्त व्यंजन से पहले दीर्घ स्वर हाते हैं, वहाँ पालि में उनका रूप ह्रस्व हो जाता है, यह पालि भाषा का एक प्रसिद्ध नियम है, जिसका विवेचन हम दीर्घ स्वरों के परिवर्तन का विवरण देते समय आगे करेंगे। यहाँ यह कह देना आवश्यक है कि इस नियम के कारण संस्कृत के ए, ऐ तथा ओ, औ जब संयुक्त व्यंजनों से पहले आते हैं तो पालि में उनके रूप क्रमशः ह्रस्व ए तथा ह्रस्व ओ हो जाते हैं। उदाहरण: . श्लेष्मन् चैत्य चेतिय ओष्ठ मौर्य मोरिय .. (६) जब उपर्युक्त स्वर संयुक्त व्यंजनों से पहले न आकर अ-संयुक्त व्यंजनों के भी पहले आते हैं तो भी उनका परिवर्तन उपर्युक्त ह्रस्व स्वरूपों में ही हो जाता है, किन्तु उनके आगे आने वाला व्यंजन संयुक्त हो जाता है। उदाहरण-- एक एक्क एवम् एव्वं सेम्ह ओट्ठ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३९ ) ऋऔर लू के पालि प्रतिरूप (अ) ऋ का परिवर्तन पालि में त्रिविध होता है । कहीं अ, कहीं इ, कहीं उ। ममीपी ध्वनियों पर यह अधिक निर्भर करता है कि कब क्या परिवर्तन हो। ओष्ठ्य अक्षरों के बाद अक्मर उ होता है। फिर भी प्रयोगों के अनुसार विविधता पाई जाती है, जिसे नियमों में नहीं बाँधा जा सकता। ऋ का परिवर्तन बहुत प्राचीन है । ऋग्वेद में भी यह पाया जाता है । विद्वानों का अनुमान है कि संस्कृत 'अवट' शब्द पहले 'अवृत' था। 'विकट' और 'विकृन' शब्द दोनों माथ माध ऋग्वेद में मिलते हैं। यास्क भी इस तथ्य से अवगत हैं। उन्होंने 'कुटस्य' 'कृतस्य' जैसे समानार्थवाची शब्दों के उदाहरण दिये हैं। उत्तरकालीन युग में इस परिवर्तन की मुख्यतः दो प्रवृत्तियाँ दृष्टिगोचर होती हैं। प्रथम में ऋ का परिवर्तित स्वरूप 'अ' हो जाता है और दूसरी में 'इ' या 'उ' । प्रथम प्रवृत्ति के परिचायक सामान्यतः पालि, अशोक के गिरनार-गिलालेख, महागष्ट्री प्राकृत एवं अर्द्धमागधी प्राकृत हैं। दूसरी प्रवृत्ति के परिचायक विशेषतः अशोक के पूर्व और उत्तर-पश्चिम के गिलालेख एवं शौरसेनी प्राकृत हैं। उदाहरण (१) ऋ की जगह 'अ' हो जाता है संस्कृत ऋक्ष अच्छ वृक वक हृदय हृदय दल्ह (गिरनार शिलालेख) मग (गिरनार शिलालेख) (२) ऋ की जगह 'ई' हो जाती है-- कित (शौरसेनी किड) (अशोक पालि) मित (शौरसेनी मुद) (अशोक-यालि) ऋक्ष इक्क ऋण इण वृश्चिक विच्छिक पालि Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० ) (३) ऋ की जगह 'उ' हो जाता है ऋजु ऋषभ पृच्छति उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि ऋॠ के पालि प्रतिरूपों में अनक विभिन्नताएँ हैं । कहीं-कहीं एक ही शब्द के दो परिवर्तित स्वरूप दृष्टगोचर होते हैं । जैसे 'कृत' से 'कत' और 'कित'; 'मृत' से 'मत' और 'मित'; 'ऋक्ष' से 'अच्छ' और 'इक्क' । कहीं कहीं इस प्रकार के समान प्रयोगों में अर्थ की कुछ भिन्नता भी हो गई है, यथा 'वड्ढि' और 'बुद्धि' दोनों सं० 'वृद्धि' के ही परिवर्तित स्वरूप हैं, किन्तु प्रथम का प्रयोग होता है उन्नति के अर्थ में और दूसरे का उगने के अर्थ में । इसी प्रकार 'मृग' के दो परिवर्तित रूप 'मग' और 'मिग' हैं । 'मग' का प्रयोग होता है सामान्य पशु मात्र के लिये, किन्तु 'मिग' का केवल हिरन के लिये । अन्य भी अनेक विचित्रताएँ हैं । 'ऋण ' का पालि में 'इण' होता है, किन्तु 'स ऋण' के लिये 'स + इण' न हो कर 'स + अण' अर्थात् 'साण' होता है । इसी प्रकार 'अनण' होता है, 'अनिण' नहीं। सम्भवतः यह परिवर्तन स्वर - अनुरूपता के कारण है । 'पितृ ' और 'मातृ' शब्दों के परिवर्तन एक जगह तो 'पितिपक्खतो' 'माति-पक्खतो' इस प्रकार होते हैं, किन्तु दूसरी जगह 'पितुघातक' 'मातुघातक' इस प्रकार होते हैं । 'पृथिवी' शब्द के पालि प्रतिरूप तो और भी अधिक आश्चर्यमय हैं -- पथवी, पठवी, पृथवी, पुथ्वी, पुठुवी। ये सब पालि के भिन्नतामयी लोक भाषा होने के साक्षी हैं । (४) कहीं कहीं ॠ व्यंजन भी हो जाता है- संस्कृत बृहत वृक्ष प्रावृत अपावृत (आ) 'लू' का 'उ' हो जाता है संस्कृत क्लृप्त क्लृप्ति उजु या उज्जु उसभ पुच्छति पालि ब्रूहेति रुक्ख पारुत अपारुत पालि कुत्त कुत्ति Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खीरं ( ४१ ) दीर्घ स्वर (आ, ई, ऊ) (१) पद के अन्त में या मंयुक्त व्यंजन से पूर्व की स्थिति को छोड़कर संस्कृत दीर्घ स्वर पालि में प्रायः सुरक्षित रहते हैं। उदाहरण संस्कृत पालि काल काल प्रहीण पहीण क्षीरं मूल या मूळ (२) पद के अन्त में जहाँ संस्कृत में दीर्घ स्वर होते हैं, पालि में वे ह्रस्व कर दिये जाते हैं। उदाहरण देवानां गणनायां गणनायं नदी नदि (३) संयुक्त व्यंजन से पूर्व संस्कृत में दीर्घ स्वर होने पर पालि में उसका प्रतिरूपह्रस्व हो जाता है और उसके बाद भी संयुक्त व्यंजन रहता है। उदाहरण जीर्ण जिण्ण मार्दवं मद्दवं तीर्थ तित्थं देवानं (४) संयुक्त व्यंजन से पूर्व संस्कृत में दीर्घ स्वर रहने पर कभी-कभी पालि में उसका प्रतिरूप भी दीर्घ ही बना रहता है और इस दशा में संयुक्त व्यंजन अमंयुक्त हो जाता है। उदाहरण लाक्षा लाखा दीर्घ दीघ ए और ओ रहने पर संयुक्त व्यंजन विकल्प से असंयुक्त होता है, अर्थात् कहींकहीं वह असंयुक्त होता है और कहीं-कहीं नहीं भी। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४२ ) उदाहरण अपेक्षा अपेखा, अपेक्खा भी उपेक्षा उपेखा, उपेक्खा भी विमोक्ष विमोख, विमोक्ख भी उपर्युक्त (३) और (४) ध्वनि-परिवर्तनों के आधार पर प्रसिद्ध जर्मन भाषातत्त्वविद् डा० गायगर ने एक नियम खोज निकाला है। इस नियम का नाम 'ह्रस्व मात्रा-काल का नियम' (दि लॉ ऑव मोरा) है। इस नियम के अनुसार पालि में प्रत्येक शब्दांश के प्रारम्भ में या तो (१) हस्व स्वर हो मकता है (एक ह्रस्व मात्रा-काल). या (२) दीर्घ स्वर हो सकता है (दो ह्रस्व मात्रा-काल),या (३) उसके अन्त में ह्रस्व स्वर हो सकता है (दो ह्रस्व मात्रा-काल)। इस प्रकार किमी भी शब्दांश में दो से अधिक ह्रस्व मात्रा काल नहीं हो सकते । दीर्घ सानुनासिक स्वर पालि में नहीं हो सकते। इस नियम के आधार पर ही उपर्युक्त (३)(४) ध्वनि-परिवर्तनों की सिद्धि डा० गायगार ने की है। इस नियम के अनुसार अन्य परिवर्तनों का भी उन्होंने उल्लेख किया है, जो इस प्रकार हैं--- (१) जहाँ संस्कृत में संयुक्त व्यंजन से पहले ह्रस्व स्वर होता है, वहाँ पालि में माधारण व्यंजन से पहले दीर्घ स्वर हो जाता है। उदाहरण मर्पप (सरसों) मम्मप के बजाय मासप वल्क (छाल) वक्क के बजाय वाक निर्याति (बाहर चला जाता है) नीयाति (२) जहाँ साधारण व्यंजन से पूर्व संस्कृत में दीर्घ स्वर होता है, वहाँ पालि में संयुक्त व्यंजन से पूर्व ह्रस्व स्वर होता है। उदाहरण आवृति अब्बति नीड निड्ड (नेड्ड भी) उदूखल उदुक्खल कूवर कुब्बर (३) जहाँ उपर्युक्त नियम (१) के अनुसार संस्कृत में संयुक्त व्यंजन से पहले (हस्व) स्वर होने पर पालि में उसका साधारण व्यंजन से पहले दीर्घ स्वर हो Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाता है, वहाँ इस नियम के अनुसार कहीं कहीं उसके दीर्घ स्वर के स्थान पर सानुनासिक ह्रस्व स्वर भी हो जाता है । इस नियम का कारण यह है कि हम्ब सानुनामिक स्वर में भी दीर्घ स्वर के समान दो वस्व मात्रा-काल होते हैं। उदाहरण-- मत्कुण माकुण के बजाय मंकुण शर्वरी मावरी (सब्बरी) के बजाय मंवरी शुल्क मूक (सुक्क) के बजाय मुंक (४) उपर्युक्त नियम का विपर्यय भी देखा जाता है, अर्थात् संस्कृत अनुनामिक ह्रस्व स्वर का परिवर्तन पालि में दीर्घ स्वर भी हो जाता है। सिंह . विंशति वीमति, वीस सीह (५) कभी-कभी संस्कृत में संयुक्त व्यंजन से पूर्व आने वाला दीर्घ स्वर पालि में भी बना रहता है। ऐसा अधिकतर सन्धियों में होता है, जैसे माज्ज= मा+अज्ज; यथाज्ज्झामयेन = यथा+अज्ज्झासयेन, आदि । (६) पालि में स्वर-भक्ति का प्रयोग प्रचुरता से मिलता है। इसका विवेचन हम आगे करेंगे। यहाँ यह स्मरण रखना चाहिये कि जब स्वर-भक्ति के कारण मंयुक्त व्यंजन असंयुक्त किये जाते हैं, तो संयुक्त व्यंजन से पहले आने वाला दीर्घ स्वर पालि में ह्रस्व कर दिया जाता है। उदाहरण सूर्य प्रकीर्य मौर्य सुय्य के बजाय सुरिय पकिरिय मोरिय चैत्य चेतिय (७) विवृत् स्वर ई और ऊ पालि में क्रमशः ए और ओ हो जाते है । उदाहरण - ईदृश् ईदृक्षा एदिस (एरिम) एदिसक एदिक्ख (एरिक्ख) ईदृशा Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ ) संयुक्त स्वर ( ए, ऐ, ओ, औ ) और उनके पालि प्रतिरूप ए और ओ पालि में ह्रस्व और दीर्घ दोनों ही हैं । ह्रस्व ए और ओ का विवेचन हम पहले कर चुके हैं । दीर्घ ए और ओ भी पालि में पाये जाते हैं । (१) पालि में ए और ओ का आगमन संस्कृत संयुक्त स्वरों ऐ और औ से हुआ है। ऐरावण मैत्री वै औरस पौर एरावण मत्ता वे ओरस पोर (२) कभी कभी ए, ओ, संस्कृत में संयुक्त व्यंजनों से पहले आने पर, पालि में लघु होकर क्रमश: इ और उ रह जाते हैं । उदाहरण प्रतिवेश्यक प्रसेवक ऐश्वर्य सैन्धव श्रोष्यामि औत्सुक्य क्षौद्र रौद्र पटिविस्सक प सिब्बक इस्सरिय सिन्धव सुस्सं उस्सुक खुद्द लुद्द विसर्ग पालि में आते-आते विसर्ग का लोप हो गया है। प्राकृतों में भी वह नहीं मिलता। इसका परिवर्तन प्रायः तीन प्रकार से हुआ है । (१) शब्द के मध्यस्थित विसर्ग का समावेश उसके आगे आने वाले व्यंजन में हो गया, जैसे १. सं० अय से पालि ए; अव से ओ; आव से ओ; अयि, आयि, आवि से ओ; इन परिवर्तनों के लिये देखिये आगे अक्षर-संकोच का विवरण । Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुःखं दुक्खं दुस्सहो कः अग्गि दुःसह निःशोक निस्सोको (२) अकारान्त शब्दों के परे विसर्ग का ओ हो गया। देवः देवो को (३) इकारान्त तथा उकारान्त शब्दों के परे विसर्ग का लोप हो गय. . अग्निः धेनुः धेनु स्वर-अनुरूपता अर्थात् एक स्वर का दूसरे समीपवर्ती स्वर के अनुरूप हो जाना समीपवर्ती स्वरों का प्रभाव पालि में दूसरे स्वरों पर भी पड़ता है। इस प्रकार पालि में हम 'स्वर-अनुरूपता' का प्रारम्भ देखते हैं। समीपवर्ती स्वरों के कारण स्वर-विपर्यय के कुछ उदाहरण द्रष्टव्य है-- (अ) पूर्ववर्ती स्वर का परवर्ती स्वर के अनुरूप हो जाना (१) संस्कृत में 'इ' के बाद जहाँ 'उ'होता है, तो पालि में 'इ' की जगह भी 'उ' हो जाता हैइषु उस इक्ष उच्छु (अर्द्धमागधी में इक्खु) शिशु सुस सुमुग्ग (२) अ के बाद जहाँ संस्कृत में उ होता है, तो पालि में अ की जगह भी उ हो जाता है। समुद्ग असूया उसूया (अमुय्या भी) (३) अ के बाद जहाँ संस्कृत में इ होता है, तो पालि में अ की जगह भी इ हो जाता है। तमिस्रा तिमिस्सा सरीसृप सिरिंसप Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (आ) परवर्ती स्वर का पूर्ववर्ती स्वर के अनुरूप हो जाना। (१) उ के वाद जहाँ संस्कृत में अ होता है तो पालि में अ की जगह भी उ हो जाता है। कुरंग . कुरुंग उदंक उळंक (२) अ के बाद जहाँ संस्कृत में इ होता है, तो पालि में इ की जगह भी अ हो जाता है। अलिजर अरजर काकिणिका काकणिका पुष्करिणी पोक्खरणी (३) अ के बाद जहाँ संस्कृत में उ होता है, तो पालि में उ की जगह भी अ हो जाता है। आयुप्मन् आयस्मन्त मष्कुली सक्खली (सक्खलिका) (४) इ के बाद जहाँ संस्कृत मे अ होता है, तो पालि में अ की जगह भी इ हो जाती है। शगवर सिंगिवर निषण्ण समीपवर्ती व्यंजनों का स्वरों पर प्रभाव (१) ओप्ठ्य व्यंजनों के समीप विशेषतः उ आता है। मंमार्जनी सम्मुज्जनी (कहीं कहीं सम्मज्जनी भी) मतिमान् (२) मूर्द्धन्य व्यंजनों के समीप विशेषतः इ आता है। मज्जा मिजा जिगुच्छति स्वराघात के कारण स्वर-परिवर्तन पालि में स्वराघात का क्या स्वरूप था, इसका निर्णय अभी नहीं हो सका। निसिन्न मुतीमा जुगुप्सते Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४७ ) किन्तु यह निश्चित है कि प्राचीन भारतीय आर्य भाषा - काल के बाद ही स्वराघात के चिन्ह को लगाने का प्रयोग उठ गया था । जेकोबी और गायगर का मत है कि पालि में स्वराघात का वही रूप था, जो संस्कृत में । यह तथ्य नीचे लिखे परिवर्तनों से स्पष्ट होता है । (१) तीन-चार अक्षरों के शब्द में, जिसमें संस्कृत के साक्ष्य पर प्रथम अक्षर में स्वराघात होता था, स्वराघात वाले अक्षर के बाद के अक्षर में अर्थात् दूसरे अक्षर में पालि में स्वर-परिवर्तन पाया जाता है । (अ) स्वराघात वाले अक्षर के बाद अ का इ हो जाता है चन्द्रमा चर्म परम पुत्रमान् मध्यम अहंकार ( आ ) स्वराघात वाले अक्षर के बाद अ का उ भी हो जाता है- नवति नवुनि प्रावरण पापुरण सम्मति सम्मुति चन्दिमा चरिम परिम पुत्तिमा मज्झिम अहंकार (इ) कभी-कभी स्वराघात वाले अक्षर के बाद इ का उ और उ का इ हो जाता है- राजिल गैरिक प्रसित मृदुता (२) स्वराघात वाले अक्षर के बाद आने पर अनुदात्त लघु स्वर कभी-कभी लुप्त भी कर दिये जाते हैं- उदक अगार राजुल गेरुक पसुत मुदिता ( मुदुता भी ) ओक अग्ग Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४८ ) (३) स्वराघात के प्रभाव के कारण ही अनुदात्त अन्त्य अक्षर ह्रस्व कर दिये जाते हैं। इस प्रकार 'ओ' का 'उ' हो जाता है-- असौ असु (प्रथम 'असो' हुआ; मागधी में यही रूप) उताहो उदाहु सद्यः सज्जु (प्रथम 'सज्जो' हुआ) (४) कहीं-कहीं शब्द का दूसरा दीर्घ अक्षर ह्रस्व कर दिया जाता है। यह परिवर्तन पालि में स्वराघात के दूसरे अक्षर से हटाकर प्रथम अक्षर पर कर देने से होता है। अलीक अलिक गृहीत गहित पानीय पानिय (अर्द्धमागधी पाणिय) (४) कहीं-कहीं प्रथम अक्षर के स्वर को दीर्घ कर दिया जाता है। यह परिवर्तन भी उस अक्षर पर स्वराघात कर देने के कारण होता है। अजिर आजिर अलिन्द आलिन्द अरोग आरोग (अरोग भी) सम्प्रसारण और अक्षर-संकोच (अ) सम्प्रसारण(१) उदात्त 'य', का 'ई' हो जाता हैस्त्यान थीन यह द्वीह व्यह तीह व्यतिवृत्त वीतिवत्त कहीं-कहीं 'य' सुरक्षित भी रहता है व्यसन व्यसन व्याध व्याध (२) सम्प्रसारण के कारण ही कहीं-कही 'व' का ऊ हो जाता है। श्वन् सून यदि 'व' संस्कृत में संयक्त व्यंजनों से पहले है तो पालि में उसका रूप ऊ न होकर पहले उ होता है और फिर ओ में सम्प्रसारण-- Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वस्ति स्वप्न ( ४९ ) असंयुक्त व्यंजनों से पहले ऊ की जगह ओ होता है --- श्वपाक सोपाक (अर्द्धमागधी सोवाग ) (३) कुछ सम्प्रसारण विचित्र भी होते हैं, जैसे सं० 'द्वेष' और 'दोष' दोनों के प्रतिरूप पालि में 'दोस' में मिल गये हैं । (आ) अक्षर-संकोच (१) अय और अव क्रमशः ए और ओ हो जाते हैं । बीच में स्वराघात के कारण क्रमशः अयि, ऐ, अवु, औ अस्वस्थाओं में होकर ये परिवर्तन होते हैं, ऐसा कहा जा सकता है । जयति अध्ययन मोचयति कथयति अवधि प्रवण लवण (२) अय और आय का आ हो जाता है। प्रतिसंलयन स्वस्त्ययन कात्यायन मौद्गल्यायन ४ (३) आव का ओ हो जाता है । अतिधावन सुत्थि — सोत्थि सुपिन -सोप्प (४) अवा का आ हो जाता है । यवागू (५) अयि और अवि ए हो जाते हैं- आश्चर्य जेति ( जयति भी ) अज्न मोचेति कथेति ओधि पोण लोण पटिसल्लान सोत्थान कच्चान ( कच्चायन भी ) मोग्गलान ( मोग्गल्लायन भी अतिधोन यागु अच्छयिर, अच्छरिय से होकर अच्छेर Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५० ) आचार्य आचरिय-आचेर मात्सर्य मच्छर स्थविर थेर (६) प्राकृतों के समान पालि में भी कहीं-कहीं उप और अप उपसर्ग क्रमशः उव और अव स्वरूपों में होकर ऊ और ओ हो जाते हैं। उपहदति उहादेति अपवरक ओवरक अपत्रप ओत्तप्प (७) कहीं-कहीं अनियमित अक्षर-संकोच भी दिखाई पड़ते हैं। मयूर मोर (मयूर ___ स्वरभक्ति के कारण स्वरागम पालि में स्वरागम अधिकतर शब्द के मध्य में होता है। स्त्री से इत्थी; स्मयते से उम्हयति, उम्हयते जैसे शब्द अपवाद हैं। शब्द के मध्य में स्थित केवल उन्हीं संयुक्त व्यंजनों के बीच में स्वर का आगमन होता है, जिनमें य, र, ल, व्, में से कोई एक व्यंजन हो या जो सानुनासिक हो। 'कष्ट' जैसे शब्द का 'कसट' रूप होना एक अपवाद है। यह पालि में पाया जाने वाला पैशाची प्राकृत का प्रयोग है। इसकी व्याख्या हम पहले कर चुके हैं। पालि में पाये जाने वाले कुछ स्वरागम इस प्रकार हैं(अ) इ का आगमन, जो पालि में अधिकता से होता है । (१) संयुक्त व्यंजन 'य' में ईर्यते इरियति मर्यादा मरियादा (२) ऐसे संयुक्त-व्यंजनों में, जिनमें एक य हो कालुष्य कालुसिय ज्या जिया ह्यः (अर्द्धमागधी हिज्जो) (३) ऐसे संयुक्त-व्यंजनों में, जिनमें एक ल हो पिलक्खु हिय्यो प्लक्ष Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13659 वज सिनेह तृष्णा नग्न हिलाद (४) ऐसे संयुक्त व्यंजनों में, जिनमें एक र् हो वजिर (५) सानुनासिक संयुक्त व्यंजनों में, स्नेह तसिणा निम्नलिखित अपवाद भी हैं, कृष्ण कण्ह नग्ग (आ) अ का आगमन, प्रायः ऐसे संयुक्त व्यंजनों के मध्य में होता है, जिनके पूर्व और पश्चात् अ स्वर हो गर्दा गरहा गर्हति गरहति (इ) उ का आगमन प्रायः म् और व् से पूर्व होता है ऊष्मन् उसुमा सूक्ष्म सुखुम दुवे छन्दांऔर समास के कारण स्वरों के मात्राकाल में परिवर्तन (अ) छन्द की आवश्यकता के कारण (१) कहीं-कहीं ह्रस्व स्वर का दीर्घ कर दिया जाता है, जैसे 'नदति' की जगह गाथा में लय को ठीक करने के लिये 'सी हो व नदती वने' में कर दिया गया है। 'सतिमती' से 'सतीमती' 'तुरियं' से 'तूरियं' आदि परिवर्तन भी इसी प्रकार कर दिये जाते हैं। (२) कहीं-कहीं दीर्घ स्वर को ह्रस्व कर दिया जाता है, जैसे 'भुम्मानि वा यानि व अन्तलिक्खे' । यहाँ 'व' की जगह 'वा' होना चाहिये था। किन्तु छन्द की गति के लिये उसे ह्रस्व कर दिया गया है । इसी प्रकार ‘पच्चनीका' से 'पच्चनिका' जैसे प्रयोग भी छन्द में कर दिये जाते हैं। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५२. ) (३) सानुनासिक स्वरों को अननुनासिक कर दिया जाता है, जैसे 'दीघमद्धान सोचति' में। यहाँ वैसे 'दीघमद्धानं' होना चाहिये था। इसी प्रकार 'जीवन्तो' से 'जीवतो' जैसे प्रयोग भी दिखाई देते हैं। (४) संयुक्त व्यंजनों को सरल बना कर उनमें से केवल एक रख लिया जाता है, जैसे 'दुक्खं' से 'दुखं'। यह भी ह्रस्व कर देने के समान ही है। (आ) समास में होने वाले स्वर-परिवर्तन (१) समास के प्रथम पद के अन्त में होने पर ह्रस्व स्वर बहुधा दीर्घ कर दिया जाता है, जैसे सखिभाव से सखीभाव; अब्भमत्त से अब्भामत्त; रजपथ से रजापथ । उपसर्ग-युक्त शब्दों में भी यह स्वरों को दीर्घ करने की प्रवृत्ति दृष्टिगोचर होती है, जैसे सं० प्रवचन से पालि पावचन (अर्द्धमागधी पावयन); प्रकट से पालि पाकट (अर्द्धमागधी पागड) (२) जब समास के प्रथम पद में आकारान्त , ईकारान्त या ऊकारान्त शब्द होते हैं, तो इनको ह्रस्व कर दिया जाता है, जैसे दासिगण (दासी+गण); उपाहनदान (उपाहना+दान)। कुछ विचित्र स्वर-परिवर्तन (१) एक ही सं० शब्द 'पुनः' के पालि में दो रूप-परिवर्तन हैं। 'पून' और 'पन' । किन्तु इन दोनों के अर्थ भिन्न भिन्न हैं । 'पुन' का अर्थ तो सं० 'पुनः' के समान ही है, किन्तु ‘पन' का अर्थ है किन्तु' 'प्रत्युत'। (२) कहीं-कहीं पालि के स्वर-परिवर्तन संस्कृत की अपेक्षा अधिक प्राचीन हैं। इस प्रकार पालि का 'गरू' शब्द समानार्थवाची संस्कृत 'गुरु' शब्द से अधिक प्राचीन है। इसी प्रकार संस्कृत 'अगरु' या 'अगुरु' की अपेक्षा समानार्थवाची पालि शब्द 'अगरु' 'अगलु' अधिक प्राचीन हैं। कहीं-कहीं पालि शब्दों का मूल रूप संस्कृत में न मिल कर प्राचीन वैदिक भाषा में मिलता है। 'अम्ब' शब्द का उदाहरण हम पहले दे चुके हैं। 'सिम्बल' या 'सिम्बली' (कपास का पेड़) शब्द भी ऐसा है यह संस्कृत के ' शाल्मली' से नहीं लिया गया, किन्तु वैदिक भाषा के 'शिम्बल' (कपास का फूल) से उद्भूत है । इसी प्रकार अन्य अनेक शब्दों के मूल रूप भी संस्कृत में न मिल कर वैदिक भाषा में मिलते हैं।' १. अधिक उदाहरणों के लिये देखिये, पालि लिटरेचर एंड लेंग्वेज, पृष्ठ ८०-८१ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर-सन्धि स्वर-सन्धि के नियमों का विवेचन करना यहाँ हमारा उद्देश्य नहीं है। यह तो व्याकरण का विषय है। यहाँ हम केवल स्वर-परिवर्तन की दृष्टि से कुछ महत्वपूर्ण विशेषताओं का ही उल्लेख करेंगे। (१) एक पद के अन्तिम स्वर का दूसरे पद के प्रारम्भिक स्वर के साथ मिलना पालि में अनिवार्य नहीं है। इस प्रकार से अज्ज यदा अयं धम्मलिपी लिखिता ती एव प्राणा आरभिरे' (गिरनार शिलालेख) जैसे प्रयोग पालि में दिखाई पड़ते हैं। फिर भी जहाँ समान स्वर मिलते हैं तो संस्कृत के समान ही दोनों मिलकर दीर्घ हो जाते हैं, जैसे बुद्ध+अनुस्सति =बुद्धानुस्सति; सम्मन्ति+ इध-सम्मन्तीध; बहु+उपकारं= बहुपकारं; दुग्गता-अहं दुग्गताहं। (२) अ अथवा आ से परे इ और उ आने पर क्रमशः ए और ओ होना भी पालि में संस्कृत के समान ही दृष्टिगोचर होता है। यह परिवर्तन अधिकांश पालि के प्राचीनतम रूप--गाथाओं की भाषा--में दृष्टिगोचर होता है। अव+ इच्च = अवेच्च; उप+इतो= उपेतो; मुख+उदकं = मुखोदकं; मच्चुस्स+ इव+उदके= मच्चुस्सेवोदके; च+ इमे= चेमे। (३) अ से परे असवर्ण स्वर रहने पर इ का य और उ अथवा ओ से परे असवर्ण स्वर रहने पर उ का व हो जाता है। वि+आकतो-व्याकतो; यो अयं--प्वायं; सु+आगतं = स्वागतं (४) असवर्ण स्वरों के मिलने पर कहीं-कहीं (१) पूर्व स्वर का लोप हो जाता है, (२) पर स्वर का लोप हो जाता है, (३) पर स्वर का दीर्घ हो जाता है, (४) पूर्व स्वर का दीर्घ हो जाता है । उदारहण (१) यस्स ---इन्द्रियाणि = यस्सिन्द्रियाणि; मे+अत्थि = मत्थि (२) चत्तारो+इमे =चत्तारो मे; ते+इमे=तेमे (३) सचे+-अयं सचायं; (४) देव+इति = देवाति; लोकस्स+-इति = लोकस्साति । (५) अनेक स्वर-सन्धियों में व्यंजनों का आगम होता है, जैसे न+-इदं = नयिदं; लघु+एस्सति = लघुमेस्सति; यथा+एव = यथरिव; तथा+एव== तथरिव; गिरि+इव गिरिमिव; सम्मा+अत्थो=सम्मदत्त्थो, आदि, आदि । (६) कभी-कभी अनुस्वार से परे स्वर का लोप हो जाता है, जैसे इदं+ अपि = इदंपि; दातुं+ अपि = दातुंपि; अभिनंदुं+इति = अभिनंदुति । इस Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकार की सन्धियों के आधार पर गायगर ने अनुमान किया है कि पालि में स्वतन्त्र रूप में प्रयुक्त होने वारेले 'व' (सं० 'इव' के लिये) 'पि' (सं० 'अपि' के लिये) 'ति' (सं० 'इति के लिये) 'दानि' (सं० 'इदानीं' के लिये); पोसथ (उपोसथ, सं० 'उपवसथ' के लिये) आदि शब्द लुप्त सन्धियों के स्मारक स्वरूप हैं। व्यंजन-परिवर्तन व्यंजनों का परिवर्तन पालि में प्रधानतः शब्द में उनकी स्थिति के अनुसार हुआ है। सामान्यतः संस्कृत आदि-व्यंजन पालि में सुरक्षित रहते हैं। मध्य-व्यंजनों का विकास मध्य-कालीन भारतीय आर्य भाषा-युग में तीन अवस्थाओं में हुआ है। पहली अवस्था में अघोष स्पर्श घोष हो जाते हैं । दूसरी अवस्था में घोष स्पर्श 'य' ध्वनि में परिवर्तित हो जाते हैं। तृतीय अवस्था में य ध्वनि का भी लोप हो जाता है। पालि में प्रधानतः प्रथम दो अवस्थाएँ ही पाई जाती हैं। तीसरी अवस्था का विकास प्राकृत भाषाओं में हुआ है। अन्त्य व्यंजन पालि और प्राकृतों में समान रूप से ही लुप्त कर दिये जाते हैं। व्यंजन-परिवर्तनों का विस्तृत अध्ययन इस प्रकार है। असंयुक्त व्यंजन (अ) आदि व्यंजन (१) सामान्यतः, शब्द के आदि में अवस्थित संस्कृत असंयुक्त व्यंजन (अल्पप्राण क्, त्, प्, ग्, द्, ब आदि और महाप्राण ख्, थ्, फ्, घ्, ध्, भ्, आदि) पालि में सुरक्षित रहते हैं। उदाहरणसंस्कृत पालि करोति करोति (प्राकृत करेदि) गच्छति गच्छति (प्राकृत गच्छेदि) चौरः चोरो जनः जनो ताडयति पुत्रः दन्तः दन्तो बधिर बहिरो खनति खनति ताडेदि पुत्तो Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फलं घट: घटो फलं (२) पाँच सानुनासिक व्यंजनों (ङ, ञ, ण, न्, म्) में से संस्कृत में भी केवल न और म् ही शब्द के आदि में आते हैं, अन्य नहीं। यही नियम पालि में भी है। अतः संस्कृत शब्द के आदि में अवस्थित न और म् पालि में भी सुरक्षित रहते हैं। प्राकृतों में चल कर इनका परिवर्तन ण् में हो गया है । 'म्' तो वहाँ भी सुरक्षित रहा है। नाशयति नासेति (प्रा० णासेइ) मखं मन्त्रयति मन्त्रेति (प्रा० मन्तेदि) (३) शब्द के आदि में अवस्थित अन्तःस्थ य, र, ल, व् भी सुरक्षित रहते हैं। र् के विषय में यह विशेषता अवश्य ध्यान देने योग्य है कि र् काल में परिवर्तन होना पालि में एक बड़ी साधारण बात है । मागधी प्राकृत का तो यह एक नियम ही है और अन्य प्राकृतों में भी यह नियम कहीं-कहीं पाया जाता है । य के विषय में भी यह विशेषता ध्यान देने योग्य है कि पालि में तो वह सुरक्षित रहता है (कहीं कहीं उसके साथ ही ल् में परिवर्तित स्वरूप भी दिखाई पड़ता है) किन्तु प्राकृतों में चलकर बाद में उसका ज् में परिवर्तन हो गया है। उदाहरणरूपानि रूपानि (लूपानि भी, विशेषतः अशोक के धौली और जौगढ़ के लेखों में) रुज्यते लुज्जति राजा राज (लाजा, विशेषतः अशोक के पूर्व के लेखों में) रौद्र यावत् याव (प्राकृत जाव) यष्टिका यट्ठिका (लट्ठिका भी) वातः वादो (४) संस्कृत ऊष्म श्, ष्, म् का अन्तर्भाव पालि में केवल 'स्' में हो गया है । अतः पालि में केवल दन्त्य म् है । पच्छिमी प्राकृतों की भी यही विशेषता है । इसके Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६ ) विपरीत पूर्वी प्राकृतों में केवल एक तालव्य 'श्' रह गया है । अशोक के शिलालेखों में हम इस विकास-परम्परा के सभी रूप देखते हैं। इस प्रकार मगध के शिलालेखों में केवल दन्त्य स् पाया जाता है । गिरनार के शिलालेखों में स् और श् दोनों ही पाये जाते हैं। उत्तर-पच्छिम के शिलालेखों में तीनों ही श, ष और स् पाये जाते है। बोलियों के मिश्रण के कारण फिर भी इस सम्बन्ध में कोई नियम नहीं बाँधा जा सकता । यह परिवर्तन आदि और मध्य दोनों ही स्थितियों में दिखाई पड़ता है । सार्थवाह सत्थवाहो श्रवणीय सवनीय देशः देसो परशु फरसु खुज्ज पुरुष पुरिस (५) उपर्युक्त नियम (१) के अपवाद-स्वरूप निम्नलिखित तथ्य दृष्टिगोचर होते हैं, जो ध्यान देने योग्य है (अ) कहीं कहीं शब्द के आदि में पालि में प्राणध्वनि (ह.) का आगमन होता है। इसे यों भी कहा जा सकता है कि शब्द के आदि में अवस्थित संस्कृत अघोष अल्पप्राण व्यंजन (क , त्, प् आदि) पालि में उसी वर्ग के अघोष महाप्राण व्यंजन (ख्, थ्, फ् आदि) हो जाते हैं । उदाहरण कील खील कुब्ज.. कृत्वः खत्तु परशु (आ) कहीं कहीं, किन्तु अपेक्षाकृत कम संख्या में, उपर्युक्त नियम का विपर्यय भी देखा जाता है, अर्थात् संस्कृत अघोष महाप्राण व्यंजनों के स्थान पर पालि में उसी वर्ग के अघोष अल्पप्राण व्यंजन भी दिखाई पड़ते हैं। झल्लिका जल्लिका भगिनी बहिनी (बहिणी भी) (इ) वर्गों के उच्चारण-स्थान में परिवर्तन भी पालि में बहुत पाया जाता है। आदि और मध्य दोनों ही स्थितियों में यह होता है। शब्द के आदि में होने वाले कुछ परिवर्तनों के उदाहरण नीचे दिये जाते है। फरसु Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डसति (१) कहीं-कहीं कंठ्य स्पर्शों की जगह तालव्य स्पर्श हो जाते हैं कुन्द चुन्द (२) कहीं-कहीं दन्त्य स्पर्शों की जगह मूर्धन्य स्पर्श हो जाते हैं दहति डहति दाह डाह दसति आ-मध्य-व्यंजन पालि में मध्य-व्यंजन सम्बन्धी परिवर्तनों का विचार करते समय हम उन प्रवृत्तियों की सूचना पाते हैं, जिन्हें 'प्राकृतत्व' या 'प्राकृतपन' कहा गया है । वास्तव में बात यह है कि जिन परिवर्तनों का पालि में सूत्रपात ही हुआ है उनका अन्तिम विकास प्राकृतों में चल कर हुआ है। इस विकास की तीन अवस्थाओं का निर्देश हम पहले कर चुके हैं। प्राकृतों के साथ मिलने वाली पालि की ये विशेषताएँ अनेक बोलियों के संमिश्रण के आधार पर व्याख्यात की जा सकती हैं। ये समानताएँ विशेषतः मध्य-व्यंजन-सम्बन्धी परिवर्तनों में पालि में कहीं-कहीं दृष्टिगोचर होती है, उदाहरणत:-- (१) शब्द के मध्य में स्थित संस्कृत अघोष स्पर्श पालि में उसी वर्ग के घोष स्पर्श हो जाते हैं। इस प्रकार क्, च्, ट्, त्, प्, थ् आदि क्रमशः ग, ज्, ळ्, द्, ब्, ध आदि हो जाते हैं। उदाहरण-- प्रतिकृत्य पटिगच्च (पटिकच्च भी) शाकल सागल माकन्दिक मागन्दिय सुजा कक्खट कक्खळ (निर्दयी) खेळ (गाँव) स्फटिक फळिक उताहो उदाहु पृषत पसद अपांग अवंग कपि कवि खेट Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५८ ) शुक कपित्थ कविट्ठ • ग्रथित गधित (गथित भी) इस प्रकार के परिवर्तन अपभ्रंश और कई प्राकृतों में भी पाये जाते हैं। (२) उपर्युक्त परिवर्तन से एक अधिक विकसित अवस्था वह है जिसमें अघोष स्पर्शों का लोप हो जाता है और वे 'य' या 'व्' ध्वनि में परिवर्तित हो जाते हैं। इसके बाद ही वह अवस्था होती है जिसमें 'य' या 'व' व्यंजन का भी बिलकुल लोप हो जाता है । सं० 'शत' शब्द के विकृत या विकसित रूपों में हम इस विकास का अच्छा अध्ययन कर सकते हैं। पहले इसका पालि में 'सत' होता है, फिर अघोष स्पर्श 'त्' का 'द्' होता है और इस प्रकार प्राकृत में 'सद' रूप बनता है । इसका भी आगे विकसित रूप 'सय' बनता है और फिर अन्त में 'सअ' और 'सौ'। अघोष स्पर्शों का लुप्त हो कर 'य' या 'व' में परिवर्तित होना प्राकृतों के समान पालि में भी पाया जाता है । अतः वह भी पालि का एक प्राकृतपन' है । उदाहरण-- सुव (सुक भी) खादित खायित स्वादते सायति (सादियति भी) अपरगोदान अपरगोयान कुशीनगर कुसिनअर-कुसिनार कौशिक कोसिय (३) शब्द के मध्य में स्थित घोष महाप्राण व्यंजनों (घ, ध्, भ, आदि) का 'ह' में परिवर्तित हो जाना प्राकृतों की एक विशेषता है। यह प्रवृत्ति पालि में भी यत्र-तत्र पाई जाती है। लघु लहु. रुधिर रुहिर (रुधिर भी) साधु साहु (अधितकर तो साधु ही) इसके विपरीत कहीं-कहीं पालि वैदिक भाषा के घोष महाप्राण व्यंजनों को सुरक्षित रखती है जब कि संस्कृत में उनके स्थान में 'ह' हो जाता है। इसका उदाहरण पालि 'इध' (यहाँ) शब्द है । अवेस्ता (जिसमें भी इसका रूप 'इध' होता है) के आधार पर हम जान सकते हैं कि इसका वैदिक स्वरूप 'इध' ही था। किन्तु संस्कृत में यह 'इह' हो गया है। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) शब्द के आदि में अवस्थित व्यंजनों में प्राण-ध्वनि के आगमऔर लोप न का उल्लेख हम पहले कर चुके है। शब्द के मध्य में स्थित व्यंजनों में भी यह परिवर्तन होता है, अर्थात् मध्य में स्थित संस्कृत अघोष अल्पप्राण व्यंजन (क्, त्, प् आदि) पालि में उसी वर्ग के अघोष महाप्राण व्यंजन हो जाते हैंशुनक (कुत्ता) सुनख (प्रा० सुनह) सुकुमार सुखुमाल इसी प्रकार कहीं-कहीं, किन्तु आदि स्थित व्यंजनों की तरह ही बहुत कम, प्राण-ध्वनि का लोप भी हो जाता हैकफोणि कपोणि (५) कहीं कहीं नियम (१) के विपरीत सं० घोष स्पर्श पालि में उसी वर्ग के अघोष स्पर्श हो जाते हैं। ये परिवर्तन बोलियों की विभिन्नताओं के कारण अगुरु अकलु छगल छकल परिघ पलिख (पलिघ भी) कुसीद कुसीत मृदंग मुतिङ्ग उपधेय (तकिया) उपथेय्य पिधीयते (ढाँका जाता है) पिथीयति शावक (जानवर का बच्चा) चापक प्रावरण पापुरण (६) व्यंजनों के उच्चारण-स्थान में परिवर्तन । यह परिवर्तन मध्य-स्थित व्यंजनों में आदि-स्थित व्यंजनों की अपेक्षा बहुत अधिक हुआ है। इस सम्बन्ध में सब से अधिक महत्वपूर्ण परिवर्तन सं० दन्त्य व्यंजनों का पालि में मुर्धन्यीकरण है। सं० दन्त्य व्यंजन त्, थ, द्, ध्, न पालि में क्रमशः ट, ठ, ड्, ल्ह, ण् हो जाते हैं। यह नियम सामान्यतः आदि और मध्य दोनों ही स्थितियों के लिये ठीक है। पतंग पटंग हट Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यापृत व्यावट प्रतिमा पटिमा प्रथम पठम पथिवी. पठवी (पथवी भी) दाह डाह द्वैध (सन्देह) द्वेल्हक शकुन सकुण (७) पालि में मध्य-स्थित व्यंजनों के अन्य उच्चारण-सम्बन्धी परिवर्तन इस प्रकार हैं (अ) कहीं-कहीं सं० तालव्य स्पर्शों के स्थान पर पालि में दन्त्य स्पर्श होते हैं। चिकित्सति तिकिच्छति जाज्वल्यते दद्दल्लति (आ) कहीं-कहीं मूर्धन्य के स्थान पर दन्त्य होते हैं-- डिडिम देण्डिम (दिण्डिम भी) (इ) कहीं-कहीं द् के स्थान पर र् होता है-- एकादस एकारस (एकादम भी) ऐरिस (एदिस भी) ईदृक्षा एरिक्खा (एदिक्खा भी) (ई) कहीं-कहीं न के स्थान पर ल या र् होता है-- एनः (अपराध) एल नेरंजना नेरंजरा (उ) कहीं-कहीं ण् के स्थान पर ल होता है-- वेळ मृणाल मुळाल (ऊ) र के स्थान पर ल अधिकतर होता है । आदि-स्थित र् के ल में परिवर्तन के उदाहरण पहले दिये जा चुके हैं । मध्य-स्थित र के ल में परिवर्तन के कुछ उदाहरण ये हैंएरंड एलंद तरुण तलुण (तरुण भी) ईदृश वेणु Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नंगल ( ६१ ) परिष्वजते पलिस्सजति परिखनति पलिखनति पालि में यह परिवर्तन यद्यपि अधिकतर पाया जाता है, किन्तु नियमतः यह मागधी प्राकृत की ही विशेषता है । कुछ अन्य प्राकृतों में भी इसके स्फुट उदाहरण मिलते हैं। (ए) कहीं-कहीं सं० ल के स्थान पर पालि में र् पाया जाता है। अलिंजर अरंजर आलम्बन आरम्मण इसके अपवाद-स्वरूप कहीं कहीं ल के स्थान पर न भी पाया जाता हैदेहली देहनी आदि में भी इसी प्रकार लांगल (हल) (ऐ) सं० य के स्थान पर पालि व्आयुध आवुध आयुष्मान् आवुसो कषाय कसाव (ओ) सं० व् के स्थान पर पालि य्-- दाव दाय (दाव भी) (औ) सं० व् के स्थान पर पालि म् और सं० म् के स्थान पर पालि व्द्रविड दमिळ मीमांसते वीमसति कुछ अनियमित प्रयोग भी मिलते हैं, जैसे-- पिपीलिका किपिल्लका (८) वर्ण-विपर्यय । शब्द के मध्य में स्थित व्यंजनों में पारस्परिक एक दूसरे की जगह ग्रहण कर लेना भी प्रायः देखा जाता है। यह विपर्यय अधिकतर 'र' व्यंजन में होता है। आरालिक आलारिक करेणु कणेरु रहद प्रावरण पारुपण (पापुरण भी) Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६२ ) किन्तु अन्य व्यंजनों में भी, मशक संयुक्त व्यंजन मकस ( अ ) श्रादि संयुक्त व्यंजन • संस्कृत में भी शब्द के आदि में संयुक्त व्यंजनों का प्रयोग प्रायः सीमित होता है । प्रायः दो ही प्रकार के संयुक्त व्यंजन संस्कृत में शब्द के आदि में पाये जाते हैं, (१) व्यंजन + अन्तःस्थ (य्, र्, ल्, व् ); (२) व्यंजन + ऊष्म ( श्, ष्, स् ) । व्यंजन + अन्तःस्थ में अन्तःस्थ कभी पहले न आकर व्यंजन ही पहले आते हैं । इस प्रकार शब्द के आदि में क्रू, त्य्, प्रू, ग्यू जैसे संयुक्त व्यंजन ही हो सकते हैं, ल्क्, र्चे जैसे नहीं । अन्तःस्थ + ऊष्म में ऊष्म पहले भी आ सकते हैं, जैसे स्त्, श्च् आदि और पीछे भी जैसे क्ष् (क् +श्) में (१) व्यंजन + अन्तःस्थ —— इस अवस्था में व्यंजन के बाद की ध्वनि लुप्त होकर व्यंजन का ही रूप धारण कर लेती है- प्रशान्त पसन्तो प्रज्ञा पञ्ञा ग्राम गाम कहीं-कहीं स्वर-भक्ति के कारण बीच में स्वर आने के कारण संयुक्त व्यंजन केवल असंयुक्त कर दिये जाते हैं--- क्लेश किलेसो क्लान्त किलन्तो कहीं-कहीं, जब व्यंजन + ल् का संयोग होता है, तो यू का पूर्ववर्ती व्यंजन तालव्य हो जाता है त्यजति चजति (२) ऊष्म + व्यंजन -- इस अवस्था में ऊष्म का लोप हो जाता है और वह परवर्ती व्यंजन का रूप धारण कर लेता है तथा वह व्यंजन, यदि वह अल्प प्राण होता है, तो महाप्राण हो जाता है । स्कम्भः स्तूपः खम्भो थूपो Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्षि स्थापयति ठापेति स्थितः ठितो (३) शब्द के आदि में क्ष् होने पर पालि में उसका क्ख् या च्छ हो जाता है। मध्य-स्थिति में भी यही परिवर्तन होता है। यहाँ दोनों के ही उदाहरण दे देने ठीक होंगे--- क्षुधा खुधा दक्षिणा दक्खिणा मक्षिका मक्खिका क्षारिका छारिका कक्ष कच्छ तक्षति तच्छति अक्खि (अच्छि भी) कहीं कहीं 'क्ष्' का परिवर्तित रूप 'ग्घ्' या 'ज्झ्' भी होता है। गायगर का मत है कि इस दशा में संस्कृत अक्षर क्ष् एक विशेष भारत-यूरोपियन ध्वनि का विकसित रूप हैप्रक्षरति पग्घरति क्षाम झाम . (आ) मध्य-संयुक्त-व्यंजन ___ मध्य-संयुक्त-व्यंजनों के परिवर्तन में पालि में व्यंजन-अनुरूपता, व्यंजन-विपर्यय, व्यंजनों के उच्चारण-स्थान में परिवर्तन, प्राणध्वनि का आगमन और लोप, आदि सभी प्रवृत्तियाँ पाई जाती है। विशेषतः व्यंजन -अनुरूपता और व्यंजनविपर्यय अधिक पाये जाते हैं। नीचे के विवरण से यह स्पष्ट होगा। (१) व्यंजन-अनुरूपता (अ) पूर्ववर्ती व्यंजन का लुप्त होकर परवर्ती व्यंजन का रूप धारण कर लेना (१) स्पर्श+ स्पर्श में, यथा उक्त BE सप्त Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६४ ) उत्पद्यते उप्पज्जति मुद्ग (मूंग) मुग्ग (२) ऊष्म+स्पर्श में, यथा आश्चर्य अच्छेर निष्क निक्ख, नेक्स यहाँ पर साथ-साथ प्राण-ध्वनि का आगमन भी हो गया है। (३) अन्तःस्थ+स्पर्श, या ऊष्म, या अनुनासिक व्यंजन में, यथा कर्क कक्क किल्बिष किब्बिस वल्क वाक कर्षक कस्सक कल्माष कम्मास (४) अनुनासिक+अनुनासिक में, यथा निम्न निन्न उन्मूलयति उम्मूलेति (५) +ल, या य, या व में, यथा दुर्लभ दुल्लभ आर्य अय्य (अरिय भी) उदीर्यते। उदिय्यति निर्याति निय्याति कुर्वन्ति कुब्बन्ति (आ) परवर्ती व्यंजन का लुप्त होकर पूर्ववर्ती व्यंजन का रूप धारण कर लेना(१) स्पर्श+ अनुनासिक में, यथा लग्न लग्ग अग्निः अग्गि उद्विग्न उब्बिग्ग स्वप्न सोप्प (२) स्पर्श+र याल् में, यथा Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तक्र शुक्ल (३) स्पर्श + अन्तःस्थ में, शक्य उच्यते प्रज्वलति ( ४ ) ऊष्म + अस्तःस्थ में, यथा मिश्र अवश्यम् अश्व श्लेष्मन् यथा (५) अनुनासिक - अन्तःस्थ में, यथा किण्व रम्य कल्य बिल्व तीव्र (२) व्यंजन - विपर्यय ६५ ) सह्य मह्यं ( सम्भव ) तक्क सुक्क सक्क वुच्चति पज्जलति मिस्स अवस्सं अस्स सेम्ह (६) व्य्, व् जैसे संयुक्त व्यंजनों में, जो ब्बू हो जाते हैं, परिव्यय परिब्बय तिब्व किण्ण रम्म कल्ल बिल्ल (१) ह + अनुनासिक, या 'य्', या 'व्' - इस व्यंजन-सयोग में विपयं होता है, अर्थात् 'हण्'' 'हन्', 'हम', 'हय्', 'हव', इन संयुक्त व्यंजनों के क्रमशः 'ह', न्ह, 'म्ह' 'व्ह', 'वह' रूप हो जाते हैं... पूर्वाह्ण अपराह्ण जिह्म, पुब्वण्ह अपरण्ह जिम्ह मय्ह महं Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिह्नत जिह्वा ( ६६ ) चिन्ह जिव्हा मह्यं -- मय्हं के सादृश्य के आधार पर तुभ्यं का भी पालि प्रतिरूप तुम्हं हो गया है। सुस्नात विस्मय (२) ऊष्म + अनुनासिक -- इस संयोग - दशा में भी व्यंजन - विपर्यय होता है । पहले ऊष्म का ह में परिवर्तन होता है और फिर दोनों का विपर्यय । इस प्रकार ‘शून्', 'श्म्', 'ष्ण्', 'ष्म्', 'स्न्' 'स्म्' क्रमशः 'व्ह', 'म्ह', 'व्ह' 'म्ह', 'न्ह्' म्ह, हो जाते हैं- प्रश्न पञ्ह (अर्द्धमागधी पण्ह ) अश्मना (पत्थर के द्वारा ) अम्हना उष्णा (गर्मी) उहा कृष्ण कण्ह तृष्णा तहा ग्रीष्म गिम्ह सुन्हा विम्य (३) 'क्षण', 'क्ष्म्', 'त्स्न्' - इन संयुक्त व्यंजनों के स्वरूप विपर्यय के कारण क्रमशः 'ण्ह', 'मह', 'न्ह', हो जाते हैं । इस विकास का क्रम यह है कि पहले 'क्षण', 'क्ष्म्', 'त्स्न्', के क्रमशः रूप 'पुण्', 'ष्म् 'स्न्' होते हैं और फिर इनका विपर्यय हो कर उपर्युक्त नियम (२) के अनुसार इनके क्रमश: 'व्ह', म्ह, " 'न्ह' रूप बनते हैं- लक्ष्ण (सुन्दर, कोमल ) पक्ष्म ( पलक ) ज्योत्स्ना सह पम्ह जुण्हा ( पहले 'जुन्हा' रूप बना और फिर न का मूर्द्धन्य होकर 'जुन्हा' हो गया ) (२) व्यंजनों के उच्चारण-स्थान में परिवर्तन- (१) दन्त्य स्पर्श +य् -- इस संयोग- दशा मे दन्त्य स्पर्शो का तालव्यी करण हो जाता है- Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६७ ) सत्य छिद्यते सच्च छिज्जति जच्चा जात्या ‘ण्य' संयुक्त व्यंजनों में भी कर्मण्य कम्मञ्च (२) संस्कृत तालव्य संयुक्त व्यंजनों के स्थान पर पालि में कहीं कहीं कंठ्य संयुक्त व्यंजन हो जाते हैं, कहीं कहीं मूर्धन्य संयुक्त व्यंजन और कहीं कहीं दन्त्य संयुक्त व्यंजन। (अ) तालव्य के स्थान पर कंठ्य भैषज्य भिसक्क (भेसज्ज भी) (आ) तालव्य के स्थान पर मर्द्धन्य आज्ञा आणा (इ) तालव्य के स्थान पर दन्य उच्छिष्ठ उत्तिट्ठ (३) मध्यस्थित दन्त्य संयुक्त व्यंजनों का मूर्द्धन्यीकरण । यह एक महत्त्व पूर्ण परिवर्तन है। इस परिवर्तन के कारण 'त' 'र्थ ''ई' 'ई' क्रमशः ‘ट्ट' 'टठ्', 'ड्ड', 'ढढ्' हो जाते हैंआर्त अट्ट कैवर्त वर्धते वढ्ढति प्रस्थाय पठाय कूटस्थ कूटट्ठ (४) प्राण-ध्वनि का आगमन और लोपआगमन, यथा शृङगाटक (चौराहा) पिप्पल पिफ्फल लोप, यथा केवट्ट सिंघाटक, लोत्र लोद्द मूर्च्छति । मुच्चति Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६८ ) अन्त्य - व्यंजन संस्कृत के अन्त्य - व्यंजन पालि में लुप्त हो जाते हैं भगवान् भगवा सम्यक् विद्युत् विज्ज़ पालि का शब्द-साधन और वाक्य - विचार सम्मा पालि के ध्वनि - समूह की अपेक्षा उसका रूप-विधान संस्कृत के और भी अधिक समीप है । मिथ्या सादृश्य के आधार पर संस्कृत रूपों का सरलीकरण पालि रूप-विधान की एक मुख्य विशेषता है। पहले कहा जा चुका है कि एक ही प्राचीन आर्य भाषा से संस्कृत और पालि दोनों का विकास हुआ है । संस्कृत व्याकरण का जन्म वैदिक भाषा की विभिन्नताओं को एकरूपता देने के लिये हुआ । अतः संस्कृत में ऐसे अनेक नियम व्याकरण के नियमानुसार वर्जित कर दिये गये, जो वैदिक भाषा में प्रचलित थे । पालि चूँकि लोक भाषा थी, उसमें ये प्रयोग चले आये हैं । यह पालि के रूप - विचार की एक मुख्य विशेषता है। उदाहरणों से यह स्पष्ट होगा । पहले मिथ्या सादृश्य के आधार पर रूपों के सरलीकरण को ले । पालि में संस्कृत की अपेक्षा वर्ण कम हैं, यह हम पहले निर्देश कर ही चुके हैं। संस्कृत में तीन वचनों का प्रयोग होता है, एक वचन, द्विवचन और बहुवचन | पालि में केवल दो वचन हैं। एक वचन और अनेक वचन । वहाँ द्विवचन नहीं है । उसका भी काम वहाँ अनेक वचन से ही निकाल लिया जाता है। यद्यपि कहने को पालि में भी सात विभक्तियाँ हैं, किन्तु उनके रूपों में बड़ी सरलता है । चतुर्थी और षष्ठी के रूपों में प्रायः कोई भेद नहीं होता । तृतीया और पंचमी के अनेक वचन के रूप भी प्रायः समान ही होते हैं । पालि में व्यंजनान्त पदों का प्रयोग भी नही होता । वहाँ सभी पद स्वरान्त हैं। संस्कृत के व्यंजनान्त पद भी पालि में स्वरान्त हो जाते हैं । इसी प्रकार मंज्ञा और सर्वनाम के रूपों में यही सरलीकरण की प्रवृति दृष्टिगोचर होती है । क्रिया - विभाग के विषय में भी यही बात ठीक है । संस्कृत के समान यद्यपि पालि में भी परस्मैपद ( परस्सपद) और आत्मनेपद, ( अत्तनोपद) ये दो पद हैं, किन्तु व्यवहार में आत्मनेपद का प्रयोग कदाचित् ही कभी होता हैं । यहाँ तक कि कर्मवाच्य आदि प्रयोगों में भी जहाँ संस्कृत में आत्मनेपद आवश्यक 1 Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूप से होना चाहिये, पालि में उसका प्रयोग प्रायः विकल्प से ही होता है । संस्कृत के दम गण पालि में केवल सात रह गये हैं। इसी प्रकार संस्कृत के दम लकारों के स्थान पर पालि में केवल आठ लकार हैं। लिट् लकार का प्रयोग पालि में नहीं के बराबर होता है । लङ् और लुङ वहाँ भूतकाल द्योतित करने के लिये हैं, किन्तु इनमें भी प्रायः लुङ् का ही प्रयोग पालि में अधिकता से होता है । इस प्रकार संस्कृत की अपेक्षा सरलीकरण की प्रवृत्ति पालि में अधिकता से पाई जाती है। वैदिक भाषा से प्राप्त रूपों की अनेकता पालि में सुरक्षित है, जब कि मंस्कृत ने उसे व्यवस्थित कर उसमें एकरूपताला दी है। वेद की भाषा में पुल्लिङ्ग अकारात शब्दों के बहुवचन के रूप में 'असक.प्रत्यय भी लगता था। इस प्रकार 'देव' शब्द का प्रथमा बहुवचन का रूप वहाँ 'देवास:' मिलता है। संस्कृत ने इस रूप को ग्रहण नहीं किया है। किन्तु पालि में 'देवासे' 'धम्मासे' 'बुद्धासे' जैसे प्रयोगों में वह सुरक्षित है। इसी प्रकार 'देव' शब्द का ततीया बहुवचन का रूप वैदिक भाषा में 'देवेभिः' है। पालि में यह 'देवेभि' के रूप में सुरक्षित है। संस्कृत ने इस रूप को भी ग्रहण नहीं किया है। वैदिक भाषा में प्रायः चतुर्थी विभक्ति के लिये षष्ठी का प्रयोग और षष्ठी विभक्ति के लिये चतुर्थी का प्रयोग पाया जाता है । संस्कृत ने इसे निश्चित नियम में वाँध कर रोक दिया है। किन्तु पालि में यह व्यत्यय ब्राह्मणस्म धनं ददाति' ब्राह्मणस्स मिस्मों जैसे प्रयोगो में मिलता है। निश्चयत: पालि में चतुर्थी और षष्ठी विभक्तियों के रूप ही प्रायः समान होते हैं। वैदिक भाषा में 'गो' और 'पति' शब्दों के षष्ठी बहुवचन और तृतीया एक वचन के रूप क्रमशः 'गोनाम' और 'पतिना' होते थे। पालि में ये क्रमश: 'गोनं' या 'गुन्नं' तथा 'पतिना' के रूप में सुरक्षित हैं। किन्तु संस्कृत ने इन्हें भी स्वीकार नहीं किया है। इसी प्रकार वैदिक भाषा में नपुंसक लिंग की जगह बहुधा पुल्लिग का भी प्रयोग होता था । संस्कृत में यह प्रवृत्ति नहीं पाई जाती। किन्तु पालि में बहुधा ऐसा हो जाता है। उदाहरणत: 'फल' शब्द के प्रथमा के बहुवचन में 'फला' और 'फलानि' दोनों ही रूप होते हैं। यही प्रवृत्ति क्रिया-रूपों में भी दृष्टिगोचर होती है । वैदिक भाषा में आत्मनेपद और परस्मैपद का भेद उतना स्पष्ट नहीं था। वहां 'इच्छति"इच्छते' 'युध्यति"युध्यते' जैमे दोनों प्रयोग दृष्टिगोचर होते हैं। पालि मेंयह प्रवृत्ति समान रूप मे ही दृष्टिगोचर होती है। संस्कृत में आत्मनपद और परम्भपद का अधिक निश्चित विधान कर दिया गया है। 'श्रु' धातु का वैदिक भाषा में अनुज्ञा-काल का मध्यम-पुरुष का एकवचन का रूप 'शृणुधी' और अनुज्ञा-काल Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७० ) का मध्यम-पुरुष का बहुवचन का रूप 'शृणोत' होता था। पालि में ये क्रमशः 'सुणुहि' और 'सुणोथ' के रूपों में सुरक्षित हैं। किन्तु संस्कृत व्याकरण ने इन्हें भी स्वीकार नहीं किया है। वैदिक भाषा में 'हन्' धातु का लुङ् लकार का उत्तमपुरुष का एकवचन का रूप 'बधीं होता था। संस्कृत ने इसे भी स्वीकार नहीं किया है। किन्तु पालि में यह 'बधि' के रूप में सुरक्षित है । कृदन्त के प्रयोग में भी संस्कृत और पालि में उपर्युक्त प्रवृत्ति दृष्टिगोचर होती है। वेद में निमित्तार्थक १४ प्रत्ययों का प्रयोग होता है, यथा से, सेन, असे, असेन, कसे, कसेन, अध्य, अध्यैन, कध्य, कध्यैन, शध्ये, शध्यैन, तवेन, तुं। संस्कृत ने इनमें से केवल 'तुं' प्रत्यय को ले लिया है। पालि ने उसके साथ साथ 'तवेन' प्रत्यय को भी ले लिया है। वैदिक 'दातवे' या 'दात' पालि के 'दातवे' में पूरी तरह सुरक्षित है । इसी प्रकार 'कातवे' 'विप्पहातवे' 'निधातवे' जैसे प्रयोग भी पालि में दृष्टिगोचर होते हैं, जो संस्कृत में नहीं मिलते। 'ल्यप्' के स्थान पर वेद में 'त्वा' का भी प्रयोग मिलता है, जैसे 'परिधापयित्वा'। संस्कृत-व्याकरण के अनुसार यह रूप अशुद्ध है। वहाँ उपसर्ग-पूर्वक धातु में अनिवार्यतः 'ल्यप्' होता है, किन्तु पालि में वैदिक भाषा की तरह ‘त्वा' देखा जाता है यथा अभिवदिन्त्वा, निस्साय आदि । वेद की भाषा में पूर्वकालिक अर्थ में 'त्वाय' 'त्वीन' आदि प्रत्येक लगा कर 'गत्वाय' 'इष्ट्वीन' जैसे शब्द बनते थे । पालि में 'गत्वान' 'कातून' जैसे प्रयोगों में ये सुरक्षित हैं, किन्तु संस्कृत में नहीं मिलते । वेद की भाषा में विभक्ति, वचन, वर्ण और काल के अनेक व्यत्यय पाये जाते हैं। पालि में भी ये सब पाये जाते हैं। 'एकस्मिं समयस्मिं' के लिये 'एकं समय' (विभक्ति-व्यत्यय) 'सन्ति इमस्मिं काये केसा लोमा नखा' के लिये 'अस्ति इमस्मिं काये केसा, लोमा, नखा, (वचन-व्यत्यय); 'बुद्धेभि' के लिये 'बुद्धेहि', 'दुक्कटं' के लिये 'दुक्कतं' (वर्ण-व्यत्यय) 'अनेक जाति-संसारं सन्धाविस्सं' (भूतकाल के अर्थ में भविष्यत् काल काल-व्यत्यय ) जैसे व्यत्यय पालि में वैध हैं । किन्तु संस्कृत व्याकरण ने इन्हें ग्रहण नहीं किया है। इस प्रकार संस्कृत भाषा की अपेक्षा पालि ही वैदिक भाषा की अधिक सच्ची उत्तराधिकारिणी ठहरती है। १. विषय को अधिक सुगमता के लिये देखिये भिक्षु जगदीश काश्यप-कृत 'पालि-महाव्याकरण' पृष्ठ तेईस-उन्तीस (वस्तुकथा) पर दी हुई तालिकाएँ। Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७१ ) पालि-भाषा के विकास की अवस्थाएँ ऊपर पालि के ध्वनि-समूह और रूप-विचार का जो निर्देश किया गया है, उससे यह स्पष्ट है कि पालि एक ऐसी मिश्रित भाषा है जिसमें अनेक बोलियों के तत्त्व विद्यमान है। अनेक दुहरे रूपों का होना उसके इस तथ्य को प्रमाणित करता है। फिर भी पालि के विकास में चार ऐसी क्रमिक विकास वाली अवस्थाएँ उपलक्षित होती हैं, जिनकी अपनी अपनी विशेषताएँ हैं और जिनके आधार पर हम पालि के पूर्वापर रूपों को समझ सकते हैं और उनकी संगति लगा सकते हैं। पालिभाषा के विकास की ये चार अवस्थाएँ इस प्रकार हैं, (१) त्रिपिटक में आने वाली गाथाओं की भाषा। यह भाषा अत्यन्त प्राचीन है और वैदिक भाषा की सी ही अनेकरूपता इसमें मिलती है। प्राचीन आर्य भाषा अर्थात् वैदिक भाषा से कहीं कहीं तो इस भाषा की, ध्वनि-परिवर्तन के कारण, केवल अल्प विभिन्नताएँ ही मिलती हैं और कहीं कहीं पालि का अपना विशेष रूप-विधान भी दृष्टिगोचर होता है। उदाहरणार्थ 'पित' और 'रञा' जैसे शब्द प्राचीन आर्य भाषा से पालि में आ गये हैं, किन्तु इन्हीं से क्रमशः 'पितुस्स' और 'राजिनो' जैसे रूप पालि ने स्वयं बना लिये हैं। इस प्रकार यह भाषा बुद्ध-कालीन मध्य-देश की लोक-भाषा होने के माथ-साथ प्राचीन वैदिक स्मृतियों से भी अनुविद्ध है । सुत्त-निपात की भाषा इस प्रकार की भाषा का सर्वोत्तम उदाहरण मानी जाती है। (२) त्रिपिटक के गद्यभाग की भाषा। गाथाओं की भाषा की अपेक्षा इसमें एकरूपता अधिक है। गाथाओं की भाषा की अपेक्षा प्राचीन रूपों की कमी और नये रूपों की अभिवृद्धि इसका एक प्रधान लक्षण है। 'जातक' की भाषा इसका उदाहरण है । (३) उत्तरकालीन पालि गद्य-साहित्य की भाषा। इस भाषा के रूप के दर्शन हमें मिलिन्द-प्रश्न और अर्थकथा-साहित्य में होते हैं। इस भाषा का आधार त्रिपिटक की गद्य-भाषा ही है। इसमें आलंकारिकता और कृत्रिमता की मात्रा कुछ अधिक पाई जाती है । विशेषतः मिलिन्द-प्रश्न और बद्धघोष की अर्थकथाओं में हमें एक विकसित और उदात्त गद्य-शैली के दर्शन होते हैं। (४) उत्तरकालीन पालिकाव्य की भाषा। यह भाषा बिलकुल पूर्वकालीन साहित्य के अनुकरण पर लिखी गई है। लेखकों ने अपनी अपनी रुचि के अनुसार कहीं तो प्राचीन रूपों का ही अनुकरण किया है या कहीं कहीं अपेक्षाकृत नवीन स्वरूपों को स्वीकार किया है । इस भाषा में एक जीवित भाषा के लक्षण नहीं मिलते। संस्कृत का बढ़ता हुआ प्रभाव भी Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ( ७२ ) इस युग की साहित्य-रचना का एक विशेष लक्षण है। महावंस, दीपवंस, दाठावंस, तेलकटाहगाथा जैसे ग्रन्थों में इस भाषा के स्वरूप के दर्शन होते हैं। __पालि भाषा और साहित्य के अध्ययन का महत्त्व पालि के अध्ययन का अनेक दृष्टियों से बड़ा महत्व है। आज अपनी अनेक प्रादेशिक बोलियों के, यहाँ तक कि कुछ अंशों में राष्ट्र-भाषा हिन्दी के भी, ध्वनिसमह आदि का पूरा ज्ञान हमें नहीं हो पाया। भाषा-विज्ञान सम्बन्धी अनेक बातें अभी अनिश्चित ही पड़ी हुई हैं। इसका कारण यही है कि मध्यकालीन आर्यभाषाओं का, जिनमें पालि प्रथम और मुख्य है, हमारा अभी अध्ययन ही अधूरा पड़ा है १ । अपनी भाषा के वर्तमान स्वरूप को समझने के लिये हमें पालि भाषा का वैज्ञानिक ढंग से अध्ययन करना ही होगा। फिर पालि भाषा ने न केवल हमारी आधुनिक भारतीय भाषाओं को ही प्रभावित किया है। उसका प्रभाव सिंहल, ब्रह्म-देश और स्याम देश की भाषाओं के विकास पर भी पर्याप्त रूप से पझ है। भारतीय विद्यार्थी के लिये अध्ययन का इससे अधिक सुखकर और क्या विषय हो सकता है कि वह इस प्रभाव को खोजे, ढूंढ़े और इन देशों के साथ व्यापक भारतीय संस्कृति के समन्वित सम्बन्धों को और अधिक दृढ़ करे। यही बात पालि-साहित्य के विषय में भी है। उसने विश्व के एक बड़े भू-भाग को शान्ति प्रदान की है, क्योंकि वह प्रधानतः तथागत के सन्देश का वाहक है। उसका अध्ययन कर हम उस विशाल जन-समुदाय से नाता जोड़ते हैं, जिसके साथ हमारे सांस्कृतिक और राजनैतिक सम्बन्ध नवयुग में और भी अधिक दृढ़ होंगे। इस ऊपरी उद्देश्य को छोड़ दें तो भी विशुद्ध साहित्य की दृष्टि से पालि साहित्य के अध्ययन का प्रभूत महत्व है। उसकी उदात्त प्रतिपाद्य वस्तु और गम्भीर, मनोरम शैली किसी भी साहित्य से टक्कर ले सकती हैं। शाक्यसिंह ने जिन गुफाओं में निनाद किया है, वे साधारण नहीं है। यदि मनुष्यता-धर्म से ही अन्त में संसार १. डा० धीरेन्द्र वर्मा १९४० में प्रकाशित अपने 'हिन्दी भाषा का इति हास' में लिखते हैं "हिन्दी संयुक्त स्वरों का इतिहास प्रायः अपभ्रंश तथा प्राकृत भाषाओं तक ही जाता है ...... अपभ्रंश तथा प्राकृत के संयुक्त स्वरों का पूर्ण विवेचन सुलभ न होने के कारण हिन्दी संयुक्त स्वरों का इतिहास भी अभी ठीक नहीं दिया जा सकता।" पृष्ठ १४२ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को मुक्ति मिलनी है, तो तथागत के सन्देश का व्यापक प्रचार होना ही चाहिय । इतिहास की दष्टि से भी पालि-साहित्य का प्रभूत महत्व है । जो मांस्कृतिक निधि हमारी इम साहित्य में निहित है, उसका अभी महत्वाङ्कन ही नहीं किया गया । भारतीय इतिहास के काल-क्रम के निश्चय करने में भी सब से अधिक सहायता पालि माहित्य से ही मिली है। त्रिपिटक और अनुपिटक साहित्य में प्राचीन भारतीय इतिहास की जो अमूल्य सामग्री भरी पड़ी है, उसका अभी तक पूरा उपयोग नहीं किया गया है। उसके सम्यक् अध्ययन से हम बौद्धकालीन इतिहास और भौगोलिक तथ्यों का बहुत अधिक ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। धर्म और दर्शन की दृष्टि से भी पालि का अधिक महत्त्व है । हमने अभी तक प्रायः संस्कृत ग्रन्थों से ही बौद्ध धर्म और दर्शन का परिचय प्राप्त किया है, जो कुछ हालनों में एकांगदर्शी और अधिकांशतः उसके मौलिक स्वरूप से बहुत दूर है। वैदिक परम्परा के उत्तरकालीन आचार्यों ने इसी को लक्ष्य कर प्रायः बौद्धदर्शन की ममालोचना की है। इस प्रकार बद्ध-धर्म के मौलिक स्वरूप से हम प्रायः अनभिज्ञ ही रहे हैं। यही हमारी उस विचार-प्रणाली के प्रति, जो वास्तव में अपनी प्रभावशीलता के लिये विश्व में अद्वितीय है, उदासीनता का कारण है । पालि-साहित्य के प्रकाश में हम देख सकेंगे कि भगवान् गोतम बुद्ध का वास्तविक व्यक्तित्व क्या था और उन्होंने जन-समाज को क्या सिखाया था। पालि-साहित्य का सब से बड़ा महत्व वास्तव में उसकी प्रेरणादायिका शक्ति ही है। यह प्रेरणा अनेक रूपों में आ सकती है। साधना के उत्साह के रूप में भी, ऐतिहासिक गवेषणा के रूप में भी और रचनात्मक साहित्य की सृष्टि के रूप में भी। साधना के अक्षर तो मौन हैं । ऐतिहासिक गवेषणा के विषय में हम काफी कह ही चुके हैं। यहाँ अन्तिम प्रेरणा के विषय में यही कहना है कि पालि-साहित्य में इतनी सामग्री भरी पड़ी है कि वह अभी हिन्दी-साहित्य में अनेक विधायक लेखकों और विचारकों को प्रेरणा और आधार दे सकती है। अभी हमने 'बुद्धचरित' 'सिद्धार्थ', 'यशोधरा' और 'प्रसाद' के कतिपय नाटकों के अतिरिक्त हिन्दी में विशाल पालि-साहित्य से प्रेरणा ही क्या ग्रहण की है ? निश्चय ही प्रत्येक दिशा में उपयोग के लिये यहाँ एक कभी समाप्त न होने वाली सामग्री भरी पड़ी है। यदि पालि की समुचित आराधना की जाय तो निश्चय ही वह बहफलसाधिका हो सकती है। Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा अध्याय पालि साहित्य का विस्तार, वर्गीकरण और काल-क्रम पालि साहित्य का उद्भव और विकास जिस तेजस्वी व्यक्तित्व से संसार ने सब से पहले मनुष्यता सीखी; जिसकी दीप्ति से भारत के निश्चयात्मक इतिहास पर सर्व प्रथम आलोक पड़ा, उसी से पालि साहित्य का भी उदय हुआ। तथागत की सम्यक् सम्बोधि ही पालि-साहित्य का आधार है । जिस दिन भगवान् ने बुद्धत्व प्राप्त किया और जिस दिन उन्होंने परिनिर्वाण में प्रवेश किया, उसके बीच उन्होंने जो कुछ, जहाँ कहीं, जिस किसी से कहा, उसी के संग्रह का प्रयत्न पालि-त्रिपिटक में किया गया है । त्रिपिटक का अर्थ है तीन पिटक या तीन पिटारियाँ । इन तीन पिटारियों में बुद्ध-वचन संगृहीत किये गये हैं, जो कालानुक्रम से आज के युग को भी प्राप्त हैं । उपयुक्त तीन पिटकों या पिटारियों के नाम हैं, सुत्त-पिटक, विनय-पिटक और अभिधम्म-पिटक । भगवान् बद्ध ने जो कुछ अपने जीवन-काल में कहा या सोचा, वह सभी त्रिपिटक में संगहीत है, ऐसा दावा त्रिपिटक का नहीं है। कौन जानता है कि भगवान् के अन्तर्मन के कुछ उद्गार केवल उरुवेला की पहाड़ियों ने ही सुने, नेरंजरा की शान्त धारा ने ही धारण किये ! फिर सहस्रों ने जो कुछ सुना, उन सब ने ही आ आकर त्रिपिटक में उसे संगृहीत करवा दिया हो, ऐसा भी नहीं माना जा सकता। अतः ऐतिहासिक रूप से बुद्ध के मुख से निकले हुए अनेक ऐसे भी वचन हो सकते हैं, जो त्रिपिटक में हमें नहीं मिलते और जिन्हें अन्यत्र हम कहीं पा भी नहीं सकते। इसी प्रकार त्रिपिटक में जो कुछ सुरक्षित है, वह सभी बिना किसी अपवाद के बुद्ध-वचन है, ऐसा भी नहीं माना जा सकता। 'विभज्यवादी' (विभाग कर बतलाने वाला, बुद्ध) को समझने के लिये हमें सब प्रकार 'विभज्यवादी' ही होना पड़ेगा। हाँ, यह आश्वासन अवश्य प्राप्त है कि पालि त्रिपिटक में विश्वस्ततम रूप से बुद्धवचन अपने मौलिक रूप में सुरक्षित हैं, जैसा कि नीचे के विवरण से स्पष्ट होगा। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७५ ) भगवान बद्ध के सभी उपदेश मौखिक थे। यद्यपि लेखन-कला का आविष्कार. भारत में बुद्ध-युग के बहुत पहले ही हो चुका था, फिर भी बुद्ध-उपदेश भगवान् बुद्ध के समय में ही लेखबद्ध कर लिये गये हों, इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता। भगवान् बुद्ध के सभी शिष्य उन्हें स्मृति में ही रखने का प्रयत्न करते थे। इस बात के अनेक प्रमाण स्वयं त्रिपिटक में ही मिलते हैं। उदाहरणतः, एक बार दूर से आये हुए मोण नामक भिक्षु को जब भगवान् पूछते हैं “कहो भिक्षु ! तुम ने धर्म को कैसे समझा है ?" तो इसके उत्तर में वह सोलह अष्टक वर्गों को पूरा पूरा स्वर के साथ पढ़ देता है। भगवान् अनुमोदन करते हुए कहते हैं “साधु भिक्षु ! सोलह अप्टक वर्गों को तुम ने अच्छी प्रकार याद कर लिया है, अच्छी प्रकार धारण कर लिया है। तुम्हारे कहने का प्रकार बड़ा अच्छा है, खुला है, निर्दोष है, अर्थ को साफ साफ दिखा देने वाला है"।' इसी प्रकार बुद्ध-वचनों को अधिक विस्तृत रूप से धारण करने वाले भी अनेक बहुश्रुत, स्मृतिमान् भिक्ष थे। उनमें से अनेक धर्म-धर, सुत्तन्तिक (धर्म या सुत्त-पिटक को धारण करने वाले) थे, अनेक विनय-धर (विनयपिटक या विनय-सम्बन्धी उपदेशों को धारण करने वाले) थे, अनेक मात्रिका-धर (मात्रिकाओं--उपदेश-सम्बन्धी अनक्रमणियों, जिनसे बाद में अभिधम्म-पिटक का विकास हुआ, को धारण करने वाले) थे। २ इनके विषय में त्रिपिटक में अनेक बार प्रशंसापूर्वक कहा गया है--बहुस्सुता आगतागामा धम्मधरा विनयधरा मातिकाधरा । 3 वाद के 'पंचनेकायिका' 'भाणक' 'सुत्तन्तिक', 'पेटकी' जैसे शब्द भी इसी पूर्व परम्परा को प्रकट करते हैं । अंगुत्तर-निकाय के 'एतदग्गवग्ग' में हम भगवान् बुद्ध के उन प्रमुख भिक्षु-भिक्षुणी एवं उपासक उपासिकाओं की एक लम्बी सुची देखते हैं, जिन्होंने साधना की विशिष्ट शाखाओं में दक्षता प्राप्त करने के अतिरिक्त भगवान के वचनों को स्मरण करने में भी विशेषता प्राप्त कर ली १. उदान, पृष्ठ ७९ (भिक्षु जगदीश काश्यप का अनुवाद) २. देखिये विनय-पिटक-चुल्लवग्ग । ३. बहुश्रुत, शास्त्रज्ञ, धर्म, विनय और मात्रिकाओं को धारण करने वाले विद्वान् भिक्ष । विनय-पिटक के महावग्ग २; १०, और चुल्लवग्ग १, १२ में; दीध-निकाय के महापरिनिब्बाण सुत्त (तृतीय भाणवार) में; अंगुत्तर-निकाय (विसुद्धिमय ४।१९ में उद्धृत) में ; तथा त्रिपिटक के अन्य अनेक स्थानों में। Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थी । इन्हीं बनी साधकों के प्रति हम आज बुद्ध-वचनों के दायाच के लिये ऋणीहैं। शास्ता के समीप रहते भिक्षुओं को ज्ञान और दर्शन का बड़ा सहारा था। किन्तु उनके अनुपाधि-शेष-निर्वाण धातु में प्रवेश कर जाने के बाद उन्हें चारों ओर अन्धकार ही दिखाई देने लगा। यह ठीक है कि बुद्ध के समान ही उन्हें धम्म का महारा था। किन्तु साधारण जनता बहिर्मुखी थी। अन्तरात्मा की अपेक्षा वह बाहर ही अधिक देखती थी। फिर जिस 'धम्म' की शरण में शास्ता ने भिक्षुओं को छोड़ा था, उसका भी अस्तित्व अन्ततः उनके वचनों पर निर्भर था। उससे मात्र उन भिक्षुओं और अर्हतों का गुजारा हो सकता था, जिनको स्वयं शास्ता मे सुनने का अवमर मिला था। किन्तु बाद की जनताओं के लिये क्या होगा? जो भिक्षु भगवान् बुद्ध के जीवन काल में अपना अधिकतर समय और ध्यान बुद्ध-वचनों के स्मरण और मंग्रह करने के बजाय उनके व्यावहारिक अभ्यास में ही लगाते थे, उन्हें भी अब यह चिन्ता होने लगी कि हमारे बाद इम थाती का कौन सँभालेगा, दम प्रकाग के दीपक को एक पीढ़ी से दूसरी सीढ़ी तक कौन पहुँचायेगा? उनका इस प्रकार चिन्तित होना भावुकता पर भी आधारित नहीं था। स्वयं भिक्षु-संघ में इस प्रकार के लक्षण प्रकट हो रहे थे, जिनसे संयमी भिक्षुओं को दुःख होना स्वाभाविक था। अभी भगवान् के परिनिर्वाण को मान दिन भी नहीं हुए थे कि सुभद्र नामक बढ़ा भिक्षु कहता हुआ मुना गया था, "वम आयुप्मानो ! भत शोक करो! मन विलाप करो ! हम उस महाश्रमण से अच्छी तरह मुक्त हो गये । वह हमें सदा ही यह कह कर कह पीड़ित किया करता था यह तुम्हें विहित है, यह तुम्हें विहित नहीं है । अब हम जो चाहेंगे, करेंगे; जो नहीं चाहेंगे, मो नहीं करेंगे।'' सुभद्र जैसे अवीतराग अनेक भिक्षु भी उस समय मंघ में हो सकते थे। १. देखिये बुद्धचर्या, पृष्ठ ४६९-७२ २. यह भिक्षु इसी नाम के उस भिक्षु से भिन्न था, जिसने भगवान् बुद्ध के परिनिर्वाण के समय प्रवज्या प्राप्त की थी और इस प्रकार जो उनका अन्तिम शिष्य था। ३. अलं आवसो! मा सोचित्य ! मा परिदेविथ ! सुमुत्ता मयं तेन महा. समणेन ! उपद्दता च होम। इदं वो कप्पति, इदं वो न कप्पतीति । इदानि पन मयं यं इच्छिस्साम तं करिस्साम। यं न इच्छिस्साम तं न करिस्साम। महापरिनिबाण-सुत्त (दोघ २१३); दिनय-पिटक-चुल्लबग्ग, पंचसतिक खन्धक । Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७७ ) इस मैल को धो डालने के लिये और शास्ता की स्मृति के प्रति सम्मान प्रकट करने के लिये बुद्ध के प्रमुख शिष्यों ने उनके वचनों का संगायन करना आवश्यक समझा। सुभद्र जैसे भिक्षुओं के असंयम को देखकर आर्य महाकाश्यप की मानसिक व्यथा के दर्शन हम उनके इन गब्दों में करते हैं, "आयुष्मानो! आज हमारे सामन अधर्म बढ़ रहा है, धर्म का ह्रास हो रहा है। अ-विनय बढ़ रहा है, विनय का ह्रास हा रहा है । आओ आष्युमानो! हम धम्म और विनय का संगायन करें। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये एक सभा की गई। यह सभा बद्ध-परिनिर्वाण के चौथे मास में हुई। बुद्ध-परिनिर्वाण वैशाख-पूर्णिमा को हुआ था, अतः यह सभा सम्भवतः श्रावण मास में हुई । आषाढ़ का मास तैयारी में लगा । इस सभा में ५०० भिक्षु सम्मिलिन हुए. अतः बौद्ध अनुश्रुति में यह मभा 'पंचशतिका' नाम से भी विख्यात है। सभासदों में एक आनन्द भी थे। सभापतित्व का कार्य महाकाश्यप को सौंपा गया। सभा की कार्यवाही में, जैसा स्पष्ट है, बुद्ध-वचनों का संगायन और संग्रह ही मुख्य था। सभापति महाकाश्यप ने उपालि से विनय-सम्बन्धी और आनन्द से धर्म-सम्बन्धी प्रश्न पूछे और उनके उत्तरों का दुसरे भिक्षुओं ने संगायन किया। उदाहरणतः महाकाव्यप ने उपालि से पूछा--"आवुम उपालि ! प्रथम पाराजिक का उपदेश कहां दिया गया ?'' "भन्ते ! वैशाली में'' "किस व्यक्ति के प्रमंग म?' "कलन्द के पुत्र म दिन्न के प्रसंग में "किस बात को लेकर?" "मैथुन को लेकर' । इसी प्रकार आनन्द से बद्ध-उपदेशों (युत्तों) के विषय में प्रश्न पूछे गये, जिनके उन्होंने उत्तर दिये । इस प्रकार निश्चिन धम्म और विनय का सारी मभा ने संगायन किया, महाकाश्यप के प्रस्ताव पर---धम्मच विनयञ्च संगायय्याम। उपर्युक्त सभा का ऐतिहासिक आधार और महत्व क्या है. ओर उसमें जिस 'धम्म' और 'विनय का स्वरूप निश्चित किया गया. उसका हमारे आज प्राप्त १. पुरे अधम्मो दिप्पति, धम्मो पटिबाहियति । अविनयो दिप्पति, विनयो पटिबाहियति । हन्द मयं आवुसो धम्मं च विनयं च संगायाम । विनयपिटक-चुल्लवग्ग। २. देखिये महावंश (भदन्त आनन्द कौसल्यायन का अनुवाद) पृष्ठ ११ (परिचय) Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७८ ) सुत्त और विनय पिटक से क्या सम्बन्ध है, ये प्रश्न पालि साहित्य के विद्यार्थी के लिये बड़े महत्व के हैं। राजगृह की इस प्रथम संगीति का वर्णन, जिसमें धम्म और विनय का संगायन किया गया, इन ग्रन्थों में उपलब्ध होता है (१) विनय-पिटकचल्लबग्ग (२) दीपवंस (३) महावंस (४) बुद्धघोषकृत समन्तपासादिका (विनय-पिटक की अर्थकथा) की निदान-कथा (५) महाबोधिवंस (६) महावस्तु (७) तिब्बती दुल्व । इन सभी ग्रन्थों में छोटी-मोटी अनेक विभिन्नताएँ हैं। उदाहरणतः सभा के बुलाने के उद्देश्यों में ही कोई किसी बात पर जोर देता है और कोई किसी बात पर। 'चुल्लवग्ग' में सुभद्र वाले प्रकरण को ही प्रधानता देकर उसे सभा बुलाने का कारण दिखलाया गया है, जब कि 'दीपवंस' में इस प्रसंग का कोई उल्लेख नहीं है । 'महावंस' में कुछ अन्य साधारण कारण भी दिये हुए हैं। हम आसानी से देख सकते हैं कि ये ये कोई मौलिक विभिन्नताएँ नहीं हैं। इसी प्रकार सभा में भाग लेने वाले सदस्यों की संख्या के विषय में भी विभिन्न मत हैं। ऐसा होना भी बहुत सम्भव है । हम आसानी से इतना निश्चित तथ्य तो निकाल ही सकते हैं कि यह संख्या ५०० के लगभग थी। इसी प्रकार सम्मिलित सदस्यों में धम्म और विनय के स्वरूप के निश्चित करने में किसने कितना योग दिया, इसके विषय में भी उपर्युक्त ग्रन्थों में विभिन्न मत हैं। 'चुल्लवग्ग' के अनुसार तो सारा काम महाकाश्यप, आनन्द और उपालि ने ही किया। किन्तु 'दीपवंस' के वर्णन के अनुसार अन्य भिक्षुओं ने भी काफी योग दिया। इन अन्य भिक्षुओं में, अनिरुद्ध, वंगीश, पूर्ण, कात्यायन, कोट्टित आदि मुख्य थे। यहाँ भी कोई मौलिक भेद दिखाई नहीं पड़ता। प्रत्यक्षतः महाकाश्यप, आनन्द और उपालि के ही प्रधान भाग लेने पर भी अन्य अनक भिक्षुओं का भी उनके काम में पर्याप्त सहयोग हो सकता था। अतः उपर्युक्त ग्रन्थों के विवरणों में, जिनमें 'चुल्लवग्ग' का विवरण ही प्राचीन १. "उस महास्थविर (महा काश्यप) ने शास्ता (बुद्ध) के धर्म की चिरस्थिति की इच्छा से लोकनाथ, दशबल भगवान् के परिनिर्वाण के एक सप्ताह बाद, बूढ़े सुभद्र के दुर्भाषित वचन का, भगवान द्वारा चीवरदान तथा अपनी समता देने का, और सद्धर्म की स्थापना के लिये किये गये भगवान् (मुनि) के अनुग्रह का स्मरण कर के, सम्बुद्ध से अनुमत संगीति करने के लिये, नवान बुद्धोपदेश को धारण करने वाले, सर्वाङ्गयुक्त, आनन्द स्थविर के कारण पाँच सौ से एक कम महाक्षीणास्रव भिक्ष चुने" महावंस, पृष्ठ १२ (भदन्त आनन्द कौसल्यायन का अनुवाद) Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७९ ) तम जान पड़ता है, कोई मौलिक विभिन्नताएँ नहीं हैं। बल्कि वे एक दूसरे के पूरक हैं। उनमें से अधिकांश 'चुल्लवग्ग' के वर्णन को ही विस्तृत रूप देते हैं । उपर्युक्त वर्णनों के आधार पर बौद्ध अनुश्रुति राजगृह की सभा के ऐतिहासिक तथ्य को मानती है। आधुनिक विद्यार्थी भी इसमें सन्देह करने का कोई कारण नहीं देखता । ओल्डनबर्ग ने अवश्य इसमें सन्देह प्रकट किया था। उनका कहना था कि सुभद्र वाला प्रकरण, जिसे 'चुल्लवग्ग' में राजगृह की सभा के बुलाने का कारण बतलाया गया हैं, ‘महापरिनिब्बाण - सुत्त' ( दीघ २।३) में भी उन्हीं शब्दों में रक्खा हुआ है, किन्तु वहाँ इस सभा का कोई उल्लेख नहीं है । इस मौन का कारण उन्होंन यह माना है कि 'महापरिनिब्बाण-सुत्त' के संग्राहक या सम्पादक को इस सभा का कुछ पता नहीं था । यदि यह सभा हुई होती तो 'महापरिनिब्बाण-सुत्त' के संग्राहक को भी इसका अवश्य पता होता और उस हालत में सुभद्र वाले प्रकरण के साथ साथ उसने इस सभा का भी अवश्य उल्लेख किया होता । चूँकि यह उल्लेख वहाँ नहीं है, इसलिये हम मान ही सकते हैं कि यह सभा हुई ही नहीं । १ कितना भयावह और इतिहास की प्रणाली से असिद्ध है डा० ओल्डनवर्ग का यह तर्क ! किन्तु यह भी बहुत दिनों तक विद्वानों को भ्रम में डाले रहा । वास्तव में डा० ओल्डनबर्ग के तर्क का कोई आधार नहीं है । 'महापरिनिब्बाण -सुत्त' का विषय भगवान् बुद्ध के परिनिर्वाण के दृश्य का वर्णन करता है, संघ के इतिहास का निर्देश करना नहीं । संघ के इतिहास का सम्वन्ध 'विनय' से है। अतः भगवान् के परिनिर्वाण के बाद भिक्षुओं की विह्वल दशा का वर्णन करते हुए 'महापरिनिब्बाण-सुत्त' के संगायक या संगायकों ने सुभद्र जैसे असंयमी भिक्षु के विपरीत व्यवहार का तो उल्लेख कर दिया है, किन्तु उससे आगे जाना वहाँ ठीक नहीं समझा गया। इसके विपरीत 'विनय-पिटक' में संघ-शासन की दृष्टि से इस तथ्य को लेकर संघ के इतिहास पर भी उसका प्रभाव दिखलाया गया है । यदि यह भी समाधान पर्याप्त न माना जाय, तो यह भी द्रष्टव्य है कि 'दीपवंस' में भी सुभद्र वाले प्रकरण का उल्लेख नहीं है, किन्तु वहाँ प्रथम संगीति का वर्णन उपलब्ध है । इसलिये 'दीपवंस' के लेखक को जब हम सुभद्र के प्रकरण में मौन रखते हुए भी प्रथम संगीति के विषय में अभिज्ञान देखते १. विनय टैक्सट्स्, जिल्द पहली, पृष्ठ २६ (भूमिका) ( - सेक्रेड बुक्स ऑव दि ईस्ट, जिल्द तेरहवीं) Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८० ) 8 हैं, तो 'महापरिनिब्बाण- सुत्त' के विषय में ही हम ऐसा क्यों मानें कि उसका मौन इस संगीति के वास्तविक रूप से न होने का सूचक है । अत: 'महापरिनिब्बाणमुत्त' के मौन से हम उस प्रकार का निषेघात्मक सिद्धान्त नहीं निकाल सकते, जैसा ओल्डनबर्ग ने निकाला है, जब कि अनेक ग्रन्थों की भारी परम्परा उसके विपक्ष में है । गायगर और विन्टरनित्ज़' जैसे विद्वानों ने भी इसी कारण राजगृह की भाको ऐतिहासिक तथ्य माना है । विन्टरनित्ज़ ने कुछ यह अवश्य कहा है कि भगवान् बुद्ध के परिनिर्वाण के बाद इतने शीघ्र इस सभा का बुलाया जाना हम से कुछ अधिक विश्वास करने की अपेक्षा रखता है। इसी प्रकार मिनयफ ने इस सभा की ऐतिहासिकता स्वीकार कर के भी यह स्वीकार करने में कुछ हिचकिचाहट की है कि बुद्ध वचनों का संगायन भी इस सभा की कार्यवाही का एक अंग था ।" हमारी समझ में ये दोनों ही शंकाएँ निर्मूल हैं । भारतीय साधना की आत्मा को यहाँ नहीं समझा गया। अनुकम्पक शास्ता के चले जाने पर उनके 'धम्मदायाद' भिक्षुओं के लिये इससे अधिक आवश्यक और अवश्यम्भावी काय क्या हो सकता था कि वे जल्दी से जल्दी एक जगह मिल कर भगवान् के वचनों की स्मृति करें । ब्राह्मण और क्षत्रिय गृहस्थों ने तो भगवान् के शरीर के प्रति अद्भुत आदर प्रदर्शित किये, चक्रवर्ती के समान उसका दाह संस्कार किया और भगवान् की अस्थियों को बाँट कर उनकी पूजा की । भिक्षु क्या करते ? उनके लिये तो पूजा का अन्य ही विधान शास्ता छोड़ गये थे । उनके लिये तो एक ही उपदेश था । तथागत के अन्तिम पुरुष मत बनो । 'बुद्ध' के वाद 'धम्म' की शरण ली। १. तिब्बती दुल्व की भी परिस्थिति 'दीपवंस' के समान ही है, अर्थात् वहां सुभद्र का प्रकरण नहीं है, किन्तु प्रथम संगीति का वर्णन है । देखिये बुद्धिस्टिक स्टडीज' पृष्ठ ४०-४१ २. पालि लिटरेचर एंड लेंग्वेज, पृष्ठ ९, पद-संकेत ३ ३. इंडियन लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ ४ ४. इंडियन लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ ४ ५. देखिये बुद्धिस्टिक स्टडीज़, पृष्ठ ४३ ६. ये अक्षरशः उद्धरण नहीं हैं। इन भावनाओं के लिये देखिये धम्मदायाद सुत्त ( मज्झिम. १|१|३ ) ; गोपक-मोग्गल्लान सुत्त ( मज्झिम. ३|१|८ ) Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८१ ) ऐसी अवस्था में 'धम्म' की अनुस्मृति करना उनका प्रथम और एक मात्र कर्तव्य था। यदि वे ऐसा न करते तो हम आज यही कहते कि भगवान् का भिक्षु-संघ ही उस समय नहीं था। चूँकि हम निश्चित रूप से जानते हैं कि भिक्षु-संघ उस समय था, इसलिये उससे भी अधिक निश्चित रूप से हमें यह जानना चाहिये कि उन्होंने एक जगह मिलकर 'बुद्ध' और 'धम्म' की अनुस्मृति भी अवश्य की होगी, भगवान् के वचनों का संगायन भी अवश्य किया होगा, फिर चाहे वह किमी रूप में क्यों न हो । त्रुद्ध-गंध की आत्मा और उसका सारा विवान इसी तथ्य की ओर निर्देश करता है, जो इतिहास के साक्ष्य से कहीं अधिक दृढ़ है, और इस विषय में तो इतिहास का साक्ष्य भी, जैसा हम ऊपर निर्देश कर चुके हैं, बहुत अधिक पर्याप्त है। राजगह की मभा की ऐतिहासिकता सिद्ध हो जाने पर भी यह प्रश्न रह ही जाता है कि धम्म और विनय के जिस रूप का बुद्ध के इन प्रथम शिष्यों ने मंगायन और संकलन किया, वह कहाँ तक हमारे वर्तमान रूप में प्राप्त सुत्न-पिटक और 'विनय-पिटक' में मिलता है। इस प्रश्न का उत्तर अत्यन्त संयत वाणी में और क्रमशः ही दिया जा सकता है, यद्यपि आचार्य बुद्धघोष ने युत्त-पिटक और विनयपिटक के विभिन्न भागो के नाम ले ले कर यह दिखाया है कि उनका मंगायन प्रथम संगीति में ही किया गया था। फिर भी आधुनिक विद्यार्थी तो उनके इस साक्ष्य का मावधानी से ही ग्रहण करेगा। प्रथम सगीति के वर्णन में एक ध्यान देने योग्य बात यह है कि वहाँ धम्म (मुक्त) और विनय के मंगायन की ही बात कही गई है। अभिधम्म के संगायन की वात वहाँ नहीं है। इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि अभिधम्म-पिटव की रचना प्रथम संगीति से बाद के काल की है। किन्तु यह निष्कर्ष बौद्ध परम्परा को मान्य नहीं है। आचार्य बुद्धघोप ने प्रथम संगीति के अवसर पर हो अभिधर्म के भी संगायन का उल्लेख किया है। यूआन् मखादेव-सुत्त (मज्झिम. २।४।३) एवं महापरिनिब्बाण-सुत्त (दीघ. २१३) आदि । १. ततो अनन्तरं--धम्मसंगणि-विभङ्ग ञ्च, कथावत्थुञ्च पुग्गलं, धातु यमक-पट्टानं, अभिधम्माति वुच्चतोति । एवं संवणितं सुखुमनाणगोचरं, तन्तिं संगायित्वा इदं अभिधम्मपिटकं नामाति वत्वा पञ्च, अरहन्तसतानि सज्झायमकंसु । सुमंगलविलासिनी की निदान-कथा) मिलाइये समन्त-पासादिका की निदान-कथा भी। Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चुआङ को भी यही बात मान्य थी। वृद्धघोष या यूआन्-चुआङ के माथ इस हद तक सहमत न हो सकने पर भी इसमें कोई सन्देह नहीं कि बुद्ध-वचनों का जो स्वरूप राजगृह की सभा में स्वीकार और संग्रह किया गया, उसी पर वर्तमान पालि त्रिपिटक आधारित है। इस सभा के एक महत्वपूर्ण प्रसंग का यहाँ उल्लेख कर देना और आवश्यक होगा। जिस समय यह सभा हो ही रही थी या समाप्त हो चुकी थी, पुराण नामक एक भि वहाँ विचरता हुआ आ निकला। उससे जब संगायन में भाग लेने के लिये कहा गया तो उसने कहा, "आवुस ! स्थविरों ने धम्म और विनय को सुन्दर तौर से संग्नयन किया है। किन्तु जैसा मैने स्वयं शास्ता के मुख से सुना है, मुख से ग्रहण क्रिया है, मैं तो वैसा ही धारण करूँगा"।' पुराण की इस उक्ति में राजगृह के सभासदों के द्वारा संगायन किये हुए धम्म और विनय के प्रति अप्रामाणिकता का भाव नहीं है, जैसा कुछ विद्वानों ने भ्रमवश सोचा है । संघ के लिये यह कोई खतरे की घंटी भी नहीं थी, जैसा एक विद्वान् को भ्रम हुआ है। पुगण तो एक साधक पुरुष था । एकान्त-साधना का भाव उसमें अवश्य अधिक था, जिसके कारण वह अपनी उस ध्यान-भावना में, जो उसे गास्ता के प्रत्यक्ष सम्पर्क से मिली थी, किसी प्रकार का विक्षेप नहीं आने देना चाहता था। दूसरो ने बुद्धमुख से जो कुछ सुना है, वह सब ठीक रहे, सत्य रहे। किन्तु पुराण को तो अपना जीवन-यापन उसी से करना, जो उसकी आवश्यकता देखते हुए स्वयं भगवान् ने उसे दिया है। इस दृष्टि से न तो पुराण की उक्ति में राजगृह की सभा में संगायन किये हुए वृद्ध-वचनों की अप्रमाणिकता की ओर संकेत है और और न वह भिक्षु-संघ के लिये कोई खतरे को घंटी ही थी। इस प्रकार के स्वतन्त्र विचारों के प्रकाशन पर भिक्षु-संघ ने कभी प्रतिबन्ध नहीं लगाया। यह उसकी एक विशेषता है। अतः हम कह सकते हैं कि धर्मवादी भिक्षुओं ने धर्म का वैसा ही मंगायन किया, जैसा उन्होंने स्वयं भगवान् से सुना था और जो उन्होंने मगायन किया उसके ही दर्शन हमें पालि सुत्त और विनय पिटको में मिलते हैं, यद्यपि उसके साथ कुछ और भी मिल गया है। 3 । १. विनय-पिटक-चुल्लवग्ग; देखिये बुद्धचर्या, पृष्ठ ५५२ भी। २. डा. रमेशचन्द्र मजूमदार ने लिखा है "This was a danger sis nai for the Church " बुद्धिस्टिक स्टडीज, पृष्ठ ४४ ।। ३. बुद्धघोष को भी यह मत आंशिक रूप से मान्य था। देखिये बुद्धिस्टिक स्टडीज़ पृष्ठ २२१ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् के परिनिर्वाण के १०० वर्ष बाद (वस्ससतपरिनिब्बुते भगवति-- चुल्लवग्ग) किन्तु यूआन् चुआङ् द्वारा निर्दिष्ट परम्परा के अनुसार ११० वर्ष वाद, वैशाली में 'धम्म' और, विनय' का, जैसा कि वह प्रथम संगीति में संगृहीत किया गया था, पुनः संगायन किया गया। यह बौद्ध भिक्षुओं की दूसरी संगीति थी, जिसमें ७०० भिक्षुओं ने भाग लिया। इसीलिये यह ‘सप्तशतिका' भी कहलाती है। यह सभा वास्तव में विनय-सम्बन्धी कुछ विवाद-ग्रस्त प्रश्नों का निर्णय करने के लिये बुलाई गई थी। वैशाली के भिक्षु दस बातों में विनय-विपरीत आचरण करने लगे थे, जिनमें एक सोने-चांदी का ग्रहण भी था। अनेक भिक्षुओं के मत में उनका यह आचरण विनय-विपरीत और निषिद्ध था। इसी का निर्णय करने के लिये वैशाली में यह सभा हुई, जो आठ मास तके चलती रही। पालि साहित्य के विकास की दृष्टि से भी इस सभा का बड़ा महत्व है । एक बात इस सभा से यह निश्चित हो जाती है कि इस समय तक भिक्षु-संघ के पास एक ऐसा सुनिश्चित संगृहीत साहित्य अवश्य था जिसके आधार पर भिक्षु विवाद-ग्रस्त प्रश्नों का निपटारा कर सकते थे, फिर चाहे वह साहित्य मौखिक परम्परा के रूप में ही भले क्यों न हो।' वैशाली की सभा ने वैशालिक भिक्षुओं के दस बातों सम्बन्धी व्यवहार को विनय-विपरीत ठहराया। इससे एक महत्वपूर्ण समस्या पालि-साहित्य, विशेषतः विनय-पिटक, के सम्बन्ध में उत्पन्न हो जाती है । आज जिस रूप में विनय १. ऐसा ही आधार स्वयं भगवान् बुद्ध के समय में भी विद्यमान था। "भिक्षुओ! यदि कोई भिक्षु ऐसा कहे 'मैने इसे भगवान् के मुख से सुना है,' ग्रहण किया है, यह धर्म है, यह विनय है, यह शास्ता का शासन है, तो भिक्षुओ! उस दिन उस भिक्षु के भाषण का न अभिनन्दन करना, न निन्दा करना। बल्कि .....सूत्र से तुलना करना, विनय में देखना। यदि वह सत्र से तुलना करने पर, विनय में देखने पर, न सूत्र में उतरे, न विनय में दिखाई दे, तो विश्वास करना यह भगवान् का वचन नहीं है। किन्तु यदि वह सूत्र में भी उतरे, विनय में भी दिखाई दे, तो विश्वास करना अवश्य यह भगवान् का वचन है।" महापरिनिब्बाण सुत्त (दोघ. २।३) मिलाइये अंगुत्तर-निकाय, जिल्द ६, पृष्ठ ५१; जिल्द ४, पृष्ठ १८० (पालि टैक्स्ट सोसायटी का संस्करण) Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८४ ) पिटक पाया जाता है उसमें उन दस बातों में से, जिनके निर्णय के लिये वैशाली की सभा बुलाई गई थी, अधिकांश बातें स्पष्टतः बुद्ध मन्तव्य के विपरीत ठहराई ईं हैं। इससे यह निष्कर्ष निकाला गया है कि आज जिस रूप में विनय-पिटक हमें प्राप्त है वह वैशाली की सभा से पूर्व का नहीं हो सकता । यदि ऐसा होता, तो स्थविरों को इतना वाद-विवाद करने की आवश्यकता ही नहीं होती, क्योंकि वहाँ तो स्पष्टतः उन्हें निषिद्ध बतलाया ही गया है। अतः ऐसा माना गया है कि पहले विनय-पिटक का रूप कुछ और रहा होगा और बाद में वैशाली की सभा के बाद उसके निर्णयों को उसमें उचित स्थानों में समाविष्ट कर दिया होगा । 3 हम यह अस्वीकार नहीं करते कि वैशाली की सभा के परिणाम स्वरूप विनयपिटक के स्वरूप में कुछ संशोधन या परिवर्द्धन न किया गया हो, किन्तु हम यह नहीं मान सकते कि तत्त्वतः वैशाली की सभा से पूर्व के विनय और आज वह जिस रूप में पाया जाता है, उसमें कोई भेद है । वास्तव में बात यह है कि वैगाली की सभा से पूर्व और उसके कुछ शताब्दियों बाद तक भी 'विनय', जैसे कि अन्य बुद्ध वचन, मौखिक अवस्था में ही रहे । अतः यदि विनय-पिटक का स्वरूप वैशाली की सभा से पहले का भी यदि आज का सा ही होता, तो भी उन दस बातों पर विवाद चल सकता था, जिन पर वैशाली की सभा में वह चला और जिनमें से बहुतों के ऊपर विनय का आज स्पष्ट साक्ष्य उपलब्ध है । अतः यह मानने की कोई आवश्यकता प्रतीत नहीं होती कि वर्तमान विनय-पिटक वैशाली की सभा से पहले का नहीं है । हाँ, वैशाली की सभा ने एक बात पहली बार स्पष्ट कर दी है। वह यह कि जिस भिक्षुसभा ने वैशाली में मिल कर अपने मतानुसार प्रामाणिक बुद्ध मन्तव्य के अनुसार वैशाली के वृज्जियों के अनाचार की निन्दा की, उनका ही एक मात्र संग्रह बुद्ध वचनों का नहीं है । जिन भिक्षुओं की इस सभा में पराजय हो गई, उन्होंने अपनी अलग एक भारी सभा (महा - संगीति) की, जिसमें उन्होंने अपने मतानुसार नये बुद्ध वचनों की सृष्टि की। इनके विषय में 'दीपवंस' में कहा गया १. कुछ उद्धरणों के लिये देखिये बुद्धिस्टिक स्टडीज, पृष्ठ ६२-६४ २. यह निष्कर्ष डा० रमेशचन्द्र मजूमदार ने निकाला है। देखिये बुद्धिस्टिक स्टडीज पृष्ठ ६२ ३. बुद्धिस्टिक स्टडीज, पृष्ठ ६३-६४; ओल्डनबर्ग को भी यही मत मान्य है, देखिये वहीं पृष्ठ ६४, पदसंकेत १ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है “महामंगीति के भिक्षुओं ने बुद्ध-शासन को बिलकुल विपरीत कर डाला । मल संघ में भेद उत्पन्न कर उन्होंने एक नया संघ खड़ा कर दिया। मौलिक 'धम्म' को नष्ट कर उन्होंने एक नया ही सुत्तों का संग्रह किया"१ आदि । इन महासंगीतिकारों ने जो कुछ भी संग्रह किया हो या उनका जो कुछ भी अंग अवशेष रहा हो, हम यह निर्विवाद रूप से कह सकते हैं कि बद्ध-वचनों के पालि-संस्करण के सामने उसकी कोई प्रमाणवत्ता नहीं है । वैशाली की सभा में विनय-सम्बन्धी दस बातों के विषय में निर्णय हो जाने के बाद ७००भिक्षुओं ने महास्थविर रेवतके सभापतित्व में, प्रथम संगीति के समान ही, 'धम्म' का संगायन और संकलन किया। 'अकर धम्ममंगहं' । आचार्य बुद्धघोष के वर्णनानुसार बुद्ध-वचनों का तीन पिटकों, पाँच निकायों, नौ अंगों और ८४००० धर्मस्कन्धों में वर्गीकरण इसी समय किया गया। इस संगीति की ऐतिहासिकता विद्वानों को पहली की अपेक्षा अधिक मान्य है। इस संगीत का वर्णन भी प्रायः उन सब ग्रन्थों में मिलता है जिनमें प्रथम संगीति का । इनका उल्लेख पहले किया जा चुका है। वैशाली की संगीति के बाद एक तीसरी संगीति सम्राट अशोक के समय में वद्ध-परिनिर्वाण के २३६ वर्ष वाद पाटलिपुत्र में हुई। इस मंगीति का वर्णन दीपवंस, महावंम और समन्तपासादिका (विनय-पिटक की बुद्धघोष-रचित अट्ठकथा) में मिलता है । विनय-पिटक के चुल्लवग्ग में इस संगीति का निर्देश नहीं किया गया है। तिब्बत और चीन के महायानी बौद्ध साहित्य में भी इम मंगीति का निर्देश नहीं मिलता और न यूआन्-चुआङ, ने ही इसके विषय में कुछ लिखा है। अशोक के किसी शिलालेख में भी इस संगीति का स्पष्टतः कोई उल्लेख नहीं १. महासङ्गीतिका भिक्खू विलोमं अकंसु सासनं । भिन्दित्वा मूलसंघ अ अकंसु संघ ॥ अाथा सङ्गहितं सुत्तं अञथा अरिसु ते । अत्थं धम्मं च भिन्दिंसु ये निकायेसु पंचसु ॥ यहीं आगे कहा गया है कि महासंगीति के इन भिक्षुओं ने परिवार, अभिधम्म, पटिसम्भिदा, निद्देस और जातकों के कुछ अंशों को स्वीकार नहीं किया--परिवार अत्थुद्धारं अभिधम्मप्पकरणं, पटिसम्भिदां च निद्देसं एकदेसं च जातकं, एत्तकं निस्सज्जेत्वान अ अरिसु ते। ५।३२-३८ (ओल्डनबर्ग का संस्करण) Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८६ ) मिलता। अतः कुछ विद्वानों ने इसकी ऐतिहासिकता में सन्देह किया है। वास्तव में बात यह है कि अशोक के समय तक बौद्ध संघ १८ सम्प्रदायों में विभक्त होचुका था और जिस सम्प्रदाय का पक्ष ग्रहण कर यह सभा बुलाई गई थी अथवा जिस सम्प्रदाय को इस सभा के बाद बुद्ध-धर्म का वास्तविक प्रतिनिधि माना गया था वह विभज्यवादी या स्थविरवादी3 सम्प्रदाय था। अतः यह बहुत सम्भव है कि दूसरे सम्प्रदाय वालों ने इसे स्थविरवादी या विभज्यवादी भिक्षुओं की ही अपनी सभा मानकर इसका उल्लेख सामान्य बौद्ध संगीतियों के रूप में न किया हो। अशोक के शिलालेखों का इस सम्बन्ध में मौन रखने का यह कारण हो सकता है कि अशोक ने वास्तव में इस सभा में कोई महत्वपूर्ण भाग नहीं लिया १. नवें शिलालेख में कुछ 'कथावत्थु के समान शैली अवश्य दृष्टिगोचर होती है। देखिये भांडारकर और मजूमदारः इन्सक्रिप्शन्स ऑव अशोक, पृष्ठ ३४-३६ २. जिनमें मुख्य मिनयफ, कीथ, मैक्स वेलेसर, वार्थ, फ्रैक और लेवी हैं। डा० टी० डब्ल्यू० रायस डेविड्स, श्रीमती रायसडेविड्स, विटरनित्न और गायगर इस सभा को ऐतिहासिक रूप से प्रामाणिक मानते है। देखिये विंटरनित्ज़; हिस्ट्री ऑव इंडियन लिटरेचर , जिल्द दूसरी पृष्ठ १६-९-७० पद संकेत ५, एवं गायगरः पालि लिटरेचर एंड लेंग्वेज, पष्ठ ९ पद संकेत २ में निदिष्ट साहित्य ।। ३. स्थविरवाद का अर्थ है स्थविरों अर्थात् वृद्ध, ज्ञानी पुरुषों और तत्त्व. दशियों का मत । बुद्ध के प्रथम शिष्यों के लिये 'स्थविर' शब्द का प्रयोग किया गया है। बुद्ध-मन्तव्य के विषय में उनका मत ही सर्वाधिक प्रामाणिक था। अतः स्थविरवाद का अर्थ 'प्रामाणिक मत' भी हो गया। स्थविरवादी भिक्षु 'विभज्यवाद' के अनुयायी थे। अतः 'विभज्यवाद' (पालि, विभज्जवाद) और स्थविरवाद (पालि, थेरवाद) दोनों एक ही वस्तु के द्योतक हैं। 'विभज्यवाद' का अर्थ है विभाग कर, विश्लेषण कर, प्रत्येक वस्तु के अच्छे अंश को अच्छा और बुरे अंश को बुरा बतलाना। इसका उल्टा एकांशवाद (पालि, एकंसवाद) है, जो सोलहो आने किसी वस्तु को अच्छी या बुरी कह डालता है। भगवान् बुद्ध ने सुभ-सुत्त (मज्झिम. २।५।९) में अपने को उपर्युक्त अर्थ में Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८७ ) था ।अथवा उसके सारे श्रेय को वह उस समय के सबसे अधिक प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान् और साधक मोग्गलिपुत्त तिस्स को देना चाहता था, जिन्होंने यह सभा बुलाई थी और जो ही इस सभा के सभापति थे। अनेक प्रान्तों के भिक्षुओं ने इस सभा में भाग लिया। इस सभा का मुख्य उद्देश्य यह था कि बौद्ध संघमें जो अनेक अ-बौद्ध लोग सम्राट अशोक के बौद्ध संघ सम्बन्धी दानों से आकृष्ट होकर घुस गये थे उनका निकानन किया जाय और मूल बुद्ध-उपदेशों का प्रकाशन किया जाय । सभा की कार्यवाही में यही काम किया गया। साथ ही पाटलिपुत्र की इस सभा में अन्तिम हप मे बुद्ध-वचनों के स्वरूप का निश्चय किया गया और ९ महीनों के अन्दर भिक्षुओं ने तिस्म मोग्गलिपुत्त के सभापतित्व में बुद्ध-वचनों का संगायन और पारायण किया । इसी समय तिस्स मोग्गलिपुत्र ने मिथ्यावादी १८ वौद्ध सम्प्रदायों का निराकरण करते हुए 'कथावत्थु' नामक ग्रन्थ की रचना की, जिसे 'अभिधम्म-पिटक' में स्थान मिला ।' जैसा पहले कहा जा चुका है. बुद्धघोष और यूआन्-चुआङ के वर्णन के अनुसार अभिधम्मपिटक का भी संगायन महाकाश्यप ने प्रथम संगीति के अवसर पर ही किया था। किन्तु उनकी इतनी प्राचीनता अपने वर्तमान रूप में विद्वानों को मान्य नहीं है। कम से कम इम तीसरी संगीति के वर्णन से इतना तो स्पष्ट हो जाता है कि 'कथा विभज्यवादी कहा है। स्थविरवादी भिक्षु भी यही दृष्टिकोण रखते थे । विभज्यवाद का एक सूक्ष्म और तात्विक अर्थ भी है, जिसका उपदेश भगवान् बुद्ध ने दिया था। इस अर्थ के अनुसार मानसिक और भौतिक जगत् की सम्पूर्ण अवस्थाओं का स्कन्ध, आयतन और धातु आदि में विश्लेषण किया जाता है, किन्तु फिर भी उनमें 'अत्ता' (आत्मा) या स्थिर तत्त्व जैसा कोई पदार्थ नहीं मिलता। विभज्यवाद के इस सूक्ष्म अर्थ के विवेचन के लिये देखिये भिक्षु जगदीश काश्यपः अभिधम्म फिलासफी, जिल्द दूसरी, पृष्ठ १९-२२; स्थविरवाद और विभज्यवाद के पारस्परिक सम्बन्ध के अधिक निरूपण के लिये देखिये गायगर; पालि लिटरेचर एंड लेंग्वेज, पृष्ठ ९ पद-संकेत १, तथा विंटरनित्जः इंडियन लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ ६, पद-संकेत २ में निर्दिष्ट साहित्य। १. महावंश ५।२७८ (भदन्त आनन्द कौसल्यायन का अनुवाद) Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८८ ) वत्थु' की रचना महास्थविर तिस्स मोग्गलिपुत्त ने अशोक के समय मे का . इतना भी निश्चित है कि सम्पूर्ण अभिधम्म-पिटक के स्वरूप का निश्चय अन्तिम रूप से इस संगीति के समय तक हो गया था। इस सभा के परिणाम-स्वरूप एक महत्वपूर्ण निश्चय विदेशों में बुद्ध-धर्म के प्रचार करने के लिये उपदेशकों को भेजने का भी किया गया। अशोक के तेरहवें और दूसरे शिलालेखों से यह स्पष्ट होता है कि उसने न केवल अपने विशाल साम्राज्य के विभिन्न प्रान्तों में ही बल्कि सीमान्त देशों में बसने वाली यवन, काम्बोज, गान्धार, राष्ट्रिक, पितनिक, भोज, आन्ध्र, पुलिन्द आदि जातियों में और केरलपुत्र, सत्यपुत्र, चोल, पाण्ड्य नामक दक्षिणी भारत के स्वाधीन राज्यों में तथा सिंहल द्वीप में भी बुद्ध-धर्म के प्रचारार्थ धर्मोपदेशकों को भेजा था। दीप-वंस,' महावंस और सभन्तपासादिका में उन भिक्षुओं की नामावली सुरक्षित है, जिन्हें भिन्न भिन्न देशों में बुद्ध-धर्म का प्रचार करने के लिये भेजा गया था। किस-किस भिक्षु को किस-किस प्रदेश में भेजा गया, इसकी यह सूची इस प्रकार है-- १. स्थविर माध्यन्तिक (मज्झन्तिक) --काश्मीर और गान्धार प्रदेश को २. स्थविर महादेव ----महिष मंडल (महिसक मंडल) को (नर्वदा के दक्षिण का प्रदेश) ३. स्थविर रक्षित (रक्खित) --वनवासि-प्रदेश को (वर्तमान उत्तरी कनारा) ४. यूनानी भिक्षु धर्मरक्षित (योनक धम्मरक्खित) --अपरान्तक प्रदेश को (वर्तमान गुजरात) ५. स्थविर महाधर्मरक्षित --महाराष्ट्र (महारट्ठ) को (महाधम्मरक्वित ३. स्थविर महारक्षित (महारक्खित) ---यवन-देश (योनक लोक) को (बैक्ट्रिया) ७. स्थविर मध्यम (मज्झिम) --हिमालय-प्रदेश (हिमवन्त) को १. परिच्छेद ८ २. ५।२८०, १२।१-८ ३. पृष्ठ ६३-६४ (पालि टैक्स्ट सोसायटी का संस्करण) Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८९ ) ८. स्थविर शोण और उत्तर --सुवर्ण भूमि (मुवण्ण भूमि) को (दोनों भाई) (वरमा) १. महेन्द्र (महिन्द, ऋष्ट्रिय), (इट्टिय) उत्रिय (उत्तिय) शम्बल (सम्बल)--ताम्म्रपर्णी (तम्बपण्णि) को और भद्रगाल (भद्दमाल) ये (लंका) पाँच भिक्षु उपर्युक्त सूची ऐतिहासिक रूप से प्रामाणिक है । साँची-स्तूप में इन आचार्यो म मे कुछ के नाम उत्कीर्ण है २ । अजन्ता की चित्रकारी में भी एक चित्र महेन्द्र और मंघमित्रा (अशोक के प्रव्रजित पुत्र और पुत्रो, जो अन्य भिक्षुओं के माथ लंका में धर्म प्रचारार्थ गये) की सिंहल-यात्रा को अमर बनाता है। फिर लंका में आज तक महेन्द्र और संघमित्रा तथा उनके साथी अन्य भिक्षुओं की स्मृति के लिये जो जीवित श्रद्धा विद्यमान है, वह केवल कल्पना पर ही आश्रित नहीं हो सकती। अशोक का धर्म-प्रचार का कार्य यहीं तक सीमित नहीं था। उसने अपने धर्मप्रचारक उम समय के प्रसिद्ध पाँच य नानी राज्यों में भी भेजे । इस प्रकार सिरिया और बैक्ट्रिया के राजा अन्तियोकस (एंटियोकम थियोस--ई० पू० २६१-२४६ ई० पू०) मिश्र के राजा तुरमय (टोलेमी फिलाडेल्फस--ई० पू० २८५-२८७ ई० पू०) मेसिडोनिया के राजा अन्तकिन (एटिगोनस गोनटस--ई० पू० ७८०३९ ई० पू०) सिरीनी के राजा मग (मेगस---ई० पू० २८५-२५८ ई० पू०) और एपिरस के राजा अलिक मुन्दर (एलेक्जेन्डर-ई० पू० २७२-०५८ ई० पू०) के देगों तक अगोक कालीन बौद्ध भिक्षु और भिक्षुणियाँ बुद्ध का सन्देश लेकर गये।' इम सव विस्तत धर्म-प्रचार के इतिहास में से हम यहाँ लंका-सम्बन्धी प्रचार-कार्य में ही अधिक सम्बन्ध है । लंका में महेन्द्र और उनके अन्य साथी बुद्ध-धर्म को ले गये । वहाँ के राजा देवानंपिय तिस्स ने भारतीय भिक्षुओं का बड़ा सत्कार किया और उनके सन्देश को स्वीकार किया। स्थविर महेन्द्र और उनके सार्थी लंका में - - - - - - - - - १. देखिये, बुद्धिस्टिक स्टडीज, पृष्ठ २०८ और ४६१; मिलाइये, अशोक की धर्मलिपियाँ, प्रथम भाग, पृष्ठ १६१-६२ २. स्थविर मज्झिम को वहाँ 'हिमवान् प्रदेश का उपदेशक' (हेमवता. चरिय) कह कर स्मरण किया गया है। ३. शिलालेख २ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९० ) उस त्रिपिटक को भी ले गये थे जिसके स्वरूप का अन्तिम निश्चय पाटलिपुत्र की संगीति में हो चुका था । लंका में 'महा-विहार' की स्थापना हुई और त्रिपिटक के अध्ययन का क्रम चलता रहा । परन्तु यह अध्ययन क्रम अभी कुछ और गताब्दियों तक केवल मौखिक परम्परा ( मुखपाठवसेन) में ही चलता रहा । वाद में लंका के राजा वट्टगामणि अभय के समय में प्रथम शताब्दी ईस्वी पूर्व में, जिस त्रिपिटक को महेन्द्र और अन्य भिक्षु अशोक और देवानंपिय तिम्स के समय में वहाँ ले गये थे, लेखबद्ध कर दिया गया ।" तव से वह उसी रूप में चला आ रहा है । महेन्द्र के लंका-गमन और वट्टगामणि के समय में त्रिपिटक के लेखबद्ध होने के समय के बीच में तीन और धर्म-संगीतियाँ क्रमशः देवानंपिय तिस्स, दृट्ठगांमणि और वट्टगामणि अभय नामक लंकाधियों के समयों में हुई । अतः पालि-साहित्य के विकास के इतिहास में उनका भी अवश्य एक स्थान है, यद्यपि पहली तीन संगीतियों की अपेक्षा वह बहुत गोण है । यह निश्चित है कि इन तीन संगीतियों में महेन्द्र द्वारा प्रचारित त्रिपिटक के स्वरूप में कोई महत्वपूर्ण परिवर्तन नहीं किया गया और वगामणि के समय में जिस त्रिपिटक को लेखन किया गया वह वही था जिसे महेन्द्र और अन्य भिक्षु वहाँ ले गये थे । इस प्रकार बुद्ध के परिनिर्वाण काल से लेकर प्रथम शताब्दी ईस्वी पूर्व तक पालि साहित्य के विकास को हमने देखा । इससे आगे पालि साहित्य के उस अंश के विकास की कहानी है जो प्रथम शताब्दी ईस्वी पूर्व तक अन्तिम रूप में सुनिश्चत और लिखित उपर्युक्त त्रिपिटक को आधार मान कर लिखा गया है । स्वभावतः यहाँ हम पालि-साहित्य के विस्तार और विभाजन के प्रश्न पर आते हैं । पालि - साहित्य का विस्तार - दो मोटे मोटे भागों में उसका वर्गीकरणपालि या पिटक साहित्य एवं अनुपालि या अनुपिटक साहित्य विषय की दृष्टि से पालि साहित्य उतना विस्तृत और पूर्ण नहीं है, जितने संस्कृतादि अन्य साहित्य | अनेक प्रकार की ज्ञानशाखाओं पर उसमें साहित्य १. दीपवंस २०२०-२१ ( ओल्डनबर्ग का संस्करण ) ; महावंस ३३| १०० - १०१ ( गायगर का संस्करण ) ( बम्बई विश्वविद्यालय द्वारा प्रकाशित 'महावंस' के संस्करण में ३३ । २४७९-८० ) देखिये महावंश, पृष्ठ १७८-७९ ( भदन्त आनन्द कौसल्यायन का अनुवाद) Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं मिलता । ठीक तो यह है कि बौद्ध धर्म--स्थविरवादी बौद्ध धर्म--के अलावा उसमें ज्ञातव्य ही अल्प है। विभिन्न ज्ञान-शाखाओं की वह बहुमूल्य सम्पत्ति उसमें नहीं मिलती जो एक सर्वविध समृद्ध साहित्य से सम्बन्ध रखती है। फिर भी पालिसाहित्य के अन्य अनेक बड़े आकर्षण हैं । उसके साहित्य का विकास न केवल भारत में ही, अपितु लंका, बरमा और स्याम में भी हुआ है और स्वभावतः उसने इन मव देशों की भाषा और विचार-परम्परा को भी प्रभावित किया है। पालि साहित्य की रचना व द्ध-काल से लेकर आज तक निरन्तर होती चली आ रही है । अतः उमके विकास का २५०० वर्ष का इतिहास है। कालानुक्रम और प्रवृत्तियाँ, दोनों की ही दष्टि से पालि-साहित्य को दो मोटे-मोटे भागों में विभक्त किया जा सकता है, (१) पालि या पिटक साहित्य, (२) अनुपालि या अनुपिटक साहित्य । पालि या पिटक साहित्य का विकास, जैसा अपर दिखाया जा चुका है, बुद्ध-निर्वाण काल से लेकर प्रथम शताब्दी ई. पू. तक है । अनुपालि या अनुपिटक साहित्य के विकास का इतिहास प्रथम शताब्दी ई० पू० से लेकर वर्तमान काल तक चला आ रहा है। पिटक-साहित्य के ग्रन्थों का संक्षिप्त विश्लेषण और काल-क्रम जैसा ऊपर कहा जा चुका है, पालि या पिटक साहित्य तीन भागों में विभक्त है, सुत्त पिटक, विनय पिटक और अभिधम्म पिटक । सुत्त-पिटक पाँच निकायों या शास्त्रों में विभाजित है, जिनके नाम हैं, दीघ-निकाय, मज्झिम-निकाय, संयुन-निकाय, अंगुत्तर-निकाय और खुद्दक-निकाय । विनय-पिटक अपने आप में एक परिपूर्ण ग्रन्थ है, किन्तु उसकी विषय-वस्तु तीन भागों में विभक्त है, सुत्तविभंग, खंधक और परिवार। मुत्त-विभंग के दो विभाग हैं, पाराजिक और पाचित्तिय। इसी प्रकार खंधक के भी दो भाग हैं, महावग्ग और चुल्लवग्ग । अमिधम्म- पिटक में मात बड़े बड़े ग्रन्थ हैं, जिनके नाम है धम्मसंगणि, विभंग, धातुकथा, पुग्गलपति , कथावत्थु, यमक और पट्ठान । सुत्त-पिटक के पाँच निकायों का कुछ अधिक विश्लेषण कर देना यहाँ आवश्यक जान पड़ता है। दीघ-निकाय में कुल ३४ सुत्त है. जो तीन वर्गों में विभाजित है । पहले मीलक्खन्ध-वग्ग में १३ सुत्त हैं, दूसरे महावग्ग में १० सुत्त है और तीसरे पाटिक-बग्ग में ११ मुत्त हैं। यह वर्गीकरण इस प्रकार दिखाया जा मकता है-- Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. ३. ब्रह्मजाल - पुत्त सामफल-सुत्त अम्बल-मुत्त सोणदंड-मुत्त ( ९२ ) दीघनिकाय (अ) सीलक्खन्ध-वग्ग ४. ५. ६. ७. ८. ९. १०. मुभ-सुत्त ११. केवड्ढ ( या केवट्ट ) - सुत्त १२. लोहिच्च मुत्त विज्ज-मुत्त १३. कूटदन्त-मुत्त महाल-मुत्त जालिय-सुत्त कस्सपसीनाद-सुत्त पोट्टपाद-सुत्त (आ) महावग्ग १४. महापदान - मुन १५. महानिदान-मुत्त १६. महापरिनिव्वाण - पुत्त १७. महासुदस्सन-मुत्त १८. जनवसभ - सुत्त १९. महागोविन्द मुत्त २०. महासमय - मुत्त २१. भक्कपञ्ह-मुत्त २२. महासतिपट्ठान-मुत्त २३. पायामि-सुत्त (इ) पाटिक वग्ग - २४. पाटिक-मुत्त २५. उदुम्बरिक सीह्नाद-मत्त Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mm Y २६. चक्कवत्ति सीहनाद-सुत्त २७. अग्गज-सुत्त २८. सम्पसादनिय-सुत्त २९. पासादिक-मुत्त ३०. लवण-मुत्त ३१. सिंगालोवाद (या सिगालोवाद)-मुत्त ३२. आटानाटिय-सुत्त ३३. संगीति-सुत्त ३४. दमुत्तर-युत्त मज्झिम-निकाय में १५२ सुत्त है, जो १५ वर्गो मे इस प्रकार विभाजित हैं--- मज्झिम निकाय १. मूल-परियाय-वग्ग १. मूलपरियाय-सुत्त २. सब्बासव-मुत्त ३. धम्मदायाद-सुन ४. भयभेख-मुत्त ५. अनंगण-मुत्त ६. आकखय्य-मुत्त ७. वत्थूपम-मुत्त ८. सल्लेख-सुत्त ९. सम्मादिट्ठि-सुत्त १०. सतिपट्ठान-सुत्त २. सीहनाद-वग्ग ११. चूलमीहनाद-सुत्त १२. महामीहनाद-सुत्त १३. महादुक्खक्वन्ध-स्त्त १४. चूलदुक्खक्वन्ध-मुत्त १५. अनुमान-मुन १६. चेनोखिल-सत्त Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७. वनपत्थ-सुत्त । १८. मधुपिण्डिक-सुत्त १९. द्वेधावितवक-सुत्त २०. वितक्कसंथान-सुत्त ३. ओपम्म-वग्ग २१. ककचूपम-सुत्त २२. अलगद्द पम-सुत्त २३. वम्मिक-सुत्त २४. रथविनीत-सुत्त २५. निवाप-सुत्त २६. अरियपरियेसन-सुत्त २७. चूलहत्थिपदोपम-सुत्त २८. महाहत्थिपदोपम-सुत्त २९. महासारोपम-सुत्त ३०. चूलसारोपम-सुत्त ४. महायमक-वग्ग ३१. चूलगोसिंग-मुत्त ३२. महागोसिंग-सुत्त ३३. महागोपालक-सुत् ३४. चूलगोपालक-सुत्त ३५. चूलसच्चक-सुत्त ३६. महामच्चक-सुत्त ३७. चूलतण्हासंखय-सुत ३८. महातण्हासंखय-सुत्त ३९. महा-अस्सपुर-सुत्त ४०. चूल-अस्मपुर-पुर ५. चूलयमक-वग्ग ४१. सालेय्यक-सुन ४२. वेरञ्जक-युत्त Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ) ( ९५ ४३. महावेदल्ल-मुत्त ४४. चूलवेदल्ल-सुत्त ४५. चूल-धम्मसमादान-मुत्त महा-धम्मसमादान-सुत्त ४७. वीमंसक-पुत्त ४८. कोसम्बिय-मुत्त ४९. ब्रह्मनिमंतणिक-मुत्त ५०. मारतज्जनिय-सुत्त ६. गहपति-वग्ग ५१. कन्दरक-सुत्त ५२. अट्ठकनागर-सुत्त ५३. सेख-सुत्त ५४. पोतलिय-मुन ५५. जीवक-सुत्त ५६. उपालि-सुत्त ५७. कुक्कुरदतिक-मुत्त ५८. अभयराजकुमार-सुत्त ५९. बहुवेदनीय-मुत्त ६०. अपण्णक-मुत्त ७. भिक्खु-वग्ग ६१. अम्बलठ्ठिकाराहुलोवाद-सुत्त ६२. महाराहुलोवाद-नुन ६३. चूलमालुक्य-मुत्त ६४. महामालुक्य-सन ६५. भद्दालि-सुत्त ६६. बटुकिकोपम-मुन ६७. चातुम-गुन ६८. नलकपानक-मुत्त ६९. गुलिस्सानि-मुत्त " " Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6 6 6 ७०. कीटागिरि-सुत्त ८ परिब्बाजक-वग्ग ७१. नेविज्जवच्छगोत्त-मुत्त ७२. अग्गिवच्छगोत-मुत ७३. महावच्छगोत्त-सुत्त ७४. दीघनख-सुन ७५. मागन्दिय-मुत्त ७६. मन्दक-मुत्त ७७. महामकुलुदायि-सुत्त ७८. समणमण्डिका-सुन ७९. चूलमकुलुदायि-मुन ८०. वेखनस्म-मुन ९ राज-वग्ग ८१. घटीकार-मुत्त ८२. रट्ठपाल-मुत्त ८३. मवादेव-मुत ८४. मधुर-मुत्त ८५. बोधिगजकुमार-पुत्त ८६. अंगुलिमाल-मुन्न ८७. पियजातिक-सुन ८८. वाहितिक-मुत्त ८९. धम्मचनिय-सुन ९०. कण्णकत्थल-मुत्त १० ब्राह्मण-वग्ग ९१. ब्रह्मायु-मुत्तः ९२. मेल मुत्त ९३. अस्सलायन-मुन ९४. घोटमख-सुत्न Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९७ ) ९५. चङ्की-सुत्त ९६. एसुकारि-सुत्त ९७. धानंजानि-सुत्त ९८. वासेट्ठ-सुत्त ९९. सुभ-सुत्त १००. संगारव-सुत्त ११. देवदह-वग्ग १०१. देवदह-सुत्त १०२. पञ्चत्तय-सुत्त १०३. किन्ति-सुत्त १०४. सामगाम-सुत्त १०५. सुनक्खत्त-सुत्त १०६. आणजसप्पाय-सुत्त १०७. गणक-मोग्गल्लान-सुत्त १०८. गोपक-मोग्गल्लान-सुत्त १०९. महापुण्णम-सुत्त ११०. चूलपुण्णम-मुत्त १२. अनुपद-वग्ग १११. अनुपद-सुत्त ११२. छब्बिसोधन-सुत्त ११३. सप्पुरिस-सुत्त ११४. सेवितब्ब-असेवितब्ब-सुत्त ११५. बहुधातुक-सुत्न ११६. इसिगिलि-सुत्त ११७. महाचत्तारीसक-सुत्त ११८. आनापानसति-सुत्त ११९. कायगतासति-सुत्त १२०. संखारुप्पत्ति-सुत्त १३.सुझता-वग्ग १२१. चूल-सुझता-सुत्त Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९८ ) १२२. महा-सुञता-सुत्त १२३. अच्छरियन्भुत-धम्म-सन १२४. बक्कुल-सुत्त १२५. दन्तभूमि-सुत्त १२६. भूमिज-सुत्त १२७. अनुरुद्ध-सुत्त १२८. उपक्किलेस-सुत्त १२९. बाल-पंडित-सुत्त १३०. देवदूत-सुत्त १४. विभंग-वग्ग १३१. भद्देकरत्त-सुत्त १३२. आनन्द-भद्देकरत्त-सुत्त १३३. महाकच्चान-भद्देकरत्त-सुत्त १३४. लोमसकगिय-भद्देकरत्त-सुत्त १३५. चूलकम्मविभंग-सुत्त १३६. महाकम्मविभंग-सुत्त १३७. सळायतन विभंग-सुत्त १३८, उद्देसविभंग-सुत्त १३९. अरणविभंग-सुत्न १४०. धातुविभंग-सुत्त १४१. सच्चविभंग-सुत्त १४२. दक्षिणाविभंग-मुत्त १५. सळायतन-वग्ग १४३. अनाथपिण्डिकोवाद-मुत्त १४४. छनोवाद-सुत्त १४५. पुण्णोवाद-मुत्त १४६. नन्दकोवाद-मुत्त १४७. चूल-राहुलोवाद-मुत्त १४८. छछक्क-सुत्त Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४९. महासळायतनिक-सुत्त १५०. नगरविन्देय्य सुत्त १५१. पिण्डपातपारिसुद्धि-सुत्त १५२. इन्द्रियभावना - सुत्त संयुत्त निकाय में कुल ५६ संयुत्त हैं, जो ५ वर्गों में इस प्रकार विभाजित हैं । संयुत्त निकाय (१) सगाथ वग्ग, जिसमें ११ संयुक्त हैं । १. देवता-संयुत्त २. देवपुत्त-संयुत्त ३. कोसल-संयुत्त ४. मार-संयुक्त्त ५. भिक्खुणी संयुत्त ६. ब्रह्म संयुत्त ७. ब्राह्मण-संयुत्त ८. वंगीस-संयुत्त 3. वन-संयुक्त १०. यक्ख- संयुत्त ११. सक्क-संयुत्त (२) निदान वग्ग, जिससे १० संयुक्त हैं । १. निदान - संयुत्त २. अभिसमय- संयुत्त ३. धातु-संयुत्त ४. अनमतग्ग-संयुत्त ५. कस्सप-संयुत्त ६. लाभ-सक्कार-संयुत्त ( ९९ ) 9. राहुल-मंयुत्त लक्खण-संयुक्त्त ८. ९. ओपम्म- संयुत्त १०. भिक्खु-संयुत्त Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०० ) (३) खन्ध-वग्ग, जिसमें १३ संयुक्त्त हैं । १. खन्ध-संयुत्त २. राध-संयुत्त ३. दिट्ठि-संयुत्त ४. ओक्कन्तिक-संयुत्त ५. उप्पाद - संयुत्त ६. किलेस - संयुक्त्त ७. सारिपुत्त-संयुत्त ८. नाग-संयुत्त ९. सुपण्ण-संयुत्त १०. गन्धब्बकाय-संयुत्त ११. वलाह-संयुत्त १२. वच्छगोत्त-संयुत्त १३. झान-संयुत्त (४) सलायतन - वग्ग, जिसमें १० संयुक्त हैं । १. सळायतन - संयुत्त २. वेदना- संयुत्त मातृगाम - संयुत्त ३. ४. जम्बुखादक-संयुत्त ५. सामण्डक - संयुत्त ६. मोग्गल्लान - संयुक्त्त ७. चित्त-संयुत्त ८. ९. १०. गामणि संयुत्त असंखत-संयुत्त अव्याकत - संयुत्त (५) महावग्ग, जिसमें १२ संयुत्त हैं । १. मॅग्ग-संयुक्त २. बोज्भंग-संयुत्त ३. सतिपट्ठान-संयुत्त Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०१ ) ४. इन्द्रिय-संयुत्त ५. सम्मप्पधान-संयुत्त ६. बल-मंयुत्त ७. इद्धिपाद-मंयुत्त ८. अनुरुद्ध-संयत्त ९. झान-संयुत्त १०. आनापाण-संयुत्त ११. सोतापत्ति-मंयुत्त १२. सच्च-संयुक्त अंगुत्तर-निकाय का विभाजन बिलकुल संख्याबद्ध है । एक एक, दो-दो, तीनतीन, इस प्रकार क्रमानुसार ग्यारह तक उतनी ही उतनी संख्या से सम्बन्ध रखने वाले बुद्ध-उपदेशों का संग्रह है । इस प्रकार यह महाग्रन्थ ११ निपातों (समूहों) में विभक्त है-- १. एक-निपात २. दुक-निपात ३. तिक-निपात ४. चतुक्क-निपात ५. पंचक-निपात ६. छक्क-निपात ७. सत्तक-निपात ८. अटठक-निपात ९. नवक-निपात १०. दसक-निपात ११. एकादसक-निपात खुद्दक-निकाय में स्वतन्त्र १५ ग्रन्थ है, जो इस प्रकार हैं१. खुद्दक-पाठ २. धम्मपद ३. उदान ४. इतिवृत्तक ५. मुत्तनिपात Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०२ ) ६. विमान-वत्थु ७. पेत-वत्थु ८. थेर-गाथा ९. थेरी-गाथा १०. जातक ११. निद्देस १२. पटिसम्भिदामग्ग १३. अपदान १४. बुद्धवंस १५. चरियापिटक पालि साहित्य अपने वर्गीकरण के लिये प्रसिद्ध है । बुद्ध-वचनों के त्रिपिटक और उसके उपर्युक्त उपविभागों के अतिरिक्त अन्य भी विभाजन किये गये है। इस प्रकार सम्पूर्ण बुद्ध-वचनों को पाँच निकायों में बाँटा गया है । यहाँ चार निकाय तो सत्त-पिटक के प्रथम चार निकायों के समान ही है, किन्तु पंचम निकाय (खुद्दकनिकाय) में स्वभावतः ही उसके पन्द्रह ग्रन्थों के अलावा विनय-पिटक और अभिधम्म पिटक के सारे ग्रन्थ भी सम्मिलित कर लिये गये हैं।' कहने की आवश्यकता नहीं कि यह वर्गीकरण प्रथम के समान स्वाभाविक नहीं है । बुद्ध-वचनों का एक और वर्गीकरण नौ अंगों के रूप में किया गया है, जिनके नाम हैं, मुत्त, गेय्य, वेय्याकरण, गाथा, उदान, इतिवृत्तक, जातक, अब्भुतधम्म और वेदल्ल । मुत्त (सूत्र) का अर्थ है सामान्यतः बुद्ध-उपदेश । दीघ-निकाय, सुत्त-निपात आदि में गद्य में रक्खे हुए भगवान् बुद्ध के उपदेश 'मुत्त' हैं। गद्य-पद्य-मिश्रित अंश गेय्य (गाने योग्य) कहलाते हैं। ‘वेय्याकरण' (व्याकरण, विवरण, विवेचन) वह व्याख्यापरक साहित्य है जो अभिधम्म पिटक तथा अन्य ऐसे ही अंगों में सन्निहित १. देखिये आगे पांचवें अध्याय में अभिधम्म-पिटक का विवेचन । २. नौ अंगों एवं अधिकतर १२ धर्म-प्रवचनों के रूप में बुद्ध-वचनों का विभाजन महायान बौद्ध धर्म के संस्कृत-साहित्य में भी पाया जाता है, देखिये सद्धर्मपुंडरीक २।४८ (सेक्रेड बुक्स ऑव दि ईस्ट, जिल्द २१, पृष्ठ ४५); महाकरुणा पुंडरीक, पृष्ठ ३३ (भूमिका) (सेकेड बुक्स ऑव दि ईस्ट, जिल्द दस, भाग प्रथम में) Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०३ ) है। सिर्फ पद्य म रचित अंश 'गाथा' (पालि-श्लोक) कहलाते हैं। 'उदान' का अर्थ है बुद्ध-मुख से निकले हुए भावमय प्रीति-उद्गार । 'इतिवृत्तक' का अर्थ है ‘ऐसा कहा गया' या 'ऐसा तथागत ने कहा' । 'जातक' का अर्थ है । (बुद्ध के पूर्व) जन्म सम्बन्धी कथाएँ । 'अब्भुत धम्म' (अद्भुत धर्म) वे सुत्त हैं जो अद्भुत वस्तुओं या योग-सम्बन्धी विभूतियों का निरूपण करते हैं । वेदल्ल' का शाब्दिक अर्थ है वेदनिःश्रित या ज्ञान पर आधारित । 'वेदल्ल' वे उपदेश हैं जो प्रश्न और उत्तर के रूप में लिखे गये हैं।' बुद्ध-वचनों का यह नौ प्रकार का विभाजन विषय-स्वरूप की दृष्टि से ही है, ग्रन्थों की दृष्टि से नहीं। अतः कहा जा सकता है कि यह केवल औपचारिक ही है और व्यावहारिक उपयोग में प्रायः नहीं आता। बुद्ध-वचनों का एक और वर्गीकरण ८४००० धर्म स्कन्धों के रूप में है । किन्तु यह भी बौद्धों की विश्लेषण-प्रियता का ही एक उदाहरण है । प्रयोग में यह भी अक्सर नहीं आता। साधारणतः हम त्रिपिटक और उसके उप-विभागों के रूप में ही बुद्ध-वचनों का अध्ययन करते हैं। यह कहना कुछ आश्चर्यजनक भले ही जान पड़े किन्तु ऐतिहासिक रूप से यह सत्य है कि बुद्ध-वचनों के उपर्युक्त चारों प्रकार के वर्गीकरणों का निश्चय त्रिपिटक के अन्तिम रूप से प्रथम शताब्दी ईस्वी पूर्व में वे लेखबद्ध होने से बहुत पहले ही हो चुका था। तीनों पिटकों का निर्देश स्वयं त्रिपिटक मे ही मिलता है, यह हम इस अध्याय के प्रारम्भ में ही कह आये हैं। अशोक के शिलालेखों ने यह बात अन्तिम रूप से प्रमाणित कर दी है कि तीसरी शताब्दी ईस्वी पूर्व से भी पहले बुद्ध-वचनों का कुछ उसी प्रकार का वर्गीकरण प्रचलित था जैसा कि वह आज पालि त्रिपिटक में मिलता है। अशोक के शिलालेखों का पालिमाहित्य के विकास के सम्बन्ध में क्या साक्ष्य है, इसका विस्तृत विवेचन तो हम दमवें अध्याय में पालि के अभिलेख-साहित्य का विवरण देते समय करेंगे। यहाँ इतना कहना पर्याप्त है कि अशोक के भाव शिलालेख में राहुलोवाद (लाघुलोवादे) मृत्त आदि शीर्षकों से यही निश्चित होता है कि तीसरी शताब्दी ई० पू० १. यथा मज्झिम-निकाय के चूल-वेदल्ल-सुत्तन्त और महावेदल्ल-सुत्तन्त । इनमें परिप्रश्नात्मक शैली का व्यवहार किया गया है। सम्भवतः इसीलिये 'वेदल्ल' शब्द का अर्थ इस प्रकार की शैली में लिखे गये उपदेश किया गया है। Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में त्रिपिटक प्रायः अपने उसी वर्गीकरण और नामकरण के साथ विद्यमान था जैसा वह आज है। कम से कम त्रिपिटक के प्राचीनतम अंशों (सुत्त-पिटक और विनय-पिटक) के विषय में तो ऐसा कहा ही जा सकता है । अशोक के बाद माँची और भारहुत (तीसरी या दूसरी शताब्दी ई० पू०) के स्तूपों के लेखों का माक्ष्य भी यही है। इन लेखों में 'पंचनेकायिक' (पाँच निकायों का ज्ञाता) भाणक (पाठ करने वाला) सुत्तन्तिक (मुत्त-पिटक का ज्ञाता) पेटकी (पिटकों का ज्ञाता) आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है और जातक के कुछ दृश्य भी दिखाये गये हैं, जिनसे विद्वानों ने ठीक ही यह निष्कर्ष निकाला है कि बुद्ध-वचनों का तीन पिटकों और पांच निकायों में आज का सा विभाजन इन अभिलेखों के युग से पहले ही निश्चित हो चुका था।' भाणकों और निकायों एवं त्रिपिटक के उपर्युक्त विभाजन की जो परम्परा अशोक के काल से बहुत पहले से चली आ रही थी, उसके बाद भी अबाध गति से चलती रही। साँची के लेखों के अलावा मिलिन्द प्रश्न (प्रथम शताब्दी ईस्वी पूर्वं) और बाद में बुद्धघोष की अर्थकथाओं, दीपवंस, महावंस आदि में उसके पूर्ण साक्ष्य मिलते हैं। बुद्ध-वचनों का नौ अंगों में विभाजन स्वयं त्रिपिटक को भी ज्ञात है और बाद में न केवल मिलिन्द प्रश्न, अपितु बुद्धघोष १. रायस डेविड्सः बुद्धिस्ट इंडिया, पृष्ठ १६७; बुहलरः एपीग्रेफका ___ इंडिका , जिल्द दूसरी , पृष्ठ ९३; २. तेपिटकं बुद्धवचनं, पृष्ठ १९; तेपिटका भिक्खु पंचनेकायिका पि च, ___ चतुनेकायिका चेव, पृष्ठ २३ (बम्बई विश्वविद्यालय का संस्करण) ३. धम्मपदट्ठकथा जिल्द पहली, पृष्ठ १२९ (पालि टैक्स्ट सोसायटी का ___ संस्करण) देखिये विन्टरनित्त ; इंडियन लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ १७, पद-संकेत ३ भी। ४. ८१६; १२१८४; १३७ (ओल्डनबर्ग का संस्करण) ५. १२।२९; १४१५८; १४।६३, १५।४ (गायगर का संस्करण) ६. अलगद्दपम सुत्तन्त (मज्झिम. १।३।२) अंगुत्तर-निकाय, जिल्द दूसरी, पृष्ठ ७; १०३; १०८ (पालि टैक्स्ट सोसायटी का संस्करण)। ७. नवंगजिनसासनं, पृष्ठ २२; नवङ्ग बुद्ध-वचने पृष्ठ १६३; । नवंगमन मज्जन्तो, पृष्ठ ९३ (बम्बई विश्वविद्यालय का संस्करण) Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०५ ) की अर्थकथाओं' गन्धवंस,२ दीपवंम,३ आदि में भी उमका उल्लेख हुआ है। इसी प्रकार बद्ध-वचनों का ८४००० धर्म-स्कन्धों में विभाजन भी वहन प्राचीन है। बुद्धघोष ने प्रथम मंगीति में ही उनका मंगायन होना दिखलाया है और अशोक द्वाग उनके मम्मान में ८८००० विहारों का बनवाया जाना (चतुगमीति विहारसहस्सानि कारापेसि) भी बौद्ध परम्पग में अति प्रसिद्ध है। ये मभी तथ्य पालित्रिपिटक के वर्गीकरण के माथ साथ उसके काल-क्रम और प्रामाणिकतापर भी काफी प्रकाग डालते है।। ऊपर पालि-साहित्य के उद्धव और विकाम का वर्णन करते हुए यह दिखाया जा चुका है कि किस प्रकार तीन बौद्ध मंगीतियां भारत में और बाद में तीन मंगीतियां लंका में पालि त्रिपिटक के स्वरूप के सम्बन्ध में हुई थीं, जिनमें बद्ध-वचनों का मंगायन किया गया था। डा० विमलाचरण लाहा ने इन मंगीतियों के अनुसार पालि त्रिपिटक के विभिन्न ग्रन्थों के काल-क्रम को पाँच ऋमिक अवस्थाओं में विभक्त करने का प्रयत्न किया है, जो इस प्रकार हैं प्रथम युग (४८३ ई० पू०--३८३ ई० पू०) द्वितीय युग (३८३ ई० पू०--२६५ ई० पू०) तृतीय युग (२६५ ई० पू०--२३० ई० पू०) १. सुमंगलविलासिनी, जिल्द पहली, पृष्ठ २३; अट्ठसालिनी, पृष्ठ २६ (पालि टेक्स्ट सोसायटी के संस्करण) २. पृष्ठ ५५, ५७ (जर्नल ऑव पालि टैक्सट सोसायटी १८८६ में प्रकाशित) ३. ४।१५ (ओल्डनबर्ग का संस्करण); देखिये महावंश, पृष्ठ १२ (भदन्त आनन्द कौसल्यायन का अनुवाद) ४. समन्तपासादिका, जिल्द पहली, पृष्ठ २९; देखिये बुद्धिस्टिक स्टडीज, पृष्ठ २२२ ५. "राजा (अशोक) न स्थविर मोग्गलिपुत्त तिस्स से पूछा, 'बुद्ध के दिय गय उपदेश कितने हैं ? स्थविर ने उत्तर दिया, 'धर्म के चौरासी हजार स्कन्ध (विभाग) है। यह सुनकर राजा ने कहा 'मै प्रत्येक के लिये बिहार बनवाकर उन सब की पूजा करूँगा।' तदन्तर राजा ने चौरासी हजार नगरों में ...... विहार बनवाने आरम्भ किये।" महावंश ५।७६-८० (भदन्त आनन्द कौसल्यायन का अनुवाद) Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ ) चतुर्थ युग ( २३० ई० पू० - पंचम युग ) ( ८० ई० पू० -- इस प्रकार हम देखते हैं कि त्रिपिटक के जो प्राचीन से प्राचीन अंश हैं उनके स्वरूप का निश्चय ४८३ ई० पू० अर्थात् शास्ता के परिनिर्वाण के समय ही हो गया था, और जो अर्वाचीन से अर्वाचीन भी हैं वे भी २० ई० पू० के बाद के नहीं हैं, क्योंकि उस समय वे लेखबद्ध ही हो चुके थे, जब से वे उसी रूप में आज तक चले आ रहे हैं। इस प्रकार समष्टि रूप में त्रिपिटक की रचना की उपरली और निचली कोटियों का पूर्ण अनुमापन हो जाने पर भी उसके अलग अलग ग्रन्थों के आपेक्षिक काल-पर्याय क्रम का सवाल अभी रह ही जाता है । इसके लिये न केवल ऐतिहासिक विवेचन की ही किन्तु अलग अलग ग्रन्थों की विषय-वस्तु के विवेचन की भी बड़ी आवश्यकता है, जिसे हम इस स्थल पर नहीं कर सकते । अत: जब हम आगे के अध्यायों में त्रिपिटक के भिन्न भिन्न ग्रन्थों या अंशों का विवेचन करेंगे तो उस समय उनके काल-पर्याय क्रम का विवेचन भी हमारे अध्ययन का एक विशेष अंग होगा । हाँ, इस सम्बन्ध में जो पूर्व अध्ययन हो चुका है उसके परिणामों को यहाँ रख देना आवश्यक होगा । सब से पहले डा० रायस डेविड्स ने त्रिपिटक के काल पर्याय क्रम का विवेचन किया था। उन्होंने अपने अध्ययन के परिणाम स्वरूप पालि त्रिपिटक का बुद्ध - परिनिर्वाण काल से लेकर अशोक के काल तक इन दस काल-पर्यायात्मक अवस्थाओं में विभाजन किया था ८० ई० पू० ) २० ई० पू० ) १ - - वे बुद्ध वचन, जो समान शब्दों में ही त्रिपिटक के प्रायः सवग्रन्थों की गाथाओं -- आदि में मिलते हैं । २ -- वे बुद्ध वचन, जो समान शब्दों में केवल दो या तीन ग्रन्थों में ही मिलते हैं। ३ - - शील, पारायण, अट्ठकवग्ग, पातिमोक्ख । ४ -- दीघ, मज्झिम, अंगुत्तर और संयुत्त निकाय । ५ -- सुत्तनिपात, थेरगाथा, थेरीगाथा, उदान, खुद्दक पाठ । ६ -- मुत्त - विभंग, खन्धक । ७- - जातक, धम्मपद । १. हिस्ट्री ऑव पालि लिटरेचर, जिल्द पहली, पृष्ठ १२-१३ २. बुद्धिस्ट इंडिया, पृष्ठ १८८ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०७ ) ८--निद्देस, इतिवृत्तक, पटिसम्भिदा। ९---पेतवत्थु, विमानवत्थु, अपदान, चरियापिटक, बद्धवंस। १०--अभिधम्म-पिटक के ग्रन्थ, जिनमें पुग्गलपत्ति प्रथम और कथावत्थु अन्तिम हैं। इस क्रम का कुछ परिवर्तन डा० विमलाचरण लाहा ने किया है। उनके मतानुसार त्रिपिटक के ग्रन्थों का काल-क्रम की दृष्टि से यह तारतम्य ठहरता है-- १--वे बुद्ध-वचन, जो समान शब्दों में त्रिपिटक के प्रायः सब ग्रन्थों की गाथाओं आदि में मिलते हैं। २--वे बुद्ध-वचन, जो समान शब्दों में केवल दो या तीन ग्रन्थों में ही मिलते हैं। ३--शील, पारायण, अट्ठकवग्ग, सिक्खापद।। ४--दीघ-निकाय (प्रथम स्कन्ध), मज्झिम-निकाय, संयुत्त-निकाय, अंगुत्तर निकाय, पातिमोक्ख जिसमें १५२ नियम हैं। ५---दीघ-निकाय (द्वितीय और तृतीय स्कन्ध) थेरगाथा, थेरीगाथा, ५०० जातकों का संग्रह, सुत्त-विभंग, पटिसम्भिदामग्ग, पुग्गलपञत्ति, विभंग ६---महावग्ग, चुल्लवग्ग, पातिमोक्ख (२२७ नियमों का पूर्ण होना), विमान वत्थु, पेतवत्थु, धम्मपद, कथावत्थु । 9--चुल्लनिद्देस, महानिद्देस, उदान, इतिवृत्तक, सुत्त-निपात, धातुकथा, यमक, पट्ठान। ८--बुद्धवंम, चरियापिटक, अपदान । ९--परिवार-पाठ। १०--खुद्दक-पाठ।' त्रिपिटक के विभिन्न ग्रन्थों या अंशों के काल-क्रम सम्बन्धी उपर्युक्त निष्कर्ष अपर्याप्त ही नही स्वेच्छापूर्ण भी है। रायस डेविड्स और लाहा दोनों ही विद्वानों ने भाषा-सम्बन्धी विकास को आधार मान कर,जिसका साक्ष्य अभी स्वतः प्रमाण नहीं माना जा सकता, अपना काल-क्रम स्थापित किया है। वास्तव में त्रिपिटक के ग्रन्थों में पूर्वापरता स्थापित करने के लिये हमें पहले निश्चित करना होगा कि उसके कौन से अंश मूल प्रामाणिक बुद्ध-वचन हैं और कौन से बाद के परिवर्तन या दोनों के मिश्रित स्वरूप । मूल प्रामाणिक बुद्ध-वचनों में भी हमें बुद्ध के वर्षावासों १. हिस्ट्री ऑव पालि लिटरेचर, जिल्द पहली, पृष्ठ ४२ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०८ ) के अनुसार उनके काल-क्रम का तारतम्य निश्चित करना पड़ेगा। यह कार्य उपर्युक्त दो विद्वानों ने नहीं किया है। केवल महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने 'बुद्ध-चर्या' में इस ढंग पर बुद्ध के कतिपय उपदेशों का कालक्रमानुसार वर्गीकरण किया है। किन्तु 'बुद्धचर्या' में सभी मुत्नों का उद्धरण शक्य न होने के कारण यह कार्य वहाँ अपर्याप्त रूप में ही हो सका है । पालि माहित्य के इतिहासकार के लिये बुद्धवचनों के काल-क्रम के निश्चय के लिये इससे अच्छा मार्ग-दर्शन नहीं मिल मकता । वास्तव में सद्धर्म के प्रथम संग्रहकार काल-चिन्तक थे ही नहीं। वे तत्वतः धर्मचिन्तक थे। इसलिये काल-गणना के अनुसार उन्होंने मतों का संग्रह नहीं किया है। आज हम बुद्ध के वर्षावामों के आधार पर ही यह कार्य कर सकते हैं। भाषामाक्ष्य में भी कुछ महायता ले सकते हैं, किन्तु अत्यन्त सावधानीपूर्वक । त्रिपिटक के जो अंग बद्ध-वचन नहीं है उनके काल-क्रम का निर्णय वाह्य माध्य के आधार पर ही विशेषतः किया जा सकता है। उनमें वर्णित प्रसंग उनके कालक्रम पर अच्छा प्रकाश डालते हैं। इन सब तथ्यों का विवेचन करते हुए हमने त्रिपिटक के विभिन्न ग्रन्थों के काल-क्रम का निश्चय करने का प्रयत्न किया है, जो आगे के अध्ययन से स्पष्ट होगा। अनुपिटक-साहित्य का काल-विभाग त्रिपिटक के काल-पर्याय-क्रम की समस्या को मोटे रूप मे समझने के बाद हमें अनुपिटक-साहित्य के भी काल-विभाग की रूपरेखा को समझ लेना आवश्यक है। वह उतनी दुरूह या विवादग्रस्त नहीं है। उसकी रेखाएं बिलकुल स्पष्ट हैं। जैसा पहले कहा जा चुका है, अनुपिटक साहित्य की रचना त्रिपिटक के पूर्ण हो जाने के बाद से प्रारम्भ हो कर वर्तमान काल तक चली आ रही है। इस इतने सुदीर्घ विकास में भी उसमें इतनी विभिन्नरूपता दिखाई नहीं पड़ती जितनी कि किसी भी साहित्य के सम्बन्ध में हो सकती थी। इसका कारण यह है कि इस साहित्य का केन्द्रीय बिन्दु बौद्ध धर्म-स्थविरवाद बौद्ध धर्म--का अध्ययन और विवेचन ही रहा है। फिर भी कालानुक्रम और प्रवृत्तियों के विकास की दृष्टि मे इस सदीर्घ काल के साहित्यिक इतिहास को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है। पहला भाग प्रथम शताब्दी ईस्वी पूर्व से लेकर चौथी गताब्दी ईस्वी तक अर्थात बुद्धघोष के आविर्भाव-काल तक चलता है। इस यग में नेत्तिपकरण, पेटकोपदेस , मुत्तमंगह और मिलिन्दपञ्च की रचना Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुई, जिनमें मिलिन्दपञ्ह सब से अधिक प्रसिद्ध है। इतिहास का प्रसिद्ध ग्रन्थ 'दीपवंस' भी इसी युग में लिखा गया। चूंकि बुद्धघोष अनुपिटक-साहित्य मे सब से बड़ा नाम है और बुद्धघोष ने एक युग-विधायक साहित्य की रचना की, अतः उनके काल के पहले इस दिशा में कितना काम हो चुका था इसे द्योतित करने के लिये इस युग के साहित्य को 'पूर्व-बुद्धघोष' युगीन साहित्य नाम दिया जा सकता है । अनुपिटक साहित्य के इतिहास का दूसरा युग बुद्धघोष के आविर्भाव-काल से आरम्भ होता है । बुद्धघोष के प्रसिद्ध ग्रन्थ 'विसुद्धिमग्ग' और उनकी अर्थकथाओं के अतिरिक्त बुद्धदत्त, धम्मपाल आदि की अर्थकथाएँ भी इसी युग में लिखी गई। पालि त्रिपिटक पर अर्थकथाओं की रचना इस युग की प्रधान विशेषता है, जिसे प्रेरणा देने वाले आचार्य बुद्धघोष ही हैं। अतः इस युग को 'बुद्धघोष-युग' नाम दिया गया है। इस युग की रचना ५वीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी तक चलती है। विशाल अर्थकथा-साहित्य के अतिरिक्त लंका का प्रसिद्ध इतिहास-ग्रन्थ 'महावंस' भी इसी युग में रचा गया। व्याकरण के क्षेत्र में कच्चान का व्याकरण और दर्शन एवं मनोविज्ञान के क्षेत्र में अनिरुद्ध का प्रसिद्ध 'अभिधम्मत्थसंगह' भी इसी यग की रचनाएँ हैं। इस युग में जो अर्थ कथा-साहित्य लिखा गया उसी की टीकाएँ-अनुटीकाएँ वाद की शताब्दियों में लिखी जाती रहीं। यह बारहवीं शताब्दी से लेकर अब तक का सुदीर्घ युग है। प्रायः बुद्धघोष और उनके समकालीन आचार्यों के दिखाये हुए ढंग पर ही और उनके ही ग्रन्थों के उपजीवी स्वरूप साहित्य की रचना इस युग में होती रही है। अतः इस युग को 'बुद्ध घोष-युग की परम्परा अथवा टीकाओं का युग' नाम दिया गया है। बारहवीं शताब्दी में राजा पराक्रमबाहु के समय में लंका में आचार्य बुद्ध घोष आदि की अर्थकथाओं पर मगध-भाषा (पालि) में टीकाएँ लिखने का आयोजन शुरू किया गया। प्रसिद्ध सिंहली भिक्षु सारिपुत्त और उनकी शिप्य-मंडली ने इस दिशा में बारहवीं और तेरहवीं शताब्दी में बड़ा काम किया । मूल 'महावंस' का 'चूलवंस' के नाम से आगे परिवर्द्धन भी इसी युग की घटना है। १५वीं शताब्दी से बरमा में बौद्ध साहित्य के अध्ययन की बड़ी प्रगति हुई । बरमी भिक्षुओं के अध्ययन का प्रधान विषय 'अभिधम्म' रहा । इस दिशा में उन्होंने अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ दिये है, जिनमे ‘अभिधम्मत्थ संगह' का एक लम्बा सहायक माहित्य है । व्याकरण-सम्बन्धी अनेक ग्रन्थ भी इस युग में लिखे गये। यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि ठीक वर्तमान समय तक लंका, बरमा, स्याम और भारत मे अनुपिटक साहित्य की रचना होती Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११० ) चली आ रही है। भारत में हम अभी हाल में परिनिवृत्त पूज्य आचार्य धर्मानन्द कौशाम्बी के नाम से सुपरिचित हैं। उन्होंने अनुपिटक साहित्य को दो महत्वपूर्ण ग्रन्थ दिये हैं, एक 'विसुद्धिमग्गदीपिका' नामक 'विसुद्धि-मग्ग' की टीका और दूसरा 'अभिधम्मत्थसंगह' पर 'नवनीत टीका'। इस वर्तमान काल में रचित साहित्य मे भी यद्यपि बहुत सी बातों को आधुनिक ढंग से रखने का प्रयत्न किया गया है जो बहुत आवश्यक है, फिर भी आलोक और प्रामाणिक आधार तो बुद्धघोष की रचनाओं से ही लिया गया है। अतः बारहवीं शताब्दी से लेकर इस इतने अभिनव साहित्य को भी 'बुद्धघोष-युग की परम्परा अथवा टीकाओं का युग' कहना अनुचित नहीं है। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा अध्याय सुत्त-पिटक पालि-त्रिपिटक कहाँ तक मूल, प्रामाणिक बुद्ध वचन है ? पालि त्रिपिटक कहाँ तक मूल, प्रामाणिक बुद्ध-वचन है, इस प्रश्न का अंशतः उत्तर पालि-भाषा के स्वरूप पर विचार करते समय (प्रथम अध्याय में) दिया जा चुका है। यदि पालि मागधी भाषा का वही स्वरूप है जिसे मध्य-देश में विचरण करते हुए भगवान् बुद्ध ने प्रयुक्त किया था, तो फिर इसमें कोई सन्देह ही नहीं रह जाता कि पालि-त्रिपिटक बुद्ध-वचनों का सर्वाधिक प्रामाणिक रूप है। यदि आरम्भ से ही अनेक प्रान्तीय भाषाओं में वुद्ध-वचन सीखे जाते रहे हों तो भी हमारे पालि-माध्यम को प्राचीनतम होना ही चाहिये । पालि-त्रिपिटक का किसी दूसरी उपभाषा से अनुवाद हुआ है, लेवी के इस मत का खंडन पहले किया जा चुका है। इसी प्रकार ल्यूडर्स के उस मत का भी निराकरण किया जा चुका है जिसके अनुसार प्राचीन अर्द्ध-मागधी से, जिसके स्वरूप की अवतारणा स्वयं उनकी बुद्धि ने की है, पालि-त्रिपिटक का अनुवाद हुआ है। यह निर्विवाद है कि अशोक के समय अर्थात् तृतीय शताब्दी ईसवी पूर्व पालि-त्रिपिटक का भाषा और शैली की दृष्टि से वही स्वरूप था जो आज है । अशोक के शिलालेखों से यह बात स्पष्ट हो जाती है। उनकी भाषा, उनमें निर्दिष्ट कुछ 'धम्म-पलियायों' के नाम, सब इसी तथ्य की ओर संकेत करते हैं कि तृतीय शताब्दी ईसवी पूर्व भारतीय जनता बुद्ध-वचनों के नाम से उसी संग्रह को पहचानती थी और आदरपूर्वक श्रवण और मनन करती थी, जिसे हम आज पालि-त्रिपिटक के नाम से पुकारते हैं। छन्द की दृष्टि से भी पालित्रिपिटक की प्राचीनता असंदिग्ध है। ओल्डनवर्ग ने कहा है कि पालि-त्रिपिटक की गाथाओं में प्रयुक्त छन्द वाल्मीकि रामायण से अधिक प्राचीन होना चाहिये । १. गुरुपूजाकौमुद्री, पृष्ठ ९०, मिलाइये रायस डेविड्स और कारपेंटर Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११२ ) अतः भाषा और शैली के साक्ष्य के आधार पर पालि-त्रिपिटक बुद्ध-मुख से निःसृत वचनों का प्रामाणिकतम माध्यम ही हो सकता है । विषय की दृष्टि से भी कोई बात उपर्युक्त साक्ष्य के विपरीत जाने वाली दिखाई नहीं पड़ती । पालि-त्रिपिटक में छठी और पाँचवीं शताब्दी ईसवी पूर्व के भारतीय जीवन की पूरी झलक मिलती है । गोतम बुद्ध का ऐतिहासिक व्यक्तित्व, उनका मानवीय स्वरूप, वहाँ स्पष्टतम शब्दों में अंकित मिलता है । इस विषय में उसकी उत्तरकालीन महायान ग्रन्थों से एक अद्भुत विशेषता है । उत्तरकालीन बौद्ध संस्कृत साहित्य में बुद्ध के लोकोत्तर स्वरूप पर जोर दिया गया है, जो इतिहास की दृष्टि से बाद का निर्माण ही हो सकता हैं । पालि-त्रिपिटक में मध्यदेश की ही प्रधानता है और उसी में चारिकाएँ करते हुए शास्ता को दिखाया गया है, जब कि महायानी ग्रन्थों में इसके विपरीत उनका लंका-गमन तक दिखा दिया गया है जो लोकोत्तर तथ्यों पर आश्रित ही हो सकता है । इसके अलावा पालि-त्रिपिटक में यथार्थवाद और विवेकवाद की प्रधानता है जब कि महायानी साहित्य में अतिरंजनाओं और कल्पनाओं से भी बहुत काम लिया गया है । अतः अपेक्षाकृत महत्व की दृष्टि से पालि- त्रिपिटक को ही बुद्ध के जीवन और उपदेशों को समझने का प्राचीनतम और प्रामाणिकतम साधन मानना पड़ता है । इतिहास की दृष्टि से पालि- त्रिपिटक को ही एक मात्र सच्चा बुद्ध वचन मानने में सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि बुद्ध धर्म के विकास की प्रथम शताब्दी में ही उसके अनेक विभाग हो गये थे । अशोक के काल तक ही कम से कम १८ सम्प्रदायों का उल्लेख है । इन सभी सम्प्रदायों के अपने अपने साहित्य थे, जिन्हें वे प्रामाणिक बुद्ध वचन मानते थे । पालि- त्रिपिटक इन्हीं प्राचीन सम्प्रदायों में से एक ( स्थविरवाद - - थेरवाद) की साहित्यिक निधि है । पालि-त्रिपिटक में निहित बुद्ध वचन और उनकी अट्ठकथाएँ - इतना ही स्थविरवाद बौद्ध धर्म का साहित्यिक द्वारा सम्पादित दीघ - निकाय, जिल्द दूसरो प्रस्तावना, पृष्ठ ८ ( पालि- टैक्सट् ) सोसायटी द्वारा प्रकाशित ) १. स्थविरवादी ग्रन्थ 'महावंस' में भी बुद्ध का तीन बार लंका-गमन दिखाया गया है, जो उतना ही अ-प्रामाणिक है । २. देखिये आगे पाँचवें अध्याय में 'कथावत्थु' का विवेचन । Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११३ ) आधार है -- "तेपिटकसंगहितं साट्ठकथं सब्वं थेरवादंति" । " अन्य सम्प्रदाय वालों का बहुत-कुछ साहित्य लुप्त हो चुका है । मूल तो प्रायः किसी का भी मिलता ही नहीं । चीनी और तिब्बती अनुवादों से ही आज हमें उनकी कुछ जानकारी होती है। जिन सम्प्रदायों के साहित्य का इस प्रकार कुछ परिचय मिलता है उनमें, सर्वास्तिवादी (सब्बत्थिवादी ) मुख्य है । यह एक प्रभावशाली सम्प्रदाय था जिसका आविर्भाव अशोक के समय से पहले ही हो चुका था । इस सम्प्रदाय के सूत्र, विनय और अभिधर्म तीनों पिटक मिलते हैं । किन्तु उनके चीनी अनुवाद ही आज उपलब्ध हैं, मूल रूप में वे संस्कृत में थे, किन्तु आज उनका वह रूप उपलब्ध नही । पालि-त्रिपिटक से इन सर्वास्तिवादी ग्रन्थों की तुलना की गई है, जिसके परिणाम स्वरूप इन दोनों में विषय के सम्बन्ध में मूलभूत समानताएँ पाई गई हैं, केवल विषय - विन्यास में कहीं कुछ थोड़ा बहुत अन्तर पाया जाता है। यह बात सुत्त और विनय पिटक के सम्बन्ध में तो सर्वांश में सत्य है, किन्तु अभिधम्मपिटक के विषय में दोनों परम्पराओं में ग्रन्थ- संख्या समान (सात) होते हुए भी उनमें से प्रत्येक की विषय-वस्तु की दूसरे की विषय-वस्तु के साथ कोई विशेष समता नहीं है । इस प्रकार -- स्थविरवाद का सुत्तपिटक दीघ - निकाय (३४ सूत्र ) मज्झिमनिकाय सर्वास्तिवाद का सूत्र - पिटक दीर्घागम ( ३० सूत्र - प्रधानतः बुद्धयश तथा चू० फा० नैन द्वारा पाँचवी शताब्दी ई० में अनुवादित) मध्यमागम ( गौतम संघदेव द्वारा चौथी शताब्दी में अनुवादित ) संयुक्तकागम (पाँचवी शताब्दी में गुणभद्र द्वारा अनुवादित) अंकोत्तरागम ( चौथी शताब्दी में धर्मनन्दि द्वारा अनुवादित) संयुत्त निकाय अंगुत्तर-निकाय खुद्दक निकाय क्षुद्रकागम पालि - त्रिपिटक में भी यद्यपि कभी कभी दीघ निकाय आदि के लिये दीघागम आदि शब्दों का प्रयोग होता है, किन्तु प्रधानतः 'निकाय' शब्द का ही प्रयोग १. समन्तपासादिका की बाहिरकथा । ८ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११४ ) होता है । सर्वास्तिवादियों के त्रिपिटक में 'आगम' शब्द का ही प्रयोग होता है । इसी का चीनी भाषा में 'अगोन्' हो गया है । सर्वास्तिवाद में यद्यपि प्रधानता प्रथम चार निकायों की ही है, किन्तु वहाँ पाँचवाँ निकाय भी मिलता है । उसका नाम पालि खुद्दक निकाय के अनुरूप ही 'क्षुद्रकागम' है। पालि खुद्दक निकाय के कितने ग्रन्थ सर्वास्तिवादी सम्प्रदाय में मिलते हैं, यह निम्नांकित सूची से विदित होगा । स्थविरवादी खुद्दक निकाय के ग्रन्थ १. खुद्दक पाठ २. धम्मपद ३. उदान ४. इतिवृत्तक ५. सुत्तनिपात ६. विमानवत्थु ७. पेतवत्थु ८. थेरगाथा ९. थेरी गाथा १०. जातक ११. निस १२. पटिसम्भिदामग्ग १३. अपदान १४. बुद्धवंस १५. चरियापिटक विभंग खन्धक सर्वास्तिवादी परम्परा में प्राप्त ग्रन्थ २. पाचित्तिय ३. महावग्ग ४. चुल्लवग्ग धर्मपदं उदानं दोनों परम्पराओं के विनय-पिटक का विभाजन इस प्रकार है- स्थविरवादी विनय-पिटक सर्वास्तिवादी विनय-पिटक १. पाराजिका पाराजिका प्रायश्चित्तिकं अवदानं (जातक) सूत्रनिपात: विमानवस्तु बुद्धवंशम् Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११५ ) ५. परिवार पालि अभिधम्म-पिटक के ७ ग्रन्थों के साथ सर्वास्तिवादी अभिधर्म-पिटक के सात ग्रन्थों की, जहाँ तक उनके नामों का सम्बन्ध है, पर्याप्त समानता है, किन्तु विषय समान नहीं हैं । यथा, स्थविरवादी अभिधम्म-पिटक के ग्रन्थ सर्वास्तिवादी अभिधर्म-पिटक के ग्रन्थों के साथ उनके नामों को समानता १. धम्मसंगणि धर्म स्कन्धपाद २. विभंग विज्ञानकायपाद ३. पुग्गल पञ्जत्ति प्रज्ञप्तिपाद ४. धातुकथा धातुकायपाद ५. पट्ठान ज्ञानप्रस्थान ६. यमक मंगीतिपर्यायपाद ७. कथावत्थुपकरण प्रकरणपाद ऊपर स्थविरवादी और सर्वास्तिवादी सम्प्रदायों के साहित्य की समानताओं का दिग्दर्शन मात्र किया गया है। पालि त्रिपिटक के प्रत्येक पिटक या उसके अंशों का विवेचन करते समय आवश्यकतानुसार हम उनकी तुलना सर्वास्तिवादी पिटक के अंशों के साथ करेंगे। अभी जो कहा जा चुका है उससे इतना स्पष्ट है कि दोनों सम्प्रदायों के सुत्त और विनय-पिटक में काफी समानता है और जो विभिन्नताएं हैं वे प्रायः उसी प्रकार की हैं जैसी वेद की विभिन्न शाखाओं के पाठों में पाई जाती हैं। केवल अभिधम्म-पिटक की विषय-वस्तु में अन्तर है। अतः स्पष्ट है कि पालि-त्रिपिटक के कम से कम वे अंश जो सर्वास्तिवादी त्रिपिटक से समानता रखते हैं, अर्थात् सुत्त-पिटक और विनय-पिटक के अनेक महत्त्वपूर्ण अंश, सर्वांश में प्रामाणिक हैं और उनके बुद्ध-वचन होने में कोई सन्देह नहीं हो मकता। इसी अध्ययन से यह भी स्पष्ट है कि पालि-अभिधम्म-पिटक की प्रमाणवत्ता निश्चय ही सुत्त और विनय के बाद की रह जाती है, कम से कम उसके विषय में सन्देह तो दृढमूल हो ही जाता है। इस विषय का विस्तृत विवेचन हम पाँचवें अध्याय में अभिधम्म-पिटक की समीक्षा करते समय करेंगे। सर्वास्तिवादी और स्थविरवादी परम्पराओं में जिन वातों पर मत-भेद है अथवा उनके साहित्य में जहाँ विभिन्नता है, वहाँ हमें यह मोचना पड़ेगा कि किस का साक्ष्य अधिक प्रभाव Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११६ ) शाली और मानने योग्य है। हम पहले देख चुके हैं कि स्थविरवादी त्रिपिटक के स्वरूप का अन्तिम निश्चय और स्थिरीकरण अशोक के काल में अर्थात् तृतीय शताब्दी ईसवी पूर्व हो चुका था और उसी समय से वह लंका में उसी रूप में सुरक्षित रहा है । कम से कम प्रथम शताब्दी ईसवी पूर्व (वट्टगामणि अभय का समय-- मिलिन्दपञ्ह का समय भी) के बाद तो उसमें एक अक्षर का कहीं परिवर्तनपरिवर्द्धन हुआ ही नहीं है । इसके विपरीत सर्वास्तिवादी साहित्य की परिस्थिति बड़ी संकटग्रस्त और असमंजसमय रही है। पहले तो अशोक ने ही स्थविरवादियों के अतिरिक्त सारे बौद्ध सम्प्रदायों के अनुयायियों को मिथ्यावादी समझ कर प्रवज्या-हीन कर दिया ।' 'फिर शुंग राजाओं के काल में उन पर जो आपत्तियाँ ढाई गई, उनसे तो अपनी मूल परम्परा से उनका कदाचित् उच्छेद ही हो गया। सम्भवतः यही कारण है कि उनके मूल विशाल साहित्य का, जोसंस्कृत में था, आज कोई पता नहीं चलता और वह केवल चीनी अनुवादों में सुरक्षित है। आज पुरातत्व का कोई भी भारतीय विद्यार्थी धार्मिक कट्टरता के परिणामस्वरूप उत्पन्न इस ज्ञान-विलुप्ति के लिए लज्जित हुए बिना नहीं रह सकता। सर्वास्तिवादी सम्प्रदाय की साहित्य-विलुप्ति के अन्य चाहे जो कारण दिये जा सकें, वह भारतीय संस्कृति की उदारता और धर्म-सहिप्णता की एक कटु टिप्पणी भी अवश्य है । 'पुष्यमित्र' २ नाम तक के प्रति चीनी बौद्ध साहित्य में जो गहरी अवज्ञा का भाव विद्यमान है, वह इस साहित्य-विलुप्ति से असम्बन्धित नहीं हो सकता। यहाँ कहने का तात्पर्य यही है कि अपनी मूल परम्परा से विच्छिन्न होकर ही सर्वास्तिवाद बौद्ध धर्म चीन और १. देखिये महावंश ५।२६८-२७० २. प्रसिद्ध शुङ्ग वंशीय राजा, जिसने बौद्धों पर बड़े अत्याचार किये, जिनके कारण अनेक बौद्धों को देश छोड़ कर बाहर भाग जाना पड़ा। केवल आन्ध, सौराष्ट्र, पंजाब, काश्मीर और काबुल में बौद्ध धर्म इस समय रह गया। चीनी बौद्ध साहित्य में बिना अभिशाप के 'पुष्यमित्र'का नाम नहीं लिया जाता। देखिये बुद्धिस्टिक स्टडीज (डा० लाहा द्वारा सम्पादित) पृष्ठ ८२० Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११७ ) अन्य देशों में गया, अतः उसकी प्रामाणिकता स्थविरवाद के सामने कुछ नहीं हा सकती। सर्वास्तिवादी ग्रन्थों के चीनी और तिब्बती अनुवाद भी ईसवी सन् के कई सौ वर्ष बाद हुए, अतः इस दृष्टि से भी उनमें परिवर्तन-परिवर्द्धन की काफी संभावना हो सकती है। फिर बौद्ध धर्म जहाँ जहाँ गया वह अपनी समन्वयभावना को भी अपने साथ लेता गया और जिन जिन देशों में उसका प्रसार हुआ, उनके लोक-गत विश्वासों का भी उसके अन्दर समावेश होता गया। अतः इस प्रवृत्ति के कारण भी सर्वास्तिवादी सम्प्रदाय के साहित्य में विभिन्नताएँ आ सकती हैं, जिनके मौलिक या उत्तरकालीन परिवर्तित होने का निर्णय हम उनके मूल के अभाव में नहीं कर सकते। भाषा के साक्ष्य पर भी हम उसे पालि-माध्यम के साथ मिला कर किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सकते। अतः दोनों के तुलनात्मक महत्व और प्रामाण्य का अंकन अभी हम अनिश्चित रूप से ही कर सकते हैं। फिर भी जो कुछ तथ्य उपलब्ध हैं, उनसे यही विदित होता है कि सर्वास्तिवादी माध्यम की अपेक्षा स्थविरवादी माध्यम ने ही बुद्ध-वचनों की अधिक सच्ची और प्रामाणिक अनुरक्षा की है। सर्वास्तिवादियों के अतिरिक्त अन्य बौद्ध सम्प्रदायों के विषय में, जिनकी उत्पत्ति अशोक के काल तक हो चुकी थी और जिनके साथ ही स्थविरवादियों जीवित सम्बन्ध की कल्पना हम कर सकते हैं, हमें महत्त्वपूर्ण कुछ भी ज्ञात नहीं है। इतना अवश्य कहा जा सकता है कि उनकी भी परम्पराएँ थीं अवश्य, किन्तु आज वे हमारे लिये प्राप्त नहीं हैं। द्वितीय संगीति के अवसर पर ही, जैसा हम पहले देख चके हैं,' महासंगीतिक भिक्षुओं ने सुत्त और विनय के कुछ अंशों के अतिरिक्त सम्पूर्ण अभिधम्म-पिटक की ही प्रमाणवत्ता स्वीकार नहीं की थी। उन्होंने विनय-पिटक के परिवार और सुत्त-पिटक के पटिसम्भिदामग्ग, निद्देस और जातकों के कुछ अंशों को भी प्रामाणिक नहीं माना था। अभिधम्मपिटक के अस्वीकरण में सर्वास्तिवादी और महासंगीतिक भिक्षु समान ही थे। अत: हमें उसके विषय में गम्भीरतापूर्वक सोचना पड़ेगा कि उसे कहाँ तक बुद्धवचन के रूप में प्रामाणिक माना जाय । यही स्थिति जातक, निद्देस और पटिसम्भिदामग्ग की भी है। इस सूची को और भी काफी बढ़ाया जा सकता है । उदाहरणतः थेरगाथा और पेतवत्थु जैसे ग्रन्थों में ऐसे आन्तरिक साक्ष्य हैं,२ जिनके १. दूसरे अध्याय में। २. देखिये आगे इसी अध्याय में खुद्दक निकाय का विवेचन Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११८ ) आधार पर उन अंशों को बुद्ध-परिनिर्वाण से दो या तीन शताब्दी बाद की रचना हो माना जा सकता है । अतः यह स्पष्ट है कि पालि - त्रिपिटक की प्रमाणवत्ता का एकांशेन उत्तर नहीं दिया जा सकता । उसके कतिपय अंश (जैसे महापरिनिब्बाण - सुत्त, धम्मचक्कपवत्तन सुत्त आदि, आदि ) अत्यन्त प्राचीन हैं और उनमें बुद्ध के प्रत्यक्ष जीवन और उपदेशों की सजीव और सर्वांश में सच्ची प्रतिमूर्ति मिलती है, कुछ शास्ता के परिनिर्वाण के ठीक बाद के हैं (जैसे गोपक मोग्गल्लान - सुत्त) और कुछ एक-दो शताब्दियों बाद की परम्पराओं को भी अंकि करते हैं, किन्तु ऐसे स्थल बहुत कम हैं । सुत्त और विनय-पिटक का अधिकांश भाग तो बुद्ध और उनके शिष्यों के जीवन और उपदेशों तक ही सीमित है । जो अंशबाद के भी हैं, वे भी अशोक के काल तक ही अपना अन्तिम स्वरूप प्राप्त कर लेते हैं । भाषा और शैली एवं पारस्परिक तुलनात्मक अध्ययन के आधार पर हम पूर्व और परगामी तत्त्वों को अलग अलग कर सकते हैं । उदाहरणतः सुत्तों का पारस्परिक मिलान कर के हम जान सकते हैं कि किस मौलिक नमूने का आश्रय लेकर किस सुत्त को किस प्रकार परिवर्द्धित स्वरूप प्रदान किया गया है। यही हाल विनय के नियमों का है । उनमें परिवर्तन हुआ है । विनय के सभी नियम शास्ता के मुख से निकले हुए नहीं हो सकते । कुछ मौलिक आधारों को लेकर शेष की सृष्टि कर ली गई है और उनको प्रामाणिकता देने के लिये ही बुद्ध वचन के रूप में प्रख्यापित कर दिया गया जान पड़ता है । अन्यथा मानवीय विचार को इतनी अधिक स्वतन्त्रता देने वाले के द्वारा जीवन की छोटी से छोटी क्रियाओं में विधान प्रज्ञापन करना संगत नहीं बैठता । शिष्यों पर उनके प्रभाव को देखते हुए भी उनकी आवश्यकता प्रतीत नहीं होती । अतः वे बुद्ध धर्म के विकास से सम्बन्धित हैं, यह हम आसानी से जान सकते हैं । बौद्ध संगीतियों के इतिहास ने भी हमें यही बताया है कि उसके स्वरूप का निर्माण और निर्धारण द्वितीय संगीति के समय ही हुआ है जो बुद्ध-परिनिर्वाण से १०० वर्ष बाद हुई । अतः एक सीमित किन्तु निश्चित अर्थ में ही हम पालि- त्रिपिटक (विशेषतः सुत्त और विनय ) को बुद्ध - वचन कह सकते हैं जिसे ढूंढने के लिये हमें काफी समालोचना-बुद्धि, और साथ ही श्रद्धा बुद्धि की भी आवश्यकता है। समालोचना - बुद्धि के साथ-साथ श्रद्धा-बुद्धि की आवश्यकता इसलिये है कि हम भारतीयों को पालि साहित्य का परिचय पच्छिमी विद्वानों ने ही प्रारम्भिक रूप से कराया है और पच्छिमी विद्वानों को भारतीय ज्ञान और साहित्य को जानने Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११९ ) की इच्छा उस समय हुई जब वहाँ उन्नीसवीं शताब्दी में सन्देहवाद का बोलबाला था । इसमें सन्देह नहीं कि बिना सन्देह के ज्ञान नहीं हो सकता और प्रत्येक ज्ञान के पहले सन्देह होना आवश्यक है । किन्तु सन्देह ही ज्ञान का रूप धारण कर ले, यह ज्ञान का अपलाप है । अधिकांश पाश्चात्य विद्वान् इस स्थिति से शायद हो ऊपर उठ पाये हैं । उनकी प्रत्येक अभिज्ञा और जानकारी में सन्देह समाया हुआ है । पालि -स्वाध्याय के प्राथमिक युग में बुद्ध के ऐतिहासिक अस्तित्व तक के सम्बन्ध में उनमें से कई ने . (उदाहरणतः फ्रैंक, सेनाँ, बार्थ आदि) सन्देह प्रकट किया। त्रिपिटक के वर्णनों में थोड़े-बहुत विरोध पाये जाते हैं । इन विरोधों का संग्रह फ्रैंक के द्वारा किया गया है । पर उनमें से कई वास्तविक विरोध नहीं भी हैं। अस्तु, जो भी विरोध हैं उनका कारण क्या है ? जैसा पहले दिखाया जा चुका है, बुद्ध-धर्म के प्राथमिक विकास में बुद्ध वचनों की परम्परा बुद्ध-परिनिर्वाण के बाद कई शताब्दियों तक मौखिक परम्परा में चलती रही। अतः अनेक विरोध ( बुद्ध वचनों का संगायन करने वाले भिक्षुओं की ) स्मृति हानि के कारण ही हैं । उन पर अनावश्यक जोर देना बुद्धवचनों के संरक्षण - प्रकार से ही अपनी अनभिज्ञता दिखाना है । एक ही उपदेश को बुद्ध या उनके किसी शिष्य के मुख से दिया हुआ दिखलाने में या भिन्न भिन्न स्थानों में दिया हुआ दिखलाने में कोई विरोध नहीं है । यह तो ऐतिहासिक रूप से सत्य भी हो सकता था । भगवान् अपनी चारिकाओं में चतुरार्य सत्य जैसे प्रमुख उपदेशों की पुनरावृत्ति भिन्न भिन्न स्थानों में करते ही रहे होंगे और फिर उनके शिष्य भी इसी प्रकार करते हुए विचरते होंगे, यह समझना कठिन नहीं है । भिन्न भिन्न स्थानों के भिन्न भिन्न व्यक्तियों द्वारा ही बुद्ध वचनों का संगायन और संकलन हुआ है, अतः इसमें अस्वाभाविक क्या है ? बल्कि यह तो उनके सत्य और ऐतिहासिक रूप से प्रमाण होने का एक प्रबल साक्ष्य है । कौन सा उपदेश किस स्थान पर दिया गया, किसके प्रति दिया गया, किस अवसर पर दिया गया, इतनी छानबीन के साथ बुद्ध वचनों को उनके उसी रूप में संरक्षित रखना भिक्षुओं की महती ऐतिहासिक बुद्धि का साक्ष्य देता है । निश्चय ही इतने अधिक ब्यौरों के साथ बुद्ध वचनों का संरक्षण करने में कुशल भिक्षुओं ने जो दक्षता दिखाई है, वह उनके समय को देखते हुए आश्चर्यजनक है। इसके लिये हमें उनका कृतज्ञ होना चाहिये । उनके द्वारा दी हुई सूचना पर सन्देह करना ही मात्र Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२० ) ऐतिहासिक प्रणाली नहीं होगी। कम से कम यह मानना पड़ेगा कि वे धर्मवादी थे और भगवान बुद्ध के वचनों की रक्षा ही उनका प्रधान उद्देश्य था । अतः उनके द्वारा संगृहीत वचनों में मानवीय स्मरण-शक्ति की स्वाभाविक अल्पता के कारण कहीं अशुद्धि या अपूर्णता भले ही रह गई हो, किन्तु जो कुछ उन्होंने सुना था उसी का अत्यन्त सावधानी के साथ उन्होंने संगायन किया था, इतना तो हमें मानना ही पड़ेगा। जो उन्होंने संगायन किया था, उसी का संगृहीत रूप आज हमें पालि त्रिपिटक में मिलता है, यह भी निःसन्देह है ही। सर्वांश में पालि-त्रिपिटक बुद्धवचन है, ऐसी मान्यता तो स्वयं पालि-त्रिपिटक की भी नहीं है। वहाँ स्पष्टतम रूप से दिखा दिया गया है कि कौन से वचन सम्यक् सम्बुद्ध के हैं, कौन से वचन उनके शिष्यों के है, अथवा कौन से वचन अन्य व्यक्तियों के भी हैं । अतः जब हम पालि-त्रिपिटक को बुद्ध-वचन कहते हैं तो उसका अर्थ यही होता है कि वहाँ बुद्धकालीन भारत के देश-काल की पृष्ठभूमि में बुद्ध के जीवन और उपदेशों का सजीव और मौलिक चित्र मिलता है और जो बुद्ध-वचन वहाँ बुद्ध-मुख से निःसृत दिखाये गये हैं, वे प्रायः वैसे ही हैं। अशोक उन्हें ऐसा ही मानता था और अशोक बुद्धिवादी व्यक्ति नहीं था, ऐसा हम नहीं कह सकते। जब बुद्ध-परिनिर्वाण की तीसरी शताब्दी में उत्पन्न होकर अशोक को बुद्ध-वचनों के निश्चित स्वरूप के विषय में पूर्ण सन्तोष हो गया था तो उसकी कई शताब्दियों बाद आने वाले हम, जब काल ने बहुत से पुरावृत्त को और भी ढंक लिया है, अशोक की सम्पत्ति के ही साझीदार क्यों न बन जायें ? यहाँ कुछ भय नहीं है । अभी तक हमने संस्कृत के आधार पर बौद्ध धर्म का अध्ययन किया है। उसके तात्त्विक दर्शन के विषय में दाहे जो कुछ कहा जाय, बुद्ध के ऐतिहासिक व्यक्तित्व के प्रभावशाली सम्पर्क से तो हम अभी तक प्रायः वञ्चित ही रहे हैं। आज, हमने महिन्द (महेन्द्र) के द्वारा सिंहल को जो दिया था, सिंहल उसका प्रतिदान करने को प्रस्तुत है। उसने बड़े प्रयत्न और गौरव से हमारे दान को सुरक्षित रक्खा है । आज उसकी थाती हमारे लिये खुली हुई है । यहाँ हम बुद्ध और उनके पाद-मूल में बैठने वाले शिष्यों के साक्षात् दर्शन कर सकते हैं, उनके उपदेश सुन सकते हैं, जिम प्रकार के देश-काल में वे विचरते थे उसका दिग्दर्शन कर सकते हैं। बुद्ध-वचनों की स्मृतियों के साथ यद्यपि यहाँ बहुत-कुछ और भी अंकित है, और कहीं कहीं कुछ बुद्ध-परिनिर्वाण के बाद का भी काफी है, किन्तु उन सव का उपयोग बुद्ध-वचनों के लिये ही है जो स्वयं वहाँ अपनी पूर्ण विभूति और मौलिक गौरव में उपस्थित हैं। पालि-त्रिपिटक के इस Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२१ ) गौरवमय अंश के कारण ही हम उसके सारे रूप को भी 'बुद्ध-वचन' कहते है, जो यद्यपि अक्षरशः सत्य नहीं, किन्तु सत्य की महिमा और अनुभूति से व्याप्त अवश्य है। सुत्त-पिटक का विषय, शैली और महत्त्व पालि-त्रिपिटक का सब से अधिक महत्वपूर्ण भाग मुत्त-पिटक ही है। बुद्ध के धम्म का याथातथ्य रूप में परिचय कराना ही सुत्त-पिटक का एक मात्र विषय है। हम जानते हैं कि बुद्ध के परिनिर्वाण तक धम्म और विनय अथवा अधिक ठीक कहें तो सामासिक 'धम्म-विनय' की ही प्रधानता थी। उसी की शरण में शास्ता ने भिक्षुओं को छोड़ा था। बुद्ध-परिनिर्वाण के बाद उनके शिष्यों ने बुद्धवचनों के नाम से जिसका संगायन किया वह धम्म और विनय ही थे। “धम्मं च विनयं च संगायेय्याम'। अतः पालि-त्रिपिटक में अधिक महवत्त्वपूर्ण तो धम्म और विनय ही हैं। इनमें भी संघ-अनुशासन की दृष्टि से विनय मुख्य है, किन्तु साहित्य और इतिहास की दृष्टि से सुत्त-पिटक का ही महत्त्व अधिक मानना पड़ेगा । पालि-साहित्य के कुछ विवेचकों ने विनय-पिटक को ही अपने अध्ययन के लिये पहले चुना है। यह भिक्षु-संघ की परम्परा के सर्वथा अनुकूल है। किन्तु हम यहाँ सुत्त-पिटक के विवेचन को पहले ले रहे हैं। इसका कारण उसका साहित्यिक, ऐतिहासिक और अन्य सभी दृष्टियों से प्रभूत महत्त्व ही है। जिन पाश्चात्य विद्वानों ने पालि-त्रिपिटक की प्रामाणिकता में सन्देह किया है उनमें मिनयेफ, बार्थ, स्मिथ और कीथ के नाम अधिक प्रसिद्ध है। इनमें भी मिनयेक सव से अधिक उग्र हैं। उन्होंने दीघ और मज्झिम जैसे १. "आनन्द ! मैंने जो धर्म और विनय उपदेश किये हैं, प्रज्ञप्त किये है, __ वही मेरे बाद तुम्हारे शास्ता होंगे" महापरिनिब्बाण-सत्त (दोघ-२॥३) २. गायगर, विटरनित्ज, और लाहा ने विनय-पिटक को ही पहले लिया है। पूज्य भदन्त आनन्द जी के आदेशानुसार मैने यहाँ सुत्त-पिटक को पहले लिया है, जो साहित्यिक दृष्टि से अधिक समुचित भी है। ३. इनके ग्रन्थ-संकेतों के लिये देखिये विटरनित्तः हिस्ट्री आँव इन्डि यन लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ १, पद-संकेत १; गायगरः पालि लिटरेचर एण्ड लेंग्वेज, पृष्ठ ९, पद-संकेत २ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२२ ) निकायों को भी एक-एक रचयिता की रचना बता कर उनके बुद्ध- वचनत्व और बौद्ध संगीतियों की मारी परम्परा को एक साथ ही फूंक मार कर उड़ाने की कोशिश की थी। किन्तु इतने सन्देहवाद तक यूरोपीय विद्वान् भी जाने को तैयार नहीं थे। अतः उनमें से बहुत ने मिनयेफकी गलत धारणा का कड़ा प्रतिवाद किया, जिसके फलस्वरूप स्वयं मिनयेफ को भी अन्त में अपना मत कुछ हद तक बदलना पड़ा। हमें इन यूरोपीय विद्वानों के मतों या उनके प्रतिवादों के संग्रह करने का यहाँ प्रलोभन नहीं है । हमें केवल यह देखना है कि अन्ततः किन कारणों के आधार पर इन्होंने पालि-त्रिपिटक की प्रामाणिकता में सन्देह किया था और वे कारण किस हद तक उस परिणाम पर पहुंचने में सही या गलत हैं। ये कारण अपने संग्रहीत रूप में इस प्रकार गिनाये जा सकते हैं (१) अशोक के काल के बाद भी त्रिपिटक में संशोधन और परिवर्तन होते रहे (२) अनः पालि-त्रिपिटक में प्राचीन और अर्वाचीन काल की परम्पराएँ मिल गई हैं (३) पालि-त्रिपिटक के वर्णनों में अनेक विरोध हैं, जैसे संयुत्त-निकाय के चुन्द-सुत्त में भगवान् वृद्ध के जीवन-काल में ही उनके प्रधान शिष्य सारिपुत्र का परिनिर्वाण होना दिखलाया गया है, किन्तु दीघ-निकाय के महापरिनिब्वाण-मुत्त में भगवान् के महापरिनिर्वाण के ठीक पहले वे उनके विषय में उद्गार करते दिखाये गये हैं। यदि पहला वर्णन ठीक है तो दूसरे अवसर पर सारिपुत्र जीवित नहीं हो सकते थे। अतः दोनों वर्णनों में स्पष्ट विरोध है । (४) एक जगह जो उपदेश बुद्ध-मुख से दिलवाया गया है, वहीं उपदेग दूसरी जगह उनके किसी शिप्य के मुख से दिलवा दिया गया है । अथवा एक जगह जिस उपदेश को किसी एक ग्राम, नगर या आदान में दिया गया दिखाया गया है, दूसरी जगह उसी उपदेश को किमी दूसरे ग्राम, नगर या आवास में दिया हुआ दिखा दिया गया है । इस प्रकार त्रिपिटक के वर्णनों में सामंजस्य का अभाव दिखाया गया है । जहाँ तक प्रथम आपत्ति का प्रश्न है वह सर्वथा निराधार है । मुख्य रूप से त्रिपिटक के स्वरूप में अशोक के काल के बाद कोई परिवर्तन-परिवर्द्धन नहीं हुआ है, इस पर हम भाषा और इतिहास आदि के साक्ष्य से इतना जोर दे चुके हैं कि इस सम्बन्ध में अधिक निरूपण करने की आवश्यकता प्रतोत नहीं होता । महेन्द्र और उनके माथी भिक्षु जिस रूप में विभिटक को लंका में ले गये उसको उभी रूप में संरक्षित रखना वहाँ के भिक्ष-संघ ने सदा अपना कर्तव्य और गौरव माना है । लंका के देश -काल का थोड़ा सा भी प्रभाव त्रिपिटक पर उपलक्षित नहीं है, यह एक विस्मयकारी वस्तु है। यदि थोडे Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२३ ) बहुत परिवर्तन कहीं हुए भी हों तो वे इतने महत्वपूर्ण कभी नही कहे जा मकते कि उसके प्राचीन रूप को ही ढंकलें । पालि-त्रिपिटक में अशोक मे पहले की परम्पराओं का तारतम्य तो हो सकता है, किन्तु उसके बाद की परम्पराओं का भी उसके अन्दर समावेश हो, यह तो पहले आक्षेप का निराकरण हो जाने के बाद ही नहीं माना जा सकता। ततीय संगीति के समय ही हमें पालि-त्रिपिटक के स्वरूप को अन्तिम रूप से निश्चित और पूर्ण समझ लेना चाहिये, इसमें कुछ भी सन्देह नहीं। अस्तु, सुत्त-पिटक में भगवान् के उपदेश निहित हैं। 'सुत्त-पिटक' शब्द का क्या अर्थ है, यह भी हमें यहाँ समझ लेना चाहिये । सुत्त का अर्थ है सूत या धागा और पिटक का अर्थ है पिटारी' या परम्परा । चूंकि पिटारी का प्रयोग लिखित ग्रन्थों को रखने के लिये ही हो सकता है और बुद्ध-वचन ईसवी पूर्व प्रथम शताब्दी से पहले लिखे नहीं गये थे, अतः इस समय से पहले उनके लिये 'पिटारी' शब्द का प्रयोग उपयुक्त नहीं हो सकता था। मौलिक रूप में इस अर्थ में बुद्ध-वचनों के विशिष्ट ग्रन्थों के लिये 'पिटक' शब्द का प्रयोग नहीं हो सकता था। पूर्वकाल में लाक्षणिक अर्थ में 'पिटक' शब्द का प्रयोग परम्परा के लिये होता था। जैसे पिटारी में रखकर कोई वस्तु एक हाथ से दूसरे हाथ में पहुंचाई जाती है, उसी प्रकार पहले धार्मिक सम्प्रदाय अपने विचार और सिद्धान्तों को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहँचाया करते थे। मज्झिम-निकाय के चंकि-सुत्तन्त (मज्झिम-२।५।५) में वैदिक परम्परा के लिये इमी अर्थ में 'पिटक-सम्प्रदाय' शब्द का प्रयोग हुआ है। यहाँ 'पिटक' शब्द का अर्थ महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने वेद की परम्परा' या 'वचन-समूह' किया है। अतः 'सत्त-पिटक' शब्द का अर्थ, इस लाक्षणिक प्रयोग के अनुसार होगा, धागे रूपी (बुद्ध-वचनों की) परम्परा। जिस प्रकार सूत के गोले को फेंक देने पर वह खुलता हआ चला जाता है,उसी प्रकार बुद्ध-वचन सुत्त-पिटक में प्रकाशित होते है। १. देखिये बुद्धिस्टिक स्टडीज (डा० लाहा द्वारा सम्पादित ) पृष्ठ ८४६ २. श्रीमती रायस डेविड्सः शाक्य और बुद्धिस्ट औरीजिन्स, परिशिष्ट १, पृष्ठ ४३१; प्रो० टी० डबल्यू रायस डेविड्सः सेक्रेड वुक्स ऑव दि ईस्ट, जिल्द ३५, पृष्ठ २८ का पद-संकेत; जर्नल ऑव पालि टैक्स्ट सोसायटी, १९०८, पृष्ठ ११४ ३. मिलाइये कीथः बुद्धिस्ट फिलॉसफी, पृष्ठ २४, पद-संकेत २ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२४ ) अतः उसकी 'सत्त-पिटक' संज्ञा सार्थक ही है। पालि 'सत्त' का संस्कृत अनुरूप 'सूत्र' है। वैदिक साहित्य की परम्परा में 'सूत्र' शब्द से तात्पर्य ऐसे स्वल्पाक्षर कथन से होता है जिसमें से सूत के धागे की तरह महान् अर्थ की परम्परा निकलती चली जाय । इस प्रकार के सूत्र-साहित्य का उद्भावन वैदिक साहित्य के विकास के अन्तिम युग की घटना है, जब कि बढ़ते हुए विशाल वैदिक वाङमय को संक्षिप्त रूपदेने की आवश्यकता प्रतीत हुई। परिणामतः प्रत्येक ज्ञान-शाखापर सूत्र-साहित्य की रचना हुई। श्रौत-सूत्र, गृह्य-सूत्र, धर्म-सूत्र, व्याकरण-सूत्र, नाट्य-सूत्र, अलंकार-सूत्र, न्याय-सूत्र, वैशेषिक-मूत्र, सांख्य-सूत्र, योग-सूत्र, मीमांसा-सूत्र, ब्रह्मसूत्र आदि इस विशाल सूत्र-साहित्य के कुछ उदाहरण हैं। संस्कृत का सूत्रसाहित्य विश्व-साहित्य के इतिहास में निश्चय ही एक विस्मयकारी वस्तु है। शब्द-संक्षेप किस हद तक जा सकता है, यह उसमें देखा जा सकता है । संस्कृतभाषा की अपूर्व शक्ति वहाँ दृष्टिगोचर होती है। सूत्र' की परिभाषा संस्कृतसाहित्य में इस प्रकार की गई है “सूत्रज्ञ पुरुष, उस स्वल्पाक्षर कथन को, जो असंदिग्ध, महत्वपूर्ण अर्थ का प्रख्यापक, विश्वजनीन उपयोग वाला और विस्तार और व्याकरण की अशुद्धि से रहित हो, सूत्र कहते हैं।"१ पालि के 'सुत्त' इस अर्थ में सूत्र कभी नहीं कहे जा सकते । वे विस्तार में काफी लम्बे हैं। कुछ तो छोटी छोटी पुस्तकों के समान ही हैं। उनके पुनरावृत्तिमय विस्तारों को देखकर कौन उन्हें 'सूत्र' कहेगा ? पालि के सूत्रों से भी अधिक लम्बे महायानी संस्कृत साहित्य के मूत्र हैं। वहाँ जिन्हें 'सूत्र' कहा गया है वे तो अनावश्यक विस्तार-पूर्ण सहस्रों पृष्ठों के विशालकाय ग्रन्थ हैं। अतः बौद्ध और वैदिक परम्परा के इस 'मूत्र' सम्बन्धी अर्थ-विभेद को हमें समझ लेना चाहिये। सुत्त-पिटक का विषय, जैसा अभी कहा गया, भगवान् बुद्ध के उपदेश ही हैं। साथ ही भगवान् के कुछ प्रधान शिष्यों के उपदेश भी सुत्त-पिटक में मन्निहित हैं, जिनके आधार भी स्वयं बुद्ध-वचन ही हैं। अक्सर ऐसा होता था कि भगवान् द्वारा उपदिष्ट किसी विषय को लेकर भिक्षुओं में संलाप हो उठता था। बाद में वे अपने संलाप की सूचना भगवान् को देते थे। यदि उनको कोई तथ्य स्पष्ट नहीं १. स्वल्पाक्षरमसंदिग्धं सारवद्विश्वतोमुखम । अस्तोभमनवद्यं च सूत्रं सूत्रविदो विदुः ॥ शब्दकल्पद्रुम Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२५ ) होता था तो भगवान् उसे स्पष्ट करते थे। कभी कभी उनमें से किसी महाप्राज्ञ भिक्षु के कथन का अनुमोदन कर भगवान् उसे साधुवाद देते थे। विरोधी सम्प्रदाय वालों के साथ भी भिक्षुओं के इस प्रकार के संलाप अक्सर चला करते थे। उनकी भी सूचना अक्सर भिक्षु भगवान् को देते थे। भगवान् या तो उनका अनुमोदन करते थे या उन्हें समझाते थे। कभी-कभी (भगवान के जीवन के अन्तिम काल में) ऐसा होता था कि लम्बे समय तक उपदेश देते देते भगवान की पीठ पीड़ित हो उठती थी (कठिन तपस्या के कारण भगवान् को वृद्धावस्था में वातरोग हो गया था)। उस समय उपदेश के बीच में ही भगवान् सारिपुत्र, मौद्गल्यायन या आनन्द जैसे किसी शिष्य को उपदेश को पूरा कर देने का आदेश देते थे। बाद में वे इस प्रकार दिये हुए उपदेश का अनुमोदन भी कर देते थे। स्वतन्त्र रूप से भी अनेक भिक्षुओं ने एक दूसरे के प्रति या गृहस्थ शिष्यों के प्रति अनेक उपदेश • दिये हैं। इस प्रकार बुद्ध-उपदेशों के साथ साथ उनके शिष्यों के उपदेश भी सुत्तपिटक में सम्मिलित हैं। भगवान् ने अपने मुख से जो जो उपदेश दिये, अपने जीवन और अनुभवों के विषय में उन्होने जो जो कहा, जिन जिन व्यक्तियों से उनका या उनके शिष्यों का सम्पर्क या संलाप हुआ, जिन जिन प्रदेशों में उन्होंने भ्रमण किया, संक्षेप में बुद्धत्त्व-प्राप्ति से लेकर निर्वाण-प्राप्ति तक के अपने ४५ वर्षों में भगवान की जो-जो भी जीवन-चर्या रही, उसी का यथावत् चित्र हमें सुत्त-पिटक में मिलता है। बुद्ध और उनके शिष्यों के उपदेशों के अतिरिक्त हमें आकस्मिक रूप से छठी और पाँचवीं शताब्दी ईसवी पूर्व के भारत के सामाजिक जीवन का पूरा परिचय भी सुत्त-पिटक में मिलता है । बुद्ध के समकालीन श्रमणों, ब्राह्मणों और परिव्राजकों के जीवन और सिद्धान्तों के विवरण, गोतम बुद्ध के विषय में उनके मत और दोनों के पारस्परिक सम्बन्ध, साधारण जनता में प्रचलित उद्योग और व्यवसाय, मनोरञ्जन के साधन, कला और विज्ञान, तत्कालीन राजनैतिक परिस्थिति और राजन्य-गण, ब्राह्मणों के धार्मिक सिद्धान्त,जाति-वाद, वर्णवाद, यज्ञवाद, भौगोलिक परिस्थितियाँ यथा ग्राम, निगम, नगर, जनपद आदि के विवरण और उनके जीवन की साधारण अवस्था, नदी, पर्वत आदि के विवरण, साहित्य और ज्ञान की अवस्था, कृषि और वाणिज्य, सामाजिक रीतियाँ, जीवन का नैतिक स्तर, स्त्रियों, दाम-दासियों और भृत्यों की अवस्था, आदि के विवरण सुत्त-पिटक में भरे पड़े है, जो बुद्ध और उनके शिष्यों के जीवन और उपदेशों के साथ-साथ तत्कालीन Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२६ ) भारतीय सामाजिक और राजनैतिक परिस्थिति आदि का भी अच्छा दिग्दर्शन करते हैं । सुत्तों के आकार के सम्बन्ध में प्राय: कोई नियम दृष्टिगोचर नहीं होता । उनमें कई बहुत छोटे भी हैं और कई बहुत बड़े भी । इसी प्रकार गद्य-मय या पद्य - म होने का भी कोई निश्चित नियम नहीं है । कुछ बिलकुल गद्य में हैं और कुछ गद्य-पद्य मिश्रित भी, कुछ थोड़े से बिलकुल पद्य में भी हैं, बीच बीच में कहीं कहीं गद्य के छिटके के साथ' । प्रत्येक सुत्त अपने आप में पूर्ण है और वह बुद्ध-उपदेश या बुद्ध जीवन सम्बन्धी किसी घटना का पूरा परिचय देता है । प्रायः प्रत्येक सुत्त के प्रारम्भ में उसकी एक ऐतिहासिक भूमिका रहती है । यह भूमिका हमें बतला देती है कि जिस उपदेश का विवरण दिया जा रहा है, वह भगवान् ने कहाँ दिया । उदाहरणतः 'एक समय भगवान् श्रावस्ती में अनाथपिंडिक के आराम जेतवन में विहार करते थे' 'एक समय भगवान् राजगृह में गृध्रकूट पर्वत पर विहार करत थे जैसे वाक्य प्रायः प्रत्येक सुत्त के आदि में आते हैं । सुत्तों की अनेक छोटी-मोटी विशेषताएँ और भी देखी जा सकती हैं। उदाहरणतः भगवान् के उपदेश के बाद प्रायः ( सदा नहीं ) उपदेश सुनने वालों का इस प्रकार का कृतज्ञतापूर्ण उद्गार देवा जाता है " आश्चर्य हे गोतम ! अद्भुत हे गोतम ! जैसे औंधे को सीधा कर दे, ढँके को उघाड़ दे, भूले को रास्ता बतला दे, अन्धकार में तेल का प्रदीप रख दें, जिससे कि आँख वाले रूप को देखें, ऐसे ही आप गोतम ने अनेक प्रकार से धर्म को प्रकाशित किया । यह मैं भगवान् गोतम की शरण जाता हूँ, धर्म की शरण जाता हूँ, संत्र की भी शरण जाता हूँ । आप गोतम आज से मुझे अंजलिवद्ध शरणागत उपासक स्वीकार करें " कहीं कहीं मुत्तों के अन्त में भिक्षुओं की कृतज्ञता केवल इन शब्दों से भी व्यक्त कर दी जाती है "भगवान् ने यह कहा । सन्तुष्ट हो भिक्षुओं ने भगवान् के उस कथन का अनुमोदन किया ।" मिलने-जुलने, विदा लेने, कृतज्ञता प्रकाशित करने, कुशल-मंगल पूछने आदि साधारण अवतरों पर जिस प्रकार का शिष्टाचार उस समय प्रचलित था, उसका वर्णन प्रायः समान शब्दों में सुत्तपिटक में अनेक स्थलों पर किया गया है। ऐसे स्थल बार बार आने के कारण स्वयं कंठस्थ हो जाते है । जब कोई भिक्षु भगवान् के दर्शनार्थ दूर से आता था, तो भगवान् उससे अक्सर पूछा करते थे 'कहो भिक्षु ! कुशल से तो हो ? रास्ते में कोई बड़ी हैरानी परेशानी १. जैसे दीघ निकाय के महासमय- सुत्त, लक्खण-सुत्त, आटानाटय-सुत्त आदि Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२७ ) तो नहीं हुई ? भिक्षा के लिये कष्ट तो नहीं उठाना पड़ा' ? आदि। भगवान् को जब कोई व्यक्ति निमंत्रण देने आता है तो प्रायः यही वाक्य रहता है “भन्ते ! भिक्षु-संघ सहित आप कल के लिये मेरा भोजन स्वीकार करें"। उसके बाद "भगवान् ने मौन से स्वीकार किया।" भगवान् के भिक्षाचर्या के लिये जाने का प्रायः इन शब्दों में वर्णन रहता है “तब भगवान् पूर्वाह्न समय चीवर पहन, भिक्षापात्र ले, जहाँ ...... था, वहाँ गये। जाकर भिक्षु-संघ सहित बिछे आसन पर बैठे।......ने अपने हाथ से बद्ध-प्रमुख भिक्ष-संघ को उत्तम खाद्य-भोज्य से मन्तर्पित किया। खाकर पात्र से हाथ हटा लेने पर......एक नीचा आसन ले, एक ओर बैठ गया। भगवान् ने उपदेश से समुत्तेजित, सम्प्रहर्षित किया। धर्मउपदेश कर भगवान् आसन से उठकर चल दिये।" जब कोई महाप्रभावशाली व्यक्ति भगवान के दर्शनार्थ जाता है तो "जितनी यान की भूमि थी, उतनी यान से जा कर, यान से उतर, पैदल ही जहाँ भगवान् थे, वहाँ गया। जाकर भगवान् को अभिवादन कर एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठे. . . . . .को भगवान् ने धर्म-सम्बन्धी कथा से समुत्तेजित किया' आदि । इस प्रकार बुद्धकालीन भारतीय समाज का पूरा चित्र हमें सुत्त-पिटक में मिलता है। भगवान् बुद्ध के उपदेश करने का क्या ढंग था, यह भी सुत्तों से स्पष्ट दिखाई पड़ता है। पहले भगवान् दान, शील, सदाचार-प्रशंसा, दुराचार-निन्दा आदि सम्बन्धी साधारण प्रवचन देते थे। फिर 'वुद्धों की उठाने वाली आदेशना' (बुद्धानं सामुक्कंसिका धम्मदेसना) आरम्भ होती थी, जिसमें चार आर्य सत्यों आदि का गंभीर धर्मोपदेश होता था। दीघ-निकाय के अम्बठ्ठ सुत्त, कुटदन्त-सुत्त आदि में इसी तरह उपदेश का विधान किया गया है। भगवान् एक मनोवैज्ञानिक की तरह उपदेश करते थे। पहले वे देख लेते थे कि जो व्यक्ति उनके पास दर्शनार्थ आया है वह किसान है, या सिपाही है, या राजा है या परिव्राजक है। फिर उससे परिचित जीवन से ही उपमाएँ आदि लेकर वे उसे धर्म का स्वरूप समझाते थे। परिव्राजकों या अन्य मतावलम्बी साधुओं के साथ वार्तालाप करते समय वे उनके मान्य सिद्धान्तों से ही प्रारम्भ करते थे और उत्तरोत्तर विचार पर उसे अग्रसर करते हुए अपने मन्तव्य तक लाते थे। दीघ-निकाय के सामफल-सुत्त, सोणदंड-सुत्त, पोपाद-सुत्त और तेविज्ज-सुत्त तथा मज्झिम-निकाय के वेखणस-सुत्त, सुभ-सुत्त, चंकि-सुत्त आदि इसके अच्छे उदाहरण हैं। भगवान बुद्ध के उपदेश करने के ढंग या उनकी आदेशना-विधि का बड़ा अच्छा विश्लेषण 'पेटकोपदेस' नामक ग्रन्थ में Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । १२८ ) किया गया है, जो त्रिपिटक के संकलन के बाद किन्तु बुद्धघोष के काल से पहले, लिखा गया था। छठे अध्याय में हम उसका विवरण देते समय इस विषय का भी कुछ दिग्दर्शन करेंगे। ___ सुत्तों की शैली की ये विशेषताएँ और द्रष्टव्य है (१) पुनरुक्तियों की अतिशयता (२) संख्यात्मक परिगणन की प्रणाली का प्रयोग (३) उपमाओं के प्रयोग की बहुलता (४) संवादों का प्रयोग (५) इतिहास और आख्यानों का उपदेशों के बीच में समावेश और (६) सुत्तों में नाटकीय क्रियात्मकता की अभिव्याप्ति । चूंकि सुत्तों का संकलन विभिन्न स्रोतों से, विभिन्न व्यक्तियों के द्वारा और विभिन्न कालों में हआ, अत: उनमें पूनरुक्तियों का होना अवश्यम्भावी है। भिक्षुओं के निरन्तर अभ्यास के लिये स्वयं भगवान् का भी एक ही उपदेश को बार बार देना, कहीं संक्षिप्त रूप से, कहीं विस्तृत रूप से, उसे दुहराना. आसानी से समझा जा सकता है। फिर अध्ययन-अध्यापन की मौखिक परम्परा के कारण इस पुनरुक्तिमय वर्णन-प्रणाली को और भी अधिक प्रश्रय मिला है। अतः सुत्तों में पुनरुक्तियों का होना एक तथ्य है और वह उनकी प्राचीनता और प्रामाणिकता का ही सचक है, अप्रामाणिकता या अर्वाचीनता का नहीं । सुत्तों में इतनी पुनमक्तियाँ भरी पड़ी है कि उनका सामान्य दिग्दर्शन भी सम्भव नहीं है । सुत्तों का 'पेय्यालं' अति प्रसिद्ध है।' वाक्यांशों के वाक्यांशों की पुनरावृत्ति केवल एक-दो शब्दों के हेर-फेर के साथ अनेक सुत्तों में पाई जाती है। सोण-दंड-सत्त का अन्तिम भाग हुबह कूटदन्त-सुत्त में रक्खा हुआ है। चार ध्यानों का वर्णन बिलकुल समान शब्दों में अनेक सुत्तों में रक्खा हुआ है, यथा सामञफल-सुत्त (दीघ-१।२) अम्बह्रसुत्त (दीघ-१।३) सोणदंड-सुत्त (दीघ-१।४) कूटदन्त सुत्त (दीघ-११५) महालि १. चूंकि पालि-त्रिपिटक में, विशेषतः सुत्त-पिटक में, पुनरुक्तियाँ अधिक हैं, अतः जहाँ कहीं एक पूरे वाक्य 'या वाक्यांश की पुनरावृत्ति हुई, तो उसे पूरा न लिख कर केवल एक-दो आरम्भ के शब्द लिख दिये जाते हैं और फिर उसके बाद लिख दिया जाता है 'पेय्यालं' जिसका अर्थ यह है कि इतने संकेत से ही पूर्वागात वाक्य को समझा जा सकता है। पेय्यालं' शब्द : का अर्थ ही है 'पातुंअलं' अर्थात् इतने से वाक्य समझ लिया जा सकता है और यह पाठ को बचाये रखने के लिये पर्याप्त है। देखिये भिक्षु जगदीश काश्यप : पालि महाव्याकरण, पृष्ठ तैंतालीस (वस्तुकथा) Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्त (दीघ-११५) पोट्ठपाद-सुत्त (दीघ-११९) केवट्ट-सुत्त (दीघ-१।११) सुभ-सुत्त (दीघ-१।१२) चक्कवत्ति सीहनाद-सुत्त (दीघ-३।३), संगीति-परियायसुत्त (दीघ-३।१०), भयभेरव-सुत्त (मज्झिम-१।१।४) द्वेधावितक्क-सुत्त (मज्झिम१।२।९) महाअस्सपुर-सुत्त (मज्झिम-१।४।९) चूलहत्थिपदोपम-सुत्त (मज्झिम१।३।७) देवदहसुत्त (मज्झिम-३।१।१) वेरंजक-ब्राह्मण-सुत्त (अगुत्तर) झानसंयुत्त (संयुत्त-निकाय) आदि, आदि। चार आर्य सत्य, आर्य अष्टाङ्गिक मार्ग आदि के विषय में भी इसी प्रकार की पुनरुक्तियाँ दृष्टिगोचर होती हैं। संयुत्तनिकाय के सळायतन-संयुत्त में चक्षुरादि इन्द्रियों, उनके विषयों और विज्ञानों आदि को लेकर विस्तृत पुनरुक्तियाँ की गई हैं। अतः पुनरुक्तियों की अतिशयता सुत्तों की शैली की एक प्रधान विशेषता है और जिस कारण वह उत्पन्न हुई है उसका उल्लेख हम पहले कर चुके हैं। संख्यात्मक परिगणन की प्रणाली का प्रयोग भी बुद्ध-वचनों के भौखिक रूप से प्राप्त होने की परम्परा पर आधारित है। केवल स्मृति की सहायता के लिये ही भगवान् बुद्ध भी इसका प्रयोग करते थे। पूरा का पूरा अंगुत्तर-निकाय इसी संख्यात्मक प्रणाली पर संकलित किया गया है। अन्य निकायों में भी चार आर्य सत्य, पाँच नीवरण, ३२ महापुरुष-लक्षण, ६२ मिथ्यादुष्टियों आदि के संख्यात्मक निरूपण भरे पड़े हैं। सांख्य दर्शन और जैन-दर्शन तथा महाभारत आदि में भी संख्यात्मक वर्गीकरणों का प्रयोग दिखाई पड़ता है। पालि सुत्तों में इसका प्रयोग बहुलता से किया गया है, किन्तु वह अस्वाभाविक नहीं होने पाया है। पालि सुत्तों की उपमाएं बड़ी मर्मस्पर्शी हुई है। जीवन के अनेक क्षेत्रों से ये उपमाऍ ली गई है और उनकी स्वाभाविकता और सरलता बड़ी आकर्पक है। दीघ और मज्झिम निकायों के हिन्दी-अनुवाद में महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने इन निकायों में आई हुई उपमाओं की सूची दी है। उनसे सुत्तपिटक में आई हुई उपमाओं का कुछ अनुमान हो सकता है। जहाँ भी सुत्तों में कोई जटिल प्रश्न आया हम यह वचन देखते हैं 'ओपम्मं ते करिस्समि, उपमाय हि इधेकच्चे पुरिसा भासितस्स अत्थं आजानन्ति' अर्थात् 'मैं तुम्हें एक उपमा कहूँगा। उपमा से भी कुछ एक मनुष्य कहे हुए का अर्थ समझजाते हैं । उपमाओं की प्रणाली का अनुपिटक साहित्य पर भी इतना प्रभाव पड़ा है कि हम 'मिलिन्दपञ्ह' १. देखिये विटरनित्ज : हिस्ट्री ऑव इंडियन लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ ६५, पद संकेत १ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३० ) और 'विसुद्धिमग्ग' जैसे ग्रन्थों तथा बुद्धघोष आदि की अट्ठकथाओं में भी . उनका बहुल प्रयोग देखते हैं । निश्चय ही पालि साहित्य अपनी उपमाओं के लिये विशेष गौरव कर सकता है। विषय को सुगम बनाने की दृष्टि से ही भगवान् स्वयं उपमाएँ दिया करते थे। दीघ-निकाय के पोट्ठपाद-सुत्त में जनपद-कल्याणी की सुन्दर उपमा उन्होंने दी है। इसी प्रकार स्वानुभव-शून्य पंडितों की पंक्ति. बद्ध अन्धों से उपमा२, अतिप्रश्न करने वाले की उस वाण-बिद्ध व्यक्ति से उपमा जो वाण को निकलवाने का प्रयत्न न कर वाण मारने वाले के विषय में असंगत प्रश्न कर रहा है,३ विषय भोगों के दुष्परिणामों को दिखाने वाली उपमाएँ,४ विमुक्ति-सुख को दिखाने वाली उपमाएँ, आदिअनेक प्रकार की उपमाएँ भगवान् वद्ध के मुख से निकली हैं, जो काव्य की वस्तु नहीं किन्तु उनके अन्तस्तल से निकली हुई अनुभव सिद्ध वाणियाँ हैं। संवादों के रूप में सुत्तों के उदाहरण के लिये दीवनिकाय के अम्बट्ठ-सुत्त, सोणदण्ड-सुत्त, पोट्टपाद-सुत्त, तेविज्ज-सुत्त आदि विशेष द्रष्टव्य हैं। अन्य निकायों में भी संवाद भरे पड़े हैं। पौराणिक आख्यान भी स्त्तों में कहीं कहीं समाविष्ट हैं, जैसे महाविजित का आख्यान दीघ-निकाय के कुटदत्त-सुत्त में, आदि, आदि । उपनिषदों और महाभारत में भी ऐसे अख्यान पाये जाते हैं। संयुत्त-निकाय के भिक्खुनी-संयुत्त में भिक्षुणियों के आख्यान बड़े ही मार्मिक है। सुत्तों की एक बड़ी विशेषता उनकी नाटकीय द्रुतगति एवं क्रियाशीलता भी है। इस दृष्टि से दीघ-निकाय के महापरिनिब्बाण-सुत्त और संयुत्तनिकाय के भिक्खुनी-संयुत्त विशेष रूप से द्रष्टव्य हैं। परिप्रश्नात्मक शैली का जैसा पूर्ण परिपाक सुत्तों में हुआ है, वैसा भारतीय साहित्य में अन्य कहीं पाना असम्भव है। बाद में उनका विकसित रूप ही 'मिलिन्द-पह' में प्रस्फुटित हुआ है, जिसके संवादों को देख कर ही कुछ पाश्चात्य विद्वानों ने उसके ऊपर ग्रीक प्रभाव की १. देखिये आगे इस सुत्त का विवरण । २. अन्धवेणु परम्परा (अन्धों की लकड़ी का ताँता) चंकि-सुत्तन्त (मज्झिम. २।५।५)। ३. चूल मालुक्य-सुत्त (मज्झिम. २।२।३) । ४. पोतलिय-सुत्त (मज्झिम. २॥१॥४)। ५. सामञफल सुत्त (दीघ. ११२) में ६. देखिये विटरनित्ज : हिस्ट्री ऑव इंडियन लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ ३४ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३१ ) कल्पना कर ली है, जिसका निराकरण हम छठे अध्याय में उस सम्बन्धी विवरणं पर आते समय करेंगे। दीघ-निकाय के 'पायासि-सुत्त' जैसे सुत्तों में संवादात्मक शैली का जो परिष्कृत रूप दिखाई पड़ता है, उसी के आधार पर बाद में 'मिलिन्दपञ्ह' में इस कला में पूर्णता प्राप्त की गई है। __ जैसा पहले कहा जा चुका है, सुत्त-पिटक बुद्ध-वचनों का सब से अधिक महत्वपूर्ण भाग है । न केवल बुद्ध-उपदेशों को जानने के लिये ही बल्कि छठी और पाँचवीं शताब्दी ईस्वी पूर्व के भारत के सब प्रकार के ऐतिहासिक, सामाजिक और भौगोलिक ज्ञान का वह एक अपूर्व भांडार है। इतिहास और साहित्य के विद्यार्थी के लिये भी वह उतना ही महत्वपूर्ण है जितना बौद्ध धर्म और दर्शन के विद्यार्थी के लिये । गम्भीर विचारों की दृष्टि से उसका स्थान केवल उपनिषदों के माथ है। उपनिषदों से भी उसकी एक बड़ी विशेषता यह है कि उपनिषदों में जब कि विशुद्ध, निर्वैयक्तिक ज्ञान है, सुत्त-पिटक में उसके साथ साथ जीवन भी है। उपनिषदों में बुद्ध के समान ज्ञानी की जीवन-चर्या कहाँ है ? सुत्त-पिटक में निहित बुद्ध-वचनों की गम्भीरता की तुलना रायस डेविड्सने अफलातूं के संवादों से की है २ । अफलातूं के ज्ञान-गौरव की रक्षा करते हुए भी यह कहा जा सकता है कि तथागत की साधनामयी वाणी का तो शतांश गौरव भी उसके अन्दर नहीं है। बुद्ध-वचन अपनी गम्भीरता में सर्वथा निरुपमेय हैं। जब सम्यक् सम्बुद्ध जैसा वरदान ही प्रकृति ने मानव को नहीं दिया, तो उनके जैसे वचन भी कहाँ से हों? अतः धर्म, दर्शन, साहित्य, जीवन, इतिहास, प्राचीन भुगोल आदि सभी दृष्टियों से सुन-पिटक का अध्ययन अत्यन्त महत्वपूर्ण है। सुत्त-पिटक, जैसा पहले भी दिखाया जा चुका है, पाँच भागों में विभक्त है (१) दीघ-निकाय (२) मज्झिम-निकाय (३) संयुत्त-निकाय (४) अंगत्तरनिकाय और (५) खुद्दक-निकाय । इनमें प्रथम चार निकाय संग्रह-शैली की दृष्टि से समान हैं । पाँचवाँ निकाय छोटे छोटे (जिनमें कुछ बड़े भी हैं) स्वतन्त्र ग्रन्थों का संग्रह है। विषय तो सब का बद्ध-वचनों का प्रकाशन ही है। केवल सुत्तों के आकारों या विषय के विन्यास में कहीं कुछ अन्तर है। प्रत्येक निकाय की विषय-वस्तु का अब हम संक्षिप्त परिचय देंगे और साथ ही उनके साहित्यक १. इसके दर्शन के लिये देखिये आगे इस सत्त का विवरण । २. दि डायलॉग्स ऑव दि बुद्ध, जिल्द पहली, पृष्ठ २०६ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३२ ) और ऐतिहासिक महत्व का भी अनुमापन करना हमारे अध्ययन का एक अंग होगा। अ-दीघ-निकाय' - दीघ-निकाय दीर्घ आकार के सुत्तों का संग्रह है। आकार की दृष्टि से जो सुत्त या बुद्ध-उपदेश बड़े हैं, वे इस निकाय में संगृहीत है । दीघ-निकाय तीन भागों में विभक्त है (१) सीलक्खन्ध (२) महावग्ग (३) पाथेय या पाटिक-वग्ग। इनमें कुल मिलाकर ३४ सुत्त हैं, जिनमें सीलक्खन्ध में १-१२, महावग्ग में १४२३ और पाथेय या पाटिकवग्ग में २४-३४ सुत्त हैं। जिस क्रम से इन सुत्तों का विन्यास किया गया है, वह काल-क्रम के अनुसार पूर्वापरता का सूचक नहीं है। कुछ घटनाएँ या उपदेश जो कालक्रमानुसार बाद के है पहले रख दिये गये हैं और इसी प्रकार जिन्हें पहले होना चाहिये वे बाद में रक्खे हुए हैं। इसका कारण यही है कि काल-क्रम के अनुसार सत्तों को यहाँ विन्यस्त न कर आकार आदि की दृष्टि से किया गया है। पिटक और अनुपिटक (विशेषतः अट्ठकथा) साहित्य के साक्ष्य से महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने दीघ-निकाय के कुछ सुत्तों के कालानुक्रम का निश्चय कर उन्हें उस ढंग से अपने महत्वपूर्ण ग्रन्थ 'बुद्धचर्या' में अनूदित किया है। यह एक स्तुत्य कार्य है। पनिटमी विद्वान अट्ठकथाओं के साक्ष्य पर इतना अधिक विश्वास न कर केवल शैली और भापा आदि के साक्ष्य से ही दीघ-निकाय या पूरे सत्त-पिटक के विभिन्न अंशों की पूर्वापरता निश्चित करना चाहते हैं, जो अन्त में केवल उनकी कल्पना का विलास मात्र रह जाता है। फ्रैंक नामक विद्वान् ने तो इसी आधार पर अपने विचित्र मत भी पूरे त्रिपिटक और दीघ-निकाय के सम्बन्ध में प्रकाशित कर दिये है । उन्होंने दीघ-निकाय के विषय में कहा है कि यह किसी एक लेखक या साहित्यकार का काम है। चूंकि ओल्डनबर्ग,२ रायस डेविड्स, विटरनित्ज, गायगर५ आदि विद्वानों द्वारा १. महापंडित राहुल सांकृत्यायन द्वारा अनुवादित, महाबोधि सभा, सारनाथ,१९३७ २. ३. ४. ५ देखिये विशेषतः विटरनित्ज : हिस्ट्री ऑव इंडियन लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ ४४-४५; गायगर : पालि लिटरेचर एंड लेंग्वेज, पृष्ठ १७, पद-संकेत ४; रायस डेविड्स और ओल्डनबर्ग के ग्रन्थों के संकेत भी यहीं दोनों जगह दिये हुए है। Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३३ ) उनके मत का पर्याप्त निराकरण कर दिया गया है, अतः उनके अ - महत्वपूर्ण कल्पना - विलास को, जिसे उन्होंने दीघनिकाय की प्रामाणिकता के विरुद्ध रक्खा था, यहाँ उद्धृत और फिर से निराकृत कर, उसे अनावश्यक महत्व देने की आवश्यकता प्रतीत नहीं होती । दीघ - निकाय के सुत्त कलात्मक एकात्मकता के अनुसार विन्यस्त होने पर भी बुद्ध वचनों के रूप में प्रामाणिक हैं । यदि उन सब का आधारभूत विचार एक ही है, तो इससे यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता कि वे किसी एक ही लेखक की कृतियाँ हैं । बुद्ध के उपदेशों के रूप में भी उनमें एकात्मता तो होनी ही चाहिये । पालि दीघ - निकाय के १३४ सुत्तों में से २७ चीनी दीर्घागम में मिलते हैं। शेष सात में से ३ मध्यमागम में मिलते हैं। और ४ का पता नहीं लगा है । विषय का विन्यास यहाँ भिन्न होते हुए भी विषयवस्तु तो प्रायः समान ही है । दूसरी शताब्दी से लेकर चौथी - पाँचवीं शताब्दी तक इन सब सुत्तों का अनुवाद चीनी भाषा में हो गया था । चूँकि इसके पूर्व प्रथम शताब्दी ईसवी पूर्व के 'मिलिन्दपन्ह' में भी इनमें से अनेक का नामतः उल्लेख है, अत: इनकी प्रामाणिकता के विषय में सन्देह नहीं किया जा सकता। बाहरी आकार की दृष्टि से दीघ - निकाय के सब सुत्तों में समानता नहीं है। सीलक्खन्ध के सब सुत्त प्रायः गद्य में हैं, केवल कुछ पंक्तियाँ मात्र गाथाओं के रूप में हैं । महावग्ग और पाथेय या पाटिक वग्ग में अधिकांश सुत्त गद्य-पद्य - मिश्रित है । पाथेय या पाटिक वग्ग के महासमय- सुत्त और आटानाटिय सुत्त तो बिलकुल पद्य में ही हैं | सील-क्खन्ध के सूत्रों की यह प्रधान विशेषता है कि वे शील, समाधि और प्रज्ञा सम्बन्धी बुद्ध उपदेशों की विवरण देते हैं और उनमें बुद्धकालीन भारतीय समाज का भी पर्याप्त शील-निरूपण मिलता है, उसके सामाजिक और धार्मिक जीवन का पूराचित्र, आदि । यही उसके 'सीलक्खन्ध' नामकरण का भी कारण है | 'महावग्ग' के प्रत्येक सुत्त के नाम का आरम्भ 'महा' शब्द से होता है । विटरनित्ज़ ने इस 'महा' शब्द में क्षेपकों का रहस्य निहित माना है । उनका कहना है कि पहले इस वर्ग के उपदेश संक्षिप्त आकार के रहे होंगे और बाद में उन्हें बढाकर 'महा' कर दिया गया है । चूंकि स्वयं भगवान् बुद्ध भी एक ही विषय पर १. पूरे विवरण के लिये देखिये दीघनिकाय ( महापंडित राहुल सांकृत्यायन का हिन्दी अनुवाद) का प्राक्कथन २. विशेषतः 'महापरिनिब्बाण - सुत्त' में इस प्रकार के उत्तरकालीन परिवर्द्धनों Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३४ ) अवसर और पात्रों के अनुसार संक्षिप्त और दीर्घ उपदेश दे सकते थे और संकलन के समय भिन्न भिन्न व्यक्तियों और स्रोतों से आने के कारण उन्हें वैसा ही संकलित कर दिया गया है, अतः एकही विषय-सम्बन्धी दो अल्प और बड़े आकार वाले सत्तों को देखकर बड़े आकार वाले सुत्तों को बाद के परिवर्द्धन ही नहीं माना जा सकता। उपर्युक्त तथ्य के प्रकाश में हम 'महावग्ग' के सब सुत्तों को मौलिक बुद्ध-वचन ही मानने के पक्षपाती हैं। 'पाथेय' या 'पाटिक वग्ग' का यह नामकरण इसलिये है कि इस वर्ग के सुत्तों के आदि में 'पाटिक-सुत्त' नामक सुत्त है। दीघ-निकाय' का अधिक साहित्यिक और ऐतिहासिक मल्यांकन करने के लिये पहले हम उसके सुत्तों की विषय-वस्तु का अलग-अलग संक्षिप्त निदर्शन करेंगे । खन्ध-वग्ग ब्रह्मजाल-सुत्त (दीघ ११) ब्रह्मजाल-सुत्त दीघ-निकाय का प्रथम और अत्यन्त महत्वपूर्ण सूत्र है। प्रारबुद्धकालीन भारतीय धार्मिक और सामाजिक परिस्थिति का एक अच्छा चित्र यहाँ मिलता है। विशेषतः उस धार्मिक विचिकित्सा का, जो उस समय भारतीय वायुमंडल में सर्वत्र फैली हुई थी, और उसके सम्पूर्ण अतिवादों का , एक अच्छा विश्लेषण यहाँ मिलता है। ब्रह्म जाल-सुत्त का अर्थ है श्रेष्ठ (ब्रह्म) जाल रूपी बुद्ध-उपदेश । बुद्ध-उपदेश को यहाँश्रेष्ठ जाल कहा गया है । किसे पकड़ने के लिये? फिसलकर निकल जाने वाली मछलियों रूपी मिथ्या दष्टियों को पकड़ने के लिये। इस सत्त के उपदेश के अन्तमें आनन्द ने, जो पीछे से भगवान् को पंखा झल रहे थे, पूछा “भन्ते ! इस उपदेश को क्या कह कर पुकारा जाय?" "आनन्द ! तुम इस धर्म-उपदेश को 'अर्थ-जाल' भी कह सकते हो, धर्म-जाल भी, ब्रह्म-जाल भी, का विवेचन डा० विटरनित्ज ने किया है। देखिये उनका हिस्ट्री ऑव इन्डियन लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ ३८-४२ १. दोघ-निकाय के १-२३ सुत्त दो भागों में देव-नागरी लिपि में बम्बई विश्व विद्यालय द्वारा प्रकाशित कर दिये गये हैं। प्रथम भाग, सुत्त १-१३; द्वितीय भाग सुत्त १४.२३; दोघ-निकाय का महापंडित राहुल सांकृत्यायन और भिक्ष जगदीश काश्यप कृत हिन्दी अनुवाद (महाबोधि सभा, सारनाथ, १९३७) तो प्रसिद्ध ही है। Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३५ ) दृष्टि-जाल भी, लोकोत्तर संग्राम-विजय भी।"१ मिथ्या-दृष्टियों को पकड़ने के लिये भगवान् ने ब्रह्मजाल-सुत्त का उपदेश दिया। जिन मिथ्या दृष्टियों का विवरण ब्रह्म जाल सुत्त में दिया गया है, उनकी संख्या ६२ है। इनमें १८ मिथ्या धारणाएँ जीवन और जगत के आदि सम्बन्धी है और ४४ अन्त सम्बन्धी। इनमें पहली १८ मिथ्या धारणाओं को पाँच भागों में बाँटा गया है यथा (१) शाश्वतवाद (२) नित्यता-अनित्यतावाद (३) सान्त-अनन्तवाद (४) अमराविक्षेपवाद और (५) अकारणवाद । इनमें से प्रथम चार की सिद्धि में प्रत्येक में चार चार हेतु दिये गये हैं और अन्तिम सिद्धान्त (अकारणवाद) की सिद्धि में दो। इस प्रकार १८ हेतुओं से नानाश्रमण, ब्राह्मण और परिव्राजक प्राग्बुद्धकालीन भारत में आत्मा और लोक के आदि सम्बन्धी, (पूर्वान्त कल्पित) उपर्युक्त पाँच मतों का प्रख्यापन किया करते थे। इन्हीं को यहाँ मिथ्या दष्टियाँ कहा गया है। आत्मा और लोक के अन्त सम्बन्धी (अपरान्तकल्पिक) ४४ मिथ्या-धारणाएँ थीं। कुछ श्रमण, ब्राह्मण और परिव्राजक १६ हेतुओं के आधार पर मानते थे कि 'मरने के बाद भी आत्मा संज्ञी (होश वाला) रहता है, कुछ ८ हेतुओं के आधार पर मानते थे कि 'मरने के बाद आत्मा असंज्ञी हो जाता है' (अर्थात् वह होश वाला नहीं रहता) कुछ ७ हेतुओं के आधार पर मानते थे कि 'आत्मा का पूर्ण उच्छेद ही हो जाता है। ये उच्छेदवादी थे। कुछ ५ हेतुओं के आधार पर मानते थे कि इसी जन्म में निर्वाण या मोक्ष है। इस प्रकार इन परस्पर विरोधी ४४ हेतुओं से आत्मा और लोक के अन्त सम्बन्धी सिद्धान्त कल्पित किये जाते थे। यही ४४ अपरान्तकल्पिक मिथ्या दष्टियाँ थी। इस प्रकार कुल मिलकर ६२ परस्पर-विरोधिनी, मानसिक आयासों से पूर्ण, मिथ्यादृष्टियाँ भारतीय वायुमंडल में भगवान् बद्ध के उदय से पूर्व प्रचलित थीं, जिनका निदर्शन इस सुत्त में किया गया है। ब्रह्मजाल सुत्त की मुख्य विषय-वस्तु उपर्युक्त ६२ मिथ्यादृष्टियों का विवरण ही है, किन्तु उसमें प्रमंगवश और भी बहुत सी बातें आ गई हैं। प्रारम्भ ही में हम १. “को नामो अयं भन्ते धम्म परियायायोति" "तस्माति ह त्वं आनन्द इमं धम्म परियायं अत्थजालं ति पि नं धारेहि, धम्मजालं ति पि नं धारेहि, ब्रह्मजालं ति पि नं धारेहि, दिठि जालं ति पि नं धारेहि, अनुत्तरो संगाम-विजयो ति पिनं धारेहि ।" Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३६ ) भगवान् को भिक्षुओं के सहित राजगृह और नालन्दा के बीच के रास्ते पर जाते हुए देखते हैं। वे भिक्षुओं को निन्दा और स्तुति में समान रहने का उपदेश करते हैं। उसके बाद मूल (आरम्भिक) मज्झिम (मध्यम) और महा के रूप में शील की तीन भूमियों का विवरण है। यहीं प्रमंगवश उन अनेक प्रकार के उद्योगों, शिल्पों, व्यवसायों तथा मनुष्यों के रहन-सहन सम्बन्धी ढंगों का विवरण मिलता है जिनसे विरत रहने का भिक्षुओं को उपदेश दिया गया है । उस समय के समाज के जीवन की दशा का इससे बड़ा अच्छा पता लगता है । उस समय के मनोरंजन के साधनों को लीजिये तो नृत्य, गीत, बाजे, नाटक, लीला, ताली, ताल देना, घड़े पर तबला बजाना, गीत-मंडली, लोहे की गोली का खेल, बाँस का खेल, हस्ति-युद्ध, अश्व-युद्ध, महिष-युद्ध, वृषभ-युद्ध, बकरों का युद्ध . . . . . .लाठी का खेल, मुष्टियुद्ध, कुश्ती, मारपीट का खेल, सैन्य-प्रदर्शन आदि के विवरण मिलते हैं। मनुष्यों के आमोद-प्रमोद के साधनों को देखें तो दीर्घ आसन, पलंग, बड़े बड़े रोयें वाले आसन चित्रित आसन . . . . . . फूलदार बिछावन . . . . . . सिंह, व्याध्र आदि के चित्र वाले आसन, झालरदार आसन आदि के विवरण, दर्पण, अंजन, माला, लेप, मुख-चूर्ण (पाउडर), मुख-लेपन , हाथ के आभूषण, छड़ी, तलवार, छाता, सुन्दर जूता, टोपी, मणि, चँवर आदि के विवरण पाते हैं। अनेक प्रकार के कथाएँ जैसे राजकथा, चोरकथा, ग्राम, निगम, नगर, जनपद, स्त्री, पनघट और भूत-प्रेत आदि की कथाएँ, अनेक प्रकार के फलित ज्योतिष के विधान, अनेक प्रकार के मिथ्य! सामाजिक विश्वास और माध्यम-जीवन-निर्वाह के ढंम भी विवृत किये गये हैं। यज्ञयागादि की परम्परा कितनी विकृत हो चली थी, इसका एक संकेत अनेक प्रकार के होमों की इस सूची में ही देखिये 'अग्नि-हवन, दर्वी होम, तुष-होम, कण-होम तंडल होम, घृत-होम, तैल-होम, मुख में घी लेकर कुल्ले से होम, रुधिर होम' आदि । अनेक प्रकार की विद्याओं यथा वास्तु विद्या, क्षेत्र विद्या, मणि-लक्षण, वस्त्र-लक्षण आदि के विवरण यहाँ दिये गये है। सारांश यह कि प्राग्बुद्ध-कालीन भारत का सारा सामाजिक और धार्मिक जीवन यहाँ चित्रित हो उठा है। दार्शनिक दृष्टि से इस सत्त का यह महत्व है कि वह भगवान बुद्ध के शासन के उस स्वरूप की ओर इंगित करता है जो मध्यमा-प्रतिपदा पर आधारित है और जिसमें जीवन के सत्य का साक्षात्कार (सच्छिकिरिया) ही मुख्य है, शाश्वतवाद या अशाश्वतवाद आदि के पचड़ों में पड़ना नहीं। अतः प्राग्बुद्धकालीन भारतीय विचार की विचिकित्साओं और उनकी पृष्ठभूमि में बुद्ध-शामन का सन्देश तथा प्रसंगवग Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३७ ) तत्कालीन भारतीय समाज के उद्योग-व्यवसायों आदि के चित्रण की दृष्टि से यह सुत्त अत्यन्त महत्वपूर्ण है। सामञफल-सुत्त (दीघ. १२) सामञफल-सुत्त (श्रामण्य फल सम्बन्धी बुद्ध-उपदेश) में हम पितृ-वध के पश्चात्ताप से संतप्त मगध-राज अजातशत्रु को चित्त-शान्ति प्राप्त करने के हेतु भगवान् के पास आता देखते हैं। पहले वह अन्य आचार्यों के पास भी जा चुका है, किन्तु शान्ति नही मिली। इसी कारण यहाँ प्रसंगवश बुद्धकालीन उन छह प्रसिद्ध आचार्यों के मतों का भी निदर्शन कर दिया गया है, जिनका जानना बौद्ध धर्म के प्रत्येक विद्यार्थी के लिये अत्यन्त आवश्यक है। इन छह आचार्यों के नाम थे पूर्ण काश्यप, मक्खलि गोसाल, अजित केस कम्बलि, प्रऋध कात्यायन, निगण्ठ ज्ञातपुत्र और संजय बेलट्टि पुत्त । मक्खलि गोसाल का मत अक्रियावाद था। उनके मत में पाप-पुण्य कुछ नहीं था। 'छुरे के समान तेज चक्र से कोई इस पृथिवी के प्राणियों के मांस का एक खलियान, मांस का एक पुंज बना दे, तो भी इसके कारण उसे पाप नहीं लगेगा' । दान, दम, संयम, तप में कोई पूण्य नहीं है, हिमा, चोरी आदि में कोई पाप नहीं है, यही इनका मत था। मक्खलि गोसाल पूरे दैववादी थे। वे कहते थे। 'सत्वों के क्लेश का कोई हेतु नहीं है। बिना हेतु के ही सत्व क्लेश पाते है। सत्वों की शद्धि का भी कोई हेतु नही है। बिना हेतु के ही सत्व शुद्ध होते हैं। पुरुष कुछ नहीं कर सकता है । बल नहीं है, वीर्य नहीं है, पुरुष का कोई पराक्रम नहीं है। सभी प्राणी अपने वश में नहीं है । निर्बल, निर्वीर्य, भाग्य और संयोग के फेर से इधर-उधर उत्पन्न हो दुःख भोगते है।" अजित केश कम्बलि का मत था जड़वाद या उच्छेदवाद । वह कहता था 'न दान है, न यज्ञ है, न होम है, न पुण्य या पाप या अच्छा बुरा फल होता है, न यह लोक है, न परलोक है, न माता है, न पिता है” आदि, आदि । प्रक्रुध कात्यायन का मत था अकृततावाद । वह पृथ्वी, जल, तेज, वायु, सुख, दुःख और जीवन, इन सब को अकृत, अनिर्मित, कूटस्थ, और अचल मानता था। 'यहाँ न हन्ता है, न घातयिता, न सुनने वाला, न सुनाने वाला, न जानने वाला, न जतलाने वाला"। निगण्ठनाटपुत्र (निर्ग्रन्थ ज्ञातृपुत्र, भगवान् महावीर, जैन-तीर्थङ्कर) के मत में चार प्रकार के मंयमों का विवरण दिया गया है “निर्ग्रन्थ ज्ञातपुत्र किस प्रकार के संयमों से संयत रहते है? (१)निर्ग्रन्थ ज्ञातपुत्र जल का वारण करते है (जिममें जल के Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३८ ) जीवन मारे जायँ) (२) सभी पापों का वारण करते हैं (३) सभी पापों के वारण करने से पाप-रहित होते है ( ४ ) सभी पापों के वारण करने में लगे रहते हैं।” संजय वेलट्ठिपुत्र का मत अनिश्चिततावाद था। उनका कहना था “मैं यह भी नहीं कहता, मैं वह भी नहीं कहता, मैं दूसरी तरह से भी नहीं कहता । मैं यह भी नहीं कहता 'यह है'। मैं यह भी नहीं कहता 'यह नहीं है, मैं ऐसा भी नहीं कहता, मैं वैसा भी नहीं कहता " । बुद्धकालीन धार्मिक वातावरण को जानने के लिये इन छह आचार्यो के मतों को जानना अत्यन्त आवश्यक हैं । भगवान् ने अज्ञातशत्रु को श्रमणना ( श्रामण्य ) या प्रव्रज्या का फल नैतिक मूल्यों के द्वारा बतलाया है। संसार के मूल्यों में उसे नहीं तौला जा सकता। पहले यहाँ भी गील का प्रारम्भिक, मध्यम और महा इन तीन भूमियों में विवरण है, फिर इन्द्रिय-संयम, स्मृति - सम्प्रजन्य, सन्तोष आदि के अभ्यास का विवरण है । अन्त में पश्चात्ताप से अभिभूत राजा कहता है “भन्ते ! मेने धार्मिक, धर्मराज पिता की हत्या की ! भन्ते ! भविष्य में मॅभल कर रहने के लिये मुझ अपराधी पापी को आप क्षमा करें" । जिन दृष्टियों से ब्रह्मजाल सुत्त का महत्व है, उन्हीं 'दृष्टियों' मे यह सुत्त भी महत्वपूर्ण है । वास्तव में कुछ हद तक यह उसका पुरक ही है । अम्बट्ठ-सुत्त ( दीघ १ । ३ ) पौष्कराति नामक ब्राह्मण के अम्बष्ट ( अम्बठ ) नामक शिष्य के साथ भगवान बुद्ध का संवाद है । अम्बष्ट अपने उच्च वर्ण के घमंड के कारण भगवान् के पास जाकर अशिष्टतापूर्वक बातें करता है। शाक्यों पर अनुचित आक्षेप भी करता है । जब भगवान् उसके अशिष्ट व्यवहार का उसे स्मरण दिलाते हैं तो वह कहता है ' है गोतम ! जो मडक, श्रमण, इभ्य ( नीच) काले, ब्रह्मा के पैर की सन्तान, है उनके साथ ऐसे ही कथा संलाप किया जाता है, जैसा मेरा आप गोतम के साथ ।" भगवान् उसे मिथ्या जातिवाद के अभिमान को छोड़ देने को कहते है | "अम्बष्ट ' जहाँ आवाह-विवाह होता है वहीं यह कहा जाता है 'तू मेरे योग्य है' 'तू मेरे योग्य नही है। वहीं यह जातिवाद, गोत्रवाद, मानवाद भी चलता है 'तू मेरे योग्य है' 'तू मेरे योग्य नहीं है । अम्बष्ट ! जो कोई जातिवाद में फॅसे हैं, गोत्रवाद में फंसे हैं, अभिमानवाद में फँसे हैं, आवाह-विवाह में फँसे हैं, वे अनुपम विद्या और आचरण की सम्पदा से दूर है । अम्बष्ट ! जातिवाद के बंधन, गोत्रवाद - बन्धन, मानवाद - बन्धन और आवाह-विवाह बन्धन । N Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छोड़कर हो अनुपम विद्या और आचरण की सम्पदा का साक्षात्कार किया जाता है।" इस प्रकार इस सत्त को जातिवाद के विरुद्ध भगवान् का सिंहनाद ही समझना चाहिये। इस मुत्त का एक ऐतिहासिक महत्व यह है कि यहाँ कृष्ण को एक प्राचीन ऋषि के रूप में स्मरण किया गया है “वह कृष्ण महान ऋषि थे। उन्होंने दक्षिण देश में जाकर ब्रह्ममन्त्र पढ़ कर, राजा इक्ष्वाकु के पास जा उसकी क्षुद्ररूपी कन्या को माँगा। तब राजा इक्ष्वाकु ने 'अरे यह मेरी दासी का पुत्र होकर मेरी कन्या को माँगता है, कुपित हो असन्तुष्ट हो, बाण चढ़ाया।". . . . . . इक्ष्वाकु ने ऋषि को कन्या प्रदान की। . . . . . . वह कृष्ण महान ऋषि थे।" शाक्यों की उत्पत्ति के विषय में भी यहाँ वर्णन किया गया है। सोणदण्ड-सुत्त. (दीघ १४) सोणदण्ड (स्वर्णदण्ड) नामक ब्राह्मण के साथ भगवान् का संवाद। विषय वही पूर्ववत् जातिवाद का खंडन । ब्राह्मण बनाने वाले धर्मो अर्थात् सदाचार और ज्ञान का आचरण करने वाला व्यक्ति ही सच्चा ब्राह्मण है, न कि केवल ब्राह्मणकूल में उत्पन्न । इस सुत्त में अङ्ग की राजधानी चम्पा (वर्तमान चम्पा नगर और चम्पापुर, भागलपुर के समीप) का उल्लेख है। राजा बिम्बसार द्वारा प्रदत्त चम्पा नगर की आय का उपभोग सोणदण्ड ब्राह्मण करता था । कूटदन्त-सुत्त (दीघ. ११५) __ कूटदन्त नामक ब्राह्मण के साथ भगवान् का संवाद । बड़ी सामग्रियो वाले एवं हिंसामय यज्ञ के स्थान पर यहाँ ज्ञान-यज्ञ का आदर्श रक्खा गया है। कटदन्त ब्राह्मण एक महायज्ञ करना चाहता था। उसने भगवान से जाकर पूछा, “भन्ते ! मै महायज्ञ करना चाहता हूँ। मैंने सुना है आप सोलह परिष्कार सहित त्रिविध यज्ञ-सम्पदा को जानते हैं। कृपाकर आप मुझे उसे बतावें ।" भगवान् ने पूर्वकाल में महाविजित के आख्यान को कह कर उसे यह तत्त्व बताया है । वास्तव में महाविजित का यह आख्यान एक प्रकार का जातक-कथानक ही है। महाविजित नामक राजा ने भी प्राचीन युग में एक यज्ञ किया था। "ब्राह्मण ! उस यज्ञ में गाएँ नहीं मारी गई, बकरे-भेड़ें नहीं मारी गईं, मुर्गे-सूअर नहीं मारे गये। न यज-स्तम्भ के लिये वृक्ष काटे गये, न पर-हिंसा के लिये कुश काटे गये। जो भी उसके दास और नौकर थे, उन्होंने भी दण्ड के भय से रहित होकर, जिन्होंने चाहा किया, जिन्होंने Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४० ) नहीं चाहा, नहीं किया । अश्रु मुख, रोते हुए उन्हें सेवा नहीं करनी पड़ी। जिसे चाहा उसे किया, जिसे नहीं चाहा उसे नहीं किया। घी, तेल, मक्खन, दही, मधु और खांड से ही वह यज्ञ समाप्ति को प्राप्त हुआ" । इस प्रकार द्रव्य यज्ञ में भी भगवान् सेवकों से बेगार न लेने के विशेषतः पक्षपाती हैं । किन्तु जिस यज्ञ का उन्होंने विधान किया है वह तो इससे भी बहुत बढ़कर है । वह यज्ञ है दान-यज्ञ, त्रिशरण-यज्ञ, शिक्षापद-यज्ञ, शील-यज्ञ, समाधि यज्ञ, प्रज्ञा-यज्ञ । तथागत इसी यज्ञ के पक्षपाती हैं । महालि सुत ( दीघ. ११६) सुनक्षत्र नामक लिच्छवि-पुत्र भगवान् के शिष्यत्व को छोड़कर चला गया है। उसे आशा थी कि भगवान् के पास रहते में दिव्य शब्द सुनंगा, योग की विभूतियों को प्राप्त करूँगा, आदि । जब ऐसा न हुआ तो उसने उन्हें छोड़ दिया । इसी के वारे में प्रश्न करने के लिये महालि नामक एक अन्य लिच्छवि सरदार भगवान् के पास आया है “भन्ते ! क्या सुनक्षत्र लिच्छवि-पुत्र ने विद्यमान ही दिव्य-शब्द नहीं सुने या अविद्यमान ।" भगवान् उसे समझाते हैं कि ब्रह्मचर्य का उद्देश्य दिव्य शब्द सुनना या योगकी विभूतियोंको प्राप्त करना नहीं हैं, बल्कि उसका एक मात्र उद्देश्य तो सदाचार के जीवन के अभ्यास के द्वारा सत्य का साक्षात्कार करना है । निर्वाण के साक्षात्कार के लिये ही ब्रह्मचर्य का ग्रहण किया जाता है और उसी के द्वारा दुःख का अन्त होता है । "यही है महालि ! अधिक उत्तम धर्म जिसके साक्षात्कार करने के लिये भिक्षु मेरे पास आकर ब्रह्मचर्य पालन करते हैं ।" आर्य अष्टाङ्गिक मार्ग के अभ्यास एवं सदाचार, समाधि और प्रज्ञा के जीवन से ही निर्वाण का साक्षात्कार किया जा सकता है, यह भी अन्त में अन्य सुनों की तरह उपदिष्ट किया गया है । जालिय- सुत्त ( दीघ. ११७ ) जालिय नामक परिव्राजक मे भगवान् का संवाद । यह परिव्राजक भगवान् के पास आकर उनसे पूछता है "आवुस ' । गौतम ! जीव और शरीर अलगअलग वस्तु हैं या एक ही ?" भगवान् उसे समझाते हैं कि जीव और शरीर का भेद-अभेद कथन ही व्यर्थ है । जीवन का तत्त्व साक्षात्कार में है । अतः शील, समाधि और प्रज्ञा का निरन्तर अभ्यास करना चाहिये । १. जैसे कि मानो गोतम उससे छोटे हों ! संभवतः परिव्राजक की आयु भगवान् से अधिक थी और इस सुत्त का सम्बन्ध भगवान् की तरुण अवस्था से है । Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४१ ) कस्सप सीहनाद-सुत्त ( दीघ. १८) काश्यप (कस्सप) नामक अचेल (नन्न) साधु के साथ भगवान् का संवाद । अचेल काश्यप ने कहीं से सुन लिया है कि भगवान् बुद्ध सब प्रकार की तपस्याओं की निन्दा करते है । वह अपनी शंका लेकर भगवान् के पास आता है। भगवान् उसे कहते है कि सब प्रकार की तपस्याओं का निन्दा करने वाला उन्हें कहना तो उनकी असत्य से निन्दा करना है। "काश्यप ! मैं सव तपश्चरणों की निन्दा कैसे करूँगा?" सच्ची धर्मचर्या में भगवान् का अन्य साधु-सम्प्रदायों से कोई वैमत्य नहीं है। किन्तु सभी आचार-विचार छोड़ देना या अन्य सैकड़ों प्रकार के कायिक क्लेश देना जिनका विस्तृत विवरण इस सुत्त में है और जो उस समय की भारतीय साधना का अच्छा परिचय देते हैं, उनसे भगवान् की सहमति नहीं है। "काश्यप। जो आचार-विचार को छोड़ देता है, वह शील-सम्पत्ति, समाधि-सम्पत्ति और प्रज्ञा-सम्पत्ति की भावना नहीं कर सकता और न उनका साक्षात्कार ही कर पाता है । अतः वह श्रामण्य और ब्राह्मण्य से बिलकुल दूर है। काश्यप ! जब भिक्षु वैर और द्रोह से रहित होकर मैत्री-भावना करता है और चित्त-मलों के क्षय होने से निर्मल चित्त की मुक्ति और प्रज्ञा की मुक्ति को इमी जन्म में स्वयं जानकर, स्वयं साक्षात्कार कर विहरता है, तो वही यथार्थत: श्रमण कहलाता है और वही ब्राह्मण भी"। वास्तव में उसी की तपस्या भी सच्ची है । गील, समाधि और प्रज्ञा का तथा अतिवाद पर आश्रित कायक्लेशमयी तपस्याओं को छोड़कर मध्यम-मार्ग रूपी आर्य अष्टाङ्गिक मार्ग के अभ्यास का भी उपदेश यहाँ दिया गया है। पोट्टपाद-सुत्त (दीघ . २९) " पोट्टपाद नामक परिव्राजक से भगवान् का संवाद। आत्मा और लोक के आदि और अन्त सम्बन्धी प्रश्नों को उठाना ब्रह्मचर्य के लिये सहायक नहीं, यही यहाँ पोट्ठपाद परिव्राजक को भगवान् ने बताया है और शील, समाधि और प्रज्ञा की साधना करने का उपदेश दिया है। क्या लोक शाश्वत है या अशाश्वत, सान्त है या अनन्त, आदि प्रश्नों को भगवान् ने क्यों अव्याकृत अर्थात् अनिर्वचनीय या अकथनीय कह कर छोड़ दिया है, इसका भी समाधान करते हुए भगवान् ने कहा है “पोट्टपाद ! न ये अर्थ-युक्त, न धर्म-युक्त, न ब्रह्मचर्य के उपयुक्त, न निर्वेद के लिये, न विगग के लिये, न निरोध के लिये, न शान्ति के लिये, न ज्ञान Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४२ ) के लिये, न संबोधि के लिये, न निर्वाण के लिये हैं, इसलिये मैंने इन्हें अव्याकृत कहा है।" सुभ-सुत्त ( दीघ. १११०) भगवान बुद्ध के परिनिर्वाण के बाद यह प्रवचन उनके उपस्थाक शिष्य आनन्द के द्वारा दिया गया। शुभ नामक माणवक को एक प्रश्न का उत्तर देते हुए आनन्द बताते है कि भगवान् बुद्ध शील, समाधि और प्रज्ञा, इन तीन धर्म-स्कन्धों के बड़े प्रशंसक थे और इन्हें ही वे जनता को सिखाते थे । आनन्द द्वारा इन तीनों धर्मों का बुद्ध-मन्तव्य के अनुसार यहाँ विवरण दिया गया है। केवट्ट सुत्त ( दीघ. ११११) ___केवट्ट नामक गृहपति-पुत्र के साथ भगवान् का संवाद। ऋद्धियों का दिखाना भगवान् ने निषिद्ध कर दिया है। उनके मतानुसार सब से बड़ा चमत्कार तो उपदेश का ही चमत्कार है, आदेशना-प्रातिहार्य या अनुशासनी-प्रातिहार्य (अनुशासन रूपी चमत्कार) ही है। देवताओं और ब्रह्मा को भी यहाँ उस तत्त्व के विषय में जहाँ पृथ्वी, जल, तेज और वायु का निरोध हो जाता है, अनभिज्ञ बताया गया है, जब कि बुद्ध उससे अभिज्ञ हैं। लोहिच्च-सुत्त ( दीघ. १११२) लोहिच्च (लौहित्य) नामक ब्राह्मण के साथ भगवान् का संवाद । झूठे और सच्चे शास्ताओं के विषय में भगवान् ने लोहिच्च को उपदेश दिया है। तेविज्ज-सुत्त ( दीघ. १११३) ___वाशिष्ट और भारद्वाज नामक दो ब्राह्मणों के साथ भगवान् का संवाद । अपरोक्ष-अनुभूति और सत्य-साक्षात्कार के बिना तीनों वेदों का ज्ञान व्यर्थ है, यह इस सुत्त की मूल भावना है। इस सुत्त में ऐतरेय ब्राह्मण, तैत्तिरीय ब्राह्मण, छन्दोग ब्राह्मण, छन्दावा ब्राह्मण, इन ग्रन्थों या परम्पराओं का उल्लेख हुआ है जो मम्भवतः उस नाम की उपनिपदों की ओर संकेत करते हैं। अट्टक, वामक, वामदेव, विश्वामित्र, यमदग्नि, अंगिरा, भरद्वाज, वशिष्ट, कश्यप और भृग, इन दस ऋषियों को यहाँ मन्त्रों का कर्ता या वेदों का रचयिता बताया गया है । तीनों १. ये किन किन मन्त्रों के द्रष्टा या रचयिता हैं, इसके लिये देखिये राहुल सांकृत्यायनः दर्शन-दिग्दर्शन, पृष्ठ ५२७-५२८ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४३ ) वेदों के ज्ञाता ब्राह्मण ब्रह्मा की सलोकता के मार्ग का उपदेश करते हैं, किन्तु ब्रह्मा को अपने अनुभव से, अपने साक्षात्कार से, जानते कोई नहीं। भगवान् बद्ध एक मधुर व्यंग्यमयी उपमा करते है “वाशिष्ट ! त्रैविद्य ब्राह्मण जिसे न जानते हैं, जिसे न देखते है, उसकी सलोकता के लिये मार्ग उपदेश करते हैं। जैसे कि वाशिष्ट पुरुष ऐसा कहे--इस जनपद की जो सुन्दरतम स्त्री (जनपद कल्याणी) है मैं उसको चाहता है, उसकी कामना करता हूँ। उससे यदि लोग पूछे 'हे पुरुष ! जिस जनपद कल्याणी को तू चाहता है. तू क्या जानता है कि वह क्षत्राणी है या ब्राह्मणी है या वैश्य स्त्री हैं या शूद्र स्त्री है ?' ऐसा पूछने पर वह नहीं कहे । तब उससे पूछे हे पुरुष ! जिस जनपद-कल्याणी को तू चाहता है वह किस नाम वाली, किस गोत्र वाली, लम्बी, छोटी या मझोली है ? काली, श्यामा, . . . . . . किस ग्राम या नगर में रहती है ? . . . . . वाशिष्ट ! त्रैविद्य ब्राह्मणों ने ब्रह्मा को अपनी आँखों से नहीं देखा..... .उसकी सलोकता के लिये मार्ग उपदेश करते हैं !" उपास्य और उपासक के गुणों के भेद की ओर भी भगवान् ने संकेत किया है। उपास्य (ब्रह्मा) अ-परिग्रही, उपासक (ब्राह्मण) परिग्रही; उपास्य अवैर-चित्त, उपासक वैरबद्ध, उपास्य वशवर्ती, उपासक अवशवर्ती । “वाशिष्ट ! सपरिग्रह विद्य ब्राह्मण काया छोड़ मरने के बाद परिग्रह-रहित ब्रह्मा के साथ सलोकता को प्राप्त कर सकेंगे, यह सम्भव नहीं।" मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा की भावना के द्वारा साधक तथागत-प्रवेदित मार्ग का साक्षात्कार कर ब्रह्म-विहार में स्थित हो जाय, तो फिर “वह अपरिग्रह भिक्षु काया छोड़ मरने के बाद अपरिग्रह ब्रह्मा की सलोकता को प्राप्त होगा, इसमें सन्देह नहीं।" आचरण की सभ्यता को यहाँ भगवान ने सदा के लिये स्मरणीय शब्दों में रख दिया है। महावग्ग महापदान-सुत्त ( दीघ. २१) भगवान् के पूर्ववर्ती छह बुद्धों, यथा विपस्सी (विपश्यी) सिखी (शिखी) बेस्सभू (विश्वभू) भद्रकल्प, ककुसन्ध (ऋकुच्छन्द) और कोणा-गमन की जीवनियों का वर्णन । गोतम बुद्ध की जीवनी के आधार पर ही ये गढ़ लिये गये हैं, जिनमें ऐतिहासिक तत्त्व कुछ नही। Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४४ ) महानिदान-सुत्त ( दीघ. २।२) __प्रतीत्यसमुत्पाद का इस सुत्त में विस्तृततम विवरण है। सुत्त के प्रारम्भ में आनन्द यह कहते दिखाई पड़ते हैं “आश्चर्य है भन्ते ! अद्भुत है भन्ते ! कितना गम्भीर है और गम्भीर सा दीखता भी है यह प्रतीत्यसमुत्पाद, किन्तु मुझे यह साफ साफ दिखाई पड़ता है"। भगवान् उन्हें.समझाते हैं “ऐसा मत कहो आनन्द ! यह प्रतीत्य समुत्पाद गम्भीर है और गम्भीर सा दिखाई भी देता है । आनन्द ! इस धर्म के जानने से ही यह प्रजा उलझे सूत सी, गाँठे पड़ी रस्सी सी, मुंज वल्वज सी, अपाय, दुर्गति और पतन को प्राप्त होती है और संसार से पार नहीं हो सकती।" इसके बाद प्रतीत्यसमुत्पाद का विस्तृत विवरण है, उसके विभिन्न १२ अंगों की व्याख्या के साथ। महापरिनिब्बाण-सुत्त ( दीघ. २३) ___महापरिनिब्बाण-सुत्त दीघ-निकाय का सम्भवत: सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण सुत्त है। यहाँ हम भगवान् के अन्तिम जीवन का बड़ा मार्मिक और सच्चा चित्र पाते हैं। इस सुत्त में प्रधानतः इतनी घटनाओं की सूचना हम पाते हैं (१) वज्जियों के विरुद्ध अजातशत्रु के अभियान का इरादा (२) बुद्ध की अन्तिम यात्रा (३) अम्बपाली गणिका का भोजन (४) भगवान् को कड़ी वीमारी (५) चुन्द का दिया अन्तिम भोजन (६) जीवन का अन्तिम समय (७) स्त्रियों के प्रति भिक्षुओं के कर्तव्य (८) चक्रवर्ती की दाह-क्रिया (९) सुभद्र की प्रत्रज्या (१०) अन्तिम उपदेश (११) भगवान् का परिनिर्वाण (१२) दाह-क्रिया (१३) स्तूप-निर्माण । इन सब घटनाओं का संक्षिप्त निदर्शन भी यहाँ नहीं किया जा सकता। केवल एक-दो प्रसंग लेख बद्ध किये जा सकते है। परिनिर्वाण से पूर्व आनन्द ने भगवान् से पूछा “भन्ते ! तथागत के शरीर को हम कैसे करेंगे?" भगवान् ने उत्तर दिया “आनन्द ! तथागत की शरीर-पूजा से तुम बेपर्वाह रहो। तुम तो आनन्द सच्चे पदार्थ के लिये ही प्रयत्न करना, सच्चे पदार्थ के लिये ही उद्योग करना। सच्चे अर्थ के लिये ही अप्रमादी, उद्योगी, आत्मसंयमी हो विहरना।" आनन्द ने पछा "भन्ते ! स्त्रियों के साथ हम कैसा बर्ताव करेंगे?" "अ-दर्शन, आनन्द !" वास्तव में बुद्ध के अन्तिम जीवन से परिचित होने के लिये और उनके सेवक शिष्य आनन्द के साथ उनकी इस समय की चारिकाओं के लिये इस सुत्त का पढ़ना अत्यन्त आवश्यक है। महा-परिनिर्वाण प्राप्त करने से पूर्व भगवान् ने भिक्षओं को Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४५ ) आश्वसित किया “आनन्द ! शायद तुम को ऐसा हो ―― हमारे शास्ता चले गये, अब हमारे शास्ता नहीं हैं । आनन्द ! ऐसा मत समझना । मैंने जो धर्म और विनय तुम्हें उपदेश किये हैं, वे ही मेरे बाद तुम्हारे शास्ता होंगे ।" अनुकम्पक शास्ता ने अन्तिम बार भिक्षुओं को सम्बोधित किया " हन्त ! भिक्षुओ, अब तुम्हें कहता हूँ — सभी संस्कार (कृत वस्तुएँ) व्ययधर्मा ( नाशवान्) हैं, अप्रमाद के साथ ( जीवन के लक्ष्य को ) सम्पादन करो" - - यही तथागत का अन्तिम वचन था । राजगृह से लेकर कुसिनारा तक की बुद्ध यात्रा का वर्णन, जहाँ-जहाँ भगवान् रुके उनके पूर्ण विवरण के साथ, हमें यहाँ मिलता है । इस प्रकार अम्बलडिका, नालन्दा, पाटलिग्राम, कोटिग्राम, नादिका, वैशाली, भंडगाम, हत्थिगाम, और पावा आदि स्थानों का वर्णन आया है । वैशाली गणतंत्र के सात गुणों की प्रशंसा भी भगवान् ने इस सुत्त में की है । महासुदरसन - सुत्त ( दीघ. २/४ ) भगवान् बुद्ध अपने एक पूर्व जन्म में महासुदर्शन नामक चक्रवर्ती राजा थे । उसी समय की उनकी जीवनी का विस्तृत विवरण है । 'महासुदस्सन जातक' के कथानक से यहाँ समानता और असमानता दोनों ही हैं । जनवसभ - सुत्त ( दीघ. २२५ ) बिम्बिसार मरने के बाद जनवसभ नामक यक्ष के रूप में स्वर्ग लोक में उत्पन्न हुआ । उसने इस सुत्त में अपने गुरु से बुद्ध-धर्म की प्रशंसा की है । देवेन्द्र शक्र और सनत्कुमार ब्रह्मा भी इस सुत्त में बुद्ध धर्म की प्रशंसा करते दिखाये गये हैं । इस सुत्त में काशी, कोल, वज्जि, मल्ल, चेति (चेदि) कुरु, पंचाल, मच्छ ( मत्स्य) और शूरसेन जनपदों का उल्लेख है । महागोविन्दसुत्त ( दीघ. २१६ ) भगवान् बुद्ध अपने एक पूर्व जन्म में महागोविन्द नामक ब्राह्मण थे। उसी का यहाँ प्रधानतः वर्णन है । अतः इस अंश को एक जातक ही समझना चाहिये । वैसे इस सुत्त में भी पूर्व सुत्त ( जनवसभ सुत्त) की तरह देवराज इन्द्र और सनत्कुमार ब्रह्मा द्वारा बुद्ध धर्म की प्रशंसा करवाई गई है । बुद्धकालीन भारत के राजनैतिक भूगोल का वर्णन इस सुत्त की एक प्रधान विशेषता है । यहाँ काशी - कोशल और अंग-मगध आदि राज्यों का विवरण दिया गया है । अश्मक राज्य के पोतन नामक नगर का भी निर्देश है । १० Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४६ ) महासमय - सुत्त ( दीघ. २७ ) इस सुत्त में बुद्ध के दर्शनार्थ देवताओं का आगमन दिखाया गया है। सक्कपन्ह - सुत्त ( दीघ. २/९ ) शक्र (इन्द्र) द्वारा छह प्रश्नों का पूछा जाना। उसके द्वारा बुद्ध धर्म की प्रशंसा । महासतिपट्ठान सुत्त ( दीघ. २/९ ) इस सुत्त में चार स्मृति - प्रस्थानों यथा कायानुपश्यना, वेदनानुपश्यना, चित्तानुपश्यना और धर्मानुपश्यना का विशद विवरण किया गया है । ये चार स्मृति-प्रस्थान 'सत्वों की विशुद्धि के लिये, शोक के निवारण के लिये, दुःख और दौर्मनस्य का अतिक्रमण करने के लिये, सत्य की प्राप्ति के लिये और निर्वाण की प्राप्ति और साक्षात्कार के लिये एकायन (सर्वोत्तम, अकेले ) मार्ग हैं' ऐसा भगवान् ने यहाँ कहा है । पायासि राजज्ञ-सुत्त ( दीघ. २१० ) पायासि राजन्य के साथ भगवान् बुद्ध के शिष्य कुमार काश्यप के संवाद का वर्णन है । पायासि राजन्य परलोक में विश्वास नहीं करता । वह यह मानता है कि मरने के साथ जीवन उच्छिन्न हो जाता है । उसका तर्क स्पष्ट है । (१) मरे हुओं को किसी ने लौट कर आते नहीं देखा । (२) धर्मात्मा आस्तिकों को भी मरने की इच्छा नहीं होती । (३) जीव के निकल जाने पर मृत शरीर का न तो वजन ही कम होता है और न जीव को कहीं से निकलते जाते देखा जाता । भौतिकवादी पायास का कुमार काश्यप ने समाधान करने का प्रयत्न किया है । पायासि के मतानुसार " यह भी नहीं है, परलोक भी नहीं है । जीव मरने के बाद फिर नहीं पैदा होते और अच्छे बुरे कर्मों का कोई फल भी नहीं होता ।" इस मत के अनुसार ब्रह्मचर्य का अभ्यास ही व्यर्थ है । बुद्ध का मन्तव्य अनात्मवाद होते हुए भी पायास के भौतिकवाद से तो फिर भी ठीक विपरीत है । पार्थिक वग्ग पाथिक-सुत ( दीघ ३ । १ ) सुनक्षत्र लिच्छविपुत्र के बौद्ध धर्म त्याग की बात फिर इस सुत्त में आई है। वह इसलिये रुष्ट होकर भिक्षु संघ को छोड़ कर चला गया था कि भगवान् ने उसे Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४७ ) ऋद्धिबल नहीं दिखाया । “सुनवखत्त ! क्या मैंने तुझसे कभी कहा था-- सुनक्खन्त ! आ मेरे धर्म को स्वीकार कर । मैं तुझे अलौकिक ऋद्धि-बल दिखाऊँगा?" "नहीं भन्ते !" "मूर्ख ! यह तेरा ही अपराध है"। ईश्वर के जगत्कर्तृत्व का भी इस सुत्त में खंडन किया गया है। उदुम्बरिक सीहनाद सुत्त ( दीघ. ३२) उदुम्बरिक नामक परिव्राजक-आराम में भगवान् ने यह सिंहनाद किया, अतः इसका यह नाम है। यह सिंहनाद भगवान् ने न्यग्रोध नामक परिब्राजक के प्रति किया। यहाँ भगवान् ने झूठी और सच्ची तपस्याओं विषयक उपदेश दिया है और बुद्ध-धर्म की साधना से इसी जन्म में शान्ति की प्राप्ति को दिखाया है। चक्कवत्तिसीहनाद सुत्त ( दीघ. ३॥३) स्वावलम्बन, व्रत-पालन एवं चार स्मृति-प्रस्थानों के अभ्यास का उपदेश । भिक्षुओं के कर्तव्यों सम्बन्धी उपदेश भी। अग्गज-सुत्त ( दीघ. ३४) इस सुत्त में वर्ण-व्यवस्था का खंडन किया गया है। जन्म की अपेक्षा यहाँ कर्म को ही प्रधान माना गया है। सम्पसादनिय-सुत्त ( दीघ. ३५) __परम ज्ञान में बुद्ध के समान आज तक कोई नहीं हुआ। बुद्ध अत्यन्त विनम्र और निरहंकार हैं। बुद्ध के उपदेशों की विशेषताओं का विवरण भी। पासदिक-सुत्त ( दीघ. ३६) निर्ग्रन्थ ज्ञातुपुत्र (तीर्थङ्कर भगवान् महावीर) के पावा में कैवल्य-प्राप्ति की इस सुत्त में सूचना है । वुद्ध के उपदिष्ट धर्म, अव्याकृत और व्याकृत बातें, पूर्वान्त और अपरान्त दर्शन, चार स्मृति-प्रस्थान आदि विषय जो पूर्व के सुत्तों में आ चुके हैं, यहाँ फिर विवृत किये गये हैं। साथ ही यहाँ यह भी बताया गया है कि बुद्ध-धर्म चित्त की शुद्धि के लिये है और यही उसका प्रमुख उद्देश्य और उपयोग है। लक्खण-सुत्त ( दीघ. २७) इस सुत्त में ३२ महापुरुष-लक्षणों का विवरण है। साथ ही किस किस कर्मविपाक से किस किस शुभ लक्षण की प्राप्ति होती है, यह भी दिखाया गया है। इस प्रकार नैतिक उद्देश्य स्पष्ट है। Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४८ ) सिगालोवाद-सुत्त (दीघ. ३८) सिगाल (शृगाल) नामक गृहपति-पुत्र (वैश्य-पुत्र) को भगवान द्वारा पूरे गृहस्थ-धर्म का उपदेश। चार पाप के स्थान, छह सम्पत्ति-नाश के कारण, मित्र और अमित्र की पहचान तथा छह दिशाओं की पूजा करने का बौद्ध विधान, आदि बातों का विवरण है। आचार्य बुद्धघोष ने कहा है कि गृहस्थ सम्बन्धी कर्तव्यों में कोई ऐसा नहीं है जो यहाँ छोड़ दिया गया हो। यह सुत्त बौद्ध धर्म ने गृहस्य धर्म के स्वरूप और महत्व को समझने के लिये अत्यन्त आवश्यक है। अशोक ने इस सुत्त की भावना को अपने अभिलेखों में बार बार ग्रहण किया है। आटानाटिय-सुत्त ( दीघ. ३३९) __ बौद्ध रक्षा-मन्त्र । सात बुद्धों को नमस्कार आदि और इस प्रकार भूत-यक्षों से रक्षा करने का उपाय । यह सुत्त बुद्ध की शिआओं से मेल नहीं खाता। वह बाद का परिवर्द्धन ही जान पड़ता है, जैसा अन्य अनेक विद्वानों का भी विचार है। संगीति परियाय-सुत्त ( दीघ. ३।१०) एक संख्या से लेकर दस संख्या तक के वर्गीकरणों में बुद्ध-मन्तव्यों की सूची। दसुत्तर-सुत्त ( दीघ. ३११) ___ एक से लेकर दस संख्या तक के धर्मों में कौन कौन से उपकारक, भावनीय, परिज्ञेय (त्याज्य) प्रहातव्य, हानभागीय (पतनकारक), विशेष भागीय, दुष्प्रतिवेध्य, उत्पादनीय, अभिज्ञेय, या साक्षात्करणीय हैं, इसका विवरण । आ-मज्झिम-निकाय' मज्झिम-निकाय में मध्यम आकार के सुतों का संग्रह है । इसलिये इसका यह नाम पड़ा है। सुत्त-पिटक में इस निकाय का एक अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है । महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने इस निकाय को 'बुद्ध वचनामृत' कहा है जो इसमें निहित वुद्ध-वचनों की सर्वविध महत्ता को देखते हुए विलकुल ठीक ही है। फैक जैसे सन्देहवादी विद्वान् को भी मझिम-निकाय की मौलिक सुगन्ध के सामने - १. केवल मज्झिम-पण्णासक अर्थात् सुत्त ५१-१०० देवनागरी लिपि में दे भागों में बम्बई विश्व विद्यालय द्वारा प्रकाशित, भाग प्रथम सुत्त ५१-७०; भाग द्वितीय सुत्त ७१-१०० (डा० भागक्त द्वारा संपादित) हिन्दी में महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने इसे अनुवादित किया है। यह अनुमान महाबोधि सभा, सारनाथ, द्वारा सन् १९३३ में प्रकाशित किया गया है। Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४९ ) नत-मस्तक होना पड़ा है और उन्होंने भी यह स्वीकार किया है कि मज्झिम-निकाय में हम निश्चय ही धर्म-स्वामी के कुछ महत्त्वपूर्ण उद्गार पाते हैं। जर्मन विद्वान् डा० ढालके ने मुख्यत: इसो एक ग्रन्थ के आधार पर अपने गम्भीर बौद्ध धर्म सम्बन्धी निवन्धों की रचना की है। मज्झिम-निकाय का वर्गीकरण १५ वर्गों में है, जिनमें कुल मिला कर १५२ सुत्त हैं। हम इस वर्गीकरण की रूपरेखा पहले दिखा चुके है। अतः यहाँ अति संक्षिप्त रूप में केवल मज्झिम-निकाय के सुत्तों के विषय की ओर इंगित मात्र करेंगे। (१) मूल परियाय वग्ग १ मूल परियाय-सुत्त--सारे धर्मों का मूल नामक उपदेश---न में, न मेरा, न मेरा आत्मा--अनात्मवाद-अनासक्तिवाद । २. सबालब-सुत्त--"भिक्षओ ! सारे चित्त-मलों के संवर (रोक) नामक उपदेश को मै तुम्हें देता है, ध्यान से सुनो।" ३. धम्म दायाद-सुत्त--"भिक्षुओ ! तुम मेरे धर्म के वारिस बनो, धनादि भोगों (आमिप) के दायाद नहीं । भिक्षुओ ! तुम पर मेरी अनुकम्पा है।" ४. भय-भैरव-सुत्त--वन-खंड और सनी कुटियों में रहने वाले अशुद्ध कायिक कर्भ संयुक्त भिक्षुओं को कभी-कभी भय हो उठता है। इसे कैसे दूर किया जाय, इसका जानस्सोणि नामक ब्राह्मण को भगवान का उपदेश है, स्वकीय पूर्व अनुभव के आधार पर। "ब्राह्मण ! शायद तेरे मन में ऐसा हो-- आज भी श्रमण गोतम अ-वीतराग' अ-वीत द्वेष, अ-वीत मोह है, इसीलिये अरण्य, वन-खंड तथा सनी कुटिया का सेवन करता है' ! ब्राह्मण ! मैं दो वानों के लिये आज भी अरण्य सेवन करता हूँ (१) इसी शरीर में अपने सम्व-विहार के विचार से (२) आगे आने वाली जनता पर अनुकम्पा करने के लिये, ताकि मेग अनुगमन कर वह भी सफल की भागी हो।" ५. अनंगन-सत्त--राग, उप और मोह से रहित (अनंगण) और उनसे युक्त व्यक्तियों के चार प्रकार--सारिपुत्र, मौद्गल्यायन और अन्य भिक्षुओं के धार्मिक संलाप। ६. आकंग्वेय्य-सुत्न--"भिक्षओ ! शील-सम्पन्न होकर विहरो, प्रातिमोक्ष रूपी संयम में संयमित होकर बिहरो. . . . . .ध्यान और विपश्यना से सक्त होगन वरों की शरण लो।" Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५० ) ७. वत्थ सत्त-मैले वस्त्र पर रंग नहीं चढ़ता। किन्तु साफ वस्त्र पर चढ़ जाता है। चित्त के निर्मल होने पर सुगति भी अनिवार्य है। वह नदियों के स्नानादि से प्राप्त नहीं होती। 'ब्राह्मण ! तू यदि झूठ नहीं बोलता, प्राणियों को नहीं मारता, बिना दिया लेता नहीं, तो गया जाकर क्या करेगा, क्षुद्र जलाशय भी तेरे लिये गया है।" ८. सल्लेख-सुत्त--तप-विहार का उपदेश। ९. सम्मादिट्ठि-सुत्त--सम्यक् दृष्टि पर धर्मसेनापति सारिपुत्र का प्रवचन । १०. सति पट्ठान-सुत्त--चार स्मृति-प्रस्थानों का उपदेश । यही विषय दीघ निकाय के महासतिपट्टान-सुत्त का भी है। केवल कुछ अंश वहाँ अधिक है। (२) सीहनाद वग्ग ११. चूल सीहनाद-सुत्त--चार बातों में वौद्ध भिक्षुओं की अन्य धर्मावलम्बियों से विशेषता। १२. महासीहनाद-सुत्त--सुनक्खत्त लिच्छविपुत्त यह कह कर भिक्षु-संघ को छोड़कर चला गया है “श्रमण गोतम के पास आर्य ज्ञान-दर्शन की पराकाष्ठता नहीं है, उत्तर--मनुष्य धर्म नहीं है। वह केवल अपने ही चिन्तन से सोचे, अपनी प्रतिभा से जाने, तर्क से प्राप्त, धर्म का उपदेश करते हैं।" इसी प्रसंग को लेकर भगवान् बुद्ध और धर्मसेनापति सारिपुत्र में संलाप । तथागत के दस बल तथा चार वैशारद्यों का वर्णन । इसी प्रसंग में भगवान् ने अपनी पूर्व तपस्याओं का वर्णन भी किया है “सारिपुत्र ! यह मैरा रुक्षाचार था। पपडी पड़े अनेक वर्ष के मैल को शरीर में संचित किये रहता था. . .भीषण वन-खंड में प्रवेश कर विहरता था--मुर्दे की हड्डियों का सिरहाना बना श्मशान में शयन करता था---सारिपुत्र ! जब मैं पेट के चमड़े को पकड़ता तो पीठ के काँटे को ही पकड़ लेता था, पीठ के कांटे को पकड़ते समय पेट के चमड़े को ही पकड़ लेता था-इस दुप्कर तपस्या से भी मैं उत्तर मनुष्य-धर्म नहीं पा सका . . . . . .आज सारिपुत्र ! मेरी आयु अस्सी को पहुँच गई है. . . . . .सारिपुत्र ! अशन, पान, शयन को छोड़, मल-मूत्र-त्याग के समय को छोड़, तथागत की धर्म-देशना सदा अखंड ही चलती रहेगी।" बुद्ध-जीवनी की दृष्टि से यह सुत्त अत्यन्त महत्वपूर्ण है। Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५१ ) १३. महादुक्खक्खन्ध-सुत्त--दुःख, उसका हेतु और निरोध । १४. चूल दुक्खक्खन्ध-सुत्त--उपर्युक्त के समान ही विषय । १५. अनुमान-सुत्त-महामौद्गल्यायन का प्रवचन। सावधानी पूर्वक आत्म प्रत्यवेक्षण करते हुए सदाचारी जीवन बिताने का उपदेश। १६. चेतोखिल-सुत्त-चित्त के पाँच काँटों का भगवान् के द्वारा वर्णन। १७. वनपत्थ-सत्त--वनप्रस्थ में विहरने का उपदेश । १८. मधुपिडिक-सुत्त-भगवान के द्वारा धर्म की रूपरेखा का वर्णन । कच्चान (कात्यायन) द्वारा उसकी विस्तार से व्याख्या। १९. द्वेधावितक्क-सुत्त-भगवान् द्वारा अपने पूर्व अनुभवों का वर्णन । चित्तमलों का शमन, ध्यान, आर्य अष्टाङ्गिक मार्ग, अभिसम्बोधि-प्राप्ति का वर्णन ! २०. वितक्क सण्ठान-सुत्त--वितर्कों को वश में करने का उपाय। (३) ओपम्म वग्ग २१. ककचूपम-सुत्त--आरे से चीरे जाने पर भी जो चित्त को बिना दूषित किये शान्त न रह सके, वह बुद्ध का शिष्य नहीं है। २२. अलगद्पम-सुत्त--धर्म के विषय में मिथ्या धारणायें रखना सर्प को पूंछ से पकड़ना है। २३. वम्मिक-सुत्त--नर-देह की असारता एवं निर्वाण-प्राप्ति की बाधाएँ। २४. रथविनीत -सुत्त--ब्रह्मचर्य के उद्देश्य और विशुद्धियाँ । २५. निवाप-सुत्त-मार से कैसे बचें ? २६. अरियपरियेसन-सुत्त--बुद्ध के द्वारा अपने महाभिनिष्क्रमण एवं (पासरासि-सुत्त)--अभिसम्बोधि-प्राप्ति का वर्णन । धर्म-चक्र-प्रवर्तन का भी वर्णन। २७. चलहत्थिपदोपम-सत्त--सत्य-प्राप्त मनि के आश्चर्य ! २८. महाहत्थिपदोपम-सुत्त-उपादान-स्कन्धों से विमुक्ति, प्रतीत्यसमुत्पाद । सभी कुशल धर्म चार आर्य सत्यों में निहित हैं। २९. महासारोपम-सुत्त--देवदत्त के संघ को छोड़ जाने के बाद भगवान् का भिक्षु जीवन के उद्देश्यों पर उपदेश ३०. चूलसारोपम-सुत्त--पूर्वोक्त के समान ही। इस सुत्त में छह नैर्थिकों या तत्कालीन आचार्यों का वर्णन भी है। Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५२ ) (४) महायमक वग्ग ३१. चूल गोसिंग-सत्त-अनिरुद्ध, किंविल और नन्दिय की प्रव्रज्या एवं सिद्धि प्राप्ति। ३२. महागोसिंग-सुत्त--गोसिंग शालवन किस प्रकार के भिक्षु से सुशोभित होगा? ३३. महागोपालक-सुत्त--भिक्षु के लिये आवश्यक ग्यारह बातें। ३४. चूल गोपालक-सुत्त-अच्छे और बुरे शास्ताओं के अनुयायियों की दशा। ३५. चूल सच्चक-पुत्त--सच्चक नामक आजीवक को पञ्चस्कन्ध और अना त्मवाद का उपदेश। ३६. महासच्चक-सत्त-भगवान् बुद्ध का अभिसम्बोधि और समाधि पर प्रवचन । काया की साधना के ऊपर मन की साधना की स्थापना। ३७. चूलतण्हासंखय-मुत्त--तृष्णा का क्षय कैसे हो? ३८. महातण्हा संखय-सुत्त--अनात्मवाद का तृष्णा-क्षय के रूप में उपदेश । धर्म में भी अनासक्ति आवश्यक । ३९. महा-अस्सपुर-सुत्त-- ) भिक्षुओं के कर्तव्यों का वर्णन । ४०. चूल अस्सपुर-सुत्त-- ) (५) चूल यमक वग्ग ४१. सालेय्यक-सुत्त-कुछ प्राणी क्यों सुगति और कुछ क्यों दुर्गति प्राप्त करते ४२. वेरंजक-सुत्त--उपर्युक्त के समान विषय । ४३. महावेदल्ल-सुत्त-वेदना, संज्ञा, शील, समाधि, प्रजा, आय, उप्मा और विज्ञान पर धर्मसेनापति सारिपुत्र का प्रवचन । ४४. चूलवेदल्ल-सुत्त--आर्य अष्टाङ्गिक मार्ग, संज्ञावेदयित-निरोध, स्पर्श, वेदना तथा अनुशयों पर भिक्षुणी धम्मदिन्ना का प्रवचन । ४५. चूल धम्मसमादान-सुत्त-धर्मानुयायियों के चार प्रकार। ४६. महाधम्मसमादान-सुत्त-उपर्युक्त के समान ही। ४७. वीमंसक-सत्त--ठीक विमर्श कैसे हो? Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८. कोसम्बिय-सुत्त-कौशाम्बी के भिक्षुओं को मेलजोल के लिये उपयोगी छह बातों का उपदेश । ४९. ब्रह्मनिमन्तिक-सुत्त--ब्रह्मा को सृष्टिकर्ता मानना ठीक नहीं। ५०. मार-तज्जनिय-सुत्त---महामौद्गल्यायन का मार को तर्जन । (६) गहपति वग्ग ५१. कन्दरक-सत्त--आत्म-निर्यातन के विरुद्ध प्रवचन ! ५२. अट्ठक नागर-सत्त---ग्यारह अमृत द्वार (ध्यान) । आनन्द निर्वाण-मार्ग पर स्थित । ५३. सेक्ख-सुत्त--शैक्ष्य जनों के कर्तव्यों पर आनन्द का प्रवचन । ५४. पोतलिय-मुत्त--आर्य-मार्ग क्या है ? ५५. जीवक-सुत्त-मांस-भक्षण पर बुद्ध-मत । ५६. उपालि-सुत्त--दीर्घ तपस्वी निम्रन्थ के साथ भगवान् का संवाद । ५७. कुक्कुरवतिक-सुत्त--निरर्थक व्रत । कर्म पर भी प्रवचन । ५८. अभयराजकुमार-सुत्त--उपकारी अप्रिय सत्य को भी बोलना कर्त्तव्य है। यदि वह उपकारी हो है । राजगृह के वेणुवन में इस सुत्त का उपदेश भगवान् ने अभयराजकुमार को दिया। ५९. बहुवेदनिय-मत्त--वेदनाओं का वर्गीकरण । ६०. अपण्णक-सुत्त--द्विविधा-रहित ( अपर्णक ) धर्म का उपदेश । (७) भिक्खु-वग्ग ६१. अम्बलट्ठिक-राहुलोवाद-सुत्त--"राहुल ! तुझे सीखना चाहिये कि मैं प्रत्यवेक्षण कर काय-कर्म, वचन-कर्म, मन-कर्म का परिशोधन करूंगा।" अम्बलट्ठिका (वेणुवन के किनारे वासस्थान) में राहुल के प्रति भगवान् का उपदेश ! ६२. महाराहुलोवाद-सुत्त--राहुल को प्रधानतः आनापानसति (प्राणायाम) के अभ्यास का उपदेश । “राहुल ! पृथ्वी-समान ध्यान की भावना कर । . . . . . . जैसे राहुल ! पृथ्वी में शुचि वस्तु भी फैकते हैं, अशुचि वस्तु भी फैकते हैं . . . . . . उससे पृथ्वी दुःखी नहीं होती, ग्लानि नहीं करती, घृणा नहीं करती। इसी प्रकार राहुल ! पृथ्वी समान भावना करते तेरे चित्त को अच्छे लगने वाले स्पर्श न चिपटेंगे।. . . . . . राहुल ! मैत्री-भावना Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५४ ) का अभ्यास कर। जो द्वेष है, उससे छूट जायेगा। राहुल ! करुणा-भावना का अभ्यास कर। जो तेरी पर-पीड़ा-करण इच्छा है, वह हट जायगी। राहुल ! उपेक्षा-भावना का अभ्यास कर ! जो तेरी प्रतिहिंसा है, वह हट जायगी। राहुल अशुभ-भावना का अभ्यास कर। जो तेरा राग है, वह चला जायगा' आदि। ६३. चूल-मालुक्य-सुत्त-लोक शाश्वत है या अशाश्वत, आदि दस प्रश्न चूल मालुक्य पुत्र ने भगवान् से किये। भगवान ने उन्हें अव्याकत (अव्याकृतअकथनीय) करार दे दिया, क्योंकि इनका उत्तर या कथन सार्थक नहीं, ब्रह्मचर्य-उपयोगी नहीं और न वह वैराग्य, निरोध, शान्ति, उत्तम, परम, ज्ञान एवं निर्वाण के लिये ही आवश्यक है। ६४. महा-मालुक्य-सुत्त--पाँच संयोजनों (सत्काय दृष्टि, विचिकित्सा, शील व्रत परामर्श, काम-राग, व्यापाद) के प्रहाण का मार्ग। ६५. भद्दालि-सुत्त--भद्दालि नामक भिक्षु को आचार-मार्ग का उपदेश । ६६. लकुटिकोपम-सुत्त-स्थविर उदायी को भगवान् का धर्मोपदेश । “उदायी ! कोई कोई मूर्ख पुरुष मेरे 'यह छोड़ो' कहने पर ऐसा कहते हैं “क्या इस छोटी बात के लिये, तुच्छ बात के लिये, यह श्रमण जिद कर रहा है" और वह उसे नहीं छोड़ते। किन्तु जो भिक्षु सीखने वाले होते हैं, उन्हें यह होता है 'यह बलवान् बन्धन है, दृढ़ बन्धन है, स्थिर बन्धन है, स्थूल कलिंगर (पशुओं के गले में बाँधने का काष्ठ) है। जैसे उदायी! पोय-लता के बन्धन से बँधी लकुटिका (गौरैय्या) पक्षी वहीं वध, बन्धन या मरण की प्रतीक्षा करती है। उदायी! जो आदमी यह कहे 'चूंकि यह लकुटिका पक्षी पोयलता के बन्धन से बँधा है, वह वहीं वध, बन्धन या मरण की प्रतीक्षा कर रहा है, किन्तु उसका वह निर्बल बन्धन है, सड़ा बन्धन है, कमजोर बन्धन है। क्या उदायी। ऐसा कहते वह ठीक कह रहा है ?" "नहीं भन्ते ! वह लकुटिका पक्षी जिस पोयलता के बन्धन से बँधा है, वह उसके लिये बलवान् बन्धन है, स्थूल कलिगर (पशु के गले में बाँधने का काष्ट) है" आदि। ६७. चातुम-सुत्त--चातुमा के भिक्षुओं को आचार-तत्त्व का उपदेश । ६८. नलक-पान-मुत्त-नलक-पान-के पलास-वन में भगवान् का भिक्षु अनि रुद्ध से धर्म-संलाप। Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ( १५५ ) ६९. गुलिस्सानि-सुत्त--गुलिस्सानि नामक आरण्यक भिक्षु को लक्ष्य कर धर्म सेनापति सारिपुत्र का भिक्षुओं को उपदेश। ७०. कीटागिरि-सुत्त--भिक्षु-नियमों सम्बन्धी उपदेश, विशेषतः एक समय भोजन करने के प्रसंग को लेकर। (८) परिब्बाजक-वग्ग ७१. तेविज्जवच्छगोत्त-सुत्त---भगवान बुद्ध त्रैविद्य हैं। ७२. अगिवच्छगोत्त-सुत्त--अगिवच्छगोत्त नामक परिव्राजक को भगवान् की शिष्यत्व-प्राप्ति। ७३. महावच्छगोत्त-सुत्त--उपासकों और भिक्षुओं के कर्तव्य । ७४. दीघनख-सुत्त--दीघनख परिव्राजक से भगवान् का संलाप । ७५. मागन्दिय-सुत्त--मागन्दिय नामक परिव्राजक को कामनाओं के त्याग का उपदेश। ७६. सन्दक-सुत्त--सन्दक नामक परिव्राजक को आनन्द का उपदेश । १७. महासकुलुदायि-सुत्त-महासकुलुदायि परिव्राजक को उपदेश। ७८. समणमंडिका-सुत्त--शुद्ध आचरण पर भगवान् बुद्ध का उपदेश। ७९. चूलसकुलु दायि-सुत्त-निगण्ठ नाथपुत्त और उनका चातुर्याम संवर । ८०. बेखनस-सुत्त--पूर्वोक्त के समान ही विषय-वस्तु। (९) राजवग्ग ८१. घाटिकार-सुत्त-भगवान् बुद्ध के एक पूर्वजन्म का विवरण । ८२. रट्ठपाल-सुत्त-राष्ट्र-पाल की प्रव्रज्या का विवरण । कुरुदेश की राजधानी थुल्लकोठित का उल्लेख है । राष्ट्रपाल यहीं के निवासी थे । ८३. मखादेव-सुत्त--बुद्ध के एक पूर्व जन्म की कथा। ८४. माधुरिय-सुत्त--चारों वर्गों की समता का उपदेश आयुष्मान् कात्यायन द्वारा। बुद्ध-निर्वाण के बाद आयुष्मान् कात्यायन का मथुरा के राजा अवन्तिपुत्र से मथुरा के गुन्दावन में संवाद । ८५. बोधिराजकुमार-सुत्त--भगवान् बुद्ध की जीवनी, स्वयं उनके शब्दों में, ___गृहत्याग से बुद्धत्व-प्राप्ति तक। ८६. अंगुलिमाल-सुत्त--डाकू अंगुलिमाल का जीवन-परिवर्तन । ८७. पियजातिक-सुत-सम्पूर्ण दुःख प्रेम से उत्पन्न होने वाले हैं। Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५६ ) ८८. बाहितिक - सुत -- शुभ और अशुभ आचरण । बुद्ध अशुभ आचरण नहीं कर सकते । आनन्द का प्रसेनजित् को उपदेश । ८९. धम्मचेतिय-सुत्त -- भोगों के दुष्परिणाम एवं बुद्ध की प्रज्ञा का दर्शन । ९०. कण्णकत्थल-सुत्त --- क्या बुद्ध सर्वज्ञ हैं ? (१०) ब्राह्मण - वग्ग ९१. ब्रह्मायु- सुत्त -- ३२ महापुरुष - लक्षण । तथागत के ईर्यापथ का विवरण | ब्राह्मण, वेदगू आदि शब्दों की बुद्धमतानुसार व्याख्या । ९२. मेल - सुत्त - - सेल ब्राह्मण की प्रव्रज्या । ९३. अस्सलायन - सुत्त -- जातिवाद का खंडन | श्रावस्ती - निवासी आश्वलायन ब्राह्मण का यहाँ वर्णन है, जिसे विद्वानों ने प्रश्न- उपनिषद् के आश्वलायन से मिलाया है । ९४. घोटमुख- सुत्त -- आत्म- पीड़ा की निन्दा | ९५. चंकि सुत्त - बुद्ध के गुणों का वर्णन । सत्य की रक्षा और प्राप्ति के उपाय ९६. फासुकारि-सुत्त --- जातिवाद की निन्दा | ९७. धानंजानि-सुत्त - - गृहस्थ-बन्धन अशुभ कर्म करने का वहाना नहीं । ९८. वासेट्ठ-सुत्त -- वास्तविक ब्राह्मण कौन ? ९९. सुभ-सुत्त --गृहस्थ और संन्यास की तुलना । १००. संगारव - सुत्त -- बुद्ध - जीवनी का विवरण | बुद्ध द्वारा देवताओं के अस्तित्व की स्वीकृति । (११) देवदह वग्ग १०१. देवदह - पुत्त -- निगंठों के मत का विवरण । १०२. पञ्चत्तय सुत्त -- आत्मवाद आदि नाना मतवादों का खंडन । १०३. किन्ति - सुत्त - भिक्षुओं को एकता का उपदेश । १०४. सामगाम - सुत्त -- बुद्ध के मूल उपदेश । संघ में शान्ति 1 सम्बन्धी उपदेश | इस सुत्त में जैन तीर्थंकर भगवान् महावीर की कैवल्य प्राप्ति की सूचना है । १०५. सुनक्खत सुत्त- ध्यान और चित्त-संयम पर प्रवचन । १०६. आनंजसप्पाय- सुत्त -- भोगों की निस्सारता । १०७. गणकमोग्गल्लान-मुत्त--- आचरण की शिक्षा का क्रमिक विकास | Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५७ ) १०८. गोपकमोग्गल्लान-सुत्त--बुद्ध के बाद धर्म ही भिक्षुओं का एक मात्र प्रतिशरण। गोपक ब्राह्मण के साथ आनन्द का संलाप । इस सुत्त से हमें यह सूचना मिलती है कि राजा प्रद्योत के भय से मगधराज अजातशत्र नगर सुरक्षित करवा रहा था। १०९. महापुण्णम-सुत्त--पञ्चस्कन्ध एवं अनात्मवाद सम्बन्धी उपदेश । ११०. चूलपुण्णम-सुत्त--अच्छे और बुरे मनुष्य। (१२) अनुपद-वग्ग १११. अनुपद-सुत्त--भगवान् बुद्ध द्वारा सारिपुत्र के शील, समाधि और प्रज्ञा आदि की प्रशंसा। ११२. छब्बिसोधन-सुत्त-अर्हत् की पहचान क्या है ? ११३. सप्पुरिस-सुत्त-सत्पुरुष और असत्पुरुष की पहचान । ११४. सेवितव्व-अमेवितब्व-जल-क्या सेवनीय और क्या असेवनीय है ? ११५. बहुधातुक-सुत्त--धातुओं का निरुपण । ११६. इसिगिलि-सुत्त--प्रत्येक-बुद्ध-सम्बन्धी उपदेश । ११७. महाचत्तारीसक-सुत्त--सम्यक समाधि सम्बन्धी प्रवचन । ११८. आनापानसति-सुत्त-प्राणायाम और ध्यान सम्बन्धी बुद्ध-प्रवचन । ११९. कायगतासति-सुत्त--काये कायानुपश्यना क्या है ? १२०. संखारुप्पत्ति-मुत्त--संस्कारों की उत्पत्ति कैसे ? (१३) सुज्ञता-वग्ग १२१. चूल-सुजना-सुत्त--चित्त की शून्यता का योग । १२२. महासुझता-सुत्त--उपर्युक्त का विस्तृत विवरण । १२३. अच्छरियभुतधम्म-सुत्त-आश्चर्य-पुरुष भगवान् बुद्ध का जन्म कहाँ व कैसे? १२४. वक्कूल-सुत्त--स्थविर वक्कुल की जीवन-चर्या । १२५. दन्तभूमि-मुत्त--संयम का उपदेश । १२६. भूमिज-मुक्त--कौन सा ब्रह्मचर्य मफल है ? १२७. अनुरुद्ध-सुन--भिक्षु अनिरुद्ध द्वारा अ-प्रमाणा चेतो-विमुक्ति पर उपदेश । १२८. उपक्किलेग-युत्त--कलह रोकने के उपाय । योग-साधन। १२९. बाल पंडित मुत्त---जीवन के बाद फल ? १३०. देवदत्त-पुत्त--यम का भय ? Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५८ ) (१४) विभंग वग्ग १३१. भद्देकरत्त-सुत्त -- भूत और भविष्यत् की चिन्ता छोड़ वर्तमान में कर्म करना ही सर्वोत्तम मंगल है | १३२. आनन्द भद्देकरत्त - सुत्त - उपर्युक्त के समान ही । १३३. महाकच्चान भद्देकरत्त सुत्त - - उपर्युक्त का ही अधिक विस्तृत वर्णन । १३४. लोमसकंगिय-भद्देकरत सुत्त । उपर्युक्त के समान ही १३५. चूल कम्मविभंग - सुत्त -- संसार में असमानता क्यों ? कर्म-फल । १३६. महाकम्मविभंग-सुत्त - उपर्युक्त के समान ही । १३७. सळायतन - सुत्त - छह आयतनों एवं चार स्मृति - प्रस्थानों का वर्णन । १३८. उद्देश विभंग - सुत्त --- इन्द्रिय संयम, ध्यान और अपरिग्रह का उपदेश । १३९. अरण-विभंग - सुत्त - शान्ति का रहस्य ? १४०. धातु विभंग-सुत्त -- छह धातुओं ( पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, चित्त) का निरूपण १४१. सच्चविभंग-सुत्त -- चार आर्य सत्यों का विवरण । १४२. दक्षिणा - विभंग-सुत्त — संघ को दिया हुआ दान व्यक्ति को दिये हुए दान से बढ़कर है । (१५) सळायतन - वग्ग १४३. अनाथपिण्डिकोवाद- सुत्त - - अनाथपिंडिक की बीमारी और मृत्यु का वर्णन । अन्तिम समय में धर्मसेनापति सारिपुत्र का उसको उपदेश । १४४. छन्नोवाद-सुत्त- --- छन्न की आत्महत्या | I १४५. पुण्णोवाद- सुत्त -- स्थविर पूर्ण की सहिष्णुता । १४६. नन्दकोवाद-सुत्त-- अनात्मवाद एवं सात बोध्यङ्गों का वर्णन । १४७. चूलराहुलोवाद - पुत्त - अनात्मवाद सम्बन्धी उपदेश । १४८. छछक्क-सुत्त -- अनात्मवाद का विस्तृत विवेचन । १४९. महासळायतनिक- सुत्त - तृष्णा और दुःख का निरूपण । १५०. नगर विन्देय्य सुत्त - - आदरणीय श्रमण-ब्राह्मण कौन हैं ? १५१. पिंडपात - पारिद्धि-सुत्त -- भिक्षा की शुद्धि कैसे ? स्मृति - प्रस्थान आदि की भावना का उपदेश । १५२. इन्द्रिय - भावना - सुत्त -- इन्द्रिय संयम कैसे हो ? • Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघ-निकाय के समान मज्झिम-निकाय में भी छठी और पाँचवीं शताब्दी ईसकी पूर्व के भारतीय समाज की सामान्य अवस्था का अच्छा पता चलता है। उसके अनेक वर्णनों में तत्कालीन भौगोलिक और ऐतिहासिक तथ्यों की महत्त्वपूर्ण सूचना मिलती है। मज्झिम-निकाय में वर्णित भगवान् के उपदेश जिन जिन प्रदेशों, नगरों, निगमों (कस्बों) ग्रामों या वन-प्रदेशों में हुए उनकी एक सूची बनाई जाय तो उस समय की भौगोलिक परिस्थितियों को समझने में हमारी बड़ी सहायक होगी। अंग, बंग, योनकम्बोज, भग्ग, काशी, कुरु, कोशल जैसे प्रदेश, वैशाली, चम्पा, पाटलिपुत्र, कपिलवस्तु, राजगृह, नालन्दा, श्रावस्ती, कौशाम्बी, वाराणसी जैसे नगर, शाक्यों के मेदलुम्प, कोलियों के हलिहवसन, कुरुओं के थुल्लकोट्ठित आदि कस्बे तथा दण्डकारण्य, कलिङ्गारण्य जैसे वन-प्रदेश, जो बुद्ध-चरणों की रज से अंकित हुए थे, हमारे लिये एक गौरवमयी स्मृति का सन्देश देते हैं। कोसल-प्रदेश के दो मुख्य नगरों श्रावस्ती और साकेत के बीच डाक (रथ विनीत) का सम्बन्ध था, यह हम रथ विनीत-सुत्तन्त (मज्झिम १।३।४) से जानते हैं। बुद्धकालीन भारत का पूरा धार्मिक वातावरण मज्झिम-निकाय में उपस्थित है। ब्राह्मणों के जीवन, कर्मकांड और सिद्धान्त, उनके मन्त्रकर्ता ऋषि, वाद-परम्परा और पौरोहित्य, सभी का मूर्तिमान् चित्र हमें यहाँ मिलता है। इस दृष्टि से पूरा ब्राह्मण-वर्ग अर्थात् ९१वें सुत्त से लेकर १०० वे सुत्त तक का भाग अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। ब्रह्मायु, शैल, आश्वलायन, घोटमुख, चंकि, एसुकारी, धानंजानि, वासेठ, भारद्वाज, सुभ, संगारव, मागन्दिय आदि तत्कालीन ब्राह्मण-दार्शनिकों का पूरा व्यक्तित्व, उनके मत और बुद्ध-धर्म के साथ उनके सम्बन्ध का पूरा चित्र हमें इन सुत्तों में मिल जाता है । इसी प्रकार तत्कालीन परिव्राजकों का चित्र हमें अग्गिवच्छगोत्त सुत्त जैसे सुत्तों में मिल जाता है। दीघनख, सन्दक, सकुलादायि, वेखनस आदि परिव्राजकों के साथ भगवान् के संवाद जो मज्झिम-निकाय में दिये हुए हैं, अत्यन्त महत्वपूर्ण है। तत्कालीन छह प्रसिद्ध आचार्यों (पुराण कस्सप, मक्खलि गोसाल, अजित केस कम्बलि आदि) तथा अन्य सम्प्रदायों के मतों को जानने की दृष्टि से अपण्णक-सुत्त, तेविज्ज-वच्छगोत्त-सत्त, तथा महावच्छगोत्त-सुत्त आदि अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। कन्दरक-सुत्त, उपालि-सुत्त तथा अभयराजकुमार सुत्त में निर्ग्रन्थ ज्ञात्रपुत्र (भगवान् महावीर) के मत के सम्बन्ध में भी कुछ सूचना मिलती है। तत्कालीन साधकों में जो नाना प्रकार की Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६० ) पीडाजनक तपश्चर्यायें प्रचलित थीं और जिनका अभ्यास गोतम ने भी अपने ज्ञान की खोज में किया था, महासीहनाद-सुत्त, कुक्कुरवतिक-सुत्त बोधि-राजकुमार-सुत्त और कन्दरक-सुत्त में वर्णित हैं। पासरासि-सुत्त, बोधि-राजकुमार सत्त और महासच्चक-सुत्त में भगवान् बुद्ध की आत्मकथा है, जो बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। ब्रह्मायु-सुत्त में उनके ईर्यापथ का वर्णन है जो उनकी दैनिक चर्या तथा साधारण शारीरिक चाल-ढाल को समझने के लिये बहुत आव- श्यक है। इसी प्रकार महाराहुलोवाद सुत्त, महावच्छगोत्त-सुत्त तथा महासकुलुदायिसत्त में संघ के नियम और जीवन सम्बन्धी महत्त्वपूर्ण सामग्री है। कन्दरक-सुत्त और धानंजानि-सुत्त भी इस दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। पियजातिक-सुत्त, धम्मचेतिय-सुत्त, तथा कण्णत्थलक-सुत्त में तत्कालीन राजाओं का कुछ विवरण है। मागन्दिय सुत्त में तत्कालीन आयुर्वेद की अवस्था का कुछ परिचय मिलता है। यहाँ ऊर्व विरेचन, अबो विरेचन आदि का वर्णन है। वाहीतिय-सुत्त में महीन कपडे के बनने का वर्णन है और उपालि-सुत्त में रंगने की कला का निर्देश आया है। सारांश यह कि मज्झिम निकाय में तत्कालीन समाज, धर्म, कला-कौशल आदि का एक अच्छा चित्र हमें मिलता है। __ इ-संयुत्त-निकाय संयुत्त-निकाय (संयुक्त-निकाय) छोटे-बड़े सभी प्रकार के सुत्तों का संग्रह है। इसीलिये इसका यह नाम पड़ा है। विशेषतः संयुत्त-निकाय में छोटे आकार के सुत्त ही अधिक हैं। संयुत्त निकाय के सुत्तों की कुल संख्या २८८९ है। प्रायः प्रत्येक सुत्त संक्षिप्त गद्यात्मक वुद्ध-प्रवचन के रूप में ही है। बुद्धकालीन १. लियोन फियर द्वारा पाँच जिल्दों में रोमन-लिपि में सम्पादित एवं पालिटैक्स्ट सोसायटी, लन्दन, १८८४-९८, द्वारा प्रकाशित । अमरसिंह का सिंहली संस्करण वलीतारा, १८९८, प्रसिद्ध है। इस निकाय का हिन्दी-अनुवाद भिक्षु जगदीश काश्यप ने किया है, किन्तु वह अभी तक प्रकाशित नहीं हुआ। २. 'दीघ,' 'भज्झिम' और 'खुद्दक' शब्दों की पृष्ठभूमि में तो 'संयत्त' (संयक्त, मिश्रित) शब्द का यही अर्थ हो सकता है । बौद्ध परम्परा को भी प्रधानतः यही अर्थ लान्य है। गायगर ने अवश्य 'संयुत्त' शब्द की सार्थकता को उस निकाय में विषय वार सुत्तों के संयुक्त या वर्गीकृत करने के कारण माना है। देखिये उनका पालि लिटरेचर एंड लेंग्वेज, पृष्ठ १८ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय ग्रामीण जीवन का इस निकाय में बड़ा सुन्दर चित्र मिलता है। साथ में काव्यात्मक अंश भी हैं और लोक-आख्यान भी कहीं कहीं समाविष्ट हैं। यक्ष, यक्षिणी, देवता और गन्धर्वो का इस निकाय में कुछ अधिक निर्देश मिलता है। किन्तु इससे पृष्ठ भूमि की स्वाभाविकता में कोई अन्तर नहीं आने पाया। भगवान् बुद्ध के स्वभाव और जीवन की विशेषताएं, उनकी गम्भीरता, प्राणि-मात्र के प्रति उनकी करुणा, इसी कारण मनुष्य-समाज के अज्ञानों पर उनके मृदुल व्यंङ्ग य, उनकी विनम्रता, मानवीयता, सभी इस निकाय में उसी प्रकार प्रस्फुटित होती हैं जैसे पूर्व के दो निकायों में। शैली की दृष्टि से भी इस निकाय की दीघ और मज्झिम की अपेक्षा कोई विशेषता नहीं । पुनरुक्तियाँ वही दोनों निकायों की सी हैं। 'सडायतन वग्ग, इसका एक अच्छा उदाहरण है। यद्यपि संयुत्त-निकाय का अधिकांश भाग गद्य में है, किन्तु प्रथम वर्ग 'सगाथ वग्ग' (गाथा-युक्त वर्ग) में बड़ी सुन्दर, भावात्मक गाथाएँ भी मिलती हैं। मारसंयुत्त और भिक्खुनी-संयुत्त, आख्यानात्मक काव्य के सर्वोत्तम उदाहरण हैं। गद्य और पद्य दोनों में ही यह आख्यान-साहित्य संयुत्त-निकाय में मिलता है। 'भिक्खुनी-संयुत्त' जैसे आख्यानों में नाटकीय तत्त्व भी अपनी विशेषता लिये हुए है, जो इन रचनाओं को एक विशेष गति और क्रियाशीलता प्रदान करता है। जैसा पहले दिखाया जा चुका है, संयुत्त-निकाय पाँच वर्गों में विभक्त है, जिनमें क्रमश: ११, १०, १३, १० और १२ अर्थात् कुल मिला कर ५६ संयुत्त हैं। यह विभाजन पूर्णतया विषय की दष्टि से नहीं है। जैसा विटरनित्ज़ ने कहा है, संयुत्त-निकाय के वर्गीकरण में तीन सिद्धान्तों का अनुवर्तन किया गया मालूम होता है (१) बुद्ध-धर्म के किसी मुख्य पहलू का विवेचन करने वाले सुत्तों को एक संयुक्त में वर्गीकृत कर दिया गया है, जैसे वोज्झङ्ग-संयुत्त आदि । (२) मनुष्य, देवता या यक्ष आदि के निर्देश के आधार पर उनका अलग अलग वर्गों में विभाजन कर दिया गया है, जैसे देवता-संयुत्त आदि (३) वक्ता या उपदेष्टा के रूप में जो प्रधान व्यक्ति अनेक सुत्तों में दृष्टिगोचर होता है, उस सम्बंधी उपदेशों को एक संयत्त में सम्मिलित कर दिया गया है, जैसे सारिपुत्त-संयुत्त आदि । वर्ग वार इन सुत्तों की विषय-वस्तु का यहाँ कुछ संक्षिप्त परिचय देना आवश्यक होगा। १. हिस्ट्री ऑव इंडियन लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ ५६; मिलाइये गायगर : पालि लिटरेचर एंड लेंग्वेज, पृष्ठ १८ ११ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६२ ) १- सगाथ-वम्ग १. देवता-संयुत्त-देवताओं ने भगवान् से कुछ प्रश्न पूछे हैं, जिनका उन्होंने उत्तर दिया है। काम-वासना, पुनर्जन्म, मिथ्या मतवाद और अविद्याश्रित इच्छाओं का किस प्रकार भगवान् ने दमन किया है, यह यहाँ बताया गया है। पाप और आसक्ति मुक्ति पाने का मार्ग भी भगवान् ने यहाँ बताया है। २. देवदत्त-संयुत्त-देव-पुत्रों के कुछ प्रश्नों का उत्तर भगवान् ने दिया है। उन्होंने कहा है कि सुख-प्राप्ति का एक मात्र उपाय क्रोध-त्याग और सत्संगति ही है। ३. कोसल-संयुत्त-यह सम्पूर्ण संयुत्त कोशलराज प्रसेनजित् (पसेनदि) के विषय में है। प्रसेनजित् पहले बावरि नामक ब्राह्मण का शिष्य था। बाद में वह बुद्ध-धर्म में गृहस्थ-शिष्य (उपासक) के रूप में प्रविष्ट हो गया। मगधराज अजातशत्रु (अजातसत्तु) और प्रसेनजित् के बीच युद्ध होने का भी उल्लेख इस संयुत्त में मिलता है । यह युद्ध काशी-प्रदेश के ऊपर हुआ। प्राथमिक विजय अजातशत्र की हुई, किन्तु बाद में वह पराजित किया गया और प्रसेनजित् उसे बन्दी बनाकर कोशल ले गया। वहाँ उसने अपनी पुत्री वज्रा (वजिरा) का उसके साथ पाणि-ग्रहण कर काशी-प्रदेश उसे भेंट-स्वरूप प्रदान किया। __४. मार-संयुत्त-बुद्ध और उनके शिष्यों की मार-विजय का वर्णन है। बुद्धत्त्व-प्राप्ति के बाद भी मार ने बुद्ध को ब्रह्मचर्य के जीवन से विचलित करने के लिये प्रभत प्रयत्न किया। ढेले बरसाये, पत्थर फेंके, अनेक प्रकार के भय दिखलाये, यहाँ तक कि 'पंचशाल' नामक गाँव के गृहस्थों को कहा कि इस महाश्रमण को भोजन मत दो। एक दिन भगवान् को भिक्षा भी नहीं मिली। धुला-धुलाया रीता पात्र लेकर लौट आये। किन्तु मार के ये सब प्रयत्न विफल हए और वह बद्ध और उनके शिष्यों को ब्रह्मचर्य के जीवन से विचलित नहीं कर सका। ५. भिक्खनी-संयुत्त--दस भिक्षुणियों के सुन्दर काव्य-मय आख्यान हैं। किस प्रकार गोतमी, उत्पलवर्णा (उप्पलवण्णा) वज्रा (वजिरा) आदि भिक्षुणियाँ बुद्ध-मार्ग का अनुगमन करती हुई मार पर विजय प्राप्त करती हैं, इसी का सुन्दर काव्य-मय वर्णन है। ६. ब्रह्मा-संयुत्त-बुद्धत्त्व-प्राप्ति के बाद बुद्ध को उपदेश करने की इच्छा नहीं हुई । तृष्णा-विनाश का यह स्वाभाविक परिणाम था। विमुक्ति-सख का Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुभव करते हुए सप्ताहों तक समाधि में बैठे रहे। ब्रह्मा को चिन्ता हुई, इस प्रकार तो लोक नष्ट हो जायगा। जाकर भगवान् से प्रार्थना की-भन्ते ! लोक के हित के लिये धर्मोपदेश करें। भगवान् ने कहा कि जनता काम-वासनाओं में लिप्त है। वह उनके गम्भीर उपदेश को नहीं समझेगी। ब्रह्मा ने भगवान् से अनुनय की कि संसार में कुछ अल्प-मल प्राणी भी हैं और उनको भगवान् के उपदेश से अवश्य लाभ होगा। तथागत ने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। उसके बाद भगवान् ने धर्म-चक्र-प्रवर्तन करने के लिये वाराणसी की ओर प्रस्थान किया। ७. ब्राह्मण-संयुत्त---एक भारद्वाज गोत्रीय ब्राह्मण की प्रव्रज्या का वर्णन है। अपनी पत्नी के मुख से बुद्ध-प्रशंसा सुन कर वह भगवान् बुद्ध के दर्शन के लिये गया। वहाँ उनके उपदेश से प्रभावित होकर उसने त्रिशरण (बुद्ध, धम्म और संघ की शरण) ली और प्रवजित हो गया। ८. वंगीस-संयुत्त-वंगीश नामक भिक्षु की काम-वासना पर विजय-प्राप्ति का वर्णन है। एक बार विहार में आई हुई कुछ सुन्दर, आभूषित स्त्रियों को देख कर उनके मन में काम उत्पन्न हो गया । काम-दुष्परिणाम का पर्यवेक्षण कर किस प्रकार इस भिक्षु ने काम-वासना से विमुक्ति पाई, इसका सुन्दर भावनामय वर्णन है। ९. वन-संयत्त-किस प्रकार वन-देवता भी पथ-भ्रष्ट भिक्षुओं को सम्यक् मार्ग पर लगा देते हैं, इसका कुछ भिक्षुओं के उदाहरणों के साथ वर्णन है। १०. यक्ख-संयुत्त-इन्द्रकूट और गृध्रकुट पर्वतों पर विचरते हुए भगवान् से कुछ यक्षों ने प्रश्न पूछे हैं, जिनका उन्होंने उत्तर दिया है। अनेक प्रश्नों में एक यह भी है "भन्ते ! बताइये कहाँ से काम-वासना, द्वेष, असन्तोष, भय आदि उत्पन्न होते हैं ?" भगवान् कहते हैं “हे यक्ष ! कहता हूँ। ध्यान से सुन । जो आत्मा और उसकी उत्पत्ति को जानते हैं वे इस दुस्तर भव-बाढ़ को तर जाते हैं, वे फिर इस संसार में जन्म प्राप्त नहीं करते।" इसी प्रकार वैर से कौन. मुक्त है, इसका उत्तर देते हुए भगवान् कहते हैं “जिसका चित्त दिन-रात वैरसाधन में लगा है, वह वैर से मुक्त नहीं होता। किन्तु जो सब प्राणियों के प्रति अहिंसा और मैत्री-भावना का आचरण करता है, वह वैर से विमुक्त हो जाता है। इसी संयुत्त में एक यक्षिणी को अपने प्रिय पुत्र को यह कह कर चुप करते हुए हम देखते हैं “चुप हो जा प्रियंकर! प्रिय वत्स चुप हो जा ! देख यह Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्षु कुछ कह रहा है। मुझे इसके वचन सुन लेने दे। यह मेरे लिये हितकर होगा।" इसी प्रकार एक और यक्षिणी कहती है “चुप हो जा उत्तरा ! पुनर्वसु ! शोर बन्द कर दे ! देख, मुझे इन शास्ता के वचन सुन लेने दे।" यक्ष और यक्षिणियों के रूप में यहाँ उस प्रभाव को ही अंकित किया गया है जो न केवल बुद्ध बल्कि तत्कालीन भिक्षु-भिक्षुणियों के भी पवित्र जीवन ने साधारण जनता के हृदय पर डाला था। साधारण गृहिणियाँ भी उनके वचन को सुनने के लिये कितना उत्सुक रहती थीं और उसे अपने लिये कितना कल्याणकारी मानती थीं, यह इस सुत्त में द्रष्टव्य है। इसी संयुत्त के अन्त में एक यक्ष आकर भगवान् से कहता है “भिक्षु ! मैं तुम्हें एक प्रश्न पूछता हूँ। तू इसका उत्तर दे। यदि न दे सका तो मैं या तो तेरी खोपड़ी को फोड़ दूंगा या तुझे पकड़ कर गंगा में फैंक दूंगा।" भगवान् कहते हैं “मेरी खोपड़ी को फोड़ने वाला या मुझे पकड़ कर गंगा में फैकने वाला इस संसार में कोई नहीं है। हाँ, तू इच्छानुसार प्रश्न पूछ सकता है।" यक्ष भगवान् के उत्तरों से सन्तुष्ट हो जाता है और अन्त में बुद्ध, धम्म और संघ की शरण में जाता है। इतना ही नहीं वह कृतज्ञतापूर्वक कहता है “अब मैं गाँव से गाँव , कस्बे (निगम) से कस्बे, और नगर से नगर जाकर बुद्ध द्वारा उपदिष्ट धर्म का जनताओं के कल्याण के लिये प्रचार करूँगा।" यक्ष और बुद्ध के उपर्युक्त संवाद की तुलना विंटरनित्ज़ ने महाभारत के यक्ष और युधिष्ठिर के संवाद से की है। किन्तु दोनों में बहुत अन्तर है। महाभारत में आरम्भ से लेकर अन्त तक युधिष्ठिर यक्ष की कृपा के भिक्षुक हैं और अपने उत्तरों द्वारा उसे प्रसन्न कर के ही वे अपनी विमुक्ति प्राप्त करते हैं। इसके विपरीत यहाँ यक्ष पहले ही बुद्ध पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने में असफल हो जाता है। बुद्ध-गौरव से पराजित होकर ही वह प्रश्न पूछता है और अन्त में तो वह उनका अंजलिबद्ध शिष्य ही हो जाता है। ११. सक्क-संयुत्त-देवराज शक्र की बुद्ध द्वारा प्रशंसा है । ऋग्वेद का वज्र धारी इन्द्र वौद्ध प्रभाव में आकर क्षमाशील बन गया है। वह वैसा असंयमी भी नहीं रहा। भगवान ने इस प्रशंसा में इन्द्र की क्षमाशीलता और उसकी संयम-परायणता का ही विशेष वर्णन किया है। अपने इन्हीं गुणों के कारण १. हिस्ट्री ऑव इंडियन लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ ५८ । Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६५ ) उसने ३३ देवताओं के ऊपर आधिपत्य प्राप्त किया है। इसी प्रसंग में देवासुरसंग्राम का भी इस संयुत्त में वर्णन आया है। २-निदान-वग्ग १. निदान-संयुत्त-प्रतीत्य समुत्पाद का विशद वर्णन है। किस प्रकार अविद्या से संस्कार, संस्कार से विज्ञान, विज्ञान से नाम-रूप, नाम-रूप से सळायतन, सळायतन से स्पर्श और इस प्रकार क्रमशः वेदना, तृष्णा, उपादान, भव, जाति और जरा-मरण-शोक-परिदेव-दुःख आदि की उत्पत्ति होती है और किस प्रकार इनका क्रमश: निरोध होता है, इसी का उपदेश यहाँ भगवान् ने भिक्षुओं को दिया है। विषय-निरूपण प्रायः महानिदान-सुत्त (दीघ-२।२) के समान ही है। २. अभिसमय-संयुत्त-अणुमात्र भी चित्त-मलिनता रहते निर्वाण की प्राप्ति सम्भव नहीं। अतः भिक्षु को उत्तरोत्तर अनवरत अध्यवसाय करते हुए अ-प्रहीण चित्त-मलों को नष्ट करना चाहिये और सदाचरण की वृद्धि करनी चाहिये। ३. धातु-संयुत्त--चक्षु, श्रोत्र, घ्राण, जिह्वा, काय, मन, आदि इन्द्रियों, रूप, शब्द, गन्ध, रस, स्पृष्टव्य और धर्म उनके विषयों एवं चक्षु-विज्ञान, श्रोत्रविज्ञान, घ्राण-विज्ञान, जिह्वा-विज्ञान, काय-विज्ञान एवं मनोविज्ञान उनके विज्ञानों, इस प्रकार इन अठारह धातुओं का यहाँ विवरण दिया गया है। ४. अनमतग्ग-संयुत्त-"भिक्षुओ ! इस संसार का आदि पूर्णत: अज्ञात (अनमतग्ग) है। तृष्णा और अविद्या से संचालित, भटकते-फिरते प्राणियों के आरम्भ का पता नहीं चलता।" यही इस संयुत्त की मूल भावना है। ५. कस्सप-संयुत्त-भगवान् बुद्ध ने महाकाश्यप की सन्तोष-वृत्ति की प्रशंसा की है । महाकाश्यप यथा-प्राप्त भोजन, यथा-प्राप्त वस्त्र, यथा-प्राप्त शयनासन (निवास-स्थान) और यथा-प्राप्त पथ्य-औषध आदि की सामग्री से सन्तुष्ट हो जाने वाले हैं। भगवान् ने दूसरे भिक्षुओं को भी ऐसा ही होने का उपदेश दिया है। ६. लाभ-सक्कार-संयुत्त-लाभ और सत्कार से विरत रहने का भिक्षुओं को भगवान् के द्वारा उपदेश दिया गया है। उन्होंने कहा है कि लाभ और Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्कार को चाहने वाले भिक्षु का पतन हो जाता है और उसकी वही गति होती है जो अंकुश को निगलने वाली मछली की। ७. राहुल संयुत्त-राहुल को संयम का उपदेश। शब्द, स्पर्श, रूप, रस गन्ध, सभी अनित्य और दुःख-रूप हैं। उनमें 'मैं' या 'मेरा' की भावना करने से दुःख ही हो सकता है। उनमें से किसी के विषय में 'यह मैं हूँ' 'यह मेरा आत्मा है' ऐसी भावना करना उपयुक्त नहीं। ८, लक्खण-संयुत्त-एक दिन धर्मसेनापति सारिपुत्र और एक अन्य भिक्षु जिसका नाम लक्खण (लक्षण) था साथ साथ भिक्षा-चर्या को जा रहे थे। अचानक सारिपुत्र को हँसी आ गई। भिक्षा से लौट आने के बाद लक्षण ने उनकी इस हँसी का कारण पूछा। धर्म सेनापति ने भगवान् बुद्ध और अन्य भिक्षुओं की उपस्थिति में उसका कारण बताया। ९. ओपम्म-संयुत्त-भगवान् ने भिक्षुओं को सचेत और जागरूक रहने का उपदेश दिया है। यहाँ उन्होंने उपमा (ओपम्म) की है। जिस प्रकार यदि लिच्छवि गणतन्त्र के लोग सतत जागरूक और सचेत नहीं रहेंगे तो अजातशत्रु (मगधराज) उन्हें दबा लेगा, पराजित कर देगा, इसी प्रकार यदि भिक्षु अपने आचरण में थोड़ा भी प्रमाद करेंगे, तो उन्हें मार अपने फन्दे में दबा लेगा। १०. भिक्खु-संयुत्त-महामोग्गल्लान (महामौद्गल्यायन) का भिक्षुओं को 'आर्य-मौन' पर उपदेश। उन्होंने बताया है कि 'आर्य-मौन' का वास्तविक आचरण द्वितीय ध्यान की अवस्था में होता है। भगवान् बुद्ध नन्द और तिष्य (तिस्स) नामक भिक्षुओं को भिक्षु-नियमों का पूरा पालन करने को कहते हैं । ३-खन्धवग्ग १. खन्ध-संयुत्त-पञ्चस्कन्धों का वर्णन है। रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान अनित्य, परिवर्तन-शील और दुःख-रूप हैं। इनमें 'यह मैं हूँ' 'यह मेरा है' या 'यह मेरा आत्मा है' इस प्रकार की भावना साधक को नहीं करनी चाहिये । बल्कि इनके उदय (उत्पत्ति) और व्यय (विनाश) का प्रत्यवेक्षण करना चाहिये और इनमें मन को आसक्त नहीं करना चाहिये। पञ्चस्कन्धों की अनित्यता और दुःखमयता का चिन्तन करने पर काम-वासना रह ही नहीं सकती, और पुनर्जन्म, अविद्या, आत्माभिनिवेश, सभी नष्ट हो जाते हैं। Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. राध-संयुत्त-स्थविर राध ने भगवान् से मार, तृष्णा, अनित्यता आदि पर प्रश्न पूछे हैं। भगवान् के उत्तर बड़े मार्मिक हैं। ३. दिद्वि-संयुत्त-मिथ्या मतवादों की उत्पत्ति का कारण भगवान ने बताया है। रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान में 'मैं' या 'मेरा' की भावना करना, इस प्रकार के चिन्तनों में लगे रहना जैसे कि क्या यह लोक शाश्वत है या अशाश्वत है, सान्त है या अनन्त है, क्या जीव और शरीर दो अलग अलग हैं या एक हैं, आदि, इस प्रकार के विचारों की आसक्ति ही मिथ्या मतवादों का कारण ४. ओक्कन्तिक-संयुत्त--चक्षु, श्रोत्र, घ्राण, जिह्वा, शरीर और मन, ये सभी अनित्य, परिवर्तशील और दुःख रूप हैं, इनमें 'आत्मा' (अत्ता) की उपलब्धि नहीं होती, इस प्रकार जिसकी स्मति सदा उपस्थित रहती है वही धर्म-मार्ग में विचरण करने वाला भिक्षु है। ५. उप्पाद-संयुत्त-चक्षु, श्रोत्र, घ्राण, जिह्वा, काय और मन का उत्पन्न होना ही जन्म, जरा, मरण, दुःख और शोक का उत्पन्न होना है-बुद्ध-उपदेश । ६. किलेस-संयुत्त-क्लेश या चित्त-मलों का विवरण है । चक्षु और दृश्य पदार्थ में, श्रोत्र और शब्द में, घ्राण और गन्ध में, जिह्वा और रस में, काय और स्पृष्टव्य में, मन और धर्मों (पदार्थों) में इच्छा और आसक्ति का होना ही चित्त का मल है। ७. सारिपुत्त-संयुत्त-आनन्द ने धर्मसेनापति सारिपुत्त से पूछा है कि उन्होंने अपनी इन्द्रियों को किस प्रकार शमित किया है ? धर्मसेनापति ने उत्तर-स्वरूप कहा है “एकान्त-वास (प्रविवेक) से उत्पन्न, सुख और सौमनस्य से युक्त, प्रथम ध्यान में स्थित रह कर, विषयों से दूर रह कर, 'यह मैं हूँ' 'यह मेरा है' इस प्रकार के विचारों को त्याग कर मैंने अपनी इन्द्रियों को शमित किया है।" ८. नाग-संयुत्त-नागों की चार प्रकार की उत्पत्तियाँ हैं, जैसे कि अंडे से उत्पत्ति, माँ के पेट से उत्पत्ति, स्वेद से उत्पत्ति, माता-पिता से उत्पत्ति । ९. सुपण्ण-संयुत्त-सपर्ण नामक पक्षियों की भी चार प्रकार की उत्पत्तियाँ हैं, अंडे से उत्पत्ति, माँ के पेट से उत्पत्ति, स्वेद से उत्पत्ति, बिना माता-पिता के उत्पत्ति। १०. गन्धब्ब-काय-संयुत्त-गन्धर्व जाति के देवताओं का वर्णन है। Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६८ ) ११. वलाह - संयुत्त -- ' वलाहक कायिक' अर्थात् बादल रूपी काया वाले देवताओं का वर्णन है । १२. वच्छगोत्त-संयुत्त —— वच्छगोत्त नामक परिव्राजक की मिथ्या- धारणाओं का भगवान् के द्वारा निवारण | क्या लोक शाश्वत है या अशाश्वत है, सात है या अनन्त है, जीव और शरीर एक ही हैं या अलग अलग हैं, आदि मिथ्या धारणाओं का कारण भगवान् ने पंच स्कन्धों (रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार, विज्ञान ) के वास्तविक स्वरूप ( अनित्य, दुःख, अनात्म) का अज्ञान ही बताया है । वच्छगोत्त परिव्राजक का भगवान् से संवाद मज्झिमनिकाय के विज्ज वच्छगोत्त-सुत्त' (१।३।१ ) में भी हुआ है । १३. भान ( या समाधि) संयुत्त — ध्यान या समाधि का विवरण है । भगवान् ने कहा है कि जो पुरुष ध्यान और उसकी प्राप्ति की रक्षा करने में कुशल है, वही सर्वोत्तम ध्यानी है । ४- सळायतन-वग्ग १. सळायतन - संयुत्त -- चक्षु और रूप, श्रोत्र और शब्द, घ्राण और गन्ध, काया और स्पर्श, मन और धर्म, सभी अनित्य, दुःख और अनात्म हैं। इन सब में 'मैं' और 'मेरा' की भावना करना उपयुक्त नहीं। इनमें जब आसक्ति को मनुष्य नष्ट कर देता है, तो वह बन्धन से छूट जाता है। उच्चतम संयम भी यही है । २. वेदना - संयुत्त -- सुख, दुःखा और न सुखा-न-दु:खा, ये तीन वेदनाएँ हैं । इनमें सुख की वेदना को दुःख के रूप में देखना चाहिये, दुःख की वेदना को शूल के रूप में देखना चाहिये और न सुख-न- दुःख की वेदना को अनित्य के रूप में देखना चाहिये | वेदनाओं को छोड़ देने वाला अनासक्त भिक्षु ही 'सम्यक् दृष्टि' सम्पन्न कहलाता है । ३. मातृगाम -संयुत्त -- स्त्रियों- सम्वन्धी बुद्ध-प्रवचन है । भगवान् ने स्त्रियों को पुरुषों की अपेक्षा अधिक दुःखभागिनी माना है । अतः ब्रह्मचर्य - जीवन की उनके लिये उतनी ही अधिक आवश्यकता भी । स्त्रियों को पाँच विशेष कष्ट हैं— बाल्य काल में माता-पिता का घर छोड़ना पड़ता है, उसे छोड़ कर दूसरे (पति) के घर जाना पड़ता है, गर्भ धारण करना पड़ता है, प्रसव करना पड़ता है, पुरुष की सेवा करनी पड़ती है । संसार में रूप, धन, चरित्र और परिश्रमी स्वभाव Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाली एवं सन्तान प्रसविनी स्त्री का आदर होता है। यदि स्त्री पतिव्रता, विनीत, लज्जाशील और ज्ञानवती हो तो वह मरने के बाद सद्गति प्राप्त करती है। दुराचारिणी, मूर्खा और निर्लज्जा होने पर वह मरने के बाद दुर्गतियों में पड़ती है। ४. जम्बुखादक-संयुत्त-जम्बुखादक नामक परिव्राजक के प्रति धर्मसेनापति सारिपुत्र का बुद्ध-धर्म पर उपदेश है। निर्वाण और अर्हत्त्व का अर्थ सारिपुत्र ने राग, द्वेष और मोह से विमुक्ति कहा है। इसे प्राप्त करने का उपाय आर्य अष्टाङ्गिक मार्ग ही है। जिसने राग-द्वेष को छोड़ दिया, वही मनुष्य सुखी है। आस्रवों (चित्त-मलों) से विमुक्ति पाने का आर्य अष्टाङ्गिक मार्ग से अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है। ५. सामंडक-संयुत्त--सामंडक नामक परिव्राजक के प्रति सारिपूत्र का 'निब्बाण' (निर्वाण) पर उपदेश है। विषय-वस्तु उपर्युक्त संयुत्त के समान ही ६. मोग्गल्लान-संयुत्त--महामोग्गल्लान (महामौद्गल्यायन) द्वारा भिक्षुओं को चार ध्यानों का उपदेश है । दीघ और मज्झिम निकायों के इस सम्बन्धी वर्णन से यहाँ कोई विशेषता नहीं है। बिलकुल उन्हीं शब्दों में यहाँ भी चार ध्यानों का विवरण दिया गया है। अरूपावचर भूमि के आकाशानन्त्यायतन, विज्ञानानन्त्यायतन, आकिंचन्यायतन और नैवसंज्ञानासंज्ञायतन नामक ध्यान-अवस्थाओं का भी यहाँ वर्णन किया गया है। ७. चित्त-संयुत्त-चक्षु, श्रोत्र, घ्राण, काय और मन रूपी इन्द्रियाँ बन्धन की कारण नहीं हैं । रूप, शब्द, गन्ध, स्पर्श और मानसिक धर्म भी बन्धन के कारण नहीं हैं। बन्धन की कारण तो वह वासना है, तृष्णा है, जो चक्षु और रूप के संयोग से उत्पन्न होती है, श्रोत्र और शब्द के संयोग से पैदा होती है, घ्राण और गन्ध के संयोग से पैदा होती है, काय और स्पर्श के संयोग से पैदा होती है, मन और धर्मों के संयोग से पैदा होती है। अतः इस वासना या तृष्णा का निरोध ही बन्धन-विमुक्ति का कारण है। ८. गामणि-संयुत्त-भोगवाद और तपश्चरण की अतियों को छोड़कर मध्यम मार्ग पर चलने का उपदेश गामणि को दिया गया है। क्रोध को छोड़कर क्षमाशील होने का भी यहाँ उपदेश दिया गया है। ९. असंखत-संयुत्त-निर्वाण असंस्कृत अर्थात् अकृत है। राग, द्वेष और मोह का सम्पूर्ण निरोध ही 'निर्वाण' कहा जाता है, कायिक-मानसिक जागरूकता Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७० ) ( स्मृति - सम्प्रजन्य ) चित्त - शान्ति ( शमथ), आन्तरिक ज्ञान - दर्शन ( विपश्यना ) चार स्मृति - प्रस्थान और आर्य अष्टाङ्गिक मार्ग, यही उसकी प्राप्ति के सर्वोत्तम साधन हैं । १०. अव्याकत - संयुत्त -- कोशलराज प्रसेनजित् ने क्षेमा (खेमा) नाम की भिक्षुणी से पूछा है " क्या मृत्यु के बाद तथागत रहते हैं या नहीं रहते ? या रहते भी हैं और नहीं भी रहते ?" । क्षेमा ने इसके उत्तर स्वरूप केवल यह कहा है कि तथागत ने इसे अ-व्याकृत कर दिया है अर्थात् उन्होंने इसे ब्रह्मचर्य के लिये आवश्यक न समझकर अकथनीय कर दिया है । साथ में वह यह भी कहती है कि तथागत का ज्ञान गम्भीर समुद्र के समान है, जिसकी थाह नहीं ली जा सकती । जब अनिरुद्ध, सारिपुत्र और मौद्गल्यायन जैसे बुद्ध के अन्य शिष्यों से यह प्रश्न पूछा जाता है तो वे भी उसका उसी प्रकार उत्तर देते हैं जैसे क्षेमा भिक्षुणी ने दिया है। दीघ और मज्झिम निकायों के 'दस अव्याकृत' ( अकथनीय) धर्मों के समान यहाँ भी बुद्ध - मन्तव्य विमल जल के समान स्वच्छ दिखलाई पड़ता है । पासादिकसुत ( दीघ. ३।६ ) और चूल मालुंक्य- सुत्त ( मज्झिम. २१२३) के समान ही इस संयुक्त की विषय-वस्तु है । ५ - महावग्ग १. मग्ग-संयुत्त -- आर्य अष्टाङ्गिक मार्ग ( सम्यक् दृष्टि, सम्यक् संकल्प, सम्यक् वाणी, सम्यक् कर्मान्त, सम्यक् आजीव, सम्यक् व्यायाम, सम्यक् स्मृति, सम्यक् समाधि) का पूरे विवरण के साथ वर्णन किया गया है। २. बोभंग-संयुत्त - परम ज्ञान ( बोधि ) के सात अङ्गों यथा स्मृति, धर्म - गवेषणा ( धम्मविचय) वीर्य, प्रीति, प्रश्रब्धि ( चित्त प्रसाद ) समाधि और . उपेक्षा का विस्तृत वर्णन किया गया है । ३. सतिपट्ठान - संयुक्त्त -- काया में कायानुपश्यी होना, वेदनाओं में वेदमानुपश्यी होना, चित्त में चित्तानुपश्यी होना और धर्मो ( पदार्थों) में धर्मानुपश्यी होना, इन चार स्मृति - प्रस्थानों (सतिपट्ठान ) का यहाँ दीघ' और मज्झिमनिकायों के समान शब्दों में विस्तृत वर्णन किया गया है । १. देखिये महासतिपट्ठान - सुत्त ( दीघ. २१९ ) २. सतिपट्ठान-सुत ( मज्झिम. १1१1१० ) Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७१ ) ४. इन्द्रिय-संयुत्त-श्रद्धा, वीर्य, स्मृति, समाधि और प्रज्ञा इन पाँच इन्द्रियों अथवा ज्ञान-शक्तियों का वर्णन है। ५. सम्मप्पधान-संयुत्त--जो चित्त-मल अभी उत्पन्न नहीं हुए हैं, उनकी उत्पत्ति को रोकना, जो चित्त-मल उत्पन्न हो चुके हैं उनको नष्ट करना, जो शुभ कर्म अभी उत्पन्न नहीं हुए हैं उनको उत्पन्न करना, जो उत्पन्न हो चुके हैं उनको बढ़ाना, इन चार सम्यक्-प्रधानों या शुभ प्रयत्नों का यहाँ विस्तृत वर्णन किया गया है। ६. बल-संयुत्त-श्रद्धा, वीर्य, स्मृति, समाधि और प्रज्ञा, इन पाँच वलों का वर्णन है। ७. इद्धिपाद-संयुत्त-इच्छा-शक्ति (छन्द), वीर्य, चित्त और मीमांसा (वीमंसा) इन चार ऋद्धिपादों या योग-सम्बन्धी विभूतियों का वर्णन है । ८. अनुरुद्ध-संयुत्त-शरीर, वेदना, मन और मानसिक धर्म, इन सब पर अद्भुत संयम प्राप्त कर किस प्रकार स्थविर अनिरुद्ध ने योग की विभूतियों को प्राप्त किया है, इसका वर्णन है। ९. झान-संयुत्त-ध्यान की चार अवस्थाओं का वर्णन है। वर्णन की भाषा बिलकूल वही है जो प्रथम दो निकायों में। किस प्रकार शील और सदाचार में प्रतिष्ठित होकर, एकान्त-वास का सेवन कर, साधक क्रमशः ध्यान की प्रथम, द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ अवस्थाओं को प्राप्त करता है, इसका त्रिपिटक में प्रायः समान शब्दों में अनेक बार वर्णन किया गया है।' संक्षेप में हम यही कह सकते हैं कि प्रथम ध्यान की अवस्था में वितर्क, विचार, प्रीति, सुख और एकाग्रता रहते। द्वितीय ध्यान की अवस्था में वितर्क और विचार का प्रहाण हो जाता है और केवल समाधि से उत्पन्न प्रीति और सुख रहते हैं। तृतीय ध्यान की अवस्था में प्रीति और सुख से भी उपेक्षा हो जाती है और साधक उपेक्षा और स्मृति के साथ ध्यान करने लगता है। चतुर्थ ध्यान में चूंकि सुख-दुःख, सौमनस्य, दौर्मनस्य पहले से ही अस्त हुए रहते हैं, अतः साधक न दुःख और न सुख वाले तथा स्मृति और उपेक्षा से शुद्ध, इस ध्यान को प्राप्त करता है। १. मिलाइये आनापान-सति सुत्त (मज्झिम. (३।२।८) Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७२ ) १०. आनापान-संयुत्त-भगवान् ने प्राणायाम या श्वास-प्रश्वास को नियमित करने का उपदेश दिया है और उसे मार्ग-प्राप्ति का सहायक माना है। __ सोतापत्ति-संयुत्त--स्रोतापत्ति अवस्था अर्थात् धर्म रूपी नदी की धारा में पड़ना, इसका वर्णन किया गया है। बद्ध-धर्म और संघ में जिसकी श्रद्धा और निष्ठा है वह सांसारिक लाभों की चिन्ता नहीं करता। वह इच्छा और द्वेष को छोड़कर फिर इस लोक में नहीं आता। सच्च-संयुत्त--चार आर्य सत्यों का वर्णन है। दुःख, दुःख-समुदय, दुःखनिरोध और दुःख-निरोध-गामिनी प्रतिपद्, इन चार आर्य सत्यों का उपदेश बद्ध-धर्म की प्रतिष्ठा है। प्रायः समान शब्दों में इन सम्बन्धी उपदेश का वर्णन त्रिपिटक में अनेक बार आया है। उपर्युक्त संक्षिप्त विवरण में यद्यपि वर्गों और संयुक्तों के क्रम से उनकी विषय-वस्तु का संक्षिप्त दिग्दर्शन करा दिया गया है, किन्तु उनके असंख्य सत्तों की वह सामग्री अभी बाकी ही बच रहती है जो उन्होंने बुद्ध, उनके जीवन, उनके उपदेश, इसी प्रकार बुद्ध-शिष्यों के जीवन और उपदेश, तत्कालीन धर्मोपदेष्टाओं और धार्मिक विचारों के साथ बुद्ध और उनके धम्म का सम्बन्ध, तत्कालीन ऐतिहासिक और भौगोलिक परिस्थिति, एवं इसी प्रकार के अन्य महत्त्वपूर्ण विषयों के सम्बन्ध में दी है। इन सम्बन्धी स्मृतियों का कुछ संक्षिप्त दिग्दर्शन करना यहाँ आवश्यक होगा। संयुत्त-निकाय के 'धम्म चक्क पवत्तनसत्त' में (जो विनय-पिटक-महावग्ग के इस सम्बन्धी वर्णन की पुनरुक्ति ही है) हम वाराणसी के ऋषिपतन मृगदाव (वर्तमान सारनाथ) में पञ्चवर्गीय भिक्षुओं को उपदेश करते देखते हैं। काम-वासनाओं में काम-लिप्त होना और काय-क्लेश में लगना, इन दो अतियों के त्याग एवं आर्य अष्टाङ्गिक मार्ग २. मिलाइये विशेषतः भयभेरव-सुत्त (मझिम. १२११४); द्वेधा वितक्क सुत्त (मज्झिम. १०२।९) महाअस्सपुर-सुत्त (मज्झिम. ११४१९); चूलहत्थिपदोपम सुत्त (मज्झिम. १।३।७ ; सामञफल सुत्त (दोघ. ११२); अम्बट्ठसुत्त (दोघ. १॥३); सोणदंड सुत्त (दीघ. ११४); कूटदन्त सुत्त (दीघ. ११५); महालिसुत्त (दीघ. ११५) पोट्ठपाद-सुत्त (दोघ. ११९) केवट्टसुत्त (दीघ. ११११) सुभ-सुत्त (दीघ. १।१०,; चक्कवत्तिसोहनाद सुत्त (दीघ. ३।३); संगीतिपरियायसुत्त (दीघ. ३१०) आदि, आदि । Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूपी मध्यम-मार्ग के आचरण तथा चार आर्य सत्यों का उपदेश देते यहाँ हम प्रथम वार भगवान् को देखते हैं। सळायतन-संयुत्त में (यहाँ भी विनय-पिटकमहावग्ग के समान ही) हम तथागत को भिक्षुओं को इस प्रकार सम्बोधित करते हुए देखते हैं "भिक्षुओ ! जितने भी मानुष और दिव्य पाश हैं, मैं उन सब से मुक्त हूँ। तुम भी दिव्य और मानुष पाशों से मुक्त होओ! भिक्षुओ! बहत जनों के हित के लिये, बहत जनों के सुख के लिये, लोक पर दया करने के लिये, देवताओं और मनुष्यों के प्रयोजन के लिये, हित के लिये, सुख के लिये विचरण करो। एक साथ दो मत जाओ ! भिक्षुओ! आदि में कल्याणकारी, मध्य में कल्याणकारी, अन्त में कल्याणकारी धर्म का उसके पूरे शब्दों और अर्थों के साथ उपदेश करते हुए सम्पूर्ण, परिशुद्ध ब्रह्मचर्य का प्रकाश करो । संसार में अल्प दोष वाले प्राणी भी हैं। धर्म के न श्रवण करने से उनकी हानि होगी। सुनने से वे धर्म के जानने वाले होंगे। भिक्षुओं ! मैं भी जहाँ उरुवेला और सेनावी गाँव हैं, वहाँ धर्म-देशना के लिये जाऊँगा।” सतिपट्ठान-संयुत्त के जरा-सुत्त में भगवान् की वृद्धावस्था का सजीव चित्र है। भगवान् अपराह्न में ध्यान से उठ कर धूप में बैठे हैं। आनन्द भगवान् को देखकर कहते हैं “आश्चर्य भन्ते ! अद्भुत भन्ते ! भगवान् के चमड़े का रंग उतना परिशुद्ध, उतना पर्यवदात (उज्ज्वल) नहीं है। अंग भी शिथिल हो गये हैं। पूरी काया में झुर्रियाँ पड़ी हुई हैं। शरीर आगे की ओर झुका है। आँख, कान, नाक आदि इन्द्रियों में भी विपरिणाम दिखाई पड़ता है ।" “आनन्द ! यह ऐसा ही होता है ! यौवन में जरा-धर्म है, आरोग्य में व्याधि-धर्म है। जीवन में मरण-धर्म है।" हम भगवान् और उनके उपस्थाक शिष्य के विमल मनुष्य-रूप को यहाँ देखते हैं। इसी निकाय के सकलिक-सुत्त में हम सूचना.पाते हैं कि भगवान् का पैर पत्थर के टुकड़े से विक्षत हो गया है और वे स्मृति-सम्प्रजन्य के साथ उसको सहन कर रहे हैं। इसी प्रकार सक्क-संयुत्त में अनाथपिडिक की दीक्षा एवं जेतवन-दान का वर्णन है। विनय-पिटक के चुल्लवग्ग में भी यही वर्णन आया है। संयुत्त-निकाय के भिक्खु-संयुत्त में हम सुचना पाते हैं कि कौशाम्बिक भिक्षुओं के दुर्व्यवहार के कारण भगवान् पात्र-चीवर ले बिना किसी भिक्षु को कहे अकेले ही पारिलेय्यक (पालिलेय्यक भी) नामक स्थान में एकान्त-वास के लिये चले गये हैं। संयुत्त-निकाय के 'उदायि-सत्त' में हम भगवान् और स्थविर उदायी का Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवाद देखते हैं जो शास्ता और शिष्य के सम्बन्ध के अलावा बुद्ध-धर्म के प्रारम्भिक स्वरूप पर भी पर्याप्त प्रकाश डालता है। “भन्ते ! पहले गृहस्थ रहते मुझे धर्म से बहुत लाभ न मिला था। किन्तु भन्ते ! आज मैंने धर्म को जान लिया। मुझे वह मार्ग मिल गया !” “साधु उदायी ! तुझे वह मार्ग मिल गया। जैसे जैसे तू इसकी भावना करेगा, वृद्धि करेगा, यह तुझे वैसे ही भाव को ले जायगा जिससे कि तू जानेगा “आवागमन क्षय हो गया, ब्रह्मचर्य-वास पूरा हो चुका, करना था सो कर लिया, अब कुछ करने को बाकी नहीं है।" भगवान् का अपने शिष्य भिक्षुओं के साथ कैसा अनुकम्पायमय सम्बन्ध था, इसका एक और उदाहरण इसी निकाय में देखिये। मग्ग-संयुत्त के चुन्द-सुत्त में हम चुन्द समणुदेस को भगवान् के पास धर्मसेनापति के परिनिर्वाण का सन्देश लाते देखते हैं। इसे सुनते ही आनन्द की क्या हालत होती है, यह उन्हीं के शब्दों में सुन लीजिए "आयुष्मान् सारिपुत्र परिनिर्वृत्त हो गये, यह सुन कर मेरा शरीर ढीला पड़ गया है, मुझे दिशाएँ नहीं सूझतीं, बात भी नहीं सूझ पड़ती।!" भगवान् सचेत करते हैं “क्यों आनन्द ! क्या मैने पहले ही नहीं कह दिया है कि सभी प्रियों से जुदाई होती है। इसलिये आनन्द ! आत्मदीप, आत्म-शरण, अ-परालम्बी होकर विहरो! धम्मदीप, धम्म-शरण, अपरालम्बी होकर विहरो।" इसी संयुत्त के उक्काचेल-सुत्त में सारिपुत्र के परिनिर्वाण के थोड़े दिन बाद ही भगवान को अपने द्वितीय प्रधान शिष्य महामौद्गल्यायन के भी परिनिर्वाण की सूचना मिलती है। सभी शिष्य अपने शास्ता के सहित स्मृति-सम्प्रजन्य के साथ इस दुःख को सहते हैं। एक दिन भगवान् गंगा की रेती में उक्काचेल नामक स्थान पर विहरे रहे हैं। भिक्षु-परिषद को विज्ञापित करने के लिये बैठते हैं किन्तु सर्व प्रथम ध्यान आता है अपने सद्यः परिनिवृत्त शिष्य सारिपुत्र और मौद्गल्यायन का। बुद्ध का मानवीय रूप फूट पड़ता है "भिक्षुओ ! सारिपुत्र और मौद्गल्यायन के बिमा मुझे यह परिषद् शून्य सी जान पड़ती है। जिस दिशा में सारिपुत्र-मौद्गल्यायन विहरते थे, वह दिशा किसी और की न चाहने वाली होती थी" इतना ही कह पाते हैं कि भगवान् का मानवीय रूप उनके बुद्ध-रूप में परिवर्तित हो जाता है और "भिक्षुओ! आश्चर्य है तथागत को! अद्भुत है तथागत को! इस प्रकार के शिष्यों की जोड़ी के परिनिर्वृत्त हो जाने पर भी तथागत को शोक-परिदेव नहीं है। ... भिक्षुओ ! जैसे महान् वृक्ष के खड़े रहते भी उसकी सारवाली Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७५ ) शाखाएँ टूट जायें, उसी प्रकार भिक्षुओ ! तथागत को भिक्षु-संघ के रहते भी सार वाले सारिपुत्र और महामौद्गल्यायन का परि-निर्वाण है । सो वह भिक्षुओ! कहाँ से मिले। जो कुछ उत्पन्न होने वाला है, सब नष्ट होने वाला है। इसलिये भिक्षुओ! आत्मदीप, आत्म-शरण, अनन्यशरण होकर विहरो, धर्म-दीप, धर्म-शरण, अनन्यशरण होकर विहरो।" शास्ता का मानवीय रूप और साथ साथ उनका बुद्धत्त्व यहाँ स्पष्टतम रूप में दिखाई पड़ता है। बुद्धधर्म की साधना इसी जन्म की साक्षात् अनुभूति के लिये है, यह तथ्य इस निकाय के संवहुल-सुत्त से भली प्रकार हृदङ्गम किया जा सकता है। एक ब्राह्मण आकर भिक्षुओं से कहता है “आप लोग वर्तमान को छोड़कर कालान्तर की ओर दौड़ रहे हैं। इस से तो यही अच्छा हो कि आप मानुष कामों का भोग करें।" भिक्षु उत्तर देते हैं “ब्राह्मण ! हम वर्तमान को छोड़कर कालान्तर की चीज के पीछे नहीं दौड़ रहे। बल्कि कालान्तर की चीज को छोड़कर ब्राह्मण ! हम तमान के पीछे दौड़ रहे हैं । ब्राह्मण ! भगवान् ने कामों को बहुत दुःख वाले, बहुत प्रयास वाले, बहुत दुष्परिणाम वाले, कालिक (कालान्तर) कहा है। किन्तु यह धर्म तो सांदृष्टिक के (वर्तमान में फल देने वाला) अ-कालिक, . यहीं साक्षात्कार किया जाने वाला, तह तक पहुँचाने वाला और प्रत्येक शरीर में अनुभव करने योग्य है।" अत्त-दीप सुत्त में हम आत्म-निर्भर होने का उपदेश पाते हैं, जिसकी पुनरावृत्ति भगवान् ने अनेक स्थलों पर की है और जो उनके धर्म के स्वरूप को समझने के लिये अति आवश्यक है। भगवान सब को प्रव्रज्या का ही उपदेश नहीं देते थे। बल्कि गृहस्थाश्रम में रह कर भी वे प्रमाद-रहित जीवन की सम्भावना मानते थे । ऐसा ही उन्होंने राजों (मकान बनाने वाले मजदूरों) से इसी निकाय के थपति-सुत्त में कहा भी है “स्थपतियो ! गृहवास बाधापूर्ण है, मल का आगमन-मार्ग है । प्रव्रज्या खुली जगह है। किन्तु स्थपतियो ! तुम्हारे लिये अप्रमाद से रहना ही उपयुक्त है।" ऐसा मालूम पड़ता है भगवान् के इस अप्रमाद-उपदेश को स्मरण कर के ही अशोक अपनी प्रजाओं को इतनी पुनरावृत्ति के साथ अ-प्रमाद, का जीवन बिताने को कहता है।' संयुत्त-निकाय में बुद्धकालीन भारत में प्रचलित धार्मिक सम्प्रदायों और उनके प्रधान आचार्यों एवं बुद्ध और १. देखिये आगे दसवें अध्याय में अशोक के अभिलेखों का विवरण । . Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनके धर्म के साथ उनके सम्बन्धों पर भी प्रकाश डालने वाले काफी वर्णन हैं। इस प्रकार संयुत्त-निकाय के खन्ध-संयुत्त में हम उस काल के छः प्रसिद्ध आचार्यों यथा पूर्ण काश्यप, मक्खली (मस्करी) गोशाल, संजय वेलिठ्ठिपुत्त, प्रक्रुधकात्यायन' आदि का वर्णन पाते हैं। इसी प्रकार मोग्गल्लान-संयत्त के असिबन्धकपुत्त-सुत्त और निगण्ठ-सुत्त से हमें बुद्ध-धर्म और तत्कालीन जैन धर्म के पारस्परिक सम्बन्ध के विषय में पर्याप्त सूचना मिलती है । तत्कालीन याज्ञिक ब्राह्मणों के यज्ञवाद और बुद्ध के नैतिक आदर्शवाद में क्या ऐतिहासिक सम्बन्ध है, और किस प्रकार एक के सामने दूसरे को झुकना पड़ा, यह देखने के लिये संयुत्त-निकाय का सुन्दरिक-भारद्वाज सुत्त अत्यन्त महत्वपूर्ण है। कोशलदेश में सुन्दरिका. नदी पर भारद्वाज नामक ब्राह्मण हवन कर रहा है। भगवान् भी उधर चारिका करते हुए निकल पड़ते हैं। वह उन्हें देख कर यज्ञ से बचा हुआ अन्न देना चाहता है, किन्तु पहले पूछता है “आप कौन जाति हैं ?" भगवान् का ज्ञान उभाड़ पाता है “जाति मत पूछ। आचरण पूछ। काठ से आग पैदा होती है। नीच कुल का भी पुरुष धृतिमान्, ज्ञानी, पाप-रहित मुनि हो सकता है। जो सत्य का आचरण करने वाला, जितेन्द्रिय और ज्ञान के अन्त को पहुंचा हुआ है और जिसने ब्रह्मचर्य-वास समाप्त कर लिया है, वह यज्ञ में उपनीत ही है और वह काल से दक्षिणा देने योग्य है। जो उसे देता है, वह दक्षिणाग्नि में ही हवन करता है ।" भारद्वाज को ऐसे उदारातिशय वचन सुन कर श्रद्धा उत्पन्न होती है। वह कहता है “निश्चय ही यह मेरा यज्ञ सुहुत है जो ऐसे ज्ञान को प्राप्त (वेदगू) पुरुष को मैंने देखा। तुम्हारे जैसे को न देखने से ही दूसरे जन हव्य-शेष खाते हैं। हे गोतम! आप भोजन करें। आप ब्राह्मण हैं।” भारद्वाज ब्राह्मण की यह बुद्ध-प्रशंसा दिखलाती है कि यज्ञवादी होते हुए भी ब्राह्मण ज्ञान और सदाचरण की प्रतिष्ठा को समझते थे और उसे देखकर उसके सामने नतमस्तक होना भी जानते थे। भारद्वाज ब्राह्मण का बुद्ध को ब्राह्मण तक मानने को उद्यत हो जाना और उनकी प्रशंसा करना उसकी उदारता का सूचक है। कुछ भी हो, यज्ञ को ही सर्वस्व मानने वाले १. सुत्त-पिटक के प्रक्रुध कात्यायन को डा० हेमचन्द्र रायचौधरी ने उप निषद् के कबन्धी कात्यायन से मिलाया है। देखिये उनका पोलिटिकल हिस्ट्री ऑव एशियेन्ट इन्डिया, पृष्ट २१ (तृतीय संस्करण, १९३२) Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७७ ) ब्राह्मणों को भी बुद्ध के ज्ञान यज्ञ का लोहा अवय मानना पड़ा । भारद्वाजं को उद्बोधित करते हुए भगवान् उसे कहते हैं "ब्राह्मण ! लकड़ी जला कर शुद्धि मन मानो। यह तो बाहरी चीज है । पंडित लोग उसमे शुद्धि नहीं बतलाते जो बाहर से भीतर की शद्धि है । ब्राह्मण ! मैं दारु-दाह छोड़ भीतर की ज्योति जलाता हूँ । नित्य आग वाला. नित्य एकान्त-चित्त वाला हो, में ब्रह्मचर्य - पालन करता हूँ । ब्राह्मण ! यह तेरा अभिमान खरिया का भार है, त्रोध धुवा है: मिथ्या भापण भस्म है, जिह्वा स्रुवा हूँ और हृदय ज्योति का स्थान है । आत्मा के दमन करने पर पुरुष को ज्योति प्राप्त होती है । ब्राह्मण ! गील तीर्थ सन्तजनों से प्रशंसित, निर्मल धर्म रूपी सरोवर है । इसी में वेद को जानने वाले (वेद) पुरुष नहाकर बिना भीगे गात्र के पार उतरते हैं । ब्रह्मप्राप्ति, सत्य, धर्म, संयम और ब्रह्मचर्य पर आश्रित हैं । तू ऐसे हवन किये हुआ को नमस्कार कर । मैं उनको पुरुषों को संयमी बनाने के लिये सारथी-स्वरूप कहता हूँ ।" इस प्रकार इस निकाय में हमें बुद्ध जीवन, बुद्ध और उनके शिष्य, एवं बुद्ध-धर्म और तत्कालीन अन्य धार्मिक साधनाओं के साथ उसके सम्बन्ध आदि के विषय में प्रभूत जानकारी मिलती है । वाला, ऐतिहासिक और भौगोलिक परिस्थितियों का भी इस निकाय में प्रथम दो निकायों की तरह काफी परिचय मिलता है । जहाँ तक राजनैतिक इतिहास का सम्बन्ध है, इस निकाय में कोशलराज प्रसेनजित् का वर्णन आया है। और मगध-राज अजातशत्रु के साथ उसके युद्ध, अजातयत्रु की पराजय और बाद में प्रसेनजित् की पुत्री वज्रा ( वजिरा) का उसमे विवाह और भेंट स्वरूप काशी- प्रदेश की प्राप्ति इन घटनाओं का विवरण पहले किया ही जा चुका है। कौशाम्बी- नरेश उदयन ( उदेन ) का भी यहीं वर्णन आया है । इसके अतिरिक्त लिच्छवि, कोलिय आदि क्षत्रिय राजाओं के जहाँ जहाँ वर्णन भरे पड़े है । भौगोलिक दृष्टि से राजगृह में वेलवन, सुंसुमार गिरि में भेसकलावन, वैशाली में महावन आदि वनों नेरंजरा, गंगा, यमुना आदि नदियों, मगध में गिरिव्रज और अवन्ती में कुररघर आदि पर्वतों, न्यग्रोधाराम ( कपिलवस्तु) कुक्कुटाराम ( पाटलिपुत्र ) आदि आगमों (भिक्षु निवामों), नालक ( मगध ) शाल (कोमल) वेळवार (कोमल) आदि ग्रामों, मगध, वज्जि, कोसल आदि प्रदेशों, और देवदह, कपिलवस्तु, साकेत आदि नगरों तथा अनेक कस्बों ( निगमों) के वर्णन भरे पड़े है, जो तत्कालीन भारतीय प्रदेशों और १२ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७८ ) उनके निवासियों के जीवन सम्बन्धी काफी महत्त्वपूर्ण ज्ञान को हमें प्रदान करते है। ई-अंगुत्तर-निकाय' अंगुत्तर-निकाय सुत्त-पिटक का चौथा बड़ा भाग है। बुद्ध-धर्म के जिस स्वरूप का ज्ञान हमें प्रथम तीन निकायों में मिलता है, वही अंगुत्तरनिकाय का भी विषय है । केवल अंगनर-निकाय की शैली में कुछ भिन्नता है। संख्याबद्ध शैली इस निकाय की सब से बड़ी विशेषता है । जैसा पहले दिखाया जा चुका है, सम्पूर्ण निकाय ग्यारह निपातों में विभक्त है, यथा एकनिपात, दुक-निपात, तिक-निपात, चतुक्क-निपात, पञ्चक-निपात, छक्कनिपात, सनक-निपात, अट्ठक-निपात, नवक-निपात, दमक-निपात तथा एकादसक-निपात। प्रत्येक निपात वर्गों में विभक्त है । ग्यारह निपातों की वर्गसंख्या क्रमश: इस प्रकार है (१) २१ वर्ग (२) १६ वर्ग (३) १६ वर्ग (४) २६ वर्ग (५) २६ वर्ग (६) १२ वर्ग (७) ९ वर्ग (८) ९ वर्ग (९) ९ वर्ग (१०) २२ वर्ग (११) ३ वर्ग। इस प्रकार ग्यारह निपात कुल १६९ वर्गों में विभक्त है। प्रत्येक वर्ग में अनेक सुत्त है, जिनकी कम से कम संख्या ७ और अधिक से अधिक २६२ है। कुल मिलाकर अंगुत्तर-निकाय में २३०८ सुत्त है। आकार में प्रायः संयुत्त-निकाय के सुत्तों के समान ही छोटे है और उन्हीं के समान उनका विषय भी कोई बुद्ध-प्रवचन या किसी के साथ हुआ बुद्धसंवाद है। अंगुत्तर-निकाय के प्रत्येक निपान में ऐसी संख्याओं से सम्बद्ध उपदेशों का संग्रह किया गया है जिनकी समता उक्त निपात की संख्या में है। इस प्रकार एकक-निपात में केवल उन उपदेशों का संग्रह है जिनका सम्बन्ध संख्या एक से हैं। इसी प्रकार दुक-नियात में केवल उन उपदेशों का संग्रह है जिनका सम्बन्ध संख्या दो से है। इस प्रकार उत्तरोतर बढ़ती हुई यह संख्या १. मॉरिस तथा हार्डी द्वारा पाँच जिल्दों में रोमन लिपि में सम्पादित, पालि टैक्स्ट सोसायटी द्वारा प्रकाशित , लन्दन १८८५-१९०० । छठी जिल्द में मेबिल हन्ट ने अनुक्रमणियाँ दी है । सिंहली लिपि मे देवमित्त का संस्करण, कोलम्बो १८९३, प्रसिद्ध है। बरमी और अन्य सिंहली संस्करण भी उपलब्ध है। हिन्दी में अभी कोई संस्करण या अनुवाद नहीं निकला। Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादसक-निपात तक पहुंच जाती है, जिसमें भगवान बुद्धदेव के उन उपदेशों का संग्रह है जिनके विषय का सम्बन्ध किसी न किसी प्रकार संख्या ग्यारह से है। यही कारण इस निकाय के अंगत्तर-निकाय (अंकोनर-निकाय) नामकरण का भी है। 'मिलिन्दपव्ह' में इसी निकाय का नाम ‘एकुत्तर-निकाय' (एकोत्तर-निकाय) भी कहा गया है। उसका भी यही अर्थ है। सर्वास्तिवादी सम्प्रदाय के संस्कृत-त्रिपिटक में भी यह निकाय एकोनरागम' के नाम से ही प्रसिद्ध था, यह उसके चीनी अनवाद से विदित होता है। अंगत्तर-निकाय की संख्या-बद्ध शैली उस के लिये कोई नहीं है। थोड़ी बहुत यह प्रत्येक निकाय में पाई जाती है। अत: उसके आधार पर इस संग्रह को प्रथम तीन निकायों की अपेक्षा काल-क्रम में बाद का ठहराना ठीक नहीं माना जा सकता। वास्तव में तो प्रत्येक निकाय में ही, वल्कि कहीं कहीं प्रत्येक मुत्त में ही, पूर्व और उत्तरकालीन परम्पराओं के साक्ष्य साथ साथ दिखाई पड़ते है । यही बात अंगुत्तर-निकाय में भी है। अत: गणनात्मक शैली की बहुलता होने के कारण ही अंगुत्तरनिकाय को बाद का संग्रह नहीं माना जा सकता। जैमा अभी कहा गया, गणनात्मक प्रणाली थोड़ी-बहुत मात्रा में प्रत्येक निकाय में पाई जाती है। दीघनिकाय के संगीति-परियाय-मुत्त और दसुत्तर-सुत्त एवं खुद्दक-निकाय के खुद्दकपाठ (कुमारपञ्ह) थेरगाथा, थेरीगाथा, इतिवृत्तक आदि में वस्तु-विन्यास संख्यात्मक वर्गीकरण को के शैली आधार पर ही किया गया है। बाद में चल कर अभिधम्म-पिटक में तो यह प्रणाली पूरे सात महाग्रंथों का ही आधार बन जाती है। चूंकि अंगत्तर-निकाय की अभिधम्म-पिटक से इस विषय में सब से अधिक समानता है, बल्कि उसके ग्यारह निपातों से अभिधम्म-पिटक के एक ग्रन्थ (पुग्गल पञत्ति) की तो सारी विषय-वस्तु ही निकाली जा सकती है, अंगुत्तर-निकाय के इस प्रकार वर्गीकृत बुद्ध-वचनों को उत्तरकालीन संग्रह नहीं माना जा सकता। जैसा हम पहले भी दिखा चुके है, बुद्ध-वचनों का संरक्षण, उस युग में , सुनने वालों की स्मति में ही किया जाने के कारण, उसकी सहायतार्थ संख्यात्मक संविधान की आवश्यकता पड़ती थी। इसलिये कभी कभी स्वयं शास्ता भी अपने उपदेशों में इस प्रकार के तत्त्व का संमिश्रण कर देते थे। १. पृष्ट ३५४ (बम्बई विश्वविद्यालय का देव-नागरी संस्करण) Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८० ) यह हम अंगुन्नर-निकाय के एकक-निपात के 'कजंगला-सत्त' में अच्छी प्रकार देख सकते है । कुछ उपासक कजंगला नामक भिक्षुणी के पास जाकर पुछते है "अय्या ! भगवान ने यह कहा है 'महा प्रश्नों में एक प्रश्न, एक उद्देश, एक उनर; दो प्रश्न, दो उद्देश. दो उत्तर . . . . . .दम प्रश्न, दम उद्देश, दस उन' ! भगवान के इस संक्षिप्त कथन का उत्तर किस प्रकार समझना चाहिये ? " कजंगला भिक्षुणी ने कहा “एक प्रश्न, एक उद्देन, एक उत्तर ! यह जो भगवान् ने कहा. वह इस कारण कहा । आवमो ! एक वस्तु में भिक्षु भली प्रकार निर्वेद को प्राप्त हो, भली प्रकार विराग को प्राप्त हो, भली प्रकार विरक्त हो, अच्छी प्रकार अन्तर्दी हो, इमी जन्म में दुःख का अन्त करने वाला हो। किम एक धर्म में ? 'सभी मत्व आहार पर निर्भर है। आवमो ! भगवान ने जो यह कहा 'एक प्रश्न, एक उद्देश, एक उत्तर ! वह इमी कारण कहा !" इसी प्रकार उत्तरोत्तर क्रम से बढ़ती हुई कजंगला भिक्षुणी दम प्रश्न, दस उद्देश, दम उनर (व्याकरण) तक की व्याख्या करनी है। गणनात्मक विधान होते हुए भी स्वयं उपदेश की गम्भीरता में कोई अन्तर यहाँ नहीं आता। यही बात विस्तार से हम अंगनर-निकाय में भी देखते है । चार आर्य सत्य, आर्य-अप्टाङ्गिक मार्ग, मात बोध्यङ्ग, चार सम्यक् प्रधान, पाँच इन्द्रिय आदि सभी मौलिक बुद्ध-उपदेश इमी संख्यात्मक तत्त्व की सुचना देते हैं। अंगत्तर-निकाय में केवल इसे उनके वर्गबद्ध स्वरूप में प्रस्तुत करने का आधार मान लिया गया है। अतः निश्चित है कि इसके अनेक मत्त या अंश जो पिछले निकायों में अनेक प्रसंगों में आ चुके है, यहाँ संख्यात्मक प्रणाली को पूर्णता देने के लिये फिर रख दिये गये है। उदाहरणत: चार आर्य सत्यों और आर्य अष्टाङ्गिक मार्ग सम्बन्धी उपदेश विनय-पिटक के महावग्ग तथा संयुत्त-निकाय के 'धम्मचक्क पवत्तन-मुन' में स्वभावत: वाराणसी में दिये हुए उपदेश के रूप में अंकित है, किन्तु अंगनर-निकाय में चार आर्य सन्यो सम्बन्धी उपदेश चतुक्क-निपात और आर्य अष्टाङ्गिक मार्ग सम्बन्धी उपदेश अटक-निपात में मंगहीत है। अतः यह बहुत सम्भव है कि कुछ स्थलों में अंगुनर-निकाय के मत्त दीप और मज्झिम निकायों के परिवर्तित, विभक्त अथवा संक्षिप्त स्वरूप ही हों। किन्तु अधिकतर म्थों में वे मौलिक ही है और १. इनकी सची के लिये देखिये पालि टैक्स्ट सोमायटी द्वारा प्रकाशित अंगुनरनिकाय, जिल्द पाँचवों, पष्ठ ८ (भमिका) Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८१ ) उनकी उपयक्तता उनके मंख्यात्मक स्वम्प में वहाँ अमंदिग्ध भी है। अंगत्तर. निकाय, जैमा हम अभी देखेंगे वह और उनके धम्म और विनय के सम्बन्ध में कुछ ऐसी भी सचना देता है जो प्राचीन भी है और साथ ही माथ अन्य निकायों में भी नहीं मिलती । पूनमक्तियाँ आर संख्यात्मक विवरण विशेषत: पाश्च त्य विद्वानों को बड़े अचिकर प्रतीत हुए है, अत: उन्होंने अंगुनर-निकाय के वास्तविक मूल्यांकन करने में बड़ी कृपणता दिखाई है । माहित्यिक और ऐतिहासिक दृष्टियों से अंगुनर-निकाय का स्थान दीघ, मज्झिम और संयुक्त निकायों के साथ ही है और उसमें भी, केवल कुछ कुत्रिम वर्गीकरण में, बुद्ध के जीवन और उपदेशों की वही माक्षात सम्पर्क मे प्राप्त स्मतियाँ उपलब्ध होती है, जमी प्रथम तीन निकायों में । यह हम उसकी विषय-वस्तु के विवरण से अभी देखेंगे। अंगनर-निकाय की विषय-वस्तु का चाहे जितना विस्तृत विवरण दिया जाय वह उमकी वास्तविक विभति को नहीं दिखा सकता। इमका कारण यह है कि केवल संख्यात्मक सुचियों का संकलन ही अंगुत्तर-निकाय नहीं है । अंगुत्तरनिकाय को केवल संगीति-परियाय-सुत्त (दीघ.३।१०) या दमुत्तर-सुत्त (दीघ. ३।११) का ही विस्तुत रूप समझ लेना एक भारी भ्रम होगा। इसमें सन्देह नहीं कि अंगनर-निकाय के एक मे लेकर ग्यारह निपातों की विषय-वस्तु का स्वरूप वहाँ किमी न किमी प्रकार उनके अनरूप संख्या से सम्बन्धित है, जैसे कि १. एकक-निपात---एक धर्म क्या है ? इसी प्रकार के प्रश्नोत्तर के अनेक रूप। २. दुक-निपात--दो त्याज्य वस्तुएँ, दो प्रकार के ज्ञानी पुरुष, दो प्रकार के वल, दो प्रकार की परिषदें, दो प्रकार की इच्छाएँ, आदि, आदि। ३. तिक-निपात--तीन प्रकार के दुष्कृत्य (कायिक, वाचिक, मानसिक) तीन प्रकार की वेदनाएँ (सम्वा. दुःखा, न-सुखा-न-दुःखा), आदि, आदि। ४. चतुवक-निपात--चार आर्यमत्य, चार ज्ञान, चार श्रामण्य-फल, चार ममाधि, चार योग, चार आहार, आदि, आदि। ५. पञ्चक-निपात--पाँच अङ्गों वाली ममाधि, पाँच उपादान-स्कन्ध, पाँच इन्द्रियां, पाँच निम्मरणीय धातु, पांच धर्मस्कन्ध, पाँच विमक्ति-आयतन आदि आदि। Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८२ ) ६. छक्क-निपात--छ: अनुस्मृति-स्थान, छ: आध्यात्मिक आयतन, छ: अभिजेय आदि, आदि। ७. मनक-निपात--सात सम्बोध्यङ्ग, सात अनुगय, मात मध्दर्म, मात संज्ञाएँ, सात मत्पुरुष-धर्म आदि, आदि । ८. अट्ठक-निपात--आर्य अष्टाङ्गिक-मार्ग. आठ आरब्ध वस्तु, आठ अभिभ-आयतन, आट विमोक्ष, आदि, आदि। ९. नवक-निपात--नव तृष्णामूलक, नव सत्वावास, आदि, आदि । १०. दसक-निपात--दस तथागत-वल, दम आर्य-वास आदि, आदि । ११. एकादसक-निपात--निर्वाण-प्राप्ति के ग्यारह उपाय, आदि, आदि । किन्तु इस उपर्युक्त सूची मात्र मे अंगत्तर-निकाय के विषय या उसके महत्त्व को नहीं समझा जा सकता। उसके लिये हमें उद्धरणों से उसके विषय की मूल बुद्ध-वचनों के रूप में प्रामाणिकता और बुद्ध-कालीन इतिहास के लिये उसके महत्त्व को हृदयङ्गम करना होगा। पहले एकक-निपात को ही लीजिये। धम्म-विनय की दृष्टि से ही अंगुत्तर-निकाय के प्रथम निपात में उद्धृत इस बुद्ध-वचन को देखिये "नाहं भिक्खवे ! अञ्ज एक धम्मपि समनुपस्सामि यो एवं महेतो अनत्थाय संवनति, यदिदं भिवखवे पापमित्तता । पापमित्तता भिक्ग्ववे महतो अनत्थाय संवननि।" इसका अर्थ है "भिक्षुओ। मैं किसी भी दूसरी चीज को नहीं देखता जो इतनी अधिक अनर्थकर, हो, जितनी पाप-मित्रता । भिक्षओ! पाप-मित्रता बहत अनर्थकारी है ।" जो दीघ, मज्झिम और संयत्त निकायों में निहित वुद्ध-वचनों की आत्मा और बाह्याभिव्यक्ति से परिचित हैं वे यहाँ उनकी अपेक्षा कुछ विभिन्नता नहीं देख सकते। अतः केवल इसीलिये कि संगीतिकारों ने कुछ बुद्ध-वचनों को संख्याबद्ध वर्गीकरण में बाँधकर रख दिया है, उनकी मौलिकता या महत्ता में कोई अन्तर नहीं आता। अंगत्तर-निकाय की सब सामग्री अन्य निकायों मे भी ली हुई नहीं है, बल्कि उममें बहुत सी ऐसी भी सूचना है जो अन्यत्र कहीं नहीं मिलती। इसका भी एक उदाहच्ण एकक-निपात के ही 'एतदग्गवग्ग' के उस महत्त्वपूर्ण विवरण में पाते हैं, जिसमें बताया गया है कि भगवान् बुद्ध के किम-किम भिक्ष, भिक्षणी, उपासक, या उपासिका, ने माधना के किस-किम विभाग में दक्षता या विशेषता प्राप्त की थी। महापंडिन गहुल मांकृत्यायन द्वारा अनुवादित इस अंग को, Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८३ ) उसके ऐतिहासिक महत्त्व के कारण, यहाँ पूर्णतः उद्धृत करना ही उपयुक्त होगा, "ऐसा मैने सुना--एक समय भगवान् थावस्ती में अनाथपिडिक के आराम जेतवन में विहार करते थे। . . . . . . भगवान् ने भिक्षुओं को सम्बोधित किया, (१) भिक्षओ ! मेरे रक्तज (अनुरक्त) भिक्षु धावकों में यह आजाकौण्डिन्य अग्र (श्रेष्ठ) है। (२) महाप्रजों में यह मारिपुत्र अग्र है (३) ऋद्धिमानों में यह महामौद्गल्यायन अग्र है (४) धतवादियों (अवधत-व्रतों का का अभ्यास करने वालों) में यह महाकाश्यप अग्र है (५) दिव्यचक्षुकों में यह अनिरुद्ध अग्र है। (६) उच्च-कुलीनों में यह भद्दिय कालिगोधा-पुत्र अग्र है। (७) मंज स्वर मे धर्म उपदेश करने वालों में यह लंकुटिक-भट्टिय अग्र है। (८) मिहनाद करने वालों में यह पिंडोल भारद्वाज अग्र है (९) धर्मउपदेश करने वालों में यह पूर्ण मैत्रायणी पुत्र अग्र है (१०) मंक्षिप्त धर्मोपदेश को विस्तृत रूप से समझाने वालों में यह महाकात्यायन अग्र है। (११) मनोमय काय निर्माण करने वालों में यह चुल्ल पंथक अग्र है। (१२) संज्ञा-विवर्तचतुरों में यह महापंथक अग्र है । (१३) अरण्य विहारियों में यह मुभूति अग्र है; दान-पात्रों में भी यह मभूति अग्र है । (१४) आरण्यकों में यह रेवत खदिर वनिय अग्र है । (१५) ध्यानियों में यह कंखा-रेवत अग्र है। (१६) आरब्ध-वीर्यों में यह सोण कोडिवीम (गोणकोटिविंश) अग्र है । (१७) सुवक्ताओं में यह मोण कुटिकण्ण अग्र है। (१८) लाभ पाने वालों में यह मीवली अग्र है । (१९) श्रद्धावानों में यह वक्कली अग्र है। (२०) शिक्षा-कामों (भिक्ष-नियम के पाबन्दों में) यह राहुल अग्र है। (२१) श्रद्धा से प्रवृजितों में यह राष्ट्रपाल अग्र है। (२२) प्रथम गलाका ग्रहण करने . वालों में यह कुंडधान अग्र है। (२३) प्रतिभा वालों में यह वंगीश अग्र है। (२४) समन्त प्रामादिकों (सब ओर मे मुन्दरों) में यह उपमेन वंगन्तपुत्त अग्र है। (२५) शयनासन-प्रजापकों (गृह-प्रबन्धकों) में यह दब्ब मल्लपुत्त अग्र है। (२६) देवताओं के प्रियों में यह पिलिन्द वात्स्य-पुत्र अग्र है । (२७) क्षिप्राभिज्ञों (प्रवर वृद्धियों) में यह बाहिय दारुचीग्यि अग्र है। (२८) चित्र कथिकों (विचित्र वक्ताओं) में यह कुमार काश्यप अग्र है। (२९) प्रतिसंवित्-प्राप्तों में यह महाकोठित (महाकोष्ठित) अग्र है। (३०) बहुश्रतों में, गतिमानों में, स्थितिमानों में. यह आनन्द अग्र है। (३१) महापरिषद् वालों में यह उम्वेल-काश्यप अग्र है। (३०) कूल-प्रमादकों (कुलों को प्रसन्न Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करने वालों ) में यह काल-उदायी अग्र है। (३३) अल्पाबावों (निरोगों) में यह वक्कूल अग्र है। (३४) पूर्व-जन्म स्मरण करने वालों में यह शोभित अग्र है। (३५) विनय-घरों में यह उपालि अग्र है। (३६) भिक्षणियों के उपदेशकों में यह नन्दक अग्र है। (३७) जितेन्द्रियों में यह नन्द अग्र है। (३८) भिक्षुओं के उपदेशकों में यह महाकप्पिन अग्र है। (३९) नेज-धातु-कुशलों में यह स्वागत अग्र है। (४०) प्रतिभागालियों में यह राध अग्र है (४१) मक्ष चीवरधारियों में यह मोघराज अग्र है। (४२) भिक्षुओ ! मेरी रक्तज भिक्षणीश्राविकाओं में महाप्रजापनि गोतमी अग्र है । (४३) महाप्राजाओं में खेमा अग्र है (४४) ऋद्धिमतियों में उत्पलवर्णा अग्र है । (४५) विनय धारण करने वालियों में पटाचारा अग्र है। (४९) धर्मकथिकाओं में धम्मदिन्ना अग्र है। (४७) ध्यानियों में नन्दा अग्र है। (४८) आरब्धवीर्यायों में मोणा अग्र है। (४९) क्षिप्राभिजाओं में भद्रा कुंडल केशा अग्र है (५०) पूर्व जन्म की अनुस्मृति करने वालियों में भद्रा कापिलायिनी अग्र है। (५१) महा-अभिज्ञाप्राप्तों में भद्रा कात्यायनी। (५२) मक्ष चीवरधारिणियों में कृणा गौतमी (५३) श्रद्धा-युक्त भिक्षुणियों में श्रृगाल-माता। (५५-५६) भिक्षुओ! मेरे उपासक श्रावकों में प्रथम शरण आने वालों में तपम्म और भल्लुक वणिक अग्र हैं । (५७) दायकों में अनाथ-पिडिक मदन गृहपति अग्र है । (५८) धर्मकथिकों (धर्मोपदेप्टाओं) में मच्छिकापण्डवामी चित्र गृहपति अग्र है। (५९) चार संग्रह-वस्तुओं मे परिषद् को मिलाकर रखने वालों में हस्तक आलवक अन है। (६०) उत्तम दायकों में महानाम शाक्य अग्र है। (६१) प्रिय. धायकों में वैशाली का निवासी उग्र गृहपति अग्र है । (६२) संघ-सेवकों में उद्गत (उग्गत) गृहपति अग्र है। (६३) अन्यन्त प्रसन्नों में शूर अम्बष्ट अग्र है । (६४) व्यक्तिगत प्रमन्नों में जीवक कौमार भून्य अग्र है। (६५) विश्वासकों में नकुल-पिता गृहपति अग्र है। (६६) भिक्षुओ ! मेरी उपासिका श्राविकाओं में प्रथम शरण आने वालियों में सेनानी दुहिता सुजाता अग्र है। (६७) दायिकाओ में विशाखा मृगारमाना अग्र है । (६८) बहुश्रुताओं में खुज्जुनरा (कुब्जा उनग) अग्र है । (६९) मंत्री विहार प्राप्त करने वालियों में सामावती (श्यामावती) अग्र है। (७०) ध्यानियों में उत्तरा नन्दमाता अग्र है। (७१) प्रणीत दायिकाओं में मप्रवामा कोलिय-दुहिता अग्र है। (७०) गेगी की मेवा करने वालियों में मप्रिया उपामिका अग्र है। (७३) Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८५ ) arta प्रसन्नों में कात्यायनी अग्र है । ( ७४) विश्वामिकाओं में नकुल-माता गृहपत्नी अग्र है । ( ७५) अनुश्रव प्रसन्नों में कुरर घर में व्याही काली उपासिका अग्र है । " भगवान बुद्ध देव के प्रधान गिप्य - गिप्याओं का यह विवरण, जिसमें उनके भिक्षु, भिक्षुणी, उपासक और उपानिका सभी कोटि के पुरुष और स्त्री माधक-साधिकाओं के नाम है. बद्ध-धर्म और संघ के इतिहास की दृष्टि से कितना महत्त्वपूर्ण है. इसके कहने की आवश्यकता नहीं । धर्म, साहित्य और इतिहास की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण इस प्रकार की प्रभुत सामग्री अंगुत्तरनिकाय में भरी पड़ी है। दुक निपात के इस सुन्दर भाव-पूर्ण बुद्ध वचन को लीजिये, "हे मे भिक्खवे असनिया फलन्तिया न मन्तसन्ति । कतमे हे ? भिक्खू च खीणामवो, मीहोच मिगराजा । इमे खो भिवखवे अमनिया फ्लन्तिया न मन्नमन्तीति ।" अर्थात् “भिक्षुओ ! बिजली कड़कने पर दो ही प्राणी नहीं चौंक पड़ते हैं। कौन से दो ? श्रीणाम्रव भिक्षु और मृगराज सिंह | भिक्षुओ ! यही दो बिजली कड़कने पर चौंक नहीं पड़ने ।" इस प्रकार के अर्थ- गर्भित उपदेश जिनकी मौलिक्ता और स्वभाविकता में उनका संख्यावद्ध विन्यास को क्षति नही पहुंचाता, अंगुत्तर निकाय में भरे पड़े हूँ । तिक-निपान के भरंडुमुन में हम भगवान् को बुद्धत्त्व प्राप्ति के बाद अपने पन्द्रहवें वर्षा - वाम में, कपिलवस्तु में विचरते देखते हैं । महानाम वाक्य उनका सत्कार करता है । भगवान् नगर मे बाहर भरंड - कालाम नामक अपने पूर्व म ब्रह्मचारी के आश्रम में एक रात भर ठहरते हैं। रात के वीतने पर महानाम शाक्य फिर उनकी सेवा में उपस्थित होता है। भगवान उसे उपदेश देते है " महानाम ! लोक में तीन प्रकार के शास्ता विद्यमान है। कौन से तीन ? ( १ ) यहाँ एक शास्ता महानाम ! कामों के त्याग का उपदेश करते हैं, किन्तु रूपों और वेदनाओं के त्याग को प्रज्ञापित नहीं करते ( २ ) कामों और रूपों के त्याग का उपदेश १. बुद्ध चर्या, पृष्ठ ४६७-४७२ ( कुछ अल्प शाब्दिक परिवर्तनों के साथ) २. "क्षीणाaa भिक्षु नहीं चौंक पड़ता है क्योंकि उसका 'अहंभाव ' बिलकुल निरुद्ध हुआ रहता है । मृगराज सिंह नहीं चौंक पड़ता है, क्योंकि उसका 'अहंभाव ' अत्यन्त प्रबल होता है; चौंकने के बदले वह और गरज उठता है कि कौन दूसरा उसकी बराबरी करने आ रहा है । 'भिक्षु जगतीश काश्यपः पालि महाव्याकरण, पृष्ठ चवालीस ( वस्तुकथा ) में | 37 Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८६ ) करते है किन्तु वेदनाओं के त्याग को प्रजापित नहीं करते (३) कामों के त्याग को भी, रूबों के त्याग को भी और वेदनाओं के त्याग को भी प्रज्ञापित करते है। महानाम ! लोक में यही तीन प्रकार के शास्ता है।" अंगुत्तर-निकाय के चतुक्कनिपात के केम-पुत्निय-मत्त में हम बद्धके बुद्धिवादी दृष्टिकोण को स्पष्टतः देखते हैं। कोसल-प्रदेश में चारिका करते करते भगवान् केसपुन नामक निगम (कस्बे) में, जो कालाम नामक क्षत्रियों का निवास स्थान था, पहुँचते हैं। कालाम क्षत्रिय भगवान् को हाथ जोड़-जोड़ कर एक ओर चुपचाप बैठ जाते हैं। वे भगवान् से विनम्रता के माथ पूछते है “भन्ते ! कोई-कोई श्रमण-ब्राह्मण केमपुत्त में आते है। वे अपने ही मत की प्रशंसा करते हैं, दूसरे के मत की निन्दा करते हैं, उसे छुड़वाते हैं। भन्ते ! दूसरे भी कोई-कोई श्रमण-ब्राह्मण केमपूत्त में आते हैं और वे भी वैमा ही करते है। तब भन्ते । हमको संगय अवश्य होता है, कौन इन आप श्रमण-ब्राह्मणों में मच कहता है, कौन झूठ ?” कालामों का प्रश्न ऐमा है जो दुनिया के धार्मिक इतिहास में हर युग में और हर व्यक्ति के हृदय में आता है। अतः कालामों के प्रश्न का महत्त्व सब काल के मनप्य के लिये ममान रूप से है। भगवान ने जो उत्तर दिया है, वह उसमे भी अधिक विश्वजनीन महत्ता लिये हुए है। भगवान् कहते हैं “कालामो ! तुम्हारा संशय ठीक है। मंगय-योग्य स्थान में ही तुम्हें मंशय उत्पन्न हआ है। आओ कालामो ! मन तुम अनुश्रव मे विश्वास करो, मत परम्परा से विश्वास करो। 'यह ऐमा ही है' इम मे भी तुम मत विश्वास करो। कालामो ! मान्य गास्त्र की अनुकलता (पिटक-मम्प्रदाय) मे भी तुम विश्वास मत करो। मत तर्क मे, मत न्याय-हेतु मे, मत वक्ता के आकार के विचार मे, मत अपने चिर-धारित विचार के होने मे, मत वक्ता के भव्य रूप होने से, मत 'श्रमण हमारा गुरु है' इस भावना से, कालामो ! मत इन मव कारणों से तुम विश्वास कगे! बल्कि कालामो ! जब तुम अपने ही आप जानो कि ये धर्म अकुशल हैं, ये धर्म सदोष है, ये धर्म विज-निन्दित हैं, ये ग्रहण करने पर अहित, दुःख के लिये होंगे, तो कालामो! तुम उन्हें छोड़ देना। . . . . . . इसी प्रकार कालामो ! जब तुम अपने ही आप जानो कि ये धर्म कुशल हैं, ये धर्म निर्दोष है, ये धर्म विज्ञ-प्रशंसित हैं, ये ग्रहण कर लेने पर मुख और कल्याण के लिये होंगे, तो कालामो ! तुम उन्हें प्राप्त कर विहरो।" इस प्रकार पात्रता की उपयुक्न भमि तैयार कर बाद में तथागत कालामों को विज्ञापित करते है "तो क्या मानते हो कालामो ! पृरुप के भीतर Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८७ ) उत्पन्न हुआ लोभ (राग) हित के लिये होता है या अहित के लिये ?” “अहित के लिये, भन्ते !” “पुरुष के भीतर उत्पत्र हुआ द्वेष . . . . ..हित के लिये या अहित के लिये ?” “अहित के लिये, भन्ते।" "मोह?' “अहित के लिये, भन्ते !" "तो क्या मानते हो कालामो ! ये धर्म (गग, द्वेप, मोह) मदोष हैं या निर्दोष ?" "सदोष, भन्ते !" "प्राप्त करने पर अहित के लिये, दुःख के लिये हैं या नहीं?" “ग्रहण करने पर भन्ले ! अहित के लिये हैं, ऐसा हमें लगता है।'' बुद्ध की उठाने वाली आदेश ना होती है "तो कालामो ! तुम इन्हें छोड़ दो।" इसी प्रकार अ-लोभ, अद्वेष, अमोह को हित, दुख का कारण समझा कर भगवान् कालामों को उन्हें ग्रहण करने की प्रेरणा करते हैं। किमी भी विश्वास को मानने या न मानने की अपेक्षा के बिना ही स्वयं सदाचार का जीवन सम्पूर्ण आश्वासनों से किस प्रकार आश्वस्त है, इसे समझाते हुए भगवान कहते हैं, “कालामो ! जो आर्य माधक (श्रावक) अ-वैर-चिन, अ-व्यापन्न-चिन, अ-संक्लिष्ट-चित्त (विशद्धि-चित्त) है, उमको इमी जन्म में चार आश्वासन (आश्वासन) मिले रहते है, (१) यदि परलोक है, यदि सकृत-दुष्कृत कर्मो का फल है, तो निश्चय ही मै काया छोड, मरने के बाद, सुगति, स्वर्ग-लोक में उत्पन्न होऊँगा, यह उसे प्रथम आश्वास प्राप्त रहता है। (२) यदि परलोक नहीं है, यदि सुकृत-दुष्कृत कर्मों का फल नहीं है. तो इमी जन्म में, इसी समय, अ-बैग्-चित्त, अ-व्यापन्न-चित्त, अ-संक्लिप्टचिन, अपने को रखता हूँ, यह उसको द्वितीय आश्वास प्राप्त रहता है। (३) यदि काम करते पाप किया जाये, तो भी में किसी का बुरा नहीं चाहता, बिना किये फिर पाप-कर्म मुझे क्यों दुःख पहुंचायेगा। यह उमे तीसरा आश्वास प्राप्त रहता है। (४) याद करते हुए पाप न किया जाय, तो इस समय मैं दोनों से ही मुक्त अपने को देखता है। यह उमे चौथा आश्वास प्राप्त हुआ रहता है।" यह उपदेश न केवल बद्ध के नैतिक आदर्शवाद और विचार-स्वातन्त्र का बल्कि भगवान् की उपदेश-प्रणाली का भी अच्छा सूचक है। अंगत्तर-निकाय की एक बड़ी विशेषता यह है कि वहाँ भिक्षु-धर्म (भिक्ख-विनय) के साथ-साथ गृहस्थ-धर्म (गिहि-विनय) का भी उपदेश दिया गया है। चतुक्क-निपात के वेरंजक-ब्राह्मण-सुत्त में भगवान् मथग और वेरंजा के बीच के रास्ते में गृहस्थों को विज्ञापित करते हुए दिखाई देते है, “गृहपतियो ! चार प्रकार के मंवास होते है। कौन से चार ? (१) गव शव के साथ संवास करता है (२) गव देवी के साथ मंवाम करता है (३) देव शव के माथ संवाम करता है (४) Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८८ ) 1 I देव देवी के साथ संवास करता है । कैसे गृहपनियो ! शव शव के साथ संवाम करता है ? यहाँ गृहपतियो ! पति हिंसक चोर, दुराचारी, झूठा, नगाबाज, दुःशील, पाप-धर्मा, कंजूसी की गन्दगी से लिप्त चित्तवाला, श्रमण-ब्राह्मणों को दुर्वचन कहने वाला हो, इस प्रकार गृह में वास करता हो और उसकी भार्या भी उमी के समान हिमक, चोर, दुराचारिणी.. श्रमण-ब्राह्मणों को दुर्वचन कहने वाली हो। उस समय गृहपतियो ! गव गव के साथ संवास करता कैसे गृपतियो ! गव देवी के साथ संवास करता हूँ ? गृहपतियो ! पति हिंसक, चोर, दुराचारी... श्रमण-ब्राह्मणों को दुर्वचन कहने वाला हो, किन्तु उसकी भाव अ-हिंसा-रन चोरी रहित, सदाचारिणी, सच्ची, नशा - विरत, सुशीला, कल्याण-धर्म-युक्त, मल-मात्मर्य- रहित, श्रमण-ब्राह्मणों को दुर्वचन न कहने वाली हो. तो गृहपतियो ! शव देवी के साथ संवास करता है। कैसे गृहपतियो ! देव ाव के साथ संवास करता है ? गृहपतियो । पति हो अहिंसारत, चोरी-रहित, सदाचारी उसकी भार्या हो हिमा-रत चोर, दुगचारिणो ....पतियो देव शव के साथ संवास करता है । कैसे गृहपतियो ! देव देवी के साथ संवास करता है ? गृहपतियो ! पति अहिंसारत, चोरी-रहित, सदाचारी..... 1. उसकी भार्या भी अहिंसा-रत, चोरी-रहित, सदाचारिणी. गृहपतियो ! देव देवी के साथ संवास करता है ।" इसी प्रकार एकादस - निपान के महानाम-सुत्त में हम भगवान् को महानाम शाक्य के प्रति जो गृहस्थ था, बुद्ध, धर्म, संघ आदि की अनुस्मृति करने का उपदेश देते हुए देखते हैं "महानाम !" तुम चलने भी भावना करो, खड़े भी, लेटे भी, कर्मान्तिक ( खेती आदि) का अधिष्ठान (प्रबंध) करते भी, पुत्रों से घिरी शय्या पर भी ।" बुद्ध ने गृहस्थ, भिक्षु, सब के लिये अप्रमाद या सतत पुरुषार्थ पर कितना अधिक जोर दिया. यह हमने दीघ, मज्झिम और संयुत्त निकायों के विवरण में देखा है । अंगुत्तरनिकाय के छक्कक निपात के पधानीयसुत में भी हम भगवान को भिक्षुओं के प्रति यही उपदेश करते देखते हैं। श्रावस्ती मैं अनाथपिंडिक के जेतवन- आगम में कुछ नये प्रविष्ट भिक्षु सूर्योदय तक खर्राटे ले मो रहे हैं । भगवान् भिक्षुओं को विज्ञापित करते हैं, “भिक्षुओ ! सूर्योदय तक खर्राटे मार कर सोते हो। तो क्या मानते हो भिक्षुओ ! क्या तुमने देखा या सुना है सूत्रभक्ति (अभिषेक प्राप्त) क्षत्रिय राजा को इच्छानुसार गयन-सुख. सर्शनल, आलस्य-सव के साथ विहार करते और जीवन पर्यन्त राज्य करते या Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८१ ) देश का भला होते?" "नहीं भन्ते !” “साध भिक्षओ ! मन भी नहीं देखा। नो क्या मानते हो भिक्षुओ ! क्या तुमने देखा है या मना है, गयन-सख, स्पर्श-सख. आलस्य-सुग्व से यक्त, इन्द्रियों के द्वारों को सुरक्षित न रखने वाले भोजन की मात्रा को न जानने वाले, जागरण में अ-नत्पर, कुशल धर्मों की विपश्यना (माक्षाकार) न करने वाले, गत के पहले और पिछले पहर में जगकर बोधि-पक्षीय धर्मों की भावना न करने वाले, किसी भी श्रमण या ब्राह्मण को चित्त-मलों के क्षय से प्राप्त निर्मल चिन की विमुक्ति या प्रज्ञा-विमुक्ति को इसी जन्म में स्वयं साक्षात्कार कर, स्वयं जान कर, स्वयं प्राप्त कर विहरते ?" "नहीं भन्ते !” “साधु भिक्षुओ ! मैने भी नहीं देखा। तो भिक्षुओ! तुम्हें ऐसा सीखना चाहिये----इन्द्रिय-द्वार को सरक्षित रक्तूंगा। भोजन की मात्रा को जानने वाला होऊँगा। जागने वाला, कुशल कर्मों की विपश्यना करने वाला, रात के पहले और पिछले पहरो में वोधिपक्षीय धर्मों की भावना करने वाला, इस प्रकार में साधना में लग्न रह कर विहांगा। भिक्षओ ! तुम्हे ऐमा सीखना चाहिये।" अंगत्तर-निकाय के अठक-निपात के पजावती-पबज्जा-सत्त में महाप्रजापती गोतमी की प्रव्रज्या का विलकुल उन्ही शब्दों में वर्णन है, जैसा विनयपिटक के चुल्लवग्ग में। कपिलवस्तु के न्यग्रोधाराम में भगवान् के विहार करते समय महाप्रजापती गोतमी भगवान् के पास आकर उनसे प्रार्थना करती है, "भन्ते ! अच्छा हो, यदि मातग्राम (मात-समह-~-स्त्रियां) भी तथागत-प्रवेदित धर्म-विनय में प्रव्रज्या पावें ।" भगवान् ने उत्तर दिया, "गोतमी ! मत तुझे यह रुचे कि स्त्रियां तथागत-प्रवेदित धर्म-विनय में प्रवज्या पावें ।" महाप्रजापती दु:खी, दुर्मना, अधमुखी होकर चली गई। बाद में वह वैशाली में भगवान के पास पहुंची। वहाँ आनन्द ने स्त्री-जाति की ओर बोलते हुए भगवान् से निवेदन किया, “भन्ते ! महाप्रजापती गोतमी फुले पैरों, धूल भरे शरीर मे. दुःखी, दुर्मना, अथमवी रोती हुई द्वार-कोष्ठक के बाहर खड़ी है । भन्ते ! स्त्रियों को प्रव्रज्या की आज्ञा मिले।" "आनन्द ! मत तुझे यह रुचे।" आनन्द ने तथागत-प्रवेदित धर्म की मूल आत्मा को लेकर ही कहा, "भन्ते ! क्या तथागत-प्रवेदित धर्म में घर से वे घर प्रत्रजित हो, स्त्रियाँ स्रोत-आपत्ति-फल, मकृदागामि-फल. अनागामि-फल, अर्हत्त्व-फल को साक्षात कर सकती है ?" भगवान् को कहते देर न लगी, “साक्षात् कर सकती है, आनन्द ! ' बम प्रजापती गोतमी और आनन्द की इच्छा को पूरी होते देर न लगी। भगवान ने आट गर-धम्मों Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९० ) (जिनके कारण ही इस प्रसंग को यहाँ अंगुत्तर-निकाय के इस निपात में स्थान मिला है) के पालन करने की शर्त लेकर महाप्रजापती को प्रव्रज्या ग्रहण करने की आज्ञा दे दी। उसी समय से अन्य भी स्त्रियाँ भिक्षुणियाँ हुई और बाद में एक अलग भिक्षुणी-संघ ही बन गया। किन्तु स्त्रियों को प्रव्रज्या की अनुमति देते समय भगवान् ने चेतावनी भी दी, जिसे बद्ध-धर्म के बाद के इतिहास ने सम्भवतः सच्चा भी प्रमाणित कर दिया है “आनन्द ! यदि तथागत-प्रवेदित-धर्म-विनय में स्त्रियाँ प्रव्रज्या न पातीं, तो यह ब्रह्मचर्य चिर-स्थायी होता, सद्धर्म सहस्र वर्ष ठहरता। किन्तु चूंकि आनन्द ! स्त्रियाँ प्रवजित हुई, अव सद्धर्म चिरस्थायी न होगा, सद्धर्म अब पाँच सौ वर्ष ही ठहरेगा।. . . . . .आनन्द ! जैसे आदमी पानी की रोक-थाम के लिये, बड़े तालाव को रोकने के लिये, मेंड़ वाँधे, उसी प्रकार आनन्द । मने रोक-थाम के लिये भिक्षुणियों को जीवन-भर अनुल्लंघनीय आठ गरु-धर्मों में प्रतिष्ठापित किया।" इसी प्रसंग में यहाँ यह भी कह देना अप्रासङ्गिक न होगा कि आनन्द किस प्रकार स्त्री-जाति के समर्थन में अपने युग से वहत आगे थे, इसकी भी सूचना हमें इस निकाय में मिलती है। स्त्रियों को प्रव्रज्या दिलाने में उन्होंने महाप्रजापती गोतमी की किस कुशलता के साथ सहायता की, यह हम अभी देख ही चुके है। हम एक बार उन्हें (चतुक्क-निपात में) भगवान् से यह तक पूछते देखते हैं, “भन्ते! क्या कारण है कि स्त्रियाँ परिषदों में स्थान नहीं पातीं, स्वतन्त्र उद्योग नहीं करतीं, स्वावलम्बन का जीवन नहीं वितातीं ?" हम जानते हैं कि आनन्द को अपने इन सब विचारों के कारण ही प्रथम संगीति में क्षमा-याचना करनी पड़ी। मनुष्यता के नाते आज आनन्द इसीलिये हमारे लिये अधिक प्रिय बन गये हैं, उस समय के लोगों ने चाहे जो सोचा हो। अंगुत्तर-निकाय में इस प्रकार बुद्ध के शिष्यों के स्वभाव और जीवन पर प्रकाश डालने वाली प्रभुत सामग्री मिलती है। प्रवज्या ग्रहण करने के बाद प्रजापती गोतमी इसी निकाय (अट्ठक-निपात) में भगवान् से पूछती है "भन्ते ! अच्छा हो यदि भगवान् संक्षेप से मुझे धर्म का उपदेश करें, ताकि मै उसे मन कर, प्रमाद-रहित हो, आत्म-संयम कर जीवन में विचरूं ।" भगवान् का उत्तर बद्ध-धर्म के उदार मन्तव्य को समझने के लिये इतना महत्वपूर्ण है कि उसको उद्धृत करने का लोभ संवरण नहीं किया जा सकता। “गोतमी ! जिन बातों को तु जाने कि ये बातें सराग के लिये है, विगग के लिये नहीं, संयोग के लिये हैं वियोग के लिये नहीं, संग्रह के लिये हैं, असंग्रह के लिये नहीं, इच्छाओं को बढाने Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के लिये है, घटाने के लिये नहीं, असन्तोप के लिये हैं, सन्तोष के लिये नहीं, भीड़ के लिये हैं, एकान्त के लिये नही, अनद्योगिता के लिये है, उद्योगिता के लिये नही, कठिनाई के लिये हैं, मुगमता के लिये नहीं, तो तू गोतमी ! सोलहो आने जानना कि वह न धर्म है, न विनय है, न शास्ता का शासन है। किन्तु गोतमी ! जिन बातों को तू जाने कि वे विराग के लिये है, सगग के लिये नहीं . . . . . इच्छाओं को घटाने के लिये हैं, बढ़ाने के लिये नहीं . . . . . .सुगमता के लिये है कटिनाई के लिये नहीं, तो गोतमी ! तू मोलहो आने जानना वही विनय है, वही शास्ता का शासन है।" सत्तक-निपात में भगवान् बुद्ध का ब्रह्मचर्य-सम्बन्धी गम्भीर उपदेश है जो अपनी सूक्ष्मता और मार्मिकता में अद्वितीय है। उसे यहाँ उद्धृत करना उपयोगी सिद्ध होगा। "ब्राह्मण ! यहाँ कोई एक श्रमण या ब्राह्मण सम्यक् ब्रह्मचारी होने का दावा करता है और वह स्त्री के साथ प्रत्यक्ष सहवाम नहीं भी करता, किन्तु वह स्त्री के द्वारा (स्नान-चूर्ण आदि) उबटन किये जाने, मले जाने, स्नान कराये जाने और मालिग किये जाने को स्वीकार करता है । वह उसमें रस लेता है, उसकी इच्छा करता है, उसमें प्रमन्नता अनुभव करता है। ब्राह्मण ! यह भी ब्रह्मचर्य का टूटना है, छिद्रयुक्त होना है, चितकबरा होना है, धब्बेदार होना है। ब्राह्मण! इम पुरुष के लिये कहा जायगा कि वह मैथुन (स्त्री-सहवास) से युक्त होकर ही मलिन ब्रह्मचर्य का सेवन कर रहा है। वह मनुष्य जन्म से, जरा से, मरण से नहीं छूटता ...... नहीं छूटता दुःख से भी--मैं कहता हूँ। पुनः ब्राह्मण ! यहाँ एक श्रमण या ब्राह्मण सम्यक् ब्रह्मचारी होने का दावा करता है और वह स्त्री के साथ प्रत्यक्ष सहवास नहीं भी करता और न स्त्री के द्वारा अपने उबटन आदि किये जाने को ही स्वीकार करता है, किन्तु वह स्त्री के साथ हँसी-मजाक करता है, क्रीड़ा करता है, खेलता है, वह उसमें रस लेता है . . . . . . दुःख से नहीं छूटता--मै कहता हूँ। पुनः ब्राह्मण ! यहाँ एक श्रमण या ब्राह्मण सम्यक् ब्रह्मचारी होने का दावा करता है और वह स्त्री के साथ प्रत्यक्ष सहवास नही भी करता, उसके द्वारा उबटन आदि किये जाने को भी स्वीकार नही करता, उसके साथ हमी मजाक भी नहीं करता, किन्तु वह स्त्री को आँख गड़ाकर देखता है, नजर भर कर देखता है, वह उसमें रस लेता है . . . . . . दुःख से नहीं छूटता Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैं कहता हूँ। पुनः ब्राह्मण ! यहाँ एक श्रमण या ब्राह्मण सम्यक् ब्रह्मचारी होन का दावा करता है और वह न प्रत्यक्ष स्त्री के साथ सहवास करता, न उसमे उबटन आदि लगवाना, न उसके साथ हमी-मजाक करता, न उसे आंख गड़ाकर देखना, किन्तु वह दीवार या चहारदीवारी की ओट से छिपकर स्त्री के शब्दों को मुनता है, जब कि वह हँस रही हो, या बात कर रही हो, या गा रही हो, या रो रही हो, वह उममें रम लेता है . . . . . . दुःख से नहीं छूटता-मैं कहता हूँ। पुनः ब्राह्मण ! यहाँ एक श्रमण या ब्राह्मण सम्यक् ब्रह्मचारी होने का दावा करता है और वह न स्त्री के साथ प्रत्यक्ष महवाम करता, न स्त्री मे उबटन लगवाता, न उसके साथ हंसी-मजाक करता, न उसको नजर भर कर देखता है जब कि वह गा रही हो या रो रही हो. किन्तु वह अपने उन हमी-मजाकों, सम्भाषणों और क्रीड़ाओं को स्मरण करता है जो उसने पहले स्त्री के साथ की थीं, वह उनमें ग्म लेता है . . . . . . दुःख मे नहीं छूटता-मैं कहता हूँ। पुनः ब्राह्मण ! यहाँ एक श्रमण या ब्राह्मण सम्यक् ब्रह्मचारी होने का दावा करता है और वह न स्त्री के साथ प्रत्यक्ष सहवाम करता, न स्त्री से उबटन लगवाता, न उसके साथ हमी-मजाक करता, न उमको आंग्ख गड़ा कर देखता, न उसके साथ किये हुए अपने पुगने हंसी-मजाकों, सम्भाषणों और क्रीड़ाओं आदि को ही स्मरण करता है, किन्तु वह किसी गृहस्थ या गृहस्थ-पुत्र को पूरी तरह पाँच प्रकार के (शब्द, स्पर्श, रूप, रम, गन्ध सम्बन्धी) विषयों में समर्पित, संयक्त हो, विलास करते देखता है, वह उममें ग्म लेता है . . . . . .दुःख मे नहीं छूटता--मै कहता है। पुनः ब्राह्मण ! यहाँ एक श्रमण या ब्राह्मण सम्यक् ब्रह्मचारी होने का दावा करता है और न वह न स्त्री के माथ प्रत्यक्ष महवाम करता, न स्त्री से उबटन लगवाता, न उसके साथ हंसी-मजाक करता. न उसको आँख गड़ाकर देखता, न उसके साथ किये हुए अपने पुगने हंसी-मजाकों को स्मरण करता, न किसी गृहस्थ या गृहस्थ-पुत्र को कामासक्त होकर मुख-विहार करते देव कर प्रसन्न होता, किन्तु वह किसी देव-योनि में जन्म लेने की अभिलापा से ब्रह्मचर्य का आचरण करता है और मोचता है कि इस प्रकार के शील, तप, व्रत या ब्रह्मचर्य मे में देव हो जाऊंगा या देवोंमें कोई, वह इममें ग्म लेता है, इसकी इच्छा करता है, इसमें प्रमन्नता अनभव करता है । ब्राह्मण ! यह भी ब्रह्मचर्य का वंडित Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९३ ) हो जाना है, टूट जाना है, छिद्र-युक्त हो जाना है, चितकबरा हो जाना है, धब्बेदार हो जाना है। इसीलिये कहा जाता है कि इस प्रकार के ब्रह्मचर्य का आचरण करने वाला पुरुष मलिन मैथुन के संयोग से यक्त ब्रह्मचर्य का ही आचरण करता है और वह जन्म मे, जरा से, मरण से नहीं छूटना, नहीं छूटता दुःख से-म कहता है।" साधना के इतिहास में इसमे गम्भीर प्रवचन ब्रह्मचर्य पर नहीं दिया गया। तथागत-प्रवेदित धर्म-विनय के वास्तविक स्वरूप को समझने के लिये कितनी महत्त्वपूर्ण और प्रामाणिक सामग्री हमें अंगुत्तर-निकाय में मिलती है, इसका कुछ दिग्दर्शन किया जा चुका है। तत्कालीन इतिहास की झलक भी उसमें कितनी मिलती है, यह अब हमें देखना है। सिंह सेनापति (लिच्छवि सरदार ) वुद्ध-यग का एक आकर्षक व्यक्ति है ।' अट्ठक-निपात में हम सिंह सेनापति को भगवान् से भेंट करते हुए देखते है । सिंह पहले निगण्ठों (निर्ग्रन्थों-जैन साधुओं) का शिष्य रहा है वह अपनी कुछ आपत्तियों को लेकर भगवान् बुद्ध के पास आता है । वह उन्हें पूछता है कि वे कहाँ तक अक्रियावादी, उच्छेदवादी है या नहीं। भगवान् एक-एक कर उसको बतला देते हैं कि किन-किन अर्थों में उनको ऐसा (अक्रियावादी,उच्छेदवादी आदि) कहा भी जा सकता है । सिंह सेनापति संतुष्ट होकर उपामक बनना चाहता है। भगवान् उसे कहते है "सिंह! सोच-समझ कर करो। तुम्हारे जैसे सम्भ्रान्त मनप्यों का सोच-समझ कर निश्चय करना ही अच्छा है।" सिंह मेनापति जब अपनी दृढ़ श्रद्वा दिखाता है तो भगवान् उसे उपासक के रूप में स्वीकार कर लेते है, किन्तु चूंकि वह पहले निर्ग्रन्थों का शिष्य रहा है और वे उससे दान पाते रहे हैं, इसलिये उदार शाम्ता सिंह को यह भी आदेश देना नहीं भूलते, “सिंह ! तुम्हारा कुल दीर्घ-काल मे निगंठों के लिये प्याऊ की तरह रहा है। उनके आने पर उन्हें पहले की ही तरह तुम्हारे घर से दान मिलता रहना चाहिये।" बुद्ध के विरुद्ध किस प्रकार मिथ्या प्रचार किया जाता था इसका विवरण हम इमो निकाय के वेरंजक-मुत्न में पाते है । वेरंजक नामक ब्राह्मण भगवान् के पाम जाकर कहता है, “हे गोतम ! मैने सना है कि आप गोतम अ-रस १. देखिये महापंडित राहुल सांकृत्यायन का सिंह सेनापति' शीर्षक उपन्यास । Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९४ ) रूप है .....आप गोतम निर्भोग .....आप गोतम अक्रियावादी है .....आप गोतम उच्छेदवादी है.....आप गोतम जुगुप्मु (घृणा करने वाले) है........आप गोतम वैनयिक (हटाने वाले) है......आप गोतम तपस्वी है...आप गोतम अपगर्भ है । भगवान् उसे बताते है कि उन्हें किस-किस अर्थ में ऐसा कहा भी जा सकता है।" उदाहरणतः “ब्राह्मण ! मै काया के दुराचार, वाणी के दुराचार, मनके दुराचार को अक्रिया कहता हूँ । अनेक प्रकार के पाप कर्मों को मैं अ-क्रिया कहता हूँ। यही कारण है ब्राह्मण ! जिसमे 'श्रमण गोतम अक्रियावादी है'। ऐमा कहा जा सकता है .........ब्राह्मण ! मैं राग, द्वेप, मोह के उच्छेद का उपदेश करता हूँ। अनेक प्रकार के पाप-कर्मों का उच्छेद कहता हूँ। 'श्रमण गोतम उच्छेदवादी है' ऐमा कहा जा सकता है। ...... ब्राह्मण ! जिसका भविष्य का गर्भ-शयन, आवागमन नष्ट हो गया, जड़मूल से चला गया, उसको मैं अपगर्भ करता हूँ। ब्राह्मण ! तथागत का गर्भशयन, आवागमन, नष्ट हो गया. जड़-मूल से चला गया। 'श्रमण गोतम अपगर्भ है', ऐसा कहा जा सकता है,” आदि, आदि । यहीं भगवान् अपनी जीवनी का भी कुछ वर्णन करने लगते है, "ब्राह्मण ! इस अविद्या में पड़ी, अविद्या रूपी अंडे से जकड़ी प्रजा में, मैं अकेला ही अविद्या रूपी अंड को फोड़ कर, अनुत्तर सम्यक् सम्बोधि को जानने वाला हूँ। मैं ही ब्राह्मण ! लोक में ज्येष्ठ हूँ, अग्र है। मैने न दवने वाला वीर्यारम्भ किया था, विस्मरण-रहित स्मति मेरे सम्मख थी, अचल और शान्त मेरा शरीर था, एकाग्र समाहित चित्त था। ...... ब्राह्मण ! उम प्रकार प्रमाद-रहित, तत्पर, आत्म-संयम-युक्त होकर विहरते हुए, मुझे रात के पहले याम में, पहली विद्या प्राप्त हुई, अविद्या नष्ट हुई, विद्या उत्पन्न हुई, तम नष्ट हुआ, आलोक उत्पन्न हुआ। ब्राह्मण ! अंडे से। मर्गी के बच्चे की तरह यह पहली फट हुई। फिर ब्राह्मण ! रात के बीच के याम में द्वितीय विद्या उत्पन्न हुई. . . . . .गत के पिछले याम में तृतीय विद्या उत्पन्न हई । अविद्या नष्ट हुई, विद्या उत्पन्न हुई। तम गया, आलोक उत्पन्न हुआ। ब्राह्मण ! अंडे मे मुर्गी के बच्चे की तरह यह तीसरी फूट हुई।" कोगल-गज प्रमेनजिन् बुद्ध का श्रद्धावान् उपासक था, यह हम मंयत्त निकाय में देख चुके है । मज्झिम-निकाय (वाहीतिक-मुत्त) में हमने प्रगेन Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९५ ) जित् और आनन्द का संवाद भी देखा हे। अंगुनर-निकाय के कोसल-मत्त में हम उमे बुद्ध के प्रति अतीव श्रद्धा और प्रेम प्रदर्शित करते हुए देखते हैं। श्रावस्ती में भगवान के दर्शनार्थ वह जाता है। जेतवन-आराम के द्वार पर ही वह भिक्षुओं से भगवान् के दर्शन-विषयक अपनी इच्छा को प्रकट करता है। "महाराज ! यह द्वार-वन्द कोठरी है, चुपके से धीरे धीरे वहाँ जाकर बरामदे में प्रवेश कर, खाँस कर जंजीर को खटखटा देना। भगवान् तुम्हारे लिये द्वार खोल देंगे।' भगवान् ने द्वार खोल दिया। "विहार में प्रविष्ट हो प्रमेनजित् भगवान् के पैरों में गिरकर, भगवान् के पैरों को मुख से चूमता था, हाथ से पैरों को दवाता था और अपना नाम सुनाता था 'भन्ते ! मैं राजा प्रसेनजित् कोसल हूँ।" "महाराज! तुम किस बात को देखकर इस शरीर में इतनी मैत्री का उपहार दिखाते हो?" "भन्ते ! कृतज्ञता, कृतवेदिता को देखते हुए मैं भगवान् की इस प्रकार की परम सेवा करता हूँ, मैत्री उपहार दिखाता हूँ। भन्ते ! भगवान् बहुत जनों के हित, बहुत जनों के सख के लिये हैं"। अंगुत्तर-निकाय में हम देखते हैं कि मगधराज अजातशत्रु वज्जियों के गण-तन्त्र के विरुद्ध अभियान करना चाहता है। भगवान् जिस समय राजगृह में गृध्रकूट-पर्वत (गिज्झकूट पब्बत) पर विहर रहे थे, उसने अपने मन्त्री वर्षकार (वस्सकार) नामक ब्राह्मण को उनमे इस सम्बन्ध में पूछने के लिये भेजा था । सोलह महाजन-पदों का इस निकाय में विशेष वर्णन है ।' इन सोलह महाजन पदों के नाम है अंग, मगध, काशी, कोशल, वज्जि, मल्ल, चेति, वंस, कुरु, पंचाल (पांचाल), मच्छ (मत्स्य), सूरसेन (शूरसेन), अस्सक (अश्वक-अश्मक), अवन्ती, गन्धार और कम्बोज । ये सभी नाम उन प्रदेशों के निवासियों (जनों) के सूचक है। गणतन्त्र-प्रणाली की यह मुख्य विशेषता थी। भौगोलिक दृष्टि से भी इस निकाय के अनेक वर्णन बड़े महत्त्व के है। उदाहरणत: यहाँ गंगा, यमुना, अचिरवती, सरभू (सरयू) और मही इन पाँच बड़ी नदियों का वर्णन है। इसी प्रकार भंडगाम (वज्जि-प्रदेश) इच्छामंगल (कोगल) आदि ग्रामों, केमपुत्त (कालाम नामक क्षत्रियों का कस्बा) १. अंगुत्तर-निकाय, जिल्द पहली, पृष्ठ २१३, जिल्द चौथी, पृष्ठ २५२, २५६, २६०, आदि (पालि टैक्स्ट सोसायटी का संस्करण) Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९६ ) कुसीनारा ( मल्ल - प्रदेश में), नलकपान ( कोशल ), कम्मासदम्म ( कुरु- प्रदेश ) आदि कस्बों और श्रावस्ती, कौशाम्बी, पाटलिपुत्र आदि अनेक नगरों के वर्णन हैं जो बुद्ध-कालीन भारत के वातावरण को आज भी हमारे लिये सजीव बनाते है । उ - खुद्दक निकाय खुद्दक निकाय के स्वरूप की अनिश्चितता । - खुद्दक निकाय सुत्त-पिटक का पाँचवाँ मुख्य भाग है । पहले चार निकायों की सी एकरूपता यहाँ नहीं मिलती। खुद्दक निकाय छोटे-छोटे ( खुद्दक ) स्वतन्त्र ग्रन्थों का संग्रह ( निकाय) है । सभी ग्रन्थ छोटे भी नहीं हैं । कुछ तो ( जैसे जातक आदि ) काफी बड़े भी है । भाषा-शैली में भी समानता नहीं है । कुछ विशुद्ध पद्यात्मक और कुछ गद्य-पद्य मिश्रित रचनाएँ हैं । काव्य, आख्यान, गीत, यही खुद्दक निकाय के विषय हैं । निश्चयतः खुद्दक निकाय के विषय और शैली की सब से बड़ी विशेषता उसकी विविधरूपता ही है । जैसा अंशत: दूसरे अध्याय में दिखाया जा चुका है, वर्गीकरण के भेद से खुद्दक निकाय की ग्रन्थ-संख्या में भी पर्याप्त भेद पाया जाता है । सुत्तपिटक के अङ्ग के रूप में सामान्यतः खुद्दक-निकाय सुत्तपिटक का एक अङ्ग है । इस रूप में खुद्दक निकाय में पन्द्रह ग्रन्थ सम्मिलित हैं, जिनकी गणना नीचे लिखे क्रम से आचार्य बुद्धघोष ने की है - -- १ खुद्दक पाठ २ धम्मपद ३ उदान ४ इतिवृतक ५ सुन - निपात ६ विमानवत्थु '७ पेतवत्थु ८ थेरगाथा १ थेरी गाथा १० जातक १. सुमंगल विलासिनी, भाग प्रथम, पृष्ठ १७ ( पालि टैक्स्ट सोसायटी का संस्करण ) Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९७ ) ११ निद्देस १४ बुद्धवंस १२ पटिसम्भिदामग्ग १५ चरियापिटक १३ अपदान निद्देस के दो भाग चलनिद्देम और महानिद्देस है। उनको दो स्वतंत्र ग्रन्थ मान कर गिनने मे उपर्युक्त ग्रन्थ-संख्या १६ हो जाती है। किन्तु स्थविरवादी वौद्ध परम्परा १५ ही ग्रन्थ मानती है। "पण्णरसभेदो खुद्दक-निकायो"। आचार्य बुद्धघोष ने हमें सूचना दी है कि प्रथम संगीति के अवसर पर मज्झिमनिकाय का मंगायन करने वाले (मज्झिम-भाणक) भिक्षु उपर्युक्त १५ ग्रन्थों को सत्त-पिटक के अन्तर्गत खुद्दक-निकाय में मम्मिलिन मानते थे।' खुद्दक-निकाय अभिधम्म-पिटक के अन्तर्गत भी किन्तु एक दूसरी परम्परा उसी समय से खुद्दक-निकाय को सुत्त-पिटक के अन्तर्गत मानने के विपक्ष में थी। यह दीघ-निकाय का संगायन करने वाले (दीघ-भाणक) भिक्षुओं की परम्परा थी। ये भिक्षु खुद्दक-निकाय को सुत्तपिटक के अन्तर्गत न मान कर उसे अभिधम्म-पिटक के अन्तर्गत मानते थे। ग्रन्थ-संख्या के विषय में भी मतभेद था। इन्हें खुद्दक-निकाय के सिर्फ निम्नलिखित ११ ग्रन्थ, जिन्हें वे खुद्दक-ग्रन्थ कहते थे मान्य थे। आचार्य बुद्धघोष ने इन ग्रन्थों की सूची इस प्रकार दी है २--- १ जातक ७ इतिवृत्तक २ निद्देस ८ विमानवत्थु ३ पटिसम्भिदा मग्ग ९ पेतवत्थु ४ सत्त-निपात १० थेरगाथा .. ५ धम्मपद ११ थेरीगाथा ६ उदान १. मझिमभाणका पन . . . . . सबपि तं खुद्दक-गन्धं सुतन्तपिटके परिया पणं ति वदन्ति । सुमंगलविलासिनी की निदानकथा । २. ततो परं जातक. . . . . थेर-थेरी गाथाति इमं तन्तिं संगायिन्वा 'खुद्दक Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९८ ) उपर्युक्त सूची से स्पष्ट है कि चरियापिटक, अपदान, बुद्धवंस और खुद्दकपाठ, ये चार ग्रन्थ खुद्दक-निकाय के ग्रन्थों के रूप में दीघ-भाणक भिक्षुओं को मान्य नहीं थे। वास्तव में खुदक-निकाय को मुत्त-पिटक के अन्तर्गत न मानना दीघ-भाणक भिक्षुओं का इतना साहमिक कृत्य नहीं था जितना वह हमें आज लगता है। प्रथम संगीति के अवसर पर ही हम आर्य महाकाश्यप को आनन्द से पूछते हुए देखते हैं “सुत्त-पिटक में चार मंगीतियाँ (संग्रह) हैं। इनमें से पहले किसका संगायन करना होगा ?"१ इससे स्पष्ट है कि पहले सुत्त-पिटक को चार भागों में ही विभाजित कग्ने की प्रणाली थी। बाद में स्वतन्त्र ग्रन्थों का एक अलग संग्रह कर दिया गया, जिसकी न तो ग्रन्थ-संख्या का ही ठीक निश्चय हो सका और न जिसे निश्चयपूर्वक मुत्त-पिटक या अभिधम्म-पिटक में ही रक्खा जा सका। खट्टक-निकाय के अनिश्चित स्वरूप का यही कारण है। अभिधम्म-पिटक खुद्दक-निकाय के अन्तर्गत भी किन्तु इस अनिश्चितता का यहीं अन्त नहीं है। समग्र बुद्ध-वचनों का जब पाँच निकायों में वर्गीकरण किया जाता है, तो वहाँ भी खुद्दक-निकाय पाँचवाँ भाग है। किन्तु वहाँ इमका विषय-क्षेत्र बहुत विस्तृत है। दीघ, मज्झिम, संयुत्त और अंगनर निकायों को छोड़कर बाकी सभी बुद्ध-वचन जिनमें पूरे विनय और अभिधम्म पिटक भी सम्मिलित हैं, वहाँ खुद्दक-निकाय के ही अन्तर्गत समझे जाते हैं। खुद्दक-निकाय के इस विस्तृत विषय-क्षेत्र के सम्बन्ध में 'सुमंगलविलासिनी' की निदान-कथा में कहा गया है “क्या है खुद्दक-निकाय ? सम्पूर्ण विनय-पिटक, सम्पूर्ण अभिधम्म-पिटक, खुद्दक-पाठ आदि १५ ग्रन्थ , सारांश यह कि चार निकायों को छोड़कर बाकी सभी बुद्ध-वचन खुद्दक-निकाय हैं।"३ गन्थो' नाम अयं ति च वत्वा अभिधम्मपिटकस्मिं येव संगहं आरोयिसूति दोघभाणका वदन्ति । असालिनी की निदान-कथा। १. सुत्तन्त-पिटके चतस्सो संगीतियो, तासु पठमं कतरं संगीतिन्ति । अट्ठसालिनी की निदान-कथा। २. कतमो खुटुक-निकायो ? सकलं विनय-पिटकं अभिधम्म-पिटकं खुदक- . Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निकाय की दृष्टि से यहाँ अभिधम्म-पिटक को खद्दक-निकाय में ही सम्मिलित कर दिया गया है, केवल पिटक के रूप में उसकी स्वतन्त्र सत्ता अवश्य स्वीकार की गई है। इसका अभिप्राय उपर्युक्त वर्गीकरणों को ध्यानपूर्वक देखने से विदित होगा कि उनमें खुदक-निकाय और अभिधम्म-पिटक को एक दूसरे में मिला दिया गया है। इसका अभिप्राय क्या है ? ऐतिहासिक दप्टि मे यह तथ्य बड़े महत्व का है। 'अभिधम्म' धम्म का, सत्त-पिटक का, परिशिष्ट है । 'अभिधम्म' में 'अभि' शब्द यही रहस्य लिय वैठा है, यह हम आगे देखेंगे। प्रथम चार निकायों के अतिरिक्त जो कुछ भी बद्ध-वचन है, वे इम विस्तत अर्थ में सभी अभिधम्म है, 'अतिरिकत' धम्म है। खुद्दक-निकाय के ग्रन्थ इसी प्रकार के अतिरिक्त धम्म है । अतः उन्हें 'अभिधम्म' के माथ उपर्युक्त अर्थ में मिला दिया गया है। इस तथ्य से खुद्दक-निकाय के ग्रन्थों के संकलन-काल पर भी पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। सिंहल, बरमा और स्याम में खुदक-निकाय की ग्रन्थ-संस्था के विषय में विभिन्न मत सिंहलदेशीय परम्परा खुद्दक-निकाय के अन्तर्गत १५ ग्रन्थों को (जो निद्देस को दो ग्रन्थ मान कर १६ हो जाते है) मानती है। बरमा में इनके अतिरिक्त चार अन्य ग्रन्थ भी खुद्दक-निकाय में सम्मिलित माने जाते हैं। इनके नाम हैं, मिलिन्द-पञ्ह, सुत्न-संगह, पेटकोपदेस और नेत्ति या नेत्ति-पकरण । सिंहली परम्परा इन्हें खुद्दक-निकाय के अन्तर्गत स्वीकार नहीं करती। १८९४ ई० में पाठादयो च पुब्बे निदस्सितपंचदसभेदा, ठापेत्वा चत्तारो निकाये अवसेसं बुद्ध-वचनं ति । सुमंगलविलासिनी, भाग प्रथम, पृष्ठ २३ (पालि-टै० सो०); मिलाइये अट्ठसालिनी, पृष्ठ २८ (पालि० टै० सो०); गन्धवंस, पृष्ठ ५७ (जर्नल ऑव पालि टैक्सट सोसायटी, १८८६) १. अयं अभिधम्मो पिटकतो अभिधम्मपिटकं, निकायतो खुद्दक-निकायो । ___ अट्ठसालिनी की निदान-कथा। २. मेबिल बोड : पालि लिटरेचर ऑव बरमा, पृष्ठ ४ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०० ) प्रकाशित त्रिपिटक के स्यामी संस्करण में ये आठ ग्रन्थ अनुपलब्ध हैं--विमानवत्थ, पेतवत्थु, थेरगाथा, थेरीगाथा, जातक, अपदान, वृद्धवंस और चरियापिटक । विंटरनित्ज ने कहा है कि यह वात आकस्मिक नहीं हो सकती। इससे उनका तात्पर्य यह है कि स्याम में ये ग्रन्थ बुद्ध-वचन के रूप में प्रामाणिक नहीं माने जाते। कम से कम उनका अल्प महत्व तो निश्चित है ही। खुद्दक निकाय के ग्रन्थों का काल-क्रम ऊपर के विवेचन से स्पष्ट है कि खुद्दक-निकाय पहले चार निकायों के बाद का संकलन है। वुद्ध-वचन के रूप में उसका महत्त्व भी उनके बाद ही मानना चाहिये। चीनी आगमों में तो उसे एक प्रकार स्वतन्त्र निकाय का स्थान ही नहीं मिला। केवल कुछ स्फुट ग्रन्थों के पाये जाने के कारण ही वहाँ 'क्षुद्रकागम' के अस्तित्व का अनुमान कर लिया गया है २ । ये ग्रन्थ भी वहाँ कभी कभी अन्य निकायों में ही सम्मिलित कर दिये जाते है । अतः स्थविरवादी और सर्वास्तिवादी दोनों ही परम्पराओं में प्रथम चार निकायों की प्रधानता, पालि. त्रिपिटक में उसके स्वरूप की बहुत-कुछ अनिश्चितता, सर्वास्तिवादी त्रिपिटक में उसके स्वतन्त्र रूप की अ-प्राप्ति अथवा आंशिक प्राप्ति, एवं सब से बढ़ कर स्थविरवादी परम्परा में भी उसके कुछ ग्रन्थों को वुद्ध-वचन के रूप में प्रामाणिक न मानने की ओर प्रवृत्ति, ये सब तथ्य इसी बात के सूचक हैं कि खुद्दक-निकाय प्रथम चार निकायों के बाद का संकलन है। विचारों के विकास की दप्टि से भी इसी निष्कर्ष पर आना पड़ता है। प्रथम चार निकायों में विवेकवाद की प्रधानता है। खुद्दक-निकाय में काव्यात्मक तत्त्व का आधार लेकर भावुकता भी काफी प्रधानता लिये हुए है। स्थविरवादी परम्परा बुद्ध-वचनों की गम्भी १. हिस्ट्री ऑव इंडियन लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ ७७ पद-संकेत ३ २. देखिये पहले इसी अध्याय में 'पालित्रिपिटक कहाँ तक मूल, प्रामाणिक बुद्ध वचन है' ? इसका विवेचन । ३. देखिये ट्रांजैक्शन्स ऑव दि एशियाटिक सोसायटी ऑव जापान, जिल्द ३५, भाग ३, पृष्ठ ९ में प्रो० एम० अनेसाकि का लेख, विटरनिरज, : हिस्ट्री ऑव इंडियन लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ ७७, पद-संकेत २ में उद्धृत । Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०१ ) रता को काव्योचित भावनाओं और कल्पनाओं में खो देना पसन्द नहीं करती थी। विनय-पिटक के चुल्लवग्ग में बुद्ध उपदेशों को गीतों की तरह गाना स्पष्ट रूप से निषिद्ध किया गया है और उसे अपराध बतलाया गया है । गम्भीर अनात्मदर्शन पर प्रतिष्ठित बुद्ध वचनों को भावात्मक कविताओं में गाना स्थविरवादी परम्परा संघ के लिये एक आने वाली विपत्ति समझती थी । " खुद्दक निकाय के ग्रन्थों में इसी विपत्ति के दर्शन हुए हैं, विटरनित्ज़ का यह समझना ? यद्यपि ठीक नहीं माना जा सकना, किन्तु यह उसके अपेक्षाकृत उत्तरकालीन होने का सूचक तो है ही । खुद्दक निकाय का अधिकांश स्वरूप काव्यात्मक होते हुए भी उसकी मूल भावना सर्वांश में बौद्ध है। बल्कि उसकी गाथाओं में अनेक तो पिटक संकलन के प्राचीनतम युग की सूचक भी हैं। उनके सर्वांश में बुद्ध वचन होने का दावा तो स्वयं खुद्दक निकाय में भी नहीं किया गया, क्योंकि थेर-थेरी गाथाओं जैसी रचनाओं को वहाँ स्पष्टत. भिक्षु भिक्षुजियों की कृतियाँ कहा गया है । वास्तव में बात यह है कि तत्कालीन लोकसाहित्य और भावनाओं का प्रभाव खुद्दक निकाय के कुछ ग्रन्थों (विशेषतः विमानवत्थु, पेतवत्थु, जातक, चरियापिटक आदि) में अधिक परिलक्षित होता है, जो उनकी आपेक्षिक अर्वाचीनता का सूचक अवश्य है, किन्तु साहित्य और इतिहास विद्यार्थी के लिये इसी दृष्टि से उसका महत्व भी बढ़ गया है। पालि के सर्वोतम काव्य-उद्गार खुद्दक निकाय के ग्रन्थों में ही सन्निहित हैं और उनका प्रणयन मानवीय तत्त्वों के आधार पर निश्चय ही चार निकायों के बाद हुआ है, यद्यपि उनमें से अनेक अत्यन्त प्राचीन युग के भी है, यह भी उतना ही सुनिश्चित तथ्य है । इसका एक स्पष्टतम प्रमाण तो यही है कि 'पंचनेकायिक' भिक्षुओं की परम्परा विनय-पिटक -- चुल्लवग्ग से आरम्भ होकर, भारहुत और साँची के स्तूपों (तृतीय शताब्दी या कम से कम २५० वर्ष ईसवी पूर्व ) में १. देखिये ओपम्म- संयुत्त (संयुत्त निकाय) एवं अंगुत्तर निकाय के अनागतभय-सूत्र २. हिस्ट्री ऑव इंडियन लिटरेचर, जिल्द दूसरी पृष्ठ ७७ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०२ ) अंकित होती हुई', अविच्छिन्न म्प मे मिलिन्दपह'२ (प्रथम शताब्दी ई० पू०) तक दृष्टिगोचर होती है। 'पंचम' निकाय के अस्तित्व के बिना यह असम्भव है। अत: यह निश्चित है कि प्रथम मंगीति के ममय मे ही, जब कि दीघ-भाणक और मज्झिम-भागक भिक्षुओं में खट्टक-निकाय के विषय में मतभेद प्रारम्भ हुआ, बदक-निकाय का मंकलन होने लगा था, किन्तु प्रथम चार निकायों में इसका अन्तर केवल इतना था कि जब कि उनका म्वम्प उमी ममय स्थिर हो गया था, बदक-निकाय में तृतीय मंगीति तक परिवर्द्धन होते गये । अतः प्रथम और ततीय मंगीतियाँ उसके प्रणयन या मंकलन काल की क्रमशः उपग्ली और निचली काल-मीमाएं है । इस मामान्य कथन के बाद अब हमें बद्दक-निकाय के १५ ग्रन्थों की पूर्वापरता पर विचार करना है। वाह्य माक्ष्य के आधार पर हम किन ग्रन्थों को कम या अधिक प्रामाणिक मान सकते हैं. इमका दिग्दर्शन करने के लिये हमें उन परम्पराओं को देखना है. जो खुदक-निकाय की प्रामाणिकता के विषय में पालिमाहित्य के इतिहास में चल पड़ी हैं। इन्हें इस प्रकार दिखाया जा सकता है-- (१) प्रथम संगीति के अवसर पर दीव-भाणक भिक्षुओं ने जिन ग्रन्थों को प्रामाणिक नहीं माना--(१) बुद्धवंस (२) चरियापिटक (३) अपदान । (२) द्वितीय संगीति के अवसर पर महासंगीतिक भिक्षुओं ने जिन ग्रन्थों को प्रामाणिक नहीं माना--(१) पटिमम्भिदामग्ग (२) निद्देम (३) जातक के कुछ अंग (३) स्यामी परम्परा जिन्हें बुद्ध-वचन के रूप में प्रामाणिक नहीं समझती(१) विमानवत्थु (२) पेतवत्थु (३) थेरगाथा (४) थेरीगाथा (५) जातक (६) अपदान (७) बुद्धवंस (८) चरियापिटक। जिन ग्रन्थों को दीघ-भाणक भिक्षुओं ने प्रामाणिक स्वीकार नहीं किया वे सभी स्यामी परम्परा द्वारा बहिष्कृत ग्रंथों की सूची में भी सम्मिलित हैं। महासंगीतिक भिक्षुओं ने जातक के कुछ अंशों को भी प्रामाणिक नहीं समझा और १. देखिये रायस डेविड्स : बुद्धिस्ट इंडिया, पृष्ठ १६९ २. पृष्ठ २३ (बम्बई विश्वविद्यालय कामाकरण) Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०३ ) स्यामी परम्पग भी इसमें उसके समान ही है । पटिमम्भिदामग्ग और निद्देम को महासंगीतिक भिक्षुओं ने अवश्य प्रामाणिक स्वीकार नही किया जव कि स्यामी परम्परा में उन्हें प्रामाणिक मान लिया गया है। यदि हम सम्पूर्ण उपर्युक्त बहिप्कृत ग्रन्थों को मिलाकर गिनें तो अप्रमाणिक ग्रन्थों की यह सूची इस प्रकार होगी (१) विमानवत्थु (२) पेनवत्थ (३) थेग्गाथा (८) थेरीगाथा (५) जातक (६) अपदान (७) बुद्धवंस (८) चग्यिापिटक (०.) पटिमम्भिदामगंग और (१०) निद्देम । खुद्दक-निकाय के १५ ग्रन्थों में मे इन्हें निकाल दें तो वाकी ये बच रहते है (१) खुदक-पाट (२) धम्मपद (३) मुत्त-निपात (४) उदान और (५) इतिवृत्तक । अत: वाह्य माश्य के आधार पर उपयुक्त पाँच ग्रन्थ ही अन्य १० की अपेक्षा अधिक प्रामाणिक बुद्ध-वचन ठहरते हैं। खुदक-पाठ को छोड़कर गेप चार ग्रन्थ चीनी अनवाद में भी उपलब्ध हैं। आन्तरिक साक्ष्य भी इमी निष्कर्ष का अधिकतर समर्थन करता है। भाषा और विषय दोनों की दृष्टि से धम्मपद, मुत्न-निपात, उदान और इतिवृत्तक प्राचीनतम युग के सूचक है। इनकी विषय-वस्तु का जो विवेचन आगे किया जायगा, उससे यह तथ्य स्पष्ट हो जायगा। खुद्दक-पाठ अवश्य वाद का संकलन जान पड़ता है। उसमें कुछ सामग्री सुत्त-निपात से ली गई है और कुछ त्रिपिटक के अन्य अंशों मे। शरण-त्रय और शरीर के ३२ अङ्गों के विवरण जो इस संकलन में है, चार निकायों में प्राप्त विवरणों से कुछ अधिक विकमित अवस्था के सूचक है।' अत: खुद्दक-पाठ का स्थान भी काल-क्रम की दृष्टि से १. देखिये विमलाचरण लाहा : हिस्ट्री ऑव पालि लिटरेचर, जिल्द पहली, पृष्ठ ३५; वास्तव में शरण त्रय के सम्बन्ध में तो ऐसा कोई अन्तर नहीं है, क्योंकि 'बुद्धं सरणं गच्छामि' आदि के बाद वहाँ केवल 'दुतियम्पि' (दूसरी बार भी) 'ततियप्पि' (तीसरी बार भी) अधिक है। हाँ, शरीर के ३२ अंगों के कथन में 'मत्थके मत्थलंगति' (मस्तक का गदा) पद अवश्य अधिक है। प्रथम चार निकायों में केवल ३१ अंगों का ही वर्णन है । Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०४ ) शेष १० ग्रन्थों के साथ है। इन सब ग्रन्थों के संकलन की निश्चित तिथि के सम्बन्ध में तो कुछ नहीं कहा जा सकता, किन्तु इतना अवश्य कहा जा सकता है कि इनमें जो अधिक उत्तरकालीन है वे भी अशोक के काल से बाद के नहीं हैं। धम्मपद, सत्त-निपात, उदान और इतिवृत्तक के वाद काल-क्रम की दृष्टि से जातक और थेर-थेरी गाथाओं का स्थान कहा जा सकता है। 'जानक' में बुद्ध के पूर्व -जन्म की कथाएँ है। मूल जातक में ऐसी केवल ५०० कहानियाँ थीं। चुल्ल-निद्देस में ५०० जातक-कहानियों का ही निर्देश हुआ है। फाहयान ने भी सिंहल में ५०० जातक-कहानियाँ के चित्र अंकित देखे थे । बाद में जातक-कहानियों की संख्या बढ़कर ५४७ हो गई। मूल जातक की प्राचीनता इस बात से प्रकट होती है कि तीसरी शताब्दी ईस्वी पूर्व के साँची और भारहुन के स्तूपों में उनकी अनेक कहानियों के दृश्य अंकित किये गये है।' अत: जातकों का काल उस से काफी पहले का होना चाहिये । थेर-और थेरीगाथाओं में बुद्ध-कालीन भिक्षुओं और भिक्षुणियों की गाथाएँ है। केवल थेरगाथा की कुछ गाथाएँ अशोक के समय के भिक्षुओं की बताई जाती हैं।४ अतः सम्भव है थेरगाथा ने भी अपना अन्तिम स्वरूप अशोक के काल में ही प्राप्त किया हो और तृतीय संगीति के अवसर पर उसका संगायन हुआ हो। जातकों के बोधिसत्व-आदर्श पर ही आधारित बुद्धवंम और चरिया १. पृष्ठ ८० २. रिकार्ड ऑव दि बुद्धिस्ट किंग्डम्स, ऑक्सफर्ड १८८६, पृष्ठ १०६ (जे० लेग का अनुवाद) ३. रायस डेविड्स : बुद्धिस्ट इंडिया, पृष्ठ २०९; हल्श : जर्नल ऑव रायल एशियाटिक सोसायटी, १९१२, पृष्ठ ४०६; इस सम्बन्धी अधिक साहित्य के परिचय के लिये देखिये विटरनि-ज : हिस्ट्री ऑव ईडियन लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ १६, पदसंकेत ३; पृष्ठ ११३ पद संकेत ३ ४ गाथाएँ १६९-७० अशोक के कनिष्ठ भ्राता वीतसोक की रचनाएँ है। मिलाइये "इमस्मिं बुद्धप्पादे अट्ठारस वस्साधिकानं द्विन्नं वस्स सतानं मत्थके धम्मासोकरो कणिट्ठ भाता हुत्वा निब्बत्ति । तस्स वीतसोकोति नाम अहोसि।" (वीतसोकथेरस्स गाथावण्णना ।) Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिटक है। बुद्धवंस में गोतम बुद्ध और उनके पूर्ववर्ती २४ बुद्धों का वर्णन है, जब कि प्रथम चार निकायों (विशेषतः महापदानमुत्त-दीघ. २१३) में केवल ६ पूर्ववर्ती बुद्धों का ही वर्णन मिलता है। चग्यिापिटक में बोधिसत्वों की जीवनचर्या का वर्णन मिलता है। यहीं पर सर्व प्रथम दम पारमिताओं का भी वर्णन मिलता है। जातक की कहानियों से इन सब की बड़ी समानता है। बल्कि कहना चाहिये एक प्रकार से चरियापिटक २६ पद्य-बद्ध जातकों का संग्रह ही है। जिस प्रकार वुद्धवंस और चरियापिटक जातक के उत्तरवर्ती हैं, उसी प्रकार निद्देस भी जातक के बाद का संकलन है। जैसा अभी कहा जा चुका है, चल्ल-निद्देस में जातक का निर्देश मिलता है। निदेस (जिसमें चल्ल-निद्देन और महानिद्देम दोनों सम्मिलित हैं) सुत्त-निपात से वाद का संकलन हैं। एक प्रकार से निद्देस सुत्त-निपात के कुछ अंशों की व्याख्या ही है। चुल्लनिद्देस खग्गविसाणसुत्त और पारायणवग्ग की व्याख्या है, जब कि महानिदेस में अट्ठकवग्ग की व्याख्या की गई है। अतः निद्देस सत्त-निपात से बाद की रचना ही मानी जा सकती है। डा० लाहा को मत इससे भिन्न है। उनका कहना है कि निद्देस सुत्त-निपात से पहले की रचना होनी चाहिये। इसके लिये उन्होंने दो कारण दिये है, (१) महानिद्देस में सुत्त-निपात के अट्टकवग्ग की व्याख्या उस युग की सूचक है जब अट्ठकवग्ग एक अलग वर्ग की अवस्था में था, (२) सुत्त-निपात के पारायणवग्ग के आरम्भ में एक प्रस्तावना है जो चुल्ल-निद्देस की व्याख्या में लुप्त है। यदि चुल्ल-निद्देम सुत्त-निपात के बाद का संकलन होता तो इस प्रस्तावना की भी व्याख्या वहाँ अवश्य होती।' डा० लाहा न जो कारण दिये है वे निषेधात्मक ढंग के हैं। निदेस के रचयिता या संकलनकर्ता को सुत्त-निपात के सम्पूर्ण अंशों की जानकारी होते हुए भी वह उसके कुछ अंशों को ही व्याख्या के लिये चुन सकता था। इसी प्रकार प्रस्तावना की भी व्याख्या करना या न करना उसकी इच्छा पर निर्भर था। मब से बड़ी बात तो यह है कि निद्देस में सत्त-निपात की कतिपय गाथाओं की व्याख्या की गई है, अतः वह उसके बाद की रचना ही हो सकती है। जिस प्रकार बुद्धवंस, चरियापिटक और निद्देम जातक के बाद की रचनाएं है उसी प्रकार थेर १. हिस्ट्री ऑव पालि लिटरेचर, जिल्द पहली, पृष्ठ ३८ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०६ ) थेरी--गाथाओं के बाद अपदान का भी प्रणयन निश्चित है। अपदान के दो भाग हैं, थेर अपदान और थेरी अपदान। इन दोनों भागों में क्रमशः भिक्षु और भिक्षुणियों के पूर्व जन्म की कथायें हैं । इस प्रकार यह पूरा ग्रंथ थेर और थेरीगाथाओं का पूरक ही कहा जा सकता है। अपदान निश्चयत: अशोककालीन रचना है। इसका कारण यह है कि उसमें कथावस्तु का निर्देश हुआ है, जो निश्चयतः तृतीय संगीति के समय लिखी गई । विमानवत्यु और पेतवत्थ भी उत्तरकालीन रचनाएँ हैं। इनमें क्रमशः देव-लोकों और प्रेतों के वर्णन हैं, जो स्थविरवादी बौद्ध धर्म के प्रारम्भिक स्वरूप से बहुत दूर हैं। विमानवत्थु में तो एक ऐसी घटना का भी वर्णन है जो उसी के वर्णन के अनुसार पायामि राजन्य के १०० साल बाद हुई।' पायासि की मृत्यु भगवान् बुद्ध से कुछ साल बाद हुई थी, अतः जिस घटना का विमानवत्थ में वर्णन है वह बुद्ध-निर्वाण के सौ से कुछ अधिक साल बाद ही हई होगी। इस प्रकार विमानवत्थु की रचना तृतीय सगीति के कुछ पहले की ही अधिक से अधिक हो सकती है। इसी प्रकार पतवत्थ भी अशोककालीन रचना है। उसमें 'मौर्य-अधिपति' का निर्देश हआ है२ जिसका अभिप्राय 'अट्ठकथा' के अनुसार धम्माशोक से है । 'पटिसम्भिदा-मग्ग' की रचना अभिधम्म-पिटक की शैली में हुई है, अतः वह भी इसी युग की रचना है। इस प्रकार प्रस्तुत विवेचन के आधार पर खुद्दक-निकाय के ग्रन्थों का काल-क्रम तीन श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है, जो इस प्रकार दिखाया जा सकता है-- १ धम्मपद, सुत्त-निपात, उदान, इतिवुनक। २ जातक, थेरगाथा, थेरीगाथा। १. मानुस्सकं वस्ससतं अतीतं यदग्गे कायम्हि इधूपपन्नो । पृष्ठ ८१ (पालि टैक्स्ट सोसायटी का संस्करण) २. राजा पिंगलको नाम सुरानं अधिपति अहुमोरियानं उपट्ठानं गन्त्वा सुरळं पुनरागमा। ३. मोरियानंति मोरियराजूनं धम्मासोकं सन्धाय वदति । पृष्ठ ९८ (पालि- ' टैक्स्ट सोसायटी का संस्करण) Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०७ ) ३ बुद्धवंस, चरियापिटक, निद्देस, अपदान, पटिसम्भिदामग्ग, विमानवत्थु, पेतवत्थु, खुद्दक-पाठ। प्रत्येक श्रेणी के ग्रन्थों में भी कौन किस से पहले या पीछे का है, इसका सम्यक् निर्णय नहीं किया जा सकता। इसके लिये उतने स्पष्ट बाह्य और आन्तरिक साक्ष्य उपलब्ध नहीं है। निश्चित तिथियों के अभाव में इस प्रकार के निर्णय का कोई अधिक महत्व भी नहीं हो सकता। अब हम खुद्दक-निकाय के ग्रन्थों का संक्षिप्त विवरण देंगे। खुदक-पाठ खद्दक-पाठ छोटे छोटे नौ पाठों या सुत्तों का संग्रह है। ये सभी पाठ विशेपतः सुत्त-पिटक और विनय-पिटक से संगृहीत है। पहले चार पाठ पिछले पाँच की अपेक्षा अधिक संक्षिप्त है। इनका संकलन प्रारम्भिक विद्यार्थियों की शिक्षा के लिये अथवा बौद्ध गृहस्थों के दैनिक पाठ के लिये किया गया है। अतः सिंहल में खुद्दक-पाठ का बड़ा आदर है। खुद्दक-पाठ के नौ पाठों या सत्तों के नाम और विषय इस प्रकार है-- १. सरणत्तयं (तीन शरण)--मै बुद्ध की, धम्म की, संघ की, शरण जाता हूँ। दूसरी बार भी--तीसरी बार भी-~-मै बुद्ध की, धम्म की, संघ की, शरण जाता हूँ। २. दस सिक्खापदं--(दस शिक्षापद या सदाचार-सम्बन्धी नियम) (१) जीवहिंसा (२) चोरी (३) व्यभिचार (४) असत्य-भाषण (५) मद्य-पान (६) असमय-भोजन (७) नृत्य-गीत (८) माला-गन्ध-विलेपन (९) ऊँची और बड़ी शय्या (१०) सोने और चाँदी का ग्रहण, इन दस बातों से विरत रहने का व्रत लेता है। १. राहुल सांकृत्यायन, आनन्द कौसल्यायन एवं जगदीश काश्यप द्वारा सम्पादित तथा भिक्षु उत्तम द्वारा प्रकाशित (बुद्धाब्द २४८१, १९३७ ई०) नागरी संस्करण उपलब्ध है । भिक्षु धर्मरत्न एम० ए० का मूल-पालि-सहित हिन्दी अनुवाद महाबोधि सभा, सारनाथ (१९४५) ने प्रकाशित किया है । Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०८ ) ३. द्वत्तिंसाकारं (शरीर के ३२ अङ्ग)--शरीर के ये ३२ (गन्दगियों से भरे) अङ्ग हैं, जैसे कि केश, रोम, नख, दाँत आदि। ४. कुमारपञ्हं (कुमार विद्यार्थियों के लिये प्रश्न) एक क्या है ? सभी प्राणी आहार पर स्थित हैं। दो क्या है ? नाम और रूप। तीन क्या है ? तीन वेदनाएँ। चार क्या है ? चार आर्य-सत्य। पाँच क्या है ? पाँच उपादान-स्कन्ध । छ: क्या है ? छ: आन्तरिक आयतन । सात क्या है ? बोधि के सात अङ्ग। आठ क्या है ? आर्य अष्टाङ्गिक मार्ग। नौ क्या है ? प्राणियों के नौ आवास। दस क्या है ? दस बातें, जिनसे मुक्त होने पर मनुष्य अर्हत् बनता है। ५. मङ्गल सुत्त (मङ्गल-सुत्र)--प्राणी नाना प्रकार के मङ्गल-कार्य करते है। किन्तु सर्वोत्तम मंगल क्या है ? माता-पिता की सेवा, पत्नी और पुत्रों का भरण-पोषण, शान्ति मे अपना काम करना--यही सर्वोत्तम मंगल है। " दान देना, धर्म का जीवन, जाति-बन्धुओं की सहायता करना, कर्म निर्दोष रखना--यही सर्वोत्तम मंगल है। " पाप और मद्य-पान से अलग रहना, संयमी जीवन, धर्म के कार्यो में आलस्य न करना--यही सर्वोत्तम मंगल है ! " गुरुजनों का आदर, विनम्रता, सन्तोष-वृत्ति, कृतज्ञता, समय पर धर्म को श्रवण करना---यही सर्वोत्तम मंगल है ! " क्षमा, ब्रह्मचर्य, ज्ञानी भिक्षओं का दर्शन, समय पर धर्म का माक्षात्कार--यही सर्वोत्तम मंगल है ! " तपश्चर्या, ब्रह्मचर्य, चार आर्य सत्यों का दर्शन अन्त में निर्वाण का साक्षात्कार--यही सर्वोत्तम मंगल है !" Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. रतन सुत्त (रत्नसूत्र)--१७ गाथाओं म बुद्ध, धम्म और संव, इन तीन रत्नों की महिमा वर्णन की गई है और उसी से लोक-कल्याण की कामना की गई है। आरम्भ की दो और अन्त की तीन गाथाएं तो बड़ी ही मार्मिक है। बौद्ध परम्परा इन्हें मौलिक गाथाएँ मानती है। बुद्ध, धर्म और संघ की महिमा का वर्णन करते हुए प्रत्येक के विषय में कहा गया है 'इदं पि बुद्धे रतनं पणीतं' (यह बुद्ध रूपी रत्न ही सर्वोनम है। 'इदं पि धम्मे रतनं पणीतं' (यह धम्म रूपी रत्न ही सर्वोत्तम है) और 'इदंपि संघे रतनं पणीतं' (यह संघ रूपी रत्न ही सर्वोत्तम है)। इस सत्य रूपी वाणी से लोक-कल्याण की कामना करते हुए कहा गया है--एतेन सच्चेन सुवत्थि होतु (इस सत्य से लोक का कल्याण हो) ७. तिरोकुड्ड-सुत्त--मृत आत्माएं अपने छोड़े हुए घरों के दरवाजों पर और उनकी देहलियों पर आकर खड़ी हो जाती हैं। वे अपने सम्बन्धियों से भोजन और पान की इच्छा रखती है । प्रेतों के लोक में खेती और वाणिज्य नहीं होते। उन्हें जो कुछ इस लोक से मिलता है, उसी पर वे गुजारा करते हैं। सद्गृहस्थ प्रेतों के कल्याण की कामना से भोजन और जल का दान करते हैं। सुप्रतिष्टित भिक्षु-संघ को जो कुछ दान किया जाता है, वह प्रेतों के चिर सुख और कल्याण के लिये होता है। यह सत्त भारतीय समाज में प्रचलित श्राद्ध-विधान और पितर-पूजा का बौद्ध संस्करण ही है । दार्शनिक सिद्धान्त भिन्न रखते हुए भी बौद्ध जनता किस प्रकार भारतीय समाज में प्रचलित व्यवहारों और सामान्य विश्वासों से अपने को विमुक्त नहीं कर सकी, यह सुत्त इसका एक अच्छा उदाहरण है। इस सत्त की कुछ गाथाओं का पाठ आज भी सिंहल और स्याम देशों में मर्दो को जलाते समय किया जाता है। ८. निधिकंड सुत्त (निधि सम्बन्धी सूत्र)--सर्वोत्तम निधि. क्या है ? दान, शील, संयम, इन्द्रिय-विजय, संक्षेप में पुण्य कर्मों का करना ही सर्वोत्तम निधि है। अन्य सब निधियाँ तो नष्ट हो जाने वाली हैं, किन्तु किया हुआ शुभ कर्म कभी नष्ट नहीं होता। यही वह निधि है जो मनुष्य के पीछे जाने वाली है--यो निधि अनुगामिको। ९. मेत्त-सुन्न (मैत्री-सूत्र)--ऊपर, नीचे, चारों ओर, लोक को मित्रता की भावना से भर दो। किसी का दुःख-चिन्तन मत करो। भावना करो कि १४ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१० ) सभी प्राणी सुखी हों -- सब्बे सत्ता भवन्तु सुखितत्ता । ब्रह्मविहार भी तो यही है— ब्रह्ममेतं विहारं इधामाहु ! + खुद्दक पाठ के उपर्युक्त ९ सुत्तों में से मंगल-सुत्त, रतन सुत्त, और मेत्तसुत्त सुत्तनिपात म भी हैं । सुत्तनिपात में मंगल-सुत्त का नाम महामंगलसुत्त अवश्य है । इसी प्रकार तिरोकुड्ड सुत्त पेतवत्थु में भी है । तीन शरण और दस शिक्षापदों के विवरण विनय-पिटक के आधार पर संकलित हैं । कुमारपञ्ह सुत्त को भी विनय-पिटक या दीघ - निकाय के संगीति-परियाय और दसुत्तर जैसे सुत्तों अथवा अंगुत्तर निकाय के विशाल तत्सम्बन्धी भांडार में से संकलित कर लिया गया है । 'कायगतासति' के रूप में शरीर के ३२ आकारों का वर्णन दीघ और मज्झिमनिकायों के क्रमशः महासतिपट्ठान और सतिपट्ठान सुत्तों के वर्णनों की अनुलिपि है । केवल अन्तर इतना है कि वहाँ ३१ अङ्गों का वर्णन है जब कि यहाँ एक और ( मत्थके मत्थलुंगं - - माथे का गूदा ) बढ़ा दिया गया है । कायगता -सति ( शरीर की गन्दगियों और अनित्यता पर विचार) का विधान बौद्ध योग में प्रारम्भ से ही है । दीघ और मज्झिमनिकायों के उपर्युक्त सुत्तों के अतिरिक्त संयुत्त निकाय के कस्सप सुत्त में भी भगवान् बुद्ध ने महाकाश्यप को 'कायगता सति' का ध्यान करने का उपदेश दिया है । धम्मपद २१|१० में भी भिक्षुओं को 'कायगतासतिपरायण' होने को कहा गया है । 'उदान' में भगवान् बुद्ध के योग्य शिष्य महामौद्गल्यायन और महाकात्यायन को काय गता - सति की भावना करते दिखलाया गया है १ । 'विसुद्धि-मग्ग' ( पाँचवीं शताब्दी) में इस सम्बन्धी ध्यान का विस्तृत वर्णन किया गया है । खुद्दक पाठ के समान, किन्तु आकार में उससे बड़ा, एक और संग्रह पालि साहित्य में प्रसिद्ध है। इसका नाम 'परित' या 'महापरित' है । 'परित' शब्द का अर्थ है 'परित्राण' या 'रक्षा' । भिक्षुओं और गृहस्थों की रक्षा के उद्देश्य ang walaga kamna jangka mem १. क्रमशः पृष्ठ ३८ एवं १०५ ( भिक्षु जगदीश काश्यप का अनुवाद) २. विसुद्धिमग्ग ८०४२-१४४; देखिये ११२४८ - ८१ भी ( धर्मानन्द कोसम्बी का संस्करण) Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २११ ) से सुत्त-पिटक से लगभग ३० सुत्तों का संग्रह कर लिया गया है, जिनका पाठ, बौद्धों के विश्वास के अनुसार, रोग, दुर्भिक्ष आदि उपद्रवों को शान्त करने वाला और सामान्यतः मङ्गलकारी होता है। लंका और बरमा में परित्त-पाठ की प्रथा अधिक प्रचलित है।' मेबिल बोड ने हमें बतलाया है कि वरमा में तो इसके समान लोक-प्रिय पुस्तक ही पालि-साहित्य की दूसरी नहीं है ।२ खुद्दक-पाठ के ऊपर निर्दिष्ट ९ सुत्तों में से सात 'परित्त' में भी सम्मिलित हैं। 'परित्त' में विशेपतः निम्नलिखित सुत्त सम्मिलित हैं १ दस धम्म-सुत्त २ महामंगल सुत्त ३ करणीय मेत्त सुत्त ४ चुन्दपरित्त सुत्त ५ मेत्त सुत्त ६ मेत्तानिसंस सुत्त ७ मोरपत्ति सुत्त ८ चन्दपरित्त सुत्त ९ सुरिय परित्त सुत्त १० धजग्ग सुत्त ११ महाकस्सपथेर बोज्झंग सुत्त १२ महामोग्गल्लानथेर बोज्झंग सुत्त १३ महाचन्दत्थेर बोज्झंग सुत्त १४ गिरिमानन्द सुत्त १५ इसिगिलि सत्त १६ धम्मचक्कपवत्तन सुत्त १. लंका में यह 'पिरित' कहलाता है । लंका में परित्त-पाठ की सांगोपांग विधि के विवरण के लिये देखिये त्रिपिटकाचार्य भिक्षु धर्मरक्षित का "परित्त-पाठ और लंका" शीर्षक लेख “धर्मदूत" फर्वरी-मार्च १९४८ पृष्ठ, १६३-६७ में; २. दि पालि लिटरेचर ऑव बरमा, पृष्ठ ३-४ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१२ ) १७ आलवक सुत्त १८ कसिभारद्वाज मुन १९ पराभव. मुन २० वमल मुत्त २१ सच्चविभंग सुन २२ आटानाटिय मुक्त इनके अतिरिक्त परित-पाट से 'अनुलोम-पटिलोम-पटिच्चसमुप्पादसुत्त' आदि कुछ स्त्रों का भी पाठ किया जाता है। परित्त पाठ की प्रथा बुद्ध-काल में भी प्रचलित थी, ऐमा बौद्धों का विश्वास है । कहा जाता है कि एक बार लिच्छवियों के नगर वैशाली में दुर्भिक्ष पड़ा था । भगवान् के आदेशानुसार उन्होंने परित्त पाठ किया था, जिसके परिणामस्वरूप वर्षा हुई थी । परित्तपाठ से बीमारी की शान्ति हुई, इसके तो उदाहरण त्रिपिटक में काफी मिलते है । दीर्घ लम्बक ग्राम के किसी ब्राह्मण का पुत्र परित्त-पाठ से रोग-विमुक्त हो गया । इसी प्रकार आर्य महाकाश्यप की बीमारी के समय स्वयं भगवान् ने बोझंग-सुत्त का पाठ किया और महाकाश्यप उसी समय रोग-मुक्त हो गये। स्वयं भगवान् बुद्ध ने एक बार अपनी बीमारी की गान्ति के लिये महाचुन्द स्थविर से बोज्झंग-सत्त का पाठ करवाया। गिरिमानन्द नामक भिक्षुकी रोग-शान्ति के लिये विधान बतलाते हुए भगवान् ने स्वयं आनन्द से कहा “आनन्द! यदि तुम गिरिमानन्द भिक्षुके पास जाकर 'दश-मंज्ञा-सूत्र' का पाठ करो, तो उसे सुनकर अवश्य ही उसका रोग शान्त हो जायगा।" 'मिलिन्द-प्रश्न' में 'परित्र' को भगवान् बद्ध का ही उपदेश वतलाया गया है। अतः परित्त पाठ का महत्व स्थविरवादी परम्परा में प्रतिष्ठित है, इसमें सन्देह नही ।। परित के संकलन का ठीक काल निश्चय नहीं किया जा सकता, किन्तु इसमें १.सचे खो त्वं आनन्द ! गिरिमानन्दस्स भिक्खुनो उपसंकमित्वा दस सञ्जा भासेय्यासि, ठानं सो पनेतं विज्जति यं गिरिमानन्दस्स भिक्खनो दससा सत्वा सो आवाधो ठानसो पटिप्पस्सभ्येय्य । २. परिता च भगवता उदिहाति । मिलिन्दपञ्ह, पृष्ठ १५३ (बम्बई विश्वविद्यालय का संस्करण) Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१३ ) सन्देह नहीं कि वह काफी वाद का है। स्थविरवाद-परम्परा के पूर्वतम स्वरूप में भूत-प्रेत आदि की बातें अथवा उनसे बचने के लिये जादु के से प्रयोग बिलकुल नहीं है। ये सब बातें सामान्य अंध विश्वासों के आधार पर उसमें प्रवेश कर गईं। इस दृष्टि से दीघ-निकाय के आटानाटीय-सुत्त जैसे अंग भी उत्तरकालीन ही कहे जा सकते हैं। भगवान् बुद्ध ने योग की विभूतियों के भी प्रदर्शन की निन्दा ही की । फिर जादू के प्रयोगों की तो बात ही क्या ? प्रतीत्यसमुत्पाद के आधार पर सृष्टि के व्यापारों की व्याख्या करने वाला मन्त्रों के जप से बीमारी से विमुक्ति दिलाने नहीं आया था। जहाँ तक 'परित्त' के सुत्तों का सम्बन्ध है, वे अपने आप में नैनिक भावना से ओतप्रोत हैं। उनके अन्दर स्वयं कोई ऐमी वस्तु नहीं जो उस उदात्त गम्भीरता से रहित हो जो सामान्यतः नौट माहित्य की विशेषता है। उनका पाट निश्चय ही मनको ऊँची आध्यात्मिक अवस्था में ले जाने वाला है । अतः उनका संगायन करना प्रत्येक अवस्था में मंगल का मल ही हो सकता है। बीमारी की अवस्था में वह मानसोपचार का अङ्ग भी हो सकता है, कुछ-कुछ उसी प्रकार जैसे रामनाम के स्मरण को गांधी जी ने प्राकृतिक चिकित्सा का एक अङ्ग बना दिया। यदि परित्त पाठ में अन्ध-विश्वास है तो उसी हद तक जितना गांधीजी की उपयुक्त उपचार-विधि में। फिर हम इसे अन्ध-विश्वाग भी क्यों कहे ? जिससे मन ऊँची अवस्था में जा सकता है, उससे शरीर पर भी स्वस्थ प्रभाव क्यों न पड़ेगा? इस दृष्टि से परित्त-पाठ का उपदेश स्वयं बुद्ध भगवान् का भी दिया हुआ हो सकता है, हाँ वहाँ कर्मकांड अवश्य नहीं है। भगवान् ने सर्प को अपनी मैत्री-भावना से आच्छादित कर देने का आदेश दिया। सर्प के भय से वचने का यही १. विनय-पिटक, चुल्लवग्ग में विभूति-प्रदर्शन को 'दुष्कृत' अपराध बतलाया गया है। मिलाइये ; धम्मपदट्ठकथा ४१२, बुद्धचर्या, पृष्ठ ८२-८३ में अनुवादित । देखिये केवट्ट-सुत्त (दीघ १।११) तथा सम्पसादनिय-सुप्त (दोघ. ३१५) महालि-सुत्त (दोघ ३१६),आदि । २. मेतेन चित्तेन फरितुं (मित्रतापूर्ण चित्त से आच्छादित कर देने के लिये)--- विनय-पिटक । साधारण अर्थ में इसे मन्न कहना तो बुद्धि का उपहास ही होगा। Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१४ ) एक 'मन्त्र' है । शेष जीव जगत् के साथ मैत्री स्थापित कर इस 'मन्त्र' की सत्यता देखी जा सकती है । 'परित' में संगृहीत सुत्तों की भावनाएँ बड़ी मङ्गलमय और उदात्त हैं । उनमें चित्त को डुबो देने पर शरीर और मन प्रसन्नता से न भर जाय, यह असम्भव है । प्रसन्नता ( चित्त प्रसाद) ही तो स्वास्थ्य और मङ्गलों की जननी है । भिक्षुगण परित पाठ के अन्त में ठीक ही संगायन करते हैं-- सब्बीतियो विवज्जन्तु सब्बरोगो विनस्सतु । मा ते भवत्वन्तरायो सुखी दीघायुको भव ।। तेरी सारी आपदाएँ दूर हों, सब रोग नष्ट हो जाय, तुझे विघ्न न हो, तू सुखी और दीर्घायु हो । धम्मपद' बौद्ध साहित्य का सम्भवतः सबसे अधिक लोकप्रिय ग्रन्थ है । एक प्रकार इसे बौद्धों की गीता ही कहना चाहिये । सिंहल में बिना धम्मपद का पारायण किये किसी भिक्षु की उपसम्पदा नहीं होती । बुद्ध-उपदेशों का धम्मपद से अच्छा संग्रह पालि साहित्य में नहीं है । इसकी नैतिक दृष्टि जितनी गम्भीर है, उतनी ही वह प्रसादगुणपूर्ण भी है । धम्मपद में कुल मिलाकर ४२३ गाथाएँ हैं, जो २६ वर्गों में बँटी हुई हैं। प्रत्येक वर्ग में गाथाओं की संख्या इस प्रकार है- वर्ग ९ यमक वग्ग २ अप्पमाद वग्ग गाथाओं की संख्या २० १२ यह तो एक गम्भीर नैतिक उपदेश है। अधिकतर बुद्ध वचनों का यही हाल है, फिर चाहे उनका उपयोग उत्तरकालीन बौद्ध जनता किसी प्रकार करने लगी हो । १. धम्मपद के अनेक संस्करण और अनुवाद महापंडित राहुल सांकृत्यायन और भदन्त अनुवाद विशेष उल्लेखनीय हैं । हिन्दी भाषा में उपलब्ध हैं । आनन्द कौसल्यायन के Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ चित्त वग्ग ४ पुप्फ वग्ग ५ बाल वग्ग ६ पंडित वग्ग ७ अरहन्त वग्ग ८ सहस्स वग्ग ९ पाप वग्ग १० दंड वग्ग ११ जरावग्ग १२ अत्त वग्ग १३ लोकवग्ग १४ बुद्धवग्ग १५ सुखवग्ग १६ पियवग्ग १७ कोधवरग १८ मलवग्ग १९ धम्मट्ठवग्ग २० मग्गवग्ग २१ पकिणकवग्ग २२ निरयवग्ग २३ नागवग्ग २४ तण्हावग्ग २५ भिक्खुग्ग २६ ब्राह्मणवग्ग ( २१५ ) ११ १६ १६ १४ १० १६ १३ १७ ११ १० १२ १८ १२ १२ १४ २१ १७ १७ १६ १४ १४ २६ २३ ४१ ४२३ 'यमकवग्ग' (वर्ग १) में अधिकतर ऐसे उपदेशों का संग्रह है, जिनमें दो दो बातें जोड़े के रूप में आती हैं । " "मुझे गाली दी', 'मुझे मारा', 'मुझे हरा दिया', Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१६ ) मुझे लूट लिया, ऐसा जो मन में बाँधते हैं, उनका वैर कभी शान्त नहीं होता । "" अहिंसा का यह सनातन सन्देश भी कितना मार्मिक है "यहाँ वैर से वैर कभी शान्त नहीं होता । अवैर से ही वैर शान्त होता है, यही सनातन धर्म है । २" बड़ी बड़ी संहिताओं का भाषण करने वाले किन्तु उनके अनुसार आचरण न करने वाले व्यक्ति को 'धम्मपद' में उस ग्वाले के समान कहा गया है जिसका काम केवल दूसरों की गायों को गिनना है ।" बौद्ध चिन्तकों ने शारीरिक संयम की मूल को सदा मन के अन्दर देखा था, इसीलिए धम्मपद की प्रथम गाथा मन की महिमा का वर्णन करती हुई कहती है "मन ही सब धर्मों (कायिक, वाचिक मानसिक कर्मों) का अग्रगामी है मन ही उनका प्रधान है। सभी कर्म मनोमय है ।" आत्म-संयम वास्तविक श्रामण्य और सत्संकल्प के स्वरूप और महत्व के वर्णन इस वर्ग के अन्य विषय हैं । 'अप्पमादवग्ग' में प्रमाद की निन्दा और अ-प्रमाद की प्रशंसा की गई । अप्रमाद के द्वारा ही अनुपम योग-क्षेम रूपी निर्वाण को प्राप्त किया जाता 10 अप्रमाद के कारण ही इन्द्र देवताओं में श्रेष्ठ बना है । अप्रमाद में रत भिक्षुओं को ही यहाँ 'निर्वाण के समीप' ( निब्बाणस्सेव सन्तिके) कहा गया है । 'चित्तवग्ग' ( वर्ग ३) में चित्त-संयम का वर्णन है । “जितनी भलाई न माता-पिता कर सकते हैं, न दूसरे भाई-बन्धु, उससे अधिक भलाई ठीक मार्ग पर लगा हुआ चित्त करता है ।" 'पुप्फवग्ग ( वर्ग ४ ) में पुष्प को आलम्बन मानकर नैतिक उपदेश दिया गया है । सदाचार रूपी गन्ध की प्रशंसा करते हुए कहा गया है " तगर और चन्दन की जो यह गन्ध फैलती है, वह अल्पमात्र है । किन्तु यह जो सदाचारियों की गन्ध है वह देवताओं में फैलती है ।" 'बालवग्ग' १. ११४ २. ११५ ३. १।१९ ४. २१३ ५. २११० ६. २।१२ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१७ ) (वर्ग ५) में मूों के लक्षण बतलाते हुए कहा गया है कि उनके लिये संसार (आवा गमन) लम्बा है। इसी वर्ग में सांसारिक उन्नति और परमार्थ के मार्ग की विभिन्नता बतलाते हुए कहा गया है “लाभ का रास्ता दूसरा है और निर्वाण को ले जाने वाला रास्ता दूसरा है। इसे जानकर बद्ध का अनुगामी भिक्ष सत्कार का अभिनन्दन नहीं करता, बल्कि एकान्तचर्या को बढ़ाता है। '' 'पंडितवग्ग' (वर्ग ६) में वास्तविक पंडित पुरुषों के लक्षण बतलाये गये हैं । “जो अपने लिये या दूसरों के लिये पुत्र, धन और राज्य नहीं चाहते, न अधर्म से अपनी उन्नति चाहते हैं, वही सदाचारी पुरुष, प्रज्ञावान् और धार्मिक हैं।" अर्हन्त वग्ग (वर्ग ७) में बड़ी सुन्दर काव्य-मय भाषा में अर्हतों के लक्षण कहे गये हैं। "जिसका मार्ग-गमन ममाप्त हो चका है। जो शोक-रहित तथा सर्वथा मक्त है, जिसकी सभी ग्रन्थियाँ क्षीण हो गई हैं, उसके लिये मन्ताप नहीं है।" "सचेत हो वह उद्योग करते हैं। गृह-सुख में रमण नहीं करते। हंस जैसे क्षुद्र जलाशय को छोड़ कर चले जाते हैं, वैसे ही अर्हत् गह को छोड़ चले जाते हैं।" "जो वस्तुओं का संचय नहीं करते, जिनका भोजन नियत है, शन्यता-स्वरूप तथा कारण-रहित मोक्षजिनको दिखाई पड़ता है, उनकी गति आकाश में पक्षियों की भाँति अज्ञेय है।" "गाँव में या जंगल में, नीचे या ऊँचे स्थल में, जहाँ कहीं अर्हत् लोग विहार करते हैं, वही रमणीय भूमि है।" सहस्सवग्ग (वर्ग ८) की मल भावना यह है कि सहस्रों गाथाओं के सुनने से एक शब्द का सुनना अच्छा है, यदि उससे शान्ति मिले। सिद्धान्त के मन भर से अभ्यास का कण भर अच्छा है। सहयों यज्ञों से सदाचारी जीवन श्रेष्ठ है । पापवग्ग (वर्ग ९) में पाप न करने का उपदेश दिया गया है, क्योंकि "न आकाश में, न समुद्र के मध्य में, न पर्वतों के विवर में प्रवेश कर--- संसार में कोई स्थान नहीं है जहाँ रह कर, पाप कर्मो के फल से प्राणी बच सके।" दंडवग्ग (वर्ग १०) में कहा गया है कि जो सारे प्राणियों के प्रति दंडत्यागी है, वही ब्राह्मण है, वही श्रमण है, वही भिक्षु है।" 'जरावग्ग' (वर्ग ११) में वृद्धावस्था के दुःखों का दर्शन है। इसी वर्ग में संसार की अनित्यता की याद दिलाते हुए यह मार्मिक उपदेश दिया गया है “जब नित्य ही आग जल रही हो तो क्या हँसी है, क्या आनन्द मनाना है ! अन्धकार मे घिरे हुए तुम दीपक को क्यों नहीं ढूंढ़ते हो ?" इमी वर्ग में भगवान् के वे उद्गार भी संनिहित है जो उन्होंने सम्यक् Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१८ ) सम्बोधि प्राप्त करने के अनन्तर ही किये थे, "अनेक जन्मों तक बिना रुके हुए मैं संसार में दौड़ता रहा । इस ( काया - रूपी) कोठरी को बनाने वाले ( गृहकारक ) को खोजते खोजते पुनः पुनः मुझे दुःख-मय जन्मों में गिरना पड़ा । आज हे गृहकारक ! मैंने तुझे पहचान लिया । अब फिर तू घर नहीं बना सकेगा । तेरी सारी कड़ियाँ भग्न कर दी गई। गृह का शिखर भी निर्बल हो गया । संस्काररहित चित्त से आज तृष्णा का क्षय हो गया । " अत्तवग्ग ( वर्ग १२ ) में आत्मोनति का मार्ग दिखाया गया है । इसी वर्ग की प्रसिद्ध गाथा है “पुरुष आप ही अपना स्वामी है, दूसरा कौन स्वामी हो सकता है ? अपने को भली प्रकार दमन कर लेने पर वह दुर्लभ स्वामी को पाता है ।" लोक- वग्ग ( वर्ग १३ ) में लोक सम्बन्धी उपदेश हैं । वुद्ध-वग्ग ( वर्ग १४ ) में भगवान् बुद्ध के उपदेशों का यह सर्वोत्तम सार दिया हुआ है "सारे पापों का न करना, पुण्यों का संचय करना, अपने चित्त को परिशुद्ध करना -- यही बुद्ध का शासन है । निन्दा न करना, घात न करना, भिक्षु नियमों द्वारा अपने को सुरक्षित रखना, परिमाण जानकर भोजन करना, एकान्त में सोना-बैठना, चित्त को योग में लगाना-यही बुद्धों का शासन है ।" "सुख वग्ग " ( वर्ग १५ ) में उस सुख की महिमा गाई गई है जो धन-सम्पत्ति के संयोग से रहित और केवल सदाचारी और अकिंचनता मय एवं मैत्रीपूर्ण जीवन से ही लभ्य | भिक्षु कहते हैं " वैर-बद्ध प्राणियों के बीच अवैरी होकर विहरते हुए अहो ! हम कितने सुखी हैं । वैर-बद्ध मानवों में हम अवैरी होकर विहरते हैं ! भयभीत प्राणियों के बीच में अभय होकर विहरते हुए अहो ! हम कितने सुखी हैं ! भयभीत मानवों में हम अभय होकर विहरते हैं । आसक्ति युक्त प्राणियों के बीच में अनासक्त होकर विहरते हुए अहो ! हम कितने सुखी हैं ! आसक्ति युक्त मानवों में हम अनासक्त होकर विहरते हैं ।” “पियवग्ग” (वर्ग १६) में यह कहा गया है कि जिसके जितने अधिक प्रिय हैं उसको उतने ही अधिक दुःख हैं । "प्रेम से शोक उत्पन्न होता है, प्रेम से भय उत्पन्न होता है । प्रेम से मुक्त को कोई शोक नहीं, फिर भय कहाँ से ?" "क्रोधवग्ग " ( वर्ग १७) की मुख्य भावना है "अक्रोध से क्रोध की जीतो, असाधु को साधुता से जीतो, कृपण को दान से जीतो, झूठ बोलने वाले को सत्य से जीतो ।” “मलवग्ग” (वर्ग १८) में भगवान् ने कहा है कि अविद्या ही सब से बड़ा मल है Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१९ ) “भिक्षुओ ! इस मल को त्याग कर निर्मल बनो।" "धम्मट्ठवग्ग" (वर्ग १९) में वास्तविक धर्मात्मा पुरुष के लक्षण बतलाये गये हैं।” “बहुत बोलने से धर्मात्मा नहीं होता। जो थोड़ा भी सुन कर शरीर से धर्म का आचरण करता है और जो धर्म में असावधानी नहीं करता, वही वास्तव में धर्मधर है।" इसी प्रकार "मौन होने से मुनि नहीं होता। वह तो मूढ़ और अविद्वान् भी हो सकता है। जो पापों का परित्याग करता है, वही मुनि है । चूंकि वह दोनों लोकों का मनन करता है, इसीलिये वह मुनि कहलाता है।" इसी वर्ग में भगवान् का यह उत्साहकारी मार्मिक उपदेश भी है, 'भिक्षुओ ! जब तक चित्त-मलों का विनाश न कर दो नै टो" सिर । म मावि शालो . "rm.'' (वर्ग २०) में निर्वाण-गामी विशुद्धि -मार्ग का वर्णन है। सभी संस्कारों को अनित्य, दु:ख और अनात्म समझते हुए मनुष्य को चाहिये कि “वाणी की रक्षा करने वाला और मन से संयमी रहे तथा काया से पाप न करे । इन तीनों कर्मपथों की शुद्धि करे और ऋषि (बुद्ध) के बताये धर्म का सेवन करे।” 'पकिणकवग्ग' (वर्ग २१) में अहिंसा, और शरीर के दुःखदोषानुचिन्तन आदि का वर्णन है। “निरय- वग्ग" (वर्ग २२) में बतलाया गया है कि कैसे पुरुष नरक-गामी होते हैं । “नाग-वग्ग" (वर्ग २३) में नाग (हाथी) के समान अडिग रहने का उपदेश दिया गया है । “जैसे युद्ध में हाथी धनुष से गिरे वाण को सहन करता है, वैसे ही वाक्यों को सहन करूँगा । संसार में तो दुःशील आदमी ही अधिक है।" "तण्हा वग्ग” (वर्ग २४) में तृष्णा को खोद डालने का उपदेश है। अपने पास ... . .. . .. .... .. ... . ... . . ... Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२० ) छोड़ देती है, वैसे ही तुम राग और द्वेष को छोड़ दो।" "ब्राह्मण-वग्ग" (वर्ग २६) में ब्राह्मणों के लक्षण गिनाये गए है। २६।१३-४१ गाथाएँ तो बड़ी ही काव्यमय हैं। भगवान् की दष्टि में वास्तविक ब्राह्मण कौन है, इस पर कुछ गाथाएँ देखिए "माता और योनि से उत्पन्न होने से मैं किसी को ब्राह्मण नहीं कहता। वह तो 'भोवादी' ('भो' 'भो' कहने वाला, जैसा ब्राह्मण उस समय एक दूसरे को सम्बोधन करते समय करते थे) है और संग्रही है । मैं तो ब्राह्मण उसे कहता हूँ जो अपरिग्रही और लेने की इच्छा न रखने वाला है। "जो विना दूपित चित्त किये गाली, वध और बन्धन को सहन करता है, आमा बल ही जिसकी सेना का सेनापति है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ। “कमल के पत्ते पर जल और आरे के नोक पर सरसों की भांति जो भोगों में लिप्त नहीं होता, उस मै ब्राह्मण कहता हूँ। "जो विरोधियों के बीच विरोध-रहित रहता है, जो दंडवारियों के बीच दंड रहित रहता है, संग्रह करने वालों में जो संग्रह-रहित है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ। "जिसने यहां पुण्य और पाप दोनों की आसक्ति को छोड दिया, जो गोक रहित, निर्मल और शुद्ध है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ। "जिसके आगे, पीछे और मध्य में कुछ नहीं है, जो सर्वत्र परिग्रह रहित है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ।" आदि। ऊपर धम्म-पद की विषय-वस्तु के स्वरूप का जो परिचय दिया गया है, उससे स्पष्ट है कि उसमें नीति के वे सभी आदर्श संगृहीत हैं जो भारतीय संस्कृति और समाज की सामान्य सम्पत्ति हैं। धम्मपद की आधी से अधिक गाथाएँ त्रिपिटक १. डा० विमलाचरण लाहा ने 'हिस्ट्री ऑव पालि लिटरेचर' जिल्द पहली पृष्ठ २००-२१४ के अनेक पद-संकेतों में उपनिषद्, महाभारत, गीता, मनुस्मृति आदि ग्रन्थों से उद्धरण देकर धम्मपद की गाथाओं से उनकी समानता दिखाई है। इस विषय का अधिक तुलनात्मक अध्ययन भी किया जा सकता है। Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के अन्य भागों में भी मिलती है। धम्मपद के पालि संस्करण के अतिरिक्त कुछ अन्य संस्करण भी मिलते है। उनका भी उल्लेख कर देना यहाँ आवश्यक होगा। इस प्रकार के मख्यतः चार संस्करण उपलब्ध है। सर्वप्रथम प्राकृत धम्मपद है। खोतान में खंडित खरोष्ट्री लिपि में यह प्राप्त हुआ है। यह बिलकुल अपूर्ण अवस्था में है और यह नहीं कहा जा सकता कि इसका मौलिक स्वरूप क्या था। इस ग्रन्थ का सम्पादन पहले फ्रेंच विद्वान् सेना ने किया था। बाद में इसका सम्पादन डा० वेणीमाधव वाडुआ और सुरेन्द्रनाथ मित्र ने किया है। प्रस्तुत ग्रन्थ में १२ अध्याय हैं. जिनकी अनरूपता पालि-धम्मपद के साथ इस प्रकार है--- प्राकृत धम्मपद पालि धम्मपद दर्ग-क्रम वर्ग-नाम और गाथाओं की संख्या इनके अनरूप क्रम, नाम और गाथाओं की संग्या जो पालि धम्म पद में पाई जाती है मगवग ३० २० मग वग्ग १७ अप्रमाद वग २५ २ अप्पमाट बग्ग १२ चितवग ५ (अपूर्ण) ३ चिन वग्ग ११ पुप वग १५ ४ पृष्फ बग्ग १६ सहस वग १७ ८ सहस्म वग्ग १६ पनित वग या धमठ वर्ग १० पंडित बंग्ग १४ १९ धम्मट्ठ बग्ग १७ बाल वग ७ (अपूर्ण) ५ बाल वग्ग १६ जरा वग २५ ११ जरावग्ग ११ सह वग २० १५ मख वग्ग १२ तप वग ७ (अपूर्ण) २८ तण्हा वग्ग २६ भिख वग ४० २५ भिक्ख वग्ग २३ ब्राह्मण वग ५० २६ ब्राह्मण वग्ग ४१ Gns www 6 १. देखिये वाडुआ और मित्र : प्राकृत धम्मपद, पृष्ठ ८ (भूमिका) Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२२ ) चूंकि प्राकृत धम्म पद की अभी कोई पूर्ण प्रति नहीं मिल सकी है, अतः दोनों के तुलनात्मक अध्ययन से किसी निश्चित मत पर नहीं पहुँचा जा सकता। जिन वर्गों के नामों में समानता है उनके भी क्रमों और गाथाओं की संख्या के सम्बन्ध में काफी असमानता है। अधिकतर पालि धम्मपद की अपेक्षा प्राकृतधम्मपद के वर्गों में ही गाथाएँ अधिक हैं। इस गाथा-वृद्धि का कारण यही जान पड़ता है कि चूंकि धम्मपद की गाथाओं का संग्रह पूरे सुत्त-पिटक के ग्रन्थों से ही किया गया है, अतः उनके चुनने में विभिन्न सम्प्रदायों के ग्रन्थों में विभिन्नता आ गई है। अन्य संस्करणों के वारे में भी यही वात है। धम्मपद का दूसरा संस्करण, जिसका भी स्वरूप अभी अनिश्चित ही है उसका गाथा-संस्कृत या मिश्रित संस्कृत में लिखा हुआ रूप है । इसका साक्ष्य हमें 'महावस्तु' से मिलता है जो स्वयं गाथा-संस्कृत में लिखी हुई रचना है और जिसने 'धर्मपद' का एक अंश मानते हुए 'सहस्र वर्ग' (धर्मपदेषु सहस्रवर्गः) नामक २४ गाथाओं के समूह को उद्धृत किया है। २ 'सहस्सग्ग' नामक धम्मपद का भी आठवाँ 'वग्ग' है, यह हम पहले देख चुके हैं। किन्तु वहाँ केवल १६ गाथाएँ हैं। 'महावस्तु' में उद्धृत 'सहस्र वर्ग' के अतिरिक्त प्राकृत धम्मपद के पूरे स्वरूप के बारे में हमें कुछ अधिक ज्ञान नहीं है। धम्मपद के 'चुह-खि-उ-थिङ' नामक चीनी अनुवाद से जो २२३ ई० में किया गया था, यह अवश्य ज्ञात होता है कि उसका मूल प्राकृत धम्मपद था, किन्तु उसके भी आज अनुपलब्ध होने के कारण प्राकृत-धम्मपद के वास्तविक स्वरूप की समस्या उलझी ही रह जाती है। धम्मपद का तीसरा रूप विशुद्ध संस्कृत में है जो अपने खंडित रूप में तुर्फान में पाया गया है। इस ग्रन्थ में २३ अध्याय हैं, अर्थात पालि धम्म पद से ६ अधिक। इसी संस्करण का तिब्बती भाषा में अनुवाद भी मिलता है जो ८१७-८४२ ईसवी में किया गया था। रॉकहिल ने इसका अनुवाद 'उदान वर्ग' शीर्षक से किया है और उसे संस्कृत-धर्मपद का प्रतिरूप १. गाथा-वृद्धि के उदाहरणों और उनके कारणों के अधिक विस्तृत विवेचन के के लिये देखिये वाडुआ और मित्र : प्राकृत धम्मपद, पृष्ठ ३१ (भूमिका) २. तेषां भगवान् जटिलानां धर्मपदेषु सहस्रवर्ग भासति 'सहस्रमपि वाचाना अनर्थपदसंहितानां, एकार्थवती श्रेया यं श्रुत्वा उपसाम्यति' । Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२३ ) माना है। धम्मपद का चौथा रूप फ-ख्यू-किङ नामक चीनी अनुवाद में पाया जाता है। यह अनुवाद मूल संस्कृत धम्मपद से २२३ ई० में किया गया। मुल आज अनुपलब्ध है । अतः पालि धम्मपद से उसकी तुलना तो नहीं की जा सकती, किन्तु चीनी अनुवाद के आधार पर कुछ ज्ञातव्य वातें अवश्य जानी जा सकती हैं। पहली बात तो यह है कि चीनी अनुवाद मात्र अनुवाद ही नहीं है। उसे या तो एक अर्थ-कथा ही कहा जा सकता है. या यह स्वीकार करना पड़ेगा कि उसमें वास्तविक धर्मपद का काफी परिवर्द्धन किया गया है। इस चीनी अनुवाद में पालि धम्मपद के २६ वर्गों या अध्यायों की जगह ३९ तो अध्याय हैं और ४२३ गाथाओं की जगह ७५२ गाथाएँ हैं। इनका तुलनात्मक विवरण इस प्रकार है-- चीनी धम्मपद (फ-ख्यू-किङ) पालि धम्मपद १. अनित्यता (२१) २. ज्ञान-दर्शन (२९) ३. श्रावक (१९) ४. श्रद्धा (१८) अनपलब्ध ५. कर्तव्य-पालन (१६) ६. विचार (१२) ७. मैत्री भावना (१९) ८. संलाप (१२) ९. यमक वग्ग (२२) १. यमक वग्ग (२०) १०. अप्रमाद वग्ग (२०) २. अप्पमाद वग्ग (१२) ११. चित्त वग्ग (१२) ३. चित्त बग्ग (११) १२. पुप्फ वग्ग (१७) ४. पुप्फ वग्ग (१६) १३. बाल वग्ग (२१) ५. बाल वग्ग (१६) १४. पंडित वग्ग (१७) ६ . पंडित वग्ग (१४) १५. अर्हन्त वग्ग (१०) ७. अर्हन्त वग्ग (१०) १६. सहस्र वग्ग (१६) ८. सहस्स वग्ग (१६) १७. पाप वग्ग (२२) ९. पाप वग्ग (१३) १८. दंड वग्ग (१४) १०. दंड वग्ग (१७) Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९. जरा वग्ग (१४) २०. अत्त वग्ग (१४) २१. लोक वग्ग (१४) २२. बुद्ध वग्ग (२१) २३. मुख वग्ग (१४) २४. पिय वग्ग ( १२ ) २५. कोध वग्ग (२६) २६. मल वग्ग (१९) २७. धम्मट्ठे वग्ग ( १७ ) २८. भग्ग वग्ग ( २८ ) २९. पकिण वग्ग (१८) ३०. निरय वग्ग (१६) ३१. नाग वग्ग (१८) ३२. तण्हा वग्ग (३२) ३३. मेवा ( २० ) ३४. भिक्खु वग्ग (३२) ३५. ब्राह्मण वग्ग ( ४० ) ३६. निर्वाण ( ३६ ) ( २२४ ) ३७. जन्म और मृत्यु (१८) ३८. धर्म-लाभ (१९) ३९. महामंगल (१९) - ११ . जरा वग्ग ( ११ ) १२. अत्त वग्ग (१०) १३. लोक वग्ग (१३) १४. बुद्ध वग्ग (१८) १५. मुख वग्ग ( १२ ) पिय वग्ग ( १२ ) कोध वग्ग (१४) मल वग्ग (२१) धम्मट्ट वग्ग ( १७ ) १६. १७. १८. १९. २०. २१. २२. २३. २४. २५. २६. मग्ग वग्ग ( १७ ) पकिण वग्ग (१६) निरय वग्ग (१४) नाग वग्ग ( १४ ) तण्हा वग्ग (२६) भिक्खु वग्ग ( २३ ) ब्राह्मण वग्ग (४१) ऊपर चीनी अनुवाद के वर्गों के नाम जहाँ उनकी पालि धम्मपद के साथ समता है, पालि में सुविधा के विचार से दे दिये गए हैं। चीनी अनुवादों में तो उनके स्वभावतः चीनी भाषा में ही शीर्षक है । ऊपर की तुलना से स्पष्ट है कि पालि धम्मपद की गाथाओं की संख्या को चीनी अनुवाद में बढ़ा दिया गया है । वास्तव में ऊपर जितने संस्करणों का विवरण दिया है उनमें यही घटा-बढ़ी की गई है। वास्तव में सब का मूलाधार तो पालि धम्मपद ही है जिसकी गाथाओं को अक्सर बढ़ा कर और कहीं कहीं घटा कर भी भिन्न-भिन्न बौद्ध सम्प्रदायों Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२५ ) ने अपने अलग अलग संग्रह बना लिए जिनके कुछ उदाहरण हम धम्मपद के ऊपर निर्दिष्ट स्वरूपों में देख चुके है। अब हम बुद्ध-वचनों के एक दूसरे संग्रह पर आते है। उदान' 'उदान' भगवान् बुद्ध के मुख से समय-समय पर निकले हुए प्रीति-वाक्यों का एक संग्रह है। "भावातिरेक से कभी कभी सन्तों के मुख से जो प्रीति-वाक्य निकला करते है, उन्हें 'उदान' कहते हैं।" "उदान' में भगवान बद्ध के ऐमे गम्भीर और उनकी समाधि-अवस्था के सचक शब्द संग्रहीत है जो उन्होंने विशेष अवसरों पर उच्चरित किये । भगवान् द्वारा उच्चरित वचन अधिकतर गाथाओं के रूप में हैं और जिन अवसरों पर वे उच्चरित किये गये, उनका वर्णन गद्य में है। गद्यभाग निश्चयतः संगीतिकारों की रचना है जिसे उन्होंने बद्ध-जीवन के प्रत्यक्ष सम्पर्क से ग्रथित किया है। उसकी प्रामाणिकता के विषय में यही कहा जा सकता है कि विनय-पिटक के चुल्लवग्ग और महावग्ग में तथा महापरिनिबाणसुत्न जैसे सुत्त-पिटक के अंशों में बुद्ध-जीवन का जो चित्र उपस्थित किया गया है उसकी वह अनुरूपता में ही है। गदा-भाग के अन्त में आने वाले 'उदानों में तो वास्तविक वद्ध-वचन होने की सगन्ध आती ही है। उनमें जैसे शास्ता ने अपने आपको अनुप्राणित कर दिया है, अपनी प्राण-ध्वनि ही फक दी है, ऐसा मालम पड़ता है। वास्तव में 'उदान' का अर्थ भी यही है। 'उदान' की सब से बड़ी विशेषता है बौद्ध जीवन-दर्शन का उसके अन्दर स्पष्टतम प्रस्फुटित स्वरूप । बुद्ध-जीवन के अनेक प्रसंगों के अतिरिक्त चित्त की परम शान्ति, निर्वाण, पुनर्जन्म. कर्म और आचार-तन्व सम्बन्धी गम्भीर उपदेश 'उदान' में निहित है। _ 'उदान' में ८ वर्ग (वग्ग) है और प्रत्येक वर्ग में प्रायः दस सुत्त है। केवल सातवें वर्ग में ९ सुत्त है। ८ वर्गों के नाम इस प्रकार है (१) बोधि वर्ग (बोधि १. महापंडित राहुल सांकृत्यायन, भदन्त आनन्द कौसल्यायन तथा भिक्षु जगदीश काश्यप द्वारा देव-नागरी लिपि में सम्पादित, तथा उत्तम भिक्षु द्वारा प्रकाशित, सारनाथ १९३७ ई० । भिक्षु जगदीश काश्यप ने इस ग्रन्थ का हिन्दी अनुवाद किया है, महाबोधि सभा, सारनाथ, द्वारा प्रकाशित, बुद्धाब्द. २४८२ । Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२६ ) वग्ग), (२) मचलिन्द वर्ग (मचलिन्द वग्ग), (३) नन्द वर्ग (नन्द वग्ग.). (४) मेघिय वर्ग (मेघिय वग्ग), (५) शोण-स्थविर संबंधी वर्ग (मोणत्थेरम्स वग्ग), (६) जान्यन्ध वर्ग (जच्चन्ध वग्ग), (७) चुल वर्ग (चल वग्ग), और (८) पाटलिग्राम वर्ग. (पाटलिगामिय वग्गो) । प्रत्येक वर्ग के प्रत्येक सूत्र में भगवान् का गाथा बद्ध उदान है। शैली सरल है और सब जगह प्रायः एक सी ही है। उदाहरण के लिए पांचवें वर्ग के इस सातवें सुन को उद्धृत किया जाता है-- “एसा मैंने सुना-- एक समय भगवान् श्रावस्ती मे अनाथपिडिक के जेतवन आराम में विहार करते थे। उस समय भगवान् के पास ही आयुष्मान् कांक्षारेवत आसन लगाये, अपने शरीर को सीधा किए, कांक्षाओं से शुद्ध हो गये अपने चित्त का अनुभव करते बैठे थे । भगवान् ने पास ही में आयुष्मान कांधारेवत को आसन लगाये, अपने शरीर को सीधा किये, काक्षाओं से शुद्ध हो गए अपने चित्त का अनुभव करते देखा। इस जाने, उस समय भगवान के मुह से उदान के य शब्द निकल पड़े-- "लोक या परलोक में, अपनी या परायी, (संसार सम्बन्धी) जितनी कांक्षाएं है, ध्यानी उन सभी को छोड़ देते है, तपस्वी ब्रह्मचर्य बन का पालन करते है।" सब सुनों की यही शैली है। पहले कहानी या पृष्ठभूमि आती है, फिर बुद्ध का भावातिरेकमय वचन । कहीं कहीं कहानी अपनी प्रभावशीलता और मौलिकता भी लिये हुए है जैसे ३।२ में नन्द की कहानी, या २८ में सुप्रवासा की कथा। कहीं कहीं, जैसा विटरनिन्ज़ ने दिखाया है, उदानों के लिए उपर्युक्त पृष्ठभूमि तैयार करने के लिए मंगीतिकारो ने कथाओं को अपनी तरफ मे गढ़ा भी है जिसमें उन्हें सफलता नहीं मिली है। विंटरनित्ज़ के इस कथन में सर्वाग में सहमत होना अशक्य है। उदाहरणतः ८१९ में आयुष्मान् दब्ब जो एक महान् साधक और भगवान बद्ध के शिष्य थे, की निर्वाण-प्राप्ति के अवमर पर भगवान् ने यह उदान किया "शरीर को छोड़ दिया, मंज्ञा निरुद्ध हो गई, सारी वेदनाओं को भी बिलकुल Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२७ ) जला दिया। संस्कार शान्त हो गए, विज्ञान अस्त हो गया ।" विंटरनित्ज़ का कहना है कि ऐसे गम्भीर प्रवचन के लिए उपर्युक्त अवसर ठीक नहीं था । कम ही लोग डा० विंटरनित्ज़ के इस मत से सहमत हो सकते हैं। जिन-जिन अवसरों पर या जिस-जिस पृष्ठभूमि में बुद्ध के उद्गारों का 'उदान' में निकलना दिखलाया गया है, उन्हें हम ऐतिहासिक रूप मे अधिकतर ठीक ही मानने के पक्षपाती हैं। अब हम प्रत्येक वर्ग की विषय-वस्तु का संक्षिप्त निर्देश करेंगे । "बोधि वर्ग” (वर्ग १) में भगवान् बुद्ध की सम्मोधि प्राप्ति के बाद के कुछ सप्ताहों के जीवन का वर्णन है । उस समय भगवान् विमुक्ति-सुख का अनुभव करते हुए विहर रहे थे । इसी समय उन्होंने अनुलोम और प्रतिलोम प्रतीत्यसमुत्पाद का चिन्तन किया था । कुछ ब्राह्मणों को देख कर उन्होंने वास्तविक ब्राह्मण पर उद्गार किये। स्नान और होम में रत कुछ व्यक्तियों को देख कर भगवान् ने यह उद्गार भी किया, “स्नान तो सभी लोग करते हैं, किन्तु पानी से कोई शुद्ध नहीं होता । जिसमें सत्य है और धर्म है, वही शुद्ध है, वही ब्राह्मण है !" " मुचलिन्द वर्ग " ( वर्ग २ ) में भी भगवान् की सम्बोधि प्राप्ति के कुछ सप्ताहों बाद तक की जीवनी का वर्णन है, किन्तु यहा कुछ अलौकिकता मे अधिक काम लिया गया है। मुचलिन्द नामक सर्पराज समाधिस्थ भगवान् बुद्ध के शरीर की वर्षा से रक्षा करने के लिए जो उस समय होने लगी थी, उनके शरीर को सात बार लपेट कर उनके ऊपर अपना फन फैला कर खड़ा हो गया, ताकि भगवान् को वर्षा का कष्ट न होने पावे । जिन घटनाओं का प्रथम और इस दूसरे वर्ग में वर्णन है, उनमें काल-क्रम का कोई तारतम्य नहीं है, क्योंकि प्रथम वर्ग के कुछ सूत्र भगवान् की सम्बोधि प्राप्ति की बाद की अवस्था का वर्णन करते हैं और उसके बाद ही कुछ सूत्र सूचना देते हैं " एक समय भगवान् आवस्ती में अनाथपिंडिक के जेतवन आराम में विहार करते थे" । ( ११५; १८ : १।१० ) । इसी प्रकार दूसरे वर्ग में भी प्रथम सूत्र में तो भगवान् उरुवेला में नेरंजना नदी के तीर पर ही विहार करते हैं, किन्तु दूसरे सूत्र में वे श्रावस्ती में अनाथपिडिक के जेतवन आराम में विहार कर रहे हैं । बुद्धत्व के तीसरे वर्ष जेतवन- आराम का दान किया गया था । अतः ये घटनायें काफी बाद की हैं। इसी प्रकार भगवान् अन्य स्थानों में भी विहार Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२८ ) करते दिखाये गए हैं, जैसे मृगारमाता के पूर्वाराम प्रासाद में (२।९) या कुंडिया नगर के कुंडिधान वन में (२८)। दूसरे वर्ग में हम भिक्षुओं को इस निरर्थक बात पर विवाद करते हुए पाते है कि “मगधगज बिम्बिसार और कोशलराज प्रमेनजित् में कौन अधिक धनी, सम्पत्तिशाली या अधिक सेनाओं वाला है।" भगवान् इसे सन कर उन्हें कहते हूँ "भिक्षओ ! तुम श्रद्धापूर्वक घर से वेघर होकर प्रव्रजित हुए हो। तुम कुलपुत्रों के लिए यह अनुचित है कि तुम ऐमी चर्चा में पड़ो। भिक्षुओ! इकट्ठे हो कर तुम्हें दो ही काम करने चाहिए, या तो धार्मिक कथा या उत्तम मौन भाव ।” इसी वर्ग में मप्रवासा की कथा भी है। यह स्त्री गर्भ की असह्य पीड़ा में पड़ी थी। प्रसव न होता था। उसने सन रक्खा था भगवान् दुःखों के प्रहाण के लिये धर्मोपदेश करने है । पति मे कहा--भगवान् के चरणो में मेग शिर से प्रणाम कहना, उनका कुशल-मंगल पूछना और मेरी दशा से अवगत कराना। उसके पति ने ऐसा किया। भगवान ने अनुकम्पापूर्वक आगीर्वाद देते हुए कहा, “कोलिय पुत्री सुप्रवासा सुखी हो जाय. चंगी हो जाय, बिना किसी कष्ट के पुत्र प्रसव करे ।" पति घर लौटा तो सुप्रवासा को सुखी और चंगी पाया, जिसने बिना किमी कष्ट के पुत्र प्रसव कर दिया था। सारा घर मन्तोष और प्रमोद से भर गया। कृतज्ञता से भर कर सुप्रवासा ने एक सप्ताह भर तक बुद्ध-प्रमुख भिक्षु-संघ को भोजन के लिये आमन्त्रित किया। भगवान शिष्यों सहित उपस्थित हा। मात दिन बीत जाने पर भगवान् ने सुप्रवासा से कहा, "सप्रवासे ! ऐसा ही एक और भी पुत्र लेना चाहती है ?" सप्रवासा ने प्रमोद में भर कर कहा “भगवन् । में एमे सात पुत्रों को लेना चाहेंगी।" भगवान् के मुह मे उस समय उदान के ये शब्द निकल पड़े, "बरे को अच्छे के रूप में, अप्रिय को प्रिय के रूप में, दुःख को सुख के रूप में प्रमत्त लोग समझा करते है ।" बद्ध के जीवन-दर्शन को समझने के लिये यह कहानी एक अच्छा उदाहरण है। विटरनित्ज़ ने कहा है कि यह कहानी यह भी दिखाती है कि बुद्ध-काल में ही बुद्ध-भक्ति के द्वारा लोग अपने कल्याण की कामना करने लगे थे। महात्माओं के वचनों और आशीर्वादों में मङ्गल प्रमविनी शक्ति होती है. ऐसा विश्वास भारतीय जनता में प्रायः सदा से ही रहा है। अतः इसमें कोई विशेषता दिखाई नहीं पड़ती। विशेषता उस बात में है जो भगवान ने बाद में प्रवासा की सात पूत्रों Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाली कामना को सुनकर कही। यह वान बुद्ध के मुख से ही निकल सकती थी। बुद्ध, जिसने अपने एकमात्र पुत्र का जन्म होते समय उसे अपने उदीयमान विचारचन्द्र को ग्रसने के लिये राहु समझ कर 'राहुल' नाम दिया, “गह पैदा हुआ, बन्धन पैदा हआ।" या तो 'प्रजया किं करिष्यामः” ( हम सन्तान मे क्या करेंगे ) कहने वाले उपनिषदों के ऋषि या सम्यक् मम्बुद्ध ही इनना ऊंचा और निवृत्तिपरायण दृष्टिकोण ले सकते थे। १।८ में वर्णित आर्य मंगाम जी की कथा और २७ में प्रेम को छोड़ देने का उपदेश, ऐसे ही निवनि-परायण उपदेश है । नन्दवर्ग (वर्ग ३) में विशेपतः भगवान बुद्ध के मौमेरे भाई नन्द की कथा है । किस प्रकार यह विलामी युवक भगवान के उपदेश से विरक्त बन गया, यही इममें वर्णन किया गया है । यहाँ भी निवृत्ति का आदर्श ही सामने रक्खा गया है । नन्द पहले भगवान् की जामिनी पर अप्सराओं के लिये ब्रह्मचर्य का पालन करता है । किन्तु ब्रह्मचर्य का पालन करते-करते उमकी अप्सराओं सम्बन्धी इच्छा प्रहीण हो जाती है । भगवान् कहते है “नन्द ! जिम समय तुम्हारी मांसारिक आमक्ति से मुक्ति हो गई उमी समय में जामिनी से छट गया।" कुछ अन्य कथाएँ और उदगार भी इस वर्ग में सम्मिलित है । ३१५ में महामौद्गल्यायन की कायगतामति-भावना का वर्णन है । ३।१० में भगवान् ने कहा है कि अनासक्ति ही मुक्ति-मार्ग है । मेघिय-वर्ग (वर्ग ८) में मेघिय नामक भिक्षु की कथा है । यह भिक्ष भगवान् की सेवा में नियत था। एक दिन एक रमणीय आम्र-वन देख कर इसने वहां जाकर योग-साधन करने की भगवान् मे अनमति मांगी। भगवान ने कहा “मेघिय ! ठहरो, अभी मै अकेला हूँ, किसी दूसरे भिक्षु को आ जाने दो।" मेघिय ने भगवान् के आदेश को न माना और ध्यान करने चला गया। किन्तु वहाँ जाकर जैसे ही ध्यान के लिये बैठा उसके मन में पाप-वितर्क उठने लगे। शाम को फिर भगवान के पास लौटकर आया। भगवान ने उसे ध्यान-सम्बन्धी उपदेश दिया। इसी वर्ग में भिक्षुओं पर व्यभिचार के मिथ्यारोप का वर्णन है (४।८) । इस अवस्था में भी वे शान्त रहते हैं और बाद में उनकी निष्पापना सिद्ध हो जाती है। भगवान का एक ग्वाले ने मक्ग्वन और खीर मे आतिथ्य किया, इसका भी वर्णन इम वर्ग में आता है ( ८१३) । आदमियों की भीड़ से तंग आकर भगवान को पालिलेग्यक के रक्षितवन मे । कान्त-वास करते भी इम वर्ग में हम देखते Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है (४५) । भव-तृष्णा मिट जाने से ही मुक्ति होती है, इस अर्थ का एक उदान भी भगवान् ने यहीं किया है (४।१०) । पाँचवें वर्ग (शोण स्थविर सम्बन्धी वर्ग) में शोण नामक भिक्षु के संघ-प्रवेश, अर्हत्त्व-प्राप्ति आदि का वर्णन है। इमी वर्ग में कोगलराज प्रसेनजित् का बुद्ध के दर्शनार्थ जेतवन-आगम में जाना (५।२) तथा सुप्रबुद्ध नामक कोढ़ी की उपासक (गृहस्थ-शिष्य) के रूप में दीक्षा (५।३) का भी वर्णन है । छठे वर्ग (जात्यन्व-वर्ग) में जात्यन्ध पुरुषों को हाथी दिग्वाये जाने की कथा है। इस कथा का प्रवचन भगवान ने श्रावस्ती के जेतवन-आराम में दिया। अनेक अन्धे हाथी को देखते है, किन्तु उसके पूरे स्वरूप को कोई नहीं देख पाता। जो जिस अंग को देखता है वह उसका वैमा ही रूप बताता है। "भिक्षओ ! जिन जात्यन्धों ने हाथी के शिर को पकड़ा था, उन्होंने कहा, 'हाथी ऐमा है जैसे कोई बडा घड़ा' । जिन्होंने उसके कान को पकड़ा था उन्होंने कहा 'हाथी ऐसा है जैसे कोई मप' । जिन्होंने उसके दाँत को पकड़ा . था, उन्होंने कहा 'हाथी ऐसा है जैसे कोई खुंटा' । जिन्होंने उसके शरीर को पकड़ा था उन्होंने कहा, 'हाथी ऐसा है जैसे कोई कोठी' आदि । इस प्रकार अन्धे आपस में लड़ने-भिड़ने लगे और कहने लगे हाथी ऐमा है, वैसा नहीं, वैसा है, ऐसा नहीं। यही हालत मिथ्यामतवादों में फंसे हए लोगों की है। कोई कहते हैं 'लोक शाश्वत है, यही मत्य है, दूसरा बिलकुल झूठ' कोई कहते है 'लोक अशाश्वत है, यही सत्य है दूसरा बिलकुल झूठ' आदि ।" कितने श्रमण और ब्राह्मण इसी में जूझे रहते है। (धर्म के केवल) एक अङ्ग को देख कर वे आपस में विवाद करते हैं।" उपर्युक्त दृष्टान्त बौद्ध साहित्य में बहुत प्रसिद्ध है। संस्कृत में भी 'अन्धगजन्याय' प्रसिद्ध है । जैन-साहित्य में भी यह सिद्धान्त विदित है। मानवीय बुद्धि की अल्पता और सर्व-धर्म-समन्वय की दृष्टि से यह दृष्टान्त इतना महत्त्वपूर्ण है कि प्रसिद्ध सूफी कवि मलिक मुहम्मद जायसी ने भी इसका उद्धरण अपने 'अखरावट' में दिया है “सुनि हाथी कर नाँव अँधन टोआ धायक । जो देखा जेहि ठाँव मुहम्मद सो तैमेहि कहा।" विश्व का धार्मिक साहित्य इम बहुमूल्य दृष्टान्त के लिये अपने मूल रूप में बौद्ध साहित्य का ही ऋणी है, इसमें बिलकुल भी सन्देह नहीं । सातवें वर्ग ( चुलवर्ग ) में अनेक स्फुट बातों का वर्णन है, यथा लंकुटक भट्टिय नामक भिक्ष को मारिपुत्र का उपदेश (२) और Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसकी समाधि-प्राप्ति (१५), महाकात्यायन की कायगता-सति की भावना (७।७) तथा कोशाम्बी के राजा उदयन के अन्तःपुर में अग्निकांड की सूचना जिसमें रानी श्यामावती (सामावती) के साथ ५०० स्त्रियाँ जल मरी (७।९)। आटवें वर्ग (पाटलि ग्राम-वर्ग) में निर्वाण-सम्बन्धी गम्भीर प्रवचन है । केवल एक को यहाँ उद्धत किया जाता है "भिक्षुओ ! वह एक आयतन है जहाँ न पृथ्वी है, न जल है. न तेज है, न वाय है, न आकाशानन्त्यायतन, न विज्ञानानन्त्यायतन, न आकिञ्चन्यायतन, न नैवमंजानामंज्ञायतन है। वहाँ न तो यह लोक है, न परलोक है, न चन्द्रमा है, न मर्य है । न तो मैं उसे 'अगति' कहता हूँ और न 'गति' । न मैं उमे स्थिति और न च्यति कहता हूँ। मैं उसे उत्पनि भी नहीं मानता। वह न तो कहीं ठहरा है. न प्रवर्तित होता है और न उसका कोई आधार है। यही दुःखों का अन्त है" (८११) आयप्मान दब्ब के निर्वाण पर भगवान ने जो उद्गार किया उमे हम पहले उद्धृत कर ही चुके हैं । वौद्ध निर्वाण के स्वरूप को समझने के लिये 'उदान' का आठवाँ वर्ग भूरि भूरि पढ़ने और मनन करने योग्य है । भगवान के चन्द सोनार के यहाँ अन्तिम भोजन करने को भी इस वर्ग में वर्णन है, जो महापरिनिब्बाण-मुत्त (दीघ० २।३) के समान ही है। इतिवृत्तक' 'इतिवृत्तक' खड्क-निकाय का चौथा ग्रन्थ है । यह ग्रन्थ गद्य और पद्य दोनों में है। 'इतिवृत्तक' का अर्थ है 'ऐमा कहा गया' या 'ऐसा तथागत ने कहा। 'इतिवृत्तक' में भगवान बुद्ध के ११२ प्रवचनों का संग्रह है। ये सभी प्रवचन अत्यन्त लघु आकार के और नैतिक विषयों पर हैं। 'इतिवृत्तक' का प्रायः प्रत्येक सूत्र इन शब्दों के साथ आरम्भ होता है-“भगवान् (बुद्ध) ने यह कहा, पूर्ण १. महापंडित राहुल सांकृत्यायन, भवन्त आनन्द कौसल्यायन तथा भिक्षु जगदीश काश्यप द्वारा देवनागरी लिपि में सम्पादित । उत्तम भिक्षु द्वारा प्रकाशित, १९३७ ई० । इस ग्रन्थ के गद्य-भाग का अनुवाद प्रस्तुत लेखक ने 'ऐसा तथागत ने कहा' शीर्षक से किया है। Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३२ ) पुरुष ( तथागत ) ने यह कहा, ऐसा मैंने सुना ।” केवल ८१-८८, ९१-९८, और १००-१०१ संख्याओं के सूत्र इसके अपवाद हैं । बुद्ध वचनों के उद्धरण की यह विशिष्ट शैली ही इस संग्रह के "इतिवृत्तक' ( ऐसा तथागत ने कहा ) नामकरण का आधार है । 'इतिgar' के विषय - संकलन और शैली की अपनी विशेषताएँ हैं । 'इतिबुत्तक' के ११२ सुत्त चार बड़े बड़े वर्गों या निपातों में विभक्त है। पहले निपात में उन उपदेशों का संकलन है जिनका सम्बन्ध संख्या एक से है । इसी प्रकार दूसरे, तीसरे और चौथे निपातों में उन उपदेशों का संकलन है, जिनका सम्बन्ध क्रमशः दो, तीन और चार संख्याओं से है । इसीलिये इनके नाम भी क्रमशः एकक-निपात, दुक निपात, तिक-निपात और चतुक्क निपात हैं । पहले निपात में २७ सूत्र हैं, दूसरे में २२, तीमरे में ५० और चौथे में १३ । इस प्रकार सूत्रों की कुल संख्या मिलाकर ११२ है । विषय-संकलन की यह शैली आज कृत्रिम जान पड़ती है, किन्तु अध्ययन-अध्यापन के उस युग में जब सारा काम मौखिक रूप से ( मुखपाठवसेन) ही चलता था, गणनात्मक संकलन और वर्गीकरण की यह पद्धति स्मृति के लिये बड़ी सहायक सिद्ध होती थी । फलतः बौद्धों और जैनों का अधिकांश प्राचीन साहित्य इमी शैली में लिखा गया है । संस्कृत के सूत्र - साहित्य का भी उद्भावन इसी आवश्यकता के कारण हुआ । 'इतिवृत्तक' की संख्याबद्ध शैली का ही विकसित रूप हमें अंगुत्तरनिकाय और बाद में अभिधम्मपिटक में मिलता है । 'इतिवृत्तक' के विषय में यह अवश्य कहा जा सकता है कि इस गणनात्मक विधान ने उसके विषय स्वरूप की स्वाभाविकता में कोई बाधा नहीं पहुँचाई है । उसका अलंकार- विहीन सौन्दर्य हमें बुद्ध वचनों को उनके उस नसगिक रूप में, जिसमें वे उच्चरित किये गये थे, ठीक प्रकार देखने में सहायता देता है । 'इतिवृत्तक' की एक बड़ी विशेषता उसके अन्दर गद्य और पद्य दोनों का होना है । प्रत्येक सूत्र के आदि में पहले "ऐसा भगवान् ने कहा, ऐसा पूर्ण पुरुष ( अर्हत् ) ने कहा, ऐसा मैने सुना" आता है । फिर गद्य में बुद्ध वचन का उद्धरण होता है । फिर उसके बाद "भगवान् ने यह कहा । इसी सम्बन्ध में यह कहा जाता है" इस प्रस्तावना के साथ कोई गाथा या गाथाएँ आती हैं, जिनका या तो बिल Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३३ ) कुल वही अभिप्राय होता है जो गद्य-भाग का अथवा जो उसकी पूरक-स्वरूप होती हैं । शब्दों में भी बहुत थोड़ा ही हेर-फेर होता है, अक्सर गद्य-भाग को गाथा-बद्ध कर के रख दिया जाता है । इस गाथा-भाग को भी बुद्ध-वचन की सी प्रामाणिकता देने के लिये उसका उपसंहार करते हुए अन्त में लिख दिया जाता है, 'यह अर्थ भी भगवान् ने कहा, ऐमा मैंने मना ।" इस प्रकार गद्य-भाग और गाथाभाग दोनों एक दूसरे के साथ जुड़े हुए है । 'इतिवुनक के प्रत्येक सत्र की यही शैली है । इसका दिग्दर्शन करने के लिये एक पूरे सूत्र को उद्धृत कर देना आवश्यक होगा। एकक-निपात के इस तीसरे स्त्र को लीजिये-- “ऐमा मैने स्ना-- भगवान् ने यह कहा, पूर्ण पुरुष (अर्हत ) ने यह कहा, "भिक्षुओ ! एक वस्तु को छोडो । मैं तुम्हाग साक्षी होता हूँ तुम्हें फिर आवागमन में पड़ना नहीं होगा। किस एक वस्तु को ? भिक्षुओ ! मोह ही एक वस्तु को छोड़ो। मैं तुम्हारा साक्षी होता हूँ तुम्हें फिर आवागमन में पड़ना नहीं होगा।" भगवान ने यह कहा । इमी मम्बन्ध में यह कहा जाता है---- जिस मोह के कारण मृढ बन कर प्राणी बुरी गतियों में पड़ते हैं, उसी मोह को तत्त्वदर्शी मनुष्य सम्यक् ज्ञान की प्राप्ति के लिये छोड देते हैं, छोड़ कर वे इस लोक में फिर नहीं आते। यह अर्थ भी भगवान् ने कहा, ऐसा मैने मुना।" विद्वानों में इस बारे में कुछ मन-भेद है कि 'इतिवुनक' के गद्य और पद्य भाग में कौन अधिक प्राचीन या प्रामाणिक है। किन्तु उपर्युक्त उद्धरण से यह स्पष्ट है कि संकलनकर्ता ने भी गद्य-भाग में रक्खे हुए अंश को ही बुद्ध-वचन के रूप म उद्धृत किया है और फिर उसकी व्याख्या-स्वरूप गाथा-भाग को जोड़ दिया है, जिसकी प्रशंसा मात्र करने के लिये ही उसने अन्त में यह अर्थ भी भगवान ने कहा, ऐसा मैंने सुना, जोड़ दिया है । वास्तव में, जैसा संकलनकर्ता ने स्वयं कहा है, गाथाभाग वास्तविक बुद्ध-वचन का, जो गद्य में है, अर्थ (अत्थो) ही है । मूल-बुद्धवचन के साथ इस प्रकार उसकी अर्थ-कथा देने की प्रवृत्ति त्रिपिटक के कुछ अन्य अंगों में भी देखी जाती है। 'इतिवृत्तक' में इसी प्रवृति का अनमरण किया गया जान पड़ता है। अतः 'इतिवनक' के गाथा-भाग का उसके गद्य-भाग मे उमी प्रकार का सम्बन्ध है जैसा 'उदान' के गद्य-भाग का उमके गाथा-भाग Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३४ ) के साथ । 'उदान' में गाथा भाग मुख्य प्रामाणिक बुद्ध वचन है । उसकी पृष्ठभूमि के रूप में ही वहां के गद्य-भाग का उपयोग है । कुछ कुछ इमी प्रकार 'इतिवृत्तक' में गद्य भाग मुख्य प्रमाणिक बुद्ध वचन है, जिसकी व्याख्या स्वरूप ही गाथा-भाग की अवतारणा की गई है। अतः 'इतिवृत्तक' के पद्य-भाग की अपेक्षा उसके गद्य-भाग की ही प्रमाणवत्ता और प्राचीनता हमें अधिक मान्य होगी । शैली की दृष्टि से भी यही निष्कर्ष ठीक जान पड़ता है । 'इतित्तक' का गद्य सरल, स्वाभाविक और आलङ्कारिक कृत्रिमताओं से रहित है । अतः उसको मूल बुद्ध वचन मानना अधिक युक्तियुक्त जान पड़ता है । निःसन्देह यह भाग शास्ता के मुख से ही निकला हुआ है । एक एक शब्द यहाँ 'धर्म-मेघ' (धर्म रूपी मेघ - बुद्ध) की वर्षा से अभी तक आई है । ए० जे० एडमंड्स के इस कथन से हम अक्षरश: सहमत हैं कि "यदि 'इतिवृत्तक' बुद्ध-वचन न हो तो और कुछ भी बुद्ध वचन नहीं है ।" हमें 'इतिवृत्तक' इसी गौरव दृष्टि से देखना है । 'इतिवृत्तक' के पहले निपात में, जैसा पहले कहा जा चुका है, उन सुत्तों का संग्रह है जिनका सम्बन्ध एक संख्या वाली वस्तुओं में है । इमी निपात में से एक पूरे सुत्त का उद्धरण पहले दिया भी जा चुका है । इसी प्रकार राग द्वेष, क्रोध, ईर्ष्या आदि पर भी सूत्र हैं । यह निपात तीन वर्गों में विभक्त है, जिनमें से प्रत्येक में क्रमशः १०, १० और 3 सूत्र हैं । इस निपात का मेनभाव-सुत (मैत्रीभाव सत्र - - १1३1७ ) तो भाषा और भाव की दृष्टि से बड़ा ही सुन्दर है । उसके गद्य-भाग को उद्धृत करना यहाँ उपयुक्त होगा । भगवान् कहते हैं, “भिक्षुओ ! पुनर्जन्म के आधारभूत सब पुण्यकर्म मिलकर भी उस मैत्री भावना के जो चित्त की विमुक्ति है, सोलहवें अंश के भी बराबर नहीं होते । भिक्षुओ ! मैत्री भावना ही सब पुण्यकारी कर्मों से अधिक चमकती है, प्रभासित होती है, क्योंकि वह चित्त की विमुक्ति ही है। भिक्षुओ ! जैसे तारागणों का सारा प्रकाश मिलाकर भी एक चन्द्रमा के प्रकाश के सोलहवें अंश के भी बराबर नहीं होता .. . . -- जैसे वर्षा के अन्त में शरद् ऋतु में जब अकाश साफ और मेघों से रहित होता है तो सूर्य वहाँ आरोहण कर अन्धकार-समूह को विच्छिन्न कर चमकता है. . जैसे भिक्षुओ ! रात के पिछले पहर में प्रत्युष काल के समय, शुक्र Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३५ ) तारा चमकता है...भिक्षुओ ! मैत्री भावना भी सब पुण्यकारी कर्मों के ऊपर चमकती है, प्रभासित होती है, क्योंकि वह चिन की विमक्ति ही है।" सुत्तनिपात मन-निपात भी खड्क-निकाय का धम्मपद के समान ही अत्यन्त महत्वपूर्ण ग्रन्थ है. यद्यपि हिन्दी में वह अभी इतना लोकप्रिय नहीं हुआ जितना धम्मपद । फिर भी मौलिक बौद्ध धर्म और बौद्ध माहित्य की दृष्टि से इस ग्रन्थ-रत्न का अत्यन्त ऊँचा स्थान है । अशोक ने भाव शिला लेख में जिन मान बुद्धोपदेशों के नाम दिये है उनमें से तीन अकेले सुत्तनिपात में है, यथा मोनेय्य मूने =नालक सुत्त; मुनि गाथा-मुनि मुत्न एवं उपतिसपमने = मारिपुन- . सुत्त । मुत-निपात की भाषा वैदिक भाषा के बहुत अधिक समीप है। वैदिक भाषा की विविधरूपता और उसके अनेक प्रकार के व्यत्ययों का विवरण हम पहले दे चुके है ।२ जिन अनेक प्रयोगों को बाद में चल कर संस्कृत ने छोड़ दिया, सुत्न-निपात में हमें ज्यों के त्यों मिलते हैं। संस्कृत और पालि का विकास समकालिक है, पर चंकि पालि विशेषतः जन-भाषा थी उमने १. नागरी लिपि में डा० बापट द्वारा सम्पादित, पूना १९२४ । पर यह संस्करण आज कल अप्राप्य है । सन् १९३७ (बुद्धान्द २४८१) में खुदक-निकाय के अन्य दस ग्रन्थों के साथ-साथ सुत्त-निपात का भी नागरी लिपि में सम्पादन महापंडित राहुल सांकृत्यायन, भदन्त आनन्द कौसल्यायन और भिक्षु जगदोश काश्यप ने किया है। बर्मी बिहार सारनाथ (बनारस) द्वारा प्रकाशित । पर यह संस्करण भी अब नहीं मिलता। सुत्त-निपात के पाँच वर्गों में से प्रथम वर्ग (उरग वर्ग) का हिन्दी-अनुवाद भिक्षु धर्मरत्न ने किया है । साय में मूल पालि भी दी है । प्रकाशक भिक्षु महानाम, मूलगन्धकुटी विहार, सारनाथ (बनारस), बुद्धान्द २४८८ (१९४४ ई०) । सुत्त-निपात के शेष भाग का भी अनुवाद भिक्षु धर्मरत्न ने किया है, और इस समय प्रेस में है । बंगला में पूरे सुत्त-निपात का अनुवाद भिक्ष शीलभद्र ने किया है, जो कलकत्ता से सन् १९४१ में प्रकाशित हुआ है। २. देखिए प्रथम परिच्छेद में पालि और वैदिक भाषा की तुलना । Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ २३६ ) - ऋग्वेद की भाषा के उन अनेक प्रादेशिक प्रयोगों को ले लिया है जो वहाँ विद्यमान हैं। अतः उसकी भाषा में पर्याप्त प्राचीनता है। अनेक गाथाओं में हमें इस प्रकार वैदिक भाषा के प्रभाव के लक्षण मिलते हैं। उदाहरणतः समूहतासे (गाथा १४) पच्चायासे (१५), चरामसे, भवाममे (३२), आतुमान, सुवानि, सुवाना (२०१), अवीवदाता (७८४) जैसे प्राचीन वैदिक प्रयोग हमें सुननिपात की भाषा में, विशेषतः उमकी गाथाओं की भाषा में, मिलते हैं। इसी प्रकार 'जनेत्वा' के स्थान पर 'जनेत्व' (६९५) और कुप्पटिच्चस्सन्ति (७८४) जैसे प्रयोग भी बिलकुल ऋग्वेद की भाषा के प्रयोग हैं। सुन-निपात की गाथाओं के छन्द भी प्रायः वैदिक हैं। अनुष्टुभ्. त्रिष्टुभ् , और जगती छन्दों की वहाँ अधिकता है और वैदिक छन्दों के ममान गण का बन्धन भी नहीं है । भाषा के समान विचार के माध्य मे भी मुत्त-निपात की प्राचीनता सिद्ध है । वैदिक युग के देवयजनवाद का पूरा चित्र हमें यहाँ मिलता है । उसका वर्णन इतना सजीव है कि वह प्रत्यक्ष अनुभव के आधार पर ही लिखा हुआ हो सकता है । भाषा और विचारों में सभी जगह एक निमर्गगत स्वाभाविकता और सरलता मिलती है जो बौद्धधर्म के विकास के प्रथम स्तर का पर्याप्त रूप से परिचय देती है। उसकी प्रभावशीलता भी इसीलिए अत्यन्त उच्चकोटि की है। बुद्धधर्म के नैतिक रूप का बड़ा सन्दर चित्र हमें सुन-निपात में मिलता है। उरगसुत्त में निर्वाण-प्राप्ति के मार्ग को बताते हुए कहा गया है : यो उप्पतितं विनेति कोध, विसतं सप्पविसं व ओसधेहि । सो भिक्ख जहाति ओरपारं, उरगो जिण्णमिव तचं पुराणं ॥ जो भिक्षु चढ़े क्रोध को, सर्प-विष को औषध की तरह, शान्त कर देता है, वह इस पार (अपने प्रति आसक्ति) और उस पार (दूसरे के प्रति आसक्ति) को छोड़ता है, साँप जैसे अपनी पुरानी केंचुली को । 'साँप जैसे अपनी पुरानी केंचुली को' कैसी सुन्दर उपमा है ! १. देखिये सुत्त-निपात (भिक्षु धर्मरत्न-कृत हिन्दी अनुवाद, प्रथम भाग) को वस्तुकथा में भिक्षु जगदीश काश्यप का 'सुत्तनिपात की प्राचीनता' सम्बन्धी - विवेचन , पृष्ट ३-५ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३७ ) धनिय-सुत्त में गृहस्थ-सुख और ध्यान-सुख की तुलना की गई है, जिसके उद्धरण का मोह संवरण नहीं किया जा सकता। धनिय गोप पुत्र, स्त्री, धन, धान्यादि से ममृद्ध है । वह एक सुखी गृहस्थ किसान है । वर्षा-काल में वह उद्गार कर रहा है :-- भात मेरा पक चुका। दूध दुह लिया। मही (गंडक) नदी के नीर पर स्वजनों के साथ वास करता हूं। कुटी छा ली है। आग सलगा ली है। अब हे देव ! चाहो तो खूब बरसो ! मक्खी मच्छर यहाँ पर नहीं है। कछार में उगी घास को गौवें चरती है। पानी भी पड़े तो वे उसे सह लें। अब हे देव ! चाहो तो खुब बरसो ! . . . . . . . . मेरी ग्वालिन आज्ञाकारी और अचंचला है । वह चिरकाल की प्रिय संगिनी है। उसके विषय में कोई पाप भी नहीं सुनता। अब हे देव ! चाहो तो खूब बरसो ! में आप अपनी ही मजदूरी करता हूँ। मेरी सन्तान अनुकूल और नीरोग है। उनके विषय में कोई पाप भी नहीं सनता। अब हे देव ! चाहो तो खूब बरसो। __ मेरे तरुण बैल और बछड़े हैं। गाभिन गायें है और तरुण गायें भी, और सब के बीच वृषभराज भी है। अब हे देव ! चाहो तो खूब बरसो ! . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . __खुटे मजबून गड़े है, मंज के पगहे नये और अच्छी तरह बटे है, बैल-भी उन्हें नहीं तोड़ सकते । अब हे देव ! चाहो तो खूब बरसो ।' पाँचवीं-छठी शताब्दी ईसवी पूर्व के मगध-कोसल के किमान के सुखी जीवन का कैमा सुन्दर चित्रण है, उसकी आगा-आकांक्षाओ का कैसा सुन्दर निरूपण है ! ग्रामीण जीवन का यह चित्र, उमके मुख का यह आदर्श, आज भी उतना ही सत्य है जितना बुद्ध-काल में। - - - - - - - - - १. भिक्षु धर्मरत्न का अनुवाद, पृष्ठ ७-१० (कुछ अल्प परिवर्तनों के सिहत) Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३८ ) वेद की एक प्रार्थना में राष्ट्र की विभूति का चित्र खींचा गया है। पर उसके रंग इतने गहरे नहीं हैं, उसकी रेखाएं इतनी और स्पष्ट नहीं हैं, जितनी सत्तनिपात के वर्णन की। इतना होते हुए भी सुखी कृषक के जीवन का वर्णन सुत्त-निपात में केवल एक पृष्ठभूमि के रूप में है, वह स्वयं अपना लक्ष्य नहीं है। उसका वर्णन यहाँ उससे बड़े एक अन्य सुख की केवल अभिव्यक्ति के रूप में किया गया है। उस सुख का उपभोग भगवान् बुद्ध कर रहे है। उनके उद्गारों को कृपक के उद्गारों से पंक्तिशः मिलाइये । मही नदी के तट पर खुले आकाश में बैठे हुए भगवान् उमड़ते हुए बादलों को देख कर प्रसन्न उद्गार कर रहे हैं :-- मै क्रोध और राग से रहित हूँ। एक रात के लिए मही नदी के तीर पर ठहरा हॅ। मेरी कुटी खुली है। अग्नि (रागाग्नि, द्वेषाग्नि, मोहाग्नि) बुझ चुकी है। अब हे देव ! चाहो तो खूब बरमो ! मैने एक अच्छी तरणी बना ली है। भव सागर को तर कर पार चला आया। अब तरणी की आवश्यकता नहीं । हे देव ! चाहो तो खूब बरमो। मेरा मन वशीभूत और विमुक्त है, चिर काल से परिभावित और दान्त है। मुझ में कोई पाप नहीं। हे देव ! चाहो तो खूब बरसो ! मै किसी का चाकर नहीं। स्वच्छन्द सारे संसार में विचरण करता हूँ। मुझे चाकरी से मतलब नहीं । हे देव ! चाहो तो खव बरसो ! १. "आ ब्रह्मन्ब्राह्मणो ब्रह्मवर्चसी जायताम् . . . . . . दोग्धी धेनुर्वोढाऽन ड्वानाशुः सप्तिः पुरन्धिर्योषा . . . . . . निकाम-निकामे नः पर्जन्यो वर्षतु । फलवत्यो न ओषधयः पच्यन्ताम् । योगक्षेमो नः कल्पताम्" । यजुर्वेद २२।२२ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३९ ) मेरे न तरुण बैल है और न बछड़े, न गाभिन गाय है और न तरुण गायें और मब के बीच वृषभराज भी नहीं। हे देव ! चाहो तो खूब बरसो। सांसारिक सुख और ध्यान-सुख को आमने-सामने रख कर कितनी सुन्दर तुलना है। सांसारिक मनध्य कहता है 'उपधी हि नरम्म नन्दना, न हि सो नन्दति यो निरूपधि' अर्थात् विषय-भोग ही सनुप्य के आनन्द के कारण है । जिन्हें विपयभोग नहीं, उन्हें आनन्द भी नहीं। पर राग-विमुक्त महात्मा कहता है "उपधी हि नरस्स सोचना न हि मो सोचति यो निरूपधि' अर्थात् विपय-भोग ही मनुष्य की चिन्ता के कारण है । जो विषय-रहित हैं, वे चिन्तित भी नहीं । दोनों आदर्शों का इससे अधिक सुन्दर निरूपण, इस नाटकीय गति और संवाद-शैली के साथ, सम्भवतः सम्पूर्ण भारतीय साहित्य में नहीं मिल सकता । बौद्ध धर्म के आचारतत्त्व के रूप को समझने के लिए भी यह प्रकरण अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इसी प्रकार 'खग्गविसाण मुत्त' में एकान्तवास का सुन्दर उपदेश दिया गया है । ‘एको चरे खग्गविसाण कप्पो' (अकेला विचरे गडे के सीग की तरह) से अन्त होने वाली इन गाथाओं का सौन्दर्य भी अपना है। कसी भारद्वाज सुत्त में हम ५०० हल लेकर जताई के काम में लगे हए कृषि भारद्वाज नामक ब्राह्मण के साथ भगवान् के प्रसिद्ध काव्यात्मक संवाद को देखते है। भिक्षा के लिए मौन खड़े हुए भगवान् को देख कर कृषि भारद्वाज कहता है "श्रमण । मैं जोतता हूँ, वोता हूँ। श्रमण ! तुम भी जोतो, बोओ। जोताईबोआई कर खाओ।" भगवान् कहते है "ब्राह्मण ! मै भी जोताई बोआई करता हूँ, जोताई बोआई कर खाता हूँ।" (अहम्पि खो ब्राह्मण कसामि च वपामि च कसित्वा च वपित्वा च भुञामि) आगे भगवान ने अपने इस कथन की व्याख्या की है, जो बड़ी सुन्दर है। चन्द-सुत्न में भगवान् ने मजिन (मार्ग जिन) आदि चार प्रकार के श्रमणो की व्याख्या की है। पराभव-सत्त में पतन के कारणों १. भिक्षु धर्मरत्न का अनुवाद, पृष्ठ ७-१० (कुछ अल्प परिवर्तनों के साथ); भगवान् के इन उदगारों के साथ मिलाइये 'थेरगाथा' में प्राप्त भिक्षओं के इस प्रकार के उद्गार भी (आगे 'थेरगाथा' के विवेचन में) Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४० ) को बतलाया गया है । वसल सत्त में हम अग्नि-भारद्वाज नामक ब्राह्मण को भगवान् के प्रति यह कहते सुनने है "मुण्डक ! वहीं ठहर ! श्रमण वहीं ठहर ! वृषल वहीं ठहर ! (तत्रैव मुण्डक, तत्रैव समणक, तत्रैव बसलक निट्ठाहीति) । भगवान् ने बिना क्रोध किए उस अग्निहोत्री ब्राह्मण को बतलाया कि वृषल किसे कहते हैं। लज्जित होकर ब्राह्मण भगवान बुद्ध का जीवन-पर्यन्त उपासक (गृहस्थ-शिष्य) बना । हेमवत सत्त में भगवान् बुद्ध के स्वभाव का वर्णन है । अन्य अनेक बातों के साथ कहा गया है कि उनका ध्यान कभी रिक्त नही होता--बुद्धो झानं न रिञ्चति । इसी प्रकार भगवान बुद्ध के विषय में कहा गया है : "उनका चित्त समाधिस्थ है। सब प्राणियों के प्रति वे एक समान है। इष्ट और अनिष्ट विषयक संकल्प उनके वश में है ।" आलवक सत्त आलवक यक्ष के साथ भगवान् का संवाद है, जिसकी तुलना महाभारत में युधिष्ठिर और यक्ष के संवाद से की जा सकती है। यक्ष के इस प्रश्न के उत्तर में कि सब रसों में कौन सा रस उत्तम है (किं स हवे सादुतरं रसानं) भगवान् ने कहा है 'सच्चं हवे सादुतरं रसानं' अर्थात् सत्य ही सब रसों में उत्तम है। ब्राह्मण बावरि और उनके शिष्यों के भगवान् से संवाद तो विश्व के दार्शनिक काव्य के सर्वोत्तम उदाहरण कहे जा सकते हैं । इमी प्रकार पब्बज्जा, पधान और नालक मन भी अपनी आख्यानात्मक गीतात्मकता के साथ साथ दार्शनिक गम्भीरता में अपनी तुलना नहीं रखते । सन-निपात की विषय-वस्तु पाँच वर्गों में विभक्त है (१) उग्गवग्ग (२) चूल वग्ग (३) महावग्ग (४) अट्ठकवग्ग और (५) पारायण वग्ग । प्रथम वग्ग में १२ सुत्त हैं, यथा (१) उरग (२) धनिय (३) खग्गविमाण (४) कसि भारद्वाज (५) चुन्द (६) पराभव (७) वसल (८) मेत्त (९) हेमवत (१०) आलवक (११) विजय और (१२) मुनि । द्वितीय वर्ग में १४ सुत्त है, यथा (१) रतन (२) आमगन्ध (३) हिरि (४) महामंगल (५) मुचिलोम (६) धम्मचग्यि (७) ब्राह्मण-धम्मिय, (८) नावा (९) किमील (१०) उट्ठान (११) गहल (१२) वंगीम (१३) सम्मापरिबाजनिय और (१४) धम्मिक । तीसरे वर्ग में १२ सन है. यथा (१) पत्रज्जा (२) पधान (३) सुभासित (४) सुन्दरिक भारद्वाज (५) माघ (६) समिय (७) सेल, (८) सल्ल Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४१ ) (९) वामेट्ठ (१०) कोकालिय (११) नालक और (१२) द्वायतानुपस्सना । चौथे वर्ग में १६ सत्त हैं. यथा (१) काम (२) गुहट्टक (३) दुट्ठक (४) मुट्ठक (५) परमट्टक (६) जरा (७) तिस्समेनेय्य, (८) पमूर () मागन्दिय, (१०) पुरामेद (११) कलहविवाद (१२) चुल वियह (१३) महावियह (१४) तुबटक (१५) अनदण्ड और (१६) मारिपुत्त । पाँचवें वर्ग में ये १७ सुत्न है, (१) वत्थुगाथा (२) अजितमाणवपुच्छा (३) तिस्समेनेयमाणवपुच्छा (४) पुषणकमाणवपुच्छा (५) मेनगुमाणवपुच्छा (६) धोतकमाणवपुच्छा (७) उपयीवमाणवपुच्छा (८) नन्दमाणवपुच्छा (९) हेमकमाणवपुच्छा (१०) तोदेय्यमाणवपुच्छा (११) कप्पमाणवपुच्छा (१२) जतुकण्णिमाणवपुच्छा (१३) भद्रावुधमाणवपुच्छा (१५) उदयमाणवपुच्छा (१५) पोमालमाणवपुच्छा (१६) मोघराजमाणवपुच्छा और (१७) पिगियमाणवपुच्छा । यद्यपि सुत्त-निपात की गाथाओं के अनेक अंग, जिनमें आख्यान भी कहीं कहीं कलात्मक सुन्दरता के साथ अनुविद्ध हैं, उद्धरण की अपेक्षा रखते हैं, किन्तु विस्तार-भय से ऐसा नहीं किया जा सकता। वास्तव में सुत्त-निपात में सभी कुछ इतना महत्त्वपूर्ण, सभी कुछ इतना आकर्षक ह कि कुछ समझ में नहीं आता कि उसकी सन्दरता का क्या नमना मामने रक्खा जाय । वह सब का सब बौद्धमाहित्य में जो कुछ भी अत्यन्त मुन्दर और अन्यन्त महत्त्वपूर्ण है, उसका नमना है। फिर भी पाँचवें वर्ग (पागयण वग्ग) मे बुद्ध के समकालिक गोदावरीतटवामी प्रसिद्ध वेदन ब्राह्मण बावरि के १६ शिष्यों के भगवान बुद्ध के साथ जो उदान्त-गम्भीर मंलाप हुए उनका कुछ दिग्दर्शन तो आवश्यक ही है। यहाँ हम देखेंगे कि वैदिक परम्परा के सच्चे माधकों ने भी वृद्ध को कितनी जल्दी पहचान लिया था और उन्हें कितना ऊंचा स्थान दिया था। अजित-माणव-पुच्छा (अजित) "लोक किममे ढंका है ? किससे प्रकाशित नही होता ? किगे इमका अभिलेपन कहते हो? क्या इसका महाभय है ?' (भगवान्) "अविद्या में लोक ढंका है, प्रमाद से प्रकाशित नहीं होता। Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (अजित) (भगवान्) ( २४२ ) तृष्णा को अभिलेपन कहता हूँ । जन्मादि दुःख इसके महाभय है।" “चारों ओर सोने बह रहे है। सोतो का क्या निवारण है ? सोतों का ढंकना बतलाओ, किससे ये सोते ढाँके जा सकते है ?" “जितने लोक में सोते है, स्मृति उनका निवारण है। सोतो की की रोक प्रजा है, प्रजा से ये रोके जा सकते है।" “हे माप ! प्रज्ञा और स्मृति नाम-रूप ही है। यह पूछता हूँ, बतलाओ, कहाँ यह नाम-रूप निरुद्ध होता है ?" "अजित ! जो तूने यह प्रश्न पूछा, उसे तुझे बतलाता हूँ, जहाँ पर कि सारा नाम-रूप निरुद्ध होता है। विज्ञान के निरोध से यह निरुद्ध हो जाता है।" (अजित) (भगवान) पुगणक-माणव-पुच्छा (पुण्णक) “हे तृष्णा-रहित मल-दर्शी ! मैं आपक पास प्रश्न के सहित आया हूँ........जिन ऋषियों ने यन कल्पित किये, क्या वे यज-पथ में अ-प्रमादी थे ? हे मार्प ! क्या वे जन्म-जरा को पार हुए ? हे भगवान् ! तुम्हें यह पूछता हूँ, मुझे बताओ।" (भगवान्) “वे जो हवन करते है, लाभ के लिए ही कामों को जपते है । वे यन के योग से भव के राग से रक्त हो, जन्म-जरा को पार नहीं हुए, ऐसा मैं कहता हूं।" (पूष्णक) "हे माई ! यदि योग के योग (आसक्ति) से यज्ञों द्वारा जन्म-जरा को पार नहीं हुए तो हे मार्ष ! फिर लोक में कौन देव-मनप्य जन्म-जरा को पार हुए, तुम्हे हे भगवन् ! मैं पूछता हूँ। मुझे बतलाओ ?" (भगवान्) “लोक में वार-पार को जान कर, जिसको लोक में कहीं भी तृष्णा नहीं, जो शान्त, धूम-रहित, गगादि-विरत और आगा-रहित है वह जन्म-जरा को पार हो गया--मैं कहता हूँ।" Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४३ ) मेत्तगू-माणव पुच्छा (मेत्तग) "हे भगवान् ! मैं तुम्हें पूछता हूँ, मुझे यह बनलाओ, तुम्हें में ज्ञानी (वेदगू-वेदन) और भावितात्मा समझता हूँ। जो भी लोक में अनेक प्रकार के दुःख है, वे कहाँ से आये है ? ' (भगवान्) “दुःख की इस उत्पनि को पूछते हो। प्रज्ञानुमार मैं उसे तुम्हें कहता हूँ। तृष्णा के कारण ही लोक में अनेक प्रकार के दुःग्व उत्पन्न होते हैं।" धोतक माण व पुच्छा (धोतक) "हे भगवान ! तुम्हे यह पूछता हूँ, महर्षे ! तुम्हारा वचन सुनना चाहता हूँ। तुम्हारे नि?प को मन कर मैं अपने निर्वाण को सीखंगा।" (भगवान्) "तो तत्पर हो. . . . .स्मृतिमान् हो, यहाँ से वचन सुन तुम अपने निर्वाण को मीखो।" (घोतक) “मैं तुम्हें देव-मनुष्य-लोक में निलोभ होकर विहरने वाला ब्राह्मण देखता हूँ। हे समन्तचक्षु ! ( चारों ओर आँखों वाले ) तुम्हे में नमस्कार करता हूँ। हे शक ! मुझे वाद-विवाद से छड़ाओ।" (भगवान्) "हे धोतक ! लोक में मै किमी वाद-विवाद-परायण (कथंकी) को छुड़ाने नहीं जाऊँगा। इस प्रकार श्रेष्ठ धर्म को जान कर तुम इम ओघ (भव-सागर) को तर जाओगे।" (धोतक) "हे ब्रह्म ! करुणा कर विवेक-धर्म को मुझे उपदेश करो, जिसके अनुसार मै यही शान्त और विमुक्त हो कर विचरूं।" (भगवान्) "धोतक ! इमी शरीर में प्रत्यक्ष धर्म को बतलाता हूँ, जिसे जान कर, स्मरण कर, आचरण कर, तु लोक में अगान्ति से तर जायगा।" कप्प-माणव पुच्छा (कप्प) "बड़ी भयानक बाढ़ में सरोवर के बीच में खड़े, मुझे तुम द्वीप (गरण-स्थान) बतलाओ, जिससे यह संसार फिर न हो।" Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४४ ) (भगवान्) "हे कप्प । तुझे द्वीप बतलाता हूँ । अकिंचनता ही सर्वोत्तम द्वीप है। इसे में जरा-मृत्यु-विनाश रूप निर्वाण कहता हूँ।" आदि, आदि। विमानवत्थु और पेतवत्थु विमानवत्थु (विमानवस्तु) का अर्थ है विमानों या देव-आवामों की कथाएँ। इसी प्रकार पेतवत्थु का अर्थ है प्रेतों की कथाएँ। विमानवत्थु और पेतवत्थु में क्रमशः देवताओं और प्रेतों की कहानियों के द्वारा कर्म-फल के सिद्धान्त का प्राकृतजनोपयोगी दिग्दर्शन कराया गया है। देवता प्रकाश-रूप है। वे मन्दर आवासों में रहते हैं । स्वर्ग-लोक नाना प्रकार के आमोद-प्रमोदों से पूरित है। इसके विपरीत प्रेत-योनि दुःखमय है। प्रेतों को नाना प्रकार के कष्ट झेलने पड़ते हैं। इस जन्म में जो नाना प्रकार के शुभ या अशुभ कर्म किये जाते है, उन्हीं के परिणामस्वरूप मृत्य के उपरान्त क्रमशः देवताओं या प्रेतों की गतियाँ प्राप्त होती हैं, यह दिखाने के लिए ही विमानवत्थु और पेतवत्थु की रचना की गई है। इस प्रकार बौद्ध नैतिकवाद ने यहाँ पौराणिक परिधान ग्रहण कर लिया है। ऐसा लगता है नैतिक प्रयोजन के लिए बौद्धों ने स्वर्ग-नरक मय प्राचीन पौराणिकवाद को स्वीकार कर लिया है। किन्तु स्वर्ग का लक्ष्य उन्होंने गृहस्थ-जनों के लिए ही रक्खा है। भिक्षु का पद इससे बहुत अधिक ऊँचा है। वह तो निर्वाणका अभिलापी है। स्वर्ग-लोक भी उसके लिए एक बन्धन है, कामनाओं की तृप्ति का ही एक साधन है। वह तो कामनाओं से ऊपर उठ कर, मनुष्य और देवता सव का ही अनुशासक है। अतः यह ठीक ही है कि किसी भी भिक्षु को शुभ कर्म के परिणामस्वरूप स्वर्ग प्राप्त करते 'विमानवत्थु' में नहीं दिखाया गया। केवल सदगृहस्थ ही शुभ कर्मों के परिणामस्वरूप स्वर्ग प्राप्त करते है और वहाँ नाना प्रकार के रमण, क्रीड़ा दिव्य माल्य-धारण आदि का उपभोग करते है। विमानवत्थु'' में ८५ देव-आवासों - - - - - - - - १. महापंडित राहुल सांकृत्यायन द्वारा बुद्धचर्या, पृष्ठ ३७३-३८४ में अनुवादित । २. देवनागरी लिपि में महापंडित राहुल सांकृत्यायन, भदन्त आनन्द कौसल्यायन तथा भिक्षु जगदीश काश्यप द्वारा सम्पादित (भिक्षु उत्तम द्वारा प्रकाशित, बुद्धाब्द २४८१ (१९३७ ई०) Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४५ ) (विमानों) का वर्णन है, जिन्हें मात वर्गों में विभक्त किया गया है। प्रथम वर्ग का नाम 'पीठ वग्ग' है। इसमें १७ देव-निवासों का वर्णन किया गया है। इसी प्रकार शेष ६ वर्गों में जिनके नाम क्रमशः 'चित्तलता वग्ग', 'पारिच्छत्तक वग्ग', 'मज्जेठ्ठ वग्ग', 'महारथ वग्ग', 'पायामि वग्ग' और 'सुनिक्खित्त वग्ग' हैं, क्रमशः ११, १०, १२, १४, १० और ११ देव-निवामों का वर्णन किया गया है। केवल नाम और थोड़े से आमोद-प्रमोदों को छोड़ कर प्रायः प्रत्येक देव-आवास के वर्णन की गैली और मल भावना एक ही है। कोई देवता किसी आवास-विशेष में आमोद-प्रमोद करता हआ दिखाई पड़ता है। उसे देख कर कोई भिक्षु (मोग्गल्लान) उममे पूछता है "हे देवते! तू सुन्दर वर्ण से युक्त है। अपने शुभ्र वर्ण मे तू शुक्र-नाग के समान मारी दिशाओं को आलोकित कर रहा है। मनुष्यों को प्रिय लगने वाले मारे भोग तुझे प्राप्त है । हे महानुभाव देवते ! मैं तुझसे पूछता हूं--मनुष्य होते हुए तूने क्या पुण्य किया था जिसके फलस्वरूप तुझे ये सब भोग मिले----"पृच्छामि तं देवि महान भावे मनुस्सभूता किमकासि पुजं. .... .यस्म कम्मस्मिदं फलं।" देवता प्रसन्न हो कर अपने मनुष्य रूप में किए हुए पुण्यादि का वर्णन करता है--“महानुभाव भिक्षु! सुन, मै तुझे अपने मनुष्य-रूप में किए हुए पुण्य को बतलाता है। प्राण-हिंसा से विरत, मृषावाद मे विरत, संयत, मदा मील से संवत हो कर मै चक्षप्मान, यशस्वी, गोतम का उपासक था. . . . . . .इसी कारण मेग यह शुभ्र वर्ण है। इसी कारण मैं दिशाओं को आलोकित कर रहा हूँ।” सब वर्णनों की प्रायः यही बानगी है। बौद्ध धर्म में जन-साधारण के लिए जिस नीति-विधान का आदर्श रक्खा गया है उसी का दिग्दर्शन ये करते है। अधिक काव्यमय नवीनता इनमें न होते हुए भी वे केवल उन नैतिक गुणों को जिन्हें बौद्ध धर्म में सद्गृहस्थों के लिए साधारणतः आदरणीय माना गया है, बार बार हमारी स्मृति में अङ्कित करने का प्रयत्न करते हैं। आज इसमे अधिक विमानवत्थु के वर्णनों का महत्व हमारे लिए नहीं माना जा सकता। उनकी पौराणिक पृष्ठभूमि तो निश्चय ही बौद्ध धर्म के उत्तरकालीन विकास की सूचक है, अतः उसे बुद्ध-शासन का उतना आवश्यक अंग मानने की गलती नहीं करनी चाहिए। काव्यात्मक गुण भी उनके अन्दर अधिक नहीं है। 'पतवत्थ' में ५० प्रेतों की कहानियाँ है, जिन्हें ४ भागों में विभक्त किया गया है. यथा (१) पेतवत्थु, Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४६ ) (२) उरग पेतवत्थु, (३) उब्बरी पेतवत्थु और (४) धातु विवण्ण पेतवत्थु। 'पतवत्थु' में प्रेतों की कहानियों के द्वारा यह दिखाया गया है कि किस किस दुष्कर्म के कारण परलोक में क्या क्या दुःख भोगने पड़ते हैं। उदाहरण के लिए एक भिक्षु की कथा देखिए। भिक्ष नारद किसी प्रेत से पूछते हैं--"तेरी सम्पूर्ण काया शुभ्र है। तु सारी दिशाओं को अपने कान्त वर्ण से आलोकित भी कर रहा है। किन्तु तेरा मुख शुकर का है। नूने पूर्व जन्म में क्या कर्म किया था ?' १ प्रेत उत्तर देता है “नारद ! मै काया से संयत था, किन्तु वाणी से असंयत था। इसी लिये नारद ! मेरा यह ऐसी अवस्था है जिसे तू देखता है । हे नारद ! जैसा तुमने स्वयं देखा है, मैं भी तुम्हें कहता हूँ--मुख में पाप न करना, ताकि तुम्हें भी कहीं शूकर के मख वाला न होना पड़े।"२ इस प्रकार शुभ कर्म का परिणाम मरने के बाद शुभ और अशुभ कर्म का अशुभ होता है, इमी नैतिक सत्य को क्रमशः 'विमानवत्थु' और 'पेतवत्थ' में दिखलाया गया है । थेरगाथा और थेरीगाथा थेरगाथा और थेरीगाथा खुद्दक-निकाय के दो महत्त्वपर्ण ग्रन्थ हैं। इन दो ग्रन्थों में क्रमशः बुद्धकालीन भिक्षु और भिक्षुणियों के पद्य-बद्ध जीवन-संस्मरण हैं। १. कायो ते सब्बसोवण्णो सब्बा ओभासते दिसा । मुखं ते सूकरास्स एव कि कम्मं अकरी पुरे। . २. कायेन सञतो आसि वाचा आसि असतो । तेन में तादिसो वण्णो यथा पस्ससि नारद। तं त्यहं नारद ब्रूमि सायं दिखें इदं तया । मा कासि मुखसा पापं मा खो सुकरमुखो अहू ति । पेतवत्थु (खेतूपमा पेतवत्थु) ३. ४. महापंडित राहुल सांकृत्यायन, भदन्त आनन्द कौसल्यायन तथा भिक्ष जगदीश काश्यप ने इन दोनों ग्रन्थों का सम्पादन देवनागरी लिपि में किया है जिसे भिक्षु उत्तम ने बुद्धाब्द २४८१ (१९३७ ई०) में प्रकाशित किया है। प्रोफेसर भागवत ने भी थेरीगाथा का सम्पादन नागरी लिपि में किया है, जिसे बम्बई विश्व विद्यालय ने सन् १९३७ में प्रकाशित किया है। 'थेरीगाथा' Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४७ ) थेरगाथा में २५५ भिक्षओं के उद्गार हैं, जब कि थेरीगाथा में ७३ भिक्षुणियों के। थेरगाथा में १२७९ गाथाएँ (पद्य) है जो २१ निपातों (वर्गों) में विभक्त हैं। थेरीगाथा में ५२२ गाथाएँ है जो १६ निपातों में विभक्त है। वास्तव में थेरगाथा मे थेरीगाथा अधिक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है, क्योंकि यहाँ भिक्षुणियों की आत्मीयता और यथार्थवादिता अधिक स्पष्ट झलकती है। थेरगाथा में अन्तर्जगत् के अनुभवों की बहलता है, जबकि थेरीगाई सेयक्तिक ध्वनि प्रधान है। थेग्गाथा में मग्म्य प्राकृतिक वर्णनों की अधिकता है। भिक्षओं के ध्यान के प्रसंग में ये वर्णन वहाँ स्वभावतः आ गए हैं। किन्तु भिक्षुणियों ने अपने जीवन की वास्तविक परिस्थितियों पर ही अधिक पर्यवेक्षण किया है। दोनों के ही उद्गारों में जीवन के करुण पक्ष के अनुभव की अधिक अभिव्यक्ति है। फिर भी वहाँ निगगा नहीं है । बुद्ध-शामन का अवलम्बन पा कर दोनों ने ही उम गंभीर और गान्त सुख का स्पर्श किया है, जो जीवन की विषमताओं और कटताओं को घोल डालता है और उन पर मनुष्य की विजय का सूचक बनता है। किसी किमी भिक्षु के शब्दों में नारी के प्रति विरक्त भाव भी है। इसी प्रकार किसी किसी भिक्षुणी ने पुरुष के द्वारा उस पर किये गए अत्याचार का भी दुःखपूर्वक स्मरण किया है। मानव-जीवन की ये सामान्य विषमताएं है। इनमें हमें किसी विशेष सिद्धान्त को यहाँ निकालने का प्रयत्न नहीं करना चाहिए। अब हम थेर और थेरी गाथाओं से कुछ उद्धरण दे कर उनकी विषय-वस्तु की विशेषताओं को स्पष्ट करेंगे। स्थविर आतुम अपने अनुभव का वर्णन करते हुए कहते है-मैने वृद्ध, दुःखी, व्याधि से मारे हुए, समाप्त आयु-संस्कार वाले, पुरुप को इन आँखों से देखा । बस इन (दुःखों) से निष्क्रमण पाने के लिए मंने सारे मनोरम भोगों को छोड़ कर प्रवज्या ले ली।" स्थविर वल्लिय का अनुभव भी मार्मिक है, “मेरे बाल बनाने के लिए नाई मेरे पास आया। का अनुवाद (परमत्थदीपनी के आधार पर भिक्षुणियों की जीवनियों के सहित, लेखक ने किया है, जो सस्ता साहित्य मंडल, नई दिली, द्वारा प्रकाशित हो चुका है)। १. जिण्णञ्च दिस्वा दुखितञ्च व्याधितं मतञ्च विस्वा गतमायुसंखयं । ततो अहं निक्वमितुन पजि पहाय कामानि मनोरमानि ॥गाथा ७३ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४८ ) उसके हाथ मे दर्पण ले कर मैं अपने शरीर का प्रत्यवेक्षण करने लगा। काया की तुच्छता को मैने देखा। मेरा अन्धकार वहीं विदीर्ण हो गया ! अहंकार का वस्त्र फाड़ डाला गया। सारे आवरणों से मैं अब विमुक्त हो गया ! अब मेरे लिए पुनर्जन्म होना नहीं है।"१ एक विषयी पुरुप बद्ध-शासन को सुन कर किस प्रकार प्रवजित हो गया है, यह स्थविर किम्बिल के शब्दों में मनिये, “वरे चिन्तन में लगा हुआ में पहले इम काया के शृंगार-साधन में लगा रहता था। मैं उद्धत था, चपल था, एवं काम-वासना से बुरी तरह व्यथित था। सौभाग्यवश आदित्यवन्धु भगवान बुद्ध ने, जो मेरे जैमों का उपाय करने में कुशल हैं, अपने उपदेश से मुझे सत्पथ पर लगा दिया। अब संसार से मेरा चित्त अनासक्त हो चुका है।"२ स्थविर नन्द का गम्भीर अनामक्त भाव देखिये, “चित्त समाधि-मग्न नहीं है और दूसरे इसकी प्रशंमा करते है। यदि चित्त समाधि-मग्न नहीं है तो दूसरों की प्रशंसा व्यर्थ ही है। चित्त अच्छी प्रकार समाधि-मग्न है और दूसरे इसकी निन्दा करते हैं। यदि चिन अच्छी प्रकार ममाधि-मग्न है, तो दूसरे की निन्दा व्यर्थ ही है।"3 वस्तुतः 'थेरगाथा' की दो बड़ी विशेषताएँ हैं, भिक्षुओं के आन्तरिक अनभव का वर्णन और उनका प्रकृति-दर्शन । भिक्षओं ने संस्कारों की अनित्यता को देख कर मांसारिक जीवन से वैगग्य लिया है। चित्त की गान्ति ही उनके लिए सब से बड़ा सुख है। जीवन के प्रति न उनमें उत्सुकता है और न विषादमय दृष्टिकोण। १. फेसे मे ओलिखिस्सन्ति कप्पको उपसंकमि । ततो आदासं आदाय सरीरं पच्च वेक्खिसं। तुच्छो कायो अदिसित्थ, अन्धकारे तमो व्यगा। सब्बे चोला समुच्छिन्ना नत्थि दानि पुनभवो' ति" ॥ गाथाएँ १६९-१७० २. अयोनिसोमनसीकारा मण्डनं अनुयुञ्जिसं । उद्धतो चपलो चासि कामरागेन अट्टितो। उपायकुसलेनाहं बुद्धनादिच्चबन्धुना। योनिसो पटिपज्जित्वा भवे चित्तं उदबहिन्ति ॥ गाथाएँ १५७-१५८ ३. परे च नं पसंसन्ति अत्ता चे असमाहितो। मोघं परे पसंसन्ति अत्ता हि अस माहितो॥ परे च नं गरहन्ति अत्ता चे सुसमाहितो । मोघं परे गरहन्ति अत्ता हि सुसमाहितो॥ गाथाएँ १५९-१६० Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४९ ) वे केवल शान्त और गम्भीर है। अनासक्ति उनके जीवन का मुख्य लक्षण है । जिन्होंने विषयों को वमन के समान छोड़ दिया है, सुख-दुःख जिनके लिए अर्थहीन हो गए हैं, गीत और उष्ण जिनके लिए समान है, ऐसे साधकों की मानसिक दशाओं का वर्णन ही हमें 'थेरगाथा' में मिलता है । भिक्षु जीवन के आदर्श को धर्म-सेनापति सारिपुत्र ने सदा के लिए स्मरणीय शव्दों में व्यक्त करते हुए अपने विषय में कहा है : ——— नाभिनन्दामि मरणं नाभिनन्दामि जीवितं । कालञ्च पटिकङ्क्षामि सम्पजानो पटिस्सतो | नाभिनन्दामि मरणं नाभिनन्दामि जीवितं । कालञ्च पटिकङ्क्षामि निब्बिसं भतको यथा ॥ ' ( न मुझे मरने की इच्छा है, न जीने की अभिलाषा । ज्ञान पूर्वक सावधान हो मैं अपने समय की प्रतीक्षा कर रहा हूँ । न मुझे मरने की इच्छा है, न जीने की अभिलाषा | काम करनेके बाद अपनी मजूरी पाने की प्रतीक्षा करने वाले दाम के समान मै अपने समय की प्रतीक्षा कर रहा हूँ ) धर्मसेनापति सारिपुत्र के परिनिर्वाण पर महामोग्गल्लान स्थविर ने संस्कारों की अनित्यता पर जो भाव प्रकट किए हैं, वे भगवान् के उन महाशिष्य के हृदय के अन्तस्तल तक हमें ले जाते हैं । 'अनिच्चा वत संखारा' का उद्गार करते हुए महामोग्गलान स्थविर कहते हैं- तदासिय भिसनकं तदासि लोमहसनं । अनेकाकारसम्पन्न सारिपुत्तम्हि निब्बुते ॥ २ यह भीषण हुआ, यह रोमांचकारी हुआ । अनेक ध्यान-समापत्तियों से सम्पन्न सारिपुत्र परिनिर्वृत्त हो गये ! १. गाथाएँ १००२-१००३; स्थविर संकिच्च ने भी इन भावों की पुनरावृत्ति की है, गाथाएँ ६०६-६०७ और अंशत: स्थविर निसभ ने भी, गाथा १९६; मिलिन्दप्रश्न में भी इन गाथाओं को उद्धृत किया गया है। देखिये मिलिदप्रश्न, पृष्ठ ५५ ( भिक्षु जगदीश काश्यप का अनुवाद ) २. गाथाएँ ११५८-११५९ । Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५० ) भिक्षुओं ने स्त्री के कामिनी-रूप पर विजय प्राप्त की है। उसके प्रलोभनों में वे नहीं आ सकने, ऐसा उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक कहा है।' एक अलंकृता, सुवसना, मालाधारिणी, चन्दन लेप किये हुए नर्तकी को महापथ के बीच में नृत्य-गान करते हुए भिक्षु ने देखा है। उमी ममय उसने वामना के दुष्परिणाम पर चिन्तन किया है, अशुभ-भावना की है, और इस प्रकार अपने चिन को विमुक्त किया है। स्त्री के रूपादि की आमक्ति को भिक्षुओं ने सब दुःख का कारण माना है। श्मगान में स्त्री के सड़ते हुए शरीर को कृमि आदि से खाये जाते हुए देख कर उन्होंने उसके अनित्य और अशुभ म्प की भावना की है और सत्य का दर्शन किया है।४ स्त्री की काया के ही नहीं, उन्होंने अपनी काया के भी अशुभ, तुच्छ रूप १. सचे पि एतका भिग्यो आगमिस्सन्ति इथियो । नेव मं व्याधियिस्सन्ति धम्मे स्वम्हि पतिहितो ॥ गाथा, १२११. २. अलंकता सुवसना मालिनी चन्दनुस्सदा । मझे महापथे नारी तुरिये नच्चति नट्टको ॥ गाथा, २६७ ततो मे मनसोकारो. . . . . . ततो चित्तं विमुच्चि मे ॥२६९-७०; मिलाइये गाथाएँ ४५९-४६५ भी जहाँ 'पैरों में महावर लगाये हुए' (अलत्तककता पादा) सुवसना, अलंकृता, स्मित करती हुई वेश्या ने भिक्ष के सामने गृहस्थ-जीवन में प्रवेश का प्रस्ताव रक्खा है 'अहं वित्तं ददामि ते' (मैं तुझे धन देती हूँ) यह कहते हुए, पर भिक्षु के उसे मृत्यु का पाश समझ कर अशुभ की भावना की है और सत्य का साक्षात्कार किया है। “काम-वासना में दुष्परिणाम देख कर मैने चित्तमल-रहित अवस्था को प्राप्त कर लिया" (कामेस्वादीनवं . . . . . . पत्तो मे आसवक्खयो--गाथा ४५८); मिलाइये "अंकेन पुत्तमादाय भरिया में उपागमि. .... . ततो मे मनसोकारो..... ततो चित्तं विमुच्चि में", आदि गाथाएँ २९९-३०१ भी ३. इत्थिरूपे इत्थिरसे फोहब्बे पि च इत्थिया। इत्थिगन्धेसु सारत्तो विविधं विन्दते दुखं ॥ गाथा ७३८ ४. अपविद्धं सुसानस्मिं खज्जन्तिं किमिही फुटं । आतुरं असुचि पूर्ति पस्स कुल्ल समुस्मयं । गाथा ३९३ मिलाइये 'धिरत्थु पूरे Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५१ ) का दर्शन ज्ञान-दर्शन की प्राप्ति के लिए किया है। एक भिक्षु ने हमें बताया है कि भिक्षु होने से पहले वह एक गज-पुरोहित का पुत्र था और जाति-मद और भोग और ऐश्वर्य के मद मे मतवाला रहता था, किन्तु अब उसका सब मान, मद और अस्मिमान छूट चुका है और वह प्रमन्न और मान्त है। इमी प्रकार एक अन्य भिक्ष ने हमें बताया है कि पहले राजा होते समय किम प्रकार उसके हाथी की ग्रीवाओं में सूक्ष्म वस्त्र लटकने थे, पर वही आज परिग्रह-रहित मग्न मे ध्यान करता है। उच्च मंडलाकार दृढ़ अट्टलिकाओं और कोठों में वह पहले हाथ में खुडग धारण किये सिपाहियों और पहरेदारों द्वाग रक्षित होते हए भी वासपूर्वक मोता था, पर आज वही विना किमी त्रास के, सम्पूर्ण भयों से विमक्त हो कर वन में प्रवेश कर ध्यान करता है। एक दूसरे भिक्षु (गीलव) ने हमें बताया है कि वह पहले नीच कुल में उत्पन्न हुआ था। दरिद्र था और भोजन भी नहीं पाता था । मुखे फूलों को बीन बीन कर वह बेचता था और अपनी जीविका कमाता था। उसका कर्म हीन था। अपने मन को नीचा कर के वह अनेक मनुष्यों की वन्दना करता था। एक दिन भिक्ष-संघ के साथ मगध के उत्तम नगर (राजगृह) में प्रवेश करते हुए भगवान् मम्यक सम्बुद्ध को उमने देखा। वह आगे दुग्गन्धे . . .' आदि गाथा २७९ तथा गाथा ११५० भी। १. धम्मादासं गहेत्वान जाणदस्सनपत्तिया । पच्चवेक्खिं इमं कायं तुच्छं सन्तरबाहिरं ॥ गाथा ३९५ २. जातिमदेन मत्तोहं भोगैसरियेन च ।. . . . . . . . . मानं मदञ्च छड्डेत्वा विप्पसन्नेन चेतसा। अस्मिमानो समुच्छिन्नो सब्बे मानविधा हता ॥४२३ ४२८ ३. या तं मे हथिगीवाय सुखमा वत्था पधारिता । सोज्ज भद्दो. झायति अनुपदानो. . . . . . उच्चे मण्डलियाकारे दल्हमट्टालकोट्टके । रक्खितो खग्गहत्थेहि उत्तसं विहरि पुरे ॥ सोज्ज भद्दो अनुत्रासी पहीनभयभेरवो। झायति वनमोगह य . . . . . . . . ." ८४२-८६४ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५२ ) बढ़ कर भगवान् की वन्दना करने गया । पुरुषोत्तम (बुद्ध) उस पर कृपा करके स्वयं खड़े हो गए। फिर सर्वलोकानुकम्पक कारुणिक शास्ता ने उससे कहा “आ भिक्षु' ! यही उसकी उपसम्पता हुई। आज भिक्षु की यह हालत है कि इन्द्र और ब्रह्मा भी आकर अञ्जलि बाँध कर उसको प्रणाम करते हैं।' भिक्षुओं के आन्तरिक जीवन का एक अनठा चित्र हमें स्थविर तालपुट के आत्मोद्गार में मिलता है। इम भिक्षु ने अपने चित्त को सम्बोधन कर कुछ महनीय उद्गार किए हैं जिनकी तुलना समर्थ रामदास के 'मनाचे श्लोक' और गोस्वामी तुलसीदास के 'विनय-पत्रिका' के अनेक पदों से अच्छी प्रकार की जा सकती है। वैमे तो लालपुट स्थविर द्वारा उच्चरित सभी गाथाएँ (१०९१-११४५) उद्धरणीय है, परन्तु यहाँ स्थानाभाव से केवल कुछ का उद्धरण ही उपयुक्त होगा। स्थविर तालपुट अपने मन को सम्बोधन करते हुए कहते हैं, "हे चिन ! जैसे फल की इच्छा करने वाला मनुष्य वृक्ष को लगाकर फिर उसकी जड़ को ही तोड़ने की इच्छा करे, उसी प्रकार हे चिन ! मुझको चल और अनित्य इस संसार में लगातार तू वैसा ही करता है ! २. . . . .हे चिन ! सर्वत्र ही तो मैंने तेरे वचन को किया है, अनेक पूर्व १. नीचे कुलम्हि जातोहं दलिदो अप्पभोजनो। होनं कम्मं ममं आसि अहोसि पुग्फछड्डको ॥६२ नीचं मनं करित्वान वन्दिस्सं बहुकं जनं ।६२१ अथ अद्दसासि सम्बुद्धं भिक्खुसंघपुरक्खतं पविसन्तं महावीरं मगधानं पुरत्तमं ॥ ६२२ निक्खपित्वान व्याभंगि वन्दितुं उसपसंकमि । ममेव अनुकम्पाय अठ्ठासि पुरिसुत्तमो ॥६२३ ततो कारुणिको सत्था सब्बलोकानुकम्पको। एहि भिक्खूति मं आह सा मे आसुपसम्पदा ॥६२५ . . . . . . . . इन्द्रो ब्रह्मा च आगन्त्वा में नस्सिसु पञ्जलि ॥६२८ २. रोपेत्वा रुक्खानि यथा फलेसी मूले तरुं छेत्तु तमेव इच्छसि । तथूपमं चित इदं करोसि यं मं अनिच्चम्हि चले नियुञ्जसि ॥११२१ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५३ ) जन्मों में भी तो मैंने तुझे कभी कुपित नहीं किया । तू मेरे ही अन्दर से उत्पन्न हैं, इसलिए कृतज्ञतावण हे चित्त ! मैंने तेरे लिए चिरकाल तक दुःख में संसरण किया है ! हे चित्त ! तू ही ब्राह्मण बनाता है और तू ही क्षत्रिय राजपि । हे चित्त ! तेरे ही कारण वैश्य और शूद्र बनते हैं और देवत्व भी पाते हैं तेरे ही कारण ! हे चित्त ! तेरे ही कारण असुर बनते हैं नरक-योनियाँ भी तेरे ही कारण है । हे चित्त ! पशु-पक्षी की योनियाँ और पितरों की योनियों में भी तू ही डालता है । धिक् ! धिक् ! रे चित्त ! अब तू आगे का क्या करना चाहता है । अब तू मुझे अपना वगवतीं बना न सकेगा ।" 3 यही भिक्षु आगे कामना करता है --. कदा नु हं दुब्बचनेन वृत्तो ततो निमित्तं विमनो न हेस्सं । अथो पट्ठो पि ततो निमित्तं तुट्टो न हेस्मं तदिदं कदा ॥ ४ अर्थात्--कब मैं अपने लिए प्रयुक्त दुर्वचनो को सुनकर उनके कारण दुःखी और उदासीन नहीं हूँगा, और इसी प्रकार अपनी प्रशंसा किये जाने पर उसके कारण प्रसन्न भी नहीं हूँगा -- क्या कभी मेरे ऐसे दिन आयेंगे ? आदि आदि । अपने पुत्र भिक्षु को बुद्ध के साथ देखकर एक पिता उसका अभिनन्दन करता है 1 :-- १. सम्बत्थ ते चित्त वचो कतं मया बहूसु जातिसु न मे सि कोपितो । अज्झत्तसम्भव तताय ते दुक्खे चिरं संसरितं तथा कते ॥ ११२६ २. तवेव हेतू असुरा भवामसे, त्वं मूलकं नेरयिका भवामसे । अथो तिरच्छान गतापि एकदा पेतत्तनं वापि तवेव वाहसा ॥ ११२८ त्ववनो चित्त करोसि ब्राह्मणो त्वं खत्तिया वापि राजदिसी करोसि | मिलाइये. वेस्सा च सुद्दा च भवाम एकदा, देवत्तनंवापि तवेव वाहसा ॥ ११२७ ३. धी धी परं किं मम चित्त काहसि न ते अलं चित्त वसानुवत्तको । ११३४; . नाहं अलं तुय्ह वसे निवत्तितुं । ११३२ ४. गाथा ११००; मिलाइये तुलसीदास “कबहुँक हौ यहि रहनि रहौंगो परुष बचन अति दुसह स्रवन सुनि तेहि पावक न दहौंगो । बिगतमान, सम सीतल मन. " विनय पत्रिका | 1..... Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सान। जैसे पर्वत-गुफा में दो सिंह एक दूसरे को देखकर नाद करें, उसी प्रकार दोनों ज्ञानी एक दुसरे का अभिनन्दन करते हुए कहते है :--मार को सेनासहित जीत कर हम दोनों वीरों ने संग्राम विजय किया है । अपने प्रत्रजिन पुत्र को देखकर माता विलाप करती है । पुत्र उसे समझाता हुआ कहता है :--माता ! मृत पुत्र के लिए माता रो सकती है, अथवा उस पुत्र के लिए भी जो जीवित होते हुए भी उसे दिखाई नहीं देता, अनुपस्थित है। माता ! मैं तो जीवित हूँ और तु मुझे सामने देख भी रही है । फिर माता ! मेरे लिए तू रोदन क्यों करे ? मतं वा अम्म रोदन्ति वो वा जीवं न दिस्सनि । जोवन्तं मं अम्म दिस्सन्ती कस्मा मं अम्म रोदमि ॥२ पर्वत-गुफाओं में ध्यान करते हुए अनेक भिक्षुओं के चित्र हमें 'थेरगाथा' में मिलते हैं। पांगुकूल धारी (गुदड़ी धारी) भिक्षु पर्वत-गुफा में सिंह के समान सुशोभित है--'सोभति पंसुकूलेन सीहो व गिरिगन्भरे'। इसी प्रकार भिक्ष की अचल, ध्यानस्थ अवस्था का वर्णन करते हुए कहा गया है : जिस प्रकार सुदृढ़ पर्वत निश्चल और सुप्रतिष्ठिन होता है, उसी प्रकार जिस भिक्षु का मोह नष्ट हो चुका है, वह अचल पर्वत के समान कम्पित नहीं होता। यथापि पब्बतो सेलो अचलो सुपतिष्ठितो । एवं मोहक्खया भिक्खु पब्बतो' व न बेधति ॥४ इस प्रकार भिक्षु-जीवन के बाह्य और आन्तरिक रूप के अनेक चित्र हमें 'थेरगाथा' में मिलते हैं। उनके आन्तरिक अनुभवों और ध्यानी जीवन का पूरा परिचय हमें यहाँ मिलता है। १. नन्दन्ति एवं सपा सोहा व गिरिगन्भरे । वीरा विजितसंगामा जेत्वा मारं सवाहनं ॥ गाथा १७७ २. गाथा ४४ ३. गाथा १०८१ ४. गाथा १००० Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५५ ) भिक्षुओं ने अपनी साधना में प्रकृति का कितना सहयोग लिया था, इसका भी पूरा दर्शन हमें 'थेरगाथा' में मिलता है। 'थेरगाथा' में इस प्रकार वन्य और पार्वत्य दृश्यों के तथा वर्षा और गरद् आदि ऋतुओं के जितने सन्दर, संश्लिष्ट चित्र प्रसंगवश आ गये है, वे उसकी एक विभूति वन गये है । 'थेरगाथा' के प्रकृतिवर्णन की तुलना भारतीय साहित्य में केवल वाल्मीकि के इस विषय-सम्बन्धी वर्णनों से की जा सकती है। उसकी उदात्तता, सरलता और सूक्ष्म निरीक्षण राब अद्वितीय है। विन्टरनित्ज़ ने 'थेरगाथा' के प्रकृति-वर्णनों को भारतीय गीति-काव्य के सच्चे रत्न' कहा है। प्रस्तुत लेखक ने ‘पालि साहित्य में प्रकृति-वर्णन' शीर्षक लेख में पालि साहित्य, विशेषत: 'थेरगाथा', में प्राप्त प्रकृति-वर्णन का विस्तृत विवेचन करते हुए भारतीय काव्य-साहित्य में उसके स्थान को निर्धारित किया है। अतः यहाँ केवल संक्षेप से ही कुछ कहना उपयुवत होगा। भिक्षुओं का जीवन प्रकृति से गहरे रूप से सम्बद्ध था। गिरि-गुहा, नदीतट, वन-प्रस्थ, पुआल-पुज अथवा किसी छाई हुई या बिना छाई हुई ही कुटिया में ध्यान करते हए भिक्षुओं को वर्षा, शीत आदि ऋतुओ के परिवर्तन का और पृथ्वी और आकाश के अनेक रंगों और रूपों के परिवर्तन का साक्षात् अनुभव होता था। प्रकृति के अनेक रूपों की प्रतिक्रिया उनके चिन पर कैसी होती है, इसके अनेक चित्र वे 'थेरगाथा' में हमारे लिए छोड़ गये हैं। उनमें से कुछ का अवलोकन करना यहाँ आवश्यक होगा। ___ मूसलाधार वर्षा हो रही है। ध्यानस्थ भिक्ष अपनी कुटिया में बैठा है। हाँ, उसकी कुटिया छाई हुई है। भिक्षु उद्गार करता है :-- १. "The Real Gems of Indian Lyric Poctry" इन्डियन लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ १०६ २. धर्मदूत, अप्रैल-मई १९५१ ३. वर्षा होने वाली है। भगवान् मही (गंडक) नदी के तट पर खुली कुटिया (विवटा कुटि) में बैठे है । देखिये सुत्त-निपात, गाथा १९ (धनिय-सुत्त) Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५६ ) बरसो देव ! यथासुख बरसो ! मेरी कुटिया छाई हुई है। (ठंडी) हवा अन्दर न आ सकने के कारण वह सुखकारी है। मेरा चित्त समाधि में दृढतापूर्वक लीन है। (कामासक्ति से) विमुक्त हो चुका है। निर्वाण के लिए उद्योग चल रहा है। बरसो देव ! यथा मुख बरसो ।' एक दूसरे भिक्षु ने इसी अनुभव को इनसे भी अधिक सुन्दर शब्दों में व्यक्त किया है मुन्दर गीत के समान देव बरसता है ! मेरी कुटिया छाई हुई है ! (ठंढी) हवा अन्दर न आ सकने के कारण वह सुखकारी है ! उसमें शान्त-चित्त, ध्यानस्थ में बैठा हूँ। बरसो देव ! जितनी तुम्हारी इच्छा हो बरसो ! सुन्दर गीत के समान देव बरसता है ! मेरी कुटिया छाई हुई है ! (ठंडी) हवा अन्दर न आ सकने के कारण वह सुखकारी है ! उसमें शान्त-चित्त में ध्यान कर रहा हूँ ! वीत-राग ! वीत-द्वेष ! वीत-मोह ! बरसो देव ! जितनी तुम्हारी इच्छा हो बरसो ! २ १. छन्ना मे कुटिका सुखा निवाता वस्स देव यथासुखं । चित्तं मे सुसमाहितं विमुत्तं आतापी विहरामि वस्स देवा' ति । गाथा १ २. वस्सति देवो यथा सुगीतं, छन्ना मे कुटिका सुखा निवाता। तस्सं विहरामि वूपसन्तो, अथ चे पत्थयसि पवस्स देव ॥ वस्सति देवो यथा सुगीतं , छन्ना मे कुटिका सुखा निवाता। वीतरागो. . . . . . वीतदोसो. . . . . . . वीतमोहो. . . अथ चे पत्थयसि पवस्स देवा' ति ॥ गाथाएँ ३२५-३२९ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५७ ) 'वस्पति देवो यथा सुगीनं' ( सुन्दर गीत के समान देव बरसता है ! ) कैसी सुन्दर उपमा है ! प्राकृतिक सौन्दर्य का कैसा मनोज प्रत्यक्षीकरण है ! झड़ी लगाकर बरसते हुए बादल के समान सुन्दर गीत की वर्षा के सौन्दर्य को भी देखने की क्षमता वीतराग भिक्षु में है । पर ध्यान का सुख तो इसमें भी बड़ा है : पञ्चङ्गिन तुरियन न रति होति तादिसी । यथा एकग्गचित्तस्स सम्मा धम्मं विपस्सतो || ( पञ्चविध तूर्यध्वनि (सङ्गीत ) से भी वैसा आनन्द प्राप्त नहीं होता, जैसा एकाग्र चित्त पुरुष का धर्म के सम्यक् दर्शन करने से उत्पन्न होता है) अत: ध्यान का सुख ही भिक्षु के लिए सब से बड़ा सुख है और प्राकृतिक सौन्दर्य उसके लिए इसी ध्यान का उद्दीपन बनता है । वर्षाकाल है । सुन्दर नीली ग्रीवा वाले, कलंगीवारी मोर अपने सुन्दर मुखां से बोल रहे हैं। • कितनी मधुर है उनकी गर्जन ! विस्तृत पृथ्वी चारों ओर हरियाली से भरी हुई है । सारी सृष्टि जल से व्याप्त है । आकाश में जल-पूरित कृष्ण मेघ छाये हुए हैं । ध्यान के लिए यह उपयुक्त अवसर है । भिक्षु को प्रसन्नता कि उसका ध्यान अत्यन्त सुचारु रूप से चल रहा है । बुद्ध-शासन के अभ्यास में वह सुन्दर रूप से अप्रमादी । यदि प्रकृति में उल्लास और उत्साह है, तो भिक्षु का मन भी सुन्दर है । उसे भी उत्साह होता है अत्यन्त पवित्र, कुशल, दुर्दर्श, उत्तम, अच्युत पद (निर्वाण ) का साक्षात्कार करने के लिए । वर्षाकालीन सौन्दर्य के बीच ध्यानस्थ भिक्षु के इस पराक्रम को देखिये :-- नन्दन्ति मोरा सुसिखा सुपेखुणा सुनीलगीवा सुमुखा सुगज्जिनो । सुसद्दला चापि महा मही अयं सुव्यापितम्बु सुवलाहकं नभं ॥ • सुकल्लरूपो सुमनस्स झायितं सुनिक्खमो साधु सुबुद्धसासने । सुसुक्कसुक्कं निपुणं सुदुद्दसं फुसाहितं उत्तममच्चतपदं ॥ २ छत के नीचे बैठे हुए, मित्र परिजनादि से घिरे हुए, सांसारिक मनुष्यके समान वर्षा का सौन्दर्य केवल दूर से अवलोकन करने की वस्तु भिक्षु के लिए नहीं थी । १. गाथा ३९८, मिलाइये गाथा १०७१ २. गाथाएँ २११-२१२ १७ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५८ ) उसके लिए वर्षा अपने सम्पूर्ण आकर्षण और भय के साथ ही आती थी। उसके रौद्र रूप का भी वह उसी प्रकार प्रत्यक्ष अनुभव करता था जैसे उमके मधुर गीत के समान प्रवित होने का। अकेला ध्यानस्थ भिक्षु भयंकर गुफा में बैठा है । बादल बरस रहा है और आकाश में गड़गड़ा रहा है। भयंकर मुसलाधार वा और आकाश में निरन्तर बिजली की गड़गड़ाहट ! पर भिक्ष को भय कहाँ ? निर्भयता उसका स्वभाव है, उसकी 'धम्मता' है। अत: उसे न भय है, न स्तम्भ है और न रोमांच ! स्थविर मम्बुल कच्चान के अनुभव को उनके शब्दों में ही मुनिये : देवो च वस्सति देवो च गळंगळायति एकको चाहं भेरवे बिले विहरामि। तस्स महं एककस्स भेरवे बिले विहरतो नत्थि भयं वा छम्भितत्तं वा लोमहंसो वा॥ धम्मता ममेसा यस्स मे एककस्स भेरवे बिले विहरतो नत्थि भयं वा छम्भितत्तं वा लोमहंसो वा॥ भिक्षुओं की वृत्ति वर्षाकालीन प्राकृतिक सौन्दर्य और विशेषतः ध्यान के लिए उसकी उपयुक्तता पर बहुत रमी है । सुन्दर ग्रीवा वाले मोरों का बोलना और एक दूसरे को बुलाना भिक्षुओं के लिए ध्यान का निमंत्रण है। शीत वायु में कलित विहार करते हुए मोर भिक्षु को ध्यान के लिए उद्बोधन करते हैं : नीला सुगीवा मोरा कारंवियं अभिनदन्ति। ते सीतवातकलिता सुत्तं झायं निबोधेन्ति ॥२ ___ इमी प्रकार सप्पक स्थविर का भी वर्षाकालीन सौन्दर्य मे प्रेरणा प्राप्त कर ध्यान के लिए बैठ जाना एक पवित्रताकारी वस्तु है। महास्थविर अपने १.गाथाएँ १८९-१९०; निर्भयता-विहार के लिए देखिये स्थविर न्यग्रोध का का उद्गार भी "नाहं भयस्स भायामि सत्था नो अमतस्स कोविदो। यत्थ भयं नावतिट्ठति तेन मग्गेन वजन्ति भिक्खवो ॥ गाथा २१ २.गाथा २२ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५९ ) प्रकृति प्रेम और उसमे उत्पन्न ध्यान की इच्छा का वर्णन करते हुए कहते है :-- जब स्वच्छ पांडुर पंख वाले बगुले काले मेघ से भयभीत हुए अपनी खोहों की खोज करते हुए उड़ते हैं। उस समय बाढ़ में शब्द करती हुई यह नदी मुझे कितनी प्रिय लगती है ! ___ जब स्वच्छ पांडुर पंख वाले बगुले काले मेघ से भयभीत हुए अपनी खोहों की खोज करते हुए उड़ते हैं, और उनकी खोहें वर्षा के अन्धकार से ढंकी हुई है ! उस समय बाद में शब्द करती हुई यह नदी मुझे कितनी प्रिय लगती है ! इस नदी के दोनों ओर जामुन के पेड़ है, वहाँ मग मन कैसे न रमेगा ? महामार्ग के पीछे, नदी के किनारे पर अन्य अनेक निर्भरिणियाँ सुशोभित है । जगे हुए मेंढ़क मृदुल नाद कर रहे हैं। ___ आज गिरि और नदी से अलग होने का समय नहीं है । __ बाढ़ में शब्द करती हुई यह नदी कितनी मुरम्य, शिव और अमकारी है ! मै यहाँ ध्यान करूंगा।' 'नाज गिरिनदीहि विष्पवाससमयो' (आज गिरि और नदी से अलग होने का समय नहीं है) इस उद्गार में भिक्षु ने प्रकृति-प्रेम की उस पूरी निष्ठा को रख दिया है, जो आज तक विश्व-साहित्य में कही भी व्यक्त हुई है। - - - - - - - - - यदा बलाका सुचिपण्डरच्छदा कालस्स मेघस्स भयेन तज्जिता। पलेहिति आलयमालयेसिनी तदा नदी अजकरणी रमेति मं॥ यदा बलाका सुचिपण्डरच्छदा कालस्स मेघस्स भयेन तज्जिता। परियेसतिलेन मलेन दस्सिनी तदा नदी अजकरणी रमेति मं॥ कन्नु तत्थ न रमेन्ति जम्बुयो उभतो तहि, सोभेन्ति आपगा कूलं महालेनस्स पच्छतो॥ तामतमदसं घसुप्पहीना भेका मन्दवती पनादयन्ति नाज गिरिनदोहि विप्पवाससमयो, खेमा अजकरणी सिवा सुरम्माति॥ गाथाएँ, ३०७-३१० Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६० ) प्राकृतिक सौन्दर्य के बीच एकान्त ध्यान करते हुए जो आनन्द प्राप्त होता है उससे अधिक आनन्द और कुछ नहीं है, ऐसा साक्ष्य देते हुए एक स्थविर साधक ने प्रभावशाली शब्दों में कहा है : जब आकाश में मेघों की दुन्दुभी बजती है और पक्षियों के मार्गा में चारों ओर धाराकुल बादल चक्कर लगाते हैं ; उस समय भिक्ष पहाड़ पर जाकर ध्यान करता है--इससे बड़ा आनन्द और कुछ नहीं है। जव कुसुमों से आच्छादित नदियों के. किनारे पर बैठ कर सुन्दर मन वाला भिक्षु ध्यान करता है--इससे बड़ा आनन्द और कुछ नहीं है। जब एकान्त वन में, अर्द्ध रात्रि में, बादल गड़गड़ा रहा है और शूकर दहाड़ रहे है, उस समय पर्वत पर बैठा हुआ भिक्षु ध्यान करता है---इससे बड़ा आनन्द और कुछ नही है ! ___ इसी परमानन्द को प्राप्त करने के लिए एक भिक्षु गिरिव्रज (गजगृह के समीप गृध्रकुट पर्वत) जाने का इच्छुक है । अहो ! कब में बुद्ध द्वारा प्रशंसित वन को जाऊँगा ! योगियों को प्रसन्नताकारी मत्त, कुंजरों से सेविन, रमणीय, उस वन में मैं कब प्रवेश करूंगा ! १ . यदा नभे गज्जति मेघदुन्दुभि धाराकुला विहंगपथे समन्ततो। भिक्खु च पन्भारगतो व झायति ततो रति परमतरं न विन्दति ॥ यदा नदीनं कुसुमाकुलानं . . . . . तीरे निसिनो सुमनो व झायति ततो रतिं परमतरं न विन्दति ॥ यदा निसीथे रहितम्हि कानने देवे गळन्तम्हि नदन्ति दाठिनो। भिक्खु च पन्भारगतो' व झायति ततो ति परमतरं न विन्दति ॥ गाथाएँ ५२२-५२४ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६१ ) उस सुपुष्पित शीत वन में, गिरि और कन्दराओं में, कब मैं अकेला चंक्रमण करूँगा। अकेला, बिना साथी के, उस रमणीय महावन में, एकान्त, शीतल , पुष्पों से आच्छादित पर्वत पर, विमुक्ति-सख से मुखी , मैं गिरिव्रज में कब विचरण करूँगा ! ' एक दूसरे स्थविर (तालपट) की भी इम इच्छा को देखिये : कब में अकेला, बिना किमी साथी के. (गिरिवज के) पर्वत-कन्दराओं में ध्यान करता हुआ विचाँगा ! क्या कभी मेरे ऐसे दिन आयेंगे ? २ कब मैं एकान्त वन में विदर्शना भावना का अभ्याम करता हुआ निर्भय विचगा। क्या कभी मेरे ऐसे दिन आयेंगे ? 3 कब मैं वन के उन मार्गों पर जिन पर ऋषि (बुद्ध) चले, चलना हुँगा, और वर्षा काल के मेघ नये जल की वृष्टि सचीवर *मझ पर करते होंगे ! क्या कभी मेरे ऐसे दिन आयेंगे ?४ कब मैं वन और गिरिगुहाओं में कलँगीधारी मयूर पक्षियों की मधुर ध्वनि १. हन्द एको गमिस्सामि अरऊ बुद्धवणितं। गाथा ५३८ योगिपीतिकरं रम्मं मतकुञ्जरसे वितं ।५३९ सुपुष्फिते सीतवने सोतले गिरिकन्दरे। . . . . . . . . . . . . चंकमिस्सामि एकको ॥५४० एकाकियो अदुतियो रमणीये महावने ।५४१ विने कुसुमसञ्छन्ने पन्भारे नून सीतले। विमुत्तिसुखेन सुखितो रमिस्सामि गिरिम्बजे ॥५४५ २. कवा न हं पम्बतकन्दरासु एकाकियो अदुतियो विहस्सं।. . . . . . . .तं मे ___ इदं तं नु कदा भविस्सति ॥१०९१ ३. विपस्समानो वीतभयो विहस्सं एको वने तं नु कदा भविस्सति ॥१०९३ ४. कदा नु मं पासकालमेघो नवेन तोयेन सचीवरं मे। इसिप्पयातम्हि पथे वजन्तं ओवस्सते, तं नु कदा अविस्सति ॥११०२ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६२ ) को सुनकर अमृत की प्राप्ति के लिए जागरूक होकर ध्यान करूँगा ! क्या कभी मेरे ऐसे दिन आयेंगे?' फिर अपने मन को सम्बोधन कर भिक्षु कहता है : हे चित्त ! उस गिरिव्रज में अनेक विचित्र और रंग बिरंगे पंखधारी पक्षी हैं । सुन्दर नीली ग्रीवा वाले मोर हैं। (इन्द्र के घोष को मनकर उमका अभिनन्दन करते हए ) वे नित्य ही मंजल ध्वनि करते है । हे चिन ! जब तु ध्यानी होकर वहाँ विचरेगा तो ये तुझे कितने प्रीतिकर होंगे ! २ ___नये वर्षाजल मे मिक्त कानन में, किसी गुहा-गृह में ध्यान लगाते हुए.... मयूर और क्रौंच के रव से पूरित उस वन में, हाथी और व्याघ्रों के सामने बसते हुए, हे चित्त ! तुझ ध्यानी को ये कितने प्रीतिकर होंगे ॥५ एक दूसरे ध्यानी भिक्षु को भी पर्वत कितने प्रिय है। करेरि-वृक्षों की पंक्तियों से आपूर्ण, मनोरम भूमिभाग वाले कुंजरों से अभिरुद्ध, रमणीय--वे पर्वत मुझे प्रिय है । नीले आकाश के समान वर्ण वाले, सन्दर, शीतल जल मे परिपूर्ण, पवित्रताकारी हाथियों के शब्दों से परिपूर्ण-वे पर्वत मझे प्रिय है ! मुझ ध्यानेच्छु, आत्ममंयमी, स्मृतिमान् भिक्षु के लिये पर्याप्त, मृग ममूहों मे मेवित । १. कदा मयूरस्स सिखण्डिनो वने दिजस्स सुत्वा गिरिगन्भरे रुतं । पच्चुटहित्वा अमतस्स पट्टिया संचिन्तये तं नु कदा भविस्सति ॥११०३ २ सुनीलगीवा सुसिखा सुपेखुणा सुचित्तपत्तच्छदना विहंगमा। सुमञ्जुघोसत्थ. निताभिगज्जिनो ते तं रमिस्सन्ति वनम्हि झायिनं ॥११३६ ३. नवाम्बुना पावुससित्तकानने तहि गुहागेहगतो रमिस्ससि। ११३५ ४. मयूरकोञ्चाभिरुदम्हि कानने दीपीहि व्यग्घेहि पुरक्खतो वसं। १११३ ५. ते तं रमिस्सन्ति वनम्हि झायिनं ।११३६ आदि Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेक पक्षि-समूहों से आकीर्ण--वे पर्वत मुझे प्रिय हैं । शीतकाल का पूग अनुभव लेते हुए भी ध्यानी भिक्षुओं को हम 'थेरगाथा' में देखते है : हेमन्त की शीतल काल गत्रि है ! खाल को भी पार करने वाली, मन को भी विदीर्ण करने वाली, ठंही ह्वा है ! भिक्षु ! न कैसे करेगा ? मंने मुना है मगध निवासी लोग शस्यों की पूर्णता में सम्पन है । उनका जीवन सखी है। मैं भी उनके ममान मुख अनुभव करता है। गीत की यह रात में इस पुआल-पंज में लेटकर बिनाऊँगा।' इसी प्रकार एक दूसरे भिक्षु ने चारों ओर मनोरम द्रुम फूले हुए है' (दुमानि फुल्लानि मनोरमानि--गाथा ५२८) आदि रूप मे वसन्त ऋतु का वर्णन कर 'कालो इतो पक्कमनाय वीर' (हे वीर ! यह प्रक्रमण करने का समय है) इस प्रकार ध्यानमयी प्रेरणा दी है। भगवान् ने मध्य रात्रि में उठ कर बोधिपक्षीय धर्मों की भावना करने का १. करेरिमालावितता भूमिभागा मनोरमा। कुजराभिरुद्धा ते सेला रमयन्ति मं॥१०६२ नीलब्भवण्णा रुचिरा वारिसीता सुचिन्धरा ।१०६३ ' वारणाभिरुदा ते सेला रमयन्ति मं॥१०६४ अलं झायितुकामस्स पहितत्तस्स मे सतो।१०६६ . . . . . . . . मिगसंघनिसेविता। नानादिजगणाकिण्णा ते सेला रमयन्ति मं॥१०६९ २. छविपापक चित्तभद्दक. . . . . . हेमन्तिक सीतकालरत्तियो भिक्खु त्वं सि कथं करिस्ससि ॥सम्पन्नसस्सा मगधा केवला इति मे सुतं। पलालच्छन्नको सेय्यं यथझे सखजीविनो॥२०७--२०८ ३. वसन्त ऋतु के सन्दर वर्णन के लिए देखिये थेरीगाथा, गाथाएँ ३७१-३७२ आदि भी। Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६४ ) आदेश दिया है। भिक्षु की रात्रि ध्यान करने के लिए है । एक भिक्षु का कहना है : न ताव सपितं होति रत्ति नवखत्तमालिनी। , पटिजग्गितुमेवेसा रत्ति होति विजानता॥१ यह ताराओं से भरी रात सोने के लिए नहीं है । ज्ञानी के लिए यह गत जाग कर ध्यान करने के लिए है ।२ . . ___इस प्रकार हम देखते हैं कि विशेषत: वन्य और पार्वत्य प्रकृति के अनेक सुन्दर संश्लिष्ट चित्र हमें 'थेरगाथा' में मिलते हैं। वेस्सन्तर जातक (संख्या ५४७) में भी हमें ऐसे अनेक चित्र मिलते हैं । महर्षि वाल्मीकि को छोड़कर ऐसे संदिलष्ट वर्णन किसी प्राचीन या अर्वाचीन भारतीय कवि ने नहीं किये हैं। जितना गम और विराग इन प्राकृतिक वर्णनों में 'थेरगाथा' में मिलता है, उतना अन्य किसी काव्य में नहीं । विश्व-साहित्य में प्रकृति का वर्णन अधिकतर कवियों ने राग के उद्दीपन की दप्टि मे ही किया है। वाल्मीकि के समान उदात्त वर्णन करने वाले कवि बहुत कम हैं। हिन्दी के कवियों ने प्रायः संस्कृत के उत्तरकालीन कवियों का अनुसरण कर प्रकृति को शृंगार रस के उद्दीपन के रूप में ही चित्रित किया है । आधुनिक कवि और माधकों को वाल्मीकि की ओर देखने के साथ-साथ गगगमनकारी 'थेरगाथा' के प्रकृति-वर्णनों की ओर भी देखना चाहिये। 'थेरीगाथा', जैसा अभी कहा गया, ५२२ पालि इलोकों (गाथाओं) का संग्रह है जिसमें ७३ बुद्ध बौद्ध भिक्षुणियों के उद्गार सन्निहित है । अत्यन्त संगीतात्मक भाषा में, आत्माभिव्यञ्जनात्मक गीतिकाव्य की शैली के आधार पर अपने जीवनानुभवों को व्यक्त करते हुए यहाँ बौद्ध भिक्षुणियों ने अपने जीवन-काव्य को गाया है । नैतिक सच्चाई, भावनाओं की गहनता और सब से बढ़कर एक अपराजित वैयक्तिक ध्वनि, इन गीतों की मुख्य विशेषताएँ हैं। निर्वाण की परम गान्ति मे भिक्षुणियों के उद्गारों का एक एक शब्द उच्छ्वसित है । यहाँ संगीत १. गाथा १९३ २. मिलाइये, “या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागति संयमी ।" गीता २०६९ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी है और जीवन का सच्चा दर्शन भी। निर्वाण की परम शान्ति का वर्णन करते हुए भिक्षुणियाँ कभी थकती नही । जीवन की विषमताओं पर वे अपनी विजय का ही गीत गाती है । "अहो ! मैं कितनी मुखी हूँ !" यही उनके उद्गारों की प्रतिनिधि ध्वनि है। बार बार उनका यही प्रसन्न उद्गार होता है “मीनिभूतम्हि निब्बता" अर्थात् निर्वाण को प्राप्त कर मै परम शान्त हो गई, निर्वाण की परम-शान्ति का मैंने साक्षात्कार कर लिया। भिक्षुणियों की गाथाओं में निरा. शावाद का निराकरण है, साधनालब्ध इन्द्रियातीत मुख का साक्ष्य है और नैतिक ध्येयवाद की प्रतिष्ठा है। बुद्ध-शासन की भावना से ओतप्रोत है, यह कहने की तो आवश्यकता ही नहीं। 'थेरीगाथा' की भावना-शैली से परिचित होने के लिये महाप्रजापती गोतमी की भगवान बुद्ध के प्रति यह श्रद्धाञ्जलि देखिये हे बुद्ध ! हे वीर ! हे सर्वोत्तम प्राणी ! तुम्हें नमस्कार ! जिसने मुझे और अन्य बहुत से प्राणियों को दुःख मे उबाग। मेरे सब दुःख दूर हो गये, उनके मूल कारण वासना का भी उच्छेदन कर दिया गया ! आज मैंने दुःवनिरोध-गामी आर्य अष्टाङ्गिक मार्ग में विचरण किया । माता, पुत्र, पिता, भाई, स्वामिनी, मैं पूर्व जन्मों में अनेक बार बनती रही! यथार्थ ज्ञान न होने के कारण मैं लगातार मंमार में धूमती रही ! अब मैने इस जन्म में उन भगवान् (बद्ध) के दर्शन किये, मुझे अनुभव हुआ-~~यह मेरा अन्तिम शरीर है ! मेरा आवागमन क्षीण हो गया, अब मेरा फिर जन्म होना नहीं है। बहतों के हित के लिये ही महामाया ने गोतम को जाना! जिसने व्याधि और मरण मे आकुल जन-ममूह के दुःख-पुंज को काट दिया ! एक अन्य भिक्षुणी (चन्दा) अपने पूर्व के दुःग्व-मय जीवन का प्रत्यवेक्षण करती हुई कहती है-- विधवा और निःसन्तान---मैं पहले बड़ी मुभीवन में पड़ी थी, मित्र-माथी मेरे कोई नहीं थे, जानि-बन्ध मेरे कोई नहीं थे ! भोजन और वस्त्र भी मै नहीं पाती थी ! Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( . २६६ ) लकड़ी और भिक्षापात्र लेकर घर से घर भिक्षा माँगती फिरती थी, गर्मी और सर्दी मे व्याकुल हुई, मै सात वर्ष तक इसी प्रकार घूमती रही, एक दिन एक भिक्षुणी के दर्शन मुझे हुए, उसने आदरपूर्वक भोजन और जल देकर मुझे अनुगृहीत किया, फिर मैंने उसके पास जाकर प्रार्थना की--- मैं प्रव्रज्या लूंगी। उस दयामयी पटाचाग ने मुझे अनुकम्पापूर्वक प्रव्रज्या दी। फिर मुझे धर्मोपदेश देकर उसने मुझे परमार्थ में लगाया। उसके उपदेश को सुनने के बाद मैंने उसके अनुगामन को पूरा किया। अहो ! अमोघ था देवी का उपदेश ! मैं आज तीनों विद्याओं को जानने वाली हूँ, सम्पूर्ण चित्त-मलों से रहित हूँ! पटाचारा भिक्षुणी की शिष्या तीम भिणियाँ किम प्रकार उसके प्रति अपनी कृतजता का भाव प्रदर्शित करती है, यह उनके उद्गारों में देखिये--- "लोग मुमलों से अन्न कूट कूट कर वित्तार्जन करते और अपने स्त्री-पुत्रादि का पालन करते हैं।' तो फिर तुम भी बुद्ध-शामन को पूरा क्यों नहीं करतीं, जिमे कर के पछताना नहीं होता ! अभी गीव्र पैर धोकर बैठ जाओ, चिन की एकाग्रता से युक्त होकर बुद्ध-गामन को पूरा करो।" पटाचाग के शामन के इन इन शब्दों को मनकर हम सब पैर धोकर एकान्त में ध्यान के लिये बैठ गई। चित्त की समाधि मे युक्त होकर हमने बुद्ध-शासन को पूरा किया ? गत्रि के प्रथम याम में हमने पूर्व-जन्मों का स्मरण किया ! गत्रि के मध्यम भाग में हम ने दिव्य चक्षओं को विशोधित किया ! रात्रि के अन्तिम भाग में अन्धकार-पंज को विनष्ट कर दिया । भिक्षणी अम्बपाली ने अपनी वृद्धावस्था में अपने शरीर का प्रत्यवेक्षण कर जो उद्गार किये है, वे नो पालि-काव्य के मर्वोत्तम उदाहरण ही है । अम्बपाली अपने जीर्ण शरीर को देग्य कर कहती है-- Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६७ ) किसी समय भौरे के समान कृष्ण वर्ण और घना मेरा केशपाय और सघन उपवन सी मेरी यह वेणी, पुष्पाभरणों और स्वर्णालंकारों से सुरभित और सुशोभित रहा करती थी, वही आज जरावस्था में श्वेत, गन्धपूर्ण, बिखरी हुई, जीर्ण सन के वस्त्रों जैमी झर रही है। मत्यवादी (बुद्ध) के वचन मिथ्या नहीं होते ! गाढ़ नील मणियों मे समज्ज्वल, ज्योनिपूर्ण नेत्र आज गोभा विहीन है ! नवयौवन के ममय मुदीर्घ नामिका, कर्णद्वय और कदली-मकुल के गदृश पूर्व की दन्तपंक्ति क्रमशः ढुलकनी और भग्न होती जा रही है। वनवामिनी कोकिला के समान मेरा मधर म्वर और चिकने शंख की भाँति सुघड़ ग्रीवा आज कम्पित हो रही है। स्वर्ण-मंडित उँगलियाँ आज अगक्त एवं मेरे उन्नत स्तन आज ढलकते शक चर्म मात्र हैं। स्वर्ण नुपुरों से सुशोभित पैरों और कटि-प्रदेश की गति आज धीविहीन है। आदि प्रायः सभी भिक्षुणियों के उद्गारों में काव्यगत निशेषताएँ भरी पड़ी हैं, जिनका विवेचन यहाँ नहीं किया जा सकता। निश्चय ही भिक्षणियों के उद्गारों की मार्मिकता और उनकी शान्त, गम्भीर ध्वनि भारतीय माहित्य में अद्वितीय है और पालि-काव्य की तो वह अमूल्य सम्पनि ही है। जिन ७३ भिक्षुणियों के उद्गार 'थेरीगाथा' में सन्निह्नि हैं, वे मभी बद्धकालीन हैं। बल्कि यों कहना चाहिये, वे सभी भगवान् बुद्ध की शिष्याएँ है । नारी जाति के प्रति भगवान् की कितनी अनुकम्पा थी, यह इसी मे समझा जा सकता है कि उनमें से अनेक अपने को 'बद्ध की हृदय से उत्पन्न कन्या' (ओरमा धीता बुद्धस्म) कह कर अभिनन्दित करती थीं। वे मानती थी कि 'जब चिन मुममाहित है, तो स्त्री-भाव इममें हमारा क्या करेगा (इथिभावो नो १. देखिये गाथाएँ ४६ एवं ३३६ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६८ ) किं कयिरा चित्तम्हि सुसमाहिते (गाथा ६१) । फलतः निर्वाण-प्राप्ति में उनका अधिकार था और उसे प्राप्त भी उन्होंने किया था, जिसके साक्ष्य-स्वरूप उन्होंने अपने उद्गार भी किये है। महाराज शुद्धोदन की मृत्यु के उपरान्त भगवान् बुद्ध ने अपनी विमाता महाप्रजापती गोतमी को भिक्षुणी होने की अनुमति दे दी थी। उसके साथ पाँच सौ अन्य शाक्य-महिलाएं भी प्रवजित हुई थीं। कालान्तर में भिक्षुणियों का एक अलग संघ ही बन गया था और नाना कुलों और नाना जीवन की अवस्थाओं से प्रजित होकर उन्होंने शाक्य-मुनि के पाद-मूल में बैटकरसाधना का मार्ग स्वीकार किया था । इन्हीं में से कुछ भिक्षुणियाँ अपने जीवनानुभवों को हमारे लिये छोड़ गई हैं जो थेरीगाथा' के रूप में आज हमारे लिये उपलब्ध हैं। किम उद्देश्य मे, किन कारणों मे, किम सामाजिक परिस्थिति में, प्रत्येक भिक्षुणी ने बुद्ध , धम्म और मंघ की शरण ली थी, इसका विस्तत विवरण तो 'थेरीगाथा' की अर्थकथा ‘पग्मत्थदीपनी' में उपलब्ध है, जो पाँचवीं शताब्दी ईसवी की रचना है । इसी के आधार पर यहाँ संक्षेप में यह दिखाया जा सकता है कि किन नाना कारणों से इन भिक्षुणियों ने घर को छोड़कर प्रव्रज्या ली। इनमें से कुछ, जैसे मुक्ता (२) और पूर्णा (३) अपनी ज्ञान-सम्पत्ति की पूर्णता के कारण प्रबजित हुईं। कुछ ने घर के काम काज और दोपों मे ऊब कर प्रव्रज्या ली, जैसे मुक्ता (११) गुप्ता (५६) और गुभा (७०) । धम्मदिना (१६) ने पति की विरक्ति के कारण प्रव्रज्या ली । धम्मा (१७) मैत्रिका (२४) दन्निका (३२) सिंहा (४०) मुजाता (५३) पूर्णिका (६५) रोहिणी (६७) गुभा (७१) चित्रा (२३) शुक्ला (३४) अम्बपाली (६६) अनोपमा (५४) तथा शोभा (२८) ने गाम्ना में श्रद्धा के कारण प्रव्रज्या ली। प्रियजनों की मृत्यु और उनके विरह के कारण प्रव्रज्या लेने वाली भिक्षुणियों में श्यामा (३६) उर्विरी (३३) किमा गोतमी (६३) वासेट्ठी (५१) सुन्दरीनन्दा (४१) चन्दा (४९) पटाचाग (४७) तथा महाप्रजापती गोतमी हैं। पुत्रों की अकृतज्ञता गोणा (४५) की प्रव्रज्या का कारण हुई। भद्रा कुंडलकेगा और ऋषिदामी ने अकृतज्ञ, धर्न पतियों के कारण प्रव्रज्या ली। पति का अन मग्ण कर भद्रा कापिलायिनी और चापा प्रवजित हुई । इमी प्रकार भाई (मारिपुत्र) का अनमरण कर चाला, उपचाला और शिशपचाला प्रवजित हो गई। Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६९ ) बुद्ध-शिष्य को पराजित न कर मकने पर विमला प्रवजित हो गई। जहाँ तक इन भिक्षणियों के वंश या सामाजिक कुल-शील आदि का सम्बन्ध है, ये प्रायः सभी परिस्थितियों की थीं। उदाहरणतः खेमा, सुमना, गैला और सुमेधा कोगल और मगध के राजवंशों की महिलाएं थी । महाप्रजापती गोतमी, तिघ्या, अभिरूपानन्दा, मुन्दरी नन्दा, जेन्नी. सिंहा, तिप्या, धीरा, मित्रा, भद्रा, उपशमा और अन्यतरा स्थविरी, शाक्य और लिच्छवि आदि मामन्नों की लड़कियाँ थी। मैत्रिका, अन्यतरा उत्तमा, चाला, उपचाला, शिशपत्राला, रोहिणी, सुन्दरी, शुभा, भद्रा कापिलायिनी, मुक्ता, नन्दा, मकुला, चन्दा, गुप्ता, दन्तिका और शोभा ब्राह्मण-वंश की थीं । गहपति और वैश्य (सेट) वर्ग की महिलाओं में पूर्णा, चित्रा, श्यामा, उर्विरी, शुक्ला, धम्मदिन्ना, उत्तमा, भद्रा कुंडलकेगा, पटाचारा, मुजाता, अनोपमा और पूर्णिका थी। अड्ढकामी, अभय माता, विमला और अम्बपाली जैसी गणिकाएँ थीं। इसी प्रकार शुभा बढ़ई की पुत्री और चापा एक बहेलिये की लड़की थी। सारांग यह कि अनेक कुल-गीलों से स्त्रियों ने बुद्ध-गासन में दीक्षा ग्रहण की थी। 'थेरीगाथा' में सन्निहित इनके उद्गारों और उनमें प्रतिध्वनित इनकी पूर्व जीवन-चर्याओं से पाँचवी-छठी शताब्दी ईस्वी पूर्व के भारतीय समाज में नारी के स्थान पर भी पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। परन्तु 'थेरीगाथा' का मुख्य आकर्षण तो उसकी काव्य और साधना की भूमि ही है, जिसके विषय में पीछे काफी कहा जा चुका है। हम देखते है कि प्रकृति-वर्णन की ओर जितनी प्रवृत्ति भिक्षुओं की है, उतनी भिक्षुणियों की नहीं । 'थेरीगाथा' में केवल शभा भिक्षुणी की गाथाओं में वसन्त का वर्णन है। वह अत्यन्त सुन्दर, संश्लिष्ट और सूक्ष्म निरीक्षण पर आधारित है । पर उसका लक्ष्य वहाँ केवल पृष्ठमि को तैयार कर देना है। गुभा भिक्षुणी अपनी आँख को अश्रुजल-मिचित जल-बुद्रुद् मात्र कहती है। बाद में निर्विकार भाव मे उसे निकाल कर कामी पुरुष को दे देती है । इसके प्रभाव में तीव्रता लाने के लिए ही यहाँ पृष्ठभूमि रूप में वसन्त का वर्णन किया गया है। वमन्त की शोभा काव्य का सत्य है, आँख का वर्णन विज्ञान का सत्य है। इन दो मत्यों को इतने सुन्दर ढंग से आमने-सामने रख कर काव्य में कभी वर्णन नहीं किया गया। भिक्षणियों की प्रवृत्ति अपने आन्तरिक अनुभव के वर्णन Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७० ) के साथ-साथ अपने पूर्व आश्रम के जीवन की अवस्थाओं के वर्णन की ओर ही अधिक है। भिक्षुओं में तो शीलव और जयन्त पुरोहित-पुत्र आदि कुछ-एक भिक्षुओं न ही हमें अपने पूर्व जीवन से परिचित कराया है । बाह्य जीवन की अपक्षा आन्तरिक अनुभव के प्रकाशन पर ही उनका ध्यान अधिक है, और उस अनुभव में इतना साम्य है कि कहीं-कहीं न केवल भिक्षुओं के उद्गारों की भाषा ही ममान है, बल्कि वे कई जगह व्यक्ति के प्रतिनिधि न होकर वर्ग (भिक्षु-वर्ग) के . ही प्रतिनिधि हो गये हैं। इसके विपरीत भिक्षुणियों के उद्गारों में व्यक्तिगत विशिष्टता की पूरी ध्वनि विद्यमान है। उन्होंने अपने पारिवारिक और सामाजिक जीवन के विषय में हमें बहुत कुछ बतलाया है। अपने पूर्व जीवन के सुखदुःख, हर्ष-विपाद आदि के बारे में भी उन्होंने बहुत कुछ कहा है। इस प्रकार अपने गृहस्थ-जीवन-के झझंटों की ओर संकेत मुक्ता, गुप्ता और शुभा भिक्षुणियों ने किया है । उब्बिरी, किमा गोतमी और वाशिष्ठी भिक्षुणियों के वचनों में उनके मन्तान-वियोग की पूरी झलक है । सुन्दरी नन्दा और चन्द्रा ने पति आदि सम्बन्धियों की मृत्य मे प्रव्रज्या प्राप्त की, इमकी सूचना है। पटाचारा के शब्दों में उसके करुण जीवन की सारी गाथा छिपी हुई पड़ी है। भिक्षुणियों की अनेक गाथाएँ (११; २५-२६; ३५-३८; ६१; ७२-८१; ९९-१०१; १०७-१११; १५७-१५८, आदि, आदि) 'अहं' से ही प्रारम्भ होती है और उनकी आन्तरिक ध्वनि भी अपनी विशिष्टता लिए हुए है। जहाँ तक विचार और काव्यगत मौन्दर्य का सम्बन्ध है, थेरगाथा और थेरीगाथा में अनेक समानताएं है । जिस प्रकार भिक्षुओं ने अशुभ की भावना की है उमी प्रकार भिक्षुणियों ने भी। “आज मेरी भव-बेड़ी कट गई ! 'मेरे हृदय में बिंधा तीर निकल गया, 'तृष्णा की लौ सदा के किए बुझ गई !' 'मैं सब मलों से विमुक्त हूँ' 'अब में सर्वथा शान्त हूँ, निष्पाप हूँ' आदि भिक्षुणियों के उद्गार अपना गम्भीर और गान्त प्रभाव लिए हुए हैं और मानव-मन को पवित्रता की उच्च भूमि में ले जाते हैं । पटाचारा का यह उपदेश-वाक्य 'बुद्ध-शासन को पूरा करो, जिसे करके पछताना नहीं होता । अभी शीघ्र पैर धोकर एकान्त (ध्यान) में बैठ जाओ” कितना प्रेरणादायक है ! भिक्षुणियों को जीवित विश्वास था कि वे निर्वाण का साक्षात्कार कर सकती हैं। स्त्री-भाव की अशक्तता दिखाई . Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७१ ) जाने पर एक भिक्षुणी (सोमा) आत्मविश्वासपूर्वक कह उठती है "जब चित्त अच्छो प्रकार समाधि में स्थित है, जीवन नित्य ज्ञान में विद्यमान है, अन्तर्ज्ञान पूर्वक धर्म का सम्यक् दर्शन कर लिया गया है, तो स्त्री भाव इसमें हमारा क्या करेगा? 'थेरीगाथा' में नाटकीय तत्त्व की कमी नहीं है और अनेक महत्त्व पूर्ण संवाद है । रोहिणी और उसके पिता का संवाद ( २३१-२१०) सुन्दरी उसकी माता और सारथी का संवाद (३१२-३३७) चापा और उसके पति का संवाद (२९१३११) शैला और मार का संवाद, (५७-५९) चाला और मार का संवाद (१८२१९५) शिशुपचाला और मार का संवाद ( १९६-००३), उत्पलवर्णा और मार का का संवाद (२२४-२३५) बड्डमाता और उसके पुत्र का संवाद (२०४-२१२) आदि नाटकीय गति से परिपूर्ण है । पनिहारिन के रूपमें पूर्णा ने अपने पूर्व जीवन का जो परिचय दिया है, वह अपनी करुणा लिए हुए है । अम्बपाली की गाथाओं में अनित्यता का चित्रण गीतिकाव्य के सम्पूर्ण सौन्दर्य के साथ हुआ है । सुन्दरी की गाथाओं ( ३१२-३३७ ) और शुभा की गाथाओं ( ३६६-३९९ ) को विन्टर - नित्ज़ ने सुन्दर आख्यान - गीति कहा है ? | थेर और थेरीगाथाएँ क्रमशः उन भिक्षु और भिक्षुणियों की रचनाएं है, जिनके नामों मे वे सम्बन्धित हुँ । जर्मन विद्वान् के. ई. न्यूमनने उन पर एक मनुष्य के मन की छाप देखी है । वौद्धधर्म की प्रभाव समष्टि के कारण जो स्वभावतः ही इन साधक और साधिकाओं के अनुभव सिद्ध वचनों में होनी चाहिये, न्यूमन को यह भ्रम हो गया है । विन्टरनित्ज़ ने न्यूमन के मन मे महमत तो नही दिखाई पर कुछ भिक्षुओं की रचनाओं में भिक्षुणियों की रचनाएं और इसी प्रकार कुछ भिक्षुणियों की रचनाओं में भिक्षुओं की रचनाएं सम्मिलित हो गई है. ऐसा उन्होंने माना है । 3 वस्तुतः बात यह है कि गाथाओं का संकलन विषय क्रम से न होकर गाथाओं की 23 १. इन्डियन लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ १०८-१०९ २. देखिये विन्टर नित्ज, इंडियन लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ १०२, पंद संकेत १ ३. इन्डियन लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ १०१ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७२ ) संख्या के बम से है, जो कृत्रिम है। फिर संकलन में भी कहीं कुछ कमियाँ रह ही गई हैं। स्थविरिणियों के साथ पुरुषों के संवाद भी 'थेरीगाथा' में कहीं कहीं पाये जाते ही है। दोनों की कथा भी कहीं कहीं मिलती दिखाई देती है। उदाहरणार्थ थेरीगाथा (२०४-२१२) में बड्ढ की माता उमे ज्ञान-मार्ग पर लगाती है और थेरगाथा (३३५-३३९) में वह उसे धन्यवाद देता है। जिस प्रकार तीन टेढी वस्तुओं (हसिया, हल और कुदाल) से मुक्ति पाकर भिक्षु प्रसन्न है। उसी प्रकार ओखल से, मूसल मे और अपने कुबड़े स्वामी से मुक्ति पाकर भिक्षुणी प्रसन्न है। इसी प्रकार के वर्णनों से विन्टरनित्ज़ को गाथाओं के सम्मिलित होने का भ्रम हो गया है । गाथाओं के संकलन में भले ही कहीं कोई प्रमाद हो, पर थेर और थेरी गाथाओं को मूलतः उन भिक्षु और भिक्षुणियों की रचनाएँ ही माना जा सकता है, जिनके नामों से वे सम्बन्धित है। जातक जातक खुदक-निकाय का दसवाँ प्रसिद्ध ग्रन्थ है। जातक को वस्तुतः ग्रन्य न कह कर ग्रन्थ-समूह ही कहना अधिक उपयुक्त होगा। जैसा हम आगे देखेंगे, १. असितासु मया नंगलासु मया खुद्दकुद्दालासु मया। गाथा ४३ (थेरगाथा) २. उदुक्खलेन मुसलेन पतिना खुज्जकेन च। गाथा ११ (थेरीगाथा) ३. भदन्त आनन्द कौसल्यायन ने जातक का हिन्दी में अनुवाद किया है। हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग, से वह तीन भागों में प्रकाशित हो चुका है। जातक (प्रथम खंड), १९४१; जातक (द्वितीय खंड) १९४२; जातक (तृतीय खंड) १९४६ । प्रथम खंड में जातक-संख्या १-१००; द्वितीय खंड में जातक-संख्या १०१-२५० और तृतीय खंड में जातक-संख्या २५१-४०० अनुवादित हैं। चतुर्थ खंड प्रेस में है। राय साहब ईशानचन्द्र घोष का बँगला अनुवाद प्रसिद्ध है। अंग्रेजी में कॉवल के सम्पादकत्व में ६ जिल्दों में जातक का अनुवाद प्रकाशित हो चुका है। सातवीं जिल्द में अनक्रमणी है। कॉवल के अतिरिक्त चामर्स आदि अन्य चार विद्वानों ने इस अनुवाद-कार्य में भाग लिया है। जातक का यह सम्पूर्ण अंग्रेजी अनुवाद केम्ब्रिज से १८९५-१९१३ में प्रकाशित हुआ था। इसके अतिरिक्त कुछ अन्य विद्वानों ने जातक के कुछ अंशों का अनुवाद भी Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसका कोई-कोई कथानक पूरे ग्रन्थ के रूप में है और कहीं-कहीं उसकी कहानियों का रूप संक्षिप्त महाकाव्य का मा है। 'जातक' शब्द का अर्थ है 'जात' अर्थात् जन्म-सम्बन्धी। 'जातक' भगवान् बुद्ध के पूर्व-जन्म सम्बन्धी कथाएँ है। बुद्धत्व प्राप्त कर लेने की अवस्था में पूर्व भगवान् बुद्ध 'वोधिसत्व' कहलाते हैं। वे उस समय वुद्धत्व के लिए उम्मेदवार होते है, और दान, शील, मैत्री, सत्य आदि दस पारमिताओं अथवा परिपूर्णताओं का अभ्यास करते है। भूत-दया के लिए वे अपने प्राणों का अनेक बार वलिदान करते हैं। इस प्रकार वे बुद्धत्व की योग्यता का सम्पादन करते है। 'वोधिसत्व' शब्द का अर्थ ही है वोधि के लिए उद्योगशील प्राणी (सत्व)। वोधि के लिए है सत्व (सार) जिसका, ऐसा अर्थ भी कुछ विद्वानों किया है। इनमें रायस डेविड्स का 'बुद्धिस्ट बर्थ स्टोरीज', जो सन् १८८० में लन्दन से प्रकाशित हुआ था, अति प्रसिद्ध है। इसमें जातक-संख्या १-४० अनुवादित है। सम्पूर्ण जातक का जर्मन अनुवाद भी हो चुका है (लीपजिग, १९०८)। फॉसबाल का रोमन लिपि में जातक का संस्करण एक महत्त्वपूर्ण और ऐतिहासिक कार्य है। यह भी ६ जिल्दों में है और सातवीं जिल्द में अनुक्रमणी है (लन्दन, १८७७-१८९७) । सिआमी राजवंश की दो श्रद्धाल रानियों के द्वारा सन् १९२५ में १० जिल्दों में जातक का सिआमी लिपि में सुन्दर संस्करण प्रकाशित किया जा चुका है। सिंहली लिपि में हेवावितरणे निधि की की ओर से प्रकाशित संस्करण वैज्ञानिक सम्पादन-कला का एक सुन्दर नमूना है। 'जातक' के अनेक बरमी संस्करण भी उपलब्ध है। यह खेद है कि नागरी लिपि में अभी जातक का कोई संस्करण नहीं निकला। अंग्रेजी में तथा अन्य अनेक यरोपीय भाषाओं में तो 'जातक' पर प्रभत विवेचनात्मक साहित्य भी लिखा गया है। इसके अतिपय परिचय के लिए देखिये, विन्टरनित्त, इंडियन लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ ११६, पद-संकेत ३, तथा एन्साइक्लोपेडिया ऑव रिलिजन एण्ड ईथिक्स, जिल्द सातवी, पृष्ठ ४९१ से आगे उन्हीं का जातक सम्बन्धी विवरण; रायस डेविड्स : बुद्धिस्ट इंडिया, पृष्ठ १८९; गायगरः पालि लिटरेचर एंड लेंग्वेज, पृष्ठ ३०, पद संकेत २ एवं ३; लाहा : पालि लिटरेचर, जिल्द पहली , पृष्ठ २७६-७७, प्रादि, आदि १८ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न किया है। पालि सुत्नों में हम अनेक बार पढ़ते हैं “सम्बोधि प्राप्त होने से पहले, बुद्ध न होने के समय, जब मै बोधिसत्व ही था" २ आदि। अतः बोधिसत्व से स्पष्ट तात्पर्य ज्ञान, सत्य, दया आदि का अभ्यास करने वाले उस साधक से है, जिसका आगे चलकर बुद्ध होना निश्चित है। भगवान् वद्ध भी न केवल अपने अन्तिम जन्म में बुद्धत्व-प्राप्ति की अवस्था से पूर्व बोधिसत्व रहे थे, बल्कि अपने अनेक पूर्व जन्मों में भी बोधिसत्व की चर्या का उन्होंने पालन किया था। 'जानक' की अथाएँ भगवान् बुद्ध के इन विभिन्न पूर्व-जन्मों से, जब कि वे 'बोधिसत्व' रह थे, सम्बन्धित है। किसी-किसी कहानी में वे प्रधान पात्र के रूप में चित्रित है। कहानी के वे स्वयं नायक है। कहीं-कहीं उनका स्थान एक साधारण पात्र के रूप में गौण है और कहीं कही वे एक दर्शक के रूप में भी चित्रित किये गए हैं। प्रायः प्रत्येक कहानी का आरम्भ इस प्रकार होता है "एक समय (राजा ब्रह्मदत्त के वाराणसी में राज्य करते समय) बोधिसत्व कुरङ्ग मग की योनि में उत्पन्न हुए"3 अथवा ". . . . . .सिन्धु पार के घोड़ों के कुल में उत्पन्न हुए"४ अथवा ".... बोधिसत्व उसके (ब्रह्मदत्त के) अमात्य थे।"" अथवा "...... बोधिसत्व गोह की योनि में उत्पन्न हए” ६ आदि, आदि। जातकों की निश्चित संख्या कितनी है, इसका निर्णय करना बड़ा कठिन है। लंका, बरमा, और सिआम में प्रचलित परम्परा के अनुसार जातक ५५० हैं। यह संख्या मोटे तौर पर ही निश्चित की गई जान पड़ती है। जातक के वर्तमान रूप में ५४७ या ५४८ जातक-कहानियाँ पाई जाती है। पर यह संख्या भी केवल ऊपरी है। कई कहानियाँ अल्प रूपान्तर के साथ दो जगह भी पाई जाती है या एक दूसरे में समाविष्ट भी कर दी गई है, और इसी प्रकार कई जातक १. विन्टरनित्ज-इंडियन लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ ११३, पद-संकेत २ २. भय-भेरव सुत्तन्त (मज्झिम १११।४) ३. कुरुंगमिग जातक (२१) ४. भोजाजानीय जातक (२३) ५. अभिण्ह जातक (२७) ६. गोध जातक (३२५) Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७५ ) कथाएँ सुत्त-पिटक, विनय-पिटक तथा अन्य पालि ग्रन्थों में तो पाई जाती हैं, किन्तु 'जातक' के वर्तमान रूप में संगृहीत नहीं है। अतः जातकों की संख्या में काफी कमी की भी और वृद्धि की भी सम्भावना है। उदाहरणतः, मुनिक जातक (३०) और सालूक जातक (२८६) की कथावस्तु एक ही मी है , किन्तु केवल भिन्न-भिन्न नामों से वह दो जगह आई है। इसके विपरीत 'मुनिक जातक' नाम के दो जातक होते हुए भी उनकी कथा भिन्न-भिन्न है। कहीं-कहीं दो स्वतंत्र जातकों को मिला कर एक तीसरे जातक का निर्माण कर दिया गया है। उदाहरण के लिए, पञ्चपंडित जातक (५०८) और दकरक्खस जातक (५१७) ये दोनों जातक महाउम्मग्ग जातक (५४६) में अन्तर्भावित है। जो कथाएँ जातक-कथा के रूप में अन्यत्र पाई जाती है, किन्तु 'जातक' में संगृहीत नहीं है, उनका भी कुछ उल्लेख कर देना आवश्यक होगा। मज्झिम-निकाय का घटिकार सुत्तन्त (२।४।१) एक ऐसी ही जातक-कहानी है, जो 'जातक' में नहीं मिलती। इसी प्रकार दीप-निकाय का महागोविन्द सुत्नन्त (२।६) जो स्वयं 'जातक' की निदान-कथा में भी 'महागोविन्द-जातक' के नाम से निर्दिष्ट हुआ है, 'जातक' के अन्दर नहीं पाया जाता। इसी प्रकार धम्मपदट्ठकथा और मिलिन्दपञ्ह मे भी कुछ ऐमी जातक-कथाएँ उद्धृत की गई है, जो 'जातक' में संगृहीत नही है ।' अत: कुल जातक निश्चित रूप से कितने हैं, इसका ठीक निर्णय नहीं हो सकता। जब हम जातकों की संख्या के सम्बन्ध में विचार करते है तो 'जातक' से हमारा तात्पर्य एक विशेष शीर्षक वाली कहानी से होता है, जिसमें बोधिसत्व के जीवन-सम्बन्धी किसी घटना का वर्णन हो, फिर चाहे उस एक 'जातक' में कितनी ही अवान्तर कथाएं क्यों न गूंथ दी गई हो । यदि कुल कहानियाँ गिनी जाये तो 'जातक' में करीब तीन हजार कहानियाँ पाई जाती है। वास्तव में जातकों का संकलन सुत्तपिटक और विनय-पिटक के आधार पर किया गया है। मत्त-पिटक में अनेक ऐसी कथाएँ है जिनका उपयोग वहाँ उपदेश देने के लिए किया गया है। किन्तु वोधिसत्व का उल्लेख उनमें नहीं है । यह काम बाद में करके प्रत्येक कहानी को जातक का १. विन्टरनित्ज-इंडियन लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ ११५, पद-संकेत ४ २. देखिये जातक (प्रथम खंड) पृष्ठ २१ (वस्तुकथा) Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७६ ) रूप दे दिया गया है। तित्तिर जातक (३४) और दीधित कोसल जातक (३७१) का निर्माण इसी प्रकार विनय-पिटक के क्रमश: चल्लवग्ग और महावग्ग से किया गया है। मणिकंठ जातक (२५३) भी विनय-पिटक पर ही आधारित है। इसी प्रकार दीघ-निकाय के कुटदन्त-सुत्तन्त (११५) और महासुदस्सन मत्तन्त (२४) तथा मज्झिम-निकाय के मखादेव-मुत्तन्त (२।४।३) भी पूरे अर्थों में जातक है । कम से कम १३ जातकों की खोज विद्वानों ने सत्त-पिटक और विनय-पिटक में की है।' यद्यपि राज-कथा, चोर-कथा, एवं इसी प्रकार की भय, युद्ध, ग्राम, निगम, नगर, जनपद, स्त्री, पनघट, भूत-प्रेत आदि सम्बन्धी कथाओं को 'तिरश्चीन' (व्यर्थ की, अधम) कथाएं कह कर भिक्षु-संघ में हेयता की दृष्टि से देखा जाता था, फिर भी उपदेश के लिए कथाओं का उपयोग भिक्षु लोग कुछन-कुछ मात्रा में करते ही थे । स्वयं भगवान् ने भी उपमाओं के द्वारा धर्म का उपदेश दिया है । इसी प्रवृत्ति के आधार पर जातक-कथाओं का विकास हुआ है। जन-समाज में प्रचलित कथाओं को भी कहीं-कहीं ले लिया गया है, किन्तु उन्हें एक नया नैतिक रूप दे दिया गया है जो बौद्ध धर्म की एक विशेपता है । अतः सभी जातक कथाओं पर वौद्ध धर्म की पूरी छाप है । पूर्व परम्परा से चली आती हुई जनश्रुतियों का आधार उनमें हो सकता है । पर उसका सम्पूर्ण ढाँचा वौद्ध धर्म के नैतिक आदर्श के अनुकूल है । हम पहले देख चुके है कि वुद्ध-वचनों का नौ अंगों में विभाजन, जिनमें जातक की संख्या सातवीं है, अत्यन्त प्राचीन है । अतः जातक कथाएं मांग में पालि साहित्य के महत्त्वपूर्ण एवं आवश्यक अंग है। उनकी संख्या के विषय में अनिश्चितता विशेषतः उनके समय-समय पर सत्त-पिटक और विनयपिटक तथा अन्य स्रोतों से संकलन के कारण और स्वयं पालि त्रिपिटक के नाना वर्गीकरणों और उनके परम्पर संमिश्रण के कारण उत्पन्न हुई है। चुल्ल-निदेस में हमें केवल ५०० जातकों का (पञ्च जातकसतानि) का उल्लेख मिलता १. विन्टरनित्ज--इंडियन लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ ११५, पद-संकेत २ २. ब्रह्मजाल-सुत्त (दीघ १३१), सामञफल-सुत्त (दोघ ११२), विनय-पिटक-- महावग्ग, आदि, आदि। ३. देखिये पीछे दूसरे अध्याय मे पालि साहित्य के वर्गीकरण का विवेचन । Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७७ ) है।' चीनी यात्री फ-शिनयन ने पाँचवीं शताब्दी ईसवी में ५०० जातकों के चित्र लंका में अंकित हुए देखे थे। द्वितीय-तृतीय शताब्दी ईस्वी पूर्व के भरहुत और साँची के स्तूपों में कम से कम २७ या २९ जातकों के चित्र उत्कीर्ण मिले हैं। ये मब तथ्य 'जातक' की प्राचीनता और उसके विकाम के सूचक है। गयस डेविड्म का कथन है कि जातक का मंकलन और प्रणयन मध्य-देश में प्राचीन जन-कथाओं के आधार पर हुआ।४ विन्टरनित्ज़ ने भी प्रायः इसी मत का प्रतिपादन किया है। अधिकांश जातक बुद्धकालीन हैं। साँची और भरहुत के स्तृपों के पाषाण-वेप्टनियों पर उनके अनेक दश्यों का अङ्कित होना उनके पूर्व-अशोककालीन होने का पर्याप्त माक्ष्य देता है। 'जातक' के काल और कर्तत्व के सम्बन्ध में अधिक प्रकाश उसके माहित्यिक रूप और विशेषताओं के विवेचन से पड़ेगा। प्रत्येक जातक-कथा पाँच भागों में विभक्त है (१) पच्चुप्पन्नवत्थु (२) अतीतवत्थु (३) गाथा (४) वेय्याकरण या अत्थवण्णना (५) समोधान । पच्चुप्पनवत्थु का अर्थ है वर्तमान काल की घटना या कथा । बुद्ध के जीवन काल में जो घटना घटी, वह पच्चुप्पन्नवत्थ है। उस घटना ने भगवान् को किसी पूर्व जन्म के वृत्त को कहने का अवसर दिया। यह पूर्व जन्म का वृत्त ही अतीतवत्थु है । प्रत्येक जातक का सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण भाग यह अतीतवत्थु ही है। इसी के अनुकूल पच्चुप्पन्नवत्थु कहीं-कहीं गढ़ ली गई प्रतीत होती है। पच्चुप्पन्नवत्थ के बाद एक या अनेक गाथाएं आती हैं। गाथाएं जातक के प्राचीनतम अंश हैं। वास्तव में गाथाएँ ही जातक हैं । पच्चप्पन्नवत्थु आदि पाँच भागों से समन्वित जातक तो वास्तव में 'जातकत्थवण्णना' या जातक की अर्थकथा है। गाथाओं के बाद प्रत्येक जातक में वेय्याकरण या अत्थवण्णता आती है। इसमें गाथाओं की व्याख्या और १. पृष्ठ ८० (स्टीड द्वारा सम्पादित, पालि टैक्स्ट सोसायटी, १९१८) २. लेगो : रिकार्ड ऑव दि बुद्धिस्ट किंग्डम्स, पृष्ठ १०६ (ऑक्सफर्ड, १८८६) ३. रायस डेविड्स : बुद्धिस्ट इंडिया, पृष्ठ २०९ ४.बुद्धिस्ट इंडिया, पृष्ठ १७२; २०७-२०८ ५. इंडियन लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ ११३-११४; १२१-१२३ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७८ ) उसका शब्दार्थ होता है । सबसे अन्त में समोधान आता है, जिसमें अतीतवत्थु के पात्रों का बुद्ध के जीवन-काल के पात्रों के साथ सम्बन्ध मिलाया जाता है, यथा "उस समय अटारी पर से शिकार खेलने वाला शिकारी अब का देवदत्त था । और कुरुङ्ग मृग तो मैं था ही " " आदि, आदि । प्रत्येक जातक के पाँच अङ्गों के उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि जातक गद्य-पद्य मिश्रित रचनाएँ हैं। गाथा (पद्य) भाग जातक का प्राचीननम भाग माना जाता है । त्रिपिटक के अन्तर्भूत इस गाथा - भाग को ही मानना अधिक उपयुक्त होगा । शेष सब अट्ठकथा है । परन्तु जातक कथाओं की प्रकृति ऐसी है कि मूल को व्याख्या से अलग कर देने पर कुछ भी समझ में नहीं आ सकता । केवल गाथाएँ कहानी का निर्माण नहीं करती। उनके उपर जब वर्तमान और अतीत की घटनाओं का ढाँचा चढ़ाया जाता है तभी कथावत्थु का निर्माण होता है । अतः पूरे जातक में उपर्युक्त पाँच अवयवों का होना आवश्यक है, जिसमें गाथा-भाग को छोड़कर शेष सब उसकी व्याख्या है, बाद का जोड़ा हुआ है। फिर भी सुविधा के लिए, और ऐतिहासिक दृष्टि से गलत ढंग पर, हम उस सबको 'जातक' कह देते हैं । वास्तव में ५४७ जातक-कथाओं के संग्रह को, जो उपर्युक्त पाँच अंगों से समन्वित है हमें, 'जातक' न कहकर 'जातकट्ठवण्णना' (जातक के अर्थ की व्याख्या) ही कहना चाहिए। फॉमवाल और कॉवल ने जिसका क्रमशः रोमन लिपि में और अंग्रेजी में सम्पादन और अनुवाद किया है, या हिन्दी में भनन्त आनन्द कौसल्यायन ने 'जातक' शीर्षक से ३ भागों में (चतुर्थ भाग निकलने वाला है ) अनुवाद किया है, वह वास्तव में 'जातक' न हो कर जातक की व्याख्या है। जैसा अभी कहा गया, जातक तो मूल रूप में केवल गाथाएँ है, शेष भाग उसकी व्याख्या है। तो फिर गाथा और जातक के शेष भाग का काल - क्रम आदि की दृष्टि से क्या पारस्परिक सम्बन्ध है, यह प्रश्न सामने आता है। अट्ठकथा में गाथा- भाग को 'अभिसम्बुद्ध गाथा' या भगवान् बुद्ध द्वारा भाषित गाथाएँ कहा गया है । वे बुद्ध वचन हैं । अतः वे त्रिपिटक के अंगभूत थीं और उनको वहाँ से संकलित कर उनके ऊपर कथाओं का ढाँचा प्रस्तुत किया गया है। सम्पूर्ण 'जातक' ग्रन्थ की १. कुरूंगमिग जातक (२१) Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७९ ) विषय-वस्तु का जिस आधार पर वर्गीकरण हुआ है, उससे भी यही स्पष्ट है कि गाथा - भाग, या जिसे विन्टरनित्ज़ आदि विद्वानों ने 'गाथा - जातक'" कहा है, वही उसका मूलाधार है । 'जातक' ग्रन्थ का वर्गीकरण विषय-वस्तु के आधार पर न होकर गाथाओं की संख्या के आधार पर हुआ है । थेर-थेरी गाथाओं के समान वह भी निपातों में विभक्त है । 'जातक' में २२ निपात हैं । पहले निपात में १५० ऐसी कथाएँ हैं जिनमें एक ही एक गाधा पाई जाती है। दूसरे निपात में भी १५० जातक कथाएँ हैं, किन्तु यहाँ प्रत्येक कथा में दो-दो गाथाएँ पाई जाती हैं। इसी प्रकार तीसरे और चौथे निपात में पचास-पचास कथाएँ हैं और गाथाओं की संख्या क्रमशः तीन-तीन और चार-चार है । आगे भी तेरहवें निपात तक प्रायः यही क्रम चलता है। चौदहवें निपात का नाम 'पणिक निपान' है। इस निपात में गाथाओं की संख्या नियमानुसार १४ न हो कर विविध है । इसीलिए इसका नाम 'किक' ( प्रकीर्णक) रख दिया गया है। इस निपात में कुछ कथाओं में १० गायाऍ भी पाई जाती हैं और कुछ में ४७ तक भी। आगे के निपातों में गाथाओं की संख्या निरन्तर बढ़ती गई है। बाईसवें निपात में केवल दस जातक कथाएँ हैं, किन्तु प्रत्येक में गाथाओं की संख्या मौ से भी ऊपर है । अन्तिम जानक (वेस्सन्तर जातक ) में तो गाथाओं की संख्या सात सौ से भी ऊपर है । इस सब से यह निष्कर्ष आसानी से निकल सकता है कि जातक कथाओं की आधार गाथाएं ही हैं | स्वयं अनेक जातक कथाओं के 'वेय्याकरण' भाग में 'पालि' और 'अट्ठकथा' के बीच भेद दिखाया गया है, जैसे कि पालि सुनों की अन्य अनेक अट्ठकथाओं तथा 'विमुद्धिमग्गो' आदि ग्रन्थों में भी। जहाँ तक 'जातक' के वैय्याकरण भाग से सम्बन्ध है, वहाँ 'पालि' का अर्थ त्रिपिटक गत गाथा ही हो सकता है । भाषा के साक्ष्य से भी गाथा भाग अधिक प्राचीनता का द्योतक हैं अपेक्षाकृत गद्यभाग के । फिर भी, जैसा विन्टरनित्ज़ ने कहा है, जातक की सम्पूर्ण १. इंडियन लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ ११८-११९ २. जातक ( प्रथम खंड ) पृष्ठ २० ( वस्तुकथा ) ; देखिये विन्टरनित्ज: इंडियन लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ ११८-११९ भी । ३. देखिए पहले अध्याय में 'पालि- शब्दार्थ - निर्णय' सम्बन्धी विवेचन । Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८० ) गाथाओं को त्रिपिटक का मूल अंश नहीं माना जा सकता। उनमें भी पूर्वापर भेद है। स्वयं 'जातक' के वर्गीकरण से ही यह स्पष्ट है। जैसा ऊपर दिखाया जा चुका है, चौदहवें निपात में प्रत्येक जातक-कथा की गाथाओं की संख्या नियमानुसार १४ न होकर कहीं-कहीं बहुत अधिक है। इसी प्रकार मत्तरवें निपात में उसकी दो जातक-कथाओं की गाथाओं की संख्या भत्तर-सनर न हो कर क्रमशः ९२ और ९३ हैं। इस सब मे यह निष्कर्ष निकाला गया है कि जातक की गाथाओं अथवा 'गाथा-जातक' की मूल संख्या निपात की संख्या के अनुकूल ही रही होगी, और बाद में उसका संवर्द्धन किया गया है। अतः कुछ गाथाएँ अधिक प्राचीन है और कुछ अपेक्षाकृत कम प्राचीन। इसी प्रकार गद्य-भाग भी कुछ अत्यन्त प्राचीनता के लक्षणं लिए हुए है और कुछ अपेक्षाकृत अर्वाचीन है। किमी-किसी जातक में गद्य और गाथा-भाग में माम्य भी नहीं दिखाई पड़ता और कहीं-कहीं शैली में भी बड़ी विभिन्नता है। इस सब से जातक के संकलनात्मक रूप और उसके भाषा-रूप की विविधता पर प्रकाग पड़ता है, जिसमें कई रचयिताओं या संकलनकर्ताओं और कई शताब्दियों का योग रहा है। जातक की गाथाओं की प्राचीनता तो निर्विवाद है ही, उमका अधिकांश गद्य-भाग भी अत्यन्त प्राचीन है। भगत और सांची के स्तुपों की पाषाण-वेप्टनियों पर जो चित्र अंकित हैं, वे 'जातक' के गद्य-भाग से ही सम्बन्धित है । अतः 'जातक' का अधिकांश गद्य-भाग जो प्राचीन है, तृतीय-द्वितीय शताब्दी ईसवी पूर्व में इतना लोक प्रिय तो होना ही चाहिए कि उमे शिल्प-कला का आधार बनाया जा सके। अतः सामान्यतः हम 'जातक' को बद्धकालीन भारतीय समाज और संस्कृति का प्रतीक मान सकते हैं। हाँ, उसमें कुछ लक्षण और अवस्थाओं के चित्रण प्राग्बौद्धकालीन भारत के भी हैं। जहाँ तक गाथाओं की व्याख्या और उनके शब्दार्थ का सम्बन्ध है, वह सम्भवतः जातक का सब से अधिक अर्वाचीन अंश है । इस अंश के लेखक आचार्य बुद्धघोप माने जाते हैं। 'गन्धवंम' के अनुमार आचार्य बुद्धघोष ने १. विन्टरनित्जः इंडियन लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ ११९ २. देखिये विन्टरनित्ज : इंडियन लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ ११९, पद-संकेत २; पृष्ठ १२२, पद-संकेत २ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८१ ) ही 'जातकट्ठवण्णना' की रचना की। किन्तु यह सन्दिग्ध है। रायस डेविड्स ने बुद्धघोष को 'जातकट्ठवण्णना' का रचयिता या संकलनकर्ता नहीं माना है ।' स्वयं जातकट्ठकथा के उपोद्घात में लेखक ने अपना परिचय देते हुए कहा है ". . . . . . शान्तचित्त पंडित बुद्धमिन और महिशामक वंग में उत्पन्न, शास्त्रज्ञ, शुद्धवुद्धि भिक्षु बुद्धदेव के कहने से . . . . . . व्याख्या करूंगा।"5 महिंगामक सम्प्रदाय महाविहार की परम्परा मे भिन्न एक बौद्ध सम्प्रदाय था। बुद्धघोष ने जितनी अट्ठकथाएँ लिखी है, मृद्ध महाविहार वामी भिक्षुओं की उपदेश-विधि पर आधारित (महाविहारवासीनं देसनाननिस्मितं---विसुद्धिमग्गो) हैं। अतः जातकट्ठकथा के लेखक को आचार्य बुद्धघोष से मिलाना ठीक नहीं। सम्भवतः यह कोई अन्य सिंहली भिक्षु थे, जिनका काल पांचवी शताब्दी ईमवी माना जा सकता है। जातक-कथाएं, जैसा पहले कहा जा चुका है, भगवान् बुद्ध के पूर्व-जन्मों से सम्बन्धित है। बोधिसत्व की चर्याओं का उनमें वर्णन है । अतः वे सभी प्रायः उपदेशात्मक हैं। परन्तु उनका साहित्यिक रूप भी निखरा हुआ है। उपदेशात्मक होते हुए भी वे पूरे अर्थों में कलात्मक है। कुछ जातक-कथाओं का सारांश देकर यहाँ उनकी विषय-वस्तु के रूप को स्पष्ट कर देना आवश्यक होगा। 'जातक' के आदि में निदान-कथा (उपोद्घात) है, जिसमें भगवान् बुद्ध के पहले के २७ बुद्धों के विवरण के साथ-माथ भगवान् गौतम बुद्ध की जीवनी भी जेतवन-विहार के दान की स्वीकृति तक दी गई है। अब कुछ जातकों की कथा वस्तु का दिग्दर्शन करें। अपण्णक जातक (१) व्यापार के लिए जाते हुए दो बनजारों की कथा है । एक दैत्यों के हाथ मारा गया, दूसरा बुद्धिमान होने के कारण अपने पांच सौ साथियों सहित सकुशल घर लौट आया। कण्डिन जातक (१३)-~कामुकता के कारण एक मृग गिकारी के हाथों मारा गया। मखादेव जातक (९)--सिर के सफेद वाल देख कर राजा सिंहामन छोड़ कर वन चला गया। मम्मोदमान जातक (३३) १. पृष्ठ ५९ (जर्नल ऑव पालि टैक्स्ट सोसायटी, १८८६, म प्रकाशित संस्करण) २. बद्धिस्ट बर्थ स्टोरीज, पृष्ठ ६३ (भूमिका) ३. जातक, प्रथम खण्ड, पृष्ठ १-२ (भदन्त आनन्द कौसल्यायन का अनुवाद) देखिये, वहीं पष्ठ २३ (वस्तुकथा) भी। Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८२ ) एकमत बटेरों का चिड़ीमार कुछ न बिगाड़ सका, परन्तु जब उनमें फूट पड़ गई तो सभी चिड़ीमार के जाल में फंस गये। तिनिर जातक (३७)--बदर, हाथी और तितिर ने आपस में विचार कर निश्चय किया कि जो ज्येष्ठ हो उसका आदर करना चाहिए। बक जातक (३८)--बगले ने मछलियों को धोखा दे दे कर एक एक को ले जाकर मार खाया । अन्न में वह एक केकड़े के हाथ से माग गया। कण्ह जातक (२९)--एक बैल ने अपनी बुढ़िया माँ को जिसने उसे पाला था मजदूरी से कमा कर एक हजार काण्ण ला कर दिये। बेळुक जातक (४३) तपस्वी ने साँप के बच्चे को पाला, जिसने उसे इस कर मार डाला। रोहिणी जातक (४५) रोहिणी नामक दामी ने अपने माता के मिर की मक्खियाँ हटाने के लिये जाकर माता को मार डाला। वानरिन्द जातक (५७) मगरमच्छ अपनी स्त्री के कहने से बानर का हृदय चाहता था। बानर अपनी चतुरता से बच निकला। कुदाल जातक (७०) कुद्दाल पंडित कुद्दाल के मोह में पड़ छ: बार गृहस्थ और प्रवजित हुआ। सीलवनागराज जातक (७२) वन में रास्ता भूले हुए एक आदमी की हाथी ने जान बचाई। खरस्मर जातक (७९) गाँव का मुखिया चोरों से मिल कर गाँव लुटवाता था। नाममिद्धि जातक (९७) 'पापक' नामक विद्यार्थी एक अच्छे नाम की तलाश में वहुत घूमा। अन्त में यह समझ कर कि नाम केवल बलाने के लिए होता है, वह लौट आया। अकालरावी जातक (११९) असमय शोर मचाने वाला मुर्गा विद्यार्थियों द्वारा मार डाला गया। बिळारवत जातक (१२८) गीदड़ धर्म का ढोंग कर चूहों को खाता था। गोध-जातक (१४१) गोह की गिरगिट के साथ मित्रता उमके कुल-विनाश का कारण हुई। विरोचन जातक (१४३) गीदड़ ने शेर की नकल कर के पराक्रम दिखाना चाहा। हाथी ने उसे पाँव से रौंद कर उस पर लीद कर दी। गुण जातक (१५७) दलदल में फंसे सिंह को सियार ने बाहर निकाला। मक्कट जातक (१७३) बन्दर तपस्वी का वेश बना कर आया। आदिच्चपटठान जातक (१७५) बन्दर ने सूर्य की पूजा करने का ढोंग बनाया। कच्छप जातक (१७८) जन्मभूमि के मोह के कारण कछुवे की जान गई। गिरिदन जातक (१८४) शिक्षक के लंगड़ा होने के कारण घोड़ा लँगड़ा कर चलने लगा। सीहचम्म जातक (१८९) सिंह की खाल पहन कर गया खेत चरता रहा। किन्तु बोलने पर मारा गया। महापिगंल जातक (२४०) Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८३ ) राजा मर गया, फिर भी द्वारपाल को भय था कि अत्याचारी राजा यमराज के पास से कहीं लौट न आवे। आरामदूसक जातक (२६८) बन्दरों ने पौधों को उखाड़ कर उनकी जड़ें नाप-नाप कर पानी सींचा। कुटिदूसक जातक (३२१) बन्दर ने बये के सदुपदेश को सुन कर उसका घोंसला नोच डाला। बावेरु जातक (३३९.) बावेरु राष्ट्र में कौआ सौ कार्षापण में और मोर एक हजार कार्षापण में बिका। वानर जानक (३४२) मगरमच्छनी ने वन्दर का हृदय-मांस खाना चाहा। सन्धिभेद जात (३४९) गीदड़ ने चुगली कर सिंह और बैल को परस्पर लड़ा दिया, आदि आदि। ऊपर के विवरण से स्पष्ट है कि जातक-कथाओं का रूप जन-साहित्य का है। उसमें पशु-पक्षियों आदि की कथाएँ भी हैं और मनुष्यों की भी। जातकों के कथानक विविध प्रकार के है । विन्टरनित्ज़ ने मुख्यतः सात भागों में उनका वर्गीकरण किया है। (१) व्यावहारिक नीति-सम्बन्धी कथाएँ (२) पशुओं की कथाएं (३) हास्य और विनोद से पूर्ण कथाएँ (४) रोमांचकारी लम्बी कथाएँ या उपन्यास (५) नैतिक वर्णन (६) कथन और (७) धार्मिक कथाएँ । वर्णन की शैलियाँ भी भिन्न-भिन्न हैं। विन्टरनित्ज़ ने इनका वर्गीकरण पाँच भागों में इस प्रकार किया है3 (१) गद्यात्मक वर्णन (२) आख्यान , जिमके दो रूप है (अ) संवादात्मक और (आ) वर्णन और संवादों का संमिश्रित रूप। (३) अपेक्षाकृत लम्बे विवरण, जिनका आदि गद्य से होता है किन्तु बाद में जिनमें गाथाएँ भी पाई जाती हैं (४) किसी विषय पर कथित वचनों का संग्रह और (५) महाकाव्य या खंड काव्य के रूप में वर्णन । वानरिन्द जातक, (५७) विळारवत जातक, (१२८) सीहचम्म जातक (१८९) मंसुमारजातक १. इस दिग्दर्शन के लिए मैं भदन्त आनन्द कौसल्यायन के जातक-अनुवाद के तीनों खंडों की विषय-सूची के लिए कृतज्ञ हूँ। वहीं से यह सामग्री संकलित की गई है। २. हिस्ट्री ऑव इंडियन लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ १२५ ३. वहीं पृष्ठ १२४ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८४ ) (२०८) और सन्धिभेद जातक (३४९) आदि जातक-कथाएँ पशु-कथाएँ हैं । ये कथाएँ अत्यधिक महत्वपूर्ण है। विशेषतः इन्हीं कथाओं का गमन विदेशों में हुआ है। व्यङ्ग य का पुट भी यहीं अपने काव्यात्मक रूप में दृष्टिगोचर होता है । प्रायः पशुओं की तुलना में मनुष्यों को हीन दिखाया गया है । एक विशेष बात यह है कि व्यङ्गय किसी व्यक्ति पर न कर सम्पूर्ण जाति पर किया गया है । एक बन्दर कुछ दिनों के लिए मनुष्यों के बीच आकर रहा। वाद में अपने साथियों के पास जाता है । साथी पूछने है ___ "आप मनुष्यों के समाज में रहे हैं । उनका बर्ताव जानते हैं। हमें भी कहें । हम उमे सुनना चाहते हैं।" "मनुष्यों की करनी मुझ से मत पूछो।" "कहें, हम स्नना चाहते है।" बन्दर ने कहना शुरू किया, "हिरण्य मेरा ! सोना मेरा ! यही रात-दिन वे चिल्लाते है। घर में दो जने रहते हैं। एक को मूछ नहीं होती। उसके लम्बे केश होते हैं, वेणी होती है और कानों में छेद होते है । उसे बहुत धन से खरीदा जाता है । वह मब जनों को कष्ट देता है।" बन्दर कह ही रहा था कि उमके साथियों ने कान बन्द कर लिए "मत कहें, मत कहें"।' इस प्रकार के मधुर और अनठे व्यङ्गय के अनेकों चित्र 'जातक' में मिलेंगे । विशेषतः मनुष्य के अहंकार के मिथ्यापन के सम्बन्ध में मर्मस्पर्गी व्यङ्गय महापिंगल जातक (२४०) में, ब्राह्मणों की लोभ-वृत्ति के सम्बन्ध में सिगाल जातक (११३ ) में, एक अति बद्धिमान् तपस्वी के सम्बन्ध में अवारिय जातक (३७६) में हैं। सब्बदाठ नामक शृगाल सम्बन्धी हास्य और विनोद भी बड़ा मधुर है (सब्बदाठ जातक २४१) और इसी प्रकार मक्खी हटाने के प्रयत्न में दामी का मुसल से अपनी माता को मार देना (रोहिणी जातक ३४५) और बन्दरों का पौधों को उखाड़कर पानी देना भी (आरामदूमक १. गरहित-जातक (२१९) भदन्त आनन्द कौसल्यायन का अनुवाद, जातक (द्वितीय खंड), पृष्ठ ३६२-६३ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८५ ) जातक - ४६ ) मधुर विनोद से भरे हुए हैं । इसी प्रकार रोमांच के रूप में महाउम्मग जातक (५४६ ) आदि नाटकीय आख्यान के रूप में छदन्त जानक (५१४) आदि, एक ही विषय पर कहे हुए कथनों के संकलन के रूप में कुणाल जातक (५३६) आदि, मंक्षिप्त नाटक के रूप में उम्मदन्ती जातक (५२७) आदि, नीति-सरक कथाओं के रूप में गुण जातक ( १५७) आदि, पूरे महाकाव्य के रूप में वेम्मन्तर् जातक ( ५४७ ) आदि एवं ऐतिहासिक संवादों के रूप में ५३० और ५४४ संख्याओं के जातक आदि, अनेक प्रकार के वर्णनात्मक आख्यान 'जातक' में भरे पड़े हैं, जिनकी माहित्यिक विशेषताओं का उल्लेख यहाँ अत्यन्त संक्षिप्त रूप से भी नहीं किया जा सकता । बुद्धकालीन भारत के समाज, धर्म, राजनीति, भूगोल, लौकिक विश्वाम, आर्थिक एवं व्यापारिक अवस्था एवं सर्वविध जीवन की पूरी सामग्री हमें 'जातक' में मिलती है । 'जातक' केवल कथाओं का संग्रह भर नहीं है । बौद्ध साहित्य में तो उसका स्थान सर्वमान्य है ही । स्थविरवाद के समान महायान में भी उसकी प्रभूत महत्ता है, यद्यपि उसके रूप के सम्बन्ध में कुछ थोड़ा-बहुत परिवर्तन है । बौद्ध साहित्य के समान समग्र भारतीय साहित्य में और इतना ही नहीं समग्र विश्व - साहित्य में 'जातक' का एक महत्त्वपूर्ण स्थान है । इसी प्रकार भारतीय सभ्यता के एक युग का ही वह निदर्शक नहीं है बल्कि उसके प्रसार की एक अद्भुत गाथा भी 'जातक' में समाई हुई है । विशेषतः भारतीय इतिहास में 'जातक' के स्थान को कोई दूसरा ग्रन्थ नहीं ले सकता । बुद्धकालीन भारत सामाजिक आर्थिक, राजनैतिक जीवन को जानने के लिए 'जानक' एक उत्तम साधन है । चूंकि उसकी सूचना प्रामङ्गिक रूप से ही दी गई है, इसलिए वह और भी अधिक प्रामाणिक है और महत्त्वपूर्ण भी । ' 'जातक' के आधार पर यहाँ बुद्धकालीन भारत का संक्षिप्ततम विवरण भी नहीं दिया जा सकता । जातक की निदान कथा में हम तत्कालीन भारतीय भूगोल- सम्बन्धी महत्त्वपूर्ण सूचना पाते हैं । वहाँ कहा गया है कि जम्बुद्वीप ( भारतवर्ष ) दस हजार योजना बड़ा १. देखिये डा० विमलाचरण लाहा के ग्रन्थ " Geography of Early Buddhism" में डा० एफ० डब्ल्यू० थॉमस का प्राक्कथन । Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८६ ) है। मध्य-देश की सीमाओं का उल्लेख वहाँ इस प्रकार किया गया है "मध्य देश की पूर्व दिशा में कजंगला नामक कस्बा है, उसके बाद बड़े गाल (के वन) हैं और, फिर आगे सीमान्त (प्रत्यन्त) देश । पूर्व-दक्षिण में सललवती नामक नदी हैं उसके आगे मीमान्त देश । दक्षिण दिशा में मेतकण्णिक नामक कस्बा है, उसके बाद सीमान्त देश । पश्चिम दिशा में थून नामक ब्राह्मण ग्राम है, उसके बाद सीमान्त देग। उत्तर दिशा में उशीरध्वज नामक पर्वत है, उसके बाद सीमान्त देश ।' १ यह वर्णन यहाँ विनय-पिटक से लिया गया है और वृद्ध-कालीन मध्यदेश की सीमाओं का प्रामाणिक परिचायक माना जाता है। जातक के इमी भाग में नरंजरा, अनोमा आदि नदियों, पाण्डव पर्वत, वैभारगिरि, गयासीस आदि पर्वतों, उझवेला, कपिलवस्तु, वाराणसी, राजगृह, लुम्बिनी , वैशाली, श्रावस्ती आदि नगरों और स्थानों, एवं उत्कल देश (उड़ीसा) का तथा यष्टिवन (लट्ठि वन) आदि वनों का उल्लेख मिलता है। सम्पूर्ण जातक में इस सम्बन्धी जितनी सामग्री भरी पड़ी है, उसका ठीक अनुमान ही नहीं लगाया जा सकता । सम्पूर्ण कोशल और मगध का तो उसके ग्रामों, नगरों, नदियों और पर्वतों के सहित वह पूरा वर्णन उपस्थित करता है । मोलह महाजनपदों (जिनका नामोल्लेख अंगतर-निकाय में मिलता है) का विस्तृत विवरण हमें असम्पदान जातक में मिलता है । महासुतसोम जातक (५३७) में हमें कुरु-देश के विस्तार के सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण सूचना मिलती है। इसी प्रकार धूमाकारि जातक (४१३) में कहा गया है कि युधिष्ठिर गोत्र के राजा का उस समय वहाँ राज्य था। कुरु-देश की राजधानी इन्द्रप्रस्थ का विस्तार ३०० योजन (त्रियोजनसते कुरुर8) महामतमोम जानक (५३७) में दिया गया है । धनंजय, को रव्य और सुतसोम आदि कुरू-राजाओं के नाम कुरुधम्म जातक (२७६), धूमकारि जातक (४१३), सम्भव जातक (५१५) और विधुर पंडित जातक (५४५) में आते हैं । उत्तर पंचाल के लिए कुरु और पंचाल वंशों में झगड़ा चलता रहा, इसकी सूचना हम चम्पेय्य जातक (५०६) तथा अन्य अनेक जातकों में पाने हैं। कभी वह कुरु-राष्ट्र में सम्मिलित हो जाता था (मोमनस्स-जातक, ५०५)२ और कभी कम्पिल १. जातक (प्रथम खंड) पृष्ठ ६४ (भदन्त आनन्द कौसल्यायन का अनुवाद) २. मिलाइये महाभारत १११३८ भी। Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८७ ) राष्ट्र में भी, जिमका साक्ष्य ब्रह्मदत्त जातक (३२३), जयद्दिस जातक (५१३) और गण्डतिन्दु जातक (५२०) में विद्यमान है ।' पंचाल-राज दुर्मुख निमि का समकालिक था, इसकी सूचना हमें ४०८ संख्या के जातक से मिलती है । अस्सक (अश्मक) राष्ट्र की राजधानी पोतन या पोतलि का उल्लेख हमें चुल्लकलिङ्ग जातक (३०१) में मिलता है। मिथिला के विस्तार का वर्णन सुरुचि जातक और गन्धार जातक (४०६) में है। महाजनक जातक (५३९) में मिथिला का बड़ा सुन्दर वर्णन उपलब्ध होता है, जिसकी तुलना महाभारत ३. २०६. ६-९ से की जा सकती है। सागल नगर का वर्णन कलिङ्गबोधिजातक (४७९) और कुश जातक (५३१) में है । काशी राज्य के विस्तार का वर्णन धजविदेह जातक (३९१) में है। उसकी राजधानी वाराणसी के केतुमती, सुरुन्धन, सुदस्सन, ब्रह्मवड्ढन, पुप्फवती, रम्मनगर और मोलिनी आदि नाम थे, ऐसा साक्ष्य अनेक जातकों में मिलता है। २ तण्डुलनालि जातक (५) में वाराणसी के प्राकार का वर्णन है। तेलपत्त जातक (९६) और सुसीम जातक (१६६) में वाराणसी और तक्षशिला की दूरी १२० योजन बनाई गई है। कुम्भकार जातक (४०८) में गन्धार के राजा नग्गजि या नग्नजित् का वर्णन है । कुरु जातक (५३१) में मल्लराष्ट्र और उसकी राजधानी कुसावती या कुमिनारा का वर्णन है । चम्पेय्य जातक (५०६) में अङ्ग और मगध के संघर्ष का वर्णन है। वत्स राज्य और उसके अधीन भग्ग-राज्य की सूचना धोनसाख जातक (३५३) में मिलती है । इन्द्रिय जातक में सुरट्ठ, अवन्ती, दक्षिणापथ, दंडकवन, कुम्भवति नगर आदि का वर्णन है। बिम्बिसार सम्बन्धी महत्वपूर्ण सूचना जातकों में भरी पड़ी है। महाकोशल की राजकुमारी कोसलादेवी के साथ उसके विवाह का वर्णन और काशी गाँव की प्राप्ति का उल्लेख हरितमातक जातक (२३९) और वड्ढकिसूकर जातक (२८३) आदि जातकों में है। मगध और कोसल के संघर्षो का और अन्त में उनकी एकता का उल्लेख वड्ढकिसूकर जातक, कुम्मासपिंड जातक, तच्छसकर जातक और भद्दसाल १. मिलाइये कुम्भकार जातक (४०८) भी २. देखिये, डायलॉग्स ऑव दि बुद्ध, तृतीय भाग, पृष्ठ ७३; कारमाइकेल लेक्चर्स, (१९१८), पृष्ठ, ५०-५१ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । २८८ ) जातक आदि अनेक जातकों में है। इस प्रकार बुद्धकालीन राजाओं, गज्यों, प्रदेगों, जातियों, ग्रामों, नगरों आदि का पूरा विवरण हमें जातकों में मिलता है ।१ तिलमुटि जातक (२५२) में हमें बुद्धकालीन शिक्षा, विशेषतः उच्च शिक्षा, का एक उत्तम चित्र मिलता है। संखपाल जातक (५२४) और दरीमग्ख जातक (३७८) में मगध के राजकुमारों की तक्षशिला में शिक्षा का वर्णन है । शिक्षा के विधान, पाठ्य-क्रम, अध्ययन-विषय उनके व्यावहारिक और सैद्धान्तिक पक्ष, निवास, भोजन, नियन्त्रण आदि के विषय में पूरी जानकारी हमें जातकों में मिलती है। बनारस, राजगृह, मिथिला, उज्जैनी, श्रावस्ती. कौगाम्बी, तक्षशिला आदि प्रसिद्ध नगरों को मिलाने वाले मार्गों का तथा स्थानीय व्यापार का पूरा विवरण हमें जातकों में मिलता है। कागी मे चेदि जाने वाली सड़क का उल्लेख वेदभ जातक (४८) में है। क्या क्या नाना पेशे उस समय लोगों में प्रचलित थे, कला और दस्तकारी की क्या अवस्था थी तथा व्यवमाय किस प्रकार होता था, इसके अनेक चित्र हमें जातकों में मिलते है । बावेक जातक (३३१) और मुमन्धि जातक (३६०) से हमें पता लगता है कि भारतीय व्यापार विदेशों से भी होता था और भारतीय व्यापारी सवर्ण-भूमि (बरमा से मलाया तक का प्रदेश ) तक व्यापार के लिए जाते थे। भरुकच्छ उस समय एक प्रसिद्ध वन्दरगाह था। जल के मार्गों का भी जातकों में स्पष्ट उल्लेख है। लौकिक विश्वामों आदि के बारे में देवधम्म जातक (६) और नलपान जातक (२०) आदि में ; समाज में स्त्रियों के स्थान के सम्बन्ध में अण्डभूत जातक (६२) आदि में ; दासों आदि की अवस्था के सम्बन्ध में कटाहक जातक (१२५) आदि में ; मुगपान आदि के सम्बन्ध में सुरापान जातक (८१) आदि में ; यज्ञ में जीव-हिमा के सम्बन्ध में दुम्मेध जातक (५०) आदि में ; व्यापारिक संघों १. डा० विमलाचरण लाहा का "Geography of Early Buddhism" बुद्धकालीन भूगोल पर एक उत्तम ग्रन्थ है, जिसमें जातक के अलावा त्रिपिटक के अन्य अंशों से भी सामग्री संकलित की गई है। डा० लाहा के 'Some Kshatriya Tribes of Ancient India', 72T 'Ancient Indian Tribes' आदि पालि त्रिपिटक पर आधारित ग्रन्थ बुद्धकालीन भारत के अनेक पक्षों का प्रामाणिक विवरण उपस्थित करते हैं। Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८९ ) और डाकुओं के भय आदि के सम्बन्ध में खुरप्प जातक (२६५) और तत्कालीन शिल्पकला आदि के विषय में महाउम्मग्ग जातक (५४६) आदि में प्रभूत सामग्री भरी पड़ी है, जिसका यहाँ वर्गीकरण करना अत्यन्त कठिन है। सचमच त्रिपिटक में यदि ऐतिहासिक , भौगोलिक, आर्थिक, सामाजिक आदि सूचनाओं के लिए यदि किसी अन्य का महत्व मब मे अधिक है नो 'जातक' का। गयस डेविड्म ने 'बुद्धिस्ट इन्डिया' में बुद्धकालीन भारत का चित्र उपस्थित किया है। उसमें उन्होंने एक अध्याय (ग्यारहवाँ अध्याय) 'जातक' के विवेचन के लिए दिया है । बुद्धकालीन गजवंशों, विभिन्न जातियों, जन-तन्त्रों, भौगोलिक स्थानों, ग्रामों, नगरों, नदियों, पर्वतों, मनुष्यों के पेशों आदि के सम्बन्ध में जातकों ने जो महत्त्वपूर्ण उद्धरण वहाँ दिये गये हैं, यदि उनका संक्षिप्ततम विवरण भी दिया जाय तो प्रस्तुत परिच्छेदांश जातक का विवेचन न होकर बुद्धकालीन भारत का ही विवरण हो जायगा। फिर यही अन्न नहीं है। बुद्धकालीन भारत के अनेक पओं को लेकर विद्वानों ने अलग-अलग महाग्रन्थ लिखे है और उनमें प्रायः जातक का ही आश्रय अधिकतर लिया गया है। रायस डेविड्स के उपर्यवन ग्रन्थ के अलावा डा. विमलाचरण लाहा का वुद्धकालीन भुगोल सम्बन्धी महत्वपूर्ण ग्रन्थ है।' डा० फिक का बुद्धकालीन सामाजिक अवस्था पर प्रसिद्ध ग्रन्थ है ।२ डा० राधाकुमुद मुकर्जी ने 'इंडियन शिपिंग' में भारतीय व्यापार का विस्तृत विवेचन किया है और एक अन्य प्रसिद्ध ग्रन्थ में वैदिक और बौद्धयुगीन शिक्षा पद्धति का भी। इसी प्रकार आर्थिक और व्यावसायिक परिस्थितियों पर भी महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ और प्रबन्ध है।४ बीसों की संख्या इसी प्रकार गिनाई जा सकती १. Geography of Early Buddhism, केगन पॉल, लन्दन १९३२; देखिये उनका India as Described in Early Texts of Jainism and Buddhism भो। २. मूल ग्रन्थ जर्मन में है। अंग्रेजी में "The Social Organization in North-East India in Buddha's Time" शीर्षक से डा० मैत्र ने अनुवाद किया है। कलकत्ता, १९२० ३. Ancient Indian Education, Brahmanical and Buddhist, Macmillan. ४. उदाहरणार्थ श्रीमती रायस डेविड्स : Notes on Early Economic Conditions in Northern India, जर्नल ऑव रॉयल एशियाटिक १९ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। यदि पालि साहित्य के इतिहास का लेखक इन अनेक ग्रन्थों, महाग्रन्थों, में में उल्लिखित जातक-सामग्री का उल्लेख अपने जातक-परिचय में कराना चाहे तो यह उसकी धृष्टता ही होगी। यह अनेक महाग्रन्थों का विषय है। यदि वह इसके निदर्शन का प्रयत्न करेगा तो महासमुद्र में अपने को गिरा देगा। उसका मूर्धापात हो जायगा। यही बात वास्तव में जातक के भारतीय साहित्य और विदेशी साहित्य पर प्रभाव की है। पहले बौद्ध साहित्य और कला में उसके स्थान और महत्त्व को लें। जैमा पहले कहा जा चुका है, बौद्ध धर्म के सभी सम्प्रदायों में 'जातक' का महत्त्व सुप्रतिष्ठित है। महायान और हीनयान को वह एक प्रकार से जोड़ने वाली कड़ी है, क्योंकि महायान का वोधिसत्व-आदर्श यहाँ अपने वीज-रूप में विद्यमान है । हम पहले देख चुके हैं कि दूसरी-तीसरी शताब्दी ईसवी पूर्व के माँची और भरहुत के स्तूपों में जातक के अनेक दृश्य अंकित है। 'मिलिन्दपहो' में अनेक जातक-कथाओं को उद्धृत किया गया है। पाँचवीं शताब्दी में लंका में उसके ५०० दृश्य अंकित किये जा चुके थे। अजन्ता की चित्रकारी में भी महिम जातक (२७८) अंकित है ही। बोध-गया में भी उसके अनेक चित्र अंकित है। इतना ही नहीं जावा के बोरोबदूर स्तूप (९वीं शताब्दी ईसवी) में, वन्मा के पेगन स्थित पेगोडाओं में (१३वीं शताब्दी ईसवी) और सिआम के मखोदय नामक प्राचीन नगर (१४वीं शताब्दी) में जातक के अनेक दृश्य चित्रित मिले हैं। अतः जातक का महत्त्व भारत में ही नहीं, बृहत्तर भारत में भी, स्थविरवाद बौद्ध धर्म में ही नहीं, वौद्ध धर्म के अन्य अनेक के रूपों में भी, स्थापित है। अब भारतीय साहित्य में जातकों के महत्त्व और स्थान को लें। यदि कालक्रम की दृष्टि से देखें तो वैदिक साहित्य की शुनः शेप की कथा, यम-यमी संवाद, पुरुरवा-उर्वशी संवाद आदि कथानक ही बुद्ध-पूर्व काल के हो सकते हैं। छान्दोग्य और बृहदारण्यक आदि कुछ उपनिषदों की आख्यायिकाएँ भी बुद्ध-पूर्व काल की मानी जा सकती हैं, और इसी प्रकार ऐतरेय और शतपथ ब्राह्मण के कुछ सोसायटी, १९०१, रतिलाल मेहता : Pre-Buddhist India; डा० रायस डेविड्स : बुद्धिस्ट इंडिया, अध्याय ६ (Economic Conditions) पृष्ठ ८७-१०७ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २९१ ) आख्यान भी। पर इनका भी जातकों से और सामान्यतः पालि साहित्य से घनिष्ठ सम्बन्ध है। हम देख चुके हैं कि तेविज्ज-सुत्त (दीघ १।१३) में अट्टक, वामक, वामदेव, विश्वामित्र, यमदग्नि, अङ्गिरा, भरद्वाज, वशिष्ठ, कश्यप और भुगु इन दस मन्त्रकर्ता ऋषियों के नाम के साथ-साथ ऐतरेय ब्राह्मण, तैत्तिरीय ब्राह्मण, छन्दोग ब्राह्मण और छन्दावा ब्राह्मण का भी उल्लेख हुआ है। इसी प्रकार हम यह भी देख चुके हैं कि मज्झिम-निकाय के अस्सलायण-मुत्तन्त (२।५।३) के आश्वलायन ब्राह्मण को प्रश्न-उपनिषद् के आश्वालायन से मिलाया गया है । मज्झिम-निकाय के आश्वलायन श्रावस्ती-निवासी हैं और वेद-वेदाङ्ग में पारगत (तिण्णं वेदानं पारग सनिघण्डु-केटभानं) हैं, इसी प्रकार प्रश्न-उपनिषद् के आश्वलायन भी वेद-वेदाङ्ग के महापंडित हैं और कौसल्य (कोशल-निवासी) हैं। २ जातकों में भी वैदिक साहित्य के साथ निकट सम्पर्क के हम अनेक लक्षण पाते हैं। उद्दालक जातक (४८७) में उद्दालक के तक्षशिला जाने और वहाँ एक लोकविश्रुत आचार्य की सूचना पाने का उल्लेख है। इसी प्रकार सेतुकेतु जातक (३७७) में उद्दालक के पुत्र श्वेतुकेतु का कलाओं की शिक्षा प्राप्त करने के लिए तक्षशिला जाने का उल्लेख है । शतपथ ब्राह्मण (११. ४. १-१) में उद्दालक को हम उत्तरापथ में भ्रमण करते हुए देखते है। अतः इससे यह निष्कर्ष निकालना असंगत नहीं है कि जातकों के उद्दालक और श्वेतुकेतु ब्राह्मणग्रन्थों और उपनिषदों के इन नामों के व्यक्तियों से भिन्न नहीं है । जर्मन विद्वान् लूडर्स ने सेतकेतु जातक (३७७) में आने वाली गाथाओं को 'वैदिक आख्यान और महाकाव्य-युगीन काव्य को मिलाने वाली कड़ी' कहा है, जो समुचित १. देखिये पोछे दोघ-निकाय को विषय-वस्तु का विवेचन। २. हेमचन्द्र राय चौधरी : पोलिटिकल हिस्ट्री ऑव एन्शियन्ट इंडिया, पृष्ठ २१ (तृतीय संस्करण, कलकत्ता, १९३२) ३. हेमचन्द्र राय चौधरी : पोलिटिकल हिस्ट्री ऑव एशियन्ट इंडिया, पृष्ठ ४१ (तृतीय संस्करण, कलकत्ता, १९३२); विन्टरनित्तः इंडियन लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ १२३ *. "connecting link between the vedic epic tea and the epic poetry" विन्टरनित्व-कृत इंडियन लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ १२३, पर-संकेत २ में उद्धृत। Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२ ) ही है । रामायण और महाभारत के साथ जातक की तुलना करते समय हमें एक बात का बड़ा ध्यान रखना चाहिए। वह यह है कि इन दोनों ग्रन्थों के सभी अंग बुद्ध-पूर्व युग के नहीं हैं । रामायण के वर्तमान रूप में २४००० इन्द्रोक पाये जाते हैं । जनश्रुति भी है और स्वयं रामायण में कहा भी गया है। 'चतुर्दिश सहस्राणि श्लोकानाम् उक्तवान् ऋषि: ( १ ४ २ ) । किन्तु बौद्ध महाविभाषाशास्त्र मे सिद्ध है कि द्वितीय शताब्दी ईसवी में भी रामायण में केवल १२००० इलोक थे । ' रामायण २-१९०-९४ में 'बुद्ध तथागत' का उल्लेख आया है । इसी प्रकार शक, यवन आदि के साथ संघर्ष (शकान् यवनमिश्रितान्१-५४-२१) का वर्णन है । किष्किन्धाकाण्ड ( ८. ४३-११-१२) में सुग्रीव के द्वारा कुरु, मद्र और हिमालय के बीच में यवनों और शकों के देश और नगरों को स्थित बताया गया है । इससे सिद्ध है कि जिस समय ये अंश लिखे ग, ग्रीक और सिथियन लोग पंजाब के कुछ प्रदेशों पर अपना आधिपत्य जमा चुके थे । ऊतः रामायण के काफी अंश महाराज बिबिमार या बुद्ध के काल के बाद लिखे गये । महाभारत में इसी प्रकार एडुकों (बौद्ध मन्दिरों) का स्पष्ट उल्लेख है। बौद्ध विशेषण चातुर्महाराजिक भी वहाँ आया है ( १२-३३९-४०) । रोमक (रोमन) लोगो का भी वर्णन (२-५१-१३ ) है । इसी प्रकार सिथियन और ग्रीक आदि लोगों का भी (३-१८८-३५) । आदि पर्व ( १ ६७-१३-१४) में महाराज अशोक को 'महासुर' कहा गया है और 'महावीर्योऽपराजितः ' के रूप में उसकी प्रशंसा की गई है । शान्ति पर्व में विप्णगुप्त कौटिल्य ( द्वितीय शताब्दी ईसवी पूर्व ) के शिष्य कामन्दक का भी अर्थविद्या के आचार्य के रूप में उल्लेख है । इस प्रकार अनेक प्रमाणों के आधार पर सिद्ध है कि महाभारत के वर्तमान रूप १. हेमचन्द्र राय चौधरी : पोलिटिकल हिस्ट्री ऑव एन्शियन्ट इंडिया, पृष्ठ ३ (तृतीय संस्करण, १९३२) २. उद्धरण के लिये देखिये जातक ( प्रथम खंड ) पृष्ठ २४ ( वस्तुकथा) पद - संकेत ३ ( भदन्त आनन्द कौसल्यायन का अनुवाद) ३. हेमचन्द्र राय चौधरी : पोलिटिकल हिस्ट्री ऑव एन्शियन्ट इंडिया, पृष्ठ ३ ( तृतीय संस्करण १९३२ ) ४. देखिये वहीं, पृष्ठ ४-५ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का काफी अंश बुद्ध, अशोक और कौटिल्य विष्णुगुप्त के बाद के युग का है।' जातक की अनेक गाथाओं और रामायण के श्लोकों में अद्भुत समानता है। दसरथ जातक (४६१) और देवधम्म जातक (६) में हमें प्राय: गम-कथा की पूरी रूपरेखा मिलती है । जयद्दिस जातक (५१३) में राम का दण्डकारण्य जाना दिखाया गया है। इसी प्रकार साम जातक (५४०) की मदृशता रामायण २. ६३-२५ से है और विन्टरनित्ज़ के मत में जातक का वर्णन अधिक सरल और प्रारम्भिक है । ३ वेस्सन्तर जातक (५४७) के प्रकृति-वर्णन का साम्य इसी प्रकार वाल्मीकि के प्रकृति-वर्णन से है और इस जातक की कथा के साथ राम की कथा में भी काफी सदृशता है। महाभारत के साथ जातक की तुलना अनेक विद्वानों ने की है। उनके निष्कर्षों को यहाँ संक्षिप्ततम रूप में भी रखना वास्तव में बड़ा कठिन है । सब से बड़ी बात यह है कि महाजनक जातक (५३९) के जनक उपनिषदों और महाभारत के ही ब्रह्मज्ञानी जनक हैं ।" इसमें तनिक भी सन्देह नहीं। मिथिला के प्रासादों को जलते देखकर जनक ने कहा था 'मिथिलायां प्रदीप्तायां न मे दह्यति किचन' (महाभारत १२-१७; १८-१९; २१९५०) । ठीक उनका यही कथन हमें महाजनक जातक (५३९) में भी मिलना है तथा ४०८ और ५२९ संख्याओं के जातकों में भी । अतः दोनों व्यक्ति एक है. इसमें तनिक भी सन्देह का अवकाश नहीं। इसी प्रकार ऋप्य शुङ्ग (पालि इसिसिङ्ग ) की पूरी कथा नलिनिका जातक (५२६) में है । युधिष्ठिर (युधिट्ठिल) और विदुर (विधूर) का संवाद जातक-संख्या ४९.५ में है। कुणाल १. अधिक प्रमाणों के लिए देखिये, वहीं, पृष्ठ ४-५ २. कुछ उद्धरणों के लिए देखिये जातक (प्रथम खंड) पृष्ठ २५ पद-संकेत ? (भदन्त आनन्द कौसल्यायन का अनुवाद) ३. इंडियन लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ १४७, पद-संकेत ४ ४. विटरनित्ज : इंडियन लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ १५२ ५. रायस डेविड्स : बुद्धिस्ट इंडिया, पृष्ठ २६, विन्टरनिरज : इंडियन लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ १४६; हेमचन्द्र राय चौधरी : पोलिटिकल हिस्ट्री ऑव एन्शियन्ट इंडिया, पृष्ठ ३६-३७ (तृतीय संस्करण, १९३२), आदि, आदि Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २९४ ) जातक (५३६) में कृष्ण और द्रौपदी की कया है। इसी प्रकार घट जातक (३५५) में कृष्ण द्वारा कंस-वध और द्वारका बमाने का पूरा वर्णन है। महाकण्ह जातक (४६९) निमि जातक (५४१) और महानारदकस्सप जातक (५४४) में राजा उशीनर और उसके पुत्र शिवि का वर्णन है। सिविजातक (४९९) में भी राजा शिवि की दान-पारमिता का वर्णन है । अतः कहानी मूलत: बौद्ध है, इसमें सन्देह नहीं। महाभारत में १०० ब्रह्मदत्तों का उल्लेख है (२.८.२३) १ सम्भवतः ब्रह्मदत्त किसी एक राजा का नाम न होकर राजाओं का मामान्य विशेषण था, जिसे १०० राजाओं ने धारण किया। दुम्मेध जातक (५०) में भी राजा और उसके कुमार दोनों का नाम ब्रह्मदत्त बताया गया है । इसी प्रकार गंगमाल जातक (४२१) में कहा गया है कि ब्रह्मदत्त कुल का नाम है । सुसीम जातक (४११) कुम्मासपिंड जातक (४१५) अट्ठान जातक (४२५) लोमस्सकस्मय जातक (४३३) आदि जातकों की भी यही स्थिति है । अत: जातकों में आये हुए ब्रह्मदत्त केवल 'एक समय' के पर्याय नहीं हैं, ऐसा कहा जा मकता है। उनमें कुछ न कुछ ऐतिहासिकता भी अवश्य है। रामायण और महाभारत के अतिरिक्त पतंजलि के महाभाष्य में भी जातक-गाथाएँ उल्लिखित हैं,२ प्राचीन जैन साहित्य में भी और पंचतन्त्र, हितोपदेश, वैताल पंचविंशति, कथासरित्सागर तया पैशाचीप्राकृत-निबद्ध 'बड्डकहा' (बृहत्कथा) में भी जातक का प्रभाव क्रिम प्रकार स्पष्टतः उपलक्षित है, इसके निदर्शन के लिए तो कई महाग्रन्यों की आवश्यकता होगी। ___'जातक' ने विदेशी साहित्य को भी किस प्रकार प्रभावित किया है और किस प्रकार उसके माध्यम से बुद्ध-वचनों का गमन दूरस्थ देशों में, यूरोप तक, हुआ है, इमकी कथा भी बड़ी अद्भुत है । जिस प्रकार जातक-कथाएँ समुद्रमार्ग से लंका, बरमा, सिआम, जावा, सुमात्रा, हिन्द-चीन आदि दक्षिण-पूर्वी एशिया के देशों को गईऔर वहाँ स्थापत्य-कला आदि में चित्रित की गई, उसी प्रकार म्थल-मार्ग मे हिन्दुक श और हिमालय को पार कर पच्छिमी देशों तक उनके १. मिलाइये "शतं वै ब्रह्मदत्तानाम्" (मत्स्य पुराण) २. जर्नल ऑव रॉयल एशियाटिक सोसायटी, १८९८, पृष्ठ १७ ३. विन्टरनित्ज : इंडियन लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ १४५, पद-संकेत २ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहुँचने की यात्रा भी बड़ी लम्बी और मनोहर है । पिछले पचास-साठ वर्षों की ऐतिहासिक गवेपणाओं से यह पर्याप्त रूप से सिद्ध हो चुका है कि बुद्ध-पूर्व काल में भी विदेशों के साथ भारत के व्यापारिक सम्पर्क थे। बावेर जातक (३३९) और मुसन्धि जातक (३६०) में हम इन सम्बन्धों की पर्याप्त झलक देख ही चुके हैं। द्वितीयशताब्दी ईसवी पूर्व से ही अलसन्द (अलेक्जेन्डिया) जिसे अलक्षेन्द्र (अलेगजेन्डर) ने बसाया था, पूर्व और पश्चिम की संस्कृतियों का मिलन-केन्द्र हो गया था। वस्तुत: पश्चिम में भारतीय साहित्य और विशेषत: जातक-कहानियों की पहुंच अरव और फिर उनके वाद ग्रीक लोगों के माध्यम से हुई । पञ्चतन्त्र में अनेक जातक-कहानियाँ विद्यमान हैं, यह तथ्य सर्वविदित है। छठी शताब्दी ईमवी में पंचतन्त्र का अनुवाद पहलवी भाषा में किया गया। आठवी मताब्दी में 'कलेला दमना' गीर्षक से उसका अनुवाद अग्बी में किया गया। कलेला दमना' शब्द 'कर्कट' और 'दमनक' के अग्वी रूपान्तर है । पन्द्रहवी गताब्दी में पंचतंत्र के अरवी अनवाद का जर्मन भाषा में अनुवाद हुआ, फिर धीरे-धीरे सभी यूरोपीय भाषाओं में उसका रूपान्तर हो गया। यह हमने पंचतन्त्र के माध्यम से जातक-कथाओं के प्रसार की बात कही है। वास्तव में मीधे रूप मे भी जातक ने विदेशी साहित्य को प्रभावित किया है और उसकी कथा भी अत्यन्त प्राचीन है। ग्रीक साहित्य में ईसप की कहानियाँ प्रसिद्ध है। फ्रेंच, जर्मन और अंग्रेज विद्वानों की खोज से सिद्ध है कि ईसप एक ग्रीक थे. यद्यपि उनके काल के विषय में अभी पूर्ण निश्चय नहीं हो पाया है। ईसप की कहानियों का यूरोपीय साहित्य पर बड़ा प्रभाव पड़ा है और विद्वानों के द्वारा यह दिखा दिया गया है कि ईमप की प्रायः प्रत्येक कहानी का आधार जातक है ।' यही बात अलिफलैला की कहानियों के सम्बन्ध में भी है। समुग्ग जातक (४३६) का तो सीधा सम्बन्ध अलिफलेला की एक कहानी में दिखाया ही गया है। अन्य अनेक कहानियो की १. रायस डेविड्स : बुद्धिस्ट बर्थ स्टोरीज़, पृष्ठ ३२ (भूमिका) २. देखिये डा० हेमचन्द्र राय चौधरी का "बुद्धिज्म इन वैस्टर्न एशिया" शीर्षक लेख डा० विमलाचरण लाहा द्वारा सम्पादित 'बुद्धिस्टिक स्टडीज' मे, पृष्ठ ६३९-६४० Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २९६ ) · भी तुलना विद्वानों ने की है । |' आठवी शताब्दी में अरबों ने यूरोप पर आक्रमण किया । स्पेन और इटली आदि को उन्होंने रोंद डाला । उन्ही के साथ जातक - कहानियाँ भी इन देशों में गई और उन्होंने धीरे धीरे सारे यूरोपीय साहित्य को प्रभावित किया । फ्रान्स के मध्यकालीन साहित्य में पशु-पक्षी सम्बन्धी कहानियों की अधिकता है। फ्रेंच विद्वानों ने उन पर 'जातक' के प्रभाव को स्वीकार किया है । वायविल और विशेषतः सन्त जोन के सुसमाचार की अनेक कहानियों और उपमाओं की तुलना पालि त्रिपिटक और विशेषतः 'जातक' के इस सम्वन्धी विवरणों से विद्वानों ने की है । ईसाई धर्म पर बौद्ध धर्म का पर्याप्त प्रभाव पड़ा है, यह अव प्रायः निर्विवाद माना जाने लगा है। इस प्रभाव में अन्य अनेक तत्त्वों के अतिरिक्त 'जातक' का भी काफी सहयोग रहा है । ईसाई सन्त प्लेसीडस की कथा की तुलना न्यग्रोधाराम जातक ( १२ ) की कथा से की गई है, यद्यपि विन्टरनित्ज़ ने उसमें अधिक साम्य नही पाया है । पर सब से अधिक साम्य तो मध्य-युग की रचना 'वरलाम एण्ड जोसफत' का जातक के 'बोधिसत्व' से है । इस रचना में, जो मूलतः ही या सातवीं शताब्दी ईसवी में पहलवी में लिखी गई थी, भगवान् बुद्ध की जीवनी ईसाई परिधान में वर्णित की गई है । बाद में इस रचना के अनुवाद अरब, सीरिया इटली और यूरोप की अन्य भाषाओं में हुए । 'जोसफत' शब्द अरबी 'युदस्तफ' का रूपान्तर है, जो स्वयं संस्कृत 'वोधिसत्व ' का अरबी अनुवाद है | ईसाई धर्म में सन्त ' जोसफत' को ( जिनका न केवल बल्कि पूरा जीवन बोधिसत्व - बुद्ध का है ) ईसाई सन्त के रूप में स्वीकार किया गया है। यह एक बड़ी अद्भुत किन्तु ऐतिहासिक रूप से सत्य बात है । श्रीमती यम डेविड्स ने तो शेक्सपियर के मर्चंट ऑव वेनिस में 'तीन डिबियों' तथा 'आध मेर मांस' के वर्णन में तथा 'ऐज यू लाइक इट' में 'बहुमूल्य रत्नों' के विवरण में जातक के प्रभाव को ढूंढ निकाला है, एवं स्लेवोनिक जाति के साहित्य नाम, १. मिलाइये विन्टरनित्ज़ : इंडियन लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ १३०, पद-संकेत २, आदि आदि । २. इंडियन लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ १५०, पद-संकेत २ ३. देखिये जातक (प्रथमखंड ) पृष्ठ ३०, पद-संकेत १ ( वस्तुकथा ) Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में तथा प्रायः मभी पूर्वी यूरोप के साहित्य में 'जातक' के प्रभाव की विद्यमानता. दिखाई है ।' भिक्षु शीलभद्र ने पर्याप्त उदाहरण देकर सिद्ध किया है कि निमि जातक (५८१) ही चौदहवी गताब्दी के इटालियन कवि दाँते की प्रसिद्ध रचना. (Divina Comedia) का आधार है । जर्मन विद्वान् बेन्फे ने 'जातक' को विश्व के कथा-साहित्य का उद्गम कहा है, जो तथ्यों के प्रकाश में अतिशयोक्ति नहीं कहा जा सकता। इस प्रकार भारतीय साहित्य और संस्कृति के साथ विश्व के साहित्य और सभ्यता के इतिहास में 'जातक' के स्थान और महत्व के इस मंक्षिप्त दिग्दर्शन के बाद अब हम खुद्दक निकाय के अन्य ग्रन्थों पर आते हैं। निदेस निद्देस के दो भाग हैं, महानिद्देस और चूल निद्देस । महानिद्देस सुत्त-निपात के अट्ठक वग्ग की व्याख्या है। इसी प्रकार चूल निद्देस एक प्रकार सुत्त-निपात के ही खग्ग विमाण सुत्त और पारायण की व्याख्या है । इस प्रकार पूग निद्देस मुत्त-निपान के एक भाग की ही अट्ठकथा है। परम्पग से यह सारिपुत्र की रचना बताई जाती है। ‘महानिदेस' में हमें उन स्थानों, देशों और बन्दरगाहों की सूची मिलती है जिनके साथ भारत का व्यापार पाँचवीं-छठी शताब्दी ईसवी पूर्व होता था। समुद्र , नदी और स्थल के कौन-कौन से मार्ग थे. इसका भी पूरा विवरण हम यहाँ मिलता है । 1. "Thus for instance the Three Caskets and the Pound of Flesh in the Merchant of Venice and the Precious Jewels which in As You Like It the venomous toad wears in his head, are derived from the Buddhist tales. In a similar way, it has been shown that tales current among the Hungarians and the numerous peoples of the Slavonic race have been derived from the Buddhist sources, through translations made for the Huns, who penetrated in: the time of Genghis Khan into the East of Europe." बुद्धिस्ट बर्थ स्टोरीज, पृष्ठ १२ (भूमिका) २. देखिये उनका Influence of the Buddhist Jatakas on European Literature' शीर्षक लेख, महाबोधि, जनवरी १९५०, पृष्ठ १०-१६; मिलाइये दि बुद्धिस्ट, जनवरी, १९४८, पृष्ठ ११८-१२० (कोलम्बो, सिंहल), Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २९८ ) पटिसम्मिदामग्ग इस ग्रन्थ का विषय अर्हत् के प्रतिसंवित् सम्बन्धी ज्ञान का विवेचन है। सम्पूर्ण ग्रन्थ में तीन मुख्य भाग हैं, जिनमें से प्रत्येक में १० परिच्छेद है। इस ग्रन्थ का सम्बन्ध शैली और विषय दोनों की दृष्टि से अभिधम्म पिटक से अधिक है। इसका कुछ विवरण हम आगे अभिधम्म पिटक का विवेचन करते समय करेंगे। अपदान अपदान (सं० अवदान) खुद्दक-निकाय के उत्तरकालीन ग्रन्थों में मे है। इसमें बौद्ध भिक्षुओं और भिक्षुणियों के पूर्व जन्मों के महान् कृत्यों का वर्णन है। जातक के ममान इसकी भी कहानी के दो भाग होते हैं, एक अतीत जन्म-सम्बन्धी और दूसरा वर्तमान (प्रत्युत्पन्न) जीवन-सम्बन्धी। अपदान दो भागों में विभक्त है, थेर-अपदान और थेरी-अपदान । थेर-अपदान में ५५ वर्ग है और प्रत्येक वर्ग में १० अपदान है। थेरी-अपदान में ४ वर्ग है, जिनमें भी प्रत्येक में १० अपदान हैं। साहित्य या इतिहास की दृष्टि से इस ग्रन्थ का कोई विशेष महत्व नहीं है। हाँ, इसी ग्रन्थ पर संस्कृत वौद्ध साहित्य का अवदान-साहित्य अधिकांशतः आधारित है, यह इसका एक महत्त्व अवश्य कहा जा सकता है। 'अपदान' में चीनी लोगों के व्यापारार्थ उत्तरी पंजाब में आने का उल्लेख है। बुद्धवंस बुद्धवंस २८ परिच्छेदों का एक पद्यात्मक ग्रन्थ है, जिसमें गौतम बुद्ध और उनके पूर्ववर्ती २४ अन्य बुद्धों की जीवनियों का विवरण है । गौतम बुद्ध के जीवनी मम्बन्धी अंग को छोड़ कर शेष तो प्राय: पौराणिक ढंग का ही है, अतः उसका महत्त्व भी केवल उमी दिशा में ममझना चाहिए। चरियापिटकर चग्यिापिटक में भगवान् बुद्ध के पूर्व जन्मों की चर्याओं का वर्णन है, जिसमें १. २. इनके देवनागरी संस्करण भिक्षु उत्तम द्वारा प्रकाशित किए जा चुके हैं, जिन्हें महापंडित राहुल सांकृत्यायन, भदन्त आनन्द कौसल्यायन तथा भिक्ष जगदीश काश्यप ने सम्पादित किया है। चरियापिटक' का देवनागरी लिपि में सम्पादन डा० विमलाचरण लाहा ने भी किया है, जिसे मोतीलाल बनारसीदास, लाहोर, ने प्रकाशित किया था। Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २९९ ) यह दिखाया गया है कि किस प्रकार भगवान् ने नाना पारमिताओं को पूरा किया था। दम पारमिताओं में से यहाँ केवल सात का उल्लेख है, यथा दान, शील, नैष्कर्म्य, अधिष्ठान, सत्य, मैत्री और उपेक्षा। प्रज्ञा, वीर्य और क्षान्ति का वर्णन नहीं है । सम्पूर्ण ग्रन्थ ६ परिच्छेदों में है जिनमें कुल मिला कर २५ जीवन-चर्याओं का वर्णन है। प्रत्येक जीवन-चर्या का वर्णन एक जातक-कथा मा लगता है जिसे गाथात्मक रूप दे दिया गया है। नाम-साम्य भी दोनों में पूग है। उदाहरण के लिए 'अकित्ति-चरियं' 'अकित्ति-जातक' का रूपान्तर मात्र है। इसी प्रकार 'संखचग्यि' 'संखपालजातक के, 'कुरुधम्म चरियं' 'कुरुधम्म जातक के तथा इसी प्रकार ग्रेप चर्याएँ प्रायः उसी नाम के जातक के पद्यात्मक रूपान्तर मात्र हैं। जानक से अन्यन्त सम्बन्धित होते हुए भी चरियापिटक का कलात्मक रूप उस कोटि तक नहीं पहुंच पाया है। वैसे कई मनोहर गाथाएँ भी यत्र-तत्र दिखाई पड़ती है। 'चरियापिटक' की प्रत्येक 'चर्या' की तुलना किम जातक में है, यह निम्नलिखित तालिका में स्पष्ट होगा। १--दान पारमिता २. अकित्ति चरियं--अकित्ति जातक (४८०) २. संव चरियं---संखपाल जातक (५२४) ३. कुरुधम्म चयिं--कुरुधम्म जातक (२७६) ८. महामुदस्सन चरियं--महासुदस्सन जातक (९५) ५. महागोविन्द चरियं--महोगोविन्द मुत्तन्त (दीघ निकाय) ६. निमिराज चयिं-निमि जातक (५४१) ७. चन्दकुमार चरियं-खंड हाल जातक (५४२) ८. मिविराज चरियं--सिवि जातक (८९९) २. वेस्मन्तर चरियं--वेस्सन्तर जातक (५४७) १०. समपंडित चयिं-सस जातक (३१६) Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०० ) २--सील पारमिता ११. सीलवनाग चरियं--सीलवनाग जातक (७२) १२. भरिदन चरियं--भूरिदत्त जातक (५४३) १३. चम्पेय्य नाग चरियं--चम्पेय्य जातक (५०६) १४. चूल बोधि चरियं---चुल्लबोधि जातक (४४३) १५. महिंसराज चरियं--महिम जातक (२७८) १६. समराज चरियं--सम जातक (४८२) १७. मातंग चरियं-मातंग जातक (४९७) १८. धम्माधम्मदेवपुत्त चरियं--धम्म जातक (४५७) १९. जयद्दिस चरियं--जयद्दिस जातक (५१३) २०. संखपाल चरियं-~संखपाल जातक (५२४) ३--नेक्खम्म पारमिता २१. युधजय चरियं---युवजय जातक (४६०) २२. सोमनस्स चरियं-सोमनस्स जातक (५०५) २३. अयोघर चरियं--अयोधर जातक (५१०) २४. भीम चरियं--भिस जातक (४८८) २५. सोणपण्डित चरियं--सोणनन्द जातक (५३२) ४-अधिट्टान पारमिता २६. तेमिय चरियं--तेमिय जातक (५३८) ५-सच्च पारमिता २७. कपिराज चरियं--कपि जानक (२५०) २८. सच्चसव्हय चरियं--सच्चकिर जातक (७३) २९. वटपोतक चरियं--बट्ट जातक (३५) ३०. मच्छराज चरियं--मच्छ जातक (३४) ३१. कण्हदीपायन चरियं--कण्हदीपायन जातक (४४८) ३२. मुतसोम चरियं--महासतमोम जातक (५३७) m mr Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३. ३८. ३०. > ६ – मैत्री पारमिता सुवणसाम चरियं -- सम जानक ( ५४० ) एकराज चरियं-- एकराज जातक (३०३ ) 20? ७ – उपेक्खा पारमिता महालोमहंम चरियं -- लोमहंस जानक (९४) Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा अध्याय विनय-पिटक त्रिपिटक में विनय-पिटक' का स्थान विनय-पिटक बौद्ध संघ का संविधान है। अतः धार्मिक दृष्टि से उसका बड़ा महत्त्व है। बुद्ध-धर्म का प्रथम तीन शताब्दियों का इतिहास विनय-पिटक संबंधो विवादों और मतभेदों का ही इतिहास है। शास्ता के महापरिनिर्वाण के बाद ही 'कुद्रानुभद्र' विनय-मम्बन्धी नियमों को लेकर भिक्षु-संघ में विवाद उठ खड़ा हुआ था, जिमका प्रथम संघ-भेदक परिणाम वैशाली की संगीति में दृष्टिगोचर हआ और बाद में तृतीय संगीति तक आते आते वह अष्टादश निकायों के रूप में पूर्णतः प्रस्फुटित हो गया। यह बात नहीं है कि इसके अन्य कारण न रहे हों, किन्तु विनय-विपरीत आचरण एक प्रमुख कारण था। यही कारण है कि स्थविरवाद बौद्ध धर्म की परम्परा ने 'विनय-पिटक' को अपनी धर्म-साधना में सदा एक अत्यन्त ऊँचा स्थान दिया है। बुद्ध के जीवन-काल में ही उनके विद्रोही शिष्य देवदत्त ने विनय-सम्बन्धी नियमों में कुछ अधिक कड़ाई की मांग की थी। उसने उस स्वतंत्रता के विरुद्ध ही, जो तथागत ने अपने शिष्यों को दी थी, विद्रोह किया था। इमी प्रकार कौशाम्बिक भिक्षुओं के दुर्व्यवहार के कारण भगवान् को खिन्न हो कर एक बार भिक्षु-संघ को कुछ काल के लिए छोड़ कर एकान्त-वास के लिए जाना पड़ा था। इन सब बातों से स्पष्ट था कि भगवान् ने जिस धम्म का उपदेश दिया था उसका साक्षात्कार बिना जीवन की पवित्रता के असम्भव था। उस पवित्रता के सम्पादन के लिए जिस साधन-मार्ग की आवश्यकता थी उसका वास्त १. महापंडित राहुल सांकृत्यायन द्वारा अनुवादित, महाबोधि सभा, सारनाथ १९३५, २० द० वदेकर ने विनय-पिटक के 'पातिमोक्ख' अंश का नागरीलिपि में सम्पादन किया है। Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक उपदेश तो उनके 'धम्म' में ही दे दिया गया था, किन्तु भिक्षु और भिक्षुणी संघों की स्थापना के बाद, उनमें कुछ असंयमी और अ-बैराग्यवान् व्यक्तियों के भी स्वाभाविक रूप से प्रविष्ट हो जाने के कारण, उनकी व्यवस्था को कुछ वाहय नियमों में भी बाँधने की आवश्यकता थी। यही कारण है कि हम विनय-पिटक में नाना प्रकार के नियमों का प्रज्ञापन बुद्ध-मुख से हुआ देखते है, जिनके प्रज्ञापन करने की उनके अपने उस प्राथमिक उपदेश-काल में, जब तपस्सु और भल्लिक जैसे उपासक केवल बुद्ध और धम्म की शरण जाते थे (संघ की स्थापना ही उस समय नही हुई थी, अतः स्वभावत: पारिभाषिक अर्थों में विनय-सम्बन्धी नियमों की भी नहीं) कोई आवश्यकता ही नहीं थी।' बुद्ध-धर्म की साधना का यह वह युग था जब बुद्ध कह सकते थे-- “य मया सावकानं सिक्खापदं पञतं, तं मम सावका जीवितहेतु पि नातिक्कमन्ति (अंगुत्तर-निकाय) अर्थात् “जिन शिक्षापदों (सदाचार-नियमों) का मैने उपदेश किया है, उनको मेरे शिष्य अपने प्राणों के लिये भी कभी नहीं तोड़ते।" उस समय शिक्षा-पद थे. किन्तु वे धर्म में ही अलहित थे। बोधिपक्षीय धर्मों की भावना और तदनकल आचरण स्वयं अपने आप में चित्त और काया की विशुद्धि के लिए एक अद्वितीय मार्ग था। चार आर्य-सत्य, आर्य अष्टांगिक मार्ग आदि सभी उम माधना के अंग थे। चार स्मृति-प्रस्थानों के विपय में तो स्वयं भगवान ने कहा है "भिक्षुओ! प्राणियों की विशद्धि के लिए . . . .निर्वाण के साक्षात्कार के लिए, यही अकेला सर्वोत्तम मार्ग है।" कहने का तात्पर्य यही है कि जब भगवान् बुद्ध ने प्रारम्भ से ही सभी पाप-कर्मों को न करने, सभी कुशल कर्मो को करने और चित्त को संयमित कर उसे शुद्ध रखने का आदेश देते हुए अपने धम्म को प्रकाशित किया, तो 'विनय' उसमें स्वयं अपने आप सम्मिलित था। लौकिक मफलता और महत्व-प्राप्ति के लिए भी जब संयम, या जिसे आज अनुगासन कहा जाता है, इतना आवश्यक है, तो ब्रह्मचर्य के उस महत् उद्देश्य के १. यद्यपि विनय-पिटक के वर्णनानुसार यह काल बहुत कम दिन रहा, किन्तु इसको सी पवित्रता तो बहुत दिन रही। Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०४ ) लिए, जिमकी महत्ता मभी लौकिक और पारलौकिक उद्देश्यों को अतिक्रमण करती है, कितना आवश्यक था, इसका सर्वोत्तम दर्शन हमें बद्ध-उपदेशों में ही होता है। स्वभावतः शास्ता के धम्म और विनय दोनों एक चीज है, एक ही वस्तु के दो पहलू है। उनके सामासिक स्वरूप 'यम्म-विनय' का भी यही रहस्य है। जब कि बुद्ध-मन्तव्य के अनुसार धम्म और विनय का एक मा ही महत्त्व है, "विनय-पिटक' के नियम नास्ता के शासन के बाहरी रूप मात्र है। उनका मानसिक अाधार निश्चित होते हा भी स्वयं उनका प्रजापन उम अवस्था का नत्रक है जब मंच में प्रविष्ट कुछ अ-संयमी भिक्षु तथागत-प्रवेदित धर्म के विरुद्ध आचरण करने लगे थे। जब तक यह बात नहीं हुई तथालत को नियम विधान करने की आवश्यकता नहीं हुई। धर्मसेनापति के साथ भगवान् के इस संलाप मे यह बात स्पष्ट होगी। धर्मसेनापति सारिपुत्र भगवान् मे प्रार्थना करते है “भन्ने ! भगवान् गिष्यों के लिए शिक्षा-पद का विधान करें, प्रातिमोभ का उपदेश करें, जिससे कि यह ब्रह्मचर्य चिरस्थायी हो।" भगवान कहते हैं, "सारिपुत्र ! ठहरो, नथागत काल जानेंगे। सारिपुत्र ! शास्ता तब तक धावकों (शियों) के लिए शिक्षा-पद का विधान नही करते. प्रातिमोक्ष का उपदेश नहीं करते, जब तक कि संघ में कोई चित्त-मल वाले धर्म (पदार्थ) उत्पन्न नहीं होते । मारिपुत्र ! जब यहाँ संघ में कोई चित्त-मल को प्रकट करने वाले धर्म पैदा हो जाते हैं, तो उन्हीं का निवारण करने के लिए, उन्हीं के प्रतिघात के लिए, भास्ता धावकों को शिक्षा-पद का विधान करते है, प्रातिमोक्ष का उपदेश करने है. . . . . . . . (अभी तो) सारिपुत्र ! संघ मल-हित, दुष्परिणाम-रहित, कालिमा-रहित, शुद्ध, सार में स्थित है। इन पाँच मौ भिक्षुओं में जो मव मे पिछड़ा भिक्षु है, वह भी स्रोत-आपत्ति फल को प्राप्त, दुर्गति से रहित और स्थिर संबोधि-परायण है। "१ अतः निश्चित है कि विनय सम्बन्धी नियमों का उपदेश जैसे कि वे विनय-पिटक में निहित हैं, भगवान के द्वारा 'धर्म' के वाद दिया गया जब कि अधिक मल-ग्रस्त व्यक्ति उसके आधार पर अपना सधार नहीं कर सके। १. विनय-पिटक, पाराजिका १ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०५ ) एक बार शिक्षापदों और प्रातिमोक्ष-सम्बन्धी नियमों का प्रज्ञापन करने के वाद संघ की स्थिति के लिए वह अत्यन्त आवश्यक हो गया। किन्तु शास्ता यह जानते थे कि एक बार आन्तरिक संयम से च्युत हो जाने के बाद उसे बाहरी नियमों के बन्धन में बाँध कर नहीं रक्खा जा सकता था। भिक्षुणी-संघ की स्थापना के समय भिक्षुणियों के लिए जीवन-पर्यन्त पालनीय आठ गुरु धर्मों (बड़ी शर्तो) का विधान करते समय ही शास्ता को यह प्रतिभान हो गया था कि यह बाहरी रोकथाम अधिक दिन तक चल नहीं सकती। “आनन्द ! जैसे आदमी पानी को रोकने के लिए, बड़े तालाब की रोक-थाम के लिए, मेंड बाँधे, उसी प्रकार आनन्द ! मैंने रोक थाम के लिए, भिक्षुणियों को जीवन भर अनुल्लंघनीय आठ गुरु धर्मों को स्थापित किया।" फलतः “आनन्द ! अब ब्रह्मचर्य चिरस्थायी न होगा, सद्धर्म पाँच सौ वर्ष ही ठहरेगा।" विचार-स्वातन्त्र्य की महत्त्वानुभूति पर आश्रित बुद्ध-मन्तव्य कभी मनुष्य को बाहरी नियमों के बन्धन में बाँधने वाला नहीं हो सकता था। जो कुछ भी नियम उन्होंने आवश्यकतावश प्रज्ञप्त किये थे, उनमें से अनेक ऐसे भी हो सकते थे जो उसी युग और परिस्थिति के लिए अनुकूल हों और जिनका सार्वकालिक या सार्वजनीन महत्त्व प्रतिष्ठापित करना उसी बुद्धिहीनता, संकुचित वृत्ति और सच्चे उद्देश्य को छोड़ कर बाहरी रूप की ओर दौड़ने की प्रवृत्ति का सूचक हो, जो धर्म-साधनाओं के इतिहास में अक्सर देखा जाता है, इसकी भी पूरी अनुभूति भगवान बुद्ध को थी, यह हम परिनिर्वृत्त होने से पहले उनके इस आदेश में देखते है “इच्छा होने पर संघ मेरे बाद क्षुद्रानुक्षुद्र (छोटे-मोटे) शिक्षा पदों को छोड़ दे।" संघ बाहरी बन्धन अनुभव न करे, इसीलिए उन्होंने अपने बाद किसी व्यक्ति को जान बूझ कर उसका नेता तक नहीं चुना। एकमात्र 'धम्मविनय' रूपी नेता की शरण में ही उन्होंने भिक्षु-संघ को छोड़ा। उन्होंने तो यहाँ तक कह दिया "भिक्षुओ ! मैने बेड़े की भाँति निस्तरण के लिए तुम्हें धर्म का उपदेश दिया है, पकड़ रखने के लिए नहीं। धर्म को बेड़े के समान उपदिष्ट जान कर तुम धर्म को भी छोड़ दो. अधर्म की तो बात ही क्या ?"३ यही बात विधि-निषेध-परक १. देखिये विशेषतः महापरिनिब्बाण-सुत्त (दोघ, २॥३); गोपक-मोग्गल्लान-सुत्त (मज्झिम ३३११८) २. अलगद्द पम-सुत्त (मज्झिम १३२) २० Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०६ ) १ विनय-सम्बन्धी नियमों के विषय में भी कही जा सकती है | चेतन (चित्त) को ही कम्म (कर्म) कहने वाले शास्ता का यह बाहरी नियम विधान अन्तिम मन्तव्य नहीं हो सकता था, यह ऊपर के उद्धरणों से स्पष्ट है । किन्तु निर्बल, मल-ग्रस्त मानवता के लिए और क्या किया जाय ? बाहरी नियम-विधानों से काम नहीं चलता, वे अपूर्ण ठहरते हैं, किन्तु उनके प्रज्ञापन किये बिना काम भी नहीं चलता ! जब सम्यक् सम्बुद्ध ने मनुष्यों का शास्ता बनना स्वीकार कर लिया, उनके बीच रहना - सहना, घूमना-फिरना स्वीकार कर लिया, संघ को धारण करना स्वीकार कर लिया, मनुष्यों को विशुद्धि रूपी निर्वाण के मार्ग पर लगाना स्वीकार कर लिया, तो उनकी चित्त-स्थिति के लिए अनुकूल नियमविधान भी वे क्यों नहीं करते? उनके शिष्यों में जो प्रधान थे, वे स्वतः ही भगवान् के 'धम्म' के अनुसार आचरण करते थे । अतः उन्हें अलग मे विनय-सम्बन्धी नियमों का उपदेश करने की आवश्यकता नहीं थी । किन्तु 'बहुजनों' में अधिकांश तो मल-ग्रस्त प्राणी ही थे । उन्हीं के पतन को देख कर भगवान् ने बाहरी नियमों का विधान किया, जिन्हें हम आज विनय-पिटक में देखते हैं । इनमें से बहुत कुछ बाहरी होते हुए भी अधिकांश मानसिक भित्ति पर ही आश्रित है, जो वुद्ध-मन्तव्य की सब से बड़ी विशेषता है । संयुत्त निकाय के भिक्खु संयुक्त्त में किस प्रकार भगवान् बुद्ध ने नन्द और तिस्स तथा अन्य भिक्षुओं को विनय-सम्बन्धी नियमों को कड़ाई के साथ पालन करने का आदेश दिया है, यह हम पहले देख चुके हैं । १. चेतनाहं भिक्खवे कम्मं वदामि । चेतयित्वा हि कम्मं करोति कायेन वाचाय मनसा वा। अंगुत्तर निकाय । २. केवल व्यावहारिक अर्थ में । वास्तव में तो संघ की पूरी व्यवस्था करते हुए भी भगवान् सदा निलिप्त ही रहे । जब आनन्द उनसे अन्तिम समय पर भिक्षु संघ के लिए कुछ कहने लिए प्रार्थना करते हैं, तो भगवान् कहते हैं, "आनन्द ! जिसको ऐसा हो कि मैं भिक्षु संघ को धारण करता हूँ. . वह जरूर आनन्द ! भिक्षु संघ के लिए कुछ कहे । आनन्द ! तथागत को ऐसा नहीं है ।" एक और स्थान पर भगवान् अपनी निर्लेपता का साक्ष्य देते हैं "मागन्दिय ! धर्मों का अन्वेषण कर के मुझे 'में यह कहता हूँ' यह धारणा नहीं हुई ।" ..... Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०७ ) अन्य भी अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं, जहाँ भगवान् बुद्ध ने विनय सम्बन्धी नियमों को पूरी तरह पालन करने का भिक्षुओं को उपदेश दिया है। जब तक भगवान् जीवित रहे, तब तक उनके व्यक्तित्व और साक्षात् सम्पर्क ने मनुष्यों को प्रेरणा मिलती थी। किन्तु उनके परिनिर्वाण के बाद तो विनय-सम्बन्धी नियम हो संध की एकता और मौलिक पवित्रता के एक मात्र मापदंड रह गए। उसके बाद बौद्ध संघ में विनय-पिटक का जो महान् आदर और गौरव प्रतिष्ठापित हुआ वह उसकी संकीर्णता या साम्प्रदायिकता का द्योतक नहीं था । वह भिक्षओं की उम व्यग्रता का द्योतक था जिसके साथ वे 'छिले शंख की तरह निर्मल' (शंखलिखित) शाक्य-मुनि के शासन को उसकी मौलिक पवित्रता में रखना और दखना चाहते थे। उनका वह प्रयत्न वेकार नहीं गया है, यह हम आज भी देख सकते हैं। वैशाली की संगीति के अवमर पर ही धर्म-वादी भिक्षओं ने किम प्रकार भगवान के मौलिक उद्देश्यों की रक्षा की, यह हम उसके विवरण में (द्वितीय अध्याय में) देख चुके है । लंका, वरमा और स्याम के मिन-संघों के इतिहास में किस प्रकार विहार-सीमा और पारुपण (चीवर को दोनों कन्धे ढंक कर पहनना), एक सिक (चीवर को इस प्रकार पहनना, जिसमे एक कन्धा, दाहिना कन्धा खुला रहे) आदि अल्प महत्व के विनय-सम्बन्धी प्रश्नों को लेकर भी उत्तरकालीन युगों में जो वाद-विवाद होते रहे है वे न केवल उन देशों में बद्ध-धर्म के जीवित स्वरूप में विद्यमान होने के प्रमाण हैं. बल्कि उसे उमी मौलिक, अक्षुण्ण पवित्रता के साथ रखने की व्यग्रता के भी अविवाद लक्षण है । अतः स्थविरवादी बौद्ध धर्म के क्षेत्र में विनय-पिटक की जो प्रतिष्ठा प्रारम्भिक युग मे अब तक रही है. वह एक जीवित ऐतिहासिक तथ्य है और ऊपर के तथ्यों को देखते हुए वह मार्थक भी है । . बौद्ध संघ में विनय-पिटक का सदा से कितना आदर रहा है और उमके उत्तरकालीन इतिहास के निर्माण में उसका कितना बडा हाथ रहा है, यह ऊपर के विवरण से स्पष्ट है । वास्तव में भिक्षु-संघ ने अत्यन्त प्राचीन काल मे उसे सत्तपिटक से भी अधिक ऊँचा स्थान दिया है, क्योंकि उसे ही उन्होंने बुद्ध-शासन की आय माना है। उनका विश्वास रहा है कि जब तक विनय-पिटक अपने मौलिक, विशद्ध रूप में रहेगा तभी तक बद्ध-शासन भी जीवित रहेगा और विनय-मम्बन्धी Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०८ ) नियमों के अभ्यास के लुप्त हो जाने पर बुद्ध-शासन भी लुप्त हो जायगा। विशेपतः सिंहल और स्याम के भिक्षु-संघ में अभी तक यह विश्वास दृढ़ है और वे विनय, सुत्त, अभिधम्म यह क्रम महत्त्व की दृष्टि से त्रिपिटक का करते हैं । विनय-सम्बन्धी मामलों में बरमी भिक्षु-संघ पर सिंहली प्रभाव ग्यारहवीं शताब्दी से ही रहा है । दोनों देशों में बुद्धदत्त, बुद्धघोष और धम्मपाल (चौथी-पाँचवी शताब्दी के प्रसिद्ध पालि अट्ठकथाकार) के काल से लेकर ठीक आधुनिक काल तक विनय-पिटक पर विपुल व्याख्यापरक साहित्य की रचना हुई है, जो इन देशों में उसकी जीवित परम्परा का सूचक है। न केवल स्थविरवाद बौद्ध धर्म की परम्परा में ही बल्कि अन्य बौद्ध सम्प्रदायों में भी विनय की महिमा सुरक्षित है, फिर चाहे उनके विनयपिटक का स्वरूप स्थविरवादी बौद्धों के विनय-पिटक से भले ही कुछ थोड़ा विभिन्न हो। चीन और जापान में 'रिश्शु' नामक बौद्ध सम्प्रदाय है, जिसका शाब्दिक अर्थ ही है 'विनय-सम्प्रदाय' । यह सम्प्रदाय 'धम्मगत्तिक' विनय को ही अपना मुख्य आधार मानता है । इस प्रकार विनय की प्रतिष्ठा सम्पूर्ण बौद्ध सम्प्रदायों में समान रूप से पाई जाती है।। ऐतिहासिक और साहित्यिक दष्टि से भी विनय-पिटक का बड़ा महत्त्व है । पिटक-साहित्य के कालानुक्रम के विवेचन में हम देख चुके हैं कि विनय-पिटक के अनेक अंश त्रिपिटक के प्राचीनतम अंशों में से हैं। न केवल बुद्ध की जीवनी, बल्कि उनके द्वारा संघ की स्थापना, उनके जीवन-काल में संघ का विकास, उसके नियम, उसका शासन, एवं बुद्ध-परिनिर्वाण के बाद १०० साल तक का उसका प्रामाणिकतम इतिहास, यह सब हमें विनय-पिटक से ही मिलता है। प्रथम दो बौद्ध संगीतियों के विषय में किस प्रकार विनय-पिटक का विवरण प्राचीनतम और प्रामाणिकतम है, यह हम दूसरे अध्याय में देख चुके है । इसके अलावा बुद्ध के शिष्यों का परिचय. छठी-पाँचवीं शताब्दी ईसवीपूर्वके भारत कासामाजिक विवरण, विशेषतः बुद्धकालीन संघ और तत्सम्बन्धी विवरण,इम सबके लिये विनय-पिटक के १. सिंहली विनय-पिटक सम्बन्धी ग्रन्थों के आधार पर ही बरमा में इस सम्बन्धी साहित्य की रचना हुई। देखिये मेबिल बोड : दि पालि लिटरेचर ऑव बरमा, पृष्ठ ५ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०९ ) समान अन्य कोई प्रामाणिक साधन हमारे पास नहीं है। साहित्यिक दृष्टि मे यद्यपि विनय-पिटक का महत्त्व उतना नहीं दिखाया जा सकता क्योंकि उसका अधिकांश भाग नियमों का प्रज्ञापक है जो अत्यन्त नीरस ही हो सकता है। फिर भी 'धम्मचक्कपवत्तन सुत्त' आदि गम्भीर बुद्ध-प्रवचन भी यहाँ रक्खे हुए हैं, जो उसके ऐतिहासिक अंश के समान ही उसे महत्ता प्रदान करते हैं। विनय-पिटक का विषय और उसका संकलन-काल ___ भिक्षु और भिक्षुणी संघ ही विनय-पिटक के एक मात्र विषय हैं, ऐसा कहा जा सकता है । वह बौद्ध संघ का संविधान और एक मात्र आधार है। बौद्ध संघ की व्यवस्था, भिक्षु और भिक्षुणियों के नित्य-नैमित्तिक कृत्य, उपसम्पदा-नियम, देसना-नियम, वर्षावास के नियम, भोजन, वस्त्र, पथ्य-औषधादि सम्बन्धी नियम, संघ के संचालन सम्बन्धी नियम, संघ-भेद होने पर संघ-सामग्री (संघ की एकता) सम्पादित करने के नियम, आदि नियम-समूह विनय-पिटक में विवृत किये गये हैं । इन सभी नियमों का प्रज्ञापन भगवान बुद्ध के द्वारा ही हुआ है, ऐमी बौद्ध संघ की सामान्यतः मान्यता है । विनय-पिटक का संकलन, जैसा हम ने प्रथम संगीति के विवरण में देखा है, धम्म या सत्त-पिटक के साथ-साथ प्रथम संगीति के अवसर पर ही हुआ। उसके प्रारम्भ में ही हम आर्य महाकाश्यप को कहते देखते हैं 'धम्मं च विनयं च सङ्गायेय्याम' अर्थात् "हम धम्म और विनय का संगायन करें" । अतः सत्त और विनय के संकलन-काल में कुछ ऐसा पूर्वापर स्थापित नहीं किया जा सकता, जैसा अक्सर पच्छिमी विद्वानों ने किया है । कुछ पच्छिमी विद्वानों (कर्न, पूसाँ आदि) ने विनय-पिटक को मत्त-पिटक से पूर्व का संकलन माना है, कुछ (फेंक आदि) ने उसके बाद का भी। किन्तु ये दोनों ही मन निराधार हैं । सुत्त और विनय में अनेक उपदेश समान हैं, विनय-सम्बन्धी अनेक उपदेश सुत्त-पिटक में भी मिलते हैं, और सत्त-पिटक के अनेक बद्ध-धर्म और बुद्ध-जीवन सम्बन्धी प्रकरण विनय-पिटक में मिलते हैं। दोनों की शैली प्राचीनता की सूचक है । अतः उन दोनों को समकालीन मानना ही अधिक युक्तिसंगत है । वैशाली की संगीति के अवसर पर विनय-सम्बन्धी कुछ विवादों का निर्णय हुआ था, अतः उसके आधार पर सम्भव है इस पिटक के रूप में कुछ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१० ) अन्तर कर दिया गया हो । चुकि इस संगीति का इस पिटक में विवरण भी है, अतः उसी समय इसके रूप का अन्तिम स्थिरीकरण हो गया था, यही इसके संकलन-काल के विषय में हमें जानना चाहिये। बौद्ध परम्परा विनय-सम्बन्धी सब नियमों का प्रज्ञापन बुद्ध-मुख से ही हुआ मानती है। आचार्य वद्धघोष (चौथी-पाँचवी शताब्दी ईसवी) ने समन्तपासादिका (विनय-पिटक की अट्ठकथा) के प्रारम्भ में भिक्षुओं की उस अप्रतिहत परम्परा का उल्लेख किया है जिसने वुद्ध-काल से लेकर उनके समय तक विनय-पिटक का उपदेश दिया। बुद्ध-काल में विनय-धरों में उपालि स्थविर प्रधान थे, यह हम अंगुत्तर-निकाय के एतदग्गवग्ग से जानते हैं। प्रथम संगीति के अवसर पर उन्होंने ही विनय का संगायन किया, यह विनय-पिटक की सूचना है। अनः विनय-धरों की परम्परा स्थविर उपालि से ही प्रारम्भ होती है । बुद्ध-शिष्य उपालि से लेकर अशोक के समकालिक मोग्गलिपुत्त तिस्स तक विनयधरों की इस परम्परा का उल्लेख आचार्य वुद्धघोष ने इस प्रकार किया है (१) बुद्ध (२) उपालि (३) दासक (४) सोणक (५) सिग्गव और (६) मोग्गलिपुन तिस्स । "श्री जम्बुद्वीप में तृतीय संगीति तक इस अटूट परम्परा से विनय आया।... .. .तृतीय संगीति मे आगे इसे इस (लंका) द्वीप में महेन्द्र आदि लाये। महेन्द्र से सीख कर कुछ काल तक अरिष्ट स्थविर आदि द्वारा चला। उनसे ही उनके शिष्यों की परम्परा वाली आचार्य परम्परा में आज तक विनय आया, जैसा कि पुराने आचार्यों ने कहा है, (७) महिन्द, इट्ठिय, उनिय, संवल और भद्दसाल ये महाप्राज्ञ भारत (जम्पुढीप) मे यहाँ आये। उन्होंने तम्बपण्णि (ताम्रपर्णी-लंका) द्वीप में विनय-पिटक पढ़ाया . . . . . .तब (८) आर्य तिष्यदत्त (९) काल सुमन (१०) दीर्घ स्थविर (११) दीर्घ सुमन (१२) काल मुमन (१३) नाग स्थविर (१४) बुद्धरक्षित (१५) तिष्य स्थविर (१६) देव स्थविर (१७) मुमन (१८) चूलनाग (११) धर्मपालित (२०) रोहण (२१) क्षेम (२२) उपतिप्य (२३) पुप्यदेव (२४) सुमन (२५) पुष्य (२६) महाशिव (महामीव) (२७) उपालि (२८) महानाग (२१) अभय (३०) तिप्य (३१) पुष्य (३२) चल अभय (३३) तिप्य म्थविर (३४) चूलदेव (३५) शिव स्थविर . . . . ...इन महाप्राज्ञ, विनयन मार्ग-कोविदों ने ताम्रपर्णी (लंका) द्वीप में विनय-पिटक को प्रकाशित Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया"१ जिस प्रकार किसी कालेज की दीवाल में लगे हुए प्रस्तरपट पर उसके प्रिंसिपलों के खुदे हुए नामों की सूची में कोई सन्देह नहीं करता, उसी प्रकार हमें विनय-धरों की इस सूची को भी प्रामाणिक मानना चाहिये । विनय-पिटक के भेद पालि संस्करण के अतिरिक्त विनय-पिटक के छह और संस्करण चीनी अनुवादों में मिलते है । इनके नाम है (१) जूजु-रित्सु, सर्वास्तिवादियों का विनय (२) शिबुन्-रित्सु, धम्मगुनिक या धर्मगप्तिक सम्प्रदाय का विनय (३) मथसोगि-रिन्म, महासंधिक सम्प्रदाय का विनय (४) कोन-पोनसेत्सु-इस्से-उबु, नवीन या उत्तरकालीन सर्वास्तिवादियों का विनय (५) गोबुन-रिम या महिसासक विनय (६) विनय । विनय-पिटक के इन छह चीनी संस्करणों में आपस में बहत कम भेद है । मौलिक रूप से वे सब समान है। जिन सम्प्रदायों से वे सम्बन्धित हैं, उनका उद्भावन अशोक के काल से पहले ही हो चुका था। वे सब स्थविरवाद बौद्ध धर्म की ही शाखा थे और विनय-सम्बन्धी कुछ छोटे-मोटे मत-भेदों के कारण ही उनसे अलग हो गये थे। 'कथावत्थु' में इन सब का वर्णन आया है। पाँचवें अध्याय में हम इन सब के सिद्धान्तों का विवरण देंगे। यहाँ अलग से परिचय देने की आवश्यकता प्रतीत नहीं होती। स्थविरवाद बौद्ध धर्म के अलावा अन्य १७ बौद्ध सम्प्रदायों के, जो तृतीय संगीति तक उत्पन्न हो चुके थे, साहित्य के विषय में हमें अभी कोई महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त नहीं हुई है। केवल सर्वास्तिवादियों का कुछ साहित्य मिला है. जिसका कुछ विवरण हम ने सुन्नत-पिटक के विवेचन के आरम्भ में दिया है और उनके अभिधर्म-साहित्य का स्थविरवादियों के साथ तुलनात्मक विवेचन हम पाँचवें अध्याय में करेंगे। यह प्रसन्नता की बात है कि विनय के क्षेत्र में न केवल सर्वास्तिवादियों का ही बल्कि उनसे अतिरिक्त अन्य पाँच प्राचीन वौद्ध सम्प्रदायो का भी साहित्य मिलता है जो सव उत्तरकालीन वौद्ध धर्म के विकास की दष्टि से हीनयानी ही थे। न केवल विनय-पिटक ही बल्कि उसकी पाँच व्याख्याएं भी चीनी अनुवादों में सुरक्षित हैं। उनके नाम है (१) १. बुद्धचर्या पृष्ठ ५७६ में अनुवादित ।मोग्गलिपुत्त तिस्स तक की परम्परा के लिए देखिये आगे नवें अध्याय में 'महावंस' सम्बन्धी विवरण भी। Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१२ ) fafa - मो- रोन् या विनय- माता - वण्णना ( २ ) भतो - रोग - रोन् या मातिका अथवा मात्रिका-वण्णना (३) जैन्-कैन्- रोन् (पासादिका - वण्णना) (४) सब्बतरोन् (सब्बत्थि - वण्णना) (५) म्यो-र्यो- रोन् या पाकटवण्णना | चीनी भाषा में 'रोन्' 'विभाषा' या 'वण्णना' (वर्णन, व्याख्या) को कहते हैं । 'जैन्-कैन्- रोन् ' बुद्धघोषकृत 'समन्तपासादिका' (विनय-पिटक की अट्ठकथा ) का चीनी अनुवाद है । पहले यह 'धम्मगुत्तिक' सम्प्रदाय के विनय 'शिवन्-रित्सु ' की व्याख्या समझी जाती थी । किन्तु जापानी विद्वान नगई ने इस भ्रम का निवारण कर दिया है ।" चीनी और जापानी बौद्ध धर्म की दृष्टि से 'धम्मगुत्तिक' ( धर्मगुप्तिक) सम्प्रदाय का विनय-पिटक शिबुनरित्सु ही अधिक महत्त्वपूर्ण है । वहाँ के रिश्शू सम्प्रदाय ( विनय - सम्प्रदाय ) का यही आधारभूत ग्रन्थ है । पालि विनय पिटक के साथ चीनी विनय-पिटक की तुलना के प्रसंग में इसी संस्करण को लिया जा सकता है और वाकी छोटे-मोटे विभेदों को, जो बहुत अल्प हैं, अलग से दिखाया जा सकता है । यहाँ हमें तुलना केवल 'शिक्षापदों' या विनय-सम्बन्धी नियमों के विषय में करनी है, जो ही विनयपिटक के आधारभूत विषय हैं, चाहे वह किसी सम्प्रदाय या संस्करण का हो । पालि विनय-पिटक के शिक्षापदों की संख्या २२७ है, जिनकी गणना इस प्रकार है- १. पाराजिका २. संघादिसेसा ३. अनियता धम्मा ४. निस्सग्गिया पाचित्तिया धम्मा ५. पाचित्तिया धम्मा ६. पटिदेसनिया धम्मा ७. सेखिया धम्मा ८. अधिकरणसमथा धम्मा ४ १३ २ ३० ९२ ४ ७५ ७ २२७ १. देखिये बुद्धिस्टिक स्टडीज (डा० लाहा द्वारा सम्पादित ) पृष्ठ ३६८ में नगई के 'बुद्धिस्ट विनय डिसिप्लिन' शीर्षक लेख का अंश । Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१३ ) चीनी विनय-पिटक के प्रायः सभी संस्करणों में शिक्षापदों की यह संख्या २५० है । 'शिबुन्-रित्सु' के अनुसार यह गणना इस प्रकार है१. पाराजिका २. संघावशेष (संघादिसेसा) ३. अनियत ४. निःसर्गिक पातयन्तिक (निस्सग्गिया पाचित्तिया) ५. पातयन्तिक (पाचित्तिय) ६. प्रतिदेशनीय (पटिदेसनिया) ७. शैध्य (सेखिया) ८. अधिकरण-शमथ २५० विनय-पिटक के चीनी-संस्करणों के अलावा एक तिब्बती संस्करण भी मिलता है । यह मूल सर्वास्तिवादियों के प्रातिमोक्ष का तिब्बती अनुवाद है । इसके अनुसार शिक्षापदों की संख्या इस प्रकार है-- १. पाराजिका २ संघावशेष ३. अनियत ४. निःसर्गिक पातयन्तिक ५. पातयन्तिक ६. प्रतिदेशनीय . शैक्ष्य ८. अधिकरण-शमथ १. बुद्धिस्टिक स्टडीज़ (डा० लाहा द्वारा सम्पादित), पृष्ठ ३६९ (नगई का विनय-पिटक सम्बन्धी लेख) २. इसके अलावा महापंडित राहुल सांकृत्यायन तिब्बत से विनय-सूत्र, विनय-सूत्रटीका, प्रातिमोक्ष-सूत्र, प्रातिमोक्षसूत्र-टीका, भिक्षु-प्रकीर्णक तथा उपसम्पदा Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपर्युक्त सचियों से स्पष्ट है कि पालि-भिनय-पिटक में शिक्षापदों की संख्या २२७ और चीनी और तिब्बती संस्करणों में वह क्रमश: २५० और २५८ है । जहाँ तक पालि और तिब्बती संस्करणों की तुलना का सवाल है, उनके प्रत्येक नियम की संख्या में समानता है। केवल शैक्ष्य-सम्बन्धी नियमों में असमानता है। पालि संस्करण में वे ७५ है जब कि तिब्बती संस्मरण में १०६ । इसी कारण तिब्बती संस्करण के नियमों की कुल संख्या भी ३१ बढ़ गई है। पालि और चीनी संस्करणों में केवल 'पाचित्तिया धम्मा' (पातयन्तिक) और 'मेखिया धम्मा' (शैक्ष्य) इन दो नियमों की गणना में अन्तर है। पालि संस्करण में इनकी संख्या क्रमशः ९२ और ७५ है जब कि चीनी 'शिवन्-रित्सु' में वह इसी क्रम से ९० और १०० है। 'पाचित्तिय' धर्मों सम्बन्धी मत-भेद कुछ महत्त्वपूर्ण भी हो सकता है, किन्तु सेखिय' धर्मो सम्बन्धी मत-भेद बिलकुल महत्त्वपूर्ण नहीं है । 'सेखिय धम्म' बाह्य शिष्टाचार सम्बन्धी छोटे-मोटे नियम हैं, जो बुद्धोक्त 'क्षुद्रानुभद्र' की कोटि में आसानी से आ जाते हैं। अतः उनके विषय में मतभेद होना भिक्ष-संघ के इतिहास में प्रथम संगीति के समय से ही देखा जाता है । स्वयं विभिन्न चीनी सम्प्रदायों के विनय-पिटकों में भी इसके विपय में समानता नहीं है। पालि विनय-पिटक के ७५ सेखिय' धर्मो के स्थान पर 'शिवन रिन्स' में तो उनकी संख्या १०० है ही, नवीन सर्वास्तिवादी विनय के अनुमार उनकी संख्या १०३ है। तिब्बती मल सर्वास्तिवादियों के अनुसार तो वह १०६ है ही, जैसा हम देख चुके हैं । इस प्रकार कुछ छोटे-मोटे विभेद हैं । 'महाव्युत्पत्ति' (महायानी ग्रन्थ ) ने इन शैक्ष्य धर्मो को 'असंख्य' (संबहुलाः शैक्ष्यधर्माः) बताकर इस सम्बन्धी भेद का बड़ा ही अच्छा समाधान कर दिया है। पालि और चीनी विनय-पिटकों के शिक्षापदों की तुलना के आधार पर यहाँ एक सझाव रख देना आवश्यक जान पड़ता है। पालि विनय-पिटक में, जैसा हमने अभी देखा है, शिक्षापदों की संख्या २२७ है। किन्तु अंगुनर निकाय में कम से कम दो जगह उनकी संख्या १५० ज्ञप्ति आदि अनेक विनय-सम्बन्धी ग्रन्थों के फोटो लाये हैं, जिनके सम्पादन के बाद इस विषय सम्बन्धी अध्ययन पर पर्याप्त प्रकाश पड़ेगा। अभी ये प्रतिलिपियाँ बिहार और उड़ीसा के ओरियन्टल रिसर्च इन्स्ट्योट्यूट, पटना में सुरक्षित है। Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१५ ) कही गई है । ( 'मिलिन्दपञ्ह' में भी १५० शिक्षापदों का वर्णन है २ । यदि पालि सूची की कुल संख्या (२२७) में से हम उसके ७५ 'सेखिय' धर्मो को, जो अल्प महत्त्व के हैं, निकालते हैं तो वाकी संख्या १५२ बच जाती है । किन्तु 'शिनुन्रित्स्' की कुल संख्या २५० में मे उसके १०० शैक्ष्य' धर्मो को निकाल देने पर टीक मंख्या १५० बच जाती है । क्या पालि विनय-पिटक की अपेक्षा 'शत्रुन्-रित्स' उस परम्परा का अधिक वाहक है जिसके आधार पर अंगत्तर-निकाय या मिलिन्दपञ्ह में शिक्षापदों की संख्या १५० बताई गई है ? विनय पिटक के नियम पालि विनय-पिटक के अनुमार अब हम उसके ऊपर निर्दिष्ट २२७ शिक्षापदों या विनय-सम्बन्धी नियमों का वर्णन करेंगे। चार पाराजिका धम्मा _ 'पाराजिक धम्म' का अर्थ है वे वस्तुएँ जो भिक्षु को पराजय दिलाती हैं, अर्थात् जिस उद्देश्य के लिये उसने घर से बेघर होकर प्रन ज्या ली है उसमें उसे सफल नहीं होने देतीं । इस प्रकार की वस्तुएँ चार हैं, (१) स्त्री-मैथुन (२) चोरी या न दी हुई वस्तु को लेना (३) मृत्यु या आत्म-हत्या की प्रशंमा करना, ताकि कोई दूसरा आदमी आत्म-हत्या करने के लिये उद्यत हो जाय (6) लाभ या सत्कार की इच्छा से अपने अन्दर ज्ञान और दर्शन की प्राप्ति दिखाना जब कि वास्तव में ऐसी प्राप्ति नहीं हुई है । ये चार वस्तुएं भिक्ष को उसके श्रामण्य के उद्देश्य की प्राप्ति नहीं होने देती। वे उसे पराजित कर डालती है । इमीलिये वे 'पाराजिक धम्म' कहलाती हैं। इनमें से किसी एक का भी अपराधी होने पर भिक्षु बुद्ध का शिष्य नहीं रहता। वह अपने उद्देश्य से पतित हो जाता है। वह १. देखिये विटरनिरज : हिस्ट्री ऑव इंडियन लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ २३, पद-संकेत ५; अंगत्तर-निकाय में वास्तव में शब्द है 'साधिकं दियड्ढसिक्खापदसतं' (१५० या उससे कुछ अधिक) जिसका अर्थ आचार्य बुद्धघोषने ठीक १५० किया है। 'मिलिन्दपन्ह में भी बिलकुल यही शब्द है। २. देखिये, पृष्ठ २६७ (बम्बई विश्वविद्यालय का संस्करण) Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ से बहिष्कृत कर दिया जाता है । उसके लिये किसी प्रायश्चित्त का विधान नहीं है । जैसे पीली पड़ी हुई पत्ती पेड़ से झड़कर गिर पड़ती है, उसी प्रकार यह भिक्षु श्रामण्य के सर्वथा अयोग्य समझा जाता है और नियमानुसार संघ से उसका निष्कासन कर दिया जाता है । तेरह संघादिसेसा धम्मा ___चार पाराजिक धम्मों का दण्ड तो जैसा हम ऊपर देख चुके हैं संघ से निष्कासन है। ‘संघादिसेस' धम्म इन पाराजिक धम्मों से कुछ कम गम्भीर अपराध माने जाते है। इनका नाम 'संघादिसेस' इसलिये है कि इनके दंड-स्वरूप अपराधी भिक्षु को छह दिन के लिये अस्थायी रूप से संघ को छोड़ देना पड़ता है और प्रायश्चित्त-स्वरूप वह अकेला रह कर तपस्या (मानत्त) करता है। बाद में शुद्ध होकर वह संघ में प्रवेश करता है । 'संघादिसेस' कोटि में आने वाले तेरह अपराध हैं, जो इस प्रकार हैं (१) जान बूझकर वीर्य-नाग करना । अज्ञात रूप से स्वप्न-दोष में वीर्य स्खलन हो जाना इसके अन्तर्गत अपराध नहीं माना जाता (२) काम-वासना से स्त्री-स्पर्श (३) काम-वासना से स्त्री से वार्तालाप (४) अपनी प्रशंसा द्वारा किसी स्त्री को अपनी ओर बुरे उद्देश्य से आकर्पित करना (५) विवाह सम्बन्ध निश्चित करवाना या प्रेमियों का संगम करवाना (६) विना संघ की अनुमति लिये अपने लिये विहार वनवाने लग जाना (७) विना संघ की अनुमति के निश्चित मात्रा में बड़े नाप के विहार बनवाने लग जाना जिनके चारों ओर खुली जगह भी न हो (८) क्रोध के कारण निराधार ही किसी भिक्षु को पाराजिक धम्म' का अपराधी टहराना (९) पाराजिक अपराध से मिलते-जलते किसी अन्य अपराध को पाराजिक अपराध बतलाकर किसी साथी भिक्षु को उसका अपराधी ठहराना (१०) बारबार चेतावनी दिये जाने पर भी संघ में फूट डालने का प्रयत्न करना (११) फूट डालने वालों की सहायता करना। (१२) विना किसी गृहस्थ की अनुमति के उसके घर के भीतर घुम जाना (१३) बारबार चेतावनी दिये जाने पर भी संघ या साथी भिक्षुओं के आदेश को न सुनन।। दो अनियता धम्मा 'अनियत' का अर्थ है अनिश्चित । जिन अपराधों का स्वरूप अनिश्चित हो और साक्ष्य प्राप्त होने पर ही जिन्हें एक विशेप श्रेणी के अपराधों में रक्खा जा Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१७ ) सके, तत्सम्बन्धी नियमों को 'अनियता धम्मा' कहते हैं। इनका सम्बन्ध दो प्रकार के अपराधों से है (१) यदि कोई भिक्षु किसी एकान्त स्थान पर बैठा हआ स्त्री से बातें कर रहा है और कोई श्रद्धावती उपासिका आकर उसे 'पाराजिक' 'संघादिसेस' या 'पाचित्तिय' (प्रायश्चित्तिक--जिसके लिये प्रायश्चित्त करना पड़े) अपराध का दोषी ठहराती है और वह उसे स्वीकार कर लेता है तो वह उसी अपराध के अनुसार दंड का भागी है (२) यदि वह एकान्त स्थान में न वैठ कर किसी खुली हुई जगह में बैठ कर ही स्त्री से सम्भाषण कर रहा है। किन्तु उसके शब्दों में कुछ अनौचित्य है और कोई श्रद्धावती उपासिका उसी प्रकार आकर उसे 'पाराजिक' 'संघादिमेस' या 'पाचित्तिय' अपराध का दोषी ठहराती है और वह उसे स्वीकार कर लेता है, तो वह उसी अपराध के अनुसार दंड का भागी है। तीस निस्सग्गिया पाचित्तिया धम्मा 'निस्सग्गिया पाचित्तिया धम्मा' वे अपराध हैं जिनके लिये स्वीकरण के माथ साथ प्रायश्चित करना पड़ता है और जिस वस्तु के सम्बन्ध में अपराध किया जाता वह वस्तु भी भिक्षु से छीन ली जाती है। इस श्रेणी के अपराधों में प्रायः मभी वस्त्र-संबंधी और केवल दो भिक्षा-पात्र सम्बन्धी है। वस्त्र सम्बन्धी तृष्णा भिक्षु को किन किन रूपों में आ सकती है, इसी को देखकर इन नियमों का विधान किया गया है। उदाहरणतः यदि कोई भिक्षु अपने पास अतिरिक्त वस्त्र रखता है, या किसी गृहस्थ से बेठीक समय पर वस्त्र माँगता है, या अपनी इच्छानुसार किसी अच्छे वस्त्र को प्राप्त करने के लिये अपने किसी उपासक गृहस्थ को इशारा देता है, या रेशम या मुलायम ऊन के गद्दों आदि को काम में लेता है, तो वह इस अपराधी के अन्तर्गत अपराधी होता है। इसी प्रकार अतिरिक्त भिक्षा-पात्र रखने पर या बिना आवश्यक कारण उसे किसी दूसरे से बदल लेने पर वह इस अपराध के अन्तर्गत अपराधी होता है। इन वस्त्र और भिक्षा-पात्र सम्बन्धी नियमों का उद्देश्य, जिनके सब के ब्योरेवार विवरण देने की हमें आवश्यकता नहीं, केवल यही है कि भिक्ष इन वस्तुओं के प्रयोग में संयत और सावधान रहें. वे अल्पेच्छ हों और यथा-प्राप्त सामग्री से ही अपना गुजारा कर लें। व्यक्ति के ऊपर संघ की प्रतिष्टा भी इन नियमों के द्वारा की गई है। जो वस्तु संघ को दान दी गई है उसे कोई एक भिक्षु व्यक्तिगत रूप से अपनी बनाकर नहीं रख Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ३१८ ) सकता । ऐसा करने पर वह अपगधी ठहरता है, उसे प्रायश्चित्त करना पड़ता है और वह वस्तु संघ को लौटा देनी पड़ती है। ९२ पाचित्तिया धम्मा ९२ अपराधों की एक सूची एसी है जिन्हें करने पर प्रायश्विन करने के वाद अपराधमुक्त कर दिया जाता है। चीनी विनय-पिटक शिवन-ग्त्स् ि (धम्मग तिक सम्प्रदाय का विनय-पिटक) में इस श्रेणी के केवल १० अपगधों का उल्लेख है। इन सब अपराधों का विवरण यहाँ अनावश्यक होगा। मंघ-शामन की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होते हुए भी पालि साहित्य के इतिहास में तो इनका मंक्षिप्त निर्देग ही हो सकता है। अधिकतर नियम ऐसे हैं जो उस समय के देवकाल आदि से सम्बन्ध रखते है. किन्तु ऐसे भी कम नहीं हैं जिनका उपयोग मब काल, और मव देश के लिये है । भिक्ष के लिये एक बार भोजन कन्ना, भिक्षुणी को उपदेश देते समय सावधान और जागरूक रहना, भिक्षु-पद के गौरव की रक्षा करना, आदि बातें ऐसी हैं जिनका उल्लंघन करने पर भिक्षुओं को प्रायश्चित्त कर आगे के लिये संयम-रक्षा का संकल्प लेना पड़ता था । झट बोलना. गाली देना. चगली करना, नशीली चीजों का प्रयोग करना, आदि अपराधों के करने पर भी प्रायश्चित करने के बाद आगे के लिये वैमा न करने के लिये कृत-संकल्प होना पड़ता था। चार पटिदेसनिया धम्मा 'पटिदेसनिया धम्मा' का अर्थ है वे वस्तुएं जिनके लिये प्रतिदेशना (क्षमायाचना) आवश्यक हो । किमी अज्ञात भिक्षुणी द्वारा भोजन-प्राप्ति. भोजन के ममय किसी भिक्षुणी को भिक्षुओं के प्रति आदेश देती हुई देखकर भी उसे न रोकना. विना पूर्व निमत्रण के अपने स्थान पर किमी गृहस्थ के हाथ से भोजन ग्रहण करना तथा उपद्रव-ग्रस्त वन में किसी गृहस्थ को वही बुलवा कर उसके हाथ से भोजन की प्राप्ति, इन चार अपराधों के लिये क्षमा याचना करनी पड़ती है : ७५ सेखिया धम्मा 'सखिया धम्मा' या शैक्ष्य धर्म वे है जिनका सम्बन्ध बाहरी शिष्टाचार वस्त्र पहनने के ढंग और भोजन आदि करने के नियमों से है । भिक्षु को किस प्रकार ठीक वस्त्र पहनकर भिक्षा-चर्या के लिये जाना चाहिये, किस प्रकार शरीर औ Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्त्रों के उचित समेटन और फैलाव के साथ उसे बरतना चाहिये, किस प्रकार उसे शान्त रहना चाहिये, जोर से हँसना आदि नहीं चाहिये, इन्हीं सब बातों का विस्तृत विवरण किया गया है और इनके तोड़ने पर फिर शिक्षा का विधान किया गया है । इन नियमों में से अधिकतर तत्कालीन शिष्टाचार से सम्बन्ध रखते हैं जो बौद्ध देशों में आज तक भी कुछ हद तक जीवित अवस्था में है। सात अधिकरणसमथा धम्मा ___ संघ में विवाद होने पर उसकी शान्ति के उपाय के रूप में सात नियमों का विधान किया गया है । वे सात नियम हैं (१) संमुख-विनय (२) स्मति-विनय (३) अ-मूढ विनय (४) प्रतिज्ञात करण (५) यद्ध्यमिक () तत्पापीयसिक (७) तिणवत्थारक। चंकि संघ-शासन तथा तत्कालीन गणतन्त्रीय शासन-व्यवस्था की दृष्टि में ये अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं, अतः इनका संक्षिप्त विवरण अपेक्षित होगा । भगवान् के मुख से ही मुनिये--"आनन्द ! संमुख विनय कैसे होता है ? आनन्द ! भिक्ष विवाद करते है। यह धर्म है या अधर्म : विनय या अविनय' ? आनन्द ! उन सभी भिक्षुओं को एक जगह एकत्रित होना चाहिये । एकत्रित होकर धर्म रूपी रस्मी का ज्ञान से परीक्षण करना चाहिये । जैसे वह बान्त हो उसी प्रकार उस झगड़े (अधिकरण) को शान्त करना चाहिये। इस प्रकार आनन्द ! संमुख विनय होता है। इस प्रकार संमुख विनय से भी किन्ही किन्ही झगड़ों (अधिकरणों) का शमन होता है । ___“आनन्द ! यद्भ्यसिक कैसे होता है ? आनन्द ! यदि भिक्षु अपने झगडे को उसी आवास (निवास-स्थान) में शान्त न कर सकें तो आनन्द! उन सभी भिक्षुओं को, जिस आवास में अधिक भिक्षु हैं, वहाँ जाना चाहिये। वहाँ सवको एक जगह एकत्रित होना चाहिये, एकत्रित होकर धर्म रूपी रम्मी का ममन मार्जन (परीक्षण) करना चाहिये । इस प्रकार भी कुछ झगड़ों का शमन हो जाता है। "आनन्द ! स्मृति-विनय कैसे होता है ? यहाँ आनन्द ! भिक्षु भिक्ष पर पागजिक या-पाराजिक समान दोष का आरोप लगाता है, स्मरण करो आवुम ! तुम पाराजिक या पाराजिक-समान बड़े दोष के अपराधी हुए, कितु वह दूसरा भिक्ष उत्तर में कहता है, 'आवुस ! मुझे याद नहीं कि मैं ऐसी भारी आपत्ति से आपन्न हूँ, दोष से दोषी हूँ। उस भिक्षु को आनन्द ! स्मृति-विनय देना चाहिये । इस स्मृति विनय से भी किन्ही किन्हीं झगड़ों का निबटारा होता है । Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२० ) "आनन्द ! अमूढ़ विनय कैसे होता है ?........."आबुस ! मैं पागल हो गया था, मुझे मति-भ्रम हो गया था, उन्मत्त हो मैंने बहुत सा श्रमण-विरुद्ध आचरण किया, भाषण किया, मुझे वह स्मरण नहीं होता। मुढ़ हो, मैंने वह किया। उस भिक्षुको आनन्द ! अ-मढ़-विनय देना चाहिये । __ “आनन्द ! प्रतिज्ञात करण कैसे होता है ? आनन्द ! .....भिक्षु दूसरों के द्वारा आरोप करने या न करने पर भी अपने दोष को स्मरण करता है, खोलता है, स्पष्ट करता है। उस भिक्षु को अपने से वृद्धतर भिक्षु के पास जाकर चीवर को एक (बायें) कन्धे पर करके, पाद-वन्दना कर हाथ जोड़कर ऐसा कहना चाहिये, 'भन्ते ! मैं इस नाम की आपत्ति (दोष) से आपन्न हूँ, उसकी मैं प्रतिदेशना (निवेदन) करता हूँ। तब वह दूसरा भिक्षु ऐसा कहे “देखते हो उस दोष को ?” “देखता हूँ" "आगे से इन्द्रिय-रक्षा करना", "रक्षा करूँगा"। आनन्द ! इस प्रकार प्रतिज्ञात-करण होता है। ___“आनन्द ! तत्पापीयसिका कैसे होती है ? यहाँ आनन्द ! किसी भिक्षु पर कोई दूसरा भिक्षु पाराजिक या पाराजिक-समान भारी अपराध का दोष लगाता है । वह उसे सुनकर कहता है, 'आवस! मुझे स्मरण नहीं कि मैं ऐसी भारी आपत्ति से आपन्न हुआ हूँ' फिर दोष लगाने वाला भिक्षु कहता है 'आयुप्मन् ! अच्छी तरह बूझो । क्या तुम्हें स्मरण है कि तुम ऐसी भारी आपत्ति मे आपन्न हए थे !' 'आवस ! मैं स्मरण नहीं करता कि मै ऐसी भारी आपत्ति मे आपन्न हुआ। स्मरण करता हूँ आवुस ! मै इस प्रकार की छोटी आपत्ति से आपन्न हआ' । 'आयुष्मन् ! अच्छी तरह झो।' 'आवस ! मैं इस प्रकार की छोटी आपत्ति से आपन्न हुआ, यह मैं बिना पूछे ही स्वीकार करता हूँ, तो क्या मैं ऐसी भारी आपत्ति से आपन्न हो पूछने पर भी स्वीकार न करूँगा' । अधिक जोर देने पर वह स्वीकार करले 'आवुस ! स्मरण करता हूँ मैं ऐसी भारी आपत्ति (दोष मे आपन्न हुआ। सहसा प्रमाद से मैने यह कह दिया कि मैं स्मरण नहीं करता। इस प्रकार आनन्द! तत्पापीयसिका (उससे भी और कड़ी आपत्ति) होती है। आनन्द! तिण्ण वित्थारक कैसे होता है ? आनन्द ! आपस में कलह करते हुए भिक्ष बहुत से श्रमण-विरुद्ध आचरण करते और भाषण करते हैं। उन सभी भिक्षओं को एकत्रित होना चाहिए। एकत्रित हो कर एक पक्ष वालों में से किमी चतुर भिक्षु को आसन से उठ कर चीवर को एक कन्धे पर कर हाथ जोड़ संघ को विज्ञापित करना चाहिए “भन्ते! मंघ सुने। कलह करते हुए हमने बहुत से Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२१ ) श्रमण-विरुद्ध आचरण किए है। यदि मंघ उचित समझे तो जो इन आयुप्मानों का दोष है और जो मेरा दोप है, इन आयुप्मानों के लिए भी और अपने लिए भी मैं तिणवित्थारक (घाँस से ढाँकना जैमा) बयान कीं, लेकिन बड़े दोष गहस्थसम्बन्धी को छोड़ कर । तव दूसरे पक्ष वालों में से चतुर भिक्षु को आमन में उठ कर ऐमा ही करना चाहिए। इस प्रकार आनन्द | तिणवित्थारक (तण से डॉकने जैमा) होता है"।१ भिक्षुओं के समान भिक्षणिओं के लिए भी अनेक आचरण सम्बन्धी नियमों का विधान था। आठ गुरु-धर्म तो भगवान ने प्रथम बार ही भिक्षणी-संघ के लिए स्थापित कर दिये गए थे, जो इस प्रकार है--- (१) मो वर्ष की उपसम्पदा पाई हुई भिक्षुणी को भी उसी दिन के सम्पन्न भिक्षु के लिए अभिवादन, प्रत्युत्थान, अंजलि जोड़ना, सामीत्री कर्म करना चाहिए। (२) जहाँ भिक्षु न हों, ऐसे स्थान में वर्षावास नहीं करना चाहिए। (३) प्रति आधे मास भिक्षणी को भिक्षु-संघ से पर्येषण करना चाहिए। (४) वर्षा-वास कर चुकने पर भिक्षुणी को दोनों संघों में देखें, मने, जाने तीनों स्थानों में प्रवारणा करनी चाहिए। (५) जिस भिक्षुणी ने गुरु-धर्मों को स्वीकार कर लिया है उसे दोनों संघों को मानना चाहिए। (६) किसी प्रकार की भिक्षुणी भिक्षु को गाली आदि न दे। (७) भिक्षुणिओं का भिक्षुओं को कुछ भी कहने का गम्ता बन्द है । भिक्षणी को भिक्षु से वात नहीं करनी चाहिए। (८) भिक्षुओं का भिक्षुणिओं को कहने का रास्ता खुला है। अर्थात भिक्षुओं को उन्हें उपदेश करने का अधिकार है। उपर्युक्त प्रधान नियमों के अलावा भिक्षुणियों के दैनिक जीवन के लिए अनेक माधारण नियम भी थे। उनमें कुछ भिक्षओं के समान भी थे, जैसे झट, गली आदि से विरति । कुछ विशिष्ट रूप से उनके लिए ही थे, जैसे एकान्त या अंधेर स्थान में किसी से सम्भाषण न करना, रात्रि में अकेली कहीं न जाना, सड़क पर भी किसी से अलग बात नहीं करना, किसी भी गृहस्थ या गृहस्थ-पुत्र स न - - १. सामगाम-सुत्त (मज्झिम. ३।११४; महापंडित राहुल सांकृत्यायन का अनुवाद) २१ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२२ ) मिलना-जुलना, जीविका के लिए कोई शिल्प न सीखना न सिखाना, अंग-लेप आदि न लगाना, आदि । भिनुणियों पर भी पाराजिका आदि दोष उसी प्रकार लागू थे जैसे भिक्षुओं पर। हाँ, प्राज्या प्राप्त करने से पहले के दोषों के लिए वे दंड की भागिनी नहीं होती थीं ! एक वार एक व्यभिचारिणी स्त्री संघ में प्रवेश पा गयी थी। संघ-प्रवेश के बाद वह उसके लिए दंडित नहीं की गई। पर नि-भिक्षुणियों सम्बन्धी नियमों और उनके उल्लंघन करने पर प्राप्त दण्ड-विधान का कुछ दिग्दर्जन किया गया है। वास्तव में विनय-पिटक नियमों और उनके उल्लंघन में उत्पन्न दोपों को इतनी लम्बी सूची है कि उसका संक्षेप नहीं दिया जा सकता। किन्तु विनय-पिटक में नियमों के अलावा और भी बहुत कुछ है। उसकी विषय-वस्तु के क्रम में ये नियम और अन्य बातें कहाँ कहाँ आती है, यह तत्सम्बन्धी विश्लेषण से स्पष्ट होगा। जैमा पहले कहा जा चुका है, विनय-पिटक निम्नलिखित भागों में विभक्त है-- १. मुत्त-विभंग (अ) पाराजिक (आ) पाचित्तिय २. बन्धक (अ) महावग्ग (आ) चुल्लबग्ग : . परिवार मुत्त-विभंग सत्त-विभंग के दो भागों 'पाराजिक' और 'पाचित्तिय' में क्रमशः उन अपगधों का उल्लेख है, जिनका दंड क्रमानुसार संघ से निष्कासन या किसी प्रकार का प्रायश्चिन है। ये अपराध संख्या में २२७ है और जैमा हम अभी दिखा चके है, इन मम्बन्धी नियम आठ वर्गीकरणों में विभक्त है, यथा (१) चार पाराजिक, (२) १३ संघादिमेम, (३) दो अनियता धम्म, (८) तीम निस्सग्गिया पाचित्तिया धम्म, (५) ९२ पाचिनिय धम्म, (६) चार पटिदमनिय धम्म, (७) ७५ मेखिय धम्म, तथा (८) सात अधिकरणसमथ धम्म । इनका विश्लेपण हम पहले कर चके हैं। सत्त-विभंग में इन्हीं नियमो का विश्लेपण है। माथ में इन नियमो का Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२३ ) विधान किस प्रकार किया गया इसका पूरा इतिहास भी दिया गया है। अपराधों के विचार से वर्गीकरण करने पर 'सुत्त - विभंग' के दो विभाग हैं ही (१) पाराजिक और ( २ ) पाचित्तिय, किन्तु भिक्षु और भिक्षुणी संघों को उद्देश्य कर उनका वर्गीकरण करने से उसके दो भाग होते हैं (१) महाविभंग या भिक्षुविभंग और (२) भिक्षुणी - विभंग ( भिक्खुनी विभंग ) । भिक्खु - विभंग में भिक्षुओं सम्बन्धी नियमों का विवरण है और भिक्खुनी - विभंग में भिक्षुणी-सम्बन्धी नियमों का । इन नियमों का इतिहास छोड़ कर केवल नियमों मात्र का संग्रह ही 'पातिमोक्ख' के नाम से प्रसिद्ध है । भिक्षु और भिक्षुणी संघ के अनुसार पानिमोक्ख के भी दो भेद है, यथा ( १ ) भिक्खु पातिमोक्ख और (२) भिक्खुनी पातिमोक्ख, जो क्रमयः महाविभंग ( भिक्खु विभंग) और भिक्खुनी - विभंग के हो संक्षिप्त रूप है । यदि हम चाहें तो सुत्त-विभंग को 'पातिमोक्ख' का विस्तृत रूप या व्याख्या कह सकते हैं, या 'पातिमोक्ख' को 'सुत्त-विभंग' का उपयोग के योग्य संक्षिप्तीकरण । भिक्षु संघ में उपोसथ (उपवसथ - उपवास व्रत ) नाम का एक संस्कार होता था । प्रत्येक मास की अमावस्या और पूर्णिमा को जितने भिक्षु एक गाँव या खेत के पास विहरते थे, सव एक जगह एकत्रित हो जाते थे और उन नव की उपस्थिति में 'पातिमोक्ख' ( प्रातिमोक्ष) का पाठ होता था । 'पातिमोक्छ' में, जैसा हम अभी कह चुके हैं, पाराजिक, पाचित्तिय आदि के वर्गीकरण में विभक्त २२७ अपराधों एवं तत्सम्बन्धी नियमों का विवरण है । 'पातिमोक्ख' का पाठ करते समय जैसे जैसे अपराधों के प्रत्येक वर्गीकरण का पाठ किया जाता था, उस सभा में सम्मिलित प्रत्येक भिक्षु से यह आशा की जाती थी कि वह उठ कर यदि उसने वह अपराध किया है तो उसका स्वीकरण कर ले, ताकि भविष्य के लिए संयम हो सके । उपवासादि रखने और पाप-प्रायश्चित्त करने की यह प्रथा प्राग्बुद्धकालीन भारत में अन्य सम्प्रदायों में भी प्रचलित थी । किन्तु बुद्धने उसे एक विशेष नैतिक अर्थ से अनुप्राणित कर दिया था । पाप को उघाड़ देने में वह छूट जाता है । चित्त-शुद्धि के लिए अपने पापों को खोल देना चाहिए। गुप्त रखने से वे और भी लिपटते है। पाप-स्वीकरण, क्षमा-याचना और आगे के लिए कृतसंकल्पता, यही प्रातिमोक्ष-विधान के प्रधान लक्ष्य थे। चूंकि ऐना करने के बाद प्रत्येक अपराधी भिक्षु एक प्रकार अपने-अपने अपराध के बोझ की उठा फेंकता था, उसमे विमुक्ति पा जाता था, इसलिए 'पातिमोक्ख' का अर्थ प्रत्येक का पाप-भार को फेंक देना, पाप से मुक्त हो जाना, पाप ने Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२४ ) मोक्ष पा जाना, हो सकता है । चूंकि प्रत्येक भिक्षु अलग अलग अपने मुख से अपने पाप का स्त्रीकरण कर पाप-विमुक्त होता था, अतः 'प्रातिमोक्ष' के 'प्राति' शब्द में यह 'प्रति' का भाव लेकर हम कह सकते हैं कि 'प्रातिमोक्ष' का अर्थ है प्रत्येक की अलग अलग मुक्ति । चंकि पालि ‘पातिमोक्ख' का संस्कृत प्रतिरूप 'प्रातिमोक्ष' ही सर्वास्तिवादी आदि प्राचीन बौद्ध सम्प्रदायों ने किया है, अतः पालि 'पातिमोक्ख' का भी अर्थ प्रत्येक का अलग अलग पाप-मुक्त हो जाना अशुद्ध नहीं हो सकता। आधुनिक विद्वान् अधिकतर इसी अर्थ को लेते हैं। किन्तु आचार्य बुद्धघोष ने 'प्रति मुख' अर्थात् प्रत्येक भिक्षु के द्वारा अपने अपने मुख से पाप-स्वीकरण, इस अर्थ पर जोर दिया है। यह ‘पातिमोक्ख' में होता ही है। बुद्धघोष की 'पातिमोक्ख' की निरुक्ति और सर्वास्तिवादी आदि सम्प्रदायों में 'प्रातिमोक्ष' के रूप में उसका अर्थ ग्रहण, इन दोनों में कोई असंगति नहीं है। बल्कि वे दोनों ही उसके क्रिया और फल के क्रमशः सूचक हैं, अतः वे एक दूसरे के पूरक भी हैं। भगवान ने प्रातिमोक्ष-सम्बन्धी उपदेश सत्तों में भी अनेक बार दिया है" भिक्षु शोलवान् होता है, प्रातिमोक्ष के संवर (संयम) मे संदृत होता है, आचार-गोचर से सम्पन्न होता है, शिक्षापदों को ग्रहण कर अभ्यास करता है" १ आदि, । खन्धक विनय-पिटक का दुसरा भाग खन्धक भी दो भागों में विभक्त है, महावग्ग और चल्लवग्ग। सत्त-विभंग जब कि अधिकांशतः निषेधात्मक है, महावग्ग उसी का विधानात्मक स्वरूप है। संघ के अन्दर जिस प्रकार का जीवन बिताना चाहिए उसका यहाँ निर्देश किया गया है। महावग्ग में प्रथम दस खधक हैं। सम्बोधिप्राप्ति से लेकर प्रथम संघ की स्थापना तक कायहाँ पूराइतिहास भी दिया गया है। यह भाग 'महावग्ग' का बड़ा महत्वपूर्ण है। पहले खन्धक (विभाग, अध्याय) में भगवान बुद्ध को बुद्धत्व-प्राप्ति एवं वाराणसी में धर्म चक्र प्रवर्तन का वर्णन है। १. गोपक-मोग्गल्लान सुत्त (मज्झिम. ३३११८); मिलाइये "भिक्षओ! शील-सम्पन्न होकर विहरो, प्रातिमोक्ष-संवर से संवृत (रक्षित) होकर विहरो, शिक्षापदों को ग्रहण कर उनका अभ्यास करो।" आकखेय्य-सन (मज्झिम. ११११६) Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२५ ) इसके बीच उरुवेला से लेकर वाराणसी तक की उनकी यात्रा का विस्तृत विवरण है। इसी प्रसंग में मार्ग के बीच में ही तपस्सु और भल्लिक नामक वणिकों को भगवान् उपासक बनाते हैं और वे वुद्ध और धम्म की शरण में जाते हैं। उपक नामक आजीवक भी भगवान् को मार्ग में मिलता है, उसके साथ हुए उनके संलाप का विवरण है। वाराणसी में धर्म-चक्र प्रवर्तन करने के बाद भगवान् आज्ञा कौण्डिन्य, भद्दिय, वप्प, अस्सजि और महानाम इन पंचवर्गीय भिओं को जो उनके साथ पहले उरुवेला में रहे थे, बुद्ध-मत में प्रव्रजित करते हैं। इसके बाद यज्ञ के संन्यास का वर्णन है। उसके बाद काश्यप-बन्धओं (जटिल काश्यप, उरवेल काश्यप, नदी काश्यप) को प्रव्रज्या का वर्णन है । महाराज बिंबिसार के उपासकत्व का भी वर्णन है। “भन्ते ! मेरी पाँच अभिलाषाएँ थीं--में राज्य-अभिपिक्त होता-मेरे राज्य में सम्यक् सम्बुद्ध आते--मैं उनकी सेवा करता--वे भगवान् मुझे धर्म-उपदेश करते--उन भगवान् को मैं जानता। भन्ते ! ये मेरी पाँचों इच्छाएँ आज पूरी हो गई । इसलिए भन्ते ! मैं भगवान् की शरण लेता हूँ, धर्म की और भिक्ष-संघ की भी।" इसी समय उसने भिक्षु संघ को वेण-वन दान भीकिया। सारिपुत्र और मौद्गल्यायन के संन्यास का वर्णन, महाकाश्यप के संन्यास का वर्णन, नन्द और राहुल का संन्यास, अनिरुद्ध, आनन्द, उपालि आदि के संन्यास के वर्णन, सभी क्रमानुसार दिए गए हैं जो भिक्षु-संघ के बुद्धकालीन विकास को जानने के लिए तथा इन प्रथम शिष्यों की जीवन-साधना से परिचित होने के लिए बड़े आवश्यक हैं। बद्ध-स्वभाव पर प्रकाश डालने वाले भी अनेक प्रकरण बीचबीच में मिलते ही चलते है। उदाहरणतः इसी वर्ग में हम भगवान बुद्ध को एक रोगी भिक्ष की सेवा-शुश्रुषा करते देखते हैं। साथ में आनन्द भी भगवान को सहायता करते हैं। यह प्रसंग वास्तविक श्रमण-धर्म को जानने के लिए अति आवश्यक है। वास्तव में अनिरुद्ध, उपालि और आनन्द के संन्यास के वर्णन चुल्लवग्ग में हैं, जो महावग्ग का ही आगे का भाग है। इसी वर्ग में आगे अनाथपिडिक की दीक्षा और जेतवन-दान का वर्णन और महाप्रजापती गोतमी की प्रद्रज्या का वर्णन है। यहीं से भिक्षुणी-संघ का भी आरम्भ होता है । चल्लवग्ग के अन्त में प्रथम दो बौद्र संगीतियों के विवरण है। वास्तव में न केवल भिक्षु-संघ के इतिहास की दृष्टि में ही बल्कि छठी शताब्दी ईसवी पूर्व के भारतीय समाज की अवस्था को जानने के लिए भी महावग्ग और चुल्लवग्ग में पर्याप्त सामग्री भरी हुई। जीवक कौमारभृत्य का विवरण जो महावग्ग में आता है, तत्कालीन आयुर्वेद सम्बन्धी ज्ञान और उसके Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२६ ) अभ्यास का अच्छा परिचय देता है। बिम्बिसार आदि के विवरण तत्कालीन राजनैतिक परिस्थिति और वैशाली आदि के विवरण उस समय को सामान्य मभ्यता और मनुष्यों के रहन-सहन के ढंग का अच्छा परिचय देते हैं । निश्चय ही इन दृष्टि से विनय-पिटक का और विशेषतः महावग्ग और चुलबाग का बड़ा नहत्त्व है। वहीं पर मुन-विभंग को विषय-वस्तु के पूरक-स्वस्त्र भिक्षु और भिक्षुणी संबोंके आन्तरिक जीवन एवं कार्य-संचालन का भी अच्छा चित्र दिया गया है। भिक्षु-संच में प्रवेश के नियम, उपोसथ के नियम, वर्षावास के नियम, उसके अन्त पर ‘पवारणा' सम्बन्धी नियम, संघ में फूट पड़ने पर उनमें एकता लाने के उपाय, भिक्षुओं के जोवन को छोटी से छोटी बातों पर भी सूक्ष्मतापूर्वक विचार, उनके कपड़े और जूते पहनने तक के ढंग, सवारी में बैठने सम्बन्धी नियम, निवास- स्थान और उसकी सफाई, मरम्मत आदि सम्बन्धी नियम, किसी भी विषय को यहाँ छोड़ा नहीं गया है। चुल्लवग्ग के दसवें खन्धक में केवल भिणी-जीवन सम्बन्धी नियमों और ज्ञातव्य वातों का ही विवरण है। 'बन्धक' मे हो संलग्न 'कम्म वाचा' के भी विवरण हैं जो संव सम्बन्धी विभिन्न कृत्यों और नन्कारोंके समय कार्य-प्रणाली के सूचक हैं । 'खन्धक' में आये हुए नियमों के समान यहाँ विभिन्न कर्मों (कम्म) के लिए प्रयुक्त शब्दों (वाचा) का विधान किया गया है। 'परिवार' या 'परिवार-पाठ' विनय-पिटक का अन्तिम भाग है। जैसा विटरनि-ज़ ने कहा है, 'परिवार' का विनय-पिटक से वही सम्बन्ध है, जो वेद की अनुक्रमणी और परिशिप्ठों का वेद के साथ । १ 'परिवार' सम्भवतः वाद का भी गंकलन है। वह प्रश्नोत्तर के रूप में है। विनय-पिटक की विषय-वस्तु की इमे एक प्रकार से 'मातिका' या विषय-मूची ही समझना चाहिए। परिवार' में ११ परिच्छेद है. जिनमें अभिधम्म की शैली पर विनय-पिटक के विषय की ही पुनरवृत्ति को गई है। परिवार' कोअन्तिम गाथाओं में कहा गया है "पृवाचरियमगंव पुच्छिन्वा वा तन्हि तम्हि दोप नाम महारो मुनवरो विदखणा इमं वित्थारगखे मकानग्गेन मज्झिने वितयित्वा लि वाभि नियकानं सुखावहं ।" उससे निश्चित है कि बिनय-सम्बन्धी शिक्षा के इस ग्रन्थ को 'दीप' नामक महामति भिा ने मिहल में लेखबद्ध करवाया। 'लेखबद्ध करवाने' (लेवापेसि) का अर्थ ५. हिस्ट्री ऑव इन्डियन लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ ३३ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२७ ) प्रणयन या संकलन करना या करवाना नहीं है, जैना कुछ विद्वानों ने भ्रमवग समझ लिया है। पूर्व परम्पग से मौखिक रूप में प्राप्त इस ग्रन्थ को 'दोर' नामक नहामति भिक्ष ने (पुस्तकाकार) लेखबद्ध करवाया. इन गाथाओं का केवल यही अर्थ है। सम्पूर्ण त्रिपिटक के वट्टगामणि के समय से बेखबद्ध किए जाने के अचंग ( महाम३३।२४७९.८० ) में भी ऐसा ही कहा गया है। अत: उसे प्रणयन चा संकलन का सूचक नहीं मानना चाहिए। यद्यपि परिवार के संकलन-माल की तिथि निश्चित रूप से स्थापित नहीं की जा सकती, फिर भी शैली के माध्य पर उसे अभिधम्म-पिटक के समकालिक माना जा सकता है, अर्थात् कम से कम तीसरी शताब्दी ईमवी पूर्व। इस प्रकार हमने संघ की अनुमति की। जिस प्रकार धम्म की अनुमति में हमने सुत्तों का सहारा लिया, उसी प्रकार भिक्ष-संघ की स्मृति करने में दिनय-पिटक ने हमारी सहायता की। बुद्ध की अनुमति तो दोनों जगह नमान वो रही । नाथसाथ हमने तत्कालीन लोक-समाज को भी देखा, बुद्ध के देश और काल को नी देखा। इतिहास-लेखक तो इसी पर सर्वाधिक जोर देते हैं. किन्तु हमने तो प्रासंगिक बग ही सही, पर बुद्ध, अम्म और मंब की अनुस्मृति भी अवव्य की। निश्चय ही महापुरुप (बुद्ध) का जितना बड़ा दान विश्व को धम्म' का था, उनमे कम बड़ा दान संघ का भी नहीं था । वुद्धकालीन भिक्षु-संघनाक्षात् साधना का निवानस्थान था। उसकी वह पवित्रता की ति ही थी जो उनकी महिमा के इतने विशाल भूखंड पर विस्तार का कारण हुई । भिक्षु-संघ के विषय में जो यह कहा गया है कि वह आहुनेय्य (निमंत्रण करने योग्य) था, पाहुणेय्य (पाहुना बनाने योग्य) था, दान देने योग्य था, अञ्जलि जोड़ने योग्य था, एवं लोक के लिए पुण्य वोने का अद्वितीय क्षेत्र था, वह उसकी पवित्रता और संयम-प्रियता को देखते हुए बिलकुल ठीक ही था। भगवान् का श्रावक-संघ 'आनिस-दायाद' नहीं था और न वह किमी लौकिक उद्देश्य की प्राप्ति के लिए व्यवस्थित किया गया था, यह हमी से प्रकट होता है कि आनन्द और महाकाश्यप जैसे जानी और साधक भिओं के रहते हा भी शास्ता ने किसी को अपने बाद मंघ का संचालक नहीं बनाया। धर्म और विनय के संचालन में ही उन्होंने उसे छोड़ा। भगवान् का कोई पीटर या अली नहीं बना। कारण, यहाँ वैसा कुछ था ही नहीं जिसका किसी व्यक्ति को उनग धिकार सौपा जा सके। इतनी निवयक्तिकता विश्व के इतिहास में अन्यत्र कही नहीं देखी गई। Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२८ ) विनय-पिटक के नियमों में आधारभूत विश्वजनीन तत्व कितना है अथवा कितना वह देश और काल की विशिष्ट परिस्थितियों से उद्भूत है, यह एक बड़ा महत्वपूर्ण प्रश्न है । नगई ने अपने संक्षिप्त विनय-सम्बन्धी निबन्ध में इस प्रश्न को उठाया है और सामाजिक परिस्थितियों के परिवर्तित स्वरूपों का विवेचन करते करते वे उस हद तक पहुंच गए हैं, जहाँ तक स्थविरवादी बौद्ध परम्परा तो उनके माय जा ही नहीं सकती, धर्म और साधना का कोई भी भारतीय विद्यार्थी भी जहाँ तक जाना पसन्द नहीं करेगा। उदाहरणतः स्त्री-संलाप आदि अनेक बातों के साथ साथ भिक्षु के एकागनिक (एकाहारी) होने सम्बन्धी व्रत के अभ्यास को भी नगई ने इस आधुनिक युग में असम्भव और कदाचित् अनावश्यक मान लिया है। निश्चय ही यह सीमा को अतिक्रमण कर जाना है। समाज और जीवन के बाहरी रूपों में परिवर्तन होने के साथ-साथ आज के मनुष्य के लिए उनके मूल्यों के अंकन में भी परिवर्तन हो चुका है । वह भीतर से मूल्य अंकन करने के बजाय आज बाहर पे करने लगा है। यदि इस दृष्टि से विनय-नियमों को आज देखा जाय तब तो उनमें से अधिकांश नियमों का अभ्यास ही व्यर्थ है। मज्जिम-निकाय के कीटागिरि सुत्त (२०१०) में हम पढ़ते हैं कि बुद्ध के कुछ शिष्य भिक्षु अश्वजित् और पुनर्वसु नामक विनयहीन भिक्षुओं से जा कर कहते हैं, “आवुसो ! भगवान् रात्रि-भोजन मे विग्त हो कर भोजन करते है । भिक्ष-संघ भी रात्रि-भोजन से विरत हो कर भोजन करता है। ऐसा करने से वे आरोग्य, उत्माह, बल और सुखपूर्वक विहार अनुभव करते हैं। आओ आवुमो ! तुम भी गत्रि-भोजन में विरत हो कर भोजन करो। तुम भी आरोग्य, उत्साह, बल और सुखपूर्वक विहार को अनुभव करोगे।" अश्वजित् और पुनर्वस नामक विनय-भ्रप्ट भिक्षुओं ने उत्तर दिया, “आवसो! हम तोगाम को भीखाते हैं, प्रातः भी खाते हैं. दोपहर भी खाते है और दोपहर बाद भी। मायं, प्रातः, मध्यान्ह, विकाल (दोपहर बाद) सब समय खाते भी हम आरोग्य, उन्माह, बल और मुखपूर्वक विहार करते घूमते है। हम सायं भी खायेंगे, प्रातः भी, दिन में भी, विकाल में भी।” जैमा तर्क अश्वजित् और पुनर्वसु ने दिया वैमा आज कोई भी दे सकता है । और आज की परिस्थिति में वह कुतर्क भी नहीं लगेगा। आज मनुष्य के मूल्यांकन का माग विधान ही बदल गया है। १. 'बुद्धिस्ट विनय डिसिप्लिन और बुद्धिस्ट कमांडमेन्ट्स,' शीर्षक, बुद्धिस्टिक स्टडीज, (डा० लाहा द्वारा सम्पादित) पृष्ठ ३६५-३८३. Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२९ ) अतः यदि आज के भौतिकवादी जीवनके पूरे स्वीकरण के साथ तथागत-प्रवेदित धम्म-विनय को निभाना है तो वह अशक्य है । काम-वासना को लक्ष्य मानने वाले जन-ममाज के लिए तथागत ने उपदेश नहीं दिया। कम से कम उमके लिए उसे समझना तो अशक्य ही है। अतः विनय-नियमों को निभाने का काम तो ऐसे महान् साधकों का ही हो सकता है जो समाज की मान्यताओंसे ऊपर उठने की पूरी शक्ति रखते हों। कम से कम सामाजिक परिस्थितियों के नाम पर आदर्ग को गिराना तो हमें नहीं चाहिए। स्थविरवादी परम्पग ने विनय-नियमों पर उनके पुरे शब्दों और अर्थों के साथ जोर दिया है, इसका यही कारण है। माधन की निष्ठा अन्यन्त आवश्यक है । निष्ठावान् के लिए कभी कुछ असम्भव नहीं है। वह समाज और परिस्थितियों को अपने अनुकूल कर सकता है. यदि उमे दृढ़ विश्वास है कि जो कुछ अभ्यास वह करता है उसके पीछे बुद्धों का माग अनुभव और ज्ञान छिपा हुआ है और उसकी सच्चाई सामाजिक परम्पराओं या परिस्थितियों की अनुमति की अपेक्षा नहीं रखती। हाँ छोटे-मोटे विनयसम्बन्धी नियमों के विषय में शास्ता ने स्वयं ही आश्वासन दे दिया है कि उन्हें आवश्यकतानुसार छोड़ा जा सकता है। ये छोटे-मोटे विनय-सम्बन्धी नियम क्या है. इसके विषय में हम जानते हैं कि पूर्वकालीन धर्मसंगोतिकार भिक्षुओं में ही बड़ा विवाद उठ खड़ा हुआ और केवल अनेक सम्प्रदायों में बंट जाने के अतिरिक्त वे इसका कोई हल नहीं निकाल सके। वास्तव में इमका हल वाहर से हो ही नहीं मकता। कोई भी बाहरी विधान साधक को यह नहीं बतला सकता कि यह नियम छोड़ने योग्य है या नहीं। इसके लिए तो आन्तरिक साधना में प्राप्त निर्मल विवेक-बुद्धि ही मनुष्य के पास सर्वोत्तम माधन है। केवल उसी के द्वारा यह निर्णय किया जा सकता है कि क्या अ-महन्द पूर्ण है और छोड़ देने योग्य है और क्या महत्वपूर्ण है और जीवन भर अनुल्लंघनीय है। इस प्रकार चाहे जो कुछ भी त्याज्य या पालनीय ठहरे, किन्तु यह निश्चित है कि जो त्याज्य होगा वह देश और काल मे उद्भूत तत्त्व होगा और जो पालनीय होगा वह मार्वभौम, मार्वकालिक, तत्त्व होगा, जिसमें हो तथागत-प्रवेदित धम्मविनय अधिकतर भग हुआ है। 'क्षुद्रानुक्षुद्र' को छोड़ देने का विधान कर तथागत न इमी देश-काल-उद्भूत तत्त्व मे विमुक्त हो जाने का भिक्षु-मघ को अन्तिम उपदेश दिया था, ऐसा हमारा मन्तव्य है। इस प्रकार विनय-मम्बन्धी नियमों में न बाहरी कर्मकांड की गन्ध तक है और न वे साधकों के उस स्वबुद्धि-निर्णय के Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिकार को, जिमे गास्ता ने उन्हें दिया, छीनने का ही उद्योग करतं है ! यह उनकी एक भार: दिगेपता है। विनय को मूल आत्म-संयम है। मंयम अर्थात् काया का मंयम, वाणी का संयम, मन का नयम । कायिक, वाचिक और मानसिक कर्मों का समाधान. मन्यक् आधान, ही नील' कहलाता है। शील की समापत्ति के लिए वो बिनय-नियमों का विवान किया गया है, यद्यपि यह ठीक है कि वहाँ उसके बाहरी म्प को लक्ष्य कर के हो अधिकतर नियम बनाये गए है। फिर भी शाम्ता के द्वारा मानसिक नयम पर जो जोर दिया गया है, वह भी उनके मन में सरक्षित है, ना कहा जा सकता है। केवल किमी कर्म के कग्ने या न करने में ही गील-विद्धि नहीं हो जाती। भगवान् ने स्वयं कहा भी है "मागन्दिय ! न दृष्टि में, न अनुभव . न ज्ञान से, न गील मे, न त से गुद्धि कहता हूँ। अष्टि, अ-श्रुति, अ-ज्ञान, अगोल, अ-व्रत में भी नहीं।” निश्चय ही किसी कर्म के करने या न करने पर मदाचार उतना निर्भर नहीं है जितना उन कर्म-व्यापार के अन्दर रहने बाली मानसिक प्रवृति पर। इसीलिए चेतना पर भगवान् ने मर्वाधिक जोर दिया है। चक्षु, श्रोत्र, घ्राण. जिह्वा, काय और मन के संयम का अर्थ यह नहीं है कि इन भौतिक या मानसिक इन्द्रियों में अपने आप में संयम जैसी कोई वस्तु होती है. वल्कि केवल यही है कि जिन जिन वस्तुओं की अनुभूति इनके द्वारा होती है उनके प्रति मानवीय व्यवहार में संयम पैदा होना चाहिए। 'चक्षु-इन्द्रिय ने संयन को प्राप्त होता है (चक्खुन्द्रिये मंदरं आपज्जति) इमका अर्थ यह नहीं है कि माधक भौतिक चश् को मंयमित करता है,या चक्षु और रूप के संयोग को ही निन्द्र करता है। यदि ऐसा होता ना आँच मींचने वाला सर्वोतम संयमी होता। अत: चरिन्द्रिय में संयम प्राप्त करने का अर्थ है चक्ष इन्द्रिय मात्र को ही संयमित नही करना (यद्यपि है तो वह भी आवश्यक ) बल्कि चक्ष के द्वागदेवे हए इस के प्रति अपने व्यवहार को संयमित रखना। यही बात थोत्र और शब्द, वाग और गन्ध , जिह्वा और रस, कार और स्पर्श तथा मन और धर्म (मानभिक पदार्थ) के विषय में भी जाननी चाहिए। अभिधम्म की भाषा का प्रयोग करते हए इस तथ्य का बड़ा विवाद निम्पण आचार्य दुघोष ने 'विद्धि-मग' के प्रथम परिच्छेद में किया है। वास्तव में शास्ता का मन्तव्य चित्त को मंयमित करने का ही है और उनी उद्देश्य के अनमार हमें विनय के नियमों की भी व्याम्या करनी चाहिए। जो बातें गग, संग्रह, अमन्तोष, अनुद्योगिना और इच्छाओं को बढ़ाने वाली है Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के सभी अकरणीय है और उनके विपरीत करणीय। विनय-पिटक इन्हीं का कुछ अनुमापन हमें देता है, जो यद्यपि सब काल और सब देगों के लिए परिपूर्ण नही कहा जा सकता, फिर भी वह सदाचार के उस मार्वभौम आदर्ग पर आधारित है जिने लोक-गर (बुद्ध) ने आज ने ढाई हजार वर्ष पूर्व मध्य-मंडल में सिवाया था। विनय के उपदेश करने में, ना नगवान् ने स्वयं कहा है. इस उम उनकी दृष्टि में थे। "भिक्षुओ! दम बातो का विचार कर नै भिओं के अनार के लिए विनय-नियमा (शिक्षापदों) का उपदंग करता हूँ (2) मंत्र को अच्छाई के लिए, (२) संघ की आसानी के लिए, (3) उच्छंग्वल पुरुषों के निग्रह के लिए, (४) अच्छे भिक्षुओं के सुख-विहार के लिए. (५) इन जन्म के चिन्त-मलों के निवारण के लिए. (६) जन्मान्तर के चित्त-मलों के नाम के लिए, ७) अप्रमत्रों को प्रसन्न करने के लिए. (८) प्रमत्रों की प्रमत्रता को बढ़ाने के लिए. (१) मर्म की चिरस्थिति के लिए और (१०) विनय (मंयम) की नहायता (अनुसह) के लिए इन उद्देश्यों पर ध्यानपूर्वक विचार करने से विनय-पिटक के नियमों के रूप और उनके उपयोग की पीना काफी समभ, में आ नकती है। उपानकों और भिक्षुओं के लिए निर्दिष्ट क्रमशः पंच (हिना, चोरी, व्यभिचार, झट और मछ-पान ने विति) और दम (हिमा, चोरी, व्यभिचार, भ और मद्य-पान से विरति एवं जन्य-गीन, माला-गन्ध-विलेपन, ऊंचे पलंग, बिकाल-भोजन एवं रुपये-पैग के ग्रहण में भी बिनि गोलों के समान आज तक क्रमाः गहस्थों ॐर प्रजिता के लिए मार्वभौन नवाचार का कोई दूसरा आदर्ग नहीं रक्खा गया है ? वि.न-पिटक को नियम इन्हीं में अन्तर्भावित है। आज में ढाई हजार वर्ष पूर्व की मध्य-मंडल की मामाजिक परिस्थिति में न्यागन ने नि-भिगी और उपानक-उपामिकाओं के लिए सदाचार-सम्बन्धी जिन नियमों का विधान किया. उन्होंने बाद में चल कर कितने देशों और कितने विद्यालबंड ने, नारन-गमि में कोसों दर, न्यानी और गृहस्थ सब के लिए नम्मान्य मदाचार की कनौती का काम किया, इसे देख कर आश्चर्यादित रह जाना पड़ता है। लका, बग्मा और म्याम की बात जाने दें, तो भी चीन, तिब्बत और जापान आदि मे जहाँ-जहाँ बौद्ध धर्म गया वहाँ-वहाँ विनय-पिडक सम्बन्धी नियमों का कितना मदम अननीलन किया गया, यह तत्सम्बन्धी माहित्य से १. विनय-पिटक, पाराजिका १ Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३२ ) प्रकट होता है । 'सो-सोर-थर-पा' (विनय-पिटक का निब्बती संस्करण) 'जुजु-ग्न्सि', 'गिबुन् रित्त', 'भक्-सोगि-रित्सु', 'कोत्-पोन्-सेल्न - इम्से-उबु' और 'गोबुन रित्सु' (विनय-पिटक के विभिन्न चीनी संस्करण) आदि किस तथ्य को प्रकट करते हैं ? किस गाया को वे दुहराते है ? म्याम, बरमा ओर ललंका में आज भी जो कापाय-वस्त्रों की जीतीजागती ज्योति चमकती है, वहाँ के भिक्षु-संघ के जीवन का जो संचालन नास्ता के द्वारा मध्य-मंडल में आज से ढाई हजार वर्ष पूर्व उपदिष्ट नियमों के अनुमार होता है, वह सब किस कहानी को कहता है ? चाहे चीन, जापान और तिब्बत को ओर देख, चाहे लंका, स्याम और बरमा की ओर देखें, चाहे आर्य जातियों की ओर देखें, चाहे आर्येतर मंगोलियन और तुरानी जातियों की ओर , जब उन सब से पुछा जाय 'जिस गुरु से तुमने सदाचार को सीखा है, उसका नाम क्या है ?, तो चारों ओर से यही ध्वनि आती है “अयं सो भगवा अग्हं सम्मासम्बुद्धो विज्ञाचरणसम्पन्नो लोकविद् अनुत्तरो पुरिसदम्म मारथि सत्था देवमनुस्सानं बुद्धो भगवाति ।" निश्चय ही पूर्ण पुरुष, तथागत, भगवान् सम्यक् सम्बद्ध विश्व के एक बड़े भूभाग के सदाचार के उपदेष्टा है, इसका सर्वोत्तम माक्ष्य धम्म के अलावा विनय-पिटक के उन विभिन्न संस्करणों में प्राप्त होता है, जो नाना देशों में पाये गये है और जो इम वात के सूचक है कि किम गम्भीर मनन और चिन्तन के साथ वहाँ विनय-नियमों की ममीक्षा की गई है और उनका जीवन में अनुसरण किया गया है। इस देश में उत्पन्न अग्रजन्माओं में संसार के सब देशों के मनुष्य अपने-अपने सदाचार को मीखें, यह तो मन ने भी कहा था। किन्तु किस भारतीय मनीपी या ऋपि ने यह काम किया? उनमें से अनेक तो चातुर्वर्णी शुद्धि भी नहीं मिग्वा सके, फिर विश्व का शास्ता बनना तो दूर की बात थी? जिस गौरव की ओर मनु ने स्मरण दिलाया था उसे भारतीय भूमि और संस्कृति को प्रदान करने वालों में भगवान वह ही अग्र हैं, श्रेष्ट है। वे सर्वोत्तम अर्थो में लोक-शाम्ता हैं , लोक-गरु है, यह विनय-पिटक के नाना देशों में विकास ने भली भांति प्रकट कर दिया है। न केवल बौद्ध देगों या बौद्ध मतावलम्बियों तक ही यह प्रभाव मीमित है, बल्कि ईमाई धर्म की उत्पनि, उसके वप्तिस्मा-नियम तथा चर्च-सम्बन्धी विधान में उन बौद्ध धर्म-प्रचारकों का, जिन्हें अगोक ने पश्चिमी एगिया और यूरोप के देशो में भेजा था, कितना प्रभाव उपलभित है, इसमें इतिहासवेनाओं के आज दो मत Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं हैं। अत: विनय-पिटक केवल संघ-सम्बन्धी नियमों का संग्रह न हो कर आज हमारे लिए एक विशेष ऐतिहासिक गौरव का स्मारक है। जिस प्रकार भास्ना का धर्म विश्व-धर्म है, उसी प्रकार उनका विनय भी विश्व का विनय है, इसका अपने नाना रूपों में वह साक्ष्य देता है। विनय-पिटक का यह महत्त्व भी आज भारतीय विद्या और संस्कृति के उपासकों के लिए कुछ कम नहीं है। १. देखिये एन्साइक्लोपेडिया ऑव रिलिजन एंड एथिक्स, जिल्द पाँचदी. पृष्ठ ४०१, वहीं जिल्द बारहवीं, पृष्ठ ३१८-३१९; बुद्धिस्टिक स्टडीज (डा० लाहा द्वारा सम्पादित) पृष्ठ ६३१-६३२. Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाँचवाँ अध्याय अभिधम्म-पिटक अभिधम्म-पिटक अभिधम्म-पिटक पालि तिपिटक (त्रिपिटक) का तीसरा मुख्य भाग है । 'अभिधम्म' शब्द का प्रयोग 'अभि-विनय' शब्द के साथ-साथ क्रमश: धम्म और विनय सम्बन्धी गंभीर उपदेश के अर्थ में, सुत्त-पिटक में भी हुआ है ।' संभवतः इनी के आधार पर आचार्य बुद्धघोष ने अभिधम्म का अर्थ किया है--'उच्चतर धम्म या 'विटोप' धम्म । 'अभिधम्म' में 'अभि' शब्द को उन्होंने 'अतिरेक' या 'विगेप' का वाचक माना है। वास्तव में यह 'अनिययता' या 'विशेषता' धम्म १. देखिये संगोति-परिवाय-सुत्त (दोष-३।१०); दसुत्तर-सुत्त (दोघ. ३१११); गुलिस्सानि-सुत्तन्त (मज्झिम. २।२।९); किन्ति-सुत्तन्त (मजिकम-३॥१॥३) । महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने यहाँ इन शब्दों का अर्थ केवल धर्म-सम्बन्धी (अभिधम्म) और विनय-सन्बन्धी (अभि-विनय) किया है, जो पूरे अर्थ को व्यक्त नहीं करता। २. अतिरेक-विसेस-थदीपको हि एत्थ अभि-सो। असालिनी, पृष्ठ २ (पालि टैक्सट सोसायटी का संस्करण); मिलाइये सुमंगल विलासिनी, पष्ठ १८ (पालि टैक्स्ट सोसायटी का संस्करण); प्रसिद्ध महायानी आचार्य आर्य असंग ने 'अभिधर्म' शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए (१) निर्वाण के अभिमुख उपदेश करने के कारण (अभिमुखतः) (२) धर्म का अनेक प्रकार से वर्गाकरण करने के कारण (आभीण्यात्) (३) विरोधी सम्प्रदायों का खंडन करने के कारण (अभिभवात्) एवं (४) सुत्त-पिटक के सिद्धान्तों का ही अनुगमन करने के कारण (अभिगतितः) 'अभिधर्म' शब्द की सार्थकता दिखलाई है। अभिमुखतोऽथाभीण्यादभिभवगतितोऽनिधर्मः ! महायानसूत्रालंकार १११३; आचार्य वसुबन्ध ने उपकारक स्कन्धादि से यात, विमल प्रज्ञा को ही अभिधर्म कहा है। प्रज्ञाऽपला मानुचनाऽभिधर्म: । अभिवर्मकोश ११२ Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३५ ) की नहीं है । धम्म तो सर्वत्र एक रम है। किन्तु तीनों पिटकों में, उनके नाना वर्गीकरणों में, वह नाना रूप हो गया है। 'इन्द्रो मायाभिः पुररूप ईयते ।' जो धम्म मन-पिटक में उपदेश-रूप है, विनय में जो मंयम-रूप है, वही अभिधम्म में तत्व-म्प है। इसका कारण अधिकारियों का तारतम्य ही है। प्रस्थान-भेद न धर्म के स्वरूप में भी भेद हो गया है। किन्तु यह भेद सिर्फ शैली का है, आदेशनाविधि का है। सुत्त सबके लिए मगम हैं, क्योंकि वहाँ बुद्ध-बचन अपने यथार्थ स्वरूप में ग्वने हुए है । अभिधम्म पिटक में बुद्ध-मन्तव्यों का वर्गीकरण और विश्लेषण किया गया है, तात्विक और मनोवैज्ञानिक दृष्टियों से उन्हें गणनावद्ध किया गया है । अतः जब कि सुत्न-पिटक का निरूपण जन-साधारण के लिए उपयोगी है, अभिधम्म पिटक की मचियों और परिभापाओं में वही चने हए व्यक्ति रुचि ले सकते है जिन्होंने बौद्ध तत्त्व-दर्शन को अपने अध्ययन का विशेष विषय बनाया है। इसी अर्थ में अभिधर्म पिटक को 'उच्चतर' धम्म या विप' धम्म कहा गया है । अभिधम्म-पिटक धम्म की अधिक गहराई में उतरता है और अधिक माधनसम्पन्न व्यक्तियों के लिए ही उमका प्रणयन हुआ है, ऐसा बौद्ध परम्परा आरम्भ ने ही मानती आई है। कहा गया है कि देव और मनुप्यों के गास्ता ने 'अभिधम्म का उपदेश सर्व प्रथम बायम्बिश लोक में अपनी माता देवी महानाया और अन्य देवताओं को दिया था। बाद में उसी की पुनरावृत्ति उन्होंने अपने महाप्राज शिष्य धर्मसेनापति सारिपुत्र के प्रति की थी। धर्मसेनापति सारिपुत्र ने ही उन अन्य ५०० भिक्षुओं को सिखाया। इस प्रकार बुद्ध के जीवन-काल में ही सानिएत्र के सहित ५०१ भिक्ष अभिधम्म के ज्ञाता थे। इस प्रकार प्राप्त 'अभिधम्म' का ही सगायन, इम परम्परा के अनुसार, प्रथम दो संगीतिषों में हुआ । तीगरी मगीति में भी इमी की पुनरावृत्ति की गई, किन्तु इसके सभापति स्थविर मोगलिपुत्त तिम्स (मौद्गलिपुत्र तिष्य) ने कथावत्थु' नामक ग्रन्थ को भी जिमकी मोटी रूपरेखा नगवान् बद्ध भविष्य में उत्पन्न होने वाले मिथ्या मत-वादों का इन प्राप्त कर उनके निराकरणार्थ पूर्व ही निश्चित कर गरे थे, पूर्णता देकर 'अभिधम्म' १. अट्ठसालिनी की निदान-कथा; मिलाइये धम्मपदट्ठकथा ४१२, बुद्धचः पृष्ठ ८३-९० में अनुवादित । २. देखिये दूसरे अध्याय में प्रथम दो संगोतियों का विवरण । Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में सम्मिलित कर दिया। इस प्रकार यह स्थविरवादी बौद्ध परम्परा अभिधम्म पिटक को भी सुत्त-पिटक और विनय-पिटक के समान हो बुद्ध-वचन मानने को पक्षपातिनी है । रचना-काल ___ उपर्युक्त अनुश्रुति अभिधम्म-पिटक की प्रशंसा में अर्थवाद मात्र है । वास्तव में उमी हद तक वह ठीक भी है। वैसे तो उसने भी यह स्वीकार कर ही लिया है कि अभिधम्म-पिटक का कम से कम एक ग्रन्थ 'कथावत्थु' अशोक-कालीन रचना है ओर उसका वर्तमान रूप स्थविर मोग्गलिपुत्त तिस्म का दिया हुआ है । बुद्ध के प्रारंभिक उपदेशों में धम्म और विनय को ही प्रधानता है। ऐसा लगता है कि उन्हीं के आधार पर संग्रथित अभिधम्म को भी उन्हीं के समान प्रमाणवत्ता देने के लिए स्थविरों ने उपर्य क्त अर्थवाद की सृष्टि की है । आधुनिक विद्यार्थी के लिए सबसे अधिक कठिन समस्या तो यह है कि आज जिस रूप में अभिधम्मपिटक हमें मिलता है, वह कहां तक सीधा बुद्ध-वचन है अथवा उसका प्रणयनकिन-किन काल-श्रेणियों में बुद्ध-वचनों के आधार पर हुआ है। इस दृष्टि से देखने पर आज जिस रूप में अभिधम्म-पिटक हमें मिलता है, उसकी प्रमाण-वत्ता सुन और विनय को अपेक्षा निश्चयतः कम रह जाती है और उमका प्रणयन-काल भी उतनी ही निश्चिततापूर्वक उसके बाद का ठहरता है। 'अट्ठसालिनी' को निदान-कथा में कुछ अन्य महत्वपूर्ण प्रश्नों के साथ दो प्रश्न आचार्य बुद्धघोष ने बड़े महत्त्व के किये है। पहला प्रश्न है--'अभिधम्म पिटक किसका वचन है' ? दूसरा प्रश्न है--'किसने इसे एक पीढ़ी से दुसरी पोढ़ी तक पहुँचाया है ?' पहले प्रश्न के उत्तर में उन्होंने कहा है 'पूर्ण पुरुष, तथागत भगवान् सम्यक सम्बुद्ध का और दूसरे के उत्तर में कहा है 'उपदेगकों की न टटने वाली परम्परा ने' । इसी परम्परा का उल्लेख करते हुए वहाँ कहा गया है "ततीय संगोति तक सारिपुत्र, भद्दजि, सोभित, पियजालि, पियपाल, पियदस्सि, कसियपुत्त, सिग्गव, सन्देह, मोग्गलिपुत्त, विमदन, धम्मिय, दासक, सोनक, रेवत, आदि स्थविरों की परम्परा ने अभिधम्म-पिटक का उपदेश दिया। उसके बाद जाको शिष्य-परम्परा ने इस काम को अपने हाथ में लिया। इस प्रकार भारतवर्ष (जम्बुद्वीप) में उपदेशकों को अविच्छिन्न परम्परा एक पोढ़ी से दूसरी पीढी तक अभिधम्म को पहुँचाती रही। इसके अनन्तर सिंहल द्वीप में भिक्षु महिन्द, इद्धिय, उतिय, भहनाम और सम्बल आये। यही महामनीषी भिक्षु अभिधम्म-पिटक को भी Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३७ ) भारत से लंका द्वीप में अपने साथ लाये । तब से आज तक गुरु-शिष्य परम्परा से यह अभिधम्मपिटक उसी रूप में चलता आ रहा है" । आचार्य बुद्धघोष का यह वर्णन ऐतिहासिक दृष्टि से बड़ा महत्वपूर्ण है। महिन्द के लंका में अभिधम्म पिटक के ले जाने के बाद से उसके स्वरूप में कुछ भी परिवर्तन हुआ हो, इसका कोई साक्ष्य नहीं मिलता । उसके बाद अभिधम्मपिटक का स्वरूप निश्चिन और स्थिर हो गया, ऐसा हम मान सकते हैं, यद्यपि लेखबद्ध होने का कार्य तो अभिधम्मपिटक का भी संपूर्ण त्रिपिटक के साथ ही लगभग २५ ई० पूर्व वट्टगामणि अभय के समय में सम्पादित किया गया । आन्तरिक या वाह्य साध्य के आधार पर ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिलता जिसके आधार पर अभिधम्मपिटक के स्वरूप में तृतीय शताब्दी ईसवी पूर्व से प्रथम शताब्दी ईसवी पूर्व तक किए गए किसी परिवर्तन या परिवर्द्धन का अनुमान किया जा सके । निश्चय ही यह एक बड़े आश्चर्य की बात है कि इतने सुदीर्घ काल तक लंका में मौखिक परम्परा में चलते रहने पर भी अभिधम्मपिटक में कहीं भी ऐसे एक शब्द तक का भी निर्देश नहीं दिखाया जा सकता जिससे सिंहली प्रभाव की कल्पना की जा सुके । कुछ विद्वानों ने 'कथावत्थ' की अट्टकथा के आधार पर यह अवश्य दिखाने का प्रयत्न किया है कि 'कथावत्थु' में कुछ ऐसे सम्प्रदायों के सिद्धांतों का भो निराकरण है जो अशोक के काल के बाद प्रादुर्भूत हुए थे । चूंकि 'कथावत्थु' सें केवल सिद्धांतों का खंडन है, सम्प्रदायों का नामोल्लेख वहाँ नहीं है । अतः बहुत संभव है कि विशिष्ट संप्रदायों के साथ कालान्तर में इन सिद्धांतों का संबंध हो जाने के कारण 'अट्ठकथा' (पाँचवीं शताब्दी ईसवी) में उनका उल्लेख कर दिया गया हो, किन्तु अशोक के काल में केवल स्फुट रूप से ही इन सिद्धांतों की विद्यमानता माई जाती हो । अतः 'कथावत्थ' में निराकृत उन सिद्धांतों को भी, जिनकी मान्यता बाद के उत्पन्न कुछ विशिष्ट संप्रदायों में चल पड़ी, जिसका माध्य उसकी 'अटठकथा' ने दिया है, अनिवार्यतः अशोक के उत्तरकालीन मानना ठीक नही है । इस विषय का अधिक विशद विवेचन हम 'कथावत्थु' के विवेचन पर आते समय करेंगे । स्थविरवादी भिक्षुओं को परम्परा ने आरम्भ से ही बुद्ध वचनों को उनके मॉलिक ९. फिर भी आश्चर्य है कि सर चार्ल्स इलियट जैसे विद्वान् ने भी अभिवम्मपिटक के लंका में रचित होने की सम्भावना को प्रश्रय दिया । देखिये उनका 'हिन्दुइज्म एंड बुद्धिज्म' जिल्द पहली, पृष्ठ २७६, पदसंकेत १ तथा पृष्ठ -२९१ | यह भरपूर अज्ञान है ! २२ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३८ ) रूप में सुरक्षित रखने का जो आग्रह दिखलाया है उसके आधार पर यह माना जा सकता है कि लंका में महिन्द आदि भिक्षुओं के द्वारा ले जाये जाने के बाद से अभिधम्म वहाँ उसी विशुद्धतम स्वरूप में सुरक्षित बना रहा जिसमें वे उसे वहाँ ले गये थे। अब प्रश्न यही रह जाता है कि क्या महिन्द आदि भिक्षु जिस अभिधम्म को तृतीय शताब्दी ईसवी पूर्व लंका में ले गये थे क्या वह वही बुद्ध-वचन था जिसका उपदेश स्वयं शास्ता ने मध्य-मंडल में दिया था ? कम से कम स्थविरवादी बौद्ध परम्परा तो उसे इसी रूप में उस समय से मानती आई है और भिक्ष-संघ ने भी उसे बड़े प्रयत्न से उसके मौलिक रूप में सुरक्षित रखना अपना कर्तव्य माना है। किन्तु दूसरे संप्रदायवालों (विशेषतः सर्वास्तिवादियों) ने उसके इस दावे को वैशाली की संगीति के समय से ही नहीं माना था, यह भी एक ऐतिहासिक तथ्य है। उपर्युक्त कथन से कम से कम एक बात निश्चित रूप से हमें मिल जाती है, और वह है अभिधम्म-पिटक के उस रूप के पणयन की, जिसमें वह अंतिम रूप से निश्चित और स्थिर हो गया था, निचली काल-सीमा। पाटलिपुत्र की संगीति २५३ ई० पू० में हुई। उसके समाप्त होने पर ही महिन्द आदि भिक्षु लंका को भेजे गये। अतः यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि लगभग २५० ई० पूल तक अभिधम्म-पिटक अपने उस रूप में, जिसमें वह आज उपलब्ध है, पूर्णतः स्थिर हो चुका था। बाद में मिलिन्दपन्ह (१०० ई० पू०) में तो अभिधम्म पिटक. के सातों ग्रन्थों का, उनकी पुरी वर्गीकरण-शैली के संक्षिप्त निर्देश के साथ, उल्लेख हुआ है। जिस आदर के साथ अभिधम्म-पिटक का उल्लेख यहाँ किया गया है. उसमे यह स्पष्ट है कि बुद्ध-वचनों के रूप में उसकी ख्याति बौद्ध परम्परा में उस समय तक दृढ़ प्रतिष्ठा पा चुकी थी। यदि कम से कम सौ-डेढ़ सौ वर्ष का काल भी इस परम्परा के निर्माण में लगा हो तो भी हम आसानी से अशोक-संगीति के समय तक पहुँच जाते हैं जब कि तेपिटक बुद्ध-वचनों का अंतिम रूप से संस्करण हुआ था। अतः अशोक-संगीति या तृतीय शताब्दी ईसवी पूर्व का मध्यांश अभिधम्म-पिटक के रचना-काल की निचली काल-सीमा है जिसे बहुत खींचतान कर प्रथम शताब्दी ईसवी पूर्व तक अर्थात् उसके सिंहल में लेखबद्ध होने अथवा मिलिन्दपञ्च में उसके उद्धृत होने तक के समय तक भी घटाकर लाया जा सकता है। अब हमें उसके रचनाकाल की उपरली काल-सीमा का निर्णय करना है। विनय-पिटक--चुल्लवग्ग के १. मिलिन्दपञ्ह, पृष्ठ १३-१४ (बम्बई विश्वविद्यालय का संस्करण) Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३९ ) प्रथम संगीति के वर्णन में हमने देखा है कि वहाँ धम्म और विनय के ही संगायन की बात कही गई है। अभिधम्म के संगायन की कोई सूचना वहाँ नहीं मिलती। किन्तु अट्ठकथा (सुमंगलविलासिनी एवं समन्तपासादिका) के वर्णन में, जैसा हम पहले देख चुके हैं अभिधम्म-पिटक के सातों ग्रन्थों के भी संगायन किये जाने का उल्लेख है। चूंकि त्रिपिटक के साक्ष्य के सामने उसकी अट्ठकथा के साक्ष्य का कोई प्रामाण्य नहीं माना जा सकता, अतः समन्तपासादिका' का साक्ष्य यहाँ अपने आप प्रमाण की सीमा के बाहर हो जाता है । जैसा भदन्त आनन्द कौसल्यायन ने कहा है “विनय और धर्म के साथ अभिधम्म का भी पारायण इनी (प्रथम) संगीति में हुआ, यह जो समन्तपासादिका का कहना है, यह तो स्पष्टरूप से गलत है।"१ किन्तु 'समन्तपासादिका' के साक्ष्य को स्पष्ट रूप से गलत मानते हुए भी उससे इतना निष्कर्ष तो हम निकाल ही सकते हैं कि अधिक से अधिक प्रथम संगीति के समय ही अभिधम्म-पिटक का विकास होना आरम्भ हो गया था। तभी हम वैशाली की संगीति के अवसर पर इस विषय संबंधी सर्वास्तिवादियों और स्थविरवादियों के विरोध और विवाद को समझ सकते हैं। यदि आज प्राप्त पालि विनय-पिटक का संकलन वैशाली की संगीति के अवसर पर ही हुआ हो तो उसमें जिस प्रकार अलौकिक ढंग से अभिधम्म को साक्षात् बुद्ध-वचन सिद्ध करने का प्रयास किया गया है, उसका ऐतिहासिक रहस्य भी आसानी से समझा जा सकता है । दूसरे संप्रदायवालों द्वारा अभिधम्म की प्रामाणिकता का निषेध कर देने पर ही उन्हें इस प्रकार के विधान की आवश्यकता पड़ी। प्रथम संगीति के पहले हम पारिभाषिक अर्थों में अभिधम्म-पिटक के वर्तमान होने की स्थापना किसी आधार पर नहीं कर सकते। उससे पहले सिर्फ 'मातिकाओं (मात्रिकाओं) का वर्णन मिलता है। सर्वास्तिवादियों के मतानुसार भी 'मात्रिकाओं (अभिधर्म)का संगायन प्रथम संगीति के अवसर पर आर्य महाकाश्यप ने किया था। कुछ भी हो, इन 'मातिकाओं के आधार पर ही अभिधम्म-पिटक का विकास हुआ है । अभिधम्मपिटक के सर्वप्रथम ग्रन्थ 'धम्मसंगणि' का प्रारंभ एक 'मातिका' से ही होता है । श्रीमती रायस डेविड्स ने इसी को अभिधम्म-पिटक का मूल स्रोत माना है। १. महावंश, पृष्ठ ११ (परिचय) २. ए बुद्धिस्ट मेन्युअल ऑव साइकोलोजीकल एथिक्स (धम्मसंगणि का अंग्रेजी अनुवाद) द्वितीय संस्करण, पृष्ठ ९, १०५-११३ (भूमिका) Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४० ) उसमें निर्दिष्ट २२ त्रिकों और १०० द्विकों के वर्गीकरण पर ही अभिधम्म का संपूर्ण धम्म-विवेचन आधारित है । पुग्गलपत्ति और धातुकथा का भी आरंभ इसी प्रकार मातिकाओं से होता है। वास्तव में संपूर्ण अभिधम्म ग्रन्थों की शैली हो पहले मातिका या उद्देस देकर बाद में उनके निद्देस (व्याख्या) देने की है। पहले दिखाया जा चका है कि पिटक-साहित्य में जहाँ मातिकाओं का उल्लेख हुआ है (धम्मधरो विनयधरो मातिकाधरो पंडितो-विनय-पिटक--चुल्लवग्ग) वहाँ उनसे किन्हीं विशिष्ट ग्रन्थों का बोध न होकर केवल सिद्धान्तात्मक सचियों का हो होता है, जिनका उपयोग भिक्षु लोग स्मरण करने की सुगमता के लिए करते थे। इसी प्रकार दीघ-निकाय के संगीति-परियायसुत्त और दसुत्तर-सुत्त, मझिम निकाय के सळायतनविभंग-सुत्त और धातुविभंगसुत्त, एवं अंगुत्तर-निकाय के अनेक संख्याबद्ध सुन, अभिधम्म-पिटक के वर्गीकरणों के मूल स्रोत माने जा सकते है। इन्हीं के आधार पर अभिधम्म-पिटक का विकास हुआ है। यह इससे भी प्रमाणित होता है कि महायानी परम्परा के संस्कृत बौद्ध ग्रन्थों में 'अभिधर्म' के लिए 'मात्रिका' शब्द का ही प्रयोग किया गया है । अतः समन्तपासादिका के वर्गन को अअरशः सत्य न मानकर हम उससे इतना निष्कर्ष तो निकाल ही सकते है कि मातिकाओं और ऊपर निर्दिष्ट सुत्त-पिटक के अंशों से अभिधम्म-पिटक के निर्माण का कार्य प्रथम संगीति के समय ही आरम्भ हो गया था और दूसरी संगीति के समय तक आते आते उसने ऐसा निश्चित (अन्तिम नहीं) रूप प्राप्त कर लिया था, जिसके आधार पर दूसरे संप्रदायवालों के लिये उसे बद्ध-वचन मानने या न मानने का महत्वपूर्ण प्रश्न उठ सकता था। अत: पाँचवी शताब्दी ईसवी पूर्व अभिधम्म-पिटक के प्रणयन को उपरली काल-सीमा और २५० ई० पू० (जिमे अधिक सन्देहवादी विवेचक घटा कर प्रथम शताब्दी ईसवी पूर्व तक भी ला सकते १. अभिधम्म-पिटक के अंगुत्तर-निकाय सम्बन्धी आधार के लिये मिलाइये ई० हार्डी : अंतर-निकाय, जिल्द पाँचवीं, पृष्ठ ९ (प्रस्तावना) (पालि टैक्स्ट सासायटी द्वारा प्रकाशित संस्करण) २. देखिये श्रीमती रायस डेविड्स : ए बुद्धिस्ट मेनुअल ऑव साइकोलोजीकल एथिक्स (धम्मसंगगि का अनुवाद) द्वितीय संस्करण, पृष्ठ ९, १०५-११३; ओल्डनबर्ग और रायस डेविड्स : सेक्रेड बुक्स ऑव दि ईस्ट, जिल्द १३, पष्ट २७३; कर्न : मेनुअल ऑव बुद्धिषम, पृष्ठ ३, १०४ । Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४१ ) है) निचली काल-सीमा ठहरती है। इन्हीं के बीच अभिधम्म-पिटक का विकास हुआ है। विशेषतः द्वितीय और तृतीय संगीतियों के बीच का समय अभिधम्म पिटक के संग्रह और रचना का काल माना जा सकता है। उपर्युक्त काल-सीमाएँ निर्धारित करने से अधिक अभिधम्म-पिटक के ग्रन्थों के प्रणयन के विषय में निश्चयपूर्वक कुछ नहीं कहा जा सकता। उनकी निश्चित तिथियाँ स्थापित नहीं की जा सकतीं। कब कौन सा ग्रन्थ निश्चित रूप प्राप्त कर प्रकाश में आया, इसका निर्णय नहीं किया जा सकता। हाँ, कुछ सिद्धांतों के आधार पर अभिधम्म-पिटक के ग्रन्थों के काल-क्रम में तारतम्य अवश्य स्थापित किया जा सकता है । परम्परा से अभिधम्म-पिटक के सात ग्रन्थों का उल्लेख जिस क्रम में हमें मिलता है, वह यह है (१) धम्मसंगणि, (२) विभंग (३) कथावत्थु, (४) पुग्गलपत्ति , (५) धातुकथा, (६) यमक और (७ पट्ट न । मिलिन्दपञ्ह (प्रथम शताब्दी ईसवी पूर्व) में इसी क्रम में इन ग्रन्थों का उल्लेख किया गया है।' 'ममंगलविलासिनी' की निदान-कथा में अवश्य बुद्धकोप ने कुछ परिवर्तन के साथ एक दूसरे क्रम का अनुसरण किया है, किन्तु वह छन्द को आवश्यकता के लिए भी हो सकता है, अत: महत्वपूर्ण नहीं माना जा सकला। विंटरनित्ज़, गायगर, ज्ञानातिलोक, भिक्ष जगदीश काश्यप एवं लाहा आदि विद्वानों ने अभिधम्म-पिटक के अपने विवेचनों में उपर्युक्त क्रम का ही अनुसरण किया है। विषय की दृष्टि से इससे अधिक स्वाभाविक क्रम हो भी नहीं मकता । किन्तु काल-क्रम की दष्टि से इस क्रम को ठीक मानना हमारे लिए अशक्य हो जाता है। केसियस ए० पिरीरा का मत है कि आन्तरिक साक्ष्य के आधार पर बम्मसंगणि, विभंग और पट्टान प्राचीनतम ग्रन्थ है और उनका मंगायन, अपने वर्तमान रूप में, संभवतः द्वितीय संगीति के अवसर पर ही हुआ था। इस प्रकार इन तीन ग्रन्थों ने अपना निश्चित और अंतिम स्वरूप चौथी शताब्दी ईसवी पूर्व के प्रथम चतुर्थांश या उसके पूर्व ही प्राप्त कर लिया था, ऐसा उनका मत है। धातुकथा, यमक और पठान को भी उन्होंने पूर्व-अशोककालीन रचनाएँ माना है और कहा है कि उनका भी संगायन अपने अंतिम रूप में तृतीय संगीति के अवसर पर हुआ था। 'कथावत्थु' की रचना की निश्चित तिथि तृतीय संगीति है हो । 'कथावत्थ' काल-क्रम की दृष्टि से अभिधम्म-पिटक की १. पृष्ठ १३-१४ (बम्बई विश्वविद्यालय का संस्करण) २. दूसरे अध्याय में प्रयम संगीति के वर्णन के प्रसंग में उद्धृत।। महास्थविर ज्ञानातिलोक की 'गाइड शू दि अभिधम्म-पिटक' के प्राक्कथन में । Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४२ ) अन्तिम रचना है, इसमें कोई सन्देह नहीं हो सकता । किन्तु अन्य ग्रन्थों के तारतम्य के विषय में विभिन्न मत हो सकते हैं । डा० लाहा ने 'पुग्गलपञ्ञत्ति' को कालक्रम की दृष्टि से अभिधम्मपिटक का प्राचीनतम ग्रन्थ माना है। उनका कहना है कि चूँकि अभिधम्मपिटक सुत्तपिटक पर आधारित है, अतः जिस हद तक अभिधम्मपिटक का कोई ग्रन्थ स्पष्ट रूप से सुत्तपिटक पर कम या अधिक अवलंबित है, उसी हद तक उसकी आपेक्षिक प्राचीनता भी कम या अधिक है ।" इसी सिद्धांत को आधार मानकर विवेचन करते हुए उन्होंने दिखाया है कि अन्य सब ग्रन्थों की अपेक्षा 'पुग्गलपञ्ञत्ति' ही सुत्तपिटक पर अधिक अवलंबित है । 'पुग्गलपञ्ञत्ति' की पृष्ठभूमि में दीघ. संयुत्त और अंगुत्तर निकायों के पुग्गलों के प्रकार और विश्लेषण पूरी तरह निहित हैं । उदाहरणत' ' पुग्गलपञ्ञत्ति' के तयो पुग्गला, चत्तारो पुग्गला, पञ्च पुग्गला आदि भाग अंगुत्तर निकाय के क्रमशः तिक-निपात चतुक निपात और पंच निपात आदि के समान ही है । 'पुग्गलपञ्जत्ति' के कुछ अंशों और दोघ निकाय के संगीतिपरियाय - सुत्त में भी अनेक समानताएँ हैं । “पुग्गलपञ्ञत्ति' केपालि टैक्सट् सोसायटी के संस्करण के संपादक डा० मॉरिस ने पुग्गलपञ्ञत्ति और सुत्तपिटक के ग्रन्थों की इन सब समानताओं को सोद्धरण दिखाया है । इससे स्पष्ट प्रकट होता है कि पुग्गलपञ्ञत्ति की समानता, शैली ओर विषय दोनों की दृष्टि से, अभिधम्मपिटक की अपेक्षा सुत्तपिटक से अधिक है । भिक्षु जगदीश काश्यप ने तो यहाँ तक कहा है कि 'पुग्गलपञ्ञत्ति' के विवेचन को निकाल देने पर भी अभिधम्म-दर्शन की पूर्णता में कोई कमी नहीं आती । 'दुग्गलपत्ति' की प्रथम मातिका में अवश्य अभिधम्म-शैली का अनुसरण किया गया है, अन्यथा वह सुत्तपिटक का ही ग्रन्थ जान पड़ता है । अतः पुग्गलपञ्जत्ति की निश्चित तिथि चाहे जो कुछ हो, वह अभिधम्मपिटक के ग्रन्थों में काल-क्रम की दृष्टि से सबसे प्राचीन है, ऐसा डा० लाहा ने माना है । " पुग्गलपञ्ञत्ति' के समान ही डा० लाहा ने 'विभंग' की भी अभिधम्म - पृष्ठभूमि का विवेचन किया है । 'विभंग' के सच्च विभंग, सतिपट्ठान-विभंग और धातु-विभंग, मज्झिम- निकाय १. हिस्ट्री ऑव पालि लिटरेचर, जिल्द पहली, पृष्ठ २२ २. पुग्गलपञ्ञत्ति, पृष्ठ १०-११ (भूमिका) ३. अभिधम्म फिलासफी, जिल्द दूसरी, पृष्ठ १६५ ४. हिस्ट्री ऑव पालि लिटरेचर, जिल्द पहली, पृष्ठ २३ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४३ ) के क्रमशः सच्चविभंग सुत्त, सतिपट्ठान सुत्त और धातुविभंग सुत्त पर आधारित हैं। इसी प्रकार 'विभंग' के अनेक अंश खुद्दक-निकाय के ग्रन्थ 'पटिसम्भिदामग्ग' पर भी अवलंबित हैं। इसलिए कालक्रम की दुष्टि से 'विभंग' को डा० लाहा ने 'पुग्गलपत्ति ' के बाद दूसरा ग्रन्थ माना है। 'विभंग' को उन्होंने अभिधम्मसाहित्य के विकास की उस स्थिति का सूचक माना है जब कि अभिधम्म की शैली पूर्णतः निश्चित नहीं हुई थी और वह सुत्तन्त की शैली से मिश्रित थी। चूंकि 'धम्मसंगणि' में अभिधम्म-शैली का विकसित रूप मिलता है, इसलिए परम्परागत अनुश्रुति के विपरीत उन्होंने 'धम्मसंगणि' को विभंग के वाद का ग्रन्थ माना है। 'धम्मसंगणि' का ही पूरक ग्रन्थ 'धातुकथा' है । अत: 'विभंग' के वाद 'धम्मसंगणि' और उसके बाद 'धातुकथा', यह क्रम डा० लाहा ने स्वीकार किया है। 'विभंग' ही 'यमक' की भी पृष्ठभूमि है। 'विभंग' के एक भाग ‘पच्चयाकार विभंग' का ही विस्तृत निरूपण वाद में 'पट्ठान' में मिलता है। अतः धम्मसंगणि, धातुकथा यमक और पट्टान ये चारों ग्रंथ विभंग पर ही आधारित हैं और काल-क्रम में उससे बाद के हैं, ऐसा डा० लाहा का मत है। इन सबसे वाद की रचना 'कथावत्थु' है। इस प्रकार 'पुग्गलपत्ति ' सबसे पूर्व की रचना, 'कथावत्थु' सबसे अन्तिम रचना, इन दोनों के बीच में 'विभंग' जिस पर ही आधारित 'धम्मसंगणि', 'धातुकथा', "यमक' और 'पट्ठान' यही अभिधम्म-पिटक के ग्रंथों के काल-क्रम के विषय में डा० लाहा का निष्कर्ष है। इसे डा० लाहा ने इस प्रकार दिखाया है।' १ पुग्गलपत्ति २ विभंग- (अ) धम्मसंगणि-धातुकथा (आ) यमक (इ) पट्ठान ३ कथावत्थु डा० लाहा का काल-क्रम-निश्चय अंशतः ठीक जान पड़ता है। किसी भी पालि साहित्य के विद्यार्थी को इसमें सन्देह नहीं हो सकता कि 'कथावत्थु' अभिधम्म पिटक की अन्तिम रचना है। अतः अभिधम्म-पिटक के ग्रंथों का परम्परागत परि १. हिस्ट्री ऑव पालि लिटरेचर, जिल्द पहली, पृष्ठ २६ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४४ ) गणन जिसमें 'कथावत्थु' को सातवें स्थान के बजाय पाँचवाँ स्थान प्राप्त है, कालक्रम की दृष्टि से ठीक नहीं हो सकता, ऐसा तो अन्ततः मानना ही पड़ेगा। अतः 'कथावत्यु को अभिधम्म-पिटक का अन्तिम ग्रंथ मानना ठीक ही जान पड़ता है। इसी प्रकार विषय और शैली दोनों की ही दृष्टि से 'पुग्गलपत्ति ' को भी कालक्रमानुसार प्रथम ग्रंथ माना जा सकता है। यहाँ तक डा० लाहा के निष्कर्ष ठीक जान-पड़ते हैं। किन्तु 'विभंग' को 'धम्मसंगणि' से पूर्व की रचना मानना युक्तियुक्त नहीं जान पड़ता । यहाँ डा० लाहा ने विषय-वस्तु की अपेक्षा शैली को अधिक महत्त्वपूर्ण मानकर यह निष्कर्ष निकाल डाला है। विशेषतः 'विभंग' को 'धम्मसंगणि मे पूर्व की रचना मानने के लिये उन्होंने दो कारण दिये हैं (१) विभंग के प्रत्येक भाग में सुत्नन्तभाजनिय (सुत्तन्त-भाग) और अभिधम्मभाजनिय (अभि• धम्म-भाग) दो स्पष्ट भाग है, जिनमें सुत्तन्तभाजनिय पर ही आधारित अभिधम्मभाजनिय है। इससे डा. लाहा ने यह निष्कर्ष निकाला है कि 'विभंग' अभिधम्म-पिटक के विकास की उस अवस्था का सूचक है, जिसमें सुत्तन्त और अभिधम्म का भेद सनिश्चित नहीं हआ था। इसके विपरीत 'धम्मसंगणि' में अभिधम्म-शैली का पूरा अनुसरण मिलता है। अतः 'धम्मसंगणि' 'विभंग' से बाद की रचना ही हो सकती है । (२) उद्देस (साधारण कथन) के बाद निद्देस (शब्दों के अर्थों का विस्तृत विवेचन) देने की अभिधम्म की प्रणाली है। विभंग के 'रूपक्खन्धविभंग' में रूप' कामात्र उद्देस' ही मिलता है। उसका निद्देस सिर्फ धम्मसंगणि में ही मिलता हुँ । अतः 'धम्मसंगणि' 'विभंग' के बाद की ही रचना होनी चाहिये ।। डा० लाहा ने यहाँ समष्टि रूप से दोनों ग्रंथों की विषय-वस्तु पर विचार नहीं किया है। केवल शैली की दृष्टि से विचार किया है और वह भी अपूर्ण है । जहाँ तक अध्यायों के ‘सुत्त-विभाग' और 'अभिधम्म-विभाग' इन दो विभागों का सम्बन्ध है, वे तो विभंग के समान धम्मसंगणि में भी मिलते है । अतः इस दृष्टि से दोनों में भेद करना अनचित है। विषय के स्वरूप की दृष्टि से शैली में भी अन्तर हो सकता है । धम्मसंगणि का धम्म-विश्लेषण विभंग में प्राप्त उसके वर्गीकृत स्वरूप का पूर्वगामी ही हो सकता है । फिर इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण वात तो विषय का पूर्वापर संबंध १. हिस्ट्री ऑव पालि लिटरेचर, जिल्द पहली, पृष्ठ २४-२५ २. देखिये स्वयं विमलाचरण लाहा : हिस्ट्री ऑव पालि लिटरेचर, जिल्द पहली, पृष्ठ ३०६ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४५ ) है, जिसके आधार पर हम अधिक निश्चित रूप से दो ग्रंथों का या एकही ग्रंथ के दो अंशों के पूर्वापर भाव का अधिक निश्चय के साथ निर्णय कर सकते हैं। यह एक सर्व-विदित तथ्य है कि विभंग के प्रथम खंड में ही लेखक की धम्मसंगणि में विवेचित धम्मों की गणना मे अभिज्ञता प्रकट हो जाती है, जिसमें उसने कुछ नये धम्मों का और समावेश कर दिया है। विभंग ने धम्मसंगणि की 'मातिका' में निर्दिष्ट २२ त्रिकों और १०० द्विकों की विवरण-प्रणाली को ज्यों का त्यों ग्रहण कर लिया है।' विभंग के प्रथम तीन खण्ड स्कन्ध, आयतन और धातुओं का विवेचन करते है. अतः अंगतः धम्मसंगणि के प्रति उनका भी पुरकत्व सुनिश्चित है । २ 'धम्मसंगणि' की शैली विश्लेपणात्मक अधिक है, जब कि विभंग की संश्लेषणात्मक अधिक है। इस तथ्य से भी विभंग धम्मसंगणि के बाद की ही रचना जान पड़ती है। धम्ममंगणि से विभंग की ओर विकास-क्रम सामान्य से विशेष की ओर विकास क्रम है। अतः धम्मसंगणि को ही विभंग से पूर्व की रचना मानना अधिक युक्तिसंगत है। श्रीमती रायस डेविड्स ने भी माना है कि विभंग अपने पूर्व धम्मसंगणि की अपेक्षा रखती है ।४ गायगर" और विटरनित्ज़ ने भी उसे धम्मसंगणि का पूरक रूप ही माना है। अभिधम्म-साहित्य के प्रसिद्ध भारतीय वौद्ध विद्वान् भिक्षु जगदीग काश्यप भी विभंग की विषय वस्तु को धम्मसंगणि की पूरक स्वरूप ही मानते है । अतः 'धम्मसंगणि' को ही 'विभंग' की अपेक्षा पूर्वकालीन रचना मानने की ओर विद्वानों की प्रवणता अधिक है । 'विभंग' के 'रूपवखन्ध विभंग' का अधिक विस्तृत विवेचन 'धम्मसंगणि' में पाया जाना 'धम्मसंगणि' के बाद की रचना होने का ही सचक नहीं माना जा सकता। बल्कि यह तथ्य केवल यही दिखाता है कि धम्मसंगणि में इसका सांगोपांग विवेचन हो जाने के बाद विभंग में उसके इतने विस्तार में जाने की आवश्यकता प्रतीत नहीं हुई। इतनी अधिक दृष्टियों से १. विन्टरनिन्ज : हिस्ट्री ऑव इन्डियन लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ १६७ २. ज्ञानातिलोकः गाइड शू दि अभिधम्म-पिटक, पृष्ठ १७ ३. उपर्युक्त के समान हो। ४. विभंग, भूमिका, पृष्ठ १३ (पालि टैक्सट् सोसायटी का संस्करण) ५. पालि लिटरेचर एंड लेंग्वेज, पृष्ठ १७ ६. हिस्ट्री ऑव इंडियन लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ १६७ ७. अभिधम्म फिलॉसफी, जिल्द दूसरी, पृष्ठ १०४ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४६ ) अभिधम्म-पिटक में धम्मों के विश्लेषण और विवेचन किये गये हैं और इतनी अधिक अवस्थाओं पर उसके संक्षिप्त और विस्तृत विवेचन निर्भर करते हैं कि एक दो उदाहरणों से हम किन्हीं दो ग्रन्थों की पूर्वापरता का कोई निश्चित निर्णय नहीं कर सकते । धम्मसंगणि वास्तव में संपूर्ण अभिधम्म-पिटक का आधारभूत ग्रन्थ है और विषय-वस्तु की दृष्टि से उसी पर आधारित 'विभंग' है । 'विभंग' 'धम्मसंगणि' का पूरक है और स्वयं धातुकथा' के लिए आधारस्वरूप है।' इस प्रकार 'धम्मसंगणि और धातुकथा के बीच वह मध्यस्थता करता है। 'यमक' और पट्ठान के विषय में जो कुछ पहले कहा जा चुका है, वह ठीक है। अतः हमारे प्रस्तुत अध्ययन के अनुसार अभिधम्म-पिटक के ग्रन्थों का अधिक ठीक काल-क्रम यह होना चाहिए--पुग्गलपञत्ति, धम्मसंगणि, विभंग, धातुकथा, यमक, पट्ठान, और कथावत्थ । इसे यों भी दिखाया जा सकता है १. पुग्गलपत्ति २. धम्मसंगणि ३. विभंग । अ. धातुकथा २ आ. यमक ( इ. पट्ठान ४. कथावत्थ अभिधम्म पिटक का विषय ___ ऊपर अभिधम्म-पिटक के ग्रन्थों के काल-क्रम के विषय में जो विवेचन किया गया है, उससे उसकी विषय-वस्तु पर भी काफी प्रकाश पड़ता है। अभिधम्म-पिटक के विषय में सुत्त-पिटक की अपेक्षा कुछ नवीनता नहीं है। जैसा डा० रायस डेविड्स ने कहा है, अभिधम्म-पिटक सुत्त-पिटक का ही परिशिष्ट है । २ आचार्य बुद्धघोष ने उसे 'धम्म' का अतिरेक या अतिरिक्त रूप कहा है। उसका भी यही अर्थ है । सुत्त-पिटक में निहित बुद्ध-मन्तव्यों को ही अभिधम्म-पिटक में अधिक सूक्ष्म विस्तार के साथ समझाया गया है । पारिभाषिक शब्दावली कहीं कुछ नई १. पालि लिटरेचर एंड लेंग्वेज, पृष्ठ १७ २. अमेरिकन लैक्चर्स ऑन बुद्धिज्म : इट्स हिस्ट्री एंड लिटरेचर, पृष्ठ ६२ ३. देखिये पृष्ठ ३३४, पद संकेत २ Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४७ ) अवश्य है, किन्तु सिद्धांतों का मूल आधार सुत्तन्त ही है । अभिधम्म के सिद्धांतों, वर्गीकरणों और विभागों के मूल स्रोतों को सुत्तन्त में खोज निकालना अध्ययन का एक अच्छा विषय हो सकता है । उससे दोनों का तुलनात्मक अध्ययन होने के अतिरिक्त स्वयं अभिधम्मपिटक के दुरूह सिद्धांतों का समझना भी सुगम हो जाता हैं । प्रथम बार भिक्षु जगदीश काश्यप ने इस प्रकार का अध्ययन प्रस्तुत किया है।' उनके मतानुसार विभज्यवाद जिस प्रकार सुत्तन्त का दर्शन है उसी प्रकार वह अभिधम्म का भी दर्शन है । 'विभज्यवाद' का अर्थ है मानसिक और भौतिक जगत् की संपुर्ण अवस्थाओं का विश्लेषण कर चुकने पर भी उनमें कहीं 'अत्ता' ( आत्मा ) का नहीं मिलना । पहिये, धुरा, जुआ आदि सभी भागों से व्यतिरिक्त 'रथ' की सत्ता नहीं है । इसी प्रकार व्यक्ति भी रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान रूपी पाँच स्कंधों की समष्टि के अलावा और कुछ नहीं है । ये सभी स्प्रन्ध अनित्य, अनात्म और दुःख हैं । इनमें अपनापन खोजना दुःख काही कारण हो सकता है । यही बुद्ध का दर्शन है, जो सुत्तपिटक में अनेक बार प्रस्फुटित हुआ है । उदाहरणतः संयुत्त निकाय के इस बुद्ध वचन को लीजिये, “हे गृहपति ! यहां अश्रुतवान्, आर्यों के दर्शन से अनभिज्ञ, अज्ञानी मनुष्य, रूप को आत्मा के रूप में देखता है, अथवा आत्मा को रूपवान् समझता है, या आत्मा में रूप को देखता है या रूप में आत्मा को देखता है । वह समझता है -- मैं रूप है और रूप मेरा है । इस प्रकार 'मैं रूप हूँ और रूप मेरा है' समझते हुए उसके रूप में परिवर्तन होता है, विपरिणाम होता है, कुछ का कुछ हो जाता है । गृहपति ! इसी से उत्पन्न होते हैं शोक, परिदेव ( रोना-धोना ) दुःख, दौर्मनम्य और मानसिक कष्ट" | वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान को लेकर भी -इसी प्रकार दुःख समुदय का क्रम दिखाया गया है । व्यक्ति के उपर्युक्त पाँच १. अभिधम्म फिलॉसफी, जिल्द दूसरी, पृष्ठ १९-३१ २. इध गहपति, अस्सुतवा पृथुज्जनो अरियानं अदस्सावी रूपं अत्ततो समनुपस्सति रूपवन्तं वा अत्तानं, अत्तनि वा रूपं, रूपस्मिं वा अत्तानं । अहं रूपं मम रूपं ति परियुट्ठट्ठायी होति । तस्स अहं रूपं मम रूपं ति परियुट्ठट्ठतो तं रूपं परिणमति अञ्ञ्ञथा होति, तस्स रूपविपरिणामञ्ञथाभावा उत्पज्जन्ति सोक- परिदेव - दुक्ख दोमनस्सूपायासा । अभिधम्म फिलॉसफी, जिल्द दूसरी, पृष्ठ २० में उद्धृत । Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४८ ) स्कन्धों में विश्लेषण के अतिरिक्त अन्य प्रकार के विश्लेषण भी सुत्तन्त में किये गये हैं। उनमें दो मुख्य हैं। पहले व्यक्ति के साथ बाह्य संसार के संबंध की व्याख्या करने के लिए १२ आयतनों का विवेचन किया गया है, जो इस प्रकार है:-- १. चक्ष (चक्ख) ४. जिह्वा ७. रूप १०. रस २. श्रोत्र (सोत) ५. काय ८. गब्द (सह) ११. स्पृष्टव्या (फोटटब्ब) ३. घ्राण (घाण) ६. मन . गन्ध १२. धम्म __ इनमें व्यक्ति (द्रष्टा) का विश्लेषण प्रथम छ: आयतनों के रूप में किया गया है, जो आध्यात्मिक आयतन (अज्झतिक आयतन) कहलाते है। वाह्य संसार (दृश्य) का विश्लेषण बाद के छ: आयतनों के रूप में किया गया है, जो बायआयतन (वाहिर आयतन) कहलाते है । इष्टा और दृश्य के संबंध और उनके उपादान में उत्पन्न होने वाली चेतना को ध्यान में रखकर आन्तरिक और बाह्य संसार का १८ धातुओं में भी विश्लेषण किया गया है, जो इस प्रकार है-- १. चक्षु (चक्खु) ७. रूप १३. चक्षु-विज्ञान (चक्व-विाण) २. श्रोत्र (सोत) ८. गब्द (मद्द) १४. श्रोत्र-विज्ञान (सोत-विज्ञआण) ३. घ्राण (घाण) ९. गन्ध १५. घ्राण-विज्ञान (घाण- विआण) ४. जिह्वा १०. रस १६. जिह्वा-विज्ञान (जिह्वा- विआण) ५. काय ११. स्पृष्टव्य १७. काय-विज्ञान (काय-विाण) (फोट्ठब्ब) ६. मन १२. धर्म (धम्म) १८. मनो-विज्ञान (मनो- विआण) उपर्यक्त तीनों प्रकार के विश्लेषण मुत्त-पिटक में सामान्यतया मिलते है। संयुत्त-निकाय में पूरे संयुत्तों के नाम इनके विवेचन के आधार पर ही रक्खे गये हैं, जैसे खन्ध-संयुत्त, आयतन-संयुन, धातु-मंयत्त । स्कन्ध आयतन और धातुओं का उपदेश भगवान् बुद्ध का मल उपदेश था, इसका सर्वोत्तम १. देखिये विशेषतः आयतन-संयुत्त (संयुत्त-निकाय) २. देखिये विशेषतः धातु-संयुत्त (संयुत्त-निकाय) Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४९ ) • साक्ष्य हम बुद्धकालीन भिक्षुणियों के इबलगातार उद्गारों में पाते हैं, जिनमें वे अपनी उपदेश करने वाली वहिनों से इस संबंधी उपदेश को पाकर कृतज्ञतापूर्वक · स्मरण करती हैं “सा मे धम्ममदेसेसि खन्धायतनधातुयो” १ ( उसने मुझे स्कन्ध, आयतन और धातुओं का उपदेश दिया ) । इस प्रकार सुत्तन्त में स्कन्ध, आयतन और धातुओं का उपदेश मिलता है, किन्तु वहाँ इसका उद्देश्य केवल अनात्मवाद का उपदेश देना है, अलग-अलग सबका विश्लेषण करना नहीं । यह काम अभिधम्म में किया गया है । अभिधम्म में, जैसा हम उसकी विषय-वस्तु का - विश्लेषण करते समय अभी देखेंगे, रूप-स्कन्ध का २८ अंगों में विश्लेषण किया गया है, इसी प्रकार वेदना स्कन्ध का पाँच, संस्कार-स्कन्ध का ५० और विज्ञान · स्कन्ध का ८९ अंगों में विश्लेषण किया गया है । इन सबका आधार जैसा 1. हम पहले कह चुके है, सुत्त-पिटक ही है । उदाहरणतः, रूप का विश्लेषण सुतन्त में केवल दो भागों में किया गया है, “भिक्षुओ ! क्या है रूप ? चार - महाभूत ओर चार महाभूतों के उपादान से उत्पन्न हुआ रूप, भिक्षुओ ! यही कहलाता है रूप ।२ रूप के इस द्विविध विभाग पर ही अभिधम्म का - मारा रूप-विश्लेषण निर्भर है । इसी प्रकार वेदना-स्कन्ध का ५ भागों में विश्लेषण भी सुत्तन्त से ही लिया गया है, जहाँ सुख - वेदना, दु:ख वेदना सौमनस्य, दौर्मनस्य, और उपेक्षा का स्पष्टतः उल्लेख है । इसी प्रकार अभिधम्म के विज्ञान-स्कन्ध के १२१ विभागों में से अनेक मुत्तन्त में मिलते हैं और उनके आधार पर ही दूसरे अधिक सूक्ष्म विश्लेषण कर लिये गये है । सारांश यह fe अभिधम्म के विश्लेषण मुत्तन्त पर ही आधारित है । - शैली अभिधम्म का आधार मुत्तन्त होने पर भी उसकी शैली में विभिन्नता है । सुनन्त में उदाहरण दे देकर, अनेक पर्यायों से और अनेक उपमाओं में, धम्म को १. थेरीगाथा, गाथाएँ ४३ एवं ६९ ( बम्बई विश्वविद्यालय का संस्करण) २. " कतमं च भिक्खवे रूपं ? चत्तारो च महाभूता चतुनं च महाभूतानं उपादाय रूपं, इदं वृच्चति भिक्खवे रूपं" संयुत्त निकाय, अभिधम्म-फिलॉसफी, जिल्द दूसरी, पृष्ठ २३ में उद्धृत ३. देखिये अभिधम्म फिलॉसफी, जिल्द दूसरी, पृष्ठ २५ ४. अभिधम्म फिलॉसफी, जिल्द दूसरी, पृष्ठ २७-३१ Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५० ) समझाया गया है। किन्तु अभिधम्म 'निप्परियाय देसना' है, अर्थात् वहाँ बिना उपमाएँ और उदाहरण दिये हुए धम्म को समझाया गया है। इसका कारण यह है कि अभिधम्म का प्रणयन साधारण जनता के लिए नहीं हुआ है । वह देव-मनुष्यों के लिए उपदेश किया हुआ बुद्ध-वचन है । त्रायस्त्रिश-लोक में अभिधम्म के उपदेश करने संबंधी गाथा का यही मानवीय रहस्य है। अभिधम्म-पिटक में साधारण जन-समाज की भाषा का प्रयोग नहीं किया गया है । वह अज्ञान पर आश्रित है । 'वृक्ष' 'मनुष्य' 'पशु' की वास्तविक सत्ता कहाँ हैं ? फिर भी हम व्यवहार में इस प्रकार के प्रयोग करते हैं । इसी को पालि-बौद्ध धर्म में सम्मति सच्च (संवृति सत्य) कहा गया है। सुत्त-पिटक इसी भाषा में लिखा गया है । यहां यह कहना अप्रासंगिक नहीं होगा कि बौद्धों ने जिसे 'सम्मति सच्च' कहा है, वही शंकर का व्यवहार-सत्य है, जिसे उन्होंने 'अविद्यावद्विषय' कहा है । इसके विपरीत ‘परमार्थ-सत्य' (पालि परमत्थ-सच्च) है, जहाँ माता माता नहीं है, पिता पिता नहीं है, मनुष्य मनुष्य नही है। इसी भाषा में अभिधम्म लिखा हुआ है। अतः उसमें वह प्राण-प्रतिष्ठा नहीं है, जो मुत्तन्त में है। एक में जीवन चारों ओर हिलोरें ले रहा है, दूसरे में वह सर्वथा अनुपस्थित है। अभिधम्म-पिटक की शैली की एक बड़ी विशेषता उसकी परिप्रश्नात्मक (पञ्हपरिपुच्छक) प्रणाली है प्रश्न और उत्तर के रूप में विषय को समझाया गया है। तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया'---इसका बड़ा अच्छा निर्वाह सत्त-पिटक और अभिधम्म-पिटक दोनों में ही दिखाया गया है। 'परिप्रश्न' की बात तो अभिधम्म ने अपने आप पूरी कर दी है, वह हमसे 'प्रणिपात' और 'मेवा' की भी पूरी अपक्षा रखता है । 'अट्ठसालिनी' की 'निदान-कथा' में आचार्य बद्धघोष ने एक मार्मिक प्रश्न किया है, “अभिधम्म का उदय किस स्रोत से हुआ है" ? उत्तर दिया है, "श्रद्धा से !" श्रद्धा के साथ हम अभिधम्म की लम्बो सेवा करें (जैसी वर्तमान समय में आचार्य धर्मानन्द कोसम्बो ने को) तो उसमे हम बहुत कुछ पा सकते हैं। उसके बिना तो हम कुछ ग्रोपीय विद्वानों की तरह मिर्फ उकता हो जायेंगे और कहेंगे कि यहाँ गम्भीर दर्शन कुछ नहीं १. देखिये 'अभिवम्मत्थ संगह' पर उनकी स्वरचित 'नवनीत टीका' का प्राक्कथन (महाबोधि सभा १९४१); देखिये धर्मदूत, सितम्बर ४८ में डा० बापट का "आचार्य धर्मानन्द कोसम्बो शीर्षक लेख भी (पष्ठ ८९-९५) Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५१ ) है ।' श्रीमती रायस डेविड्स २, ज्ञानातिलोक 3, घम्मानन्द कोसम्बी ४ और भिक्षु जगदीश काश्यप ५ की प्रणाली पर यदि अभिधम्म के अध्ययन को विकसित किया जाय तो उससे बौद्ध नैतिक मनोविज्ञान का मार्ग हमारे लिए अधिक प्रशस्त हो सकता है और हम अभिधम्म को उसकी वास्तविक विभूति में देख सकते हैं । अभिधम्मपिटक की उद्देस ( संक्षिप्त कथन ) के बाद निस ( विस्तृत विवेचन ) की वर्णन-प्रणाली, पर्यायवाची शब्दों और परिभाषाओं की अधिकता आदि प्रवृत्तियों के विषय में हम पहले कह ही चुके हैं । महत्त्व अभिधम्मपिटक के महत्व पर हमें दो दृष्टियों से विचार करना है, (१) स्थविरवाद परम्परा की दृष्टि से (२) अन्य बौद्ध संप्रदायों की दृष्टि से । जहाँ तक स्थविरवाद परम्परा का संबंध है, अभिधम्मपिटक को आरंभ से ही सुत्त-पिटक और विनय-पिटक के समान बुद्ध-वचन माना जाता है, यह हम पहले दिखा चुके है । बरमा में अभिधम्मपिटक का कितना अधिक आदर हैं, यह तत्संबंधी उस विस्तृत अध्ययन से ही स्पष्ट होता है जो उस देश में किया गया है । आठवें अध्याय में हम इस अध्ययन का विवेचन करेंगे । सिंहल भी अभिधम्म की पूजा में बरमा से पीछे नहीं रहा है । 'महावंश' में हम बार-बार पढ़ते हैं कि किस प्रकार विद्वान् सिंहली राजाओं ने अभिधम्म का आदरपूर्वक श्रवण किया और कुछ ने स्वयं उसका उपदेश भी किया । काश्यप प्रथम (९२९ ईसवी) ने तो संपूर्ण अभिधम्म को सोने के पत्रों पर खुदवाया और विशेषतः 'धम्मसंगणि' को बहुमूल्य रत्नों से मंडित किया । इसी प्रकार ग्यारहवीं शताब्दी में लंका का राजा विजयबाहु १. जैसा विटरनित्ज ने कह डाला है, देखिये उनकी हिस्ट्री आव इंडियन लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ १६५-६६ । २. ए बुद्धिस्ट मेनुअल ऑव साइकोलोजीकल एथिक्स ( धम्मसंगणि का अनुवाद) की मननशील लेखिका । ३. गाइड दि अभिधम्मपिटक के लेखक और प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान् और साधक । 2 ४. विदेश में जाकर अनेक कठिनाइयों के उपरान्त अभिधम्म का अध्ययन करने वाले प्रथम भारतीय विद्वान् । ५. अभिधम्म - फिलॉसफी (जिल्द १, २) के लेखक, मनस्वी बौद्ध दार्शनिक और साधक ।. Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५२ ) अभिधम्म का बड़ा मननशील अध्येता था और उसने 'धम्मसंगणि' का सिंहली भाषा में अनुवाद भी किया। अतः स्थविरवाद परम्परा में अभिधम्म-पिटक का सदा से बहुत सम्मान रहा है । स्थविरवाद-परम्परा से भिन्न बौद्ध संप्रदायों में अभिधम्म-पिटक को उतना प्रामाणिक बद्ध-वचन नहीं माना गया है। हम जानते है कि स्वयं उत्तरकालीन होनयानी संप्रदाय में सौत्रान्तिक नाम का एक वर्ग था जो अभिधम्म पिटक को प्रामाणिक नहीं मानता था। उसके लिए केवल मन-पिटक ही प्रामाणिक बुवचन था। इतना ही नहीं, अत्यंत पूर्वकाल में ही हम स्थविरवादियों के अन्दर ही भिक्षुओं के एक ऐने वर्ग की सचना पाते हैं जो अभिधम्म-पिटक की प्रामाणिकता को नहीं मानता था और केवल मन. पिटक में ही अधिक विश्वास करता था। ' असालिनी' में दो भिओं का संलाप दिया हुआ है, जिससे यह बात स्पष्ट होती है-- “भन्ते ! आप ऐसी लम्बी पंक्ति को उद्धृत कर रहे है, जैसे कि मानों आप सुमेरु को ही परिवेष्टित करना चाहते हों। भन्ते ! यह किमकी पंक्ति है ?" “आवस ! यह अभिधम्म की पंक्ति है ।" "भन्ते ! आप अभिधम्म की पंक्ति का क्यों उद्धरण देते हैं ? क्या आपको यह उचित नहीं कि आप बुद्ध द्वारा उपदिष्ट किन्हीं दूसरी पंक्तियों का उद्धरण दें।" "आवस ! अभिधम्म का उपदेश किसका है ?" "निश्चय ही बद्ध का नहीं है ।" "पर आवम ! क्या तुमने विनय-पिटक को पढ़ा है ?" "नहीं भन्ले । मैने उसे नहीं पढ़ा है ।" आदि, आदि पुनः 'दीपवंम' के वर्णन में ही हम देखते हैं कि वैशाली की संगीति के अवसर पर ही 'महासंगीतिक' भिक्षुओं ने अन्य ग्रन्थों के साथ अभिधम्म-पिटक की भी प्रमाणवत्ता स्वीकार नहीं की थी। इससे हमारा संदेह अभिधम्म-पिटक की प्रमाणवत्ता के विषय में अवश्य बढ़ जाता है । काल-क्रम और महत्ता में अवश्य अभिधम्मपिटक को मन और विनय पिटक के बाद मानना पड़ेगा, इसे प्राय: सभी निष्पक्ष बौद्ध विद्वान आज भी स्वीकार करते हैं । किन्तु चंकि अभिधम्म-पिटक का अर्वाचीनतम ग्रन्थ (कथावत्थु) भी ईसवी पूर्व तृतीय शताब्दी की रचना है और उसके अलावा अन्य किसी ग्रन्थ के साथ किसी रचयिता का नाम जोड़ा नही गया है, १. दोपवंस ५।३५-३७ (ओल्डनबर्ग का संस्करण) Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५३ ) अतः अर्थवाद की दृष्टि से उसे बुद्धवचन भी कहा जा सकता है, इतना अवकाश हमें स्थविरवाद-परम्परा को भी अवश्य देना ही होगा। अन्तत: अभिधम्म-पिटक मुत्त-पिटक पर ही तो अवलंबित है । पालि अभिधम्म-पिटक की सर्वास्तिवाद सम्प्रदाय के अभिधर्म-पिटक से तुलना म्थविग्वादियों और सर्वास्तिवादियों के दो पिटकों-सुत्त और विनय-की तुलना हम पहले कर चुके हैं। सर्वास्तिवादी संप्रदाय के अभिधर्म पिटक के ग्रन्थ चीनी भाषा में सरचित हैं। उनके मुल संस्कृत में थे, किन्तु आज वे प्राप्य नहीं। म्थविन्वादियों के समान सर्वास्तिवादियों का भी यह दावा है कि उनका अभिधर्म पिटक बुद्ध-वचनों (सूत्र-पिटक) पर आधारित है। किन्तु जब कि स्थविरवादी (कथा-वत्थु को छोड़कर) अभिधम्म के ग्रन्थों को मनुष्यों की रचनाएं नहीं मानते. सर्वास्तिवादियों की परम्परा में उनका अभिधर्म-पिटक विशिष्ट विचारों की रचना माना जाता है। चीनी भाषा में सर्वास्तिवादियों के अभिधर्म-पिटक का नाम 'शास्त्र-संग्रह है। स्थविरवादी अभिधम्म पिटक के समान मर्वास्तिवादियों के अभिधर्म-पिटक में भी मात ग्रन्थ है, जिनके नाम उनके रचयिताओं के साथ. इस प्रकार है-- सर्वास्तिवादी संप्रदाय के अभिधर्म उनके रचयिता पिटक के ग्रन्यों के नाम १. ज्ञान-प्रस्थान-शास्त्र आर्य कात्यायन २. प्रकरण-पाद स्थविर वसुमित्र ३. विज्ञान-काय-पाद स्थविर देवशर्मा ८. धर्म-स्कन्ध-पाद आर्य शारिपुत्र ५. प्रज्ञप्ति शास्त्र-पाद आर्य मौद्गल्यायन ६. धातुकाय-पाद पूर्ण (या वसुमित्र) ७. संगीनि-पर्याय-पाद महाकौष्ठिल (या गारिपुत्र) पालि अभिधम्म पिटक के साथ इनकी तुलना करने पर ज्ञात होगा कि इनके नामों में पर्याप्त साम्य है. यथा--- Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५४ ) पालि अभिधम्म-पिटक सर्वास्तिवादी अभिधर्म-पिटक १. धम्मसंगणि (४) धर्मस्कन्धपाद २. विभंग (३) विज्ञानकायपाद ३. पुग्गलपत्ति (५) प्रज्ञप्तिपाद ४. धातुकथा (६) धातुकायपाद ५. पट्ठान (१) ज्ञान-प्रस्थान ६. यमक (७) संगीतिपर्यायपाद ७. कथावत्थुप्पकरण (२) प्रकरणपाद नामों की इतनी समानता होते हुए भी विषय की समानता नहीं हैं।' फिर भी जिन विषयों का निरूपण एक पिटक में किसी ग्रन्थ में पाया जाता है दूसरे पिटक में उन्हीं का या उनके कुछ अंशों का निरूपण किसी दूसरे ग्रन्थ में पाया जाता है। चूंकि दोनों के ही अभिधर्म-पिटक अपने अपने सूत्रों पर अवलंबित हैं जिनमें, जैसा हम पहले देख चुके हैं, अधिक अन्तर नहीं है, अत: दोनों में कुछ न कूछ समानताओं का पाया जाना नितांत स्वाभाविक है । हां, उनके क्रम में अन्तर अवश्य है। सर्वास्तिवादी अभिधर्म-पिटक के ग्रन्थों की विषय-वस्तु के संक्षिप्त परिचय और पालि अभिधम्म के साथ उसकी तुलना में यह स्पष्ट होमा । पहले ज्ञान-प्रस्थान-शास्त्र को ही लें। यह सर्वास्तिवादी अभिधम्मपिटक का सबसे प्रधान ग्रंथ है। शेष छ: ग्रंथ इसी के पाद या उपग्रंथ कहलाते है। उनके साथ इसका वही संबन्ध है जो वेद का उसके छ: अंगों के साथ ।२ ज्ञानप्रस्थान-शास्त्र की रचना सर्वास्तिवाद सम्प्रदाय के प्रसिद्ध आचार्य आर्य कात्यायनीपुत्र ने की । आर्य कात्यायनीपुत्र काश्मीर के रहने वाले थे। इनका समय बुद्धपरिनिर्वाण के ३०० वर्ष बाद है। ज्ञान-प्रस्थानशास्त्र का प्रथम चीनी अनुवादकाश्मीरी भिक्षु गौतम संघदेव ने ३८३ ईसवी में किया। उसके बाद एक दुसरा अनुवाद सन् ६५७-६० ई० में यूआन्-चूआङ के द्वारा किया गया। इसी महाग्रंथ १. देखिये डा० तकाकुस का 'दि अभिधर्म लिटरेचर' शीर्षक निबन्ध, जर्नल ऑव रॉयल एशियाटिक सोसायटी, १९०५, पृष्ठ १६१ २. देखिये जर्नल ऑव पालि टैक्स्ट सोसायटी १९०४-०५, पृष्ठ ७४ में डा० तकाकुसु का अभिधर्म-साहित्य सम्बन्धी निबन्ध Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५५ ) पर कनिष्क के काल में आचार्य वसुबन्धु और अश्वघोष की अध्यक्ष में 'विभाषा' नामक एक महाभाष्य लिखा गया, जिसका अनुसरण करने के कारण वैभाषिक नामक बौद्ध सम्प्रदाय की उत्पत्ति हुई। ज्ञान-प्रस्थान शास्त्र एक बृहत् ग्रंथ है। इसमें आठ परिच्छेद हैं, जिनमें कुल मिलाकर श्लोकों की संख्या १५०७२ है। जैसा पहले कहा जा चुका है, मूल संस्कृत तो मिलता ही नहीं, इस सम्पूर्ण ग्रंथ का अभी अंग्रेजी अवाद भी नु प्रकाशित नहीं हुआ है। अत: चीनी-भाषा मे अनभिज्ञोंके लिये अभी तुलनात्मक अध्ययन का मार्ग पराश्रित ही हो सकता है। प्रो० तकाकुसु द्वारा प्रदत्त सूचना के अनुसार ज्ञान-प्रस्थान-शास्त्र के ८ परिच्छेदों के नाम और विषय इस प्रकार हैं१. प्रकीर्णक-लोकोत्तर धर्म, ज्ञान पुद्गल, अरूप, अनात्म आदि स्फुट विषय २. संयोजन-अकुशलमूल, सकृदागामी, मनुष्य, दस-द्वार आदि ३. ज्ञान-आठ क्षैक्ष्य-अक्ष्य भूमियाँ, पाँच दृष्टियाँ, पर-चित्त-जान. आर्य-प्रज्ञा आदि ४. कर्म-अकुशल कर्म, असम्यक् वाणी, विहिंसा, व्याकृत, अव्याकृत आदि ५. चार महाभूत--इन्द्रिय, संस्कृत, दृष्ट, सत्य, अध्यात्म आदि ६. इन्द्रियाँ-२२ इन्द्रियाँ, भव, स्पर्श आदि। ७. समाधि--अतीतावस्था, प्रत्यय, विमुक्ति आदि ८. स्मृत्युपस्थान--कायानुपश्यना, वेदनानुपश्यना, चित्तानुपश्यना, धर्मानुपश्यना. तृष्णा, संज्ञा, ज्ञान-समय आदि उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि ज्ञान-प्रस्थान-शास्त्र की विषय-वस्तु इतनी विस्तृत है कि उसमें पालि अभिधम्म-पिटक के कई ग्रन्थों के अंशतः विवरण उपस्थित दिखाये जा सकते है। विशेषतः खद्दक-निकाय के 'पटिसम्भिदामग्ग' से इस ग्रन्थ की विषय-वस्तु की अधिक समानता है, ऐसा मत स्वर्गीय डा० बेणीमाधव बाडआ ने प्रकाशित किया है, जो ठीक कहा जा सकता है । (२) प्रकरण-पाद स्थविर वसमित्र की रचना कही जाती है । यह वसुमित्र कनिष्क-कालीन प्रसिद्ध सर्वास्तिवादी आचार्य आर्य वसुमित्र से भिन्न और उनसे पूर्वकालीन हैं। इनका काल बुद्ध १. जर्नल ऑव पालि टैक्सट सोसायटी, १९०४-०५ पृष्ठ १२४ (डा० तकाकुसु का 'दि सर्वास्तिवादिन अभिधर्म बुक्स' शीर्षक निबन्ध) Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिनिर्वाण से ३०० वर्ष बाद माना जाता है। अत: ये आर्य कात्यायनीपूत्र के समकालीन थे, ऐसा कहा जाता है। प्रकरण-पाद में आठ वर्ग हैं, जिनमें धर्म, ज्ञान, आयतन आदि का विवेचन है। यद्यपि 'प्रकरण-पाद' के नाम का साम्य 'कथावत्थुप्पकरण' से है, किन्तु दोनों की विषय वस्तु या शैली में कोई समानता नहीं है। विषय-वस्तु की दृष्टि से डा० लाहा ने इस ग्रन्थ की तुलना 'विभंग' से की है।' किन्तु विभंग' की समानता धर्नस्कन्ध से अधिक है. यह हम अभी देखेंगे। 'प्रकरण-पाद' का पहला चीनी अनुवाद गुणभद्र तथा बुद्धयश ने ४३५-४३ ई० में किया। उसके बाद एक दूसरा अनुवाद ६५९ ई० में यआन्-चआङ के द्वारा किया गया। (३) विज्ञान-काय-पाद स्थविर देवशर्मा की रचना कही जाती है। एक परम्परा के अनुमार इस ग्रन्य की रचना बद-परिनिर्वाण के १०० वर्ष वाद और एक दूसरी परम्परा के अनुसार ३०० वर्ष बाद हुई। दूसरी परम्परा ही अधिक ठोक हो सकती है । इन ग्रन्थ में : स्कन्ध हैं, जिनमें पुद्गल, हेतु-प्रत्यय, आलम्बन-प्रत्यय आदि विषयों के विवेचन है। विषय-वस्तु अभिधम्म पिटक के 'पुग्गलपाति' और 'पट्टान' में जहाँ-तहां बहत कुछ मिलती-जुलती है, फिर भी किसी एक विशिष्ट ग्रन्थ से नमकी तुलना नहीं की जा सकती। इस ग्रन्थ का चीनी अनुवाद यूआन्-चुआङ ने ६४९ ई० में किया । (४) धर्मस्कन्धपाद सर्वास्तिवादी अभिधर्म- पिटक का जान-प्रस्थान-शास्त्र के बाद सबसे महत्वपूर्ण ग्रन्थ है । इनके कुछ अंशों को संगीतिपर्याय-पाद में भी प्रमाण-स्वरूप उद्धृत किया गया है। चीनी परम्पर" के अनुसार धर्मस्कन्ध-पाद आर्य महामौद्गल्यायन की रचनाहै। किन्तु यगोमित्र केमतानसार यह आर्य शारिपुत्र की रचना है । यह निश्चित है कि ये आर्य शारिपुत्र और महामोद्गल्यायन वट्ट के इम नाम के प्रधान शिष्य नहीं हो मकने । इस ग्रन्थ में २१ अध्याय है जिनमें चार आर्य-मत्य, समाधि, बोध्यंग, इन्द्रिय, आयतन, म्कन्ध, प्रतीत्य समत्पाद आदि का विस्तृत विवेचन किया गया है। इस ग्रन्थ का चीनी अनवाद ६५९ ई० में यूआन्-चआङ ने किया। इस ग्रन्थ की समता विषयवस्तु की दष्टि मे 'विभंग' से सर्वाधिक है, यह निष्कर्ष महास्थविर ज्ञानातिलोक ने दोनों का तुलनात्मक अध्ययन करने के बाद निकाला है ।२ विभंग में १८ अध्याय है, धर्मम्कन्ध में २१ है। इनमें १४ एक दूसरे के बिलकुल समान है। यह ममानता इस प्रकार है-- १. हिस्ट्री ऑव पालि लिटरेचर, जिल्द पहली, पृष्ठ ३४० २. गाइड शू दि अभिधम्म-पिटक, पृष्ठ २ (भूमिका) Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५७ ) विभंग-१ २ ३ ४ ५ ६ ७ ८९ १० १११२ १३ १४१५१६१७१८ धर्मस्कन्ध-~१९,१८,२०,१०,१७,२१,९,७,८,१५, - ११,१२, १ - - १६ - खाली छोड़ी हुई जगहों का तात्पर्य यह है कि विभंग के ११, १५, १६, और १८ वें अध्याय (विभंग) धर्मस्कन्ध में नहीं मिलते ।। (५) प्रज्ञप्तिपाद या प्रज्ञप्ति-शास्त्र आर्य मौद्गल्यायन की रचना कही जाती है, जो निश्चयतः इस नाम के युद्ध के शिष्य नहीं हो सकते । प्रज्ञप्ति-पाद का चीनी अनुवाद धर्मरक्ष ने ग्यारहवीं शताब्दी में किया। इस ग्रन्थ का चीनी अनुवाद युआन-चुआङ् ने नहीं किया, इसलिये इसकी प्राचीनता में सन्देह किया जाता है । इस ग्रन्थ का तिब्बती अनुवाद भी उपलब्ध है। इसमें १४ वर्ग है । 'प्रज्ञप्ति-पाद' का पालि 'पुग्गलपजत्ति' से केवल नाम का ही साम्य है। विषय में कोई समानता नहीं है । इस ग्रन्थ की कुछ समानता दीघ-निकाय के लक्खण-स्त्त से दिखाई गई है। (६) धातुकाय-पाद चीनी परम्परा के अनुसार कनिष्क के समकालीन प्रसिद्ध सर्वास्तिवादी आचार्य वसुमित्र की रचना बतलाई जाती है । किन्तु यगोमित्र (अभिधर्मकोश के व्याख्याकार) ने इस ग्रन्थ के रचयिता का नाम पूर्ण लिखा है। यशोमित्र का मत ही अधिक प्रामाणिक माना जाता है । इस ग्रन्थ का भी चीनी अनुवाद यूआन्-चूआङ्ने ६६३ ई० में किया। इस ग्रन्थ की पालि 'धातुकथा' से कोई समानता नहीं है। हाँ, संयुत्तनिकाय के धातु-संयुत्त मे इसको विषय-वस्तु बहुत कुछ मिलती-जुलतीहै । (७) संगीति-पर्याय-पाद के रचयिता चीनी परम्परा के अनुसार आर्य शारिपुत्र और यशोमित्र के वर्णनानुसार प्रसिद्ध सर्वास्तिवादी आचार्य महाकौष्ठिल थे। यूआन्-चूआङ ने इस ग्रन्थ का चीनी अनुवाद सातवी शताब्दी के मध्य भाग में किया था। प्रोफेसरं तकाकुस ने इस ग्रन्थ के विषय और शैली की समानता सब से अधिक दीघ-निकाय के संगीति-परियायमत्त से दिखाई है। इस ग्रन्थ में १२ वर्ग हैं। इसका भी अनुवाद यूआन-चआङ के द्वारा किया गया । सर्वास्तिवादी सम्प्रदाय के अभिधर्म-पिटक के उपर्युक्त विवेचन मे स्पष्ट है कि यद्यपि उसमें प्राचीन परम्पराएँ निहित है और पालि अभिवम्म-पिटक के कई अंशों से उसको आश्चर्यजनक समानताएँ भी हैं, फिर भी सुत्त और विनय की अपेक्षा यहाँ समानताएँ कम है । इसका एक प्रधान कारण लम्बी परम्पराओं का एक देश से दूसरे देश में जाना और भाषा-माध्यमों की १. गाइड शू दि अभिधम्म पिटक, पृष्ठ २ (भूमिका) २. जर्नल ऑव पालि टैक्सट सोसायटी, १९०४-०५ , पृष्ठ ९९ Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५८ ) अनिवार्य कठिनताएँ हैं। जब तक मूल संस्कृत उपलब्ध न हो तब तक बिना उसके स्वरूप पर विचार किए पालि अभिधम्म के साथ उसके आपेक्षिक महत्त्व और प्रामाण्य के विषय में कुछ नहीं कहा जा सकता। किन्तु हमारे वर्तमान ज्ञान की अवस्था में पालि अभिधम्म के सामने उसकी प्रमाणवत्ता अल्प अवश्य रह जाती है। वह स्पष्टतः आचार्यों की रचना है, जब कि केवल 'कथावत्थुप्पकरण' को छोड़कर शेष पालि अभिधम्म-पिटक बुद्ध-वचन के रूप में ही स्थविरवाद-परम्परा में प्रतिष्ठित है। हाँ, सर्वास्तिवादी अभिधर्म-पिटक की तुलना से यह बात अवश्य स्पष्ट हो जाती है कि सुत्त और विनय की अपेक्षा पालि अभिधम्म की प्रमाणवत्ता निश्चयतः कम और संकलन-काल भी उतनी ही निश्चिततापूर्वक कुछ बाद का है, जिसका विवेचन हम पहले कर आये है। अभिधम्म-पिटक के ग्रन्थों की विषय-वस्तु का संक्षिप्त विश्लेषणधम्म संगणि' पालि अभिधम्म-पिटक का सब से प्रथम और सर्वाधिक महत्वपूर्ण ग्रन्थ 'धम्मसंगणि' है । वास्तव में यह सम्पूर्ण अभिधम्म-साहित्य की प्रतिष्ठा ही है। 'धम्मसंगणि' में मानसिक और भौतिक जगत् की अवस्थाओं का संकलन किया गया है, गणनात्मक और परिप्रश्नात्मक शैली के आधार पर । धम्मों (पदार्थों) की कामावचर, रूपावचर आदि के रूप में संगणना और संक्षिप्त व्याख्या करने के कारण ही इस ग्रन्थ का यह नाम है। 3 'धम्मसंगणि' के संकलन और विश्ले १. नागरी लिपि में प्रोफेसर बापट ने इस ग्रन्थ का सम्पादन किया है (भांडार कर ओरियन्टल सीरीज, पूना ४); रोमन लिपि में पालि टेक्स्ट सोसायटी द्वारा प्रकाशित (लन्दन, १८८५), एडवर्ड मुलर द्वारा सम्पादित, संस्करण प्रसिद्ध है। इस ग्रन्थ के बरमी, सिंहली और स्यामी संस्करण भी उपलब्ध हैं। अंग्रेजी में श्रीमती रायस डेविड्स ने 'ए बुद्धिस्ट मेनुअल ऑव साइकोलोजीकल एथिक्स' (लन्दन, १९००) शीर्षक से इस ग्रन्थ का अनुवाद किया है। हिन्दी में अभी तक इस ग्रन्थ का कोई अनुवाद नहीं निकला है। २. 'संगणि' शब्द में ही यह भाव निहित है, देखिये प्रो. बापट द्वारा सम्पादित 'धम्म-संगणि' का देवनागरी-संस्करण, पृष्ठ १२ (भूमिका) ३ कामावचररूपावचरादिधम्मे संगह्य संखिपित्वा वा गणयति संख्याति Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५९ ) षण की सब से बड़ी विशेषता है भीतर और बाहर के सारे जगत् की नैतिक व्याख्या। नैतिक व्याख्या से तात्पर्य है कर्म के शुभ (कुशल) अशुभ (अकुशल) और इन दोनों से व्यतिरिक्त एवं अ-व्याख्येय (अव्याकृत) विपाकों के रूप में व्याख्या । ग्रन्थ के मुख्य भाग में चित्त और उससे संयुक्त अवस्थाओं (चेतसिक) का कुशल, अकुशल और अव्याकृत के रूप में विश्लेषण किया गया है । अतः इसे बौद्ध मनोविज्ञान की नैतिक व्याख्या ही कहा जा सकता है, या दूसरे शब्दों में बौद्ध नीतिवाद की मनोवैज्ञानिक व्याख्या भी। ग्रन्थकार (या संकलनकार) ने दोनों के लिये ही पर्याप्त अवकाश दे दिया है । धम्मसंगणि के आरम्भ में 'मातिका' या विषय-सूची दी हुई है। उसमें नैतिकवाद की दृष्टि से वर्गीकरण है, किन्तु ग्रन्थ में जो विवेचन किया गया है, उसका काण्ड-विभाग चित्त और रूप की दृष्टि से है और फिर उसे 'कुसलत्तिक', (कुशल, अकुशल, अव्याकृत) के रूप में विभाजित किया गया है । वास्तव में 'धम्मसंगणि' ने मन की अवस्थाओं की कर्म के शुभ, अशुभ आदि स्वरूपों के साथ व्याख्या करनी चाही है, जो एक दूसरे मे घनिष्ठ और अनिरुक्त रूप से सम्बन्धित है । इसीलिये 'धम्मसंगणि' के विवेचनों में इतनी दुरूहता आ गई है। फिर भी धम्मसंगणि की 'मातिका' उसकी सारी दुरूह विषय-वस्तु को समझने के लिये एक अच्छी कुंजी है । भौतिक और मानसिक जगत् की व्याख्या धम्मसंगणि में जिस ढंग से की गई है, उसका वह हमें पूरा दिग्दर्शन करा देती है । वह एक प्रकार की विषय-सूची है, जो उन शीर्षकों का उल्लेख कर देती है जिनमें भौतिक और मानसिक जगत् के नाना, पदार्थों (धम्मों) का विश्लेषण सम्पूर्ण ग्रन्थ के अन्दर किया गया है । 'मातिका' में कुल मिलाकर १२२ वर्गीकरण हैं, जिनमें २२ ऐसे वर्गीकरण हैं जो तीन-तीन शीर्षकों में विभक्त हैं। ये 'तिक' कहलाते हैं। शेष १०० ऐसे वर्गीकरण हैं जो दो-दो शीर्षकों में विभक्त है । ये 'दुक' कहलाते हैं । २२ 'तिकों' और १०० 'दुकों' में ही सारे धम्मों का विश्लेषण 'धम्ममंगणि' में किया गया है अभिधम्म-पिटक के अन्य ग्रन्थों में भी इस वर्गीकरण-प्रणाली का पर्याप्त आश्रय लिया गया है। यहाँ 'मातिका' के अनुसार इन 'तिकों' और 'दुकों' का विवरण देना अत्यन्त महत्वपूर्ण होगा। इनकी गणना इस प्रकार है-- एथाति धम्मसंगणि । अठ्ठसालिनी (धम्मसंगणि की अटठकथा); मिलाइये चाइल्डर्स : पालि डिपशनरी, पृष्ठ ४४७ Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६० ) २२ तिक ( कुसला ) १. अ. जो धम्म कुशल हैं आ. जो धम्म कुशल नहीं हैं ( अकुसला ) इ. जो धम्म अव्याकृत हैं ( अव्याकता ) २. अ. जो धम्म सुख की वेदना से युक्त हैं ( सुखाय वेदनाय सम्पयुत्ता ) आ. जो धम्म दुःख की वेदना से युक्त हैं ( दुक्खाय वेदनाय सम्पयुत्ता ) जो धम्म न सुख न दुःख की वेदना से युक्त हैं ( अदुक्खमसुखाय वेदनाय सम्पयुक्त्ता ) इ. ३. अ. जो धम्म चित्त की कुशल या अकुशल अवस्थाओं के स्वयं परिणाम हैं ( विपाका ) आ. जो धम्म स्वयं चित्त की कुशल या अकुशल अवस्थाओं के परिणामों को पैदा करने वाले हैं (विपाकधम्मधम्मा ) इ. जो धम्म न किसी के स्वयं परिणाम हैं और न परिणाम पैदा करने वाले हैं (नेव-विपाक-न- विपाक-धम्मधम्मा) ४. अ. जो धम्म पूर्व कर्म के परिणाम स्वरूप प्राप्त किये गये हैं और जो स्वयं भविष्य में ऐसे ही धम्मों को पैदा करने वाले हैं (उपादिन्नुपादानिया ) आ. जो धम्म पूर्व कर्म के परिणाम स्वरूप तो प्राप्त नहीं किये गये हैं किन्तु जो भविष्य में धम्मों को पैदा करने वाले हैं (अनुपादिन्नुपादानिया ) इ. जो धम्म न तो पूर्व कर्म के परिणाम स्वरूप प्राप्त ही किये गये हैं और न जो भविष्य में धम्मों को पैदा करने वाले हैं (अनुपादिन्नानुपादानिया ) ५. अ. जो धम्म स्वयं अपवित्र हैं और अपवित्रता के आलम्बन भी बनते हैं आ. जो धम्म स्वयं अपवित्र नहीं हैं किंतु अपवित्रता के आलम्बन बनते हैं इ. जो धम्म न स्वयं अपवित्र हैं और न अपवित्रता के आलम्बन ही बनते हैं ६. अ. जो धम्म वितर्क और विचार से ( संकिलिट्ठ-संकिलेसिका ) (असंकिलिट्ठ-संकिलेसिका ) (असंकिलिट्ठ-असं किलेसिका ) युक्त हैं ( सवितक्क-सविचारा ) Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ. जो धम्म वितर्क से तो नहीं किन्तु - विचार से युक्त हैं (अवितक्क-विचारमत्ता) इ. जो धम्म न वितर्क और न विचार से ही युक्त हैं (अवितक्क-अविचारा) अ. जो धम्म प्रीति की भावना से युक्त हैं (पीतिसहगता) आ. जो धम्म सुख की भावना से युक्त हैं (सुखसहगता) इ. जो धम्म उपेक्षा की भावना से युक्त हैं (उपेक्खामहगता) ८. अ. दर्शन के द्वारा जिनका नाश किया जा सकता है (दस्सनेन पहातब्बा) आ. अभ्यास के द्वारा जिनका नाश किया जा सकता है (भावनाय पहातब्बा) इ. जो न दर्शन और न अभ्यास से ही नष्ट किये जा सकते हैं (नेव दम्सनन न भावनाय पहातब्बा) ९. अ. वे धम्म जिनके हेतु का विनाश दर्शन से किया जा सकता है (दस्सनेन पहातब्बहेतुका) आ. वे धम्म जिनके हेतु का विनाश अभ्यास से किया जा सकता है (भावनाय पहातब्बहेतुका) इ. वे धम्म जिनके हेतु का विनाश न दर्शन से ___ और न अभ्यास से ही किया जा सकता है __(नेव दस्सनेन न भावनाय पहातब्बहेतुका) १०. अ. वे धम्म जो कर्म-संचय के कारण बनते है (आचयगामिनो) आ. वे धम्म जो कर्म-संचय के विनाश के कारण बनते हैं (अपचयगामिनो) इ. वे धम्म जो न कर्म-संचय और न उसके विनाश के कारण बनते हैं (नेव आचयगामिनो न अपचयगामिनो) ११. अ. वे धम्म जो शैक्ष्य सम्बन्धी है (सेक्खा ) (लोकोत्तर मार्ग की सात अवस्थाएँ) आ. वे धम्म जो शैक्ष्य सम्बन्धी नहीं है, अर्थात् जिन्होंने __अर्हत्व की पूर्णता प्राप्त करली है (अर्हत्व-फल) (असेक्खा) इ. वे धम्म जो उपर्युक्त दोनों प्रकारों से विभिन्न हैं (अर्थात् उपर्युक्त आठ को छोड़कर बाकी सब) (नेव सेक्खा न असेक्खा) १२. अ. वे धम्म जो अल्प आकार वाले हैं (परित्ता) Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६२ ) आ. वे धम्म जो महान् आकार वाले हैं (महग्गता) इ. वे धम्म जो अपरिमेय आकार वाले हैं (अप्पमाणा) १३. अ. वे धम्म (मन की अवस्थाएँ) जिनका आ- (परित्तारम्मणा) लम्बन अल्प आकार वाला है आ. वे धम्म (मन की अवस्थाएँ जिनका आल- (महग्गतारम्मणा) म्बन महान् आकार वाला है इ. वे धम्म (मन की अवस्थाएँ) जिनका आल- (अप्पमाणारम्मणा) म्बन अपरिमेय आकारवाला है १४. अ. हीन धम्म (मन की अवस्थाएँ) (हीना) आ. मध्यम धम्म (मन की अवस्थाएँ) (मज्झिमा) इ. उत्तम धम्म (मन की अवस्थाएँ) (पणीता) १५. अ. जो निश्चयपूर्वक बुरे हैं (मिच्छत्तनियता) आ. जो निश्चयपूर्वक अच्छे हैं (सम्मत्तनियता) ___इ. जिनका स्वरूप अनिश्चित है (अनियता) १६. अ. वे धम्म (मन की अवस्थाएँ) जिनका (मग्गारम्मणा) आलम्बन मार्ग है आ. वे धम्म (मन की अवस्थाएँ) जिनका हेतु (मग्गहेतुका) मार्ग है इ. वे धम्म (मन की अवस्थाएँ) जिनका मुख्य उद्देश्य ही मार्ग है (मग्गाधिपतिनो) १७. अ. वे मन की अवस्थाएँ जो उत्पन्न हो चुकी हैं (उप्पन्ना) ____ आ. वे मन की अवस्थाएँ जो अभी उत्पन्न नहीं (अनुप्पन्ना) इ. वे मन की अवस्थाएं जो भविष्य में पैदा होनेवाली हैं (उप्पादिनो) २८. अ. वे मन की अवस्थाएं जो वीत गई (अतीता) आ. वे मन की अवस्थाएं जो भविष्य में पैदा (अनागता) होंगी इ. वे मन की अवस्थाएँ जो अभी हाल पैदा हुई हैं और अभी वर्तमान हैं (पच्चुप्पन्ना) Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६३ ११. अ. वे मन की अवस्थाएँ जिनका आलम्बन कोई ___अतीत की वस्तु है (अतीतारम्मणा) आ. वे मन की अवस्थाएँ जिनका आलम्बन ___कोई भविष्य की वस्तु है (अनागतारम्मणा) इ. वे मन की अवस्थाएँ जिनका आलम्बन कोई वर्तमान की वस्तु है (पच्चुपनारम्मणा) २०. अ. जो धम्म किसी व्यक्ति के अन्दर अवस्थित (अज्झत्ता) आ. जो धम्म किसी व्यक्ति के बाहर अवस्थित (बहिद्धा) इ. जो धम्म किसी व्यक्ति के अन्दर और बाहर दोनों जगह अवस्थित है (अज्झत्त-बहिद्धा) २१. अ. वे धम्म (मन की अवस्थाएँ) जिनका आलम्बन कोई आन्तरिक वस्तु है (अज्झत्तारम्मणा) आ. वे धम्म (मन की अवस्थाएँ) जिनका आलम्बन कोई बाहरी वस्तु है । (बहिद्धारम्मणा) इ. वे धम्म (मन की अवस्थाएँ) जिनका आलम्बन दोनोंआन्तरिक और बाहरी वस्तुऍहै (अज्झत्न-बहिद्धारम्मणा) २. अ. वे धम्म जो दृश्य हैं और इन्द्रिय और उसके (सनिस्सनविषय के संनिकर्ष से उत्पन्न होने वाले हैं सप्पटिघा) आ. वे धम्म जो दृश्य तो नहीं किन्तु इन्द्रिय और उसके (अनिद्दसन-अप्पसंनिकर्ष मे उत्पन्न होने वाले हैं टिघा) इ. वे धम्म जो न तो दृश्य हैं औ न इन्द्रिय (अनिद्दसन-अप्पऔर उसके विषय के संनिकर्ष से उत्पन्न टिधा) होने वाले हैं १०० दुक (हेतु-वर्ग) १. अ. जो दूसरों के हेतु हैं--(हेतू) आ. जो दूसरों के हेतु नहीं है--(न हेतू) Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६४ ) २. अ. जो हेतुओं से युक्त हैं -- ( सहेतुका ) आ. जो हेतुओं से युक्त नहीं हैं -- ( अहेतुका ) ३. अ. जिनमे हेतु संलग्न हैं -- ( हेतुसम्पयुत्ता) आ. जिनमे हेतु संलग्न नहीं हैं -- ( हेतुविप्पयुक्त्ता ) ४. अ. जो स्वयं हेतु हैं और हेतुओं से युक्त भी हैं -- ( हेतू चेव सहेतुका च), आ. जो स्वयं हेतु नहीं हैं किंतु हेतुओं से युक्त है --- ( सहेतुका चेव न च हेतु) अ. जो स्वयं हेतु है और जिनसे हेतु संलग्न भी है-- ( हेतू चेव हेतुसम्पयुक्त्ता च ) आ. जो स्वयं हेतु नहीं हैं, किन्तु जिनसे हेतु संलग्न है -- ( हेतुमम्पयुत्ता चैव न च हेतु: ६. अ. जो स्वयं हेतु नहीं हैं किन्तु जो हेतुओं मे युक्त है -- ( न हेतु सहेतुका) आ. जो न स्वयं हेतु हैं और न हेतुओं से युक्त हैं -- ( न हेतू अहेतुका ) ( संक्षिप्त मध्यवर्गीय दुक) با ७. अ. जिनके प्रत्यय हैं -- ( सप्पच्चया) आ. जिनके प्रत्यय नही है -- ( अप्पच्चया ) ८. अ. संस्कृत -- ( संखता ) . आ. असंस्कृत -- ( असंखता ) ९. अ. दृश्य -- ( सनि हस्सना) आ. अदृश्य - - (अनिद्दस्सना) १०. अ. इन्द्रिय और विषय के संनिकर्ष से युक्त - - ( सप्पटिधा ) आ. इन्द्रिय और विपय के संनिकर्ष से वियुक्त - - ( अप्पतिघा ) ११. अ. जो रूपयुक्त है -- ( रूपिनो ) आ. जो रूप युक्त नहीं है -- ( अरूपिनो ) १२. अ. लौकिक -- ( लोकिया) आ. अलौकिक -- ( लोकुत्तरा ) १३. अ. जो कुछ के द्वारा विज्ञेय है-- ( केनचि विय्या ) आ. जो कुछ न के द्वारा विज्ञेय नही है -- ( केनचि न विज्ञेय्या) ( ३. आम्रव-वर्ग ) १८. अ. जो चित्त-मल है-- ( आमवा) आ. जो चित्त-मल नहीं है (नो आसवा ) 11 Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६५ ) २५. अ. जो चित्त-मल से युक्त हैं--(मासवा) ___आ. जो चित्त-मल से युक्त नहीं है-- (अनासवा) १६. अ. जिनसे चित्त-मल संलग्न है--(आसवसम्पयुत्ता) आ. जिनसे चित्त-मल संलग्न नहीं हैं--(आसवविप्पयुत्ता) १७. अ. जो स्वयं चित्त-मल है और चित्त-मलों से युक्त भी है---(आसवा चेव सासवा चा) आ. जो स्वयं चित्त-मल नहीं हैं किन्तु चित्त-मलों से युक्त हूँ-- (सासवा चेव नो च आसवा) ८. अ. जो स्वयं चित्त-मल हैं और जिनसे चित्त-मल संलग्न भी हैं--- (आसवा चेद आसवसम्पयुत्ता च) आ. जो स्वयं चित्त-मल नहीं है किन्तु जिनसे चित्त-मल संलग्न हैं-- (आमवसम्पयना चेव नो च आसवा) १. अ. जो चिन-मलों से संलग्न न रहने पर भी उनके आधार है-- (आमव दिप्पयना मासवा) अ. जो चित्तामलों में संलग्न भी नहीं है और उनके आधार भी नहीं हैं (आमविप्पयना अनामवा) (6--संयोजन-वर्ग) २०. अ. जो चित्त के वन्धन है---- (संयोजना) आ. जो चित्त के बन्धन नहीं है--(नो संयोजना) १. अ. जो चित्त-बन्धनों की ओर ले जाने वाले हैं ---- (संयोजनिया) आ. जो चिन-बन्धनों की ओर नहीं ले जाने वाले हैं--(असंयोजनिया) २. अ. जिनमे चित्त-बन्धन मंलग्न है--(संयोजन-सम्पयुना) आ. जिनसे चित्त-बंधन असंलग्न है--(संयोजन-विप्पयुत्ता) ३. अ. जो स्वयं चित्त-बन्धन है और चित्त-बन्धनों की ओर ले जाने वाले भी है--(संयोजना चेव मंयोजनिया च) आ. जो स्वयं चित्त-बन्धन नहीं हैं किन्तु जो चित्तवन्धनों की ओर ले जाने वाले हैं--(संयोजनिया चेव नो च संयोजना) २४. अ. जो स्वयं चित्त-बन्धन हैं और जिनसे चित्त-बन्धन संलग्न भी है-- (संयोजना चेव संयोजनसंपयुत्ता च) Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ. जो स्वयं चित्त-बन्धन नहीं है, किन्तु जिनसे चित्त-बन्धन संलग्न हैं--- (संयोजनसम्पयुत्ता चेव नो च संयोजना) २५. अ. जिनसे चित्त-बन्धन संलग्न तो नहीं हैं किन्तु जो चित्त-बन्धनों की ओर ले जाने वाले हैं--(संयोजनविप्पयत्ता संयोजनिया) आ. जिनसे न तो चित्त-बन्धन संलग्न हो हैं और न जो चित्त-बन्धनों की ओर ले जाने वाले हैं--(संयोजनविप्पयुत्ता असंयोजनिया) (५-ग्रन्थ-वर्ग) २६. अ. जो चित्त की गाँठे हैं-(गन्था) __आ. जो चित्त की गाँठे नहीं हैं--(नो गन्था) २७. अ. जो चित्त की गाँठों की ओर ले जाने वाली हैं--(गन्थनिया) आ. जो चित्त की गाँठों की ओर नहीं ले जाने वाली हैं--(अगन्थनिया) २८. अ. जो चित्त की गाँठों की सहचर हैं--(गन्थ-सम्पयुत्ता) आ. जो चिन की गाँठों को सहचर नहीं हैं-(गन्थ-विप्पयुत्ता) २९. अ. जो स्वयं चित्त को गाँठे है और चित्त की गाँठों की ओर ले जाने वाली भी हैं--(गन्था चेव गन्थनिया च ) आ. जो स्वयं चित्त को गाँठे नहीं हैं और न चित्त को गाँठों की ओर ___ ले जाने वालो हैं (गन्थनिया चेव नो च गन्या) ३०. अ. जो स्वयं चित्त को गांठें हैं और चित्त को गाँठों को सहचर भी हैं-- (गन्था चेव गन्थसंपयुत्ता च) आ. जो स्वयं चित की गाँठे नहीं है किन्तु चित को गाँठों को सहचर है-- (ग्रन्थसम्पयुत्ता चेव नो च गन्था) ३१. अ. जो चित्त की गांठों की सहचर नहीं हैं, किन्तु उनको भविष्य में पैदा करने वाली है--(गन्थविप्पयुत्ता गन्थनिया) आ. जो चित्त की गाँठों की सहचर भी नहीं है और न उन्हें भविष्य में पैदा करने वाली ही हैं--(गन्थविप्पयुत्ता अगन्थनिया) (६-ओघ वर्ग) ३२-३७--ऊपर के समान ही। केवल 'चित्त की गाँठ' की जगह 'ओघ' (बाढ) का प्रयोग है। (ओघ चार हैं, काम-ओघ, भव-ओघ, (आत्म-) दृष्टि-ओघ और अविद्या-ओघ । Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६७ ) ( ७ - योग - वर्ग ) ३८-४३ -- ऊपर के समान ही । केवल 'चित्त की गाँठ' की जगह 'योग' ( आसक्ति ) का प्रयोग है । (योग भी चार माने गये हैं, यथा काम-योग, भव-योग,. (आत्म-) दृष्टि-योग, एवं अविद्या - योग ) ( ८ - - नीवरण - वर्ग ) ४४. अ. जो ध्यान के विघ्न हैं। आ. जो ध्यान के विघ्न नहीं हैं। ४५. अ. जो भविष्य में ध्यान के विघ्नों को पैदा करने वाले हैं आ. जो भविष्य में ध्यान के विघ्नों को ―― -- (नीवरणा) - (नो नीवरणा) - (नीवरणिया ) पैदा करने वाले नहीं हैं -- ( अनीवरणिया ) ४६. अ. जो ध्यान के विघ्नों के सहचर हैं - (नीवरणसम्पयुत्ता) आ. जो ध्यान के विघ्नों के सहचर नहीं हैं -- (नीवरणविप्पयुत्ता) ४७. अ. जो स्वयं ध्यान के विघ्न हैं और ध्यान के विघ्नों को पैदा करने वाले भी हैं -- (नीवरणा चेव नीवराणेया च ) आ. जो स्वयं ध्यान के विघ्न नहीं हैं किन्तु जो ध्यान के विघ्नों को पैदा करने वाले है-(नीवरणिया चेव नो च नीवरणा ) ४८. अ. जो स्वयं ध्यान के विघ्न हैं और ध्यान के विघ्नों के सहचर भी हैं -- (नीवरणा चेव नीवरण - सम्पयुक्त्ता च ) आ. जो स्वयं ध्यान के विघ्न नहीं है किन्तु ध्यान के विघ्नों के सहचर है- (नीवरणसम्पयुत्ता चेव नो च नीवरणा) ४९. अ. जो स्वयं ध्यान के विघ्नों के सहकर नहीं हैं किन्तु उन्हें पैदा करने वाले हैं—- (नीवरणविप्पयुत्ता नीवरणिया ) आ. जो स्वयं ध्यान के विघ्नों के सहचर भी नही हैं और न उन्हें पैदा करने वाले ही हैं- (नीवरणविप्पयुक्त्ता अनीवरणिया ) ५०. अ. जो मिथ्या धारणायें ( ९ - - परामर्श - वर्ग ) हैं -- ( परामासा ) आ. जो मिथ्या धारणाएँ नहीं है -- (नो परामासा ) Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६८ ) ५१. अ. जो (चित्त की अवस्थाएँ) मिथ्या धारणाओं को पैदा करने वाली हैं--(परामट्ठा) आ. जो मिथ्या धारणाओं को पैदा करने वाली नहीं हैं--(अपरामट्ठा) ५२. अ. जो मिथ्या धारणाओं की सहचर हैं--(परामाससम्पयुत्ता) आ. जो मिथ्या धारणाओं की सहचर नहीं हैं--(परामासविप्पयुना) ५३. अ. जो स्वयं मिथ्या धारणायें हैं और मिथ्या धारणाओं-- को पैदा करने वाली भी हैं--(पगमासा चेव परामट्ठा च) आ. जो स्वयं मिथ्या धारणाएं नहीं है किन्तु मिथ्या धारणाओं को पैदा करने वाली है-- (परामट्ठा चेव नो च परामासा) ५४. अ. जो स्वयं मिथ्या धारणाओं से विमुका है। किन्तु उन्हें पैदा करने वाली हैं--(परामासविप्पयुत्ता परामट्ठा) आ. जो स्वयं मिथ्या धारणाओं मे विमुक्त हैं और उन्हें पैदा करने वाली भी नहीं हैं--(परामासविप्पयुत्ता अपरामट्ठः) (१०--विस्तृत मध्यम दुक) ५५. अ. जो धम्म किसी आलम्बन का सहारा लेकर पैदा होते है-- (साम्मणा) आ. जो धम्म किसी आलम्बनकासहारा लेकरनहीं पैदा होते-(अनारम्मणा) ५६. अ. जो चेतना-स्वरूप हैं--(चिना) आ. जो चेतना-स्वरूप नहीं हैं--(नो चित्ता) अ. जो चित्त की सहगत अवस्थाएँ हैं--(चेतसिका) आ. जो चित्त की सहगत अवस्थाएँ नहीं है--(अचेतसिका) अ. जो चेतना मे युक्त हैं--(चित्तसम्प युत्ता) आ. जो चेतना से युक्त नहीं हैं--(चित्तविप्पयुत्ता) ५९. अ. जो चेतना से संमष्ट हैं--(चित्तसंसट्ठा) आ. जो चेतना मे गमृष्ट नहीं है--(चित्तविसंसट्ठा) ६०. अ. जो चेतना के द्वारा उत्पन्न किये जाते हैं--(चित्तसमुद्राना) आ. जो चेतना के द्वारा उत्पन्न नहीं किये जाते--(नो चित्तसमुद्राना) Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१. अ. जो चेतना की उत्पत्ति के साथ उत्पन्न होने वाले हैं--(चित्त सहभुनो) आ. जो चेतना की उत्पत्ति के साथ उत्पन्न होने वाले नहीं हैं--(नो चित्त सहभुनो) ६२. अ. जो चेतना के परिवर्तन के साथ परिवर्तित हो जाते हैं--(चित्तानुपरिवत्तनो) आ. जो चेतना के परिवर्तन के साथ परिवर्तित नही होते--(नो चित्तानुपरिवत्तिनो) ३३. आ. जो चेतना से संयुक्त है और उसी के द्वारा पैदा भी होने वाले है--चित्तसंसट्ठसमुद्राना) आ. जो चेतना से संयुक्त नहीं हैं किन्तु उसके द्वारा पैदा होने वाले हैं--(नो-चित्तसंसट्ठसमुठाना) ६४. अ. जो चेतना से मुक्त है, उसके द्वारा पैदा होने वाले हैं और उसके साथ रहने वाले हैं--- (चित्त-संसट्ठ-समुट्ठान-महभुनो) आ. जो न चेतना से युक्त है न उसके द्वारा पैदा होने वाले हैं और न उसके साथ रहने वाले हैं-- (नो चित्त-संसट्ठ-समुट्ठान-सहभुनो) ६५. अ. जो चेतना से युक्त हैं, उसके द्वारा पैदा किये जाते हैं और उसके परिवर्तन के साथ परिवर्तित हो जाते हैं-- (चित्त-संसट्ठ-समुद्रानानुपरिवत्तिनो) आ. जो न चेतना से युक्त हैं, न उसके द्वार पैदा किये किये जाते हैं और न उसके परिवर्तन के साथ परिवर्तित होते हैं--(नो-चित्त-संसट्ठ-समुट्ठानानुपरिवंत्तिनो) ६६. अ. जो किसी व्यक्ति के अन्दर स्थित हैं--(अज्झत्तिका) आ. जो उसके बाहर स्थित हैं--(वाहिरा) ६७. अ. जो पूर्व-कर्मों के परिणाम-स्वरूप अजित है--(उपादा) आ. जो पूर्व-कर्मों के परिणाम-स्वरूप अर्जित नहीं है--(नो उपादा) ६८. अ. पूर्ववत्-- (उपादिन्ना) आ. " (अनुपादिन्ना) २४ Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७० ) (११-उपादान-वर्ग) ६९. अ. जो धम्म उपादान (इन्द्रिय द्वारा ग्रहण-स्वरूप) हैं--(उपादाना) आ. जो धम्म उपादान नहीं हैं- (नो-उपादाना) । अ. जो धम्म उपादान को पैदा करने वाले हैं--(उपादानिया) आ. जो धम्म उपादान को नहीं पैदा करने वाले हैं--अनुपादानिया) ७१. अ. जो धम्म उपादान से संलग्न हैं--(उपादानसम्पयुत्ता) आ. जो धम्म उपादान से अलग हैं--(उपादानविप्पयुत्ता) ७२. अ. जो धम्म स्वयं उपादान हैं और उपादान को पैदा करने वाले भी हैं-(उपादाना चेव उपादानिया च) आ. जो धम्म स्वयं उपादान नहीं हैं किन्तु उपादान . को पैदा करने वाले हैं-(उपादानिया चेव नो च उपादाना) ७३. अ. जो धम्म स्वयं उपादान हैं और अन्य उपाकनों से संलग्न भी हैं--(उपादाना चेव उपादानसम्पयुत्ता) आ. जो धम्म स्वयं उपादान नहीं हैं (उपादानसम्पयुत्ता चेव नो च किन्तु अन्य उपादानों से संलग्न हैं- उपादाना) ७४. अ. जो धम्म स्वयं उपादानों से अलग है किन्तु उन्हें पैदा करने वाले हैं--(उपादानविप्पयुत्ता उपादानिया) आ. जो धम्म उपादानों से अलग है और उन्हें पैदा करने वाले भी नहीं हैं--(उपादानविप्पयुत्ता अनुपादानिया) (१२-क्लेश-वर्ग) ७५. अ. जो धम्म क्लेश (चित्त-मल--राग, द्वेष, मोहादि)-स्वरूप है--(किलेसा) आ. जो धम्म क्लेश-स्वरूप नहीं है--(नो किलेसा) अ. जो धम्म क्लेश को पैदा करने वाले हैं--(संकिलेसिका) आ. जो धम्म क्लेश को पैदा करने वाले नहीं हैं- (असंकिलेसिका) अ. जो धम्म क्लेशों से युक्त हैं--(संकिलिट्ठा) आ. जो धम्म क्लेशों से युक्त नहीं है-- (असंकिलिट्ठा) ७८. अ, जो धम्म क्लेशों से संलग्न हैं--(किलेससम्पयुत्ता) आ. जो धम्म क्लेशों से संलग्न नहीं है--(किलेसविप्पयुत्ता) Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७१ ) ७९. अ. जो स्वयं क्लेश-रूप हैं और वलेशों को पैदा करने वाले भी है-(किलेसा चेव संकिलेसिका) आ. जो स्वयं क्लेश-रूप नहीं हैं किन्तु क्लेशों को पैदा करने वाले हैं--(संकिलेसिका चेव नो च किलेसा) ८०. अ. जो स्वयं क्लेश-रूप हैं और अन्य क्लेशों से युक्त भी हैं-(किलेसा चेव संकिलिट्ठा च) आ. जो स्वयं क्लेश-रूप नहीं हैं किन्तु ___अन्य क्लेशों से युक्त हैं--(संकिलिट्ठा चेव नो च किलेसा) ८१. अ. जो स्वयं क्लेश-रूप हैं और अन्य क्लेशों से ___संलग्न भी हैं-(किलेसा चेव किलेससम्पयुत्ता च) आ. जो स्वयं क्लेश-रूप नहीं हैं किन्तु अन्य क्लेशों से संलग्न हैं-किलेससम्पयुत्ता चेव नो च किलेसा) ८२. अ. जो स्वयं क्लेश से अलग हैं किन्तु क्लेशों को पैदा करने वाले हैं-(किलेसविप्पयुत्ता संकिलेसिका) आ. जो स्वयं क्लेश से अलग हैं और क्लेशों को पैदा करने वाले भी नहीं हैं--(किलेसविप्पयुत्ता असंकिलेसिका) ८३. आ. जो धम्म 'दर्शन' के द्वारा हटाये या नष्ट किये जा सकते हैं--(दस्सने न पहातब्बा) आ. जो धम्म 'दर्शन' के द्वारा नहीं हटाये या नष्ट किये जा सकते--(न दस्सनेन पहातब्बा) ८४. अ. जो धम्म 'भावना' के द्वारा हटाये या नष्ट किये जा सकते हैं (भावनाय पहातब्बा) अ. जो धम्म ‘भावना' के द्वारा हटाये या नष्ट नहीं किये जा सकते-(न भावनाय पहातब्बा) ८५. अ. जिन धम्मों के हेतु 'दर्शन' के द्वारा नष्ट किये जा सकते हैं-(दस्सनेन पहातब्ब-हेतुका) आ. जिन धम्मों के हेतु 'दर्शन' के द्वारा नष्ट नहीं किये जा सकते-(न दस्सनेन पहातब्ब-हेतुका) ८६. अ. जिन धम्मों के हेतु 'भावना' के द्वारा नष्ट किये जा सकते हैं--(भावनाय पहातब्बहेतुका) Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७२ ) आ. जिन धम्मों के हेतु 'भावना' के द्वारा नष्ट नहीं किये जा सकते । -(न भावनाय पहातब्ब हेतुका) ८७. अ., जिन धम्मों के साथ 'वितर्क' संलग्न है--(सवितक्का) __आ. जिन धम्मों के साथ 'वितर्क' संलग्न नहीं है- (अवितक्का) ८८. अ. जिन धम्मों के साथ 'विचार' संलग्न है (सविचारा) आ. जिन धम्मों के साथ 'विचार' संलग्न नहीं है--(अविचारा) ८९. आ. जिन धम्मों के साथ 'प्रीति' संलग्न है—(सप्पीतिका) आ. जिन धम्मों के साथ 'प्रीति' संलग्न नहीं है--(अप्पीतिका) ९०. अ. जो धम्म 'प्रीति' के सहचर हैं-(पीतिसहगता) आ. जो धम्म 'प्रीति' के सहचर नहीं हैं--(न-पीतिसहगता) ९१. अ. जो धम्म 'मुख' के सहचर हैं--(सुखसहगता) आ. जो धम्म 'सुख' के सहचर नहीं हैं--(न सुखसहगता) ९२. अ. जो धम्म 'उपेक्षा' के सहचर हैं--(उपेक्खासहचरा) आ. जो धम्म 'उपेक्षा' के सहचर नहीं है-(न उपेक्खासहचरा) ९३. अ. जिन धम्मों का सम्बन्ध कामनाओं के लोक (कामावचर) से है-- (कामावचरा) आ. जिन धम्मों का सम्बन्ध कामनाओं के लोक (कामावचर) से नहीं है -(न-कामावचरा) ९४. अ. जिन धम्मों का सम्बन्ध रूप-लोक (रूपावचर) से है-(रूपावचरा) आ. जिन धम्मों का सम्बन्ध रूप-लोक (रूपावचर) से नहीं है-(न रूपावचरा) ९५. अ. जिन धम्मों का सम्बन्ध अरूप-लोक से है-(अरूपावचरा) आ. जिन धम्मों का सम्बन्ध अरूप-लोक से नहीं है-(न-अरूपावचरा) ९६. अ. जो धम्म आवागमन के चक्र में निहित हैं-(परियापन्ना) आ. जो धम्म आवागमन के चक्र में निहित नहीं हैं- (अपरियापन्ना) ९७. अ. जो धम्म निर्वाण की प्राप्ति कराने वाले हैं--(निय्यानिका) आ. जो धम्म निर्वाण की प्राप्ति कराने वाले नहीं हैं--(अनिय्यानिका) ९८ .अ. जिन धम्मों के परिणाम सुनिश्चित हैं-(नियता) ___ आ. जिन धम्मों के परिणाम मुनिश्चित नहीं हैं--(अनियता) Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७३ ) ९९. अ. जिनके आगे बढ़कर भी कुछ धम्म हैं--(स-उत्तरा) आ. जिनसे आगे बढ़कर और कोई धम्म नहीं हैं--(अनुत्तरा) १००. अ. जो धम्म दुःखदायी पाप-कर्मों से युक्त हैं--(सरणा) ___ आ. जो धम्म दुःखदायी पाप-कर्मों से युक्त नहीं है---(अरणा) उपर्युक्त १२२ वर्गीकरणों में धम्मों का विश्लेषण 'धम्मसंगणि' में किया गया है । वास्तव में इन वर्गीकरणों में भी प्रथम वर्गीकरण (कुशल, अकुशल, अव्याकृत) ही नैतिक दृष्टि से अधिक महत्वपूर्ण है । अत: धम्मसंगणि में मानसिक और भौतिक जगत् के सारे तत्वों को प्रधानतः इन्हीं तीन शीर्षकों में पहले विभक्त किया गया है । वहाँ पहले उपर्युक्त तत्वों का विश्लेषण कर यही जिज्ञासा की गई है कि इनमें से कौन से धम्म कुशल हैं, अकुशल हैं, या अव्याकृत हैं। शेष १२१ वर्गों में धम्मों के विश्लेषण को तो अन्त में प्रश्न और उत्तर के रूप में ही संक्षेप में समझा दिया गया है । अतः धम्मसंगणि का मुख्य विषय है धम्मों का कुशल, अकुशल और अव्याकृत के रूप में विश्लेषण । धम्मसंगणि की विषय वस्तु चार कांडों में विभाजित की गई है, (१) चित्तुप्पाद-कंड (२) रूपकंड (३) निक्खेपकंड और (४) अत्थुद्धार कंड । पहले दो कांडों में मानसिक और भौतिक जगत् की अवस्थाओं का कुशल ,अकुशल और अव्याकृत के रूप में विश्लेषण है । पहले कांड में कुशल, अकुशल और अंशतः अव्याकृत का विवेचन है और दूसरे कांड में अव्याकृत के अधूरे विवेचन को पूरा किया गया है । तीसरे और चौथे कांडों में इनका संक्षेप है और शेष १२१ वर्गों के स्वरूप को प्रश्नोत्तर के रूप में समझाया गया है । चूंकि धम्मों की गणना कुशल, अकुशल आदि वर्गों में करने के अतिरिक्त स्वयं उनके स्वरूप का भी विश्लेषण धम्मसंगणि में किया गया है, अतः इस दृष्टि से उनके चार कांडों को चित्त, चेतसिक और रूप (जिन तीन वर्गों में उसने धम्मों को उनके स्वरूप भेद की दृष्टि से विभक्त किया है ) इन तीन शीर्षकों में भी विभक्त किया जा सकता है । इस दृष्टि से प्रथम कांड चित्त ,चेतसिक और उनके नाना उपविभागों का एवं दूसरे कांड में रूप (भौतिक जगत का समष्टि-गत रूप) का वर्णन है। तीसरे और चौथे कांडों में यहाँ भी संक्षेप ही हैं । धम्मसंगणि के इस द्विविध विभाग के कारण ही उसके विवेचन में इतनी दुरूहता आ गई है । पहले हम Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७४ ) चित्त और उसकी सहगत अवस्थाओं (चेतसिक) के विश्लेषण और कुशल ,अकुशल आदि के रूप में उसके विभाजन को ,जो पहले कांड में किया गया है, लेते हैं। चित्त का अर्थ है चेतना । चेतना को बौद्ध दर्शन में बड़े व्यापक अर्थ में लिया गया है । भगवान् ने स्वयं कहा है "चेतानाहं भिक्खवे कम्मं वदामि" अर्थात् “भिक्षुओ! चेतना को ही मैं कर्म कहता हूँ ।" इस बुद्ध-वचन से ही समझा जा सकता है कि अभिधम्म में चेतना का इतना सूक्ष्म विश्लेषण क्यों किया गया है। कर्म के शुभ, अशुभ स्वरूपों का चेतना से घनिष्ठ संबंध है, अतः उसका विश्लेषण प्रत्येक पूर्ण आचरण-दर्शन के लिए आवश्यक है । धम्मसंगणि के निर्देशानुसार चित्त की चार भूमियाँ हैं, जिन पर अग्रसर होता हुआ वह इस बहिर्जगत् की चंचलताओं से ऊपर उठकर निर्वाण की ओर अभिमुख होता है। इन चार भूमियों के नाम हैं, कामावचर-भूमि, रूपावचर-भूमि, अरूपावचर-भूनि और लोकोत्तरभूमि ।जिस जीवन और जगत् में हमारा सामान्य-जीवन-प्रवाह चलना है वह कामनाओं का लोक है। यहाँ जन्म से लेकर मृत्यु तक हम कामनाओं की पूर्ति में ही लगे रहते हैं । एक कामना दूसरी कामना को जन्म देती है और अन्त में अतृप्त कामनाओं के सम्बल को लेकर ही हम दूसरे जन्म में प्रवेश कर जाते हैं। चित्त की समता यहाँ नहीं मिलती। यही चित्त की कामावचर (कामनाओं में विचरण करने वाली) भूमि है। चित्त की दूसरी भूमि रूपावचर है । रूपावचरभूमि से तात्पर्य है ध्यान-भूमि पर स्थित चित्त । रूपावचर शब्द ध्यान के अर्थ में पालि-साहित्य में रूढ़ हो गया है। चित्त की इस अवस्था में ध्यान का विषय या 'कर्मस्थान' रूपवान् पदार्थ या बाह्य जगत् का कोई दृश्य पदार्थ ही होता है, अतः इसे रूप-संबंधी चित्त का ध्यान ही कहना चाहिए । चित्त की तीसरी अवस्था में बाह्य दृश्य -पदार्थ के चिन्तन से हटकर चित्त आन्तरिक और किसी रूप-रहित आलम्बन (कर्मस्थान) का चिन्तन करने लगता है, जैसे आकाश की अनन्तता, ज्ञान की अनन्तता, अकिंचनता की अनन्तता या अन्त में ऐसी सूक्ष्म अवस्था जिसमें चेतना के भी होने या न होने का निर्धारण न किया जा सके । यही चित्त की अरूपावचर भूमि है, अर्थात् अरूप-संबंधी चित्त का ध्यान ! यहां रूप का सर्वथा अस्तंगमन हो जाता Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७५ ) है । चिन की चौथी अवस्था का नाम है लोकोतर-भूमि । यहाँ आते-आते योगी अनित्य, दुःख और अनात्म का चिन्तन करते-करते निर्वाण रूपी आलम्बन पर ध्यान करने लगता है, जिससे उसकी सारी इच्छाएँ नष्ट हो जाती हैं। एक-एक करके वह अपने सारे बन्धनों को नष्ट कर डालता है और उसका चित्त उस सर्वोत्तम भूमि में पहुँच जाता है. जो लोकोत्तर है । इस भूमि का संबंध चार आर्य-मार्गों और उनके फलों (स्रोत आपत्ति आदि) से है। यहाँ पहुँचकर फिर तृष्णा या अविद्या के फन्दे में पड़ना नहीं होता। चित्त फिर लोभ, द्वेष और मोह की ओर नहीं लौट सकता । इसीलिए यह भूमि लोकोत्तर है। चित्त को इन चार भूमियों को समझ लेने के बाद हमें चित्त के कुशल, अकुशल और अव्याकृत स्वरूप को कुछ और अधिक समझ लेना चाहिए । फिर चित्त के भेदों को समझना हमारे लिए आसान हो जायगा। कुशल चित्त वह है जो लोभ, द्वेष ,मोह आदि से रहित हो । अकुशल चित्त इनसे युक्त होता है। अव्याकृत चित्त वह है जो इच्छा से रहित होता है । या तो यह अत्यंत स्वाभाविक रूप से पूर्व-जन्म के कर्मों के परिणाम स्वरूप प्राप्त होता है जिसमें इच्छा करने या न करने का कोई मवाल ही नहीं होता और इस जन्म के कर्मों से संबद्ध न होने कारण जिसका स्वरूप भी अस्पष्ट और अव्याख्येय (अव्याकृत) होता है, या यह विगत-तप्ण उस पूर्ण पुरुष (अर्हत्) की चित्तावस्था का सूचक होता है जिसके इस जन्म के कुशल कर्म भी वास्तव में हेतु या इच्छा से रहित होते हैं और जो आगे के लिए विपाक भी पैदा नहीं करते । इसलिए वे भी अव्याकृत या अव्याख्येय होते है । इस दृष्टि से अव्याकृत चित्त के दो भाग किये गये है (१) विपाक-चित्त, जो पूर्वजन्म के कुशल और अकुशल दोनों प्रकार के चित्तों के परिणाम स्वरूप हो सकते हैं और (२) क्रिया-चित्त, जो अर्हत् की चित्त-अवस्था के सूचक है और जिनमें अर्हत् के चित्त की क्रिया-मात्र ही रहती है, पर वास्तव में जो निष्क्रिय' होते है । पूर्णता प्राप्त ज्ञानी पुस्प (अर्हत्) का चित्त सक्रिय चेतनात्मक होते हुए भी वह कर्म-विपाक की दृष्टि से निष्क्रिय होता है। चूंकि अर्हत् के सभी कर्म ज्ञानाग्नि द्वारा दग्ध कर दिये गये होते है, अत: उसका चित्त 'क्रिया' भर करता है, उसका आगे के लिए कोई विपाक या परिणाम नहीं बनता। चित्त की उपर्युक्त Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७६ ) चार भूमियों और उसके तीन स्वरूपों में उसकी उन ८९ अवस्थाओं का वर्गीकरण जो धम्मसंगणि में किया गया है बड़ी अच्छी प्रकार समझ में अब सकता है । चित्त की अवस्थाऍ कुल मिलाकर ८९ हैं, जिनमें भूमियों की दृष्टि से ५४ कामावचर-भूमि से संबंधित हैं, १५ रूपावचर भूमि से संबंधित हैं, १२ अपावचर भूमि से संबंधित हैं और ८लोकोत्तर भूमि से संबंधित हैं । कुशल-चित्त की दृष्टि मे इन ८९ चित्त की अवस्थाओं में से २१ अवस्थाऍ कुशल-चित्त से संबंधित हैं, १२ अवस्थाएँ अकुशल - चिन से संबंधित हैं और ५६ अवस्थाएँ (३६ विपाकचित्त - २० क्रिया-चित्त) अव्याकृत-चित्त से संबंधित है । इनका भी अधिक विश्लेषण करें तो ५४ कामावचर भूमि की चित्त - अवस्थाओं में से ८ कुशल-चित्त की अवस्थाएँ हैं, १२ अकुशल - चित्त की अवस्थाएँ हैं और ३४ (२३ विपाक चित्त + ११ क्रिया-चित्त) अव्याकृत- चित्त की अवस्थाएँ हैं । १५ रूपावचरचित्त की अवस्थाओं में से ५ कुशल-चित्त संबंधी अवस्थाएँ है और १० (५ विपाक चित्त + ५ क्रिया - चित्त) अव्याकृत-चित्त संबंधी अवस्थाएँ हैं । रूपावचर-चित्तभूमि में अकुशल-चित्त की अवस्थाएँ सम्भव नहीं होतीं । १२ अरूपावचर-भूमि की अवस्थाओं में ४ कुशल-चित्त की अवस्थाएँ हैं और ८ (४ विपाक - चित्त + ४ क्रिया - चित्त) अव्याकृत-चित्त की अवस्थाएँ हैं । ८ लोकोत्तर भूमि की अवस्थाओं में से ४ कुशल-चित्त की अवस्थाएँ हैं और ४ अव्याकृत चित्त ( केवल विपाक - चित्त) की अवस्थाएँ हैं । अरूपावचर और लोकोत्तर भूमियों में भी अकुशल- चित्त का होना संभव नहीं । कुशल-त्रिक की दृष्टि से भी इसी प्रकार का विस्तृत विश्लेषण करें तो २१ कुशल-चित्तों में से ८ कामावचर-भूमि के हैं, ५ रूपावचर भूमि के हैं, ४ अख्यावचर भूमि के हैं और ४ ही लोकोत्तर भूमि के हैं । १२ अकुशल- चित्तों में कुल कामावचर भूमि के ही है, क्योंकि अन्य उच्च भूमियों पर अकुशल चित्त का होना संभव ही नहीं । ५६ अव्याकृतचित्त की अवस्थाओं में से ३४ (२३ विपाक - चित्त + ११ क्रिया- चित्त ) कामावर - भूमि की हैं, १० (५ + विपाक -चित्त + ५ क्रिया - चित्त) रूपावचरभूमि को हुँ, ८ (४ विपाक - चित्त + ८ क्रिया-चित्त) अरूपावचर भूमि की हैं और ४ लोकोत्तर भूमि ( केवल विपाक - चित्त) की हैं । अभी यह गणना सुबोध नहीं जान पड़ेगी, किन्तु आगे के विवरण से साफ हो जायगी । धम्म Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७७ ) संगणि में चूंकि चित्त के उपर्य क्त ८९ प्रकारों का विश्लेषण उसके कुशल अकुशल और अव्याकृत रूपों का मूलाधार लेकर ही किया गया है, अतः उसकी पद्धति का ही अनुसरण करते हुए हम इस विषय को स्पष्ट करेंगे । धम्मसंगणि में सर्वप्रथम जिज्ञासा की गई है 'कतमे धम्मा कुसला ?' अर्थात् कौन से धर्म कुशल है ?' इसका जो उत्तर दिया गया है, उसका निष्कर्ष इस प्रकार है-- १. कुसला धम्मा (क) कामावचर-भूमि के ८ कुसल-चित्त । कामनाओं के लोक में विचरण करता हुआ मनुष्य भी अपने चित्त को कुशल बना सकता है । इसके लिए यह आवश्यक है कि वह धीरे धीरे अपने चित्त को लोभ, द्वेष और मोह से विमुक्त करे। इसके बिना उसका चित्त कुशल या सात्विक नहीं हो सकता। जब कोई साधक शुभ कर्म करता है जिससे उसका चित्त सात्विक बनता है तो कभी तो वह ऐसा अपने मन में ठानकर ज्ञान-पूर्वक करता है, अर्थात वह ऐसा विचार-पूर्वक, सोचकर करता है कि ऐसा ऐसा करने से भविष्य के जीवन में मेरे कर्मों का विपाक कुशल बनेगा। इस प्रकार की उसकी चित्त-अवस्था ज्ञान-संप्रयुक्त या ज्ञानयुक्त कहलाती है । उदाहरणतः, एक मनुष्य बुद्धवन्दना करता है और सोचता है कि ऐसा करने से उसका शुभ कर्म-विपाक बनेगा तो उसका चित्त उस समय ज्ञान-संप्रयुक्त है। किन्तु यदि एक बालक इसी काम को दूसरे के अनुकरण पर करता है तो उसके इस काम में इस ज्ञान की भावना नहीं है कि यह कर्म उसके लिए शुभ कर्म-विपाक का प्रसवकारी बनेगा । अतः उसका चित्त 'ज्ञान-विप्रयक्त' या ज्ञान से रहित है । इसी प्रकार यदि कोई कर्म दूसरे की प्रेरणा पर और झिझकपूर्वक किया जाता है तो वह 'ससांस्कारिक' (समंखारिक) है और यदि वह अपनी ही आन्तरिक प्रेरणा और विना हिचकिचाहट के किया जाता है तो वह 'असांस्कारिक' (अमंखारिक) है। इसी प्रकार कोई कर्म सौमनस्य की भावना से युक्त (मोमनस्स-सहगत) हो सकता है और कोई उपेक्षा Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७८ ) की भावना से युक्त ( उपेक्खा - सहगत ) । इतना समझ लेने पर अब धम्मसंगणि में निर्दिष्ट निम्नलिखित आठ कामावचर - कुशल- चित्तों को देखिए--) यथा- १. सौमनस्य से युक्त, ज्ञान- संप्रयुक्त, असांस्कारिक २. सौमनस्य से युक्त, ज्ञान-संप्रयुक्त, ससांस्कारिक ३. सौमनस्य से युक्त, ज्ञान- विप्रयुक्त, असांस्कारिक ४. सौमनस्य से युक्त, ज्ञान- विप्रयुक्त, ससांस्कारिक ५. उपेक्षा से युक्त, ज्ञान- संप्रयुक्त, असांस्कारिक ६. उपेक्षा से युक्त, ज्ञान- संप्रयुक्त, ससांस्कारिक ७. उपेक्षा से युक्त, ज्ञान-विप्रयुक्त, असांस्कारिक ८. उपेक्षा से युक्त, ज्ञान-विप्रयुक्त, ससांस्कारिक (ख) रूपावचर भूमि के ५ कुशल - चित्त - कामावचर-भूमि से आगे बढ़कर योगी पृथ्वी, जल, तेज आदि २६ रूपवान् पदार्थों को आलम्बन ( कर्मस्थान ) मानकर ध्यान करता है । इम ध्यान की पाँच क्रमिक अवस्थाएँ होती हैं, जिनका मनोवैज्ञानिक स्वरूप इस प्रकार है- १. वितर्क, विचार, प्रीति, सुख २. ३. ४. 1 77 23 ," 27 ,' एकाग्रता वाला प्रथम ध्यान द्वितीय ध्यान तृतीय ध्यान चतुर्थ ध्यान पंचम ध्यान 17 13 ," उपेक्षा ( समचित्तत्व ) - (ग) अ - रूपावचर भूमि के ४ कुशल- चित्त ( रूपावचर-ध्यान से आगे बढ़कर योगी रूपवान् कर्मस्थानों को छोड़ देता है और रूप-रहित वस्तुओं का ध्यान करने लगता है, जिनकी चार क्रमिक अवस्थाएँ इस प्रकार है ( १ ) अनन्त आकाश का ध्यान ( २ ) अनन्त विज्ञान का ध्यान नैव - संज्ञा - नासंज्ञा ( ३ ) अनन्त आकिंचन्य ( शून्यता ) का ध्यान और ( ४ ) (चित्त की वह सूक्ष्म अवस्था जिसमें न यह कहा जा सके कि संज्ञा है और न यह 23 Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७९ ) कहा जा सके कि संज्ञा नहीं है) का ध्यान । ध्यान की यही चार अवस्थाएँ अरूपावचर कहलाती हैं । अतः इन संबंधी चार कुशल-चित्तों के नाम है -- ) १. आकाशानन्त्यायतन कुशल- चित्त २. विज्ञानानत्यायतन कुशल-चित्त ३. आकिञ्चन्यायतन कुशल-चित्त ४. नैव-संज्ञा-नासंज्ञायतन कुशल-चित्त (घ) लोकोत्तर - भूमि चार कुशल-चित्त ( अरूप- समाधि मे उठकर योगी फिर अविद्या के प्रभाव में आ सकता है । इससे बचने के लिए उसे आगे ध्यान-साधना करनी होती है । वह धीरे-धीरे चित्त के बन्धनों को हटाता है और अनित्य, दुःख और अनात्म की भावना करता है । ऐसा करते-करते वह् चित्त की लोकोत्तर अवस्था में प्रवेश कर जाता है, जिसकी निम्नलिखित चार अवस्थाएँ हैं- १. स्रोत आपत्ति-मार्ग - चित्त (जो निर्वाण-गामी स्रोत में पड़ गया है ) २. सकृदागामि-मार्ग - चित्त ( जिसे एक बार और जन्म लेना है ) ३. अनागामि-मार्ग - चित्त ( जिसे अब लौटना नहीं है- अर्थात् जो इसी जन्म में निर्वाणका साक्षात्कार कर लेगा ) ४. अर्हन्-मार्ग-चित्त (जिसने निर्वाण का पूर्ण साक्षात्कार कर लिया है) २- कुसला धम्मा धम्मसंगणि की दूसरी मुख्य जिज्ञासा है, 'कतमे धम्मा अकुसला ?' अर्थात् कौन से धम्म अकुशल है ?' इसका जो उत्तर दिया गया है, उसका निष्कर्ष यह है- (क) लोभ- मूलक आठ अकुशल-चित्त ( लोभ के कारण मनुष्य अशुभ कर्म करता है । कभी ऐसा करने में उसे चित्त की प्रसन्नता भी होती है और कभी मात्र उपेक्षा की भावना मी भी रहती है । ये दोनों क्रियाएँ, क्रमशः सौमनस्य से युक्त ( सोमनस्समहगत ) और उपेक्षा युक्त ( उपेक्खा महगत ) कहलाती है, जैसा हम कुशल चित्त के विषय में भी देख चुके हैं। इसी प्रकार लोभ-मुलक कोई बुरा काम किसी मिथ्या धारणा Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८० ) का सहारा लेकर किया जा सकता है, जैसे यह तो मेरा कर्तव्य ही है आदि (यापि भावना तो उसमें लोभ की ही रहती है) तो उस दशा में यह दुष्टिगत-युक्त (दिट्टिगत-सम्पयुत्त) कहलायेगा । यदि इस प्रकार की मिथ्या-धारणा का सहारा नहीं लिया गया है तो वह दृष्टिगत-विप्रयुक्त या मिथ्या-धारणा से मुक्त (दिगित-विप्पयुत्त) कहलायगा । इसी प्रकार दूसरे की प्रेरणा से, झिझक पूर्वक किये हुए लोभमूलक दुष्कृत्य को 'ससांस्कारिक' (ससंखारिक) कहेंगे और बिना किसी दूसरे की प्रेरणा के और बिना झिझक के साथ किये हुए कर्म को 'असांस्कारिक (असंखारिक) कहेंगे, जैसा हम कुशल-चित्त के विवेचन में भी पहले देख चुके हैं। यह कहने की आवश्यकता नहीं कि लोभ-मूलक अकुशल-चित्त कामनाओं के लोक (कामावचर-भूमि) में ही हो सकते हैं। इससे आगे उनकी पहुंच नहीं। आठ प्रकार के लोभ-मूलक अकुशल-चित्तों के स्वरूप का परिचय देखिए--- १. सौमनस्य के साथ, मिथ्या धारणा से युक्त, असांस्कारिक २. सौमनस्य के साथ, मिथ्याधारणा से युक्त, ससांस्कारिक ३. सौमनस्य के साथ, मिथ्याधारणा से रहित, असांस्कारिक ४. सौमनस्य के साथ, मिथ्याधारणा से रहित, ससांस्कारिक ५. उपेक्षा के साथ, मिथ्याधारणा से युक्त, असांस्कारिक ६. उपेक्षा के साथ, मिथ्या धारणा से युक्त, ससांस्कारिक ७. उपेक्षा के साथ, मिथ्या धारणा से रहित, असांस्कारिक ८. उपेक्षा के साथ, मिथ्या-धारणा से रहित, ससांस्कारिक (ख) द्वेष-मूलक दो अकुशल-चित्त १. दौर्मनस्य के साथ, द्वेष-युक्त, असांस्कारिक ( चित्तकी द्वेपमयी अवस्था में सौम२. दौर्मनस्य के साथ, द्वेष-युक्त, ससांस्कारिक र नस्य या उपेक्षा नहीं रह सकती। द्वेष की चंचलतापूर्ण अवस्था में धारणाओं का भी कोई विचरण नहीं होता। Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८१ ) (ग) मोह-मूलक दो अकुशल-चित्त १. (अज्ञानमय) उपेक्षा के साथ, सन्देह-युक्त ( मनकी मोह-युक्त अवस्था में २. उपेक्षा के साथ ,उद्धतता से युक्त २ असांस्कारिक या ससांस्कारिक । होने का सवाल ही नहीं उठता। ३. अव्याकता धम्मा धम्मसंगणि की तीसरी मुख्य जिज्ञासा है “कतमे धम्मा अव्याकता"अर्थात् कौन से धर्म अव्याकृत हैं ? इसके उत्तर का निष्कर्ष प्रकार है अ-विपाक-चित्त (क) आठ कुशल विपाक-चित्त--अव्याकृत चित्त के दो भेद हैं, विपाकचित्त और क्रिया-चित्त, यह हम पहले देख चुके हैं । विपाक-चित्त पूर्व जन्म के कर्मों के परिणाम-स्वरूप होते हैं। पूर्व-जन्म के शुभ या अशुभ-कर्मों के परिणाम स्वरूप उत्पन्न होने के कारण उनके कुशल-विपाक-चित्त और अकुशलविपाक-चित्त ये दो स्वरूप होते हैं । आठ कुशल विपाक-चित्त, जो अनुकूल पदार्थों के साथ इन्द्रियों के संनिकर्ष होने के कारण उत्पन्न होते हैं, ये हैं-- १. चक्षु-विज्ञान उपेक्षा (न-सुख-न-दुःख) से युक्त २. श्रोत्र-विज्ञान ३. ध्राण-विज्ञान ४. जिह्वा-विज्ञान ५. काय-विज्ञान सुख या सौमनस्य से युक्त ६. मनोधातु उपेक्षा से युक्त ७. मनो विज्ञान-धातु उपेक्षा से युक्त ८. मनो-विज्ञान-धातु सख या सौमनस्य से अक्त संख्या ६, ७, ८ के कुशल विपाक चित्तों को क्रमशः 'सम्पटिच्छन्न' और 'सन्तीरण' (७, ८) 'अभिधम्मत्थ' संगह में कहा गया है । सम्पटिच्छन्न (सम्प्रतिच्छन्न) का अर्थ है ग्रहणात्मक विज्ञान और 'सन्तीरण' (सन्तीर्ण) का अर्थ है अनुसन्धानात्मक विज्ञान । चक्षुरादि इन्द्रियों के साथ उनके विषयों Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८२ ) का संनिकर्ष होने पर चक्षु-विज्ञान आदि उत्पन्न हो जाते हैं। उसके बाद चित्त को किसी बाह्य पदार्थ की सत्ता की अनुभूति होती है और वह उसे ग्रहण करने के लिए उत्सुक होता है । यही चित्त की अवस्था 'सम्पटिच्छन्न' कहलाती है। जब उसे ग्रहण करने के लिए वह अनुसन्धान करने लगता है तो यही अवस्था 'सन्तीरण' कहलाती है । इन सब व्यापारों में द्रष्टा को अपने आप की चेतना नहीं होती। ये सव व्यापार सुषुप्त चेतना या अर्द्धचेतना की अवस्था में होते हैं। अतः इन विज्ञानों का कोई हेतु नहीं होता। वे पूर्व जन्मों के शुभ या अशुभ कर्मों के परिणाम स्वरूप ही उद्भूत होते हैं। इस आरमभिक अवस्था में उनमें सुख या दुःख की वेदना का भी सवाल नहीं उठता । वे उपेक्षा (न-सुख-न-दुःख) की वेदना से युक्त होते है। काय-विज्ञान अवश्य सुख या दु:ख की वेदना से युक्त होता है । (ख) आठ कामावचर विपाक-चित्त (पूर्वजन्म के कुशल-चित्तों के परिणाम-स्वरूप उत्पन्न होने वाले विपाक-चित्त भी उनके समान ही संख्या में आठ हैं, यथा--- १. सौमनस्य से युक्त, ज्ञान-सम्प्रयुक्त असांस्कारिक २. सौमनस्य से युक्त, ज्ञान-संप्रयुक्त, ससांस्कारिक ३. सौमनस्य से युक्त, ज्ञान-विप्रयुक्त, असांस्कारिक ४. सौमनस्य से युक्त, ज्ञान-विप्रयुक्त, ससांस्कारिक ५. उपेक्षा से युक्त, ज्ञान-संप्रयुक्त, असांस्कारिक ६. उपेक्षा से युक्त, ज्ञान-संप्रयुक्त, ससांस्कारिक ७. उपेक्षा मे युक्त, ज्ञान-विप्रयुक्त, असांस्कारिक ८. उपेक्षा से युक्त, ज्ञान-विप्रयुक्त, ससांस्कारिक (ग) सात अकुशल विपाक-चित्त (पूर्व जन्म के अशुभ-कर्मों के परिणाम-स्वरूप उत्पन्न) १. चक्षु-विज्ञान उपेक्षा (न-दुःख-न-मुख) से युक्त २. श्रोत्र-विज्ञान ३. घ्राण-विज्ञान Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८३ ) ४. जिह्वा-विज्ञान ५. काय-विज्ञान-- दुःख या दौर्मनस्य से युक्त ६. मनोधातु (सम्पटिच्छन्न) उपेक्षा से युक्त ७. मनोविज्ञान-धातु (सन्तीरण) (घ)पाँच रुपावचर विपाक चित्त-रूपावचर-भूमि के पाँच कुशल-चित्तों के परिणाम-(विपाक)स्वरूप ही दूसरे जन्म में पाँच विपाक-चित्त उत्पन्न होते हैं। अतः उनका स्वरूप भी पूर्वोक्त कुशल-चित्तों के अनुरूप ही है यथा-- १. वितर्क, विचार, प्रीति सुख और एकाग्रता से युक्त प्रथम विपाक-चित्त द्वितीय विपाक-चित्त तृतीय विपाक-चित्त चतुर्थ विपाक-चित्त उपेक्षा पंचम विपाक-चित्त (ङ) चार अरूपावचर विपाक-चित्त-अरूपावचर-भूमि के चार कुशलचित्तों के विपाक-स्वरूप उत्पन्न होने के कारण उनके समान ही हैं यथा-- १. आकागानन्त्यायतन विपाक-चित्त २. विज्ञानानन्त्यायतन विपाक-चित्त ३. आकिचन्यायतन विपाक-चित्त ४. नवसंज्ञानासंज्ञायतन विपाक-चित्त (च) चार लोकोत्तर विपाक-चित्त-लोकोत्तर-भूमिकेचार मार्ग-चित्तों के परिणामस्वरूप दूसरे जन्म में चार फल-चित्त उत्पन्न होते है, जो इस प्रकार है-- १. स्रोत आपत्ति-फल-चित्त (स्रोत आपत्ति के फल को प्राप्त करने की चेतना) २. सकृदागामि-फल-चित्त (सकृदागामि-फल को प्राप्त करने की चेतना ) ३. अनागामि-फल-चित्त (इसी जन्म में निर्वाण के साक्षात्कार रूपी फल को प्राप्त करने की चेतना) ४. अर्हत्व-फल-चित्त (अर्हत्व-फल प्राप्ति की चेतना) Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८४ ) आ-क्रिया-चित्त (क) तीन अहेतुक क्रिया चित्त क्रिया-चित्त उसे कहते हैं जो न स्वयं पूर्व जन्मों के कर्मों का विपाक होता है और न भविष्य के कर्मो का विपाक बनता है। उसमें केवल 'क्रिया-मात्र' (करणमत्त) रहती है। वास्तव में तो वह 'निष्क्रिय' ही होता है, क्योंकि उसका कोई विपाक नहीं बनता। वह इतना स्वाभाविक होता है कि उसका कोई हेतु भी नहीं दिखाया जा सकता। उदाहरणतः पूर्णता-प्राप्त मनुष्य (अर्हत्) की हमी । इसी लिए उसे अहेतुक भी कहते हैं । इसके तीन प्रकार हैं जैसे-- १. मनोधातु--उपेक्षा से युक्त । २. मनोविज्ञान धातु-उपेक्षा मे युक्त (सभी प्राणियों में पाया जाता है) ३. मनो विज्ञान धातु--सुख या सौमनस्य से युक्त (केवल अर्हत् में पाया जाता है) 'अभिधम्मत्थसंह' में इन तीन क्रिया-चित्रों को क्रमशः पंचद्वारावज्जन चित्त (इन्द्रिय रूपी पाँच द्वारों की ओर प्रवण होने वाला, बाहरी पदार्थ से उनका मंनिकर्प होने पर), मनोद्वारावज्जन चित्त (मन के द्वार की ओर प्रवण होने वाला) और हसितुप्पाद-चित्त (अर्हत् के हंसने की क्रियावाला चिन) कहा है। अर्हत का हँसना नितान्त स्वाभाविक अर्थात् अहेतुक होता है । न वह स्वयं किसी का विपाक होता है और न उसका आगे कोई विपाक बनता है । (ख) कामावचर-भूमि के ८ क्रिया-चित्त कामावचर-भूमि के ८ कुशलचित्तों का उल्लेख पहले हो चुका है । साधारण अवस्था में उनका विपाक भी दूसरे जन्म में होता है। किन्तु अर्हत् की जीवन-क्रियाएँ तो किसी विपाक को पैदा करती नहीं। उनमें वासना या तृष्णा का सर्वथा अभाव रहता है। अतः ये क्रियाएँ जैसे दग्ध हो जाती है। अत: पूर्वोक्त ८ कुशलचित्त ही अर्हत् की जीवन-दशा से सम्बन्धित होकर आठ क्रिया-चित्त बन जाते हैं, अर्थात् वे अपने विपाक बनने के स्वभाव को छोड़ देते हैं। उनका बाहरी स्वरूप तो यहां भी पहले जैसा ही है, यथा१. सौमनस्य से युक्त, ज्ञान-संप्रयुक्त, असांस्कारिक २. सौमनस्य से युक्त, ज्ञान-संप्रयुवत, ससांस्कारिक Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८५ ) ३. सौमनस्य से युक्त, ज्ञान-विप्रयुक्त, असांस्कारिक ४. सौमनस्य से युक्त, ज्ञान-विप्रयुक्त, ससांस्कारिक ५. उपेक्षा से युक्त, ज्ञान-संप्रयुक्त, असांस्कारिक ६. उपेक्षा से युक्त, ज्ञान-संप्रयुक्त, ससांस्कारिक ७. उपेक्षा से युक्त, ज्ञान-विप्रयुक्त, असांस्कारिक ८. उपेक्षा मे युक्त, ज्ञान-विप्रयुक्त, समांस्कारिक ग. रूपावचर-भूमि के पाँच क्रिया-चित्त-ये चित्त भी पूर्वोक्त रूपावचर-भूमि के ५ कुशल-चित्तों और विपाक-चित्तों के समान हैं, अन्तर केवल इतना है कि क्रिया-चित्त होने की अवस्था में ये अर्हत् के चित्त की अवस्था के सूचक हैं, अतः भविष्य में विपाक पैदा नहीं करते । अर्हत् भी इन पाँच ध्नान की अवस्थाओं को प्राप्त करता है किन्तु ये उसके लिये विपाक पैदा नहीं करतीं। इनका उल्लेख पहले दो बार हो चुका है, अतः यहाँ अनावश्यक है। घ. अरूपावचर-भूमि के चार क्रिया-चित्त--ये चित्त भी पूर्वोक्त अरूपावचर भूमि के ४ कुशल-चित्तों और विपाक-चित्तों के समान हैं। अन्तर भी यही है कि क्रिया-चित्त होने की अवस्था में ये अर्हत के चित्त की अवस्था के सूचक हैं, अत: भविष्य में विपाक पैदा नहीं करते । अर्हत् अरूप-लोक की इन चार अवस्थाओं को प्राप्त करता है किन्तु ये उसके लिये विपाक पैदा नहीं करतीं। इनका भी उल्लेख पहले दो बार हो चुका है, अतः यहाँ पुनरावृत्ति करना निरर्थक है। उपर्युक्त प्रकार चित्त के ८९ प्रकारों का कुशल, अकुशल और अव्याकृत चित्तों के रूप में उनकी उपर्युक्त ४ भूमियों पर विश्लेषण 'धम्मसंगणि' में किया गया है । अधिक सुगम बनाने के लिये इनका इस तालिका के द्वारा अध्ययन किया जा सकता है Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८६ ) चित्त-विभेदों का कुशल, अकुशल आदि शीर्षकों में विश्लेषण करने के साथसाथ ‘धम्मसंगणि' में चित्त की उन अवस्थाओं (चेतसिक) का भी विश्लेषण किया गया है, जो किसी विशेष प्रकार के चित्त के साथ ही उत्पन्न और निरुद्ध होती रहती हैं और जिनके आलम्बन और इन्द्रिय भी उसके समान ही होते हैं । इन्हें चेतसिक' कहते हैं । 'चेतसिक' संख्या में कुल ५२ है, जिनमें १३ ऐसे हैं जो सामान्य ('अन्य-समान') हैं अर्थात् जो सभी प्रकार के चित्तों में पाये जाते हैं। इन तेरह में भी ७ तो अनिवार्यतः सब चित्तों में पाये जाते है, और ६ प्रकीर्ण हैं. अर्थात् वे कभी पाये जाते हैं, कभी नहीं। २५ चेतसिकों का एक वर्ग 'शोभन चेतसिक' कहलाता है, जिनमें १९ चेतसिक ऐसे हैं जो सभी कुशल-चित्तों में पाये है और ६ ऐसे है जो सब में नहीं पाये जाते । १४ चेतसिक 'अकुशल' है, अर्थात् वे केवल अकुशल-चित्त में ही पाये जाते हैं। उनमें भी ४ मूलभूत अकुशल चेतसिक हैं, जो सभी अकुशल चित्तों में पाये जाते हैं । बाकी १० अकुशल चेतसिक ऐसे हैं जो सब अकुशल-चित्तों में नहीं पाये जाते । इनका वर्गीकरण इस प्रकार आसानी से समझा जा सकता है ५२ चेतसिक या चित्त की सहगत अवस्थाएँ १--१३ अन्य-समान (सभी चित्तों में सामान्यतः पाये जाने वाले) चेतसिक अ-3 सर्व-चित्त-साधारण अर्थात् अनिवार्यतः सब चित्तों में पाये जाने वाले, जैसे कि १. स्पर्श (फस्सो) २. वेदना (वेदना) ३. संज्ञा (सञ्जा) ४. चेतना (चेतना) ५. एकाग्रता (एकग्गता) ६. जीवितेन्द्रिय (जीवितिन्द्रियं) ७. मनसिकार (मनसिकारो) आ. ६ प्रकीर्णक अर्थात् जो किसी चित्त में पाये जाते है, किसी में नहीं, जैसे कि ८. वितर्क (वितक्को) ९. विचार (विचारो) Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कामावचर भूमि रूपावचर भूमि अरूपावचर भूमि लोकोत्तर भू (कुशल) ३. 32 १. सौमनस्य से युक्त, ज्ञान-संप्रयुक्त, असांस्कारिक २. , ज्ञान- संप्रयुक्त, ससांस्कारिक ज्ञान- विप्रयुक्त, असांस्कारिक ४. सौमनस्य से युक्त, ज्ञान-विप्रयुक्त, ससांस्कारिक ५. उपेक्षा से युक्त, ज्ञान-संप्रयुक्त, असांस्कारिक ६. उपेक्षा से युक्त, ज्ञान- संप्रयुक्त, ससांस्कारिक ७. उपेक्षा से युक्त, ज्ञान-विप्रयुक्त, असांस्कारिक ८. उपेक्षा से युक्त, ज्ञान-विप्रयुक्त सतांस्कारिक ९. वितर्क, विचार, प्रीति, सुख, एकाग्रता १०. विचार, प्रीति, सुख, एकाग्रता ११. प्रीति, सुख, एकाग्रता १२. सुख, एकाग्रता १३. उपेक्षा, एकात्रता १४. आकाशानन्त्यायतन १५. विज्ञानानन्त्यायतन १६. किचन्यायतन १७. नवसंज्ञानासंज्ञायतन १८. स्रोत आपत्ति मार्ग-चित्त १९. सकृदागामि- मार्ग-चित्त २०. अनागामि-मार्ग - चित्त २१. अ-मार्ग चित्त २१ चिके भेद ( अकुशल) (क- लोभमूलक) २२. सौमनस्य के साथ, मिथ्याधारणा से युक्त, असांस्कारिक २३. सौमनस्य के साथ, मिध्याधारणा से युक्त, ससांस्कारिक २४. सौमनस्य के साथ, मिध्याधारणा से रहित, असांस्कारिक २५. सौमनस्य के साथ, मिथ्याधारणा से रहित, ससांस्कारिक २६. उपेक्षा के साथ, मिथ्या धारणा से युक्त, असांस्कारिक २७. उपेक्षा के साथ मिथ्याधारणा से युक्त, ससांस्कारिक २८. उपेक्षा के साथ, मिथ्या धारणा से रहित, असांस्कारिक २९. उपेक्षा के साथ, मिथ्याधारणा से रहित सांस्कारिक | (ख-द्वेषमूलक) ३०. दौर्मनस्य के साथ, द्वेषयुक्त, असांस्कारिक ३१. दौर्मनस्य के साथ, द्वेषयुक्त, ससांस्कारिक ( ग मोहमूलक) ३२. उपेक्षा के साथ, सन्देह युक्त, ३३. उपेक्षा के साथ, उद्धतता युक्त १२ विपाक-चिन (क-कुशल-विक) ३४-३८. चक्षु, धोत्रे, प्राण, जिला और काय के विज्ञान ३९. मनोधातु ४०. मनोविज्ञान धातु ४१. मनोविज्ञान धातु ४२-४९ = 1-6 ५७. ५८. = (९-१३ ) ५९. ६०. ६१. (स-अकुशल-free) ५०-५४. क्षुष, धाण, जिल्हा, और काय के विज्ञान | ७३८० (१-८) ५५. मनोधातु ५६. मनोविज्ञान- धातु ६२. ६०. = ( १८-१७) ६४. ( अव्याकृत) ६६. स्रोत आपत्ति-फल-पित ६७.] सकृदागामि-फल-चित ६८. अनागामि-फल-चिन ६९. अहं-फल-वित्त ३६ क्रिया-चित्त ७०. मनोधातु उपेक्षा के साथ ७१. मनोविज्ञानधातु उपे क्षाके साथ ७२. मनोविज्ञानधातु सुख या सौमनस्य के साथ ८१. १ ८२. 1 12 ८३. = (२०११) ८४. ८५. ८६. ८७. (१४-१७) ८८. ८९. २० - केवल अर्हतु की चित्त-दशा Page #407 --------------------------------------------------------------------------  Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८७ ) १०. अधिमोक्ष (निश्चय) (अधिमोक्खो) ११. वीर्य (वीरियं) १२. प्रीति (पीति) १३. छन्द (इच्छा) (छन्दो) . २. २५ शोभन चेतसिक, जो सामान्यतः कुशल-चित्त और उनके अनुरूप ___अव्याकृत-चित्तों में पाये जाते हैंअ. १९ शोभन-चित्त-साधारण' अर्थात् सभी कुशल-चित्तों में पाई जाने वाली चित्त की अवस्थाएँ १४. श्रद्धा (सद्धा) १५. स्मृति (सति) १६. ह्री (हिरी--नैतिक लज्जा, पाप-संकोच) १७. अवत्रपा (ओतप्पो-पाप-भय) १८. अलोभ (अलोभो) १९. अद्वेष (अदोसो) २०. तत्रमध्यस्थता (तत्र मज्झत्तता-समचित्तत्व) २१. काय-प्रश्रब्धि (कायप्पस्सद्धि-काया की शान्ति) २२. चित्त-प्रश्रब्धि (चित्तप्पस्सद्धि-चित्त की शान्ति) २३. कायलघुता (कायलहुता-~-शरीर का हल्कापन) २४. चित्त-लघुता (चित्तलहुता-चित्त का हल्कापन) २५. कायमृदुता (कायमदुता) २६. चित्तमृदुता (चित्तमुदुता) २७. कायकर्मज्ञता (कायमम्मञता) २८. चित्तकर्मज्ञता (चित्तकम्मञता) २९. कायप्रागुण्यता (कायुपागुञता) ३०. चित्त प्रागुण्यता (चित्तपागुञता) ३१. काय-ऋजुता (कायुजुकता-काया की सरलता) ३२. चिन-ऋजुता (चित्त जुकता--चित्त की सरलता) आ. ६ गोभन-चेतसिक जो किन्हीं कुशल-चित्तों में पाये जाते है किन्हीं में नहीं, यथा Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८८ ) । कहते हैं ३३. सम्यक् वाणी (सम्मावाचा-वाचिक दुश्चरितों से विरति) तीनों ३४. सम्यक् कर्मान्त (सम्माकम्मन्तो-कायिकदुश्चरितोंसेविरति) ३५. सम्यक् आजीव (सम्मा आजीवो-जीविका सबंधी दुश्चरितों से विरति) ३६. करुणा ) इन दोनों को अ-परिमाण (परिमाण-रहित) कहते हैं ३७ मुदिता, क्योंकि इन्हें किसी हद तक बढ़ाया जा सकता है । ३८. प्रज्ञा-इन्द्रिय (पचिन्द्रियं—अमोह) ३. १४ अकुशल चेतसिक जो सामान्यतः अकुशल-चित्तों में पाये जाते हैं, जिनमें अ. ४ मूल-भूत अकुशल चेतसिक जो सभी अकुशल-चित्तों में अनिवार्यतः पाये जाते हैं । यथा ३९. मोह (मोहो) ४०. अ-ह्रो (अहिरीक-दुश्चरितों से लज्जा न करना) ४१. अन्-अवत्रपा (अनोत्तप्पं--कुकर्मों से त्रास न मानना) ४२. उद्धतता (उद्धच्च-चंचलता) आ. १० अकुशल-चेतसिक जो किन्हीं अकुशल-चित्तों में पाये जाते है, किन्हीं में नहीं, यथा ४३. द्वेष (दोसो) ४४. ईर्ष्या (इस्सा) ४५. मात्सर्य (मच्छरियं-कृपणता) ४६. कौकृत्य (कुक्कुच्चं-दुश्चरित के बाद सन्ताप) ४७. लोभ (लोभो) ४८. मिथ्याधारणा (दिट्ठि-दृष्टि) ४९. मान (मानो-गर्व) ५०. कायिक-आलस्य (थीनं-स्त्यान) ५१. मानसिक आलस्य (मिद्धं, मृद्ध) ५२. विचिकित्सा (विचिकिच्छा-सन्देह) चित्त के ८९ विभेदों में से प्रत्येक में कौन कौन से चेतसिक उपस्थित रहते हैं, इसका विस्तृत विवेचन, अनेक पुनरुक्तियों के साथ, 'धम्मसंगणि' में किया गया Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८९ ) है । उसकी शैली को समझने के लिये चेतसिकों की इस विस्तृत सूची को देखिये, जिसे 'धम्मसंगणि' ने कामावचर-भूमि के कुशल-चित्त के प्रथम भेद (देखिये ऊपर चित्त-विभेद की तालिका) से ही सम्बन्धित किया है । प्रथम प्रकार के चित्त को लक्ष्य कर 'धम्मसंगणि' कहती है "जिस समय कामावचर-लोक से सम्बन्धित कुशल चित्त उत्पन्न होता है, ज्ञान और सौमनस्य से सम्प्रयुक्त, रूप, शब्द, गन्ध, रस, स्पर्श या धम्म के आलम्बन (विषय) को लेकर, तो उस समय १. (१) फस्सो होति, (२) वेदना होति (३) सञा होति (४) चेतना होति (५) चित्तं होति । २. (६) वितक्को होति (७) विचारो होति (८) पीति होति (९) सुखं होति (१०) चित्तस्सेकाग्गता (चित्त की एकाग्रता) होति । ३. (११) सद्धिन्द्रियं (श्रद्धा-इन्द्रिय) होति (१२) विरियिन्द्रियं (वीर्य-इन्द्रिय) होति (१३) सतिन्द्रियं (स्मृति-इन्द्रिय) होति (१४) समाधिन्द्रियं होति (१५) पञ्जिन्द्रियं (प्रज्ञा-इन्द्रिय) होति (१६) मनिन्द्रियं (मन-इन्द्रिय) होति (१७) सोमनस्सिन्द्रियं (सौमनस्य-इन्द्रिय ) होति (१८) जीवितिन्द्रियं होति । ४. (१९) सम्मादिट्ठि (सम्यक् दृष्टि) होति (२०) सम्मासंकप्पो (सम्पक संकल्प) होति (२१) सम्मा वायायो (सम्यक् व्यायाम) होति (२२) सम्मासति (सम्यक् स्मृति) होति (२३) सम्मा समाधि (सम्यक् समाधि) होति । ५. (२४) सद्धा-बलं (श्रद्धा रूपी बल ) होति (२५) विरिय-बलं (वीर्य रूपी बल) होति, (२६) सति-बलं (स्मृति रूपी बल) होति (२७) समाधि-बलं होति (२८) पञ्जा-बलं (प्रज्ञा रूपी बल) होति (२९) हिरिबलं (नैतिक लज्जा रूपी बल) होति (३०) ओतप्पबलं (पाप-भय रूपी बल) होति ६. (३१) अलोभो होति (३२) अदोसो होति (३३) अमोहो होति (३४) १. यस्मिं समये कामावचरं कुसलं चित्तं उत्पन्न होति सोमनस्स सहगतं जाण सम्पयुत्तं रूपारम्मणं वा सद्दारम्मणं वा गन्धारम्मण वा रसारम्मणं वा फोट्ठबारम्मणं वा धम्मारम्मणं वा तस्मिं समये..... ... Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३९० ) अनभिज्जा ( अद्रोह ) होति (३५) अभ्यापादो (अ-वैर ) होति ( ३६ ) सम्मादि होति । ७. (३७) हिरि (ह्रो - नैतिक लज्जा ) होति (३८) ओतप्पं ( पाप भय) होति ८. (३९) काय-पसद्धि ( काय - प्रश्रब्धि- काया की शान्ति ) होति । (४०) चित्त-पस्मद्धि होति ( ४१ ) काय - लहुता ( काया का हल्कापन ) होति (४२) चित्त-लहुना होति (४३) काय - मुदिता ( काया की प्रफुल्लता ) होति (४४) चित्त-मुदिता होति (४५) काय - कम्मता ( काया के कर्मों का ज्ञान) होति । (४६) चित्त कम्मता होति (४९) कायज्जुकता ( काया की सरलता ) होति (५०) चित्तुज्जुकता होति । ९. (५१) सति होति (५२) सम्पणं ( सम्प्रज्ञान ) होति । १०. (५३) समथो ( शमथ, शान्ति ) होति (५४) विपस्सना ( विपश्यनाविदर्शना - अन्तर्ज्ञान) होति । ११. (५५) पग्गहो ( निश्चय ) होति (५६) अविक्खेपो ( चित्त - शान्ति का भंग न होना) होति । उपर्युक्त ५६ चित्त-अवस्थाओं में बहुत पुनरुक्ति की गई है । २९ और १७; ५ और १६; ६ और २०; १० १४, २३२७, ५३ और ५६; ११ और १४; १२, २१, २५ और ५५, १३, २२, २६ और ५१, १५, १९, २८, ३३, ३६, ५२ और ५४; २९ और ३७; ३१ और ३४ तथा ३२ और ३५ संख्याओं की अवस्थाएँ समान ही हैं । अतः समान अवस्थाओं को निकाल देने पर शेप ३१ रह जाती हैं। 'धम्मसंगणि' में इस प्रकार के विस्तार बहुत अधिक हैं और उनकी संगति केवल विभिन्न दृष्टियों से किये गये वर्गीकरणों के आधार पर ही लगाई जा सकती है । कुशल- चित्त के प्रथम भेद के अलावा उसके शेष २० भेदों को महगत-अवस्थाओं की भी गणना उसी के आधार पर की गई हैं । यही पद्धति बाद में कामावचर भूमि के अकुशल-चित्त के १२ भेदों के विषय में तथा उसके बाद विपाक चित्त की चारों भूमियों के ३६ भेदों के विषय में और अन्त में क्रिया-चित्त की तीन भूमियों ( कामावचर, रूपावचर, और अरूपावचर) के २० भेदों के विषय में प्रयुक्त की गई है। इन सबका विस्तृत विवरण अभिधम्म के पुरे दर्शन को समझने के लिये आवश्यक है, किन्तु पालि साहित्य के इतिहास Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( . ३९१ ) में तो इनका अपेक्षाकृत गौण स्थान ही हो सकता है । अत: यहाँ केवल मोटी रूप-रेखा उपस्थित कर धम्मसंगणि' में जिस शैली में उनका निरूपण किया गया है, उसका दिग्दर्शन मात्र करा दिया गया है ।' संक्षेप में चित्त और चेतमित्रों के सम्बन्ध का स्वरूप इस नीचे दी हुई तालिका से समझ में आ सकता है-- अ--कुशल-चित्त चित्तों को क्रम संख्या चेतसिकों को संख्या जो उनके अन्दर पाये जाते हैं (पहले दी हुई तालिका के अनुसार) १ एवं २ १३ अन्य समान+२५ शोभन = ३८ ३ एवं ४ उपर्युक्त ३८ में से ज्ञान को घटाकर =३५ ५ एवं ६ उपर्युक्त ३८ में से प्रीति को घटाकर =३७ ७ एवं ८ उपर्यक्त ३८में से ज्ञान और प्रीति दोनों को घटाकर उपर्युक्त ३८ में से ३ विरतियों (समक् वाणी, सम्यक् कर्म , सम्यक् =३५ आजीव) को घटाकर उपर्युक्त ३५ में से वितर्क को घटाकर = ३४ उपर्युक्त ३४ में से विचार को घटाकर =३३ उपर्युक्त ३३ में से प्रीति को घटाकर = उपर्युक्त ३२ में से करुणा और मुदिता (दो अ-प्रमाण) को घटाकर १४-१७ उपर्युक्त के समान ही الله ل 1 १. चित्त और चेतसिकों के सम्बन्ध के विस्तृत और क्रमबद्ध निरूपण के लिए देखिये भिक्षु जगदीश काश्यप : अभिधम्म फिलॉसफी, जिल्द, पहली, पृष्ठ ६८११०; जिल्द दूसरी, पृष्ठ ६८-८७; महास्थविर ज्ञानातिलोक (गाइड शू दि अभिवम्म पिटक, पृष्ठ ६-१३) ने विशेषतः निरूपण-शैली की दृष्टि से ही विवरण दिया है, अतः वह पूर्ण और क्रम-बद्ध नहीं है, किन्तु उनकी दी हुई सूचियाँ और तालिकाएं बड़ी महत्त्वपूर्ण हैं। Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३९२ ) १८-२१ प्रथम ३८ में से करुणा और मुदिता को घटाकर आ-अकुशल-चित्त १३ अन्य-समान+४ मूलभूत अकुशल-+लोभ+मिथ्या दृष्टि =१९ उपर्युक्त १९+स्त्यान और मृद्ध (कायिक और मानसिक आलस्य) =२१ उपर्युक्त १९+मान-मिथ्या-दृष्टि = १९ उपर्युक्त २१-+-मान-मिथ्या-दृष्टि =२१ उपर्युक्त संख्या २२ के १९-प्रीति = १८ उपर्युक्त १९----प्रीति--मिथ्यादृष्टि+मान लोभ-मूलक २ मोह-मूलक द्वेष-मूलक उपर्युक्त १९-प्रीति-मिथ्या-दृष्टि +-मान __ = १८ उपर्युक्त १९-प्रीति--स्त्यान+मृद्ध = २० उपर्युक्त १९---प्रीति--लोभ-मिथ्या-दष्टि +द्वेष+ईर्ष्या+मात्सर्य+कौकृत्य (चिन्ता) उपर्युक्त २०+स्त्यान+मृद्ध =२२ १० अन्य-समान (प्रीति, अधिमोक्ष, छन्द ये तीन कुल संख्या में से छोड़ दी गई हैं)+मोह-+अहीरिक + अनोत्तप्प+ उद्धच्च +विचिकिच्छा =१५ उपर्युक्त १५--विचिकिच्छा+ अधिमोक्खो = १५ इ-अव्याकृत-चित्त (क) कर्म-विपाक ३४-३८ ) ७ सर्वचित्त-साधारण एवं ५०-५४ भी) ३९ एवं ५५ ) उपर्युक्त ७+वितर्क+विचार+ एवं ४१ और ५६ भी अधिमोक्ष ... १३ अन्य समान में से छन्द और प्रीति को घटाकर = ११ ४० Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३९३ ) . ४२-४९ ५७-६९ = १-८, किन्तु करणा--मुदिता--सम्यक वाणी--. सम्यक् कर्म--सम्यक् कर्म--सम्यक् आजीव - ९-२१ (ख) क्रिया-चित्त ७१-७२ १३ में से छन्द और प्रीति को घटाकर = ११ ७३-८० = १-८, किन्तु सम्यक् वाणी, सम्यक् कर्म एवं सम्यक् आजीव को घटाकर ८१-८९ 'धम्ममंगणि' के प्रथम अध्याय या कांड (चित्तुप्पादकंड) की विषय-वस्तु और शैली का परिचय ऊपर दिया गया है । वास्तव में 'धम्मसंगणि' का यही भाग सर्वाधिक महत्वपूर्ण है । दूसरा अध्याय ‘रूप-कंड' एक प्रकार इसी का पूरक है । प्रथम कांड में कुशल, अकुशल और अव्याकृत का वर्णन है। रूप भी अव्याकृत के अन्दर ही आता है। इसका वर्णन इस दूसरे कांड में किया गया है। रूप का अर्थ है चार महाभूत और उनसे निर्मित सारा वस्तुजगत् । 'धम्मसंगणि' में कहा गया है ‘चत्तारो च महाभूता चतुन्नंच महाभूतानं उपादाय रूपं, इदं वुच्चति सव्वं रूपं' अर्थात् चार महाभूत और चार महाभूतों के उपादानसे उत्पन्न सारा दृश्य रूपात्मक जगत्, यही कहलाता है रूप। इस प्रकार निर्दिष्ट रूप का वर्गीकरण ही इस कांड का प्रधान विषय है । १०४ प्रकार के दुक, १०३ प्रकार के त्रिक, २२ प्रकार के चतुष्क और इसी प्रकार ग्यारह तक अन्य अनेक प्रकार के वर्गीकरणों में दश्य जगत् को यहाँ बाँटा गया है । इन वर्गीकरणों में कुछ ऐसी प्रभावशीलता या मौलिकता नहीं है, जिसके लिए यहाँ इनका उद्धरण आवश्यक हो। शैली प्रायः वैसी ही है जैसी प्रथम कांड में । जैसा पहले कहा जा चुका है, 'धम्मसंगणि' के तीसरे और चौथे कांडों में पूर्व विवेचित वस्तु के ही संक्षेप है और अधिकतर प्रश्नोत्तर के रूप १. देखिये ज्ञानातिलोक : गाइड शू दि अभिधम्म-पिटक, पृष्ठ १२ के सामने दी हुई तालिका २. देखिये अभिधम्म फिलॉसफी, जिल्द दूसरी, पृष्ठ ९०-९४ Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३९४ ) में धम्मों के स्वरूप को उन वर्गीकरणों में भी, जिनको पहले नहीं लिया जा सका है, समझा दिया गया है। तीसरे कांड (निक्खेप कंड) और चौथे कांड (अत्थु द्धारकंड) में शेष २१ त्रिकों और १०० द्विकों में धम्मों का क्या स्वरूप होगा, इसी को प्रश्नोत्तर के द्वारा समझाया गया है । निवखेपकंड' के कुछ प्रश्नोत्नरों को लीजिये-- (१) कतमे धम्मा सुखाय वेदनाय सम्पयुत्ता ? यस्मि समये कामावचरं कुसलं चित्तं उप्पन्नं होति सोमनस्ससहगतं आणसम्पयुत्तं रूपारम्मणं वा सद्दारम्मणं वा गंधारम्मणं वा रसारम्मणं वा फोट्ठव्वारम्मणं वा धम्मारम्मणं वा ये वा पन तस्मि समये अपि पटिच्चसम्प्पन्ना अरूपिनो धम्मा ठपेत्वा वेदनाक्खन्धं, इमे धम्मा सुखाय वेदनाय सम्पयुत्ता।' (२) कतमे धम्मा कुसला ? __तीणि कुसलमूलानि-अलोभो, अदोसो, अमोहो, तंसम्पयुत्तो बेदनाक्खन्धो, साक्खन्धो, संखारक्षन्धो, निब्बाणक्खन्धो, तंसमुट्टानं कायकम्म, वचीकम्म, मनोकम्म, इमे धम्मा कुसला । (३) कतमे धम्मा सप्पच्चया ? पंचक्खन्धा, रूपक्खन्धो, वेदनाखन्धो, सञ्जाक्खन्धो, संखारक्खन्धो, 'विज्ञाणक्खन्धो, इमे धम्मा सप्पच्चया ।३ १. कौन से धर्म (पदार्थ) सुख की संवेदना से युक्त हैं ? जिस समय कामावचर-भूमि में कुशल-चित्त उत्पन्न होता है, सौमनस्य और ज्ञान से युक्त, एवं रूप, शब्द, गन्ध, रस, स्पर्श और धर्म का आलम्बन ले कर, तो उस समय वह और अन्य भी प्रतीत्यसमुत्पन्न अरूपवान् पदार्थ, वेदना-स्कन्ध को छोड़ कर, जो उस समय पैदा होते हैं, वे सभी सुख की संवेदना से युक्त धर्म (पदार्थ) हैं। पालि-पाट, अभिधम्म-फिलॉसफी, जिल्द दूसरी , पृष्ठ ९५ में उद्धृत। २. कौन से धर्म कुशल हैं ? तीन कुशल-मूल, यथा अलोभ, अद्वेष, अमोह, इनसे युक्न तीन स्कन्ध, यथा वेदना-स्कन्ध, संज्ञा-स्कन्ध, संस्कार-स्कन्ध, इनसे उत्पन्न तीन प्रकार के कर्म यथा कायिक कर्म, वाचिक कर्म, मानसिक कर्म, यही सब धर्म कुशल हैं। ३. कौन से धर्म प्रत्ययों वाले है ? पाँच स्कन्ध, जैसे कि रूप-स्कन्ध, वेदना-स्कन्ध, संज्ञा-स्कन्ध, संस्कार-स्कन्ध, विज्ञान-स्कन्ध, यही धर्म प्रत्ययों वाले हैं । Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३९५ ) (४) कतम धम्मा अप्पच्चया ? असंखता धातु । इमे धम्मा अप्पच्चया' । _ 'अत्युद्धार-कंड' के भी कुछ उदाहरण देखिये-- (१) कतमे धम्मा हेतू चेव सहेतुका च ? य त्यढे तयो हेतू एकतो उप्पज्जन्ति, इमे धम्मा हेतू चेव सहेतुकाच । निःसन्देह ‘धम्मसंगणि' की गणनात्मक शैली इतनी विचित्र है कि साहित्य का सामान्य विद्यार्थी उसमें रुचि नहीं ले सकता । उसमें तो 'कर्म' और 'अकर्म' के स्वरूप का गवेषी और उसके तत्वों को गढ़ चेतना की तह और उसकी सारी भूमियों में ढूंढने को उद्यत कोई साहित्यिक भिक्षु ही प्रवेश कर सकता है। क्या कुशल है और क्या अकुशल है, इनमें से किसी को भी स्वीकार कर लेने पर चित्त की क्या प्रगतियाँ अथवा अधोमतियाँ होती हैं, उनके क्या मानसिक निदान और लक्षण होते हैं, क्या प्रतिकार होते हैं, उनमें से क्या हेय हैं या क्या ग्राहय है, इन सब की निष्पक्ष और मनोवैज्ञानिक गवेषणा मनुष्य को किसी भावी नैतिक चेतना-प्रधानयुग में जब अभिप्रेत होगी तो 'धम्मसंगणि' की पंक्तियों के आलवालों में फिर मणियों और मौतियों के थाले बनेंगे । अभी तो हमने जहाँ कहीं से चुने हुए कुछ पुष्पों से उसकी अर्चना की है, जो भी इस किं-कुशल-गवेषणा-विहीन युग में कहीं अधिक है । विभंग विभंग अभिधम्म-पिटक का दूसरा ग्रन्थ है । 'विभंग' का अर्थ है विस्तृत रूप से विभाजन या विवरण। इसी अर्थ में यह शब्द भद्देकरत्न-सुत्तन्त (मज्झिम १. कौन से धर्म प्रत्ययों वाले नहीं हैं ? असंस्कृत धातु। यही धर्म प्रत्ययों वाले नहीं हैं। २. कौन से धर्म स्वयं हेतु भी हैं और अन्य हेतुओं से युक्त भी है ? जहाँ दो-तीन हेतु एक जगह उत्पन्न होते हैं, तो यही धर्म स्वयं हेतु भी हैं और अन्य हेतुओं से युक्त भी हैं। उपर्युक्त तथा अन्य पालि उद्धरणों के लिए देखिये भिक्षु जगदीशकाश्यपः अभिधम्म फिलॉसफी, जिल्द दूसरी, पृष्ठ ९५-१०३ ३. श्रीमती रायस डेविड्स ने इस ग्रन्थ का सम्पादन रोमन लिपि में पालि टैक्स्ट् Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३।४।१) में प्रयुक्त किया गया है । “भिक्षुओ ! तुम्हें भद्देकरत्त (भद्रकरक्त) के उद्देश (नाम-कथन) और विभंग (विभाग) का उपदेश करता हूँ, उसे सुनो, अच्छी तरह मन में करो ।" विभंग में धम्मसंगणि के ही बृहद् विश्लेषण को वर्ग-बद्ध किया गया है, अतः यह उसका पूरक ग्रन्थ ही माना जा सकता है । धम्मसंगणि में, जैसा हम अभी देख चुके है, धम्मों का अनेक द्विकों और त्रिकों में विश्लेपण किया गया है और यही उसका प्रधान विषय है । किन्तु धम्मों के स्वरूप को स्पष्टरूप से समझाने के लिए वहाँ इस प्रकार के भी प्रश्न किये गये हैं, जैसे किन-किन धम्मों में कौन कौन से स्कन्ध, आयतन, धातु, इन्द्रिय आदि मंनिविष्ट है। इस प्रकार के प्रश्नों का उद्देश्य वहाँ स्कन्ध आयतन और धातु आदि के संबंध के साथ धम्मों के स्वरूप को समझाना ही है, न कि स्वयं स्कन्ध, आयतन और धातु आदि के स्वरूप का विनिश्चय करना । यह दूसरा काम विभंग में किया गया है। धम्मसंगणि का प्रधान विषय धम्मों का विश्लेपण मात्र कर देना है, उनका स्कन्ध, आयतन, और धातु आदि के रूप में मंश्लिष्ट वर्गीकरण करना विभंग का विषय है । यद्यपि धम्मसंगणि ने धम्मों का विश्लेषण करने के बाद अपूर्ण ढंग से यह दिखाने का प्रयत्न किया है कि उनमें कौन कौन से स्कन्ध, आयतन और धातु आदि संनिविष्ट हैं, किन्तु विभंग ने यहीं से उसके सूत्र को पकड़कर उसके सारे गन्तव्य मार्ग को ही जैसे उल्टा मोड़ दिया है । विभंग में इन स्कन्ध, आयतन और धातु आदि को ही प्रस्थान विन्दु मानकर यह दिखाया गया है कि स्वयं इनमें कौन कौन मे धम्म संनिविष्ट हैं । अतः वस्तु पूरक होते हुए भी वस्तु का विन्यास यहाँ धम्मसंगणि के ठीक विपरीत है। यहाँ यह कह देना भी अप्रासंगिक न होगा कि धम्मसंगणि की १०० द्विकों और २२ त्रिकों वाली वर्गीकरण की प्रणाली को भी, जिसका निर्देश उसकी 'मातिका' और निर्वाह सारे ग्रन्थ में हुआ है. विभंग ने आवश्यकतानुसार ज्यों का त्यों ले लिया है। अतः सोसायटी, लंदन के लिए किया है, जिसे उक्त सोसायटी ने सन् १९०४ ई० में प्रकाशित कियाहै। इस ग्रन्थ के बरमी, सिंहली और स्यामी संस्करण उपलब्ध है। सिंहली लिपि में हेवावितरणे-संस्करण अधिक ध्यान देने योग्य है। हिन्दी में कोई संस्करण या अनुवाद उपलब्ध नहीं । Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३९७ ) इस दृष्टि से भी वह उस पर अवलंबित है । इन्हीं सब कारणों से विभंग का अध्ययन-क्रम बौद्ध परम्परा में सदा धम्मसंगणि के बाद ही माना है । विभंग की विषय-वस्तु १८ विभागों या विभंगों में विभक्त की गई हैं, जिनमें से प्रत्येक अपने आप में पूर्ण है । विभंग के १८ विभागों या विभंगों के नाम इस प्रकार हैं- - (१) खन्ध - विभंग - - ( स्कन्ध - विभंग ) (२) आयतन - विभंग - - ( आयतन - विभंग ) (३) धातु-विभंग -- ( धातु विभंग ) (४) सच्च विभंग - - ( सत्य - विभंग ) ( ५ ) इन्द्रिय - विभंग -- ( इन्द्रिय - विभंग ) (६) पच्चयाकार-विभंग - - ( प्रत्ययाकार- विभंग ) (७) सतिपट्टान - विभंग -- (स्मृतिप्रस्थान - विभंग ) (८) सम्मप्पधान विभंग - ( सम्यक् प्रधान-विभंग ) (९) इद्विपाद विभंग -- (ऋद्धिपाद - विभंग) (१०) बोज्भंग - विभंग -- ( बोध्यंग - विभंग ) (११) मग्ग - विभंग --- ( मार्ग - विभंग ) (१२) झान-विभंग - - ( ध्यान - विभंग ) (१३) अप्पमञ्ञ - विभंग -- ( अ - परिमाण - विभंग ) (१४) सिक्खापद - विभंग -- ( शिक्षापद - विभंग ) (१५) पटिसम्भिदा-विभंग -- ( प्रतिसम्विद् - विभंग ) (१६) आण-विभंग -- ( ज्ञान - विभंग ) (१७) खुद्दक - वत्थु - विभंग -- (क्षुद्रक - वस्तु - विभंग ) (१८) धम्म-हृदय-विभंग - - ( धर्म - हृदय - विभंग ) प्रत्येक विभंग का नाम उसकी विषय-वस्तु के स्वरूप का सूचक है । प्रायः प्रत्येक ही विभंग तीन अंगों में विभक्त है, ( १ ) सुत्तन्तभाजनिय, ( २ ) अभिधम्म-भाजनिय, (३) पञ्ह - पुच्छकं । सुत्तन्त - भाजनिय में निरुक्त की जाने वाली Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३९८ ) विषय-वस्तु का सुतल आधार दिखलाया गया है, अर्थात् जिस विषय का वर्णन करना है वह किस सीमा तक या किस स्वरूप में सुत्तपिटक में पाया जाता है, इसका निर्देश किया गया है । अभिधम्म - भाजनिय में उसकी अभिधम्म मा उसके आधार-स्वरूप ‘मातिका' के अनुसार व्याख्या है । 'पञ्ह पुच्छकं' में 'द्विक' 'त्रिक' आदि शीर्षकों के रूप में प्रश्नोत्तर हैं, जिनमें संपूर्ण निरूपित विषय का सिंहावलोकन एवं संक्षेप है । अब हम प्रत्येक विभंग की विषय-वस्तु का संक्षिप्त विवरण देंगे । १ - खन्ध - विभंग · ( पाँच स्कन्धों का विवरण ) वेदना, जिसे हम व्यक्तिगत सत्ता ( जीवात्मा, पुद्गल) कहते हैं, वह रूप, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान की समष्टि के सिवा और कुछ नहीं है, ऐसी बौद्ध दर्शन की मान्यता है । रूप स्वयं संपूर्ण भौतिक विकारों और अवस्थाओं की समष्टि है | वेदना संपूर्ण संवेदनों की समष्टि है । संज्ञा संपूर्ण संजानन या जानने की क्रिया की, वस्तु और इन्द्रिय के संयोग से उत्पन्न चित्त की उस अवस्था की, जिसमें उसे वस्तु की सत्ता की सूचना मिलती है, दूसरे शब्दों में समग्र प्रत्यक्षों की, समष्टि है । इसी प्रकार संस्कार बाह्य और आन्तरिक स्पर्शो (इन्द्रिय-विषय-संनिकर्षो) के कारण से उत्पन्न समग्र मानसिक संस्करणों की और विज्ञान चक्षुरादि इन्द्रियों के, तत्संबंधी रूपादि विषयों या आलम्बनों-आयतनों के साथ संयुक्त होने पर उत्पन्न, चक्षुविज्ञान आदि विज्ञानों पर आधारित समग्र चित्त-भेदों की समष्टि है । रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान का ही सामूहिक नाम 'पंच- स्कन्ध' है । इन पाँचों स्कन्धों में ही संपूर्ण नाम-रूप-मय जगत् के मूल तत्व निहित है, ऐसा बौद्ध दर्शन मानता है । 'पञ्च स्कन्ध' के विषय को उपन्यस्त करते हुए विभंग के आरंभ में ही कहा गया है- -- पञ्चक्खन्धा : रूपक्खन्धो, वेदनाक्खन्धो, सञ्ञाक्ग्वन्धो, संखारक्खन्धो, विञ्चाणक्खन्धो । इन पञ्चस्कन्धों का सुत्तन्त आधार दिखाने हुए सुनन्त-भाजनिय में उस बुद्ध वचन को उद्धृत किया गया है, जिसमें इन पाँच स्कन्धों में से प्रत्येक के विषय में यह साधारण कथन किया गया Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३९९ ) है कि वह भूत, वर्तमान या भविष्य का भी हो सकता है, व्यक्ति के बाहर या भीतर का भी हो सकता है, स्थूल या सूक्ष्म भी हो सकता है, शुभ या अशुभ भी हो सकता है, दूर का या समीप का भी हो सकता है । रूपविषयक उद्धरण यह है, “जो कुछ भी रूप है. भूत (अतीत) का, या वर्तमान (प्रत्युत्पन्न) का, या भविष्यत् (अनागत) का, व्यक्ति के बाहर का (बहिद्धा) या भीतर (अज्झत्तं) का, स्थूल (ओळारिक), या सूक्ष्म (सुखुम), शुभ (कुशल), या अशुभ (अकुशल), दूर का (दूरे), या समीप का (सन्तिके), उस सब की समष्टि ही रूप-स्कन्ध है ।" वेदनादि स्कन्धों के विषय में भी कुछ थोड़े-बहुत अन्तर से इसी क्रम का अनुसरण किया गया है। अभिधम्मभाजनिय में पञ्च-स्कन्ध की व्याख्या है । रूप के विवेचन में २२ त्रिकों और १०० द्विकों को लेकर अक्षरशः वही प्रणाली बरती गई है जो धम्मसंगणि में । अतः उसमें कुछ नवीनता नहीं है । शेष चार स्कन्धों के विवरणों में भी यद्यपि विषय और शैली की दृष्टि से कुछ नवीनता नहीं है, किन्तु इनके अलग अलग विवरण धम्मसंगणि की विषय-वस्तु को अधिक स्पष्ट कर देते हैं । वेदना के विषय में बताया गया है कि वह सदा स्पर्श (फस्सो-इन्द्रिय-विषय संनिकर्ष) पर आधारित है। वह लौकिक भी हो सकती है और अलौकिक भी, वितर्कादि से युक्त भी और उनसे रहित भी, सुख से युक्त भी, दुःख से युक्त भी, न-सुख न-दुःख से युक्त भी। कामावचर-भूमि या अन्नपावचर-भूमि की भी हो सकती है, चक्षु-संस्पर्श से भी युक्त हो सकती है, श्रोत्र-संस्पर्श से भी, आदि, आदि । एक संख्या से लेकर दस संख्या तक के वर्गीकरणों में वेदना-स्कन्ध का विस्तृत विवरण इस प्रकार किया गया है-- १--वेदना-स्कन्ध २. (१) सहेतुक (२) अहेतुक ३. (१) कुशल (२) अकुशल (३) अव्याकृत ४. (१) कामावचर (२) रूपावचर (३) अरूपावचर (४) अपरियापन्न (व्यक्तिगत जीवन-सत्ता से असम्बन्धित) Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४०० ) ५. (१) सुखेन्द्रिय (२) दुःखेन्द्रिय (३) सौमनस्येन्द्रिय (४) दौर्मनस्यन्द्रिय (५) उपेक्षेन्द्रिय ६. (१) चक्षु-संस्पर्शजा (२) श्रोत्र-संस्पर्शजा (३) घ्राण-संस्पर्शजा (४) जिह्वा-संस्पर्शजा (५) काय-संस्पर्शजा (६) मनो-संस्पर्शजा ७. (१) चक्षु-संस्पर्शजा, (२) श्रोत्र-सस्पर्शजा (३) घ्राण-संस्पर्शजा (४) जिह्वा-संस्पर्शजा, (५) काय-संस्पर्शजा (६) मनोधातु-संस्पर्शजा (७) मनोविज्ञानधातु-संस्पर्शजा ८. (१) चक्षु-संस्पर्शजा (२) श्रोत्र-संस्पर्शजा (३) घ्राण-संस्पर्शजा (४) जिह्वा-संस्पर्शजा (५) सुखाकाय-ससंस्पर्शजा (६) दुःखकाय-संस्पर्शजा (७) मनोधातु-संस्पर्शजा (८) मनोविज्ञानधातु-संस्पशजा ९. (१) चक्षु-संस्पर्शजा (२)श्रोत्र-संपर्शजा (३) प्राण-संस्पर्शजा (४) 'जिह्वासंस्पर्शजा (५) काय-संस्पर्शजा (६) मनोधातु-संस्पर्शजा (७) कुशला मनोविज्ञानधातुसंस्पर्शजा (८) अकुशला मनोविज्ञानधातुसंस्पर्शजा (९) अव्याकृता मनोविज्ञानधातुसंस्पर्शजा १०. (१)चक्षु-संस्पर्शजा (२) श्रोत्र-संस्पर्शजा (३) घ्राण-संस्पर्शजा (४) जिह्वा-संस्पर्शजा (५) काय-संस्पर्शजा (६) सुखा मनोधातु संस्पर्शजा (७) दुःखा मनोधातु संस्पर्शजा (८) कुशला मनोविज्ञानधातु संस्पर्शजा (९) अकुगला मनोविज्ञानधातु संस्पर्शजा (१०) अव्याकृता मनोविज्ञानधातु संस्पर्शजा । ___उपर्युक्त सूची में कई संख्याएँ अनेक बार संगृहीत हैं । अभिधम्म के परिगणनों में यह बात नई नहीं है । गणनाओं के पीछे पड़ जाने की प्रवृत्ति का ही यह परिणाम है। संज्ञा, संस्कार, और विज्ञान स्कन्धों का विवरण भी जहाँ-तहाँ अल्प परिवर्तनों के साथ वेदना-स्कन्ध के समान ही दिया गया है । पञ्ह-पुच्छकं विभाग में प्रश्न हैं, जैसे पञ्चानं खन्धानं कति कुसला ? कति अकुसला ? कति अव्याकता? अर्थात् पाँच स्कन्धों में से कितने कुशल हैं ? कितने अकुशल ? कितने अव्याकृत? इसी प्रकार कति सुखाय वेदनाय सम्पयुत्ता ? कति दुक्खाय वेदनाय संम्पयुत्ता ? कति अदुक्खमसुखाय वेदनाय सम्पयुत्ता ? अर्थात् कितने सुख की Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४०१ ) वेदना से युक्त हैं, कितने दुःख की वेदना से युक्त हैं, और कितने न-दुःख-न-सुख की वेदना से युक्त हैं ? इनके फिर उत्तर दिये गये हैं। उदाहरणतः ऊपर उद्धृत प्रयम त्रिक-प्रश्नावली का उत्तर दिया गया है--रूपक्खन्धो अव्याकतो । त्रत्तारो खन्धा सिया कुसला, सिया अकुसला, सिया अकुसला, सिया अव्याकता. अर्थात् रूप-स्कन्ध अव्याकृत है। शेष चार स्कन्ध (वेदना, संज्ञा, संस्कार, विज्ञान) कुशल भी हो सकते हैं, अकुशल भी और अव्याकृत भी। ऊपर उद्धृत द्वितीय त्रिक प्रश्नावली का उत्तर इस प्रकार दिया गया है--द्वे खन्धा न वत्तब्बा सुखाय वेदनाय सम्पयुत्ता ति पि. दुक्खाय वेदनाय सम्पयुत्ता ति पि । तयो खन्धा मिया सुखाय, दुक्खाय अदक्खमसुखाय वेदनाय सम्पयुत्ता। इसका अर्थ यह है-दो स्कन्धों (रूप और वेदना) के विषय में तो न तो ऐसा ही कहा जा सकता है कि वे सुख की वेदना से युक्त हैं और न यह कि वे दुःख की वेदना से युक्त है। शेष तीन स्कन्ध (संज्ञा, संस्कार, विज्ञान) सुख की वेदना से भी युक्त हो सकते है. दुःख की वेदना से भी और-न-सुख-न-दुःख की वेदना से भी। ये उदाहरण मिर्फ गैली का दिग्दर्शन मात्र कराने के लिए दिये गये है । अन्यथा इस प्रश्नोत्तरी में एक-एक करके वे सभी २२ त्रिक और १०० द्विक के वर्गीकरण संनिहित हैं, जिनका उल्लेख पहले हो चुका है। उत्तरों की यह विशेषता है कि वे संक्षिप्त होने के माय-साय स्कन्धों का नाम ले ले कर निर्देश नहीं करते, बल्कि उनकी केवल मंच्या गिना देते हैं। २-अायतन-विभंग (१२ आयतनों या आधारों का विवरण) सुत्तन्त-भाजनिय में १२ आयतनों का उल्लेख है, जैसे कि १. चक्षु-आयतन ७. जिह्वा-आयतन २. रूप-आयतन ८. रस-आयतन ३. श्रोत्र-आयतन ९. काय-आयतन ४. शब्द-आयतन १०. स्पृष्टव्य-आयतन ५. घ्राण-आयतन ११. मन-आयतन ६. गन्ध-आयतन १२. धर्म-आयतन २६ Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४०२ ) ये सब आयतन अनित्य, दुःख और अनात्म हैं, इतना ही कहकर सुत्तन्तभाजनिय समाप्त हो जाता है। अभिधम्म भाजनिय में उपर्युक्त १२ आयतनों के स्वरूप की व्याख्या की गई है । “क्या है चक्षु-आयतन ? यह चक्षु, जो चार महाभूतों से उत्पन्न, व्यक्तिगत सत्ता से अभिन्न रूप से संबंधित, अनुभूति (पसाद) रूपी स्वभाववाली, प्रत्यक्ष का अविषय (अनिदस्सं--क्योंकि प्रत्यक्ष तो केवल रंग, प्रकाश आदि के अनुभवों का होता है) किन्तु साथ ही इन्द्रिय अनुभवों पर प्रतिक्रिया करनेवाली (सप्पटिघ) है-यही अदृश्य चक्षु, जिसकी इन्द्रिय अनुभवों पर प्रतिक्रिया के कारण व्यक्ति अनुभव करता है कि उसने किसी दृश्य पदार्थ को देखा है, देखता है, या देखेगा, यही कहलाता है चक्षु-आयतन।" इसी प्रकार श्रोत्र, त्राण जिह्वा और काय-संबंधी आयतनों की भी व्याख्या की गई है। चक्षु, श्रोत्र, प्राण, जिह्वा और काय संबंधी विज्ञानों, मनोधातु और मनोविज्ञानधात के समष्टिगत स्वरूप को ही 'मन-आयतन' कहा गया है। चार महाभूतों से उत्पन्न संपूर्ण भौतिक व्यापार, जो रंग आदि के रूप में दिखाई पड़ता है, 'रूपायतन' कहा गया है । बारह आयतनों में से पाँच इन्द्रिय आयतनों (चक्ष, श्रोत्र, घ्राण, जिह्वा, काय) और पाँच विषय-आयतनों (रूप, शब्द, गन्ध, रस, स्पृष्टव्य), इन दम आयतनों को भौतिक कहा गया है और मन-आयतन को मानसिक । धर्म-आयतन भौतिक भी हो सकता है और मानसिक भी, अतीत का भी, वर्तमान का भी, और भविष्यत् का भी, वास्तविक भी, और काल्पनिक भी। ‘पञ्ह पुच्छक' में स्कन्ध-विभंग के नमूने पर ही प्रश्न है, यथा (१) दादसायतनानं कति कमला ? कति अकुसला? कति अव्याकता ? अर्थात् १२ आयतनों में से कितने कुशल हैं, कितने अकुशल, कितने अव्याकृत ? (२) कति सुखाय वेदनाय सम्पयुना? कति दुक्खाय वेदनाय सम्मयुना? कति अदुक्खमसुखाय वेदनाय सम्पयुत्ता? अर्थात् कितने सुख की वेदना से युक्त है ? कितने दुःख की वेदना से युक्त है ? कितने न-दुःख-न-पुख की वेदना से युक्त है ? आदि, आदि। इनके उत्तर भी क्रमशः देखिए, (१) दस आयतन (चक्षु, रूप, श्रोत्र, शब्द, घ्राण, गन्ध, जिह्वा, ग्म, काय, स्पृष्टव्य) अव्याकृत है । दो आयतन (मन और धर्म) कुशल भी हो सकते है, अकुशल भी और अव्याकृत भी--"मिया कुमला, सिया अकुसला, मिया अब्याकता ।" (२) दस आयतनों के विषय में न तो निश्चयपूर्वक Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४०३ ) यही कहा जा सकता है कि वे सुख की वेदना से मुक्त है, न यह कि वे दुःख की वेदना से युक्त हैं और न यही कि वे न सुख-दुःख की वेदना से युक्त हैं। मन-आयतन सुख की वेदना से युक्त भी हो सकता है, दुःख की वेदना से यक्त भी और न-सुख-न-दुख की वेदना से युक्त भी। इसी प्रकार धर्म आयतन सुख की वेदना से भी युक्त हो सकता है, दुःख को वेदना से भी और न-सुख-न-दुःख की वेदना से भी। उसके विषय में निश्चयपूर्वक यह नहीं कहा जा सकता कि वह सुख की वेदना से ही युक्त है, या दुःख की वेदना से ही, आदि । ३-धातु-विभंग (१८ धातुओं का विवरण) सनन्त-भाजनिय में छह-छह के तीन वर्गीकरणों में १८ धातुओं का विवरण इस प्रकार किया गया है-- (अ) पृथ्वी-धातु, जल-धातु, तेज-धातु, वायु-धातु, आकाश-धातु, विज्ञानधातु (आ) मुग्व-धातु, दुःख-धातु, सौमनस्य-धातु, दौर्मनस्य-धातु, उपेक्षा-धातु. अविद्या-धातु (इ) काम-धातु, व्यापाद-धातु, विहिंसा-धातु, निष्कामता-धातु, अव्यापादधातु, अ-विहिंमा धातु । ___ अभिधम्म-भाजनिय में १८ धातुओं की गणना दूसरे प्रकार से की गई है, जो इस प्रकार है-- १. चक्षु २. रूप ३. चक्ष-विज्ञान ४. श्रोत्र ५. शब्द ६. श्रोत्र-विज्ञान ७. घ्राण ८. गन्ध ९. घ्राण-विज्ञान १०. जिह्वा ११. रस १२. जिह्वा-विज्ञान १३. काय १४. स्पृष्टव्य १५. काय-विज्ञान १६. मन १७. धर्म १८. मनोविज्ञान Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४०४ ) इन अठारह धातुओं में चक्षु, रूप, श्रोत्र, शब्द, घाण, गन्ध, जिह्वा, रस, काय ओर स्पृष्टव्य, ये दस धातुएँ भौतिक हैं। अत: वे रूपस्कन्ध में सम्मिलित हैं । चक्षु-विज्ञान, श्रोत्र-विज्ञान, घ्राण-विज्ञान, जिह्वा-विज्ञान, काय-विज्ञान, मन, और मनो विज्ञान, ये सात धातुऐं मानसिक हैं । धर्म-धातु अंशतः मानसिक और अंशतः भौतिक है । चक्षु और रूप के संयोग से उत्पन्न चित्त की अवस्था का नाम चक्षु-विज्ञान है । इसी प्रकार श्रोत्र-विज्ञान आदि के विषय में भी नियम है । मनो-धातु, चक्षु-विज्ञान आदि विज्ञानों के बाद, द्रष्टा और दृश्य के संयोग के ठीक अनन्तर, उत्पन्न हुई चित्त की अवस्था का नाम है । मनोविज्ञान-धातु मन और धर्मों के संयोग सेउत्पन्न चित्त की उस अवस्था का नाम है, जो मनो-धातु के बाद उत्पन्न होती है। ‘पञ्चपुच्छकं' में फिर उसी क्रम से प्रश्न हैं, जैसे प्रथम दो विभंगों में, यथा (१) १८ धातुओं में से कितनी कुशल हैं, कितनी अकुशल और कितनी अव्याकृत ? (२) कितनी सुख की वेदना से युक्त हैं ? कितनी दुःख की वेदना से युक्त हैं ? कितनी न-सुख-न-दुःख की वेदना से युक्त ? आदि, आदि । इनके उत्तर भी ध्यान देने योग्य हैं (१) १६ धातुएँ (धर्म और मनोविज्ञान को छोड़ कर शेष सव) अव्याकृत हैं। दो धातुएँ (धर्म और मनोविज्ञान) कुगल भी हो सकती है, अकुशल भी, और अकुशल भी 'सिया कुसला, सिया अकुसला, सिया अव्याकता' । (२) दस धातुओं (चक्षु, श्रोत्र, घ्राण, जिह्वा, काय, रूप, शब्द, गन्ध, रस, स्पृष्टव्य) के विषय में निश्चय पूर्वक नहीं कहा जा सकता कि वे सुख की वेदना से युक्त हैं, या दुःख की वेदना से युक्त हैं या न-सुख-न-दुःख की वेदना से युक्त हैं। पाँच धातुएँ (चक्षु-विज्ञान, श्रोत्रविज्ञान, घ्राण-विज्ञान, काय-विज्ञान, मन) न-पुख-न-दुःख की वेदना से युक्त हैं। काय-विज्ञान-धातु मुख की वेदना से भी युक्त हो सकती है और दुःख की वेदना मे भी। मनोविज्ञान-धातु सुख, दुःख और न-मुग्व-न-दुःख, इन तीनों वेदनाओं से किमी से भी युक्त हो सकती है। इसी प्रकार धर्म-धातु भी इन तीनों वेदनाओं में से किसी से युक्त हो सकती और उसके विषय में यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि या तो वह मुख की वेदना मे ही युक्त है, या दुःख की वेदना से या न-सुख-न-दुःख की वेदना से, आदि, आदि । Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४०५ ) ४--सच्च-विभंग (चार आर्य-सत्यों का विवरण) पहले, सुत्तन्त-भाजनिय में सुत्तों (विशेषतः दीघ-निकाय के महासतिपट्ठान-सुत्त एवं इस प्रकार के अन्य बुद्ध-वचनों) की भाषा में चार आर्य-सत्यों की प्रस्तावना करते हुए कहा गया है--'चत्तारि अरिय-सच्चानि : दुक्खं अरियसच्चं, दुक्खसमुदयं अरियसच्चं, दुक्खनिरोधं अरियसच्चं, दुक्खनिरोधगामिनी पटिपदा अरियसच्चं' अर्थात् ये चार आर्य-सत्य हैं--दुःख आर्य-सत्य, दुःख-समदय आर्य-सत्य, दुःख-निरोध आर्य-सत्य, दुःख-निरोध-गामी मार्ग आर्य-सत्य । अभिधम्म-भाजनिय में इनकी अभिधम्म के अनुसार व्याख्या है। तृष्णा और चित्त-मलों को दुःख-समुदय का प्रधान कारण माना गया है और इनके निरोध को दुःख-निरोध का भी प्रधान कारण । दुःख-निरोधी-गामी मार्ग की व्याख्या निर्वाण-सम्बन्धी ध्यान के रूप में की गयी है, जिसकी भूमियों का निरूपण 'धम्म संगणि' में हो चुका है। ‘पञ्हपुच्छकं' में चार आर्य सत्यों के विषय में उसी प्रकार के प्रश्न किये गये हैं, जैसे पूर्व के विभंगों में, यथा (१) चार आर्य सत्यों में कितने कुशल हैं ? कितने अकुशल? कितने अव्याकृत ? (२) कितने सुख की वेदना से युक्त हैं, कितने दुःख की वेदना से युक्त , कितने न-सुख-न-दुःख की वेदना से युक्त ? इनके उत्तर इस प्रकार हैं (१) समुदय-सत्य अकुशल है । मार्ग-सत्य कुशल है । निरोध-सत्य अव्याकृत है। दुःख-सत्य, कुशल भी हो सकता है, अकुशल भी और अव्याकृत भी। (२) दो सत्य सुख की वेदना से भी युक्त हो सकते है और न-सुख-न-दुःख की वेदना से युक्त भी। निरोध-सत्य के विपय में निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि वह तीनों प्रकार की वेदनाओं में से किससे युक्त है। दुःख-सत्य सुख की वेदना से भी युक्त हो सकता है, दुःख की वेदना मे भी और न-सुख-न-दुःख की वेदना से भी। उसके विषय में निश्चयपूर्वक यह नहीं कहा जा सकता कि वह सुख की वेदना से युक्त है, या दुःख की वेदना से या न-मुख-न-दुःख की वेदना से। दुःख-सत्य को सुख की वेदना से भी युक्त मानकर 'विभंग' ने उसको वह विस्तृत अर्थ दिया है जिसकी स्मृति भगवान् वुद्ध के माथ-साथ महर्षि पतञ्जलि ने भी दिलाई है “परिणामतापसंस्काग्दुःग्वैगुणवृनिविरोधाच्च दुःखमेव सर्व विवेकिनः” (२।१५) Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४०६ ) ५-इन्द्रिय-विभंग __ (२२ इन्द्रियों का विवरण) इस विभंग में २२ इन्द्रियों का सुत्तन्त के आधार पर विवरण है जिनकी संख्या इस प्रकार है-- १. चक्षु २. श्रोत्र ३. घ्राण ४. जिह्वा ७. काय ६. मन छह इन्द्रिय ७. स्त्रीत्व ८. पुरुषत्व ९. जीवित-इन्द्रिय १०. सुम्ब (गारीरिक) ११. दुःख (मानसिक) १२. चिन की प्रमन्नता (सौमनस्य) १३. चित्त की खिन्नता (दौर्मनस्य) १४. उपेक्षा, S पाँच प्रकार की वेदनाएं १६. वीर्य १७. स्मृति पाँच नैतिक इन्द्रियाँ १८. समाधि १९. प्रज्ञा २०. "मैं अज्ञात को जानूंगा” यह संकल्प ) (अनजान जस्सामीतिन्द्रिय) २१. परिपूर्ण ज्ञान (अज्ञा) ( तीन लोकोनर इन्द्रिय २२. "जिसने ज्ञान प्राप्त कर लिया" तत्सम्बन्धी । इन्द्रिय (अज्ञाताविन्द्रिय) उपर्युक्त २० इन्द्रियों की व्याख्या और अन्त में (पञ्हपुब्छकं) नोनगें के रूप में उनका कुगल, अकुशल और अव्याकृत आदि के रूप में विभाजन, इतना ही इस विभंग का विषय है। Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०७ ) ६-पच्चयाकार-विभंग (प्रतीत्य समुत्पाद का विवरण) इस विभंग में प्रतीत्य ममुत्पाद का वर्णन है। मुत्तन्त-भाजनिय में पहले सत्तन्त का यह उद्धरण है "अविद्या के प्रत्यय से संस्कार-चेतना की उत्पनि, मंस्कारचेतना के प्रत्यय में विज्ञान की उत्पत्ति, विज्ञान के प्रत्यय मे नाम और रूप की उत्पत्ति, नाम और रूप के प्रत्यय ने छः आयतनों की उत्पत्ति, छः आयतनों के प्रत्यय से स्पर्ग की उत्पत्ति, स्पर्ग के प्रत्यय से वेदना की उत्पत्ति,वेदना के प्रत्यय से तृष्णा के उत्पनि, तृष्णा के प्रत्यय से उपादान की उत्पत्ति, उपादान के प्रत्यय मे भव की उत्पनि, भव के प्रत्यय मे जन्म की उत्पत्ति, जन्म के प्रत्यय मे जरामग्ण, दुःख, गोक आदि की उत्पत्ति” प्रतीत्य समुत्पाद में प्रयुक्त १२ निदानों की व्याख्या यहाँ निदान-मंयुत्त के समान ही की गई है। अभिधम्म-भाजनिय में में उन २४ प्रत्ययों का उल्लेख है, जिनके आधार पर भौतिक और मानसिक जगत् में उत्पत्ति और निरोध का व्यापार चलता है । इन प्रत्ययों का विस्तृत विवेचन आगे चल कर पूरे ग्रन्थ 'पट्ठान-प्रकरण' में किया गया है । इस विभंग के अन्त में प्रश्नोत्तर रूप में प्रतीत्य समुत्पाद के विभिन्न अंगों में कौन कुशल, अकुगल आदि है, इसका विवेचन पूर्ववत ही किया गया है। ७-सतिपट्टान-विभंग (चार स्मृति-प्रस्थानों का विवरण) ___ काया में कायानुपश्यी होना, वेदना में वेदनानुपश्यी होना, चित्त में चित्तानपश्यी होना और धर्मों में धर्मान पश्यी होना, यही चार स्मृति-प्रस्थान है, जिनका विस्तृत उपदेश मतिपट्ठान-मुत्त (मज्झिम. १।१।१०) जैसे सुत्तन्त के अंगो में दिया गया है। इस विभंग के सुत्तन्त-भाजनिय में इमी का संक्षेप कर दिया गया है। अभिधम्म-भाजनिय में यह दिखाया गया है कि इनकी भावना लोकोत्तर ध्यान में किस प्रकार होती है। ‘पञ्ह पुच्छकं' में इनका विभाजन कुशल, अकुगल आदि के रूप में किया गया है। इनमें अकुगल कोई नही है। चारो स्मृतिप्रस्थान या तो कुगल होते हैं या अव्याकृत । अर्हत की चित्त-अवस्था में आगे के Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४०८ ) लिये कर्म-विपाक नहीं बनते । अतः उस हालत में वे बौद्ध पारिभाषिक शब्दों में 'किरिया' (क्रिया-मात्र) होते हैं । ८-सम्मप्पधान-विभंग (चार सम्यक् प्रधानों का विवरण) (१) अकुशल अवस्थाओं से बचना (२) उन पर विजय प्राप्त करना (३) कुगल अवस्थाओं का विकास करना (४) विकसित कुशल अवस्थाओं को बनाये रखना, यही चार सम्यक् प्रधान हैं। सतिपट्ठान-सुत्त (मज्झिमश०१०) के आधार पर इनका वर्णन किया गया है और अभिधम्म-भाजनिय में केवल यह अधिक दिखला दिया गया है कि लोकोत्तर-ध्यान की अवस्था में ये किस प्रकार विद्यमान रहते है। ९--इद्धिपाद-विभंग (४ ऋद्धियों का विवरण) चार ऋद्धियाँ हैं, दृढ़ संकल्प की एकाग्रता (छन्द-समाधि), वीर्य की एकाग्रता (विरिय-समाधि), चित्त की एकाग्रता (चित्त-समाधि) और गवेषणा की एकाग्रता (बीमंसा-समाधि) । यहाँ यह भी दिखाया गया है कि चार ऋद्धियों का चार मम्यक-प्रधानों से क्या पारस्परिक सम्बन्ध है। १०--बोझङ्ग-विभंग (बोधि के सात अंगों का विवरण) बोधि के सात अंग हैं, स्मृति (सति), धर्म की गवेषणा (धम्म-विचय), वीर्य (विरिय), प्रीति (पीति), चित्त-शान्ति या प्रश्रब्धि (पस्सद्धि), समाधि और उपेक्षा (उपेक्वा) । मज्झिम-निकाय के आनापान-सति-सुत्त के समान ही इनका यहाँ निदग है। अभिधम्म-भाजनिय में अवश्य इन विभिन्न अंगों की अभिधम्म की शब्दावली में व्याख्या की गई है और बाद में कुशल आदि के रूप म उनका विभाजन किया गया है। Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४०९ ) ११--मग्ग-विभंग (आर्य अष्टाङ्गिक मार्ग का विवरण) आर्य अष्टाङ्गिक मार्ग का विवरण यहाँ सतिपट्ठान-सुत्त (मज्झिम.१।१।१०) के अनुसार ही है । सम्यक् दृष्टि, सम्यक् संकल्प, सम्यक् वाणी, सम्यक् कर्मान्त, सम्यक आजीविका, सम्यक् व्यायाम, सम्यक् स्मृति और सम्यक् समाधि का निर्देश करने के बाद प्रत्येक की व्याख्या की गई है और फिर अन्त में प्रश्नोत्तर के रूप में उन्हें कुशलादि के वर्गीकरणों में बाँटा गया है। १२--झान-विभंग (चार ध्यानों का विवरण) ___ -प्रथम सुत्तन्त-भाजनिय में चूलहत्थिपदोपम-सुत्त (मज्झिम. १।३।७) के उस बुद्ध-वचन को उद्धृत किया गया है जिसमें चार ध्यानों का विस्तृत वर्णन * उपलब्ध होता है। अधिक महत्वपूर्ण होने के कारण हम उसे यहाँ उद्धत करेंगे। 'भिक्षुओ ! भिक्षु इस आर्य-सदाचार से युक्त हो, इस आर्य इन्द्रिय-संयम से युक्त हो, स्मृति और ज्ञान से युक्त हो, किसी एकान्त-स्थान में रहता है जैसे अरण्य, वृक्ष की छाया, पर्वत, कन्दरा, गुफा, श्मशान, जंगल, खुले आकाश के नीचे या पुआल के ढेर पर । वह पिडपात से लौट भोजन कर चुकने के बाद ग्रासनी मार शरीर को सीधा रख स्मृति को सामने कर वैठता है . . . . . . वह चित्त के उपक्लेश, प्रना को दुर्वल करने वाले, पाँच बन्धनों को छोड़, काम-वितर्क से रहित हो, बुरे विचारों से रहित होकर, प्रथम ध्यान को प्राप्त कर विचरता है। इस ध्यान में वितर्क और विचार रहते हैं। एकान्त-वास से यह ध्यान उत्पन्न होता है। इसमें प्रीति और सुख भी रहते हैं . . . . . .फिर भिक्षुओ ! भिक्षु वितर्क और विचारों के उपगमन से अन्दर की प्रसन्नता और एकाग्रता रूपी द्वितीय -ध्यान को प्राप्त करता है । इसमें न वितर्क होते हैं, न विचार । यह समाधि से उत्पन्न होता है। इसमें प्रीति और सुख रहते है। . . . . . . फिर भिक्षुओ ! भिक्ष प्रीति मे भी विरक्त हो, उपेक्षावान् बन कर विचरता है। वह स्मृतिमान् , ज्ञानवान् होता है और शरीर मे सुख का अनुभव करता है । वह तृतीय ध्यान को प्राप्त करता है जिसे पंडित जन 'उपेक्षावान्, स्मृतिमान् सुखपूर्वक विहार करने वाला' कहते है । Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४१० ) फिर भिक्षुओ ! भिक्षु दु:ख और सुख-दोनों के प्रहाण से, सौमनस्य और दौर्मनस्य दोनों के पहले से ही अस्त हुए रहने से, चतुर्थ-ध्यान को प्राप्त करता है । इसमें न दुःख होता है न सुख । केवल उपेक्षा तथा स्मृति की परिशुद्धि यहाँ होती हैं।" इसी बुद्ध-वचन के आधार पर अभिधम्म-भाजनिय में यह दिखलाया गया है कि प्रथम ध्यान के पाँच अवयव होते है, यथा, वितर्क, विचार, प्रीति, सुख और समाधि । द्वितीय ध्यान के नीन, यथा प्रोति, मुख और समाधि । तृतीय ध्यान में केवल दो रह जाते हैं, सुख और समाधि और चौथे में भी केवल दो, उपेक्षा और समाधि । 'पञ्ह-पुच्छकं' में यही दिखलाया गया है कि ध्यान कुशल भी हो सकते है और अव्याकृत भी। चार स्मतिप्रस्थानों की तरह ये भी अर्हत् के चित्त के लिये भविष्य का कर्म-विपाक बनाने वाले नहीं होते। दूसरे शब्दों में वे उसके लिये 'किरिया-वित्त' होते हैं। १३-अप्पमञ-विभंग (चार अ-परिमाण अवस्थाओं का विवेचन) मैत्री (मेना), करुणा, मुदिता और उपेक्षा, इनको अपरिमाण वाली अवम्याएं कहा गया है । इसका कारण यह है कि इन्हें कहाँ तक बढ़ाया जा सकता है, इसकी कोई हद नहीं। इन्हीं को 'ब्रह्म-विहार' भी कहते है । पतंजलि की भाषा में इन्हे 'सार्वभौम महाव्रत' भी कहा जा सकता है । पातंजल योग-दर्शन (११३३) में इन चार अवस्थाओं के विकास का उपदेश दिया गया है । इम विभंग में इन चार अवस्थाओं का विवरण और चार ध्यानों के माथ उनका सम्बन्ध दिखलाया गया है। १४-सिक्खापद-विभंग (पाँच शिक्षापदों का विवरण) हिमा, चोरी, व्यभिचार, असत्य और मद्यपान, इनसे विरत रहना ही मदाचार के पाँच मार्वजनीन नियम है, जिनका यहाँ विवरण और विवेचन प्रस्तुत किया गया है। Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५-पटिसम्भिदा-विभंग (चार प्रतिसंविदों का विवरण) चार प्रतिसंविदों या विश्लेपणात्मक ज्ञानों का इस विभंग में वर्णन किया गया है, यथा (१) अर्थ-सम्बन्धी ज्ञान (अत्थ पटिसम्भिदा) (1) धर्म-मम्बन्धी जान (धम्म पटिमम्भिदा) (३) शब्द-व्याख्या-मम्बन्धी ज्ञान (निनि पटिअम्भिदा) और (८) जान-दर्शन-सम्बन्धी ज्ञान (पटिभान पटिमम्भिदा) । १६-आण-विभंग (नाना प्रकार के ज्ञानों का विवरण) इम विभंग में नाना प्रकार के ज्ञानों का विवरण है, यथा लौकिक ज्ञान, अलौकिक ज्ञान, आदि, आदि। इस विभंग का तीन प्रकार का ज्ञान-विवरण विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है । प्रजा की यहाँ तीन क्रमिक अवस्थाएँ बतलायी गयी हैं, यथा श्रुतमयी प्रज्ञा (सुतमया पञ्जा) चिन्ता-मयी प्रजा (चिन्तामयापञ्जा) और भावना-मयी प्रज्ञा (भावनामया पा )। शास्त्रादि ग्रन्थों के श्रवण या पठनादि मे उत्पन्न ज्ञान 'श्रुतमयी प्रज्ञा' है । वह सुना हुआ है, स्वयं का अनुभव या चिन्तन उसमें नहीं है । इसके बाद चिन्ता-मयी प्रजा है, जिसमें अपनी बुद्धि का चिन्तन सम्मिलित है। किन्तु इससे भी ऊंचा एक ज्ञान है, जिसका नाम है 'भावना-मयो प्रजा'। यह प्रज्ञा न केवल शास्त्रीय या बौद्धिक आधारों पर प्रतिष्ठित है, बल्कि इसमें सम्पूर्ण सदाचार-समूह के पालन से उत्पन्न चिन की उस समाधि को गम्भीरता भी संनिहित है, जो कुशल चित्त से ही प्राप्त की जा सकती है । यह तीन प्रकार का ज्ञान-वर्गीकरण निश्चय ही बड़ा मार्मिक है । १७-खुद्दक-वत्थु-विभंग (छोटी-छोटी बातों का विवरण) इस विभंग में आम्रवों (चित्त-मलों) आदि के अनेक प्रकारों का वर्णन किया गया है। १८-धम्म-हदय-विभंग (धर्म के हृदय का विवरण) अब तक के विभंगों ने जो कुछ वर्णन किया जा चुका है. उसी का प्रश्नोत्तर Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४१२ ) के रूप में यहाँ सिंहावलोकन है । चूंकि इसमें धर्म के सब तत्व अपने आप आ गये हैं, इसलिये इमे 'धर्म का हृदय' कहा गया है । कुछ प्रश्नों की बानगी देखियेकितने धर्म काम-धातु में प्राप्त होते हैं ? कितने रूप-धातु में ? कितने अरूपधातु में ? कितने कामावर है ? कितने रूपावचर ? कितने अरूपावचर ? कितने छोड़ने योग्य ? कितने भावना करने योग्य ? आदि, आदि । गीतोक्त भगवान् की विभूतियों की तरह इनका कहीं अन्त ही नहीं दिखाई पड़ता। इसीलिये इनका संक्षेप देने का भी यहाँ प्रयत्न नहीं किया गया। धातुकथा' ___ विभंग के १८ विभंगों में मे स्कन्ध, आयतन और धातु, इन प्रथम तीन विभंगों को चनकर उनका विशेप अध्ययन धातुकथा में किया गया है। स्कन्ध आयतन और धातु, यही धातुकथा के विषय हैं। अतः उसका पूरा नाम ही, जैसा महास्थविर ज्ञानातिलोक ने कहा है, 'खन्ध-आयतन-धातु-कथा' होना चाहिये । धातुकथा के विषय-प्रतिपादन की एक विशेष शैली यह है कि यहाँ स्कन्ध, आयतन और धातुओं का सम्बन्ध धर्मों के साथ दिखलाया गया है। इन धर्मों की संख्या उसकी ‘मातिका' के अनुसार १२५ है, जो इस प्रकार है, ५ स्कन्ध, १२ आयतन, १८ धातुएँ, ८ सत्य, २२ इन्द्रिय, प्रतीत्य समुत्पाद, ४ स्मृति-प्रस्थान ४ सम्यक् प्रधान, ४ ऋद्धिपाद, ४ ध्यान, ४ अपरिमाण, ५ इन्द्रिय, ५ बल, ७ वोध्यंग, ८ आर्य-मार्ग के अंग, स्पर्श, वेदना, संज्ञा, चेतना, चित्त, अधिमोक्ष और मनमिकार । किस-किस स्कन्ध, आयतन या विभंग में कौन-कौन धर्म सम्मिलित (संगहित), अ-सम्मिलित (असंगहित), संयुक्त (सम्प्रयुक्त) या वियुक्त (विप्पयन) आदि है, इमी का विवेचन १४ अध्यायों में प्रश्नोत्तर ढंग से किया गया है, जिसकी रूपरेखा इस प्रकार है-- १. ई० आर० गुणरत्न द्वारा अट्ठकथा-सहित पालि टैक्सट सोसायटी के लिए सम्पादित। उक्त सोसायटी द्वारा सन् १८९२ में रोमन लिपि में प्रकाशित । इस ग्रन्थ के सिंहली, बर्मो एवं स्यामी संस्करण उपलब्ध हैं। हिन्दी में न संस्करण हैं और न अनुवाद ! Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४१३ ) १. सम्मिलन और अ-सम्मिलन (संगहो असंगहो) : इस अध्याय में यह दिख लाया गया है कि कितने स्कन्ध, आयतन और धातुओं में कौन-कौन मे धर्म सम्मिलित हैं या अ-सम्मिलित हैं। २. मम्मिलित और अ-सम्मिलित (संगहितेन अमंगहितं) : यहाँ यह दिख लाया गया है कि कितने स्कन्ध, आयतन और धातुओं में वे धर्म असम्मिलित हैं, जो कुछ अन्य धर्म या धर्मों के साथ समान स्कन्ध में सम्मिलित है. किन्तु समान धातु और आयतन में सम्मिलित नही हैं। ३. अ-सम्मिलित और सम्मिलित (असंगहितेन संगहितं) : कितने स्कन्ध, आयतन और धातुओं में वे धर्म सम्मिलित है, जो कुछ अन्य धर्म या धर्मा के साथ समान स्कन्ध में सम्मिलित नहीं है, किन्तु समान आयतन और नमान धातु में सम्मिलित हैं। ४. सम्मिलित और सम्मिलित (संगहितेन संगहितं) : कितने स्कन्ध आयतन और धातुओं में वे धर्म सम्मिलित हैं, जो कुछ अन्य धर्म या धर्मों के साथ उन समान स्कन्ध, आयतन और धातुओं में सम्मिलित है जो पुन: अन्य धर्म या धर्मों के साथ उनमें (स्कन्ध आयतन और धातुओं में) सम्मिलित है । ५. अ-सम्मिलित और अ-सम्मिलित (असंगहितेन असंगहितं) : कितने स्कन्ध आयतन और धातुओं में वे धर्म अ-सम्मिलित हैं जो कुछ अन्य धर्म या धर्मों या धर्मों के साथ उन्हीं स्कन्ध आयतन और धातुओं में असम्मिलित है जो पुनः अन्य धर्म या धर्मों के साथ उनमें (स्कन्ध, आयतन और धातुओं में) असम्मिलित है । यह अध्याय चौथे अध्याय का ठीक विपरीत है। ६. संयोग और वियोग (सम्पयोगो विप्पयोगो) : कितने स्कन्ध, आयतन __ और धातुओं के साथ धर्म संयुक्त हैं, या कितने के साथ वे वियुक्त है। ७. संयुक्त से वियुक्त (सम्पयुत्तेन विप्पयुत्तं) : कितने स्कन्ध, आयतन और धातुओं से वे धर्म वियुक्त है, जो उन धर्मो से, जो अन्य धर्मों के साथ संयुक्त है, वियुक्त हैं। ८. वियुक्त से संयुक्त (विप्पयुत्तेन सम्पयुत्तं) : कितने स्कन्ध, आयतन और धातुओं से वे धर्म संयुक्त है, जो उन धर्मो से, जो कुछ अन्य धर्मों से त्रियुक्त है, संयुक्त हैं। Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४१४ ) संयुक्त से संयुक्त (सम्पयुत्तेन सम्पयुत्तं ) : कितने स्कन्ध, आयतन और धातुओं से वे धर्म संयुक्त हैं, जो उन धर्मों से जो अन्य धर्मो से संयुक्त है, संयुक्त हैं । १०. वियुक्त से वियुक्त ( विप्पयुत्तेन विप्पयुत्तं ) : कितने स्कन्ध, आयतन और धातुओं से वे धर्म वियुक्त हैं, जो उन धर्मों से जो अन्य धर्मों से वियुक्त हैं, वियुक्त हैं । ११. मम्मिलित से संयुक्त और वियुक्त (संगहितेन सम्प्रयुक्तं विप्पयुत्तं ) : ( अ ) कितने स्कन्ध, आयतन और धातुओं से वे धर्म संयुक्त हैं जो समान स्कन्ध में सम्मिलित नहीं, किन्तु समान आयतन और धातु में कुछ अन्य धर्मों के साथ सम्मिलित हैं, ( आ ) कितने स्कन्ध, आयतन और धातुओं से वे धर्म वियुक्त हैं जो समान स्कन्ध में सम्मिलित नहीं किन्तु समान आयतन और धातु में कुछ अन्य धर्मों के साथ सम्मिलित हैं । ?.. १२. संयुक्त मे सम्मिलित और असम्मिलित ( सम्पयुत्तेन संगहितं असंगहिनं ) : (अ) कितने स्कन्ध, आयतन और धातुओं में वे धर्म सम्मिलित हैं जो कुछ अन्य धर्मों से संयुक्त है ( आ ) कितने स्कन्ध, आयतन और धातुओं में वे धर्म असम्मिलित हैं जो कुछ अन्य धर्मों से संयुक्त हैं। १३. असम्मिलित मे संयुक्त और वियुक्त (असंगहितेन सम्प्रयुत्तं विप्पयुत्त ) : ( अ ) कितने स्कन्ध, आयतन और धातुओं से वे धर्म संयुक्त हैं, जो किन्हीं अन्य धर्मो के साथ समान स्कन्ध, आयतन और धातुओं में सम्मिलित नहीं हैं ( आ ) कितने स्कन्ध, आयतन और धातुओं से वे धर्म वियुक्त हैं जो किन्हीं अन्य धर्मों के साथ समान स्कन्ध, आयतन और धातुओं में सम्मिलित नहीं हैं । १४. वियुक्त मे सम्मिलित और असम्मिलित (विप्पयुत्तेन संगहितं असंगहितं ) : कितने स्कन्ध, आयतन और धर्मों में वे धर्म सम्मिलित हैं, जो कुछ अन्य धर्मों से वियुक्त हैं, (आ) कितने स्कन्ध, आयतन और धर्मो से वे धर्म सम्मि लिन नहीं हैं, जो कुछ अन्य धर्मों से वियुक्त है । Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४१५ ) उपर्युक्त अध्यायों के विषय और शैली को अच्छी तरह हृदयंगम करने के लिए प्रत्येक में से एक-एक दो-दो प्रश्नोत्तरों को भी दे देना उपयुक्त होगा । अतः क्रमशः, (१) (अ) कितने स्कन्धों, आयतनों और धातुओं में रूप-स्कन्ध सम्मिलित है ? १ स्कन्ध, ११ आयतन और ११ धातुओं में रूप-स्कन्ध सम्मिलित है । (आ) कितने स्कन्धों, आयतनों और धातुओं में रूप-स्कन्ध सम्मिलित नहीं है ? चार स्कन्ध, एक आयतन और सात धातुओं में रूप-स्कन्ध सम्मिलित नहीं है। (इ) कितने स्कन्धों, आयतनों और धातुओं में वेदना-स्कन्ध सम्मिलित है ? एक स्कन्ध, एक आयतन और एक धातु में वेदना-स्कन्ध सम्मिलित है। (ई) कितने स्कन्धों, आयतनों और धातुओं में वेदना-स्कन्ध सम्मिलित नहीं है ? चार स्कन्ध, ग्यारह आयतन और १७ धातुओं में वेदना-स्कन्ध सम्मिलित नहीं है । आदि, आदि (२) (अ) कितने स्कन्धों, आयतनों और धातुओं में वे धर्म सम्मिलित नहीं है, जो चक्षु-आयतन ....स्पृष्टव्यायतन और चक्षु-धातु . . . . . स्पृष्टव्य-धातु धर्मों के माथ समान स्कन्ध में सम्मिलित है, किन्तु समान धातु और आयतन में सम्मिलित नहीं है ? चार स्कन्धों, दो आयतनों और आठ धातुओं में वे सम्मिलित नहीं है। (३) (अ) कितने स्कन्धों, आयतनों और धातुओं में वे धर्म सम्मिलित है, जो वेदना-स्कन्ध, संज्ञा-स्कन्ध, संस्कार-स्कन्ध, समुदय-सत्य, मार्ग-सत्य धर्मों के साथ समान स्कन्ध में सम्मिलित नहीं है, किन्तु समान आयतन और समान धातु में सम्मिलित है ? तीन स्कन्धों, एक आयतन और एक धातु में वे सम्मिलित हैं, निर्वाण को छोड़कर ! (४) (अ) कितने स्कन्धों, आयतनों और धातुओं में वे धर्म सम्मिलिन है, जो समुदय-सत्य, मार्ग-सत्य धर्मो के साथ उन समान स्कन्ध, आयतन और धातुओं में सम्मिलित हैं जो पुन: समुदय-सत्य, मार्ग-सत्य के साथ उनमें (स्कन्ध, आयतन और धातुओं में) सम्मिलित हैं। Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक स्कन्ध, एक आयतन और एक धातु में वे सम्मिलित हैं । (५) (अ) कितने स्कन्धों, आयतनों और धातुओं में वे धर्म सम्मिलित नहीं हैं जो अन्य धर्मों के साथ उन्हीं स्कन्ध, आयतन और धातुओं में अ-सम्मिलित है जो पुनः उन्हीं धर्मों के साथ उनमें (स्कन्ध, आयतन और धातुओं में) असम्मिलित हैं ? एक स्कन्ध, एक आयतन और सात धातुओं में वे अ-सम्मिलित है। (६) (अ) कितने स्कन्धों, आयतनों और धातुओं के साथ रूम-स्कन्ध संयुक्त हैं ? किसी के साथ नहीं (क्योंकि स्वयं अपने माथ वह संयुक्त हो नहीं सकता और अन्य धर्म मानसिक है) (आ) कितने स्कन्धों, आयतनों और धातुओं के साथ रूप-स्कन्ध संयुक्त नहीं है ? चार स्कन्ध, एक आयतन और सात धातुओं के साथ वह संयुक्त नहीं है (७) (अ) कितने स्कन्धों, आयतनों और धातुओं से वे धर्म वियक्त हैं, जो उन धर्मों से, जो अन्य धर्मों के साथ संयुक्त है, वियुक्त है ? चार स्कन्धों, एक आयतन और सात धातुओं मे वे वियुक्त है, अंशतः एक आयतन और एक धातु से भी । (८) (अ) कितने स्कन्धों, आयतनों और धातुओं से वे धर्म मंयुक्त हैं, जो उन धर्मों से जो रूप-स्कन्ध से वियुक्त हैं, संयुक्त है ? किसी से नहीं। (९) (अ) कितने स्कन्धों, आयतनों और धातुओं से वे धर्म संयक्त है, जो उन धर्मों से जो वेदना-स्कन्ध, संज्ञा-स्कन्ध, संस्कार-म्कन्ध मे सयक्त हैं, मंयुक्त हैं ? ___ तीन स्कन्धों, एक आयतन और सात धातुओं से वे संयुक्त हैं, अंगतः एक आयतन और एक धातु से भी । (१०) (अ) कितने स्कन्धों, आयतनों और धातुओं मे वे धर्म वियक्त हैं, जो उन धर्मों से जो रूप-स्कन्ध से वियुक्त हैं, वियुवत है ? Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४१७ ) चार स्कन्धों, एक आयतन और सात धातुओं मे वे वियुक्त है, अंगतः एक आयतन और एक धातु मे भी । (११) (अ) कितने स्कन्धों, आयतनों और धातुओं मे वे धर्म संयक्त हैं जो समान स्कन्ध में सम्मिलित नहीं हैं किन्तु समुदय-सत्य और मार्ग-सत्य के साथ समान आयतन और धातुओं में सम्मिलित है ? तीन स्कन्ध, एक आयतन और सात धातुओं से वे संयुक्त है, अंशतः एक स्कन्ध, एक आयतन और एक धातु से भी। (आ) कितने स्कन्धों, आयतनों और धातुओं से वे धर्म वियुक्त है जो समान स्कन्ध में सम्मिलित नहीं किन्तु समुदय-सत्य और मार्ग-मत्य के साथ समान आयतन और समान धातुओं में सम्मिलित हैं ? एक स्कन्ध, दस आयतन और दस धातुओं से वे वियुक्त हैं, अंशतः एक आयतन और एक धातु से भी। (१२) (अ) कितने स्कन्धों, आयतनों और धातुओं में वे धर्म सम्मिलित हैं जो वेदनास्कन्ध, संज्ञा-स्कन्ध और संस्कार-स्कन्ध से संयुक्त हैं ? तीन स्कन्धों, दो आयतनों और आठ धातुओं में वे सम्मिलित है । (आ) कितने स्कन्धों, आयतनों और धातुओं में वे धर्म सम्मिलित नहीं हैं जो वेदना-स्कन्ध से संयुक्त हैं ? ___ दो स्कन्धों, दस आयतनों और दस धातुओं में वे सम्मिलित नहीं हैं। (१३) (अ) कितने स्कन्धों, आयतनों और धातुओं से वे धर्म संयुक्त है जो रूप-स्कन्ध के साथ समान स्कन्ध, आयतन और धातुओं में सम्मिलित नहीं है ? तीन स्कन्धों और अंशतः एक आयतन और एक धातु से वे संयुक्त है। (आ) कितने स्कन्धों, आयतनों और धातुओं से वे धर्म वियुक्त है जो रूप-स्कन्ध के साथ समान स्कन्ध, आयतन और धातुओं में सम्मिलित नहीं हैं ? एक स्कन्ध, दस आयतन और दस धातुओं से वे वियुक्त है, अंगतः एक आयतन और एक धातु से भी। (१४) (अ) कितने स्कन्धों, आयतनों और धातुओं में वे धर्म सम्मिलित हैं जो रूप-स्कन्ध से वियुक्त है ? चार स्कन्धों, दो आयतनों और धातुओं में वे सम्मिलित है। २७ Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४१८ ) (आ) कितने स्कन्धों, आयतनों और धातुओं में वे धर्म सम्मिलित नहीं हैं जो रूप स्कन्ध से वियुक्त है ? एक स्कन्ध, दम आयतनों और दस धातुओं में वे सम्मिलित नहीं हैं । पुग्गलपत्ति - 'पुग्गलपञ्जनि' (पुद्गल-प्रज्ञप्ति) गब्द का अर्थ है पुद्गलों या व्यक्तियों संबंधी ज्ञान या उनकी पहचान । 'पुग्गल- पत्ति ' में व्यक्तियों के नाना प्रकारों का वर्णन किया गया है । विषय या वर्णन-प्रणाली की दृष्टि मे इस ग्रन्थ का अभिधम्म की अपेक्षा मनन्त से अधिक घनिष्ठ संबंध है । व्यक्तियों का निर्देन यहाँ धम्मों के माथ उनके संबंध की दृष्टि मे नहीं किया गया है, जो अभिधम्म का विपय है। बल्कि अंगनर-निकाय की शैली पर, बुद्ध-वचनों का आश्रय लेकर, या कहीं उनको अधिक स्पष्ट करने की दृष्टि से, या उनको व्याग्या-स्वरूप, गुण, कर्म और स्वभाव के विभाग के अनुसार व्यक्तियों के नाना स्वम्पों को वर्गबद्ध किया गया है, जो मूल बुद्ध-धर्म के नैतिक दृष्टिकोण को समझने के लिए बहुत महत्वपूर्ण है । संपूर्ण ग्रन्थ में दम अध्याय है, जिनमें प्रथम में एक-एक प्रकार के व्यक्तियों का निर्देश है, दुमरे में दोदो प्रकार के और इसी प्रकार क्रमग: बढ़ते हए दसवें अध्याय में दम-दम प्रकार के व्यक्तियों का निर्देश है । चार आर्य-श्रावक, पृथग्जन, सम्यक् सम्बुद्ध, प्रत्येक बुद्ध, शैश्य, अशैश्य, आर्य, अनार्य, स्रोत आपन्न, सकृदागामी, अनागामी अर्हत. आदि के रूप में व्यक्तियों का विभाजन, जो सुनों में जीवन-गद्धि के स्वम्प और उसके विकास को दिग्वाने के लिए किया गया है, यहाँ क्रमिक गणनाबद्ध रूप में संगृहीत कर दिया गया है । कुछ-एक उदाहरण पर्याप्त होंगे-- १. डा० मॉरिस द्वारा रोमन लिपि में सम्पादित एवं पालि टैक्सट सोसायटी (१८८३) द्वारा प्रकाशित । इसका अंग्रेजी अनुवाद 'दि डैजिगनेशन ऑव हयूमन टाइप्स' शीर्षक से डा० विमलाचरण लाहा ने कियाई, जो पालि टैक्सट सोसायटी, लन्दन (१९२३) द्वारा प्रकाशित किया गया है। नागरी-संस्करण और हिन्दी अनुवाद अभी होने बाकी हैं। इस ग्रंथ के बरमी , सिंहली और स्यामी संस्करण उपलब्ध हैं। महास्थविर ज्ञानातिलोक ने इस ग्रन्थ का जर्मन भाषा में अनुवाद किया है, ब्रेसलो, १९१० । Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४१९ ) एक - एक प्रकार के व्यक्तियों का वर्गीकरण १ कौनसा व्यक्ति पृथग्जन' (पुथुज्जनो - प्राकृत मनुष्य - सांसारिक मनुष्य ) जिसके प्रथम तीन संयोजन ( मानसिक बन्धन) प्रहीण नही हुए और न जो उनके प्रहीण करने के मार्ग में ही संलग्न है, वही व्यक्ति 'पृथग्जन' है । २. कौन सा व्यक्ति अनागामी है ? जो व्यक्ति प्रथम पाँच संयोजनों का विनाश करने के बाद किसी उच्चतर लोक में जन्म लेता है जहाँ उसकी निर्वाण प्राप्ति निश्चित हो जाती है और जहाँ से वह लौटकर फिर इस लोक में नहीं होता, वही व्यक्ति अनागामी है । दो-दो प्रकार के व्यक्तियों का वर्गीकरण १. कौन सा व्यक्ति भीतरी संयोजनों से बँधा हुआ है ? जिसके प्रथम पाँच संयोजन अभी नष्ट नहीं हुए, वही व्यक्ति भीतरी संयोजनों से बंधा हुआ है । २. कौन सा व्यक्ति बाहरी संयोजनों से बंधा हुआ है ? जिसके अंतिम पाँच संयोजन अभी नष्ट नही हुए, वही व्यक्ति बाहरी संयोजनों से बंधा हुआ है । तीन-तीन प्रकार के व्यक्तियों का वर्गीकरण 2. कोन सा व्यक्ति काम-वासना संबंधी आसक्ति और भव-वामना संबंधी आसक्ति से विमुक्त नहीं है ? स्रोत आपन्न और सकृदागामी, ये दो व्यक्ति काम वासना संबंधी आसक्ति और भव-वासना संबंधी आसक्ति से विमुक्त नहीं हूँ । २. कौन सा व्यक्ति काम-वासना संबंधी आसक्ति से विमुक्त है, किन्तु भव-वासना सवयी आसक्ति मे विमुक्त नही है ? अनागामो -- यह व्यक्ति काम वासना संबंधी आसक्ति से विमुक्त है, किन्तु भव-वासना संबंधी आसक्ति से विमुक्त नहीं है । Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४२० ) ३. कौन सा व्यक्ति काम-वासना संबंधी आसक्ति और भव-वासना संबंधी आसक्ति, इन दोनों प्रकार को आसक्तियों से विमुक्त है ? अर्हत्--यह व्यक्ति काम-वासना संबंधी आसक्ति और भव-वासना-संबंधी आसक्ति इन दोनों आसक्तियों से विमुक्त है । चार-चार प्रकार के व्यक्तियों का वर्गीकरण १. कौन सा व्यक्ति उस बादल के समान है जो गरजता है पर बरसता नहीं? जो कहता बहुत है पर करता कुछ नहीं-यही व्यक्ति उस बादल के समान है जो गरजता है पर बरसता नहीं । २. कौन सा व्यक्ति उस बादल के समान है जो बरसता है, पर गरजता नहीं ? ____जो करता है, पर कहता नहीं, ऐसा व्यक्ति उस बादल के समान है जो बरमता है पर गरजता नहीं । ३. कौन सा व्यक्ति उस बादल के समान है जो गरजता भी है और बरसता जो कहता भी है और करता भी है, वही व्यक्ति उस बादल के समान है जो गरजता भी है और बरसता भी है । ४. कौन सा व्यक्ति उस बादल के समान है जो गरजता भी नहीं और बरसता भी नहीं ? ___ जो न कहता है और न करता है, वही व्यक्ति उस बादल के समान है जो गरजता भी नहीं और बरसता भी नहीं। इसी वर्गीकरण का एक और सुन्दर उपमा के द्वारा व्यक्तियों के चार प्रकार का विभाजन देखिए-- १. कौन सा व्यक्ति उस चूहे के समान है जो अपने बिल तो खोदकर तैयार करता है, किन्तु उसमें रहता नहीं ? ___ जो व्यक्ति सुत्त, गाथा, उदान, जातक आदि ग्रन्थों का अभ्यास तो करता है किन्तु चार आर्य सत्यों का स्वयं साक्षात्कार नहीं करता, वही व्यक्ति उस चहे के समान है जो अपना बिल तो खोदकर तैयार करता है, किन्तु उसमें रहता नहीं। Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४२१ ) २. कौन सा व्यक्ति उस चहे के समान है जो बिल में रहता है किन्तु उसे स्वयं खोदकर तैयार नहीं करता ? जो सुन, गाथा आदि का अभ्यास तो नहीं करता, किन्तु चार आर्य सत्यों का साक्षात्कार कर लेता है वही व्यक्ति उस चूहे के समान है जो बिल में तो रहता है, किन्तु उसे स्वयं खोदकर तैयार नहीं करता। ३. कौन सा व्यक्ति उस चूहे के समान है जो बिल को स्वयं खोदकर तैयार भी करता है और उसमें रहता भी है ? ___ जो सुन, गाथा आदि का अभ्यास भी करता है और चार आर्य सत्यों को साक्षाकार भी करता है। ४. कौन सा व्यक्ति उस चूहे के समान है जो न बिल को खोदता है न उसमें रहता है ? जो न मुत्त, गाथा आदि का अभ्यास करता है और न चार आर्य-सन्यों का मासाक्षात्कार ही करता है । इसी प्रकार आगे के अध्यायों में क्रमश: पाँच-पाँच, छ-छै, सात-सात, आठआठ, नौ-नौ और दस-दस के वर्गीकरणों में व्यक्तियों का वर्णन किया गया है । यद्यपि सुत्त-पिटक से नवीन या मौलिक तो यहाँ कुछ नहीं है, फिर भी उपमाएँ कहीं-कहीं बड़ी सुन्दर हुई है। संख्याबद्ध वर्गीकरणों की ऊपरी कृत्रिमता होते हुए भी 'पुग्गल- पञत्ति' के विवरण नैतिक तत्वों की भित्ति पर आश्रित हैं, अतः वे आधुनिक विद्यार्थी के लिए भी अध्ययन के अच्छे विषय है । कथावत्थु जैसा दूसरे अध्याय में दिखाया जा चुका है, अशोक के समय (तीसरी शताब्दी ईसवी पूर्व) तक आते-आते मल बुद्ध-धर्म १८ भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों या निकायों में बट चुका था। अशोक ने लगभग २४६ ई० पू० जब पाटलिपुत्र की सभा को १. ए० सी० टेलर द्वारा सम्पादित एवं पालि टैक्स्ट सोसायटी, लंदन, द्वारा सन् १८९४ एवं १८९७ में रोमन लिपि में प्रकाशित । 'पॉइन्ट्स ऑव कन्ट्रोवर्सी और सबजैक्ट्स ऑव डिस्कोर्स' शीर्षक से शॉ जैन आँग एवं श्रीमती रायस Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४२२ ) बुलाया तो उसके सभापति स्थविर मोग्गलिपुत्त तिस्स ने इन्हीं १८ सम्प्रदायों में से एक (थेरवाद-स्थविरवाद) को मूल बुद्ध-धर्म मान कर बाकी १७ के दार्शनिक सिद्धांतों का निराकरण किया और अपने समाधानों को 'कथावत्थु-पकरण' नामक ग्रंथ में रख दिया जो उसी समय से अभिधम्म-पिटक का एक अङ्ग माना जाने लगा । कथावत्थु में केवल दार्शनिक सिद्धांतों का खंडन है। किन-किन सम्प्रदायों के वे दार्शनिक सिद्धान्त थे, इसका उल्लेख वहाँ नहीं किया गया है। यह कमी उसकी अट्ठकथा (पाँचवीं शताब्दी) ने पूरी कर दी है। इस अट्ठकथा के वर्णनानुसार भगवान बुद्ध के महापरिनिर्वाण के १०० वर्ष बाद वज्जिपुत्तक भिक्षुओं ने संघ के अनुशासन को भंग कर ‘महासंधिक' नामक सम्प्रदाय की स्थापना की। इसो सम्प्रदाय को पांच शाखायें बाद में और हो गई । इस प्रकार कुल मिलाकर महामधिकों के ६ मम्प्रदाय हो गए, जिनके नाम थे, महासंधिक, एकब्बोहारिक, गोकुलिक, पत्तिवादी, बाहलिक और चेतियवादो। प्रथम मंगीत में स्थविरों (वद्ध भिक्षुओं) ने मल वुद्ध-धर्म के जिस स्वरूप को स्वीकार किया था उसका नाम 'थेरवाद' (स्थविग्वाद) पड़ गया था और इस थेरवाद के भी अशोक के समय तक आते-आते कुल मिलाकर १२ सम्प्रदाय हो गये थे, जो इस प्रकार थे, थेरवादी, महिंसामक, वज्जिपुत्तक, सब्बत्थवादी, धम्मगत्तिक, धम्म तरिय, छ नागरिक, भव्यानिक, सामित्तिय, कस्सपिक, संक्रन्तिक, और सुत्तवादी । कथावत्थ-अटठकथा के अनुसार यह गाखा-भेद इस प्रकार दिखाया जा सकता है। -- डेविड्स द्वारा अंग्रेजी में अनुवादित एवं पालि टैक्स्ट सोसायटी (लंदन, १९१५) द्वारा प्रकाशित। बरमी, सिंहली एवं स्यामी संस्करण उपलब्ध हैं। देवनागरी में न संस्करण हैं और न अनुवाद ! १. देखिये ज्ञानातिलोक : गाइड शू दि अभिधम्म-पिटक, पृष्ठ ३६; राहुल सांकृत्यायन : विनय-पिटक (हिन्दी अनुवाद) भूमिका, पृष्ठ १, उन्हीं की पुरातत्व निबन्धावली, पृष्ठ १२१; 'दीपवंस' के अनुसार और 'महावंस' ५।२-११ के अनुसार भी बिलकुल यही विभाग है, देखिये राहुल सांकृत्यायन द्वारा द्वारा सम्पादित अभिधर्म-कोश, भूमिका, पृष्ठ ४; देखिये जर्नल ऑव रॉयल एशियाटिक सोसायटी १८९१, तथा जर्नल ऑव पालि टैक्सट सोसायटी (१९०४-०५) (दि सैक्ट्स् ऑव दि बुद्धिस्ट्स्) Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४२३ ) ___ महासंधिक (कुल ) (३) एकव्यावहारिक गोकुलिक (एकब्बोहारिक) (गोकुलिक) (४) प्रज्ञप्निवादी (पअनिवादी) बाहुश्रुतिक (बाहुलिक) (६) चैत्यवादी (चेतियवादी) । थेरवादी (कुल १२) (१) महीशामक (८) वान्मीपुत्रीय या - महिमामक) वृज्जिपुत्रक (वज्जिपुनक) (३) सर्वास्तिवादी (मब्बत्थिवादी) (७) (४) काश्यपीय (कम्मपिक) धर्मगुप्तिक धर्मोनरीय (धम्मुनरीय) (५) मांक्रान्तिक (संक्रन्तिक) (धम्मगतिक) (१०) छन्नागारिक (११) (६) सूत्रवादी या मौत्रान्तिक (सनवादी) (छन्नागरिक) भद्रयानिक (१२) माम्मित्तिय सर्वास्तिवादी परम्परा में इन सम्प्रदायों का विकास कुछविभिन्नडंग मे दिवाया गया है। उदाहरणतः वसमित्र-प्रणीत 'अप्टादग-निकाय-शास्त्र' के अनसार १८ मम्प्रदायों का विभागीकरण इस प्रकार है-- १. देखिये राहुल सांकृत्यायन द्वारा सम्पादित 'अभिधर्मकोश', भूमिका, पृष्ठ ५, एवं उन्हीं का विनय-पिटक (हिन्दी-अनुवाद), भूमिका, पृष्ठ १-२; नागार्जुन के माध्यमिक सूत्रों के भाष्यकार ,चन्द्रकीति के पूर्वगामी, आचार्य भव्य के वर्णनानुसार भी १८ सम्प्रदायों के विकास का यही क्रम है। केवल उन्होंने Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४२४ ) बौद्ध संघ स्थविरवादी महामांधिक प्रज्ञप्तिवादी लोकोत्तरवादी एकव्यावहारिक गोकुलिक (२) (३) (४) (५) (६) (७) (८) हेमवत वात्मोपुत्रीय धर्मोत्तरीय भद्रयानीय सम्मित्तीय पाण्णागरिक सर्वास्तिवादी (११) काश्यपीय महीगामक सौत्रान्तिक (१०) धर्मगुप्त उपर्युक्त दोनों परम्पराओं की विभिन्नताएं वास्तव में इन सम्प्रदायों के अनिश्चित इतिहास के कारण हैं। यदि कथावत्थु में इन सम्प्रदायों के विषय में भी कुछ कह दिया जाता तो वौद्ध धर्म के इतिहास-जिज्ञासुओं का काम सरल हो जाता। किन्तु धम्मवादी स्थविर मोग्गलिपुन तिस्स ने इसके लिए अवकाश नहीं दिया। गोकुलिक (कुक्कुलिक) शाखा को महासांघिकों से तथा पाण्णागारिक (छन्नागारिक) शाखा को स्थविरवादियों को परम्परा से वियुक्त कर दिया है। देखिये बुद्धिस्टिक स्टडीज, पृष्ठ ८३१-३२; 'महावंस', 'कथावत्थु', वसुमित्र और भव्य इन चारों स्रोतों के आधार पर १८ सम्प्रदायों के शाखा-भेद के तुलनात्मक अध्ययन के लिए देखिये बुद्धिस्टक स्टडीज़, पृष्ठ ८२७ पर दी हुई महत्त्वपूर्ण तालिका। Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४२५ ) उनके लिएविचारव्यक्तियोंया सम्प्रदायोंमेअधिक महत्वपूर्णथे।भारतीयज्ञानियों की परम्परा के यह अनुकूल ही है। किन्तु इस अभाव के कारण इन सम्प्रदायों का इति हास भी अनिश्चित ही रह गया है। स्थविरवादी परम्परा की मान्यता, जैसा उपर दिखाया जा चुका है, कथावत्थु की अट्ठकथा पर आश्रित है जो स्वयं पाँचवीं शताब्दी ईसवी कीरचनाहोने केकारण उतनीप्रामाणिक नहीं मानी जा सकती। फिर भी जो वस्तु निश्चित मानी जा सकती है वह यह है कि अशोक के बौद्ध धर्म ग्रहण कर लेने के समय उपर्युक्त अठारह सम्प्रदाय विद्यमान थे। अशोक के द्वारा पूजित किये जाने पर ये और भी बढने लगे । शास्ता का वास्तविक उपदेश क्या था, यह कुछ भी जान न पड़ने लगा। परिणामतःपाटलिपुत्र मे एक संगोतिबुलाई गई । इस सभा के सभापति थे स्थविर मोग्गलिपुत्त तिस्स । उन्होंने उपर्युक्त सम्प्रदायों में से केवल विशुद्ध स्थविरवाद को तो बुद्ध का मन्तव्य अथवा 'विभज्जवाद' माना और शेष को बुद्ध के मत से बाहर माना। इसी समय से सर्वास्तिवाद आदि सम्प्रदाय, जो अब तक स्थविरवादियों की हो शाखा माने जाते थे, अब अलग हो गये। अतः हम कह सकते है कि अशोक के समय तक बुद्ध-मन्तव्य अथवा 'विभज्यवाद' जिस नाम से व्यवहत होता रहा , वह और उसकी परम्परा 'स्थविरवाद' में निहित है । इमी स्थविरवाद के समर्थन की दृष्टि मे शेष १७ सम्प्रदायों के मन्तव्यों का खंडन 'कथावत्थु' में किया गया है । 'कथावत्थु' में विरोधी १७ सम्प्रदायों के सिद्धान्तों को प्रश्नात्मक ढंग से पहले पूर्वपक्ष के रूप में उपस्थित किया गया है, फिर स्थविरवादी दृष्टिकोण से उनका खंडन किया गया है । सिद्धान्तों के पूर्वापर -सम्बन्धी निर्वाचन में किसी निश्चित नियम का पालन नहीं किया गया। सिद्धान्तों को मानने वाले सम्प्रदायों का तो उसमें नामोल्लेख भी नहीं है, यह हम पहले ही कह चुके हैं। कुल मिलाकर 'कथावत्थु' में विरोधी सम्प्रदायों के २१६ मिद्धान्तों का खंडन है, जो २३ अध्यायों में विभक्त किये गये है। कुछ विद्वानों का कथन है कि इस ग्रंथ में न केवल अशोककालीन सिद्धान्तों का ही खंडन है, बल्कि कुछ बाद के सम्प्रदायो और सिद्धान्तों का भी खंडन सम्मिलित है । अत: उनके मत में इस ग्रंथ में कई अंश ईसा की पहली गताब्दी तक जोड़े जाते रहे । इस ग्रंथ में प्राचीन अर्थात् अशोक के समय में प्रच १. देखिये राहुल सांकृत्यायन : पुरातत्त्व निबन्धावली, पृष्ठ १३०; ज्ञानातिलोक; गाइड शू दि अभिधम्म पिटक, पृष्ठ ३७-३८ Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४२६ ) लित सिद्धान्तो में से तो आठ का खंडन प्रस्तुत किया गया है, जिनमें से दो तो महामांघियों के सम्प्रदाय हैं, यथा ( 2 ) महासांघिक ( चतुर्थ शताब्दी ईसवी पूर्व ) तथा गोकुलिक ( चौथी शताब्दी ईसवी पूर्व ) और छह सम्प्रदाय स्वयं स्थविरवादियों के हैं, यथा ( १ ) भद्रयानिक ( तीसरी शताब्दी ईसवी पूर्व ) ( २ ) महीशासक {चौथी शताब्दी ईसवी पूर्व ) (३) वात्सीपुत्रीय ( चौथी शताब्दी ईसवी पूर्व ) (४) सर्वास्तिवादी ( चौथी शताब्दी ईसवी पूर्व ) (५) साम्मित्तिय ( चौथी शताब्दी ईसवी पूर्व, तथा ( ९ ) वज्जिपुत्तक ( चौथी शताब्दी ईसवी पूर्व ) ' । इनके अलावा कुछ अर्वाचीन सिद्धान्तों का भी खंडन कथावत्थु में मिलता है । ये सम्प्रदाय भी आठ हैं, यथा, (१) अन्धक ( २ ) अपरशैलीय ( ३ ) पूर्वशैलीय ( ४ ) राजगिरिक (५) सिद्धार्थक ( ६ ) वैपुल्य ( वेतुल्ल) (3) उत्तरापथक और (८) हेतुवादी' । यदि स्वयं कथावत्थु में इन मम्प्रदायों का नामोल्लेख होता तब तो यह माना जा सकता था कि उसके जो अंश इम अर्वाचीन सम्प्रदायों के सिद्धान्तों का खंडन करते हैं वे अशोक के काल के बाद की रचना हैं। किन्तु वहाँ तो सिर्फ सिद्धान्तों का खंडन है, सिद्धान्तों को निश्चित सम्प्रदायों के साथ वहाँ नहीं जोड़ा गया है । यह कामतो ताँचवी शताब्दी में लिखी जाने वाली उसकी अट्ठकथा ने ही किया है । अतः इससे यही निश्चित निष्कर्ष निकल सकता है कि जब कथावत्थु के विचारक ने विरोधी सिद्धान्तों का खंडन किया था तब वे बौद्ध वायु-मंडल में विच्छिन्न ङ्काओं के रूप में प्रवाहित अवश्य हो रहे थे, किन्तु निश्चित सम्प्रदायों के साथ उनका अभी संबंध स्थापित नही हुआ था । संभव है कही कही व्यक्ति इनका उपदेश दे रहे हों या शंकाओं के रूप में उपस्थित कर रहे हों। बाद में चलकर इन्हीं में से निश्चित संप्रदायों का अविर्भाव हो गया, जैसा धर्म और दर्शन के इतिहास में अक्सर होता है । जिस समय कथावत्थ को अट्ठकथा लिखीगई १. ज्ञानातिलोक : गाइड थ्रू दि अभिधम्मपिटक, पृष्ठ ३८; राहुल सांकृत्यायन : पुरातत्त्व निबन्धावली, पृष्ठ १३० २. महावंस ५।१२ - १३ में भी हैमवत, राजगृहिक, सिद्धार्थक, पूर्वशैलीय, अपरशैलीय और वाजिरीय, इन छः सम्प्रदायों को अशोक के उत्तरकालीन माना गया है । अतः ज्ञानातिलोक : गाइड थ्रू दि अभिधम्मपिटक, पृष्ठ ३८ एवं राहुल सांकृत्यायन : पुरातत्व निबन्धावली, पृष्ठ १२०, का इनको उत्तरकालीन ठहराना युक्ति युक्त ही जान पड़ता है । Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२७ ) पाँचवीं शताब्दी ईसवी) उम ममय तक इन संप्रदायों का स्वरूप निश्चित हो चुका था और वे बौद्ध परम्परा में प्रतिष्ठा पा चुके थे । यही कारण है कि अट्ठकथाकार ( महास्थविर बुद्धघोष ) ने कथावत्थ में खंडन के लिए प्रस्तुत जिन जिन सिद्धांतों की समता अपने काल में प्रचलित या परम्परा से प्राप्त संप्रदायों की मान्यताओं के साथ देखी, उन्हें उनके साथ संबंधित कर दिया है । अतः हम उन विद्वानों ( विशेषत: राहुल सांकृत्यायन और ज्ञानातिलोक ) के मन से सहमत नहीं हैं जो कथावत्थु के कतिपय अंशों को अशोक के काल मे बाद की रचना मानते हैं। जैसा हम अभी स्पष्ट कर चुके हैं, सिद्धांत संप्रदायों की उपेक्षा अधिक प्राचीन हैं और संप्रदायों का नामोल्लेख कथावत्थु में है नहीं । अतः वह निश्चय ही अपने संपूर्ण रूप में अशोककालीन रचना है और उस काल के भिक्षु संघ में स्फुट रूप से प्रचलित नाना मिथ्या धारणाओ और शकाओ के निराकरण के द्वारा मूल बुद्ध धर्म के स्वरूप को स्पष्ट करने का वह प्रयत्न करती है । बाद में इन्हीं ( स्थविरवादी दृष्टिकोण मे ) मिथ्या धारणाओं और शंकाओं ने विकमित होकर विभिन्न निश्चित संप्रदायों और उपसंप्रदायों का रूप धारण कर लिया, जिनका साक्ष्य उसकी अट्ठकथा देती है । 'कथावत्थु ' के २१६ शंका-समाधान २३ अध्यायों में विभक्त है, यह अभी कहा जा चुका है । इनमें से कई समाधान दार्शनिक दृष्टि से बड़े महत्व के हैं । बुद्ध के दर्शन की मनमानी व्याख्या पहले के युगों में भी बहुत की जा चुकी है और आज भी बहुत की जाती है । तथाकथित ब्राह्मण दार्शनिक यदि इम दिशा में मार्ग - भ्रष्ट हुए हैं तो उनसे कम बौद्ध दार्शनिक भी नहीं । महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने ठीक ही सर राधाकृष्णन के उस प्रयत्न की हंसी उड़ाई है और उसे 'बाल- धर्म' ( भारी मूर्खता) निश्चित कर दिया है जो उन्होंने बुद्ध को उपनिषद् के आत्मवाद का प्रचारक सिद्ध करने के लिए किया है । यदि मनीषी राधाकृष्णन् कथावन्थ के प्रथम अध्याय के प्रथम शंकासमाधान में ही स्पष्ट इस विषयक स्थविरवादी दृष्टिकोण की सम्यक् अवधारणा कर लेते तो वे मूल बुद्ध दर्शन के साथ आत्मवाद या अन्य ऐसी किसी १. देखिये महापंडित राहुल सांकृत्यायन का दर्शन-दिग्दर्शन, पृष्ठ ५३०-३२ ( Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४२८ ) चीज को इस प्रकार अनधिकृत रूप से मिलाने का प्रयत्न नहीं करते । इसी प्रकार यदि मनीषी महापंडित भी इस बात की सम्यक् अनुभूति कर लेते कि 'महाशून्यवादी' वेतुल्यकों (वैपुल्यकों) की स्थविरवादियों ने 'कथावत्थु' में क्या खबर ली है, तो वे नागार्जुन आदि उत्तरकालीन वौद्ध दार्शनिकों को, जिन्होंने निषेधात्मक दिशा में ही अधिक पदार्पण किया है, वुद्ध-मन्तव्यों के एकमात्र सच्चे व्याख्याता होने का श्रेय प्रदान नहीं करते । बद्ध-मत सभी अतियों से बाहर जाता है, सभी मतवादों मे ऊपर उठता है। आत्मवाद और अनात्मवाद, ईश्वरवाद और अनीश्वरवाद, भौतिकवाद और विज्ञानवाद, शाश्वतवाद और अशाश्वतवाद सभी इन अतियों और मतवादों के ही स्वरूप है। बुद्ध की दार्शनिक परिस्थिति संबंधी हमारी बहुत सी शंकाओं का निर्म लन स्वयं बुद्ध-वचनों के बाद 'कथावत्थु' में बड़े अच्छे ढंग से होता है। बाद में मिलिन्दपञ्ह (प्रथम शताब्दी ईसवी पूर्व) में भी इस प्रकार का प्रयत्न किया गया है, किन्तु उसका महत्व 'कथावत्थु' के बाद ही है। अब हम कथावत्थु में निरुक्त विषय-वस्तु का संक्षेप मे दिग्दर्शन करेंगे । कथावत्थु में निराकृत सिद्धान्तों की सूची पहला अध्याय १. क्या जीव, सत्व या आत्मा की परमार्थ-सत्ता है ? वज्जिपुत्तक और सम्मितिय भिक्षुओं का विश्वास था कि 'है' । स्थविरवादी दृष्टिकोण से इसका विस्तृत खंडन किया गया है । २. क्या अर्हत्व की अवस्था मे अर्हत् का पतन संभव है ? सम्मितिय वज्जिपुनक, सब्बन्थिवादी और कुछ महासंघिक भिक्षुओं का विश्वास था कि यह संभव है। स्थविरवादियों ने स्रोत आपन्न, सकृदागामी और अनागामी के विषय में तो यह माना है कि वे अपनी-अपनी अवस्थाओं में पतित होकर फिर सांमारिक वन मकते है, किन्तु अर्हत् का पतन तो असंभव है। २. क्या देवताओं में ब्रह्मचर्य की प्राप्ति संभव है ? सम्मितिय भिक्षु कहते थे कि 'नहीं'। स्थविग्वादी दृष्टिकोण से कहा गया है कि सम्मितिय भिक्षुओं Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को ब्रह्मचर्य का अर्थ समझने में ही भ्रम हो गया है । भिक्षु-जीवन (ब्रह्मचर्य) के स्वर्ग में न होते हुए भी पवित्र-जीवन (ब्रह्मचर्य) का अभ्यास करने में तो देवता स्वतन्त्र ही हैं । अतः स्थविग्वादियों के अनुसार देवताओं में भी ब्रह्मचर्य की प्राप्ति संभव है। ४. क्या चित्त-संयोजनों (मानसिक-बन्धनों) का विनाश विभागशः होता है ? सम्मितियों का विश्वास था कि स्रोत आपन्न व्यक्ति दुःख और दुःख-समदय का ज्ञान प्राप्त कर, प्रथम तीन चित्त-बन्धनों के केवल कुछ अंगों को उच्छिन्न करता है और बाकी अंशों को अधिक ऊंची अवस्थाओं को प्राप्त करने के बाद उच्छिन्न करता है। स्थविरवादियों का इसके विपरीत तर्क यह है कि इस प्रकार एक ही व्यक्ति को विभागशः स्रोत आपन्न और विभागग: स्रोत आपन्न नहीं भी मानना पड़ेगा। सम्मतियों ने अपनी स्थिति के समर्थन के लिए बुद्ध-वचन को उद्धृत किया है, किन्तु स्थविरवादियों ने दूसरा बुद्ध-वचन उद्धृत कर उनकी स्थिति को स्वीकार नहीं किया है। ५. क्या संसार में रहते हुए भी कोई मनुष्य राग और द्वेष से मक्त हो सकता है ? सम्मतियों का विश्वास था कि हो सकता है। स्थविरो ने इमे बोकार नहीं किया । ____. क्या सब कुछ है ? (सब्बं अत्थि ? ) सब्बत्थिवादियों (सर्वास्तिवादियों) का विश्वास था कि भूत , वर्तमान और भविष्यत् के सभी भौतिक और मानसिक धर्मों की सत्ता है । स्थविरवादियों के मतानुसार अतीत समाप्त हो चुका, भविष्यत् अभी उत्पन्न नहीं हुआ, केवल वर्तमान ही की सना है । ७. सिद्धान्त छह का ही पूरक है । ८. क्या यह सत्य है कि भूत, और भविष्यत् की कुछ वस्तुओं का अस्तित्व है और कुछ का नहीं ? कस्सपिक भिक्षु कहते थे कि अतीत भी अंशतः वर्तमान में विद्यमान है और जिन भविष्य के पदार्थों के होने का हम दृढ़ निश्चय कर सकते है उनकी भी सत्ता मान सकते है । स्थविरों ने इसे स्वीकार नहीं किया है। ९. क्या सभी पदार्थ स्मृति के आलम्बन है ? अन्धकों का ऐसा विश्वास था, किन्तु स्थविरों ने इसका खंडन किया है । Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. क्या भूत, वर्तमान और भविष्यत् के पदार्थों का अस्तित्व एक प्रकार से है और दूसरे प्रकार ने नहीं ? अन्धकों का ऐसा विश्वास, किन्तु स्थविगे द्वारा खंडन । दूसरा अध्याय ११. क्या अर्हन का वोर्य-पतन सम्भव है ? पूर्वशैलीय और अपरशैलीय भिक्षुओं का विश्वास था कि भोजन-पान के कारण यह सम्भव है । स्थविरों ने इने नहीं माना है। १२-१४. क्या अर्हत के अजान और संशय हो सकते हैं और दूसरों में वह परा जित किया जा सकता है ? पूर्वशैलीय भिक्षओं का विश्वास था कि लौकिक ज्ञान के विषय में यह सर्वथा सम्भव है । स्थविरों ने इसका विरोध नहीं किया, किन्तु अर्हत को कभी भी अविद्या या विचिकित्मा हो सकती है इमे उन्होंने नहीं माना। १५. क्या ध्यानावस्था में वाणी-व्यापार भी सम्भव है ? पूर्वगैलीय भिक्षओ का ऐमा विश्वास, किन्तु उमका निराकरण । १६. क्या 'दुःख' 'दुःख' कहने मे स्रोत आपनि आदि चार ब्रह्मचर्य की अवस्थाओं की प्राप्ति हो सकती है ? पूर्वगैलीय भिक्षओं के इस मिथ्या विश्वान का निराकरण । १७. क्या कोई बिन अवस्था सम्पूर्ण दिन भर रह सकती है ? अन्धकों के इम विश्वास का निराकरण । १८. क्या मभी संस्कार तप्त, दहकते हुए अंगारों के समान है ? भगवान् के एक वचन के अनुसार गोकुलिक भिक्षु सभी संस्कारों को दुःन्म-मय ही मानते थे। म्थविग्वादियों ने क्षणिक सुखमय संस्कारों की भी मनः मानी है। १०. क्या वाचर्य को चार अवस्थाओं (स्रोत आपत्ति आदि) का नाक्षात्कार विभागगः होता है। अन्धक, सब्बत्थिवादी. मम्मितिय और भद्रयानिक भिधओं का ऐमा ही विश्वास । स्थविग्वादियों का मत सिद्धान्त-सं८ के समान । Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४३१ ) २०. क्या बुद्ध का लोकोत्तर व्यवहार (वोहार-वाणी) जैसी कोई चीज है ? अन्धक भिक्षु मज्झिम-निकाय के एक वचन के आधार पर ऐसा ही मानते थे। म्थविरवादी मतानमार ब्रह्मचर्य-संलग्न चिन और निर्वाण ही लोकोत्तर है। २१. क्या दुःख-विमुक्ति भी दो है और निर्वाण भी दो ? महीशामक और अन्धक भिक्ष कहते थे कि ऐसा ही है। एक दुःख-विमक्ति है चिन्तन या प्रतिसंख्यान (पटिसंखा) के द्वारा प्राप्त को हुई। और दूसी उसके बिना। इमो प्रकार एक निर्वाण है प्रतिसंख्यान के द्वारा प्राप्त किया हुआ और दुमरा उसके बिना। इसका निराकरण किया गया है। तीसरा अध्याय २८.३. क्या तथागत के दम बल उनके शिष्यों को भी प्राप्त हो सकते है ? __ अन्धकों को मान्यता इसके पक्ष में । २४. क्या विमुक्त होता हुआ मन लोभ-ग्रस्त होता है ? अन्धकों का विश्वास था कि अर्हत्त्व प्राप्त कर लेने पर ही लोभ से पूर्णत: विमुक्ति मिलती है । २५. क्या विमुक्ति क्रमशः क्रिया के रूप में होने वाली वस्तु है। २६. क्या स्रोत आपन्न का मत-वाद सम्बन्धी बन्धन नष्ट हुआ रहता है । अन्धक और सम्मितियों को ऐसी ही मान्यता थी । स्थविरवादी मन मध्यमार्गीय दृष्टिकोण ले लेता है अर्थात् उसकी मान्यता है कि स्रोत आपन्न का मत-वाद सम्बन्धी बन्धन टूटने लगता है किन्तु पूर्णतः टूट चुका हुआ नहीं होता। १. क्या स्रोतापन्न को श्रद्धेन्द्रिय आदि इन्द्रियों (जीवन-शक्तियों) की प्राप्ति हो जाती है ? अन्धकों का ऐसा ही विश्वास । २८-२९. क्या चर्म-चक्षु दिव्य-चक्षुओं में परिवर्तित हो सकते है, यदि उनका आधार कोई मानसिक धर्म हो । अन्धकों की ऐसी हो मान्यता । ३०. क्या दिव्य-चक्ष प्राप्त कर लेना कर्म के स्वरूप को समझ लेना हो है ? ३१. क्या देवताओं में संयम पाया जाता है ? 1. क्या अचेतन प्राणी (असा -मत्ता) भी विज्ञान (चित्त) से युक्त होते है ? Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४३२ ) अन्धकों का विश्वास था कि विना चित्त के पुनर्जन्म नहीं होता। अतः कम से कम मृत्यु और पुनर्जन्म के क्षण में अचेतन प्राणियों के भी विज्ञान होता है। ३३. क्या नैवसंज्ञानासंज्ञायतन में विज्ञान उपस्थित नहीं रहता ? अन्धकों का विश्वास कि नहीं रहता। चौथा अध्याय ३४. क्या गृहस्थ भी अर्हत् बन सकता है ? उत्तरापथकों का विश्वास । स्थविरवादी मतानुसार अर्हत् होने पर मनुष्य गृहस्थाश्रम में नहीं रह सकता। ३५. क्या जन्म के अवसर पर ही कोई अर्हत् बन सकता है ? उत्तरापथकों का भ्रम । ३६. क्या अर्हत् की प्रत्येक उपयोग-सामग्री भी पवित्र (अनासव-मल-रहित) है ? उत्तरापथकों का मत । ३७. क्या अर्हत् होने के बाद भी मनुष्य को चार मार्ग-फलों की प्राप्ति बनी हुई रहती है ? उत्तरापथकों का विश्वास । ३८. क्या ६ प्रकार की उपेक्षाओं को अर्हन एक ही क्षण में एक ही साथ धारण ___ कर सकता है ? किस सम्प्रदाय की यह मान्यता थी, इसका उल्लेख नहीं है। स्थविरवादी मतानुसार ऐसी अवस्था सम्भव नहीं है। ३९. क्या वोधि-मात्र से बुद्ध हो जाता है ? उत्तरापथकों का भ्रमात्मक विश्वास, 'बोधि' का अर्थ न समझने के कारण । ४०. क्या ३२ महापुरुष-लक्षणों से युक्त प्रत्येक मनप्य बोधिसत्व है ? उत्तरा पथकों का विश्वास । ४१. क्या बोधिसत्व को बुद्ध काश्यप की शिष्यता में ही सम्यक् मार्ग की प्राप्ति हो गई थी ? अन्धकों का ऐसा ही विश्वास था। ४२. ३७ के समान। ४३. क्या संयोजनों (चित्त-बन्धनों) के ऊपर विजय प्राप्त कर लेने का नाम ही अर्हत्त्व है ? अन्धकों का विश्वास । Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४३३ ) पांचवाँ अध्याय ४४. क्या विमुक्ति और विमुक्ति-जान दोनों एक ही वस्तु हैं ? अन्धकों की यही मान्यता। ४५. क्या शैक्ष्य (जिसे अभी सीखना बाकी है, या जिसने अर्हत्व की अवस्था अभी प्राप्त नहीं की है) को अशैक्ष्य (अर्हत्)-सम्बन्धी ज्ञान भी उपस्थित रहता है ? उत्तरापथकों का विश्वास । ४६. पृथ्वी-ऋत्स्न के द्वारा ध्यान करने वाले का ज्ञान क्या मिथ्या-ज्ञान ही है ? अन्धकों का विश्वास । ४७. क्या 'अ-नियत' (चार आर्य-मार्गों में जो प्रतिष्ठित नहीं हुआ है) को 'नियाम' (आर्य-मार्ग की चार अवस्थाएँ, यथा स्रोत आपत्ति, सकृदागामी, अनागामी और अर्हत्त्व) सम्बन्धी ज्ञान उपस्थित रहता है ? उत्तरा पथकों का ऐसा ही विश्वास । ४८. क्या सभी ज्ञान प्रतिसम्भिदा-जान है ? अन्धकों का विश्वास । ४९. क्या यह सत्य है कि संवृति-ज्ञान (सम्मति आण-व्यावहारिक ज्ञान जिसके ___ अनुसार हम मनुष्य, वृक्ष आदि जैसी बातें कहते हैं जिनका परमार्थतः कोई अस्तित्व नहीं) का विषय भी सत्य ही है ? अन्धकों का ऐसा ही विश्वास । ५०, क्या परचिन-ज्ञान का आधार चेतना ही है ? अन्धकों का ऐसा ही मत । ५१. क्या सम्पूर्ण भविष्य का ज्ञान सम्भव है ? अन्धकों के अनुसार सम्भव था । ५२. क्या एक साथ सम्पूर्ण वर्तमान का ज्ञान सम्भव है ? अन्धकों के अनुसार सम्भव था। ५३. क्या साधक को दूसरों की मार्ग-प्राप्ति का भी ज्ञान हो सकता है ? अन्धक कहते थे 'हाँ' ! छठा अध्याय ५४. क्या चार मार्गो के द्वारा आश्वासन मिल सकता है ? अन्धकों का विश्वास । ५५. क्या प्रतीत्य समुत्पाद अ-संस्कृत (अ-कृत) और शाश्वत है। पूर्वशैलीय और महीशासक भिक्षुओं का ऐसा ही विश्वास था। ५६. क्या चार आर्य-सत्य अ-संस्कृत और शाश्वत है ? पूर्वशैलीय भिक्षुओं का यही मत । २८ Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४३४ ) ५७. वया आकाशानन्त्यायतन (आकाश अनन्त है, ऐसे आयतन की भावना) अ-संस्कृत है ? ५८. क्या निरोव-समापत्ति (निरोव-समाधि, जिसमें चित्त की वृत्तियों का पूर्णत: निरोध हो जाता है) अ-संस्कृत है ? अन्धकों और उतरापथकों की मान्यता। ५९. क्या आकाश अ-संस्कृत है ? उत्तरापथक और महीशासकों की मान्यता। ६०-६१. क्या आकाश, चार महाभूत, पाँच इन्द्रिय और कायिक कर्म दृश्य है ? __ अन्धकों की मान्यता। सातवाँ अध्याय ६२. क्या कुछ वस्तुओं का दूसरी वस्तुओं के साथ वर्गीकरण करना असम्भव है ? राजगृहिक और सिद्धार्थक भिक्षुओं का ऐसा ही मत था। ६३. क्या ऐसे चेतसिक धर्म नहीं हैं, जो दूसरे चेतसिक धर्मों के साथ संयुक्त हों ? राजगृहिक और सिद्धार्थक भिक्षु कहते कि नहीं हैं। ६४. क्या 'चेतसिक' नाम की कोई वस्तु-ही नहीं है ? 'नही है' यह भी कहते थे राजगहिक और मिद्धार्थक भिक्ष ही। ६५. क्या दान देना भी चित्तं की एक अवस्था का ही नाम है ? राजगृहिक और मिद्धार्थक भिक्षुओं का ऐसा ही विश्वास । ६६. क्या दान-उपभोग के साथ दान का पुण्य भी बढ़ता है ? राजगृहिक, सिद्धार्थक और सम्मितिय भिक्षुओं का विश्वास । ६७. क्या यहाँ दिया हुआ दान अन्यत्र (पितरों के द्वारा) उपभोग किया जा मकता है ? यह प्रश्न वड़ा महत्वपूर्ण था जिस पर बौद्धों को भी उस युग में सोचना पड़ा । 'पेतवत्थु' और 'खुद्दक-पाठ' के विवेचनों में हम पहले इसका कुछ निर्देश कर चुके है। राजगृहिक और सिद्धार्थक भिक्षुओं का विश्वास था कि यहाँ दिये हुए भोजन का उपभोग पितर अपने लोक में करते है । स्थविरवादियों के अनुसार भोजन का साक्षात् उपभोग तो उनके लिये सम्भव नहीं है, किन्तु यहाँ दिये हुए दान के कारण प्रेतों के मन पर अच्छा प्रभाव अवश्य पड़ता है और वह उनके कल्याण के लिये होता है। Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४३५ ) ६८. क्या पृथ्वी भी कर्म-विपाक है ? अन्धकों का विश्वास । ६९. क्या जरा और मृत्यु कर्म-विपाक हैं ? अन्धकों का विश्वास । ७०, क्या चार आर्य-मार्गों से संयुक्त चित्त की अवस्थाएं कर्म-विपाक पैदा नहीं करतीं ? अन्धकों का विश्वास । ७१. क्या एक कर्म-विपाक दूसरे कर्म-विपाक को पैदा करता है ? अन्धकों का ऐसा ही विश्वास। आठवाँ अध्याय ७२. क्या जीवन के छह लोक है ? अन्धक और उत्तरापथकों की मान्यता । स्थविरवादी केवल पाँच लोक मानते थे, मनुष्य-लोक, पशु-लोक, नरकलोक, यक्ष-लोक, और देवलोक । अन्धक और उत्तरापथक एक छठे लोक, असुर-लोक, को भी मानते थे । ७३. क्या दो जन्मों के बीच में कुछ व्यवधान होता है ? पूर्वशैलीय और सम्मि त्तिय भिक्षुओं के अनुसार होता था। ७४. क्या काम-धातु का अर्थ केवल काम-वासना-सम्बन्धी पाँच विषयों का उप भोग ही है ? पूर्वशीलीय भिक्षु मानते थे कि काम-धातु से तात्पर्य केवल पाँच इन्द्रियों (चक्षु., श्रोत्र, घ्राण, जिह्वा, काय) सम्बन्धी विषय भोगों से है । स्थविरवादी परम्परा में इसका विस्तृत अर्थ लिया गया है, अर्थात् कामनाओं से प्रवर्तित होने वाला सारा जीवन-लोक, इच्छाओं की दौड़ धुप में लगा हुआ सारा जीव-जगत् । ७५. क्या 'काम' का अर्थ है इन्द्रिय-चेतना का आधार ? पूर्वशैलीय भिक्षुओं का मत । ७६-७७. क्या रूप-धातु का तात्पर्य है केवल रूप वाले पदार्थ (रूपिनो धम्मा) ? और अ-रूप धातु का अर्थ है केवल अ-रूप वाले पदार्थ ? अन्धकों का मत । ७८. क्या रूप-लोक का प्राणी ६ इन्द्रियों वाला होता है ? अन्धकों और सम्मि तियों की मान्यता। ७२. क्या अरूप-लोक में भी रूप है ? अन्वकों का विश्वास । Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०. कुशल चित्त से संयुक्त कायिक-कर्म भी क्या कुशल है ? महीशासक और सम्मितियों का मत । ८१. क्या 'रूप-जीवितेन्द्रिय' (रूप-जीवितिन्द्रिय) जैसी कोई वस्तु नहीं ? 'नहीं' कहते थे पूर्व शैलीय और सम्मितिय भिक्षु ! ८२. क्या पूर्व के बुरे कर्म के कारण अर्हत् का भी पतन हो सकता है ? पूर्वशैलीय और सम्मितिय भिक्ष कहते थे कि यह सम्भव है । नवाँ अध्याय ८३. क्या दस संयोजनों से विमुक्ति बिना धर्मों के अनित्य, दुःख और अनात्म स्वरूप को चिन्तन किये भी प्राप्त हो सकती है ? अन्धकों की मिथ्या धारणा। ८४. क्या निर्वाण का चिन्तन भी एक मानसिक बन्धन है ? पूर्वशैलीय भिक्षुओं का ऐसा ही मत। ८५. क्या रूप आलम्बन-युक्त है ? उत्तरापथकों का 'आलम्बन' का ठीक अर्थ न जानने के कारण यह भ्रम । ८६. क्या सात अनुशयों (चित्त-मलों) के मानसिक आधार नहीं होते ? अन्धकों और कुछ उत्तरापथकों का यही मत । ८७. क्या अन्तर्ज्ञान का भी मानसिक आधार नहीं होता ? अन्धकों का यही मत । ८८. क्या भूत या भविष्यत्की चेतना का भी कोई मानसिक आधार नहीं होता ? उत्तरापथक भिक्षुओं का ऐसा मत । ८९. क्या प्रत्येक चित्त की अवस्था में वितर्क रहता है ? उत्तरापथक भिक्षुओं की यही मान्यता। ९०. क्या शब्द भी केवल वितर्क का ही बाहरी विस्तार (विप्फार) है । पूर्व शैलीय भिक्षुओं की यही मान्यता। ९१. क्या वाणी सदा चित्त से सम्बन्धित नहीं है ? 'नहीं है' कहते थे पूर्वशलीय, क्यों कि भूल में हमारे मुंह से कभी-कभी ऐसी बातें निकल जाती हैं जिन्हें हम कहना नहीं चाहते। Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४३७ ) ९२. क्या कायिक-कर्म सदा चित्त से सम्बन्धित नहीं है ? पूर्वशैलीय भिक्षुओं का उपर्युक्त के समान मत । ९३. क्या भूत और भविष्यत् की भी प्राप्तियाँ सम्भव है ? अन्धक कहते थे 'हाँ' । दसवाँ अध्याय ९४. क्या पुनर्जन्म को प्राप्त कराने वाले स्कन्धों के निरोध से पूर्व ही पंचस्कन्धों की उत्पत्ति हो जाती है ? अन्धकों का ऐसा ही मत । ९५. क्या आर्य अष्टाङ्गिक मार्ग का अभ्यास करते समय व्यक्ति का रूप उसमें संनिविष्ट रहता है ? सम्मितिय, महीशासक और महासांघिकों का ऐसा ही विश्वास । ९६. क्या पाँच इन्द्रिय-चेतनाओं (जैसे देखना, सुनना आदि ) का उपयोग करते हुए मार्ग की भावना की जा सकती है ? महीशासकों का यही विश्वास । ९७. क्या पाँच प्रकार की इन्द्रिय- चेतनाएँ कुशल हैं ? महीशासकों की मान्यता । ९८. क्या पाँच प्रकार की इन्द्रिय-चेतनाएँ अ-कुशल भी है ? उपर्युक्त के समान ही । ९९. का आर्य-अष्टाङ्गिक मार्ग का अभ्यास करने वाला व्यक्ति दो प्रकार के शील ( लौकिक और अलौकिक ) का आचरण कर रहा है ? महासांघिकों का यही मत । १००. क्या शील कभी-कभी अ-चेतसिक भी होता है ? महासांघिकों का ऐसा ही विश्वास | १०१. क्या शील चित्त से सम्बन्धित नहीं है ? ९१, ९२ के समान १०२. क्या मात्र ग्रहण करने से शील का विकास होता है ? महासांघिकों का ऐसा ही विश्वास | १०३. क्या केवल शरीर या वाणी से विज्ञप्ति कर देना भी शील है ? महीशासक और सम्मितियों का ऐसा ही मत । १०४. क्या नैतिक उद्देश्य की अविज्ञप्ति अकुशल है ? महासांघिकों का यही मत । ग्यारहवाँ अध्याय १०५. क्या सात अनुशय अव्याकृत है ? महासांघिकों की यह मान्यता थी । १०६. क्या ज्ञान से असंयुक्त चित्त की अवस्था में भी किसी को अविद्या से विमुक्त Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४३८ ) और विद्या से युक्त कहा जा सकता है ? महासांघिक कहते थे, 'कहा जा सकता है। १०७. क्या अन्तर्ज्ञान चित्त से अयुक्त भी हो सकता है । पूर्वशैलीय भिक्षु कहते थे कि हो सकता है। १०८. क्या दुःख आर्य-सत्य का ज्ञान मात्र यह कहने से हो जाता है यह दुःख है' ? __ अन्धकों का ऐसा ही विश्वास था। १०१. क्या योग की विभूतियों से युक्त मनुष्य कल्प भर तक रह सकता है ? महासांघिक भिक्षु-कहते थे 'हाँ' । ११०. क्या चित्त-प्रवाह (चित्त-सन्तति) समाधि में भी रहता है ? सर्वास्तिवादी और उत्तरापथकों का विश्वास । १११. क्या पदार्थों का नियमित स्वरूप स्वयं निष्पन्न (निष्फन्न) है ? अन्धकों का विश्वास। ११२. क्या अनित्यता स्वयं निष्पन्न है, जैसे अनित्य पदार्थ ? यह मत भी अन्धकों का था। बारहवाँ अध्याय ११३. क्या केवल संयम और अ-संयम ही कुशल और अकुशल कर्मों की उत्पत्ति करने वाले हैं ? महासांघिकों का ऐसा ही विश्वास । ११४. क्या प्रत्येक कर्म का विपाक अवश्य होता है ? महासांघिकों का ऐसा ही विश्वास था। स्थविरवादियों के मत के अनुसार अव्याकृत कर्म का विपाक नहीं होता। ११५-११६. क्या वाणी और शरीर की इन्द्रियाँ भी पूर्व-जन्म के कर्म के परि णाम स्वरूप हैं ? महासांघिकों का ऐमा ही विश्वास था। ११७. क्या वे स्रोत आपन्न व्यक्ति जो अधिक से अधिक सात बार आवागमन में घमने के बाद निर्वाण प्राप्त करते है (सनक्खत्तु-परम), उस काल के अन्त होने पर ही निर्वाण प्राप्त करते हैं ? उत्तरापथकों का ऐसा ही मत।। ११८. क्या वे स्रोतापन्न व्यक्ति जो एक कुल से दूसरे कुल में जन्म लेने के बाद (कोलंकोल) या सिर्फ एक ही बार और जन्म लेने के बाद (एकवीजी) Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४३९ ) निर्वाण प्राप्त करते हैं, उस काल के अन्त होने पर ही निर्वाण प्राप्त करते हैं ? उत्तरापथकों का ही मत । ११९. क्या सम्यक् दृष्टि-सम्पन्न व्यक्ति जान-बुझ कर हत्या कर सकता है ? पूर्वशैलीय भिक्षु कहते थे कि ऐसा मनुष्य अभी क्रोध-मुक्त नहीं हुआ, अतः क्रोध के आवेश में उसके लिये ऐसा करना असम्भव नहीं है। १२०. क्या सम्यक्-दृष्टि-सम्पन्न व्यक्ति दुर्गतियों से विमुक्त हो जाता है ? उत्तरापथकों का यह मत था। स्थविरवादियों के मतानुसार दुर्गति के दो अर्थ हैं, पशु-योनि आदि दुर्गतियाँ और इच्छा-आसक्ति आदि दुर्गतियां । उपर्युक्त व्यक्ति उनके मतानुसार केवल प्रथम दुर्गति से विमुक्त हो जाता है। १२१. क्या स्रोत आपन्न व्यक्ति अपने सातवें जन्म में दुर्गतियों से विमस्त हो जाता है ? उपर्यक्त के समान । तेरहवाँ अध्याय १२२. क्या जीवन-काल (कल्प-कप्प) के लिये दंडित व्यक्ति युग-काल (कल्प कप्प) तक दंड भोगेगा ? 'कल्प' का अर्थ न समझने के कारण राज गृहिक भिक्षुओं का यह भ्रम था। १२३. क्या नरक में यातना पाता हुआ प्राणी कुशल-चित्त की भावना नहीं कर सकता ? 'नहीं कर सकता' कहते थे उत्तरापथिक । स्थविरवादियों के अनुसार वह उस अवस्था में भी कुछ कुशल कर्म कर सकता है। १२४. क्या पितृ-वध आदि दुष्कृत्यों को करने वाला भी कभी आगे चल कर शुभ कर्म-पथ पर आ सकता है। उत्तरापथक कहते थे 'आ सकता है। स्थविरवादियों के अनुसार वह उसी अवस्था में आ सकता है जब कि बिना निश्चय किये हुए और दूसरे की आज्ञानुसार उसने ऐसा किया हो। १२५. क्या व्यक्ति का भाग्य उसके लिये पहले से ही निश्चित (नियत) है ? पूर्वशैलीय और अपरशैलीय भिक्षुओं का ऐसा ही विश्वास था। १२६-२७. क्या ५ नीवरणों (चित्त के आवरणों) और १० संयोजनों (चित्त बन्धनों) को जीतते समय भी व्यक्ति इनसे युक्त हो सकता है ? उत्तरापथक भिक्षुओं का विश्वास था कि हो सकता है । Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४४० ) १२८. क्या ध्यान के अन्दर ध्यान का आस्वाद होता है और ध्यान की इच्छा ही उमका आलम्बन (विषय) है ? अन्धकों का ऐसा ही विश्वास । १२९. क्या अ-सुखकर वस्तु के लिये भी आसक्ति हो सकती है ? उत्तरापथकों का ऐसा ही विश्वास। १३०. क्या मन के विषयों की तृष्णा (धम्म-तण्हा) अव्याकृत है, और १३१. क्या वह दुःख का कारण नहीं है ? ये दोनों मत पूर्वशैलीय भिक्षुओं के थे। चौदहवाँ अध्याय १३२. क्या कुशल-मूल (अ-लोभ, अ-द्वेष, अ-मोह) अ-कुशल मूलों (लोभ, द्वेष, मोह) के बाद पैदा होते हैं ? महासांघिकों का मिथ्या विश्वास था। १३३. माता के पेट में गर्भ-में आते समय क्या ६ इन्द्रयाँ (चक्षु, श्रोत्र, घ्राण, जिह्वा, काय, मन) साथ-साथ ही उत्पन्न होती है ? पूर्वशैलीय भिक्षुओं का ऐसा ही विश्वास था। १३४. क्या एक विज्ञान (चक्षु-विज्ञान आदि) किसी दूसरे विज्ञान के बाद उत्पन्न हो सकता है ? उत्तरापथक भिक्षुओं का ऐसा ही विश्वास था। १३५. क्या वाणी और शरीर का पवित्र भौतिक कार्य चार महाभूतों से ही से ही उत्पन्न होता है ? उत्तरापथकों का यही विश्वास था। १३६. क्या काम-वासना-सम्बन्धी अनुशय और उसका प्रकाशन दो विभिन्न वस्तुएं हैं ? अन्धकों का यही विश्वास था। १३७. क्या अनुशयों का प्रकाशन चित्त मे असंयुक्त (विप्पयुत्त) है ? अन्धकों का यही मत था । १३८. क्या रूप-राग, रूप-धातु में ही अन्तहित और सम्मिलित है ? अन्धक और सम्मितिय भिक्षुओं का यही विश्वास था। १३९. क्या मिथ्या मत-वाद अ-व्याकृत है ? अन्धक और सम्मितिय भिक्षुओं का यही मत था । वे 'अव्याकृत' शब्द के ठीक अर्थ को नहीं समझते थे। १४०. क्या मिथ्या मत-वाद, लौकिक क्षेत्र मे असम्बन्धित, साधकों के लोकोत्तर क्षेत्र में भी पाये जाते हैं ? पूर्वशैलीय भिक्षुओं का यह मिथ्या विश्वास था। Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४४१ ) पन्द्रहवाँ अध्याय १४१. क्या 'प्रतीत्य समुत्पाद' का प्रत्येक धर्म (अवस्था) केवल एक ही प्रत्यय का सूचक है ? महासांघिक भिक्षुओं का ऐसा ही मत था । १४२. क्या यह कहना गलत है कि 'संस्कारों के प्रत्यय से अविद्या की उत्पत्ति होती है', जैसे कि 'अविद्या के प्रत्यय से संस्कारों की उत्पत्ति होती है ?' महासांघिकों के मतानुसार यह कहना गलत ही था। स्थविरवादियों ने इसे 'सहजात-प्रत्यय' या 'अन्योन्य-प्रत्यय' के आधार पर व्याख्यात किया है और गलत नहीं माना। १४३. क्या काल परिनिष्पन्न (परिनिप्फन्न) है ? १४४. क्या काल के सभी क्षण परिनिष्पन्न हैं ? १४५. क्या आस्रव (काम-आम्रव, भवास्रव, दृष्टि-आस्रव, अविद्यास्रव) दूसरे आत्रवों से असंलग्न है ? हेतुवादी भिक्षुओं का यही मत था। १४६. क्या लोकोत्तर भिक्षुओं के जग और मरण भी लोकोत्तर होते है ? महा सांघिकों का यह मत था । स्थविरवादियों के मतानुसार इनकी भौतिक या मानसिक सत्ता ही नहीं है, अतः न ये लौकिक हैं, न लोकोत्तर । १४७. क्या निरोध-समापनि (निरोध-समाधि) लोकोत्तर है ? हेतुवादियों कामत। १४८. क्या वह लौकिक (लोकिय) है ? पूर्वोक्त के समान । १४९. क्या निरोध-समाधि की अवस्था में मृत्यु भी हो सकती है। राजगृहिक कहते थे कि हो सकती है । स्थविरवादी भिक्षुओं के मतानुसार नही हो सकती। १५०. क्या निरोध-समाधि के बाद संजा-हीन प्राणियों (असञ्जसत्त) के लोक में उत्पत्ति होती है ? हेतुवादियों का यही मिथ्या विश्वास था । १५१. क्या कर्म और कर्म-संचय दो विभिन्न वस्तुएँ हैं ? अन्धक और सम्मितियों का ऐसा ही विश्वास । सोलहवाँ अध्याय १५२. क्या कोई व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति के मन को नैतिक रूप से शिक्षित कर सकता है या उसे सहायता पहुंचा सकता है ? महासांघिओं का यह मत था। Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४४२ ) १५४. क्या एक व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति के मन में सुख उत्पन्न कर सकता है ? हेतुवादियों का ऐसा विश्वास था। १५५. क्या एक ही समय अनेक वस्तुओं की ओर हम ध्यान दे सकते है ? पूर्वशैलीय और अपरशैलीय भिक्षुओं के मतानुसार यह सम्भव था। १५६-५७. क्या रूप भी एक हेतु है ? क्या यह हेतुओं से युक्त है ? ये दोनों मत उत्तरापथकों के थे। १५८. क्या रूप कुशल या अकुशल हो सकता है ? महीशासक और सम्मितिय भिक्षुओं का यह विश्वास था। १५९. क्या रूप कर्म-विपाक है ? अन्धक और मम्मितियों की मान्यता। १६०. क्या रूपावचर और अरूपावचर लोकों में भी रूप है ? अन्धकों का ऐसा ही विश्वास था। १६१. क्या रूप-राग और अरूप-राग, क्रमश: रूप-धातु और अरूप-धातु में सम्मिलित हैं ? अन्धकों की यही मान्यता थी। सत्रहवाँ अध्याय १६२. क्या अर्हत् भी पुण्यों का संचय करता है ? अन्धकों की मान्यता । १६३. क्या अर्हत् की अकाल मृत्यु नहीं हो सकती ? नहीं हो सकती, ऐसा राज गृहिक और सिद्धार्थक भिक्षु मानते थे। १६४. क्या हर वस्तु कर्मों के कारण है ? गजगृहिक और सिद्धार्थक भिक्षु ऐसा ही विश्वास रखते थे। १६५. क्या दुःख छ: इन्द्रिय-अनुभूतियों तक ही मीमित है ? हेतुवादियों की यह मान्यता थी। १६६. क्या आर्य-मार्ग को छोड़कर सभी वस्तुएं और संस्कार, दुःख (कृत) है ? हेतुवादियों का ऐसा ही विश्वास था। १६७. क्या यह कहना गलत है कि संघ दान ग्रहण करता है। यह मत वैतुल्यक नामक महानून्यतावादियों का था। संघ की चार आर्य-मार्गों और उनके फलों के रूप में व्याख्या करना इनका मुन्य सिद्धान्त था। इनके सिद्धान्तों में हम महायान-धर्म के बीज पाते है। Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४४३ ) ·१६८-७१. क्या यह कहना गलत है कि संघ दान को पवित्र करता है, या स्वयं उसे खाता, पीता है, या संघ को दान की हुई वस्तु बड़ा पुण्य पैदा करती है, या बुद्ध को दान की हुई वस्तु बड़ा पुण्य पैदा करती है ? ये सब सिद्धान्त वैतुल्यक नामक महाशुन्यता - वादियों के थे । इन्हीं में बाद में महायानसम्प्रदाय का विकास हुआ । '१७२. क्या दान देने वाले के द्वारा ही पवित्र किया जाता है, ग्रहण करने वाले के द्वारा नहीं ? उत्तरापथकों का यही विश्वास था । अठारहवाँ अध्याय '१७३.-७४ क्या यह कहना गलत है कि बुद्ध मनुष्यों के लोक में रहे ? क्या यह भी गलत है कि उन्होंने उपदेश दिया ? 'हाँ गलत ही है' ऐसा वेतुल्यक ( वैपुल्यक) कहते थे। बाद में चल कर महायान धर्म ने भी यही कहा "भगवान् तथागत मौन है। भगवान् बुद्ध ने कभी किसी को कुछ नहीं मिखाया " ( मौनाः हि भगवन्तस्तथागताः । न मौनस्तथागतैर्भाषितम् ) इस सब के बीज हम यहीं पाते हैं । क्योंकि १७५. क्या बुद्ध को करुणा उत्पन्न नहीं हुई ? 'नही हुई', कहते थे उत्तरापथक, करुणा को भी वे आसक्ति का ही रूप मानते थे । १७६. क्या यह सत्य है कि भगवान् बुद्ध के मल में से भी अद्वितीय सुगन्ध आती थी ? अन्धक और उत्तरापथकों का यही मत था । १. मिलाइये, ज्ञानातिलोक “ According to my opinion वैतुल्य is a distortion of वैपुल्य and the वैपुल्य sutras of the Mahayana refer to the above-mentioned heretics (Vetulyakas known as महाशुन्यतावादिन् s ) whose ideas, too, appear to be perfectly Mahayanistic.” गाइड दि अभिधम्मपिटक, पृष्ठ ६०; राहुल सांकृत्यायन : “वैपुल्य ही वह नाम है जिससे महायान आरम्भिक काल में प्रसिद्ध हुआ" पुरातत्व निबन्धावली, पृष्ठ १३१ । 'शून्यता' (सुञता) के विचार का निर्देश संयुक्त निकाय के ओपम्म वग्ग में तथा अंगुत्तर निकाय के अनागतभय-सूत्रों (चतुक्क और पंचक निपात) में हुआ है । इस विषय सम्बन्धी अधिक निरूपण के लिए देखिये श्रीमती रायस डेविड्स् : ए बुद्धिस्ट मेनुअल ऑव साइकोलोजीकल एथिक्स ( धम्मसंगणि का अनुवाद) पृष्ठ ४२ (भूमिका) Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४४४ ) १७७. क्या केवल एक आर्य-मार्ग के अभ्यास से चारों आर्य-मार्गो (स्रोतापत्ति आदि) के फलों को प्राप्त किया जा सकता है ? १७८. क्या एक ध्यान के ठीक बाद दूसरे ध्यान में साधक प्रवेश कर जाता है ? महीशासकों का ऐसा ही विश्वास था। १७९. ध्यानों के पंचविध विभाजन में जिसे द्वितीय ध्यान कहा जाता है वह क्या केवल प्रथम और द्वितीय ध्यान के बीच की अवस्था है ? सम्मितिय और कुछ अन्धकों का ऐसा ही विश्वास था । १८०. क्या साधक ध्यान में शब्दों को सुन सकता है ? पूर्वशैलीय भिक्षुओं की यही मान्यता थी? १८१. क्या दृश्य पदार्थ आँखों मे ही देखे जाते हैं ? महासांघिकों के मतानुसार (पसाद-चक्खु) जो केवल भौतिक विकार है, देखती है । स्थविरवादियों के मनानुसार वह केवल देखने का आधार या आयतन है और है जो देखता है वह नो वास्तव में चक्षु-विज्ञान है । १८२. क्या हम भूत, वर्तमान और भविष्यत् के मानसिक क्लेशों पर विजय प्राप्त कर सकते हैं ? उत्तरापथकों के अनुसार कर सकते हैं। १८३. क्या शून्यता संस्कार-स्कन्ध में मम्मिलित है ? अन्धकों के अनुमार सम्मि दित है। १८४. क्या मार्ग-फल अ-संस्कृत है ? पूर्वशैलीय भिक्षुओं का मत । १८५. क्या किमी वस्तु की प्राप्ति स्वयं अ-संस्कृत है ? पूर्वशैलीय भिक्षुओं का मत। १८६. क्या 'तथता' (वस्तुओं का निश्चित स्वरूप) अ-संस्कृत है ? उत्तरापथकों में में कुछ का यह विश्वास था। बाद में चल कर अश्वघोष के 'भूततथता' के सिद्धान्त का यहाँ बीज पाया जाता है। यह सिद्धान्त उपनिषदों के ध्रुव आत्मवाद के अधिक समीप पहुंच जाता है । १८७. क्या निर्वाण-धातु कुशल है ? अन्धकों का मत। कुशल को सामान्यतः निर्दोष' या 'पवित्र' मानकर वे निर्वाण को भी 'कुशल' कहते थे। १८८. क्या मांसारिक मनुष्य (पृथग्जन) में भी अत्यन्त नियमवना (अच्चन्त नियामता) हो सकती है ? उत्तरापथकों में से कुछ के मतानुसार हो सकती थी। १८९. क्या ऐमी श्रद्धेन्द्रिय आदि इन्द्रियाँ नही हैं जो लौकिक हों और जिन्हें Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४४५ ) साधारण आदमी (पृथग्जन) भी प्राप्त कर सके ? नहीं हैं, ऐसा महीशासक और हेतुवादी भिक्षु कहते थे। बीसवाँ अध्याय १९०. क्या बिना जान-बूझ कर किये हुए पितृ-वध आदि अपराधों के कारण भी नरक में जन्म लेना पड़ता है ? उत्तरापथक ऐसा मानते थे। १९१. क्या साधारण सांसारिक मनुष्य (पृथग्जन) को सम्यक् ज्ञान नहीं हो सकता? नहीं हो सकता, कहते थे हेतुवादी। १९२. क्या नरक में फाँसी लगाने वाले या चौकीदार नहीं हैं। 'नही है' कहते थे अन्धक। १९३. क्या देवताओं के पशु भी होते है ? अन्धकों के अनुसार होते थे ! १९४. क्या आर्य अष्टांगिक मार्ग वास्तव में पाँच अंगों वाला ही है ? महीशासक ऐसा ही मानते थे। सम्यक् वाणी, सम्यक् कर्मान्त और सम्यक् आजीव को वे मानसिक दशा न मान कर उनका अन्तर्भाव केवल सम्यक् व्यायाम में कर देते थे। १९५. क्या चतुरार्य सत्य-सम्बन्धी १२ प्रकार के ज्ञान लोकोत्तर है ? पूर्वशैलीय भिक्षु उन्हें ऐसा ही मानते थे। इक्कीसवाँ अध्याय १९६. क्या बुद्ध-उपदेशों में कोई संस्कार किया गया है ? क्या उनमें फिर संस्कार किया जा सकता है ? इन दोनों बातों की सम्भावना उत्तरापथक भिक्षु मानते थे। स्थविरवादियों ने दोनों बातों का विरोध किया है। बुद्ध की शिक्षाओं का संस्कार या सुधार सम्भव नहीं है। १९७. क्या सांसारिक मनुष्य की पहुँच एक ही क्षण में काम -लोक, रूप-लोक और अ-रूप-लोक की वस्तुओं में हो सकती है ? हो सकती है, ऐसा कुछ विरोधी सम्प्रदाय के लोग मानते थे, किन्तु उनके नाम का निर्देश अट्ठकथा में नहीं किया गया है। १९८. क्या बिना कुछ संयोजनों का विनाश किएं भी अर्हत्त्व प्राप्ति हो सकती है ? महासांघिकों का ऐसा ही विश्वास था। १९९. क्या बुद्ध और उनके कुछ शिष्यों को प्रत्येक वस्तु के सम्बन्धमे योग की शक्तियाँ प्राप्त हुई रहती हैं। अन्धकों का विश्वास । Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४४६ ) २००. क्या विभिन्न बुद्धों में भी कुछ श्रेणी का तारतम्य है ? अन्धक सम्प्रदाय के कुछ भिक्षुओं का ऐसा ही मत था। २०१. क्या संसार के चारों भागों में बुद्धों का निवाम है। महासांघिकों का यह विश्वास था। बाद के महायानी ग्रंथ 'सुखावती व्यूह' में इसी विश्वास का प्रतिपादन किया गया है। ‘सुखावती' व्यूह' में प्रत्येक भाग में रहने वाले बुद्ध का नाम भी दिया हुआ है, जैसे पच्छिमी भाग में भगवान् अमिताभ वुद्ध रहते है. पूर्वी भाग में अमितायु आदि। महासांघिकों को अभी इसका पता नहीं है। २०२... क्या सभी वस्तुएं और कर्म नियत है ? अन्धक और कुछ उत्तरापथक भिक्षुओं का ऐमा ही विश्वास था। बाईसवाँ अध्याय २०४. क्या बिना कुछ संयोजनों का विनाश किए भी निर्वाण की प्राप्ति हो मकती है। अन्धकों का विश्वास था कि हो सकती है। यह मत १९८ के प्रायः समान ही है। २०५. क्या अर्हत् के शरीर त्याग करते समय उसका चित्त 'कुशल' रहता है। अन्धको का यह भ्रमात्मक कथन था। 'कुशल' के दार्शनिक अर्थ को वे ठीक-ठीक न समझते थे। २०६. क्या निश्चल (आनेज) ध्यान की अवस्था में भी बुद्ध या किसी अर्हत को मृन्य हो सकती है ? उत्तरापथक सम्प्रदाय के कुछ भिक्षुओं की यही मिथ्या धारणा थी। २०७-८. क्या गर्भ की अवस्था में या स्वप्न की अवस्था में सत्य का अन्तान (धम्माभिसमय) या अर्हत्त्व की प्राप्ति सम्भव है ? उत्तरापथक भिक्षु इसकी सम्भावना मानते थे। २०९. क्या स्वप्न की अवस्था में चित्त 'अव्याकृत' रहता है ? उत्तरापथक सम्प्रदाय के कुछ भिक्षुओं की ऐसी ही मान्यता थी। स्थविरवादियों के मतानुसार कुमाल और अकुशल अवस्थाएं भी उत्पन्न हो सकती है। २१०. क्या शुभ और अशुभ मानसिक अवस्थाओं की पुनरावृत्ति सम्भव नहीं है। ऐमी मान्यता उत्तरापथक भिक्षुओं की थी। Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४४७ ) २११. क्या सभी पदार्थ (धर्म) एक क्षण तक ही रहते हैं। ऐसी मान्यता पूर्वशैलीय और अपरशैलीय भिक्षुओं की थी। २१२. क्या (पुरुष और स्त्री के) संयुक्त विचार के साथ मैथुन-सम्बन्ध स्थापित किया जा सकता है ? यह बात वेतुल्यकों ने उठाई है, किन्तु उन्होंने यह नहीं कहा कि उनका तात्पर्य भिक्षुओं से है या गहस्थों से। स्थविरवादियों ने इसका कड़ा प्रतिवाद किया है। २१३. क्या ऐसे अ-मानपी जीव है जो भिक्षुओं का रूप धारण कर मैथुन मेवन करते हैं ? उत्तरापथक सम्प्रदाय के कुछ भिक्षुओं की ऐसी मान्यता थी। . २१४. क्या बुद्ध ने अपनी शक्ति और इच्छा से ही बोधिसत्व होते समय पशु आदि योनियों में प्रवेश किया, कड़ी तपस्याएँ की और एक दूसरे उपदेशक के लिए तपस्या की? अन्धकों की यह मान्यता थी। २१५. क्या ऐसी वस्तु है जो स्वयं काम नहीं, किन्तु कामके समान है। (दया, महानुभूति, आदि)। इसी प्रकार घृणा नहीं, किन्तु घृणा के समान है, (ईर्ष्या, मात्सर्य) आदि। अन्धकों की ये मान्यताएँ थीं। १६. क्या यह कहना ठीक है कि पंच-स्कन्ध, १२ आयतन, १८ धातु और २२ इन्द्रियाँ, 'असंस्कृत' है और केवल दुःख 'संस्कृत' या परिनिष्पन्न (परिनिप्फन) है ? उत्तरापथक और हेतुवादी भिक्षुओ की ऐमी ही मान्यता थी। ऊपर हम कथावत्थु में निराकृत २१६ मतवादों का संक्षिप्त विवरण दे चुके है। इनमें से बहत कुछ अल्प महत्त्व के है, परन्तु अधिकांश मतवाद बड़े महत्त्व के हैं। उनसे बौद्ध धर्म के उत्तरकालीन विकास पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। वास्तव में इसी दृष्टि से उन्हें ऊपर उद्धृत भी किया गया है। कथावत्थु की अट्ठकथा ने जिन सम्प्रदायों के साथ उपर्यक्त मतवादों में से प्रत्येक को संलग्न किया है (कुछ को बिना संलग्न किए भी छोड़ दिया है जैसे २५, ३०, ३१, ३८, १४३, १४४, १७७, और १९७,) उनकी दृष्टि से मतवादों का संकलन करने पर निम्नलिखित सूची बनेगी, जो बौद्ध धर्मके ऐतिहासिक विकास के विद्यार्थी के लिए बड़ी आवश्यक हो सकती है-- Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Safaya १, २ महिंसासक २१, ५५, ५९, ८०, ९५, १०३, १५८, १७८, १८९, १९४ ( महीशासक ) महासंघिक गोकुलिक - सब्बत्थिवादी ( सर्वास्तिवादी ) - सम्मितिय भद्रयानिक कस्सपिक ( काश्यपिक ) हेतुवादी उत्तरापथक अन्धक ( ४४८ ) पुब्वसेलिय ( पूर्व शैलीय ) अपरसेलिय ( अपरशैलीय ) राजगिरिक ९५-१००, १०२, १०४-६, १०९, ११३-१६, १३२, १४९, १४२, १४६, १५२, १५३, १८१, १९८, २०१ १८ २, ६, ७, १०, ११० १-५, १९, २६, २८, २९, ६६, ७३-७८, ८०-८२, ९५, १०३, १३८, १३९, १५१, १५८, १५९, १७९ १९ १४५, १४७-४८, १५०, १५४, १६५-६६, १८९, १९१२१६ ३४-३७, ३९, ४०, ४५, ४७, ५८, ५९,७२, ८५, ८६, ८८, ८९, ११०, ११७-१८, १२०, १२३ - २४, १२६-२७, १२९, १३४-३५, १५० ५७, १७२, १७५ ७७, १८२, १८६, १८८, १९०, १९६, २०२ ३, २०६-९, २१०-१६ ९, १०, १७, १९-२४, २६, २८, २९, ३२, ३३, ४१-४४, ४६, ४८-५४, ५८, ६०, ६१, ६८-७२, ७६-७९, ८३, ८६, ८३, ९३, ९४, १०८, १११-१२, १२८, १३६-३९, १५१, १५९-६२, १७६-७७, १७९, १८३, १८७, १९२-९३, १९९, २०० २०४-५, २१२, २१४, २१५ ११-१६, ५५, ५६, ७३ ७५, ८१, ८२, ८४, ९० ९२, १०७, ११९, १२५, १३०, १३१, १३३, १४०, १५५, १८०, १८४, १८५, १९५, २११ ११, १२५, १३५, २११ ६२-६५, ६७, १२२, १४९, १६३-६४ Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४४९ ) सिद्धत्थिक ६२-६७, १६३-१६४ (सिद्धार्थक) वैतुल्यक १७३-७४, २१२ महाशून्यतावादी १६७-७११ वैतल्यक ऊपर के विवरण से स्पष्ट है कि वौद्ध धर्म के प्रारंभिक विकास को समझने के लिए 'कथावत्थु' की समीक्षाओं का कितना अधिक महत्त्व है। किन्तु ये समीक्षाएँ केवल एक सम्प्रदाय (स्थविरवाद) की हैं, यह भी हमें नहीं भूलना चाहिए। जिस प्रकार 'कथावत्थु' में स्थविरवादी दृष्टिकोण से अन्य विरोधी सिद्धान्तों का खंडन किया गया है, उमी प्रकार अन्य सम्प्रदायों की परम्परा में शेष सम्प्रदायों (जिनमें स्थविरवादी भी सम्मिलित है) का खंडन किया गया है। उदाहरणतः वसुमित्र के 'अप्टादश-निकाय नास्त्र' २ में सर्वास्तिवादी दष्टिकोण से शेप १७ सम्प्रदायों का खंडन किया गया है। इसी प्रकार तिब्बती और चीनी अनुवादों में कुछ अन्य सम्प्रदायों की दृष्टियों से भी खंडन-मंडन मिलने है। चूंकि हमारे विषय में ये सीधे सम्बन्धित नहीं हैं, अतः इनके तुलनात्मक अध्ययन में पड़ना हमारे लिए अप्रासंगिक होगा। कथावत्थु' की दृष्टि से इतना कह देना ही आवश्यक जान पड़ता है कि अन्य बौद्ध सम्प्रदायों की परम्पराओं में प्राप्त सिद्धान्तों के विवरणों से उसके विवरणों की विभिन्नता नहीं है। केवल समालोचना-दृष्टि का भेद अवश्य है, जो सम्प्रदाय-विभेद के कारण आवश्यक हो गया है। जहाँ तक आपेक्षिक प्रामाण्य का सवाल है निश्चय ही 'कथावत्थु' का परम्परा प्राचीन है और उसी का अनुवर्तन बाद में 'दीपवंस' और 'महावंस' में भी मिलता है । वसुमित्र और भव्य के वर्णन अपेक्षाकृत अर्वाचीन हैं। संस्कृत बौद्ध धर्म की परम्परा का उसके मूल स्रोत से कई बार ऐतिहासिक उलट-पुलटों के कारण विच्छेद भी हो १. ज्ञानातिलोक : गाइड शू दि अभिधम्म-पिटक, पृष्ठ ३८ २. इस ग्रन्थ का मूल संस्कृत उपलब्ध नहीं है । केवल चीनी अनुवाद मिलता है, जिसका अग्रेजी अनुवाद जापानी विद्वान् प्रो० मसूदा ने किया है। वसुमित्र द्वारा दिये गये कुछ सम्प्रदायों के परिचय के लिये देखिये बुद्धिस्टिक स्टडीज, पृष्ठ ८२८-३१ । ३. देखिये जर्नल ऑव रॉयल एशियाटिक सोसायटी, १९१०, पृष्ठ ४१३ २९ Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चुका है। अतः पालि वर्णन ही अधिक प्रामाणिक और समाश्रयणीय हैं । अतः 'कथावत्थु' के नाना सम्प्रदायों के सिद्धान्त-विवरण प्रामाणिक माने जा सकते है और वौद्ध धर्म के ऐतिहासिक विकास के प्रारम्भिक स्वरूप को समझने के लिए आज भी उनका पर्याप्त महत्व है, इसमें सन्देह नहीं। यमक' 'यमक' का शाब्दिक अर्थ है जोड़ा या जुड़वाँ पदार्थ । 'यमक पकरण' में प्रश्नों को जोड़ों के रूप में रक्खा गया है, यथा (१) क्या सभी कुशल-धर्म कुशलमूल हैं ? क्या सभी कुशल-मूल कुशल-धर्म है ? (२) क्या सभी रूप रूप-स्कन्ध है ? क्या सभी रूप-स्कन्ध रूप है ? (३) क्या सभी अ-रूप अ-रूप-स्कन्ध है ? क्या सभी अ-रूप-स्कन्ध अ-रूप हैं ? आदि, आदि । प्रश्नों के अनुकूल और विपरीत स्वरूपों का यह जोड़ा बनाना इस ग्रन्थ में आदि से अन्त तक देखा जाता है। इसीलिए इसका नाम 'यमक' पड़ा है । 'यमक' का मुख्य विषय है अभिधम्म में प्रयुक्त शब्दावली की निश्चित व्याख्या। अतः उसका अभिधम्मदर्शन के लिए वही महत्व और उपयोग है, जो एक निश्चित पारिभाषिकशब्द-कोश का किसी पूर्ण दर्शन-प्रणाली के लिए। उसकी बहुत कुछ शुष्कता का भी यही कारण है । 'यमक' दस अध्यायों में विभक्त है, जिनमें निर्दिष्ट विपयों के साथ धम्मों के संबंधों को दिखाना ही उसका लक्ष्य है ? अध्यायों के विषय उनके नामों से ही स्पष्ट हो जाते है, यथा (१) मूल यमक--कुशल, अकुशल और अव्याकृत, ये तीन 'मूल' धर्म या पदार्थ। (२) खन्ध-यमक--पञ्च-स्कन्ध । (३) आयतन-यमक--१८ आयतन । (४) धातु-यमक--१८ धातुएँ। (५) सच्च-यमक-४ सत्य । (९) संखार-यमक-संस्कार, कायिक, वाचिक और मानसिक । (७) अनुसय-यमक--9 अनुशय (चित्त के अन्दर सुपुप्त वुराइयाँ)। १, श्रीमती रायस डेविड्स एवं अन्य तीन सहायक सम्पादकों द्वारा रोमन लिपि में सम्पादित एवं पालि टैक्स्ट सोसायटी (लन्दन, १९११ एवं १९१३) द्वारा दो जिल्दों में प्रकाशित। Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४५१ ) (८) चित्त-यमक-चित्त-संबंधी प्रश्नोत्तर । (९) धम्म-यमक-धर्मों संबंधी प्रश्नोत्तर । (१०) इन्द्रिय-यमक-२२इन्द्रियाँ । प्रत्येक अध्याय की विषय-प्रतिपादन शैली प्रायः समान है । प्रायः प्रत्येक अध्याय तीन भागों में विभक्त है (१) पञत्ति-वार (शब्द-प्रज्ञापन-विभाग) (२) पवत्तिवार (प्रक्रिया-विभाग) और (३)परिज्ञा-वार (अन्तर्ज्ञान-विभाग)। प्रथम भाग के भी दो उपविभाग, (अ) 'उद्देस-वार (प्रश्न-कथन) और निद्देस-वार (व्याख्याखण्ड) । 'उद्देसवार' में प्रश्नों का कथन जोड़े के रूप में किया गया है, यथा क्या सभी रूप को रूप-स्कन्ध कहा जा सकता है ? क्या सभी रूप-स्कन्ध को स्य कहा जा सकता है ? आदि । 'निद्देस-वार' में इसकी व्याख्या की गई है। द्वितीय मुख्य भाग ‘पवत्ति-वार' के तीन भाग हैं, यथा (अ) उप्पाद-वार (उत्पत्तिविभाग) (अ) निरोध-वार (विनाश-विभाग) और उप्पाद-निरोध-वार (उत्पत्ति और विनाश संबंधी विभाग) 'उप्पाद-विभाग' में यह दिखाया गया है कि भिन्न भिन्न धर्मो की किस प्रकार उत्पत्ति होती है ? प्रश्नों का ढंग तो वही जुड़वाँ नमूने का है, यथा 'क्या वेदना-स्कन्ध उसको भी उत्पन्न होता है जिसको रूप-स्कन्ध उत्पन्न होता है ? क्या रूप-स्कन्ध उसको भी उत्पन्न होता है जिसको वेदना-स्कन्ध उत्पन्न होता है ?' 'क्या वेदना-स्कन्ध उस जीवन-भूमि में भी उत्पन्न होता है जिसमें रूप-स्कन्ध उत्पन्न होता है ? क्या रूप स्कन्ध उस जीवन-भूमि में भी उत्पन्न होता है जिसमें वेदना-स्कन्ध उत्पन्न होता है ? आदि, आदि । 'निरोध-वार' में इसी प्रकार धर्मों के विनाश या अस्तंगमन संबंधी प्रश्न किये गये हैं, यथा 'क्या वेदना स्कन्ध का भी उसके अन्दर निरोध हो जाता है जिसके अन्दर रूप-स्कन्ध का निरोध हो जाता है ? क्या रूप-स्कन्ध का भी उसके अन्दर निरोध हो जाता है जिसके अन्दर वेदना-स्कन्ध का निरोध हो जाता है ?' 'क्या वेदना-स्कन्ध उस जीवन-भूमि में भी निरुद्ध हो जाता है जिस जीवन-भूमि में रूप-स्कन्ध निरुद्ध हो जाता है ? क्या रूप-स्कन्ध उस जीवन-भूमि में भी निरुद्ध हो जाता है जिस जीवन-भूमि में वेदना-स्कन्ध निरुद्ध हो जाता है ?' आदि, आदि। 'उप्पाद-निरोध-वार' में इस क्रम को उल्टा कर दिया गया है। उसके प्रश्न इस प्रकार के हैं--'क्या वेदना-स्कन्ध उसके अन्दर निरुद्ध हो जाता है, जिसके अन्दर रूप-स्कन्ध उत्पन्न होता है ? क्या रूप-स्कन्ध उसके अन्दर निरुद्ध हो जाता है, जिसके अन्दर वेदना-स्कन्ध उत्पन्न होता है' ? 'क्या वेदना-स्कन्ध उस जीवन Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४५२ ) भूमि में निरुद्ध हो जाता है जिस भूमि में रूप-स्कन्ध पैदा होता है ? क्या रूप-स्कन्ध उस जीवन-भूमि में निरुद्ध हो जाता है, जिस जीवन भूमि में वेदना-स्कन्ध उत्पन्न होता है ?” आदि, आदि। तृतीय मुख्य भाग 'परिज्ञा-वार (अन्तर्ज्ञान-भाग) में प्रश्नोत्तर के रूप में यह दिखाने की चेष्टा की गई है कि धम्मों का अन्तर्ज्ञान किस प्रकार पैदा होता है । इसके प्रश्न इस प्रकार हैं - 'क्या जिसने रूप-स्कन्ध का ज्ञान प्राप्त कर लिया है, उसे वेदना-स्कन्ध का भी ज्ञान प्राप्त हो जाता है ? क्या जिसने वेदना-स्कन्ध का ज्ञान प्राप्त कर लिया है, उसे रूप-स्कन्ध का भी ज्ञान प्राप्त हो जाता है ?' आदि, आदि । इसमे अधिक 'यमक' की वीथियों में भ्रमण करना “सूखी हड्डियों की घाटी' में भ्रमण करना ही होगा, जैसा श्रीमती रायस डेविड्स ने उसे कहा है। वास्तव में यह किसी भी पारिभाषिक शब्द-कोश के लिए कहा जा सकता है। 'यमक' भी अभिधम्म का शब्द-कोश ही है। अतः उसका सूखापन भी अभिधम्म के विद्यार्थियों के लिए एक सतत उपयोग और महत्व की वस्तु है । पठान २ ' अभिवम्म-दर्शन धम्मों (पदार्थो-अवस्थाओं) काएक परिपूर्ण दर्शन है। धम्मसंगणि में धम्मों का विश्लेषण, विभंग में उनका वर्गीकरण, धातुकथा में उस वर्गीकरण के कुछ शीर्षकों पर अधिक प्रकाश, पुग्गलपञति में इस धम्म-दर्शन की पृष्टभूमि में व्यक्तियों के प्रकारों का निरूपण,कथावत्थु में अभिधम्म-दर्शन संबंधी मिथ्या इस ग्रन्थ को क्लिष्ट शैली और दुरूह विषय-वस्तु के कारण श्रीमती रायस डेविड्स जैसी महाप्राज्ञा एवं अभिधम्म-दर्शन को मननशीला अध्येत्री को भी अनेक विप्रतिपत्तियों में पड़ जाना पड़ा। उनकी कठिनाइयों और सन्देहों का निवारण प्रसिद्ध बर्मी बौद्ध विद्वान् स्थविर लेदि सदाव ने किया था। लेदि सदाव के विचार एक पालि निबन्ध के रूप में 'यमक' के पालि टैक्स्ट सोसायटी द्वारा प्रकाशित संस्करण के परिशिष्ट में निहित हैं । ऐतिहासिक गौरव को प्राप्त यह निबन्ध पालि-साहित्य के विद्यार्थियों द्वारा द्रष्टव्य है। २. श्रीमती रायस डेविड्स् ने इस ग्रंथ का अंशतः सम्पादन पालि टैक्स सोसायटी के लिए किया है। दुक-पट्ठान, भाग प्रथम (१९०६) एवं तिक-पट्ठान, भाग १-३ (१९२१-२३)। इस ग्रंथ के बरमी, सिंहली एवं स्यामी संस्करण उपलब्ध हैं। हिन्दी में न अनुवाद हैं, न मूल संस्करण। Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धारणाओं के निरसन के द्वारा उसके विमल, मौलिक स्वरूप का प्रकाशन, यमक में अभिधम्म-गृहीत पारिभाषिक शब्दावली की सदा के लिए भ्रम निवारण करने वाली निश्चित व्याख्या, अभिधम्म-दर्शन का इतना विकास अभी हम उनके छह ग्रन्थों में देख चुके हैं। सातवें ग्रन्थ (पट्ठान) में अब हम अभिधम्म-दर्शन की एक सबसे अधिक महत्वपूर्ण भूमि पर आते हैं। यही वह भूमि है जहाँ से वह नित्य, ध्रुव पदार्थ के गवेषक अन्य भारतीय दर्शनों का साथ छोड़ देता है। कम से कम उनकी सी गवेषणा में तो वह प्रवृत्त नहीं होता। निरन्तर परिणामी 'धर्मो' का विश्लेषण करने के बाद उनकी तह में किसी अ-परिणामी 'धर्मी' को भी क्या अभिधम्म ने देखा है ? ऐसी जिज्ञासा हम अमरता के लालची अवश्य करेंगे । किन्तु लालच (तृष्णा) को अवकाश तथागत ने कब दिया, फिर चाहे वह अमरता का ही क्यों न हो ? हमारा प्रश्न ही गलत है, ऐसा ही उत्तर यहाँ तो हम पायेंगे। अतः बुद्ध-अनुगामी स्थविरों ने भी धम्मों या पदार्थों की अवस्थाओं का ही अध्ययन किया है, प्रवाहों और घटनाओं (जिनमें ही संपूर्ण नाम (विज्ञान-तत्व) और रूप (भौतिक-तत्व) संनिहित है, के अनित्य, दुःख और अनात्म स्वरूप पर ही जोर दिया है । उनमें अन्तहित किसी कूटस्थ, नित्य, ध्रुव पदार्थ के अस्तित्व की सिद्धि पर उन्होंने जोर नहीं दिया। क्यों? क्योंकि उनके शास्ता के शब्दों में “यह न ब्रह्मचर्य के लिए उपयोगी है और न निर्वेद, शान्ति, परमज्ञान और निर्वाण के लिए ही आवश्यक है।" इस उद्देश्य को समझ लें तो पालि बुद्ध-दर्शन ने अपनी जिज्ञासाओं की जो मर्यादा बाँधली है, उसको हृदयंगम करना आसान हो जाता है। फिर भी अनात्मवादी बुद्ध-मत भौतिकतावादी नहीं है। जहाँ तक दार्शनिक परिस्थिति की पूर्णता का सवाल है, उसके लिए भी तथागत ने पर्याप्त अवकाश और आश्वासन दिया है। जिसे उन्होंने 'अनत्ता' (अनात्मा) के रूप में निषिद्ध किया है, उसे ही उन्होंने 'निब्बाण' (निर्वाण) के रूप में प्रतिष्ठित किया है। सभी भौतिक और मानसिक अवस्थाएँ अनित्य, दुःख और अनात्म हैं, सापेक्ष हैं, कार्य और कारण की शृंखला से बद्ध हैं। किन्तु निर्वाण असंस्कृता धातु है। वह कार्य-कारण भाव से बद्ध नहीं है । वह उससे ऊपर है । अनपेक्ष है, परमार्थ है। किन्तु दुःख-निवृत्ति की साधना तो भव-प्रवाह में ही करनी है, जो कार्य-कारणभाव से संचालित है । अतः उसी की गवेषणा प्रधान रूप से करनी इष्ट है । भगवान् बुद्ध ने समग्र मानसिक और भौतिक जगत् में यदि किसी Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४५४ ) नियामक को नहीं तो नियम को तो अवश्य ही देखा है, यदि किसी ऋत-धारी वरुण को नहीं तो स्वयं ऋत को तो अवश्य देखा ही है। त्रसरेणु से भी सहस्रांश छोटे पदार्थों से लेकर महापिंड नीहारिकाओं तक और दृश्य इन्द्रिय-व्यापारों से लेकर सूक्ष्म अन्तश्चेतना की गहरी अनुभूतियों तक, इस सारे संसार-चक्र को तथागत ने नियम और ऋत से बँधा हुआ अवश्य देखा है। भगवान् को इस सत्य का ज्ञान सम्यक्-सम्बोधि-प्राप्ति के समय ही हुआ था, इसके लिए त्रिपिटक में प्रभूत प्रमाण हैं ।२ क्या है वह ऋत, क्या है वह नियम, जिसका ज्ञान भगवान बुद्ध ने सम्यक् सम्बोधि प्राप्त करने के समय ही किया? यही है वह गम्भीर प्रतीत्य समुत्पाद (पटिच्च समुप्पाद) अथवा प्रत्ययों से उत्पत्ति का नियम । यह कोई कोरा दार्शनिक सिद्धांत नहीं है, बल्कि यह है सम्यक् सम्बुद्ध की प्रत्यक्षतम अनुभूति । यदि यह कोरा दार्शनिक सिद्धांत होता तो तथागत के लिए इसका उपदेश करना हो अनावश्यक होता। उस हालत में तथागत भी अफलार्दू, अरस्तू शंकर या नागार्जुन की समकोटि के ही दार्शनिक होते। वे 'करुणा के देव' किस प्रकार होते, जिस रूप में मानवता को उनका एकमात्र सहाग मिला है ? वास्तव में प्रतीत्य समत्पाद भगवान् की करुणा का ही ज्ञानमय परिणाम है। भगवान् ने अशेष जीव-जगत् को दुःख की चक्की में पिसते देखा । जहाँ बुद्धनेत्रों मे देखा, अखिल लोक में जरा, मरण, शोक, रोना-पीटना, दुःख, दौर्मनस्य और उपायामों का ही अखंड साम्राज्य देखा। जिज्ञासा हुई यह किमके कारण ? म्थल कारण अनेक थे जिन्हें साधारण आदमी आज भी देखते है और कुछ उन्हीं पर अधिक जोर भी देते हैं। किन्तु बुद्ध-नेत्रों से देखा गया कि जन्म ही इन दुःखों का मल कारण है। जन्म का कारण क्या? भव। भव का कारण क्या ? उपादान । उपादान का कारण क्या ? तृष्णा ! तृष्णा का कारण क्या ? वेदना ! वेदना का कारण क्या ? स्पर्श । स्पर्श का कारण क्या ? षडायतन ! पडायतन का कारण क्या ? नाम-रूप। नाम-रूप का कारण क्या ? विज्ञान । विज्ञान का कारण क्या ? संस्कार । संस्कार का कारण क्या ? अविद्या । "भिक्षुओ! अविद्या और तृष्णा से संचालित, भटकते-फिरते प्राणियों के आरम्भ २. देखिये विशेषतः विनय-पिटक--महावग्ग १, उदान, प्रथम (बोधि) वर्ग। ३. महानिदान-सुत्त (दोघ. २१२) में भगवान् ने स्वयं इसकी गम्भीरता का वर्णन सारिपुत्र के प्रति किया है। Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४५५ ) का पता नहीं चलता।" आवागमन के चक्र को अविद्या ही गति प्रदान करती है। यदि अविद्या का निरोध कर दिया जाय तो संस्कारों का निरोध ! संस्कारों का निरोध कर दिया जाय तो विज्ञान का निरोध। विज्ञान का निरोध कर दिया जाय तो नाम-रूप का निरोध । नाम-रूप का निरोध कर दिया जाय तो छह आयतनों का निरोध । छह आयतनों का निरोध कर दिया जाय तो स्पर्श का निरोध । . . . . वेदना का निरोध ! . . . . . .तृष्णा का निरोध ! . . . . . . उपादान का निरोध ! . . . . . . भव का निरोध ! ......जन्म का निरोध ! . . . . . . जरा, मरणशोक, रोदन-विलाप, दुःख, मानसिक कष्ट एवं सारे दुःख-पुंज का निरोध! यही वुद्धोक्त प्रतीन्य समुत्पाद है, जिसे दुःव के आगमन और अस्तंगमन को हेनुपूर्वक दिखाने के लिए भगवान ने करुणापूर्वक उपदेश किया ।' ___ डम प्रतीत्य समुत्पाद का ही पूरे विस्तार के साथ विवेचन ‘पट्टान' में में किया गया है। किन्तु सुत्तन्त की अपेक्षा पट्टान की विवेचन-पद्धति की एक विशेषता है। जैसा प्रतीत्य समत्पाद के उपर्यक्त वर्णन से स्पष्ट है, प्रतीत्य समुत्पाद को कारण-कार्य परम्परा में १२ कड़ियाँ हैं, जो एक दुसरी मे प्रत्ययो के आधार पर जुड़ी हुई है। सुत्नन्त में अधिकांश इन कड़ियों की व्याख्या मिलती है। पट्ठान में इन कड़ियों की व्याख्या पर जोर न देकर उन प्रत्ययों पर जोर दिया गया है, जिनके आश्रय से वे पैदा होती और निरुद्ध होती रहती है। पट्ठान में इस प्रकार के २४ प्रत्ययों का विवेचन किया गया है । यही उसकी एकमात्र विषय-वस्तु है । जैसा उसके नाम से स्पष्ट है, 'पट्ठान' (पच्चय-- ठान) वास्तव में प्रत्ययों का स्थान ही है । __ आकार और महत्त्व की दृष्टि से पट्ठान अभिधम्म-पिटक का एक महाग्रन्थ है। महत्त्व में उसका स्थान धम्मसंगणि के बाद ही है। स्यामी संस्करण की ६ जिल्दों में ३१२० पृष्ठ है। यह हालत तब है जब ग्रन्थ के चार मुख्य भागों में से अन्तिम तीन अत्यंत संक्षिप्त कर दिये गये है। यदि उनका भी विवरण प्रथम भाग के समान ही किया जाता तो महास्थविर ज्ञानातिलोक का यह अनुमान टीक है कि कुल ग्रन्थ का आकार १४००० पष्ट से कम न होता । जैसा अभी कहा जा चुका है संपूर्ण ग्रन्थ चार बड़े भागों में विभक्त है, यथा १. देखिये विशेषतः महानिदान-सुत्त (दोघ. २०१५), महाहत्थिपदोपम-सुत (मझिम. ११३८) आदि Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४५६ ) (१) अनुलोम-पट्ठान--धम्मों के पारस्परिक प्रत्यय-संबंधों का विधानात्मक अध्ययन । (२) पच्चनिय-पट्ठान--धम्मों के पारस्परिक प्रत्यय-संबंधों का निषेधात्मक अध्ययन । (३) अनुलोम-पच्चनिय पट्ठान-धम्मों के पारस्परिक प्रत्यय-संबंधों का विधानात्मक और निषेधात्मक अध्ययन । (४) पच्चनिय-अनुलोम पट्ठान--धम्मों के पारस्परिक प्रत्यय-संबंधों का निषेधात्मक और विधानात्मक अध्ययन। ग्रन्थ के आरम्भ में एक भूमिका है, जिसका नाम 'पञ्चय-निद्देस' (प्रत्यय निर्देश) है। इसमें उन २४ प्रत्ययों का उल्लेख और संक्षिप्त विवरण है, जिनके आधार पर धम्मों का उदय और अस्तंगमन सारे ग्रन्थ में दिखाया गया है। स्यामी संस्करण की पहली जिल्द में यह भूमिका-भाग ही आया है। मूल ग्रन्थ के उपर्युक्त ४ भागों में से प्रत्येक की विषय-प्रतिपादन शैली समान ही है। केवल प्रथम भाग के आधार पर शेष तीन में विषय-विवरण संक्षिप्त अवश्य दिया गया है । स्यामी संस्करण की २, ३, ४, और ५ जिल्दों में केवल प्रथम भाग आया है । शेष तीन भाग छठी जिल्द में हैं । प्रथम भाग की अध्याय-संख्या इस प्रकार है--२२+ ८९-१३२+९४---४२-४८=३२७ । इससे पट्टान के वृहत् आकार की कुछ कल्पना की जा सकती है। उपर्युक्त चार भागों में विधानात्मक आदि अध्ययन-क्रम से २४ प्रत्ययों का संबंध धम्मों के साथ दिखाया है। प्रत्येक भाग में यह अध्ययन-क्रम छह प्रकार ने प्रयुक्त किया गया है। इसका अर्थ यह है कि इन चार भागों में से प्रत्येक छह-छह उपविभागों में और भी बटा हुआ है, जैसे कि (2) तिक-पट्ठान--धम्मसंगणि में प्रयुक्त २२ त्रिकों के वर्गीकरण को लेकर धम्मों के साथ २४ प्रत्ययों का संबंध-निरुपण । (२) दुक-पट्ठान--धम्मसंगणि में प्रयुक्त १०० द्विकों के वर्गीकरण को लेकर धम्मों के साथ २४ प्रत्ययों का संबंध निरुपण । (३) दुक-तिक-पट्ठान--उपर्युक्त १०० द्विकों और २२ त्रिकों को लेकर पूर्ववत् अध्ययन । (४) तिक-दुक-पट्ठान--उपर्य क्त २२ त्रिकों और १०० द्विकों को लेकर पूर्ववत् अध्ययन । Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४५७ ) (५) तिक-तिक-ट्ठान--परस्पर मिश्रित २२ त्रिकों को लेकर पूर्ववत् अध्ययन । (६) दुक-दुक-पट्ठान--परस्पर मिश्रित १०० द्विकों को लेकर पूर्ववत् अध्ययन । इस प्रकार संपूर्ण महाग्रन्थ चौबीस भागों में बटा हुआ है, जिनमें से प्रत्येक 'पट्ठान' कहलाता है । इसीलिए 'पट्टान' की अट्ठकथा में कहा गया हैचतुवीसति-समन्त-पट्ठान-समोधान-पट्ठान-महाप्पकरणं नामाति । अर्थात् पट्ठान महाप्रकरण में कुल मिलाकर २८ ‘पट्ठान' या प्रत्यय-स्थान है । ‘पलान' के दीर्घ आकार को देखते हए उसके विपय या शैली का लघु से लघु संक्षेप देना भी कितना कठिन है, यह आसानी से समझा जा सकता है। किन्तु जैमा पहले कहा जा चुका है, उसकी भूमिका (पच्चय-निहेस) में उन २८ प्रत्ययों का उल्लेख और संक्षिप्त विवेचन है, जिसके आधार पर संपूर्ण ग्रन्थ में प्रतीत्य समुत्पाद को समझाया गया है। प्रत्यय-दर्शन का विवेचन पट्ठान की एक मुख्य विशेषता है । जैसा श्रीमती रायस डेविड्स ने कहा है, संपूर्ण अभिधम्म दर्शन सम्बन्धी ज्ञान के लिये वह एक महत्व पूर्ण रचनात्मक दान है। हमारा उद्देश्य यहाँ इन २४ प्रत्ययों का संक्षिप्त विवरण देना ही है। इनके नाम इस प्रकार है-- १. हेतु-प्रत्यय ८. निःश्रय-प्रत्यय २. आलम्बन-प्रत्यय ९. उपनिःश्रय-प्रत्यय ३. अधिपति-प्रत्यय १०. पूर्व जात-प्रत्यय ४. अनन्तर-प्रत्यय ११. पश्चात्जात-प्रत्यय ५. ममनन्तर-प्रत्यय १२. आसेवन-प्रत्यय ६. महात-प्रत्यय १३. कर्म-प्रत्यय ७. अन्योन्य-प्रत्यय १४. विपाक-प्रत्यय - - - - - -- - - - १. देखिये तिक-पट्ठान, प्रथम भाग (श्रीमती रायस डेविड्स द्वारा सम्पादित, पालि टैक्स्ट सोसायटी से प्रकाशित, लन्दन १९२१-२३) पृष्ठ ५ (भूमिका) एवं तिक-पट्ठान, द्वितीय भाग को सम्पादकीय टिप्पणी। Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५. आहार- प्रत्यय १६. इन्द्रिय- प्रत्यय १७. ध्यान- प्रत्यय १८. मार्ग - प्रत्यय १९. सम्प्रयुक्त-प्रत्यय ( ४५८ ) २०. विप्रयुक्त-प्रत्यय २१. अस्ति-प्रत्यय २२. नास्ति प्रत्यय २३. विगत - प्रत्यय २४. अविगत - प्रत्यय 9 प्रत्येक प्रत्यय का क्या अर्थ है और किस प्रकार उसका आश्रय लेकर किसी एक धम्म या धम्मों की उत्पत्ति और निरोध किसी दूसरे धम्म या धम्मों की उत्पत्ति और निरोध पर आधारित है, इसका भी कुछ दिग्दर्शन कराना यहाँ आवश्यक होगा । १. हेतु प्रत्यय ( हेतु पच्चयो ) -- हेतु का अर्थ हैं मूल कारण या आधार । अभिधम्म-दर्शन में लोभ, द्वेष, मोह एवं उनके विपक्षी अलोभ, अद्वेष और अमोह को मूल कारण या हेतु कहा गया है । इनमें से पहले तीन कर्म विपाक की दृष्टि में अकुशल हैं और बाद के तीन कुशल है । और कहीं कहीं (जैसे कि अर्हतु के संबंध में ) अव्याकृत अर्थात् अनिरुक्त ( नितान्त स्वाभाविक या कर्म विपाक उत्पन्न करने में निष्क्रिय) भी । जितनी भी कुशल या अकुशल अवस्थाएँ मानसिक या भौतिक जगत् में हो सकती है, उनके मूल आधार वा हेतु क्रमशः उपर्युक्त कुगल या अकुशल धम्म ही हैं । इन मूल आधारों या हेतुओं की उपस्थिति या अनुपस्थिति पर ही अनिवार्यतः सव कुशल और अकुशल धम्मों की उपस्थिति या अनुपस्थिति निर्भर है । पठान की भाषा में, "हेतुओं मे संयुक्त धम्म और इन्हीं से उत्पन्न होने वाली भौतिक जगत् की सारी अवस्थाएं, हेतुओं पर हेतु प्रत्यय के रूप में अवलम्बित हैं ।" उत्पन्न होनेवाली वस्तु ( पच्चयुप्पन्न -- प्रत्ययोत्पन्न ) तो यहाँ धम्म और भौतिक जगत् की अवस्थाएं है । जिनमे १. इन चौबीस प्रत्ययों में अनेक एक दूसरे में सम्मिलित है । अभिधम्मत्य संगह में इनको चार मुख्य भागों में विभक्त कर दिया गया है, यथा आलम्बन, उपनिःश्रय, कर्म और अस्ति । आरम्भणूपनिस्सय कम्मत्थिपञ्चयेसु च सब्बेपि पच्चया समोधानं गच्छन्ति । पृष्ठ १५१ ( धम्मानन्द कोसम्बी का संस्करण, नवनीत टीका सहित ) Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वे उत्पन्न होती है (पच्चय-धम्म) वे 'हेतु' या कुशलादि मूल धम्म हैं। जिम प्रन्यय (पच्चय) से बे पैदा होती हैं, वह हेतु-प्रत्यय (हेतु-पच्चय) है । गेष प्रत्ययों में भी क्रमानुसार हम इन तीन बातों का उल्लेख करेंगे स्था (१) उत्पन्न होने वाली वस्तु (पच्चयुप्पन्न) क्या है ? (६) जिस वस्तु मे वह उत्पन्न होती है (पच्चय-धन्म) वह क्या है ? (३) प्रत्यय क्या है ? २. आलम्बन प्रत्यय (आरम्मण पच्चयो)--आलम्बन का अर्थ है विषय या आधार । जिस वस्तु के आधार से कोई दुमरी वन्नु पैदा होती है तो उस इमरी वस्तु के प्रति पहली वस्तु का संबंध आलम्बन प्रत्यय का होता है । उदाहरणतः चक्षु-विज्ञान और उससे संयुक्त धर्मों की उत्पत्ति रूप-आयतन पर आधारित है । अतः रूप-आयतन आलम्वन है चक्षु-विज्ञान और उससे संयुक्त धर्मों का। दूसरे शब्दों में, रूप आयतन आलम्बन-प्रत्यय के रूप में चक्षुविज्ञान और उससे संयुक्त धर्मों का प्रत्यय है। इसी प्रकार शब्दायतन, गन्धावतन्, रसायतन और स्पृष्टव्यायतन क्रमशः श्रोत्र-विज्ञान, प्राण-विज्ञान, जिह्वाविज्ञान, काय-विज्ञान और उनमे संयुक्त धर्मों के आलम्बन-प्रत्यय के रूप में प्रत्यय है। इसी प्रकार उपर्य क्त पाँचों आयतन (रूप, शब्द, गन्ध, रस, स्पृष्टव्य ) मिलकर मनो-धातु और उससे संयुक्त धमों के तथा सब धर्म मिलकर मनो-विज्ञान-धातु और उसमे संयुक्त धर्मों के आलम्बन-प्रत्ययके रूप में प्रत्यय है। संक्षेप में, जो जो धर्म चित्त और चेतसिक धर्मों के आलम्बन हैं. वे सभी उनके प्रति आलम्बन-प्रत्यय के रूप में प्रत्यय है ! यहाँ (?) चक्षु (२) श्रोत्र (३) ब्राण (४) जिह्वा और (५) काय-संबंधी विज्ञान एवं उनसे संयुक्त धर्म तथा (६) मनोधातु और (७) मनो-विज्ञान-धातु और इनमे संयुक्त धर्म पच्चयुप्पन्न' अर्थात प्रत्ययों से उत्पन्न होने वाली वस्तुएँ है। इनके 'पच्चयधम्म' अर्थात वे वस्तुएँ जिनमे ये प्रत्ययों के आधार पर उत्पन्न होती है, क्रमशः ये हैं (१) रूप (२) शब्द (३) गन्ध (४) रस और (५) स्पृष्टव्य संबंधी आयतन और इनमे संयुक्त धर्म तथा (६) इन पांचों आयतनों का सम्मिलित रूप और (७) संपूर्ण धर्म । जिस प्रत्यय के आधार पर यह उत्पत्ति होती है, वह आलम्बन-प्रत्यय (आरम्मण-पच्चयो) है । Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६० ) ३. अधिपति-प्रत्यय (अधिपति पच्चयो)-किसी वस्तु की उत्पत्ति में अन्य की अपेक्षा जब इन चार पदार्थों यथा (१) इच्छा (छन्द) (२) उद्योग (विरिय) (३) चित्त और (४) मीमांसा (वीमंसा) की सहायता की अधिकता होती है तो इन चार धर्मों में से जिस किसी की अधिकता होती है, वही उत्पन्न होने वाली वस्तु के साथ अधिपति-प्रत्यय के संबंध से संबंधित होता है । उदाहरणतः, जो धर्म इच्छा (छन्द) से संयुक्त है या उससे उद्भूत है, वह इच्छा-अधिपति (छन्दाधिपति) के साथ अधिपति-संबंध से संबंधित है । इसी प्रकार वीर्य, चित्त और मीमांसा अधिपतियों से जो धर्म संयुक्त हैं, वे क्रमगः इनके साथ अधिपति-संबंध मे संबंधित हैं । यहाँ इच्छा, वीर्य,. चित्त और मीमांसा से संयुक्त धर्म, उत्पन्न होने वाली वस्तुएँ 'पच्चयुप्पन्न' है। क्रमश: इच्छा-अधिपति (छन्दाधिपति), वीर्याधिपति (विरियाधिपति), चित्ताधिपति, और मीमांसाधिपति (वोमंसाधिपति) इनके ‘पच्चय-धम्म' है अर्थात् ये वे वस्तुएँ है जिनसे उपयुक्त धर्म उत्पन्न होते है । प्रत्यय-अधिपति प्रत्यय है । ४. अनन्तर-प्रत्यय (अनन्तर पच्चयो)---यदि कोई वस्तु अपने ठीक पीछे होने वाली वस्तु की उत्पत्ति में सहायक होती है, तो वह उसके साथ अनन्तर प्रत्यय के संबंध से संबंधित होती है। ‘पट्ठान' में कहा गया है येसं येसं धम्मानं अनन्तरा ये ये धम्मा तेमं धम्मानं अनन्तरपच्चयेन पच्चयो' अर्थात् जिन जिन धर्मों के अनन्तर जो जो धर्म होते है, तो पूर्व के धर्म पश्चात् के धर्म के प्रति अनन्तर-प्रत्यय के रूप में प्रत्यय होते हैं। उदाहरणतः, पाँच विज्ञान-धातुओं (चक्षु, श्रोत्र, प्राण, जिह्वा और काय संबंधी विज्ञान-धातुओं) और उनसे संयुक्त धर्मों के अनन्तर मनो-धातु और उससे संयुक्त धर्मों की उत्पत्ति होती है। अतः पाँच विज्ञान-धातु और उनसे संयुक्त धर्म मनो-धातु और उससे संयुक्त धर्मों के प्रति अनन्तर-प्रत्यय के रूप में प्रत्यय है। इसी प्रकार मनो-धातु और उससे संयुक्त धर्म मनो-विज्ञान-धातु और उसमे मंयक्त धर्मों के लिये, कुशल-धर्म, कुशल और अव्याकृत धर्मों की उत्पत्ति के लिए और अकुशल धर्म, अकुशल और अव्याकृत धर्मों की उत्पत्ति के लिए, अनन्तर-प्रत्यय के रूप में प्रत्यय होते है। यहाँ मनोधात, मनो-विज्ञान-धातु, कुशल और अव्याकृत धर्म, अकुशल और अव्याकृत. Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६१ ) वर्म तथा इनमें संयुक्त धर्म ‘पच्चयुप्पन्न' अर्थात् प्रत्ययों के कारण उत्पन्न होने वाले धर्म है। जिन धर्मों से इनकी उत्पत्ति होती है, वे है क्रमगः (१) पाँच विज्ञान-धातु और उनसे संयुक्त धर्म (२) मनो-धातु और उनमे संयुक्त धर्म (३) कुशल-धर्म (४) अकुशल-धर्म । अतः ये प्रत्यय-धर्म है। जिस प्रत्यय के कारण उनकी उत्पत्ति होती है, वह है अनन्नर-प्रत्यय । ५. समनन्तर-प्रत्यय (समनन्तर पच्चयो)---बिलकुल अनन्तर-प्रत्यय के समान । ६. सहजात-प्रत्यय--(सहजात पच्चयो)--जव कोई धर्म किन्ही अन्य धर्मों के साथ-साथ उत्पन्न होते हैं तो उनके बीच सहजात-प्रत्यय का सम्बन्ध होता है। उदाहरणतः, संज्ञा, वेदना, संस्कार और विज्ञान एक दूसरे के साथ सहजात-प्रत्यय के रूप में सम्बन्धित है, क्योंकि इनकी उत्पत्ति एक ही माथ होती है। ____७. अन्योन्य-प्रत्यय--(अञ्जमा पच्चयो)--एक दूसरे के आश्रय ने उत्पन्न होने वाले धर्म इस प्रत्यय के द्वारा आपस में सम्बन्धित होते है। यहां भी पूर्वोक्त उदाहरण ही दिया जा सकता है, क्योकि संजा, वेदना, संस्कार और विज्ञान आपस में एक दूसरे के आश्रय से ही उत्पन्न होते है। ८. निःश्रय-प्रत्यय-- (निस्सय पच्चयो)---निःश्रव का अर्थ है आधार । पृथ्वी वृक्ष का निःश्रय है । इसी प्रकार जिन धर्मों की उत्पत्ति जिन धर्मों के आधार पर होती है, उनके प्रति उनका निःश्रय-प्रत्यय का सम्बन्ध होता है। उदाहरणतः चक्षु-आयतन, श्रोत्र-आयतन, घ्राण-आयतन, जिह्वा-आयतन और काय-आयनन के आधार पर ही क्रमशः चक्षु-विज्ञान, श्रोत्र-विज्ञान, प्राण-विज्ञान, जिह्वाविज्ञान और काय-विज्ञान की उत्पत्ति होती है, अतः उनके बीच निःश्रय-प्रत्यय का सम्बन्ध है। ९. उपनिःश्रय-प्रत्यय--(उपनिस्सय पच्चयो)--उपनिःश्रय का अर्थ है बलवान् आधार । कुशल-धर्मों के दृढ़ आधार पूर्वगामी कुशल-धर्म हो होते है। अतः उनके बीच का सम्बन्ध उपनिःश्रय-प्रत्यय का है। अन्य अनेक उदाहरण भी मूल पालि में दिये हुए है। १०. पुरेजात-प्रत्यय--(पुरेजात पच्चयो)--जिस धर्म से किसी धर्म की उत्पत्ति पहले हुई हो तो उनके बीच पुरेजात-प्रत्यय का सम्बन्ध होता है । Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६२ ) उदाहरणतः, चक्षु-विज्ञान-धातु आदि की उत्पत्ति से पहले चक्षु-आयतन आदि की उत्पत्ति हो चुकी होती है। अतः उसके प्रति वह पुरेजात-प्रत्यय से सम्बन्धित है। ११. पश्चात्-जात-प्रत्यय--(पच्छाजात पच्चयो)--शरोर की उत्पनि पहले हो जाती है । उमके वाद उममें चित्त और चेतसिक पैदा होते हैं। अतः दोनों के बीच का सम्बन्ध पश्चात्-जात-प्रत्यय का है।। १२. आसेवन-प्रत्यय--(आसेवन पच्चयो)--आसेवन का अर्थ है बारवार आवृत्ति । किसी धर्म का वार वार अभ्यास जिस किसी दूसरे धर्म को जन्म देने का कारण बनता है, तो उसके साथ उसका आसेवन प्रत्यय का सम्बन्ध होता है। उदाहरणतः, प्रत्येक कुगल-धर्म की उत्पत्ति किसी पूर्वगामी कुशल धर्म के आसेवन या सतत अभ्यास से होती है । अतः दोनों के बीच आसेवन-प्रत्यय का सम्बन्ध होता है। १३. कर्म-प्रत्यय--(कम्म-पच्चयो)---किसी भी कर्म-विपाक के पूर्वगामी कुशल या अकुशल धर्म होते है, अतः उनके बीच का सम्बन्ध कर्म-प्रत्यय का होता है। १४. विपाक-प्रत्यय--(विपाक पच्चयो)--वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान, इन चार स्कन्धों की उत्पत्ति पूर्व के वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान स्कन्धों के विपाक-स्वरूप होती है, अत: इनके वीच विपाक-प्रत्यय का सम्बन्ध होता है। १५. आहार-प्रत्यय--(आहार पच्चयो)--भोजन से यह हमारा शरीर बनता है । अतः शरीर का भोजन के प्रति आहार-प्रत्यय का सम्बन्ध है । १६. इन्द्रिय-प्रत्यय--(इन्द्रिय पच्चयो)-चक्षु-विज्ञान आदि की उत्पत्ति चक्षुरादि इन्द्रियों के प्रत्यय से है । अतः पहले का दूसरे के प्रति इन्द्रिय-प्रत्यय का सम्बन्ध है। १७. ध्यान-प्रत्यय--(झान पच्चयो)--ध्यान से संयुक्त अवस्थाओं (धर्मों) को उत्पत्ति ध्यान के अंगों के प्रत्यय से है । अतः पहले का दूसरे के साथ ध्यान-प्रत्यय का सम्बन्ध है । १८. मार्ग-प्रत्यय--(भग्ग पच्चयो)-उपर्युक्त के समान मार्ग से संयुक्त Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६३ ) अवस्थाओं की भी उत्पत्ति मार्ग के अंगों के प्रत्यय से है, अतः उनके बीच मार्गप्रत्यय का सम्बन्ध है। १९. संयुक्त-प्रत्यय-- (सम्मयुत्त पच्चयो)--पूर्वोक्त के समान ही संज्ञा वेदना, आदि से संयुक्त धर्मों की उत्पत्ति क्रमश: संज्ञा, वेदना आदि के अंगों के प्रत्यय से ही है, अतः उनके बीच का सम्बन्ध संयुक्त-प्रत्यय का ही है। २०. वियुक्त-प्रत्यय--(विप्पयुत्त-पच्चयो)--भौतिक धर्म मानसिक धर्मो के साथ और मानसिक धर्म भौतिक धर्मों के साथ विप्पयुक्त-प्रत्यय के सम्बन्ध से सम्बन्धित है, क्योंकि दोनों का स्वभाव एक दूसरे से वियुक्त रहने का है। २१. अस्ति-प्रत्यय--(अस्थि पच्चयो)---जिस धर्म की उपस्थिति या विद्यमानता पर दूसरे धर्म की उत्पत्ति अनिवार्यतः निर्भर होती है तो दोनों के बीच अस्ति-प्रत्यय का सम्बन्ध होता है, यथा सम्पूर्ण भौतिक विकारों कीउत्पत्ति के लिये चार महाभूतों की उपस्थिति, अनिवार्यतः आवश्यक है, अतः चार महाभतों के साथ अस्ति-प्रत्यय के सम्बन्ध के द्वारा सम्पूर्ण भौतिक विकार सम्बन्धित है। २२. नास्ति-प्रत्यय-(नत्यि पच्चयो)--अपनी अनुपस्थिति या अविद्यमानता मे ही जो कोई धर्म किसी दूसरे धर्म की उत्पत्ति में सहायक हो तो वह उत्पन्न होने वाले धर्म के प्रति नास्ति-प्रत्यय के सम्बन्ध से सम्बन्धित होता है। जो चिन और चेतसिक अभी निरूद्ध हो चुके हैं, वे अपनी अविद्यमानता से ही अभी उत्पन्न होने वाले चित्त और चेतसिक धर्मों के प्रति नास्ति-प्रत्यय के सम्बन्ध से सम्बन्धित होते हैं। २३. विगत-प्रत्यय--(विगत पच्चयो)--उपर्युक्त (२२) के समान। २४. अविगत-प्रत्यय--(अविगत-पच्चयो)--उपर्युक्त (२१) के समान। ऊपर अभिधम्म-पिटक के ग्रन्थों के विषय और शैली का संक्षिप्त विवरण दिया गया है। सुत्तन्त में निहित बुद्ध-वचनों के प्रति उनका यही सम्बन्ध है, जो उत्तरकालीन वेदान्त-ग्रन्थों का उपनिषदों के प्रति । अन्तर्ज्ञान और अपरोक्षअनुभूति पर प्रतिष्ठित, जल और वायु के समान सब के लिये सुलभ, बुद्धों (जानियों) के वचन भी, पंडितवाद और शास्त्रीय विवेचनों के फन्दे में फंसकर कितने सखे, आकर्षण-विहीन और जन-साधारण के लिये कितने दुरूह हो जाते Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६४ ) हैं, इसके लिये अभिधम्मपिटक के समान ही उत्तरकालीन वेदान्तियों एवं बौद्ध और वैदिक परम्परा के आचार्यों के प्रज्ञान अच्छे उदाहरण है | चाहे नागार्जुन असंग, वसुबन्धु, दिङ्नाग और धर्मकीर्ति हों, चाहे वात्स्यायन, कुमारिल, वाचस्पति, उदयन और श्रीहर्ष हों, सब एक समान ही हैं । वृद्ध और उपनिषदों के ऋषियों की सरलता, स्वाभाविकता और मार्मिकता एक में भी नहीं है । अभिधम्म-पिटक अति प्राचीन होते हुए भी बुद्ध - मन्तव्य को इसी ओर ले गया है । सन्तोष की बात यह है कि वहाँ बुद्ध के मौलिक सिद्धान्तों में कोई परिवर्तन या परिवर्द्धन नहीं किया गया है, संशोधन की तो कोई बात ही नहीं । अतः मूल बुद्धदर्शन को जानने के लिये उसका उपयोग बच रहता है । बुद्ध-मन्तव्य स्वयं एक विस्मयकारी वस्तु है । यदि उसके कुछ विस्मयोंको खोलना है तो अभिधम्मपिटक का अध्ययन नितान्त आवश्यक हैं। यदि यह देखना है कि निरन्तर परिवर्तनशील, अनित्य, दुःख और अनात्म धर्मो ( पदार्थों) के प्रवर्तमान रहने पर भी संसार के सर्वश्रेष्ठ साधक और ज्ञानी पुरुष ने चित्त की निश्चल समाधि किम प्रकार मिखाई है, नियामक को न मान कर भी नियम को किस प्रकार प्रतिष्ठित किया है. ईव्वरप्रणिधान न होने पर भी समाधि का विधान किस प्रकार किया है, प्रार्थना न होने पर भी ध्यान को किस पर टिकाया है, 'अत्ता' ( आत्मा ) न होने पर भी पुनर्जन्मवाद को किस पर अवलम्बित किया है, परम सत्ता के विषय में मौन रखकर भी गम्भीर आश्वासन किस प्रकार दिया है, यदि यह सब और इसके साथ प्रारम्भिक बौद्ध धर्म के महान् मनोवैज्ञानिक अध्ययन सम्वन्धी दान को उसकी पूरी विभूति के साथ देखना है, तो अभिधम्म की वीथियों में भ्रमण करना ही होगा । किन्तु बीसवीं सदी के मनुष्य के लिये, जो कामावचर- लोक ( कामनाओं के लोक) की अभाव पूर्तियों के प्रयत्न में ही अभी संलग्न और सन्तुष्ट हैं, इतना अवकाश मिल सकेगा, यह कहना सन्देह से खाली नहीं है ! Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा अध्याय पूर्व - बुद्धघोष - युग (१००ई० पूर्व से ४०० ई० तक) तेपिटक बुद्ध वचनों का अन्तिम संकलन तृतीय शताब्दी ईसवी पूर्व क्रिया गया। तब से उनका रूप पूर्णतः निश्चित हो गया । ईसा की चौथी - पांचवीं शताब्दी में बुद्धदत्त, बुद्धघोष और धम्मपाल ने उन पर अपनी प्रसिद्ध अट्ठकथाएँ लिखीं । पालि-त्रिपिटक के सुनिश्चित रूप धारण कर लेने और इन अट्ठकथाओं के रचना-काल के बीच जिस साहित्य की रचना हुई, उसमें नेत्तिपकरण, पेटकोपदेस और मिलिन्दपञ्ह अधिक प्रसिद्ध हैं । इनका विवरण हम इस परिच्छेद में देंगे । नेत्तिपकरण 'नेत्तिपकरण' का संक्षिप्त नाम 'नेत्ति' भी है । इसी को नेत्तिगन्ध' (नेत्तिग्रन्थ) भी कहते हैं | जैसा उसके नाम से स्पष्ट है, 'नेत्तिपकरण' सद्धम्म को समभाने के लिये नेतृत्व या मार्ग-दर्शन का काम करता है । 'नेत्ति' का अर्थ है मार्गदर्शिका । वास्तव में बुद्ध वचन इतने सरल और हृदयस्पर्शी हैं कि उनको समझने के लिये उनसे व्यतिरिक्त अन्य किसी सहायक की आवश्यकता नहीं । एकान्तचिन्तन हो, बुद्ध वचन हों, उनके बीच मध्यस्थता करने की किसी को आवश्यकता नहीं । किन्तु पंडितवाद बुद्ध धर्म में भी चल पड़ा । सरल बुद्ध उपदेशों का वर्गीकरण किया गया, उनके पाठ का नियमबद्ध ज्ञान प्राप्त करने के लिये शास्त्रीय नियम बनाये गये, उनके मन्तव्यों को भिन्न भिन्न दृष्टियों से सूचीबद्ध किया गया, उनके शब्दों की व्याख्या और उनके तात्पर्य का निर्णय करने के लिये ग्रन्थ-रचना की गई। इस प्रवृत्ति के प्रथम लक्षण हम अभिधम्मपिटक में ही देखते हैं । उसी का प्रत्यावर्तन हमें 'नेत्तिपकरण' और 'पेटकोपदेस' जैसे ग्रन्थों में मिलता है । 'नेतिपकरण' का सम्बन्ध एक प्रकार से तेपिटक बुद्ध वचनों से वही है जो यास्क - कृत निरुक्त का वेदों से । फिर भी निरुक्त की एक विशेष सार्थकता भी है, क्योंकि आठवीं शताब्दी ईसवी पूर्व ही वेदों की भाषा इतनी प्राचीन हो चुकी थी और ३० Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६६ ) उसमें रहस्यात्मक ज्ञान ( 'आचरिय-मुट्ठि) भी इतना अधिक रक्खा हुआ बताया जाता था कि उसके. उद्घाटन के लिये शब्द - व्युत्पत्ति - परक एक ग्रन्थ की आवश्यकता थी भी । इसके विपरीत बुद्ध वचनों की लोकोत्तर सरलता ने किसी भी व्युत्पत्ति-शास्त्र या निरुक्ति - शास्त्र की अपेक्षा प्रारम्भ से ही नहीं रक्खी। यह उनकी एक बड़ी विशेषता है । चौथी पाँचवीं शताब्दी ईसवी से जो अट्ठकथाएँ भी लिखी गई, उन्होंने भी विशेषतः बुद्ध वचनों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को ही पूरा किया है, उत्तरकालीन संस्कृत भाष्यकारों या टीकाकारों की तरह शब्द-क्रीड़ाऍ नहीं कीं । फलतः बुद्ध वचनों पर निरुक्ति परक साहित्य पालि में अधिक नहीं पनप पाया । केवल 'नेत्तिपकरण' और 'पेटकोपदेस' यही दो ग्रन्थ इस सम्बन्ध में मिलते हैं और उन्होंने भी बुद्ध वचनों की मौलिक सरलता को अधिक सरल बना दिया हो, या सद्धम्म को समझने वाले के लिये अधिक मार्ग प्रशस्त कर दिया हो, ऐसा नही कहा जा सकता । जैसा अभी कहा गया, उनका उद्देश्य केवल त्रिपिटक के पाठ और उसके तात्पर्य - निर्णय-सम्बन्धी नियमों या युक्तियों का शास्त्रीय विवेचन मात्र करना है । 'नेत्तिपकरण' की विषय-वस्तु और शैली बहुत कुछ अभिधम्मपिटक से मिलती है । सुगमता के लिये उसे इस प्रकार तालिका-बद्ध किया जा सकता है Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगहवार ( संग्रह - खंड --- सम्पूर्ण ग्रन्थ की समष्टिगत विषय - सूची ) उद्देसवार (विषय-वस्तु का संक्षिप्त कथन ) यथा १. १६ हार ( ४६७ ) नेत्तिपकरण 1 २. ५ नय ३. १८ मूलपद विभागवार (विभाग - खंड -- समष्टि गत दी हुई विषय सूची का विभिन्न वर्गीकरणों में विभाजन ) निवार ( उद्देस्वार में संक्षिप्त रूप से निर्दिष्ट १६ हारों, ५ नयों तथा १८ मूलपदों की परिभाषाएँ) पटिनिसवार (उद्देसवार निर्दिष्ट १६ हारो ५ नयों, तथा १८ मूल पदों की विस्तृत व्याख्याएँ, इन चार वर्गीकरणों में विभक्त, यथा, १. हार - विभंग ( हारों का अलगअलग वर्गीकरणकरके उनका विवेचन ) २. हार - सम्पात ( हारों का समष्टिगत विवेचन ) ३. नय-समुट्ठान (नयों का विवेचन ) एवं ४. सासन-पठान ( बुद्ध-शासन १८ मूलपदों का विवेचन ) इस तालिका से स्पष्ट है कि नेत्ति-पकरण का विषय १६ हार (गुंथे हुए विषयों की मालाएँ), ५ नय ( तात्पर्य - निर्णय करने की युक्तियाँ) और १८ मूल पदों (मुख्य नैतिक विषयों) का विवेचन करना ही है । अधिक विस्तार में न जाकर यहाँ इन तीनों वर्गीकरणों में निर्दिष्ट तत्वों का नाम - परिगणन मात्र कर देना ही Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६८ ) पर्याप्त होगा । नेत्तिपकरण में विवेचित १६ हार ये हैं, (१) देसनाहार-इस हार में बनाया गया है कि बुद्ध-देसना (धर्मोपदेश) की विधि छह प्रकार की होती थी (अ) गील आदि का सुपरिणाम दिखाने वाली (अस्साद) (आ) विषयभोगों का दुष्परिणाम दिखाने वाली (आदिनवं), (इ) संसार से निकलने का मार्ग दिखाने वाली (निस्सरणं), (ई) श्रामण्य के फल का वर्णन करने वाली (फलं), (उ) निर्वाण -प्राप्ति का उपाय बताने वाली (उपायं) और (ऊ) नैतिक उद्देश्य दिखाने वाली (आनत्तिं) । यहीं श्रुतमयी (सुतमयी-अनुश्रव पर आश्रित), चिन्तामयी-बौद्धिक चिन्तन पर आश्रित) और भावनामयी (पवित्र जीवन के विकास पर आश्रित), इन तीन प्रज्ञाओं (ज्ञानों) का भी निर्देश किया गया है। (२) विचय-हार या धर्म-चिन्तन और पर्यवेक्षण (३) युत्तिहार (युक्तिहार) अथवा युक्तियों के द्वारा धर्म-विश्लेषण कर उसके अर्थ को समझना, (४) पदट्ठानहार, मौलिक लक्षणों से पदोंकी व्याख्याकरना, (५) लक्खणहार, लक्षणों से अर्थ को समझना, यथा कहीं रूप शब्द के आ जाने से ही, वेदना आदि को भी समझना । (६) चतुव्यूह-हार (चतुव्ह!-हार) अर्थात् पाठ, शब्द, उद्देश्य और क्रम से अर्थ को समझना, (७) आवत्तहार, 'किस प्रकार बुद्ध-उपदेशों में सभी विषय किसी न किसी प्रकार अविद्या, चार आर्य सत्य, आर्य अष्टागिक मार्ग आदि जैसे मूल-भूत सिद्धान्तों में संनिविष्ट हो जाते हैं । वेदान्त-शास्त्र के तात्पर्य-निर्णय में जिसे 'अभ्यास' कहा गया है, उसकी इससे विशेष समानता है। (८) विभत्तिहार) अर्थात् विभाजन या वर्गीकरण का ढंग (९) परिवत्तन-हार) अथवा बुद्ध का अशुभ को शुभ के रूप में परिवर्तित करने का ढंग । (१०) वेवचन-हार अथवा शब्दों के अन्य अनेक समानार्थवाची शब्द देकर अर्थ को स्पष्ट करने का ढंग। (११) पत्तिहार (प्रज्ञप्तिहार)--एक ही धम्म को अनेक प्रकार से रखने का ढंग। (१२) ओतरण-हार अथवा इन्द्रिय, पटिच्चसम्प्पाद, पञ्च स्कन्ध आदि के रूप में सम्पूर्ण बुद्ध-मन्तव्य का विश्लेषण। (१३) सोधन-हार, प्रश्नों को शुद्ध करने का ढंग, जिसे बुद्ध प्रयुक्त करते थे। (१४) अधिट्ठान-हार अथवा सत्य के आधार का निर्णय करना । (१५) परिकखाहार अथवा हेतुओं और प्रत्ययों सम्बन्धी ज्ञान । यह 'हार' बिलकुल अभिधम्मपिटक, विशेषतः पट्ठान, का ही एक अंग जान पड़ता है। (१६) समारोपन Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६९ ) हार अथवा चार प्रकार से बुद्ध का समझाने का ढंग, यथा ( अ ) मूल-भूत विचारों के द्वारा (आ) समानार्थवाची शब्दों के द्वारा (इ) चिन्तन के द्वारा (ई ) अशुभ वृत्तियों के निरोध द्वारा । जिन पाँच नयों का विवेचन 'नेत्तिपकरण' में किया गया है, उनके नाम ये है ( १ ) नन्दियावत्त ( २ ) तीपुक्खल ( ३ ) सीहविक्कीलित (४) दिसालोचन, तथा ( ५ ) अंकुस । १८ मूल-पद इस प्रकार है (१) तन्हा (तृष्णा), (२) अविज्जा, (अविद्या), (३) लोभ, (४) दोस (द्वेष ), (५) मोह ( ६ ) सुभ सञ्चा ( शुभ - संज्ञा ) (७) निच्च सञ्ञ ( नित्यसंज्ञा ). (८) अत्तसञ्ञ (आत्म संज्ञा ), ( ९ ) सुक्ख -सञ्ज्ञा ( सुख-संज्ञा ), तथा इन नौ के क्रमशः विपरीतयथा ( १० ) समय ( शमथ - आन्तरिक शान्ति ) ( ११ ) विपस्सना (विपश्यना-विदर्शना), (१२) अ-लोभ (१३) अ-दोस ( अ-द्वेष ), (१४) अ-मोह (१५) असुभ सञ्चा (अशुभ -संज्ञा ) (१६) अनिच्च सञ्चा (अनित्यसंज्ञा ) ( १७ ) अनत्त - सञ्ञा ( अनात्म-संज्ञा ), तथा (१८) दुक्ख सञ ( दुःख - संज्ञा ) । विषय की दृष्टि से बुद्ध उपदेशों को कितने भागों में बाँटा जा सकता है, इसका भी निरूपण 'नेत्ति पकरण' में किया गया है । इस दृष्टि से विवेचन करते हुए उसने बुद्ध वचनों को इन मुख्य सोलह भागोंमें बाँटा है, यथा ( १ ) संकिलेस-भागिय, अर्थात् वे बुद्ध उपदेश जो चित्त-मलों (संकिलेस ) का विवेचन करते हैं (२) वासना-भागिय अर्थात् वे बुद्ध उपदेश जो वासना या तृष्णा का विवेचन करते हैं (३) निब्बेध-भागिय, अर्थात् वे बुद्ध उपदेश जो धर्म की तह का विवेचन करते हैं (४) असेख-भागिय, अर्थात् अर्हतों की अवस्था का विवेचन करने वाले (५) संकिलेस - भागिय तथा वासना - भागिय ( ६ ) संकिलेस - भागिय तथा निव्वेधभागिय ( ७ ) संकिलेस -भागिय तथा असेख - भागिय ( ८ ) संकिलेस, असेख तथा निब्बेध-भागिय ( ९ ) संकिलेस - वासना-निब्बेध-भागिय ( १० ) वासना-निब्बेध भागिय ( ११ ) तण्हासंकिलेस भागिय ( १२ ) दिट्टि -संकलेस-भागिय (१३) दुच्चरित -संकिलेस - भागिय ( १४ ) तण्हावोदान-भागिय ( तृष्णा की विशुद्धि का उपदेश करने वाले बुद्ध वचन) (१५) दिट्ठिवोदान भागिय (दृष्टि या मिथ्या मतवादों की विशुद्धि का उपदेश करने वाले बुद्ध वचन ) तथा (१६) दुच्चरित - वोदान -भागिय अर्थात् दुराचरण की शुद्धि का उपदेश करने वाले बुद्ध वचन । Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४७० ) ऊपर विपयों के अनुसार बुद्ध-वचनों का जो वर्गीकरण किया गया है उसमें पहले संक्षिप्त विवेचन कर के फिर उनमें निर्दिष्ट धर्मों को एक दूसरे से मिलाकर कर अन्य अनेक वर्गीकरण करने की प्रवृत्ति दिखलाई पड़ती है । संकिलेस, वामना, तण्हा और असेख के आधार पर ऐसे ही वर्गीकरण ऊपर किये गये हैं। निश्चयतः यह अभिधम्म की प्रणाली है । 'उद्देस' के बाद 'निद्देस' देने की अभिधम्म की निश्चित प्रणाली है, यह हम अभिधम्म-पिटक के विवेचन में देख चुके है। उसी का अनुवर्तन इस ग्रन्थ में किया गया है, जैसा उसकी ऊपर दी हुई विषयनालिका से स्पष्ट है । इतना ही नहीं, सिद्धान्तों के विवेचन में भी अभिधम्म का प्रभाव स्पष्टतः दिखाई पड़ता है । जैसा ऊपर दिखाया जा चुका है, परिक्खारहार के विवेचन में पट्ठान के हेतुओं और प्रत्ययों की स्पष्ट प्रतिध्वनि है । यहाँ 'नेत्ति' के लेवक ने उसे पूरी तरह न लेकर अपने निरुक्ति सम्बन्धी प्रयोजन के अनुसार ही लिया है । इसीलिये 'हेतु' और 'प्रत्यय' का विभेद यहाँ इतना स्पष्ट नहीं हो पाया । लौकिक और अलौकिक का विभेद भी 'नेत्तिपकरण' में किया गया है । यह भी अभिधम्म के प्रभाव का सूचक है । नेत्तिपकरण और अभिधम्म की शैली के इस पारस्परिक सम्बन्ध का ऐतिहासिक अर्थ क्या है ? स्पष्टतः यही कि नेत्तिकपरण की रचना अभिधम्म-पिटक के बाद हुई। किन्तु श्रीमती रायस डेविड्स ने इसके विपरीत यह निष्कर्ष निकाला है कि 'नेत्तिपकरण' कम से कम ‘पट्ठान' से पूर्व की रचना है।' उनके इस मत का मुख्य आधार यही है कि नेति-पकरण में अभी हेतु और प्रत्यय का भेद उतना स्पष्ट नहीं हुआ है जितना ‘पठान' में। किन्तु क्या यह 'नेत्तिपकरण' के आवश्यकता के अनुरूप नहीं हो मकता? क्या इस कारण नहीं हो सकता कि 'नेत्तिपकरण' के लेखक को यहाँ अभिधम्म की सूक्ष्मता में न जाकर केवल उसके निरुक्ति-सम्बन्धी प्रयोजन को ग्रहण करना था ? अभिधम्म-पिटक के संकलन या प्रणयन के काल के सम्बन्ध में जो विवेचन हम पहले कर चुके है, उसकी पृष्ठभूमि में नेत्तिपकरण को उसके वाद १. जर्नल ऑव रॉयल एशियाटिक सोसायटी, १९२५, पृष्ठ १११-११२; विटर नित्ज ने भी उनके इस साक्ष्य को स्वीकार किया है। देखिये उनका हिस्ट्री ऑव इंडियन लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ १८३ Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४७१ ) की रचना ही माना जा सकता है। ई० हार्डीने, जिन्होंने इस ग्रन्थ का सम्पादन पालि टैक्स्ट सोसायटी के लिए किया है, आन्तरिक और बाहय साध्य का विवेचन कर यह निष्कर्ष निकाला है कि 'नेतिपकरण' ईसवी सन के आसपास की रचना है।' गायगर ने इस मत को स्वीकार किया है। श्रीमती रायस डेविड्स के मत की अपेक्षा यही मत अधिक उपयुक्त जान पड़ता है। ‘गन्धवंस' के वर्णनानुसार 'नेनिपकरण' के रचयिता भगवान बुद्ध के परम ऋद्धिमान् गिप्य महाकच्चान या महाकच्चायन (महाकात्यायन) ही थे। स्वयं मज्झिम-निकाय के मधपिङकमुन (१।२।८) में महाकच्चान के अर्थ-विभाग की प्रशंमा की गई है “यह आयप्मान् महाकात्यायन, वृद्ध द्वारा प्रशंसित, सब्रह्मचारियों द्वारा प्रमंसित और गास्ता द्वारा संक्षेप से कहे हुए उपदेश का विस्तार से अर्थ-विभाग करने में समर्थ हैं।" सम्भवतः इसी आधार पर नेत्तिपकरण' को गौरव देने के लिए उसे इन आर्य महाकात्यायन की रचना वतलाया गया है। किन्तु इन शास्त्रीय विवेचनों में पड़ने की बुद्ध के उन प्रथम शिष्यों को आवश्यकता नहीं थी, यह निश्चित है । यह तो उत्तरकालीन वैदिक परम्परा से प्राप्त प्रभाव का ही परिणाम था। जिस प्रकार कच्चान और मोग्गल्लान व्याकरणों का सम्बन्ध बुद्ध के प्रथम शिष्यों के माथ किया जाता है, उसी प्रकार 'नेत्तिपकरण' के रचयिता महाकच्चान के विषय में भी हमें जानना चाहिए। वास्तव में नेत्तिपकरण' ईसवी सन् के आसपास की रचना है और उसके रचयिता कोई कच्चान नामक भिक्षु थे, जिनके विषय में अधिक हमें कुछ ज्ञात नहीं है। पांचवीं शताब्दी ईसवी में धम्मपाल ने 'नेत्तिपकरण' पर 'नेत्तिप्पकरणस्स अत्थ संवण्णना' (नेनिपकरण का अर्थ-विवरण) नाम की एक अट्ठकथा भी लिग्वी, जिसका निर्देश हम आगे के अध्याय में अट्ठकथा-माहित्य का विवरण देते समय करेंगे। बरमा और सिंहल की भाषाओं में इस ग्रन्थ का अनुवाद हुआ है, और इसके कई संस्करण भी निकले हैं। १. नेत्तिपकरण (ई० हार्डी द्वारा सम्पादित, लन्दन १९०२), पृष्ठ ८ (भूमिका) २. पालि लिटरेचर एंड लेंग्वेज, पृष्ठ २६ ३. पृष्ठ ४९ Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४७२ ) पेटकोपदेस 'पेटकोपदेस' भी 'नेतिपकरण' के समान विषय-वस्तु वाली एक दूसरी रचना है। मेबिल बोड ने हमें बताया है कि बरमा में इन दोनों ग्रन्थों का आदर त्रिपिटक के समान ही होता है। पेटकोपदेस' का उद्देश्य त्रिपिटक के विद्यार्थियों को उसी प्रकार का उपदेश या शिक्षा देना है जैसा हम नेत्तिपकरण' में देख आये हैं। नेत्तिपकरण' की हीविषय-वस्तु को यहाँ एक दूसरे ढंग से उपन्यस्त कर विवेचित किया गया है। कहीं जो कुछ बातें 'नेत्तिपकरण में दुरूह रह गई हैं, उनको यहाँ स्पष्ट रूप से समझा दिया गया है । पेटकोपदेस' की एक मुख्य विशेषता यह भी है कि यहाँ विषय का विन्यास प्रधानतः चार आर्य सत्यों की दष्टि से किया गया है, जो वुद्ध-गासन के मूल उपादान हैं। 'पेटकोपदेस' के भी रचयिता 'नेत्तिपकरण' के लेखक महाकच्चान ही माने जाते है । अतः उनके काल और वृत्त के सम्बन्ध में भी वहीं जानना चाहिए, जो 'नेत्तिपकरण' के रचयिता के सम्बन्ध में। मिलिन्दपञ्हर 'मिलिन्द पहं' 'मिलिन्द पञ्हो' या 'मिलिन्दपञ्हा' (क्योंकि इन तीनों प्रकार यह ग्रन्थ लिखा जाता है ) ३ इस युग की सब से अधिक प्रसिद्ध रचना है। सम्पूर्ण अनुपिटक साहित्य में इस ग्रन्थ की समता अन्यकोई ग्रन्थ नही कर सकता। बद्धघोप ने इस ग्रन्थ को अपनी अटकथाओं में त्रिपिटक के समान ही आदरणीय १. दि पालि लिटरेचर ऑव बरमा, पृष्ठ ४ २. रोमन लिपि में सन् १८८० में ट्रेकनर का प्रसिद्ध संस्करण निकला था। आज तो नागरी लिपि में भी सौभाग्यवश इसके मूल पाठ और अनुवाद दोनों उपलब्ध हैं । मिलिन्द-पञ्होः आर.डी.वदेकर द्वारा सम्पादित, बम्बई विश्वविद्यालय द्वारा प्रकाशित, १९४०; भिक्षु जगदीश काश्यप द्वारा हिन्दी में अनुवादित, प्रकाशक भिक्षु उ० कित्तिमा, सारनाथ, बनारस, १९३७ । इस ग्रंथ के स्यामी, सिंहली तथा बरमी अनेक संस्करण उपलब्ध है। ३. सिंहल में तो विशेषतः मिलिन्दपञ्हो ही कहा जाता है । हिन्दी में 'मिलिन्दप्रश्न' के आधार पर 'मिलिन्दपञ्ह' ही कहना हमने अधिक उचित समझा है। Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४७३ ) मानते हुए उद्धृत किया है, ' यह उसकी महत्ता का सर्वोत्तम सूचक है। साहित्य और दर्शन दोनों दृष्टियों से 'मिलिन्द पह' स्थविरवाद वौद्ध धर्म का एक बड़ा गौरव है। पाश्चात्य विद्वान् तक उसके इस गौरव पर इतने अधिक मुग्ध हुए हैं कि उन्हें इस में ग्रीक प्रभाव और विशेषत: अफलातं के संवादों की गन्ध आने लगी है ! 'मिलिन्द पञ्ह' (मिलिन्द प्रश्न) जैसा उसके नाम से स्पष्ट है 'मिलिन्द' के 'प्रश्नों के विवरण के रूप में लिखा गया है । 'मिलिन्द' शब्द ग्रीक 'मेनान्डर' नाम का भारतीयकरण है । मेनान्डर के प्रश्नों का विवरण मात्र इस ग्रन्थ में नहीं है। मेनान्डर के प्रश्नों का समाधान इस ग्रन्थ का मुख्य विषय है । यह समाधान भदन्त नागसेन नामक बौद्ध भिक्षु ने किया। अतः मेनान्डर और भदन्त नागसेन के संवाद के रूप में यह ग्रन्थ लिखा गया है । मेनान्डर या मिलिन्द और भदन्त नागसेन का यह संवाद ऐतिहासिक तथ्य था, इसके लिए प्रभूत इतिहास-सम्बन्धी सामग्री उपलब्ध है । 'मिलिन्द पञ्ह' में ही मिलिन्द को यवनक (ग्रीस)-प्रदेश का राजा कहा गया है ('योनकानं राजा मिलिन्दो') और उसकी राजधानी सागल (वर्तमान स्यालकोट) को बतलाया गया है । हम जानते हैं कि दूसरी शताब्दी ईसवी पूर्व भारत का उत्तर-पच्छिमी भाग ग्रीक शासकों के हाथ में चला गया था। ग्रीक शासक मेनान्डर या मेनान्ड्रोस ही 'मिलिन्द पञ्ह' का 'मिलिन्द' है, यह इतिहासवेत्ताओं का निश्चित मत है। किन्तु इस मनान्डोस के शासन-काल की निश्चित तिथि क्या है, इसके विषय में अभी एक मत नहीं हो सका है। स्मिथ के अनुसार १५५ ई० पूर्व मेनान्डर ने भारत पर आक्रमण किया।२ राय चौधरी तथा बार्नेट के मतानुसार मेनान्डर का १. अठ्ठसालिनी, पृष्ठ ११२, ११४, ११९, १२०, १२२, १४२ (पालि टैक्स्ट सोसायटी का संस्करण) में बुद्धघोष ने 'आयुष्मान् नागसेन' (आयस्मा नागसेन) 'नागसेन स्थविर' (नागसेन थेर) 'आयुष्मान नागसेन स्थविर' (आयस्मा नागसेन थेर) आदि कह कर मिलिन्द-पञ्ह के लेखक को. स्मरण किया है। २. अर्ली हिस्ट्री ऑव इंडिया, पृष्ठ २२७, २३९, २५८ ३. पॉलिटिकल हिस्ट्री ऑव एन्शियन्ट इंडिया, १९२३, पृष्ठ २०४ ४. कलकत्ता रिव्यू, १९२४, पृष्ठ २५० Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४७४ ) शासन-काल प्रथम शताब्दी ईसवी पूर्व है। डा० रमेशचन्द्र मजूमदार का मत है कि ९० वर्ष ईसवी पूर्व से पहले मेनान्डर का समय नहीं हो सकता।' अधिकतर विद्वानों की आज मान्यता है कि मेनान्डर का शासन-काल प्रथम बाताब्दी ईसवी पूर्व है। अतः अपने मूल रूप में मिलिन्द पन्ह' इमी समय लिखा गया, यह निश्चित है । चूंकि ग्रीक-शामन मेनान्डर के बाद गीघ्र भारत से लुप्त हो गया था और उसकी कोई स्थायी म्मति भारतीय इतिहास में अंकित नहीं है , अतः यदि 'मिलिन्द पञ्ह' की रचना को मिलिन्द और नागसेन के संवाद के आधार पर एक बाद के युग में लिखी हुई भी मानें तो भो वह युग बहुत बाद का नहीं हो सकता। हर हालत में 'मिलिन्द पह' की रचना ईमवी सन् के पहले ही हो गई थी२, और उसका आधार था ग्रीक गजा मेनान्डर और भदन्त नागसेन का ऐतिहासिक संवाद । 'मिलिन्द पह' की इस विषयक ऐतिहासिकता को प्रमाणित करने के लिए एक और दृढ़तर साक्ष्य भी विद्यमान है। भारत के करीब २२ स्थानों में (विशेषतः मथुग में) ग्रीक राजा मेनान्डर के मिक्के मिले है, जिन पर खुदा हुआ है "बेसिलियम मोटिरस मेनन्ड्रोम"। एक आश्चर्य की बात यह है कि इन सिक्कों पर धर्म-चक्र का निशान बना हुआ है, जो उसके बौद्ध धर्मावलम्बी होने का पक्का प्रमाण देता है। 'मिलिन्द पञ्ह' में भी हम पढ़ते हैं कि भदन्त नागसेन के उत्तरों से सन्तुष्ट हो कर गजा मिलिन्द उनमे अपने को उपासक (बौद्ध गृहस्थ-शिष्य) के रूप में स्वीकार करने की प्रार्थना करता है "उपासकं मं भन्ते नागसेन मारेत्थ” । ३ बाद मे हम वहीं यह भी देखते हैं कि गजा १. विंटरनित्ज : हिस्ट्री ऑव इंडियन लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ १७४, पद-संकेत ३ में उद्धृत २. मिलाइये रायस डेविड्स्-क्विशन्स ऑव किंग मिलिन्द (मिलिन्द प्रश्न का अंग्रेजी अनुवाद), भाग प्रथम (सेक्रेड बुक्स ऑद दि ईस्ट, जिल्द ३५) पृष्ठ ४५ (भूमिका); विटरनित्ज : हिस्ट्री ऑव इंडियन लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ १७५ ३. पृष्ट ४११ (बम्बई विश्वविद्यालय का संस्करण) Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४७५ ) मिलिन्द ने बाद में अपने राज्य को अपने पुत्र को देकर प्रवज्या ग्रहण कर ली और विदर्शना-ज्ञान की वृद्धि करते हुए उसने अर्हत्त्व प्राप्त किया। ग्रीक इतिहासलेबक प्लूटार्क का कहना है कि मेनान्डर के मरने के वाद अनेक भारतीय नगरों में उसकी अस्थियों के ऊपर समाधियाँ बनाई गई । स्पष्टतः यह मेनान्डर के बौद्ध होने का साक्ष्य देता है और 'मिलिन्द पह' के वर्णनका समर्थन करता है। भगवान् बुद्ध (महापरिनिब्वाण सुत्त) और अनेक अर्हनों की अस्थियों पर ऐसा ही हुआ था। आचार्य बुद्धघोष के परिनिर्वाण पर इसी प्रकार का वर्णन 'बुद्धघोसप्पत्ति' पृष्ट ६६ (जेम्स ग्रे-द्वारा सम्पादित) में मिलता है। अतः पूर्वोक्त विवरण, प्लटार्क का साध्य और सब से अधिक राजा मेनान्डर के मिक्कों पर धर्म-चक्र के चिह्न का पाया जाना, इन सब बातों के प्रकाग में हम 'मिलिन्द पन्ह' के इस साक्ष्य को अस्वीकार नही कर सकते कि मेनान्डर बौद्ध हो गया था। इतने ठोस प्रमाणों के होते हुए भी कुछ पाश्चात्य विद्वानों ने यह स्वीकार नहीं किया कि मेनान्डर बौद्ध हो गया था। मम्भवतः पाश्चात्य संस्कृति की गौरव-रक्षा के अन्तहित भाव ने ही उन्हें इस स्पष्ट सत्य को स्वीकार करने से उन्मुख या उदासीन रक्खा है। ग्रीक राजा मेनान्डर और भदन्त नागसेन के संवाद के रूप में 'मिलिन्द पह' का लिखा जाना एक निश्चित ऐतिहासिक तथ्य होते हुए भी वह किसके द्वारा लिखा गया, किस रूप में लिखा गया, बाद में उसमें क्या परिवर्तन या परिवर्द्धन किए गए, आदि समस्याएं बाकी ही बच रहती है । इन समस्याओं पर आने से पूर्व हमें इतना तो १. पुत्तस्स रज्जं निय्यादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजित्वा विप्पस्सनं वड्ढेत्वा अरहत्तं पापुणीति । पृष्ठ ४११ (बम्बई विश्वविद्यालय का संस्करण) २. मिलाइये रायस डेविड्स : मिलिन्द पञ्ह का अंग्रेजी अनुवाद (क्विशन्स ऑव किंग मिलिन्द), भाग प्रथम (सेक्रेड बुक्स ऑव दि ईस्ट, जिल्द ३५) पृष्ठ १९ (भूमिका); स्मिथ : अर्ली हिस्ट्री ऑव इंडिया, पृष्ठ १८७ ,२२६; गायगरः पालि लिटरेचर एंड लेंग्वेज, पृष्ठ २७; ये विद्वान् इतना तक तो स्वीकार करते है कि बौद्धों से उसकी सहानुभूति थी। इससे नछ अधिक विंटरनित्ज ने इंडियनलिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ १७५, पद-संकेत १ में कहा है। परन्तु स्पष्ट साड्स तो सत्य बात कहने का वह भी नहीं कर सके। Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निश्चयपूर्वक समझ हो लेना चाहिए कि मूल रूप में 'मिलिन्द पञ्ह' का प्रणयन, उत्तर-पश्चिमी भारत में, द्वितीय या प्रथम शताब्दी ईसवी पूर्व हुए, भदन्त नागसेन और ग्रीक राजा मेनान्डर के संवाद के आधार पर, उसी समय या कम से कम प्रथम शताब्दी ईसवी पूर्व के निकट, वौद्ध धर्म सम्बन्धी शंकाओं के निवारणार्थ हुआ। उसके रचयिता भी भदन्त नागसेन हो माने जा सकते है । महा-स्थविर बुद्ध घोषाचार्य की भी यही मान्यता थी। ग्रन्थ के नायक होने के साथ साथ उनके इस ग्रन्थ के रचयिता होने में कोई विरोध नहीं है। ऐसी निर्वैयक्त्तिकता भारतीय साहित्य में अनेक बार देखी जाती है। कम से कम श्रीमती रायस डेविड्स ने जो 'मिलिन्द पह' के रचयिता का नाम 'माणव' बतलाया है, उसके लिए तो कोई ऐतिहासिक आधार नही मिलता और उसे उनकी कल्पना से प्रसूत ही समझना चाहिए। अक्सर (विशेषतः पश्चिमी विद्वानों द्वारा) यह कहा जाता है कि 'मिलिन्द पन्ह' एक इकाई-बद्ध रचना नही है और उसका प्रणयन भिन्न-भिन्न लेखकों द्वारा भिन्न-भिन्न युगों में आ है । परिच्छेदों की एक दूसरे से भिन्नरूपता एवं शैली और विषय-वस्तु को भी विभिन्नता के कारण यह मान लिया गया है कि मौलिक रूप में ग्रन्थ बहुत छोटा होगा, सम्भवतः वह मिलिन्द और नागसेन के संवाद के संक्षिप्त विवरण के रूप में था, और बाद में स्थविरवाद बौद्ध धर्म की दृष्टि से जो विषय महत्त्वपर्ण थे उनको प्राचीन नमूनों के आधार पर इसमें जोड़ा जाता रहा। ग्रन्थ का प्रस्तुत रूप इमो परिवर्द्धन का परिणाम है । 'मिलिन्द पञ्ह' के अनेकरूपतामय आन्तरिक माक्ष्य के अलावा एक और प्रभावशाली बाहय साक्ष्य इस मत के प्रतिपादन में दिया गया है कि प्रस्तुत पालि 'मिलिन्द पञ्ह' एक मौलिक रचना न होकर अनेक परिवर्द्धनों का परिणाम है अथवा स्वयं मौलिक रूप से संस्कृत में लिखे हुए ग्रन्थ का पालि रूपान्तर है । वह है इस ग्रन्थ का चीनी अनुवाद, जो सन् ३१७ और ४२० ई. के बीच किया गया। पालि 'मिलिन्द पन्ह' में ७ अध्याय हैं, यथा (१) बाहिर कया, (२) लक्खण पञ्हो, (३) विमतिच्छेदन पञ्हो, (४) मेण्डक पञ्हो, (५) अनुमान पञ्हं, (६) धुतंग कथा, तथा (७) १. देखिये उनका मिलिन्द क्विशन्स, लन्दन, १९३० Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४७७ ) ओपम्मकथापहं । उपर्युक्त चीनी अनुवाद में, जिसका नाम वहाँ 'नागमेन सूत्र' दिया गया है, चौथे अध्याय से लेकर मातवें अध्याय तक नहीं है । इससे स्वाभाविक नोर पर विद्वानों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि 'मिलिन्द पञ्ह' के पहले तीन अध्याय हो ग्रन्थ के मौलिक स्वरूप के परिचायक है और वाकी बाद के परिवर्द्धन मात्र हैं । सेना और वार्थ आदि अनेक विद्वानों के अलावा गायगर' और विटरनिन्जर भी इसी मत के मानने वाले है । उन्होंने इसी के समर्थन में अन्य कारण भी दिये है । एक सब से बड़ा कारण तो यही है कि हमारे प्रस्तुत पालि मिलिन्द पञ्ह में ही नृतीय अध्याय के अन्त में लिखा है " मिलिन्दस्स पञ्हानं पुच्छाविस्मज्जना निकिता अर्थात् “मिलिन्द के प्रश्नों के उत्तर समाप्त हुए।" इतना ही नहीं आगे चौथे अध्याय के प्रारम्भ में जो गाथाएँ आती हैं, वे एक नये ही प्रकार से विषय की प्रस्तावना करती हैं । "वक्ता, तर्कप्रिय, अत्यन्त बुद्धि-विशारद ( गजा) मिलिन्द ज्ञान - विवेचन के लिए नागसेन के पास आया । " 3 जब पहले मिलिन्द के प्रश्न समाप्त ही कर दिये गए तो फिर इस प्रकार विषय का दुबारा अवतरण करने की क्या आवश्यकता थी ? निश्चय ही निष्पक्ष समालोचक को इस चौथे अध्याय के बाद के भाग की मौलिकता और प्रामाणिकता में मन्देह होने लगता है । यह भी कितने आश्चर्य की बात है कि आचार्य बुद्धघोष ने भी 'मिलिन्द पञ्ह' के जिन अवतरण को उद्धृत किया हैं वे प्रायः प्रथम तीन अध्यायों से ही है । अतः उन्ही को अप आकृत अधिक प्रामाणिक मानना पड़ता है । जहाँ तक इन प्रथम तीन अध्यायों की भी प्रामाणिकता का सवाल है, उनके विषय में भी कुछ विद्वानों ने सन्देह प्रकट किया है । स्वयं विंटरनित्ज़ ने प्रथम अध्याय के कुछ अंशों को मौलिक नहीं माना है । उनके मतानुसार ग्रन्थ की मौलिक प्रस्तावना अपेक्षाकृत कुछ छोटी थी । गायगर भी इस मत में उनके साथ सहमत हैं ।" इसी प्रकार तृतीय अध्याय (विमतिच्छेदन पञ्हो) में भी निरन्तर परिवर्द्धनों की सम्भावना स्वीकार की गई है । इस परिच्छेद १. पालि लिटरेचर एंड लेंग्वेज, पृष्ठ २७ २. हिस्ट्री ऑव इंडियन लिचरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ १७६-१७७ ३. भस्सप्पवेदी वेतंडी अतिबुद्धिविचक्षणो । मिलिन्दो ञाणभेदाय नागसेनमुपागम ॥ ४. ५. ऊपर उद्धृत क्रमशः २ एवं १ पद-संकेतों के समान Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४७८ ) में मिलिन्द के सन्देहों का निवारण किया गया हैं । जो-जो सन्देह स्थविरवाद बौद्ध धर्म की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण माने जाते थे उन सब का समाधान सहित समावेश इस परिच्छेद में कर दिया गया है, ऐसा इन विद्वानों ने मान लिया है। गावं और डर ने तो इस पूरे अध्याय तक को बाद को जोड़ा हुआ मान लिया है, जो ठीक नहीं है । पालि मिलिन्द पञ्ह' और चीनी भाषा में प्राप्त 'नागमेन-मूत्र' में विभिन्नता होने के आधार पर तथा अन्य उपर्युक्त आन्तरिक और वाय साक्ष्यों के आधार पर यह मान लिया गया है कि पालि 'मिलिन्द पञ्ह' के अध्याय ४ से लेकर ७ तक बाद के परिवर्द्धन है। एक दूसरा निष्कर्ष यह भी निकाला गया है कि 'मिलिन्द पञ्ह' के प्रारम्भिक काल से ही अनेक संस्करण या पाठ-भेद थे । जर्मन विद्वान् श्रेडर ने उसके सात पाठ भेदों का उल्लेख किया है । निश्चय ही ये सब बातें कल्पना पर आश्रित है और केवल चीनी अनुवाद में पालि 'मिलिन्द पञ्ह' की विभिन्नता के आधार पर निकाले हुए अनुमान मात्र हैं । यह एक अत्यन्त आश्चर्य की बात है कि 'मिलिन्द पञ्ह' के प्रश्न को लेकर डा० गायगर जैसे विद्वान् को भी भ्रम में पड़ जाना पड़ा है। उन्होंने यह मान लिया है कि पालि 'मिलिन्द पञ्ह' मौलिक रूप से संस्कृत में लिखा गया था और ईसवी सन् के करीब उसका अनुवाद पालि में किया गया । उन्होंने यह भी मान लिया है कि यह अनुवाद लंका में किया गया और प्राचीन नमूनों के आवार पर उसमें अनेक परिवर्द्धन भी कर दिये गए, यथा पूरण कस्मप, मक्खलि गोसाल आदि की कथाएँ दीव - निकाय के सामञ्ञफल - सुत्त के आधार पर और रोहण और नागमेन के सम्बन्ध की कथा महावंस ५। १३१ में निर्दिष्ट सिग्गव और तिस्त की कथा के आधार पर जोड़दी गई । परिवर्द्धनों को सम्भावना को स्वीकार करने हुए भी ( यद्यपि पूरण कस्सप और मक्खलि गोमाल आदि को 'मिलिन्दपञ्च' में व्यक्तियों का बाचक न समझ कर उनके सम्प्रदाय के आचार्यो या पदों का सूचक मान कर उन सम्बन्धी विवरणों को बाद का परिवर्द्धन मानने की भी अपेक्षा नहीं ) 'मिलिन्द पञ्ह' का मौलिक संस्कृत से लंका में पालि में रूपान्तरित किया १. देखिये विटरनित्ज: इंडियन लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ १७७, पद-संकेत २ २. पालि लिटरेचर एंड लेंग्वेज, पृष्ठ २७, पद- संकेत २ Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४७९ ) जाना स्वीकार नहीं किया जा सकता। चूंकि यह मत डा० गायगर जैसे विद्वान की ओर से आया है, इसलिए इसका उल्लेख यहाँ कर दिया गया है । अन्यथा वह इस योग्य भी नहीं है। 'मिलिन्द पन्ह' निश्चयतः अपने मौलिक पालि रूप में उत्तर-पश्चिमी भारत की प्रथम शताब्दी ईसवी पूर्व की रचना है । सम्भव है उसमें बाद में भी परिवर्द्धन हुए हों। किन्तु उसका मौलिक रूप आज का सा सात परिच्छेदों वाला ही रहा हो, इसके लिए भी कम अवकाश नहीं है, क्योंकि जैसाडा० टी० डब्ल्यू० रायस डेविड्स ने सुझाव रक्खा है संभवत: चीनी अनुवादक ने ही अपने अनुवाद में अन्तिम चार अध्यायों को छोड़ दिया हो।' यद्यपि विटरनित्ज़ ने उनके इस मत को स्वीकार नहीं किया है । हमें चौथी शताब्दी ईसवी में (जिससे पहले चीनी अनुवाद नहीं हुआ था बुद्धघोष के इस ग्रन्थ के प्रति आदर और श्रद्धा-भाव को देख कर सत्य की इसी ओर प्रवणता दिखाई पड़ती है । जैसा ऊपर कहा जा चुका है, 'मिलिन्द पह' को विषय-वस्तु सात भागों या अध्यायों में विभक्त है (१) बाहिर कथा, (२) लक्खण पञ्हो, (३) विमतिच्छेदन पञ्हो, (४) मेण्डक पञ्हो, (५) अनुमान पन्हं, (६) धुतंग कथा और (७) ओपम्मकथा पञ्ह । 'बाहिर कथा', 'मिलिन्द पञ्ह' की भूमिका है। सर्व प्रथम लेखक ने नागमेन की इस विचित्र कथा (चित्रा नागसेनकथा) को जो, अभिधर्म, विनय और सुत्तों पर समाश्रित है, और जिसमें विचित्र उपमाएँ और युक्तियाँ प्रकाशित की गई हैं, सावधान हो कर , ज्ञानपूर्वक, बुद्ध-शासन सम्बन्धी सन्देहों के निवारणार्थ, सुनने को आह्वान किया है-- अभिधम्मविनयोगाल्हा सुत्तजालसमत्थिता। नागसेनकथा चित्रा ओपम्मेहि नयेहि च॥ तत्थ जाण पणिधाय हासयित्वान मानसं । सणाथ निपुणे पन्हे कङखाठानविदालनेति ॥ उसके बाद ग्रीक राजा मिलिन्द (मेनान्डर) की राजधानी सागल का रमणीय, काव्यमय वर्णन है । “अथ यं अस्थि योनकानं नानापुटभदनं सागलं नाम नगरं १. ऐन्साइक्लोपेडिया ऑव रिलिनजन एंड एथिक्स, जिल्द आठवीं, पृष्ठ ३६२, २. हिस्ट्री ऑव इंडियन लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ १७७ पद-संकेत १ Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४८० ) नदोपब्बतसोभितं रमणीयभूमिप्पदेसभागं आरामय्यानोपवनतडागपोक्खरणी सम्पन्नं नदोपब्बतरामणेय्यक" आदि। उसके बाद उपर्युक्त सात भागों में ग्रन्थ की विषय-सूची तथा फिर नागसेन और मिलिन्द के पूर्व-जन्म की कथा है। यह एक बड़े आश्चर्य की बात है कि भदन्त नागसेन ने अपने और अपने प्रतिवादी मिलिन्द के पूर्वजन्म (पुब्बयोग, पुब्बकम्म) के वर्णन में तो इतनी तत्परता दिखाई है, फिर भी अपने वर्तमान जन्म और कर्म के विषय में अधिक जानने का हमें अवकाश नहीं दिया । सम्भवतः जिसे हम इतना ठोस समझते है वह उनके लिये इतना आवश्यक नहीं था और जो कुछ हमें अपने विषय में वह बताना आवश्यक समझते थे उसे उन्होंने वहाँ बता भी दिया है। स्थविर नागसेन का जन्म मध्य देश की पूर्वी सीमा पर स्थित, हिमालय पर्वत के समीपवर्ती कजंगला नामक प्रसिद्ध कस्बे में हुआ था। उनके पिता का नाम सोगुत्तर था, जो एक ब्राह्मग थे । तोनों वेदों, इतिहासों और लोकायत शास्त्र का ज्ञान प्राप्त कर नागसेन ने स्थविर रोहण से बुद्ध-शासन सम्बन्धो शिक्षा प्राप्त को एवं वौद्ध धर्म में प्रवेश किया। तदनन्तर वे वत्तनिय सेनासन के स्थविर अस्मगुत्त (अश्वगुप्त) के पास गये और उनसे शिक्षा प्राप्त को । यहीं उनको सोतापन्न (सोत आपन्न) फल की प्राप्ति हुई । तदनन्तर उन्हें पाटलिपुत्र भज दिया गया, जहाँ उन्होंने स्थविर धर्मरक्षित से बौद्ध धर्म का विशेष अध्ययन किया। यही उन्हें अर्हत्त्व फल की प्राप्ति हुई। इसके बाद वे सागल (सियालकोट) के संखेय्य परिवेण में गये, जहाँ राजा मिलिन्द से उनको भेट हुई । मिलिन्द की शिक्षा का वर्णन करते हुए उसे 'श्रुति, स्मृति, संख्यायोग (सांख्य योग), नीति, वैशेपिक (विसेसिका) आदि १९ शास्त्रों का मननशील विद्यार्थी बतलाया गया है । वह पूरा तर्कवादी, वितंडावादी और वाद-विवाद में अजेय था, यह भी दिखाया गया है। मिलिन्द को दार्शनिक वाद-विवाद से बड़ा प्रेम था और उसने 'लोकायत' सम्प्रदाय आदि के अनुयायी सभी विचारकों को परास्त कर दिया था। उसने बुद्धकालोन ६ प्रधान आचार्यों की गद्दियों पर प्रतिष्ठित उनके ही समान नाम धारण करने वाले छह प्रधान आचार्यो, यथा पूरणकस्सप, मक्खलि गोसाल, निगण्ठ नाटपुत्त, सञ्जय वेलटिपुन, अजित केस कम्बली और पकुध-कच्चायन कं नान भी अपने मन्त्रियों से सुन रक्खे थे, और प्रथम दो से वह मिला भी Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४८१ ) १ 1 था, किन्तु उसकी शान्ति उनसे नहीं हुई थी । अन्त में ग्रीक राजा को यह अभिमान होने लगा "तुच्छो बत भो जम्बुदीपो पलापो वत भो जम्बुदीपो । नत्थि कोचिसमणो वा ब्राह्मणो वा यो मया सद्धिं सल्लपितुं सक्कोति कखं पटिविनोदेतुंति ।" " तुच्छ है भारतवर्ष ! प्रलाप मात्र है भारतवर्ष ! यहाँ कोई ऐसा श्रमण या ब्रह्म नहीं है जो मेरे साथ, मेरे सन्देहों के निवारणार्थ संलाप भी कर सके।" मिलिन्द के इन शब्दों में हम बुद्धिवादी ग्रीक ज्ञान की गौरवमय हुंकार देखते हैं । भारतीय राष्ट्र का गौरव भदन्त नागसेन के रूप में अपनी सारी संचित ज्ञानगरिमा को लिये हुए अन्त में उसे मिल गया । नागसेन के ज्ञान की प्रशंसा में कहा गया है कि उन्होंने अपनी अल्पावस्था में ही निघंटु आदि के सहित तीनों वेदों को पढ़ लिया था, और वे इतिहास, व्याकरण, लोकायत आदि शास्त्रों में पूर्ण निष्णात थे । उसके बाद प्रव्रजित हो कर उन्होंने अभिधम्म के सात प्रकरणों तथा अन्य तेपिटक बुद्ध वचनों को अपने गुरु रोहण से पढ़ा था। पहले उन्होंने धर्मरक्षित नामक भिक्षु के साथ पाटिलपुत्र में निवास किया। बाद में आयुपाल नामक भिक्षु के निमंत्रण पर वे हिमाचल प्रदेश के संखेय्य परिवेण नामक विहार में चले गये । वहीं राजा मिलिन्द उनसे मिलने के लिए गया । 'अथ खो मिलिन्दो राजा येनास्मा नागसेनो तेनोपसंगनि' (तदनन्तर राजा मिलिन्द जहाँ आयुष्मान् नागसेन थे, वहाँ गया । ) कुशल - प्रश्न पूछने और परिचय प्राप्त करने में ही दार्शनिक संलाप छिड़ गया । संवाद भी उस प्रश्न पर जो बुद्ध दर्शन की आधार भूमि है । अनात्म लक्षग ! राजा मिलिन्द नागसेन के पास जा कर बैठ जाता है और उनसे पूछता है- १. यूरोपीय विद्वानों ने पूरण कस्सप, मक्खलि गोसाल आदि के नाम देख कर ही यह समझ लिया है कि यहाँ 'मिलिन्द पञ्ह' के लेखक ने इन बुद्धकालीन आचार्यों का उल्लेख किया है । यह एक भ्रम है | देखिये मिलिन्द प्रश्न, ( हिन्दी अनुवाद) की बोधिनी में भिक्षु जगदीश काश्यप की इस विषय - सम्बन्धी टिप्पणी २. तीसु वेदेसु सनिघंटु केटुभेस साक्खरप्पभेदेसु इतिहासपञ्चमेसु पदको वैय्याकरणो लोकायत महापुरिस लक्खणेसु अनवयो अहोसि । पृष्ठ ११ ( बम्बई विश्वविद्यालय का संस्करण) ३१ Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४८२ ) "भन्ते! आप किस नाम से पुकारे जाते है ? आपका नाम क्या है ?" (किं नामोसि भन्तेति) "महाराज! मैं 'नागसेन' नाम से पुकारा जाता हूँ। सब्रह्मचारी भिक्षु मुझे यही कह कर बुलाते हैं। माता-पिता अपने बच्चों के इस प्रकार के नाम रखते हैं, जैसे 'नागसेन' , 'सूरसेन' आदि। लेकिन ये सब नाम केवल व्यवहार के लिए हैं। तात्विक दृष्टि से इस प्रकार का कोई व्यक्ति उपलब्ध नहीं होता । (न हेत्थ पुग्गलो उपलब्भतीति) बस, संप्रश्न और संवाद का पूरा क्षेत्र खुल गया ! “भन्ते ! नागसेन ! यदि यथार्थ में कोई व्यक्ति है ही नहीं तो आपको अपनी आवश्यक वस्तुएँ कौन देता है ? उन वस्तुओं का उपभोग कौन करता है ? पुण्य कौन करता है ? ध्यान कौन लगाता है ? आर्य-मार्ग और उसका फल निर्वाण कौन प्रत्यक्ष करता है ? . . . . . . भले-बुरे का फिर तो कोई कर्ता ही नहीं ? आपका कोई गुरु भी नहीं ? आप उपसम्पन्न भी नहीं ? आप कहते हैं आपको लोग 'नागसेन' नाम से पुकारते हैं। नागसेन है क्या ? "क्या केश नागमेन हैं ?" "केश किस प्रकार नागमेन हो सकते है ?" "तो क्या नख, दाँत, चमड़ी, मांस, शरीर नागसेन हैं ?" "राजन् ! ये भी नहीं।" "तो क्या पञ्च स्कन्धों का संयोग नागसेन है ?" “नहीं महाराज !" "तो क्या फिर रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार, विज्ञान, इन पांच स्कन्धों से कोई व्यतिरिक्त वस्तु नागसेन है ?" (कि पन भन्ते अञत्र रूपवेदनासंञासंखारविज्ञाणं नागसेनोति) "नहीं महाराज !" (नहि महाराजाति) मिलिन्द राजा थक जाता है। उसकी बुद्धि आगे संप्रश्न करना नहीं जानती। "भन्ते ! मै पूछते पूछते हार गया, फिर भी मैं यह न जान सका कि 'नागसेन' क्या है ? तो क्या 'नागसेन' केवल एक नाम ही है ? अन्ततः 'नागसन' है क्या Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४८३ ) वास्तव में ? भन्ते ! आप असत्य बोल रहे है कि 'नागसेन' नाम का कोई व्यक्तित्व यथार्थ में विद्यमान नहीं है !" वितंडावादी मिलन्द की बुद्धि को परिश्रान्त जानकर भदन्त नागसेन उमे कुछ आसान मार्ग से समझाना चाहते हैं। “महाराज! आपका जन्म तो क्षत्रिय-कुल में हुआ है। इसलिए स्वभावतः आप सुकुमार हैं। फिर भी आप इतनी गर्मी में दोपहर को यहाँ चले ही आये। मुझे विश्वास है कि आप जरूर थक गये होंगे। आप पैदल आये है या रथ पर?" "भन्ते ! मैं पैदल नहीं चलता हूँ। मैं रथ पर आया हूँ।" "महाराज ! यदि आप रथ पर आये हैं तो कृपया मुझे यह बताइये कि रथ है क्या?" "क्या रथ के बाँस रथ हैं ?" "नहीं भन्ते! रथ के बाँस रथ नहीं हो सकते।" "तो क्या धुरा, पहिये, रस्से, जुआ, पहियों के डंडे, अथवा बैल हांकने की लाठी, रथ हैं ?" "नहीं भन्ते !" “तो फिर कहिये कि क्या रथ इनसे अलग कोई वस्तु है ?" "नहीं भन्ते ! यह कैसे हो सकता है !" "राजन् ! मैं पूछ पूछ कर हार गया। उस पर भी मैं न जान सका कि यथार्थ में रथ क्या है ? तो फिर क्या आपका रथ केवल एक नाममात्र है ? राजन ! आप असत्य बोल रहे है कि आप रथ पर आये है। आप इस सारे जम्बुद्वीप (भारतवर्ष) में सब से प्रतापी राजा हैं। तो फिर आप किसके डर से असत्य बोल रहे है ?" "भन्ते ! मैं असत्य नहीं बोल रहा हूँ। रथ के बाँस, पहिये, रथ का ढाँचा, पहियों के डंडे, हाँकने की लकड़ी, इन भिन्न भिन्न हिस्सों पर 'रथ' का अस्तित्व निर्भर है। 'रथ' एक शब्द है जो केवल व्यवहार के लिये है। "रथोति संखा समा पञत्ति वोहारो नाममत्तं पवत्तीति ।" "ठीक है महाराज ! आपने यथार्थ 'रथ' को समझ लिया। ठीक इसी प्रकार व्यक्ति की भी हालत है। रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान, इन पाँच स्कन्धों पर मेरा अस्तित्व निर्भर है। 'नागसेन' शब्द केवल व्यवहारमात्र है । यथार्थ में Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४८४ ) 'नागसेन' नाम का कोई व्यक्तित्व विद्यमान नहीं है । परमार्थ रूप से व्यक्ति की उपलब्धि नही होती "परमत्थतो पनेत्थ पुग्गलो नूपलब्भति ।" . भदन्त नागसेन की यह अनात्मवाद की व्याख्या बड़ी महत्त्वपूर्ण है । इसके उद्धरण के विना मूल बुद्ध दर्शन सम्वन्धी अनात्मवाद का कोई भी विवेचन पूरा नहीं माना जा सकता । कहाँ तक भदन्त नागसेन ने बुद्ध-मन्तव्य निषेधात्मक दिशा में बढ़ाया है, अथवा कहाँ तक उन्होंने उसके यथार्थ रूप का ही दिग्दर्शन किया है, इसके विषय में विभिन्न मत हो सकते है । पहले मत का प्रतिपादन योग्यतापूर्वक डा० राधाकृष्णन् ने किया है, ' जबकि इसी कारण महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने भारतीय दर्शन - शास्त्र का इतिहास लिखने की उनकी योग्यता को ही संदेह की दृष्टि से देखा है । इस विवाद में भाग न लेकर हम इतना ही कह देना अपने प्रस्तुत उद्देश्य के लिये पर्याप्त समझते हैं कि चाहे नागसेन की अनात्मवाद की व्याख्या बुद्ध - मन्तव्य का यथावत् निदर्शन करती हो या चाहे उन्होंने उसे निषेधात्मक दिशा में बढ़ाया हो, वह अपने आप में महत्त्वपूर्ण अवश्य है । न केवल स्थविरवादी बौद्ध साहित्य में ही, अपितु सम्पूर्ण बौद्ध साहित्य में, बुद्ध वचनों को छोड़कर. अनात्मवाद का उससे अधिक सुन्दर, उससे अधिक आकर्षक और उससे अधिक गम्भीर विवेचन कहीं नहीं मिल सकता । अतः बौद्ध दर्शन और बौद्ध साहित्य के विद्यार्थी के लिये हर हालत में उसका जानना आवश्यक है । अनात्मवाद की उपर्युक्त व्याख्या मान लेने पर पुनर्जन्मवाद के साथ उसकी संगति किस प्रकार लगाई जा सकती है, यह भी समस्या मिलिन्द के सिर में चक्कर लगाती है । वह भदन्त नागसेन से पूछता है “भन्ते नागसेन कौन उत्पन्न होता है ? क्या उत्पन्न होने पर व्यक्ति वही रहता है या अन्य हो जाता है ? यो उप्पज्जति सो एव सो उदाहु अञ्ञो 'ति ।" " न तो वही और न अन्य ही -- न च सो न च अञ्ञोति" स्थविर कहते हैं । १. इंडियन फिलासफी, जिल्द पहली, पृष्ठ ३८२ - ९०; कीथ, श्रीमती रायस डेविड्स और विंटरनित्ज की भी कुछ कुछ इसी प्रकार की मान्यता है, देखिये विटरनित्ज़ : इंडियन लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ १७८, पद-संकेत I २. दर्शन दिग्दर्शन, पृष्ठ ५३१-५३२ । Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४८५ ) राजा की समझ में यह उत्तर नहीं आता । स्थविर उदाहरण देकर समझाते हैं कि जब पुरुष बच्चा होता है और जब वह तरुण युवा होता है, तब क्या वह बालक और युवा एक ही होता है ? नहीं ऐसा नहीं होता। बालक अन्य होता है और वह तरुण युवा अन्य होता है। किन्तु यदि यही मान लिया जाय कि वालक अन्य होता है और तरुण अन्य होता है तो फिर न कोई किसी की माता रहेगी, न कोई किसी का पिता रहेगा, न आचार्य रहेगा . . . . . . . . ! फिर तो ऐसी ही प्रतीति होगी कि यह गर्भ की प्रथम अवस्था की माता है, यह दूसरी अवस्था की माता है, यह तीसरी अवस्था की, जो सब आपस में भिन्न भिन्न हैं, अन्य से अन्य हो गये हैं। क्या एक ही व्यक्ति के बालकपन की माँ भिन्न है उसकी युवावस्था की माँ से ? अञा खुद्दकस्स माता अआ महन्तस्स माता ! विद्यार्थी जब पाठशाला में पढ़ने जाता है तब क्या वह अन्य ही हैं ? और जब वह विद्याध्ययन समाप्त करता है अन्य ही है ? 'असो सिप्पं सिक्खति अञो सिक्खितो भवति-- अन्य ही शिल्प सीखता है, अन्य ही शिक्षित होता है ? अन्य ही पाप करता है और अन्य के ही अपराध-स्वरूप हाथ-पैर काटे जाते है ? राजा घबड़ा जाता है क्योंकि वह पहले स्वयं ही स्वीकार कर चुका है कि वालक अन्य होता है और तरुण अन्य । अतः कुछ समझ नहीं सकता कि उसे क्या कहना चाहिए । विवंश होकर वह भदन्त नागसेन से कहता है “भन्ते ! आप ही मुझे बताइये कि क्या बात है? त्वं पन भन्ते एवं वुत्ते कि वदेय्यासीति । भन्ते ! ऐसा पूछने पर आप स्वयं क्या कहेंगे ? स्थविर उसे समझाते हैं कि “धर्मों के लगातार प्रवाह से, उनके संघात रूप में आजाने मे, एक उत्पन्न होता है, दूसरा निरुद्ध होता है, और यह सब ऐसे होता है जैसे मानो युगपत्, एक-साथ हो। इसलिए न तो सर्वथा उसी की तरह और न सर्वथा अन्य की तरह, वह जीवन की अन्तिम चेतनावस्था पर आता है।"१ फिर भी मिलिन्द पूरी तरह सन्तुष्ट नहीं हो पाता और वह पूछता है १. एवमेवं खो महाराज धम्मसति सन्दहति, अञो उप्पज्जति, अञो निसन्झति, अपुब्बं अचरिमं विय सन्दहति, तेन न च सो न च अओ पुरिस Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४८६ ) " भन्ते नागसेन ! पर क्या है वह जो जन्म ग्रहण करता है ? भन्ते नागसेन को पटिसन्दहति ? "हे महाराज ! नाम-रूप जन्म ग्रहण करता है । नाम-रूपं खो महाराज पटिसन्दहति ।" "क्या यही नाम रूप जन्म ग्रहण करता है ?" "महाराज ! यह नाम-रूप जन्म ग्रहण नहीं करता, किन्तु इस नाम रूप के द्वारा जो शुभ या अशुभ कर्म किये जाते हैं और उन कर्मों के द्वारा जो अन्य नाम रूप उत्पन्न होता है, वही जन्म ग्रहण करता है, ।” २ आगे समझाते हुए स्थविर कहते हैं "हे राजन् ! मृत्यु के समय जिसका अन्त होता है वह तो एक अन्य नाम-रूप होता है और जो पुनर्जन्म ग्रहण करता है वह एक अन्य होता है । किन्तु द्वितीय ( नाम-रूप ) प्रथम ( नाम - रूप ) में से ही निकलता है 3. . अतः हे राजन् ! धर्म - सन्तति ही संसरण करती है, जन्म ग्रहण करती है - एवमेव खो महाराज धम्मसन्तति सन्दहति । " इस प्रकार भदन्त नागसेन ने अनात्मवाद के साथ पुनर्जन्मवाद की संगति मिलाने का प्रयत्न किया है, जो बौद्ध दर्शन की दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है । द्वितीय परिच्छेद ( लक्खण पञ्हो) की मुख्य विषय-वस्तु इतनी ही है । तृतीय परिच्छेद ( विमतिच्छेदन पञ्हो) में राजा के सन्देहों (विमति ) का, जो उसे अनेक छोटे छोटे विषयों पर हुए थे, भदन्त नागसेन द्वारा निवारण किया गया है । इस प्रकार के अनेक सन्देहों कां इस परिच्छेद में विवरण किया गया है, जिनमें से कुछ का ही निदर्शन यहाँ किया जा सकता है । उदा विञ्ञाणे पच्छिमविञ्ञाणं संगहं गच्छतीति । मिलिन्दपञ्हो, लक्खणपञ्हो, पृष्ठ ४२ (बम्बई विश्वविद्यालय का संस्करण ) १. नाम अर्थात् सूक्ष्म चित्त और चेततिक धर्म । रूप अर्थात् चार महाभूत और उनका विकार । २. न खो महाराज इमं येव नामरूपं पटिसन्दिहति । इमिना पन महाराज नामरूपेन कम्मं करोति सोभनं वा पापकं वा तेन कम्मेन अञ्ञं नामरूपं पटिसन्दहतीति ३. एवमेव खो महाराज किञ्चापि अञ्ञ मरणान्तिकं नामरूपं अयं पटिसन्धिस्मिं नामरूपं अपि च ततो येव तं निब्बत्तं ति । Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४८७ ) हरणतः मिलिन्द पूछता है “भन्ते नागसेन ! क्या सभी लोग निर्वाण प्राप्त कर लेते हैं (भन्ते नागसेन सब्बेब लभन्ति निब्बाणंति ) ? भन्ते नागसेन ! क्या बुद्ध अनुत्तर हैं ? 'भन्ते नागसेन ! क्या बुद्ध सर्वश, सर्वदर्शी है ?' 'क्या वृद्ध ब्रह्मचारी हैं ? ' ' क्या उपसंपदा ( भिक्षु-संस्कार ) ठीक ( सुन्दर ) है ? 'भन्ते नागसेन ! कितने आकारों से स्मृति उत्पन्न होती है ? ' भन्ते नागमेन ! आप कहते हैं श्वास-प्रश्वास का निरोध किया जा सकता है । कैसे भन्ने ? " " भन्ते नागसेन ! भगवान् ने क्या कार्य अत्यंत दुष्कर किया है ?" आदि, आदि । भदन्त नागसेन ने इन सब प्रश्नों और सन्देहों का अत्यंत मनोरम शैली में उत्तर दिया है । प्रश्नकर्ता और उत्तरदाता दोनों ही अपने अपने प्रश्नो तरों से अन्त में संतुष्ट दिखाई पड़ते हैं । राजा मिलिन्द को ऐसा लगता है "जो सब मैने पूछा, सबका भदन्त नागसेन ने मुझे उत्तर दिया (सब्बं मया पुच्छितं ति सब्बं भदन्तेन नागसेनेन विस्सज्जितं ति । भदन्त नागसेन को भी ऐसा होता है " जो सब राजा मिलिन्द ने मुझमे पूछा उस सब का मैंने उत्तर दे दिया (सब्बं मिलिन्देन रज्ञा पुच्छितं सब्बं मया विस्सज्जितंति ।" उठकर भिक्षु संघाराम में चले गये । राजा मिलिन्द भी अपने साथियो के साथ लौट गया । यह तीसरे परिच्छेद की विषय-वस्तु का संक्षेप है | 1 कुछ दिन बाद राजा मिलिन्द फिर भदन्त नागसेन के दर्शनार्थ आता है । इस बार वह उन विरोधों को भदन्त नागमेन के सामने रखता है जो उसे तेपिटक बुद्ध वचनों के अन्दर मालूम पड़े हैं । मिलिन्द ने मननपूर्वक एक बुद्धिवाद की तरह त्रिपिटक के विभिन्न ग्रन्थों को पढ़ा है । उसे उनके अन्दर अनेक पारस्परिक विरोधी बातें दिखाई पड़ी हैं । इन्हें वह भदन्त नागसेन के सामने एक-एक करके रख देता है । भदन्त नागमेन उनका उत्तर देते हैं । 'मिलिन्द - पह' का चौथा परिच्छेद, जो इस ग्रन्थ का सबसे लम्बा परिच्छेद है, इन्हीं संबंधी प्रश्नोत्तरों का विवरण है । ऊपर से विरोधी दिखाई देने वाले त्रिपिटक के विभिन्न विवरणों या बुद्ध वचनों के विरोध का परिहार और उनमें समन्वय स्थापन, यही इस परिच्छेद का लक्ष्य है, जो त्रिपिटक के विद्यार्थियों के लिए मदा महत्वपूर्ण रहेगा । इस प्रकरण में राजा मिलिन्द ने जो प्रश्न पूछे हैं या सुलझाने के लिए विरोधी वाक्य रक्खे हैं, वे इतने नाना Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४८८ ) प्रकार के हैं कि उनका संक्षेप देना बड़ा कठिन है । केवल कुछ उदाहरण देकर हम उनके स्वरूप और शैली की ओर संकेत भर कर सकेंगे। भदन्त के चरणों में गिर रखकर, हाथ जोड़कर राजा ने कहा, "भन्ते नागसेन, "! भगवान् ने यह कहा “आनन्द ! पाँच सौ वर्ष तक सद्धर्म ठहरेगा।" पुनः जब परिनिर्वाण के समय सुभद्र परिव्राजक ने भगवान् से पूछा तो उन्होंने कहा 'सुभद्र ! यदि भिक्षु ठीक तरह विहार करेंगे तो यह लोक अर्हतों से कभी शून्य नहीं होगा।' यदि भन्ने नागसेन ! तथागत से यह कहा कि सद्धर्म पांच सौ वर्ष ठहरेगा तब तो यह वचन कि यह लोक कभी अर्हनों से शून्य नहीं होगा, मिथ्या ठहरता है। और यदि तथागत ने यह कहा कि यह लोक कभी अर्हतों से शून्य नहीं ठहरेगा, तो फिर यह वचन कि मद्धर्म पाँच सौ वर्ष ठहरेगा, मिथ्या ठहरता है ? भन्ते नागमेन ! यह दोनों ही ओर से कठिनता पैदा करने वाला, गहन मे भी गहनतर, वलवान् से भी बलवत्तर, जटिल से भी जटिलतर, प्रश्न आपकी सेवा में उपस्थित है।” “भन्ते नागसेन ! भगवान् ने यह कहा है 'भिक्षुओ ! मै जानकर ही धर्मोपदेश करता हूँ, बिना जाने नहीं ।' पुनः उन्होंने विनय प्राप्ति के समय यह भी कहा 'आनन्द ! यदि संघ चाहे तो मेरे बाद छोटे-मोटे (क्षुद्रानुभद्र) शिक्षापदों को छोड़ दे । भन्ते नागसेन ! क्या शुद्रानुक्षुद्र शिक्षापद विना जान बूझकर ही दिये हुए उपदेश हैं जो भगवान् ने उन्हें अपने बाद छोड़ देने के लिए कहा । भन्ते नागसेन ! यदि भगवान् का यह कहना ठीक है कि मैं जान बूझकर ही उपदेश करता हूँ, विना जाने-बूझे नहीं, तो भगवान् का यह वचन मिथ्या है 'यदि संघ चाहे तो मेरे बाद क्षुद्रानुक्षुद्र शिक्षापदों को छोड़ दे, और यदि सचमुच ही भगवान् ने यह कहा कि मेरे बाद संघ क्षुद्रनुक्षुद्र गिक्षापदों को छोड़ दे, तो उनका यह कहना मिथ्या है कि मैं जानबूझकर ही उपदेश करता हूँ, बिना जाने बुझे नहीं'। यह भी दोनों ओर से कठिनता पैदा करने वाला सूक्ष्म, निपुण, गंभीर और उलझन पैदा करने वाला प्रश्न है जो आपकी सेवा में उपस्थित है । आप मुझे समझावें ।” “भन्ते नागसेन ! भगवान् ने कहा है 'तथागत को धर्मों में आचार्य-मुष्टि (न बताने योग्य बात) नहीं है ।' किन्तु जब मालुक्यपृत्त ने उनसे प्रश्न पूछा तो भगवान् ने उसकी व्याख्या नहीं की, उसे नहीं Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४८९ > बताया । क्या भगवान् जानते नहीं थे, इसलिए नहीं बताया, या भगवान् को वह रहस्य ही रखना था, इसलिए नहीं बताया । भन्ते नागसेन ! यदि भगवान् ने यह ठीक ही कहा था कि तथागत को रहस्य रखना नहीं है तो फिर क्या उन्होंने न जानने के कारण ही ( अजानन्तेन ) ही उसे नहीं बताया । यदि जानने पर भी नहीं बताया, तब तो फिर तथागत की आचार्य -मुष्टि ( रहस्य - रखना ) है ही । यह भी दोनों ओर कठिनता पैदा करने वाला प्रश्न आपकी सेवा में उपस्थित है । " भन्ते नागसेन ! आप कहते हैं कि तथागत को भोजन, वस्त्र, निवास स्थान, पथ्य - औषधादि सामग्री सदा मिल जाती थी | फिर आप कहते हैं एक बार पञ्चशाल नामक ब्राह्मण-ग्राम में से भगवान् विना भिक्षा प्राप्त किये ही धुले-धुलाये भिक्षापात्र को लेकर लौट आये । . भन्ने नागसेन यह भी दोनों ओर कठिनता पैदा करनेवाला प्रश्न आपकी सेवा में उपस्थित है।” भन्ते नागसेन ! भगवान् ने यह कहा 'आनन्द ! तुम तथागत के शरीर की पूजा की चिन्ता मत करो।' पुनः उन्होंने यह भी कहा 'पूजनीय पुरुष की धातुओं की पूजा करो' . . दोनों ओर कठिनता पैदा करने वाला प्रश्न आपकी सेवा में उपस्थित है ।” “भन्ते नागमेन ! भगवान् ने यह कहा है 'भिक्षुओ ! पूर्ण पुरुष, तथागत् भगवान् सम्यक सम्बुद्ध नवीन मार्ग का उद्घावन करने वाले हैं ।' पुनः एक दूसरी जगह उन्होंने यह भी कहा है, 'भिक्षुओ ! जिस प्राचीन मार्ग पर पूर्वकाल में ज्ञानी पुरुष चले, उसी का हो मैंने दर्शन प्राप्त किया है ।' . यह दोनों ओर कठिनता पैदा करनेवाला प्रश्न आपकी सेवा में उपस्थित हैं इस प्रकार के अनेक विरोधाभासमय प्रश्न राजा मिलिन्द ने भदन्त नागसेन के सामने रखे हैं, जिनका उन्होंने अपनी अद्भुत शैली में उत्तर दिया है । प्रत्येक वौद्ध दर्शन के विद्यार्थी के लिए उनका पढ़ना अनिवार्य है । साहित्य की दृष्टि से भी वे अपने महत्व में अद्वितीय है । 1 'मिलिन्द पञ्ह' के पाँचवे परिच्छेद का नाम है 'अनुमान पञ्हो' (अनुमान प्रश्न ) | एक बार फिर मिलिन्द राजा भदन्त नागसेन के दर्शनार्थ जाता है । वह उनसे पूछता है “भन्ते नागसेन ! क्या आपने बुद्ध को देखा है ( कि पनवृद्धो तया दिट्ठोति ) " नहीं महाराज" ( नहि महाराजाति) “क्या आपके Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४९० ) आचायों ने बुद्ध को देखा है (किं पन ते आचरियेहि बुद्धो दिट्ठोति)" "नहीं महाराज !” “भन्ते नागसेन ! यदि आपने भी वुद्ध को नहीं देखा, आपके आचार्यों ने भी बुद्ध को नहीं देखा, तो भन्ते ! मैं समझता हूँ बुद्ध हैं ही नहीं, बुद्ध का कुछ पता ही नहीं ।” यदि किसी आधुनिक विद्वान् के सामने यह प्रश्न रक्खा जाता तो वह उन ऐतिहासिक कारणों का उल्लेख करता जिनके आधार पर बुद्ध का अस्तित्व प्रमाणित किया जाता है। किन्तु नागसेन कालवादी नहीं है । वे धर्मवादी है । उनके लिए बुद्ध का धर्म ही बुद्ध के अस्तित्व को प्रमाणित करने के लिए पर्याप्त है । 'धम्म' के अस्तित्व से ही बुद्ध के अस्तित्व का अनुमान कर लेना चाहिए, यही इस संपूर्ण परिच्छेद की मूल ध्वनि है। "महाराज ! उन भगवान् सम्यक् सम्बुद्ध द्वारा प्रयुक्त ये वस्तुएँ जैसे कि चार स्मृति-प्रस्थान, चारं सम्यक्-प्रधान, चार ऋद्धिपाद, पाँच इन्द्रिय, पाँच बल, सात बोध्यंग और आर्य अष्टांगिक मार्ग अभी विद्यमान हैं । उनको देखकर ही पता लगा लेना चाहिए कि भगवान् बुद्ध अवश्य हुए हैं।” “बहुत जनों को तारकर उपाधि (आवागमनकारण) के मिट जाने से भगवान् निर्वाण को प्राप्त कर चुके । इस अनुमान मे ही जान लेना चाहिए कि वे पुरुषोत्तम हुए हैं ।” “संसार के मनुष्य और देवताओं ने धर्मामृत को प्राप्त किया है, यही देखकर पता लगा लेना चाहिए कि धर्म की बड़ी लहर अवश्य बही होगी।" "उत्तम गन्ध की महक पाकर लोग पता लगा लेते हैं कि जैसी गन्ध बह रही है उससे मालूम होता है कि फूल पुष्पित अवश्य हुए होंगे। वैसे ही यह शील की गन्ध जो देवताओं और मनुष्यों में बह रही है, इसी से समझ लेना चाहिए कि लोकोत्तर बुद्ध अवश्य हुए होंगे “आदि, आदि । इसी प्रसंग में 'धम्म-नगर' (धम्म रूपी नगर) के सुन्दर सांगोपांग रूपक का भी वर्णन किया गया है । छठे परिच्छेद में फिर राजा मिलिन्द भदन्त नागसेन के पास जाता है और इस बार वह उनमे फिर एक महत्वपूर्ण प्रश्न पूछता है “भन्ते नागसेन ! क्या कोई गृहस्थ बिना घर को छोड़े, विषय का भोग करते हुए, स्त्री-पुत्रादि से घिरा हुआ, माला-गन्ध-विलेपन को धारण करता हुआ, मोने-चांदी का आस्वादन लेता हुआ. . . . शान्त, निर्वाणपद को साक्षात्कार कर सकता Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४९१ ) है ?" इसी के उत्तर में आगे बढ़ते बढ़ते भदन्त नागसेन १३ अवधूत नियमों (धुतंग) के विवेचन पर आ जाते हैं । इस परिच्छेद का नाम ही 'धुतङ्ग कथा' अर्थात् 'अवधूत-व्रतों का विवरण' है । वास्तव में 'मिलिन्द-पञ्ह' की विषय. वस्तु की अपेक्षा यह 'विसुद्धि-मग्ग' (द्वितीय परिच्छेद) की विषय-वस्तु का अधिक अभिन्न अंग है । अतः इन अवधूत-ब्रतों अधिक विवरण न देकर यहाँ उनके नाम निर्देश कर देना ही आवश्यक होगा । अवधूत-व्रतों की संख्या १३ है, जो इस प्रकार है- (१)पांशुकूलिक (फटे-पुराने वस्त्रों को साफ कर उनसे सीये हुए वस्त्र पहनने का नियम (पंसुकूलिकंग) (२) तीन चीवर (भिक्षु-वस्त्र) पहनने का नियम (ते चीवरिकंग) (३) भिक्षान्न मात्र पर ही निर्वाह करने का नियम (पिण्डपातिकंग) (४) एक घर से दूसरे घर, बिना किसी घर को छोड़े हुए, भिक्षा माँगने का नियम (सपदानचारिकंग) (५) भोजन के लिए दूसरी बार न बैठने का नियम (एकासनिकंग), (६) केवल एक भिक्षापात्र में जितना भोजन आ जाय उतना ही भोजन करने का नियम (पत्तपिंडिकंग) (७) एक बार भोजन समाप्त कर लेने पर फिर कछ न खाने का नियम (खलपच्छाभत्ति कंग) (८) वनवासी होने का नियम (आरञिकंग) (९) वृक्ष के नीचे रहने का नियम (रुक्खमूलिकंग) (१०) खुले आकाश के नीचे रहने का नियम (अब्भोकासिकंग) (११) श्मशान में वास करने का नियम (सोसानिकंग) (१२) यथाप्राप्त निवास स्थान में रहने का नियम (यथासन्थतिकंग) और (१३) न लेटने का नियम (नेसज्जिकंग) । ___ सातवें परिच्छेद (ओपम्मकथापञ्ह) में उपमाओं के द्वारा यह बताया गया है कि अर्हत्त्व को साक्षात्कार करने की इच्छा करने वाले व्यवित को किस प्रकार नाना गुणों का सम्पादन करना चाहिये । किस प्रकार उसे कछुए के पाँच गुण ग्रहण करने चाहिये, कौए के दो गुण ग्रहण करने चाहिये, हिरन के तीन गुण ग्रहण करने चाहिये, आदि,आदि । संवाद के आरम्भ से लेकर अन्त तक भदन्त नागसेन के गौरव की रक्षा की गई है। आरम्भ से ही उन्होने राजा मे तय कर लिया है कि संवाद 'पंडितवाद' के ढंग से होगा, 'राजवाद' के ढंग से नहीं। राजा सदा उनसे नीचे आमन पर बैठता है। प्रथम बार ही उनके उत्तर से सन्तुष्ट होकर वह उनका भक्त बन जाता है। वह उनके पैरों में अपने सिर को रख देता है और विनम्रता पूर्वक ही Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४९२ ) प्रत्येक प्रश्न को पूछता है । अन्त में तो, जैसा हम पहले देख चुके हैं, वह उनका उपासक ही बन जाता है, और बुद्ध की, धम्म की और संघ की शरण जाता है, जो इतिहास के साक्ष्य के द्वारा भी प्रमाणित है। 'मिलिन्द पञ्ह' दार्शनिक और धार्मिक दृष्टि से तो एक महाग्रंथ है ही । साहित्यिक और ऐतिहासिक महत्त्व भी उसका अल्प नहीं है। यद्यपि स्थविरवाद बौद्ध धर्म का वह कण्ठहार है, जिसकी प्रतिष्ठा वहाँ बुद्ध-वचनों के समान ही मान्य है, वह भारतीय साहित्य की भी अमूल्य निधि है । यद्यपि लंका, बरमा और म्याम के समान भारत में उसकी आधुनिक लोक-भाषाओं में 'मिलिन्द पञ्ह संबंधी प्रचुर साहित्य नही लिखा गया, किन्तु इस कारण उसे उस गौरव से, जो 'मिलिन्द पञ्ह' ने भारतीय साहित्य को दिया है, वंचित कर देना ठीक नहीं होगा। 'मिलिन्द पञ्ह' प्रथम शताब्दी ईसवी पूर्व की प्रभावशाली भारतीय गद्य-शैली का मानम नमूना है। विवेचनात्मक विषयों के लिए उपयुक्त हिन्दी की गद्य शैली का ती विकास हमारे माहित्य में अभी हुआ है। अंग्रेजी साहित्य की भी इस संबंधी परम्परा १००-२०० वर्ष से पहले नहीं जाती। बाण और दंडी का गद्य भी निश्चय ही इसके लिए उपयुक्त नहीं था। इस दृष्टि से 'मिलिन्द पह' की विचारात्मक गद्य-बद्ध शैली कितनी महत्वपूर्ण है, इसका सम्यक् अन्मापन ही नहीं किया जा सकता । लेखक का शब्दाधिकार और उसकी शैली की प्रवाहगीलता, उसका ओजमय शब्दचयन, प्रभावशाली कथन-प्रकार, उपमाओं और यक्तियों के द्वारा उसका स्वाभाविक अलंकार-विधान, सवसे बढ़कर उसकी सरलता और प्रसादगुण, ये सब गुण उसे साहित्यिक गद्य के निर्माताओं की उस श्रेणी में बैठा देते है, जहाँ उसका तेज सर्वोपरि है ।' प्राचीन भारतीय गद्य-साहित्य में 'मिलिन्द पह' के समान कोई रचना न पाकर ही १. पुण्य श्लोक डा० रायस डेविड्स 'मिलिन्द पञ्ह' की गद्य शैली के बड़े प्रशंसक थे। देखिये उनके मिलिन्दपञ्ह के अंग्रेजी अनुवाद, (दि क्विशन्स ऑफ किंग मिलिन्द, सेक्रेडनुकस ऑफ दि ईस्ट, जिल्द ३५ वीं का भूमिकांश तथा एन्साइ क्लोपेडिया ऑव रिलिजन एंड एथिक्स जिल्द ८, पृष्ठ ६३१; मिलाइये विटरनित्ता : इंडियन लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पष्ठ १७६ । Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४९३ ) संभवतः कुछ पाश्चात्य विद्वानों ने यह अनुमान लगा लिया है कि 'मिलिन्द पञ्ह' की शैली पर ग्रीक प्रभाव उपलक्षित है। यह एक बड़ा भ्रम है। भारतीय पगधीनता के युग में अधिकांश पश्चिमी विद्वान यह विश्वास ही नहीं कर सकते थे कि भारत ने भी विश्व-संस्कृति को कुछ मौलिक योग-दान दिया है । इसी कारण उन्होंने अनेक प्राचीन भारतीय विशेषतापूर्ण बातो पर भी पश्चिमी प्रभाव की कल्पना कर ली है । अफलात के संवादों के प्रभाव को मिलिन्द पञ्ह की गेली पर बताने के समान और कोई निरर्थक बात नहीं कही जा सकती ! पहले तो ग्रीक भाषा और विचार मे नागसेन के परिचित होने का साक्ष्य नहीं दिया जा सकता, फिर जब उनके सामने प्राचीन उपनिषदो और स्वयं बुद्ध-वचनों के रूप में गम्भीर संवादों की परम्परा प्रस्तुत थी, तो वे उसे छोड़कर विदेश से उसे ग्रहण करने क्यों जाते ? वह समय तो भारतीय संस्कृति के गौन्व का या और हम समझते हैं भारतीय ज्ञान का वह गौरव ही 'मिलिन्द पन्ह' में प्रतिध्वनित हुआ है, जिसमे नमित होकर ही बुद्धिवादी मिलिन्द राजा बुद्धधर्म में उपासकत्व ग्रहण करता है । यह भारतीय ज्ञान की महान् विजय का द्योतक है--उस ग्रीक ज्ञान पर जिसकी पाश्चात्य जगत् बड़ी दम भरता है और जिनमे ही उसने अपना सारा ज्ञान वास्तव में प्राप्त भी किया है । 'मिलिन्दपह उन ज्ञान-विजय अथवा धम्म-विजय का स्मारक और परिचायक है, जिसे भारत ने उम समय के, अपने अलावा, सबसे अधिक ज्ञान-संपन्न देश पर प्राप्त किया था। इस दष्टि से वह भारतीय वाङ्मय के अमर रत्नों में से एक है । जहाँ नक 'मिलिन्द पञ्ह' की शैली के स्रोतों या उसकी प्रेरणा का सवाल है, वह निश्चय ही तेपटिक वुद्ध-वचनों में ही निहित है । दीघ-निकाय के 'पायासि-नुन' जैसे मुनों की जीवित संवाद-शैली उसकी प्रेरणा-स्वरूप मानी जा सकती है । 'कथावत्थु' के अप्रतिम आचार्य मोग्गलिपुत्त तिस्स के भी भदन्त नागसेन कम ऋणी नहीं है । यद्यपि इन दोनों ग्रन्थों का तुलनात्मक अध्ययन हम यहाँ विस्तार-भय के कारण नहीं कर सकते, किन्तु यह तो निश्चित ही है कि मोग्गलिपुत्त के समाधानों पर ही नागसेन के अधिकांश 'प्रश्न-व्याकरण' (प्रश्नों के उत्तर.) आधारित हैं और जिस मन्तव्य को वहाँ 'स्थविरवाद के रूप में अपनाया गया है, वही मन्तव्य ‘मिलिन्द पञ्ह' कार का भी है । यद्यपि Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४९४ । उपनिषदों की शैली का कोई स्पष्ट प्रभाव 'मिलिन्द पह' पर उपलक्षित नहीं होता, किन्तु इममें सन्देह नहीं कि श्वेतकेतु आरुणेय और प्रवाहण जैवलि (जिनके संवाद छान्दोग्य. ११८।३ और बृहदारण्यक ६।२।१ में आते है), आरुणि और याजवल्क्य (जिनके संवाद बृहदारण्यक ३।७।१ में आते है), आरुणि और श्वेतकेतु (छान्दोग्य (११), आदि अनेक ऋषियों के संवाद अपनी विचित्र विशेषता रखते हुए भी मिलिन्द और नागसेन के प्रभावशाली संवादों में अपनी पूर्णता प्राप्त करते हैं । इतिहास की दृष्टि से, विशेषत: पालि साहित्य के इतिहास की दृष्टि से, 'मिलिन्द पन्ह' का यह महत्व है कि उसमें पालि त्रिपिटक के नाना ग्रन्थों के नाम दे देकर, पाँच निकायों, अभिधम्म पिटक के सात ग्रन्थों, और उनके भिन्न भिन्न अंगों के निर्देशपूर्वक अनेक अंश उद्धृत किये गये हैं, जिनमे यह स्पष्ट प्रमाणित होता है कि पालि त्रिपिटक प्रथम शताब्दी ईसवी पूर्व अपने उमी नाम-रूप में विद्यमान था, जिसमें वह आज है। इस प्रकार 'मिलिन्द पञ्ह' का साध्य अशोक के अभिलेखों द्वारा प्रदत्त साध्य का समर्थन करता है । 'मिलिन्द पञ्ह' में अनेक स्थानों के वर्णन है, जैसे अलसन्द (अलेक्जेन्डिया) यवन (यूनान, बैक्ट्रिया) भरुकच्छ, (भडौंच) चीन (चीन-देश), गान्धार, कलिंग, कजंगला, कोसल, मधुरा (मथुरा) सागल. साकेत, सौराष्ट्र (मोरट्ठ) वाराणसी, वंग, तक्कोल, उज्जेनी, आदि । इनमे तत्कालीन भारतीय भूगोल पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। सारांश यह कि धर्म, दर्शन, माहित्य, इतिहास, भूगोल, सभी दृष्टियों से 'मिलिन्द पह' का भारतीय वाङ्मय के इतिहास में एक महत्वपूर्ण स्थान है और पालि अनुपिटक-साहित्य में तो उसके समान महत्वपूर्ण कोई दूसरा स्वतन्त्र ग्रन्थ है ही नहीं, यह तो निर्विवाद ही है। अन्य साहित्य पालि त्रिपिटक के संकलन और अट्ठकथा-साहित्य के प्रणयन के बीच के युग में उपर्य क्त तीन ग्रन्थों (नेत्तिपकरण, पेटकोपदेस, मिलिन्दपन्ह) १. देखिये रायस डेविड्स : दि क्विशन्स ऑव किंग मिलिन्द (मिलिन्दपञ्ह का अंग्रेजी अनुवाद), सेक्रेड बुक्स ऑव दि ईस्ट, जिल्द ३५वीं, पृष्ठ १४ (भमिका) Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४९५ ) के अतिरिक्त एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ (दीपवंस) भी है । यह भी प्राग्बुद्धघोप-- कालीन पालि साहित्य की एक प्रमुख रचना है । 'वंश-साहित्य' का विवरण देते समय हम इस महत्वपूर्ण ग्रन्थ का परिचय देंगे । इसी प्रकार सिंहली अट्ठकथाएँ और पुराणाचार्यों (पोराणाचरिय) के ग्रन्थ आदि भी इन शताब्दियों में लिखे गये, जिनका विवरण अट्ठकथा-साहित्य के प्रकरण में ही दिया जायगा। इसी युग के साहित्य के रूप में गायगर ने 'सुत्त संगह' की भी चर्चा की है, जो किसी अज्ञात लेखक के द्वारा किया हुआ सुत्तों का संग्रह है और 'विमानवत्थु' आदि के समान अल्प महत्व की रचना है। बरमी परम्परा इसे 'खुद्दक-निकाय' के अन्तर्गत मानती है, किन्तु इसके प्रणेता या प्रणयन-काल के विषय में कुछ ज्ञात नहीं है। Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवाँ अध्याय बुद्धघोष - युग ( ४०० ई० से ११०० ई० तक ) अर्थ कथा - साहित्य का उद्धव और विकास गया, बौद्ध अनुश्रुति के अनुसार स्थविर महेन्द्र और उनके साथी भिक्षु पालित्रिपिटक के साथ-साथ उसकी 'अट्ठकथा' को भी अपने साथ लंका में ले गये । यह निश्चित है कि जिस रूप में यह 'अट्ठकथा' लंका में ले जाई गई होगी वह पालि-त्रिपिटक के समान मौखिक ही रहा होगा । प्रथम शताब्दी ईसवी पूर्व जत्र लंकाधिपति वट्टगामणि अभय के समय में पालि - त्रिपिटक लेख-बद्ध किया तो उसकी उपर्युक्त 'अट्ठकथा' के भी लेखबद्ध होने की कोई सूचना हम नहीं पाने । अतः महेन्द्र द्वारा लंका में पालि- त्रिपिटक की 'अट्ठकथा' भी ले जाये जाने का कोई ऐतिहासिक आधार हमें नहीं मिलता । उन अट्ठकथाओं का कोई अंग आज किसी रूप में सुरक्षित नहीं है । हाँ, एक दूसरी प्रकार की 'अट्ठकथाओं' के अस्तित्व का साक्ष्य हम सिंहल के इतिहास में अत्यन्त प्रारम्भिक काल से ही पाते हैं । ये प्राचीन सिंहली भाषा में लिखी हुई अट्ठकथाएं हैं | जैसा हम आगे अभी इसी प्रकरण में देखेंगे, आचार्य बुद्धघोष इन्हीं प्राचीन मिहली अट्ठकथाओं का पालि रूपान्तर करने के लिये लंका गये थे । चौथी पाँचवीं शताब्दी ईसवी में केवल बुद्धघोष, बुद्धदत्त और धम्मपाल आदि के द्वारा रचित विस्तृत अट्टकथा-साहित्य, बल्कि प्राग्बुद्धघोषकालीन लंका का इतिहास ग्रन्थ 'दीपवंस' और बाद में उसी के आधार - स्वरूप रचित 'महावंस' भी अपनी विषय-वस्तु मूल आधार और स्रोतों के लिये इन्हीं प्राचीन सिंहली अट्टकथाओं के ऋणी हूँ | महावंस-टीका (६३।५४९-५५० ) के आधार पर गायगर ने यह सिद्ध करने का न क़े १. देखिये समन्तपासादिका की बहिरनिदानवण्णना । Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४९७ ) प्रयत्न किया है कि ये प्राचीन सिंहली अट्ठकथाएँ बारहवीं शताब्दी ईसवी तक प्राप्त थीं । आज इनका कोई अंश सुरक्षित नहीं है । जैसा अभी कहा गया, बुद्धघोष महास्थविर प्राचीन सिंहली अट्ठकथाओं का पालि रूपान्तर करने के लिये ही लंका गये थे । उन्होंने अपनी विभिन्न अट्ठकथाओं में जिन प्राचीन सिंहली अट्ठकथाओं का निर्देश किया है, या उनसे उद्धरण दिये हैं, उनमें ये मुख्य है ( १ ) महा- अट्ठकथा ( २ ) महा - पच्चरी या महापच्चरिय (३) कुरुन्दी या कुरुन्दिय ( ४ ) अन्धट्ठकथा ( ५ ) संखेप-अट्ठकथा ( ६ ) आगमट्ठकथा ( ७ ) आचरियानं समानट्ठकथा । दीघ, मज्झिम, संयुक्त और अंगुत्तर, इन चारों निकायों की अपनी 'अट्ठकथाओं' के अन्त में आचार्य बुद्धघोष ने अलग अलग कहा है “सा हि महा-अट्कथाय सारमादाय निट्ठिता एसा " अर्थात् " इसे मैंने महा- अट्ठकथा के सार को लेकर पूरा किया है" । इससे निश्चित है कि बुद्धघोष - कृत 'सुमंगल विलासिनी' 'पपंचसूदनी' 'सारत्थ पकासिनी' और 'मनोरथपूरणी' ( क्रमशः दीघ, मज्झिम, संयुत्त और अंगुत्तर निकायों की अट्ठकथाएँ) प्राचीन सिंहली अट्ठकथा जिसका नाम 'महा अट्ठकथा' था, पर आधारित हैं । उपर्युक्त कथन के साक्ष्य पर 'सद्धम्म संगह' ( १४वीं शताब्दी) का यह कहना कि 'महा - अट्ठकथा' सुत्तपिटक की अट्ठकथा थी, ' ठीक मालूम पड़ता है । इसी प्रकार 'सद्धम्म संगह' के अनुसार 'महापच्चरी' और 'कुरुन्दी' क्रमशः अभिधम्म और विनय की अट्ठकथाएँ थीं । २ 'कुरुन्दी' 'विनय-पिटक' की ही अट्ठकथा थी, इसे आचार्य बुद्धघोष की अट्ठकथाओं से पूरा समर्थन प्राप्त नहीं होता, क्योंकि विनय-पिटक की अट्ठकथा ( समन्तपासादिका) के आरम्भ में उन्होंने अपनी इस अट्ठकथा के मुख्य आधार के रूप में 'कुरुन्दी' का उल्लेख नहीं किया है । वहाँ उन्होंने केवल यह कहा है कि ये तीनों अट्ठकथाएँ ( महाअट्ठकथा, महापच्चरी, एवं कुरुन्दी ) प्राचीन अट्ठकथाएँ थीं और सिंहली भाषा में लिखी गईं थीं । ‘गन्धवंस' में भी उपर्युक्त तीनों अट्ठकथाओं का उल्लेख किया गया है । वहाँ 'महा-अट्ठकथा' (सुत्तपिटक की अट्ठकथा ) को इन सब में प्रधान १, २. सद्धम्म संगह, पृष्ठ ५५ ( जर्नल ऑव पालि टैक्स्ट सोसायटी १८९० में प्रकाशित संस्करण) ३२ Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४९८ ) बताया गया है और उसे पुराणाचार्यों (पोराणाचरिया) की रचना बतलाया गया है, जब कि अन्य दो अट्ठकथाओं को ग्रन्थाचार्यो (गन्धाचरिया) की रचनाएं बतलाया गया है । इससे स्पष्ट कि 'गन्धवंस' के अनुसार 'महा-अट्ठकथा' की प्राचीनता और प्रामाणिकता अन्य दो की अपेक्षा अधिक थी। 'अन्धट्ठकथा और 'संखेपट्ठकथा' तथा इनके साथ साथ 'चूलपच्चरी' और 'पण्णवार' नाम की प्राचीन सिंहली अट्ठकथाओं का उल्लेख 'समन्तपासादिका' की दो टीकाओं 'वजिरवुद्धि' और 'सारत्थदीपनी' में भी किया गया है २ । किन्तु इनके विषय में भी हमारी कोई विशेष जानकारी नहीं है । 'आचरियानं समानकथा' जिसका उल्लेख बुद्धघोष ने 'अट्ठसालिनी' के आदि में किया है, किसी विशेष अट्ठकथा का नाम न होकर केवल अनेक अट्ठकथाओं के समान सिद्धान्तों का सूचक है, यही मानना अधिक समीचीन जान पड़ता है। 'आगमट्ठ-कथा', जिसका उल्लेख आचार्य बुद्धघोष ने 'अट्ठसालिनी' और 'समन्तपासादिका' दोनों के आदि में किया है, सम्पूर्ण आगमों या निकायों की एक सामान्य अट्ठकथा ही रही होगी। कुछ भी हो, बुद्धघोष ने जिन प्राचीन सिंहली अट्ठकथाओं का उल्लेख किया है, वे किन्हीं लेखकों की व्यक्तिगत रचनाएँ न होकर महाविहार-वासी भिक्षुओं की परम्पराप्राप्त कृतियाँ थीं जो उनकी सामान्य सम्पत्ति के रूप में चली आ रही थीं। आचार्य बुद्धघोष ने इन महाविहारवासी भिक्षुओं की आदेशना-विधि को लेकर ही अपनी समस्त अट्ठकथाएँ और 'विसुद्धिमग्ग' लिखे, यह उन्होंने सब जगह स्पष्ट कर दिया है । 'विसुद्धि-मन्ग' के साक्ष्य का हम पीछे विवरण देंगे, अभी केवल 'समन्तपासादिका' और 'अट्ठसालिनी के इस साक्ष्य को देखें "महाविहारवासीनं दीपयन्तो विनिच्छयं अत्थं पकायसयिस्सामि आगमट्ठकथासु पि" १. पृष्ठ ५९ एवं ६८ (जर्नल ऑव पालि टैक्स्ट सोसायटी, १८८६, में प्रकाशित संस्करण) २. देखिये गायगर : इंडियन लिटरेचर एंड लेंग्वेज, पृष्ठ २५ ३. इनके कुछ अनुमानाश्रित विवरण के लिए देखिये लाहा : पालि लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ ३७६; श्रीमती रायस डेविड्स : ए बुद्धिस्ट मेनुअल ऑव साइकोलोजीकल एथिक्स, पृष्ठ २२ (भूमिका) Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४९९ ) आगे वुद्धघोष के जीवन-विवरण से भी यही स्पष्ट होगा कि 'महाविहार' की परम्परा पर आश्रित सिद्धान्तों के अनुसार ही उन्होंने अपने विशाल अट्ठकथा साहित्य की रचना की है। यहाँ यह भी कह देना अप्रासंगिक न होगा कि 'महाविहार' के अलावा 'उत्तर विहार' नामक एक अन्य विहार के भिक्षुओं की परम्परा भी उस समय प्रचलित थी। बुद्धदत्त का 'उत्तरविनिच्छ्य' उसी पर आधारित है। प्राचीन सिंहली अट्ठकथाओं को अपनी रचनाओं का आधार स्वीकार करने के अतिरिक्त आचार्य बद्धघोष ने 'प्राचीन स्थविरों (पोराणकत्थेरा) या 'प्राचीनों' 'पुराने लोगों (पोराणा) के मतों के उद्धरण अनेक बार अपनी अट्ठकथाओं में दिये हैं । ये 'प्राचीन स्थविर' या 'पुराने लोग' कौन थे ? 'गन्धवंस' के मतानुसार प्रथम तीन धर्म-संगीतियों के आचार्य भिक्षु, आर्य महाकात्यायन को छोड़कर, 'पोराणा' या 'पुराने लोग' कहलाते है । सम्भवतः प्राचीन सिंहली अट्ठकथाओं में इन प्राचीन आचार्यों के मतों का उल्लेख था। वहीं से उनका पालि रूपान्तर कर आचार्य बुद्धघोष ने अपनी अट्ठकथाओं में ले लया है । इन 'पोराणों' के उद्धरणों की एक बड़ी विशेषता यह है कि ये प्रायः पद्य-मय है और अनेक उद्धरण जो बुद्धघोष की अट्ठकथाओं में मिलते हैं, बिलकुल उन्हीं शब्दों में 'महावंस' में भी मिलते हैं । इससे इस मान्यता को दृढ़ता मिलती है कि बुद्धघोप की अटकथाएँ और 'महावंस' दोनों के मूल स्रोत और आधार प्राचीन सिंहली अट्ठकथाएँ ही है । 'यथाहु पोराणा' (जैसा पुराने लोगों ने कहा) या 'तेने वे पोराणकत्थेरा' (इसी प्रकार प्राचीन स्थविर) आदि शब्दों से आरम्भ होने वाले इन 'पोराण' आचार्यों के उद्धरणों को बुद्धघोष की अट्ठकथाओं और 'विसद्धिमग्ग' से यदि संग्रह किया जाय और 'दीपवंस' आदि के इसी प्रकार के साक्ष्यों से उसका मिलान किया जाय तो प्राचीन बौद्ध परम्परा सम्बन्धी एक व्यवस्थित १. 'पोराणों के कुछ उद्धरणों के लिए देखिये विमलाचरण लाहा : दि लाइफ एंड वर्क ऑव बुद्ध कोष, पृष्ठ ६५-६७ २. देखिये आगे नवें अध्याय में गन्धवंस को विषय-विस्तु का विवेचन। Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५०० ) और अत्यन्त मूल्यवान् सामग्री हाथ लग सकती है, जिसका ऐतिहासिक महत्त्व भी अल्प न होगा। प्राचीन सिंहली अट्ठकथाओं और पुराने आचार्यों के अतिरिक्त आचार्य बुद्धघोष ने अपने पूर्वगामी सभी स्रोतों से प्रेरणा ग्रहण की है । 'दीपवंस' और 'मिलिन्द पह' तो प्राम्बुद्धघोषकालीन रचनाएँ हैं ही, बुद्ध घोष ने अपनी व्याख्याओं के लिये सब से अधिक मूल्यवान् सामग्री तो बुद्ध और उनके प्रारम्भिक शिष्यों के वचनों के स्वकीय मन्यन से ही प्राप्त की है । इसी में उनकी मौलिकता भी है । चूंकि इसमें उन्हें इतनी अधिक सफलता मिली है, इसीलिये पालि-साहित्य में उनका दान अमर हो गया है । स्वयं त्रिपिटक-साहित्य में ऐसी अमूल्य सामग्री भरी पड़ी है, जिससे बुद्धघोष जैसे अगाध विद्वान् चाहे जितनी सहायता ले सकते थे । स्वयं भगवान् बुद्ध के सडायतन विभंग (मज्झिम. ३।४१७) अरण विभंग (मझिम. ३।४।९) धातु विभंग (मज्झिम. ३।४।१०) एवं दक्खिणाविभंग (मज्झिम. ३।४।१२) आदि सुत्तों में निहित व्याख्यात्मक उपदेश, तथा उनके प्रधान शिष्यों यथा सारिपुत्र, महाकात्यायन, महाकोट्ठित आदि के व्याख्यापरक निर्वचन, अभिधम्म-पिटक और उसके अन्तर्गत विशेषत: 'कथावत्थु' की विवेचन- प्रणाली, ये सभी स्रोत और साधन बुद्धघोष के लिये खुले पड़े थे, जिनका पूरा उपयोग कर उन्होंने पालि-साहित्य में उस विशाल अट्ठकथा-साहित्य का प्रवर्तन किया, जो अपनी विशालता और गम्भीरता में भारतीय साहित्य में उपलब्ध समान कोटि के प्रत्येक साहित्य से बढ़कर है। अटकथा-साहित्य की संस्कृत भाष्य और टीकाओं से तुलनाअट्ठकथाओं की कुछ सामान्य विशेषताएँ वास्तव में पालि के अट्ठकथा-साहित्य के समान भारतीय भाष्य-साहित्य में अन्य कुछ नही है । संस्कृत में भाष्य और टीकाएँ अवश्य हैं, किन्तु उनकी तुलना सर्वांश में पालि अट्ठकथाओं से नहीं की जा सकती। भाष्य की परिभाषा संस्कृत में इस प्रकार की गई है-- "सूत्रार्थों वर्ण्यते यत्र वाक्यः सूत्रानुसारिभिः । स्वपदानि च वय॑न्ते भाष्यं भाष्यविदो विदुः ।" शब्द-कल्पद्रुम Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५०१ ) ___ इस परिभाषा से स्पष्ट है कि भाष्य का मुख्य उद्देश्य सूत्र के अर्थ का वर्णन करना है और इसी की पूर्ति के लिये वह कुछ स्व-कथन भी करता है जिसकी भी व्याख्या में वह प्रवृत्त होता है । संस्कृत के भाष्य इस परिभाषा पर पूरे उतरते है । किन्तु यदि पालि अट्ठकथाओं का सम्बन्ध त्रिपिटक या बुद्ध-वचनों से उसी प्रकार का माना जाय जैसे भाष्यों का सूत्रों से, तो यह पालि के अट्ठकथा-साहित्य की एक प्रमुख विशेषता को व्यक्त न करेगा। अर्थ की व्याख्या के साथ साथ पालि अट्ठकथाओं का एक बड़ा उद्देश्य उनकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को भी स्पष्ट रूप से विवत कर देना है। किसी संस्कृत के भाष्यकार ने ऐसा किया हो, यह हम नहीं कह सकते । कम से कम जिस ऐतिहासिक बुद्धि का परिचय पालि अट्ठकथाकारों ने दिया है, वह संस्कृत के भाष्यकारों में तो उपलब्ध नहीं होती। संस्कृत भाष्यों में अर्थ की व्याख्या पर जोर होता है । यही काम उनकी टीकाएँ भी करती हैं । अनेक सिद्धान्तों या विचार-धाराओं के विवरण वहाँ आते हैं, किन्तु 'इत्येके' 'इत्यपरे' कह कर ही छोड़ दिये जाते हैं । कौन सा सिद्धान्त कब उत्पन्न हुआ, अथवा वह किन का था, आदि की गवेषणा वहाँ नहीं की जाती । वहाँ केवल सिद्धान्त का ही अर्थ-विवेचन अधिकतर किया जाता है। इसके विपरीत पालिअट्ठकथाओं में पूरे विवरण की सूची रहती है । 'कथावत्थु' की अट्ठकथा को इस दृष्टि से देखें तो आश्चर्यान्वित रह जाना पड़ता है । वहाँ निराकृत २१६ सिद्धान्तों में से कौन किस सम्प्रदाय का सिद्धान्त था और वह कब उत्पन्न हुआ, आदि का पूरा विवरण वहाँ दिया गया, है । वेदों के भाष्यों में ऋषियों की जीवनियों के विषय में उतना भी नहीं कहा गया, जितना पालि अट्ठकठाओं में बद्ध और उनके शिष्यों के विषय में कहा गया है । निश्चय ही उन्होंने जो ऐतिहासिक व्यौरे दिये हैं वे पूरे भारतीय साहित्य के लिये एक दम नई चीज हैं और उनकी इस विशेषता को हमें उनका महत्त्वांकन करते समय सदा ध्यान में रखना चाहिये । पालि साहित्य के तीन बड़े अट्ठकथाकारः बुद्धदत्त, बुद्धघोष और धम्मपाल पालि-माहित्य में अट्ठकथा-साहित्य का प्रारम्भ चौथी-पाँचवीं शताब्दी ईसवी मे होता है । इस प्रकार बुद्ध-युग से लगभग एक हजार वर्ष बाद ये अट्ठकथाएँ लिखी गई । निश्चय ही काल के इस इतने लम्बे व्यवधान के कारण इन Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५०२ ) अट्ठकथाओं की प्रामाणिकता उतनी सबल नहीं होती, यदि ये परम्परा से प्राप्त प्राचीन सिंहली अट्ठकथाओं पर आधारित नहीं होतीं । चूंकि ये उनकी ऐतिहासिक परम्परा पर आधारित हैं, अतः इतनी आधुनिक होते हुए भी बुद्ध-युग के सम्बन्ध में इनका प्रामाण्य मान्य है, यद्यपि स्वयं त्रिपिटक के बाद | चौथी - पाँचवीं शताब्दी में प्रायः समकालिक ही तीन बड़े अट्ठकथाकार पालि साहित्य में हुए हैं, बुद्धदत्त, बुद्धघोष और धम्मपाल । इनके बाद कुछ और भी अट्ठकथाकार हुए, जिनका विवरण हम बाद में देंगे। अभी हम इन तीन आचार्यों के जीवन और कार्य पर विहंगम दृष्टि डालें । बुद्धदत्त की जीवनी और रचनाएँ बुद्धदत्त और बुद्धघोष समकालिक थे, यह 'बुद्धघोसुप्पत्ति' (बुद्धघोष की जीवनी) और 'गन्धवंस' तथा 'सासनवंस' (१९वीं शताब्दी के वंश - ग्रन्थ ) के वर्णनों से ज्ञात होता है । 'बुद्धघोसुप्पत्ति' के वर्णनानुसार आचार्य बुद्धदत्त, बुद्धघोष से पहले लंका में बुद्ध वचनों के अध्ययनार्थ गये थे । अपने अध्ययन को समाप्त कर जिस नाव से लौट कर वे भारत ( जम्बुद्वीप) आ रहे थे, उसका मिलान उस नाव से हो गया जिसमें बैठकर इधर से आचार्य वृद्धघोष लंका को जा रहे । दोनों स्थविरों में धर्म-संलाप हुआ । कुशल-मंगल और एक दूसरे का परिचय प्राप्त करने के बाद, आचार्य बुद्धघोष ने उन्हें बताया “बुद्ध उपदेश सिंहली भाषा में हैं । मैं उनका मागधी रूपान्तर करने लंका जा रहा हूँ" । बुद्धदत्त ने उनसे कहा “आवुस बुद्धघोष ! में भी तुमसे पूर्व इस लंका द्वीप में भगवान् के शासन को सिंहली भाषा से मागधी भाषामें रूपान्तरित करने के उद्देश्य से आया था । किन्तु मेरी आयु थोड़ी रही है । मैं अब इस काम को पूरा नहीं कर सकूंगा । " " जब इस प्रकार दोनों स्थविरों में आपस में बातचीत चल रही थी तभी दोनों नावें एक दूसरी १ १. “ आवुसो बुद्धघोस अहं तया पुब्बे लंका दीपे भगवतो सासनं कातुं आगतोम्हि ति वत्त्वा अहं अल्पायुको.. बुद्धघोसुपपत्ति, पृष्ठ ६० ( जेम्स ग्रे का संस्करण ), यही वर्णन बिलकुल 'सासनवंस' में भी है, देखिये पृष्ठ २९-३० मेबिल बोड का संस्करण) 11 Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५०३ ) को छोड़कर चल दी।' इस विवरण से दो बातें स्पष्ट हो जाती है । एक तो यह कि बुद्धदत्त बुद्धघोष से पहले लंका गये थे और दूसरी यह कि वे आयु में बुद्धघोष से बड़े थे, क्योंकि उक्त संलाप में उन्होंने बुद्धघोष को 'आवुस' कह कर पुकारा है जो बड़ों के द्वारा छोटों के लिय प्रयुक्त किया जाता है ।२ बुद्धदत्त ने अपने विनय-विनिच्छय (विनय-पिटक की अट्ठकथा) के आरम्भ में ही वुद्धघोष के साथ अपने मिलन और संलाप का वर्णन किया है। उससे प्रकट होता है कि बुद्धदत्त ने बुद्धघोष से यह प्रार्थना की थी कि जव वे अपनी अट्ठकथाएँ समाप्त कर लें तो उनकी प्रतियाँ उनके पास भी भेज दें, ताकि वे उन्हें संक्षिप्त रूप प्रदान कर सकें । आचार्य बुद्धघोष ने उनकी इस प्रार्थना के अनुसार बाद में अपनी अट्ठकथाएँ उनके पास भेज दीं । आचार्य वुद्धदत्त ने आचार्य वुद्धघोषकृत अभिधम्म-पिटक को अट्टकथाओं का संक्षेप 'अभिधम्मावतार' में और विनय सम्बन्धी अट्ठकथा का संक्षेप 'विनय-विनिच्छय' में किया। इस सूचना में सन्देह करने की कोई आवश्यकता ही नहीं, क्योंकि यह स्वयं बुद्धदत्त द्वारा दी हुई है। हाँ, 'बुद्धघोसुप्पत्ति' के वर्णन के साथ उसका कुछ विरोध अवश्य है, क्योंकि लंका से लौटने के समय ही वे 'अल्पायु' तक जीने की आशा रखते थे, फिर इतनं काल तक बुद्धघोष की अट्ठकथाओं के संक्षेप लिखने के लिये किस प्रकार जीवित रहे ? फिर भी इसमें कुछ वैसा विरोध नहीं है, जिस पर विश्वास ही नहीं किया जासके । हर हालत में 'बुद्धघोमुप्पत्ति' के वर्णन की अपेक्षा 'विनय-विनिच्छय' का वर्णन ही अधिक प्रामाणिक है, और यदि दोनों स्थविरों को हम प्रायः समवयस्क मान सकें, तब तो उनमें कुछ ऐसा अन्तर भी नही है । आचार्य बुद्धदत्त चोल-राज्य में उरगपुर (वर्तमान उरइपुर) के निवासी थे । आचार्य बुद्धघोष के समान उन्होंने १. एवं तेसं द्विन्नं थेरानं अञ्जमधे सल्लपन्तानं येव द्वे नावा सयं एव अपनेत्वा गच्छिंसु । बुद्धघोसुप्पत्ति एवं सासनवंस, ऊपर उद्धृत के समान । २. मिलाइये बुद्धदत्त के ग्रन्थों के सम्पादक उसी नाम के आधुनिक सिंहली भिक्षु (बुद्धदत्त) का यह कथन “अयं पन बुद्धदत्ताचरियो बुद्धघोसाचरियेन समानवस्सिको वा थोकं वुड्ढतरो वा ति सल्लक्खेम" (अचार्य बुद्धदत्त बुद्धघोष के समवयस्क याकुछ ही बड़े थे, ऐसा लगता है) Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५०४ ) भी लंका के अनुराधपुर-स्थित महाविहार में जाकर भगवान् (बुद्ध) के शासनसम्बन्धी उच्च शिक्षा प्राप्त की थी। लंका से लौट कर उन्होंने अपने ग्रन्थों की रचना कावेरी नदी के तट पर दक्षिण के कृष्णदास (कण्हदास) या विष्णुदास (वेण्हुदास) नामक वैष्णव द्वारा निर्मित विहार में बैठ कर की,' जो वैष्णवों और बौद्धों के मधुर सम्बन्ध के रूप में पालि-सात्यि में सदा स्मृत रहेगी। वुद्धदत्त द्वारा रचित ग्रन्थ या अट्ठकथाएँ इस प्रकार हैं (१) उत्तरविनिच्छय (२) विनयविनिच्छय (३) अभिधम्मावतार (४) रूपारूपविभाग और मधुरत्थविलासिनी (बुद्धवंम की अट्ठकथा) । 'उत्तरविनिच्छय' (उत्तर विनिश्चय) और 'विनय-विनिच्छय' दोनों बुद्धघोषकृत समन्त-पासादिका (विनयपिटक की अट्ठकथा)के पद्यबद्ध संक्षेप हैं । विनय-विनिच्छय में ३१ और उत्तर विनिच्छय में २३ अध्याय हैं। उत्तर-विनिच्छय के २३ अध्यायों में ९६९ गाथाएँ हैं। विनय-पिटक की विषय-सूची का अनुसरण करते हुए इसमें भी पहले महाविभंग या भिक्खु-विभंग सम्बन्धी नियमों का विवरण है, यथा पाराजिक-कथा, पटिदेसनिय कथा, सेखिय कथा, आदि । इसके बाद भिक्खुनी-विभंग के विषय हैं, यथा पागजिक-कथा, संघादिसेस कथा, निस्सग्गिय कथा, अधिकरण पच्चय कथा, खन्धक पुच्छा, आपत्ति समुट्ठान कथा, आदि । 'उत्तर-विनिच्छय' सिंहलके 'उत्तर विहार' की परम्परा के आधार पर लिखी गयी अट्ठकथा है, यह पहले कहा जा चुका है । विनय-विनिच्छय के ३१ अध्यायों में कुल मिलाकर ३१८३ गाथाएँ है। इसकी भी विषय-वस्तु उत्तर-विनिच्छय से ही मिलती जुलती है । केवल व्याख्या में कहीं कुछ अन्तर है । पहले महाविभंग (भिक्खु विभंग) के अन्तर्गत पाराजिककथा, संघादिमेस कथा, अनियत कथा, निस्सग्गिय पाचित्तिय कथा, पटिदेसनिय कथा तथा मेखिय-कथा का विवरण है । इसी प्रकार भिक्खुनी-विभंग के अन्तर्गत पाराजिक कथा, संघादिसेस कथा, निस्सग्गिय-पाचित्तिय कथा और पटिदेस १. 'अभिधम्मावतार' में उन्होंने स्वयं कहा है “विनय-विनिच्छयो . . . .चोलरठे भूतमंगलगामे वेण्हुदासस्स आरामे वसन्तेन . . . कावेरीपट्टने रम्मे नानारामोपसोभिते कारिते कण्हदासेन दस्सनीये मनोरमे।" Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५०५ ) निय कथा के विवेचन हैं।' फिर खन्धक-कथा, कम्म कथा, पकिण्णक कथा, कम्मछान-कथा आदि के विवेचन हैं। इस प्रकार उत्तर-विनिच्छय और विनय-विनिच्छय दोनों ही अट्ठकथाएँ विनय-पिटक की विषय-वस्तु का समन्तपासादिका के आधार पर, पद्य में विवेचन करती हैं । इन पर क्रमशः 'उत्तर लीनत्थ दीपनी' और 'विनय सारत्थ दीपनी' नामक टीकाएँ भी बाद में चल कर वाचिस्सर महासामि (वागीश्वर महास्वामी) द्वारा लिखी गई, जिनका उल्लेख हम आगे चल कर टीका-साहित्य के विवेचन में करेंगे। 'अभिधम्मावतार' गद्य-पद्य-मिश्रित रचना है । बुद्धघोष की अभिधम्म-सम्बन्धी अट्ठकथाओं के आधार पर इसका प्रणयन हुआ है। किन्तु बुद्धधोष का अन्धानुकरण लेखक ने नहीं किया है । बुद्धघोष ने रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान के रूप में धर्मो (पदार्थों) का विवेचन किया है, जब कि बद्धदत्त ने 'अभिधम्मावतार' में चित्त, चेतसिक, रूप और निर्वाण, इस चार प्रकार के वर्गीकरण को लिया है। श्रीमती रायस डेविड्स ने बुद्धदत्त के वर्गीकरण को अधिक उत्तम माना है।४ 'अभिधम्मावतार' के समान 'रूपारूप-विभाग'६ भी अभिधम्म-सम्बन्धी रचना है । इसका भी विषय रूप, अरूप, चित्त, चेतसिक आदि का विवेचन करना है। 'मधुरत्थ विलासिनी' 'बुद्धवंस' की अट्ठकथा है, जिसका साहित्यिक दृष्टि से कुछ अधिक महत्त्व नहीं है। बुद्धघोष की जीवनी अव हम पालि-साहित्य के युग-विधायक आचार्य वुद्धघोष पर आते हैं। १. इन विभिन्न शब्दों के अर्थों के लिए देखिये पीछे विनय-पिटक का विवेचन (चौथे अध्याय में) २. ३. इन दोनों का रोमन लिपि में सम्पादन स्थविर बुद्धदत्त ने किया है, जिसे पालि टैक्सट सोसायटी ने प्रकाशित किया है। इन ग्रन्थों के सिंहली, बरमी और स्यामी संस्करण भी उपलब्ध हैं, जो क्रमशः कोलम्बो, रंगून और बंकाक से प्रकाशित हुए है। ४. बुद्धिस्ट साइकोलोजी, पृष्ठ १७४ ५. ६. इनका भी रोमन लिपि में सम्पादन स्थविर बुद्धदत्त ने किया है, जिसे पालि टैक्सट सोसायटी ने प्रकाशित किया है। Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'बुद्धघोष' अनुपिटक साहित्य का सब से बड़ा नाम है । आचार्य बुद्धघोप ने बुद्धशासन की सेवा और उसकी चिरस्थिति के लिये जितना अधिक काम किया है, उतना शायद ही अन्य किसी व्यक्ति ने किया हो । पालि साहित्य को जो कुछ उन्होंने दिया है वह आकार और महत्त्व दोनों में ही इतना महान् है कि यह समझना कठिन हो जाता है कि एक जीवन में इतना काम कैसे कर लिया गया। इन महापुरुष की जीवनी की पावन अनुस्मृति पहले हम करें। आचार्य बुद्धघोष ने अन्य अनेक भारतीय मनीषियों की तरह अपने जीवन के विषय में हमें अधिक नहीं बताया है। केवल अपनी अट्ठकथाओं के आदि और अन्त में उन्होंने कुछ मुचनाएँ दी है, जो उनकी रचना आदि पर ही कुछ प्रकाश डालती हैं अथवा जिनकी प्रेरणा पर, और जिस उद्देश्य से वे लिखी गईं, उनके विषय में वे कुछ संक्षेप से कहती है, किन्तु मनुष्य रूप में बुद्धघोष के विषय में हमें उनमे कुछ सामग्री नहीं मिलती। यह पक्ष सम्भवतः बुद्धघोष के लिये इतना अमहत्त्वपूर्ण था कि उसे उन्होने अपने महत् उद्देश्य में ही खो दिया है। उपनिषदों के ऋषियों ने भी ऐसा ही किया है और भारतीय मनीषियों की यह एक निश्चित परम्परागत प्रणाली ही रही है कि अपने साधारण व्यक्तिगत जीवन के विषय में उन्होंने कुछ कहना उचित नहीं समझा है । उनकी यह निर्वैयक्तिकता उनके सन्देश को निश्चय ही एक अधिक बल प्रदान करती है, इसमें सन्देह नहीं, किन्तु मनुष्य होने के नाते हम उनके मानव-रूप को भी जानना चाहते ही हैं । और उससे इस अवस्था में जानने का अवकाश नहीं रह जाता। बुद्धघोष की जीवनी को जानने के लिये उनकी अट्ठकथाओं में दी हुई थोड़ी बहुत सामग्री के अतिरिक्त प्रधान साधन है (१) महावंस या ठीक कहें तो चूलवंस' के सेंतीसवें परिच्छेद की २१५-२४६ गाथाएँ (२) बुद्धघोसुप्पत्ति या महाबुद्धघोसस्म निदानवत्थु (३) गन्धवंस (४) सासनवंस (५) सद्धम्म संगह । 'महावंस' का उपर्युक्त परिवद्धित अंश जिसमें बुद्धघोष की जीवनी वर्णित है धम्मकित्ति (धर्मकीर्ति) नामक भिक्षु की रचना है, जिनका काल तेरहवीं शताब्दी का मध्य-भाग है । चूंकि बुद्धघोष का जीवन-काल चौथी-पाँचवी ४. ३७१५० तक महावंस है। उसके बाद का परिवद्धित अंश चूलवंस के नाम से प्रसिद्ध है। देखिये आगे नवे अध्याय में वंश-साहित्य का विवेचन । Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५०७ ) शताब्दी ईसवी है, अतः उनके आठसौ नौ सौ वर्ष बाद लिखी हुई उनकी जीवनी सर्वांश में प्रामाणिक नहीं मानी जा सकती, यह तो निश्चित ही है । फिर भी सब से अधिक प्रामाणिक वर्णन जो हमें बुद्धघोष की जीवनी का मिलता है वह यही है । 'गन्धवंस' और 'सासन वंस' तो ठीक उन्नीसवीं शताब्दी की रचनाएं हैं, अतः उनका इस सम्बन्ध में प्रामाण्य नहीं माना जा सकता। 'बुद्धघोसुप्पत्ति' धम्मकित्ति महासामि (धर्मकीति महास्वामी ) नामक भिक्षु की चौदहवीं शताब्दी के अन्तिम भाग की रचना है, जो महावंस के उपर्युक्त अंश के बाद किन्तु गन्धवंस और सासन वंस से पहले की रचना है । इस रचना में इतनी अतिशयोक्तियाँ भरी पड़ी है कि इसके भी प्रामाण्य को सर्वांश में नहीं माना जा सकता। केवल महावंस के उपर्युक्त अंश का वर्णन ही प्रायः इस सम्बन्ध में अधिक प्रामाणिक माना जाता है। उसके अनुसार बुद्धघोष की जीवनी की रूपरेखा यह है--आचार्य बुद्धघोष का जन्म गया के समीप बोधिवृक्ष के पास हुआ। बाल्यावस्था में ही शिल्प और तीनों वेदों में पारंगत होकर यह ब्राह्मण विद्यार्थी बाद-विवाद के लिये भारतवर्ष भर में घूमने लया। ज्ञान की बड़ी उत्कट जिज्ञासा थी। योगाभ्यास में भी बड़ी रुचि थी। एक दिन रात में किसी विहार में पहुंच गया। वहाँ पातंजल मत पर बड़ा अच्छा प्रवचन दिया। किन्तु रेवत नामक वौद्ध स्थविर ने उन्हें बाद में पराजित कर दिया। इन बौद्ध भिक्षु के मुख से बुद्ध-शासन का वर्णन सुनकर बुद्धघोष को विश्वास हो गया 'निश्चय ही (मोक्ष का) यही एक मात्र मार्ग है' (एकायनो अयं मग्गो) और उन्होंने प्रव्रज्या ले ली। प्रव्रजित होकर उन्होंने पिटक-त्रय का अध्ययन किया। वास्तव में भिक्षु होने से पहले बुद्धघोष एक ब्राह्मण विद्यार्थी (ब्राह्मणमाणवो) मात्र थे। बाद में भिक्ष-संघ ने उनके घोप को बुद्ध के समान गम्भीर जानकर उन्हें 'बुद्धघोप' की पदवी दे दी ।' जिम विहार में उनकी प्रव्रज्या हुई थी वहीं उन्होंने जाणोदय (ज्ञानोदय) नामक ग्रन्थ की रचना की। इसके बाद यहीं उन्होंने 'धम्मसंगणि' पर 'अट्ठसालिनी' नाम की अट्ठकथा भी लिखी १. बुद्धस्स विय गम्भीरघोसत्ता नं वियाकरूं। बुद्धघोस ति सो सोभि बुद्धो विय महीतले॥ Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५०८ ) और अन्त में त्रिपिटक पर एक संक्षिप्त अट्ठकथा लिखने का उपक्रम किया, जिसे देख कर उनके गुरु महास्थविर रेवत ने उनसे कहा', "लंका से यहाँ भारत में केवल म्ल पालि-त्रिपिटक ही लाया गया है। अट्ठकथाएँ यहाँ नहीं हैं । विभिन्न आचार्यों को परम्पराएँ भी यहाँ उपलब्ध नहीं हैं। हाँ, लंका-दीप में महास्थविर महेन्द्र (महिन्द) द्वारा संगृहीत सिंहली भाषा में प्रामाणिक अट्ठकथाएँ सुरक्षित हैं। तुम वहाँ जाकर उनका श्रवण करो, और बाद में मागधी भाषा में उनका रूपान्तर करो, ताकि वे सब के लिये हितकारी हों।"२ इस प्रकार अपने गुरु से आज्ञा पाकर आचार्य बुद्धघोष लंकाधिपति महानाम के शासनकाल में लंका में गये। अनुराधपुर के महाविहार के महापधान नामक भवन में रह कर उन्होंने संघपाल नामक स्थविर से सिंहली अट्ठकथाओं और स्थविरवाद की परम्परा को सुना । बुद्धघोष को निश्चय हो गया कि धर्म-स्वामी (बुद्ध) का यही ठीक अभिप्राय है। तब उन्होंने महाविहार के भिक्ष-संघ से प्रार्थना की “मैं अट्ठकथाओं का (मागधी) रूपान्तर करना चाहता हूँ। मुझे अपनी पुस्तकों को देखने की अनुमति दें।" इस पर भिक्षुओं ने उन्हें दो गाथाएँ परीक्षा-स्वरूप व्याख्या - - - - - - - - - १. तत्थ आणोदयं नाम कत्वा पकरणं तदा। धम्मसंगणियाकासि कण्डं सो अट्ठसालिनि । परित्तट्ठकथं चेव कातुं आरभि बुद्धिमा। तं दिस्वा रेवतो थेरो इदं वचनं अब्रुवि॥ २. पालिमत्तं इधानीतं नत्थि अट्ठकथा इध। तथाचरियवादा च भिन्नरूपा न विज्जरे॥ सोहलट्ठकथा सुद्धा महिन्देन मतीमता। संगीतित्तयं आरूळ्हं सम्मासम्बुद्धदेसितं॥ कता सोहलभासाय सीहलेसु पवत्तति । तं तत्थ गन्त्वा सुत्वा त्वं मागवानं निरत्तिया। परिवत्तेहि सा होति सब्बलोकहितावहा ॥ ३. धम्मसा मिस्स एसो व अधिप्पायो ति निच्छिय ४. कातुं अट्ठकथं मम पोत्थके देथ । Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५०९ ) करने के लिये दीं । बुद्धघोष ने उनकी व्याख्यास्वरूप 'विसुद्धि मग्ग' की रचना की। 'विसुद्धिमग्ग' की विद्वत्ता को देख कर भिक्षुओं को इतनी प्रसन्नता हुई कि उन्होंने बुद्धघोष को साक्षात् भगवान् मैत्रेय बुद्ध (भावी बुद्ध) ही मान लिया और उन्हें अपनी सब पुस्तकें देखने की अनुमति दे दी ।' अनुराधपुर के गन्थकार (ग्रन्थकार) विहार में बैठ कर बुद्धघोष ने सिंहली अट्ठकथाओं के मागधी रूपान्तर करने सम्बन्धी अपने कार्य को पूर्ण किया। इसके बाद वे अपनी जन्म‘भमि भारत लौट आये और यहाँ आकर बोधिवृक्ष की पूजा की। इस वर्णन से एक बड़े महत्व की बात यह निश्चित हो जाती है कि वृद्धघोष महास्थविर लंका के राजा महानाम के समय में लंका में गये । यह राजा महानाम चौथी शताब्दी के अन्तिम और पाँचवीं शताब्दी के आदि भाग में लंका में शासन करता था। अतः निश्चित है कि बुद्धघोष का जीवन-कार्य इसी समय किया गया। बुद्धघोष ने किसी भी ऐसे ग्रन्थ आदि का उद्धरण नहीं दिया है जो उस काल के वाद का हो । बरमी परम्परा भी यही मानती है कि आचार्य बुद्धघोष ने पाँचवीं शताब्दी के प्रारंभिक भाग में लंका द्वीप में गमन किया । चूंकि उस समय उनकी अवस्था कम से कम तरुण तो रही ही होगी, अतः उनका जीवन-काल चौथी-पाँचवीं शताब्दी कहा जा सकता है। हाँ 'महावंस' के उपर्य क्त परिवद्धित अंश में आचार्य बुद्धघोष का जन्मस्थान बुद्ध गया के समीप बतलाया गया है । आचार्य धर्मानन्द कोसम्बी का कहना है कि बुद्धथोष महास्थविर संभवतः उत्तर भारत के नहीं हो सकते थे। उनकी किसी भी कथा की पृष्ठभूमि उत्तर भारत में नहीं रक्खी गई है । इसके अतिरिक्त विसुद्धि-मग्ग ११८६ ( (धर्मानन्द कोसम्बी का संस्करण) में 'वन-दाह' की उनके द्वारा व्याख्या तथा मज्झिम-निकाय के गोपालक-सुत्त की व्याख्या में १. निस्संसयं स मेत्तेय्यो ति वत्त्वा पुनप्पुनं । सद्धि अट्ठकथायादा पोत्थके पिटकत्तये ॥ २. गन्थकारे वसन्तो सो विहारे दूरसंकरे। परिवत्तेसि सब्बा पि सीहलट्ठकथा तदा ॥ ३. वन्दितुं सो महाबोधि जम्बुदीपं उपागमि॥ ४. बोधिमण्डसमीपम्हि जा तो ब्राह्मणमाणवो। Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनके द्वारा किया हुआ गंगा का विवरण, सब यही दिखलाते हैं कि जिस वन-दाह का उन्होंने वर्णन किया है वह भी दक्षिण की वस्तु है और जिस गंगा का उन्होंने वर्णन किया है वह उत्तर भारत की गंगा न होकर दक्षिण भारत की महावली गंगा है । इस प्रकार आन्तरिक साक्ष्य के आधार आचार्य धर्मानन्द कोसम्बी ने यह दिखाने का प्रयत्न किया है कि आचार्य बुद्धघोष उत्तरी भारत की भौगोलिक परिस्थिति से परिचित नहीं थे, अतः वे वहां के निवासी नहीं हो सकते । आचार्य धर्मानन्द कोसम्बी ने उस बरमी परम्परा को प्रामाणिक माना है जो बुद्धघोष को दक्षिण भारत का ब्राह्मण मानने की पक्षपातिनी है । 'विसुद्ध-मग्ग' के निगमन (उपनंहार) में अपना परिचय देते हुए आचार्य वुद्धघोष ने अत्यन्त निर्वयक्तिकता पूर्वक कहा है “बुद्धघोसो ति गरूहि गहित नामधेय्येन थेरेन मोरण्डखेटकवत्तब्बेन कतो विसुद्धिमग्गो नाम" (बड़ों के द्वारा 'बुद्धघोष' नाम दिये हुए, मोरंड खेटक के निवासी, स्थविर (बुद्धघोष) ने इस विशुद्धि-मार्ग को लिखा ।) इसके आधार पर आचार्य धर्मानन्द कोसम्बी ने यह मत प्रकट किया है कि आचार्य वुद्धघोप दक्षिण-भारत के मोरण्डखेटक (मोरंड नामक खेटक, खेड़ा) नामक गाँव के निवासी थे। आचार्य बुद्धघोष कुछ दिन, जैसा उन्होंने अपनी मज्झिमनिकया की अट्ठकथा में कहा है मयूरसुत्तपट्टन या मयूररूपपट्टन में भी रहे थे और वहीं बुद्धमित्र नामक स्थविर के साथ रहते हुए उनकी प्रार्थना पर इस अट्टकथा को लिखा था ।' आचार्य धर्मानन्द कोसम्बी की धारणा है कि यह मयूरमुत्तपट्टन या मयूररूपपट्टन कही तेलग प्रदेश में था। इसी प्रकार आचार्य बुद्धघोप कांचीपुर आदि दक्षिण के नगरों में भी रहे थे, जैसा उनके अंगुत्तर-निकाय की अट्टकथा के अन्त में इस वाक्य से प्रकट होता है-- १. आयाचितो सुमतिना थेरेन भदन्त-बुद्धमित्तेन । पुब्बे मयूरसुत्तपट्टनम्हि सद्धि वसन्तेन ॥ यमहं पपञ्चसूदनिमट्ठकथं कातुमारद्धो॥ Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५११ ) "स्थविर ज्योतिपाल के साथ काञ्चीपुर तथा अन्य स्थानों में रहते हुए मैने उनकी प्रार्थना पर इस अट्ठकथा को लिखना आरम्भ किया"।' इस प्रकार बुद्धघोष ने चुंकि अपने जीवन का सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण कार्य दक्षिण के इन नगरों में ही किया, अतः वे दक्षिण के ही निवासी थे, ऐसा निष्कर्ष आचार्य धर्मानन्द कोसम्बी ने उनकी अट्ठकथाओं के साक्ष्य पर निकाला है, जो उस हद तक ठीक कहा जा सकता है । फिर भी उनका जन्म-स्थान भी दक्षिण-प्रान्त था, यह उपर्युक्त विवरणों से प्रमाणित नहीं हो जाता । अधिक से अधिक हम यही कह सकते हैं कि उनका जीवन-कार्य अधिकतर दक्षिण-भारत में किया गया। 'महावंस' के ऊपर उद्धृत अंश और 'बुद्धघोसुप्पत्ति' आदि में भी बुद्धघोषाचार्य को ब्राह्मण कहा गया और उन्हें तीनों वेद, नाना शिल्लों तथा पातंजल योग आदि मतों का पारङ्गत कहा गया है । आचार्य धर्मानन्द कोसम्वी ने उनके ब्राह्मण होने में भी सन्देह किया है और इसी प्रकार उनके वेद तथा पातंजल मत आदि शास्त्रों में पारंगत होने के में भी सन्देह प्रकट किया है । बुद्धघोष के ब्राह्मण न होने के विषय में आचार्य धर्मानन्द कोसम्बी ने यह तर्क दिया है कि बुद्धघोष को वेद के पुरुष-सूक्त जैसे महत्त्वपूर्ण अंश से भी जानकारी नहीं थी, क्योंकि इस सूक्त की एक ऋचा में क्षत्रिय को ब्रह्मा के बाहु से उत्पन्न बताया गया है,जब कि बुद्धघोष न इसी सूक्त की ओर संकेत करते हुए उसे हृदय से उत्पन्न बता डाला है। चूंकि बाहु और हृदय दोनों ही साहस १. आयाचितो समतिना थेरेन भदन्त-जोतिपालेन। कञ्चीपुरादिसु मया पुब्बे सद्धि वसन्तेन ॥ अट्ठकथं अंगुत्तरमहानिकायस्स कातुमारद्धो॥ २. देखिये उनके द्वारा सम्पादित 'विसुद्धिमग्ग' का अंग्रेजी-प्राक्कथन, पृष्ठ १५-१८। ३. मिलाइये बुद्धघोसुप्पत्ति “सत्तवस्सिककाले सो तिण्णं वेदानं पारगू अहोसि" (सात वर्ष की अवस्था में ही वह (बुद्धघोष) तीनों वेदों का पारंगत हो गया) ४. पुरुष सूक्त में शब्द हैं-बाहू राजन्यः कृतः' जब कि बुद्धघोष ने लिखा है 'खत्तिया उरतो निक्खन्ता' (क्षत्रिय हृदय से निकले) । विसुद्धिमग्ग (कोसम्बोजी द्वारा Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५१२ ) के प्रतीक हैं अतः सम्भव है आचार्य बुद्धघोष से, जो स्मृति मे लिख रहे होंगे, दोनों के साधर्म्य के कारण यहगलती हो गई हो । यदि इस गलती को गलती के रूप में स्त्रीकार कर भी लिया जायतो भी यह उनके ब्राह्मण याअ-ब्राह्मण होने से किस प्रकार सम्बन्धित हो सकता है ? यह सूक्त-विषयक अनभिज्ञता तो बुद्धघोष के ब्राह्मण या अ-ब्राह्मण दोनों के ही होते हुए हो सकती थी। अतः इसके कारण आचार्य कोसम्बी का बुद्धघोष को अ-ब्राह्मण ठहराना ठीक नही जान पड़ता। इसी प्रकार चूंकि बुद्धघोष ने 'गृहपति' या कृषक-वर्ग की प्रशंसा की है, उनको किसी किसान के घर उत्पन्न हुआ मानना भी ठीक नहीं होगा, जैसा मानने का आचार्य कोसम्बी ने प्रस्ताव किया है ।' संस्कृत शास्त्रों का बुद्धघोष का ज्ञान अपूर्ण था, यह भी उद्ध‘रण देकर आचार्य धर्मानन्द कोसम्बी ने दिखाने का प्रयत्न किया है । २ उधर डा. विमलाचरण लाहा ने कोई ऐसा भारतीय ज्ञान-शास्त्र ही नहीं छोड़ा है जिस पर बुद्धघोष का पूर्ण अधिकार न दिखा दिया हो। हम समझते हैं कि सत्य इन दोनों कोटियों के बीच में है । आचार्य बुद्धघोष को संस्कृत-साहित्य से अवगति अवश्य थी, किन्तु वह उस अगाध पांडित्य के रूप में नहीं था जिसे हम एक वेदज्ञ ब्राह्मण के साथ संयुक्त कर सकते हैं। बरमी परम्परा की यह मान्यता है कि आचार्य बुद्धघोष वरमा में भो बुद्व-धर्म के प्रचारार्थ गये थे । किन्तु इसका अब तक कोई निश्चित ऐतिहासिक प्रमाण नहीं मिला। उसके अभाव में हम यही मान सकते सम्पादित) के प्राक्कथन, पृष्ठ १३ में उद्धृत। १. विसुद्धिमग्ग (कोसम्बोजी द्वारा सम्पादित) पृष्ठ १३ एवं १६ (प्राककवन) २. विसद्धिमग्ग (धर्मानन्द कोसम्बी का संस्करण,) के प्राक्कथन में पृष्ठ १३-१४ ३. उन्होंने अपने ग्रन्थ 'दि लाइफ एंड वर्क ऑव बुद्धघोष' में एक पूरा परिच्छेद (छठा) ही आचार्य बुद्धघोष की विश्व-कोश जैसी बहुज्ञता के विवरण के लिए दिया है, पृष्ठ १०४-१३५ । ४. उन्होंने पाणिनि के नियम के अनुसार अनेक पालि शब्दों की व्युत्पत्ति को है। देखिये आगे दसवें अध्याय में पालि व्याकरण-साहित्य का विवेचन । बुद्धघोसप्पत्ति (पृष्ठ ६१, ग्रे का संस्करण) के अनुसार सिंहली भिक्षुओं ने भी बद्धघोष के संस्कृत-ज्ञान के विषय में सन्देह किया था, जिसका उन्होंने एक प्रभावशाली भाषण दे कर निराकरण भी कर दिया था। देखिये लाहा : दि लाइफ एंड वर्क ऑव बुद्धघोष, पृष्ठ ३८-३९ । Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है कि बुद्धघोष की रचनाओं के अत्यधिक प्रसार और आदर के कारण ही उनके नाम के साथ इतनी आत्मीयता वहाँ प्रचलित हो गई है । आचार्य बुद्धघोष के निर्माण के विषय में भी कुछ ज्ञात नहीं। किन्तु कम्बोडिया के निवासियों का यह विश्वास है कि बुद्धघोष महास्थविर का परिनिर्वाण उनके देश में ही हुआ था । वहाँ 'बुद्धघोष विहार' नामक एक अत्यन्त प्राचीन विहार आज तक उनकी स्मृति को खंडहर के रूप में खड़ा रह कर सुरक्षित बनाये हुए है।' हमें कम्बोडिया-निवासियों के विश्वास में सन्देह करने का कोई कारण दिखाई नहीं पड़ता । बुद्धघोप की रचनाएँ आचार्य बुद्धघोष की रचनाएं ये है-- १. विसुद्धिमग्ग -- संयुक्त-निकाय की दो गाथाओं की व्याख्या के रूप में एक मौलिक कृति २. समन्तपासादिका -- विनय-पिटक की अट्ठकथा ३. कंखावितरणी -- पातिमोक्ख की अट्ठकथा ४. सुमंगलविलासिनी -- दोघ-निकाय की अट्ठकथा . ५. पपञ्चसूदनी --- मज्झिम-निकाय की अट्ठकथा ६. सारत्थपकासिनी -- संयुत्तनिकाय की अट्ठकथा ७. मनोरथपूरणी ___ -- अंगुत्तरनिकाय की अट्ठकथा ८. परमत्यजोतिका -- खुद्दक-निकाय के खुद्दक-पाठ और सुत्त-निपात की अट्ठकथा ९. असालिनी -- धम्मसंगणि की अट्ठकथा १०. सम्मोहविनोदनी-- विभंग की अट्ठकथा ११-१५. पञ्चप्पकरणट्ठकथा -- धम्म संगणि और विभंग को छोड़कर शेष ५ अभिधम्म ग्रंथों की अट्ठकथाएँ। १६. जातकठ्ठवण्णना -- जातक की अट्ठकथा १. देखिये विमलाचरण लाहा : दि लाइफ एंड वर्क ऑव बुद्धघोष, पृष्ठ ४२, पद-संकेत २ Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५१४ ) १७. धम्मपदट्ठकथा - धम्मपद की अट्ठकथा १८. अन्य ग्रन्थ - ज्ञानोदय आदि (जो प्राप्त नहीं) इनका कुछ संक्षिप्त परिचय देना यहाँ आवश्यक होगा। विसुद्धिमग्ग' ___"विसुद्धिमग्ग' या 'विसुद्धिमग्गो' (विशुद्धि-मार्ग) सम्भवतः आचार्य बुद्धघोष का सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है । इसे बुद्ध-धर्म का विश्वकोश ही समझना चाहिये । बौद्ध धर्म या साधना सम्बन्धी कोई ऐसा महत्त्वपूर्ण विषय नहीं है जिसका विस्तृत विवेचन इस ग्रन्थ में न किया गया हो। अपने पूर्वगामी सम्पूर्ण पिटक और अनुपिटक साहित्य का मन्थन ही जैसे आचार्य बुद्धघोष ने इस ग्रन्थ में किया है। आचार्य बुद्धघोष ने भी अपनी रचनाओं में इस ग्रन्थ को विशेष महत्त्वपूर्ण माना है । दीघ, मज्झिम, संयुत्त और अंगुत्तर इन चारों निकायों की अपनी अट्ठकथाओं की प्रस्तावनाओं में उन्होंने पुनरुक्तिपूर्वक यह कहा है "चारों आगमों (निकायों) के बीच में स्थित होकर यह 'विसुद्धि-मग्ग' उनके यथार्थ अर्थ को प्रकाशित करेगा।"२ ऐसा मालूम पड़ता है उन्होंने पहले 'विसुद्धि मग्ग' की रचना की और फिर चार निकायों की अट्टकथाओं की । इसीलिए जिस विषय का विस्तृत निरुपण उन्होंन पहले 'विसुद्धि मग्ग' में कर दिया है, उसे १. इस ग्रन्थ का देव-नागरी लिपि में सम्पादन आचार्य धर्मानन्द कोसम्बी ने किया है, जो भारतीय विद्या भवन, बम्बई, (१९४०), से प्रकाशित भी हो चुका है। इस महत्वपूर्ण संस्करण का उल्लेख कर देने के बाद अन्य किसी संस्करण के उल्लेख करने की अपेक्षा नहीं रह जाती। निश्चय ही यह इतना ही महत्त्वपूर्ण सम्पादन है और हिन्दी का तो विशेष गौरव है। 'विसुद्धि-मग्ग' का अभी हिन्दी अनुवाद प्रकाशित नहीं हुआ। इस लेखक ने इसके 'शोल-स्कन्ध' का अनुवाद किया है, जो 'सस्ता साहित्य मंडल' से प्रकाशनीय है । इसी प्रकार त्रिपिटकाचार्य भिक्षु धर्म-रक्षित का भी इस सम्पूर्ण ग्रन्थ का अनुवाद ज्ञान-मंडल, काशी से छपने वाला है। २. मज्झे विसुद्धिमग्गो एस चतुन्नम्पि आगमानं हि ठत्वा पकासयिस्सति तत्थ यथाभासितं अत्थं ॥ Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५१५ ) फिर निकायों की अट्ठकथाओं में नहीं दुहराया है। इसके विषय में भी उन्होंने प्रत्येक निकाय की अट्ठकथा के आरंभ में कहा है “चूंकि मैंने इस सबका शुद्ध निरूपण 'विसुद्धि-मग्ग' में किया है, इसलिए उसके संबंध में फिर यहाँ दुबारा विचार नहीं करूँगा।"१ निश्चय ही आचार्य बुद्धघोष ? 'विसुद्धि मग्ग' को अपनी संपूर्ण रचनाओंका मध्यस्थ बिन्दु मानते थे और अपनी अट्ठकथाओं के अध्ययन से पहले पाठक से वे उसके अध्ययन की अपेक्षा रखते थे । ___ यद्यपि विसुद्धि-मग्ग' (विशुद्धि मार्ग) पूरे अर्थों में एक मौलिक रचना है, किन्तु वह दो गाथाओं की व्याख्या के रूप में ही लिखी गई है। वे दो गाथाएं हैं--- "अन्तो जटा बहि जटा जटाय जटिता पजा। तं तं गोतम पुच्छामि को इमं विजटये जटं ति।" दूसरी गाथा है-- "सोले पतिट्ठाय नरो समचो चित्तं पाञ्च भावये। आतापी निपको भिक्खु सो इमं विजटये जटं ति।" पहली गाथा प्रश्न के रूप में है और दूसरी गाथा उसका उत्तर है। विसुद्धिमग्ग के प्रारंभ में ही कहा गया है कि एक बार जब भगवान् श्रावस्ती में विचरते थे तो किसी देवपुत्र ने उनके पास आकर उनसे प्रथम गाथा के रूप में प्रश्न पूछा जिसका अर्थ है “अन्दर भी उलझन है, बाहर भी उलझन है। यह जनता उलझन में जकड़ी हुई। अतः हे गोतम ! मैं तुमसे पूछता हूँ--कौन इस उलझन को सुलझा सकता है ?" भगवान् ने दूसरी गाथा के द्वारा इसका उत्तर दिया, जिसका अर्थ यह है “शील में प्रतिष्ठित होकर प्रज्ञावान् मनुष्य जब समाधि और प्रज्ञा की भावना करता है, तो इस प्रकार उद्योगी और ज्ञानवान् भिक्षु होकर वह उस उलझन को सुलझा देता है।" बस इस भगवान् के उत्तर को लेकर ही आचार्य बुद्धघोष ने संपूर्ण बौद्ध ज्ञान और दर्शन को एक एक निश्चित उद्देश्य के सूत्र में पिरो दिया है । वह उद्देश्य क्या है ? साधना के मार्ग के उत्तरोत्तर विकास का स्पष्ट १. इति पन सब्बं यस्मा विसुद्धिमग्गो मया सुपरिसुद्धं । वृत्तं तस्मा भिथ्यो न तं इध विचारयिस्सामि॥ Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५१६ ) . तम निर्देश कर देना। दूसरे शब्दों में 'विसुद्धिमग्ग' बौद्ध योग को एक अत्यन्त क्रमबद्ध ढंग से उपस्थित करने का प्रयत्न करता है। हम पहले देख चुके हैं कि आचार्य बुद्धघोष बुद्ध-मत में प्रवजित होने से पहले पातंजल-योग-दर्शन में निष्णात थे। निश्चय ही उन्होंने 'विसुद्धि-मग्ग' के रूप में बौद्धों के योगदर्शन को ही साधकों के कल्याण के लिए प्रकाशित किया है । पातंजल योग-दर्शन की अपेक्षा 'विसुद्धि-मग' अधिक सुव्यवस्थित और नियम-बद्ध है,' यह कहा जाय तो यह अतिरंजना नहीं होगी । वुद्धघोप महास्थविर ने साधकों के कल्याण के लिए ही इस महाग्रन्थ की रचना की है, इसे उन्होंने इस ग्रन्थ के प्रत्येक परिच्छेद के अन्त में यह कहकर दुहराया है 'साधुजनपामुज्जत्थाय कते विसुद्धिमग्गे' साधुजनों की प्रसन्नता के लिये रचित 'विशुद्धि-मार्ग' में, आदि)। इसी प्रकार इस ग्रन्थ के आदि में भी उन्होंने कहा है "मैं विशुद्धि के मार्ग का भापण करूंगा। सभी साधु पुरुष, जिन्हें पवित्रता की इच्छा है, मेरे कहे हुए को आदरपूर्वक सनें"२ (विसुद्धिमग्गं भासिस्सं तं मे सक्कच्च भासतो। विसुद्धिकामा सब्बे पि निसामयथ साधवो ति)। यह ग्रन्थ महाविहारवासी भिक्षुओं की उपदेशविधि पर ही आधारित है, इसे भी बुद्धघोष ने यहीं दिखा दिया है" 'महाविहारवासी भिक्षुओं की उपदेश-विधि पर आधारित 'विशुद्धि-मार्ग का मैं कथन करूँगा (महाविहारवासीनं देसनानयनिस्सितं विसुद्धिमग्गं भासिस्सं)। जैसा अभी कहा गया, 'विशुद्धि-मार्ग' साधना-मार्ग की नाना भूमियों का क्रमबद्ध वर्णन करता है। 'विशुद्धि' का अर्थ किया है आचार्य बुद्धघोष ने 'सर्वमल-रहित, अत्यन्त परिशुद्ध निर्वाण' और 'मग्ग' या मार्ग का अर्थ किया है 'प्राप्ति का उपाय' । अत: 'विशुद्धिमार्ग' का अर्थ है 'सर्वमल-रहित, १. देखिये भिक्षु जगदीश काश्यपः पालि महाव्याकरण, पृष्ठ संतालीस (वस्तुकथा) २. 'विसुद्धिमग्ग' के अन्त में उन्होंने फिर अपनी इसी अभिलाषा को दुहराया है 'तस्मा विसुद्धिकामेहि सुद्धपञ् हि योगिहि। विसुद्धिमग्गे एतस्मिं करणीयो व आदरो ति' (विशुद्धि के इच्छुक, शुद्ध ज्ञान वाले योगी इस विशुद्धि-मार्ग में आदर-बुद्धि करें) पृष्ठ ५०६ (धर्मानन्द कोसम्बी का संस्करण) Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५१७ ) अत्यन्त पीरशुद्ध, निर्वाण की प्राप्ति का उपाय" । इस उपाय की मुख्य तीन भूमियाँ हैं, जो उत्तरोत्तर क्रमिक साधन के द्वारा प्राप्त कीजाती हैं । इन तीन भूमियों के नाम हैं, शील, समावि और प्रज्ञा । भगवान् बुद्ध के शब्दों में यही तीन धर्मस्कन्ध अर्थात् धर्मं के आधार हैं । शील, समाधि और प्रज्ञा के रूप में साधना के पूरे मार्ग का विवरण करना ही 'विसुद्धि-मग्ग' का लक्ष्य है।' इस महाग्रंथ में कुल मिलाकर २३ परिच्छेद हैं, जिनमें प्रथम दो परिच्छेदशील या सदाचार का निरूपण करते हैं । । ३-- -१३ परिच्छेद समाधिका निरूपण करते हैं । १४ -- २३ परिच्छेद प्रज्ञा का निरुपण करते हैं । शील का निरूपण करने वाले प्रथम दो परिच्छेदों के नाम हैं क्रमश: 'शील -निर्देश' ( सीलनिद्देसो) और 'अवधूत - व्रतों का निर्देश' ( धुतंग निसो) । प्रथम परिच्छेद में आचार्य बुद्धघोष ने अपने विवेच्य विषय को प्रश्नों के रूप में वर्गीकृत किया है- (१) गील क्या है ? (२) किस अर्थ से 'शील' है ? (३) गील के लक्षण, सार, प्रकटित स्वरूप और आसन्न कारण क्या हैं ? (४) शील का सुपरिणाम क्या है ? ( ५ ) शील कितने प्रकार का है ? (६) शील का मैला होना क्या है ? (७) शील का निर्मल होना क्या है ? इन प्रश्नों के उत्तर जो बुद्धघोष ने दिये है, उनका यदि यहां संक्षेप भी दिया जाय तो वह भी कई पृष्ठ लेगा। फिर इनके साथ साथ अनेक अवान्तर विषय भी 'विबुद्धि मग्ग' में सम्मिलित हैं -- जिनका साधकों के लिए अपना महत्व हैं, किन्तु पालि साहित्य के इतिहास में जिन्हें विस्तार भय से उद्धृत नहीं किया जा १. 'विद्धि मरन' की विषय-वस्तु का विशद विश्लेषण भिक्षु जगदीश काश्यप ने अपनी अभिधम्म- फिलॉसफो, जिल्द दूसरी, पृष्ठ २१८-२५७ में किया है। त्रिपिटकाचार्य भिक्षु धर्मरक्षित ने भी "धर्म दूत" अप्रैल - मई १९४७ पृष्ठ ६१-६६ में इसका सुन्दर विश्लेषण किया है । Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५१८ ) सकता। उदाहरणतः बुद्धघोष द्वारा शील की प्रशंसा,' ब्रह्मचर्य के उच्चतम आदर्श का प्रकाशन,२ और सबसे बढ़कर कुछ बौद्ध साधकों के पवित्र-जीवन संबंधी अभ्यास के उदाहरण, आदि बड़े मार्मिक प्रसंग हैं। तेरह अवधूत व्रतों (जो दूसरे परिच्छेद के विषय हैं) के नामों का विवरण हम 'मिलिन्द पन्ह' का विवरण करते समय दे चुके हैं। उन्हीं का यहां भी विस्तृत विवरण है । प्रत्येक अवधूत-नियम के विषय में यहाँ इतनी दृष्टियों से विचार किया गया है (१) अर्थ (२) लक्षण (३) ग्रहण की विधि (४) विभिन्न प्रकार, यथा उत्तम, मध्यम, हीन (५) भंग होना (६) व्रत-रक्षण की प्रशंसा (७) कुशल-त्रिक के रूप में वर्गीकरण (८) समष्टिगत विवरण (९) व्यष्टिगत विवरण । अल्पेच्छता, सन्तोष आदि गुणों की वृद्धि के लिए ही इन नियमों के अभ्यास का विधान किया गया है। वास्तव में ये चित्त के मैल को शुद्ध करने के लिए ही हैं। अतः इनका अभ्यास सब के लिए अनिवार्य नहीं है। आचार्य बुद्धघोष ने इन कटिन नियमों के विवेचन में तथागत के मध्यम मार्ग को कभी दृष्टि से ओझल नहीं होने दिया है । इसीलिए उन्होंने एक महत्वपूर्ण प्रश्न किया है 'कस्स धुतंगसेवना सप्पाया ति' अर्थात् किसका अवधूत-व्रतों का अभ्यास अनुकूल है ? उत्तर दिया है 'रागचरितस्स चेव मोहचरितस्स च' अर्थात् उस व्यक्ति का जिसके आचरण में अभी राग वर्तमान है, मोह वर्तमान है । उन्होंने स्वीकार किया है 'धुतंगसेवना हि दुक्खा पटिपदा चेव सल्लेखविहारो च' अर्थात् अवधूत-व्रतों का अभ्यास दुःख का मार्ग है और तपश्चर्या का जीवन है। उनका उपयोग साधक के लिए केवल इसीलिए है कि वे चित्त-मलों को नष्ट कर देते हैं और इस प्रकार वे भिक्षु के अंग ही बन जाते हैं। दुःख-मार्ग के आश्रय लेने वाले का राग शान्त हो जाता है, तपश्चर्या से रहने वाले अप्रमादी व्यक्ति का मोह नष्ट हो जाता है । इसीलिए राग १. पृष्ठ ६-७ २. पृष्ठ ३४-३५ ३. देखिये विशेषतः पृष्ठ १४, २२, २६-२८, ३१-३२ आदि, आदि ४. दुक्खापटिपदं च निस्साय रागो वूपसमति । सल्लेखं निस्साय अप्पमत्तस्स मोहो पहीयति। पृष्ठ ५४-५५ Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५१९ ) द्वेषादियुक्त व्यक्तियों का चित्त-शुद्धि के लिए स्वेच्छापूर्वक इन व्रतों को स्वीकार करना आवश्यक है । इस प्रकार उनके दोष शान्त हो जाते हैं। शील या सदाचार के बाद विशुद्धि-मार्ग उस दूसरी ऊँची भूमिका का वर्णन करता है, जिसका नाम समाधि है। समाधि की परिभाषा करते हुए आचार्य बुद्धघोष ने कहा है 'कुसलचित्तेकग्गता समाधि' अर्थात् कुशल चित्त की एकाग्रता ही समाधि है । किसी एक आलम्बन (विषय) में चित्त और चेतसिक कर्मों को समान और सम्यक रूप से बिना विक्षेप और विकीर्णता के रखना ही चित्त की समाधि या समाधान (सम्यक् आधान) कहलाता है ।' समाधि के विषय में भी आचार्य बद्धघोष ने वही प्रश्न किये हैं जो शील के विषय में, यथा (१) समाधि क्या है ? (२) किस अर्थ में 'समाधि' है ? (३) समाधि के लक्षण, सार, प्रकटित रूप और आसन्न कारण क्या हैं ? (४) समाधि कितने प्रकार की है ? (५) समाधि का मलिन होना क्या है ? (६) समाधि का निर्मल होना क्या है? और (७) समाधि की भावना किस प्रकार करनी चाहिए? इनके उत्तरों का संक्षेप देना तो यहाँ असंभव ही होगा। केवल कुछ मोटी बातें ही कही जा सकती है। आचार्य बुद्धघोष ने समाधि का प्रधानतः दो भागों में विवरण किया है, यथा उपचार समाधि (२) अर्पणा समाधि । चार भागों में भी, यथा (१) दुक्खा पटिपदा दन्धाभिज्ञा। (२) दुक्खा पटिपदा खिप्पाभिज्ञा। (३) सुखा पटिपदा दन्धाभिज्ञा। (४) सुखा पटिपदा खिप्पाभिजा। जैसा अभी कहा गया, समाधि-स्कन्ध का विवरण 'विसुद्धिमग्ग' के ३-१३ परिच्छेदों में है । इन परिच्छेदों के नाम-विवरण के अलावा उनकी विषय-वस्तुका तो संक्षिप्त निर्देश भी यहाँ प्राय: असंभव ही है, अतः हम उनके नाम देकर उनकी विषय-वस्तु को इंगित मात्र करेंगे । १. एकारम्मणे चित्तचेतसिका समं सम्मा च अविक्खिपमान अविष्पकिण्णा च हुत्वा तिठ्ठन्ति, इदं समाधानं ति वेदितब्बं (पृष्ठ ५७) Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५२० ) समाधि-स्कन्ध (परिच्छेद ३-१३) ३. कर्मस्थानों (समाधि के आलम्बनों) को ग्रहण करने का निर्देश (कम्मट्ठानगहण निद्देसो)--समाधि-भावना की दस बाधाओं' (पलिबोधा) को छोड़ने का उपदेश । ___४. पृथ्वी कृत्स्न (ध्यान-विशेष) का निर्देश (पयवीकसिणनिद्देसो)-- पृथ्वी-कृत्स्न नामक ध्यान का विवरण। समाधि के अयोग्य १८ स्थानों को छोड़ने का आदेश एवं चार ध्यानों का विस्तृत विवरण ।। ५. शेप कृत्स्नों (ध्यान विगेषों) का निर्देश (सेसकसिणनिद्देसो)-- पृथ्वी-कृत्स्न से अतिरिक्त शेष आपो-कृत्स्न (जल-कृत्स्न) आदि ९ ध्यानों का विवरण । ६. अशुभ कर्मस्थान का निर्देश (असुभकम्मट्टान निद्देसो)--शरीर की गन्दगियों के ध्यान के द्वारा अर्पणा-समाधि की प्राप्ति का उपाय । ७. छह अनुस्मृतियों का निर्देश (छ अनुस्सति निद्देसो)--बुद्ध धर्म, संघ, शील, त्याग और देवताओं की अनुस्मृतियाँ । ८. अनुस्मृति और कर्म-स्थान का निर्देश (अनुस्मति कम्मट्ठान निद्देसो) १. यथा आवास, कुल, लाभ, गण, काम, मार्ग, जाति-बन्धु, रोग, ग्रन्थ (-रचना) और ऋद्धि (योग-विभूति) २. यथा (१) बहुत बड़ा विहार, (२) बिलकुल नया विहार, (३) बहुत पुराना विहार, (४) सड़क के किनारे स्थित, (५) तालाब के किनारे स्थित, (६-८) पेड़, फूल और फलों वाले बागों से युक्त , (९) अति प्रसिद्ध, (१०) नगर के बीच में स्थित, (११) अधिक पेड़ों के बीच स्थित, (१२) खड़ी फसलों वाले खेत के समीप, (१३) झगड़ालू भिक्षु जहाँ रहते हों, (१४) जहाँ के व्यक्ति अ-धार्मिक हों, (१५) सीमा-प्रान्त में अवस्थित , (१६) अ-रक्षित स्थान में स्थित और (१८) जहाँ कल्याण-मित्र (आध्यात्मिक गुरु या मार्ग द्रष्टा) न मिल सके। Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५२१ ) मरण, कायगतासति, आनापान-सति और उपशम इन चार अनुस्मृतियों तथा योग-आलम्बनों का विवरण । ९. ब्रह्मविहार का निर्देश (ब्रह्मविहार निद्देसो)--मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा यही चार भावनाएँ 'ब्रह्म-विहार' कहलाती है । इनका विशद विवरण । इन भावनाओं का निर्देश पतंजलि ने भी अपने योग-दर्शन में किया है। १०. अ-रूपता का निर्देश (आरुप्प निद्देसो)--अरूपता-सम्बन्धी ध्यानों का विवरण, यथा आकाशाननन्त्यायतन, विज्ञानानन्त्यायतन, आकिञ्चन्यायतन तथा नैवसंज्ञानासंज्ञायतन ध्यानों का विवरण । ११. समाधि का निर्देश (समाधि निद्देमो) समाधि-भावना का उपदेश एवं शरीर की अशुभता आदि पर ध्यान । आहार में प्रतिकूल-संज्ञा आदि का विवेचन भी। १२. ऋद्धविध का निर्देश (इद्धविधनिद्देसो)--दिव्यश्रोत्र, परचित्त-ज्ञान, पूर्वजन्म की स्मृति और दिव्य चक्षु इन चार योग-विभूतियों का विवरण । १३. अभिज्ञा (उच्चतम ज्ञान) का निर्देश (अभिज्ञा निद्देसो)--पूर्वजन्म की स्मृति आदि का ही विस्तृत विवरण । प्रज्ञा की परिभाषा करते हुए आचार्य बुद्धघोप ने कह. है 'कुसलचित्तसम्पयुत्तं विपस्सनाजाणं पञ्जा' अर्थात् कुशल-चित्त से युक्त विपश्यना-ज्ञान ही प्रज्ञा है । प्रज्ञा-स्कन्ध के परिच्छेदों की विषय-वस्तु इस प्रकार है-- १४. स्कन्ध-निर्देश (खन्ध-निद्देसो)--पञ्च-स्कन्धों (रूप, वेदना, संज्ञा संस्कार और विज्ञान) का विवेचन । १५. आयतन और धातुओं का निर्देश (आयतन-धातु निद्देसो)--१२ आयतन और अठारह धातुओं का विवरण ।। १६. इन्द्रिय और सत्यों का निर्देश (इन्द्रिय-सच्चनिद्देसो)--पांच इन्द्रिय और चार आर्य-सत्यों का विवरण । १७. प्रज्ञा की भूमियों का निर्देश (पज्ञाभूमिनिद्देसो)--स्कन्ध, आयतन, धातु, इन्द्रिय, सत्य और प्रतीत्य समुत्पाद ये प्रज्ञाकी मूभियाँ है । प्रथम पाँच का वर्णन पहले हो चुका है। यहाँ प्रतीत्य समुत्पाद का विरतृततम विवरण उपलब्ध होता है। Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५२२ ) १८. दृष्टि की विशुद्धि का निर्देश (दिट्ठिविसुद्धि निद्देसो)--नाम और रूप का यथावत् दर्शन ही दृष्टि-विशुद्धि है-इसका विस्तृत विवरण। १९. संशय को पार करने के रूप में विशुद्धि का निर्देश (कंखावितरणविसुद्धि निद्देसो)--यथाभूत ज्ञान, सम्यक् दर्शन और संशय को पार करना, यह सब एक ही वस्तु हैं, केवल शब्द नाना हैं। २०. मार्ग और अमार्ग के ज्ञान और दर्शन के रूप में विशुद्धि का निर्देश ( मग्गामग्गत्राणदस्सनविसुद्धि निद्देसो ) पदार्थों के उदय और व्यय को देखना एवं विपश्यना-प्रज्ञा की भावना करना ।। २१. प्रतिपदा (मध्यम-मार्ग) के ज्ञान और दर्शन के रूप में विशुद्धि का निर्देश (पटिपदाञाणदस्सनविसुद्धि निद्देसो)--'न मैं, न मेरा, न मेरा आत्मा, अर्थात् अनात्म तत्व की भावना का विवरण ।। २२. ज्ञान और दर्शन रूपी विशुद्धि का निर्देश (ञाणदस्सनविसृद्धि निद्देसो)--स्रोतापत्ति, सकृदागामी, अनागामी और अर्हत्, इन चार मार्गों सम्बन्धी ज्ञान का विवरण । बोधिपक्षीय धर्मों का भी इन्हीं के अन्दर समावेश । २३. प्रज्ञा की भावना के सुपरिणामों का निर्देश (पञा भावनानिसंसनिद्देसो)--नाना चित्त-मलों का विध्वंस, आर्य-फल के रस का अनुभव, निरोधसमाधि को प्राप्त करने की योग्यता और लोक में पूज्य होने की पात्रता, प्रज्ञाकी भावना के इन चारस्परिणामों का विवरण । उपयुक्त विषय-सूची के संकेत-मात्र से स्पष्ट है कि 'विशद्धि-मार्ग' का क्षेत्र कितना अधिक विस्तृत है । अतः यदि इतने निरूपण से हम केवल यह भी इंगित करने में सफल हो सके कि 'विशुद्धि-मार्ग' बुद्ध-धर्म सम्बन्धी महान् ज्ञानकोश को संचित किये हुए है, तो भी हमने पालि साहित्य की दृष्टि से अपना कर्तव्य पूरा कर दिया । विवरण में आगे चले जाने पर तो इस विषय का अन्त ही नहीं हो सकता, क्योंकि पातंजल योग के साथ इसका तुलनात्मक अध्ययन किये बिना कोई इस सम्बन्धी विवेचन पूरा नहीं माना जा सकता। अब हम बुद्ध घोष की अट्ठकथाओं पर आते हैं। समन्तपासादिका ___ समन्तपासादिका पूरे विनय-पिटक की अट्ठकथा है । आचार्य बुद्धघोष की रची हुई यह सम्भवतः प्रथम अट्ठकथा है । बुद्ध श्री (बुद्धसिरि) नामक Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५२३ ) स्थविर की प्रार्थना पर उन्होंने यह अट्ठकथा लिखी थी । प्राचीन भारत को सामाजिक, राजनैतिक, और धार्मिक अवस्था का इस अकेले ग्रन्थ से ही एक पूरा इतिहास निर्मित किया जा सकता है। प्रथम तीन बौद्ध संगीतियों के विवरण में हमने इस ग्रन्थ से कितनी सहायता ली है, यह पूर्व के विवरणों से स्पष्ट हो गया होगा | भगवान् बुद्ध और उनके शिष्यों के जीवन सम्बन्धी अनेक विवरणों के अतिरिक्त तत्कालीन अन्य प्रसिद्ध ऐतिहासिक व्यक्तियों और भौगोलिक स्थानों के विवरण जो हमें यहाँ मिलते है, बड़े ही महत्त्वपूर्ण हैं । इस अट्ठकथा के बाद ही बुद्धघोष ने सुत्तपिटक के निकायों पर अट्ठकथाएँ लिखीं । कंखावितरणी 'कंखावितरणी' 'पाति मोक्ख' पर अट्ठकथा है । इस अट्ठकथा में हमें न केवल बुद्धकालीन भिक्षु संघ के जीवन की ही झलक मिलती है, अपितु उसके उत्तरकालीन विकास का भी पर्याप्त ज्ञान होता है । सुमंगलविलासिनी 'सुमंगल विलासिनी' दीघ निकाय की अट्ठकथा है । संघस्थविर दाठानाग नामक भिक्षु की प्रार्थना पर आचार्य बुद्धघोष ने यह अट्ठकथा लिखी, ऐसा उन्होंने स्वयं कहा है । बुद्धकालीन भारत की राजनैतिक, सामाजिक एवं धार्मिक परिस्थिति के अनेक चित्रों एवं अनेक प्रकार के आख्यानों से यह अट्ठकथा भरी पड़ी है । सुत्तों के अनेक प्रकार के विवेचन, बुद्ध और उनके शिष्यों के जीवन सम्बन्धी अनेक विवरण, इस अट्ठकथा में भी भरे पड़े हैं। उदाहरणतः भगवान् बुद्ध 'तथागत' क्यों कहलाते हैं, उनकी दैनिक चर्या क्या थी, आदि अनेक महत्त्व - पूर्ण विवरण इस अट्ठकथा में हैं । इसी प्रकार बुद्धकालीन महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों यथा जीवक कौमारभृत्य तिष्य श्रामणेर, अम्बट्ठ आदि के विषय में अधिक जानकारी यहाँ दी गई है । इसी प्रकार भौगोलिक दृष्टि से अंग-मगध, दक्षिणा १. आयाचितो सुमंगलपरिवेणनिवासिना थिरगुणेन दाठाना संघत्थरेन थेर वंसन्वयेन । यं आरभि सुमंगलविलासिनि नाम नामेन । Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५२४ ) पथ, घोपिताराम, कोशल, राजगृह आदि के प्राचीन आख्यान-बद्ध इतिहास और उनके विषय में अन्य महत्त्वपूर्ण विवरण दिये गये हैं, जो पालि-त्रिपिटक में नहीं मिलते । इन सब के अलावा 'सुमंगलविलासिनी' में दीघ-निकाय के कठिन शब्दों की निरुक्तियाँ और उनके अर्थ-निर्वचन भी है, जो अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । उसका सब से अधिक आकर्षक महत्त्व तो ऐतिहासिक ही है, इसमें संदेह नहीं। पपञ्चसूदनी नुमंगलविलामिनी की ही शैली में लिखित पपञ्चसूदनी मज्झिम-निकाय की विस्तृत अट्ठकथा है । यह अट्ठकथा आचार्य बुद्धघोष ने बुद्धमित्र नामक स्थविर की प्रार्थना पर लिखी थी।' ऐतिहासिक और भौगोलिक दृष्टि से इस अट्ठकथा का भी प्रभूत महत्त्व है । कुरु-प्रदेश, श्रावस्ती (सावत्थि), हिमवन्तप्रदेश आदि के महत्त्वपूर्ण विवरण इस अट्ठकथा में मिलते हैं । विषय-विन्यास मज्झिम-निकाय के समान ही है और उसी के अनुसार बुद्ध-वचनों की क्रमानुसार व्याख्या भी यहाँ की गई है, जो उस दृष्टि से भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। सारत्थपकासिनी ज्योतिपाल नामक भिक्षु की प्रार्थना पर आचार्य बुद्धघोष ने सारत्थपकासिनी या संयत-निकाय की अट्ठकथा लिखी ।२ अर्थ और ऐतिहासिक तथा भौगोलिक दृष्टियों से यह अट्ठकथा भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । इसके अलावा यहाँ इसके विषय में और कुछ नहीं कहा जा सकता। मनोरथपूरणी मनोरथपुरणी या अंगुनर-निकाय की अट्ठकथा आचार्य वुद्धघोष ने भदन्त नामक स्थविर की प्रार्थना पर लिखी । इस अट्ठकथा की एक बड़ी विशेषता यह है कि इसमें भगवान् बुद्ध के शिष्य अनेक भिक्षु और भिक्षुणियों की ज्ञान प्राप्ति का वर्णन किया गया है । उदाहरणत: पिंडोल भारद्वाज, पुण्ण मन्तानिपुत्त, महा १. आमचितो सुपतिना थेरेन भदन्त बुद्धिमित्तेन, आदि। २. आपाचितो सुमतिना थेरेन भदन्त-जोतिपालेन। कंबीपुरादिसु भया पुब्बे सद्धि वसन्तेन, आदि ॥ Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५२५ ) कच्चान, सोण कोळिवीस, राहुल, रट्ठपाल, बंगीस, कुमार कस्सप, उपालि उरुवेल कस्सप आदि के महत्त्वपूर्ण विवरण दिये हुए है। इसी प्रकार महाप्रजापती गोतमी, संघमित्रा तथा अन्य अनेक भिक्षुणियों के भी विवरण है । भगवान् बुद्ध के वर्षावासों का भी बड़ा अच्छा विवरण यहाँ दिया गया है । वुद्धत्व-प्राप्ति से लेकर महापरिनिर्वाण तक के ४५ वर्षवासों को भगवान् ने कहाँ-कहाँ विताया, इस ऐतिहासिक महत्त्वपूर्ण तथ्य के विषय में यहाँ कहाँ गया है--"तथागत प्रथम बोधि में वीस वर्ष तक अस्थिरवास हो, जहाँ जहाँ ठीक रहा वहीं जाकर वास करते रहे। पहली वर्षा में ऋषिपतन में धर्म-चक्र प्रवर्तन कर वाराणसी के पास ऋषिपतन में वास किया। दूसरी वर्षा में राजगृह वेणुवन में। तोसरी और चौथी भी वहीं । पाँचवीं वर्षा वैशाली में महावन कूटागार-शाला में । छठवी वर्षा में मंकुल-पर्वत पर। सातवीं त्रायस्त्रिश भवन में । आठवी भर्ग-देश में सुंसुमार-गिरि के भेस कलावन में । नवीं कौशाम्बी में । दसवीं पारिलेय्यक वनखंड में । ग्यारहयो नाला ब्राह्मण-ग्राम में । वारहवीं वेरंजा में । तेरहवीं चालिय पर्वत पर । चौदहवी जेतवन में । पन्द्रहवीं कपिलवस्तु में । सोलहवीं आलवी में । सत्रहवीं राजगृह में । अठारहवीं चालिय पर्वत पर । उन्नीसवीं भी वहीं । बीसवीं वर्षा राजगृह में । इस प्रकार तथागत ने वीस वर्ष, जहाँ जहाँ ठीक हुआ, वही वर्षावास किया । इससे आगे दो ही निवास-स्थान सदा रहने के लिये किये । कौन से दो ? जेतवन और पूर्वाराम......।"अतः इस अट्ठकथा के अनुसार, बुद्ध के वर्पावासों का यह प्रामाणिक व्यौरा इस प्रकार होगा। वर्षा-वास rarur " जहाँ बिताया अपि पतन राजगृह वैशाली मंकुलपर्वत त्रायस्त्रिंश १: महापंडित राहुल सांकृत्यायन द्वारा बुद्धचर्या पृष्ठ ७५ में अनुवादित । Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ ९ १० ११ १२ १३ १४ १५ १६ १७ १८-१९ २० २१-४५ ४६ ( ५२६ ) सुंसुमारगिरि कौशाम्बी पारिलेय्यक नाला वेरंजा चालय पर्वत श्रावस्ती ( जेतवन) कपिलवस्तु आलवी राजगृह चालिय पर्वत राजगृह श्रावस्ती ( जेतवन) वैशाली (पूर्वाराम) परमत्थजोतिका परमत्थजोतिका खुद्दक निकाय के खुद्दक पाठ और सुत्तनिपात की अट्ठकथा है | इसमें लिच्छवियों की उत्पत्ति की मनोरंजक कथा है, जिसका विवरण हम यहाँ विस्तार भय के कारण नहीं दे सकते । परमत्थजोतिका के अन्तर्गत खुद्दक पाठ की अट्ठकथा के प्रसंग में अनाथपिंडिक के आराम जेतवन, राजगृह के १८ विहारों, सप्तपर्णी गुफा और वैशाली आदि के विशेष में विशेष सूचना दी गई है । महाकाश्यप, आनन्द और उपालि आदि भिक्षुओं तथा विशाखा, धम्मदिन्ना आदि भिक्षुणियों के विषय में भी कुछ अधिक सूचना दी गई है । धम्मपदट्ठकथा धम्मपदट्ठकथा या धम्मपद की अट्ठकथा में जातक के ढंग की कहानियों का प्राधान्य है । चार निकायों और जातक आदि से ही ये कहानियाँ संगृहीत की गई हैं । जातक की अनेक गाथाएँ यहाँ उद्धृत की गई हैं और उसकी कहानियों Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५२७ ) में से अनेक यहाँ उसी रूप में रक्खी हुई हैं । वास्तव में धम्मपदट्ठकथा कहानियों का एक संग्रह ही है । वासवदत्ता और उदयन की कथा भी इस अट्ठकथा में एक जगह मिलती है । अनेक कथाएँ जातक के अलावा विनय-पिटक से भी ली गई है, जैसे देवदत्त, बोधिराजकुमार, छन्न आदि की कथाएँ । निश्चय ही जातक और धम्मपदट्ठ-कथा का पारस्परिक सम्बन्ध पालि साहित्य के इतिहास की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है । धम्मपदट्ठकथा आचार्य बुद्धघोष की रचना है या नही, इसके विषय में सन्देह प्रकट किया गया है । डा० गायगर ने इसे आचार्य बुद्धघोष की रचना नहीं माना है । उन्होंने धम्मपदट्ठकथा को जातकट्ठवण्णना से भी बाद की रचना माना है, क्योंकि दोनों में अनेक कहानियाँ समान है । यह एक आश्चर्य की बात है कि जो कहानियाँ यहाँ दी गई हैं और जिनके आधार पर धम्मपद की प्रत्येक गाथा को समझाया गया है, उन्हें भी साक्षात् बुद्धोपदेश (बुद्धदेसना ) ही यहाँ बताया गया है, जो ऐतिहासिक रूप से ठीक नहीं हो सकता । कुछ भी हो धम्मपदट्ठकथा की कहानियों में जातक के समान ही प्राचीन भारतीय जीवन, विशेषतः सामान्य जनता के जीवन की पूरी झलक मिलती है और भारती कथा - साहित्य में उसका भी एक स्थान है । जातकट्ठवण्णना जातकट्ठवण्णना का जातक - गाथाओं की अट्ठकथा है । इसके भी बुद्धघोष - कृत होने में सन्देह किया गया है । डा० गायगर ने इसे किसी सिंहली भिक्षु की रचना माना है, फिर चाहे वह भले ही बुद्धघोष क्यों न हों । २ प्राचीन सिंहली अट्ठकथाओं से लेखक ने अपनी सामग्री का संकलन किया है । इन कहानियों या आख्यानों की अपेक्षा धम्मपदट्ठकथा की कहानियाँ अपने स्वरूप में बुद्ध-उपदेशों की भावना से अधिक प्रभावित है । वास्तव में यहाँ तो लोक - विश्वासों की ही झलक अधिक मिलती है । भूत और वर्तमान के ( बुद्ध - ) जीवन की कहानियों १. उन्होंने इसे किसी मौलिक सिंहली अट्ठकथा का पालि अनुवाद माना है । देखिये उनका पालि लिटरेचर एंड लेंग्वेज, पृष्ठ ३२ २. पालि लिटरेचर एंड लेंग्वेज, पृष्ठ ३१ Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५२८ ) की पृष्ठभूमि में बहुत कुछ अन्तर पाया जाता है, अतः उत्तरकालीन क्षेपकों और परिवर्द्धनों की भी इस ग्रन्थ में आशंका की गई है । भारतीय कथानक-साहित्य के प्राचीन रूप को जानने के लिये जातक के समान उसकी इस अट्ठकथा को भी पढ़ना अत्यन्त आवश्यक है, इसमें सन्देह नहीं । अभिधम्म-पिटक सम्बन्धी अट्ठकथाएँ ___ आचार्य बुद्धघोप की अभिधम्म-पिटक सम्बन्धी अट्ठकथाएँ भी बड़ी महत्त्वपूर्ण हैं । इनमें सव से पहला स्थान 'अट्ठसालिनी' का है,जो 'धम्मसंगणि'की अट्ठकथा है । वास्तव में इसके समान गम्भीर और दुरुह दूसरी रचना अनुपिटक माहित्य में नहीं है । जैसा हम पहले देख चुके हैं, 'महावंस' के धम्मकित्ति-विरचित परिवद्धित अंश के अनुसार आचार्य बुद्धघोष ने 'अट्ठसालिनी' की रचना लंका से प्रस्थान करने के पहले ही की थी। यह बात ठीक नही हो सकती । लंका जाकर बुद्धघोष महास्थविर ने 'विसुद्धिमग्ग' लिखा, यह तो निश्चित ही है । उसके बाद ही 'अट्ठसालिनी' लिखी गई, यह हमें जानना चाहिये । इसका कारण यह है कि 'अट्ठसालिनी' के आरम्भ की गाथाओं में स्वयं आचार्य बुद्धघोष ने कहा है “सब कर्म-स्थान (समाधि के आलम्बन) चर्या, अभिज्ञा और विपश्यना का प्रकाशन म 'विसुद्धि-मग्ग' में कर चुका हूँ, इसलिये फिर उनका यहाँ विवरण नहीं करूंगा"१ आदि। अत: 'अट्ठसालिनी' को 'विसुद्धिमग्ग' के वाद की ही रचना मानना चाहिये । यह हो सकता है कि उसकी एक प्राथमिक रूपरेखा आचार्य बुद्धघोष ने यहाँ बनाई हो । प्रस्तुत रूप में तो वह निश्चित रूप से 'विसुद्धिमग्ग' से बाद की रचना है। अभिधम्म के जिज्ञासुओं के लिये 'अट्ठसालिनी' का कितना अधिक महत्त्व है, यह बताने की आवश्यकता नहीं । यह बड़ी प्रसन्नता की बात है कि प्रो० वापट द्वारा सम्पादित इस अट्ठकथा का देव-नागरी संस्करण भी प्रकाशित हो चुका है, जो राष्ट्र-भाषा हिन्दी के लिये एक मंगलकारी चिन्ह है । 'अट्ठसालिनी' के अलावा 'सम्मोह-विनोदनी' नाम की अट्ठकथा आचार्य बुद्धघोष ने विभंग १. कम्मट्ठानानि सब्बानि चरियाभिञा विपस्सना। विसुद्धिमग्गे पनिदं यस्मा सब्बं पकासितं ॥आदि। Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५२९ ) पर लिखी । अन्य पाँच अभिधम्म-ग्रन्थों पर भी उन्होंने अट्ठकथाएँ लिखीं, जिनके नाम हैं क्रमशः धातुकथापकरणट्ठकथा, पुग्गल -पञ्ञत्तिपकरणट्ठकथा, कथावत्थु-पकरण-अट्ठकथा,' यमकपकरणट्ठकथा और पट्ठान पकरणट्ठकथा | यह पाँचों अट्ठकथाएँ मिलकर पञ्च-प्पकरणट्ठ कथा, भी कहलाती है । अन्य रचनाएँ जैसा बुद्धघोष की जीवनी के प्रसंग में कहा जा चुका है, लंका-गमन से पूर्व आचार्य बुद्धघोष ने 'जाणोदय' (ज्ञानोदय) नामक ग्रन्थ और सम्पूर्ण त्रिपिटक पर एक संक्षिप्त अट्ठकथा लिखी थी । ये रचनाएँ आज नहीं मिलतीं । 'सासनवंस' के अनुसार आचार्य बुद्धघोष 'पिटकत्तयलक्खण गन्ध' (पिटकत्रयलक्षण ग्रन्थ) नामक ग्रन्थ के भी रचयिता थे, किन्तु यह ग्रन्थ भी आज नहीं मिलता । महाकाव्य की शैली पर बुद्ध जीवनी के रूप में लिखित 'पद्यचूडामणि' नामक ग्रन्थ भी जिसे मद्रास सरकार ने प्रकाशित करवाया था, उसके सम्पादक कुप्पूस्वामी शास्त्री के द्वारा अट्ठकथाचरिय वुद्धघोष की रचना बतलाया गया है । उसकी भिन्न शैली के साक्ष्य पर डा० विमलाचरण लाहा ने उसे पालि अट्ठकथाकार बुद्धघोष की रचना नहीं माना है । हमें भी यही मत समीचीन जान पड़ता है । पालि - साहित्य में बुद्धघोष का स्थान इस प्रकार आचार्य बुद्धघोष के विशाल ज्ञान की कुछ झलक हम ने देखी है । वास्तव में पालि साहित्य के एक पूरे युग के वे विधायक हैं जिसका प्रभाव अभी भी नि:शेष नहीं हुआ है । उनके 'विसुद्धि-मग्ग' की ज्ञान - गरिमा पालि-साहित्य २. इस अट्ठकथा के अनुसार अशोक के काल तक उत्पन्न १८ बौद्ध सम्प्रदायों और उनके मतों का उल्लेख हम पाँचवें अध्याय में 'कथावत्यु' के विश्लेषण के प्रसंग कर आ चुके हैं। २ पद्य - चूड़ामणि की विषय-वस्तु और शैली के विवरण तथा डा० लाहा के तत्सम्बन्धी निष्कर्ष के लिए देखिये उनका 'दि लाइफ एंड वर्क ऑव बुद्धघोष', पृष्ठ ८५-९१ ३४ Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५३० ) । में ही नहीं सम्पूर्ण भारतीय दार्शनिक इतिहास में अपना एक विशेष स्थान रखती हैं । इसी प्रकार उनकी अट्ठकथाओं का अर्थ सम्बन्धी महत्त्व तो है ही, उनमें जो महान् ऐतिहासिक और भौगोलिक सामग्री भरी पड़ी है, जिससे सम्पूर्ण प्राचीन भारतीय सामाजिक और राजनैतिक जीवन पुनरुज्जीवित हो उठता है, वह तो भारतीय इतिहास के विद्यार्थी के लिये निरन्तर उपयोग की वस्तु ही है । आचार्य बुद्धघोष उन प्राचीन भारतीय आचार्यो की परम्परा में से थे जो ज्ञान के क्षेत्र को मौलिक दान देते हुए भी भाष्यकार के विनीत रूप में रहना ही पसन्द करते आचार्य बुद्धघोष ने हमें बहुत कुछ नया आलोक दिया है, ज्ञान के क्षेत्र को अपने ढंग से काफी विस्तृत किया है, फिर भी सदा अपने को महाविहारवासी भिक्षुओं की आदेशना - विधि का अनुगामी ही बताया है । यह उनकी विनम्रता का सूचक है । बुद्धघोष महास्थविर ने सद्धम्म की चिरस्थिति के लिये जो काम किया है, उसी के कारण हम आज बुद्ध और उनके युग को इतनी सजीवता के साथ समझ सके हैं । बुद्धघोष की अट्ठकथाओं से लुम्बिनी, कौशाम्बी, राजगृह, उरुवेला और कपिलवस्तु की स्मृतियों को आज भी नया बनाया जा सकता है और चित्त को राग, द्वेष और मोह 'मुक्त किया जा सकता है। जब तक 'विसुद्धिमग्ग' और 'अट्ठसालिनी' जैसे गम्भीर दार्शनिक ग्रन्थ और 'सुमंगल विलासिनी' और 'समन्त - पासादिका' जैसी ऐतिहासिक सामग्री - परिपूर्ण अट्ठकथाएँ पालि में विद्यमान है, तत्र तक ज्ञान और इतिहास के गवेषक सदा उसके दरवाजे पर आते रहेंगे और प्रसंगवश उस विनीत, साक्षात् मैत्रेय, महास्थविर की अनुस्मृति करते भी रहेंगे, जो ज्ञान-पिपासावश भारत से लंका दौड़ा गया था और जिसने वहाँ महापधान-भवन में बैठकर दिन-रात बुद्ध-शासन का चिन्तन किया था और उसके मर्म को भी पाया था । हम आचार्य बुद्धघोष की इसी अनुस्मृति के साथ इस प्रकरण को समाप्त करते हैं । धम्मपाल और उनकी अट्ठकथाएँ आचार्य बुद्धघोष के समकालिक बुद्धदत्त ( जिनका विवरण पहले दिया जा चुका है ) के अलावा एक अन्य प्रसिद्ध अट्ठकथाकार धम्मपाल है । वास्तव में बुद्धदत्त और धम्मपाल दोनों ने बुद्धघोष के काम को ही पूरा किया है। धम्मपाल Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५३१ ) का जन्म तामिल-प्रदेश में काञ्चीपुर में हुआ था। इनकी भी शिक्षा सिंहल के महाविहार में हुई थी। आचार्य धम्मपाल की रचनाएँ ये है-- १. परमत्थदीपनी खुद्दक-निकाय के उन ग्रन्थों की अट्ठकथा है जिन पर वुद्धघोष ने अट्ठकथा नहीं लिखी । इस प्रकार धम्मपाल की इस अट्ठकथा के अन्तर्गत उदान, इतिवृत्तक, विमानवत्थु, पेतवत्थु, थेरगाथा, थेरोगाथा एवं चरिया पिटककी अट्ठकथाएँ सम्मिलित है । इनमें विशेषतः थेर-थेरी गाथाओंकी अट्ठकथाएँ ऐतिहासिक दष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यहाँ लेखक ने भगवान् वुद्ध के शिष्य भिक्षु-भिक्षुणियों की जीवनियों को अनुविद्ध किया है ।। २. नेतिपकरण-अट्ठकथा या नेत्तिपकरणस्स अत्थसंवण्णना (नेत्ति पकरण की अट्ठकथा ) ३. नेतित्थ कथाय टीका या लीनत्थवण्णना (उपर्युक्त नेत्तिपकरण-अठकथा की टीका) ४. परमत्थमञ्जूसा या महाटीका--विसुद्धिमग्ग की अट्ठकथा । ५. लीनत्थपकासिनी--प्रथम चार निकायों की बुद्धघोष-कृत अट्ठकथाओं की टीका । ६. जातकट्ठकथा की टीका (जिसका भी नाम लीनत्थ पकासिनी है) ७. बुद्धदत्त-कृत मधुरत्थविलासिनी की टीका । धम्मपाल-कृत उपयुक्त ग्रन्थों में सब से अधिक प्रसिद्ध परमत्थदीपनी है। शेष में से कुछ प्राप्त भी नहीं हैं। कुछ ऐसी भी है जिनके विषय में यह निश्चय नहीं किया जा सकता कि ये किस धम्मपाल की है, क्योंकि इस नाम के कई भिक्ष कई शताब्दियों में हो चुके है। बुद्धदत्त, बुद्धघोष और धम्मपाल की उपर्युक्त प्राय: मभी अट्ठकथाओं के रोमन, बरमी, सिंहली और स्यामो संस्करण मिलते है। विशेषतः हैवावितरणनिधि की ओर से प्रकाशित सिंहली संस्करण उल्लेखनीय है । नागरी लिपि में अभी कोई संस्करण नहीं हुए, अनुवादों की तो कोई वात ही नहीं ! बुद्धघोष-युग के अन्य पालि अटकथाकार बुद्धदन, बुद्धघोष और धम्मपाल के अलावा इस युग के अन्यपालिअट्ठकथाकारों १. प्रस्तुत लेखक ने अपने थेरीगाथा-अनुवाद जो सस्ता साहित्य मंडल, नई दिल्ली, द्वारा प्रकाशित हुआ है, परमत्यदीपनी के आधार पर भिक्षुणियों की जीवनियों को ग्रथित किया है। Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५३२ ) में इनके नाम मुख्य हैं - ( १ ) आनन्द ( २ ) चुल्ल धम्मपाल (३) उपमेन ( ४ ) महानाम (५) काश्यप (कस्सप ) ( ६ ) वज्रबुद्धि ( वजिर बुद्धि ( ७ ) क्षेम ( खेम ) (८) अनिरुद्ध (अनुरुद्ध ) ( ९) धर्म श्री (धम्मसिरि) और (१०) महास्वामी ( महासामि) । आनन्द भारतीय भिक्षु थे और सम्भवतः यह बुद्धघोष के ममकालीन थे । इन्होंने बुद्धघोष की अभिधम्म सम्बन्धी अट्ठकथाओं की सहायक स्वरूप 'मूल- टीका' या 'अभिधम्म-मूल टीका' लिखी है । यही इनकी एक मात्र प्रसिद्ध और महत्वपूर्ण रचना है । चुल्ल धम्मपाल इन्हीं आनन्द के शिष्य थे और इन्होंने ‘सच्च संखेप' (सत्य संक्षेप) लिखा है । उपसेन 'सद्धम्मप्पजोतिका' या 'सद्धम्म टीका' नामक निद्देस की टीका के लेखक है । महानाम ने पटिसम्भिदामग्ग की अट्ठकथा 'सद्धम्मप्पकासिनी' शीर्षक से लिखी । काश्यप ने मोहविच्छेदनी और विमतिच्छेदनी नामक विवेचनात्मक ग्रन्थों की रचना की । वज्र बुद्धि ने 'वज्रबुद्धि' नाम की ही टीका 'समन्तपासादिका' पर लिखी । क्षेम ने 'खेमप्पकरण' नामक ग्रन्थ की रचना की । अनिरुद्ध अभिधम्म - साहित्य सम्बन्धी प्रसिद्ध ग्रन्थ 'अभिधम्मत्थसंग्रह' के रचयिता हैं । अनिरुद्ध ने ही अभिधम्म सम्बन्धी दो ग्रन्थ और लिखे हैं (१) परमत्थ - विनिच्छय और ( २ ) नामरूप - परिच्छेद । अनिरुद्ध के ग्रन्थों पर बाद में एक बड़ा सहायक साहित्य लिखा गया, जिसका विवरण हम आगे टीकाओं के युग में देखेंगे । धर्मश्री ने विनय-सम्बन्धी अट्ठकथा - माहित्य को 'खुद्दक सिक्खा' (क्षुद्रक शिक्षा) नामक ग्रन्थ दिया और महास्वामी ने इसी विषय सम्बन्धी 'मूल सिक्खा' (मूल शिक्षा) बुद्धदत्त, बुद्ध घोष और धम्मपाल के बाद जिस अट्ठकथा-साहित्य का ऊपर उल्लेख किया गया है उसमें अनिरुद्ध-कृत 'अभिधम्मत्थसंग्रह' का एक अपना स्थान हैं । पालि-साहित्य के इतिहास की किसी भी योजना में वह एक स्वतन्त्र परिच्छेद का अधिकारी है। उतना अवकाश तो इस कृति को यद्यपि हम यहाँ नहीं दे सकते, फिर भी अन्य की अपेक्षा इसका कुछ अधिक विस्तृत विवरण यहाँ अपेक्षित है । वह भी न केवल इसकी स्वतन्त्र सत्ता की दृष्टि से ही बल्कि इसलिये भी कि इसकी विषय-वस्तु का उल्लेख या विवेचन करते समय न केवल सम्पूर्ण अभिधम्मपिटक की ही विजय-वस्तु वल्कि उसकी अट्ठकथाओं का भी बहुत कुछ सारांश यहाँ स्वतः आ जाता है । Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५३३ ) अभिधम्मत्थसंग्रह के सिद्धान्तों का संक्षिप्त विश्लेषण 'अभिवम्मत्थ संग्रह ' ' में परमार्थ रूप से चार पदार्थों (धर्मों) की सत्ता मानी गई हैं, यथा चित्त, चेतसिक, रूप और निर्वाण | हेतुओं से युक्त चित्त को 'सहेतुक' और उनमे वियुक्त चित्त को 'अ-हेतुक' कहते हैं । हेतु का अर्थ है अभिधम्म में लोभ, द्वेष, मोह याअ-राग, अ-द्वेष और अमोह । इन मूल प्रवृत्तियों को लेकर ही मनुष्य किसी भी कार्य में प्रवृत्त होता है, अतः यही 'हेतु' कहलाते है । सहेतुक चित्त तीन प्रकार के होते हैं यथा, कुशल, अकुशल और अव्याकृत । कुशल, अकुशल और अव्याकृत से अभिधम्म में क्या तात्पर्य लिया जाता है, यह हम अभिधम्म-पिटक के अन्तर्गत धम्मसंगणि के विवेचन में देख चुके हैं । अव्याकृत सहेतुक चित्त दो प्रकार का होता है 'विपाक - चित्त' और 'क्रिया - चित्त' । विपाक और क्रिया (किरिया ) चित्तों मे क्या तात्पर्य है, यह भी हम विस्तार पूर्वक धम्मसंगणि के विवेचन में दिखा चुके हैं । 'विपाक - चित्त ' अव्याकृत इसलिये है कि पहले किये हुए कर्म का फल होने के कारण उसे न 'कुशल' ही कहा जा सकता है और न 'अकु - शल' ही । 'क्रिया सहेतुक चित्त' वह चित्त है जिसमें 'अ-लोभ', 'अद्वेष', और 'अमोह' ये तीन हेतु रहते तो हूँ किन्तु तृष्णा के क्षय के कारण इनका 'विपाक' नहीं बनना अर्थात् ये पुनर्जन्म के लिये कारण स्वरूप नहीं बनते । 'क्रिया महेतुक चित्त' अर्हतु का ही हो मकता है । वह चाहे अ-लोभ, अद्वेष, और अमोह के कारण कुछ कुशल कर्म भले ही सम्पादन करे, किन्तु अनासक्त होने के कारण उसका दह सब कर्म केवल 'क्रिया' मात्र ही होता है । वह आगे के लिये विपाक पैदा नहीं करता । १. अभिधम्मत्थसंह, मूल पालि तथा आचार्य धर्मानन्द कोसम्बी-रचित उसकी पालि टीका 'नवनीत टीका' के सहित, देव नागरी लिपि में महाबोधि सभा द्वारा प्रकाशित, सारनाथ, १९४१ । भिक्षु जगदीश काश्यप ने अभिधम्म फिलॉसफी, जिल्द पहली में अभिधम्मत्थ संगह की विषय-वस्तु का अत्यन्त विशदतापूर्द क विश्लेषण किया है। साथ में रोमन लिपि में पालि-पाठ भी दे दिया गया है । २. तत्थ वुत्थाभिधम्मत्था चतुधा परमत्थतो । चित्तं चेतसिकं रूपं निब्बानमिति सब्बथा । अभिधम्मत्थसंगहो । Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५३४ ) चित्त के साथ उत्पन्न और निरुद्ध होने वाले एवं एक ही विषय (आलम्बन) और इन्द्रिय वाले चित्त के कर्मों को 'अभिधम्मत्थसंगह' में 'चेतसिक' कहा गया है।' इनकी संख्या ५२ है । चेतसिक धर्मों को तीन मुख्य भागों में विभक्त किया गया है, यथा (१) १३ ‘अन्य समान' (२) १४ 'अकुशल' और (३) २५ 'शोभन'२ । फिर इनका भी विश्लेषण किया गया है। जब कोई 'चेतसिक' या चित्तकर्म 'शोभन-चित्त' से युक्त होता है, तब वह 'अशोभन' वे से अन्य होता है, और जब वह 'अशोभन' से युक्त होता है, तब शोभन से अन्य होता है । इसीलिये उसे 'अन्य समान' कहते है । इस ‘अन्य समान' चेतसिक का भी द्विविध विभाजन है, यथा (१) साधारण चेतसिक (२) प्रकीर्ण चेतसिक । साधारण चेतसिक धर्म वे हैं जो सभी चित्नों में साधारण रूप से रहते हैं और ये संख्या में सात है (१) म्पर्श (२) वेदना (३) संज्ञा (४) चेतना (५) एकाग्रता (६) जीवितेन्द्रिय और (७) मनसिकार । प्रकीर्ण चेतसिक धर्म वे है जो केवल जब कभी होने वाले है। ये संख्या में छह हैं यथा (१) वितर्क (२) विचार (३) अधिमोक्ष, (४) वीर्य (५) प्रीति और (६) छन्द (इच्छा) ४ | विषयों को स्पर्श करनेवाले चेतसिक-धर्म को म्पर्श, विषयों के स्वाद भोगने वाले को वेदना, विपयों के स्वभाव को ग्रहण करने वाले को संज्ञा, विषयों में प्रेरणा करने वाले को चेतना, विषय में स्थिर रहने वाले को एकाग्रता, प्राप्त विषयों की मन में रक्षा करनेवाले को 'मनसिकार' कहते है। इसी प्रकार विषय-चिन्तन करनेवाले चेतसिक को वितर्क, उस पर बार बार सोचने वाले को विचार, विषयों में प्रवेश कर निश्चय करने वाले - - - - - - - - - - १. एकुप्पादनिरोधा च एकालम्बनवत्युका । चेतोयुत्ता द्विपञ्चासा धम्मा चेतसिका मता। अभिधम्मत्थ-संगहो, चेतसिक कण्डो। २. तेरसञआसमाना च चुद्दसा कुसला तथा । सोभना पञ्चवीसाति द्विपञ्चास पवुचचरे। अभिधम्मत्थसंगहो, चेतसिक कण्डो। ३. फस्सो वेदना सझा चेतना एकग्गता जीवितिन्द्रियं मनसिकारो चेति सन्ति मे चेतसिका सब्बचित्त-साधारणा नाम। उपर्युक्त के समान ही। ४. वितदको विचारो अधिमोक्खो वीरियं पोति छन्दो चेति छयिमे चेतसिका पकिण्णका नाम । उपर्युक्त के समान हो। Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५३५ ) को अधिमोक्ष, उत्साह करने वाले को वीर्य, विषयों में आनन्द लेने वाले को प्रीति और उनकी इच्छा करने वाले चेतसिक धर्मों को 'छन्द' कहते हैं। पूर्वोक्त १४ अकुशल चेतसिक इस प्रकार हैं, मोह, निर्लज्जता (अह्री), अ-पापभयता (अनत्रपा), औद्धत्य, लोभ (मिथ्या-) दृष्टि, मान, द्वेष, ईर्ष्या, मात्सर्य, पश्चात्ताप-कारी कृत्य (कौकृत्य), स्त्यान (मन को भारी करनेवाला) मृद्ध (चेतसिकों को भारी करनेवाला) और विचिकित्सा (संगय) । शोभन-चित्त २५ हैं, यथा (१) श्रद्धा (२) स्मृति, (३) ह्री, (४) अपत्रपा (पाप-कर्म में भय होना) (५) अलोभ, (६) अद्वेष (७) मध्यस्थता (८) कायप्रश्रब्धि (कायिक शान्ति) (९) चित्त-प्रश्रब्धि (चित्त-शान्ति) (१०) कायलघुता (११) चित्त लघुता (१२) काय-मृदुता (१३) चित्त-मृदुता (१४) (१४) कार्य कर्मज्ञता (१५) चित्त-कर्मज्ञता (१६) काय प्रागुण्य (काया का समर्थ भाव) (१७) चित्त प्रागुण्य (चिन का समर्थ भाव) (१८) काय ऋजुता (१७) चित्त-ऋजुता (२०) सम्यक् वाणी (२१) सम्यक् कर्मान्त, (२२) सम्यक् आजीव । (इन अंतिम तीन अर्थात् सम्यक् वाणी, सम्यक् कर्मान्त और सम्यक आजीव को 'धम्म संगणि' में 'तीन विरतियां' कह कर पुकारा गया है ।) (२३) करुणा (२४) मुदिता और (२५) अमोह (प्रज्ञा)। इस प्रकार ५२ चेतसिक धर्मों की कुशल, अकुशल और अव्याकृत कर्ममयी व्याख्या अभिधम्मत्थ संगह में की गई है। किन्तु यह सब तो दिग्दर्शन मात्र है और बहुत कुछ अस्पष्ट भी। अभी तो हमने केवल 'सहेतुक चित्त' के इन तीन प्रकारों यथा 'कुगल' 'अकुशल' और 'अव्याकृत' चेतसिकों के साथ संबंध को व्यक्त किया है। किन्तु जिस गहनता और मनोवैज्ञानिक सूक्ष्मता एवं अन्तदष्टि के साथ इनका विश्लेषण और व्याख्यान 'अभिधम्मत्थसंगह' में किया गया है उसकी तो यह एक प्रतिच्छाया भी नहीं है। कहाँ चित्त के चार प्रकार के वर्गीकरण ,कामावचर, रूपावचर, अरूपावचर और लोकोत्तर ! कहां फिर इनमें भी कामावचर-चित्त के ५४ प्रकार ! कहां फिर उनकी भी व्याख्या और उसमें भी यह निर्णय कि इनमें से १२ अकुशल चित्त (जिसमें से भी १. देखिये पाँचवें अध्याय में अभिधम्म-पिटक के अन्तर्गत धम्मसंगणि का विवेचन। Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५३६ ) ८ लोभ-मूलक, २ द्वेष-मूलक- और २ मोह-मूलक), १८ अहेतुक - चित्त ( जिनमें भी फिर अकुशल-विपाक, आठ कुशल- विपाक और ३ अहेतुक - चित्त) और २४ सहेतुक चित्त (जिनके भी फिर वेदनाविज्ञान और संस्कार के भेद से वर्गीकरण) । इतना ही नहीं, इन्हीं कामावचर भूमि में होने वाले चित्तों में फिर २३ विपाक चित्त, २० कुगल और अकुशल एवं ११ ११ क्रिया-चित्तों का विभाजन ! ऊपर निर्दिष्ट द्वितीय भूमि के चित्त अर्थात् रूपावचर चित्त के फिर १५ प्रकार, जिसमें ५ कुगल-चित्त, ५ विपाक - चित्त और पाँच क्रिया-चित्त । इसके बाद तृतीय भूमि के चित्त अर्थात् अरूपावचर - चित्त के बारह विभागों का निरूपण, जिनमे चार-कुशल-चित्त, चार विपाक-चिन और चार क्रिया-चित्त । अन्त में चतुर्थ भूमि के चिन अर्थात् लोकोत्तर चित्त के इसी प्रकार ८ भेद, जिनमें चार कुचल चित्त और चार विपाक चित्त । इस प्रकार कुल ५४ कामावचर, १५ रूपावचर.१२ अरूपाचार और लोकोत्तर चित्तों अर्थात् कुल ८९ प्रकार के चिनों की परिभाषाएँ, व्याख्याएँ, और 'कर्म' के स्वरूप के साथ उनके संबंध का निर्णय यह सव 'अभिधम्मन्थ संग्रह' की संख्याओं में भरने का प्रयत्न किया गया है । चित्त और चेतसिक धर्मो के इस निरूपण में कितनी सूक्ष्मता, कितनी विश्लेषणप्रियता 'अभिवम्मत्थसंग्रह' ने अभिधम्म का अनुगमन कर दिखाई है, इसे देखकर साधारण विद्यार्थी का साहस छूट जाता है । फिर भी 'अभिधम्मत्थसंग्रह' के महत्व का यह कुछ कम वड़ा साक्ष्य नही है कि अभिधम्मपिटक पर बुद्धीप जैसे आचार्य की अट्ठकथाएँ रहते हुए भी बौद्ध विद्यालयों में अभिधम्म का अध्ययन प्राय: इसी ग्रन्थ के द्वारा होता आया है और विशेषतः बरमा में तो इसके चारों ओर एक सहायक साहित्य की अटूट परम्परा ही १५ वीं शताब्दी से बनती चली आ रही है जिसका वर्णन हम ११०० ई० से वर्तमान समय तक के पालि के व्याख्यापरक साहित्य का विवरण देते समय अभी आठवें अध्याय में करेंगे । बुद्धघोष युग में अट्ठकथाओं और व्याख्यापरक साहित्य के अतिरिक्त वंग-संबंधी कई ग्रन्थ भी लिखे गये, और इसी प्रकार काव्य और व्याकरणसंबंधी पर्याप्त रचनाएं भी हुई। इनका विवरण हम अपनी योजना के अनुसार क्रमशः नवें और दसवें अध्यायों में करेंगे । 1 Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवाँ अध्याय बुद्धघोष-युग की परम्परा अथवा टीकाओं का युग (११०० ई० से वर्तमान समय तक) विपय-प्रवेश लंकाधिराज पराक्रमबाहु प्रथम (११५३-११८६ ई०) का गासन-काल पालि-साहित्य के उत्तरकालीन विकास के इतिहास में बड़ा गौरवमय माना जाता है । इसी समय से पालि अट्ठकथाओं के ऊपर टीकाएँ लिखने की वह महत्वपूर्ण परम्परा चल पड़ी जो ठीक उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दी तक अप्रतिहत रूप से चलती रही। न केवल टीकाओं के रूप में ही बल्कि, काव्य, व्याकरण, कोग, छन्दः गास्त्र एवं 'वंश' (इतिहास) संबंधी साहित्य भो इन गताब्दियों में प्रभत मात्रा में लिखा गया। इस सव साहित्यिक प्रगति के क्षेत्र प्रधानतः लंका और वग्मा ही रहे। बारहवी शताब्दी से लेकर चौदहवी दशताब्दी तक साहित्य-सृजन के क्षेत्र में लंका का प्रमुख स्थान रहा । पन्द्रहवीं गताब्दी ने लेकर उन्नीसवी शताब्दी तक बरमी पालि-साहित्य का युग कहा जा सकता है। टीकाओं तक ही अपने को सीमित रखकर इस विशाल साहित्यरचना का विवेचन हम इम अध्याय में करेंगे । सिंहली भिक्षु सारिपुत्त और उनके शिष्यों की टीकाएँ पगक्रम बाहु प्रथम के शासन-काल में लंका में एक बौद्ध सभा (संगीति) वुलवाई गई। इस सभा का उद्देश्य अट्ठकथाओं पर मागधी (पालि) भाषा में टीकाएं लिखवाना था । इस सभा के संयोजक प्रसिद्ध सिंहली स्थविर महाकस्सप थे। इस सभा के प्रयत्नों के परिणाम स्वरूप बुद्धघोष की अट्ठकथाओं पर पालि-भाषा में टीकाएँ लिखी गई, जिनका विवरण इस प्रकार है Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५३८ ) १. सारत्थ दीपनी--समन्तपासादिका (विनय-पिटक की अट्ठकथा) की टीका २. पठम-सारत्थमंजूसा--सुमंगल विलासिनी (दीघ-निकाय की अट्ठकथा) की टीका ३. दुतिय-मारत्थमंजूसा--पपञ्चमूदनी (मज्झिम-निकाय की अट्ठकथा) की टीका ४. ततिय-सारत्थमंजूमा--सारत्थप्पकासिनी (मंयुन-निकाय की अट्ठकथा) की टीका ५. चतुत्थ-मारत्थमंजूमा--मनोरथ पूरणी (अंगुत्तर-निकाय की अट्ठकथा) की टीका ६. पठम-परमत्थप्पकामिनी--अट्ठसालिनी (धम्मसंगणि की अट्ठकथा) की टीका ७. दुतिय-परमत्थप्पकासिनी--सम्मोहविनोदनी (विभंग की अट्ठकथा) की टीका ८. ततिय परमत्थप्पकासिनी--पञ्चप्पकरणट्ठकथा (धातुकथा, पुग्गलपञत्ति, कथावत्थु, यमक और पट्ठान की अट्ठकथा) की टीका उपर्युक्त टीकाओं में से केवल 'मारत्थ दीपनी' आज उपलब्ध है। यह तत्कालीन सिंहली भिक्षु सारिपुत की रचना है । इस रचना के अतिरिक्त इन स्थविर की तीन कृतियां और प्रसिद्ध है। (१) लीनत्थ पकासनी--बुद्धघोप-कृत मज्झिम-निकाय की अट्ठकथा की टीका (२) विनय संगह--विनय-संबंधी नियमों का संग्रह । इस रचना का दूमग नाम 'पालिमुत्नक विनयसंगह' (पालिमुक्तक विनयसंग्रह) या 'महाविनय संगहप्पकरण' (महाविनयसंग्रह प्रकरण) भी है । (३) सारत्थ मञ्जूसा-- वुद्धघोषकृत अंगुन्नर-निकाय की अट्ठकथा की टीका । स्थविर मारिपुत्त के शिष्यों ने भी इस टीका-रचना-कार्य में बड़ा योग दिया। उनके गिप्यों में ये प्रधान थे- (१) मंघरक्खित, (२) बुद्धनाग, (३) वाचिस्सर (४) सुमंगल, (५) मद्धम्मजोतिपाल या छपद (६) धम्मकित्ति, (७) बुद्धरक्खिन और (८) मेधंकर । स्थविर संघरक्खित की एकमात्र रचना 'खट्टक मिक्खा. Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५३९ ) -टीका' हैं जो धम्मसिरि (धर्मश्री) रचित 'खुद्दक - सिक्खा' की टीका है । म्थविर मंघरक्खित से पहले महायास ने भी 'खुदक - सिक्खा' पर 'खुद्दक सिक्खा - टीका' नाम से ही एक टीका लिखी थी । इन दोनों में भेद करने के लिए स्थविर संघ - रक्तकृत टीका को 'अभिनव - खुद्दक सिक्ख टीका' और महायास कृत टीकाको 'पोराण- खुद्दक - सिक्खा टीका' भी कहा जाता है । ये दोनोंटीकाएँ हस्तलिखित प्रतियों के रूप में आज भी सिंहल में सुरक्षित हैं । स्थविर बुद्धनाग की रचना 'विनयत्थ मंजूसा' है, जो कंखा वितरणी ( पातिमोक्ख पर बुद्धघोष कृत अट्ठकथा ) की टीका है । यह टीका भी सिंहल में हस्तलिखित प्रति के रूप में सुरक्षित है । प्रसिद्ध सिंहली भिक्षु वाचिस्सर ( वागीश्वर ) अनेक ग्रन्थों के रचयिता थे । ‘गन्धवंस' में उनके १८ ग्रन्थों का उल्लेख किया गया है। प्रसिद्ध वेदान्ती आचार्य वाचस्पति मिश्र और इन स्थविर ( वाचिस्सर ) के नाम या उपनाम में समानता होने के साथ साथ दोनों की विद्वत्ता भी प्रायः समान रूप से गहरी और विस्तृत है । स्थविर वाचिस्सर की प्रधान रचनाएँ ये है - ( १ ) मूलसिक्खा टीका-यह टीका महास्वामी ( महासामी ) कृत 'मूल - सिक्खा' की टीका है । वाचिस्सर से पहले विमलसार ने भी इसी ( मूलसिक्खा टीका) नाम की एक टीका “मूल - सिक्खा' पर लिखी थी । अतः विमलसार कृत टीका 'मूल सिक्खा-पोराण टीका' कहलाती है और वाचिस्सर - कृत टीका' ' मूल - सिक्खा - अभिनव टीका' (२) सीमालंकार संगह ( विनय - संबंधी ग्रन्थ, जिसमें विहार की सीमा का निर्णय किया गया है। जहां तक के भिक्षु विशेष संस्कारों में सम्मिलित होने के लिए किसी एक विहार में एकत्रित हों, वह उस विहार की सीमा कहलाती है) (३) खेमप्पकरणटीका—यह टीका भिक्षु खेम ( क्षेम ) कृत 'खेमप्पकरण' की टीका है । ( ४ ) नामरूप परिच्छेद टीका - यह अनिरुद्ध (पालि अनुरुद्ध ) कृत 'नाम 'रूप परिच्छेद' की टीका है । (५) सच्चसंखेप टीका - यह स्थविर आनन्द के शिष्य चूल धम्मपाल- कृत 'सच्च संखेप' की टीका है । ( ६ ) अभिधम्मावतारटीका - यह रचना बुद्धदत्त - कृत 'अभिधम्मावतार' की टीका है । (७) 'स्पारूप १ १. इस विषय पर पन्द्रहवीं शताब्दी में बरमी भिक्षु संघ में एक बड़ा विवाद उठ खड़ा हुआ। देखिये आगे दसवें अध्याय में कल्याणी-अभिलेख का विवरण । Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५४० ) विभाग --- यहअभिवम्मसम्बन्धी रचना है । (८) विनया, विनिच्छय-टीका -- यह टीका बुद्धदत्त कृत 'विनय विनिच्छय' की टीका है । (९) उत्तरविनिच्छयटीकायह रचना बुद्धदत्त-कृत 'उत्तर विनिच्छ्य' की टीका है । (१०) सुमंगलप्पसादिनीयह रचना धम्मसिरि ( धर्म श्री ) - कृत खुद्दक - सिक्खा' की टीका है । इन रचनाओं के अलावा 'योग विनिच्छय', 'पच्चय संगह' जैसे अनेक ग्रंथ भी वाचि -- स्मर द्वारा रचित बताये जाते हैं । चूंकि 'वाचिस्सर' उपाधि धारी अनेक भिक्षु सिंहल के हो गये है, अतः निश्चयपूर्वक यह नहीं कहा जा सकता कि कौन सी रचनाएं किम 'वास्सिर' की है। फिर भी ऊपर जिन प्रधान दस रचनाओं का उल्लेख किया जा चुका है, वे सिंहलो भिक्षु सारिपुत के शिष्य 'वाचिस्सर' की ही मानी जाती है । सुमंगल-कृत तीन रचनाएं हैं. (१) अभिवम्मत्थविभावनी, जो अनिरुद्ध-कृत अभिवम्मन्थ-संग की टीका है (२) अभिधम्मत्थ विकासिनी, जो बुद्धदत अभिवमावतार की टीका है (३) सच्चसंखेप- टीका हैं --जो चूल धम्मपाल- कृत सच्चसंक्षेप की टीका है । ये तीनों ग्रंथ हस्त लिखित प्रतियों के रूप में सिंहल में सुरक्षित 'अभिधम्मत्य विभावनी' का महाबोधि प्रेस कोलम्बो से सन् १९३३ में सिंहली अक्षरों में प्रकाशन भी हो चुका है । सद्धम्म जोतिपाल या छपद का नाम सारिपुनके गिप्यों में विशेषतः प्रसिद्ध हैं । ये बरमा-निवासी भक्षु थे जिन्होंने बौद्ध धर्म को गिजार्थ सिंहल में प्रवास किया था । सारिपुतके शिष्यत्व में वे वहाँ ११७० मे ११८० ई० तक रहे । उनको ये रचनाएं अधिक प्रसिद्ध हैं, ( १ ) विनय समुट्ठान दीपनी ( विनय सम्बन्धी टीका- ग्रन्थ ( २ ) पातिमोक्ख विसोधनी ( ३ ) विनय गुत्य दीपनी विनय पिटकके कठिन शब्दोंकी व्याख्या ( ४ ) सीमालङ्कार संगटीका, जो वाचिम्मर-कृत सीमालंकार संगह की टोका है । इस प्रकार चार रचनाएं छपदकी विनय सम्बन्धी हुँ । अभिधम्म साहित्य को भी इन्होंने पाँच टीका-ग्रन्थ प्रदान किये हैं, ( १ ) मातिकत्थ दीपनी ( २ ) पठान - गणनानय ( ३ ) नामचार दीप (४) अभिवम्मत्थसंग्रह संखेप टीका, जो अनिरुद्ध-कृत अभिवम्मत्थ संगह की टीका है और (५) गन्धमार, जिसमें तिपिटक के ग्रन्थों का सार है । धम्मकित्ति की रचना 'दाहावंस' है जिसका विवेचन हम वंश-साहित्य का विवरण देते समय करेंगे । इसी प्रकार वाचिम्मर ( उपर्युक्त सारिपुत्त के शिष्य ही ) के थूपवंस है. जिनका विवेचन भी हम वही करेंगे । बुद्धरक्खित और मेथंकर की रचनाएं T Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५४१ ) क्रमशः ‘जिनालंकार' और 'जिनचरित' हैं, जो काव्य-ग्रंथ हैं । इनका विवरण हम पालि-काव्य का विवेचन करते समय दसवें अध्याय में देंगे । सारिपुन और `उनके शिष्यों का यह उपर्युक्त साहित्य पराक्रमबाहु प्रथम के शासन काल में लिखागया, अतः इसका समय बारहवीं शताब्दी का उत्तर भाग ही है । इसी समय 'वंसत्थदीपनी' नामकी 'महावंस' की टीका भी लिखी गई । किन्तु उसके रचयिता का नाम अभी अज्ञात ही है । तेरहवीं शताब्दी का पालि-साहित्य तेरहवीं शताब्दी के पालि-साहित्य के प्रसिद्ध नाम वैदेह स्थविर 'विदेह थेर' बुद्ध और धम्मकित्ति हैं । वैदेह थेरकी दो प्रसिद्ध रचनाएँ 'समन्त कूट वण्णना' 'और 'रसवाहिनी' हैं । २ बुद्धप्पिय की रचना 'पज्जमधु' है । यह एक काव्य-ग्रन्थ है । इसका विवेचन हम दसवें अध्याय में करेंगे । इस शताब्दी की सम्भवतः सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण घटना 'महावंस' का 'चूलवंस' के नामसे परिवर्द्धन है । 'महाम' का इस प्रकार प्रथम परिवर्द्धन तेरहवीं शताब्दी में और दूसरा परिवर्द्धन १८ वीं शता 'ब्दी के मध्यभाग में किया गया। बारहवीं शताब्दी में इस परिवर्द्धन को करने वाले 'धम्मकित्ति' नामक भिक्षु थे । सिंहल और बरमा में इस नाम के अनेक शताब्दियों में अधिक भिक्षु हुए हैं कि यह धम्मकित्ति उनमें से कौन से थे, इसका सम्यक् रूप से निर्णय नहीं किया जा सकता । सम्भवतः यह वही स्थविर धम्मकित्ति थे, जिन्होंने महावंश ८४५१२ के अनुसार बरमा से लंका में जाकर बौद्ध धर्म का अध्ययन किया था इसप्रकार जिनका काल तेरहवीं शताब्दी का मध्य भाग है । इसी समय 'अत्तनगलु विहारवंस' नामक वंश ग्रंथ भी लिखा गया, जिसके लेखक का नाम अभी अज्ञात ही है । तेरहवीं शताब्दी के अंतिम या चौदहवीं शताब्दी के आदि भाग के 'पालि साहित्य के इतिहास में सिद्धत्थ और धम्मकित्ति महासामी ( धर्मकीर्ति महास्वामी) इन दो भिजुओं के नाम प्रसिद्ध हैं । सिद्धत्थ 'पज्जमधु' के रचयिता बुद्धप्पिय के शिष्य थे । इनकी रचना 'सारसंगह' है जो गद्य-पद्य मिश्रित बुद्ध-धर्म-सम्बन्धी ग्रन्थ है | धम्मकित्ति महास्वामीकी रचनाका नाम ' सद्धम्मसंगह' है । इसमें चालीस अध्याय १. २. इनके विवरण के लिए देखियेआगे दसवें अध्याय में पालि- काव्य का विवरण । 1 I Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५४२ ) हैं। यहाँ लेखक ने बुद्ध-काल से लेकर तेरहवीं शताब्दी तक भिक्षु-संघ के इतिहास का वर्णन किया है। कोई नवीन सूचना न देने पर भी लेखक ने जितने विस्तृत साहित्य का उपयोग किया है, वह उस समय तक के पालि-साहित्य की प्रगति की दृष्टि मे उसके इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है, इसमें सन्देह नहीं । चौदहवीं शताब्दी का पालि-साहित्य इम शताब्दी की पाँच रचनाएँ हैं. जिसमें चार काव्य ग्रंथ हैं ,और एक वंशग्रन्थ । इनका विशेष विवरणतो हम क्रमशः दसवें और नवें अध्यायों में करेंगे, किन्तु यहाँ नामोल्लेख करना आवश्यक है। चार काव्य-ग्रन्थ हैं (१) मिहल-प्रवासी वर्मी भिक्षु मेधकर-कृन लोकप्पदीपसार या लोकदीपसार (२) पंचगतिदीपन, जिमके लेखक का पता नहीं (३) सद्धम्मोपायन, जिसके भी लेखक का ठीक पता नहीं, और (४) तेलकटाहगाथा, जिसके भी लेखक का नाम अनात है । वंश-ग्रन्थ, भिक्षु महामंगल-कृत 'बुद्धघोसुप्पति' है, जिसमें बुद्धघोष की जीवनी का वर्णन किया गया है । वरमी पालि-साहित्य-पन्द्रहवीं शताब्दी का पालि-साहित्य ___ जैमा पहले दिखाया जा चुका है, पन्द्रहवीं शताब्दी से बरमा पालि-साहित्य के अध्ययन और ग्रन्थ-रचना का प्रधान केन्द्र हो गया। जिस विषय की ओर बरमी बौद्ध भिक्षुओं की विशेष दृष्टि गई वह था अभिधम्म । वास्तव में यह उनके अध्ययन और ग्रन्थ-रचना का एक मात्र मुख्य विषय ही बन गया। फलत: एक लंबी परम्परा हम इस साहित्य संबंधी रचना की वहाँ देखते है । पन्द्रहवीं शताब्दी के बरमी पालि-साहित्य के इतिहास के प्रसिद्ध नाम है अरियवंम, सद्धम्मसिरि (सद्धर्म श्री) सीलवंस और रट्ठसार । अरियवंस की रचनाएँ ये है (१) मणिसारमशंसा---सुमंगल-कृत अभिधम्मत्थविभावनी की टीका (२) मणिदीप--बुद्धघोषकृत असालिनी की टीका (३) जातकविसोधन--जातक-संबंधी रचना । सद्धम्मसिरि अरियवंस के ही समकालिक थे । इनकी एकमात्र प्रसिद्ध रचना 'नेत्तिभावनी' है जो नेत्तिपकरण की टोका है । सीलवंस का काल अरियवंस और सद्धमसिरि से कुछ बाद का का है किन्तु है पन्द्रहवीं शताब्दी ही । इनकी प्रसिद्ध रचना 'बुद्धालंकार' है Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५४३ ) जो निदान-कथा की सुमेध-कथा का काव्यमय रूपान्तर है । रट्ठसार ने कुछ जातकों के काव्यमय रूपान्तर किये हैं। पन्द्रहवीं शताब्दी की ही एक रचना 'काव्यविरतिगाथा' है, किन्तु उसके लेखक के नाम आदि का अभी पता नहीं चला है । सोलहवीं शताब्दी का पालि-साहित्य सोलहवीं शताब्दी के पालि-साहित्य के इतिहास में सद्धम्मालंकार और महानाम, इन दो भिक्षुओं के नाम अधिक प्रसिद्ध है । सद्धम्मालंकार की रचना 'पट्ठान-दीपनी' है, जो पट्ठानप्पकरण की टीका है । महानाम ने 'मधुसारत्थदीपनी' लिखी, जो बुद्धघोष के समकालिक भिक्षु आनन्द द्वारा लिखित 'अभिधम्ममूलटीका' या संक्षेपतः ‘मूल-टीका' की अनुटीका है ।' सत्रहवीं शताब्दी का पालि-साहित्य तिपिटकालंकार, तिलोकगुरु, सारदस्सी और महाकस्सप, ये चार भिक्षु सत्रहवीं शताब्दी के पालि-साहित्य के इतिहास के प्रकाश-स्तम्भ हैं । तिपिटकालंकार (त्रिपिटकालंकार) की ये तीन रचनाएँ हैं (१) वीसतिवण्णनाअसालिनी के आरंभ की २० गाथाओं की टीका (२) यसवड ढनवत्थु (३) विनयालंकार--सारिपुत्त-क्रत 'विनय-संगह' की टीका । तिलोकगुरु की चार रचनाएँ प्रसिद्ध हैं, जिनमें दोनों धातु-कथा की ही टीका और अनुटीका स्वरूप है, यथा (१) धातुकथाटीका-वण्णना (२) धातुकथा-अनुटीका--वण्णना । शेष दो रचनाएँ हैं (१) यमकवण्णना (२) पट्ठान-वण्णना । सारदस्सी की रचना 'धातुकथा-योजना' है जो धातु कथा की टीका है। महाकस्सप की प्रसिद्ध रचना 'अभिधम्मत्थ गण्ठिपद' है जो अभिधम्म के कठिन शब्दों की व्याख्या है । अठारहवीं शताब्दी का पालि-साहित्य इस शताब्दी के एकमात्र प्रसिद्ध लेखक ज्ञाणाभिवंस (ज्ञानाभिवंश)) हैं जो बरमा के संघराज थे। इनकी तीन रचनाएँ अधिक प्रसिद्ध हैं (१) पेटकालंकार--नेत्तिपकरण की टीका (२) साधुविलासिनी-दीघ-निकाय की आंशिक Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५४४ ) व्याख्या (३) राजाधिराज-बिलासिनी-काव्य-ग्रन्थ । इन्हीं ज्ञानाभिवंग संघराज ने 'चतुसामणेरवत्थु' और राजवादवत्थु' नामक भाव-मयी रचनाएँ भी लिखी हैं । अठारहवीं शताब्दी में ही 'मालालंकारवत्थु' नामकी बुद्ध-जीवनो भी लिखी गई, किन्तु उसके लेखक के नाम के विषय में हमारी कोई जानकारी नहीं है। उन्नीसवीं शताब्दी का पालि-साहित्य नलाटधातुवंस, छकेसधातुवंस, सन्देसकथा और सीमा-विवाद-विनिच्छय उन्नीसवीं शताब्दी की रचनाएँ हैं, जिनके लेखकों के विषय में हमें कुछ ज्ञात नहीं है। इस शताब्दी की दो बड़ी महत्त्वपूर्ण रचनाएँ 'गन्धवंस' और 'मासनवंस' हैं। चंकि ये दोनों वंश-ग्रन्थ हैं, इनका विस्तृत विवरण हम नवें अध्याय में इस सम्बन्धी साहित्य का विवेचन करते समय करेंगे । उन्नीसवीं शताब्दी में लंका और वरमा में पालि-सात्यि सम्बन्धी अन्य अनेक ग्रन्थ भी लिखे गये, जिनके नामपरिगणन मात्र से कोई विशेष उद्देश्य सिद्ध नहीं हो सकता। हाँ, प्रसिद्ध बग्मी 'भिक्षु लेदि सदाव की 'परमत्थदीपनी' नामक अभिधम्मत्थ संगह की टीका और उनका यमक-सम्बन्धी पालि निबन्ध जो उन्होंने श्रीमती रायस डेविड्स की कुछ शंकाओं के निवारणार्थ लिखा था, अवश्य महत्वपूर्ण रचनाएँ हैं और उन्नीसवीं शताब्दी के पालि-साहित्य के इतिहास में अपना एक विशेष स्थान रखती हैं। इसी प्रकार लंका में समरसेकर श्री धम्मरतन, विक्रम सिंह, स्थविर नारद, और युगिरल पज्ञानन्द महाथेर आदिने जो महत्त्वपूर्ण कार्य आज तक किया है, वह भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है। बीसवीं शताब्दी की कुछ महत्त्वपूर्ण टीकाएँ बीसवीं शताब्दी में भी पालि-भाषा में टीकाओं का लिखा जाना कुछ आश्चर्यमय अवश्य लगता है, किन्तु वह एक तथ्य है । वह एक ऐसी परम्परा का सूचक है जो अभी विच्छिन्न नहीं हुई है । भारत में पालि-अध्ययन की जो दुरववस्था है, १. देखिये दसवें अध्याय में पालि-काव्यग्रन्थों का विवेचन। २. देखिये पीछे पांचवें अध्याय में 'यमक' का विवरण। Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५४५ ) वह लंका, बरमा और स्याम जैसे देशों की परिस्थिति की भी जहाँ बौद्ध धर्म आज एक जीवित धर्म के रूप में विद्यमान है, सूचक नहीं है । वहाँ पालि का अध्ययन आज भी उसी उत्साह के साथ किया जाता है, जैसा उन्नीसवीं या उसकी पूर्व की शताब्दियों में । फिरभी भारतकी ओरसे यह आश्वासन है कि वहाँ ज्ञानकी ज्योति क्षीण भले ही हो गई हो किन्तु बुझी फिरभी नहीं है । आचार्य धम्मानन्द कोसम्बी के रूप में हम फिर भी कुछ गौरव अनुभव कर सकते हैं। उन्होंने पालि साहित्य को, जैसा हम पहले भी कह चुके हैं, दो अमूल्य टीका-ग्रन्थ प्रदान किये हैं (१) विसुद्धिमग्गदीपिका, जो विसुद्धिमग्ग पर विद्यार्थियों के उपयोग के लिये लिखी गई उत्तम टीका है, और (२) अभिधम्मत्थसंगह की 'नवनीत-टीका' । अपने वर्षों के प्रयास के परिणाम-स्वरूप प्राप्त ज्ञान यहाँ आचार्य धमानन्द कोसम्बी ने अभिधम्म के जिज्ञासुओं के लिये अत्यन्त सुगम भाषा में प्रस्तुत किया है । अभिधम्म का अध्ययन करने वालों के लिये इससे अधिक अच्छा सहायक ग्रन्थ नहीं बताया जा सकता। इसी के प्रसाद-स्वरूप भिक्षु जगदीश काश्यप ने इस विषय का निरूपण अपने अंग्रेजी ग्रन्थ 'अभिधम्म-फिलॉसफी' में किया है, किन्तु यह इस विषय से सम्बन्धित नहीं है। इस युग की अन्य रचनाएँ ___ उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि पालि-स्वाध्याय की जो परम्परा बुद्धघोष, बुद्धदत्त और धम्मपाल ने पाँचवीं शताब्दी में छोड़ी वह अविच्छिन्न रूप से बीसवीं शताब्दी तक चलती आरही है । यद्यपि उसमें मौलिकता न हो, किन्तु वह एक सतत साधना की सूचक तो है ही। यहाँ हमने बारहवीं शताब्दी से लेकर बीसवीं शताब्दी तक के टीका-साहित्य का ही प्रधानतः दिग्दर्शन किया है । कहीं कहीं काव्य सम्बन्धी ग्रन्थों का भी उल्लेख किया है और इसी प्रकार वंश-सम्बन्धी ग्रन्थों की ओर भी संकेत मात्र कर दिया है । उनका विवरण हमें काल-क्रम और विकास की दृष्टि से अलग देना इष्ट है । व्याकरण-सम्बन्धी प्रभूत साहित्य का निर्माण इन्हीं शताब्दियोंमें अर्थात् १२वीं शताब्दीसे लेकर उन्नीसवींया बीसवीं शताब्दी तक लंका और बरमा दोनों देशों में किया गया। उसका हमने बिलकुल उल्लेख इस प्रकरण में नहीं किया है । उसके विकास की परम्परा को हम अलग से (दसवें Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५४६ ) अध्याय में ) लेंगे, क्योंकि वह काफी विस्तृत है और अलग विवेचन की ही अपेक्षा रखती है । पालि में इन्हीं शताब्दियों में ही धर्म-शास्त्र सम्बन्धी ग्रन्थों की रचना हुई । तेरहवीं शताब्दी में बरमी भिक्षु सारिपुत्त ने 'धम्मविलास - धम्मसत्थ' नामक ग्रन्थ की रचना की जो वहाँ संविधान सम्बन्धी मामलों में अत्यन्त प्रामाणिक माना जाता है । इसी के आधार पर सोलहवीं शताब्दी में 'मनु-सार' की रचना हुई, जिसके आधार पर अठारहवीं शताब्दी में 'मनु-वण्णना' की रचना हुई । पुनः इसी के आधार पर उन्नीसवीं शताब्दी में 'मोह-विच्छेदनी' लिखी गई । पालि के इस धर्म-शास्त्र सम्बन्धी विकास का इतिहास पालि और बरमी बौद्ध धर्म के स्वरूप को समझने के लिये महत्त्वपूर्ण होने के साथ साथ इस दृष्टि से भी बहुत महत्त्वपूर्ण है कि वह वौद्ध सामाजिक और साहित्यिक क्षेत्र में मनुस्मृति के प्रभाव का माध्य देता है, जिस पर ही सम्पूर्ण बरमी धर्म - शास्त्र साहित्य, जो अंगतः बरमी भाषा और अंशत: पालि में निबद्ध है, आधारित ह । काव्य, व्याकरण, वंश और धर्मशास्त्र के अलावा छन्दः शास्त्र, काव्य-शास्त्र, कोश आदि पर इन शताब्दियों में लिखे गये साहित्य का भी इस प्रकरण में विवेचन नहीं किया गया है । उसका संक्षेपतः निदर्शन हम आगे के प्रकरणों में करेंगे । Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाँ अध्याय वंश-साहित्य 'वंश' शब्द का अर्थ और इतिहास से भेद 'बंश' साहित्य पालि साहित्य की एक मुख्य विशेषता है । यद्यपि' वंश' (पालि 'बम') नाम से कोई ग्रन्थ संस्कृत भाषा या अन्य किसी प्राचीन आर्य-भाषा के साहित्य के इतिहास में नहीं मिलता, किन्तु जिसे छान्दोग्य-उपनिषद् में 'इतिहास-पुराण' कहा गया है, उसकी तुलना विषय और शैली की दृष्टि से पालि 'वंस' ग्रन्थों से की जा सकती है । 'इतिहास-पुराण' या ठीक कहें तो 'पुराण-इतिहास' ग्रन्थों के सर्वोत्तम उदाहरण संस्कृत भाषा में महाभारत और अष्टादश पुराण जैसे ग्रन्थ ही है। इनके विषयों में धर्म-वृत्त और कथाओं के साथ साथ प्राचीन भारतीय इतिहास का भी संनिवेश है। इनका निश्चित आधार ऐतिहासिक होते हुए भी वर्णन-शैली प्रायः इतनी अतिरंजनामयी और नैलिक उद्देश्यों से (कहीं कहीं साम्प्रदायिक मतवादों से भी-जैसा कि उत्तरकालीन पुराणों में)ओतप्रोत होती है कि उनमें से निश्चित इतिहास को निकालना बड़ा कठिन हो जाता है। पाजिटर आदि विद्वानों को उनका वास्तविक ऐतिहासिक मूल्याकंन करने में कितना परिश्रम करना पड़ा है, यह इसी से जाना जा सकता है । जो बात संस्कृत के पुगण-इतिहासों के बारे में ठीक है, वही बात पालि के 'वंस' ग्रन्थों के सम्बन्ध में भी कही जा सकती है । कुछ अन्तर, केवल मात्रा का यह अवश्य है कि पालि 'वंस'-कारों ने भारतीय 'पुराण'-कारों की अपेक्षा कुछ अधिक ऐतिहासिक बुद्धि का परिचय दिया है । संस्कृत में केवल 'राजतरंगिणी' को छोड़कर और कोई ग्रन्थ उनकी कोटि का नहीं है । निश्चय ही उनके वर्णनों में निश्चित इतिहास की सामग्री संस्कृन पुराण-इतिहासों से तो बहुत अधिक मात्रा में और अधिक स्पष्ट रूप से मिलती है । भारतीय परम्परा के अनुसार इतिहास-पुराण के पाँच लक्षण Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५४८ ) कहे गये हैं, सर्ग (सृष्टि-कम-वर्णन) प्रतिसर्ग (प्रलय के बाद पुनः सृष्टि-क्रम का वर्णन), वंश , मन्वन्तर और वंशानुचरित । इनमें वंश और वंशानुचरित हमारे प्रस्तुत विषय की दृष्टि से बड़े महत्त्व के हैं । राजाओं की विस्तृत वंशावलियाँ विष्णु, वायु, मत्स्य, भागवत आदि पुराणों में दी हुई हैं । पालि का वंग-साहित्य भी प्रधानतः राजाओं की वंशावलियों का ही वर्णन करता है, यद्यपि महाभारत और पुराणों की तरह उसमें भी इनके अलावा बहुत कुछ है । धर्म-वृत्त और कथाएँ दोनों के ही महत्त्वपूर्ण अंग हैं । इतने सामान्य कथन के बाद अब हम पालि के वंशसाहित्य की विशेषताओं में प्रवेश कर सकते हैं। पालि 'वंश'-ग्रन्थ पालि में 'वंश'-साहित्य की परम्परा बुद्धघोष-युग के पहले से ही चली आती है और उसका अविच्छिन्न प्रवर्तन तो ठीक उन्नीसवीं या बीसवीं शताब्दी तक मिलता है । पालि के मुख्य वंश-ग्रन्थ ये हैं, (१) दीपवंस (२) महावंस (३) चूलवंस (४) बुद्धघोसुप्पत्ति (५) सद्धम्मसंगह (६) महाबोधिवंस (७) थूपवंस (८) अत्तनगलुविहारवंस (९) दाठावंस (१०) छकेसधातुवंस (११) गन्धवंस और (१२) सासनवंस । इनका अलग अलग संक्षिप्त परिचयात्मक विवेचन आवश्यक होगा। दीपवंस' 'दीपवंस' पालि वंश-साहित्य की सर्व-प्रथम रचना है। यह लंका-द्वीप का इतिहास है। लंका-द्वीप की ऐतिहासिक परम्परा का आधार एवं आदि स्रोत यही ग्रन्थ है । 'दीपवंस' प्राग्बुद्धघोषकालीन रचना है । इसके लेखक का नाम अभी अज्ञात ही है । आरम्भिक काल से लेकर राजा महासेन के शासन-काल (३२५-३५२ ई०) तक का लंका का इतिहास इस ग्रन्थ में वर्णित है । बुद्धघोष ने इस ग्रन्थ को अपनी अट्ठकथाओं में कई जगह (विशेषतः कथावत्थुपकरण की १. रोमन लिपि में ओल्डनबर्ग द्वारा सम्पादित, पालि टैक्स्ट सोसायटी द्वारा प्रकाशित, लन्दन १८७९ । हिन्दी में अभी तक इस ग्रन्थ का कोई मूल संस्करण या अनुवाद नहीं निकला। इस ग्रन्थ के बरमी और सिंहलो संस्करण उपलब्ध हैं। Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५४९ ) अट्ठकथा में) उद्धृत किया है । बुद्धघोष का समय चौथी-पाँचवीं शताब्दी है । अतः यह निश्चित है कि 'दीपवंस' का प्रणयन -काल ३५२ ई० (महासेन के शासनकाल की अन्तिम साल, जब तक का वर्णन 'दीपवंस' में मिलता है) और ४५० ई० के बीच ही होना चाहिये । 'दीपवंस' की ऐतिहासिक परम्परा और विषयवस्तु प्राचीन सिंहली अट्ठकथाओं के ऐतिहासिक अंशों पर आधारित है। ये सिंहली अट्ठकथाएँ अत्यन्त प्राचीन काल में सिंहल में लिखी गई थीं। इनकी भाषा सिंहली गद्य थी, किन्तु बीच बीच में कहीं कहीं पालि-गाथाएँ भी इनमें सम्मिलित थीं । इन्हीं अट्ठकथाओं पर बुद्धघोष की पालि-अट्ठकथाएँ आधारित हैं और इन्हीं पर 'दीपवंस' भी। ‘महा-अट्ठकथा' 'महापच्चरी' 'कुरुन्दी' 'चुल्लपच्चरी' 'अन्धट्ठकथा' आदि जिन सिंहली अट्ठकथाओं से बुद्धघोष ने सामग्री ली, उन्हीं पर 'दीपवंस' भी आधारित है । विशेषतः जिसे 'महावंस-टीका' में 'सीहलट्ठकथा-महावंस' कहा गया है, उससे भी सम्भवतः 'दीपवंस' में अधिक सहायता ली गई है । अनेक स्रोतों से सहायता लेने के कारण और उनमें निर्दिष्ट परम्पराओं को उनके मौलिक रूप में ही रख देने की प्रवृत्ति के कारण , 'दीपवंस' में अनेक पुनरुक्तियां मिलती हैं। विभिन्न स्रोतों से सामग्री संकलित की गई है, किन्तु उम संकलन को व्यवस्थित एवं एकात्मतापरक रूप प्रदान नहीं किया गया। एक ही घटना का वर्णन एक जगह संक्षिप्त रूप से कर दिया गया है। दूसरी जगह उसी घटना का वर्णन विस्तत रूप से दे दिया गया है । यह विभिन्न स्रोतों से संकलित सामग्री को व्यवस्थित रूप न दे सकने के कारण ही है । अतः साहित्यिक कला की दृष्टि से यह ग्रन्थ उतना महत्त्वपूर्ण नहीं हो पाया। भाषा और छन्द दोनों ही इस ग्रन्थ के निर्दोष नहीं हैं । जबकि ऐतिहासिक सामग्री इस ग्रन्थ ने उपर्युक्त सिंहली अट्ठकथा-माहित्य से ली है, भाषा और शैली की दृष्टि से यह ग्रन्थ त्रिपिटक पर भी आधारित कहा जा सकता है । बुद्धवंस, चरियापिटक, जातक, परिवारपाठ आदि ग्रन्थों की शैली की 'दीपवंस' की भाषा-शैली से पर्याप्त समानता है । फिर भी, जैमा अभी निर्दिष्ट किया जा चुका है, भाषा पर लेखक का अधिक अधिकार दिखाई नहीं पड़ता। साहित्यिक दृष्टि से 'दीपवंस' एक अव्यवस्थित, पुनरुक्तिमय, भाषा और शैली के दोषों से परिपूर्ण एवं नीरस गद्य-पद्यात्मक (विशेषतः पद्यात्मक) रचना है। Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५५० ) . किन्तु साहित्यिक दृष्टि से दोष-मय होते हुए भी ऐतिहासिक दृष्टि से 'दीपवंस' एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है । फ्रैंक जैसे कुछ-एक विद्वानों ने उसकी साहित्यिक अपूर्णताओं के कारण या उनसे अधिक प्रभावित होकर ही उसे एक प्रामाणिक ऐतिहासिक ग्रन्थ के गौरव से भी वंचित रखना चाहा है।' निश्चय ही यह सन्तुलन को खो देना है। 'दीपवंस' के ऐतिहासिक रूप से प्रामाणिक ग्रन्थों होने में सन्देह की गुंजायश नहीं, यह डा० गायगर की इस सम्बन्धी खोजों ने अन्तिम रूप से निश्चित कर दिया है । २ 'दीपवंस' में एक प्राचीन ऐतिहासिक परम्परा मिलती है, जिसको सिंहल में सदा आदर और विश्वास की दृष्टि से देखा गया है । यह इमी से जाना जा सकता है कि पाँचवीं शताब्दी ईसवी में सिंहल के गजा धातुमेन ने इस ग्रन्थं का पाठ राष्ट्रीय गौरव के साथ एक वार्षिक उत्सव के अवसर पर करवाया था। सिंहली इतिहासों में निश्चय ही इस ग्रन्थ को पहला और अत्यन्त ऊँदा स्थान प्राप्त है । ग्रन्थ की विषय-वस्तु, जैसा पहले कहा जा चुका है, लंका के प्रारम्भिक इतिहास से लेकर वहाँ के राजा महासेन के शासन-काल (३२५-३५२ ई०) तक है । सर्वप्रथम वुद्ध के तीन बार लंका-गमन का वर्णन किया गया है । यहाँ बुद्ध की प्राचीन वंशावली का भी वर्णन किया गया है, और उनके वंश के आदि पुरुष का नाम महासम्मत बतलाया गया है। फिर प्रथम दो बौद्ध संगीतियों का का वर्णन है । यहाँ विनय-पिटक-चुल्लवग्ग आदि के वर्णनों से कोई विशेष विभिन्नता नहीं है । वही मगधराज अजातशत्रु के तत्त्वावधान में, महाकाश्यप के सभापतित्व में, प्रथम संगीति का होना, एवं आनन्द और उपालि के द्वारा क्रमश: धम्म और विनय का संगायन किया जाना , यहाँ भी प्रथम संगीति के विवरण में दिया गया है। इसी प्रकार द्वितीय संगीति के प्रसंग में वज्जिपुत्तक १. यथा स्मिथ : इंडियन एंटिक्वेरी, ३२, १९०३, पृष्ठ ३६५, फ्रैंक : जर्नल ऑव पालि टैक्स्ट सोसायटी, १९०८, पृष्ठ १ २. देखिये विशेषतः उनका महावंस (अंग्रेजी अनुवाद) पृष्ठ १२-२०; गायगर से पहले मैक्समुलर तथा डा० रायस डेविड्स ने भी सिंहली इतिहास ग्रन्थों की प्रमाणवत्ता को प्रतिपादित किया था। देखिये क्रमशः सेक्रेड बुक्स ऑव दि ईस्ट, जिल्द १० (१), पृष्ठ १३-२५ (भूमिका); बुद्धिस्ट इंडिया, पृष्ठ २७४ Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्षुओं का अलग होकर ‘महासंघिकों' के रूप में विकसित हो जाना आदि वर्णित है। अशोक के काल तक, स्थविरवाद सम्प्रदाय को सम्मिलित कर, बुद्धधर्म १८ सम्प्रदायों में विभक्त हो गया था, यह भी 'दीपवंस' का वर्णन अन्य इस सम्बन्धी स्रोतों के साक्ष्य से अनुमत है, यह सब हम द्वितीय अध्याय में बौद्ध संगीतियों के विवरण में देख चुके हैं । प्रथम दो संगीतियों का वर्णन करने के बाद दीपवंस' तीसरी संगीति के वर्णन पर आता है। किन्तु यहाँ सम्बन्ध मिलाने के लिये वह पहले लङ्का-द्वीप के उस समय तक के इतिहास को अङ्कित करता है । लङ्काद्वीप की स्थापना एक भारतीय उपनिवेशके रूप में लाळ-नरेश सिंहबाहु के विद्रोही पुत्र विजय ने की। वह अपने पिता के द्वारा अपने उच्छृखल व्यवहार के कारण देश मे बाहर निकाल दिया गया था। अपने कुछ साथियों को लेकर विजय लङ्का द्वीप आया। यात्रा के प्रसंग में सुप्पारक , भम्कच्छ आदि वन्दरगाहों का भी वर्णन कर दिया गया है, जो ग्रन्थकार की ऐतिहासिक बुद्धि का पर्याप्त साथ्य देता है। किन्तु साथ ही यह भी दिखाया गया है कि लङ्का में उस समय यक्ष, दानव और राक्षम रहते थे, जो 'पुराण-इतिहास' शैली का एक अच्छा नमूना कहा जा सकता है। विजय सिंहल का प्रथम अभिषिक्त राजा हुआ। उसके बाद अनेक राजा हुए। जिम समय भारत में अशोक राजा राज्य करता था, मिहल में विजय का वंशधर देवानंपिय तिस्स नामक राजा था । अशोक ने तृतीय संगीति के बाद अपने पुत्र और पुत्री महेन्द्र और संघमित्रा को बुद्ध-धर्म का सन्देश लेकर लङ्का में भेजा। वे अपने साथ बोधि-वृक्ष की शाखा भी ले गये । देवानंपिय तिस्म ने उनका स्वागत किया और बुद्ध-धर्म को स्वीकार किया। इस प्रकार देवानंपियतिस्स के शासन काल में बौद्ध धर्म सर्व प्रथम लङ्का में प्रविष्ट हुआ। बोधिवृक्ष की शाखा, जिसे महेन्द्र और संघमित्रा अपने साथ ले गये थे, बड़े सम्मान के साथ अन राधपुर में लगाई गई और वही 'महाविहार' नामक विहार की स्थापना की गई । देवानंपिय तिस्स के बाद लङ्का के ऊपर एक बड़ी विपत्ति आई । दक्षिण १. प्राचीन लाट अर्थात् गुजरात-प्रदेश। गायगर ने इसे बंग-प्रदेश माना है, जो निश्चय ही गलत है। देखिये महावंश, पृष्ठ ६ (परिचय) (भदन्त आनन्द कौसल्यायन का अनुवाद) Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५५२ ) भारत से द्रविड़ों (दमिळ) ने वहाँ जा कर उसकी राष्ट्रीय एकता को भंग करना आरम्भ कर दिया और बहुत सा भाग अपने अधिकार में कर लिया। द्रविड़ों के द्वारा निरन्तर तंग किये जाने पर भी सिंहल के मैत्री-भावना-परायण बौद्ध राजाओं ने उनसे यद्ध करने की नहीं सोची। जो भाग द्रविड़ों ने अपने अधिकार में कर लिया था उस प्रदेश की सिंहली जनता उनके अत्याचारों से दुःखी थी। अन्त में उन्हें 'दुट्ठगामणि' के रूप में उपयुक्त नेता मिला । दुट्ठगामणि का वास्तविक नाम 'गामणि था। वह तत्कालीन बौद्ध लङ्काधिपति काकवण्ण तिस्म का पुत्र था। बड़ा उद्धन और वीर स्वभाव का था। सोलह वर्ष की अवस्था में ही उसने द्रविड़ों से लड़ने के लिये अपने पिता से आज्ञा मांगी । अहिंसक बौद्ध पिता ने नर-हिंसामय युद्ध की आज्ञा नहीं दी। गामणि उसी समय से विद्रोही हो गया। पिता के आदेश को न मानने के कारण उसके नाम के साथ इसी कारण 'दुष्ट' (8) शब्द भी लगने लगा। बाद में पिता के मरने के बाद वह शोषित सिंहली जनता का स्वाभाविक नेता हुआ। उसने एक सुसंगठित सेना तैयार कर द्रविड़ों को परास्त किया और सिंहल को एक सूत्र में बाँधा । दुट्ठगामणि सिंहल का सब से बड़ा शासक माना जाता है। उसने बौद्ध धर्म की भी बड़ी सेवा की। नौ मंजिलों का 'लोह प्रासाद' नामक बिहार उसने बनवाया । 'महाथूप' (महास्तूप') तथा अन्य अनेक स्तूप और विहार भी उसने बनवार्य । दुट्ठगामणि के बाद उसके वंशधरों में कई राजाओं के बाद प्रसिद्ध सिंहली राजा वट्टगामणि हुआ। उसी के समय में पालि त्रिपिटक को लेखबद्ध किया गया। अतः उसका शासन-काल (प्रथम शताब्दी ईसवी पूर्व) पालि-साहित्य के इतिहास में बड़ा महत्त्वपूर्ण है। वट्ठगामणि के बाद अनेक राजाओं और उनकी वंशावलियों का वर्णन करता हुआ 'दीपवंस' लङ्काधिपति महासेन (३२५-३५२ ई०) के शासन-काल तक आकर समाप्त हो जाता है। 'दीपवस' के वर्णनों का वास्तविक ऐतिहासिक महत्त्वाङ्कन क्या है, लङ्का के निश्चित इतिहास के रूप में वह कहाँ तक मान्य है, भारतीय इतिहास की परम्पगओं से उसके वर्णनों का क्या और कहाँ तक सामञ्जस्य या विरोध है, पालि साहित्य और बौद्ध धर्म के विकास के इतिहास में उसके क्या महत्वपूर्ण साक्ष्य हैं, इन सब समस्याओं का विवेचन हम यहाँ अलग से न कर 'दीपवंस' पर ही आश्रित Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५५३ ) और सम्भवतः उसकी व्याख्या-स्वरूप लिखित एक अन्य वंश-ग्रन्थ के साथ करेंगे, जिसका नाम 'महावंस' (महावंश) है। महावंस' 'महावंस' भी 'दीपवंस' के समान ही लङ्का का एक सुव्यवस्थित इतिहासअन्य है। उसकी न केवल विषय-वस्तु किन्तु क्रम भी बिलकुल 'दीपवंस' के समान ही है । सम्भवतः 'दीपवंस' के आधार पर ही वह लिखा गया है । उसके स्रोत बिलकुल 'दीपवंस' के समान ही हैं। 'दीपवंस' और अन्य प्राचीन सिंहली अट्ठकथाओं के अलावा 'सीहलट्ठकथा-महावंस' नामक अट्ठकथा का भी उसने अधिक आश्रय लिया है, यह हमें उसकी टीका जिसका नाम 'महावंस-टीका' (बारहवीं शताब्दी) है, से विदित होता है । 'महावंस' की विषय-वस्तु 'दीपवंस' के समान होते हुए भी उसमे अधिक विस्तृत है । एक बड़ी भारी विशेषता यह है कि दीपवंस' की मी अव्यवस्थित भाषा या नीरस शैली यहाँ बिलकुल नहीं मिलती। 'महावंस' सच्चे अर्थों में एक ऐतिहासिक काव्य है । उसे 'ऐतिहासिक महाकाव्य भी कहा जा सकता है। उसकी भाषा और शैली में वही उदात्तता है, जिसे हम महाकाव्यों की शैली से सम्बन्धित करते है । देवानंपियतिस्स (२४७ ई० पू० से २०७ ई० पू० तक) और दुट्ठगामणि (१०१ ई० पू० से ७७ ई० पू० तक) के विस्तृत , उदान वर्णन निश्चय ही महाकाव्योचित प्रभावशीलता मे ओतप्रोत है । 'महावंस' अपने मौलिक रूप में ३७ वें परिच्छेद की ५०वीं गाथा पर समाप्त हो जाता है। उसके बाद ही 'महावंसो निहितो'' (महावंश समाप्त) इस प्रकार के शब्द लिखित थे। किन्तु बाद में इस ग्रन्थ का कई शताब्दियों तक परिवर्द्धन किया गया। ३७वें परिच्छेद की ५०वीं गाथा मे आगे के परिवद्धित स्वरूप १. डाक्टर गायगर द्वारा सम्पादित, पालि टेक्स्ट सोसायटी द्वारा प्रकाशित, लन्दन १९०८। इस ग्रन्थ के अनेक सिंहलो संस्करण हो चुके हैं। बम्बई विश्वविद्यालय ने इस ग्रन्थ का देवनागरी-संस्करण भी प्रकाशित किया है। हिन्दी में भदन्त आनन्द कौसल्यायन ने इस ग्रन्थ का अनुवाद किया है। हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग द्वारा १९४२, में प्रकाशित Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५५४ ) 3 का नाम 'वूलवंस' हैं । इस परिवद्धित संस्करण के ३८वें परिच्छेद की उनमठवीं गाथा में यह प्रसिद्ध पाठ आता है 'दत्वा सहस्सं दीपेतुं' दीपवंसं समादिसि' । इसका अर्थ इस प्रकार किया गया है, “उसने सोने की एक महस्र मुद्राएँ देकर 'दीपवंस' पर एक दीपिका लिखवाने की आज्ञा दी ।" जिस राजा के विषय में ऐसा कहा गया है, वह धातुमेन है । इस धातुमेन का काल ईसा की पाँचवीं शताब्दी का अन्तिम या छठी शताब्दी का आदि भाग है । जिस दीपिका की ओर उपर्युक्त पाठ में संकेत किया गया है, उसे यहाँ 'महावंस' ही मान लिया गया है । यह मान्यता पहले फ्लीट नामक विद्वान् ने प्रचारित की । ' गायगर और उनके 'वाद विमलाचरण लाहा महोदय ने भी इसे स्वीकार कर लिया है । वरनिन्ज अवश्य इसे मानने को प्रस्तुत नहीं । यदि वास्तव में 'दीपवंस' पर लिखित उपयुक्त 'दीपिका' से तात्पर्य 'महावंस' से ही हो तो इससे यह प्रमाणित हो जाता है कि 'महावंस' की रचना का काल पाँचवीं शताब्दी का अन्तिम या छठी शताब्दी का प्रारम्भिक भाग ही हैं । विंटरनित्ज़ ने उपर्युक्त 'दीपिका' को 'महावंस' न मान कर भी 'महावंस' का रचना- काल पांचवीं शताब्दी का अन्तिम भाग ही माना है। कुछ भी हो, 'महावंस' का 'दीपवंस' पर आश्रित होना एक निश्चित तथ्य है । अनेक पद्य दोनों में समान है । समान उपादानों का अवलम्बन कर के भी 'महावंस' कार ने अपनी रचना को अपनी उच्चतर भाषा और शैली मे एक विशेष गौरव दे दिया है, इसमें सन्देह नहीं । 'महावंस' के रचयिता का नाम महा स- टीका के अनुसार महानाम था । स्थविर महानाम दीघसन्द सेनापनि द्वारा निर्मित विहार में रहते थे, " यह भी वहीं कहा गया है। इससे अधिक 'महावंस' के रचयिता और उनके काल के विषय में कुछ ज्ञात नहीं । १. जर्नल ऑव रॉयल एशियाटिक सोसायटी १९०९, पृष्ठ ५, पद संकेत १ २. पालि लिटरेचर एंड लेंग्वेज, पृष्ठ ३६ ३. हिस्ट्री ऑव पालि लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ ५२२ एवं ५३६ ४. हिस्ट्री ऑव इंडियन लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ २१२, पद संकेत ४ ५. उद्धरण के लिए देखिये महावंश, पृष्ठ २ (परिचय) ( भदन्त आनन्द कौसल्या यन का अनुवाद) Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५५५ ) दीपवंस और महावंस की तुलना _ 'दीपवंस' और 'महावंस' का विषय एक समान है, यह पहले दिखाया जा चुका है । पाँचवीं शताब्दी ईसवी पूर्व से लेकर चौथी शताब्दी ईसवी तक के लङ्का के इतिहास का वर्णन दोनों का विषय है । किन्तु 'दीपवंस' की अपेक्षा 'महावंस' की विषय-वस्तु अधिक विस्तृत, अधिक व्यवस्थित और अधिक काव्यमय है । ‘महावंस' के आदि में ही इस कवि-इतिहासलेखक ने कहा है “पुराने लोगों ने भी इस (महावंश') का वर्णन किया है। उसमें कहीं अति विस्तार, कहीं अति संक्षेप और पुनरुक्ति की अधिकता है। उन सम्पूर्ण दोषों से मुक्त, समझने और ‘म्मरण रखने में सरल, सुनने पर प्रसन्नता और वैराग्य को देने वाले , परम्परागत, प्रसाद-जनक स्थलों पर प्रसाद और वैराग्य-जनक स्थलों पर वैराग्य उत्पन्न करने वाले, इस महावंश को सुनो।"१ महावंस-टीका ने भी इसी का अनुमोदन करते हुए स्वीकार किया है “आचार्य (महानाम) ने पुरानी सिहल अट्ठकथा में से अति विस्तार तथा पुनरुक्ति दोषों को छोड़ सरलता से समझ में आने योग्य “महावंस' को लिखा।"२ महावंस का लेखक निश्चय ही एक कवि-हृदय का व्यक्ति था। उसने जिस स्थल को स्पर्श किया है, प्रत्येक को रसात्मकता प्रदान की है। इस 'महावंस' या महान् पुरुषों (राजाओं, आचार्यो) के वंश-इतिहास लिखने में उसका मन्तव्य उनके उदय-व्यय को दिखाकर पाठकों के हृदय में निर्वेद प्राप्त कराना भी था, यह उसने प्रत्येक परिच्छेद के अन्त में स्पष्ट कर दिया है । 'महावंस' का प्रत्येक परिच्छेद इन शब्दों के साथ समाप्त होता है "सुजनों के प्रसाद और वैराग्य के लिये रचित 'महावंस' का ... परिच्छेद समाप्त ।” 'दीपवंस' के साथ ‘महावंस' के वणित विषयों की तुलना करना के लिये यहाँ 'महावंस' की विषय-सूची का दिग्दर्शन मात्र करा देना आवश्यक होगा। ऊपर दीपवंस के १. महावंस १-२-४ (भदन्त आनन्द कौसल्यायन का अनुवाद) २. "अयं हि आचरियो एत्थ पोराणकम्हि सीहलट्ठकथा महावंसे अतिवित्थार पुनरुत्तदोसभावं पहायतं सुखग्गहणादिपयोजन सहितं कत्वा कथेसि । महावंस, पृष्ठ १ (परिचय) में उद्धृत। ३. “महन्तातं वंसो तन्ति पर्वणि महावंसो", महावंस-टीका। Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५५६ ) विषय का जो संक्षिप्त वर्णन कर दिया गया है, उसकी पृष्ठभूमि में वह स्पष्ट भी हो जायगा । 'महावंस' के प्रथम परिच्छेद में बुद्ध के तीन बार लङ्का में आगमन का वर्णन है। विशेष विस्तार के अलावा 'दीपवंस' के वर्णन से इसकी कुछ भी भिन्नता नहीं है । दूसरे परिच्छेद में भगवान् बुद्ध के पूर्वतम कुल-पुरुष महासम्मत का वंश-वर्णन है । यह भी 'दीपवंस' के आधार पर और उसके समान ही है। तीसरे, चौथे और पाँचवें परिच्छेदों में, क्रमशः प्रथम, द्वितीय और तृतीय धर्म-संगीतियों का वर्णन है। इन वर्णनों में कोई उल्लेखनीय विभिन्नता नहीं है। चूंकि इनका विस्तृत विवरण हम दूसरे अध्याय में दे चुके हैं, अतः फिर 'महावंस' के आधार पर उसी वर्णन को दुहराना उपयुक्त न होगा । अन्य स्रोतों से जो कुछ भी अन्य विभिन्नताएँ यहाँ हैं, वे वहीं (द्वितीय अध्याय में) निर्दिष्ट कर दी गई हैं । 'महावंस' के छठे परिच्छेद में विजय के लङ्का-आगमन का तथा सातव में उसके राज्याभिषेक का वर्णन है, जो भी 'दीपवंस' के इस सम्बन्धी वर्णन का विस्तृत और क्रम-बद्ध वर्णन ही है । आठवें, नवें और दसवें परिच्छेदों में विजय के वंशानुक्रम का वर्णन है, जिसमें अनेक राजाओं के नाम और शासन-काल आते हैं। ग्यारहवें अध्याय में देवानं पिय तिस्स के अभिषेक का वर्णन आता है। इसी समय बुद्ध-धर्म का प्रवेश लङ्का में होता है । 'दीपवंस' की अपेक्षा 'महावंस' में विस्तार बहुत अधिक है और उसकी सूचना भी उसकी अपेक्षा बहुत अधिक है । 'महावंस' के वर्णनानुसार “देवानं पिय तिस्स और धम्मासोक (धर्माशोक-अशोक राजा) दोनों राजा एक दूसरे को न देखने पर भी चिरकाल से मित्र चले आ रहे थे।"१ देवानं पिय तिस्म ने अपने राज्याभिषेक के समय अनेक नीलम, हीरे, लाल, मणि आदि की भेंट अशोक के पास भेजी। 'महावंस' के वर्णनानुसार “राजा (देवानंपिय तिस्स) ने अपने भानजे महारिष्ठ प्रधान मंत्री, पुरोहित,मन्त्री और गणक, इन चार व्यक्तियों को दूत बना, बहुमूल्य रत्नादि. . . . . . देकर सेना सहित वहाँ (पाटलि पुत्र) भेजा।"२ इन दूतों के मार्ग का वर्णन भी महावंस में किया गया है "जम्ब कोल (लङ्का के उत्तर में सम्बलहुरि नामक स्थान से नाव १. महावंस ११३१९ (भदन्त आनन्द कौसल्यायन का अनुवाद) २. महावंस ११।२०-२२ (भदन्त आनन्द कौसल्यायन का अनुवाद) Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५५७ ) पर चढ़कर मात दिन में वे बन्दरगाह पहुँचे । वहाँ से फिर एक सप्ताह में पाटलिपुत्र पहुँचे। वहाँ जाकर राजा को भेंट समर्पित की, जिसे देख कर वह प्रसन्न हुआ।"१ अशोक राजा ने अन्य प्रभत भेंट-सामग्री के साथ सद्धर्म की यह भेंट भी भेजी, “मैंने बुद्ध धर्म और संत्र की शरण ग्रहण की है और शाक्य-पुत्र के शासन में उपासक हुआ हूँ। हे नरोत्तम ! आप भी आनन्दपूर्वकश्रद्धा केसाथ इन उत्तम रत्नों की शरण ग्रहण करें।"२ तृतीय धर्म-संगीति के बाद देश-विदेश में बुद्ध-धर्म के प्रचार के लिए अशोक ने जो कार्य किया उसका वर्णन 'महावंस' के एक अलग परिच्छेद में ही किया गया है। बारहवें परिच्छेद का शीर्षक है 'नाना देश-प्रचार।' इस नाना देश-प्रचार की योजना के अन्तर्गत ही आगे चल कर तेरहवें परिच्छेद में महेन्द्र के लंका-आगमन का वर्णन है । 'नाना-देश-प्रचार' के वर्णन में हम पढ़ते है, “संगीति समाप्त कर के बुद्ध-धर्म के प्रकाशक स्थविर मौद्गलिपुत्र तिस्य (मोग्गलिपुत्त तिस्स) ने भविष्य को देखते हुए, प्रत्यन्त-देशों (पड़ौसी देशों) में (धर्म) शासन की स्थापना का विचार कर, कार्तिक मास में स्थविर मज्झन्तिक को काश्मीर और गन्धार को भेजा और महादेव स्थविर को महिषमंडल भेजा। रक्षित नामक स्थविर को वनवास (मैसूर का उत्तरी भाग) की ओर भेजा और यवन (ग्रीक) धर्मरक्षित को अपरान्त (बम्बई से सूरत तक का प्रदेश) देश में भेजा। महाधर्मरक्षित स्थविर को महाराष्ट्र में तथा महारक्षित स्थविर को यवन देशों में भेजा। हिमालय-प्रदेश में मज्झिम स्थविर को भेजा और स्वर्णभूमि (बरमा) में सोण और उत्तर नामक दो स्थविरों को भेजा। अपने शिष्य महा महेन्द्र स्थविर तथा इट्ठिय, उत्तिय, सम्बल और भद्दसाल-----इन पाँच स्थविरों को यह कर लंका भेजा-तुम मनोज्ञ लंका-द्वीप में, मनोज्ञ बुद्ध-धर्म की स्थापना करो।"3 इन सब भिक्षओं के अलग अलग कार्य का वर्णन करने के बाद महेन्द्र के १. महावंस ११०२३-२४ (भदन्त आनन्द कौसल्यायन का अनुवाद) २. महावंस ११३४-३५, मूल इस प्रकार है--अहं बुद्धं च धम्मंच संघं च सरणं गतो उपासकत्तं वेसि साक्यपुत्तस्स सासने त्वपि मानि रतनानि उत्तमानि नरुत्तम, चित्तं पसादयित्वान सद्धाय सरणं भज ३. महावंसं १२॥१-८ Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५५८ ) लंका-गमन का वर्णन बड़े चमत्कृत और काव्य-मय ढंग से 'महावंस'-काग्ने किया है "अन्तिम शय्या पर सोये हुए लोक-हितैषी मुनि (बुद्ध) ने लंका के हित के लिये जिनके बारे में भविष्यवाणी की थी, वही लंका के लिए दूसरे बुद्ध, लंकावामी देवताओं द्वारा पुजित, महेन्द्र, लंका के हितार्थ वहाँ पधारे।"१ चौदहवें अध्याय में उनके नगर-प्रवेश का वर्णन है। राजा देवानंपिय तिस्स को अपना परिचय देते हुए स्थविर महेन्द्र उन्हें कहते हैं “महाराज! हम धर्मराज (बुद्ध) के अनुयायी भिक्षु है। आप पर ही अनुग्रह करने के लिए हम भारत (जम्बुद्वीप) से यहाँ (लंका में) आये हैं।"३ पन्द्रहवें अध्याय से लेकर बीसवें अध्याय तक क्रमश: महाविहार-निर्माण, चैत्यपर्वत-विहार-प्रतिग्रहण, महाबोधि-ग्रहण, बोधिआगमन, एवं स्थविर-परिनिर्वाण आदि के वर्णन है, जो उस काल तक लंका म बौद्ध धर्म की प्रगति के चरण-चिन्ह हैं। इक्कीसवें अध्याय में देवानंपिय तिम्म के बाद और दुट्टगामणि से पहले आने वाले पांच राजाओं का वर्णन है। बाईसवे परिच्छेद से लेकर बनीसवें परिच्छेद तक अर्थात् पूरे ग्यारह परिच्छेदों में दुट्ठगामणि का इनिहाम वर्णित है, जब कि 'दीपवंस' में इस वर्णन को केवल १३ गाथाएँ दी गई हैं। दुट्ठगामणि ने किस प्रकार सैनिक बल का संग्रह कर द्रविड़ों का निष्कासन किया, यह हम पहले देख चुके है। युद्ध में विजय प्राप्त करने के बाद उसने बौद्ध धर्म की सेवा भी की और 'लोह-प्रासाद' 'महा-प्रासाद' नामक अनेक विहार और स्तूप भी बनवाये। इस विजेता राजा को इस प्रकार बुद्ध-धर्म का उपामक दिखा कर उसे एक राष्ट्रीय नेता और महापुरुष के रूप में 'महावंस' में चित्रित किया गया है और उसके आधार पर ग्यारह परिच्छेदों में एक महाकाव्य की ही सृष्टि कर दी गई है । बाईसवें अध्याय से ३२वें अध्याय तक की विषय-सूची उसके इन विभिन्न क्रियाकलापों को अच्छी प्रकार दिखा सकती है। वह इस प्रकार है (२२) ग्रामणी कुमार का जन्म (२३) योद्धाओं की प्राप्ति (२४) दो भाइयों का युद्ध (२५) दुष्ट ग्रामणी की विजय (२६) मरिचट्टि-विहारपूजा (२७) लोह-प्रासाद-पूजा, (२८) महास्तूप की साधन-प्राप्ति, (२९) १. महावंस १३३२१ २. महावंस १४१८; मूल पालि-पाठ इस प्रकार है-समणा मयं महाराज धम्म राजस्स सावका। तवेव अनुकम्माय जम्बुदीपा इघागता। Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५५९ ) महास्तूप का आरम्भ (३०) धातुगर्भ की रचना, (३१) धातु-निधान और (३२) तुषितपुर-गमन। दुगामणि के जीवन का सब से बड़ा काम उसकी विजयों के बाद उसके द्वारा ९ मंजिलों वाले लोह-प्रासाद तथा मरीच बट्टी और महास्तुप आदि विहारों और स्तूपों का बनवाना था। लोह-प्रासाद के पूर्ण होने के पहले ही उसे मरणान्तक रोग उत्पन्न हुआ और उसे निश्चय हो गया कि उसका अन्त काल ममीप है। अपने छोटे भाई तिस्स को बुलवा कर स्तूप के बचे हुए काम को समाप्त करवाने का आदेश दिया, जिसे उसने पूरा किया। मृत्यु से पूर्व अशक्त होने पर भी इस श्रद्धालु राजा ने पालकी में बैठ कर इस चैत्य की प्रदक्षिणा की और दक्षिण-द्वार पर आ कर वुद्ध-वन्दना की। "फिर भिक्षु-संघ से घिरे हुए राजा ने दाई करवट लेटे हुए उत्तम महास्तूप को और बाई करवट लेटे हुए उत्तम लोह-प्रामाद को देख कर चिन प्रसन्न किया।"१ मरण-शथ्या पर पड़ा हुआ राजा अपने पूर्व के युद्ध के माथियों को सम्बोधित कर कहने लगा, “पहले मैने तुम दस योद्धाओं को साथ ले कर युद्ध किया था, अब मृत्यु के साथ अकेले ही युद्ध आरम्भ कर दिया। इस मृत्यु रूपी शत्र को मै पराजित नहीं कर सका।"२ शरीर छोड़ने से पहले दुट्ठगामणि ने अपने छोटे भाई तिस्स को आदेश दिया “हे तिस्स ! असमाप्त महास्तूप का शेष सब कृत्य आदरपूर्वक समाप्त करवाना। स्वयं प्रातःकाल उस पर पुष्प चढ़ाना। प्रति दिन तीन बार उसकी पूजा करना । बुद्ध-शासन के सत्कारसम्बन्धी जो कृत्य मैंने निश्चित किए है, उन सभी कृत्यों को हे तात ! तुम अविच्छिन्न रूप से चलाते रहना । संघ-सम्बन्धी कार्य में हे तात ! कभी प्रमाद (आलस्य) न करना।" धर्म-श्रवण करने के बाद, रथ पर खड़े होकर तीन बार महास्तूप की प्रदक्षिणा कर, स्तूप और संघ को प्रणाम कर, दुट्ठगामणि तुषित-लोक को गया। इस प्रकार दुट्ठगामणि की जीवन-गाथा को यहाँ एक पूरे राष्ट्र के आदर्गों में व्याप्त महाकाव्य-गत महत्ता और प्रभावशीलता दी गई है, यह उसकी उपर्युक्त शैली से ही स्पष्ट हो जाता है। दुट्ठगामणि के बाद १. महावंस ३२॥२-३ २. महावंस ३२॥१६-१७ ३. महावंस ३२१५९-६२ Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६० ) उसके उत्तराधिकारी राजाओं की एक क्रमबद्ध लम्बी क्रमशः 'दश राजा' 'एकादग 'राजा' 'द्वादश राजा' 'त्रयोदश राजा' इस प्रकार क्रमशः तेतीसवें, चौंतीसवें, पैंतीसवें और छत्तीसवें परिच्छेदों में दी हुई है, जब कि 'दीपवंस' में इस सम्बन्धी संक्षिप्त वर्णन ही उपलब्ध है । सैंतीसवें परिच्छेद की पचासवीं गाथा तक ( जहाँ तक ही मौलिक 'महावंस' की विषय-सीमा है ) राजा महासेन के शासन काल का वर्णन है । इस प्रकार 'दीपवंस' और 'महावंस' दोनों एक ही जगह से प्रारम्भ कर महासेन के शासन काल ( ३२५-३५२ ई० ) · तक आ कर लंका के इतिहास को समाप्त कर देते हैं । 'महावंस' से कम से कम डेढ़ सौ वर्ष पूर्व की रचना होने के कारण 'दीपवंस' जब कि अपने स्रोतों अर्थात् सिंहली अट्ठकथाओं के अधिक समीप है, 'महावंस' ने उसे विस्तृत काव्यात्मक -स्वरूप प्रदान कर उसकी भाषा और शैली में भी अधिक परिष्कार और व्यवस्थापन कर दिया है । दोनों के द्वारा वर्णित विषयों के विवरणों में अद्भुत समानता होने हुए भी कहीं कुछ वंशावलियों के कालानुक्रमों में अन्तर भी है, जिस पर हम अभी आयेंगे । ‘महावंस' को चाहे 'दीपवंस' की अर्थकथा या टीका स्वीकार किया जाय या नहीं, उसकी शैली अपनी एक मौलिक विशेषता रखती है, यद्यपि उसकी विषयवस्तु अन्ततोगत्वा 'दीपवंस' पर ही आधारित हैं । -क्या 'दीपवंस' और 'महावंस' इतिहास हैं ? 'दीपवंस' और 'महावंस' दोनों ही इतने अतिरंजनामय और अलौकिक वर्णनों से भरे हुए ग्रन्थ हैं कि उन्हें शब्दशः तो इतिहास नहीं माना जा सकता । पालित्रिपिटक से हम जानते हैं कि शास्ता मध्य-मंडल को छोड़कर शायद ही कहीं गये । किन्तु ‘महावंस' में तथा उससे पूर्व 'दीपवंस' में भी उनका तीन बार लंका-गमन दिखाया गया है, जो कल्पना - प्रसूत ही हो सकता है। विजय का उसी दिन लंका 'पहुँचना जिस दिन भगवान् का परिनिर्वाण हुआ, यह भी वास्तविक घटनाश्रित नहीं दीखता । नाना चमत्कार-मय वर्णन जो 'दीपवंस' और 'महावंस' में भरे पड़े हैं, उनकी तो कोई इयत्ता ही नहीं । महेन्द्र और उनके साथी भिक्षुओं का आकाश से उड़ कर लंका में पहुँचना, लोह -प्रासाद और महा स्तूप के निर्माण के - समय अनेक प्रकार के चमत्कारों का होना, आदि बातें निश्चित घटनापरक Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६१ ) ऐतिहासिक शैली को व्यक्त नहीं करतीं। यदि इन सब बातों को उचित अवकाश देकर 'दीपवंस' और 'महावंस' की मूल विषय-वस्तु का परीक्षण किया जाय तो वहाँ से हम निश्चय ही बहुत कुछ निश्चित इतिहास का निर्माण कर सकते हैं। न केवल लंका के धार्मिक और राजनैतिक इतिहास में ही बल्कि भारतीय इतिहास की अनेक समस्याओं के सुलझाने में भी, विशेषतः उसके काल-क्रम की समस्या के सुलझाने में, इस प्रकार के अध्ययन से काफी सहायता मिल सकती है। चाहे 'दीपवंस' और 'महावंस' के अन्य विवरण कितने ही अधिक अतिरंजनामय हों, कालानुक्रम के सम्बन्ध में उनका प्रामाण्य और महत्त्व निर्विवाद है। उनकी इमी विशेषता की ओर लक्ष्य करते हुए प्रो० रायस डेविड्स ने कहा है कि सिहल के इतिहास-ग्रन्थों की कालानुक्रमणिका इंगलैण्ड और फ्रांस के उन सर्वोत्तम ग्रन्थों की कालानुक्रमणिकाओं से भी, जो उन देशों में बहुत शताब्दियों बाद तक लिखे गये, किसी भी प्रकार कम महत्त्व वाली नहींहैं।' यधपि विजय से लेकर देवानंपिय तिस्स तक की कालानुक्रमणिका के विषय में तो उतना निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता, किन्तु देवानंपिय तिस्स और हर हालत में दुगामणि से लेकर महासेन तक की कालानुक्रमणिका तो प्रामाणिक ही मानी जा सकती है। ‘महावंस' में दी हुई इस पूरी कालानुक्रमणिका को हम यहाँ विस्तार-भय से उद्धृत नहीं कर सकते। यहाँ केवल इतना ही कहना अपेक्षित है कि चूंकि बुद्ध-परिनिर्वाण से काल-गणना कर यहाँ विभिन्न राजाओं के शासन-काल की गणना की गई है, अतः उससे न केवल बुद्ध के परिनिर्वाण अपितु अन्य अनेक भारतीय ऐतिहासिक घटनाओं के तिथि-विनिश्चय में भी पर्याप्त सहायता मिली है। इस विषय का अधिक विवेचन करना तो यहाँ पुरे प्राचीन भारतीय इतिहास की एक अत्यन्त विवाद-ग्रस्त समस्या में ही प्रवेश करना होगा, जो हमारे प्रस्तुत प्रयोजन को देखते हुए अप्रासंगिक १. बुद्धिस्ट इंडिया, पृष्ठ २७४ २. 'महावंस' के आधार पर विजय से लेकर महासेन तक के लंका के ६१ राजाओं को तथा बिम्बिसार से लेकर अशोक तक के १३ भारतीय राजाओं की कालानुक्रमणिकाओं के उद्धरण के लिए देखिये महावंश (भदन्त आनन्द कौसल्यायन का हिन्दी अनुवाद), पृष्ठ ७-९ (भूमिका) Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६२ ) होगा। काल-क्रम के अलावा भारतीय इतिहास के लिए इन लंका के इतिहासग्रन्थों का और भी प्रभुत महत्त्व है। भारतीय इतिहास की अनेक घटनाओं का वे अद्भुत रूप से समर्थन करते हैं। उदाहरणत: अशोक के पहले के राजाओं यथा नन्दों, चन्द्रगुप्त (चन्दगुन) और बिम्बिसार के वर्णन, विम्बिसार और अजातशत्र के पारस्परिक सम्बन्ध और बुद्ध के साथ उनका समकालिक होना, भगवान् बुद्ध का बिम्बिमार से आयु में पाँच वर्ष बड़ा होना, चन्द्रगुप्त और उसके ब्राह्मण मन्त्री चाणक्य (चणक्क) के विवरण, और सब से अधिक अशोक का वुद्ध-परिनिर्वाण के २१८ वर्ष बाद अभिषिक्त होना, आदि तथ्य ऐसे है जो इन सिंहली इतिहास-ग्रन्थों ने भारतीय इतिहास के समर्थन स्वरूप दिये हैं। 'महावंस' में वर्णित तृतीय बौद्ध संगति के सभापति मोग्गलिपुत तिस्स और उनके द्वारा देश-विदेश भेजे हुए मज्झिम (हिमवन्त-प्रदेश के धर्मोपदेशक) आदि धर्मोपदेशकों की बात मही है, इसे साँची स्तुप में प्राप्त धातु-डिब्बियों के ऊपर उत्कीर्ण लेखों से समर्थन प्राप्त होता है। वहाँ प्राप्त एक डिदिया पर लिखा हुआ है "सपुरिसस मज्झिमस" (सत्पुरुष मज्झिम का) और एक दूसरी पर लिखा है 'सपुरिसस मोगलिपतस' (सत्पुरुप मोग्गलिपुत्त का ) । साँची-स्तूप की एक पापाणवेप्ठनी पर उरुवेला से लंका को वोधि-वृक्ष की टहनी ले जाये जाने का चित्र अंकित है। उससे भी 'महावंस' में वर्णित महेन्द्र द्वारा धर्न-प्रचार के कार्य को ऐतिहामिक समर्थन प्राप्त होता है। इसी प्रकार पुरातत्त्व सम्बन्धी खोजों तथा चीनी यात्रियों के वर्णनों से अशोक तथा देवानंपिय तिस्स का समकालिक होना भी प्रमाणित होता है। तीन बौद्ध संगीतियों का विवरण भी जो 'महावंस' और 'दीपवंस' में दिया हआ है, तत्त्वतः ऐतिहासिक आधार पर हो आश्रित है । अतः इन इतिहास-ग्रन्यों के वर्मन ऐतिहासिक दृष्टि से भी समाश्रमणीय हैं, । विशेषतः उत्तरकालीन इतिहास के सम्बन्ध में तो इनका साक्ष्य अधिक स्पष्ट और प्रामाणिक है ही। 'महावन का विशेष महत्त्व तो लंका के धार्मिक इतिहास के रूप मे ही है। सर्व-प्रथम तो उपालि से लेकर महेन्द्र तक के विनय-धरों की जो कालानुक्रम-पूर्वक परम्परा यहाँ दी हुई है, वह लंका और भारत दोनों देशों में बुद्ध-धर्म के विकास की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। यह परम्परा इस प्रकार है. (१) उपालि , (२) दासक, (३) सोणक, (४) सिग्गव, (५) मोग्गलिपुत तथा (६) महिन्द। सर्वास्तिवादियों के मतानुसार Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक दूसरी परम्परा है, जो उनके सम्प्रदाय के अनुसार प्रामाणिक मानी जाती है। चुंकि भिन्न भिन्न सम्प्रदायों ने अपने अपने सम्प्रदायों के अनुसार इन परम्पराओं का उल्लेख किया है, अतः उनमें कम या अधिक प्रामाणिक होने का सवाल ही नहीं उठता। वे मव अपनी अपनी दृष्टि से प्रामाणिक है और आदिम स्रोत तो हर हालत में बुद्ध और उनके प्राथमिक शिष्य है ही। सिंहल के स्तुप, विहार और चैत्यों के तो बड़े ही विस्तृत विवरण ‘महावंस' में उपलब्ध हैं। महाविहार, अभयगिरि विहार, थूपाराम, महामेघवण्णाराम, लोहपामाद आदि विहारों के वर्णन लंका में बौद्ध धर्म के विकास पर बड़ा अच्छा प्रकाश डालते हैं और पुरातत्त्व के विद्यार्थी के लिए अध्ययन के अच्छे विषय है। इसी प्रकार धार्मिक उत्सवों के भी करे चित्रमय वर्णन उपलब्ध है। सब से बड़ी बात तो भारत और सिहल के शताब्दियों तक के पारस्परिक आदान-प्रदान का इन ग्रन्थों में बड़ा सुन्दर चित्रण है। तत्कालीन भारतीय इतिहास और भूगोल मानो इन ग्रन्थों में पुनरुज्जीवित हो उठता है। राजगृह, कौशाम्बी, वैशाली, उज्जयिनी, पुष्पपूर, नालन्दा आदि भारतीय सांस्कृतिक केन्द्रों की स्मृति 'दीपवंस' और 'महावंस' में कितनी हरी-भरी है, यह उन्हें पढ़ते ही देख बनता है। कपिलवस्तु, कुशावती, कुशीनारा, गिरिद्रज, जेतवन, मधुरा (मथुरा), उरुवेला, काशी, ऋषिपतन (इतिपतन), पाटलिपुत्र, वाराणसी आदि बुद्ध-स्मृति से अंकित भारतीय नगरों, तथा इसी प्रकार अंग, मगध, चम्पा, मल्ल, वेळवन, इन्द्रप्रस्थ, भरुकच्छ, सुप्पारक, तक्षशिला, सागल (स्यालकोट), अवन्ती, मद्र, प्रयाग (पयाग) आदि स्थानों तथा उतने ही अधिक लंका-द्वीप के सांस्कृतिक केन्द्रों और स्थानों से, जो इन ग्रन्थों में वर्णित है, तत्कालीन भुगोल का ही निर्माण किया जा सकता है। पालि साहित्य के इतिहास में भी इन ग्रन्थों का साक्ष्य त्रिपिटक की प्राचीनता सम्बन्धी उस परम्परा का समर्थन करता है जिसके दर्शन हम पहले अशोक के अभिलेखों और 'मिलिन्द पह' में करते हैं। इन दोनों ग्रन्थों में ही तीनों पिटकों, पाँचों निकाओं और उनके विभिन्न ग्रन्थों के नाम ले लेकर, उनके वर्गों, पज्ञासकों, संयुत्तों और वर्गों के पूरे ब्यौरे दे देकर १. जिसके उद्धरण के लिए देखिये राहुल सांकृत्यायन : अभिधर्मकोश पृष्ठ ८ (भूमिका) Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्धृत किया गया है। इससे यह स्पष्ट रूप से प्रमाणित होता है कि पालि त्रिपिटक : इनके प्रणयन-काल में उसी नाम और वर्गीकरण में विद्यमान था, जिसमें वह आज है। चूलवंस' जैसा पहले कही जा चुका है, 'महावंस' ३७वें परिच्छेद की ५० वीं गाथा पर समाप्त हो जाता है और वह लंका के इतिहास का महासेन के शासन-काल (३२५-३५२ ई०) तक वर्णन करता है। उसके बाद का लंका का क्रमबद्ध इतिहास भी इसी ग्रन्थ के परिवद्धित अंश के रूप में बाद में उसके साथ ही जोड़ दिया गया। यह जुड़ा हुआ अंश अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध तक अथवा यदि उसके आधुनिकतम रूप को भी उसी के साथ संयुक्त मानें तो ठीक १९३५ ई० तक लंका के इतिहास का क्रम-बद्ध निरूपण करता है। 'महावंस' के ३७ वें परिच्छेद की ५० वीं गाथा के बाद का यह परिवद्धित अंश 'चूलवंस' के नाम से प्रसिद्ध है। 'चूलवंस' सन् ३५२ ई० (महासेन के शासन-काल की अन्तिम साल) से लेकर ठीक आधुनिक काल तक (उसके आधुनिकतम विकसित रूप को सम्मिलित कर) लंका के इतिहास का वर्णन करता है। यह रचना पाँच भिन्न भिन्न व्यक्तियों द्वारा भिन्न भिन्न कालों में हुई है, जिसका क्रमानुसार विवरण इस प्रकार है-- (१) सिंहल प्रवासी स्थविर धम्मकित्ति (धर्मकीति) नामक बरमी भिक्षु ने, जो प्रसिद्ध सिंहली राजा पराक्रमबाहु द्वितीय के समकालिक थे, तेरहवीं शताब्दी के मध्य भाग में सर्वप्रथम महानाम द्वारा ३७ वें परिच्छेद की ५० वीं गाथा पर छोड़े हुए ‘महावंस' का परिवर्द्धन किया। सैतीसवें अध्याय में १९८ गाथाएँ जोड़ कर उसे 'सात राजा' शीर्षक दिया और फिर ७९ परिच्छेद तक ग्रन्थ-रचना की। राजा महासेन के पुत्र सिरिमेघवण्ण (श्री मेघवर्ण) से इन्होंने अपने विषय का प्रारम्भ किया और उसे पराक्रमबाहु प्रथम (१२४०-१२७५) के शासन-काल तक छोड़ा। इस बीच में उन्होंने ७८ राजाओं का कालानुक्रम-पूर्वक वर्णन किया, जो १. रोमन लिपि में डा० गायगर द्वारा सम्पादित, पालि टेक्स्ट सोसायटी द्वारा प्रकाशित, १९३५; इस ग्रन्थ के सिंहली और बरमी संस्करण भी उपलब्ध हैं। Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६५ ) निश्चिततम इतिहास ही है । अकेले पराक्रमबाहु प्रथम का ही वर्णन इस भाग में १८ अध्यायों में किया गया है। पराक्रम - बाहु ने द्रविड़ों को हराया था और बौद्ध धर्म के स्तूपों, विहारों आदि के निर्माण के द्वारा बड़ी सेवा की थी । महानाम ने जिस प्रकार दुट्ठगामणि के वर्णन से एक ऐतिहासिक महाकाव्य की रचना कर डाली है, उसी प्रकार यहाँ पराक्रमबाहु को एक महाकाव्योचित प्रभावशील वर्णन का विषय बनाया गया है । (२) 'चूलवंस' का द्वितीय परिवर्द्धन बुद्धरक्षित नामक भिक्षु ने किया । इन्होंने ८० वें परिच्छेद से लेकर ९० वें परिच्छेद तक रचना की । पराक्रमबाहु द्वितीय से आरम्भ कर इन्होंने अपना विषय पराक्रमबाहु चतुर्थ पर छोड़ा | इस भाग में इन्होंने २३ राजाओं का वर्णन किया । (३) 'चूलवंस' का तृतीय परिवर्द्धन सुमंगल स्थविर ने किया । इन्होंने ९१ वें परिच्छेद से १०० परिच्छेद तक रचना की। भुवनेकबाहु तृतीय के काल से ले कर इन्होंने अपने विषय को कीर्ति श्री राजसिंह ( कित्ति सिरिराजसीह ) की मृत्यु ( १७८५ ई० ) तक छोड़ा। इस बीच में उन्होंने २४ राजाओं का वर्णन किया। इसी अंश में हमें ईसाई धर्म प्रचारकों के लंका में आने की सूचना भी मिलती है । (४) 'चूलवंस' का चौथा परिवर्द्धन सुमंगलाचार्य तथा देवरक्षित ने किया । यह परिवर्द्धन केवल १०१ वें परिच्छेद के रूप में लिखा गया । इसमें लंका के दो अन्तिम राजा सिरि राजाधिराज सीह ( श्री राजाधिराज सिंह) और सिरि विक्कम राज सीह (श्री विक्रमराज सिंह) का वर्णन है, और लंका के अंग्रेजों के हाथ में चले जाने की भी सूचना है । यह अंग १७८५ और १८१५ ई० के बीच के लंका के इतिहास का वर्णन करता है । (५) सन् १८१५ से १९३५ ई० तक का लंका का इतिहास सिंहली भिक्षु स्थविर युगिरल पञ्ञानन्द नायक पाद- द्वारा लिखा गया है । यदि चाहें तो इसे भी 'चूलवंस' का ही परिवर्द्धित स्वरूप कह सकते हैं, और चाहें तो अलग स्वतंत्र ग्रन्थ भी मान सकते हैं । प्रकाशित (१९३६) तो यह स्वतंत्र ग्रन्थ के रूप में ही हुआ है । सिंहल की आधुनिक पालि-रचना की प्रगति पर इस ग्रन्थ से पर्याप्त प्रकाश पड़ता है । Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुद्धघोसुप्पत्ति बुद्धघोसुप्पत्ति (बुद्धघोषोत्पत्ति) बुद्धघोष की जीवनी के रूप में लिखी गई रचना है। इसके प्रणेता महामंगल नामक सिंहली भिक्षु थे, जो 'गन्धट्ठि' नामक (उपसर्गसम्बन्धी) व्याकरण-ग्रन्थ के भी रचयिता थे । इनका काल चौदहवीं शताब्दी है। 'बुद्धघोसुप्पत्ति' में अलौकिक विधान इतना अधिक है कि उसका वास्तविक ऐतिहासिक महत्त्वांकन नहीं किया जा सकता। वुद्धघोप की बाल्यावस्था और प्रारंभिक शिक्षा तथा धर्म-परिवर्तन का वर्णन करते समय ऐसा मालूम पड़ता है मानो 'मिलिन्द पह' के नागसेन और रोहण तथा 'महावंस' (परिच्छेद ५) के सिग्गव तथा मोग्गलंपत्त तिस्स सम्बन्धी प्रकरणो के नम्नों को ही रूपान्तर कर के रख दिया गया है। यद्यपि लेखक ने बुद्धघोष के जन्म, बाल्यावस्था, प्राम्भिक शिक्षा, धर्म-परिवर्तन, ग्रन्थ-रचना आदि सभी का विस्तारपूर्वक वर्णन किया है, किन्तु ऐतिहामिक बुद्धि का उसने अधिक परिचय नहीं दिया है। बुद्धदत्त-कृत 'विनय-विनिच्छय' के अनुसार बुद्धदन ने बुद्धघोप-कृत विनय और अभिवम्म पिटक सम्बन्धी अट्ठकथाओं को ही क्रमग: अपने 'विनय विनिच्छ्य' और अभिधम्मावनार' के रूप में संक्षिप्त रूप दिया था। किन्तु 'बुद्धघोसुप्पत्ति' में बुद्धदत्त का प्रथम लंका-गमन दिखा कर बुद्धघोप को अपना अपूर्ण काम पूरा करने का आदेश देते दिखाया गया है। निश्चय ही 'विनय विनिच्छय' का ही प्रमाण यहाँ दृढ़तर माना जा सकता है। इस प्रकार की एक-दो ऐतिहासिक भूलें 'बुद्धघोसप्पन्ति' के रचयिता ने और भी की है। वास्तव में बात यह है कि स्थविर १. जेम्स ग्रे द्वारा रोमन लिपि में सम्पादित, लन्दन १८९२ । २. देखिये मेबिल बोड : दि पालि लिटरेचर ऑव बरमा, पृष्ठ २६, डे जॉयसा। केटेलाग , पृष्ठ २३; देखिये आगे दसवें अध्याय में व्याकरण-साहित्य का विवेचन भी। ३. देखिये विमलाचरण लाहा दि लाइफ एंड वर्क ऑब बुद्धघोष, पृष्ठ ४४-४७; देखिये उन्हीं का 'हिस्ट्री आव पालि लिटरेचर', जिल्द दूसरी, पृष्ठ ५५९; मिलाइये जेम्स द्वारा सम्मादित एवं अनुवादित बुद्धघोप्पति'को भूमिका भी। ४. देखिये विमलाचरण लाहा : दि लाइफ एंड वर्क ऑव बुद्धघोष, पृष्ठ ४३-४४ । Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६७ ) महामंगल ने केवल अनुश्रुति के आधार पर चौदहवी शताब्दी में इस रचना को ग्रथित किया था, अतः साक्षात् जीवन से प्राप्त मौलिकता या सच्चाई उनकी रचना में नहीं आ सकती थी । 'महावंस' के ३७ वें परिच्छेद के परिवर्द्धित संस्करण में सिंहल - प्रवासी वरमी भिक्षु धम्मकित्ति ( १३ वीं शताब्दी) ने भी यद्यपि बुद्धदोप से शताब्दियों बाद अपने वर्णन को ग्रथित किया था किन्तु उसकी प्रामाणिकता फिर भी 'बुद्धत्रोमुप्पत्ति' से अधिक है । 'महावंस' ( या ठीक कहें तो चूलवंस) के इस प्रकरण की तुलना में बुद्धघोमुप्पत्ति का वर्णन कम ऐतिहासिक मूल्य काही मानना पड़ेगा । 'महावंस' के उपर्युक्त विवरण का साक्ष्य स्वयं बुद्धघोष और वृदन आदि की अट्ठकथाओं के कतिपय वर्णनों से मिल जाता है. जब कि बुद्धघोसुपनि के वर्णनों से उनका कहीं कहीं विरोध भी है, जैसा एक उदाहरण में हम ऊपर देख चुके हैं । अतः ऐतिहासिक रूप से वह उतना विश्वसनीय नहीं माना जा सकता। जो तथ्य उसके प्रामाणिक भी है, वे भी 'महावंस' के वर्णन पर ही आधारित है, यह उनकी शैली से ही स्पष्ट हो जाता है । स्वयं लेखक ने भी स्वीकार किया है कि उसका वर्णन 'पुर्वाचार्यो' ( दुब्वाचरिया) पर आधारित है। उत्तरकालीन ग ग्रन्थों यथा गधवंस, ' मासन वंम तथा सद्धम्मसंग में भी बुद्धघोष की जीवनी के साथ साथ इस ग्रन्थ का भी उल्लेख हुआ है (विशेषतः मामनवंस में ) । ये सभी 'महावंम' के उपर्युक्त परिवर्द्धित अंग पर इतने आधारित है कि इनमें कोई नई बात ही ढूंढना व्यर्थ है । 'बुद्धघोगुप्पनि' का दूसरा नाम 'महाबुद्धघोमम्म निदानवत्थु ' ( महाबुद्धघोषस्य निदानवस्तु) भी है । उ सद्धम्मसंगह 'मद्धम्मसंगह' एक गद्य-पद्य मिश्रित रचना है, जिसमें बुद्ध-शासन के मंत्रह के साथ साथ प्रारम्भिक काल से लेकर १३ वी शताब्दी तक के भिक्षु संघ के इतिहास का वर्णन है। दीघ, मज्भिम, संयुक्त, अंगुत्तर और खुदक निकायों का निर्देश इस १. जर्नल ऑव पालि टैक्स्ट सोसायटी १८८६ में प्रकाशित संस्करण, पृष्ठ ६६ २. पृष्ठ ३० (मेबिल बोड द्वारा सम्पादित, पालि टैक्स्ट सोसायटी, १८९७ ) ३. जर्नल ऑफ पालि टैक्स्ट सोसायटी, १८९० में प्रकाशित संस्करण, पृष्ठ ५५ ४. सद्धानन्द द्वारा जर्नल ऑव पालि टॅक्स्ट सोसायटी, १८९० में सम्पादित । Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६८ ) ग्रन्थ में हुआ है । अभिधम्म-पिटक के ग्रन्थों का भी उल्लेख हुआ है । तीन बौद्ध संगीतियों के वर्णन में कोई नई बात यहाँ नहीं कही गई है। चुल्ल वग्ग (विनयपिटक), वृद्धघोष की अट्ठ कथाओं और दीपवंस, महावंस के आधार पर संकलित सामग्री का उपयोग कर के ही इन वर्णनों को ग्रथित कर लिया गया है। तृतीय संगीति के बाद धर्म-प्रचार कार्य का विस्तृत विवरण इस ग्रन्थ में भी दिया गया है और दीपवंस, महावंस तथा समन्तपासादिका के समान उन भिक्षओं के नामों का उल्लेख भी किया गया है जिन्हें धर्म-प्रचार के लिए देश-विदेश में भेजा गया था। इस प्रकार 'सद्धम्मसंगह' क वर्णनानुसार थेर मज्झन्तिक काश्मीर और गन्धार को भेजे गए, महादेव थेर महिष मंडल को भेजे गये, रक्खित थेर वनवासी-प्रदेश को, योनक (ग्रीक) धम्मरक्खित थेर अपरान्तक को, महाधम्मरक्खित थेर महाग्छ (महाराष्ट्र) को, महारक्खित थेर योनक (यवनक-ग्रीस) प्रदेश को, मज्झिम थेर हिमालय-प्रदेश को, सोणक और उत्तर सुवण्णभूमि (सुवर्णभूमि-पेगू -बरी) को, और महेन्द्र (महिन्द) तथा इत्थिय, उत्तिय, सम्बल और भद्दसाल भिक्षु लंका को भेजे गये। यह वर्णन महावंस के समान ही है । 'सद्धम्मसंगह' में कुल ८० अध्याय हैं। नवें अध्याय में अनेक ग्रन्थों और उनके रचयिताओं का वर्णन है। ‘सद्धम्मसंगह' धम्मकित्ति महासामी (धर्मकीर्ति महास्वामी) नामक भिक्ष की रचना है, जिनका काल चौदहवीं शताब्दी का उत्तर भाग है। बालावतारव्याकरण को गन्धवंस में वाचिस्सर की रचना बताया गया है, किन्तु एक अन्य परम्परा के अनुसार उसके भी रचयिता सद्धम्ममंगह के रचयिता धम्मकित्ति महामामी नामक स्थदिर ही है। महाबोधिवंस' 'महाबोधि वंस' या 'बोधिवंस' अनुराधपुर में आरोपित बोधिवृक्ष की कथा है। यह ग्रन्थ गद्य में है। लेखक ने बोधि-वृक्ष के इतिहास के रूप में बुद्ध-धर्म के १. रोमन लिपि में एस० ए० स्ट्राँग द्वारा सम्पादित, पालि टैक्स्ट सोसायटी द्वारा प्रकाशित,लन्दन १८९१; इस ग्रन्थ का सिंहली संस्करण, इसके लेखक के नाम के भिक्षु (उपतिस्स) द्वारा सम्पादित किया गया है किया गया है कोलम्बो १८९१। Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६९ ) प्रारंभिक इतिहास का वर्णन किया है, जो निदान-कथा, दीपवंस, महावंस आदि प्राचीन स्रोतों पर आधारित है। बुद्ध दीपंकर से प्रारम्भ कर, जैसा वंश-ग्रन्थकारों ने अक्सर किया है, तीन बौद्ध संगीतियों का विवरण महेन्द्र का लंकागमन, महाविहार, चेतियगिरि विहार आदि का प्रतिग्रहण, इन सब बातों का विवरण इस ग्रन्थ में भी किया गया है। ‘महाबोधि वंस' के रचयिता सिंहली भिक्षु उपतिस्स (उपतिष्य) थे, जिनका समय डा० गायगर के मतानुसार ग्यारहवीं शताब्दी का मध्य भाग है।' एम० ए० स्ट्राँग ने इनका समय बुद्धकोष के समकालिक माना है, जिसका प्रतिवाद डा० गायगर ने किया है। वर्णन-शैली को देखते हुए 'महाबोधिवंस' की समानता उत्तरकालीन वंश-ग्रन्थों से ही अधिक दिखाई पड़ती है, अतः गायगर के मत को ठीक मानना अधिक युक्ति-युक्त जान पड़ता है। थूपवंस' 'थूपवंस' सिंहली भिक्षु सारिपुत्त के शिष्य वाचिस्मर की रचना है। इन वाचिस्मर के विषय में हम आठवें अध्याय में काफी कह आये हैं। 'गन्धवंस' में इस ग्रन्थ का तो उल्लेख है५ किन्तु इसके लेखक का कोई नाम वहाँ नहीं दिया हुआ है। यह ग्रन्थ गद्य में है। निदान-कथा, समन्त पासादिका, महावंस तथा महावंस-टीका आदि से यहाँ सामग्री संकलित की गई है। 'थूपवंस' की रचना १. दीपवंस एंड महावंस, पृष्ठ ७९ (कुमारस्वामी का अंग्रेजी अनुवाद) ; देखिये __उनका पालि लिटरेचर एंड लेंग्वेज, पृष्ट ३७ २. देखिये उनके द्वारा सम्पादित 'महाबोधिवंस' को प्रस्तावना। ३. पालि लिटरेचर एंड लेंग्वेज पृष्ठ ३७, पद-संकेत १। ४. इस ग्रन्थ का सम्पादन डा० लाहा ने किया है जिसे पालि टैक्स्ट सोसायटी ने सन् १९३५ में प्रकाशित किया है । सिंहली लिपि में यह ग्रन्थ धम्मरतन द्वारा सम्पादित है, कोलम्बो १८९६ । डा० विमलाचरण लाहा ने इस ग्रन्थ का अंग्रेजी अनुवाद भी किया है जो बिबलियोथैका इंडिका सीरीज (१९४५) में प्रकाशित हुआ है। ५. पृष्ठ ७० Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५७० ) १३ वी गताब्दी के आदिम भाग में हुई थी। तेरहवीं शताब्दी में ही इम ग्रन्थ का निहली रूपान्तर भी किया गया था।' जैसा उसके नाम से स्पष्ट है, 'थूपवंस' (स्तूपवंश) भगवान् बुद्ध की धातुओं पर स्मारक रूप से निर्मित 'स्तूपों' का इतिहास है । 'महापरिनिब्वाण-मुत्त में ही हमने देखा है कि भगवान् बुद्ध के परिनिर्वाण के बाद उनके शरीर के अवगिप्ट चिन्हों पर आठ बड़े स्तूपों का निर्माण किया गया था। ‘महावंस' के विवरण में भी हम देख चुके हैं कि किस प्रकार लंका के गजा दुट्ठगामणि ने महा स्तूप' आदि कई विशाल स्तुपों का निर्माण किया था। बुद्ध-परिनिर्वाण-काल मे लेकर दृट्टगामणि के समय तक निर्मित स्तुपों का क्रमवद्ध इतिहास वर्णन करना ही इस ग्रन्थ का विषय है। बुद्ध-भक्ति से प्रेरित हो कर लंका के अनेक राजाओं ने विशाल विहारों और स्तूपों का निर्माण कराया था, अतः उसके इतिहास में उनका भी एक विशेष महत्त्व है, इसमें सन्देह नही। स्तुपों का वर्णन करना ही केवल एक मात्र विषय थूपवंस' का नही है। उसने इसे आधार मान कर वौद्ध धर्म के पूरे इतिहास का ही वर्णन दुट्ठगामणि के समय तक कर दिया है। इस ग्रन्थ के तीन मुख्य भाग है । पहले भाग में गौतम बुद्ध के पूर्ववर्ती २८ बुद्धों का वर्णन किया गया है। बोधिमत्वों की चर्या का यह वर्णन प्रसिद्ध दीपंकर बुद्ध के ममय मे प्रारम्भ किया गया है, जैसा कि प्रायः अन्य सब वंश-ग्रन्थों ने भी किया है। दूसरे भाग में भगवान् गौतम बुद्ध की जीवनी है । जन्म से लेकर महापरिनिर्वाण तक भगवान् बुद्ध की जीवनी यहाँ बड़ी प्रभावशाली शैली में वर्णित की गई है। तीसरे भाग में, जिमे ग्रन्थ के गीर्षक' को देखते हुए उसका प्रधान अंश ही कहा जा सकता है, भगवान बुद्ध की धातुओं पर निर्मित स्तूपों का और उनके उत्तरकालीन इतिहास का १. कहीं कहीं इस सिंहली रूपान्तर की, पालि 'थूपवंस' से अल्प विभिन्नता भी ह। उदाहरणतः सिंहली 'थूपवंस' में 'धम्मचक्क पवत्तन-सुत्त' के उपदेश का विवरण है जब कि पालि 'थूपवंस' में केवल 'धम्मवक्कपवत्त-सुत्तो' कह कर उसका निर्देश कर दिया गया है। मौलिक रूप से दोनों समान है। देखिये 'महाबोधि' मई-जून १९४६, पृष्ठ ५७-६० में डा० विमलाचरण लाहा का 'थूपवंस' शीर्षक लेख। Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५७१ ) वर्णन किया गया है । जैसा अभी कहा जा चुका है 'धूपवंस' में 'महावंस', 'समन्तयासादिका', 'निदान - कथा' आदि की अपेक्षा नवीन कुछ नहीं है ।' देवानं पिय तिस्स के काल से लेकर दुगामणि के काल तक का वर्णन तो प्रायः शब्दाः 'महावंस' पर ही आधारित है । लेखक ने (स्तुपों के चारों ओर ) व्यवस्थित कर उसे एक नया रूप अवश्य दे दिया है । उसकी विषय-वस्तु का कुछ संक्षिप्त विवरण यहाँ अपेक्षित होगा । ग्रन्थ के आरंभ में लेखक ने बताया है कि पूर्ववर्ती पालि वर्णनों को पूर्णता देने के लिए ही उसने इस ग्रन्थ की रचना की है। उसके बाद उसने बताया है कि चार प्रकार के व्यक्ति स्तूपार्ह है, यथा तथागत, प्रत्येक बुद्ध ( व्यक्तिगत रूप ने ज्ञानी, किन्तु लोकों के उपदेष्टा नहीं) तथागत के शिष्य, और राज- चत्रदर्नी । 'जिस चैत्य में इनमें से किसी के शरीर के अवशिष्ट चिन्ह रखे जायें वही 'स्तुप' ( थूप ) है | इसके बाद गौतम बुद्ध के पूर्ववर्ती वृद्धों का विस्तृत वर्णन है । उनके सम्बन्ध में जो स्तुप बनाये गये उनका भी वर्णन है । यह सब इतना पौराणिक है कि इसका वर्णन करना यहाँ अप्रासंगिक होगा । ग्रन्थ के दूसरे भाग से लेखक ने बुद्ध जीवनी का वर्णन किया है और तीसरे या अन्तिम भाग में उनके शरीर चिन्हों के ऊपर निर्मित स्तूपों का । भगवान् बुद्ध के महापरिनिर्वाण के बाद उनके शरीर का दाह संस्कार- जिस प्रकार किया गया उसका यहाँ बिलकुल उसी प्रकार वर्णन है जैसा महापरिनिव्वाण - सुत्त में । अतः उसकी यहाँ पुनरावृति करने की आवश्यकता नहीं । महापरिनिव्वाण सुन के मूल आधार पर ही यहाँ बताया गया है कि भगवान् की धातुओं को बाँटने के लिए कुशीनारा के मल्लो, मगध के अजातशत्रु, वैशाली के लिच्छवियों, कपिलवस्तु के शाक्यों, अल्लकप्प के बुलियों, रामगाम के कोलियों, वेळदीपक के एक ब्राह्मण और पावा के मल्लों आपस में झगड़ा होने ही वाला था कि द्रोण नामक ब्राह्मण के सामयिक शब्द (शास्ता शान्तिवादी थे, उनके धातुओं पर इस प्रकार का झगड़ा उचित नही) को मानकर उन्होंने उन्हें आठ भागों में विभक्त कर लिया, जिन पर आठ महागों का निर्माण राजगृह, वैशाली, कपिलवस्तु, अल्लकप्प, रामगाम, वेटदीप, पावा - और कुशीनारा, इन आठ स्थानों में किया गया । रामगान के स्तूप में निहित धातुएँ ही बाद में सिंहल ले जाई गई । इनका इतिहास इस प्रकार है । स्थविर Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५७२ ) महाकाश्यप के आदेश पर मगधराज अजातशत्रु ने वैशाली, कपिलवस्तु, अल्लक्रप्प, वेठदीप, पावा और कुशीनारा से बुद्ध की धातुओं को इकट्ठा करवाकर उन्हें राजगृह की धातुओं के साथ ही राजगृह के दक्षिण-पूर्वी भाग में एक महास्तूप में स्थापित किया। धर्मराज अशोक के समय में इन्हीं धातुओं के विभक्त अंशों पर ८४ हजार चैत्यों का निर्माण हआ। अशोक की राज्य-प्राप्ति, अभिषेक, धर्म-परिवर्तन आदि का भी उल्लेख यहाँ, महावंस' के वर्णन के अनुसार ही किया गया है। श्रामणर न्यग्रोध से उपदेश ग्रहण कर सम्राट अशोक ने ८४००० नगरों में ८४००० धर्म-स्कन्धों को स्मृति में ८४००० विहारों का निर्माण करवाया । राजगृह में अजातशत्रु द्वारा पूर्व स्थापित धातुओं के विभक्त अंशों पर ही इन ८४००० विहारों का निर्माण हुआ था, यह हम पहले कह ही चुके हैं । तृतीय बौद्ध संगीत के बाद स्थविर मोग्गलिपुत्त तिस्स द्वारा देश-विदेश में नाना धर्मोपदेशों का भिजवाना जना दिखाया गया है। भिक्षुओं के नामों की सूची तथा जिनजिन प्रदेशों में वे भेजे गये थे, 'महावंस' से किसी भी प्रकार भिन्न नहीं है। हम पहले देख ही चुके हैं कि 'सद्धम्मसंगह' और महाबोधिवंस' जैसे ग्रन्थों की भी यही स्थिति है। 'दीपवंस' महावंस' 'समन्त पासीदिका' ‘महावंस-टीका' आदि में कही हुई बातों को ही यहाँ बार वार दुहराया गया है। स्थविर मोग्गलिपुत्त तिस्स के आदेशानुसार थेर मज्झन्तिक काश्मीर और गान्धार को, थेर महादेव महिंसक मंडल को, थेर रक्खित बनवासी-प्रदेश को, थेर योनक (ग्रीक) धम्मरक्खित अपरान्तक को, महाधम्मरक्खित महाराष्ट्र को, थेर महारक्खित योनक लोक को, थेर मझिम हिमवन्त प्रदेश को, थेर सोण और उत्तर सुवर्णभूमि को और थेर महिन्द (महेन्द्र), इत्तिय, उत्तिय और भद्दसाल तम्बपण्णिदीप (लङ्काद्वीप) को भेजे गये । दीपवंस' और महावंस' के समान 'थूपवंस' मे में भी इस धर्म-प्रचार का श्रेय स्थविर मोग्गलिपुत्त तिस्स को ही दिया गया है और इस प्रसङ्ग में अशोक के नाम का उल्लेख नहीं किया गया है । इसके विपरीत अशोक ने अपने दूसरे और तेरहवें शिलालेखों में अपने द्वारा किये हुए धर्म-प्रचार-कार्य का उल्लेख किया है और वहाँ स्थविर मोगलिपुत्त तिस्स का कोई उल्लेख नहीं है । सम्भवतः भिक्षसंघ और धम्म-राजा दोनों की ओर मे ही स्वतन्त्र रूप से धर्म प्रचार का कार्य आरम्भ किया गया था। इस समस्या का विवेचन हम 'महावंस' का वर्णन करते समय कर Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५७३ ) चुके हैं। किस प्रकार 'दीपवंस' 'महावंस' आदि के धर्म प्रचार कार्य का विवरण, जिसके आधार पर ही इन उत्तरकालीन-वंश-ग्रन्थों ने अपने वर्णन ग्रथित किये हैं, साँची और भारत के स्तूपों से समर्थित प्राप्त करता है, यहभी हम वहाँ दिखा चुके हैं । अशोक और उसके समकालीन लङकाधिपति देवानं पियतिस्स के बीच पार-स्परिक भेंटोंके आदान-प्रदानका वर्णन करने के बाद 'धूपवंस' में महेन्द्रादि भिक्षुओं में धर्म-प्रचार कार्य का वर्णन किया गया है । देवानं पिय तिस्स के बौद्ध धर्म स्वीकार कर लेने के बाद उसकी भतीजी अनुलादेवी को प्रव्रज्या ग्रहण करने की इच्छा हुई । इस विधि को सम्पन्न कराने के लिये सम्राट् अशोक की प्रव्रजित पुत्री संघमित्रा भारत से बुलाई गई । वह वोधिवृक्ष की डाली लेकर वहाँ पहुँची है । अनुला देवी की प्रव्रज्या के बाद देवानं पिय तिस्स सम्पूर्ण लङ्का द्वीप (तम्ब - पण दीप) में एक एक योजन के फासले पर स्तूपों का ताँता फैला दिया । इन स्तूपों में रखने के लिए तथागत के शरीर में अवशिष्ट चिन्हों को उसने श्रामर सुमन को भेज कर अपने मित्र देव प्रिय राजा अशोक मे मँगाया जिसे उसने बुद्ध द्वारा प्रयुक्त भिक्षा पात्र में रखकर अपने कल्याणमित्र के पास आदर पूर्वक भेजा था । देवानं पिय तिस्स के बाद दमिलों द्वारा लङ्का के सताये जाने का वर्णन है । यह वर्णन 'महावंस' के समान ही है लङका के इतिहासों-ग्रन्थों में इसकी निरन्तर पुनरावृत्ति इसकी सत्यता की सूचक है । राजा दुट्ठगामणि इन दमिलों को परास्त कर लङ्का को एक अभिन्न राजनैतिक और सांस्कृतिक सूत्र में बाँध दिया है । 'लङक - दीपं एकछत्तमकासि | लङका द्वीप में उसने एक छत्र राज्य की स्थापना की । जिस प्रकार 'महावंस' के छुट्गामणि को एक राष्ट्रीय नेताके रूप में चित्रित किया - गया है, वही बात यहाँ भी पाई जाती है । दमिलों और उनके नेता एलार की दुट्ठ- गामणि के हाथ पराजय आदिके ऐतिहासिक वर्णनोंके लिए इस ग्रन्थ का 'महावंस' आदि की अपेक्षा भी अतिरिक्त महत्त्व है, इसमें सन्देह नहीं । राजा दुट्ठगामणि ने ९९ विहार बनवाये, जिनमें मरीचवट्टि, लोहाप्रासाद और महास्तूप बड़े निर्माण कार्य थे । किस प्रकार महास्तुप पर छत्र चढ़ने से पूर्व ही उसकी मृत्यु हो गई और अपने छोटे भाई को उसे पूरा करने का आदेश दे कर, भिक्षु संघ को विहार को समर्पित कर तथा रोग-शय्या पर पड़े हुए ही स्तूप की तीन बार प्रदक्षिणा Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५७४ ) कर , बुद्ध, धर्म और संघ की वन्दना करते हुए इस श्रद्धालु राजा ने तुषित-लोक में गमन किया,यह हम ‘महावंस' के वर्णन में देख चुके हैं। उसी के समान यह यहाँ वणित है । महास्तूप का निर्माण दुट्ठगामणि ने बड़े प्रयास और रुचि से करवाया था। उसके अन्दर भगवान बुद्ध के जीवन सम्बन्धी अनेक चित्र यथा धर्म-चक्रप्रवतन महापरिनिर्वाण-प्राप्ति आदि दिखाये गये थे। महास्तुप में रखने के लिये बुद्ध-शरीर के अवशिष्ट चिन्ह वही थे जिन्हें रामगाम के कोलियों ने अपने यहाँ स्थापित किया था और जो बाद में लङ्का में लाये गये थे। दुट्ठगामणि द्वाग निर्मित स्तूपों के वर्णन के साथ ही 'थूपवंस' का वर्णन समाप्त हो जाता है । ऊपर के विवरण से स्पष्ट है कि लङ्का के धार्मिक इतिहास में 'थूपवंस' का बड़ा महत्व है । आज खंडहरों के रूप में भग्न या आधुनिक शहरों के नीचे विलीन प्रभुत पुगतत्व-सम्बन्धी सामग्री का वह परिचय देता है। लङ्कः की बुद्धभक्ति का भी वह परिचायक है । भारत और ल ङ्का के मधुर, धर्म-निःथित सम्बन्धों की भी वह याद दिलाता है। दमिलों द्वारा लङ्का पर किये गये आक्रमणों की याद दिला कर वह इस परिच्छेद को कुछ दुःखानुविद्ध भी करता है, भारतीय संस्कृति के अ-गोपक तत्व की कटु व्याख्या भी करता है। फिर भी मनुष्यों के लोभ ने जिमे नष्ट किया,क्षत विक्षत किया,धम्म ने उसे पुनरुज्जीवित किया,यह आश्वासन भी हमें यहाँ मिलता है । लङ्का के राजा और उनकी जनता आध्यात्मिक प्रेरणा के लिये मदा भारत की ओर देखते रहे । अनुलादेवी की प्रत्रज्या के लिये संघमित्रा बुलाई गई । बोधि-वृक्ष की डाल रोपी गई । तब से दोनों देश एक हो गये। भारत के देश-काल का, उसके गांधार, काश्मीर और महिष-मंडल का, वनवासी, अपरान्तक, महाराष्ट्र और सुवर्ण भूमि का, उसके विदिशा,रामग्राम, पावा, राजगृह, वैशाली और कपिलवस्तु का, लङ्का के इस ग्रन्थ में निरन्तर स्मरण यही दिखाता है कि बुद्ध की स्मृति के साथ इस देश की स्मृति को भी लङ्कादासियों ने अपने इतिहास में कभी भूला नहीं है । अत्तनगलुविहार वंस 'अत्तनगल विहार वंस' का दूसरा नाम 'हत्यवनगल्लविहारवंस Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंहली संस्करण में वह इसी नाम से छपा है। तेरहवीं शताब्दी के मध्य भाग की यह गद्य-पद्य मिश्रित रचना है । इसमें ११ अध्याय है और इसकी सबसे बड़ी विशेषता इसकी सरल, स्वाभाविक वर्णन-शैली है। प्रथम आठ परिच्छेदों में लंकाधिपति सिरिसंबोधि (श्रीसंबोधि) का वर्णन है । अन्तिम तीन परिच्छेदों में उन अनेक विहारों के निर्माण का वर्णन है, जो उपर्युक्त राजा के अन्तिम निवासस्थान पर बनाये गये थे। 'अत्तनगल्ल' या 'अत्तनगलु' नामक स्थान पर निर्मित विहार इनमें अधिक प्रसिद्ध होने के कारण, इसी के आधार पर इस ग्रन्थ का नाम 'अत्तनगलुविहारवंस' पड़ा है । सिंहली भिक्षु अनोमदस्सी के अनुरोध पर, जिन्हें पराक्रमबाहु द्वितीय (१२२९-२२४६ ई०) ने, महावंस ८६-३७ के अनुसार, यह विहार समर्पित किया था, यह रचना लिखी गई थी। इसके लेखक के नाम आदि का कुछ पता नहीं चलता । दाठवंसर __'दाठावंस' की रचना तेरहवीं शताब्दी के आदि भाग में सिंहली भिक्ष सारिपुन के शिष्य महास्थविर धर्मकीर्ति (धम्मकित्ति महाथेर) ने की। यह भिक्षु संस्कृत, मागधी भाषा (पालि), तर्कशास्त्र, व्याकरण, काव्य औरआगम आदि में निष्णात थे। इनका छन्दों पर अगाध अधिकार था, यह 'दाठावंस' में प्रयुक्त नाना छन्दों से विदित होता है। 'दाठा-वंस' बुद्ध के दाँत-धातु की कथा है। इसका दूसरा नाम ‘दन्तधातुवंस' भी है । 'दाठावंस' की विषय-वस्तु बहुत कुछ ‘थूपवंस' के समान ही है। उसके समान यहाँ यद्यपि गौतम बुद्ध के १. गायगर : पालि लिटरेचर एंड लेंग्वेज, पष्ठ ४४ २. रोमन लिपि में डा० रायस डेविड्स द्वारा जर्नल ऑव पालि टैक्स्ट सोसायटी १८८४, में सम्पादित । देवनागरी लिपि में डा० विमलाचरण लाहा द्वारा सम्पादित एवं अंग्रेजी में अनुवादित, पंजाब संस्कृत सीरीज १९२५ । सिंहली लिपि में असमतिस्स द्वारा सम्पादित , केलनिय १८८३ । ३. देखिये जर्नल ऑव पालि टैक्स्ट सोसायटी, १८८६, पृष्ठ ६२ । Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५७६ ) पूर्ववर्ती बुद्धों का विस्तृत वर्णन नहीं किया गया है, किन्तु अन्य वर्णन प्रायः समान ही हैं । थूपवंस' में कथा का अन्त दुट्ठगामणि पर लाकर करदिया गया है जब कि 'दाठावंस' में वह लंकाधिपति कित्तिसिरि मेधवण्ण (कीर्ति श्री मेघवर्ण) तक चलती है। बुद्ध के दाँत के इतिहास के चारों ओर यहाँ बौद्ध धर्म के विकास के इतिहास का वर्णन किया गया है, जैसे “थूपवंस' में स्तूपों की कथा के चारों ओर । कलिंग के राजकुमार द्वारा लंका में युद्ध के दाँतों का लाया जाना और वहाँ कीर्ति श्री मेघवर्ण द्वारा उनका आदर-पूर्वक ग्रहण करना तथा अनुराधपुर में लंका के राजा, भिक्षु संघ और उपासक जनता के द्वारा उसकी पूजा किया जाना आदि तथ्यों का वर्णन इस ग्रन्थ की मुख्य विषय-वस्तु है । छकेसधातुवंस 'छकेसधातुवंस' १९ वीं शताब्दी की रचना है । यह किसी बरमी भिक्षु की रचना है, जिसके नाम का पता नहीं । इसमें भगवान बुद्ध के छ: केगों के ऊपर बनवाये हुए स्तूपों का वर्णन है। यह एक गद्य-पद्य मिश्रित रचना है और इसकी शैली सरल है । गन्वंस 'गन्धवंस' (ग्रन्थ-वंश) उन्नीसवीं शताब्दी में बरमा में लिखा गया। इतनी उत्तरकालीन रचना होते हुए भी इसी कोटि के अन्य वंश-ग्रन्थों के समान इसका अल्प महत्व नहीं है । पालि-साहित्य के इतिहास-लेखक के लिए तो यह एक बड़ा सहायक ग्रन्थ है । जैसा इसके नाम से विदित है, यह पालिअन्यों का इतिहास है। पालि ग्रन्थकारों और उनके ग्रन्थों का विवरण देना ही इसका मुख्य लक्ष्य है । पुस्तकों और उनके रचयिताओं की सूची, रचना-स्थान और रचना के उद्देश्य यहाँ दिये गये हैं । पहले त्रिपिटक का विश्लेपण दिया गया है । फिर ग्रन्थकारों को तीन श्रेणियों में १. जर्नल ऑव पालि टैक्स्ट सोसायटी १८८५ में मिनयेफ द्वारा सम्पादित । २. मिनयेफ द्वारा रोमन लिपि में जर्नल ऑव पालि टैक्स्ट सोसायटी, १८८६ में सम्पादित। Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५७७ ) विभक्त किया गया है जो कालानुक्रम-परक भी हैं, (१) पोराणाचरिय ( २ ) अट्ठकथाचरिय और (३) गन्धकाचरिय । पोराणाचरिय ( पुराणाचार्य ) धर्म संगीतिकार प्राचीन भिक्षु थे जिन्होंने बुद्ध वचनों का संगायन और संकलन किया । अट्ठकथाचरिय ( अर्थकथाचार्य) वे भिक्षु थे जिन्होंने अत्यंत प्राचीन काल में पालि त्रिपिटक पर अट्ठकथाएँ लिखीं । उसके बाद गन्धकारियों ( ग्रन्थकाचार्यों) का समय आता है जिनमें पहले कुरुन्दी और महापच्चरी आदि सिंहली अट्ठकथाओं के लेखक और बाद में बुद्धदत्त, बुद्धघोष, धम्मपाल आदि आते हैं । जिन ग्रन्थों के लेखकों का पता नहीं है, उनकी भी सूची 'गन्धवंस' कार ने दी है । लेखकों में कौन से भारत - वासी थे, या कौन से लंका-वासी थे, किसने रचना अपनी प्रेरणा से की, या किसने दूसरों के अनुरोध से की, इस प्रकार का भी विवरण देकर रचनाओं के रचना -स्थान और रचनोद्देश्य पर प्रकाश डाला गया है । ‘गन्धवंस' में निर्दिष्ट ग्रन्थकारों और उनके ग्रन्थों की सूची इस प्रकार है- रचित ग्रन्थ १. महाकच्चायन --- (१) कच्चायनगन्धो, (२) महानिरुत्तिगन्धो ( ३ ) चुल्लनिरुत्ति गन्धो ( ४ ) नेत्तिगन्धो, (५) पेटकोपदेसगन्धो, (६) वण्णनीतिगन्धो । ग्रन्थकार २. बुद्धघोस— ( बुद्धघोष ) ३. बुद्धदत्त - ४. आनन्द----- ५. धम्मपाल ----- ३७ (१) विसुद्धिमग्गो, (२) सुमंगलविलासिनी, (३) पपंच सूदनी ( ४ ) सारत्थपकासिनी (५) मनोरथपुरणी, (६) समंतपासादिका, (७) परमत्थकथा ( ८ ) कंखावितरणी (९) धम्मपदट्ठकथा (१०) जात - कत्थवण्णना, (११) सुद्दकपाठट्ठ कथा (१२) अपादानट्ठकथा । (१) विनियविनिच्छयो (२) उत्तरविनिच्छयो, (३) अभिधम्मावतारो (४) मधुरत्थविलासिनी । मूलटीकं ( १ ) नेत्तिपकरण (३) कथा ( २ ) इतिवृत्तक - अट्ठकथा उदानट्ठकथा (४) चरियापिटक - अट्ठकथा Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. महावजिरबुद्धि - ( महावज्र बुद्धि ) ७. विमलबुद्धि८. चुल्लवजिरो — ९. दीपंकरो -- १२. महानाम-१३ उपसेन— १०. चुल्लधम्मपालो— सच्चसंखेपं ११. कस्सपो १४. मोग्गल्लान -- १५. संघरक्खित - १६. वुत्तोदयकार— १७. धम्मसिरि— (धर्मश्री) १८. अनुरुद्ध - १९. अनुरुद्ध — ( ५७८ ) (५) थेरगाथा - अट्ठकथा, (६) विमानवत्थुस्स विमलविलासिनी नाम अट्ठकथा ( ७ ) पेतवत्थुस्स विमलविलासिनी नाम अट्ठकथा ( ८ ) परमत्थमंजूसा ( ९ ) दीघनिकायट्ठकथादीनं चतुन्नं अट्टकथानं लीनत्थपकासिनी नाम टीका (१०) जातक ट्ठकथाय लीनत्थपकासिनी नाम टीका, (११) परमत्थदीपनी (१२) लीनत्यवण्णना । विनय - गण्डि । २०. खेम— मुखमत्तदीपनी । अत्थव्याख्यानं । (१) रूपसिद्धिपकरणं (२) रूपसिद्धिटीकं (३) सम्मपञ्चसुत्तं (१) मोह विच्छेदनी (२) विमतिच्छेदनी, (३) बुद्धवंस, (४) अनागतवंस (१) सद्धम्मपकासिनी ( २ ) महावंस (३) चुल्लवंस सद्धम्मट्टिटीकं । मोग्गलान व्याकरणं । सुबोधलङ्कार (१) वृत्तोदय, ( २ ) संबंध - चिन्ता (३) नवटीकं । खुद्द - सिक्खं । खुद्द सिक्खं । ( १ ) पमरमत्थविनिच्छयं (३) अभिधम्मत्थसंग्रहप्पकरणं खेमं (२) नाम-रूप-परिच्छेदं Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५७९ ) २१. सारिपुत्त-- (१) सारत्थदीपनी (२) विनयसंगहपकरणं, (३) (३) सारत्थमंजूसं (४) पञ्चकं । २२. बुद्धनाग- विनयत्थमञ्जूसं । २३. नव मोग्गलान-- अभिधानप्पदीपिकं । २४. वाचिस्सरो-- (१) संबंन्धचिंताटीका (२) मोग्गल्लान व्याकरणस् टीका (३) नामरूपपरिच्छेदटीका (४) पदरूपविभावनं (५) खेमप्पकरणस्स टीका (६) मूलसिक्खाय टीका (७) वुत्तोदयविवरणं (८) सुमंगलपसादनी (९) बालावतार (१०) योगविनिच्छयो (११) (११) सीमालंकार (१२) रूपारूपविभाग (१२) पच्चयसंगहो । २५. सुमंगल-- (१) अभिधम्मत्थविकासनी (२) अभिधम्मत्थ विभावनी २६. धम्मकित्ति- दन्तधातुपकरणं । २७. मेधंकरो-- जिनचरितं । २८. सद्धम्मसिरि- सद्दत्थभेदचिन्ता। २९. देवो-- सुभणकूटवण्णना। ३०. चुल्ल बुद्धघोसो-- (१) जातत्तगीनिदानं (२) सोतत्तगीनिदानं । ३१. रट्ठपाल- मधुरसवाहिनी । ३२. अग्गवंस- सद्दनीतिपकरणं । ३३. विमलबुद्धि महाटीकं । ३४. उत्तम- (१) वालावतारटीकं (२) लिंगत्थविवरणटीकं) । ३५. क्यच्वामरओ- (१) सद्दबिन्दु (२) परमत्थबिन्दुपकरणं (राजा क्यच्वा-बरमी) ३६. सद्धम्मगुरु-- सद्दत्तिपकासनं । ३७. अग्गपंडित- लोकुप्पत्ति । ३८. सद्धम्मजोतिपाल- (१) सीमालंकारस्स टीका (२) मातिकत्थदीपनी (३) विनयसमुट्ठान दीपनी (४) गन्धसारो (५) Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५८० ) पट्ठानगणनानयो (६) संखेपवण्णना (७) सुत्त निद्दे सो (८) पातिमोक्खविसोधिनी । ३९. नव विमलबुद्धि-अभिधम्मपण्णरसट्ठानं । ४०. वेपुल्लबुद्धि (१) सद्दसारत्थ जालिनिया टीका (२) वुत्तोदयटीका, (३) परमत्थमंजूसा (४) दसगण्ढिवण्णना (५) मगधभूताविदग्गं, (६) विदधिमुखमंडनटीका ४१. अरियवंस-- (१) मणिसारमंजूसं, (२) मणिदीपं, (३) गण्ढाभरणं. (४) महानिस्सरं ' (५) जातक विसोधनं ४२. चीवरो- जंघदासस्स टीकं । ४३. नवमेधंकरो-- लोकदीपसारं । ४४. सारिपुत्तो- सद्दत्तिपकासनस्स टीकं । ४५. सद्धम्मगुरु- सद्धवृत्तिपकासनं ४६. धम्मसेनापति-- (१) कारिकं, (२) एतिमासमिदीपकं (३) मनोहरं : ४७. आणसागरो-- लिंगत्थविवरणपकासनं । (ज्ञानसागर) ४८. अभय- सद्दत्थभेदचित्ताय महाटीकं । ४९. गुणसागरो-- मुखमत्तसारं तट्टीकं । ५०. सुभूतचन्दन-- लिंगत्थविवरणपकरणं । ५१. उदुम्बरनामाचरियो--पेटकोपदेसस्स टीकं । ५२. उपतिस्साचरिय--अनागतवंसस्स अट्ठकथा । ५३. वुद्धप्पिय-- सारत्थसंगहनाम गन्धो । ५४. धम्मानन्दाचरिय-(१) कच्चायनसारो (२) कच्चायनभेदं (३) कच्चायनसारस्स टीका । ५५. गन्धाचरियो-- कुरुदिगन्ध । ५६. नागिताचरिय--सद्दसारत्थजालिनी । उपर्युक्त ग्रन्थकारों और उनके ग्रन्थों के अलावा नीचे लिखे ग्रन्थ भी निर्दिष्ट है, जिनके ग्रन्थकारों के नाम आदि के विषय में कुछ नहीं कहा गया । Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५८१ ) (१) महापच्चरियं (२) पुराणटीका (३) मूलसिक्खाटीका (४) लीनत्थपकासिनी (५) निसन्देहो (६) धम्मानुसारिणी (७) अय्यासन्दति (८) अय्यासन्दतिय टीका (९) सुमहावतारो (१०) लोकपत्तिपकरणं (११) तथागतुप्पत्तिप्पकरणं (१२) नलातधातुवण्णना (१३) सीहलवत्थु (१४) धम्मदीपको (१५) पटिपत्ति संगहो (१६) विसुद्धिमग्गगन्धि (१७) अभिधम्मगन्धि (१८) नेत्तिपकरणगन्धि (१९) विसुद्धिमग्गचुल्लनवटीका (२०) सोतप्पमालिनी (२१) पसाद जननी (२२) सुबोधालंकारस्स नवटीका (२३) गूळत्थटीक (२४) बालप्पबोधनं (२५) सद्दत्थभेदचिन्ताय मज्झिमटीक (२६) कारिकाय टीकं (२७) एतिमासमिदीपिकाय टीकं (२८) दीपवंस (२९) थूपवंस तथा (३०) बोधिवंस । उपर्युक्त ग्रन्थों और ग्रन्थकारों में से अधिकांश का विवेचन पिछले पृष्ठ में किया जा चुका है और कुछ का आगे किया जायगा। निश्चय ही 'गन्धवंस' की सूचीबद्ध सामग्री पालि-साहित्य के इतिहासकार के लिए बड़ी सहायक है । सासनवंस' ‘सासनवंस' (शासन-वंश) भी 'गन्धवंस' के समान महत्वपूर्ण रचना है । उसका प्रणयन उन्नीसवीं शताब्दी में बरमा में हुआ । यह बरमी भिक्षु पञसामी (प्रज्ञास्वामी) की रचना है । प्राचीन पालि साहित्य पर आधारित होने के कारण इसका बड़ा महत्व है । 'सासनवंस', जैसा उसके शीर्षक से स्पष्ट है, बुद्ध-शासन का इतिहास है। बुद्ध-काल से लेकर उन्नीसवीं शताब्दी तक स्थविरवाद बौद्ध धर्म के विकास का इस ग्रन्थ में वर्णन है। 'सासनवंस' में दस अध्याय हैं। विशेषतः छठा अध्याय अधिक महत्वपूर्ण है। इस अध्याय में बरमा में बौद्ध धर्म के विकास का वर्णन किया गया है । 'सासन वंस' का सबसे अधिक महत्वपूर्ण भाग यही है। वैसे इस ग्रन्थ में बुद्ध की जीवनी तथा अजातशत्रु, कालाशोक और धर्माशोक के समय में हुई तीन बौद्ध संगीतियों आदि का भी वर्णन है । तृतीय बौद्ध संगीति के बाद मोग्गलिपुत्त तिस्स द्वारा १. मेबिल बोड द्वारा सम्पादित, पालि टेक्सट सोसायटी, लन्दन १८९७ । Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५८२ ) धर्मोपदेशकों को देश-विदेश में भेजने का भी विवरण यहाँ किया गया है । 'मासनवंस' के वर्णनानुसार तृतीय संगीति के बाद सुवर्णभूमि (बरमा) में धर्मोपदेशकों के जाने से पहले भी स्वयं मोग्गलिपुत्त तिस्स वहाँ धर्मोपदेश करने गये थे, जो उतना पूर्व परम्परा पर आधारित नहीं है । इसी प्रकार कुछ अन्य भी बातें उन्होंने बरमी बौद्ध संघ के गौरव को बढ़ाने वाली कहीं हैं, जो उतनी इतिहास पर आधारित नहीं हैं । बरमी राजा सिरिमहासीह सूरसुधम्मराजा (श्री महासिंह शूर सुधर्मराज) के समय में भिक्षु-संघ में हुए पारुपन (चीवर को दोनों कन्धों को ढंककर ओढ़ना) और एकंसिक (एक कन्धे को खोलकर रखते हुए चीवर को ओढ़ना) संबंधी विवाद हुआ जिसका निर्देश इस ग्रन्थ में किया गया है । इसी प्रकार विहार-सीमा संबंधी विवाद का उल्लेख किया गया है। संक्षेप में, बरमी बौद्ध धर्म के विकास एवं बरमी राजाओं और भिक्षु-संघ के पारस्परिक संबंध आदि को जानने के लिए 'सासन-वंस' का आज के विद्यार्थी के लिए भी प्रभूत महत्व हैं। बुद्ध-जीवनी और संगीतियों तथा अशोक के काल में मोगालिपुत्त तिस्स के द्वारा किये गये धर्म-प्रचार आदि के विवरण के लिए वह दीपवंस, महावंस तथा समन्तपासादिका आदि पर आधारित है, इसमें संदेह नहीं। तृतीय संगीति के बाद जिन जिन देशों में भारतीय बौद्ध भिक्षु उपदेश करने के लिए भेजे गये, उनके विवरणों में 'दीपवंस' और 'महावंस' की अपेक्षा यहाँ कुछ विभिन्नता भी है । उदाहरणतः अपरान्त राष्ट्र (अपरान्त-रट्ठ) को यहां इरावदी नदी का पच्छिमी भाग बतलाया गया है । उसी प्रकार महारट्ठ (महाराष्ट्र) को अहाँ स्थविर महाधर्मरक्षित उपदेशार्थ गये थे 'महानगर-राष्ट्र' (महानगर-रट्ठ) या स्याम वतलाया गया है। इसी प्रकार मज्झिम स्थविर को चीन-राष्ट्र में धर्म-प्रचार करते बतलाया गया है, जबकि 'दीप-वंस' और 'महावंस' के वर्णनानुसार वे 'हिमवन्त' प्रदेश के धम प्रचारक थे । इसी प्रकार कुछ अन्य भी विभिन्न वर्णन हैं, जो उतने प्रामाणिक नहीं माने जा सकते । बरमी भिक्षु-संघ के इतिहास की दृष्टि से इस ग्रन्थ का बड़ा महत्व है, इसमें सन्देह नहीं । १. देखिये विमलाचरण लाहा : हिस्ट्री ऑव पालि लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ ५९२-५९३ Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवाँ अध्याय काव्य, व्याकरण, कोश, छन्दःशास्त्र, अभिलेख आदि पालि काव्य पालि का काव्य-साहित्य उतना विस्तृत, प्रौढ़ और समृद्ध नहीं है, जितना संस्कृत का या बौद्ध संस्कृत साहित्य का भी । कालिदास या अश्वघोष की सी काव्य-परम्परा यहाँ नहीं मिलती। निश्चय ही यदि काव्य का अर्थ मानव-जीवन के व्यापक, गहन और मार्मिक अनुभवों की, शब्द और अर्थ की निर्व्याज सुन्दरता के साथ (सात्थं सव्यञ्जनं) 'बहुजन हिताय' अभिव्यक्ति ही है, तब तो सम्पूर्ण 'तेपटिक बुद्ध-वचन' ही सर्वोत्तम काव्य हैं । यह भगवान् बुद्धदेव का वह शाश्वत और अनन्त सौन्दर्यमय काव्य है, जिसका जीवन में साक्षात्कार कर लेने पर मनुष्य के लिये जरा और मरण ही नहीं रह जाते । 'देवस्य काव्यं पश्यन् न जजार न मीयते ।' जो पवित्र सौन्दर्य हिमगिरि में नहीं है, जो निष्पापता उषा में नहीं है, जो गहनता महासमुद्र में नहीं है, संक्षेप में जो काव्यत्व विश्व में अन्यत्र कहीं नहीं है, वह ज्ञानी (बुद्ध) के एक स्मित में है, तथागत के एक ईर्यापथ में है, सम्यक सम्बुद्ध के एक शब्द में है। पालि ने इस सब को ही तो प्रस्फुटित किया है । अतः वह काव्यत्व में हीन है, ऐसा कौन कहेगा ? जब हम पालि के काव्यसाहित्य का विवेचन करते हैं और उसे संस्कृत की अपेक्षा कम उन्न कहते हैं, तो हमारा तात्पर्य त्रिपिटक-गत काव्य या काव्यत्व से नहीं होता, बल्कि काव्यशिल्पियों की उन रचनाओं से होता है जो उन्होंने बौद्ध विषयों को आधार मान कर पालि भाषा में की हैं। इस प्रकार की रचनाएँ प्रधानतः लङ्का और अंशतः बरमा में दसवीं शताब्दी से लेकर पन्द्रहवीं शताब्दी तक और उसके बाद तक भी होती रहीं । इन रचनाओं की विषय-वस्तु त्रिपिटक से ही ली गई है। त्रिपिटक में प्राप्त नमूनों का ही कुछ संशोधन और परिवर्द्धन के साथ छन्दोबद्ध संस्करण Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५८४ ) कर देना यहाँ कवियों का प्रधान व्यवसाय रहा है । वैसे तो पालि काव्य-ग्रन्थ है हो अल्प और जो हैं भी उनमें भी किसी महनीय काव्य-परम्परा का प्रवर्तन नही मिलता । सब से बढ़कर तो कला के उस सृजनात्मक सौन्दर्य एवं कल्पना के दर्शन यहाँ नहीं होते जो किसी साहित्य को विशेषता प्रदान किया करता है । सम्भवतः यह इस कारण भी हो कि कल्पनात्मक मनोरागों के प्रदर्शन को स्थविरवादी वौद्ध परम्परा ने आरम्भ से ही अपनी साधना का अंग नहीं बनाया है। इतना ही नहीं, उसने इसे हेयता की दृष्टि से भी देखा है। इसलिये काव्य-प्रतिभा को वहाँ इतना प्रोत्साहन नहीं मिल सका है। भाषा की दृष्टि से भी पालि के इस काव्य-साहित्य का अधिक महत्त्व नहीं है । पालि साहित्य की प्राचीन मौलिकता के स्थान पर वह साहित्य संस्कृतापेक्षी अधिक हो गया है। अतः पालि साहित्य के इतिहास में उसके काव्य-साहित्य का विवेचन एक गौण स्थान का ही अधिकारी हो सकता है। काव्य-ग्रन्थ विषय की दृष्टि से पालि काव्य-ग्रन्थ दो भागों में विभक्त किये जा सकते है, (१) वर्णनात्मक काव्य-ग्रन्थ, (२) काव्य-आख्यान । यह भेद सिर्फ विषय के वाह्य स्वरूप का है । मुख्य प्रवृत्ति और शैली तो सब जगह एक सी ही है-- नैतिक आदर्शवाद और नीरस इतिवृत्तात्मक शैली। हाँ, कहीं कहीं रसात्मकता के भी पर्याप्त दर्शन होते हैं । मुख्य वर्णनात्मक काव्य-ग्रन्थ ये हैं (१) अनागतवंस (२) तेलकटाहगाथा (३) जिनालङ्कार (४) जिनचरित (५) पज्जमधु (६) सद्धम्मोपायन (७) पञ्चगतिदीपन और (८) लोकप्पदीपसार या लोकदीपसार । प्रधान काव्य आख्यान, जिनमें कुछ गद्य में भी हैं, ये हैं (१) रसवाहिनी (२) बुद्धालङ्कार (३) सहस्सवत्थुप्पकरण, और (४) राजाधिराजविलासिनी । इनका कुछ संक्षिप्त परिचयात्मक विवरण देना यहां आवश्यक हो गया। अनागतवंस' जैसा उसके नाम से स्पष्ट है, 'अनागत वंस' भविष्य (अनागत) में उत्पन्न १. मिनयेफ द्वारा जर्नल ऑव पालि टैक्स्ट सोसायटी, १८८६, में रोमन अक्षरों ___ में सम्पादित। Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५८५ ) होने वाले भगवान् बुद्ध मैत्रेय के जीवन-इतिहास (वंस) के रूप में लिखा गया है । 'अनागत वंस' का वास्तविक स्वरूप अभी बहुत कुछ अनिश्चित है । बरमी हस्तलिखित प्रतियों में उसके तीन रूप मिलते है, (१) गद्य-पद्य-मिश्रित रूप जो सुत्तों की शैली में लिखा गया है। इसका विषय बुद्ध मैत्रेय की जीवन-गाथा का वर्णन करना नहीं है । बल्कि यह भविष्य में संघ पर आने वाले भयों का वर्णन करता है । बुद्ध और सारिपुत्र के संवाद के रूप में यह ग्रन्थ लिखा गया है। साथ ही इसके अन्त में उन दस भावी बुद्धों के नाम भी दिये हुए हैं, जो भविष्य में क्रमशः बोधि प्राप्त करेंगे।' डा. विमलाचरण लाहा का यह कहना कि 'अनागतवंस' का यह संस्करण पालि-त्रिपिटक के अनागत-भय सूत्रों और उन सूत्रों, जिनमें दस भावी बुद्धों का निर्देश हुआ है, के पूरक रूप में लिखा गया है,२ ठीक मालूम पड़ता है। (२) गद्य-मय रूप, जिसमें दस अध्याय हैं और जिसका विषय दस भावी वुद्धों की जीवनी का वर्णन करना है। (३) पद्य-मय रूप, जो १४२ गाथाओं में केवल बुद्ध मैत्रेय की जीवन-गाथा का वर्णन करता है । यह संस्करण भी भगवान् बुद्ध और उनके शिष्य धर्मसेनापति सारिपुत्र के संवाद के रूप में लिखा गया है । भगवान् बुद्ध भावी बुद्ध मैत्रेय के विषय में भविष्यवाणी करते दिखाये गये हैं। 'अनागतवंस' का यह संस्करण ही उसका प्रामाणिक और वास्तविक रूप माना जाता है । अपने इस रूप में 'अनागत वंस' 'बुद्धवंस' का परिवर्तित और पूरक रूप माना जा सकता है। 'बुद्धवंस' पूर्व के चौवीस बुद्धों का वर्णन करता है । पच्चीसवें बुद्ध अर्थात् गोतम बुद्ध की जीवन-गाथा के साथ ही वहाँ वर्णन समाप्त कर दिया गया है। अतः स्वाभाविक रूप से 'अनागतवंस' जो छब्बीसवें बुद्ध, युद्ध मैत्रेय, की जीवन-गाथा को अपना विषय बनाता है, 'बुद्धवंस' की कथावस्तु १. मेत्तेय्यो उत्तमो रामो पसेनदि कोसलोभिभू। दोघसोणि च संकच्चो सुभो तोदेय्य ब्राह्मणो॥ नालागिरिपललेग्यो बोधिसत्ता इमे दस । अनुक्कमेण सम्बोधि पापुणिस्सन्तिनागतेति ॥ जर्नल ऑव पालि टैक्स्ट सोसायटी , १८८६, पृष्ठ ३७ २. हिस्ट्री ऑव पालि लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ ६१२ Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५८६ ) को पूर्णता देने की दृष्टि से ही लिखा गया जान पड़ता है । दोनों की शैली में भी पर्याप्त समानता है । दीघ - निकाय के चक्कवत्ति सीहनाद- सुत्त ( ३३ ) में भी बुद्ध मैत्रेय के भावी आविर्भाव के विषयमें उल्लेख किया गया है । वहाँ कहा गया है कि जब भगवान् बुद्ध मैत्रेय उत्पन्न होंगे तो मनुष्य ८०,००० वर्ष की आयु में तरुण हुआ करेंगे और कुमारियाँ ५०० वर्ष की आयु में विवाह-योग्य हुआ करेंगी । 'अनागतवंस' के भी वर्णनों की यही बानगी समझी जा सकती है । वुद्ध मैत्रेय जम्बुद्वीप ( भारतवर्ष ) में केतुमती नामक नगरी में ब्राह्मण-वंश में उत्पन्न होंगे । उनकी माता का नाम ब्रह्मवती और पिता का नाम सुब्रह्मा होगा । उनका आरम्भ का नाम अजित होगा । वे बड़े समृद्धशाली होंगे । ८००० वर्ष तक गृहस्थ-सुख का उपभोग करेंगे। उसके बाद प्रव्रज्या लेंगे । बुद्ध के ऐतिहासिक जीवन-वृत्त के आधार पर ही ये अतिशयोक्तिमय वर्णन गढ़ लिये गये हैं, जिनमें काव्यत्व या विचार की अपेक्षा हम बौद्ध पौराणिकवाद के ही अधिक दर्शन करते हैं । 'अनागतवंस' की रचना कब और किसके द्वारा हुई, इसके विषय में निश्चित नहीं है । रायसविड्स ने इस ग्रन्थ को बहुत प्राचीन माना है - यहाँ तक कि बुद्धघोष से भी प्राचीन । इसका कारण उन्होंने यह दिया है कि 'विसुद्धिमग्ग' में बुद्धघोष ने बुद्ध मैत्रेय का वर्णन करते हुए उनके माता-पिता के विषय में कहा है "सुब्रह्मा नामस्स ब्राह्मणो पिता भविस्सति, ब्रह्मवती नाम ब्राह्मणी माताति" । २ 'अनागतवंस' में भी बिलकुल इन्हीं शब्दों में बुद्ध मैत्रेय के माता-पिता का वर्णन मिलता है | अतः रायस डेविड्स ने बुद्धघोष के शब्दों को 'अनागतवंस' से उद्धरण मानकर 'अनागतवंस' को प्राक् - बुद्धघोषकालीन ठहराया है । विन्टर १. कुछ उद्धरणों के लिए देखिये लाहा हिस्ट्री ऑव पालि लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ ६१३ २. विसुद्धिमग्ग १३।१२७ ( धर्मानन्द कोसम्बी का संस्करण), देखिये अट्ठसालिनी पृष्ठ ४१५ ( पालि टैक्स्ट सोसायटी का संस्करण । ३. पृष्ठ ९६ ( जर्नल ऑव पालि टैक्स्ट सोसायटी, १८८६, में प्रकाशित संस्करण) ४. विसुद्धिमग्ग, पृष्ठ ७६१, ७६४ ( रायस डेविड्स का संस्करण ) Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५८७ ) नित्ज़ ने यह स्वीकार नहीं किया कि बुद्धघोष के उपर्युक्त शब्द 'अनागतवंस' मे ही उद्धृत किये गये हैं । ' अतः उनको 'अनागतवंस' की इतनी प्राचीनता मान्य नहीं है । चूंकि बुद्धघोष ने अपने उपर्युक्त शब्दों में केवल बुद्ध मैत्रेय के माता-पिता के नाम का ही उल्लेख किया है, अतः यह कोई इतना विशेषतापूर्ण सैद्धान्तिक या अन्य दृष्टि से महत्वपूर्ण तथ्य नहीं है कि बुद्धघोष जैसे आचार्य को 'अनागतवंस' से इसका उद्धरण देने की आवश्यकता पड़ती। यह तो बौद्ध परम्परा की एक अति सामान्य मान्यता थी जो 'अनागतवंस' के रचयिता के समान बुद्धघोष को भी मालम हो सकती थी, फिर कालानुक्रम से कोई किसी का पूर्ववर्ती क्यों न रहा हो, शब्द-साम्य इस सम्बन्ध में अधिक महत्वपूर्ण नहीं माना जा सकता। अतः हम बुद्धघोष के उपर्युक्त शब्दों को 'अनागतवंस' से उद्धरण मानने को बाध्य नहीं । 'गन्धवंस' में 'अनागतवंस' के रचयिता का नाम कस्सप (काश्यप) कहा गया है । २ 'गन्धवंस' के वर्णन के अनुसार 'अनागतवंस' पर एक अट्ठकथा भी लिखी गई, जिसके लेखक उपतिस्स (उपतिष्य) नामक भिक्षु थे। चूंकि कस्सप और उपतिस्स नाम के अनेक भिक्षु अनेक समयों में लंका और बरमा में हो गये हैं, अतः निश्चित रूप से यह कह सकना कठिन है कि कौन से कस्सप और उपतिस्स क्रमशः 'अनागतवंस' के रचयिता और अट्ठकथाकार हैं। ज्ञान की वर्तमान अवस्था में यही जानना पर्याप्त है कि डा० गायगर ने 'अनागतवंस' के रचयिता कस्सप और 'मोहविच्छेदनी' और 'विमतिच्छेदनी' नामक ग्रन्थों के रचयिता कस्सप को एक ही व्यक्ति माना है । तेलकटाहगाथा ___९८ गाथाओं में लिखी हुई एक परिष्कृत, प्रौढ़ और रमणीय काव्य-रचना है। तेलकटाहगाथा' का अर्थ है (खौलते हुए) तेल की कढ़ाई में लिखी हुई गाथाएँ १. हिस्ट्री ऑव इंडियन लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ २२१, पद-संकेत १ । २. पृष्ठ ६१, ७२ (जर्नल ऑव पालि टैक्स्ट सोसायटी १८८६ में प्रकाशित संस्करण) ३. पालि लिटरेचर एंड लेंग्वेज, पृष्ठ ३६ ४, ई० आर० गुणरत्न द्वारा जर्नल ऑव पालि टेक्स्ट सोसायटी १८८४ में रोमन Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५८८ ) (पालि श्लोक) । ये गाथाएँ बौद्ध अनुश्रुति के अनुसार कल्याणिय नामक भिक्षु के द्वारा लिखी गई थीं। अनुश्रुति है कि कल्याणी (पेगू-बरमा) के राजा तिष्य (ई० पू० ३०६--ई० पू० २०७) ने उपर्युक्त भिक्षु को अपनी रानी के साथ किसी षड्यन्त्र में सम्मिलित होने के सन्देह में बन्दी बना लिया था और खौलते हुए तेल को कढ़ाई में डाल देने की आज्ञा दी थी। भिक्षु निरपराध थे, किन्तु यह असह्य दुःख उन्हें सहना हो पड़ा। खौलते हुए तेल की कढ़ाई में ही उनकी मृत्यु हो गई । किन्तु मृत्यु से पूर्व उन्होंने बुद्ध-शासन का चिन्तन किया और ९८ गाथाओं को गाया। ये गाथाएँ क्या हैं, संसार की अनित्यता, जीवन की असारता और वैराग्य को महत्ता पर गम्भीर प्रवचन हैं। उपर्युक्त अनुश्रुति में सत्यांश कितना है, यह कह सकना कठिन है। हाँ, स्वयं 'तेलकटाहगाथा' में इसका कोई उल्लेख नहीं है। किन्तु ‘महावंस' में इस कथा का निर्देश मिलता है। बाद में 'रसवाहिनी' में भी इस कथा का सविस्तर वर्णन किया गया है। सिंहली ग्रन्थ 'सद्धम्मालंकार' में भी इस कथा का वर्णन मिलता है। सिंहली साहित्य में यह कथा इतनी प्रसिद्ध है कि इसकी सत्यता पर सन्देह करना कठिन हो जाता है । फिर भी 'तेलकटाहगाथा' की मार्मिक गाथाओं को पढ़ जाने के बाद और कहीं भी उनमें उपर्युक्त घटना का निर्देश न पाने पर यही लगने लगता है कि यहाँ भिक्षुकल्याणिय ने खौलते हुए तेल वाली किसी विशेष कढ़ाई से उत्तप्त होकर ही नहीं बल्कि इस ‘महामोहमय' संसार रूपी उस खौलती हुई कढ़ाई से व्यथित होकर ही अपने अक्षरों में सम्पादित। इस ग्रन्थ का मूल पालि-सहित हिन्दी-अनुवाद त्रिपिटकाचार्य भिक्षु धर्मरक्षित ने किया है, जो सन् १९४८ में पुस्तकाकार रूप में महाबोधि सभा, सारनाथ से प्रकाशित हो चुका है। १. मललसेकर : दि पालि लिटरेचर ऑव सिलोन, पृष्ठ १६२ । २. २२।१२-१३ (गायगर का संस्करण) ३. २१५७ (सिंहली संस्करण) ४. देखिये जर्नल ऑव पालि टैक्स्ट सोसायटी, १८८४, पृष्ठ ४९, देखिये गायगर : पालि लिटरेचर एंड लेंग्वेज,पृष्ठ ४६, पद-संकेत ४ भी। Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५८९ ) . अन्तर्मन को इन गाथाओं में प्रवाहित किया है, जिसके विषय में महाभारतकार ने कहा है अस्मिन् महामोहमये कटाहे सूर्याग्निना रात्रिदिवेन्धनेन, मासर्तुदर्वीपरिघट्टनेन भूतानि काल: पचतीति वार्ता । 'तेलकटाहगाथा' शतक-काव्य की शैली पर लिखी गई रचना है । अतः उसमें नैतिक ध्वनि प्रधान है। फिर भी काव्यमयता का उसमें अभाव नही है। वह एक सुन्दर रचना है जो बुद्ध-धर्म के मूल सिद्धान्तों को एक भावनामय भिक्षु की पूरी तन्मयता और मार्मिकता के साथ उपस्थित करती है । ९८ गाथाएँ ९ वर्गो या भागों में विभक्त हैं, जिनके नाम हैं, (१) रतनत्तय (तीन रत्न-बुद्ध, धर्म, संघ) (२) मरणानुस्सति (मरण की अनुस्मृति) (३) अनित्यलक्खण (अनित्यता का लक्षण) (४) दुक्खलक्खण (५) अनत्त लक्खण (अनात्म का लक्षण (६) असुभ लक्खण (७) दुच्चरित-आदीनवा (दुराचार के दुष्परिणाम (८) चतुरारक्षा (चार आरक्षाएँ) (९) पटिच्च समुप्पाद (प्रतीत्य समुत्पाद) इस विषय-सूची से यह देखा जा सकता है कि बुद्ध-धर्म के सभी महत्वपूर्ण विषय इन गाथाओं में आ गये हैं। किन्तु सब से बड़ी बात तो ग्रन्थकार की अपने विषय के साथ तल्लीनता है, जिसके दर्शन प्रत्येक गाथा में होते है । अनात्म-संज्ञा पर यह उक्ति देखिये पोसो यथा हि कदलीसु विनिब्मजन्तो, सारं तदप्पमपि नोपलभेय्य काम । खन्धेस पञ्चसु छळायतनेसु तेसु, सुजस किञ्चिदपि नोपलभेय्य सारं ॥ गाथा ६० (जिस प्रकार केले के तने को उधेड़ते हुए मनुष्य उसमें कुछ भी सार न पाये, उसी प्रकार इन शून्य पंचस्कन्धों और छ: आयतनों में भी कुछ सार नहीं है) प्रतिकूल-मनसिकार (गीता के शब्दों में 'दुःखदोषानुदर्शनं') पर, गंडूपमे विविधरोगनिवासभूते, काये सदा रुधिरमुत्तकरीसपुण्णे । Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' ( ५९० ) यो एत्थ नन्दति नरो ससिगालभक्खे , कामं हि सोचति परत्थ स बालवुद्धि ॥गाथा ६९ (जो मूर्ख आदमी फोड़े के समान, विविध बीमारियों के घर, खून, पेशाब और पाखाना से भरे हुए, गीदड़ों के भक्ष्य, इस शरीर को देखकर आनन्दित होता है, वह अवश्य ही यहाँ से जाकर परलोक में दुःख पाता है)। उपर्युक्त गाथाएँ 'तेलकटाहगाथा' की काव्य-गत सुन्दरता का परिचय देने में अलं है । प्रथम बार पढ़ने पर ही उनमें भतृहरि के वैराग्य-सम्बन्धी पदों का सा निर्वेद प्रकाशित होने लगता है । भाषा और शैली की दृष्टि से इस तीसरी गाथा को देखिये सोपानमालं अमलं तिदसालयस्स संसारसागरसमुत्तरणाय सेतुं । सब्बागतीभय विवज्जितखेममग्गं, धम्म नमस्सथ सदा मुनिना पणीतं ।। मुनि (बुद्ध) द्वारा प्रणीत उस धर्म की वन्दना करो, जो स्वर्ग की विमल मोढ़ी के समान है, जो संसाररूपी सागर को तरने के लिये पुल के समान है और जो सम्पूर्ण आपत्तियों और भयों से रहित एवं कल्याण का मार्ग है । 'मोपानमालं अमलं' एवं 'संसारसागरसमुत्तरणाय' जैसे पदों में अनुप्रास की छटा तो देखने हो योग्य है, 'सब्बागतीभयविवज्जितखेममग्गं धम्म नमस्सथ मदा मुनिना पणीतं' तो बिलकुल संस्कृत श्लोक का अंश सा ही जान पड़ता है । संस्कृत का यह बढ़ता हुआ प्रभाव ‘तेलकटाहगाथा' की आपेक्षिक अर्वाचीनता का सूचक है। विटरनित्ज़ ने कहा है कि यह ग्रन्थ बारहवीं शताब्दी ईसवी से पूर्व की रचना नहीं हो सकता।' कम से कम ई० पू० तीसरी शताब्दी की रचना तो 'तेल कटाहगाथा' मानी ही नहीं जा सकती। फिर भी भाषा और शैली का साक्ष्य १. हिस्ट्री ऑव इंडियन लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ २२३; गायगर ने इस ग्रंथ का वास्तविक रचना-काल अज्ञात मानते हुए तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी की रचनाओं में इसका उल्लेख किया है। देखिये उनका पालि लिटरेचर एंड लेंग्वेज, पृष्ठ ४६ Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५९१ ) किसी भी अवस्था में इतना दृढ़ और अन्तिम नहीं हुआ करता कि उसके आधार पर हम किसी ग्रन्थ की तिथि असंदिग्ध रूप से निश्चित कर सकें । अतः विंटरनित्ज़ द्वारा निश्चित बारहवीं शताब्दी ईसवी भी 'तेलकटाहगाथा' की प्रामाणिक रचना-तिथि नहीं मानी जा सकती। विंटरनित्ज़ की स्थापना केवल अनुमान पर आश्रित है । जब तक कोई और महत्वपूर्ण वाह्य साक्ष्य न मिले, 'तेलकटाहगाथा' के रचयिता और रचना-काल का सुनिश्चित ज्ञान हमारे लिये अज्ञात ही रहेगा। जिनालङ्कार' पालि काव्य-साहित्य की उसी कोटि की रचना है जिस कोटि के संस्कृत मे किरातार्जुनीय और शिशुपाल-वध जैसे महाकाव्य हैं । काव्य-चमत्कार की प्रवृत्ति यहाँ बहुत अधिक उपलक्षित होती है और शैली में भी पर्याप्त कृत्रिमता है । 'जिनालंकार' की रचना बारहवीं शताब्दी में बुद्धरक्षित (बुद्धरक्खित) नामक भिक्षु के द्वारा हुई । ग्रन्थ का विषय ज्ञान-प्राप्ति तक बुद्ध-जीवनी का वर्णन करना है। ग्रन्थ के अन्त में लेखक ने उसका रचना-काल बुद्ध-परिनिर्वाण से १७०० वर्ष बाद दिया है। इसका अर्थ यह है कि इसकी रचना ११५६ ई० में हुई। यह तिथि विद्वानों को मान्य है । उत्तरकालीन संस्कृत काव्यों की शैली का इस ग्रन्थ पर पर्याप्त प्रभाव पड़ा है। एक पद्य में सिर्फ 'न्' व्यंजन का ही प्रयोग किया गया है। यह प्रवृत्ति किरातार्जुनीय जैसे संस्कृत-काव्यों में भी दृष्टिगोचर होती है। इस प्रकार के चमत्कारमय प्रयत्न चाहे भाषा सम्बन्धी विद्वत्ता के परिणाम भले ही हों, किन्तु संस्कृत काव्य-विवेचकों ने उन्हें 'अधम काव्य' ही माना है । यही बात हम 'जिनालंकार की इस प्रवृत्ति के सम्बन्ध में भी कह सकते हैं। सम्पूर्ण ग्रन्थ में २५० गाथाएँ हैं । ग्रन्थ की मुख्य विशेषता उसकी कृत्रिम शैली, पौराणिक अतिरंजनामयी वर्णन प्रणाली १. जेम्स ग्रे द्वारा अंग्रेजी अनुवाद सहित रोमन लिपि में सम्पादित (लन्दन १८९४)। सिंहली लिपि में इस ग्रन्थ का दीपंकर और धम्मपाल का उत्कृष्ट संस्करण (गैले, १९००) उपलब्ध है। . २. पृष्ठ २७१ (ग्रे का संस्करण) , देखिये गन्धवंस, पृष्ठ ७२ (मिनयेफ द्वारा सम्पादित); सद्धम्मसंगह ९।२१ (सद्धानन्द द्वारा सम्पादित) Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५९२ ) एवं विद्वत्ता -प्रदर्शक प्रवृत्ति ही है । महायानी प्रभाव भी कहीं कहीं उपलक्षित है । बुद्धरक्षित ने अपने इस ग्रन्थ पर एक टीका भी लिखी थी। 'जिनालंकार' नाम का एक अन्य ग्रन्थ भी है, जिसकी रचना प्रसिद्ध अट्ठकथाकार बुद्धदत्त (चौथी गताब्दी ईसवी) ने की थी। प्रस्तुत 'जिनालंकार' से वह भिन्न है । 'गन्धवंस' के वर्णनानुसार बुद्धदत्त द्वारा लिखित 'जिनालंकार' पर बुद्धरक्षित ने एक टीका भी लिखी थी।' कुछ भी हो, हमें उपर्युक्त दोनों रचनाओं को मिलाने की गलती नहीं करनी चाहिये। जिनचरित ___'जिनालंकार' के समान 'जिनचरित' का भी विषय बुद्ध-जीवनी का वर्णन करता है। 'जिनालंकार' में, जैसा ऊपर कहा जा चुका है, सम्बोधि प्राप्ति तक वुद्ध-जीवनी का वर्णन किया गया है। किंतु 'जिनचरित' में भगवान् बुद्ध के उपदेश-कार्य का भी वर्णन किया गया है और उनके ४५ वर्षावासों का ब्यौरवार वर्णन किया गया है। जहाँ तक विषय-वस्तु का सम्बन्ध है, 'जिनचरित' में कोई नवीनता नहीं है । बुद्ध-जीवन के विषय में उसने कोई नई बात हमें नहीं बताई है। उसके सारे वर्णन जातक-निदानकथा पर आधारित हैं । एक हद तक तो वह जातक निदान-कथा का छन्दोबद्ध संस्करण ही जान पड़ता है। चार्ल्स डुरोइसिल का यह कथन ठीक है कि जहाँ कवि इस अन्धानुकरण से बच सका है और उसने अपनी प्रेरणा से लिखा है, वहीं उसके काव्य में कुछ रसात्मकता भी आ सकी है। यद्यपि काव्य-गुणों की दृष्टि से 'जिनचरित' की 'बुद्ध-चरित' से कोई तुलना नहीं की जा सकती, फिर भी यह कहना ठीक है कि पालि-साहित्य में 'जिनचरित' का वही स्थान है जो बौद्ध संस्कृत साहित्य में 'वुद्धचरित' का। 'जिन १. पृष्ठ ६९, ७२ (मिनयेफ द्वारा सम्पादित, जर्नल ऑव पालि टेक्स्ट सोसायटी, १८८६) २. डबल्यू० एच० डी० राउत द्वारा जर्नल ऑव पालि टैक्स्ट सोसायटी, १९०४०५ में अंग्रेजी अनुवाद-सहित सम्पादित । चार्ल्स डुरोइसिल द्वारा भी अंग्रेजी अनुवाद सहित रोमन लिपि में सम्पादित, रंगून १९०६ । ३. जिनचरित (चार्ल्स डुरोइसिल द्वारा सम्पादित) पृष्ठ १-२ (भूमिका) Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरित' पर संस्कृत काव्यों का भी कुछ प्रभाव पड़ा है। चार्ल डुरोयिसिल ने 'जिनचरित' पर अश्वघोष और कालिदास के प्रभाव की बात कही है। उन्होंने 'जिनचरित' और 'महाभारत' की कुछ पंक्तियों की भी तुलना की है। यह सम्भव है कि 'जिनचरित' के रचयिता को संस्कृत काव्यों की जानकारी रही हो और उससे उन्होंने लाभ उठाया हो, किन्तु काव्य-शैली के लिए वे संस्कृत काव्यों के ऋणी नहीं कहे जा सकते। जहाँ तक 'जिनचरित' के स्रोतों का सवाल है. हमें संस्कृत काव्यों की ओर नहीं जाना चाहिए। जैसा डा० लाहा ने कहा है, जातकसाहित्य और सुत्त-निपात के नालक-सुत्त जैसे सुत्तों की गाथाएँ 'जिनचन्ति' के लिए सर्वोत्तम नमूने हो सकते थे।२ इतना ही नहीं, कालिदास के पूर्ववर्ती अश्वघोष को भी इन मोतों से अपने काव्य-शैलो के निर्धारण में पर्याप्त प्रेरणा मिली होगी, ऐसा हम मान सकते है। 'जिनचरित' के विषय और शैली के स्रोत मलतः पालि साहित्य में हैं, संस्कृत साहित्य में नहीं । 'सद्धम्म संगह' और 'गन्धवंस' के वर्णनों के अनुसार 'जिनचरित' के रचयिता का नाम मेधंकर था। मेधंकर नाम के अनेक व्यक्ति सिंहल में हो चुके हैं। प्रस्तुत मेधंकर 'वनरतन मेकर' के नाम से प्रसिद्ध थे । उपर्युक्त स्रोतों के अनुसार बनातन मेधंकर लंकाधिप भुवनेकबाहु प्रथम (१२७७ ई०-१२८८ ई०) के समकालीन थे। टो० डब्ल्यू ० रायम डेविड्म और विन्टरनित्ज़ ने उनके इसी काल को प्रामाणिक माना है। किन्तु गायगर का दूमग मत है । 'गन्धवंस' में मेधंकर का उल्लेख १. उदाहरणतः जिनचरित-कोयं सक्को न खो ब्रह्मा मारो नागो ति आदिना। महाभारत--कोऽयं देवोऽथवा यक्षो गन्धर्वो वा भविष्यति। (वन-पर्व) २. हिस्ट्री ऑव पालि लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ ६१५ ३. सद्धम्मसंगह, पृष्ठ ६३ (जर्नल ऑव पालि टैक्स्ट सोसायटी, १८८६) ४. गन्ध वंश, पृष्ठ ६२, ७२ (जर्नल ऑव पालि टैक्स्ट सोसायटी, १८८६) ५. देखिये जर्नल ऑव पालि टैक्स्ट सोसायटी १९०४-०५, पृष्ठ २; विक्रम सिंह केटेलॉग पृष्ठ २१, ३५, ११९ ६. देखिये जर्नल ऑव पालि टैक्स्ट सोसायटी, १९०४-०५, पृष्ठ चार में डा० ___टी० डबल्यू० रायस डेविड्स का नोट ऑन मेघंकर' ७. हिस्ट्री ऑव इन्डियन लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ २२४ ३८ Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५९४ ) वाचिस्सर, सुमंगल और धम्मकित्ति के बाद किया गया है। अतः गायगर न यह अनुमान लगाया है कि वे भी उपर्युक्त भिक्षुओं के समान सिंहली स्थविर सारिपुत्त के शिष्य थे। 'जिनचरित' के अन्तिम पद्यों में लेखक ने कहा है कि उन्होंने इस ग्रन्थ की रचना राजा विजयबाहु द्वारा निर्मित परिवेण में की। गायगर ने इससे अनुमान किया है कि यहाँ लेखक को लंका का राजा विजयबाहु तृतीय (१२२५ ई०-१२२९ ई०) अभिप्रेत था। उन्होंने आगे यह भी अनुमान किया है कि विजयवाहु तृतीय मेधंकर का समकालीन था, क्योंकि उसी हालत में उसकी प्रशंसा का कुछ अर्थ हो सकता है। इतने अनुमानों के बाद गायगर ने यह निष्कर्ष निकाला है कि मेधंकर विजयबाहु तृतीय के समकालीन और भिक्षु सारिपुत्त के शिष्य थे। उन्होने मेधंकर और वाचिस्सर का एक ही समय माना है।' जहाँ इतने अनुमानों के लिए अवकाश है वहाँ हमें यह भी आश्चर्य नहीं करना चाहिए कि डुरोइसिल ने उपर्युक्त विजयबाह को विजयबाहु द्वितीय माना है जो सन् १९८६ ईसवी में गद्दी पर बैठा था और जो लंका के प्रसिद्ध गजा पराक्रमबाहु का उत्तराधिकारी था । विजयबाहु से तात्पर्य हम चाहे किसी विजयबाहु से लें, 'जिनचरित' के लेखक ने तो सिर्फ इतना कहा है कि विजयबाहु द्वारा निर्मित परिवेग में उसने 'जिनचरित' की रचना की। अतः समकालीनता का आरोप इतना आवश्यक नहीं जान पड़ता। इसलिए 'गन्धवंस' और 'सद्धम्मसंगह' के वर्णन, जो मेधंकर को भुवनेकबाहु प्रयम (१२७७ ई०---१२८८ ई०) के समकालीन बतलाने के पक्षपाती है, 'जिनचरित' के वर्णन के विरोधी नहीं कहे जा सकते । अतः मेधंकर को भुवनेकबाहु प्रथम (१२७७ ई० --१२८८ ई०) का ही समकालीन मानना अधिक युक्तियुक्त जान पड़ता है। पज्जमधु १०४ गाथाओं में शतक ढंग को रचना है। वुद्ध-स्तुति इसका विषय है। प्रथम ६९ गाथाओं में बुद्ध की सुन्दरता का वर्णन है, शेप में उनके ज्ञान की प्रशंसा है। शैली कृत्रिम और काव्योचित रसात्मकता से रहित है। कम से कम अपने नाम (पज्ज्मधु-पद्यमधु) को वह सार्थक नहीं करती। संस्कृत का बढ़ता हुआ प्रभाव भी १. पालिलेंग्वेज एंड लिटरेचर, पृष्ठ ४२ । २. जिनचरित (डुरोइसिल का संस्करण, रंगून १९०६) पृष्ठ ३ (भूमिका) ३. गुणरत्न द्वारा जर्नल ऑव पालि टैक्स्ट सोसायटी १८८७ पृष्ठ १-१६ में सम्पादित; देवमित्त द्वारा भी सम्पादित, कोलम्बो १८८७ । Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५९५ ) उसका एक विशेष लक्षण है। 'पज्जमधु' बुद्धप्पिय (बुद्धिप्रिय) नामक स्थविर की रचना है, जो स्थविर वैदेह (वेदेह थेर) के समकालीन सिंहली भिक्षु थे। 'पज्जमधु' की १०३ वीं गाथा में कवि-भिक्षु ने अपना परिचय देते हुए अपने को आनन्द का शिष्य' बताया है ।' आनन्द स्थविर वैदेह स्थविर के गुरु थे। अतः वैदेह स्थविर के साथ बुद्धप्पिय का समकालिक होना निश्चित है । इसलिए इनका काल भी वैदेह स्थविर के साथ तेरहवीं शताब्दी ही होना चाहिए, यह निश्चित है। सम्भवतः यही 'बुद्धप्रिय' 'रूपसिद्धि' व्याकरण के रचयिता भी है । उस रचना के अन्त में उन्होंने अपना नाम बुद्धप्पिय 'दीपंकर' बताया है और अपने को आनन्द स्थविर का शिष्य कहा है। अतः दोनों का एक व्यक्ति होना असम्भव नहीं है। सद्धम्मोपायन ६२९ गाथाओं में सद्धम्म के उपाय अथवा बुद्ध-धर्म के नैतिक मार्ग का वर्णन है। विषय नवीन न होते हुए भी शैली में पर्याप्त ओज और मौलिकता है । ग्रन्थ को दो मुख्य भागों में बाँटा जा सकता है, (१) दुराचार के दुष्परिणाम (२) सदाचार की प्रशंसा या उसके सुपरिणाम । इसके साथ साथ बुद्ध-धर्म के प्रायः सभी मौलिक सिद्धान्तों का समावेश इस ग्रन्थ के अन्दर हो गया है, जिसे अत्यन्त प्रभावशाली और मननशील ढंग से कवि ने उपस्थित किया है। पाप-दुष्परिणाम, पुण्य-फल, दानप्रशंसा, शील-प्रशंसा, अ-प्रमाद आदि के काव्यमय वर्णन काफी अच्छे हुए हैं। पद्यबद्ध होते हुए भी 'सद्धम्मोपायन' के विवेचन इस विषय-सम्बन्धी गद्य-ग्रन्थों से अच्छी तरह मिलाये जा सकते हैं। उनको काव्य-मय रूप देने में और साथ ही १. आनन्दरा रतनादिमहायतिन्दा निच्चप्पबुद्धं पदुमप्पिय सेवि नंगी । बुद्ध प्पियन घनबुद्धगुणप्पियन थेरालिना रजितपज्जमधू पिवन्तु ॥ २. मिलाइये गायगरः पालिलिटरेचर एंड लेंग्वेज, पृष्ठ ४४, ५१, विटरनिरताः हिस्ट्री ऑव इंडियन लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ २२३; गुणरल ने बुद्धप्रिय का काल सन् ११०० ई० के लगभग बताया है। देखिये जर्नल ऑव पालिटैक्स्ट सोसायटी, १८८७, पृष्ठ १ । ३. ई० मॉरिस द्वारा जर्नल ऑव पालिटेक्स्ट सोसायटी, १८८७, पृष्ठ ३५-९८ में सम्पादित । Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनका विचारात्मक अंश अक्षुण्ण रखने में कवि को पर्याप्त सफलता मिली है। ग्रन्थ के आदि में कवि ने अपना नाम ब्रह्मचारी सोमपिय बताया है 'नामतो वुद्धसोमस्स पियस ब्रह्मचारिनो' । इनके विषय में अधिक कुछ ज्ञान हमें नहीं है, किन्तु यह निश्चित है कि ये सिंहली भिक्षु थे र इनका काल भी बारहवींतेरहवीं शताब्दी के आसपास ही होना चाहिए। पञ्चगतिदीपन' ११४ गाथाओं में उन पाँच गतियों या योनियों का वर्णन है जिन्हें प्राणी अपने भले या बुरे कायिक, वाचिक और मानसिक कर्मों के कारण प्राप्त करते है, यथा नरक-योनि, पशु-योनि भूत-प्रेतादिकी योनि, मनुष्य-योनि और देव-योनि । वर्णन अत्यन्त सरल और स्वाभाविक एवं प्रसादगुणनय होते हुए भी यह रचना अत्यन्त साधारण कोटि की ही मानी जायगी। स्वर्ग-नरक के वर्णन काव्य के अच्छे विपय बनाये ही नहीं जा सकते, उनमें नैतिक तत्त्व चाहे जितना भी गहरा हो। वास्तव में बुद्ध ने भी स्वर्ग के प्रलोभन या नरक के भयके कारण अपने नातिवाद का उपदेश नहीं दिया था। उनके नैतिक आदर्शवाद की यही तो एक विशेषता थी। वहाँ विशुद्धि का मार्ग अपने आप में एक आचरणीय वस्तु थी। ब्रह्मचर्य का क्या उद्देश्य होना चाहिए, इमे शास्ता ने अनेक बार स्पष्ट कर दिया था। किन्तु लोक-धर्म इस कब मुनता है ? वहाँ नो भय या पारितोषिक का प्रलोभन होना ही चाहिए । फलतः अशोक को ही हम अपनी जनता को स्वर्ग-प्राप्ति के उद्देश्य से शुभ-कर्म करने के लिए प्रेरणा करते हुए देखते है । यह नितान्त स्वाभाविक भी है। वुद्ध-मन्तव्य इससे बहुत अधिक ऊँचा था। उसे लोक-धर्म की भूमि पर ला कर अर्थात् लोक-विश्वासों का उममें समावेश कर, उसके नैतिक तत्त्व की व्याख्या का प्रारम्भ हा स्वयं सुत्त-पिटक के कुछ अंशों में ही देखते है। बाद में कुछ जातकों और पेंतवत्थु जैसे ग्रन्थों में तो वह बहुत ही स्फुट हो गया है । महायान-परम्परा में जिस विस्तार के साथ स्वर्ग-नरक के वर्णन मिलते हैं, वह तो निश्चय ही एक आश्चर्य की वस्तु है । निश्चय ही इस प्रकार के वौद्धवर्णनों में चाहे वे स्थविरवादियों के हों, चाहे अन्य संप्रदायों के, पुराणों (वि १. लियोन फियर द्वारा जर्नल ऑव पालिटैक्स्ट सोसायटी, १८८४, पृष्ठ १५२ ६१ में सम्पादिल । Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५९७ ) शेषतः ब्रह्माण्ड, मार्कडेय, पद्मपुराण आदि) के इस विषयक वर्णनों से कुछ भी विशेषता नहीं है। किसी युग में जब मनुष्य अधिक विश्वास करने की क्षमता रखता हो इन सब का चाहे भले ही उपयोग रहा हो, किन्तु आज तो ये सभी मननशील व्यक्तियों के लिए विरतिकर हो चुके हैं, इसमें सन्देह नहीं । स्वभावतः ‘पंचगतिदीपन' भी इसका अपवाद नहीं । प्रारंभ में ही कम से कम आठ प्रकार के नरकों का वर्णन किया गया है, यथा संजीव, कालसूत्र (कालसुत्त) संघात, रौरव, (रोरुव) महा रौरव (महारोरुव) तप, महातप और अवीचि। इनकी यातनाओं का वर्णन तो निश्चय ही रोमांचकारी है। केवल महत्वपूर्ण भाग वह है जहाँ नाना-प्रकार के पाप-कर्मों के परिणामस्वरूप वहाँ जाना दिखलाया गया है । इसके अलावा इस ग्रन्थ में अन्य कुछ ज्ञातव्य नहीं है । तुलनात्मक पौराणिक तत्व के विद्यार्थी के लिए पंचगतिदीपन' में प्रभूत सामग्री मिल सकती है, इसमें सन्देह नहीं । इसके रचयिता या उसके काल के संबंध में कुछ ज्ञात नहीं है। लोकप्पदीपसार या लोकदीपसार' ___इस ग्रन्थ की विषय-वस्तु ‘पञ्चगतिदीपन' के समान ही है । 'शासनवंस' के वर्णनानुसार यह चौदहवीं शताब्दी के बर्मी भिक्षु मेधंकर की रचना है, जिन्होंने अध्ययनार्थ सिंहल में प्रवास किया था । पाँच प्रकार की योनियों का वर्णन कग्ने के अतिरिक्त यहां आख्यानों के द्वारा उनमें निहित नैतिक उपदेशों को समझाया भी गया है । ‘महावंस' से इस ग्रन्थ में काफी सामग्री ली गई है । अन्य कुछ काव्यगत विशेषता इस ग्रन्थ की नहीं है। पालि आख्यानः रसवाहिनी३ उत्तरकालीन पालि-साहित्य में गद्य-पद्य मिश्रित कुछ आख्यानों की भी रचना १. देखिये मेबिल बोड:पालि लिटरेचर ऑव बरमा, पृष्ठ ३५ । २. मेबिल बोड:पालि लिटरेचर ऑव बरमा, पृष्ठ ३५ । ३. सिंहली लिपि में सरणतिस्स द्वारा दो भागों में सम्पादित, कोलम्बो १९०१ एवं १८९९; उसी लिपि में सिंहली व्याख्या सहित देवरक्खित द्वारा सम्पादित, कोलम्बो १९१७ । Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५९८ ) हुई । नैतिक ध्वनि की प्रधानता के अतिरिक्त इन सब की एक बड़ी विशेषता यह है कि इन्होंने जातक, अर्थकथाओं और कुछ अंश तक 'महावंश आदि से पर्याप्त सामग्री ली है । पालि आख्यानों में 'रसवाहिनीं' का नाम अधिक प्रसिद्ध है। मौलिक रूप में यह सिंहली भाषा की रचना थी। महाविहारवासी रठ्ठपाल (राष्ट्रपाल) नामक स्थविर ने इसका प्रथम पालि रूपान्तर किया। बाद में प्रसिद्ध सिंहली भिक्षु वैदेह स्थविर (वेदेह थेर) ने इसको शुद्ध कर इसे नवीन रूप प्रदान किया । अतः ‘रसवाहिनी' का कर्तृत्व वैदेह स्थविर के नाम के साथ ही संबद्ध हो गया है। वैदेह स्थविर का काल निश्चित रूप से तेरहवीं शताब्दी ही माना जाता है ', यद्यपि कुछ विद्वान् उसे चौदहवीं शताब्दी मानने के भी पक्षपाती हैं। संभवतः तेरहवीं शताब्दी के अंतिम और चौदहवीं शताब्दी के मध्य भाग में वे जीवित थे । वैदेह स्थविर का जन्म विप्रग्राम (विप्पगाम) के एक ब्राह्मग-वंश में हुआ था। बाद में उन्होंने बौद्धधर्म में प्रविष्ट होकर प्रव्रज्या ले ली थी। उनके गुरु प्रसिद्ध सिंहली भिक्षु आनन्द स्थविर थे, 'जो अरण्यायतन' (अरञायतन-अरण्यवासी) भी कहलाते थे । वैदेह स्थविर ने भी स्वयं अपने को 'वनवासी' संप्रदाय का अनुयायी बतलाया है । इन्हीं की रचना 'समन्तकूटवण्णना' नामक कविता भी है जिसमें वुद्ध के जीवन और विशेषतः उसके तीन बार लंका-गमन तथा उनके चरण (श्रीपद) चिन्ह द्वारा अंकित समन्त-कूट पर्वत का भी वर्णन है । इस ग्रन्थ में ७९६ पालि वृत्त हैं। किन्तु इनकी अधिक प्रसिद्ध रचना 'रसवाहिनी' ही है। 'रसवाहिनी' १०३ आख्यानों का संग्रह है। इनमें प्रथम ४० के देश और परिस्थिति का चित्रण भारत (जम्बुद्वीप) में और शेष ६३ का लंका में किया गया है। कहानियाँ प्रायः गद्य में ही हैं, किन्तु बीच-बीच में कहीं कहीं गाथात्मक अंश का भी छिटका दिखाई देता है । भाषा की दृष्टि से यह उतनी सफल रचना नहीं - - - १. गायगरःपालि लिटरेचर एंड लेंग्वेज, पृष्ठ ४३ पद-संकेत २; विटरनित्ताः हिस्ट्री ऑव इंडियन लिटरेचर-जिल्द दूसरी, पृष्ठ २२४ । २. देखिये विमलाचरण लाहा: हिस्ट्री ऑव पालि लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ ६२५ ३. मललसेकर : दि पालि लिटरेचर ऑव सिलोन, पृष्ठ २१० । ४. सिंहली अनुवाद सहित सिंहली लिपि में धम्मानन्द और ज्ञाणिस्सर (ज्ञानेश्वर) द्वारा सम्पादित, कोलम्बो, १८९० । Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५९९ ) कही जा सकती । किन्तु आख्यानात्मक कला के पर्याप्त दर्शन इस मुन्दर रचना में होते हैं। नैतिक उपदेश की प्रधानता होते हुए भी अनेक कहानियाँ कलात्मक दृष्टि से भी बहुत महत्वपूर्ण हुई है। कृतज्ञ पशु और अकृतज्ञ मनुष्य की कहानी तो निश्चय ही विश्व-माहित्य की एक संपत्ति है । जातक, अपदान, पालि अटठकथाएँ और महावंश की पृष्ठभूमि में लिखा हुआ यह ग्रन्थ निश्चय ही भारतीय आख्यान-साहित्य का एक महत्वपूर्ण रत्न है । कुछ कहानियों के देशकाल को भारत और कुछ को लंका में रखकर, सिंहली और पालि दोनों भाषाओं में विरचित यह ग्रन्थ उक्त दोनों देशों की अभिन्न सांस्कृतिक और धार्मिक एकता को एक सुन्दर कलात्मक रूप में उपस्थित करता है। खेद है कि इस ग्रन्थ का अभी कोई नागरो-संस्करण या हिन्दी अनुवाद प्रकाशित नहीं हुआ। दोनों देशों के सांस्कृतिक संबंध और विशेषत: भारतीय साहित्य के सिंहली साहित्य पर प्रभाव के अध्ययन के लिए इस ग्रन्थ का पारायण अत्यंत आवश्यक है। बुद्धपूजा का तत्व इस ग्रन्थ की कुछ कहानियों में ध्वनित होता है, जो इस संबंधी महायानी प्रवृत्ति या भारतीय भक्तिवाद के प्रभाव का सूचक हो सकता है । 'रसवाहिनी' की एक 'रसवाहिनीगण्ठि' नामक पालि-टीका भी लिखी गई । सिंहली भाषा में इसका शब्दशः अनुवाद भी मिलता है । उस भाषा में इस विषय-संबंधी अन्य भी प्रभूत साहित्य है । बुद्धालङ्कार १५ वीं शताब्दी के आवा (बरमा)-निवासी शीलवंस (सीलवंस) नामक भिक्षु की रचना है। यह पद्यबद्ध है । निदान-कथा की मुमेध-कथा पर यह आधारित है । अन्य कुछ ध्यान देने योग्य विशेषता इसमें नहीं है। सहस्सवत्थुप्पकरण इस ग्रन्थ में एक हजार कहानियों का संग्रह है । संभवत: 'रसवाहिनी' का यही आधार था । कम से कम इन दोनों का संबंध तो स्पप्ट ही है। बरमा से ही इस ग्रन्थ का लंका में प्रचलन हुआ। किन्तु संभवतः यह मौलिक रूप में लंका में ही लिखा गया था। इस ग्रन्थ की 'सहस्सवत्थट्ठकथा' नामक १. मेबिल बोड : दि पालि लिटरेचर ऑव बरमा, पृष्ठ ४३ २. मललसेकर : दि पालि लिटरेचर ऑव सिलोन, पृष्ठ १२९ Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक टीका भी थी जिसका उल्लेख कई बार महावंश-टीका (ग्यारहवीं-तेरहवीं शताब्दियों के बीच रचित) में किया गया है । राजाधिराजविलासिनी १८ वीं शताब्दी के बरमी राजा वोदोपया (बुद्धप्रिय) की प्रार्थना पर लिखा गया एक गद्य-ग्रन्थ है। इसकी कहानियों का आधार प्रधानतः जातक ही है, यद्यपि अट्ठकथा तथा वंश-साहित्य से भी लेखक ने पर्याप्त सामग्री ली है । संस्कृत के व्याकरण और ज्योतिष शास्त्र से भी लेखक का पर्याप्त परिचय था, यह भी उसके विद्वत्तामय वर्णनों से विदित होता है । उपर्युक्त ग्रन्थों के अतिरिक्त कुछ अल्प महत्व के भी ग्रन्थ कथा-साहित्य पर इस उत्तरकालीन युग में लिखे गये। इनकी प्रेरणा का मुख्य आधार जातक ही रहा, यह तो निश्चित ही है। इस प्रकार पन्द्रहवीं शताब्दी में आवा (बरमा) निवासी रट्ठसार ने कुछ जातकों का पद्यबद्ध अनुवाद किया । तिपिटकालंकार ने १६ वीं शताब्दी में वेस्मन्तर जातक का पद्यबद्ध अनुवाद किया। अठारहवीं शताब्दी में 'मालालंकारवत्थु' नामक वुद्ध-जीवनी भी किसी बरमी भिक्षु ने लिखी । जातक-अट्ठकथा और वंश-साहित्य के बाद इस दिशा में मौलिक कुछ नहीं किया गया, यह हम इस सब कथा-साहित्य के पर्यवेक्षण स्वरूप कह सकते है । पालि का व्याकरण-साहित्यःउसके तीन सम्प्रदाय पालि-साहित्य के इतिहास में व्याकरण का विकास बहुत बाद में चलकर हुआ। बुद्धदन, वुद्धघोष और धम्मपाल के समय तक अर्थात् पाँचवी शताब्दी ईमवी तक हमें किमी पालि व्याकरण या व्याकरणकार का पता नही चलता। १. मेबिल बोड : दि पालि लिटरेचर ऑव बरमा, पृष्ठ ७८ २.-३. मेबिल बोड : दि पालि लिटरेचर ऑव बरमा, पृष्ठ ४३-५३ ४. इम ग्रन्थ का विशप बिग्रंडेट ने अंग्रेजी अनुवाद भी किया है। देखिये सेक्रेडबुक्स ऑव दि ईस्ट, जिल्द ११, पृष्ठ ३२ (भूमिका) में डा० रायस डेविड्स द्वारा प्रदत्त सूचना । Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६०१ ) जहाँ तक जात हुआ है आचार्य बुद्धघोष ने भी अपनी व्याख्याओं में किसी प्राचीन पालि व्याकरण का आश्रयन लेकर पणिनीय अष्टाध्यायी का ही लिया है । 'विमुद्धि-मग्ग' में उनके द्वारा की हुई 'इन्द्रिय' शब्द की व्याख्या इसका सर्वोत्तम उदाहरण है। 'विसुद्धि-मग्ग' के मोलहवें परिच्छेद इन्द्रियसच्च निद्देसो' (इन्द्रिय और सत्य का निर्देश) में आता है “को पन नेसं इन्द्रियट्ठो नामाति ? इन्दलिंगट्ठो इन्द्रियट्ठो, इन्ददेसितलो इन्द्रियट्ठो, इन्ददिठ्ठट्ठो इन्द्रियट्ठो, इन्दमिट्ठट्ठो इन्द्रियट्ठो, इन्दजुट्ठट्ठो इन्द्रियट्ठो'। निश्चय ही यहां पाणिनीय अष्टाध्यायी व्याकरण का यह मूत्र प्रतिध्वनित है “इन्द्रियं इन्द्रलिंग, इन्द्रदृष्टं, इन्द्रजुष्टं, इन्द्रदत्तम्, इतिवा” (५। २। ९३) । इसी प्रकार पाणिनीय सूत्र ३।३।११ मुत्तनिपात की अट्ठकथारे में प्रतिध्वनित हुआ है। दोनों निरुक्तियाँ आपम में शब्दशः इतनी मिलती हैं कि आचार्य बुद्धघोष ने पाणिनीय व्याकरण का आश्रय लिया है, इम निष्कर्ष का प्रतिवाद नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार पाणिनि ने 'आपनि' शब्द का प्रयोग प्राप्ति' के अर्थ में किया है। आचार्य बुद्धघोप ने इस विषय में भी उनका अनुसरण कर इस शब्द का उसी अर्थ में प्रयोग ‘ममन्तपामादिका' (विनय-पिटक की अट्ठकथा) में अनेक बार किया है । यहां हमारा यह कहना है कि यह प्रयोग पाणिनीय व्याकरण के प्रभावम्वरूप उतना नहीं भी माना जा सकता, क्योंकि पालि-त्रिपिटक के स्वयं 'स्रोत आपनि गब्द में यह प्रयोग रकवा हुआ है। यह संभव है कि पालि और संस्कृत १. विसुद्धिमग्ग १६।४ (धर्मानन्द कोसम्बी द्वारा सम्पादित देव नागरी संस्करण) २. जिल्दपहली, पृष्ठ २३ (पालि टैक्स्ट सोसायटी का संस्करण); इसी प्रकार विसुद्धिमग्ग ७५८ (कोसम्बी जी का संस्करण) में “वण्णागमो वण्णविपरिययो" अक्षरशः काशिका' का उद्धरण है, जिसे बुद्धघोष ने प्राचीन संस्कृतव्याकरण की परम्परा से लिया है। ३. इस मत की स्थापना बड़ी योग्यता के साथ डा० विमलाचरण लाहा ने की है। देखिये उनका 'दि लाइफ एंड वर्क ऑव बुद्धघोष', पृष्ठ १०४-१०५; हिस्ट्री ऑव पालि लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ ६३२-३३; मिलाइये जर्नल ऑफ पालि टैक्स्ट सोसायटी, १९०६-०७, पृष्ठ १७२-७३ ।। ४. 'दि लाइफ एंड वर्क ऑव बुद्धघोष', पृष्ठ १०५; हिस्ट्री ऑव पालि लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ ६३३ । Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६०२ ) का विकास समकालिक होने के कारण पाणिनीय व्याकरण में कुछ ऐसे प्रयोग भी दृष्टिगोचर होते हों जो उस समय की साहित्यिक भाषा (संस्कृत) और लोक भाषा (पालि) में समान रूप से प्रतिष्ठित हों । अतः बुद्धघोप ने ऐसे प्रयोगों को पाणिनीय व्याकरण से न लेकर संभावतः पालि-त्रिपिटक से ही लिया होगा, ऐसा मानना भी अधिक समीचीन जान पड़ता है । यहां तक भी कहा जा सकता है कि उनकी अनेक निरुक्तियां भी त्रिपिटक और विशेपतः अभिधम्म-पिटक के एतत्संबंधी विशाल भांडार पर ही आश्रित है । यद्यपि बुद्धघोष सेपहले पारिभाषिक अर्थों में पालि में व्याकरण या निरुक्ति-गास्त्र (पालि-निरुत्ति--पालि त्रिपिटक के शब्दों की व्याकरण-सम्मत व्याख्या) न भी रहा हो, किन्तु त्रिपिटक के शब्दों की व्याख्या (वेय्याकरण) के लिए कुछ नियम तो अवश्य ही रहे होंगे। सुत्त-पिटक के प्राचीनतम अंशों में भी 'ब्राह्मण' 'श्रमण' 'भिक्षु' 'तथागत' आदि शब्दों की जो निरुक्तियां और व्युत्पत्तिलब्ध अर्थ किये गये है उनसे यह बात आसानी से समझ में आ सकती है । धम्मपद में महाप्राज्ञ भिक्षु के लिए यह आवश्यक माना गया है कि वह 'निरुक्ति और पदों का ज्ञाता' हो और 'अक्षरों के सन्निपात' अर्थात् शब्द-योजना मे परिचित हो२ । इससे भी यही प्रकट होता है कि शब्दों की निरुक्ति और व्याकरण संबंधी साधारण नियमों की कोई परम्परा पालि-साहित्य के प्राचीनतम युग में भी रही अवश्य होगी। संभवतः इसी परम्परा का प्रवर्तन हमें नेत्तिपकरण और पेटकोपदेस में मिलता है । फिर भी बौद्ध अनुश्रुति का . यह सामान्य विश्वास कि भगवान् बुद्ध के प्रधान शिष्य महाकच्चान (महाकात्यायन) ने भी एक पालि व्याकरण की रचना की थी, तत्संबंधी साहित्य के अभाव में ठीक नहीं माना जा सकता । इसी प्रकार बोधिसत्त और सब्बगुणाकार नामक दो प्राचीन व्याकरण भी, जिनका नाम वौद्ध परम्परा में सुना जाता है, आज उपलब्ध नहीं है । आज जो व्याकरण-साहित्य पालि का हमें उप १. यह इससे भी प्रकट होता है कि बुद्धघोष ने शब्द-निरुक्ति करने वाले त्रिपिटक के अंशों, विशेषतः अभिधम्म-पिटक, को 'वेय्याकरण' कहा है। देखिये "सकलं अभिधम्म-पिटकंतं वेय्याकरणं ति वेदितब्वं" सुमंगलविलासिनी, भाग प्रथम, पृष्ठ २४ (पालि टैक्सट्स सोसायटी का संस्करण) २. धम्मपद २४११९ Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्ध है, तीन शाखाओं या संप्रदायों में विभक्त है (१) कच्चान-व्याकरण और उसका उपकारी व्याकरण-साहित्य (२) मोग्गल्लान-व्याकरण और उसका उपकारी व्याकरण-साहित्य (३) अग्गवंसकृत सद्दनीति और उसका उपकारी व्याकरण-साहित्य । लंका और बरमा में ही इस प्रभूत पालि व्याकरण-संबंधी साहित्य का प्रणयन सातवीं शताब्दी के बाद से हुआ है। अब हम उपर्युक्न तीनों संप्रदायों की परम्परा का अलग अलग विवेचन करेंगे । कच्चान-व्याकरण' और उसका उपकारी साहित्य 'कच्चान-व्याकरण' (या कच्चायन-व्याकरण-कात्यायन--व्याकरण) पालि साहित्य का प्राचीनतम व्याकरण है । इसका दूसरा नाम 'कच्चायन'गन्ध' (कात्यायन-ग्रन्थ ) भी है। इस व्याकरण के रचयिता का बुद्ध के प्रधान गिप्य महा कच्चान (महाकात्यायन) से कोई सम्बन्ध नहीं, इसे बौद्ध विद्वान् भी स्वीकार करते हैं। इसी प्रकार पाणिनीय ब्याकरण के वार्तिककार कात्यायन (तृतीय शताब्दी ईसवी) से भीये भिन्न हैं, ऐसा भी निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है । नेतिपकरण और पेटकोपदेस के रचयिता कच्चान से भी व्याकरणकार कच्चान भिन्न हैं। व्याकरणकार कच्चान यदि बुद्धघोष के पूर्वगामी होते तो यह असम्भव था कि कच्चान-व्याकरण जैसे प्रामाणिक पालि-व्याकरण का वे अपनी व्याख्याओं में कहीं भी उद्धरण नहीं देते। इस निषेधात्मक साक्ष्य के अलावा अन्य स्पष्ट साक्ष्य भी कच्चान-व्याकरण के बुद्धघोष के काल से उत्तरकालीन होने के दिये जा सकते है। कच्चान ने अपने व्याकरण में सर्व वर्मा के कातन्त्र व्याकरण का अनुगमन किया है। उन्होंने स्पष्टतापूर्वक पाणिनि व्याकरण का उसकी काशिका-वृत्ति के साथ अनुसरण किया है । काशिका-वृत्ति की रचना का समय सातवीं शताब्दी है । अतः यह निश्चित है कि कच्चान-व्याकरण भी मातवीं शताब्दी के पूर्व का नही हो सकता। स्वयं कच्चान-व्याकरण में ही उसके संस्कृत सम्बन्धी ऋण को स्वीकार किया गया है । इस प्रकार सूत्र १।११८ में कहा गया है 'परसमापयोगे। इसकी व्याख्या करते हुए उसकी वृत्ति (वृत्ति) में कहा गया है 'याच पन सक्कतगन्धेसु समा ....आदि' । इन 'संस्कृत ग्रंथों ' (सक्कत गन्धेमु) जैमा हम अभी १. डा० सतीशचन्द्र विद्याभूषण द्वारा सम्पादित एवं अनुवादित, कलकत्ता १८९१; डा० मेसन ने भी इस ग्रन्थ का सम्पादन किया है। २. सुभूति : नाममाला, पृष्ठ ६ (भूमिका) Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कह चुके हैं कातन्त्र-व्याकरण और काशिका वत्ति (सातवीं शताब्दी) प्रधान हैं। अतः कच्चान व्याकरण का काल सातवीं शताब्दी के बाद का ही है । कच्चान-व्याकरण में ६७५ सूत्र है। इस व्याकरण के अलावा कच्चान 'महानिरुत्ति गन्ध' (महानिरुक्ति ग्रन्थ) और 'चुल्ल निरुत्ति गन्ध (संक्षिप्त निरुक्ति -ग्रन्थ) नामक दो व्याकरण-ग्रन्थों के भी ये रचयिता बताये जाते हैं।' कच्चान-व्याकरण का सहायक माहित्य काल-क्रमानुसार इस प्रकार है (१) कच्चान-व्याकरण का सबसे प्राचीन और महत्वपूर्ण भाष्य 'न्यास' है। इसी का दूसरा नाम 'मुखमत्तदीपनी'२ भी है । यह आचार्य विमलबुद्धि की रचना है, जिनका काल ग्यारहवीं शताब्दी से पहले और कच्चान-व्याकरण की रचना (सातवीं शताब्दी) के बाद था। (२) 'न्याम की टीका-स्वरूपन्यास-प्रदीप'बारहवीं शताब्दीकेअन्तिम भागमें लिखा गया। इसके रचयिता 'छपद' नामक आचार्य थे। यह बरमी भिक्षु थे, किन्तु इनकी शिक्षा लंका में हुई थी। यह सिंहली भिक्षु सारिपुत्त के शिष्योंमें सेथे ।'न्यास' पर अन्य माहित्य भी उत्तर कालीन शताब्दियों में बहुत लिखा जाता रहा । छपद ने कच्चान-व्याकरण साहित्य को एक ग्रन्थ और भी दिया । (३) सुत्त-निद्देस-- छपद-कृन कच्चान-व्याकरण की टीका-स्वरूप यह ग्रन्थ लिखा गया है । इसका निश्चित रचना काल ११८१ ई० (वृद्धाब्द १७१५) है। (४) स्थविर संघरक्खिन (संघरक्षित) द्वारारचित 'सम्बन्ध-चिन्ता'। यह ग्रन्थ कच्चान-व्याकरण के आधार पर पालि शब्द-योजना या शब्द-संबंधका विवेचन करता है । स्थविर संघरक्खिन सिंहली भिक्षु मारिपुन के गिप्यो में से थे, अतः निश्चित रूप से इनका काल १-वींशताब्दी का अंतिम भाग ही है। इस प्रकार ये छपद के समकालिक १. गन्धवंस, पृष्ठ ५९ (मिनयेफ द्वारा जर्नल ऑव पालि टैक्सट सोसायटी में सम्पादित) सुभूति ने इन ग्रन्थों को यमक की रचना बताया है । देखिये उनको नाममाला, पृष्ठ २८ (भूमिका) २. गन्धवंस, पृष्ठ ६०; सुभूति : नाममाला, पृष्ठ ९ (भूमिका) ३. सत्रहवीं शताब्दी के मध्य में बर्मी भिक्षु दाठानाग द्वारा रचित 'निरुत्तसार मंजूसा' नामक 'न्यास' की टीका प्रसिद्ध है। देखिये मेबिल बोड : दि पालि लिटरेचर ऑव बरमा, पृष्ठ ५५; सुभूति : नाममाला, पृष्ठ १० (भूमिका) ४. सुभूति : नाममाला, पृष्ठ १५; मेबिल बोड : पालि लिटरेचर ऑफ बरमा, पृष्ठ १७ Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हो थे । इन्होंने विनय-साहित्य पर भी खुद्दक-मिक्खा' (क्षुद्रक-शिक्षा-रचयिता भिनु धर्मत्री-धम्मसिरि) के टीका स्वरूप 'ग्दुकमिवखा-टीका' लिखी थी। 'संबंध-चिन्ता' पर एक टीका भी पाई जाती है, किन्तु उसके लेखक के नाम और काल का पता नहीं है । (५) स्थविर सद्धर्मश्री (मद्धम्मसिरि) विरचित 'सइत्थभेदचिता' (शब्दार्थभेदचिन्ता) । यह ग्रन्थ बरमा में १० वीं शताब्दी के अंतिम भाग में लिखा गया। इस पर भी एक अज्ञात लेखक की टोका मिलती है। (६) स्थविर बुद्धप्रिय दीपंकर विरचित 'रूप-निद्धि' या 'पद-रूप-मिद्धि' । स्थविर बुद्धप्रिय दीपंकर ने इस ग्रन्थ के अन्त में अपना परिचय देते हुए अपने को सारिपुत्त (मिहली भिक्षु) का शिप्य कहा था । 'पज्जमधु' के भी यही रचयिता है । इनका काल इस प्रकार तेरहवी शताब्दी का अंतिम भाग ही है । यह ग्रन्थ सात भागों में विभक्त है और कुछ अल्प परिवर्तनों के साथ कच्चान-व्याकरण का ही रूपान्तर मात्र है । 'रूप-मिद्धि' पर भी एक टीका लिखी गई और सिंहली भाषा ते उमका रूपान्तर भी किया नया ! (७) बालावतार-व्याकरण----यह व्याकरण विशेषतः बग्मा और म्याम में बड़ा लोकप्रिय है। लंका में इसके कई संस्करण निकले है। यह भी कच्चान व्याकरण के आधार पर ही लिखा गया है । यह ग्रन्थ 'धम्मकिन (धर्म कीर्ति) की रचना मानी जाती है । यह वम्मकिनि (धर्मकीर्ति) डा० गायगर के मतानुसार 'नद्धम्म संगह' के रचयिता धम्मकित्ति महासामि' (धर्मकीर्ति महास्वामी) ही है, जिनका जीवन-काल चौदहवीं शताब्दी का उत्तर भाग है। गन्धवंस के वर्णनानुसार यह वाचिस्सर (वागीश्वर) की रचना है३ । वाचिस्सर सिंहली भिक्षु सारिपुन के गिप्यों में से थे। उनका जीवन-काल निश्चित रूप से बारहवीं शताब्दी का उत्तर भाग और तेरहवीं शताब्दी का प्रारंभिक भाग है। इन प्रकार उनकी रचना मानने पर 'बालावतार' का रचना-काल पी १. विशेषतः श्री धर्माराम द्वारा सम्पादित, पलियगोड, १९०२; वालावतार, टोका-सहित, सुमंगल महास्थविर द्वारा सम्पादित, कोलम्बो १८९३; देखिये सुभूति : नाममाला, पृष्ठ २४ (भूमिका) २. पालि लिटरेचर एंड लेंग्वेज, पृष्ठ ४५, ५१ । ३. पृष्ठ ६२, ७१ (जर्नल ऑव पालि टैक्स्ट सोसायटी १८८६ में सम्पादित संस्करण) Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उमी ममय का मानना पड़ेगा । 'बालावतार' व्याकरण पर लिखी हुई एक टीका भी मिलती है, किन्तु उसके लेखक का नाम और काल आदि सब अज्ञात है । (८) बरमी भिक्षु कण्टकखिपनागित या केवल नागित विरचित 'मद्दमारत्थजालिनी' नामक कच्चान व्याकरण की टीका १३५६ ई० (बुद्धाब्द १९००) में लिखी गई । (९) 'कच्चायन-भेद' नामक कच्चान-व्याकरण की टीका जिसकी रचना चौदहवीं शताब्दी के उत्तर भाग में स्थविर महायास ने की। इन्ही स्थविर की एक और व्याकरण संबंधी रचना 'कच्चायन-सार' है।' 'गंधवंम' के वर्णनानुसार 'कच्चायन-भेद' और 'कच्चायन-सार' दोनों धम्मानन्द नामक भिक्षुकी रचनाएँ है २ । 'कच्चायन-भेद' और 'कच्चायन-सार पर टोकाएं भी लिखी गई। 'कच्चायन-भेद' की दो टीकाएँ अति प्रसिद्ध हैं, (१) मान्थविकासिनी' जिसकी रचना १६०८ ई० (बुद्धाब्द २१५२) ले लगभग 'अग्यिालंकार' नामक बग्मी भिक्षु ने की, (२) कच्चायनभेद-महाटीका , जिसके रचयिता उनम सिक्व (उनम शिक्ष) माने जाते हैं, जिनके काल का कुछ निश्चित पता नहीं है । 'कच्चायन-सार' पर स्वयं इसके रचयिता महायास ने एक टीका लिखी थी । गायगर के मतानुसार यह 'कच्चायनसार-पुराणटीका' थी जो आज उपलब्ध है। सिंहली विद्वान् सुभूति ने इसे किसी अज्ञात लेखक की रचना माना है। ४ 'कच्चायन-मार' की एक और टीका कच्चायनसार-अभिनवटीका' या 'मम्मोहविनामिनी' वर्मी भिक्षु सद्धम्मविलास के द्वारा लिखी गई । (१०) पन्द्रह्वीं शताब्दी के मध्य भाग में कच्चान-व्याकरण पर 'सद्दबिन्दु'. (शब्द-बिन्दु) नामक उपकारी ग्रन्थ वरमा में लिखा गया । 'सासनवंस' के वर्णनानुमार अरिमद्दन (अरिमर्दन-बरमा) का राजा क्यच्चा इसका रचयिता था। मभूति ने इम ग्रन्थ का निश्चित रचना-काल १४८१ ई० (बुद्धाब्द २०२५) १. सुभूति : नाममाला, पृष्ठ ८३; मेबिल बोड : हिस्ट्री ऑव पालि लिटरेचर इन बरमा, पृष्ठ ३६ । २. पृष्ठ ७४ (जर्नल ऑव पालि टेक्स्ट सोसायटी १८८६ में सम्पादित ___संस्करण) ३. पालि लिटरेचर एंड लेंग्वेज, पृष्ठ ५२ । ४. नाममाला, पृष्ठ ८४-८५ (भूमिका) ५. पृष्ठ ७६ (पालि टैक्स्ट सोसायटी का मेबिल बोड द्वारा सम्पादित संस्करण) Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६०७ ) बताया है । 'सद्दविन्दु' पर 'लीनत्यसूदनी' नामक टीका आणविलास (ज्ञानविलास) नामक भिक्षु द्वारा १६ वीं शताब्दी के अन्तिम भाग में लिखी गई । (११) सोलहवीं शताब्दी के मध्यभाग में 'बालप्पबोधन' (बालप्रबोधन) नामक व्याकरण लिखा गया। इसके रचयिता का ठीक नाम पता नहीं है। (१२) 'अभिनवचुल्लनिरुत्ति' नामक व्याकरण में, जिसके रचयिता या रचना-काल के विषय में कुछ निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता, कच्चान व्याकरण के नियमों के अपवादों का विवरण है । (१३) सत्रहवीं शताब्दी के आदि भाग में बरमी भिक्ष महाविजितावी ने 'कच्चायनवण्णना' नामक व्याकरण-ग्रन्थ की रचना की । कच्चान-व्याकरण के सन्धिकप्प (सन्धि-कल्प) का यह विवेचन है। 'कच्चान-वण्णना' नामक एक प्राचीन ग्रन्थ भी है, जिससे इस अर्वाचीन रचना को भिन्न ही समझना चाहिए। महाविजितावी ने 'वाचकोपदेस' नामक एक और व्याकरण-ग्रन्थ की रचना की है जिसमें उन्होंने व्याकरण-शास्त्र का नैय्यायिक दृष्टि से विवेचन किया है । (१४) धातुमंजूसा--कच्चान-व्याकरण के अनुसार धातुओं की सूची इस ग्रन्थ में संगृहीत की गई है। इस ग्रन्थ के अन्त में लेखक ने अपना नाम स्थविर सीलवंस (शीलवंश) बताया है। यह एक पद्यबद्ध रचना है। सुभूति ने कहा है कि वोपदेव के कवि-कल्पद्रुम से इस ग्रन्थ में काफी सहायता ली गई है । फ्रैंक ने पाणिनीय धातुपाठ का भी इस ग्रन्त पर पर्याप्त प्रभाव दिखाया है ।। मोग्गल्लान-व्याकरण और उसका उपकार साहित्य ____ कच्चान-व्याकरण के समान मोग्गल्लान या मोग्गल्लायन५ व्याकरण पर भी प्रभूत सहायक साहित्य की रचना हुई है । सर्व-प्रथम 'मोग्गल्लान १. नाममाला, पृष्ठ ९१-९२ (भूमिका) २. सुभूति : नाममाला, पृष्ठ २३ (भूमिका) ३. देखिये नाममाला, पृष्ठ ९५ । ४. देखिये गायगर : पालि लिटरेचर एंड लेंग्वेज, पृष्ठ ५६ ! ५. पालि-व्याकरण की दृष्टि से कच्चान और कच्चायन, मोग्गल्लान और मोग्ग ल्लायन, इन शब्दों के ये दोनों रूप ही शुद्ध हैं। Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६०८ ) व्याकरण' को ही लेते हैं। इस व्याकरण का लंका और वरमा में बड़ा आदर है। पालि-व्याकरणों में निश्चय हो इसका एक ऊंचा स्थान है । कच्चानव्याकरण के समान प्राचीन न होने पर भी यह उससे अधिक पूर्ण है और भाषाउपादानों को इसने अधिक विस्तृत रूप से संकलित और व्यवस्थित किया है। जैसा भिक्ष जगदीश काश्यप ने कहा है “पालि व्याकरणों में 'मोग्गल्लानव्याकरण' पूर्णता तथा गंभीरता में श्रेष्ठ है"१। मोग्गल्लान-व्याकरण में ८१७ सूत्र हैं, जिनमें सूत्र-पाठ, धातु-पाठ, गण-पाठ, ण्वादि-पाठ आदि सभी व्याकरण के विषयों का सर्वागपूर्ण विवेचन किया गया है । मोग्गल्लान-व्याकन्ण की विषय वस्तु को समझने के लिए भिक्षु जगदीश काश्यप कृत 'महापालि व्याकरण' द्रष्टव्य है। यह स्वयं हिन्दी में पालि-व्याकरण पर प्रथम और अपनी श्रेणी को उच्चकोटि की चना है, एवं मोग्गल्लान-ब्याकरण पर आधारित है । मोग्गल्लान-व्याकरण का दूसरा नाम 'मागवसद्दलक्खण' भी है । ग्रन्थ के आदि में ही व्याकरणकार ने कहा है "सिद्धमिद्धगुणं साधु नमस्सित्वा तथागतं । मधम्मसंघ भासिस्म मागधं सद्दलक्खणं ॥" पाणिनि, कातंत्र-व्याकरल और प्राचीन पालि-व्याकरणों का आधार लेने के अतिरिक्त मोग्गल्लान-व्याकरण पर चन्द्रगोमिन् के व्याकरण का भी पर्याप्त प्रभाव उपलक्षित होता है। मोगल्लान-ब्याकरण लिखने के अतिरिक्त मोग्गल्लान महाथेर ने उसकी वृनि' (वृत्ति) भी लिखी और फिर उन वृति पर 'पञ्चिका नामक पांडित्यपूर्ण टीका भी । 'मोग्गल्लान-पञ्चिका' अभी तक अनुपलब्ध थी । किन्तु जैमा भिक्षु जगदीश काश्यप ने हमें सूचना दी है “परमपूज्य विद्वद्वर श्री धर्मानन्द नायक महास्थविर को ताल-पत्र पर लिखी पञ्चिका' की एक पुरानी पुस्तक लंका के किसी विहार में मिल गई। उन्होंने उमे संपादित कर विद्यालंकार परिवेण, लंका मे प्रकाशित करवाया है ।"२ निश्चय ही मोग्गल्लानव्याकरण और मोग्गलान-पञ्चिका पालि-व्याकरण का शास्त्रीय अध्ययन करने के लिए आज भी बड़े आवश्यक ग्रन्थ हैं । मोग्गल्लान-व्याकरण की वृति (वृत्ति) के अन्त में व्याकरणकार ने अपना परिचय दिया है, जिसने हमें मालूम होता है कि मोग्गल्लानमहाथेर अनुराधपुर (लंका) के थूपागम १. पालि महाव्याकरण, पृष्ठ पचास (वस्तुकथा) २. पालि महाव्याकरण, पृष्ठ इक्यावन (वस्तुकथा) Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामक विहार में निवास करते थे और उन्होंने अपने व्याकरण की रचना परक्कमभुज (पराक्रमबाहु) के शासन-काल में की थी । विद्वानों का अनुमान है कि इन परक्कमभुज मे तात्पर्य पराक्रमबाहु प्रथम (११५३११८६ ई०) से है, जिनके शासन-काल में लंका में पालि-साहित्य की बड़ी समृद्धि हुई। अतः मोग्गल्लान महाथेर का काल वारहवीं शताब्दी का अंतिम भाग ही मानना चाहिए । मोग्गल्लान-व्याकरण के आधार पर बाद में चलकर अन्य व्याकरण-साहित्य की रचना हुई, जिसके अन्तर्गत मुख्य ग्रन्थ ये है । (१) 'पद-साधन' जिसकी रचना मोग्गल्लान के शिष्य पियदस्सी ने की । पियदस्सी मोग्गल्लान के समकालिक ही थे । ‘पद-साधन' एक प्रकार से मोग्गल्लान व्याकरण का ही संक्षिप्त रूप है। प्रसिद्ध सिंहली विद्वान् के जॉयसा का कथन है कि पियदस्सी के 'पद-साधन' का मोग्गल्लान-व्याकरण के साथ वही संबंध है जो बालावतार का कच्चान-व्याकरण के साथ२ । १४७२ ई० में तित्थगाम (लंका) निवासी स्थविर श्री राहुल ने, जिनकी उपाधि 'वाचिस्मर' (वागीश्वर थी) 'पद-साधन' पर 'पद-साधन-टीका' या बुद्धिप्पमादिनी' नामकी टीका लिखी। (२) वनरतन मेधंकर-विरचित ‘पयोग-सिद्धि' (प्रयोग-सिद्धि) । मोग्गल्लान व्याकरण-संप्रदाय पर लिखा गया यह संभवतः सर्वोनम ग्रन्थ है। डे जॉयसा ने मोग्गल्लान-व्याकरण के साथ इसका वही संबंध दिखाया है जो 'रूपसिद्धि' का कच्चान-व्याकरण' के साथ । वनरतन मेधंकर पराक्रमवाहु के पुत्र भुवनेकबाहु तृतीय के समकालिक थे । अतः उनका जीवन-काल १३०० ईसवी के लगभग है । हाँ, यहाँ यह ध्यान अवश्य रखना चाहिए कि व्याकरणकार मेधंकर इसी नाम के जिनचरित के रचयिता और लोकप्पदीपसार के कवि, इन दोनों व्यक्तियों से भिन्न है। (३) मोग्गल्लान-पञ्चिकापदीप'--'मोग्गल्लान-पञ्चिका' की व्याख्या है । ‘पदसाधन-टीका' के लेखक स्थविर राहुल 'वाचिस्सर' ही 'मोग्गल्लान-पञ्चिका-पदीप' के लेखक है । गन्ध १. मोग्गल्लान-व्याकरण का देवमित्त द्वारा सम्पादित सिंहली संस्करण, कोलम्बो, १८९०, प्रसिद्ध है। अन्य भी बरमी और सिंहलो संस्करण उपलब्ध हैं। २. केटेलाग, पृष्ठ २५ । ३. केटेलाग, पृष्ठ २६ । ४. पालि लिटरेचर एंड लेंग्वेज, पृष्ठ ५४।। Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६१० ) वंस'१ के वर्णनानुसार 'वाचिस्सर' ने 'मोग्गल्लान-व्याकरण' पर एक टीका लिखी थी । डा. गायगर ने इन 'वाचिस्सर' को उसी नामके सिंहली भिक्ष सारिपुत्त के शिष्य (१२ वीं शताब्दी का उत्तर भाग) न मानकर 'मोग्गल्लानपंचिकापदीप' के लेखक इन स्थविर राहुल को ही माना है, जिनकी भी उपाधि 'वाचिस्सर' (वागीश्वर) थी। डे जॉयसा के मतानुसार 'मोग्गल्लान-पञ्चिकापदीप' व्याकरण-शास्त्र पर एक अत्यंत गंभीर और पांडित्यपूर्ण रचना है । इममें भाषा संबंधी बहुत मूल्यवान् सामग्री संकलित की गई है । अनेक प्राचीन संस्कृत और पालि-व्याकरणों के भी उद्धरण दिये गये है। इसकी रचना-तिथि १४५७ ई० है । जैसा पहले कहा जा चुका है, आचार्य श्री धम्माराम नायक महाथेर ने १८९६ ई० में सिंहली लिपि में इस ग्रन्थ का सम्पादन किया, जो विद्यालंकार परिवेण, लंका, से उसी साल प्रकाशित भी हुआ। (४) धातुपाठ५--मोग्गल्लान-व्याकरण के अनुसार धातुओं की सूची है। कच्चानव्याकरण की 'धातु-मंजूसा' की अपेक्षा यह ग्रन्थ अधिक संक्षिप्त है। उसकी तरह पद्यवद्ध न होकर यह गद्य में है। संभवतः काल-क्रम में यह उससे प्राचीन है, क्योंकि 'धातु-मंजूसा' में इसी का आश्रय लिया गया है । धातुपाठ के रचयिता के नाम या काल के विषय में अभी कुछ ज्ञात नही हो सका है। सदनीति और उसका उपकारी साहित्य पालि-व्याकरण का तीसरा प्रमुख सम्प्रदाय 'सद्दनीति' का है। यह बरमा में रचित पालि व्याकरण है । बरमा में भी सिंहल की ही तरह पालि व्याकरण १. पृष्ठ ६२, ७१ । २. पालि लिटरेचर एंड लेंग्वेज, पृष्ठ ५३।। ३. केटेलाग, पृष्ठ २४, मिलाइये सुभूति : नाममाला, पृष्ठ ३४ । ४. गायगर : पालि लिटरेचर एंड लेंग्वेज, पृष्ठ ५४ । ५. देखिये भिक्षु जगदीश काश्यप : पालि महाव्याकरण, पृष्ठ ३६७-४१२ (मोग्ग ल्लान-धातुपाठो) ६. गायगर : पालि लिटरेचर एंड लेंग्वेज, पष्ठ ५६ । ७. हेमर स्मिथ ने तीन भागों में इस ग्रन्थ का सम्पादन किया है, देखिये गायगर : पालि लिटरेचर एंड लेंग्वेज, पृष्ठ ५४, पद-संकेत ६; लाहा : हिस्ट्री ऑव पालि लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ ६३६, पद-संकेत १ । Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के अध्ययन की महती परम्परा चली, जिसके पूर्ण विकास को हम ‘सद्दनीति' में देखते हैं। कहा जाता है कि बरमा के व्याकरण-ज्ञान की प्रशंसा जब सिंहल में पहुंची तो वहाँ से कुछ भिक्षु बरमा में आये और सद्दनीति-व्याकरण को देख कर उन्हें स्वीकार करना पड़ा कि निश्चय ही इसके समान विद्वत्तापूर्ण रचना उनके यहाँ कोई नहीं है।' इसकी रचना ११५४ ई० में हुई। इसके रचयिता बरमी भिक्षु अग्गवंस थे जो 'अग्गपंडित तृतीय' भी कहलाते थे। 'अग्ग पंडित द्वितीय' उनके चाचा थे, जो 'अग्ग पंडित प्रथम' के शिष्य थे। अग्गवंस बरमी राजा नरपतिसिथु (११६७-१२०२) के गुरु थे। अग्गवंस-कृत 'सद्दीति' एक प्रकार से कच्चान-व्याकरण पर ही आधारित है।२ मोग्गल्लान-व्याकरण तो सम्भवतः उसके बाद की ही रचना है। संस्कृत व्याकरणों का भी अग्गवंस ने प्रर्याप्त आश्रय लिया है । उन्होंने अपने ग्रन्थ के अन्त में स्वयं कहा है कि पूर्व आचार्यों (आचरिया) और त्रिपिटक-साहित्य से आश्रम लेकर उन्होंने 'सदनीति' की रचना की है । निश्चय ही 'सद्दनीति' एक पांडित्यपूर्ण व्याकरण है। इस ग्रन्थ में सनाईम अध्याय है । प्रथम १८ अध्याय 'महा मद्दनीति' और शेष ९ अध्याय 'चूल सद्दनीति' कहलाते हैं । 'पद-माला' 'धातुमाला' और 'सुन-माला' इन ३ भागों में सम्पूर्ण सद्दनीति-व्याकरण विभक्त है। ____ 'धात्वत्थ दीपनी' नाम की पद्यबद्ध धातु-सूची में सद्दनीति-व्याकरण के अनुसार धातुओं का संकलन किया गया है । कच्चान-व्याकरण की धातुसूची 'धातुमंजूसा' और मोग्गल्लान-व्याकरण को धातुसूची 'धातुपाठ' के समान इसमें भी पाणिनीय धातुपाठ का पर्याप्त आधार लिया गया है । यह हिंगुलवल जिनरतन नामक बर्मी भिक्षु की रचना बताई जाती है, जिनके काल का ठीक पता नहीं है। इसके अतिरिक्त 'सद्दनीति' पर और कोई निशेष साहित्य नहीं है । बरमा में यह ग्रन्थ आज भी शास्त्र की तरह पूजित है । अन्य पालि-व्याकरण उपर्युक्त तीन सम्प्रदायों के व्याकरण-साहित्य के अतिरिक्त अन्य भी बहुत व्याकरण-माहित्य उपलब्ध है, जो यद्यपि इनमें से किसी विशिष्ट सम्प्रदाय में नहीं १. मोबिल बोड : पालि लिटरेचर ऑव बरमा, पृष्ठ १६ । २. यह फ्रेक का मत है जिसे गायगर ने पालि लिटरेचर एंड लेंग्वेज, पृष्ठ ५५ में उद्धृत किया है। Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६१२ ) रक्खा जा सकता, किन्तु जो पालि व्याकरण के पूर्ण शास्त्रीय अध्ययन की दृष्टि मे महत्वपूर्ण है। यह साहित्य भी परिमाण में इतना अधिक है कि इसकी पूरी सुची तो आचार्य सुभूतिकृत 'नाममाला' या डेज़ॉयसां के केटेलांग' में ही देखी जा सकती है । यहाँ हम केवल कुछ महत्वपूर्ण ग्रन्थों का ही उल्लेख करेंगे। (१) बरमी भिक्षु सामगेर धम्मदस्सी-कृत वच्चवाचक' । चौदहवीं गताब्दी के अन्तिम भाग की रचना है। इसकी टीका १७६८ ई० में बरमी भिक्षु सद्धम्म-नन्दी ने की। (२) मंगलकृत 'गन्धट्टि', जिसका विषय उपसर्गों का विवेचन करना है । यह चौदहवीं शताब्दी की रचना है। (३) अरियवंस-कृत 'गन्धाभरण'। यह भी उपसर्गों का विवेचनपरक ग्रन्थ है । इसकी रचना १४३६ ई० में हुई।३ (४) विमत्त्यत्थप्पकरण--२७ श्लोकों की यह पुस्तिका विभक्तियों के प्रयोगों का विवेचन करती है । सुभूति के मतानुसार इसकी रचना बग्मी राजा क्यच्वा की पुत्री ने १४८१ ई० में की। इस पर बाद में 'विमत्त्यत्थ-टीका' या 'विमत्त्यत्थदीपनी' के नाम से एक टोका लिखी गई । सम्भवतः ये दो अलग अलग टोकाएँ भी हों। एक और टीका 'विभत्तिकथावण्णना' के नाम से भी इस रचना पर लिखी गई। (५) 'संवण्णनानयदीपना'--इस ग्रन्थ की रचना जम्बुधज (जम्बुध्वज) के द्वारा १६५१ ई० में की गई । इसी लेखक के दो अन्य ग्रन्य 'निरुति मंगह' और 'सर्वज्ञन्यायदीपनी' भी प्रसिद्ध है।५ . (६) सद्दवृत्ति (शब्दवृत्ति) जिसकी रचना चौदहवीं शताब्दी के सद्धम्म १. मोबिल बोड : पालि लिटरेचर ऑव बरमा, पृष्ठ २२ । २. मोबिल बोड : पालि लिटरेचर ऑव बरमा, पृष्ठ २६ । ३. मोबिल बोड : पालि लिटरेचर ऑव बरमा, पृष्ठ ४३ । ४. देखिये गायगर : पालि लिटरेचर ऐंड लेंग्वेज, पृष्ठ ५७ । ५. मोबिल बोड : पालि लिटरेचर ऑव बरमा, पृष्ठ ५५ । Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६१३ ) गुरु नामक बरमी भिक्षु ने की' । डे जॉयसा ने इस ग्रन्थ का रचना-काल १६५६ ई० माना है। (७) कारकपुप्फ मंजरी--पालि शब्द-योजना पर लिखित यह रचना केंडी (लंका) के अंतरगमवंडार राजगुरु नामक लेखक की है। वहाँ के राजा कीर्ति श्री राजसिंह के शासन काल (१७४७-८०) में यह रचना लिखी गई। 3 (८) सुधीरमुखमंडन---यह रचना पालि-समास पर है। इमके भी लेखक 'कारकपूप्फमंजरी' के समान ही है। (९) नयलक्खणविभावनी--बरमी भिक्षु विचित्ताचार (विचित्राचार) ने १८वीं शताब्दी के उत्तर भाग में इस ग्रन्थ की रचना की।" (१०-१२) सद्दबिन्दु (नारदथेर), सद्दकलिका, सद्दविनिच्छय आदि अनेक ग्रन्थ पालि-व्याकरण पर लिखे गये है, जिनका पूरा विवरण यहाँ नहीं दिया जा सकता। लंका और बरमा में छठी या सातवीं शताब्दी से लेकर ठोक उन्नीसवीं शताब्दी तक पालि-व्याकरण सम्बन्धी जो गहरी तत्परता और उसके परिणामस्वरूप उत्पन्न महान् ग्रन्थ-राशि हम देखते हैं, जिसका किंचित् दिग्दर्शन ऊपर किया जा सका है, उसका वास्तविक महत्त्वाकंन क्या है ? निश्चय ही पालि-व्याकरण का अध्ययन इन देशों में उस समय किया गया जब पालि जीवित भाषा नहीं रही थी। अतः पिटक और अनुपिटक साहित्य एवं संस्कृत-व्याकरण, यही इनके प्रधान आधार रहे । स्वभावतः हो उनमें वह भाषावैज्ञानिक तत्त्व नहीं मिल सकता, जो आधुनिक भाषा-विज्ञान के विद्यार्थी को तृप्त कर सके । किन्तु 'न्यास', 'रूप-काश्यप सिद्धि', 'सदनीति' और 'वालावतार' जैसे व्याकरण पांडित्य की दृष्टि से किसी भी साहित्य के व्याकरणों से टक्कर ले सकते हैं। निश्चिय ही जैसा भिक्षु जगदीश काश्यप ने कहा है, मोग्गल्लान की गिनती पाणिनि, चान्द्र, कात्यायन आदि महान् १. मोबिल बोड : पालि लिटरेचर ऑव बरमा, पृष्ठ २९ । २. केटेलाग, पृष्ठ २७ । ३. जॉयसा : केटे लोग, पृष्ठ २४ । ४. जॉयसा : केटेलाग, पृष्ठ २८ । ५. जॉयसा : केटेलाग, पृष्ठ २५; देखिये गायगर : पालि लिटरेचर ऐंड लेंग्वेज, पृष्ठ ५८ भी। Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६१४ ) वैय्याकरणों में करनी होगी।' भारतीय मूल स्रोत से इतने अलग रह कर भी इन बरमी और सिंहली आचार्यों ने संस्कृत के समकालिक पालि-भाषा का कितना मुन्दर और मनोयोगपूर्वक अध्ययन किया है, इसे देख कर आश्चर्यान्वित रह जाना पड़ता है । सांस्कृतिक एकता की इससे अधिक गहरी बुनियाद कभी डाली गई हो, इसका इतिहास साक्ष्य नहीं देता। यह एकता राजाओं के दरबारों में न डाली जाकर भिक्षु-परिवेणों में डाली गई। इसीलिये वह इतनी स्थायी भी हुई है । एक ही ग्रन्थ (मोग्गल्लानपञ्चिका-पदीप) का अंशतः पालि और अंशतः सिंहली में लिखा जाना, भारत और सिंहल के उस गौरवमय सम्बन्ध का सूचक है, जिसकी नींव बौद्ध धर्म ने डाली थी और जिसे उसके साहित्य ने दृढ़ किया है। भारत और स्वयं मध्य-मंडल (शास्ता की विचरण-भूमि ! ) में ही पालि-अध्ययन के प्रति गहरी उदासीनता को देख कर इन दूरस्थित बौद्ध बन्धुओं के प्रति श्रद्धा से मस्तक झुक जाता है। कारण, इन्होंने ही धम्म की ज्योति को प्रकाशित रक्खा है, इन्होंने ही ज्ञान के दीपक को हम तक पहुंचाया है । उनका पालि-व्याकरण'सम्बन्धी प्रभूत कार्य तो इसका एक बाह्य साक्ष्य मात्र है । पालि कोश : अभिधानप्पदीपिका एवं एकक्खर कोस __ पालि-साहित्य में केवल दो प्रसिद्ध कोश हैं, मोग्गल्लान-कृत 'अभिधानप्पदीपिका' ३ और बरमी भिक्षु सद्धम्मकित्ति ( सद्धर्मकीर्ति )-कृत 'एकक्खर १. पालि महाव्याकरण, पृष्ठ पचास (वस्तुकथा) २. वस्तुतः हमसे अधिक पालि-भाषा और उसके व्याकरण का अध्ययन तो उन पाश्चात्य विद्वानों ने ही किया है जो बौद्ध धर्म से प्रभावित हए हैं। उनके इस संबंधी कार्य और उनकी व्याकरण-संबंधी रचनाओं के परिचय के लिए देखिये गायगर : पालि लिटरेचर ऐंड लेंग्वेज, पृष्ठ ५९-६०; लाहा : हिस्ट्री ऑव पालि लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ ६३८-६४०; लाहा ने पाश्चात्य विद्वानों के साय साथ, भारतीय विद्वानों के भी इस संबंधी कार्य का विवरण दिया है। बाद का प्रकाशन होने के कारण, खेद है, 'पालि महाव्याकरण' (भिक्षु जगदीश काश्यप कृत) का उल्लेख यहां नहीं किया जा सका। पालि व्याकरण साहित्य पर भिक्षु जी की यह हिन्दी को महत्त्वपूर्ण देन है । ३. सुभूति द्वारा सिंहली लिपि में संपादित, कोलम्बो १८८३; नागरी लिपि में Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोस' ।' 'अभिवानप्पदीपिका' ( अभिधानप्रदीपिका ) तीन भागों या कांडों में विभक्त है (१) सग्गकंड (स्वर्ग-कांड) जिसमें देवता. बुद्ध, शाक्यमुनि, देव-योनि, इन्द्र, निर्वाण आदि के पर्यायवाची शब्दों का संकलन है। (२) भूकंड (भू-काण्ड) जिसमें पृथ्वी आदि सम्बन्धी शब्दों के पर्यायवाची शब्दों का संकलन है। (३) सामञ्ज कण्ड (श्रामण्य-काण्ड) जिसमें प्रव्रज्या सम्बन्धी और सौन्दर्य, उत्तम जैसे शब्दों के पर्यायवाची गब्दों का संकलन है। वास्तव में यह कोश पर्यायवाची शब्दों का संकलन ही है। वरमा और सिंहल में इस ग्रन्थ का बड़ा आदर है । इस ग्रन्थ की रचना संस्कृत के अमरकोश के आधार पर हुई हैं,२ इसे प्रायः सभी विद्वान् आज स्वीकार करते है । जैसा अभी कहा जा चुका है, अभिधानप्पदीपिका मोग्गल्लान थेर की रचना है । यह स्थविर लंकानिवासी भिक्षु थे । अभिधानप्पदीपिका में इन्होंने कहा है कि लंकाधिपति परक्कम-भुज नामक भूपाल' के शासन-काल में इन्होंने इस ग्रन्थ की रचना की। वहीं इन्होंने अपना निवास स्थान 'महाजेतवन' नामक विहार बताया है जो आज पोलोनरुवा नामक नगर में स्थित है। जिस परक्कमभुज नामक भूपाल' के शासन-काल में मोग्गल्लान स्थविर ने 'अभिधानप्पदीपिका' की रचना की वह विद्वानों के निश्चित मतानुसार पराक्रमवाहु प्रथम ही है, जिसका शासन-काल ११५३-११८६ है और जिसके समय में पालि के टीकासाहिय की अद्भुत समृद्धि हुई । अतः मोग्गल्लान थेर का भी यही समय है । 'अभिधानप्पदीपिका' के लेखक मोग्गल्लान थेर को उमी नाम के और प्रायः उमी मुनि जिनविजय द्वारा संपादित, गुजरात पुरातत्व मन्दिर, अहमदाबाद सं० १९८० वि० । १. मुनि जिनविजय द्वारा संपादित उपर्युक्त 'अभिधानप्पदीपिका' के संस्करण ___ में ही एकक्खर कोस' भी सम्मिलित है, अभिधानप्पदीपिका पृष्ठ १५७-१७० । २. मललसेकर : दि पालि लिटरेचर ऑव सिलोन, पृष्ठ १८८-१८९ । ३. परक्कमभुजो नाम भूपालो गुणभूसणो । लंकायमासि तेजस्सीजयो केसरि विक्कमो । पृष्ठ १५६ (मुनि जिनविजय द्वारा संपादित नागरी-संस्करण) ४. महाजेतवनाख्यम्हि वहारे साधुसम्मते सरोगाम समूहम्हि वसता सन्तवुत्तिना ॥ सद्धम्मठितिकामेन मोग्गलानेन धीमता। थेरेन रचिता एसा अभिधानप्पदीपिका ॥ पृष्ठ १५६ (उपर्युक्त संस्करण) Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समय के वैयाकरण मोग्गल्लान से भिन्न समझना चाहिये । वैयाकरण मोग्गल्लान, जमा हम पहले देख चुके हैं , अनुराधपुर के थूपाराम नामक विहार में रहते थे, जब कि कोगकार मोग्गल्लान ने अपना निवास स्थान पुलत्थिपुर या पोलोन्नरुवा का जेतवन-विहार बतलाया है। 'गन्धवंस' में कोशकार मोग्गल्लान को 'नव मोग्गलान' कहा गया है और वह निश्चयतः वैयाकरण मोग्गल्लान से उनकी भिन्नता दिखाने के लिये ही । चौदहवीं शताब्दी के मध्य भाग में 'अभिधानप्पदीपिका' पर एक टीका भी लिखी गई। 'एकक्खरकोस' बरमी भिक्ष सद्धम्मकित्ति (सद्धर्मकीनि) की रचना है । १४६५ ई० में इस कोश की रचना की गई। यह कोश एकाक्षगत्मक शब्दों की पद्यबद्ध सूची है। संस्कृत भाषा के एकाक्षरी कोश का का यह पालि रूपान्तर मात्र ही कहा जा सकता है । इसके अन्त में आता है-- इति मद्धम्मकित्ति नाम महाथेरेन सक्कतभासातो परिवत्तेत्वा विरचितं एकक्खरकोम नाम सद्दप्पकरणं परिसमत्तं” (सद्धर्मकीति नामक महास्थविर द्वारा संस्कृत भाषा से रूपान्तरित कर के विरचित 'एकाक्षरकोश' नामक शब्द-प्रकरण ममाप्त )। छन्दः शास्त्रः वुत्तोदय आदि पालि में छन्दः शास्त्र पर 'वृत्तोदय' (वुत्तोदय) नामक एक मात्र प्रसिद्ध ग्रन्थ है। 'छन्दोविचित' 'कविमारपकरण' 'कविसार टीका निस्सय' नामक अल्प प्रसिद्धि के एक-आध ग्रन्थ और भी है। 'वुत्तोदय' की रचना, सिंहली भिक्षु सारिपुत्त के गिप्य, खुद्दक मिक्खा-टीका और कच्चान-व्याकरण पर 'सम्बन्ध-चिन्ता' के लेखक (जिनका निर्देश पहले हो चुका है) स्थविर मंघरक्खित हैं, जिनका काल १२वी शताब्दी का उत्तर भाग है। 'वुत्तोदय' पर 'वचनत्थजोतिका' नाम की एक टीका भी लिखी गई। काव्य-शास्त्र-सुबोधालङ्कार पालि काव्य-शास्त्र पर 'सुबोधालंकार' एक मात्र रचना है। इसके रचयिता उपर्युक्त स्थविर संघरक्खित ही है । पालि का अभिलेख-साहित्य पालि का सब मे बड़ा गौरव बुद्ध-वचनों के बाद उसका अभिलेख-साहित्य १. पृष्ठ ६२ । Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६१७ ) है । भारतीय साहित्य और इतिहास की ही नहीं, विश्व-संस्कृति के इतिहास की भी वह मूल्यवान् सम्पत्ति है। मात्रा में स्वाभाविक रूप से अल्प होते हुए भी यह साहित्य अपनी उदात्त और गम्भीर वाणी, स्वाभाविक और सरल शैली, एवं जीवन के गम्भीरतम पहलुओं और अनुभवों पर निष्ठित होने के कारण उसी महत्ता को लिये हुए है, जिसे हम उपनिषत्कालीन ऋषियों की वाणी, बुद्ध-वचनों, मध्यकालीन सन्नों के उद्गारों या आधुनिक काल में महात्मा गाँधी की सहज, आत्म-निःसृत वाणी से सम्बन्धित करते है । पालि का अभिलेख-साहित्य ई० पू० तीसरी शताब्दी मे पन्द्रहवीं शताब्दी ईसवी तक मिलता है । अशोक के शिलालेख उसकी उपरली काल-सीमा और बरमा के राजा धम्मचेति के प्रसिद्ध कल्याणीअभिलेख उसकी निचली काल-सीमा निश्चित करते हैं। इन काल-कोटियों से वेष्टित प्रसिद्ध पालि अभिलेख-साहित्य यह है, अशोक के शिलालेख, साँची और भारत के अभिलेख सारनाथ के कनिष्क कालीन अभिलेख, मौंगन (बरमा) के दो म्पर्णपत्र-लेख, बोबोगी पेगोडा (बरमा) के खंडित शिलालेख, प्रोम (बरमा) के बीस स्वर्णपत्र-लेख, पेगन के १४४२ ई० के अभिलेख, कल्याणी-अभिलेख । इनमें अशोक के शिलालेख सब के सिरमौर है और काल-क्रम में भी वे सर्व प्रथम आते हैं। अशोक के शिलालेख अशोक के शिलालेख उत्तर में हिमालय से दक्षिण में मैसूर तक और पूर्व में उड़ीसा में पच्छिम में काठियावाड़ तक पहाड़ी चट्टानों और पत्थर के विशाल स्तम्भों पर उत्कीर्ण मिलते है। इन शिलालेखों का प्रधानतः तीन दृष्टियों से बड़ा महत्त्व है । (१) इन शिलालेखों में अशोक ने अपने शब्दों में अपनी जीवनी का वर्णन किया है । जीवनी किमी स्थूल अर्थ में नहीं । अशोक ने यहाँ अपने आन्तरिक जीवन के परिवर्तन का, अहिंसा के अपने प्रयोगों का, जीवन के अपने गम्भीरतम अनुभवों का. मादी से मादी भाषा में. बड़ी स्पष्टता और मच्चाई के साथ, वर्णन किया है । (२) अशोक-कालीन इतिहास को जानने के लिये ये शिलालेख प्रकागगृह है । पालि-साहित्य के अन्य वर्णनों की अपेक्षा इन शिलालेखों का साक्ष्य इतिहास-लेखको को मदा अधिक मान्य रहा है। निश्चय ही ये शिलालेख स्वतः प्रमाण-सिद्ध हैं और इन्ही के आधार पर अशोककालीन इतिहास का निर्माण किया गया है । (३) अशोक के शिलालेखों से पालि भाषा के स्वरूप और उसके Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६१८ ) साहित्य के विकास पर भी काफी प्रकाश पड़ता है । हमारे प्रस्तुत अध्ययन के प्रसंग में उनका यह महत्व हमारे लिये सब से अधिक मूल्यवान है। पहले हम अशोक के शिलालेखों का संक्षिप्त विवरण देंगे, फिर उपर्युक्त तीनों दृष्टियों से उनके महत्त्व का विवेचन करेंगे। उनका वर्गीकरण काल-क्रम के अनुमार विसेन्ट स्मिथ ने अशोक के शिलालेखों को निम्नलिखित आठ भागों में विभक्त किया है।' (१) लघ गिलालेख--ये सात शिलालेख है, जो सहसराम, रूपनाथ, वैराट, ब्रह्मगिरि, सिद्धपुर, जतिंग रामेश्वर और मास्की नामक स्थानों में मिले है । महसराम विहार में है; रूपनाथ जबलपुर के समीप मध्य-प्रान्त में है; वैगट जयपुर रियासत में है; ब्रह्मगिरि, सिद्धपुर और जतिंग रामेश्वर मैसूर रियासत में है, और मास्की हैदराबाद राज्य में है। (२) भाब्रू शिलालेख-जयपुर रियासत में बैगट के पास मिला था। (३) चतुर्दश शिलालेख (ई० पू० २५६ के लगभग)--ये लेख पहाड़ों की चट्टानों पर खुदे हुए इन स्थानों पर मिले है, शहवाजगढ़ी और मनमेहर (पेगावर जिले में), कालमी (देहरादून जिले में), गिरनार (काठियावाड़ में), धौली (कटक के पास) और जौगढ़ (मद्रास-प्रान्त) (४) दो कलिंग लेख (ई० पू० २५६)---लिंग में पत्थर की चट्टानों पर खुदे मिले है। (५) तीन गुफा-लेख (ई० पू० २५७ और ई० पू० २५०)--गया के पास बागबर नाम की पहाड़ी में मिले हैं। (६) दो तराई स्तम्भ-लेख (ई० पू० २४९)---नेपाल की तराई में झम्मनदेई और निग्लिवा नामक गाँवों के पास मिले है। (७) सप्न स्तम्भ-लेख (ई० पू० २४३-२४२)---ये लेख स्तम्भों पर खुदे हुए इन छ: स्थानों पर मिले हैं (१) मेग्ठ (२) अम्बाला के पास टोपग । ये दोनों लेख दिल्ली में ले आये गये हे । (३) प्रयाग (के किले का स्तम्भ-लेख) १. ऑक्सफर्ड हिस्ट्री ऑव इंडिया, पृष्ठ १०३-१०४ । Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) लौरिया अरराज, (५) लौरिया नन्दनगढ़ (६) रामपुरवा । अन्तिम तीन स्थान विहार के चम्पारन जिले में हैं। (८) चार गौण स्तम्भ (ई० पू० २४२-ई० पू० २३२)--इनमें से दो लेख साँची और सारनाथ की लाटों पर खुदे हुए है और दो प्रयाग के स्तम्भ पर पीछे मे जोड़ दिये गये हैं। __ अशोक का व्यक्तित्व, उसका राजनीति-दर्शन और तत्कालीन भारत की परिस्थिति, इन लेखों से स्पष्टतः व्यंजित होते है । सब से पहले अशोक की बुद्धभक्ति है, जिसने अशोक को अशोक बनाया। अशोक का विश्व इतिहास में जो कुछ भी स्थान है' या अपने राजनीति-दर्शन के रूप में अशोक जो कुछ भी विश्व को दे गया है, वह सब बुद्ध का एक छोटा सा दान है । उससे अधिक भी बहुतों ने पाया है, यद्यपि इतिहास में उनका नाम नहीं है । अशोक ने वुद्ध मे जो कुछ पाया, उसे वह स्वयं भी ज्ञानपूर्वक समझता था । भीषण कलिंग-युद्ध के बाद उसके हृदय में जो ग्लानि पैदा हुई थी, उसका उसने अपने तेरहवें शिलालेख में मार्मिक वर्णन किया है । यह उसके लिये एक युगान्तकारी घटना थी। इसके बाद उसने निश्चय किया कि संसार में क्षेम, संयम, चिन-शान्ति और प्रसन्नता की ही वृद्धि करूँगा, शान्ति, मद्भाव और अहिंसा का ही प्रचार करूंगा । यही सर्वोनम विजय होगी। रणभेरी को छोड़कर उसने धर्म-घोप मे ही दिगाओं को गुंजायमान करने का निश्चय किया। यही उसका 'प्रियदर्शी' रूप था। अशोक पहले नर-हत्यारा था, चंडाशोक था । वुद्ध-अनुभाव से वह देवताओं और मनुष्यों का प्यारा हुआ, धर्माशोक हुआ । अशोक के इस जीवन-परिवर्तन में कहाँ तक बौद्ध प्रभाव उत्तरदायी था अथवा कहाँ तक यह उसके स्वतंत्र विचार और चिन्तन का परिणाम था, इसके विषय में विवाद करने की गुंजायश नहीं है । विसेन्ट स्मिथ का यह कहना कि अशोक अपने धर्म-परिवर्तन का श्रेय किमी दूसरे को नहीं देना चाहता था,२ ?. "Amidst the tens and thousands of names of monarchs that crowd the columns of History......the name of Asoka shines, and shines almost alone a star'' एस० जी वेल्स अपनी 'आउट लाइन ऑव हिस्ट्री' में।। २. स्मिथ ने इस बात पर जोर दिया है कि अशोक ने जिस धर्म का अपने शिला लेखों में उपदेश दिया है वह तो संपूर्ण भारतीय धर्मों का वह समन्वित रूप Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठोक नहीं है । इसमें सन्देह नहीं कि पुरुषार्थ तो मनुष्य को स्वयं ही करना होता है और पर्याप्त हृदय-मंथन के बाद उपयुक्त चित्त-भूमि भी उसे ही तैयार करनी होती है। यह सब अशोक ने भी किया था। कलिंग-युद्ध के बाद उसके हृदय में धार्मिक पवित्रता और शान्ति के लिये उत्कट अभिलाषा (तिव्र धम्मवय धम्मकसट) उत्पन्न हुई थी। परन्तु कौन जानता है कि इतना होने पर भी अशोक को यदि स्थविर (या श्रामणेर) न्यग्रोध न मिलते तो 'बिखरे हुए बादल की तरह, वह विनष्ट नहीं हो जाता । अतः अशोक को बुद्ध-शासन का प्रकाश अवश्य मिला था, जिसके लिये उसने अपने शिलालेखों में पर्याप्त कृतज्ञता भी प्रकाशित की है। भाव गिलालेख में उमने मगध के भिक्षु-संघ का श्रद्धापूर्वक अभिवादन किया है, उनके कुशल-मंगल की कामना की है और कहा है, "भन्ते ! आपको मालूम ही है कि बुद्ध, धर्म और संघ के प्रति मेरे हृदय में कितना आदर और श्रद्धा है । भन्ते ! भगवान् बुद्ध ने जो कुछ कहा है, सब सुन्दर ही कहा है ।" कलिंग-युद्ध अशोक के राज्याभिषेक के आठवें वर्ष में हुआ था, और उसके बाद ही उसने न्यग्रोध नामक भिक्षु मे उपासकत्व की दीक्षा ली थी। उसके बाद ही तो अशोक नियमित रूप से बौद्ध गृहस्थ-गिष्य (उपासक) हो गया। अपने 'धर्म तथा शील में प्रतिष्ठित (धम्मम्हिसीलम्हि तिट्ठन्तो) होने की बात अशोक ने अपने छठे शिलालेख में भी कही था जिसे अशोक ने अपने स्वतन्त्र विचार के परिणामस्वरूप उद्भावित किया था और उसका बुद्ध-धर्म से, जैसाकि वह त्रिपिटक के अनेक ग्रन्थों में निहित है, कोई संबंध नहीं है । देखिये उनका अशोक : पृष्ठ ५९-६६ । १. जिस व्यक्ति से अशोक को बुद्ध-मत की दीक्षा मिली, उनका नाम स्थविर वाद परम्परा के अनुसार न्यग्रोध था। 'दीपवंस' के वर्णन के अनुसार न्यग्रोध स्थविर थे; 'समन्त पासादिका' में उन्हें स्थविर और श्रामणेर दोनों ही कहा गया है। महावंश (५।६४-६८) के अनुसार वे केवल श्रामणेर थे। चाहे स्थविर हों, चाहे श्रामणेर, भिक्षु न्यग्रोध एक कुशल योगी अवश्य थे, जिन्होंने अपने व्यक्तित्व से अशोक को आकृष्ट कर लिया। 'दिव्यावदान' की महायानी परम्परा में अशोक के गुरु का नाम स्थविर समुद्र कहा गया है, जो उतना प्रामाणिक नहीं है। २. यद्यपि पालि-वृत्तान्त के अनुसार अभिषेक के चौथे वर्ष अशोक ने बुद्ध-मत की दीक्षा ली (चतुत्थे संवच्छरे बुद्ध-सासने पसीदि) Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६२१ ) है। मैसूर के तोन लव शिलालेखों में अशोक ने अपने उपासक-जीवन का वर्णन किया है। यहाँ उसके उपासक स्वरूप की दो अवस्थाएँ उपलक्षित होती है। पहली अवस्था वह है जिसमें अशोक एक साधारण उपासक मात्र है। ‘य हकं उपासके' अर्थात् जब कि म उपासक था । दूसरी अवस्था वह है जिसमें अशोक संघ में जाने वाला (संघ उपयिते) उपासक बन गया है । अपनी इम अवस्था को सूचित करते हुए उसने कहा है 'यं मया संवे उपथिते' अर्थात् जब कि मैं संघ के दर्शनार्थ जाता था । अशोक के धर्म-विकाम को अन्तिम अवस्था वह है जब कि वह 'भिक्वगतिक' हो जाता है, अर्थात् स्वयं भिक्षु तो नहीं होता, किन्तु अनासक्त भाव में राज्यकार्य करता हुआ वह कभी कभी सत्संग पाने के लिये विहार में जाकर भिक्षुओं के साथ रहने लगता है। यहाँ अशोक पूर्ण गजपि-पद प्राप्त कर लेता है। चीनी यात्री इ-चिंग ने, जो सातवी गताब्दी में भारत में आया था, अशोक की एक मूर्ति भिक्षु-वेश में भी देखी थी। किन्तु यह सन्दिग्ध है कि अशोक अपने अन्तिम जीवन में भिक्षु हो गया था। कुछ भी हो, इसमें सन्देह नही कि बुद्ध, धम्म और संघ में अशोक की असीम निष्ठा थी। अपने राज्याभिषेक के इक्कीसवें वर्ष वह भगवान् बुद्धदेव की जन्मभूमि लुम्बिनीवन में गया और वहाँ एक मुन्दर, गोलाकार स्तम्भ पर उसने अकिंत करवाया " हिद बुधे जाते मक्यमुनीति . . . . . .हिद भगवा जातेति लुम्मिनिगामे' अर्थात् यहीं लुम्बिनी-ग्राम में शाक्यमुनि बुद्ध उत्पन्न हुए थे, यहीं भगवान् उत्पन्न हुए थे । अशोक की बुद्ध-निष्ठा का यह ज्वलन्त उदाहरण है। उसने कपिलवस्तु, सारनाथ, श्रावस्ती, गया आदि अन्य स्थानों की भी, जो बुद्ध की स्मृति में अंकित थे, यात्रा की और अपनी श्रद्धाञ्जलि अर्पित की। पहले अशोक की पाकशाला में हजारों जीव प्रतिदिन मारे जाया करते थे। २ अपने प्रथम शिलालेख में उसने सूचना दी है कि इस समय सिर्फ दो मोर और एक हिरन ही मारे जाते हैं, जिनमें हिग्न का माग जाना निश्चित नहीं है और आगे १. देखिये राधाकुमुद मुकर्जी : मैन एंड थॉट इन एन्शियन्ट इंडिया, पृष्ठ १३० । २. पुलुवं महानसि देवानं पियस पियदसिने लाजिने अनुदिवसं बहूनि पान सत सहसानि आलभियिसु सुपठाये (पहले देवताओं के प्रिय प्रियदर्शी राजा की पाकशाला में अनेक शत-सहस्र प्राणी सूप के लिए मारे जाते थे) शिलालेख १ (जौगढ़) . Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६२२ ) ये तीन प्राणी भी नहीं मारे जायँगे ।' मृगया और विहार-यात्राओं के स्थान पर उसने धर्म-यात्राएं करना प्रारम्भ किया, क्योंकि अब उसे जीवन की गम्भीरता का ज्ञान हो चुका था। उसने देख लिया था कि संसार के सुख-भोग , प्रतिष्ठा और बड़प्पन, परलोक में कुछ काम नहीं आते । अशोक यद्यपि वौद्ध था, किन्तु सम्प्रदायवाद उसके हृदय में नहीं था । विश्व का होने के लिये ही वह बुद्ध का हुआ था । ब्राह्मण और जैन साधुओं को भी वह बौद्धों के समान ही दान देता था और उनके तीर्य स्थानों के भी समान आदर के साथ ही दर्शन करता था। अपने बारहवें शिलालेख में अशोक ने धार्मिक सहिष्णुता का मर्मस्पर्शी उपदेश दिया है। उसका कहना है कि मची धर्मोन्नति का मूल वाक्संयम है (इदं मलं वचि गुति)। मनुष्य अपने धर्म की स्तुति और दूसरे के धर्म की निन्दा न करे । जो अपने सम्प्रदाय की भक्ति के कारण अपने ही धर्म वालों की प्रशंसा करताहै और अन्य धर्मानुयायियों की निन्दा करता है वह वास्तव में अपने सम्प्रदाय को बहुत हानि पहुंचाता है। वह इस प्रकार अपने धर्म को क्षीण करता है और पर-धर्म का अपकार करता है। लोग एक दूसरे के धर्म को मुनें और उसका सेवन करें। सब धर्म वाले बहुश्रुत हों और उनका ज्ञान कल्याणमय हो । “प्रियदर्शी राजा चाहता है कि सब धर्म वाले सर्वत्र मेल-मिलाप मे रहें । वे सभी संयम और भाव-शुद्धि चाहते हैं। मन्प्यों के ऊँच-नीच विचार और ऊंच-नीच अनुराग होते है । कोई अपने धर्म का पूरी तरह और कोई अंगमात्र पालन करेंगे। जिसके यहाँ देने को बहुत दान नहीं है, उसमें भी संयम, भाव-शुद्धि, कृतज्ञता और दृढ़ भक्ति तो अवश्य हो ही सकते हैं।"४ मर्वधर्म-ममभाव का इससे अधिक प्रभावशाली उपदेश विश्व-इतिहास में नहीं दिया गया। अशोक ने भारत और उसके बाहर ग्रीम आदि देशों में इस विश्वधर्म का प्रचार करने के लिय जो महनीय कार्य किया वह उसके दूसरे और तेरहवें १. सेअज अदा इयं धमलिपी लिखिता तिनियेव पानानि आलभियंति--दुबे मजलाएके मिगे। से पि चु मिगे नो धुवं । एतानि पिचु तिनि पानानि पछा नो आलभियिसंति । शिलालेख १ (जौगढ़) २. शिलालेख ८ ३. शिलालेख १० ४. शिलालेख १२ Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६२३ ) शिलालेखों में अंकित है और दूसरे अध्याय में तृतीय बौद्ध संगीति का वर्णन करते समय हम उसका कुछ उल्लेख कर चुके हैं। अशोक ने बुद्ध-धर्म को जैसा समझा और जैसा उसका आचरण किया, वह कुछ प्रवजितों का ही धर्म नही था, बल्कि जीवन की पवित्रता पर आश्रित वह विस्तृत लोक-धर्म था, जिसका आचरण जोवन की प्रत्येक अवस्था में और प्रत्येक व्यक्ति द्वारा किया जा सकता है । अहिंसा, बड़ों का आदर, सत्य-भाषण, इन बातों को मिखाते हुए प्रियदर्शी राजा कभी थकता नही । माता-पिता की सेवा करना, मित्र, परिचित, सम्बन्धी, ब्राह्मण और श्रमणों का आदर करना, दास और भृत्यों के साथ सद्व्यवहार करना, यही सब अशोक की शिक्षाएँ थी। अल्पव्ययता और अल्पभाण्डता (कम सामान इकट्ठा करना) की उसने बड़ी प्रशंसा की है। आत्म-निरीक्षण को उसने धर्म का प्रमुख साधन माना है । बुद्ध के समान अशोक ने भी धर्म के आन्तरिक स्वरूप पर जोर दिया है । तत्कालीन लोकाचारों की एक सच्चे बुद्धिवादी के समान तुच्छता दिखाते हुए उसने कहा है-- "वीमारी में, निमंत्रण में, विवाह में, पुत्र-जन्म और यात्रा के प्रसंगों पर स्त्री-पुरुष वहुत मे मंगल-कार्य करते हैं, परन्तु से वे मंगल थोड़े फल के देने वाले होते है। किन्तु अहिंसा, दया, दान, गुरुजनों की पूजा इत्यादि धर्म के मंगल-कार्य अनन्तपूग्य उत्पन्न करते हैं।"४ अशोक ने धर्म-दान की बड़ी प्रशंसा की है। उसने कहा है कि सच्चा अनुष्ठान धर्म का अनुष्ठान है, सच्ची यात्रा धर्म की यात्रा है, सच्चा मंगलचार धर्म-मंगल है। वास्तव में धर्म (धम्म) शब्द को यहाँ अशोक ने बड़े व्यापक अर्थ में प्रयोग किया है। __अशोक की शामन-नीति को जानने के लिये उसके अभिलेख बड़े सहायक है। कोई भी शासक अपनी आज्ञाएँ शिलालेखों पर खुदवा सकता है। किन्तु अगोक के अभिलेखों जैमा स्थायित्व, उनकी इतनी विश्वजनीनता, इतनी मार्मिकता, इतनी गम्भीर मच्चाई, विश्व-साहित्य में अन्यत्र कहीं नही देखी गई। वे १, २. शिलालेख ३, ९ और ११ । ३. शिलालेख ३ । ४. शिलालेख ९ ५. देखिये शिलालेख ९ (गिरनार, धौली और जौगढ़ का पाठ); शिलालेख ११ भी; मिलाइये धप्मपद, 'सब्बदान' धम्मदानं जिनाति ।। Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६२८ ) एकदम इतिहास की सामग्री है, उच्चतम साहित्य है, और गम्भीरतम जीवनदर्शन भी हैं। उनके अन्दर 'प्रियदर्शी' की लोक-कल्याण के लिये छटपटाती हुई आत्मा अभी तक निःश्वास ले रही है और अतीत को जीवन प्रदान कर रही है । राजनीति जीवन से भिन्न नहीं है । बल्कि उसका ही एक अंग है। अशोक ने जो तत्त्व जीवन में देखा है, उसी का अपने राजनैतिक जीवन में अभ्यास किया है, उमी को अपनी प्रजाओं को सिखाया है और उसी को लेखों में अंकित करवाया है । क्या है वह तत्त्व ? यह वही तत्त्व है जिसे स्थविर न्यग्रोध ने उमे प्रथम बार सिखाया,' तयागत ने जिसे अन्तिम बार दुहगया,२ अशोक ने जिमे जीवन भर निभाया--कल्याणकारी कार्यों में अप्रमाद, अनवरत और अनासक्त कर्म-योग का अभ्यास । यही तथागत का वीर्यारम्भ है, अशोक के लेखवद्ध शब्दों में यही "उस्टान'3 (उत्थान) है, यही 'उयम'४ (उद्यम) है, यहीं 'उसह ५ (उत्माह) यही 'पकम' या 'परक्कम' (पराक्रम) है, जिसे सिखाते हुए 'पियदसी धम्मराजा' कभी थकता नहीं । निरालस होकर परोपकार के लिये अदम्य कर्मयोग का अभ्यास हो अशोक के जीवन का मूल दर्शन है, जिसे उसने राजनीति के क्षेत्र में भी प्रयुक्त किया है और उसे धर्म-साधना का अंग बना लिया है। अपने छ १. दीपवंस में कहा गया है कि न्यग्रोध ने अशोक को यह गाथा सुनाई "अप्रमाद अमृत-पद है। प्रमाद मृत्यु का पद है। अप्रमादी अनुष्य मृत्यु को प्राप्त नहीं होते, प्रमादी भनुष्य तो मृत ही है।" धम्मपद के द्वितीय वग्ग की यह प्रथम गाथा है। महावंस ५।६८ के अनुसार भी न्यग्रोध ने अशोक की यही गाथा सुनाई। २. तथागत के अंतिम शब्द ये थे 'अप्रमाद के साथ (जीवन के लक्ष्य को सम्पादन करो" (अप्पमादेन सम्पादेथ--महापरिनिब्बाण-सुत्त--दीघ. २॥३); मिलाइये महासकुलुदायि-सुत --मज्झिम. २॥३॥७---आनापानसति सुत्त मजिम. ३।२।८); अप्पमत्तक वग्ग (अंगुत्तर-निकाय, एक = क निपात) सम्मप्पधानसंयत्त (संयुत्त-निकाय); थपति-सुत्त ( संयुत्त-निकाय) (पधानिय-सुत्त ( अंगुतर निकाय ) आदि, आदि । ३. शिलालेख ६ ४. शिलालेख १३ ५. स्तम्भलेख १ ६. लघु शिलालेख ७. शिलालेख १० ८. इसी को व्यक्त करते हुए उसने अमर शब्दों में कहा है “नास्ति हि कंमतरं Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६२५ ) शिलालेख में उसने कहा है “मैंने यह प्रबन्ध किया है कि प्रत्येक समय, चाहे उस समय में खाता होऊँ, चाहे अन्तःपुर में रहूँ, चाहे शयनागार में रहें, चाहे उद्यान में रहूँ, सब जगह ही प्रतिवेदक (पेशकार) जनता के कार्य की सूचना मुझे दें । मैं जनता के कार्य सब जगह करूँगा । यदि मैं स्वयं आज्ञा दं कि अमुक कार्य किया जाय और महामात्रों में उसके विषय में कोई मतभेद उपस्थित हो अथवा मन्त्रिपरिषद् उसे स्वीकार न करे तो हर घड़ी और हर समय मुझे सूचना दी जाय क्योंकि मैं कितना ही परिश्रम करूँ और कितना ही राज्य-कार्य कहूँ, फिर भी मुझे पूर्ण सन्तोष नहीं होता । मैं जो कुछ प्रयत्न (पराक्रम) करता हूँ, वह इसलिये कि प्राणियों के प्रति जो मेरा ऋण है उससे उऋण हो जाऊँ और यहाँ कुछ लोगों को सुखी करूँ और परलोक में उन्हें स्वर्ग का अधिकारी बनाऊँ। अत्यधिक प्रयत्न (पराक्रम) के बिना यह कार्य कठिन है । जिस प्रकार मैं अपने पुत्रों का हित और सुख चाहता हूँ उसी प्रकार में लोक के ऐहिक और पारलौकिक हित और सुख की कामना करता हूँ।" इसी प्रकार अपने चौथे स्तम्भ-लेख में अशोक ने घोषणा की है "जिस प्रकार कोई मनुष्य अपनी सन्तान को निपुण दाई के हाथ सौंपकर निश्चिन्त हो जाता है और सोचता है कि यह धाय मेरे बालक को सुख देने की भरपूर चेष्टा करेगी उसी प्रकार प्रजा के हित और सुख के लिये मैंने ‘रज्जुक' नाम के कर्मचारी नियुक्त किये हैं।" इन वाणियों से अशोक के कार्य औरनीति का पता लगसकता है । अहिंसा के सिद्धान्त को वह व्यावहारिक राजनीति के साथ समन्वित करने की कितनी क्षमता रखता था यह उसके उस अभिलेख से स्पष्ट होता है जो उसने सतत उपद्रव करने की ओर प्रवणता रखने वाली उत्तरपच्छिमी सीमा की जंगली जातियों को सम्बोधित करते हुए उनके प्रदेश में अंकित करवाया था, “सीमान्त जातियाँ मुझ से भयभीत न हों, मुझ पर विश्वास रखें और मेरे द्वारा सुख प्राप्त करें, कभी दुःख न पावें और विश्वास रखें कि जहाँ तक क्षमा का व्यवहार हो सकता है। राजा हम लोगों के साथ क्षमा का व्यव सर्वलोकहितत्पा य च किं चि" (शिलालेख ६, गिरनार संस्करण), (नहीं है निश्चय ही सब लागों के हित से अधिक उपादेय काम) ४० Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६२६ ) हार करेंगे।"१ सम्राट अशोक और उनके उच्च कर्मचारी समय समय पर पर जनता के सम्पर्क में आने और उसके दर्शन करने के लिये (जानपदस जनस दमनं) राज्य का दौरा (अनुसयान) करते थे ।२ अशोक चाहता था कि कानून के भय से हो लोग सदाचार का आचरण न करें, बल्कि उनके आन्तरिक जीवन को इस प्रकार शिक्षित किया जाय जिसमे वे पाप की और प्रवण ही न हों। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिये उसने ‘महामात्र नामक उच्च कर्मचारी नियुक्त किये थे और उन्हें अनेक विशेषाधिकार भी दिये थे। इन कार्यों के अलावा अगोक ने अपने विशाल साम्राज्य में स्थान स्थान पर धर्मशालाएं वनवाई, मनुष्यों और पशुओं को आराम देने के लिये छायादार पेड़ लगवाये, आम्र-वाटिकाएँ वनवाई और पानी के कुंड बनवाये ।४ सब से बड़ा काम उसने औषधालय और चिकित्सालय खोलने का किया । अपने दूसरे शिलालेख में अशोक ने कहा है कि उसने रोगी मनुष्यों और पशुओं के लिये अलग अलग चिकित्सालय स्थापित किये है।" यह काम उसने न केवल अपने ही राज्य में किया है, बल्कि विदेशों में भी अपने धर्मोपदेशकों द्वारा करवाया है। जहाँ-जहाँ मनुष्यों और पशुओं के प्रयोग में आने वाली औषधियों और औषधोपयोगी कन्द-मूल फल नहीं है, वहाँ-वहाँ वे भिजवाये गये है और लगवाये गये है। कहने की आवश्यकता १. शिलालेख २ । २. शिलालेख ८ (गिरनार); शिलालेख १२ भी । ३. शिलालेख ५, स्तम्भ लेख ७; धर्म महामात्रों के क्या कर्तव्य थे, इसके लिए देखिये "अशोक की धर्मलिपियाँ" प्रथम भाग (काक्षी नागरी प्रचारिणी सभा) पृष्ठ ५१-५२ । ४. स्तम्भलेख ७ । ५. द्वे चिकीछा कता मनुस चिकीछा च पसुचिकीछा च । शिलालेख २ । ६. शिलालेख १३ एवं २ । ७. ओसुढानि च यानि मनसोपगानि च पसोपगानि च यत यत नास्ति सर्वत्र हारापितानि च रीपापितानि च । मूलानि च फलानि च यत नास्ति सर्वत्र हारापितानि रोपापितानि च । शिलालेख २ । Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६२७ ) नहीं कि यह काम अशोक ने जाति-धर्म-देश-निविशेष प्राणि-मात्र के कल्याणार्थ ही किया। उसी के द्वारा मानवता की दुन्दुभी विश्व में चारों ओर बजवाई गई। वौद्ध धर्म उसी समय से विश्व-धर्म बन गया। इस संक्षिप्त विवरण के बाद अव हमें उस महत्त्वपूर्ण साक्ष्य को देवना है जो अनोक के अभिलेख पालि-भापा के स्वरूप और उसके साहित्य के विकास के विषय में देते है। अशोक के अभिलेखोंमें तत्कालीन लोक-भापा (मागधी भाषा) के कितने म्वरूप दृष्टिगोचर होते हैं और उनका तथाकथित पालि-भाषा मे क्या सम्बन्ध है, इसका विस्तृत विवेचन हम पहले अध्याय में कर चुके है । निरनार (पच्छिम) जौगढ़ (पूर्व) और मनमेहर (उत्तर) के अभिलेखों की भापा का तुलनात्मक अध्ययन और अनेक विद्वानों के एतद्विपयक मतों की समीक्षा वहीं को जा चुकी है । अतः यहाँ हम केवल पालि साहित्य के विकास पर इन अभिलेखों से जो प्रकाश पड़ता है उसी का विवेचन करेंगे । इस दृष्टि से अशोक के भाव गिलालेख का अन्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है। विषय-गौरव की दृष्टि से भी यह लेख अत्यन्त महत्वपूर्ण है। अतः उसे यहाँ उद्धृत करना हो अधिक उपयुक्त होगा । ( भाव शिलालेख) पियदसि लाजा मागचं संघ अभिवादनं आहा, अपावाधतं च फासु विहालतं चा। विदितं वे भन्ते आवतके हमा बुधसि धम्मसि संघसिति गलवेच पसादे च एके चि भंते भगवता बुधेन भासिते सवे से मुभासिते वा एचु खो भंते हमियाये दिसेया मंच में चिलठितीके होसतोति अलहामि हकं तं वतवे । इमानि भंते धंम पलियायानि विनयममुकसे, अलिय वसानि, अनागतभयानि, मुनिगाथा, मोनेय सूते, उपतिमासिने ए च लाहुलोवादे मुसावादं अधिगिच्य भगवता बुधेन भासिते । एतान भंते धंमपलियायानि इच्छामि । किं ति बहुके भिखुपाये च भिखुनिये चा अभिखिनं सूनयु चा उपधालेयेयु चा । हेवं हेवा उपासका च उपासिका चा एतेनि भंते इमं लिखापयामि अभिहेतं म जानंताति । ( हिन्दी-अनुवाद ) प्रियदर्शी गजा मगध के संघ को अभिवादन करता है और उनका कुशलमंगल चाहता है । भन्ते ! आपको मालूम ही है कि बुद्ध, धर्म और संघ के Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६२८ ) प्रति मेरे हृदय में कितना आदर और श्रद्धा है । भन्ते ! भगवान् ने जो कुछ कहा है, सब सुन्दर ही कहा है। भन्ते ! जो कुछ मुझे कहना है, उसे कहता हूँ, ताकि सद्धर्म चिरस्थायी हो । भन्ते ! ये धम्म-पलियाय हैं---विनय-समुत्कर्ष, आर्यवंश, अनागतभय, मुनिगाथा, मोनेय्य-सूत्र, उपतिष्य प्रश्न, और राहुलोवाद-सूत्र, जिसमें भगवान् ने मृषावाद के विषय में उपदेश दिया है । भन्ते ! मैं चाहता हूँ कि सभी भिक्षु, भिक्षुणियां, उपासक तथा उपासिकाएं, इन्हें सदा सुनें और पालन करें। भन्ते ! इसीलिए मैं यह लेख लिखवा रहा हूँ, ऐसा समझे।" ___ उपर्य क्त अभिलेख में सबसे अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि यहाँ अशोक ने कुछ बुद्ध-वचनों (धम्म-पलियाय) के नाम लेकर भिक्षु-भिक्षुणियों और उपासक-उपासिकाओं सभी को उनका सतत स्वाध्याय करने की प्रेरणा की है। उसने बुद्ध-वचनों के कुछ ऐसे अंशों को चुना है जिनकी महत्ता सार्वजनीन है और जिनमें सदाचार के उस रूप की प्रतिष्ठा की गई है जिसका आचरण स्त्री-पुरुष सभी कर सकते हैं । जिन सात धम्म-परियायों या धम्म पलियायों को अशोक ने गिनाया है, वे प्रायः उन्हीं नामों में वर्तमान पालि-त्रिपिटक में भी विद्यमान हैं। किस-किस धम्म-पलियाय की अनुरूपता पालि त्रिपिटक के किस किस अंश या सुत्त के साथ हैं, यह नीचे लिखे विद्वानों के एतद्विषयक मतों से, जिनमें कहीं कहीं कुछ अल्प विभिन्नता भी है, स्पष्ट होगा । १--विनय-समुकसे (विनय-समुत्कर्ष) १. विनय का उत्कृष्ट उपदेश या पातिमोक्ख-डा० रायस डेविड्स और ओल्डनवर्ग: १. सेक्रेड बुक्स ऑव दि ईस्ट, जिल्द तेरहवीं पृष्ठ २६ (भूमिका), अलग अलग भी रायस डेविड्स : जर्नल ऑव रायल एशियाटिक सोसायटी, १८९८, जर्नल ऑव पालि टैक्स्ट सोसायटी १८९६; बुद्धिस्ट इंडिया, पृष्ठ १६९; इसी प्रकार ओल्डन बर्ग : विनय-पिटक, जिल्द पहली पृष्ठ ८० में टिप्पणी (विनय-पिटक का रोमन-लिपि में संस्करण, पालि टैक्स्ट सोसायटी द्वारा प्रकाशित) । Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६२९ ) बुद्ध की सामुक्कंसिका धम्मदेसना' (ऊँचा उठानेवाला धर्मोपदेश ) जिसका उपदेश वाराणसी में दिया गया ( अर्थात् धम्मचक्कपवत्तन-सुत्त) - ए० जे० एडमंड्स' ३. सप्पुरिस-सुत्त ( मज्झिम ३।२।३) या अंगुत्तर निकाय का विनयसंबंधी उपदेश (अत्थवसवग्ग ) - प्रो० मित्र ४. 'गिहि-विनय' (गृह - विनय ) नाम से प्रसिद्ध सिंगालोवाद- सुत्त ( दीघ ३८) तथा ' भिक्खु - विनय' ( भिक्षु - विनय ) के नाम से प्रसिद्ध अनुमान -सुत्त ( मज्झिम) - | डा० वेणीमाधव वाडुआ । ५. तुवट्ठक - सुत्त (सुत्तनिपात ) - प्रो० भंडारकर २. अलियवसानि (आर्यवंश ) १. अंगुत्तरनिकाय के चतुक्क निपात में निर्दिष्ट चार आर्य वंश - आचार्य धर्मानन्द कोसम्बी * २. अंगुत्तर निकाय के दसक - निपात अथवा परियाय सुत्त और दसुत्तर- सुत्त में निर्दिष्ट दस डेविड्स" दीघनिकाय के संगीति आर्य - वास-- डा० रायस ३. अनागत- भयानि १. अंगुत्तर निकाय के पंचक निपात में निर्दिष्ट पांच अनागत-भय- डा० रायस डेविड्स १. जर्नल ऑव रायल एशियाटिक सोसायटी, १९१३, पृष्ठ ३८५ २. लाहा : हिस्ट्री ऑव पालि लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ ६६५ में उद्धृत । ३. जर्नल ऑव रायल एशियाटिक सोसायटी, १९१५, पृष्ठ ८०५ ४. इंडियन ऐंटिक्वेरी ४१, ४० ५. ऊपर उद्धृत पद-संकेत १ के समान । ६. जर्नल ऑव रॉयल एशियाटिक सोसायटी १९९८ । Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६३० ) ४. मुनि गाथा १. मुनि-सुन (मुत्त-निपात)-डा० रायस डेविड्स' ५. मोनेय्य-सूते ( मोनेय्य-सूत्र) १. नालक-सुन (मुत्त-निपात)-आचार्य धर्मानन्द कोसम्बी२ २. प्रस्तावना को छोड़कर नालक-सुत्त का शेप भाग-डा० वेणीमाधव बाडुआ3 ३. मोनेय्य-सुत्त--डा० रायस डेविड्स ४. 'इतिवृत्तक' के ६७ वे सुत्त एवं अंगुत्तर-निकाय के तिक-निपात में निर्दिष्ट मोनेय्यानि--डा. विंटरनित्ज़ ६. उपतिस-पसने (उपतिष्य-प्रश्न) १. सारिपुत्त-सुन (सुत्त-निपात)-कोसम्बी और वाडुवा" २. मज्झिम-निकाय के रथविनीत मुन (१।३।४) में निर्दिष्ट उपतिप्य प्रश्न-न्यूमैन' १. उपर्युक्त के समान २. इंडियन एंटिम्बेरी, ४१, ४० ३. जर्नल ऑव रायल एशियाटिक सोसायटी, १९१५, पृष्ठ ८०५ ४. उपर्युक्त पद-संकेत १ के समान । ५. हिस्ट्री ऑव इंडियन लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ ६०७ (परिशिष्ट ३) ६. उपतिष्य सारिपुत्र का नाम है। चूंकि सुत्त-निपात के सारिपुत्त-सुत्त में सारि पुत्र में कुछ प्रश्न किए हैं जिनका उत्तर बुद्ध ने दिया है, अतः यह प्रायः सुनिश्चित __ ही है कि अशोक का तात्पर्य इसी उपदेश से था। ७. इन विद्वानों के लेखों का निर्देश ऊपर हो चुका है। जा० विटरनित्त को भी यही मत मान्य है । देखिये उनका हिस्ट्री आँव इंडियन लिटरेचर, जिल्द दूसरी पृष्ठ ६०७ (परिशिष्ट ३) ८. विंटरनित्ज : हिस्ट्री ऑव इंडियन लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ ६०६ में उद्धृत । Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६३१ ) ७. लाघुलोवादे मुसावाद अधिगिच्च भगवत्ता बुधेन भासिते (राहुल को उद्देश्य कर मृषावाद के संबंध में भगवान् बुद्ध का दिया हुआ उपदेश ) १. राहुलोवाद-सुनन्न (मज्झिम (३।५।५)--डा० रायस डेविड्म' २. अम्बलठ्ठिक-राहुलोवाद-नुत्तन्त (मज्झिम २११)--एम० मेनारे उपर्युक्त विवरण का ऐतिहासिक साक्ष और महत्त्व स्पष्ट है । यद्यपि भाब्रूगिलालेख में निर्दिष्ट धम्म-परियायों की पालि-त्रिपिटक के विशिष्ट सूत्रों से पहचान करने में विद्वानों में कुछ मत-भेद अवश्य है,किन्तु यह मतभेद बहुत अल्प है और अधिकांश तो एक ही विषय के पालि-त्रिपिटक में अनेक स्थलों में प्रायः समान शब्दों में वर्णन करने के कारण ही है । अतः यह कहना इसके साक्ष्य को अतिरंजित करना नहीं होगा कि जिस समय अशोक का यह शिलालेख लिखा गया, अर्थात् तृतीय शताब्दी ईसवी पूर्व, पालि त्रिपिटक अपने उसी रूप में और अपने मत्रों के प्रायः उन्हीं नामों के साथ, जिनमें वह आज पाया जाता है, विद्यमान था। अगोक के प्रज्ञापनों की भाव-शैली से भी यही परिलक्षित होता है। उन पर बुद्ध-वचनों का, जैसे कि वे आज पालि-त्रिपिटक में निहित है,पर्याप्त प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। हाँ, विशेषता केवल यही है कि उसने बुद्ध-वचनों के अथाह समुद्र में से केवल ऐसे मुवचनों को चुन लिया है, जिनका उपदेश सर्व-साधारण के लिये, जिनमें विशेषतः गृहस्थों की ही अधिकता होती है, उपकारी हो सकता या। यही कारण है कि चार आर्य-सत्य, आर्य-अष्टांगिक मार्ग, प्रतीत्य समुत्पाद, निर्वाण जैसे गंभीर विषयों १. जर्नल ऑव रायल एशियाटिक सोसायटी, १८९८ २. जर्नल एशियाटिक, १८८४, जिल्द तीसरी पृष्ठ ४७८ ३. डा० वेणीमाधव वाडुआ इसी निष्कर्ष पर पहुंचे हैं, किन्तु विंटरनित्ज़ ने उनके इस निष्कर्ष को कुछ अतिरंजित माना है। देखिये उनका हिस्ट्री ऑव इंडियन लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ ६०८; फिर भी विटरनित्ज ने उन विद्वानों के साथ भी सहमति नहीं दिखाई है जो अशोक के समय किसी भी प्रकार के पालि-त्रिपिटक का अस्तित्व स्वीकार नहीं करते। देखिये वहीं पृष्ठ ६०८-०९। Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६३२ ) का उल्लेख न कर उसने जन-साधारण के सामने इस लोक के साधारण सामाजिक, पारिवारिक और आधुनिक भाषा में कहें तो नागरिक कर्तव्यों का उपदेश रक्खा है जिसे पालि-त्रिपिटक के सिंगालोवाद (या सिगालोवाद)-सुत्त (दीघ. ३।८) लक्खण-मुत्त (दोघ. ३७) और महामंगलसुत्त (सुत्त-निपात) जैसे भागों में गृहस्थों को लक्ष्य कर सिखाया गया है। “सिंगालोवाद-सुत्त' तो पूरे अर्थों में 'गिहि-विनय' (गृह-विनया) ही कहा गया है । अशोक ने जिस-धर्म को सिखाया है उसमें प्राणधारियों की अहिंसा (अनारम्भो प्राणानं) जीवों को कष्ट न पहुँचाना (अविहिमा भूतानं) माता-पिता की सेवा (मातरि पितरि सुखूसा), बड़ों का आदर (थेर-सुस्रसा), मित्र, परिचितों, सम्बन्धियों, ब्राह्मणों और श्रमणों के प्रति उदारता और शिष्टता का व्यवहार (मित-संस्तुत-अतिकानं ब्राह्मण समणानं दानं सम्पटिपति), गुरुओं का सम्मान (गुरून अपचिति), दासों और नौकरों के साथ शिष्टता और उदारता का व्यवहार (दास-भतकम्हि सम्मपटिपत्ति), मितव्ययता और अल्प संग्रह करना (अपव्ययता, अपभांडता) आदि सामान्य लोक-धर्म की बातें ही हैं। बुद्ध ने यही धर्म साधारण जनता को सिखाया था। 'सिंगालोवाद-सुत्त' के इस संक्षिप्त उद्धरण को ही देखिये-- "माता-पिता पूर्व दिशा हैं, आचार्य दक्षिण दिशा । पत्र-स्त्री पश्चिम दिशा है, मित्र-अमात्य उत्तर दिशा । दाम-कर्मकर नीचे की दिशा है, श्रमण-ब्राह्मण ऊपर की दिशा गृहस्थ को अपने कुल में इन दिशाओं को अच्छी तरह नमस्कार करना चाहिये।"१ निश्चय ही अशोक ने अपने 'धम्म' को ऐसे ही बुद्ध-वचनों से पाया है । ऊपर भाव गिलालेख में उसकी बुद्ध-भक्ति दिखाई ही जा चुकी है। सांची प्रयाग और सारनाथ के अपने स्तम्भ-प्रज्ञापनों में संघ-भेद को रोकने के लिये जो तत्परता दिखाई है, वह भी स्पष्ट ही है। वास्तव में उसने अपने सारे जीवन-कार्यों मे चक्रवर्ती धर्मराज के उस आदर्श को पूर्ण करने का प्रयत्न किया जो पालि-त्रिपिटक १. दीघ निकाय, पृष्ठ २७६ (राहुल सांकृत्यायन का अनुवाद) Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६३३ ) में उपदिष्ट किया गया है । लक्खण-सुत्त (दोघ ३१७) के अनुसार “चक्रवर्ती,. धार्मिक, धर्मराज, चारों दिशाओं को जीतकर, सागर-पर्यन्त इस पृथ्वी (भारतभूमि) को दंड और शस्त्र से नहीं, किन्तु धर्म से जीतकर उसके ऊपर शासन करता है।" अशोक को धम्म-विजय का, उसकी प्राणि-अविहिंसा का, जाति-धर्म-निर्विशेष, संपूर्ण मनुष्य-जाति की सेवा के उसके उच्च आदर्श का, इसके अलावा और अर्थ हो क्या हो सकता था ? अतः यह निर्विवाद है कि अशोक की प्रेरणा का मूलाधार बुद्ध-धर्म हो था । किस प्रकार धम्म-दान की प्रशंसा करते हुए अशोक ने धम्मपद की एक गाथा (२।१) को प्रतिध्वनित किया है, अथवा किस प्रकार उसके नवं शिलालेख के काल्सी, शहवाजग़ढ़ी और मनसेहर के संस्करण के अन्तिम भाग की शैली 'कथावत्थु' से मिलती जुलती है, यह हम पहले दिखा चुके हैं । अतः यह निःसंदेह है कि अशोक के शिलालेखों का साक्ष्य उसके बुद्धवचनों या पालि-त्रिपिटक के उस रूप से परिचित होने के पक्ष में है जो हमें आज प्राप्त है और जिसमें से 'गृह-विनय' के ही लोक सामान्य आदर्श को लेकर अशोक ने स्वयं (अपने गृहस्थ शासक होने की अवस्था में) उसको अपनाया और उसी को अपनी प्यारी जनताओं को भी सिखाया। अशोक के अभिलेखों के अलावा अन्य प्रभूत पालि अभिलेख-साहित्य भी हमें आज प्राप्त है । यह बहुत पुराना भी है और उसकी परम्परा ठीक अर्वाचीन काल तक चलती आ रही है । तीसरी और दूसरी शताब्दी ईसवी पूर्व से लेकर ठीक अठारहवीं शताब्दी तक के पालि अभिलेख हमें प्राप्त है । यद्यपि इन सब अभिलेखों का साहित्यिक महत्व और ऐतिहासिक साक्ष्य अशोक के अभिलेखों के समान महत्वपूर्ण नहीं है, किन्तु इनमें से अधिकांश पालि-साहित्य के विकास की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है। उसकी विकास परम्परा के विभिन्न १. चक्कवत्ती धम्मिको धम्मराजा चातुरन्तो विजिता वीसो इमं पठावि सागरपरियन्तं अदण्डेन असत्येन अभिविजिय अज्झावसति । लक्खणसुत्त (दोघ ३१७) Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६३४ ) पहलुओं को ममझने के लिए वे प्रकाशगह का काम देते हैं। हम इन सात मुख्य अभिलेखों का यहाँ उल्लेख करेंगे (१) साँची और भारत के अभिलेख (२) माग्नाथ के कनिष्ककालीन अभिलेख, (३) मौंगन (बरमा) के दो स्वर्ण-पत्र लेख (४) मब्ज़ा (प्रोम-बरमा) का पांचवीं-छठी शताब्दी का म्वर्ण-पत्र लेख (५) मब्ज़ा (प्रोम-बरमा) के बोबोगी पेगोडा में प्राप्त खंडित पाषाण-लेख (६) १४४२ ई० का पेगन (वरमा) का अभिलेख, और (७) गमण्य-देश (पेग-बरमा) के राजा धम्मचेति का १४७६ ई० का प्रसिद्ध कल्याणीअभिलेख । साँची और भारहुत के अभिलेख प्रायः सभी पुरातत्वविदों का इस विषय में एक मत है कि साँची और भारहुत के स्तूप तीसरी-दूसरी शताब्दी ईसवी पूर्व के है। इन स्तूपों की पापाण वेष्टनियों पर जो लेख उत्कीर्ण हैं और प्राचीन बौद्ध गाथाओं के जो चित्र अंकित है, वे भारतीय पुरातत्व की तो अमूल्य निधि हैं ही, पालि-त्रिपिटक की प्राचीनता और प्रामाणिकता को दिखाने के लिए भी उनका प्रमाण अन्तिम और पूर्णतम रूप से निश्चित है। हम पहले लिख चुके हैं कि इन स्तूपों के लेखों में भिक्षुओं के विशेषण-स्वरूप 'मुनन्तिक' 'पेटकी' 'धम्मकथिक ‘पञ्जनेकायिक' 'भाणक' जैसे शब्दों का प्रयोग किया गया है, जिससे स्पष्ट है कि जिस समय ये लेख लिखे गये थे बुद्ध वचनों का "पिटक” 'सुत्त' 'पंच निकाय' आदि में वर्गीकरण प्रसिद्ध था और उसका संगायन करने वाले (भाणक) भिक्षु भी पाये जाते थे । अतः पालि त्रिपिटक प्रायः अपने उसी विभाजन में जिसमें वह आज उपलब्ध है, तोसरी-दूसरी शताब्दी ईसवी पूर्व भी पाया जाता था, यह निश्चित १. सांची और भारत के अभिलेखों के अध्ययन के लिए देखिये विशेषतः वाडुआ और सिंह “भारहुत इन्सक्रिप्शन्स" कलकत्ता १९२६; में से : साँची और इट्सरिमेन्स लन्दन १८९२, मार्शल : ए गाइड टू साँची, कलकत्ता १९१८; हिन्दी में अभी इस विषयक विशेषतापूर्ण अध्ययन नहीं किया गया। Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६३५ ) है । एक और प्रमाण भी इन्हीं स्तूपों से इस निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए मिलता है । भारत और माँची की पापाण- वेष्टनियों पर बौद्ध गाथाओं के चित्र अंकित हैं, जो जातक की अनेक गाथाओं से विचित्र समानता रखते हैं । इतना ही नहीं, भारत - स्तूप में तो कुछ जातक - गाथाओं के नाम तक भी उल्लिखित है, जो इस प्रकार हैं ( १ ) वितुर पुनकिय ( २ ) मिग (३) नाग (४) यवमभकिय (५) मुगपकय, (६) लतुवा (3) छन्दन्तिय ( ८ ) इसिसिंगिय, (९) यं वमणो अवसि, (१०) हंस, (११) किनर ( १२ ) इसिमिगो (१३) जनोको राजा, (१४) मिवला देवी (१५) उद (१६) सेछ ( १७ ) सुजतो गहुतो (१८) विडल जातक (१९) ककुट जातक ( २० ) महादेविय (२१) भिम और (२२) हरनिय । इन जातकों की गाथाएँ और कहीं कही नाम भी आज प्राप्त 'जातक' की इन कहानियों से समानता रखते हैं (१) विधूर पंडित ( २ ) निग्रोध (३) कक्कट, (४) महाउम्मग्ग ( ५ ) मूगपक्ख ( ६ ) लनुकिका (७) छद्दन्त ( ८ ) अलम्बुम ( ९ ) अन्धभूत, (१०) नच्च, (११) चन्द, (१२) किन्नर, (१३) मिगपोतक, (१४) महाजनक, (१५) दब्ब-पुप्फ, (१६) दूभि मक्कट, (१७) सुजात, (१८) कुक्कुट, (१९) मखादेव और ( २० ) भिस जातक | भारत स्तूप में कहीं कहीं दृश्य तो अंकित है किन्तु नीचे उनके नाम नहीं दिये गये हैं । फिर भी इन चित्रों से विदित होता है कि वे पालिजातक की कुछ कहानियों के चित्रों को ही अंकित करते हैं । इस प्रकार की 'जातक' की कहानियाँ जो यहाँ अंकित हैं, ये हैं (?) कुरूंग-मिंग ( २ ) सन्धि-भेद, (३) असदिस, (४) दसरथ, (५) महाकपि, (६) चम्मसतक, (७) आरामदुमक और (८) कपोत जातक । अतः इन सब साक्ष्यों मे स्पष्ट है कि न केवल पालि - त्रिपिटक बल्कि उसके उसके कुछ विशिष्ट ग्रन्थ भी अपने उसी स्वरूप में, जैसे वे आज हैं, तृतीय - द्वितीय शताब्दी ईसवी पूर्व भी विद्यमान थे । इम प्रकार साँची और भारत के महत्वपूर्ण अभिलेख और चित्र अशोक के शिलालेखों के साक्ष्य का ही अनुमोदन करते हुए 'तेपिटक' बुद्ध वचनों की प्रामाणिकता का साक्ष्य देते है । Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारनाथ के कनिष्ककालीन अभिलेख मारनाथ संग्रहालय में लंबे आकार की बोधिसत्व की एक मति सरक्षित है । उम पर तीन अभिलेख अंकित हैं, जो कुषाण-राजा कनिष्क के शासन - काल के तीसरे वर्ष अंकित किये गये थे। इन लेखों का विषय बुद्ध का 'धम्मचक्कपवत्तन' है । पंचवर्गीय भिक्षुओं के प्रति भगवान् ने वाराणसी में चतुरार्य सत्य-विषयक जो उपदेश दिया वह यहाँ इन शब्दों में अंकित है “चत्तारि मानि भिक्खवे अरियसच्चानि । कतमानि चत्तारि ? दुक्खं दि भिक्खवे अरिय सच्चं । दुक्खसमुदयो अरियसच्च दुक्ख निरोधो अरियसच्चं दुक्खनिरोधो गामिनीच पटिपदा।" इसका हिन्दी अनुवाद है--"भिक्षुओ ! ये चार आर्य सत्य हैं ? कौन मे चार ? भिक्षुओ ! दुःख आर्य सत्य है, दुःख-समुदय आर्य-सत्य है, दुःख निरोध आर्यमत्य है, दुःख निरोध गामिनी प्रतिपदा (मार्ग) आर्य सत्य है।" 'धम्मचक्क पवननसुत्त' का यह अक्षरशः उद्धरण ही है । कनिष्क ने इसे अंकित करवाकर उसी स्थान पर रक्खा जहाँ पर कि वह ऐतिहासिक रूप से प्रथम वार दिया गया था, इससे स्पष्ट विदित होता है कि ईसवी सन् के लगभग (कनिष्क का समय) पालि-माध्यम में निहित बुद्ध-वचन ऐतिहासिक रूप से प्रामाणिक माने जाते थे। अशोक तथा साँची और भारहुत के अभिलेखों के कालक्रम से प्राप्त साध्य का इस प्रकार यह अभिलेख भी अनुमोदन करता है। मौंगन (बरमा) के दो स्वर्णपत्र-लेख म्वर्णपत्रों पर लिखे हुए दो पालि-अभिलेख बग्मा में प्रोम के समीप मौंगन नामक स्थान पर मिले हैं । संभवतः ये पाँचवीं-छठी शताब्दी ईसवी के हैं और दक्षिण भारत की कदम्ब (कन्नण-तेलगू) लिपि में लिखे हुए हैं। प्रथम अभिलेख यह है “ये धम्मा हेतुप्पभ वा तेमं हेतु तथागतो आह तेसं च निरोधो एवंवादी महासमणो नि, चत्वारो सम्मप्पधाना, चत्वारो सतिपट्ठाना, चत्वारि अरियमच्चानि, चनु बेसारज्जानि पञ्चिन्द्रियाणि, पञ्च चक्खूनि. छ अमद्धारणानि, सत्त वोभंग, अरियो अटें-गिको मग्गो, नव लोकुनग धम्मा, दम बलानि, चुद्दम बुद्धजाणानि, अट्ठारस बुद्धधम्मा Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7 ( ६३७ ) 1 ति ।" इसका हिन्दी अनुवाद इस प्रकार है " जो धर्म हेतुओं से उत्पन्न हूँ उनके हेतु को तथागत बतलाते हैं और उनके निरोध को भी उन महाश्रमण का यही मत हैं, जैसे कि चार सम्यक् प्रधान, चार स्मृति - प्रस्थान, चार आर्य सत्य चार वैशारद्य, पाँच इन्द्रिय, पाँच चक्षु, छह असाधारण, दस बल, चौदह बुद्धज्ञान, एवं अठारह बुद्ध धर्म ।" इस अवतरण का प्रथम भाग अर्थात् यह अंग " जो धर्म हेतुओं से उत्पन्न है उनके हेतु को तथागत बनलाते हैं और उनके निरोध को भी, यही उन महासमण का मत है" बुद्ध के सारे मन्तव्य को जैसे एक संक्षिप्त -मूत्र में ही रख देता है । पालि- त्रिपिटक में भी यह बहुत प्रसिद्ध है । असजि ( अश्वजित् ) नामक भिक्षु ने यही कहकर प्रथम बार सारिपुत्र को बुद्ध - मन्तव्य का परिचय दिया था । वाद के अंश में बोधिपक्षीय धर्मों का परिगणन कराया गया है जो बुद्ध के नैतिक आदर्शवाद की एक परिपूर्ण सूची है । स्थविरवाद बौद्ध धर्म बुद्ध धर्म के नैतिक सिद्धांतों को आधार मानकर भगवान् बुद्ध द्वारा उपदिष्ट बोधिपक्षीय धर्मों को ही उनका मुख्य मन्तव्य मानता है । पाँचवीं छठीं शताब्दी में बरमी बौद्ध धर्म की प्रगति पर यह स्वर्ण-पत्र लेख अच्छा प्रकाश डालता है । द्वितीय स्वर्णपत्र पर भी प्रथम लेख के आदि का अंश अंकित है किन्तु उसके बाद यहाँ त्रिरत्न की वन्दना और अंकित है, यथा-' - 'तिपि सो भगवा अरहं सम्मा सम्बुद्धो विज्जाचरणसम्पन्नो सुगतो लोकविद् अनुत्तरो पुरसम्म सारथि सत्था देव मनुस्सानं बुद्धो भगवाति । यह भी पालि त्रिपिटक का ही एक उद्धरण है । इसका हिन्दी अनुवाद है " वे भगवान् अर्हत्, सम्यक् मम्बुद्ध, विद्या चरण सम्पन्न, सुगत, लोकविद, अद्वितीय पुरुष-दम्य सारथी, देव और मनुष्यों के शास्ता, भगवान् बुद्ध हैं ) ' बुद्ध-भक्ति के उद्गारस्वरूप ही ये लेख लिखे गये है । : मब्ज़ा का पाँचवीं छठी शताब्दी का स्वर्णपत्र लेख बरमा में प्रोम के पास मजा नामक स्थान पर वीस स्वर्ण-पत्रों पर लिखा हुआ एक पालि अभिलेख पाया गया है । यह भी दक्षिण भारत की कन्नड़तेलगू प्रकार की लिपि में लिखा हुआ है । इस अभिलेख में विनय और Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६३८ ) अभिवम्मपिटक के कुछ उद्धरण अंकित हैं । वरमा में पालि-बौद्ध धर्म के विकास के इतिहास पर इस अभिलेख से पर्याप्त प्रकाश पड़ता है । मज़ा के बोबोगी पेगोडा में प्राप्त खंडित पाषाण-लेख वरमा में मब्ज़ा (प्राचीन प्रोम) के वोबोगी पेगोडा मे सन् १९१०-११ ई० में तीन खंडित पाषाण-लेख मिले, जो संभवतः छठी शताब्दी ईसवी के हैं । इनकी लिपि भी दक्षिण भारत की कन्नड़ -तेलगू लिपि से मिलती जुलती है । इन अभिलेखों में पालि-त्रिपिटक विशेषतः अभिधम्मपिटक के ही किसी ग्रन्थ का उद्धरण हैं, जिसका अभी निश्चयतः पता नहीं लगाया जा सका है । इस अभिलेख से बरमा को अभिवम्मपिटक संबंधी अध्ययन की ओर विशेष रुचि का जो वहाँ प्रारंभ से ही रही है, पता चलता है । १४४२ ई० का पेगन (बरमा का अभिलेख) बरमा के तद्विन नामक प्रान्त के प्रान्तपति वौद्ध उपासक और उसकी पत्नी ने १४४२ ई० में वहाँ के भिक्षु संघ को कुछ महत्वपूर्ण दान दिया था । उसी को स्मृति को सुरक्षित रखने के लिए यह लेख अंकित करवाया गया था । इस लेख में अन्य बातों के साथ साथ उन ग्रन्थों का भी उल्लेख है जिनका दान उक्त प्रान्तपति ने भिक्षु मंत्र को दिया था । अतः वरमा में पालि-साहित्य के विकास की दृष्टि मे इस अभिलेख का एक विशेष महत्व है । एक विशेष महत्वपूर्ण बात इस अभिलेख की यह भी है कि यहाँ पालि-ग्रन्थों की सूची में अमरकोश, वृत्तरत्नाकर जैसे कुछ संस्कृत ग्रन्थ भी सम्मिलित हैं, जो वरमा में तद्विषयक अध्ययन की परम्परा का अच्छा साक्ष्य देते हैं । पन्द्रहवी शताब्दी तक वरमी पालि साहित्य की प्रगति को दिखाने के लिए यद्यपि इस अभिलेख में निर्दिष्ट ग्रन्थों का अधिक विवेचन अपेक्षित है, किन्तु विस्तार भय से हम यहाँ ऐसा न कर केवल उनका नाम परिगणन मात्र ही करते हैं जिनकी भी संख्या २९५ है । यथा -- -(3) पराजिक कंड, (२) पाचित्तिय, (३) भिक्खुनी, विभंग, (८) विनय - महावग्ग. ९. विशेष विवेचन के लिए तो देखिए मेबिल बोड : दि पालि लिटरेचर ऑव बरमा, पृष्ठ १०१- १०९ । Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५) विनय-चूलवग्ग, (६) विनय-परिवार, (७) पाराजिक-कंड अटठकथा. (८) पाचित्तियादि-अट्ठकथा (९) पाराजिककंड-टोका, (१०) तेरसकंड टीका, (११) विनय-संग्रह-अट्ठकथा विस्तृत,) (१२) विनय-संग्रह-अट्ठकथा (मंक्षिप्त), (१३) कंखा वितरणी-अट्ठकथा, (१४) खुद्दक सिक्खा टोका, (प्राचीन), (१५) खुद्दक मिक्खा टीका (अभिनवा), (१६) कंखा-टीका (अभिनवा), (१७) विनय गण्ठिपद, (१८) विनय-उत्तर-सिंचय-अट्ठकथा, (१९) विनय-सिंचय-टीका, (२०) विनयक्खन्व निद्देस, (२१) धम्मसंगणि, (२२) विभंग, (२३) धातुकथा, (२४) पुग्गलपञत्ति, (२५) कथावत्थु, (२६) मूलयमक, (२७) इन्द्रिय यमक, (२८) तिक-पट्ठान, (२९) दुक-तिक-पट्ठान, (३०) दुक-पट्ठान, (३१) अट्ठमालिनी-अट्ठकथा, (३२) सम्मोह विनोदनीअट्ठकथा, (३३) पञ्च्चप्पकरण कथा, (३४) अभिधम्म-अनुटीका, (३५) अभिधम्मत्थसंगह-अट्ठकथा, (३६) अभिधमत्थसंगह-टीका, (३७) अभिधम्मत्थ विभावनी-टीका, (३८) सोलक्खन्ध, (३९) महावग्ग, (४०) पाथेय्य, (८१) सोलक्खन्ध-अट्ठकथा, (४२) महावग्ग-अट्ठकथा, (४३) पाथेय्य-अट्ठकथा, (४४) सीलक्खन्ध टोका, (४५) महावग्ग-टीका, (४६) पाथेय्य-टीका. (४७) मूलपग्णास, (४८) मूलपण्णास-अट्ठकथा, (४९) मूलपण्णास-टीका, (५०) मज्झिमपण्णास, (५१) मज्झियपण्णास-अट्ठकथा, (५२) मज्झिमपण्ण टीका, (५३) उपरिपण्णास (५४) उपरिण्णास-अट्ठकथा (५५) उपरिण्णास टीका (५६) सगाथवग्ग-संयुत्त, (५७) सगाथवग्गसंयुन-अट्ठकथा, (५८) मगाथवग्गसंयुत्त-टीका, (५९) निदानवग्ग-संयुत्त, (६०) निदानवग्ग संयुत्तअट्ठकथा, (६१) खन्धवग्ग-संयुत्त, (६२) खन्धवग्ग संयुत्त-टीका, (६३) नडायतन वग्ग-संयुत्त, (६४) सठायतनवग्ग संयुन-अट्ठकथा, (३५) चतुकनिपात-अंगुतर, (६६) अठ-नव-निपात-अंगुत्तर, (६७) महावग्गसंयुत्त, (६८) पानिपात-अंगुतर (६९) छपत्तनिपात-अंगुत्तर, (७०) अट्ठ-नव-निपातअंगुनर, (७१) दम-एकादप-निपात-अंगुत्तर. (७२) एकनिपात अंगुत्तरट्ठकथा, (७३) दुक-तिक-चतुक निपात-अंगुत्तर अट्ठकथा, (७४) पच्चादि-अंगुत्तरअट्ठकथा, (७५) अंगुनर-टीका, (७६) अगुत्तर-टोका, (७७) खुदृक-पाठ अट्ठकथा सहित, (७८) धम्मपद अट्ठकथा महित. (७१) उदान अकथा Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६४० ) सहित, (८०) इतिवृत्तक अट्ठकथा सहित, (८१) सुत-निपात, अट्ठकथा सहित (८२) विमानवत्यु-अट्ठकथा-सहित, (८३) पेतवत्थु अट्ठकथा सहित, (८४) थेरगाथा अट्ठकथा सहित, (८५) थेरोगाथा अट्ठकथा सहित, (८६) पाठचरित्र (८७) एक निपात जातक-अट्ठकथा , (८८) दुकनिपात जातक-अट्ठकथा, (८७) तिक निपात जातक-अट्ठकथा, (९०) चतुक-पंच-छनिपात जातक अट्ठकथा, (९१) सत्त-अट्ठकथा, (९२) दस-एकादस निपात जातक ट्ठकथा, (९३) द्वादसतेरस-पकिण्णक निपात-जातक-अट्ठकथा, (९४) वीसतिजातक-अट्ठकथा, (९५) जाततको-सोतत्तकी-निदान-अट्ठ कथा, (९६) चूलनिद्देस, (९७) चूलनिद्देस-अट्ठकथा, (९८) महानिद्देस, (९९) महानिद्देस, (१००) जातक-टीका, (१०१) दुम-जातक-अट्ठकथा, (१०२) अपादान, (१०३) अपादान-अट्ठकथा, (१०४) पटिसम्भिदामग्ग, (१०५) पटिसम्भिदामग्ग-अट्ठकथा, (१०६) पटिसम्भिदामग्ग-गण्ठिपद, (१०७) विसुद्धिमग्ग-अट्ठकथा, (१०८) विसुद्धिमग्ग-टोका, (१०९) बुद्धवंस-अट्ठकथा, (११०) चरियापिटक-अट्ठकथा, (१११) नामरूप टीका, (नवीन), (११२) परमत्थ विनिच्छय, (११३) मोह विच्छेदनी, (११४) लोक- पति , (११५) मोह नयन, (११६) लोकुप्पत्ति, (११७) अरुणवति, (११८) छगति दीपनी, (११९) सहस्सरंसिपालिनी (१२०) दसवत्थु (१२१) सहस्सवत्सु (१२२) सहिल वत्सु (१२३) पेटकोपदेस, (१२४) तथागतुप्पत्ति, (१२५) धम्मचक्क (-पवत्तनसुत्त), (१२६) धम्मचक्क-टीका, (१२७) दाठाधातुवंस, (१२८) दाठाधातुवंस-टीका, (१२९) चूलवंस, (१३०) दोपवंस, (१३१) थूपवंस, (१३२) अनागतवंस, (१३३) बोधिवंस, (१३४) महावंस, (१३५) महावंस-टीका, (१३६) धम्मदान, (१३७) महाकच्चायन, (१३८) न्यास, (१३९) थन्-व्यन्-टीका, (१४०) महाथेरटोका, (१४१) रूपसिद्धि-अट्ठकथा, (१४३) बालावतार, (१४४) बुनि मोग्गल्लान, (१४५) पञ्चिक-मोग्गल्लान, (१४६) पंचिक मोग्गल्लान-टीका, (१४७) कारिका (१४८) कारिका-टीका, (१४९) लिंगत्थ विवरण (१५०) लिंगत्थ विवरण टोका, (१५१) मुखमत्तसार, (१५२) मुखभत्तसार-टीका, (१५३) महागण, (१५४) चूलगण, (१५५) अभिधान, (१५६) अभिधानटीका, (१५७) सद्दनीति, (१५८) चूलनिरुत्ति, (१५९) चूलसन्धि विमोधन, Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६४१ ) (१६०) सद्दत्यभेदचिन्ता, (१६१) सद्दत्थभेद चिन्ता-टीका, (१६२) पद-सोधन, (१६३) सम्बन्ध चिन्ता-टीका, (१६४) रूपावतार, (१६५) सद्दावतार, (१६६) सद्धम्मदीपका, (१६७) सोतमालिनी, (१६८) संबन्धमालिनी, (१६९) पदावहामहाचक्क, (१७०) ण्वादि (मोग्गल्लान) (१७१) कतचा (१७२) महाका, (१७३) बालत्तजन, (१७४) नुत्तावलि, (१७५) अक्खरसम्मोहच्छेदनी, (१७६) चेतिद्धि नेमिपरिगाथा, (१७७) ममासतद्धितदीपनी, (१७८) बीजक्ख्यं, (१७९) कच्चायन-सार, (१८०) वालप्पबोधन, (१८१) अट्ठसालिनी, (१८२) अट्ठनालिनी निस्मय, (१८३) कच्चायन निस्सय, (१८४) रुपसिद्धि निस्सय, (१८५) जातक निस्सय, (१८६) जातकगण्ठि, (१८७) धम्मपदगण्ठि निस्सय, (१८८) कम्मवाचा, (१८९) धम्मसत्त, (१९०) कलापपञ्चिका, (१९१) कलापपञ्चिका-टीका, (१९२) कलापसुत्त प्रतिसकु, (१९३) प्रिन्डो-टीका, (१९४) रत्नमाला, (१९५) रत्नमाला टीका, (१९६) रोगनिदान, (१९७) दब्रगुण, (१९८) दब गुण-टीका, (१९९) छन्दोविचिति, (२००) चन्द्रगुत्ति (चन्द्रवृत्ति), (२०१) चन्द्रपञ्चिकर, (२०२) कामन्दकी, (२०३) धम्मपापकरण, (२०४) महोसट्ठि, (२०५) सुबोधालंकार, (२०६) सुबोधालंकारटीका, (२०७) तनोगबुद्धि, (२०८) तण्डि (संभवतः दण्डी), (२०९) तण्डिटोका, (२१०) चंकदास, (२११) अरियसच्चावतार, (२१२) विचित्रगन्ध, (२१३) सद्धम्मुपाय, (२१४) सार संग्रह, (२१५) सारपिण्ड, (२१६) पटिपट्ठि संगह, (२१७) मूलचारक, (२१८) पालतक्क, (२१९) त्रक्कमासा (तर्कभाषा) (२२०) सद्दकारिका, (२२१) कासिकाद्रुत्तिपालिनी, (२२२) सद्धम्मदीपिका, (२२३) सत्यतत्वावबोध, (२२४) चूलनिरुत्ति मंजूसा, (२२५) मंजूसा टीका व्याख्यं, (२२६) चूलनिरुत्ति मंजूसा, (२२७) अत्थव्याख्यं, (२२८) अनुटीका व्याख्यं, (२२९) पकिण्णक निकाय, (२३०) चत्थ पयोग, (२३१) मत्थपयोग, (२३२) रोगयात्रा, (२३३) रोगयात्रा-टीका, (२३४) सत्येक विपसवप्रकास, (२३५) राजमत्तन्त, (२३६) परासब, (२३७) कोलद्धज, (२३८) बृहज्जातक, (२३९) बृहज्जातक-टीका, (२४०) दाठा धातुवंस, टीका-सहित, (२४१) पतिक विवेक टीका, (२४२) अलंकार-टीका, (२४३) चलिन्द पञ्चिका, (२४४) वेदविधिनिमित्तनिरुत्ति वण्णना, (२४५) निरुत्ति ४१ Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६४२ ) व्याख्यं, (२४६) वुत्तोदय, (२४७) वुत्तोदय-टीका, (२४८) मिलिन्द-पह, (२४९) सारत्थ संगह, (२५०) अमरकोस निस्सय, (२५१) पिंडो निस्सय, (२५२) कलाप निस्सय, (२५३) रोगनिदान व्याख्यं, (२५४) दब्रगण टीका, (२५५) अमरकोस, (२५६) दंडि टीका, (२५७) दंडिटीका (द्वितीय), (२५८) दंडि-टीका (तृतीय), (२५९) कोलध्वज टीका, (२६०) अलंकार, (२६१) अलंकार-टीका, (२६२) भेसज्जमंजूसा, (२६३) युद्धजेय्य, (२६४) यतन प्रभा टीका, (२६५) विरग्ध, (२६६) विरग्ध-टीका, (२६७) चूला मणिसार, (२६८) राजमत्तन्त टीका, (२६९) मृत्युवञ्चन, (२७०) महाकाल चक्क, (२७२) महाकालचक्क-टीका, (२७२) परविवेक, (२७३) कच्चायन रूपावतार, (२७४) पुम्मरसारी, (२७५) तक्तवावतार (तत्त्वावतार), (२७६) (२७७) न्याय बिन्दु, (२७८) न्यायबिन्दु टीका, न्यायबिन्दु टीका, (२७९) हेतुबिन्दु, (२८०) हेतुबिन्दु टीका, (२८१) रिक्ख- णिय यात्रा, (२८२) रिक्खणिय-यात्रा, टीका, (२८३) वरित्तरताकर (वृत्त रत्नाकर,) (२८४) श्यारामितकब्य, (२८५) युत्तिसंग्रह (२८६) युत्ति संगह टीत्र, (२८७) सारसंगह निस्सय, (२८८) रोग यात्रा निस्सय, (२८९) रोग निदान निस्सय (२९०) सद्दत्थभेद चिन्तानिस्सय, (२९१) पारानिस्सय, (२९२) श्यार मितकव्य-निस्सय, (२९३) वृहज्जातक-निस्सय, (२९४) रत्तमाला, (२९५) नरयुत्ति संगह। रामण्य-देश (पेगू-बरमा) के राजा धम्मचेति का १४६७ ई० का कल्याणी अभिलेख कल्याणी (पेगू-बरमा)-अभिलेख रामण्य-देश (पेगू-बरमा) के राजा धम्मचेति ने सन् १४६७ ई० में अंकित करवाया था। वरमा में वौद्ध धर्म के विकास, विशेषतः भिक्षु-संघ की परम्परा, पर इस अभिलेख से पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। भिक्षुओं के उपसम्पदा-संस्कार की विधि एवं विहार-सीमा के निर्णय करने के विषय पर राजा धम्मचेति के समय में बरमी भिक्षु-संघ में विवाद उपस्थित हो गया । इस विवाद का निश्चित समाधान करने के लिए प्राचीन वौद्ध साहित्य, विशेषतः विनय पिटक और उसकी अट्ठकथा एवं उपकारी साहित्य Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६४३ ) का काफी गवेषण किया गया। उसके परिणाम स्वरूप जो निश्चित मार्ग दर्शन प्राप्त हुआ उसी का उल्लेख कल्याणी-अभिलेख में है। यह विषय बौद्ध क्रियाकाण्ड मे इतना संबंधित है कि उसका उद्धरण देने से यहां कोई विशेष प्रयोजन सिद्ध नहीं हो सकता । पालि-साहित्य के वरमा में विकास की दृष्टि से केवल इस अभिलेख पर अंकित उन पालि ग्रन्थों के नाम महत्वपूर्ण है जिनकी सहायता उपर्युक्त विवाद के शमनार्थ ली गई थी। इन ग्रन्थों में ये मुख्य हैं-~-पातिमोक्ख खुद्दक-सिक्खा, विमति-विनोदिनी, विनय-पालि, बज्रवुद्धि स्थविर (वजिरबुद्धि थेर।) कृत विनय टीका या सारत्थदीपनी मातिकट्ठकथा या कंखा वितरणी विनय विनिच्छयप्पकरण, विनयसंगहप्पकरण, सीमालंकार पकरण, सीमालंकार संगह आदि । जैसा स्पष्ट है, विनय-पिटक संबंधी साहित्य ही इसमें प्रधान है। ___कल्याणी-अभिलेख इस दिशा में पालि-साहित्य सृजन की अंतिम काल सीमा निश्चित करता है । वह उस प्रभूत पाल-साहित्य की ओर भी संकेत करता है जो लंका की तरह बरमा में भी लिखा गया । पालि-साहित्य यद्यपि संस्कृत की तरह एक पूरा वाङ्मय नहीं है, फिरभी उसकी रचना भारत, लंका और वरमा तीन देशों में हुई है। उसकी अनेकविध बिखरी हुई सामग्री इसका प्रमाण है। पालि में विभिन्न ज्ञान-शाखाओं पर ग्रन्थ नहीं लिख गये। जो कुछ लिखे भी गये उनका भी आधार विशाल संस्कृत वाङ्मय ही था और उनका अपने आप में कोई विशेष महत्व नहीं है। Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसंहार भारतीय वाङ्मय में पालि साहित्य का स्थान ___ गत पृष्ठों में जिस साहित्य का पर्यालोचन किया गया है वह भारतीय माहित्य का अभी तक प्रायः एक उपेक्षित अंग ही रहा है। संपूर्ण मध्यकालीन भारतीय आर्य साहित्य का ही वैसे तो यथावत् अध्ययन अभी हिन्दी में नहीं किया गया । किन्तु पालि-साहित्य के अतिशय गौरवशाली होने के कारण उसकी उपेक्षा तो अत्यंत हृदय द्रावक है। छठी शताब्दी ईसवी पूर्व से लेकर छठी शताब्दी ईसवी तक अर्थात् पूरे १२०० वर्ष के भारतीय इतिहास में जो कुछ भी सबसे अधिक स्मरणीय, जो कुछ भी सबसे अधिक महत्वपूर्ण है, वह पालि-साहित्य में निहित है । इस युग का भारतीय समाज, धर्म, दर्शन और सबसे अधिक विश्व-संस्कृति को उसका मौलिक दान, सभी कुछ पालि साहित्य में अंकित है। फिर भी इस महत्वपूर्ण साहित्य का जितना अध्ययन और प्रकाशन कोलम्बो (सिंहल), रंगून, (बरमा ), बंकाक ( स्याम ) और पालिटैक्स्ट् मोसायटी, लन्दन से हुआ है, उतना किसी भारतीय नगर या शिक्षा केन्द्र के विषय में तो कहा भी नहीं जा सकता। संपूर्ण भारत की वात जाने भी दें तो भी मध्य-मंडल (शास्ता की विचरण भूमि) में पालि स्वाध्याय की जो दयनीय अवस्था है उसे देखकर तो आश्चर्य होता है कि हम किस प्रकार अपनी संस्कृति के तत्वों के संरक्षण का दम भरते हैं। जिस संस्कृति के प्रभाव को चीन , जापान, कोरिया, मंगोलिया, तिब्बत, मध्य-एशिया और अफगानिस्तान की भूमियाँ अभी नहीं भूली हैं, जिसकी स्मृतियाँ अभी तक लंका, बरमा और स्याम के निवासियों के हृदय में, उनके सारे सामाजिक संस्थान और गजैनितक विधान में गुथी हुई पड़ी हैं, उसे हम भारतवासी, जो उसके वास्तविक प्रतिनिधि है, भूल चुके है । यह एक दुःखद, किन्तु सत्य बात है । भगवान बुद्ध के जिस शासन के माध्यम से हम संसार के संपर्क में आये Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६४५ ) थे, उसे हम आज तोड़ चुके हैं। आज हम कच्ची बुनियादों पर महल खड़े कर रहे हैं । समय ही बतायेगा कि वे बुनियादें कितनी स्थायी होती हैं । हाँ इतिहास की ओर मुड़कर हम चाहें तो एक ऐसे आधार का भी आश्रय ले सकते हैं जिसकी परीक्षा पहले हो चुकी है । यह आधार उम माहित्य और संस्कृति का है जिसे हम बुद्ध के नाम से संयुक्त करते हैं । इस माध्यम की पूर्व परम्परा बड़ी शुभ्र रही है । इसके द्वारा हम जिस किमी से मिले तो उसका शोषण करने के लिए नहीं, बल्कि अपने संपर्क से केवल उसी को कृतार्थ करने के लिए उसी के अनुकम्पार्थ! अशोक के प्रवजित पुत्र महेन्द्र और उनके साथी भिक्षुओं ने जब लंकाधिपति देवानं पिय तिस्स मे गौरव भरे शब्दों में यह कहा 'हम तेरे ऊपर अनुग्रह करने के लिए ही भारत से यहाँ आये है' (तवेव अनुकम्पाय जम्बुदीपा इधागता) तो उन्होंने अपने इन शब्दों से उस सारी भावना का ही प्रतिनिधित्व कर दिया जिससे प्रभावित होकर शतसहस्र धर्मोपदेशक भिक्षुओं और मानव जाति के सेवक भारतीय मनीषियों ने हजारोंकोसों को भयानक पैदल यात्राएँ कर विदेश-गमन किया था। इन स्मृतियों को पृष्ठभूमि को लेकर चाहे तो भारतीय राष्ट्र आज भी कम से कम एशिया के देशों में अपने पूर्व संबंधों को फिर से जीवित कर सकता है, उनके साथ मैत्री के संबंध दृढ़तर कर सकता है। पालि साहित्य का शुभ आशीर्वाद सदा उमे अपने इस प्रयत्न में मिलेगा । _ विशुद्ध साहित्य की दृष्टि से पालि साहित्य का अर्थ-गौरव और उसकी प्रभावमयो ओजस्विनी भाषा-शैली किसी भी साहित्य से टक्कर ले सकती है। किन्तु उसके इस संबंधी गुणों या ऐतिहासिक महत्व के विषय में हमें कुछ नहीं कहना है । पहले भी इसके संबंध में बहुत कुछ कहा जा चुका है । भारतीय माहित्य के इतिहास में पालि का स्थान सब प्रकार संस्कृत के साथ है। संस्कृत माहित्य रूपी महासमुद्र में ही आर्य जाति के संपूर्ण ज्ञान-विज्ञान का भांडार निहित है। उसी महासागर का एक आवर्त पालि भी है। पालि संस्कृत से व्यतिरिक्त नहीं, बल्कि भाषा और साहित्य दोनों ही दृष्टियों से वह उसी का एक रूपान्तर या अंग ही है । अतः संस्कृत साहित्य के अविभाज्य अवयव के रूप में पालि का महत्व भारतीय साहित्य में सदा सुप्रतिष्ठित रहना चाहिये हां, भारत की Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मौमा के बाहर के देशों में पालि अपनी जेष्ठ भगिनी संस्कृत से भी कहीं कही प्रभावशीलता में अधिक बढ़ गई है । इसका कारण है पालि का तथागत की सन्देश-वाहिका होना । अपने इस गौरव के कारण ही सचमुच पालि जैसी प्रादेशिक भाषा को भी विश्वजनीन होने तक का सौभाग्य मिल गया है, जो संभवतः आज तक अंशतः संस्कृत को छोड़कर अन्य किसी भारतीय भाषा को नहीं मिला। ___पालि और विश्व-साहित्य जर्मन कवि-दार्शनिक गेटे ने साहित्य को विश्व का मानवी-करण कहा है। दुनिया का शायद ही कोई साहित्य इस कसौटी पर खरा उतर सके जितना पालि साहित्य । भारतीय भाषाओं में यदि किसी के भी साहित्य में विश्व जनीन तत्व सबसे अधिक हैं तो निश्चय हो पालि में । गत पृष्ठों में पालि साहित्य के विवेचन में यदि लेखक ने अधिक प्रमाद नहीं किया है तो उससे स्पष्ट हो गया होगा कि पालि माहित्य एक धार्मिक संप्रदाय (स्थविरवाद बौद्ध धर्म) का ही माहित्य नहीं है, बल्कि वह जाति-धर्म-निविशेष विश्व-मानव का साहित्य है, जो विश्वजनीनता की भावनाओं से अनुप्राणित है । यही कारण है कि भारतीय भूमि से उद्भूत होकर उसका विकास समान रूप से ही अन्य देशों में भी हुआ है । संकुचित राष्ट्रीय आदर्शों की अभिव्यक्ति उसके अन्दर नहीं है । वह मनुष्य मात्र की समस्याओं को लेकर उनके समाधान के लिए खड़ा है जिनमें देश या राष्ट्र का वैसा कुछ भेद नहीं होता। बुद्ध-धर्म कैसे विश्व धर्म हो गया इसका बहुत कुछ रहस्योद्घाटन पालि-साहित्य में ही हो जाता है । यहां कोई ऐसा विशिष्ट विश्वास नहीं, कोई ऐमा कर्मकांड का विधान नहीं, कोई ऐसा देवत्व का आदर्श नहीं, जो मनुष्य-मनुष्य के बीच भेद डाल सके । यहां केवल नैतिक आदर्शवाद है, मनुष्य को मनुष्य बनाने का प्रयत्न है, और यह सब है मनुष्य को मनुष्य समझकर मनुष्य के द्वारा मनुष्य को मार्ग दिखाकर । यदि धर्म के नाम पर मानवता का अपलाप ही आज हमारे अनेक अनर्थों का कारण है, तो पालि-साहित्य हमें आज उसके प्रतिकार करने के लिए आह्वान करता है। यदि मनुष्यता के गठ Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६४७ ) बन्धन में बँधना ही विश्व-मानव के भावी कल्याण का एकमात्र मार्ग है और उसी के लिए चारों ओर से प्रगति करनी है तो उसके लिए भी पालि साहित्य सबसे पहले हमारा आह्वान करता है और हमारे मार्ग को प्रशस्त करता है। विश्वधर्म के प्रसारक इस साहित्य का यदि समुचित प्रचार और प्रसार किया जाय तो निश्चय ही यह भारतीय जनता को संसार के शेष मनुष्यों के साथ मनुष्यता की उस समान भूमि पर लाकर खड़ा कर देगा जिसकी आज सबसे अधिक आवश्यकता है और जिसके बिना भारत विश्व-संस्कृति को अपने उस महत् दान को दे भी नहीं सकता जिसे उसने बुद्ध-धर्म के रूप में कभी उसे दिया था। Page #669 --------------------------------------------------------------------------  Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १-नामानुक्रमणी अ अग्ग पंडित (तृतीय) ६११ अकारणवाद १३५ अग्गवंस ५७९, ६०३, ६११ अकालरावी जातक २८२ अग्गिवच्छगोत्त (परिव्राजक) १५५ अकित्ति-चरियं २९९ अग्गिवच्छगोत्त-सुत्त ९६, १५५, १५९ अकित्ति-जातक २९९ अग्गि भारद्वाज (ब्राह्मण) २४० अक्रियावाद १३७ अगोन् ११४ अक्रियावादी १९३, १९४ अघोष ऊष्म ३६ अघोप (स्पर्श) १९, २०, ३२, ३४, अकृततावाद १३७ अकुशल ३०, ७३, ३७४, ३७५, ३५, ५४, ५६, ५७, ५८, ५९ ३८६, ४००, ४३८, ४४०, ४४२, अचिरवती (नदी, राप्ती) १९५ ४४६, ४५०, ४५८ अचेल काश्यप १४१ अकुशल कर्म ३५५ अच्छरियन्भुतधम्म-सुत्त ९८, १५७ अकुशल-चित्त ३७९, ३८०, ३८६, अजन्ता २९० ३९०, ३९२, ५३३, ५३४, ५३५, अजातशत्रु (अजातसत्तु-मगधराज) १३७, १३८, १४४, १५७, १६२, अकुशल चेतसिक ३८६ १६६, १७७, १९", ५५०, ५६२, अकुशल धर्म ४६१ ५७१, ५७२, ५८१ अकुशल-मूल ३५५, ४४० अजित (माणव, ब्राह्मण वावरि का अकुशला मनोविज्ञान-धातु-संस्पर्शजा शिष्य) २४१, २४२, ५८६ ४०० अजित केस कम्बलि १३७, १५९, अकुशल विपाक-चित्त (सात) ३८२ ४८० ३८३, ५३५ अजितमाणवपुच्छा २४१-२४२ अक्खरसम्मोहच्छेदनी ६४१ अखरावट २३० अट्ठकथा १, २, ३, ६, ८, ९, ८५, अग्गा -सुत्त ९३, १४७ १३०, १३२, २७८, २९७, ३३७, अग्गपंडित (लोकुप्पत्ति के रचयिता) ३३९, ४२२, ४२७, ४४५, ४६५, ५७९ ४६६, ४९६, ५३७, ५३८, ५३९, अग्ग पंडित (प्रथम) ६११ ५४८, ५४९, ५६०, ५६६, ५६७, अग्ग पंडित (द्वितीय) ६११ ५६८, ५९८, ५९९, ६००, ६४२ ४२ Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६५० ) ५३१ अट्ठकथा-साहित्य ४७१ -का अत्तनगलुविहारवंस ५४१, ५४८, उद्भव और विकास ४९५-५००, ५७४-५७५ ४९७, ४९८, ४९९, ५००-- अतिरिक्त धम्म १९९ की संस्कृत भाष्य और टीआओं अतीतवत्थु २७७ से तुलना ५००-५०१,--की। अत्यव्याख्यं ६४१ कुछ सामान्य विशेषताएँ ५००-५०१, अत्थवण्णना २७७ ५०२, ५०३, ५०४, ५०५, ५०६, । अत्थसवग्ग ६२९ ५०८, ५१४, ५१५ अत्थुद्धार-कंड ३७३, ३९४, ३९५ बुद्धघोष की अट्ठकथाएँ ५२२- अर्थकथा ७१, १०४, १०५, १०९, ५२९, बुद्धदत्त की अट्ठकथाएँ। २२३ ५०४-५०५, अभिधम्मपिटक । अर्थजाल १३४ सम्बन्धी अट्ठकथाएँ ५२८-५२९; । अर्थ-विद्या २९२ ५३२, ५३६ अद्वेष ३८८, ३९४, ४४०, ४५८, अट्ठकथाकार ३०८, ४२७, - ५३३, ५३५ पालि साहित्य के तीन बड़े ५०१- अर्द्धमागधी १८, १९, २८, ३१, ३२, -- का पालि से सम्बन्ध ३१अट्ठकथाचरिय ५७७ ३३; ३४, ३९, ४५, ४८, ४९, अट्ठकनागर-सुत्त ९५, १५३ अट्ठक-निपात १०१, १७८, १८०, अविकरणपच्चय-कथा ५०४ । १८२, १८९, १९०, १९३ अधिकरणसमथा धम्मा (सात) अट्ठकनवनिपात-अंगुत्तर ६३९ ३१२, ३१९-३२१ अट्ठकदग्ग १०६, १०७, २४० अधिकरण-शमथ ३.१३ अट्ठसालिनी १०५, १९९, ३५२, अधिट्ठान-हार ४६८ ३५९, ४७३, ४९८, ५०७, ५१३, अधिपति-प्रत्यय ४५७, ४६० ५२८, ५३०, ५४३, ५८६, अधिमोक्ष ३८७, ३९२, ३९३, ४१२, ६४१ ५३४, ५३५ अट्टसालिनी-अट्ठकथा ६३९ अधोविरेचन १६० अट्ठसालिनी की निदानकथा १९८, अनंगण १४९ १९९, ३३५, ३३६, ३५० अनंगण-सुत्त ९३, १४९ अट्ठसालिनी की टीका ५३८, ५४२ अनन्त आकिंचन्य (शून्यता) का अट्ठसालिनी-निस्सय ६४१ ध्यान ३७८ अट्ठान-जातक २९४ अनन्त आकाश का ध्यान ३७८ अड्ढकासी (भिक्षुणी) २६९ अनन्त विज्ञान का ध्यान ३७८ अत्तदण्ड-सुत्त .२४१ अनन्यशरण १७५ अत्तदीप-सुत्त १७५ अनन्तर-प्रत्यय ४५७, ४६० अत्त-वग्ग २१५, २१८, २२४ अनमतग्ग-संयुत्त ९९, १६५ अत्तनगल्ल (या अत्तनगलु-लंका अन्-अवत्रपा (अनोत्तप्पं) ३८८, में स्थान) ५७५ ३९२, ३९३, ५३५ Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६५१ ) अनागतवंस ५७८, ५८४-५८७, अनुपद-वग्ग ९७, १५७ ६४० अनुपद-सुत्त ९७, १५७ अनागतवंसस्स अट्ठकथा ५८० अनुपालि साहित्य ३०, ९०, ९१ अनागतभय-सूत्र २०१, ४४३, ५८५ अनुपिटक साहित्य ९०, ९१,अनागतभयानि ६२७, ६२८, ६२९- का काल-विभाग १०८-११० १२९, १३२, ४७२, ४९४, ५०६, अनागामि-फल १८९ ५१४, ५२८, ६१३ अनागामि-फल-चित्त ३८३ अनुमानपञ्हो ४८९ अनागामि-मार्ग-चित्त ३७६ अनुमान पञ्हं ४७६, ४७९ अनागामी ४१८, ४२०, ४३०, अनुमान-सुत्त ९३, १५१, ६२९ ४३२, ४३६, ४४२, ४४६, ५२२ अनुरुद्ध (परमत्थविनिच्छय, नामअनात्म ३४७, ३५५, ३७९, ४०२, रूप-परिच्छेद और अभिधम्मत्य४५३, ४६४ संगह के रचयिता) ५७८ अनात्मलक्षण ४८१ अनुरुद्ध (खुद्दकसिक्खं के रचयिता) अनात्मसंज्ञा ४६९ ५७८ अनात्मवाद १४९, १५२, १५७, अनुरुद्ध-सुत्त ९८, १५७ १५८, ३४९, ४२८, ४८४, ४८६ अनुरुद्ध-संयुत्त १०१, १७१ अनात्मवादी ४५३ अनुला देवी (देवानं पिय तिस्स की अनाथपिडिक १२६, १५८, १७३, भतीजी) ५७३, ५७४, १८३, १८४, १८८, २२६, २२७, अनुलोम २२७ ३२५, ५२६ अनुलोम-पट्ठान ४५६ अनाथपिडिकोवाद-सुत्त ९८, १५८ अनुलोम-पच्चनिय-पट्ठान ४५६ अन्य-समान (तेरह) ३८६, ३९१, अनुलोम-पटिलोम-पटिच्चसमुप्पाद३९२ सुत्त २१२ अन्य-समान चित्त ५३४ अनुराधपुर ५०४, ५०८, ५०९, ५५१, अन्योन्य-प्रत्यय ४४१, ४५७, ४६१ ५६८, ५७६, ६०८, ६१६ अनियत ३१३ अनुशय १५७, ४४६, ४३७, ४४०, अनियत कथा ५०४ ४५० अनियता धम्मा ३१२, ३१६-३१७ । अनुशासनी प्रातिहार्य १४२ अनिरुद्ध (पालि अनुरुद्ध, आचार्य) अनुष्टुभ् २३६ १०९, ५३२, ५३९, ५४० अनुश्रव १८६ अनिरुद्ध (पालि अनुरुद्ध, भिक्षु, अनुसय-यमक ४५० बुद्ध-शिष्य) ७८, १५२, १५४, अनुसंधानात्मक ३८१ १५७, १७०, १७१, १८३, ३२५ । अमुस्सति कम्मट्ठान-निद्देसो ५२० अनिश्चिततावाद १३८ । अनेसाकि (मसाहरु, प्रो०) २०० अनीश्वरवाद ४२८ अनोपमा (भिक्षुणी) २६८, २६९ अनुटीका व्याख्यं ६४१ अनोमदस्सी (सिंहली भिक्षु) ५७५ अनुनासिक ३५, ६४, ६५, ६६ अनोमा (नदी) २८६ Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६५२ ) अभिधा अपगर्भ १९४ ३५२, ३७४, ३९०, ४०५, ४०८, अपण्णक जातक २८१ ४१८, ४५०, ४५३, ४६४, ४७०, अपण्णक-सुत्त ९५, १५३, १५९ ४७९, ४८१, ४४३, ५४५ अपर्णक १५३ अभिधम्म-अनुटीका ६३९ अर्पणा समाधि ५२० अभिधर्म-कोश ३३४, ३५७, ४२२, अपदान १०२, १०७, ११४, १९७, ४२३, ५६३ अप१९८, २००, २९८, ५९९, ६४० । दानट्ठकथा (अपदान-अट्ठकथा) अभिधम्मत्थ संगह १०९, ११०, ३५०, ५७७, ६४० ३८४, ४५८, ५३२, के सिद्धांतों अप्पमञविभंग ४१० का संक्षिप्त विश्लेषण ५३३-५३६ अप्पमत्तक वग्ग ६२४ अभिधम्मत्थसंगह--अट्ठकथा ६३९ अप्पमाद-वग्ग २१४, २२३ अभिधम्मत्थसंगह-टीका ६३९ अपभ्रंश १२, ३०, ३२, ७२ अभिधम्मत्थसंगह की टीका (धर्मानन्द अप्रमाणा चेतोविमुक्ति १५७ कोसंबी कृत) ५४२ अपरशैलीय ४२६, ४३०, ४३९, अभिधम्मत्थसंगह की टीका (लेदि सदा४४१, ४४७, ४४८ वकृत) ५४४ अपरान्त (अपरान्तक भी) ५५७, अभिधम्मत्थसंगह की टीका (सुमंगल५७२, ५७४, ५८२ कृत) ५४० अपरान्त-कल्पित १३५ अभिधम्मत्थसंगह-संखेप टीका (छपद अपरान्तक-प्रदेश ८८ __-कृत) ५४० अपरिमाण ३८८, ३९३, ४१२ अभिधम्मत्थगण्ठिपद ५४३ अफगानिस्तान ६४४ अभिधम्मत्थविकासनी ५४०, ५७९ अफलातूं १३१, ४५४, ४७३, ४९३ अभिधम्मत्थविभावनी ५४०, ५७९ अन्भुतधम्म १०२, १०३ अभिधम्मत्थविभावनी की टीका अभय ३१० ५४२, ६३९ अभय (सइत्थ भेदचिन्ता की टीका के अभिधम्मत्थ संगहपकरणं ५७८ रचयिता) ५८० अभिधम्मपण्णरसट्ठानं ५८० अभयमाता (भिक्षुणी) २६९ अभिधम्म-पिटक ८७, ८८, ९१, अभय गिरि विहार ५६३ १०७, ११५, ११७, १७९, १९७, अभयराजकुमार-सुत्त ९५, १५३, १९८, १९९, २३२, २९८, ३२७, ३३०, ३३४-४६४,--का रचनाअभ्यास ४६८ काल ३३६-३४६,-का विषयअभिज्ञा निद्देसो ५२१ ३४६-३४९-की शैली ३४९ अभिण्ह जातक २७४ -३५१, का महत्व ३५१-३५३, अभिधम्म (अभिधर्म) २, ८५, १०९, की सर्वास्तिवाद संप्रदाय ११३, १९९, ३०८, ३२६, ३३५, के अभिधर्म-पिटक से तुलना ३३६, ३३८, ३३९, ३४०, ३४३, ३५३-३५८,--के ग्रन्थों की विषय ३४४, ३४७, ३४९, ३५०, ३५१, वस्तु का संक्षिप्त विश्लेपण ३५८ Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६५३ ) ४६४, ४६५, ४६६, ४७०, ४९४, १४४, २६६, २६८, २६९, २७१ ५००, ५०३, ५०५, ५३२, ५३३, अम्बलठिका १४५, १५३ ५३५, ५३६, ५६६, ५६८, ६०२ अम्बलठ्ठिकाराहुलोवाद-सुत्त ९५, अभिधम्म-पिटक संबंधी अट्ठकथायें १५३, ६३१ ५२८-५२९ अमरकोश ६१४, ६३८, ६४२ अभिधम्म फिलॉसफी (भिक्षु जगदीश अमरकोश-निस्सय ६४२ काश्यप कृत) ८७, ३४२, ३४५, अमरसिंह (संयुत्त-निकाय के सिंहली ३४७, ३४९, ३५१, ३९१, ३९३, ___ संस्करण के संपादक) १६० ५१७, ५३३, ५४५ अमराविक्षेपवाद १३५ अभिधम्म-मूल टीका ५३२,--की अमानुषी ४४७ अनुटीका ५४३ अमितायु ४४६ अभिधम्म-दर्शन ३४२, ४५०, ४५२ अमेरिकन लैक्चर्स ऑन वुद्धिज्म ३४६ अभिधम्म-भाजनिय ३४४, ३९७, अमोह ३९४,४४०,४५८,५३३,५५, ३९८, ३९९, ४०२, ४०३, ४०५, अयोघर-चरियं ३०० ४०७, ४०८, ४१० अरणविभंग-सुत्त २६, ८, १५८,५०० अभिधम्म-विभाग ३४४ अरब (देश) २९५, २९६ अभिधम्म-शैली ३४४ अरबी २९५ अभिधर्म-साहित्य ३११, ३४३, ३४५, अरस्तू ४५४ ३५८, ५४० अरहन्त वग्ग २१५, २१७, २२३ अभिधम्मावतार ५०३, ५०४, ५०५, अरिमर्दन (वरसा में स्थान) ६०६ ___५३९, ५६६, ५७७ अरियपरियेसन-सुत्त ९४, १५१ अभिधम्मावतार की टीका ५३९, ५४० अरियवंस ५४२, ५८०, ६११ अभिधान ६४० अरियसच्चावतार ६४१ अभिधान-टीका ६४० अरियालंकार (बरमी भिक्षु) ६७० अभिधानप्पदीपिकं ५७९ अरिष्ट ३१० अभिधानप्पदीपिका ७, ८, ९, ६१४- अरुणवति ६४० अरूप ३५५, ४५०, ५०५, ५२१ अभिनवखुद्दकसिक्खटीका ५३९ अरूप-धातु ४३५, ४८२ अभिनवचुल्लनिरुत्ति ६०९ अरूप-राग ४४२ अभिरूपा नन्दा (भिक्षुणी) २६९ अरूप-लोक ३७२, ३८५, ४३५, ४४५, अभिलेख-साहित्य १०३ अरूप-स्कन्ध ४५० अभिसमय-संयुत्त ९९, १६५ अरूप-समाधि ३७९ अभिसंबुद्ध-गाथा २७८ अरूपावचर ३७६, ३७९, ३९९,४१२, अभिसंबोधि १५१ ४४२, ५३५, ५३६ अम्बष्ट (अम्बट्ठ) १३८, ५२३ अरूपावचर-भूमि १६९, ३७१, ३८५, अम्बट्ठ-सुत्त ९२, १२७, १२८, १३०, ३९९ - १३८-१३९, १७२ अरूपावचर-भूमि के चार कुशल-चित्त अम्बपाली (गणिका, बाद में भिक्षुणी) ३७८-३७९ Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०५ ( ६५४ ) अरूपावचर-भूमि के चार क्रिया-चित्त ४५५, ४६८ अविद्या-ओघ ३० अरूपावचर विपाक-चित्त (चार) अविद्या-धातु ४०३ ३८३ अविद्या-योग ३० अल्लकप्प ५७१, ५७२ अविद्यावद्विषय ३५० अलंकार-टीका ६४१, ६४२ अविद्यास्रव ४४१ अलंकार-सूत्र ११४ अव्याकृत १४१, १४७, १७०, ३५९, अलगदूपम-सुत्त ९४, १०४, १५१, ३७३, ३७५, ३७६, ३८५, ३९९, ४००, ४०१, ४०२, ४०४, ४०५, अलम्वुस-जातक ६३५ ४०६, ४०७, ४१०,४३७, ४४०, अलसन्द २९५, ४९४ ४४६, ४५०, ४५८ अलक्षेन्द्र २९५ अव्याकृत-चित्त ३८१, ३८७, ३९२, अलिकसुन्दर ८९ ५३३, ५३५ अलियवसानि (आर्यवंश) ६२७, ६२८, अव्याकत-संयुत्त १००, १७० ६२९ अव्याकता धम्मा ३८१-३८३ अली ३२७ अव्याकृता मनोविज्ञान-धातु-संस्पर्शजा अर्ली हिस्ट्री ऑब इण्डिया (स्मिय) ४०० अवेस्ता ५८ अलेक्जेन्डर २९५ अशाश्वतवाद १३६, ४२८ अलेक्जेन्ड्रिया २९५, ४९४ अशुभ-भावना २५४ अलोभ ३८८, ३९४, ४४०, ४५८, अशैक्ष्य ४१८, ४१९, ४२८, ४३३ ५३३, ५३५ अशोक (प्रियदर्शी, धम्मराजा') अलौकिक ४७० ४, ११, १२, १४, १७, १९, २६, अलौकिक ज्ञान ४११ २८, ३१, ३९, ५१, ५५, ८६, अल्पप्राण ५४, ५६, ५९, ६२ ८७, ८८, ८९, ९०, १०३, १०४, अवदानं ११४ १०५, १०६, १११, ११२, ११६, अवदान २९८ ११७, ११८, १२०, १२२, १२३, अवदान-साहित्य २९८ १४८, १७५, २०४, २३५, २९२, अवधूत-नियम (तेरह) ४९१ २९३, ३१०, ३११, ३३२, ४२१, अवधूतव्रत ५१८ ४२२, ४२५, ४२६, ४२७, ४९४, अवन्तिपुत्र (मथुरा का राजा) १५५ ५२९, ५५१, ५५६, ५५७, ५६१, अवन्तो १७, १८, १७७, १९५, २८७, ५६२, ५६३, ५७२, ५७३, ५८२, ५९६,-के अभिलेख ६१७अवन्ती प्राकृत ३१ ६३३,-के अभिलेखों का वर्गीअवत्रपा (ओत्तप्पो) ३८७, ५३५ करण ६१८-६१९,-के अभिअवारिय जातक २८४ लेखों का महत्व ६१७-६१८,अविगत-प्रत्यय ४५८, ४६३ के अभिलेखों का विवरण ६१९अविद्या १६५, ४०७, ४४१, ४५४, ६३३, ६३६, ६४५ Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६५५ ) 'अशोक' (स्मिथ-कृत) ६२० । ३८५, ४०७, ४१०, ४२०, ४३०, अशोक-कालीन २०६, ३३६, ४२५, ४३२, ४३३, ४३६, ४४२, ४४६, ४२७, ६२७ ४५८, ४६९, ४७५, ४८८, ५२२, 'अशोक की धर्मलिपियाँ' (नागरी ५३३ प्रचारिणी सभा, काशी) ६२६ अर्हत्-मार्ग-चित्त ३७९ अशोक-पालि ३९ अर्हत्त्व १६९, ४२८, ४३२, ४३३, अशोक-संगीति ३३८ ४४२, ४४५, ४९१ अशोभन-चित्त ५३४ अर्हत्त्व-फल ३०, १८९, ३६१, ४७५, अश्वघोष १९, ३५५, ४४४, ५८३, ४८० अर्हत्त्व-फल-चित्त ३८३ अष्टक-वर्ग ७५ अ-ह्री (अहिरीक) ३८८,३९२,५३५ अष्टादश-निकाय-शास्त्र ३०२, ४४९ अक्षर-संकोच ४४, ४९-५० अष्टाध्यायी (पाणिनीय) ६०१ अंकोत्तर-निकाय १७९ अस्सगुत्त (अश्वगुप्त) ४८० अंकोत्तरागम ११३ असदिस जातक ६३५ अंग (जनपद) १३९, १४५, १५९, असम्यक् वाणी ३५५ १९५, २८७, ५६३ असमतिस्स ५७५ अंग-मगध ५२३ अस्सजि (अश्वजित्) ३२५, ३२८, अंग्रेजी साहित्य २७८, ४९२ अंगिरा (मन्त्रकर्ता ऋषि) १४२, २९१ अस्सलायन-सुत्त (अस्सलायण सुत्तन्त) *, १५६, २९१ अंगुत्तर-निकाय (अंगुत्तर) २५, ७५, अस्सक (अश्वक, अश्मक, जनपद) ८३, ९१, १०१, १०४, १०६, १४५, १९५, २८७ १०७, ११३, १२९, १३१, १७८असिबन्धकपुत्त-सुत्त १७६ १९६, १९८, २०१, २१०, २३२, असुभ-कम्मछान-निद्देसो ५२० २८६, ३०६, ३१०, ३१४, ३१५, अ-संस्कृत ४३३, ४३४, ४४४, ४४७ ३४०, ३४२, ४१८, ४४३, ४९७, असंस्कृता-धातु ४५३ ५१४, ५६७, ६२९, ६३० असंखत-संयुक्त १००, १६९-१७० अंगुत्तर-निकाय की अट्ठकथा ५०१, असंखारिक (असांस्कारिक) ३७७, ५१३, ५२४-५२६, ५३८ । ३७८, ३८०, ३८१, ३८२, ३८४, अंगुत्तर निकाय की अट्ठकथा की टीका ३८५ ५३८ असंग ३३४ अंगुत्तर-टीका (अभिनवा) ६३९ असंयुक्त व्यंजन ३७, ३८, ४९, ५४-६२ अंगुत्तर-टीका (पोराण) ६३९ अति-प्रत्यय ४५८, ४६३ अंगुलिमाल १५५ असंपदान-जातक २८६ अंगुलिमाल-सुत्त ९६, १५५ अहेतुक ३८४, ५३३ अण्डभूत-जातक २८८ अहेतुक क्रिया-चित्त (तीन) ३८४ अन्तकिन ८९ अर्हत् १५७, २३३, २९८, ३७५, ३८४ अन्तरगमेवंडार (राजगुरु) ६१३ Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६५६ ) अन्त्य व्यंजन ३७, ५४, ६८ आटानाटिय-सुत्त ९३, १२६, १३३, अस्त.स्थ ३५, ३६, ५५, ६२, ६४, १४८, २१२ अन्तियोकस ८९ आठ आरब्ध वस्तु १८२ अन्धक ४२६, ४३०, ४३१, ४३२, आठ अभिभू-आयतन १८२ ४३३, ४३४, ४३५, ४३६, ४३७, आठ गुरु-धर्म १८९ ४३८, ४४०, ४४१,.४४२, ४४३, आठ विमोक्ष १८२ ४४८ आणञ्जसप्पाय-सुत्त ९७, १५६ अन्धगजन्याय २३० आत्मनेपद ६८ अन्धट्ठकथा ४९७, ४९८, ५३०, आत्मदीप १७४ ५३१, ५४९ आत्मवाद ४२८ अन्धभूत-जातक ६३५ आत्म संज्ञा ४६९ अन्धवेणु-परम्परा १३० आत्मशरण १७४ आ आत्मा १६६, ३४७, ४२८ आतुम (स्थविर) २४७ आउटलाइन ऑव दि वर्ल्ड हिस्ट्री आतुमान २३६ (एच० जी० वेल्स) ६१९ आदिच्चपट्ठान जातक २८२ ऑक्सफर्ड हिस्ट्री ऑव इन्डिया ६१८ आदि असंयुक्त व्यंजन ५४-५७ आकंखेय्य-सुत्त ९३, १४९, ३२४ आदि पर्व २९२ आकाशानन्त्यायतन १६९,२३१,४३४, आदि व्यंजन ३७ ५२१ आदि संयुक्त व्यंजन ६२-६३ आकाशनन्त्यायतन कुशल-चित्त ३७९ आदेशना-प्रातिहार्य १४२ आकाशानन्त्यायतन विपाक-चित्त आदेशना-विधि ३३५ ३८३ आध्यात्मिक आयतन ३४८ आकाश-धातु ४०४ आधुनिक आर्यभाषा-युग २९ आकिंचन्यायतन १६९, २३१, ५२१ । आनन्द कुमारस्वामी ५६९ आकिञ्चन्यायतन विपाक-चित्त ३८३ आनन्द (बुद्ध-शिष्य) ७७, ७८, १२१ आकिञ्चन्यायतन कुशल-चित्त ३७९ १३४, १४२, १४४, १५३, १५६ आख्यान २८३, २९१ १५७, १६७, १७३, १७४, १८३ आख्यानात्मक काव्य १६१ १८९, १९०, १९५. १९८, ३०५ आख्यान-गीति २७१ ३०६, ३१९, ३२०, ३२५, ३२७ आगम ११४ ४८८, ४८९, ५२६, ५५० । आगमट्ठकथा ४९७, ४९८ आनन्द (वुद्धघोष के समकालिक अट्ठआचरियान सामनट्ठकथा ४९७, कथाकार) ५३२, ५३९, ५४३ ४९८ ५७७, ५९५ आचार्य-मुष्टि २१, ४८८, ४८९ आन्ध्र ११६ आजीव ३९१, ३९३ आनन्द 'आरण्यायतन' ५९८ आजीवक ३२५ अनान्द कौसल्यायन (भदन्त) Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६५७ ) ७७, ७८, ८७, ९०, २०७, २१४ २२५, २३१, २३५, २४४, २४६ २७२, २७८, २९२, २९८, ३३९, ५५३,५५४, ५५५, ५५६, ५५७, ५६१ आनन्द-भद्देकरत्त - सुत्त ९८, १५८ आनापान सति ५२१ आनापाण-संयुत्त १०१,१७२ आनापानसति सुत्त ९७, १५७, १७१ ४०८, ६२४ आपत्ति ( दोष के अर्थ में) ३१९, ३२० आपत्ति ( प्राप्ति के अर्थ में ) ६०१ आप कृत्स्न ५२० आमगन्ध-सुत्त २४० आर्य अष्टांगिक मार्ग १२९, १४० १४१, १५१, १५२, १६९, १७० १७२, १८०, १८२, २०८, २६५ ३०३, ४०९, ४३७, ४४५, ४६८ ४९० आर्य कात्यायनीपुत्र ३५४, ३५६ आर्य कात्यायन ३५३ आयतन १५८,२०८,२३१,३४५,३४९ ३५६, ४०६, ४०२, ४०३, ४०६ ४१२, ४१३, ४१५, ४१७, ४४२, ४४३, ४४७, ४५०, ५२१, ५८९ आयतन - धातु- निद्देसो ५२१ आयतन-यमक ४५० आयतन - विभंग ३९७, ४०१, ४०३ आयतन -संयुत्त ३४८ आर्य-मार्ग ३७५,४१२, ४४२-४४३ ४८२ आर्य-प्रज्ञा ३५५ आर्य मौन १६६ आर्य मौद्गल्यायन ३५३, ३५६, ३५७ आर्य शारिपुत्र ३५३, ३५६, ३५७ आर्य संग्राम ( भिक्षु ) २२९ आर्य सत्य (चार) १२९, १५८, १८० १८१, ३०३, ३५६, ४७२ आयुपाल ( स्थविर ) ४८१ आयुर्वेद १६० आयु १५२ आरामदूक जातक २८३, ६३५ आरुणि ४९४ आलवी ५२५, ५२६ आलम्बन ४५८ आलम्बन- प्रत्यय ३५६, ४५७, ४५९ आलवक ( यक्ष) २४० आलवक - सुत्त २१२, २४० आवा (बरमा में ) ५९९ आर्ष ( जैन सूत्रों की भाषा, अर्द्ध मागधी) १८ आश्वलायन १५६, १५९, २९१ आरुप्प निद्देसो ५२१ आस्रव १६९, ४११ आसेवन - प्रत्यय ४५७, ४६२ आहार- प्रत्यय ४५८, ४६२ आज्ञा कौण्डिन्य १८३, ३२५ इ इंगलैण्ड ५६१ इटली २९६ इट्ठिय ( इत्तिय ) ८९, ३१०, ५५७, ५६८, ५७२ इंडियन ऐंटिक्वेरी ५५०, ६२९, ६३०, इंडियन फिलॉसफी (राधाकृष्णन् ) ४८४ इंडियन लिटरेचर (हिस्ट्री ऑव इंडियन लिटरेचर, डा० विन्टरनित्ज़ - कृत ) ८, १२, १४, १६, २४, २५, ८०, ८६, ८७, १२९, १३०, १३२, १३४, १६१, १६४, २००, २०१, २५५, २७२, २७३, २९६, ३१५, ३२६, ३४५, ३५१, ४७५, ४७७, ४७९, ४८४, ४९२, ५५४, ५८७, ५९०, ५९३, ५९५, ५९८, ६३०, ६३१ इंडियन शिपिंग (राधाकुमुद मुकर्जी ) २८९ Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६५८ ) इंडियन हिस्टोरिकल क्वार्टरली ८, इन्द्रिय-यमक ४५१, ६३९ इन्द्रिय-विभंग ३९७, ४०६ इंडिया ऐज़ डिस्क्राइब्ड इन अर्ली इन्द्रिय-सच्च-निद्देसो ५२१, ६०१ टैक्स्ट्स ऑव जैनिज्म एण्ड बुद्धिज्म इन्द्रिय-संयुत्त १०१, १७१ (दिमलाचरण लाहा) २८९ इरावदी (नदी) ५८२ इ-चिंग ६२१ इसिसिंग २९३ इच्छा-मंगल (कोशल में ग्राम) १९५ इक्ष्वाकु १३९ इतिवृत्तक १०१, १०३, १०७, ११४, १७९, १९६, १९७, २३१-२३५, ईर्यापथ १५६, १६० ५३१, ६३० ईशान चन्द्र घोष २७२ इतिवुत्तक (साट्ठकथं) ६४० ईश्वर-प्रणिधान ४६४ इतिवृत्तक-अट्ठकथा ५७७ ईश्वरवाद ४२८ इतिहास ४८१ ईर्ष्या ३८८, ३९२, ५३५ इतिहास-पुराण ५४७,-के पाँच लक्षण ईसप २९५ ५४८ ईसाई धर्म २९६, ३३२ इन्ट्रोडक्शन टू दि कम्परेटिव फिलॉ ईसाई सन्त २९६ लाजी ऑव दि इन्डो-आर्यन लेंग्वे जेज़ ८ इन्सक्रिप्शन्स ऑव अशोक ८६ उक्काचेल १७४ इद्धविधनिदेसो ५२१ उक्काचेल-सुत्त १७४ इद्धिपाद-विभंग ३९७, ४०८ उग्र गृहपति १८४ इद्धिपाद-संयुत्त १०१ उच्छेदवादी १३५, १३७, १९३, १९४ इद्धिय ३३६ उज्जेनी (उज्जयिनी) १२, १३, १५ इसिगिलि-सुत्त ९७, १५७, २११ २८८, ४९४, ५६३ इसिमिगो जातक ६३५ उट्ठान २५० इसिसिंगिय जातक ६३५ उड़ीसा ६१७ इन्द्र १६४, २५२, २६२, ३३५ उत्तम (भिक्षु) २०७, २२५, २३१, इन्द्रकूट १६३ २४४, २४६ इन्द्रप्रस्थ २८६, ५६३ उत्तम (बालावतार टीकं के लेखक) इन्द्रिय (इन्द्रियाँ) ३५५, ३५६, ३८१ ५७८, ५७९ ३९६, ४३८, ४६८-पाँच ४१२ उत्पलवर्णा (भिक्षुणी) १६२, १८४ ५२१,-छह ४४०, ४४२,- २७१ बाईस ४०६, ४१२, ४४७ उत्कल देश २८६ इन्द्रिय-चेतना ४३५, ४३७ उत्तम सिक्ख (भिक्षु) ६०६ इन्द्रिय-जातक २८७ उत्तर-कुरु १८ इन्द्रिय पच्चयो ४६२ उत्तर-पंचाल २८६ इन्द्रिय-प्रत्यय ४५८, ४६२ उत्तर-मनुष्य-धर्म १५० इन्द्रिय-भावना-सुत्त ९९, १५८ उत्तरलीनत्यदीपनी ५०५ Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६५६ ) उत्तरविनिच्छय ४९९, ५०४, ५०५ ५४०, ५७७, उत्तरविनिच्छय-टीका ५४० उत्तर विहार ४९९, ५०४ उत्तर ( स्थविर ) ५५७, ५६८, ५७२ उत्तरा १६४ उत्तरा नन्दमाता ९८४ उत्तरापथ २९१ उत्तरापथ २९१ उत्तरापथक (बौद्ध सम्प्रदाय) ४२६ ४३२, ४३३, ४३४, ४३५, ४३६ ४३८, ४३९, ४४०, ४४२, ४४५ उत्तिय ८९, ३१०, ३३६, ५५७, ५६८ ५७२ उद जातक ६३५ उद्गत ( उग्गत) गृहपति १८४ उदयन ( उदेन ) १७७, २३१, ४६४ ५०७, ५२७ उदय- माणव - पुच्छा २४१ उदान ७५, १०१, १०३, १०६, १०७ ११४, १९६, १९७, २१०, २२५२३१, २३३, २३४, ४२०, ४५४ ५३१ उदान (साट्ठकथं ) ६३९ उदानं ११४ उदानट्ठकथा ५७७ उदा- सुत्त १७३ उदायी १५४, १७३. १७४ उदुम्बर (आचार्य) ५८० उदुम्बरिक-सीहनाद-सुत्त १२, १४७ उद्दालक- जातक २९१ उदेस-वार ४५१ उद्देस - विभंग-सुत्त ९८, १५८ उद्धच्चं (उद्धतता) ३८१, ३८८, ३९२ उपक ( आजीवक ) ३२५ उपक्कि सुत्त ९८, १५७ उपध्मानीय ३६ पतिसपसने ( उपतिष्य - प्रश्न ) २३५ ६२७, ६२८, ६३० उपतिष्य ३१० उपतिष्य ( सिंहली भिक्षु, महाबोधिवंस के सिंहली संस्करण के सम्पादक ) ५६८, ५६९ उपतिस्साचरिय (अनागतवंस की अट्ठकथा के लेखक ) ५८०, ५८७ उपनिःश्रय ४५८ उपनि अय-प्रत्यय ४५७ उपनिषद् १३०, १३१, १४२, १७६ २२०, २२९, २९१, २९३, ४४३ ४६३, ४६४, ४९३, ४९४ उपरिपणास ६३९ उपरिपण्णास - अट्ठकथा ६३९ उपपिण्णास-टीका ६३९ उपवसथ ३२३ उपशम (अनुस्मृति ) ५२१ उपसम्पदा ४८७ उपसम्पदा - नियम ३०९ उपसम्पदा -ज्ञप्ति ३१३ उपसीवमाणवपुच्छा २४१ उपसेन ५३२, ५७८ उपसेन वंगन्तपुत्त १८३ उपादान १६५, ३४८, ३९३, ४०७, ४५५ उपादान स्कन्ध १५१ उपालि ७७, १८४,३१०, ५२५,५२६, ५५०, ५६२ उपालि-सुत्त १५३,१५९, १६० उप्पाद निरोध-वार ४५१ उप्पाद-वार ४५१ उप्पाद - संयुक्त्त १००, १६७ उपेक्षा १७०, २९९, ३४९, ३७२, ३७७, ३७८, ३८०, ३८१, ३८२, ३८४, ३८५, ४०३, ४०८, ४१०, उपेक्षा-धातु ४०३ उपक्षा- भावना १५४ उपेक्षेन्द्रिय ४०० Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपोसथ ३२३, ३२६ एकब्बोहारिक (एकव्यावहारिक) उव्वरी पेतवत्थु २४६ ४२२, ४२३, ४२४ उब्बिरी २६८, २७० एकराजचरियं ३०१ उम्मदन्ती-जातक २८५ एकराजजातक ३०१ उरग २४० एक-स्कन्ध ४१६, ४१७ उरगपेतवत्थु २४६ एकुत्तर-निकाय १७९ उरगवग्ग २३५, २४० एकोत्तरागम १७८ उरग-सुत्त २३६ ए गाइड टू साँची ६३४ उरगपुर (उरइपुर) ५०३ एकाग्रता (एकग्गता) १७१, ३७८, उरुवेल कस्सप (उगविल्व काश्यप) ३८३, ४०९, ५३४ ।। १८२, ३२५, ५२५ एकादसक-निपात १०१, १७८, १८२, उरुवेला ७४, १७३ २२७, २८६, १८८ ३२५, ५३०, ५६२, ५६३ एकासनिकंग ४९१ उशीनर २९४ एकंसिक ३०७, ५८२ उशीरध्वज २८६ एलेक्जेन्डर ८९ उष्मा १५२ एडमंड्स (ए० जे०) २३४, ६२९ ऊ एण्डुक २९२ ऊर्ध्व विरेचन १६० एतदग्गवग्ग ७५, १८२, ३१० ऊष्म (ऊष्मा) ३५, ३६, ५५, ६२ एतिमासमिदीपकं ५८० । ६४, ६५, ६६ एतिमासमिदीपिकाय टीकं ५८१ एन्साइक्लोपेडिया ऑव रिलिजन एण्ड ऋ एथिक्स २७३, ४७९, ४९२ ऋ और ल के पालि प्रतिरूप ३९-४० ए वद्धिस्ट मेनुअल ऑव साइकोलोजीऋग्वेद ११, २८, ३९, १६४, २३६ ।। ___कल एथिक्स ३३९, ३४०, ३५१, ऋत ४५८ ३५८, ४४३, ४९८ ऋपिदामी (भिक्षुणी) २६८ एलार (दमिल नेता) ५७३ ऋपिपतन (इसिपतन) ५२५, ५६३ ।। एशिया २९४, ६४५ ऋषिपतन मृगदाव १७२ एसुकारि-मुत्त ९०, १५९ ऋष्यश्रंग २९३ एक-आयतन ४१५, ४१६ ऐज़ यू लाइक इट २९६ एकक-निपात (अंगुत्तर-निकाय) १०१, ऐतरेय २९० १७८, १८०, १८१, १८२, २३२, ऐतरेय-ब्राह्मण १४२, २९१ ऐतिहासिक महाकाव्य ५५३ २३३, ६२४, ६३९ एकक्वरकोस ६१४, ६१५, ६१६ ऐसा तथागत ने कहा २३१, २३२ एक-दृक-तिक-अंगुत्तर ६३९ ओ एक-धातु ४१५, ४१६ ओक्कन्तिक-संयुन १०० एक-निपात-जातक-अट्ठकथा ६४० ओघ ३६६ Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६६१ ) ओघ-वर्ग ३६६ ४९४ ओतरणहार ४६८ कजंगला-सुत्त १८० ओपम्पकथापञ्हं ४७७,४७९,४९१ कटाहक जातक २८८ ओपम्म-वग्ग ९४, १५१, ४४३ कण्टक-खिप नागित (बरमी भिक्षु) ओपम्म-संयुत्त ९९, १६६ ६०६ ओरियन्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट ३१४ कण्ठ्य संयुक्त व्यंजन ६७ ओल्डनवर्ग २,१०,१३, १५, २६, ७९, कण्डिन जातक २८१ ८०, ८४, ८५, ९०, १०४, १११, कण्णकत्थल-सुत्त ९६, १५६, १६० १३२, ३४०, ३५२, ५४८, ६२८ । कण्ह-जातक २८२, २९४ ओप्ठ्य ३५, ३६, ३९, ४६ ।। कण्हदास (कृष्णदास) ५०४ कण्हदीपायन-चरियं ३०० । कथावत्थु (कथावत्थुप्पकरण) ८१, औद्धत्य ५३५ ८६, ८७, ९१, १०७, ११२, ११५, २०६, ३११, ३३५, ३३६, ३४१, ककचूपम-सुत्त १५१ ३४३, ३४४, ३४६, ३५२, ३५३, ककुसन्ध १४३ ३५४, ३५६, ३५८, ४२१-४५०, ककुट-जातक ६३५ ४५२, ५००, ६३३, ६३९ । कक्कट-जातक ६३५ कथावत्थु में निराकृत सिद्धान्तों की कच्चान (कात्यायन, व्याकरणकार) सूची ४२८-४५९ १०९, १५१, ४७१, ६०३ कथावत्थु की अट्ठकथा ३३७, ४२२, कच्चायन-गन्ध (कात्यायन-ग्रन्थ) ४२५, ४२६, ४४७, ५००, ५०१, ५७७, ६०३ ___५२९, : ३८, ५४८, ५४९ कच्चान-व्याकरण १०, ६०३,--और कथंकथी २४३ उसका उपकारी साहित्य ६०३- कदम्ब-लिपि (कन्नड़-तेलगू) ६३६, ६०७; ६०९, ६१०, ६११, ६१६ ६३७, ६३८ कच्चायन-निस्सय ६४१ । कनिष्क (कुषाण-राजा) ३५५, ३५७, कच्चायन-रूपावतार ६४२ कच्चायन-भेद (कच्चान-व्याकरण की कनिष्ककालीन ६१७ टीका) ५८०, ६०६ कन्दरक-सुत्त ९५, १५३, १५९, १६० कच्चायन-भेद-महाटीका (कच्चायन- कपिलवस्तु १५९, १७७, १८५, १८९, भेद की टीका) ६०६ २८६, ५२५, ५२६, ५३०, ५६३, कच्चायन-वण्णना ६०७ ५७१, ५७२, ५७४ कच्चायन-सार ५८०, ६०६, ६४१ कपोत-जातक ६३५ कच्चायनसारस्स टीका ५८० ___ कप्पमाणव-पुच्छा २४१, २४३-२४४ कच्चायनसार-अभिनव टीका ६०६ कबीर ३० कच्चायनसार-पुराण टीका ६०६ कम्पिल-राष्ट्र २८६ कच्छप-जातक २८२ कम्वोज १८५ कजंगला २०, १८०, २८६, ४८०, कम्बोडिया ५१३ Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६६२ ) कम्मवाचा ३२६, ६४१ कस्सपिक भिक्षु ४२२, ४२३, ४२९, कम्मछानगहणनिद्देसो ५२० ४४८ कर्म-स्थान (समाधि के आलम्बन) कसि भारद्वाज (ब्राह्मण) २३९, २४० ५२०, ५२८ कसि भारद्वाज-सुत्त २३९ कामासदम्म (कस्बा) १९६ क्रिया-चित्त ३८४-३८५ क्यच्चा (वरमी राजा) ६०६,--की कर्म २२५, ३०६, ३४०, ३५८, ४४६, पुत्री ६१२ क्यच्वामरओ ५७९ कर्म-प्रत्यय ४६२ ऋकुच्छन्द १४३ कर्म-फल २४४ कर्न (डा०) ३०९ कर्म-विपाक ३७५, ३७७, ३९२, ४०८, करणीय-मेत्त-सुत्त २११ ४१०, ४३५, ४४२, ४६२ करुणा (भावना) १५४, ३८८, ३९१, कर्म-स्थान (कम्मट्ठान) ३७४, ३७८ ३९२, ४१०, ५२१, ५३५ कर्मान्तक १८८ कलहविवाद-सुत्त २४१ कंखा-टीका ६३९ कलकत्ता रिव्यू ४७३ कंखा-रेवत १८३ कलापनिस्सय ६४२ कंखा-वितरणी ५१३, ५२३, ५७७, कलापपञ्चिका ६४१ कल्याणी (पेगू-बरमा) ५८८ कंखावितरणी-अट्ठकथा ६३९ कल्याणी-अभिलेख ५३९, ६१७, ६३४, कंखावितरणी की टीका ५३९ ६४२-६४३ कंखावितरण-विसुद्धिनिद्देसो ५२२ कल्याणिय (भिक्षु) ५८८ कंस-बध २९४ कलापसुत्त प्रतिज्ञापक-टोका ६४१ कृदन्त ७० कलेला दमना २९५ कृष्ण १३९, २९४ कलिंग १३, १५, ४९४, ५७६ ६१८ कृशा गौतमी १८८ कलिंगवोधि-जातक २८७ काय १६५, १६८, १६९, ३४८, ४०२, कलिंग-लेख ६१८ ४०३, ४०४, ४०६, ४६० कलिंग-युद्ध ६१९, ६२० काय प्रागुण्यम ३८७, ५३५ कलिंगारण्य १५९ काय-आयतन ४०१, ४६१ कल्प (कप्प) ४३९ काय-कर्मजता (काय कम्ममता) कविकल्पद्रुम ६०७ ३८७.', ३५ कविसारपकरण ६१६ काय गतासति-सुत्त ९७, १०१, १५७ कविसार टीका-निस्सय ६१६ कायगता सति २१०, २३१, ५२१ कस्सप (काश्यप-~-मोह विच्छेदनी, कायगतासति भावना २२९ अनागतवंस और वुद्धवंस आदि के कायानुपश्यना १४६, ३५५ रचयिता) ५७८, ५८७ कनिष्क-कालीन ३५५ कस्सप-सुत्त २१० काय-प्रश्रब्धि (कायप्पस्सद्धि) ३८७,५३५ कस्सप-संयुत्त ९९, १६५ काय-मृदुता (कायमुदुता) ३८७ कस्सप-सीहनाद-सुत्त ९२, १४१ काया में कायानुपश्यी ४०७ Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कायिक आलस्य (थीनं-स्त्यान ) ३८८, ३९२ कायलघुता ५३५ काय - विज्ञान १६५, ३४८, ३८२, ३८३, ४०३, ४०४, ४६१ काय - ऋजुता ( काजुकता ) ३८७ काय मृदुता ५३५ कामन्दकी ६४१ ( . ६६३ ) कारक पुप्फ मंजरी ६१३ कारिकाटीका ६४१ कारमाइकेल लेक्चरर्स ( भांडारकर ) २८७ कारपेंटर ११० कारिकं ५८० कारिका ६४० कारिकाय टीकं ५८१ क्रोधव. २१५, २२४ काव्य विरतिगाथा ५४३ काव्य - आख्यान ५८४ काव्य ग्रंथ ५८४ काकवण तिस्स ( लंकाधिपति) ५५२ कांचीपुर ५१०, ५११, ५३१ कात्यायन ७८, १५१, १५५, ६०३, ६१३, देखिये 'आर्य कात्यायन' भी । कात्यायनी १८५ काठियावाड़ ६१७ काण्ड - विभाग ३५९ काबुल ११६ कॉवल ( ई० बी० ) २७२, २७८ काम - ओघ ३६६ काम आस्रव ४४१ कामधातु ४०३, ४१२, ४३५, ४४० काम्बोज ८८ काम सुप्त २४१ काम-योग ३६७ ५३६ कामाच विपाकचित्त (आठ) ३८२ कामावचर भूमि ३०२, ३३८, ३७६ ३८०, ३८९, ३९०, ५३६ कामाचर भूमि के आठ क्रिया-चित्त ३८४-३८५ कामावर भूमि के आठ कुशल चित्त ३७७ कामावर लोक ४६४ कामावर्तक ४०९ काय ४०२, ४०३, ४०४, ४०६ कावेरी ५०४ काव्य-ग्रंथ ५४४, ५४५, ५४६ काव्य - शास्त्र ५४६ कातंत्र व्याकरण ६०३, ६०४, ६०८ काल्सी ६३२ काल उदायी १८४ कालसी (देहरादून जिला ) ६१८ काली १८५ कालाम १८६, १८७, १९५ कालाशोक ५८१ काल सुमन ३१० काशीराज्य २८७ काशी १४५, १५६, २८८, ५६३ काशीनागरी ६२६ काशी प्रदेश १६२, १७७ काशीगाँव २८७ काशी - कोसल १४५ काश्मीर ८८, ११६, ३५४, ५५७, ५६८, ५७२, ५७४ कसिभारद्वाजसुत्त २१२ काश्यपिक ४४८ काश्यप (अट्ठकथाकार) ५३२ काश्यप १४२, २२५, ४३२ काश्यप-बन्धु ३२५ काश्यपीय ४२३, ४२४ काम - राग १५४ काम-लोक ४४५ कामावचर ३५८, ३७२, ४१२, ५३५, काशिकावृत्ति ६०३, ६०४ Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६६४ ) कार्षापण २८२ कुहन (ई०) १२, १३ काशिकावृत्ति ०३, ६०४ कुंडिया (नगर) २२८ कारिका ६०१ कण्हदीपायन जातक ३०० कासिका प्रत्ति पालिनी (काशिकावृत्ति कुणाल २९३ पालिनी) ६४१ कुणाल जातक २८५ कांक्षारेवत (भिक्षु) २२६ कुप्प स्वामी शास्त्री ५२९ किन-जातक ६३५ कुब्जा उत्तरा १८४ किन्ति-सुत्त २५, ९७, १५६, ३३४ कामन्दक २९२ किन्नर-जातक ६३५ कुम्भकार जातक २८७ किम्बिल २४८ कुम्मास पंड जातक २८७ किरातार्जुनीय ५९० कुम्भवति जातक किरिया ४०८ कुम्मासपिंड २९४ क्रियामात्र ३८४ कुमार कस्सप ५२५ करणमत :८४ कुमार काश्यप १४६, १८३ क्रियाचित्त ३७५, ३७६, ३८४, ३८५, कुमार पञ्ह १७९, २०८, २१० ३९०, ४१०, ५३३, ५३६ कुरु (प्रदेश) १४५, १५५, १५९, किलेस-संयुत्त १००, १६७ १९५, १९६, २८६, २९२, ५२४ किंविल १५२ कुररघर १७७, १८५ क्विशन्स ऑव किंग मिलिन्द ४३४, करुजातक २८ ४९२,४९४ कुरुंगमिग जातक २७४, २७८, ६३५ किसा गोतनी २७० कुरुदिगन्ध ५८० किष्किन्धा-कांड २९२ कुरुवम्मचरियं २९९ किंसील २४० कुरुधम्मजातक २८६, २९९ कीथ (ए. वेरीडेल) ८, १४, १६, १८, कुरुन्दी (कुरुन्दिय) ४९७, ५४९, ५७७ २४, १२१, १२३, ४८४, ५४६ कुरुराजा २८६ कीतिश्री मेघवर्ण (कित्तिसिरि मेघ- कुरुराष्ट्र २८६ वण्ण) ५६६ कुरुक्षेत्र २१ कीति श्री राजसिंह (कित्ति सिरि राज- कलिंग-जातक २८७ _ सिंह) ५६५, ६१३ कुशजातक २८७ कीटागिरि-सुत्त ९६, १५५, ३२९ कुशल ३५९, ३७३, ३७५, ३७६, कुक्कुरवतिक-सत्त ९५, १५३, १६० ३८६, ४०१, ४०२, ४०४, ४०५, कुक्कुट जातक ६३५ ४०६, ४०७ ४०८, ४१०, ४३७, कुक्कुटाराम १७७ ४३८, ४४२, ४४६, ४५४, ४६० कुद्दाल-जातक २८२ देखिये 'कुसल' और 'कुसला' भी कुट्टाल पंडित २८२ कुसलत्तिक ३५९ कुटिमक जातक २८३ कुशलचित्त २८०, ३७६, ३८५, ३८६, कुंडधान (भिक्षु) १८३ ३८७, ३९१ ४३६, ४३९, ५३३, कुडिधान (वन) २२८ ५३५, ५३६ Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६६५ ) कुशलचित्त, कामावचर भूमि के (आठ) कोणागमन १४३ ३७७, रुपावचर भूमि के (पाँच) कोन्-पोन्-सेत्सु-इस्से-उबु ३३२ ३७८, अरूपावचर भूमि के चार, कोरव्य २८६ ३७८, ३७९, लोकोत्तर भूमि के चार कोरिया ६४४ ३७९ कोलम्बो १७८, ५०५, ५४०, ५६८, कुशलादि ४०१ ५६९, ६१४, कुशलविपाकचित ५३५ कोलद्धज ६४१ कुशल विपाक चिन (आठ) ३८१ ।। कोलध्वज-टोका ६४२ कुशल धर्म ४५२,४६०, ४६१, ४६२ ।। कोलिय १५९, १७७, ५७१, ५७४ कुशल मनोविज्ञान धातु संस्पर्शजा ४०० कोलिय पुत्रो (नुप्रवासा) २२८ कुशल-मूल ३९४, ४४० कोशल (कोसल-प्रदेश) १२, १४, कुशल विपाक चित्त ३८१ १७, ८९, ११०, १४५, १५९, कुसल ४०८, ४११ १६२, १७६, १७७, १८६, कुसला ३६०, ४०१ १९५, १९६, २३१, २८६, २८७, कुसला धम्मा ३०६, ३७७, ३७९ २९१, ४९४, ५२४ कुसावती (कुशावती) २८७, ५.३ कोशलराज १६२, १७०, १९४, २२८, कुसिनारा (कुशीनारा) १४५, १९६, २३० २८७, ५६३, ५७१, ५७२ कोशलराज (प्रसेनजित्) १७० कूटदन्त १३९ कोशल-मुत १९५ कूटदन्त सुत्त १२०, १२८, १३०, कोसल संयुत्त ९९, १६२ १३९, १४०, १७२, १९२, २७६ कोसला देवी २८७ कूटागारशाला ५२५ कौशाम्बिक (भिक्षु) १७३, ३०२ कूटस्थ ४५३ कौसल्य २९१ केकय १३, १५ कोसम्बिय मुक्त ९५, १५३ कंठ्य ३५, ३६, ५७ कोसी २१ केटेलॉग (डे जॉयसा) ५६६, ६१३ कौकृत्य (कुकुच्च) ३८८, ३९२, ५३५ केंडी (लंका) ६१३ कौशाम्बी (कोसम्बी) ११०, १५३, केतुमती २८७, ५८६ १५९, १३१, १९६, २३१, २८७ केम्ब्रिज हिस्ट्री ऑव इण्डिया १२ ५२५, ५२६, ५३०, ५६३ केरलत्र ८८ केवट्ट १४८ खग्गवग्ग-संयुत्त ६३९ केवट्ट-सुत्त ९२, १२०, १४२, १७२ खग्गवग्गसंयुत्त-टीका ६३९ केसपुत १८६, १९५ खग्गविसाण-सुत्त २०५, २३९, २४० केसपुत्तिय सुत्त १८६ खरस्सर-जातक २८२ केसियस ए पिरीरा ३४१ । खरोष्ट्री (खरोष्ठी) लिपि १३, २२१ नोकालिय २४१ खुज्जुत्तरा १८४ कोटिग्राम १४५ खुद्दानुखुद्द (क्षुद्रानुक्षुद्र) ३०२, ३०५, कौटिल्य विष्णुगुप्त २१२, २९३ ३१४, ३२९, ४८८ ४३ ख Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खुद्दक-निकाय १९६-३०१, के खन्धक ११४, ३२२, ३२४-३२६. स्वरूप की अनिश्चितता १९६, खन्ध-कथा ५०५ -सुत्त-पिटक के अंग के रूप में खण्डगिरि १३, १५ १९६-१९७, अभिधम्मपिटक के खण्डहाल-जातक २९९ अन्तर्गत भी १९७-१९८,-के खन्ध-निद्देसो ५२७ अन्तर्गत अभिधम्म -पिटक भी खन्धक-पुच्छा ५०४ १९८-१९९, इसका अभिप्राय खन्ध-विभंग ३९७, ३९८-४०१ १९९,--की ग्रन्थ संख्या के खन्ध-वग्ग १६६-१६७ विषय में सिंहल, बरमा और सिआम खन्ध-संयुत्त १६६, १७६, ३४८ में विभिन्न मंत १९९-२००,- भान्ति (खन्ति) २९९ के ग्रन्थोंका काल-क्रम २००- क्षुद्रकागम (खुद्दकागम) ११४, २८ २०७;--२, ११३, ११४, ११७, १३१, १७९, ३४३, ३५५, ४९५, ५१३, ५२६, ५३१ गणपाठ ६०८ खुद्दक-ग्रन्थ १९७ गण-तन्त्र १९५ खुद्दकपाठ (सटीक) ६३०. गणतन्त्र-प्रणाली १०५ खुद्दक-पाठ ११४, १७९, १९६, २०७, गया १५०, ५०७, ६१८, ६२१ २१४, ४३४, ५१३, ५२६ गयासीस (पर्वत) २८६ खुद्दकपाठट्ठकथा ५७७ गरहित जातक २८४ खुद्दकसिक्खा ५३२, ५३९, ६१६ गणकमोग्गल्लान-सुत्त १५६, १५७ खुद्दसिक्खं (धर्मश्री-विरचित) ५७८ गृध्रकूट (पर्वत) १२६, १६३, १९५ - खुद्दसिक्खं (अनुरुद्ध-विरचित) ५७८ २६० देखिये 'गि भकूट' भी खुद्दकसिक्खा-टीका (पोराण) ६३९,- गृह यसूत्र १२४ --अभिनव ६३९, स्थविर संघ- गृहस्थ-धर्म १८७ रक्खित-कृत ५३८-५३९,- गाइड थ्र दि अभिधम्म पिटक (ज्ञाना -महायास-कृत ५३९,-वाचि- तिलोक) ३४१, ३४५, ३५१, स्सर-कृत ५४० ३५६, ५७, ४२२, ४२६,४४३, ४४९ खुद्दकवत्थुविभंग ३९७, ४११ गाथा २७७, ४२०, ४२१ खुरप्प-जातक २८९ गामणि ५५२, ५५८ खेत्तुपमापेतवत्थु २४६ गामणि-संयुत्त १६९ खेम (अट्ठकथाकार) ५३२, ५७८ गायगर (डा०, विल्हेल्म) २, १२, खमं (ग्रन्थ) ५७८ १५, १६, १७, १८, १९, २०, खेमप्पकरण ५३२, ५३९ २१, २३, २४, २५, २६, ४२, खेमप्पकरणस्स टीका ५७९ ४७, ५४, १२१, १३२, १६०, खेमप्पकरण-टीका ५३९, ६०५ १६१, २७३, ३४१, ३४५, ४७१, खेमा (मा, भिक्षुणी) १७०, १८४ । ४७७, ४७८, ४९५, ४९६, ४९८, खोतान २२१ ५२७, ५५०, ५५१, ५५३, ५५४, खन्ध-आयतन-धातु-कथा ४१२ ५६४, ५६९, ५७५, ५८७, ५८८. Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रीक २९२ ( ६६७ ) ५९०, ५९३, ५९४, ५९५, ५९८, ६२३, ६२५, ६२६ ६०५, ६०६, ६०७, ६१०, ६११, गिरिदत्त-जातक २८२ ६१३, ६१४ गिरिमानन्द २१२ गन्ध १६५, १६६, १६९, १९२, ३३०, गिरिमानन्द-सुत्त २११ ३४८, ३८९, ४०२, ४०३, ४०४, गिरिव्रज १७७, २६०, २६१, २६२, गन्ध-आयतन ४०१, ४५९ ग्रियर्सन (डा० सर जॉर्ज) १३, १५, गंगमाल-जातक २९४ गंगा १६४, १७४, १७७, १९५, ५१० गिहि-विनय (गृह-विनय) १८७, गन्थकाचरिय ५७७ ६२९, ६३२, ६३३ गण्डतिन्दु-जातक २८७ गीता २२०, २६४, ५८९ गन्धछि ५६६, ६१२ गन्धसार ५४०, ५७९ ग्रीक प्रभाव ४९३ गन्धकार (भवन) ५०९ ग्रीक भाषा ४९३ ग्रन्थ-वर्ग ३६६ ग्रीक राजा (मिलिन्द) ४८१ ग्रहणात्मक विज्ञान ३८१ ग्रीक-शासन ४७४ गण्डाभरण ५८० ग्रीक ज्ञान ४८१, ४९३ गन्धाभरण ६१२ ग्रीस (यूनान) ६२२ गन्धाचरिय (ग्रन्थाचार्य) ४९७, ५८० गुजरात (प्रदेश) १२, ५५? गन्धर्व १६१, १६७ गुजराती १२ गंधब्ब-काय-संयुत्त १६७ गुजरात-पुरातत्व-मन्दिर ६१५ गंधवंस २८०, ४९७, ४९८, ४९९, गुण-जातक २८२ ५०२, ५०६, ५०७, ५३९, ५४४, गुणरत्न (ई० आर०) ४१२, ५८७, ५४८, ५६७, ५६८, ५६९, ५७६- ५९४, ५९५ ५८१, ५८७, ५९१, ५९२, ५९३, गुणसागर (ग्रंथकार) ५८० ५९४, ६०४, ६०५, ६०६, ६०९, गुणभद्र ११३, ३५६. . ६१०, ६१६ गुन्दावन (मथुरा में) ११५ गन्धार (गान्धार) १३, १५, ८८, गुप्ता (भिक्षुणी) २७० १९५, २८७, ४९४, ५५७, ५६८, गुफा-लेख (तीन) ६१८ ५७२, ५७४ गुरु-धर्म ३०५, ३२१ गन्धार-जातक २८७ गुलिस्सानि १५५ गहपति-वग्ग १५३ गुलिस्सानि-सुत्तन्त १५५, ३३४ गाथा-जातक २७९ गुहट्ठक २४१ गाथा-संस्कृत २२२ गूढत्थटीकं ५८१ गान्धी (महात्मा) २१३, ६१७ गैटे (जर्मन कवि-दार्शनिक) ६४६ गिज्भकट पब्बत १९५ . ग्रे (जेम्स) ५६६ गिरनार (काठियावाड़) १२, १३, गोतम (गौतम) १२६, १४०, १४३, १५, २७, ३९, ५३, ५६, ६१८, १६०, १७६, १९३, १९४, २४५ Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६६८ ) गोकुलिक (बौद्ध सम्प्रदाय) ४२२, चतुक-पंच-छ-निपात-जातक - अट्ठकथा ४२३, ४२४, ४२५, ४३०, ४४७ ६४० गोतमी (भिक्षुणी) २७० चतुरार्य सत्य ४४५, देखिये 'चार गोत्रवाद-बन्धन १३८ आर्य सत्य' भी। गोदावरी (नदी) २४१ चत्तारो पुग्गला ३४२ गोध-जातक २७४ चतुष्क ३९२ गोपक ब्राह्यण १५७ चतुक्क - निपात १७८, १८७, ३३२, गोपक-मोग्गल्लान-सुत्त ९७, १५७, ३४२ ३०५, ३२४ चतुक्क-निपात (अंगुत्तर) ६२९, गोपालक-सुत्त ५०९. गोबुन-रित्सु ३११, ३१९, ३३२ चतुत्थसारत्थ-मंजूसा ५३८ गोसिंग शालवन १५२ चतुर्थ ध्यान ४१० गोस्वामी तुलसीदास २५२, २५३ चतुर्थ विपाक-चित्त ३८३ गौतम संघदेव (भिक्षु) ११३, ३५४ चतुसामणेर वत्थु ५४४ चतुर्दश शिलालेख (अशोक के) ६१८ चन्द्रगुप्त (चन्दगुत) २३९, ५६२ घटक-जातक २९४ चन्द्रगोमिन् ६०८ घटिकार-मुक्त ९६, १५५, २७५ चन्द्रकीर्ति ४२३ प्राण १६५, १६७, १६८, १६९, चन्दकुमार जातक २९९ ३३० ३४८, ४०२, ४०३, ४०४, चन्दपरित्त-सुत्त २११। ४०६, ४३५, ४४० चन्दा (भिक्षुणी) २६५, २६८, ६२५ घ्राण-आयतन ४०१ चन्द्रपञ्चिका ६४१ घ्राण-विज्ञान ३४८, ३८१, ३८२, चम्पेय्य जातक २०६, २८७, ३०० __ ४०३, ४०४, ४६१ चम्पा १३९, १५९, ५६३ घ्राण-संस्पर्शजा ४०० चम्पा नगर १३९ घोटमुख १५९ चम्म सतक जातक ६३५ घोटमुख - सुत्त ९६, १५६ चम्पय्यनागचरियं ३०० घोष स्पर्श १९, २०, ३२, ३४, ३५, चम्पापुर १३९ ५४, ५७, ५८, चरियापिटक १०२, १०७, ११४, घोषिताराम ५२४ १९७, १९८, २००, २०१, २९८ ३०१, ५३०, ५४९, ५७७ चरियापिटक-अट्ठकथा ६४० चक्कवत्ति-सीहनाद - मुत्त १२९, चलिन्द पच्चिका ६४१ १४७, ५८६ चक्षु १६५, १६७, ३३०, ४०३, चक्रवर्ती की दाह-क्रिया १४४ ४०४, ४०६, ४३८, ४४०, ४४९, चतुक्क - निपात १०१, १७८, ४५० १८०, १८१, १८६, १९० चक्षु-आयतन ४०१, ४०२, ४१५, चत्थपयोग ६४१ ४६१, ४६२ ०७२ Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्षु धातु ४१५ क्षु चक्षु - विज्ञान ४०० ( ६६९ ) १६५, ३४८, ३८१, ३८२, ३९८, ४००, ४०३, ४०४, ४४०, ४४४, ४५९, ४६२ चंकदास ६४१ चंकि १५९ चंकि सुत्त ९१, १२७, १३०, १५६ चण्डाशोक ६१९ चातुर्वर्णी शुद्धि ३३२ चाणक्य ( चणक्क) ५६२ चार अरूपावचर विपाक - चित्त चार आर्य सत्य १५१, १७२, १७३, २०८, ४०५. ४२०, ४२१, ४३३, ५३५ ३८३ चार आहार १८१ चार आ वासन १८७ चार आर्य श्रावक ४१८ चार आर्य-मार्ग ४३३ चार ऋद्धिपाद १७१, ४९० चार पाराजिक धम्मा ३१५ चार महाभूत ३४०, ४३५, ४४०, ४६३ चार मार्ग - फल ४३२ चान्द्र ६१३ चार प्रतिसंविद् ४११ चार योग १८१ चार वैशार १५० चार लोकोत्तर विपाक - चित्त ३८३ चाला ( भिक्षुणी) २६८ चार स्मृति - प्रस्थान १७०, ३०३, चार स्कन्ध ४१५, ४१६ चार सम्यक् प्रधान १८०, ४०० चार समाधि १८१ चातमा १५४ चातुम - सुत्त ९५, १५४ चातुर्याम संवर १५५ चार ज्ञान १८१ चार श्रामण्य फल १८ चुल्ल वग्ग १८९ चापा २६९, २७१ चार ध्यान १६९, ४०९, ४१० चार्ल्स डुरोयिसिल ५९२, ५९३, ५९४ चालिय पर्वत ५२५, ५२६ चार्ल्स इलियट ३३७ चाइल्डर्स (आर० मी०) १५, १६, ३५९ चित्त १७१, ३०६, ३५९, ३७४, ३८२, ३८५, ४१२, ४३४, ४३५, ४३८, ४५१, ४५९, ४६० ४६२, ४६३, ५०५, ५३३ चिन्तामयी प्रज्ञा ४११, ४६८ चित्त कर्मज्ञता ५३५ चित्त की शून्यता का योग १५७ चित्त प्रागुण्य ३८७ ५३५ चित्त-ऋजुता ३८७ ५३५ चित्रा ( भिक्षुणी) २६८ चित्तुप्पाद-कंड ३३, ३९३ चित्त गृहपति १८२, १८४ चित्त प्रश्रब्धि ३८७. ५३५ चित्त चित्तानुपश्यी होना १७०, ४०७ चित्त- मुदिता ३९० ५३५ चित्त-यमक ४५१ चित्तवग्ग २१५, २२१. २२३ चित्त विभेद ३८६ चित्त-लघुता ५३५ चित्तलतावग्ग २४५ चित्त संयोजन ४२९ चित्त-संयुत्त १००, १६ चित्त की चार भूमियाँ ३७४ चित्तानुपश्यना १४६ चित्त-संतति ४३८ चित्त-समाधि ४०८ चीन देश ३०८, ३३०, ३३६, ४९४, ४९९, ६४४ Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६७० 1) चीन राष्ट्र ५७८, ४८२ चीनी ११३, ११६, ११७, ३११, ३१२, ३१४, ३३३, ४४९ चीनी अनुवाद १२९, २०३, २२२, - २२३, २२४, ३५४, ३५६, ३५७, ४७७, ४७९, चीनी परम्परा ३५६, ३५७ चीनी बौद्ध संप्रदाय ३१४ चीनी भाषा ११३, ३१२, ३५३, ३५५, ४७८ चीनी दीर्घागम १३३ चीनी बौद्ध साहित्य ११६ चीनी विनय पिटक ३१३, ३१८ चीनी आगम २०० चीवरो ( ग्रन्थकार ) ५८० चल्लकलिंग जातक २८७ चुल्ल धम्मपाल ५७८, देखिये 'चूल धम्मपाल, भो चुल्ल निद्देस १०७, २७६ देखिये 'चूल निद्देस' भी चुल्ल निरुत्तिगन्ध ५७७, ६०४ चुल्ल पथक १८१ चुन्द १४४, २३, २४० चन्द-मुक्त १२२ चुल्ल वद्धवोसो ०७९ चुन्द समम १७४ चुन्द परित मुन २११ चुल्ल वजिरो ५७८ चुल्लवग्ग १७३, २१३, २०१, २२५, २२६,२७६, ३००, ३२२, ३२४, ३२५, ३२६, ३२८, ३४० चुल्लवंस ५७८, देखिये 'चूलस' भी चुल्लवग्ग (विनय पिटक) २१,५५०, ५६८ चुल्ल सद्दनीति ६११ वह खि-उ- थिंग् २२२ चूल अभय ३१० चूल अस्सपुर मुन- १५२ चूल गोपालक - सुत्त १५२ चल कम्म विभंग-सुत्त ९८, १५८ चूल गोसिंग सुत्त ९४, १५२ चूल दुक्खक्खन्ध-सुत्त १३, १५१ चुलगण ६४० चूलदेव ३१० चूल (चुल्ल) धम्मपाल ५३२, ५३९, ५४० चूल धम्मसमादान - सुत्त २५, १५२ चूल तुम्हासंखय- सुत्त १४, १५२ चूल निद्देस अट्ठकथा ६४० चूलनिरुत्ति ६४० चूलनिरुत्ति मंजूसा ६४१ चूलनाग ३१० चूल - निद्देस १९७, २९७, ६४० चूल पच्चरी ४९८, ५४९ चूल पुण्णम सुत्त ९, १५७ चू-फा-नैन ११३ चूलबोधिचरियं ३०० चूल मालुंक्य- सुत्त १५, १३०, १५४, १७० चूलयमणिसार ६४२ चूलयमक वग्ग ९४-९५, १५२, १५३ चूलराहुलोवाद मुत्त ९८, १५८ चूलवंस २७ १०९, ५०६, ५४१, ५४८, ५५४, ५६४- ५६५, ५६७, ६०४ चूल वेदल्ल- सुत्त, १५२, चूल सच्चक- सुत्त १४, १५२ चूल वग्ग २३०,२८० चूल सारोपम सुत्त ९८, १५१ चूल सोहनाद - सुत्त चूल वियूह २४१ १५० चूल सकुलुदायि-सुत्त - २६, १५५ चूल - सुज्ञता मुत्त ९३, १५७ चूल सन्धिविपोधन ६४० चूल हत्थिपदोपम-सुत्त ९४, १५१, १७२, ४०९ १२९, Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७१ ) चेतसिक (चेतसिका धम्मा) ३५९, छन्दाधिपति ४६० ३७३, ३७४, ३७८, ३८६, ४३७, छसत्तनिपात-अंगुत्तर ६३९ ४५९, ४६२, ४६३, ५०५, छह आयतन १८२, ३४८ ४५५ ५३३,--की परिभाषा ५३४, । छह इंद्रिय ४०३ ५३५ छह बुद्ध १४३ चेतना ३०६, ३८६, ४१५, ५३४ छान्दोग्य-उपनिषद् २९०,,४९४, ४४७ चेतिद्धिनेमि परिगाथा ६४१ चैतियवादी ४२२, ४२३ चेति (चेदि) १४५,१९५, २८८ जगदीश काश्यप (भिक्षु) ४, ६, ७, चेतोखिल-मुत्त १.१ १६, २५, २७, ७०, ७५, १२८, चैत्य पर्वत विहार ५५८ १३४, १६०, २०, २१०, २३१, चैत्यवादी ४२३ २३५, २३६, २४४, २४९, ३४१, चेतिय गिरि विहार ५६९ ३४२, ३४५, ३४७, ३५१, ३९१, चोल-राज्य ५०३ ३९३, ५१६, ५१७, ५३३, ५४५, ६०८, ६१०, ६१३ जगती (छन्द) २३६ छ-अनुस्सति-निद्देसो १७८, ५२० जटिल काश्यप ३२५ छक्क-निपात १०१, १८८ जतिंग रामेश्वर (मैसूर राज्य) ६१८ छकेसवातुवंस ५४४, ५४८, ५७६ जतुकणि माणवपुच्छा २४१ छगतिदीपनी ६४० जनपदकल्याणी १३०, १४३ छछक्क-सुत्त ९८, १५८ जन-तन्त्र २८९ छदन्त (छद्दन्त) जातक २८५, ६३५ जनक (राजा) २९३ छन्द १७१, ३८७,४६०, ५३४, ५३५ जनवसभ-मुत्त १४५ छन्द शात्र ५३७, ५४६ जनोको राजा जातक ६३५ छन्दन्तिय जातक ६३५ जनपद-निरुक्ति २५, २६ छन्दस् (वृत्ति) ६८१ जम्बुखादक १६९ छन्दस् २२, २५, २९ जम्बूखादक-मंयुत्त १००, १६९ छन्द प्रति (वृत्ति) ६४१ जम्बुधज (जम्बुध्वज) ६१२ छंद समाधि ४०८ जम्बुद्वीप (जम्बुदीपो) २८५, ३१०, छन्दोग ब्राह्मण १४२, २९१ ३३६, ४८१, ५०२, ५५८, ५८६, छन्दावा ब्राह्मण १४२, २९१ ५९८ छन्न १५८, ५२७ जम्बुकोल ५५६ छन्नोवाद सुत्त ९८, १५८ जयद्दिस जातक २८७, २९३, ३०० छब्बिसोधन-सुत्त ९७, १५७ जयद्दिस चरियं ३०० छन्नगरिक ४२२, ४२३, ४२४ जयन्त पुरोहितपुत्र २७० छपद (सद्धम्म जोतिपाल) ५३८, ज्योतिपाल (स्थविर) ५११, ५२४ । ज्योग्रेफी ऑव अर्ली बुद्धिज्म (लाहा) छन्दोविचिति ६१६, ६४१ २८८, २८९ Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जर्नल ऑव पालि टैक्स्ट सोसायटी जातक सामग्री २९० ३, १०९, १९९, २०१, ३५४, जाति १६५ ३५५, ४२२, ४८४, ४८५, ४८६, जातिवाद १३८, १३९, १५६ ४८७, ४८८, ४९२, ४९३, ४९४, जात्यन्ध वर्ग २२६, २३० ४९५, ४९६, ४९७, ४९८, जापान ३३१, ३३२ ६४४, ५५०, ५६७, ५७५, ६०१, ६०४, जालिय १४० ६०५, ६०६, ६२८ जालिय-सुत्त १४० जर्नल ऑव रॉयल एशियाटिक सोसायटी जावा २९०, २९४ २०४, २८९, ४२२, ४४९, ४७१, जानुस्सोणि १४९ ।। ५७६, ६२८, ६२९, ६३०, ६३१ जिनचरित ५४०, ५७९, ५८४, जर्नल एशियाटिक ६३१ ५९२-९४, ६०९, जरा २४१, ४३५, ५४५ जिनविजय (मुनि) ६१५ जरा वग्ग २१५, २१७, २२४ जिनालंकार ५४१, ५८४, ५९१-५९२ जर्मन भाषा ४१८ जिह्वा १६७, ३३०, ३४८, ४०१, जरा-सुत्त १७३ ४०२, ४०३, ४०४, ४३५, ४४०, जल-धातु ४०३ ४६० जहागीरदार ८ जिह्वा आयतन ४०१ जंकदासस्स टीकं ५८० जिह्वाविज्ञान ३८३, ३४८, ४०३, जातक ७१,१०२, १०४,१०६, १०७, ४०४, ४६१ ११३, ११७, १४५, १९६, १९७, जीव ४२८ २००, २०१, २७२-२९७, ५२६, जीवक कौमार भत्य १८४,३२५, ५२३ ५२७, ५२८, ५४२, ५४३, ५४९, जीवितिन्द्रिय ३८६, ४०६, ५३० ५९२, ५९३, ५९६, ५९८, ५९९, । जीवक-सत्त १५३ ६००, ६३५ जुजु-रित्सु ३११, ३३२ जातक ठकथा २८१, ६०० जुगुप्सु १९४ जातकट्ठकथाय लीनत्थ पकासिनी जेम्स एल्विम १५, १६ नाम टीका ५७८ जेम्स ग्रे ५०२, ५१२, ५९१ जातक-कथा २७५ जे० लेग २०४ जातक की निदान कथा २७५ जेन्ती (भिक्षुणी) २६९ जातक गाथाएं २९४ जेतवन (आराम) १२६, १८३, १८८, जातक गंठि ६४१ १९५, २२६, २२७, २३०, २८१, जातत्तगी निदानं ५६९ ५२५, ५२६, ५६३, का दान जातक कथानक १३९ १७३, ३२५ . जातक-टीका ६४० जेतवन-विहार (लंका) ६१६ जातक निस्सय ६४१ जेकोबी (हरमन) ४७ जातकट्ठवण्णना २७८, ५१३, ५२७- जैन आगम ३३ ५२८, ५७७ जैन-कैन्-रोन् ३१२ जातक विसोधन ५४२, ५८० जैन दर्शन १२९ Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३) जैन धर्म १७६ जैन साहित्य २३० जैन सूत्र १८ जौगढ़ (मद्रास राज्य) २६, ५५, ६१८ ६२१, ६२२, ६२३, ६२७ भ भान विभंग ३९७, ४०९-४१० भान - संयुत्त १००, १०१, १२९, १७१ অ ५८० जाणाभिवंस (ज्ञानाभिवंश ) संघराज ५४३, ५४४ आणिस्सर (ज्ञानेश्वर, समन्तकूटवण्णना के सिंहली संस्करण के सम्पादक) ५९८ नय्यासन्दति ५८१ अय्यासन्दतिय टीका ५८१ जाणोदय (ज्ञानोदय) ५०७, ५१४, ५२९ ट ट्रांजैक्शन्स ऑव दि एशियाटिक सोसायटी ऑव जापान २०० टीका - साहित्य ५०५, ५३७-५४६ टीकाओं का युग १०९ टलर ( ए० सी० ) ४२१ ट्रेकनर (वी) ४७२ टोपरा (अम्बाला के पास ) ६१८ ड द starॉग्स ऑव दि बुद्ध १३१, २८७ डे जॉयसा ५६६, ६१३ जिगनेश ऑव दि ह्यूमन टाइप्स ४१८ ढालके (पॉल, डा० ) १४९ ग आणदस्सनविसुद्धिनिद्देसो ५२२ जाणविलास (ज्ञानविलास, भिक्षु ) तण्डि ( दण्डी) ६४१ तण्ड-टीका ६४१ ६०७ आण - विभंग ४११ जाण सागर (ज्ञान सागर, ग्रन्थकार ) ण्वादि पाट ६०८ त तकाकुसु (डा०) ३५४, ३५५, ३५६ तक्कोल ४९४ तच्छसूकर जातक २८३ तण्डुलनालि जातक २८७ तण्हा वग्ग २१५, २१९,२२१, २२४ तत्त्वावतार ६४२ तत्त्वावतारटीका ६४२ तत्पापीयसिक ३१९-३२० ततिय सारत्थमंजूसा ५३८ तृतीय संगीति १२३, ३३२, ३४१ तृतीय ध्यान ४०९, ४१० तैत्तिरीय ब्राह्मण १४२ ततिय परमत्थप्पकामिनी ५३८ तथता ४४४ तथागत ११, २५, २६, ३२, ३४, ८०, १०३, १३१, १४०, १४४, १४५, १५०, १५३, १६३, १७०. १७३, १७४, १७५. १८९, २३२, ३३१, ३३२, ३३६, ४३१, ४५४, ४८८. ४८९, ५२३, ५२५, ५७१, ५७३, ५८३, ६२५, ६३६, ६३७, ६४६ तथागत प्रवेदित-धर्म - विनय १४३, १८९, १९३, ३२० तथागतुप्पत्ति ६४० तथागतुप्पत्तिप्पकरणं ५८१ तनोगबुद्धि ६४१ तपस्वी १९४ तपस्सु १८४, ३०३, ३२५ नवपणि दीपं ( ताम्रपर्णी द्वीप-लंका) ८९, ३१०. ५७२, ५७३ Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तंत्र ५ ( ६६८ ) नूरानी ३३१ तिस्समेतेय्य २४१ तृष्णा १६५, ३५५, ४५४, ४५५ तिस्समेत्तेय्यमाणवपुच्छा २४१ तीन-स्कंध ४१७ तत्र मध्यस्थता (तत्र-मञ्झता) ३८७ तीन वेदनाएँ २०८ तयो पुग्गला ३४२ तीन संयोजन ४१९ तक्षशिला १६, २८७, २९१, ५६३ ।। तीन वेद ४८१ तामिल प्रदेश ५३१ तीन लोकोत्तर इन्द्रिय ४०६ तालपुट (स्थविर) २६१,-के उद्गार तीपुक्खल ४६९ तोस निस्सगिया पाचिनिया धम्मा तालव्य संयुक्त व्यंजन ६७ । ३१७-३१८ नालव्यीकरण ६६-६७ तुनि २२२ तालव्य स्पर्श ३५, ३६, ५६, ५७, ६० नुरमय ८९ तिक (त्रिक) ३५९, ३९३, ३९६, तुवटक (तुवट्ठक)-सुन २४१, ६२९ ३९८, ४०१, ४५६, ४५७ तुषित (लोक) ५५९, ५७८ तिक निपात २५, १०१, १८१, १८५, तेज-धात ४०३ २३२, ३४२, ६३० तेपिटक वुद्धवचन १०४,३३८, ४६५, निक पठान ४५२ ८८१, ८८७,४९३, ५८३, ६३५ तिक-दुक पठान ४५६ तेमिय जातक ३०० तिक-तिक पठान ४५७ तेरसकण्ड टीका ६३९ निक-निपात-जातक -अट्ठकथा ६४० तेलकटाहगाथा५४२, ५८४,५८७-५९१ तिक-पट्टान ६३९ तेलपन जातक २८७ तिपिटकालंकार ५४३, ६०० नेलगू प्रदेश ५१० तित्तिरजातक २७६ नेमियचरियं ३०० तित्थगाम (लंका) ६०९। विज्ज वच्छगोत्त-सुन १६, १५५, तिब्बन ८५, ३१३, ३३२,६४४ निब्वती (अनुवाद, भाषा, परम्परा, तेदिज्ज सुत्त ९२, १२७, १३०, १४२, बौद्धधर्म आदि) ११०, ११३, १४३, २९१ २२२, ३१३, ३१४, ३५७, ३३२, तोदेय्यमाणवपुच्छा २४१ तौंगदिन (वरमा में प्रान्त) ६३८ तिब्दती दुल्व ८० नैनिरीय ब्राह्मण २९१ तिरदचोन ०७६ नैर्थिक १५१ तिरांकुड्ड-मुत्त २०१ वक्कभासा (तर्कभाषा) ६४१ तिलोकगुरु (त्रिलोकगुरु) ५४३ त्रिपिटक १, २, ३, ४, ६, ७, ८, ९, १०, निलमट्ठि जातक २८८ १२, १५, १६, १८, १९, २०, २१, तिप्य (तिस्म) १६६, ३०६, ३१० ०२,२६,२८, ३०, ७१, ७३, ७४, तिप्प स्थविर ३१० ७५, ८२,९०, १०३, १०४, १०६, तिष्य-धामणेर ५२३ १०८, ११९, १२८, १३२, १७१, तिष्य (बरमी राजा) ५८८ १७२, २००, २१२, २२०, २७८, १५० Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६७५ ) थ २८९, २९६, ३००, ३०२, ३०८, ३२७, ३३४, ३३७, ३३९, ४५४, ४६६, ४७२, ४८७, ४९४, ५००, दवखखस-जातक २७५ ५०१, ५०२, ५०७, ५२९, ५४०, दक्खिणाविभंग-सुत्त ९८, १५८, ५०० ५४९, ५५२, ५६०, ५६३, ५६४, दंडकवन २८७ ५७६, ५७७, ५८३, ५८५, ६०१, दण्डकारण्य १५९, २९३ ६०२, ६११, ६२०, ६२८, ६३१, दंडि-टीका ६४२ ६३२, ६३३, ६३४, ६३५, ६३७, दण्डी ३१, ४९२ ६३८ देखिये 'पालि त्रिपिटक' की दंड-वग्ग २१५, २१७, २२३ त्रिपिटक-गत २७९ दन्तभूमि-सुत्त ९८, १५७ त्रियोजनसते कुरुरट्ठे २८६ दन्तवातु पकरणं ५७९ त्रिशरण-यज्ञ १४० दन्तधातुवंस ५७५ त्रिष्टुभ २३६ दन्त्य ( पर्श) ३५, ३६, ५५, ५६, ५७, विद्य ब्राह्मण १४३ दमिल ५५२, ५७३, ५७४ दब्दपुप्फ जातक ६३५ थन्-व्यन्-टीका ६४० दब्ब मल्लपुत्त १८३, २२६, २३१ थपति-सुत्त १७५, ६२४ दब्र (द्रव्य) गुण ६४१ यामस (ई० जे०) ८, २६ दव-(द्रव्य) गुण-टीका ६४२ थॉमस (एफ० डबल्यू) २८५ द्रव्य-यज्ञ १४० थल्लकोठित १५५, १५९ थून २८६ दृष्टि ३५५, ५३५ यूपवंस ५४०, ५४८, ५६९-५७४, दृष्टि.आसव ४४१ ५७५, ५७६, ५८१, ६४० दृष्टि-ओघ ३६६ यूपाराम ५६३, ६०८, ६१६ दृष्टिगत-युक्त ३८० थेर-अपदान २९८ दृष्टिगत-विप्रयुक्त ३८० थेरगाथा १०२, १०६, १०७, ??४, दृष्टि-जाल १३५ ११७, १७९, २३९, २४६-२६४, दृष्टि-योग ३६७ ५३१, ६४०, द्वनिमाकारं २०० येरगाथा-अट्ठकथा ५७८ दर्शन-दिग्दर्शन (राहुल सांकृत्यायन) थेरवाद (स्थविरवाद) ४२२ देखिये १४२, ४२७, ४८४ थविरवाद' भी दश-संज्ञा-मूत्र २१२ येरवादी ४२०, ४२३ दस अव्याकृत १७० येरी-अपदान ००६, २९८ दस-आयतन ४०२, ८०४, ४१७ येरीगाथा १०६, १०, ११४, १७९, दस-एकादस-निपात-अंगुत्तर ६३९ १९६, १९७, २००, २४६-२७२, दस-एकादस-निपातजातकट्ठकथा ६४० थेरगाथा के साथ तुलना २४७, दसक निपात १८२ २६९-२७२; ३४९, ५३१, ६४० दस गण्डिवण्णना ५८० Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दस तथागत बल १८२ द्विक ३९६, ४५६, ४५७ दस द्वार ३५५ द्वितीय ध्यान १६६, ३४१, ४०९,. दस-धम्म-सुत्त २११ ४१०, ४४३ दस धातुएँ ४०४, ४१७ द्वितीय संगीति ११०, ११८, ३४१,. दसक निपात (अंगुत्तर निकाय) ६२९ ३४८ दस पारमिता २०५, २७३, २९९ दि पालि लिटरेचर ऑव बरमा दसवल १५०, ४३१ देखिये 'पालि लिटरेचर ऑव बरमा दस भावी बुद्ध ५८५ दि पालि लिटरेचर ऑव सिलोन दसरथ जातक २९३, ६३५ देखिए ‘पालि लिटरेचर ऑव सिलोन' दस संयोजन ४३६ दि लॉ ऑव मोरा ४२ दस सिक्खापदं २०७ दि लाइफ एण्ड वर्क ऑव बुद्धघोष दसवत्थु ६४० (लाहा) ४९९, ५१२, ५१३,. दसुत्तर-सुत्त ९३, १४८, १७९, १८१, ५१३, ५२९, ५६६, ६०१ २१०, ३३४, ३४०, ६२९ दिव्यावदान ६२० दक्षिण देश १३९ दि सैक्ट्स् ऑव दि बुद्धिस्ट्स् ४२२ दक्षिणापथ २८७, ५२४ दि होम ऑव लिटरेरी पालि (ग्रियर्मन दक्षिण-पूर्वी एशिया २९४ __ का लेख) १६ दक्षिण भारत ५५१, ५५२ दीघ-निकाय (दीघ) १०२, १०७, दन्त्य स्पर्श ११३, १२२, १२६, १३२-१४८,. दाठाधातुवंस ६४०, ६४१ १५९, १७९, २०२, २१०, २१३,. दाठाधातुवंस टीका ६४०, ९८१ २७५, ३४०, ३५७, ४९७, ५१५, दाठानाग (संघस्थविर) ५२३, ६०४ ५२४, ५४३, ५६७, ५८६, ६२९, दाठावंस ५४०, ५४८, ५७५, ५७६ ६३२, ६३३, ६३७, ६४९ दानपारमिता २९४, २१९ दीघ निकाय की अट्ठकथा ५१३, ५२३-- दान-यज्ञ १४० ५२४, ५३८ दासक (भिक्ष) ३१०, ३३६, ५६२ दीघनख (परिव्राजक) १५५, १५९ दाक्षिणात्य (प्राकृत) ३१ दीघनख-सुत्त ९६, १५५ दाँते (इतालियन कवि) २९७ दीर्घलम्बक २१२ दि अभिधर्म लिटरेचर ऑव दि सर्वा- दीघसन्द (सेनापति) ५५४ स्तिवादिन्स (तकाकुसु) ३५४ दीर्घ स्थदिर ३१० द्वारका २९४ दीर्घ सुमन ३१० द्वायतानु पस्सना २४१ दीघ-भाणक २०२ दिव्यश्रोत्र ५२१ दीर्घागम ११३ दिङ्नाग ४६४ दीप ३२६, ३२७ दि डैजिगनेशन ऑव हयूमन टाइप्स दीपवंस २, ३, १०४, १०५, १०९, देखिए 'डैज़िग-नेशन ऑव हयूमन ३५२, ४२२, ४४९, ४९६, ४९९,. टाइप्स' ५००, ५६८, ५६९, ५७०, ५७२ . दिट्ठिसंयुत्त १०० ५७३, ५८१, ६२०, ६२४, ६४० Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६७७ ) दीपवंस और महावंस की तुलना देवता-संयुत्त ९९, १६१, १६२, १६३ ५४८, ५५३, ५५४, ५५५-५६० देवदत्त १५१, २७८ दीपवंस और महावंस इतिहास हैं देवदत्त-वग्ग १५६ __ क्या? ५६०-५६४ । देवदत्त-सुत्त १५६, १५७ दीपिका ५५४ देवदह १७७ दीपंकर (बुद्ध) ५६९ देवदह-सुत्त ९७, ९८, १२९ दीपंकर (रुपसिद्धिपकरण के लेखक) द्वेधावितक्क-मुत्त ९४, १२९, १५१, ५७८ १७२ दीपंकर (जिनालंकार के सम्पादक देवम-जातक : देवधम्म-जातक २८८, २९३ ___ सिंहली भिक्षु) ५९१ देवमित्त (मोग्गल्लान-व्याकरण के दीपवंस एण्ड महावंस (गायगर) संपादक, सिंहली भिक्षु) ५९४, दुक ३५९, ३६३ दुक-पट्ठान ४५२, ४५६, ६३९ । देवरक्खित (सिंहली भिक्षु) ५६५, दुक-तिक-पट्ठान ४५६, ६३९ ५९७ दुक-तिक-चतु क-निपात-अंगुत्तर देव स्थविर ३१० ___ अट्ठकथा ६३९ देवशर्मा (स्थविर) ३५३ दुक-निपात १०१, १७८, २३२ देवानं पिय तिस्स ५५१, ५५३, ५५६, दुक-निपात-जातक-अट्ठकथा ६४० ५५८, ५६१, ५७१, ५७३, ६४५ दुःख आर्य-सत्य ४०५, ४३८, ४४२, द्वेष (दोस) ३७४ ४४७ देसना-नियम ३०९ दुःख-निरोध आर्य सत्य १७२, ४०५ । देवासुर-संग्राम १६५ दुःख-समुदय आर्य-सत्य १७२, ४२९ दैववादी १३७ दुःख निरोध गामिनी प्रतिपद् १७२ दो आयतन ४१५ दुःखेन्द्रिय ३९३, ४०० द्रौपदी २९४ दुःख-धातु ४०३ दौर्मनस्य-इन्द्रिय ४०० दुट्ठगामणि (लंकाधिराज) ५५२, ५५३ दौर्मनस्य-धातु ४०३ ५५८, ५५९, ५६१, ५६५, ५७२, ५७२, ५७३, ५७४, ५७६, दुट्ठक २४१ धजग्ग-सुत्त २११ दुतिय परमत्थप्पकासिनी ५३८ धजविदेह २८७ दुतिय-सारत्थमंजूसा ५३८ । धनंजय २८६ दुम्मेध-जातक २८, २९४ धनिय २४० दुमजातक-अट्ठकथा ६४० धनिय गोप २३७ दुर्म ख जातक २८७ धनिय-सुत्त २३७, २५५ दुप्कृत अपराध २२, २१३ धम्मकथिक ६३४ दूभिय-मक्कट जातक ६३५ धम्मकित्ति ५९४ देव (सुभटकूटवण्णना) ५७९ धम्मकित्ति महासामि (धर्मकीर्ति Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६७८ ) महास्वामी-चौदहवीं शताब्दी के ५४५, ५७७, ५७८, ६०० सिंहली भिक्षु 'सद्धम्म संगह' के धम्मिक २४० रचयिता) ५४१, ५६८ धम्मसत्त ६४१ . धम्मकित्ति महाथेर (सारिपुत्त के शिष्य, धम्मशरण १७४ तेरहवीं शताब्दी का आदि भाग) धम्मट्ठवग्ग २१९,२२१, २२४ ५३८, ५४०, ५७५ धम्मपद २१०, २१४-२२५, की प्राकृत धम्मकित्ति (दन्तधातुपकरणं) ५७९ धम्मपद से तुलना २२१, की गाथाधम्मकित्ति महासामि (बालावतार संस्कृत में लिखित धर्मपद से तुलना और सद्धम्मसंगह के रचयिता)६०५ २२२, संस्कृत धर्मपद २२२,के धम्मकित्ति (महावंस के परिवर्द्धन चीनी अनुवाद २२३-२२४; ११४, कर्ता, तेरहवीं शताब्दी का मध्य १९६, १९७, २३५, ५२७, ६०२,भाग) ५०६, ५२८, ५४१, ५६४, ६२३, ६२४, ६३३, ६३९, धम्मपदट्ठकथा १०७, २१३, धम्मगुत्तिक (बौद्ध संप्रदाय) ३०८, २७५, ३३५, ५१४, ५२६-५२७, ३११, ३१२, ३१८, ४१२, ४२३ ५२८, ५३८ धम्मचक्क-टीका ६४० धम्मपदगण्ठिनिस्सय ६४१ धम्मचेतिय-सुन ९६, १५६, १६० धम्मपलियाय १११, ६२८ धम्मचक्कपवत्तन-सुत्त ११८, १७२, धम्मपाल (जिनालङ्कार के संपादक १८०, २११, ३०१, ५७०, ६२९, सिंहली भिक्षु) ५९१ ६३६.६४० धम्मपिटक १०२ धम्मदस्सी सामणेर ६१२ धम्मरतन ५४४, ५६९ धम्म ३२०, ३३२, ३३४, धम्मवादी ४२४ ३३५, ३३६, ३३९, ३४६, ३४८, धम्म-यमक ४५१ ३४९, ४९०, ४९२, ५५० धम्मविलास धम्मसत्थ ५४६, धम्म-नगर ४९० धम्मदीपको ५८१ धम्मदायाद-सुत्त ८०,९३, १४९, धम्मविजय ४०८, ४९२ १५५, १५८ धम्म-विनय १२१, १६९, ३०४,३०५.. धम्म-दीप १७४ ३२०, ४११,४१२ धम्मपलियाय १११ धम्म-विश्लेषण ३४४ । धम्मदान ६४० धम्मुत्तरिय ४२२, ४२३ धम्मपटिसम्भिदा ४११ धर्मरत्न (भिक्षु) २३५, २३७, २३९. धम्मदिना (भिक्षुणी) १५२, १८४, धम्मसिरि (खुद्दक सि खा)५७८,६०५ २६८, ५२६ धम्म सिरि (धर्मश्री) ५३९, ५४०, धम्म-जातक ३०० धम्मसंगणि ८१, ११५, ३३९, ३४१, धम्मचरियं २४० ३४३, ३४४, ३४५, ३४६, ३५१, धम्मपञआपकरण ६४१ ३५४, ३५८-३९५, ३९६, ३९७. धम्मपाल (आचार्य) २, ३०८, ४०५, ४४३, ४५२, ४५५, ५०३; ४९६, ५०१, ५३०, ५३१, ५३२, ५१३, ५३३, ५३५, ६३९ Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म-स्कन्ध ३५३ धर्मरत्न (भिक्षु) २०७ . धम्म-हदय-विभंग ३९७ धर्मरक्ष ३५७ धर्माशोक २०६ धर्मरक्षित ८८, २११, ४८१, ५१७, धम्माभिसमय ४४६ ५६८, ५७२, ५८८ धम्माधम्मदेवपुत्त चरियं ३०० धर्मराज (बुद्ध) ५५८ धम्मानन्द नायक महास्थविर ६०८, धर्म स्कन्ध १४८, ३५६, ५३२ धर्म स्कन्धपाद शास्त्र १४२, ३५९ धम्मानन्दाचरिय (कच्चायनसार) धर्म-संगीतियां ९०, ४९९ धर्मसंगीतिकार ३२९ धम्मानन्द (भिक्षु) ११३, ६०६ धर्मस्वामी (बुद्ध) ५०८ धम्मानन्द (समन्तकूटवण्णना के धर्मसूत्र १२४ सिंहली संस्करण के संपादक) ५९८ १८ धर्मसेनापति सारिपुत्र १५०, १५२. . धम्मानन्द कोसम्बी ३५२, ४५८ देखिये । १६६, १६३, १६९, २४९, ३०४, 'धर्मानन्द कोसम्बी' भी ध्वनि-परिवर्तन ५, ६, १९, ४२, ७१ धर्मसेनापति (ग्रन्थकार) ५८० ध्वनि-समूह ३१, ३५, ३६ धर्मसन्तति ४८६ ध्यान १५७, १५८, ३६७, ४१२, धर्मानन्द कोसबी (आचार्य) ३५०, ४४०, ४४३, ४६२ ध्यानावस्था ४३० ५०९, ५१०, ५११, ५१२, ५१६, ध्यान की प्रथम अवस्था १७१ ५३३. ५४५, ५८६, ६०१, ६२२. ध्यान को चार अवस्थाएं ?? ध्यान-प्रत्यय ४५८, ४६२ धम्मानुसारिणो ५८१ ध्यान-भूमि ३७४ धर्ममेघ २३४ ध्यान साधना ३७९ धर्म-आयतन ४०१, ४००, ४०३ ध्यान समापत्तियाँ २४९ धर्मानुपश्यना १४६ धर्म १६५, १६९, ३९४, ४०३, देखिये धर्मश्री (धम्मसिरि) ५३२ ___ 'धम्म की धर्मानुपश्यी ३५५, ४०७ धर्मी ४५३ धर्माशोक ५५६, ५८७, ६१९ धर्मगप्त ४२४ धर्मशास्त्र संबंधी ग्रन्थ ५४६ धर्मगुप्तिक ४२२ धर्मोतरीय ४२६, ४२४ धर्मचक्र ४७४, ४७५ धम्मिय ३३६ धर्मचक्र प्रवर्तन १५१, १६३, ३२४, धानजानि १५९ ३२५, ५२५ धानजानि-सुत्त १५६, १६० धर्मदूत २११, २२५, ३५०, ५१७ धातु (अठारह) १५७, १५८, १६'., धर्मजाल १३४ ३०५, ३४८,३४९, ३६६, ४०:धर्म-धर ७५ ४०४, ४१२, ४१५, ४१७.४४३. धर्म-धातु ४०४ धर्मपद ११४ धातुकथा (पकरण) १०९. ११५, Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६८० ) ३४०, ३४१, ३४३, ३४६, ३५४, नकुलपिता गृहपति १८४ । ४१२-४१८, ४५२, ६३९ नग्ग जि (नग्नजित्) २८७ 'धातुकथा की अट्ठकथा ५३८, ५४३ नगर विन्देय्य-सुत्त ९९, १५८ धातुकथा योजना ५४३ नगई (एम०) ३१०, ३१२, ३१३, धातुकथा टीका वण्णना ५४३ ३२८ धातुकथा अनुटीका वण्णना ५४३ नच्च जातक ६३५ धातुकायपाद ११५, ३५३, ३५४, ३५७ नन्द १६६, १८४, २२६, २२९, २४८, धातूगर्भ ५२. बानुपाठ ६०८, ६१०, ६११ नन्दा १८४ धात्वत्थदीपनी ६११ नन्दक १८२ धातुमाला ६११ नन्दकोवाद-सुत्त ९८,१५८ धातुमंजूमा (कच्चान व्याकरण को) नन्दमाणव २४१ ६०७, ८१०, ६११ नन्द-वग्ग २२७ धातु-यमक ४५० नदुख-न सुख ४०१,४०२,४०३, ४०४ धातु-यमक-पट्ठान ४८१ न दुख-न सुख को वेदना ४०५ धातु-विभाग ३९७ नदी काश्यप ३२५ धातु-विभंग ३४०, ३४२, ३४३, नयलक्खण विभावनी ६१३ ३९७, ४०३-४०४ नरपति सियु (बरमीराजा) ६११ धातुविभंग-सुत्त १५८, ५०० नरक के आठ प्रकार ५९७ धातुवादी १८३ नरक-लोक ४४१ धातु विवष्ण पेनद थु २४६ नरयुत्तिसंगह ६४२ धातुसूची ६११ नलपान जातक २८८ धातुसेन (सिंहल का राजा) ५५०, नलकपान १५४, १९६ नलकपानक-सुत्त ९५, १५४ धातु-संयुत्त ९९, १६५, ३४८, ३५७ नलातधातुवण्णना ५८१ धोरेन्द्र वर्मा (घा) ७२ नलाटधातुवंस ५४४ घृतंग ४९१ नवक-निपात १०१ १७८ धुतंग-निद्देसो ५१७-५१८ नवटी ५०८ ध्रुव-आत्मवाद ४४४ नव विमलवुद्धि (अभिधम्मपणरसट्रान) धूमाकारि जातक २८६ घोतक (माणव) २४३ नवमेकरो (लोकदीपसार) ५८० । धोतकमाणव-पुच्छा २४१, २४३ नवमोग्गल्लान (अभिधानप्पदीपिका के धोमसाख जातक २८७ रचयिता) ५७९ ६१६ धौली (अभिलेख, कटक के पास) नवांग बुद्ध-वचन १०४ ५, ६१८, ६२३ नवंगजिनसासनं १०४ नवनीतटीका ११०, ३५० ५३३, ४५४ नन्द ३०६,५६२ नकुलमाता गृहपति १८५ नवांग (बुद्ध-वचन) ७८ Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६८१ ) नवीन सर्वास्तिवादी ३१४ १४ निक्खेपकंड ३७३ न्यग्रोध १४७, ५३२ निगण्ठ नाटपुत्त (निर्ग्रन्थ ज्ञातृपुत्र) नाग जातक ६३५ १३७, १४७, १५३, १५५, १५९ नागार्जुन ४२३, ४२८, ४५४ निगण्ठ (निग्रन्थ)१९३ नागसेन ४७३, ४७६ ४७८ ४८०, निग्लिवा ६१८ ४८१,४८२, ४८३, ४८४, ४८७, निग्रोध जातक ६३५ ४८८, ४९०, ४९३, ४९४, ५६६ निघंटु ४८१ नागवग्ग २१५, २१९, २२४ । नित्यता-अनित्यतावाद १३५ नाग संयुत्त १६६, नित्यसंज्ञा ४६९ नागित (बरमी भिक्षु) ६०६ देखिये निदेस १०२, १०७, ११४, ११७, 'कण्टक खिपनागित' भी १९०, १९९, ३४०, ३४४, ३५१, नागिताचरिय (मद्दमात्थ जालिनी) ४७० ५८० निदेस टीका ५३२ नागसेनसूत्र ४७७, ४७८ निदान-वग्ग १६५-१६६ नादिका १५५ निदान संयुत्त ९९, १६५, ४०७ नानादेश-प्रचार ५५७-५५८ निदानवग्ग संयुत्त ६३९ नाम ४०७, ४५३, ५२२ निदानवग्गसंयुत्त-अट्ठकथा ६३९ नामचारदीप ५४० निदान कथा ७८, २८१,५४३, ५६९, नाममाला ६०३,६०४, ६०५, ६०६, ५७०, ५९२,५९९ ६०७,६१०,६१२ निधिकंडसुत्त २०९ नाम-संयुत्त १०० निःश्रय-प्रत्यय ४५७ ४६१ नाम-रूप १६५, २८२, ४५४, ४५५, निमि २८७ ४८६ निमिजातक २९४, २९९ नामरूपटोका ६४० निमिराज चरियं २९९ नामरुप परिच्छेदं ५३२, ५३९,५७८ नियत ४३९, ४४४ नाम.प परिछेद टीका ५३९, ५७९ नियाम ४३३ नामसिद्धिजातक २८२ निपात २१० न्यायसूत्र १२४ निरय-वग्ग २१५, २१९, २२४ नारद २४६, ५४४ निरोध सत्य ४०५ नालक २४१ निरोध-समापत्ति ४३४ नालक-सुत्त २३५, २४०, ५९३, ६३० निरोध-वार ४५१ नालक (मगध में) १७७ निरुक्त ४६५ नालन्दा १३६, १४५, १५९, ५६३ निर्वाण (निब्बाण) १६९, २१७, नाला (ब्राह्मण-ग्राम) ५२५, ५२६ २२४, २३१, २३६, २६५ ३३४, नावा २४० ३७२, ३७४, ३७५, ३८३, २६८, नास्तिप्र यय ४५८,४६३ ४१५, ४३५, ४३६, ४३९, ४५३, न्यास ६४० ४८२, ४८६ ५०५, ५३३ निकाय १९७ निर्वाण-धातु ४४४ Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६८२ ) T निर्वाणपद ४९० न्यायबिन्दु ६४२, निरोध-समाधि ५२२. , न्यायबिन्दु-टीका ६४२ .. निवाप-सुत्त ९४,.१५१ न्यायसूत्र १२४ निष्कामता धातु. ४९३ .. न्यास ६०४, ६१३ निप्फन ४३८ न्वादि (मोग्गल्लान) ६४? निरुत्ति संगह ६१२ न्यासप्रदीप ६०४ निरुत्तिव्याख्यं ६४१ न्यग्रोधागम १७७, १८९ निसन्देही ५८१ : निसत्तसार मंजूसा (न्यासकी टोका.) ६०४, ६०६ पकिगणक निकाय ६४१ निःसग्गिय-कथा ५०८ पकिण्णक-निपात २७९ निस्सग्गिय पाचित्तिय कथा ५०४ पकिण्णकवग्ग २१५, २१९, २२८ निःसर्गिक पातयन्तिक ३१३ ... पच्चय निदेस ८५६, ४५७ निसभ २४९ , पच्चनिय-अनलोम पट्ठान ४५६, नीवरण ४३०. पच्चयाकार विभंग ३४३, ४०६, नीवरण-वर्ग ३६: : ८०७ नेत्तिप्पकरणस्स अत्थसंवगणना (नेत्ति- पच्चनिय-पट्ठान ४५६ ___पकरण-अट्ठकथा) ११, ५३१ पच्चयसंगहो ५४०, ५७९ नेत्ति ४६५ पज्जमधु ५४१, ५८४, ५९४-५९५, नेत्तिपकरण १०८, २०८, ४६५, ४७१, ४९८, ६०२, ६०३ पजावति-पवज्जा-त्त १८९ . नेत्तिपकरण गन्धि ५८१ . : पटाचाग १८४, २६६, २७१ . .. नेत्तिगन्ध ४६५, ५७५ . . . . पट्टिच्चसमुप्पाद ८५४ । नेत्तित्थकथाय टीका ५६२ . . . पटिमम्भिदामग्ग ८५, १०२, १०७, नरंजरा ६०, १७, २०, २७८ ११४, ११७, १९७, २०६, ३४३, नत्तिभावनी ५४२ ३५५, ६४० नेतिपकरण की टीका (सद्धम्मसिनि पटिपत्तिसंगह ६४१ कृत)५४२, (ज्ञानाभिवंग-कृत) ५४६ पटिपत्तिसंगहो ५८१, ६४१ नैवमंजानासंज्ञायतन १६९, २१,४३२ पटिमम्भिदा-विभंग ३९७, ४११ ... पटिसिम्भदामग्ग अट्ठकथा ६४० नेपाल ६१८ : . पटिसम्भिदामग्ग की टीका ५३२. नैष्कर्म्य ०९९ पटिसम्भिदामग्ग गंठिपद नैवसंनानासंज्ञायतन कुशलचित्त : १. पटिंगविवेक टीका ६४१ नोट ऑन मेवंकर ५९३ पटिपदाआणदस्सनविसुद्धि --- निदेसो नौ अंग १०२ ५२१ न्यूमन (के० ई.) २७१, ६३० पटिदेसनिय कथा ५०४ न्यग्रोध (श्रामणेर या स्थविर) ६२० पटिदेसनिया धम्मा (चार) ३१३. ६२४ . . . ३१८ Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६८३ ) पटिभान पटिसम्भिदा ४११ या उपादान स्कन्ध) १५२, १५७, पट्ठान (पकरण) ९१, ११५, ३४१, १६८, १८१, २०८, ३९४, ४५३, ३४३, ३४६, ३५४, ३५६, ४०७, ४८२, ४८३, ५२१, ५८९ ४५२-४६३, ४७० पंचप्पकरणट्ठकथा ६३९ पठम-परमत्थप्पकासिनी ५३८ पंचप्पकरणट्ठकथा की टीका ५३८ पट्ठानगणनानय ५४०, ५८० पञ्ह ४०२ पट्ठानपकरणट्ठकथा ५२९ । पञ्हपुच्छकं ३५०, ३९७, ४००, ४०४, पट्ठान की अट्ठकथा ५३८, ५४३ ४०५, ४०६, ४०७, ४१० , पट्ठानवण्णना ५४३ पञ्चिकमोग्गल्लान टीका ६४० पण्णवार ४९८ पंचिका ६०८, देखिये 'मोग्गल्लान पण्णरसभेदो खुद्दकनिकायो १९७ __पंचिका' भी पत्तपिडिकंग ४९१ । पंच-जातक-सतानि २०६ पतंजलि ४०५, ४१०, ५२१ पञ्चपुग्गला ३४० पथवीकसिण-निद्देसो ५२० पंचपंडित जातक २७५ पद्मपुराण ५९७ पञ्चवर्गीय भिक्षु १७२ पदरूपविभावनं ५७९ पंचादिअंगुत्तर अट्ठकथा ६३९ पदसोधन ६४१ पञ्चिकमोग्गल्लान ६४० पद-साधन ६०९,की टीका ६०९ पंचाल (पांचाल)१४५. १९५, २८६ पद-माला ६११ पंचालराज २८७ पदरूपसिद्धि ६०५ पंचशतिका ७७ दे० 'रूपसिद्धि' पा -बल ३८९ पद्यचिन्तामणि ५२९ पञत्तिवादी ४२०, ४२३ पधान २४० पञ्चसामि (प्रजाम्वामी-बरमी भिक्षु) पधानिय सुत्त १८८, ६२४ पपंचसूदनी ४९७, ५६३, ५२४, ५७७ पचिन्द्रिय (प्रज्ञा इन्द्रिय) ३९९ . पपंचसूदनी की टीका ५३८ परित्त पाठ २१२ परमत्थजोतिका ५१३, ५२६ । पहलवी २९६ परमत्थमंजूसा ५३१, ५७८, ५८० पंडितवग्ग २११, २२१, २२३ परमत्थदीपनी २६८ पंडितवाद ४९१ परमत्थ दीपनी (लेदिसदाव-कृत) पसुकूलिकंग ४९१ २४७, ५३१, ५४४, ५७८ पंजाब ११६ परमट्ठक २४१ पंजाब संस्कृत सीरीज़ ५७५ परमत्थ बिन्दु पकरणं ५७९ पदावहामहाक्क ६४१ परमार्थ सत्य ३५० परचित्तज्ञान ५२१ पंचम विपाक चित्त ३८३ पराजिक कंड ६३८ पंचतन्त्र २९५ पराभव सुत्त २१२, २३९, २४० पंचशाल (ग्राम) १६२, ४८९ परस्मैपद ६८ पंचस्कन्ध (पञ्चक्खन्धा-पांच स्कन्धः परविवेक ६४२ Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६८४ ) परमत्थविनिच्छय ५३२, ५७८, ६४० पातिमोक्ख-खुद्दकसिक्खा ६४३ पराक्रमबाहु प्रथम (लंकाधिराज) ५३७, पातिमोक्ख - विसोधनी ५४०, ५४१, ५६४, ५६५, ६०९, ६१४ ५८० पराक्रमबाहु (द्वितीय) ५६४, ५७५ पाणिनि २२, २९, ५१२, ६०८, परित्त २१०, २१४ परित्तपाठ और लंका २११ पाणिनीय अष्टाध्यायी ६०१ परिब्बाजक - वग्ग ९६, १५५ पाणिनीय धातुपाठ ६०७, ६११ परिवार पाठ (परिवार) ८५, ९१, पाणिनीय व्याकरण ६०१, ६०२, १०७, ११५, ११७, ३२६-३२७, ५४९ पापवग्ग २११, २१५, २१८, २२३ पयोग सिद्धि ६०९ पापक २८२ पवारणा ३२६ पायासि वर्ग २४५ पशुकथाएँ २८१ पारायण वग २०५, २४०, २४१ पसूर २४१ पावा १४५, १४७, ५७१, ५७२, पसेनदि १६२ देखिय ‘प्रसेनजित्' भी ५७४ पश्चात-जात प्रत्यय ४५७, ४६२ पातंजल मत ५०७,५११ पंचगतिदीपन ५४२, ५८४, ५९३- पान जातक २८८ पातंजल योग ५११, ५१६, ५२२ पञ्चत्तय-सुत्त ९७, १५६ पातंजल योगदर्शन ४१० पंचनेकायिक ७५, १०४, २०१, ६३४ ।। पाथिक-सुत्त १४६, १४७ पञ्चकं ५७९ पाथिक-वग्ग १४६, १४८ पंचनिपात-अंगुत्तर ६३९ पाथेय्य-टीका ६३९, पंचक निपात १०१, १७८, १८१, पायासि राजन्य १४६, २०६ ३४२, ६२९ पायासि-सुत्त पायासिराजब-सुत्त ९२, पंच इन्द्रिय १८०, १८१, ४९० १३१, १४६ ४३३ पाँच निकाय ४९४ पारमिता २९९ पाँच प्रकार की वेदनाएँ ४०६ पॉइन्ट्स ऑव कन्ट्रोवर्सी ४२१ पाँच निस्सरणीय धातु १८१ पाराजिका ७७, ९१, ११४, ३२२, पाँच धातुएँ ४०४ ३२३, ३३१ पाँच विमुक्ति आयतन १८१ पाराजिक कथा ५०४ पाँच नैतिक इन्द्रियां ४०६ पाराजिका धम्मा ३१६, ३९२ पांच विज्ञान धातु ४६०, ४६१ पाारजिककण्ड-अट्ठ कथा६३९ पाचित्तिय ९१, ११४, ३२२, २२३, पाजिटर ५४७ ६३८ पारिलेय्यक (वनखण्ड) १७३ २२९ पाकट वण्णना ३१२ पाचित्तियादि अट्ठकथा ६३९ पारिच्छत्तक वग्ग २४५ पातिमोक्ख १०६, १०७, ३२३, पारिदेसनिय धम्म ३२२ ५३९, ६२८ पालि माध्यम ११७ Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६८५ ) पालिलेय्यक १७३, २२९ 'देखिये ' पारिलेय्यक' भी । पाटलिगामियवग्गो २२६ पाटलिपुत्र ८, १८, २१, ८५, ८७, ९० १५९, १९६, ३३८, ४२१, ४२५, ४८१, ५५६, ५५७, ५६३ पाटिक सुत्त ९२, १३४ पाटलिग्रामवर्ग २३१ पाटिक वग्ग ९१, १३२, १३३, १३४ पाठाचरिय ६४० पंडित वग्ग २१५ पाण्डव पर्वत २८६ पारानिस्सय ६४२ पालि टैक्स्ट सोसायटी (संस्करण) ८३, ८८, १०४, १६०, १७१, १७८, १९५, १९६, १९९, २७७, ३३४, ३४०, ३४५, ३५२, ४१८, ४२१, ४२२, ४५०, ४५२, ४५७, ४७१, ५०५, ५३८, ५४८, ५५३, ५६४, ५६७, ५६८, ५६९, ५७५, ५८१, ५८६, ६०२, ६२८, ६४४, पालि डिक्शनरी ( चाइल्डर्स) १२, ३५९ पालि - त्रिपिटक १०५, ११२, ११३, ११५, ११८, १२०, १२२, १२३, १२८, २००, २७६, ४६५, ४९४, ५०८, ५२४, देखिए 'त्रिपिटक' भी पालि दि लेंग्वेज आँव सर्दन बुद्धिस्ट् ( कीथ का लेख ) १४ पालिधम्मपद २२१, २२२, २२३, २२४ पालिका अभिलेख - साहित्य ६१६ ६४३ पालि-काव्य २६७, ५६३-६०० पालि काव्य शास्त्र ६१६ पालि कोश ७, ६१४-६१६ पालि छन्द: शास्त्र ६१६ पालि व्याकरण - साहित्य ६००-६१४ पालि बौद्ध धर्म ३५० पालि - भाषा १-७३ - शब्दार्थ - निर्णय १ ९, का भारतीय भाषाओं के विकास में स्थान ११-१२ -- किस प्रदेश की मूल भाषा थी ? १२-२८, का मागधी आधार १४-२८ - और वैदिक भाषा २८-३०, और संस्कृत ३० - ३१, और प्राकृत भाषाएँ विशेषतः अर्द्धमागधी शौरसेनी और पैशाची ३१-३५, में पाये जाने वाले प्राकृत-तत्त्व ३२, का , ५७-६२ . के ध्वनि - समूह परिचय ३५-६८, —का शब्दसाधन और वाक्य- विचार ६८-७०, - के विकास की आवस्थाएँ ७१ - ७२, और साहित्य के अध्ययन का महत्त्व ७२-७३ १११,४५०, ४५२, ४७६, ६१७, ६२७ पालि लिटरेचर ऑव बरमा (मेबिल बोड ) १९९, २०१, ३०८, ५९७, ६०६, ६११, ६१२, ६१३, ६३८, पालि लिटरेचर ऑव सिलोन ( मललसेकर) ५६६, ५८८, ५९८, ५९९, ६०४, ६१५ पालि लिटरेचर एण्ड लेंग्वेज ( गायगर ), १२, १७, १८, १९, २३, ५२, ८०, ९६, १२१, १३२, १६०, १६१, २७३, ३४५, ३४६, ४७१, ४७७, ४७८, ४९८, ५२७, ५५४, ५६९, ५७५, ५८७, ५८८, ५९०, ५९४, ५९५, ५९८, ६०५, ६०६, ६०७ पालि साहित्य ७४, ८३, ९०, ९१, १०८, १२१, १३०, २१०, २७६, २९०, २९१, ३१८, ३४३, ३७४, ४५२, ४९४, ४९५, ५००, ६२७, ६३३, ६३८, ६४३, का उद्भव और विकास ७४-९० ; - का विस्तार, वर्गीकरण और काल-क्रम ७४-११०,—में प्रकृति-वर्णन २५५, के तीन बड़े अट्ठकथाकार Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६८६ ) ५०१,- का भारतीय वाङ्मय में पियवन्ग २१५, २२४ स्थान ६४४-६४६,-और विश्व- पीति ४०८ साहित्य ६४६-६४७,का विव- पीटर ३२७ रण-७४-६४७ पीठवग्ग २४५ पालि माध्यम १११ पुच्छक ४०२ पालि ग्रन्थ २७५ पुग्गल ४८२ पालि महाव्याकरण (भिक्षु जगदीश । पुग्गल- पत्ति ९१, १०७, ११५, काश्यप) ४, ६, ७, १६२७, १२८, ३४०, ३४१, ३४२, ३४३, ३४४, ६१०, ६१४ ३४६, ३५२, ३५४, ३५६, पांच संयोजन ४१९ ३५७,४१८-४२१, ६३९ पासादिका वणना ३१२ पुग्गलपत्ति की अट्ठकथा १, ५३८ पालि मुत्तक विनय संगह ५३८ पुग्गलपञत्तिपकरण-अट्ठकथा ५२९ पासादिक-सुत्त ९३, १४७, १७० पुण्णक २४२ पासरासि-सुत्त १५१, १६० पु णकमाणवपुच्छा २४१, २४२ पांगुकूलवागे २५४ पुण्ण मन्तानिपुत्त ५२४ पिंगलमाणव-पुच्छा २८१ पुणोवाद-त्ति ९८, १५८ पिण्डपात पारिद्धि-सुत्त ९९, १५८ पुद्गल ३५५, ३५६, ३९८, ४१८ पिण्ड्यातिका ४११ पुनर्जन्मवाद ४६४ ४८४, ४८६ पितनिक ८८ पुनर्वसु १६८, ३२3 पिटक १२३, १३२, १८, १९९, पुप्फवग्ग २१५, २२१, २२३ पुष्पवती (पुष्फवती) २८७ पिटकत्तयल ग्वणा गन्ध (पिटकत्रय- पुम्भरसारि ६४० __ लक्षण ग्रन्थ) ५.१. पुररवा-उर्वशी २९० पिटक-संप्रदाय १२३, १८६ पुरेजात-प्रत्यय ४६१ पिटक-माहित्य :०८, ३४०, ५१३, पुराण ८२, ५४७, पुराण-इतिहास ५.७ २५१ पिटक-संकलन २०१ पुराण टीका ५८१ प्रिंडो-टोका ६४१ पुराणाचार्य (पोराणाचरिय) ४९७, प्रिंडो निस्सय ६४२ पिंडोल भारद्वाज १८३, ५२४ । पुरामेद २४१, ४९४ पियजातिक-सुत्त १८, १५५, १६० । पुरातत्व निबन्धावली (राहुल प्रियदर्शी (अशोक) ६१९, ६२४ सांकृ यायन) ४२२, ४२५, ४२६ पियदस्सी (व्याकरणकार मोग्ग- पुरुषत्व ४०६ ल्लान के गिप्य) ६०९ पुरुषसूक्त ५११ पिरित २११ पुलस्थिपुर ६१६ पियजालि ३३६ पलिबोधा ५२० पियदस्सि ३३६ पुलिन्द ८८ पियपाल ३३६ पृप्य ३१० Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६८७ ) पुष्यमित्र ११६ . प्रातिमोक्षसूत्रटीका १४०, ३०२, ३०५, पुष्यदेव ३१० . ३१३, ३२४ पुष्पपुर ५६३ प्रतिज्ञातकरण ३१९, ३२० पूर्ण १५८, ३५३, ३५७ प्रतिसग ५४८ पूर्ण मैत्रायणी पत्र १८३ प्रतिसंविद-ज्ञान २९८ ४३३ पूर्णा २६८ प्रथम ध्यान १६७, ४०९, ४१०, पूर्णिका २६८ प्रथम दो बौद्ध संगीतियाँ ७-८५, पूर्व-अशोककालीन २७७, ३४१ ३०८ पूर्वाचार्य (पुब्बाचरिय) ५६७ प्रथम संगीति ७-८२, ८९, १९७, पूर्ण काश्यप १३७ १०, १९९, ३०९, ३३६,३९४ पूर्व-बुद्धघोप १०९ 'प्रसाद' (जयशंकर) ७३ पूर्व-वुद्धघोष-युग ८:५,-४९५ प्रज्ञा १५२, १५७, १७९, २४२, ३५४, पूर्वजन्म की स्मृति ५२१ ४११ पूर्वजात-प्रत्यय ४५७ प्रज्ञा-इन्द्रिय ३८८ पूर्वागम २२८, ५२५ प्रजप्तिवादी ११५, ३५४, ३५६,४२३, पुरणकस्सप ४८१ ४२४ पूर्वशैलीय ८२६, ४३० प्रज्ञप्तिपाद नास्त्र १४०, १४१, ३५३, पूसाँ ३०९ पृथजन (पृथुज्जनो) ८१८, ४१९ । प्रयाग ५६३ ६१२, ६१९, २३३, पृथ्वी-धातु ४०३ प्रसादजतनी ५८१ 'पृथ्वी-समान ध्यान की भावना १५३ पराक्रमबाहु ५९४ पृथ्वी-ऋत्स्न ८३३ प्राकृत-पाकड-पाअड-पालि ८ प्रकरण-पाद ११५, ३५३, ३५४, ३५५ प्राकृत (भाषा) :., ३०, ३१-३५, प्रकीकर्ण ३५५ ३७, ३९, ४४, ५०, ५४, ५५, ५६, प्रक्रुध कात्यायन १३७, १७६ ५७, ५८, ७२ प्रतिकूलसंजा (आहार में) ५२१ । प्राकृतपन (पालि में पाये जाने वाले) प्रत्यय २८६, ३५५, ८५५,४५७,४७० ५७-६२ प्रत्ययोत्पन्न २९८ प्राचीन सिंहली अट्ठकथा ४९६ प्रत्यय-स्थान ८५७, ४५५ ।। प्राकृत धम्मपद २२१, २२२ प्रत्यन्त देश ५५७ प्राच्या (प्राकृत) ३१ । प्रातिमोक्ष ३००, ३२३ देखिये 'पाति- प्राचीन अर्द्धमागधी १८, १९, १११ मोक्व भी प्राचीन आर्य भाषा ६८, ७१, प्रतिदेशना ३१८, ३१३ प्राचीन भारतीय आर्य भाषायुग प्रत्येक वुद्ध ४१८, ५७? ११, ८७ प्रतिसंख्यान ४३१ प्राचीन जनकथा २७७ प्रतीत्य समुत्पाद १४४, १५१, १६५, प्राचीन स्थविर (पोराणकथेग) ४९९ २१३,४०, ४१२ ४५४, ५८९, प्रालेय (प्रालेयक) २८ प्राचीन वैदिक प्रयोग २३६ Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६८८ ) प्राचीन सिंहली भाषा ४९६ . पौराणिक आख्यान १३० प्राग्बुद्धघोषकाल ३२३ ४९३, ४६६, पोट्ठपाद-सुत्त ९२, १२७ १२९, १३०, प्राण-ध्वनि ३६, ३७, ५६ १४१-१४२, १७२ प्राणध्वनि का आगमन ५६, ६३, पोतलिय-सुत्त ९५, १३०, १५३ ६४, ६७ और लोप ५६, ६३, ६७ पोलिटिकल हिस्ट्री ऑव एन्शियेन्ट प्रायश्चित्तिकं ११४ इन्डिया ( हेमचन्द्र रायचौधरी ) प्रायश्चित्तिक ३११ २९१, २९२, २९३, ४७१, ६०९, प्राणायाम १५७ ६१०, ६११, ६१३, ६१४ प्रणिपात ३५० पोलोन्नरुवा (लंका में) ६१५, ६१६ प्रीति १७०, ३८३, पोराण खुद्दकसिक्खा टीका ५३९ ३८७, ४०९, ४१०, ५३४, ५ः५ पोसालमाणवपुच्छा २४१ प्रियदर्शी ४, २८ पौष्करसाति १३८ प्रवचन ५ प्रमेनजित् १५६, १६२, १७७ १९४, १९५, २२८, २३० प्रश्न उपनिषद् २९१, १५६ फ-क्यू-किंङ् (धम्मपद का चीनी अनुप्रश्रब्धि १७० वाद) २२३ प्रद्योत (पज्जोत) १५७ फल-चित्त ३८३ पेगन में प्राप्त खंडित पाषाण लेख फ-शिन्यन २७७ ६३४, ६३८ फॉसबाल (वी.) २७३ पेटकालंकार ५४३ फासुकारि-सुत्त ९७, १५६ पेटकी ७५ १०४, ६३४, फाह्यान २०४ पेटकोपदेस १०८, १२७, १२८, १९९, फ्रांस २९६ ५६१ ४१४, ४६५, ४६६, ४७२, ५७७ फिक (डा.) २८९ फ्लीट (जे० एफ०) ५५४ ५८०, ६०२, ६०३ पेतवत्थ १०२, १०७, ११०, ११४, फ्रैंक (आर-ओ०) १२, १३, १४, १५. १९६, १९७, २००, २०१, २१०, ११९, १३२, १४८, ५५०, ६०७, २४५, २४६, ५३१, ५९६ पेतवत्थु अट्ठकथा सहिता ६४० पेतवत्युस्स विमलविलासिनी नाम __अट्ठकथा ५७८ वक जातक २८२ पैशाची प्राकृत १३, १५, २८, ३१,३२,- बंकाक ५०५, ६४४ ___ का पालि से संबंध ३४-३५, ५० बक्कुल-सुत्त ९८, १५.७ पोतन १४५, २८७ बॅगला २३५ पोतलि २८७ बंग-प्रदेश ५५१ पोराणा ४९९ बर्मी विहार (सारनाथ) २३५ पोराण अट्ठकथा बंबई विश्वविद्यालय (संस्करण) ४, पोराणाचरिय (पुराणाचार्य)५७७,६११ ९०, १३४, १४८, २०२, २१२, Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६८९ ) २४६, ३१५, ३३८, ३४१, ३४९, ब्राह्मणधम्मिय (वग्ग) २४० ४७२, ४७४, ४८१, ५५३ ब्रह्म-प्राप्ति १७७ बरमा ९१, २०७, २११, २७४, ३३१, ब्रह्म देश ७२ ३३२, ३५१, ४७१, ४७२. ४९२, ब्रह्म-सूत्र १२४ ५१२, ५३६, ५३७, ५४०, ५४१, ब्रह्मचर्य २०८, ४२९, ४३०, ४५३ ५४३, ५४४, ५४५ ५७६, ५८१, ब्रह्मा १४३, २५२, ५१? ५८३, ५९९, ६०५, ६०६, ६१०, ब्रह्मायु (ब्राह्मण) १५९ ६११, ६४४ वृहत्तर भारत २९० । बरमी परम्परा, साहित्य, इतिहास आदि बापट (डा.) २३५, ३००, ३५२,५२८ १७८, २७३, ३०८, ३५८, बार्थ (ए.) ८६, ११०, ४७७ ३९६, ४१८, ४२२, ४५२, ४९५, बाण ५०५, ५३१, ५३९, ५४२, ५४४, बारह आयतन ३४८ ५४६, ५४८, ५६४, ५६७, ५७६, बाराबर (पहाड़ी, गया के पास) ६१८ ५८१, ५८२, ५८५, ६००, ६०४, बालप्पबोधनप्रत्ति-(वृत्ति)-करण ६४१ ६०६, ६०९, ६११, ६१२, ६१३, बावरि (ब्राह्मण) १६२, २४०, २४१ ६१४, ६१५, ६१९, ६३८, ६४२ बावेरु जातक २८३, २९'.. बरमी पालि साहित्य ५४२-४४ ।। बावेरु राष्ट्र २८३ बरमी परम्परा ५०९, ५१०, ५१२ वालप्पबोधन (व्याकरण) ५८१, ६०७ बल (पांच) ४१२ ६४१ बल संयुत्त १०१, १७१ बालत्तजन ६४१ बहुवेदनिय-सुत्त १५, १५३ बालावतार ५६८, ५७९, ६०५, ६०६, बहु-धातुक-सुत्त ९७, १५७ ६०९,६१३, ६४० ब्रह्मचर्यसंबंधी उपदेश (बुद्धका) बालपंडित-मृत्त ९८, १५७ १९१-१९३ बालावतारटीकं ५३९ ब्रह्माण्ड पुराण ५९७ बालवाग २१५. २२१, २०३ ब्रह्मायु सुत्त ९६, १५६ बाहरी संयोजन ४१९ ब्रह्मविहार-निदेसो ५२१ बाहिर कथा ४७७ ब्रह्मजाल सुत्त ९२, १३४-१३७, १३८, ब्राह्मण-ग्रन्थ ११, २८, २९ २७६ ब्राह्मण-वग्ग ९६, ९७, १५६, २१५, ब्रह्मविहार १४३, २१० २२०, २२१, २०४ ब्रह्मवती ५८६ ब्राह्मण-संयुत्त ९९, १६३ ब्रह्मगिरि (मैसूर राज्य) बाहितिक-सुत्त ९६, १५६ ब्रह्मायु सुत्त १५६, १६० वाहिरा (धम्मा) ३६९ ब्रह्मदत्त २७४ बाहिय दारुचीरिय (भिक्षु) १८३ ब्रह्मनिमन्तिक-सुत्त ९५, १५३ बाह्य आयतन ३४८ ब्रह्मजाल-सुत्त १३४-१३, १५३ ब्राह्मण वर्ग १५९ ब्रह्मविज्ञान ४१० बाहुलिक (बौद्धसम्प्रदाव) ४२२, ४२३ः ब्रह्म संयुत्त ९९, १६२.१६३ वाहुश्रुतिक (बाहुलिक) ४२३ . Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६९० ) बिगडेट ( विशप) ६०० बिडल जातक ६३५ बिबलियोथैका इंडिका ५६९ बिम्बिसार १३९, १४५, २२८, २९२, ३२५, ३२६, ५६१, ५६२ बिनि-म:- रोन् ३१२ बिलावत जातक २८२ बीजख्यं ६४१ बुद्ध उपदेश ७५, ७७, ८७, १०१, १०२, १२५, १२९, १३१, १३२, १३४, १३७, १६७, १८०, २०१, २१८, २३५, ३०४, ४८५, ४३५, ४६८, ४६९ बुद्ध-काल ९१, २२८, २३७, ३१० बुद्धकालीन १२७, १८२, २४६, २७७, २८९, ३२५, ३४९, ४८०, ४८१ बुद्धकालीन भारत १२०, १५९, १७५, १९६, २८५ बुद्धघोष (आचार्य) १,२,३,६, १०, २२, २३, २४, ५८, १०४, १०५, १०८, १२३, १३०, १४८, १९७, २८०, ३०८, ३०९, ३१०, ३१२, ३१५, ३२४, ३३१, ३३४, ३३७, ३४१, ३४६, ३५०, ४२७, ४६५, ४५२, ४७३, ४७९,४९६, ८९७, ४०.८, ४१८, ५००, ५०१, ५०२, ५०३, ५. ४, ५ ५ – की जीवनी ५.५ —–५१३-की रचनाएँ ५१३ - ५२९ -- की अट्ठकथाएँ ५२२५२८-५३१, ५३२, ५३६, ५३३, ५३८, ५३८, ५३०, ५४२, ५८३, ५४५, ५४८, ५८०, ५६६, ५६७, ५६८. ५३६, ५७७.५८६, ५८७, ६००, ६०१, ६०२, ६०३ बुद्ध-सना ८६८ बुद्ध जीवन १२५, १७७, २०९, २२५, ५७१, ५७४, ५३५, ५८२, ५९१, ५९२, ६०० बुद्ध की जीवनी १५०, १५५, १५६, २०८, बुद्ध धर्म ७३, ८६, ८८, ११२, ११९, १२३, १४५, १४६, १४७, १६१, १६२, १६९, १७२, १७४, १७५, १७६, १७८, १८५, १९०, ३०७, ३११, ४१८, ४२१, ४२२, ४२५, ४२७, ८६५, ४९३, ५५७, ५६३, ५६८, ५८९, ५९५, ६२०, ६३१, ૬૨૨, ૨૪૭ बुद्ध नेत्र ४५४ बुद्ध-प्रवचन १४८, १५७, १६०, १६८, ३०९ बुद्ध प्रशंसा ९६३, १३६ बुद्ध - प्रमुख भिक्षु संघ १२७, २२८ बुद्ध शिष्य १७२ २६९ बुद्धचर्या ( राहुल सांकृत्यायन ) ७६, ८२, १३२, ३१५, ३३५, ५२५ बुद्ध- पूर्व युग २९० बुद्ध भक्ति २२८ वुद्धकालीन संघ ३०८ बुद्ध-मन १५३, ३२५, ४२८, ४५३ वुद्धमन्तव्य ८४, १८४, ३०६, ३३५, ३८६, ४२५ ४६३, ४६८, ४८४ बुद्ध मुख ८३, ११२, १२०, ३१० वुद्ध त्रैविद्य १५५ बुद्धमित २८१ वुद्ध गौरव १६८ बुद्ध-युग २१, ७५, १९३ वृद्ध १०२, १०७, १०७, १९८, १९९, २९८, ५०४, ५०५, ५४९, ५७८, ५८५ बुद्ध-शासन ५ १३६, २४५, २४७, २४८, २५७, २६६, २६९, ३०७, ३०८, ८७२, ८६७ ५८१, ५८८, ܘ: बुद्धरक्षित ३१० बुद्ध-संवाद १७८ Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६६१ ) बुद्ध-पूर्व युग २९२ ५०६, ५०७, ५११, ५१२, ५४२, बुद्धकालीन भूगोल २८९ ५४८, ५६६, ५६७ बुद्धप्रिय 'दीपंकर' (स्थविर) ५९५, बुद्धघोष की अभिधम्म पिटक सम्बन्धी ६०५, देखिये 'दीपंकर' भी अट्ठकथाएँ ५२८-२९--की अन्य वुद्धघोष युग की परम्परा अर्थात रचनाएँ,---का पालि साहित्य में टीकांज को युग, ५३७, ४६ __ स्थान ५२९-३० बुद्धिस्ट फिलासफी (कीथ) १२३ बुद्धप्पिय ५४१ बुद्धिस्ट साइकोलोजी ५०५ बद्धयश ११३, ३५६ (अट्ठकथाकार) बुद्ध वग्ग २१५, २१८, २२४ बुद्धदत्त ८६५. ४०६ ४६९, ५०१, बुद्ध (भगवान्) ५, १२, १४, १३, ५०२,--की जीवनी और रचनायें १७, २१, २२, २३, २४, २५, ५०२, ५०५, ५०३, ५०४, ५३०, ०६, २८, ३, ७४, ७५, ७६, ५३१, ५३२ ५६९, ५४ , ५४५, 5.७, ७८. ७९, ८०, ८१, ८२, ८६, ८,८९, १०, १११, ११२, बुद्धघोप-विहार ५१३ ११८, ११९ १२०, १२१, १२२, वुद्धालंकार ५४२ १०४, १५, १२९, १३०, १३१, वुद्धगया २९०, ५०१ १३६, १२ १३६, १३८, १४२, वुद्धमित्र ५१०, ५२४ १४८, १८५.१४६, १४७, १५१, वुद्धप्पिय ५८० १५२, १५.५ १५६, १५७, १६० बुद्धवंम-अट्ठकथा ६८० १६.. १६३, १६४, १६५, १६६, वुद्धवंश ११४, ११५ १३४, १७५, १७९, १८५, १९३, बुद्ध-यात्रा गजगह से कसिनारा तक १४५ १९४, २०१. २०८, २२५, २२८, वुद्ध की हृदय से उत्पन्न कन्या २६७ ।। २३०, ३१. २४१, २४८, २५०, बुद्धघोप-युग ८९६, ५३६ २५०, २६७, २७३, २८१,२९२, बद्ध-परिनिर्वाण ११८, ११९, १२०, २९३, ३०५, ३०७,३०८, ३१०, ३२३, ३२४, ३२५, ३२६, ३२७, बुद्धिस्ट एजूकेशन इन पालि एंड ३३०,३३५, ३३६, ३४८, ३४७, __ संस्कृत स्कूल्स (ए० ई० जे० कालेज) ३५२,३५६, ३५७, ४०५, ४२५, २८८, ४३३, ४४७, ४६८, ४७१, बुद्धघोप युग की परम्परा अथवा ४५३, ४८६, ४८९,४९०, ४९२, टीकाओं का युग ११० ५००, ५.१,५०४, ५२३, ५२४, बद्धरक्षित (जिनालंकार के रचयिता) ,२५,५६,५३०, ५३१, ५०, ५५६,५५७, ८, ५६१,५६२, बुद्ध-चरित ७३, ५९२ ५६३, ५७०,५७१,५७२,५७३, बुद्धानुस्मति ५३ ५७४, ५७६,५८१,५८३, ५८५, बद्धकालीन मामाजिक अवस्था ,८६, ५९०, ९.२, ५९४, ५९६, २८९ ५९८,६०२,६०३, ६१९, ६२०, बुद्धघोमुप्पत्ति ८०५, ५०२, ५०३, १०१,६२३, २४, ६३२, ६३९ ००० mm Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६९२ ) बुद्ध-वचन १, ४, ६, ८, २१, २२, २३, बुद्धरक्खित (स्थविर)५३८, ५४०,५६५: २५, ७४, ७५, ७६, ७७, ८०, बुद्धश्री (बुद्धसिरि) ५२२ ८४, १०२, १०३, १०४, बुद्ध निर्वाण ९१, १५५ १०६, १०७, १०८, ११२, बुद्ध स्वभाव ३२५ ११७, ११८, ११९, १२०, १२३, बेखनस-सुत्त १५५ १२४, १२७, १२९, १३१, १३३, । बेल क-जातक २८२ १४८, १७९, १८२, १८७, १९२, बैक्ट्रिया ८९,४९४ २००, २१४, २२५, २३२, २३३, बैराट (जयपुर) ६१८ ०३४, २७६, ३३६, ३३७, ३३८, बोधिवंस ५८१, ६४०, देखिए 'महा-- ३३९, ३४०, ३४७, ३५०, ३५२, बोधिवंस' ३५३, ३५८, ३७४, ४०५, ४०९, बोधिपक्षीय धर्म १८९, २६३, ४२२.. ४१०, ४१२, ४६५, ४२८,५६६, ४६९, ४७०, ४८४, ४८७, ४९२, बोधिसत्व आदर्श २२८, २९० ४९३, ४९४, ५७७, ६३३, ६३६ बोधिसत (व्याकरण) ६०८ बुद्ध दर्शन ४५३, ४८१, ४८४, ४२७ बोधि वृक्ष ५०९, ,५१, ५६२, ५६८,. बुद्धिस्टिक स्टडीज़ ( लाहा-संपादित ) ५७३, ५७४ । ४, ८, १२, ८०, ८२, ८४, ८९, बोधिसत्व २०५, २७३, २९६, ४३२ १०५, ११६, १२३, ३१२, ३१३, ४४७, ५७०, ६३६ ३२८, ३३४, ३३८, ४२४, ४४९ बोधि के सात अङ्ग, १७०, २०८, ४०८. बुद्धिस्ट वर्थ स्टोरीज २७३, २८१ बोरोबदूर स्तूप २९० वुद्धिस्ट विनय डिसप्लिन और बौद्ध भिक्षुणिय २६४ बुद्धिस्ट कम्पाडमेंटस् ३२८ बौद्ध योग २१० बुद्धिस्ट मेनुअल ऑव साइकोलोजीकल बोधिराजकुमार-सुत्त ९६, १५५, १६० एथिक्स ४४३ बोज्झंग विभंग ३९७,४०८ बुद्धिस्ट इंडिया (रायस डेविड्म् ) १२, बोज्झंग-संयुत्त १०० ११२, २०२, २७७, ३७३, ५५०, । बोध्यंग १५८,३५६ ५६१, ६२८ बोधि वर्ग २२१, २२५, ८१२,४५४ वुद्धिस्ट विनय डिमिप्लिन ३१२ । बोबोगी पेगोडा (बरमा) ६१७ में वुद्धिज्म : इटस हिस्ट्री एंड लिटरेचर प्राप्त खंडित पाषाण लेख ६३८. (अमेरिकन लेक्चर्स ऑन बुद्धिज्म, बौद्ध संगीतियों १०५, ११८, ३२५, डा० रायस डेविड्स्) ३४६ ५२३, ५३७, ५५०, ५५१, ५५६वुद्ध की उठाने वाली आदेशना १८७ ५५८, ५६२, ५६८, ५६९, ५७२.. वुद्धिप्पसादिनी ६०१ ५८१, ६२३ बुद्धनाग (स्थविर) ५३८, ५३९, ५७९, बौद्धयुगीन शिक्षा २८९ बुद्ध वन्दना ३७७ बौद्ध धर्म ११७, ११८, १३१, १४६, वद्धालंकार ५८४, ५९५ १५९, २३१, २३५, २३७, २४५, बुद्धत्व प्राप्ति १२, १८५, २७४, २६९, २७६ २९०, ३३१, ४४७, ३२४ ४४८, ४७६ Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६९३ ) बौद्ध साहित्य २१३, २३०, २९०, २४१, भद्दसाल जातक २८७ २३०, २६५ बौद्ध अनुश्रुति ७९, ४९६ बौद्ध महाविभाषा शास्त्र २९२ बौद्ध परम्परा १६०, ३३८, २९६, ३३५, ५८७, ३३८, ४२७, १०५ बौद्ध संघ ८६, ३०७, ३०८, ३०९ बौद्ध ग्रंथ ३४० वौद्ध नैतिकवाद २४४ बौद्ध दर्शन ४८९ बौद्ध सम्प्रदाय ३५५ बौद्ध-तत्व-दर्शन ३३५ बृहज्जातक - निस्सय ६४२ बृहत् कथा २९४ बृहज्जातक - टीका ६४१ बृहज्जातक ६४१ बृहदारण्यक ४९४ भ भग्ग १५९ भग्ग राज्य २८७ भर्ग देश ५८५ भगवान् महावीर १५६, १५९ भंडगाम १४५, १९५ भंडारकर ( डी० आर०) ८६, ६२९ भडौंच ४९४ भतो-रोग-रोम् ३१२ - भदन्त ( स्थविर ) ५२४ भद्रकल्प १४३ भद्रयानिक ४२४, ४२२, ४२५, ४३० भद्रा ( भिक्षुणी) २६९ भद्रा कात्यायनी (भिक्षुणी) १८४ भद्रा कापिलायिनी २६८ भद्रा कुंडलकेशा ( भिक्षुणी) २६८२६९ भद्दनाम ३३६ भद्दसाल ( स्थविर ) ५५७, ५६८, ५७२, ८९, ३१० भद्दालि १५४ भद्दाल- सुत्त ९५, १५४ भद्रावुध माणव पुच्छा २४१ महिय २३०, ३२५, ३३६ भद्दिय कालिगोधापुत्र १८३ भद्दे करत सुत्त १५८, ३४५ भूमिज - सुत्त १५७ भयभेरव - सुत्त ९३, १२२, १४९, १७२, ૨૭૪ भरंड - कालाम १८५ भरंडु-सुत्त १८४ भृगु १४२, २९१ भर्तृहरि ५९० भरत मुनि ३१ भरुकच्छ २८८, ४९४ भल्लिक ३२५ भल्लिकं ३०३ भव १६५, ४५४, ४५५, ४०७ भव-ओघ ३६६ भव-योग ३६७ भव्य (आचार्य) ४४९, ४२३, ४२४ भव - वासना ४२० भयासे २३६ भवास्रव ४४१ भागलपुर १३९ भागवत ( डा० ) १४८, ५४८ भांडारकर ओरियन्टल सीरीज, पूना ३५२ भांडारकर कोमोमेरेशन वोल्यूम १६ भाणक ७५, ६३४ भाब्रू ( शिलालेख ) ४, ६, १९, १०३, २३५, ६१८, ६२०, ६२७, ६३३ भारत (भारतवर्ष ) ७४,९१, २८५, ४७३, ५०२, ६४५, ३३७, १०९, ११०, ४८१, ५०८, ५०९, ५३०, ५५८, ५६२, ५६३, ५७३, ५७४, ५७७, ३१०, ३६६, ४९२, ४९३, Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६९४ ) ५०७, ५८६, ४०४, ६२२, ५९८, भिक्षुणी-संघ १९, ३०५, ३०८, ३२१ ५९९, ६१४, ६२१ भिक्खु-संयुत्त १७३, ३०६ भारद्वाज (ब्राह्मण)१४२, १७७, २९१, भिक्खुणी संयुत्त ९९, १३०, १६१,. १५९, १७६, १६३, २३९ भारहुत (अनिलेख) १०४, २०१, भीतरी संयोजन ४१९ २७७, ५७३, ६१७, ६३४-६३५ भुवनेकबाहु प्रथम (लंकाधिराज) भारतीय साहित्य २९०, २९५, २८५, भुवनेकबाहु द्वितीय (लंकाधिराज) ४७६, ४९२, ४९९ भारतभूमि ३३१ भुवनेकबाहु तृतीय (लंकाधिराज). भारत-यूरोपियन ६३ भारतीय काव्य साहित्य २५५ भूमिज-सुत्न ९८ भारतीय गद्यशैली ४९२ भूततथता ४४४ भारतीय दर्शन ४५३, ४८४ भूरिदत्त-चरियं ३०० भारतीय भूगोल २८५ भेसकलावन १७७, ५२५ भारतीय राष्ट्र ४८१ भेसज्जमंजसा ६४२ भारतीय विद्या भवन (बम्बई) ५१४ भोज ८८ भारतीय साहित्य का विदेशी साहित्य भोजाजानीय जातक २७४ __ पर प्रभाव २९० भोवादी ०२० भारतीय वाङ्मय ४९३ भौतिकवाद ४२८ भारतीय ज्ञान ४९३ भौतिकतावादी ४५३ भावनामयी प्रज्ञा ४११, ४६० भाष्य ५००,-की परिभाषा ५००५०१ मग्गामग्ग दस्मन विसुद्धि निद्देमो ५२२ भाष्यकार ४६६ मगध ४, १०, ११, १४, १७, १८,२४, 'भिक्खुगतिक ६२१ २६, २८, २९, ५६, १८५, १७७, भिस जातक ६३५ १९५, २५१, २८६, २८८, ५६३, भिक्खु-पातिमोरख ३२३ ५७१, ५७२, ५८३, २६३ भिक्खुनी पातिमोःख ३२३ मगध-कोसल २३3 भिक्षु-प्रकीर्गक ३१३ मगध-भाषा १०९ भिक्खु वग्ग ९५, ९६, ११३, १५५, मज्झिम (स्थविर), ८८, ८९, ५५ 3, २१५, २१९, २२१, २२४ ५६२, ५६८, ५८२ भिक्ख विनय १८७, ६२९ मज्झिमा पटिपटा ३६२ भिक्ख विभंग ५०४ मज्झिमनिकाय की अट्ठकथा १४८भिक्खुनी विभंग ३२३, ६२८ १६०, १६१, ५१०, ५१३, ५३८ भिक्षु-संघ २०९, २२८, २५१, ३२१, मज्झिमपण्णास अट्ठकथा-६३९ ३२३, ३२५, ३२६, ३२७-३२९, मज्झिम पण्णास ६३९ । मंजूसा टीका व्याख्यं ६४१ Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६९५ ) मज्झिमेसु पदेसु २१ मज्झिमनिकाय (मज्झिम) २५,२६,८१, ९१, ९३, ९९, १०३, १०७, ११३, १२३, १२७, १३१, १२९, १३०, १४०, १४८-१६०, १६१, १६८, १६९, १७०, १७१, १७२, १८०, १८८, १९४, २७५, २९१, ३०५, ३२१, ३२४, ३३४, ३४०, ३४२, ३५९, ४०३, ४०८, ४३९, ४५५, ४९७, ५००, ५०९, ५१४, ५२४, ५६७, ६२४, ६२९, ६३० मध्य मंडल १८, २१, २४, २६, ३०, ३३, ३४, ३३१, ३३२, ३३८, ५६०, ६१४, ६४४ मज्झिम निकाय की अट्ठकथा की टीका ५३८ मध्य-व्यंजन ३७, ५४, — अंसंयुक्त ५७-६२, -- संयुक्त ६३-६७ मध्यमा प्रतिपदा ( मध्यम मार्ग) ५२२ मध्यमागम ११३, १३३ मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषाएं ३०, मध्यम मार्ग १४१, १६९ १७३ मध्यकालीन भारतीय आर्य साहित्य ६४४ ܕ: ( मध्यम ( स्थविर ) देखिये 'मज्झिम स्थविर' मधुरत्थ विलासिनी ( बुद्धवंस की अट्ठकथा) ५०४, ५०५,५३१,५७७ मनोविज्ञान १६५, ३४८, ४०३, ४०८ मन आयतन ४०१, ४०२, ४०३ मनोरथपूरणी ४९७, ५१३, ५२४-२६ मनोधातु ४५९, ४३०, ४६१, ३८१. ३८३, ३८४ मत्स्य ( राज्य ) १४५, ५४८ मगधराज १३७, १५७, १६६, २२८ मक्कट जातक २८२ मखादेव जातक २८१, ६३५ .!. मललसेकर (जी० पी०, डा० ). ५८८, ५९८, ५९९, ६१५ मघादेविय जातक ६३५ मक्खल गोमाल १३७, १५९, १७६, ४८०, ४८१ मच्छ जातक ३०० मच्छराज चरियं ३०० मंकुल पर्वत ५२५ मच्छ १४५, १९५ मंगोलिया ३३२, ६४४ मधुरसवाहिनी ५७९ मब्जा ( प्रोम - वरमा) का स्वर्णपत्र लेख ६३४, के वोवोगी अभिलेख ६३७-३८ मनोविज्ञान धातु ३८१, ३८४, ४००, ४०२, ४०४, ४५९ मज्झिम पण्णासक १४८ मनोरथ पूरणी ५७७ मनोरथपूरणी की टीका ५३८ मन १६५, १६०, १६० ३३०, ३३२ ३४८, ४०३, ४०४, ४०६ महानाग ३१० मन्त्रकर्ता ऋषि २९१ मध्यदेश २७७, २८६ मज्झिम- भाणक १९७ मथ सोगि- रित्सु ३११ मनोधातु ४०२, ४०४ मग्गवग्ग २२१, २२४ मज्जे वग्ग २४५ मनसिकार ( मनसिकारी) ३८६ ४१२, ७३४ मणिसार मंजूसा ५४२, ५८० मखादेव - सुत्त ८१, १५५, २७६, २८१ मनसेहर (पेशावर जिला ) १७, २३. ६१८, ६२७. ६३३ मग्ग-संयुत्त १३, १७७ मग्ग-विभंग ३९, ४.८ मल्ल राष्ट्र २८० Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६९६ ) ५७१, ६२४ मत्थके मत्थलंग २१० महाकोट्ठित ५०० मधुपिण्डिक-सुत्त ९४, १५१ महावग्ग टीका ६३९ मनुवण्णना ५४६ महासुदस्सन सुत्तन्त २७६ मनुस्मृति २२०, ५४६ महामेघवण्णाराम ५६३ मंगल (गन्धट्ठि के रचयिता) ६१२ । महाकालचक्क ६४२ मनुसार ५४६ महासुर २९२ मन्वन्तर ५४८ महाकच्चायन (विनयगढि) ५७७ मलिक मुहम्मद जायसी २३० ५७०, ५७१ मनाचे श्लोक २५२ महासेन (लंकाधिपति) ५४८, ४५९, मंगल सुत्त १९५, २०८, २१० । ५५०, ५५२, ५६०, ५६१, ५६४ मज्झन्तिक (स्थविर)८८, ५५७, ५६८, महाविजितावी (बरमी भिक्षु) ६०७ ५७२ महापरिनिब्बाण सुत्त ७५, ७६, ८०, मच्छिकाषण्डवासी १८४ ८१, ८३, ९२, १३०, १३३, १४४, मलाया २८८ १४५, २२५, २३१, ३०५, ५७०, मणिदीप ५४२, ५८० मद्र (देश) २९२, ५६३ महाबोधि (जर्नल) २२, २९७, मनोहरं ५८० ३०२, ५७० मगधभूताविदग्गं ५८० महावंसटीका ५४९, ५५४, ५५५, मनोधातु-संस्पर्शजा ४०० ५६९, ५७२, ६००, ६४०, देखिये मधुरा (मथुरा) १५५, १८७, ४७४, ___'महावस की टीका' भी ४९४, ५६३ महाधम्मसमादान सुत्त १५२ मधुमारत्थदीपनी ५४३ महालोमहंस-जातक ३०१ मृद्ध ३९२ ५३५ महाविजित १३० मध्य यता ५३५ महासंधिक ३११, ४२२, ४२३, ४२४, मल्ल राष्ट्र १४५, ५६३, ५७१ ४२५, ४२८, ४३७, ४३८, ४४१, मध्य-एशिया ६४४ ४४४, ४४८, ५५० मलवग्ग २२४ महासतिपट्ठान सुत्त ९२, १४६, १५०, मध्यमा प्रतिपदा १३६ १३०, २१०, ४०५ मार्कण्डेय पुराण ५९७ महापुरुष-लक्षण १२९ मध्यकालीन आर्य भाषा युग ११, २९, महासलायतनिक-सुत्त १५८ महाकम्मविभंग सुत्त ९९ मज्झिमपण्णास टीका ६३९ महासलायतनिक सुत्त ९९ मराठी १२, २८, २९, ५६ महासुदर्शन २९९ मणिकंठ जातक २७६ महानिस्सरं ५८० मरिचवट्टि विहार ५५८, ५५९, ५७३ । महागण ६४० मयूररूपपट्टन ५१० महायानी बौद्ध साहित्य ८५ मयूरसुत्तपट्टन ५१० महासंगीतिक भिक्षु १२१, २०२, ३५२ मसूदा (प्रो०) ५४९ महाथेर टीका ६४० Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६९७ ) 'महानिद्देस १७, १८० ३३८. ४९६, ५०८,५५१, ५५७, महापुरुष-लक्षण १४७ ५५८, ५६०, ५६२, ५६८, ६४५ महिपमंडल ८८ ५७४, ६१४ महान्युत्पत्ति ३१४ महायानी ग्रंथ ८४६ महानिरुत्तिगन्धो ५७७ महामंगल २२४, ५६६, ६७ महास्वामी (महासामि) ५३२ महाकच्चान भट्टेकरन-मन १८, १५८ महासमय-सुत्त ९२, १२६, १४६ महावस्तु २२२ महालि-सुत्त ९२, १७२ महाप्राणत्व ३२ महाविभंग ३२५ महालि मुत्त १४०, २१३ महापुण्णम-सुत्त ९७, १५७ महाकम्मविभंग-मन १५८ महासुदस्सन-सुत्त ९२ महाराहुलोबाद-मत्त । महाचुन्द २१२ महापदान-सुत्त १२, २०५ महा-धम्मसमादान-सुत्त १५ महावजिरवुद्धि ५७८ महाअस्मपुर सुत १४ ,१२१, १५२, महाटीका ५३१ महाकौष्टिल या शारिपुत्र ३५३, ३५७ महासेन ५६४ महामंगल सुत्त २१० महासकुलुदायि मुत्त १६, १५५, १६०, महासागेपम सुन १४ महिंसासक विनय ३११ महाकपि जातक ६३५ महाअट्ठकथा ४१७, ८९८ महान्यतावादी ४२८, ४४२. ४४३, महाथूप ५२२, ७.८. ५५९. ५६० महारिष्ट,५६ महावियूह २८१ महासम्मत ५५०, ५६ महाधर्मरक्षित ८८, ५८२ महाबोधि नभा १३६. १३१, १४८, महायानी मंस्कृत साहित्य १२४ २३३ महासीव ३२० मनाउम्मग्ग-जातक २८५. २८९, महातण्हासंखय-सुत्त ९४, १५२ महावुद्धघोमस्म निदानवत्थु ५६७ नहावलो गंगा ? महा दुखक्वन्ध मुन १५१ महापच्चरी (महापच्चरिय) ८९७, महावन टोका ५७२ महानिद्देस अट्ठकथा ६४० महामहनीति ६११ महाकात्यायन १८३ २१०. २३१, नहाकालचक्का-का ८७२, ४१.९, ५००, ५२८, ५२५, मतलि १८० महास्दम्तन जातक १४५, २९९. महाप्रापाद .... महागिष २१० महानगर राष्ट्र (स्याम) ८० नरेन्द्र (हिन्दी १०, १३. १५, ८०, महाविजित १:९. २०, , १०, ११, ५६९, महानत्तानासुन १७, १५७ ', ३२.', ७३.३६०, ३६, ३६७, मावण २२, ५, ११, २,१०७, Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४, १३२, १३३.१३४, १४६. महानंगल सुत्त ६३२ १७०, १७२, १८, २१८, २१९, महामंगल २४०, ५४ः २२५, २६, २४०, २६, ३००, महाप्राण ५४, ५६, ५८, ५९. २ ३२४, ३२६, ६३९ महास्वामी ५३९ महामाया ३३५ महावंस-टीका ६४० महाभूत ३५५ महावच्छगोन-सुन १६, १५५, १५९, महाधर्मरक्षित ५५१, ५६८, ५७२ मही (नदी) १९५ २३८, २५७ । महानदिठ ६४१ 'महावंस' की टीका' ४९६,५४१,५५३, महायाम स्थविर) ५३९ महाकस्सप (मत्रहवीं शताब्दी के वग्मी महागोतिंग-सुत्त ९४, १५२ भिक्ष) ५४३ महापरित्त २१० महाकाव्या (व द्धगिप्य) ५०६, महायमक-दग्ग ९४ ७७, ७८, ८७, १८२, १९८, २१०, महाकाश्यप १६५ ३००.३२५, ३२७, ३३९, ५५०, महानाम-सुत्त १८८ महासीहनाद-मुत्त ९३, १६० महानाम' (महावंश के रचयिता) महावन १७७, ५२५ ५५४, ५५५, ५६४, ५६५ महामौद्गल्यायन १५१, १५३,१६६ महामाराय-सुत्त्म १५१ १६९, १३४, १८१. २१०, २२९, महामाया २६५ ३२५ महापरिनिर्वाण ११८, १२१३१२, ४२२ महायान २८५ महासुदर्शन १४५ महाराष्ट्र ८८.५७८ महामुदस्मन-मुन १४५ महानाम गाक्य १८८, १८५, १८८ महायान २०० महामच्चक मुत्त १८ महापधान ५०८, ५३० महापिंगल जातक २०० महा-सुझता-मुत्त ९८, १५७ महावंस (महावंग) , ८, ९. १० महाटीक ५७९ ७८, ८, ८3. ८८, १०, १०८, महायान धर्म ४४२, ८८३ १०५,१०९. ११२, ११६, २११, महाभाय ३५५ . ३०७ ३३१, ३५१. ८२२ ८२४, महा-माल क्य-सुत्त ९५ । ८२६.४८९, ४७०, ८९६, ४९९, महाराष्ट्री (प्राकृत) ३१, ३९ ५०६, ५०७, ७०९, ५११, ५२८, महाकच्चायन ८७१. ६८० देखिये ५.८३, ५८८. ५५०, ५५१, ५'५३, 'महाका यायन भी महिपमहल ५., ५६८, ५३०, ५७८, ५७१.५७२, ५७३, ५७८, ५७५,। महायान संप्रदाय ८८३ ५७८, ५८०, ५८८ ५८७, ५९८ महागविन्द १८५ ११.३० महीलामक २८१.१०,४२३, ८२ ., महानाम (लंकाधिपति) ५०८५०१, महादेव (स्थविर) ५५.७, ५६८,५७० ४४८,८४५, १४८ Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६९९ ) महानिदान ९२, १६५, ४५५, ५४५ महाबोधिवंम ५६८-६९, ५७२ महामालुक्य सुत्त १५४ महागोविन्द - सुत्त ९२, १४५ महासुतसोम जातक २८६ महामात्र ६२६ महापुरुष - लक्षण १५६ महापथक १८३ महाकोट्ति १८३ मापन १८३ महावेदल्ल- सुत्त २५, १०३, १५२ महाभिनिष्क्रमण १५१ महानिद्देस १०७, २९७ महागोविंद जातक २७५ महागोपालक-सुत्त १५२ महाजनक - जातक २८७, २९३, ६३५ महास्तुप ५७०, ५७३, ५७४ महानिरुत्तिगंध ६०४ महाकुलदायि परिव्राजक १५५ महापदान सुत्त १४३ महाविनयसंगहप्पकरण ५३८ महावग्गसंयुत्त ६३९ महाकोशल २८७ महायमक वग्ग १५२ महाविभंग ५०४ ७०७ ५६८. महारट्ठ (महाराष्ट्र ) ५७२, ५८२ महाअट्ठकथा ५४९ महानाम ( सम्मकामिनी के रचयिता ) ५३२ महारक्षित ( स्थविर ) ५००,५६०. 535 महायास (कच्चायनभेद के रचयिता ) ६०६ महाबुद्धघोसम्म निदानवन्धु ५०६ महासच्चक मुक्त १५२. १६० महाविहार ६० २८१, ४१८, ४९९. ५०४, ५०८, ५१६.५३०,५३१, ५५१,५६३, ७६८, ५६०, ५९८ महाभारतकार ५८९ महाजतवन ( लंका ) ६१४ महाहत्थिपदोपममुत्त ९४, १५१,४५५ महानिदान सुत्त १४४ महावोधि सभा २०७, ३५०, ५८८ महावोधि ग्रहण ५५८ मग्गसंयुक्त १७४ महाप्रजापति गोती १८४, १८९, १९०.२६५, ३२५, ५२५ मज्झिम २७४ महाराहुलोवाद सुत्त १५३, १६० महानाम ( मधुमारत्थ दीपनी के रचयिता) ५४३ महासंगीति ८८, ८५ महासुदस्सन जालक २९९ महाभारत १२९, १३०, १३८, २२७, २८६, २९२, २९३, ५४७, ५४८, ५९३ महाकस्सप ( वारहवी शताब्दी के सिंहली भिक्षु ) ५३७ महायानी परम्परा ३१४, ३४०, ५९२, ५९६, ५१९, ६२० महिस- जातक २९० मागधी ( प्राकृत ) १०, ११, १८, १५, १६, १७ - - की विशेषताएं १७-१८, १९,२१,२३.२४, २५, २६,२८,३१, कहा तक पालिका आधार है ? 26-96, 39, ३२, ३४, ४८, ५५. ६१ मागधा निक्ति १०, ११ मागवी ( भाषा) ५०२. ५०८. ५००१, ५३७. ५७५ मागधिक भाषा १० मग संयुक्त १७४ मागन्दिय सुत्त ०६. १५५, १६० मार्ग - सत्य ८०५. ४१५. ४१७ मार्ग - प्रत्यय ४८, ४६२ Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७०० ) मागधको वोहारो १०, २३ मनिक जातक २७५ भागन्दिय (परिव्राजक) ५७, १५५, मुनि सुत्त ३३५, ६३० १५९, २८१, ३०६, ३३० मुक्ता २६८ मागध सद्दलबद्रण ६०८ मुनिगाथा २३५, ६२९, ६२८ मार्ग-प्राप्ति ८३३ मु डक २४० माघ २४. मुलर (ई) १३, १५ मार्ग ३२५ मुखमत्तसार ६४० मार्ग-फल ८८८ मुदिता ४१० माधुरिय सुत्त १५५ मूगपख जातक ६३५ माध्यमिक सूत्र ४२३ मुदिता ५२१, ५३५ मान ५३५ मूर्धन्य ३५, ३६, ४६, ५७ मानत्त ३१६ मूधन्यीकरण ५९ मार १५१, १५३, १६२, १६६, मूलपद ४६ १६७ २५८ मूलगधकुटी २३, मारतज्जनिय मुत्त ९५, १५३ मूलसिक्खा-टीका ५३९ मॉरिस (ई) १७८, ३४२,४१८, ५९५ मुर्द्धन्य संयक्त व्यंजन ६७ मार सयुत्त ९९, १६१ मूल सिक्खोय टीका ५७९ मातिकट्ठकथा ६४३ मूल वर. मातिका २१२, ३२६, ३३९, ३५९, मूलपण्णास अट्ठकथा ६३९ मूल टीका ५६८, की टीका ५४३ माणत्र ८६ मल सिस्वा (मूल शिक्षा) ५३२, ५३९ मालालंकारवन्थ ५८४, ६०० मूलपरियाय-दग्ग २४९, १५० मातंग-जातक ३०० मूल यमक ८५०, ६३९, मातंग-बरिब ३०० मूलटीकं ५:३ मातुगाम-संयुन १०० मूल सर्वा ित वादो ३१३, ३१४ मातिकत्थदीपनी ५४० । मुल परियाय सुत्त १४९ मात्सर्य (मच्छरियं) ३८२, ३९२, ५३५ मूलपण्णास टीका ६३९ मालुंक्यपुत्त ८८८ मूलपण्णास ६३९ मार्शल (सर जोन्ह) ६३४ मूलसिक्खा अभिनव टीका ५३९ मास्की (हैदराबाद गज्य) ६१८ मलसिक्खा पोराण टीका ५३९ मात्राकाल ४२, ५१ मूल सिक्खा टोका ५८१ मातुगाम-संयुन १६८ मेगस ८९ मात्रिका-बर ७५ मंघिय-वर्ग २२६, २२२ मात्रिका वणना ३१२ भेदलम्प १५० मखमत्तदीपन: ५.८, ६०४ मेविल वोड १९९, २११, ३०८, मुखनतसारं नट्टीकं ५८० ४७२, ५९६, ५२, ५८१, ५९७, मगरकय जातक ६२५. ५९०, ६०, ४, ६०६, ११, मखमनसार टीका ६४० २१२, १३ Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मत्तगुमाणवपुच्छा २४१, २४३ मेत सुत्त २०९, २१० मे भवत्त २३४ मत्तगू २४३ मेरठ ६१८ ( ७०१ ) मेत्ता ४१० रचयिता मेघंकर ( जिनचरित के तेरहवीं शताब्दी के सिहली भिक्षु ) ५:०. ५९३, ५९४ मेघंकर (वरमी भिक्षु, लोकदीपसार के रचयिता ) ५९३ मेघंकर ५४० मेनुअल आव (इण्डियन ) बुद्धिज्म ( कर्म ३८० देखिये 'ए मेनुअल ऑव इंडियन बद्धिज्म' भी मेधंकर (व्याकरण) ६०९ देखिये ५४० वनरतनमेवंक मत्थपयोग ६४१ मेनान्डर ( ग्रीक राजा ) ४७३, ४७४, ४७५, ४७६, ४७९ मेत्तानिसंस-सुन २११ मेसन (डा ) ६०३ मैसूर ६१७ मैन ऐण्ड थॉट इन एन्शियेन्ट इण्डिया (राधाकुमुद मुकर्जी) ६२१ मैत्रेय (बुद्ध) ५०९,५३०, ५८५. ५८६, ५८७ मैत्री - भावना १५३, २१३. २२३, २३८ मैत्रिका २६८ मैत्री ( भावना ) ९१, ४१०, ५२१ मैक्समुलर ५५० मैक्स वेलेसर ८१, ८६ मैथुन-संबंध ४४७ मौगन के दो स्वर्णपत्र लेख ( बरमा) ६१७, ६३४, ३३६-६३९ मौद्गलिपुत्र तिष्य ५५७, ५६०, ५६६ देखिये मोग्गलिपुत्त तिस्स' भी मोग्गलान ( व्याकरणकार ) १०, ५७८, ६०८, ६०९, ३१३, ६१६ मोग्गलान व्याकरण और उसका उपकारी माहित्य ६०७-६१० मोग्गलान (अभिधानपदीपिकाकार) ६१४, ६१५ मोग्गलिपुत्त तिस्म ३१०, ३११. ३३५. ४२२. : २४.४२५ ४९० ५५७. ५६२,५६६. ५७२ मौद्गल्यायन ३२५ मौर्य -अधिपति २०६ मौद्गल्यायन १२५ २४९ मोग्गल्लान-सयुत्त १०० मोग्गलान ( मोग्गलायन ) ४९. १२५, २४५, ४.१ मोग्गलान पञ्चिका ६०९, ६१२. ६१४ मोग्गलान पञ्चिका ६०८ मोघराजमाणवपुच्छा २४१ माघालियुक्त ३३६ मोघराज १८४ मेविल हन्ट १७८ मोरंडखेटक ५१७ मोलिनी २८३ मोरपति सुत मोनेय्य सुते ( मोनेव्य सूत्र ) २३५. ६२७, २८, २० मेसेडोनिया ८९ मोह ३७४, ५३३, ५३५. ४५८, मोहविच्छेदनी ५३२,५४६, ५८७,६४०, मोहमूलक ३९२, ५३५ मोहमूलक दो अकुलचित्त ३८१ मोहनयन ६४० मोग्गलान व्याकरण ६०३, ३१९ मिथ्या-दृष्टि १२९. १२५ मिलिन्दपन्ह १२२, १३०, १३१, १३३, ८३२-४० मीमांसा १७९ Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७०२ ) मिलिन्दि वात्स्यपुत्र १८३ युद्धजेय्य ६४२ म्यो-रयो-रोन् ३१२ युद्धजय चरियं ३०० मगारमाता (विशाखा) २२८ युद्धंजय जातक ३०० मृत्यु वचन ६४२ युद्धस्थव २९६ यूआन्-चुआङ् ८१,८२, ८३, ८५,८७, ३५४, ३५६, ३५७ यजुर्वेद २३८ यूनान ४९४ यतनप्रभा टीका ६४ योग ३६७ यद्यसिक ३१९ योग-सूत्र १२४ यमक ९१, ११५, ३४१,३४३, ३४६, योग विनिच्छय ५४०, ५७९ ३४. ४५०-४७०. ८७३, ५४४ योन कम्बोज १५९ यमक पकरण ८५० __ योरोपियन साहित्य २९६ यमक पकरणट्ठकथा ५२९, ५३८ यं बमणो अवयेसि जातक ६३५ यमक-वग्ग २१४, २२३ अमक वण्णना ५४३ यमक (लेखक) ६०८ रक्खित घेर (रक्षित स्थविर) ५५७, यमदग्नि १४२, २९१ ५६८, ५७२ यमुना १७७, ११५ रजक (राज-कर्मचारी) ६२५ यवन-देश (योनक लोक) ८८, २९२, रठ्पाल '५२५ ४७३, ४९४, ५५७, ५६८, ५७२ ग्ट्ठपाल (महाविहारवासी भिक्षु) यश (वद्ध-शिष्य) ३२५, ५९८ यशोमित्र ३५६, ३७ ग्ठ्ठपाल (मधुरसवाहिनी) ५७९ यसवढनवत्थ ५४३ ट्ठपाल मुत्त १५५ यप्टिवन २८६ रट्ठमार ५४०, ५४३, ६०० यगोधरा ७३ रतन २५० यक्ष १६? रत्तमाला ६८१, ६८ यक्ष-लोक ४३५ रत्तमाला टीका ६८१ यक्षिणी १६१ रतनमुन २०९, २१० याम्क २९.३९ ग्थविनीत-मुत्न ९४. १५१, १५९, याजवल्क्य ४९४ यग-काल ४३५ रम्मनगर २८७ युगिग्ल पञ्चानन्द महाथेर ५४४, रमेशचन्द्र मजूमदार (डा०) ८३, ८४, ८६.८७८ युक्त-विकर्प ३४ ग्म १६५. १६६, ३३०, ३४८, युत्ति मंगह ६४२ ३८९, ४०२, ४०३, ४०४, ४५९, यति संगह-टीका ६४. रस-आयतन ४०१, ४५९ युधिट्ठिल २९३ ग्मवाहिनी ५८१, ५८४, ५८८, ५९७युधिष्टिर १६८, २८०. २८६, २९३ Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रसवाहिनी गाठ ५९९ १४५, १५३, १५९, १७७, १९५, रक्षित ८८ २५१, २८६, ५२४, ५२५, ५२६, रक्षित वन २२. ५३०, ५६३, ५७१, ५७२, ५७४, राउज़ (डब्लू० एच० डी०) ५९२ राजगृहिक (भिक्षु) ४२६, ४३४, रॉकहिल (डबल्य ० डबल्यू.) २२२ ४३९, ४४०, ४८१, ८४२, ४४७, राग ५३३ राजतरंगिणी ५४७ राध-संयुत्त १००, १६७ राजमत्तन्त ६४१ रामण्य देश (पेग-बरमा) राजमत्तन्त-टीका ६४२ रामकथा ०९३ राज-वग्ग ९६, १५५, १५६ रामगाम १. ७८ राजवाद ४९१ रामपुरका (चंपारन-विहार) ६११. राजवादवत्थु ५४४ रामायण २९२, ०५३। राजधिगजाविलासिनी ५८८, ५८४, रायस डेविड्स (टी० डबल्यू डा०) ६, 3,१६, १८, १०४, १०६, १03, राध १६७, १८४ १११, १२१, १३१, १३२, २०१, राधाकृष्णन् (सर्वपल्ली, डा.) ४२७, २७३, २८९, २९०, २९३, ३४०, ४८४ ४२२, ४७८, ४७५, ८७६, ४८४, राधाकुमुद मुकर्जी (डा०)२८९, ६२१ ४९२, १९४. ५५०, ५६१, ६२८. रिकार्ड ऑव दि बुद्धिस्ट किंग्डम्स ६२९, ६३०, ६३१ २०४, २७७ रायम डेविड्स (सी० ए० एफ०, रिक्कणिय यात्रा ६४२ श्रीमती) देखिये 'श्रीमती नयम रिक्कपिय यात्रा-टीका ६८२ डेविड्म् रिश्श ३०८ राष्ट्रपाल १५५ रुक्खमूलिकंग ४९१ राष्ट्रिक ८८ झम्मनदेई ६१८ राहुल १३०, १५३, १५, २२९, रूप १६५, १६७, १६८, १९, २४०, २९८, ३६५, ५२५ २३०, ३४४, ३४७, ३४८, ३९३, राहुल वाचिस्मा' (सिंहली भिक्षु) ८०२,८०३, ८०४, ८03, ४३३, ४५०,४५३, ४८२, ८८६, ५०५, गहुल सांकृत्यायन (महापंडित) ५२१, ५२२, ५३३ १०८, १२३, १२९, १३२, १३३, रूपआयतन ४०१, ८५९ १३४, १४८, १८२, १९३, २१४, रूपकंड ७३ २२५, २३१, २३, २४४, २४६, रूपक्वन्ध-विभंग ३८८, ३४. २९१, ३१३, ३३४, ४२२, ४२३. रूप-जोवितिन्द्रिय ४३६ ४२५, ४२६, ४२३, ४४३,८८४, रूप-धातु ८१२, ४३५, ८८०, 66 रूपनाथ (जबलपुर के समीप मायराहुल संयुत्त ९९, १६६ प्रदेश में) ६१८ राहुलोवाद-मुनन्त ६३१ रूप-राग ४४२ राजगह ७९, ८०, ८१, १२, १३६, रूप-लोक ४३५, ४८५ Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७०४ } रूप-विधान ३१ रूप-विश्लेषण ३४९ र लकुटिकोपम-सुत्त १५. १५८ रूप-स्कन्ध ३४९, ३९४, ३९९.४०१, लक्खणपञ्हो ४८६ ४०४. ४१६, ४५१, ४५२ लक्षण-संयुत्त ९९, १६६ पसिद्धि ५९५, ६०९, ६११ लक्खणसुत्त १२६, १४७, पसिद्धिअट्ठकथा ६४० ३५७, ६३२, ६३३ पसिद्धिटीका ६४० रूपसिद्धिटीकं ५७८ लंका २, १२, १३, १५, ८.... रूपसिद्धिनिस्सय ६४१ ९१, ११२. ११६, १२२. २११, रूपसिद्धिप्पकरण ५७८ २७८, ९९०,३०७, ३१०, ११, पारूपविभाग (बुद्धदत्त-कृत) ३२, ६७, ३३८, ३५१, ४७८, २०४, ५०५--वाचिस्सर---कृत ४९. ४९६,४९७,५२०, ५०६, ५०,५०८ ५०९. २२८, ५२९ रूपावचर ३७२, ३७४, ३९९. ८८३. ५ ,३५, ४८,५८५, ५४८, ५५, ५५१, ५ . २. ५२, ५-६, नपावचर-भमि ३७८, ३७६ i, ७, ८, ६,६१, २, पावचर-भूमि के पाँच क्रिया-चित्त ५६३, ६४, :..,,६६, ५६८, ३८५ ५०, ,,७२, ५७३, ५७४, पावचर विपाक चित्त (पांच) ३८३ ७६. - ७७, ६०४, ६०, ६.८. रूपावतार ६४१ ६०१,६१३, ६१४,६४३ रेवत ८५ लतुवा जातक ६३५ रेवन खदिर-वनिय १८३ लतुकिका जातक ६३५ रेवत महाथेर ५०७, ५०८ ललिवन २८६ रोगनिदान ६८१ लघुशिला लेख (अगोक के) - १८ गोगनिदान-निस्सय ६४२ लंकुटिक भद्दिय (भिक्षु) १८६, २३० रोगनिदान व्याख्यं ६४० लाटी (प्राकृत) ३५ रोगयात्रा ६४१ लाघुलोबादे मुगावादं अधिर्धागच्य रोगयात्रा-टीका ६४१ भगवतातेभानिमा रोगयात्रा-निस्सय ६४२ लाभस कार नंयुन ११. १६५ रोमन (लिपि में संस्करण, पालि ग्रंथों १६६ के) १७८, २७३, ३९५, ४१२, लाळ ५५१ ८२१.८५०, ४७२, ५३१, ५३३, लाहा (डा० विमलाचरण लाहा) '५६६.५६८, ५७५, ५८८, ८:. ४, ११, १२. १९, २२. २४, ५११, ५९०.६२८ ११६, १२१, २०५, २७३, ३१२, रोमक २९२ ३१३,३३३, ३३८, ३५६ देखिये रोहण ३१०, ४८१, ५६६ 'विमलाचरण लाहा' भी रोहिणी २८२ लिंगत्थ विवरण ६४० रोहिणी जातक २८२ लिंगत्थतिवरणपकरणं ५८० Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७०५ ) लिंगत्थविवरणपकासनं ५८० लिंगत्थ विवरणटीका ५६९. ६४०, लिच्छवि १४० १७३, १९३२१२, ५२६, ५७१ लिच्छिव गणतन्त्र १६६ लिच्छविपुत्र १४० लिट् लकार ६९ लियोन फियर १६०. ५९६ लीनत्य पकामिनी ५३१, ५३८. ५७८. ५८९. लीनत्वण्णना ५३१ लीनत्थसूदनी ( मदविन्दु की टीका ) ない लुम्बिनी २८६. ५३० लुम्बिनी ग्राम ३२१ लुम्बिनीवन ६२१ लडर्स ( एच. ) १८, ३३. २९१ fa Hai ५२ ५४४ लेवी ( सिलवां ) १९.२२.८६ लोक पञ्चति ६४० लोकपञ्ञनिपकरणं ५८६ लोकप्पदीपमार ( लोकदीपमार ) ५४२. ५८० ५८४, ५९७. ३०९, लोकवग्ग २१५, २१८. २२४ लोकायत ४८१. लोकिया ३६४ लोकपत्ति ५६९ ६४० लोकोत्तर ३७४ ४३१. ४८० ४४१. ५३५ लोकोत्तर विपाक चित्त (ना) ३८३ लोकोत्तर ध्यान ४०७, ४०८ लोकोत्तर भूमि ३७६ लोकोत्तर भूमि के चार कुशल चित्त ३७९ लोकोत्तर धर्म ३५५ लोकोत्तरवादी ४२४ लीनत्थवण्णता ५७८ लोभ ३६५, ३६६. ३६९, ३९२ ४४०४५८, ४३५ लोभमूलक ३९२ ५३६ लोभमूलक आठ अकुशल चित्त ३७९ लोमसकं गिय-भद्देकरन पत्त १८,१५८ लोमहंस जानक ३०१ लोह प्रासाद ५५२. ५५८. ५५९ ५६०, ५६२, ५७३ लोहिच्च १४२ लोहिच्च-सुत्त १०० लौकिक ८३० लौकिक ज्ञान ८१९ लौरिया अरराज ६१९. लौरिया नन्दनगद ३९० बिहार ) लौहित्य १८२ व वचन- व्यत्यय 50 वचनन्थजोतिका ३१६ बच्च वाचक ६१० बच्छगोत-पत्त १००. १६८ वज्रवृद्धि ( विनय टीका के लेखक ) ६३ वज्रा ( वजिरा ) १६२ वज्जि १०४. १४५. १९७ वजिवृद्धि ( अट्ठकथाकार ) ५३३ वजिरबुद्धि नमन्तपासादिकी टीका) ४९८ ५३२ गामणि अभय लङ्काधिपति। ११. ११६. ३२७. ६६७. ४९६ ५५२ वड्ढककर जातक २८७ वर्णनात्मक काव्य ग्रंथ १८४ वथुगाथा २४९ वथ सून १५० वत्स राज्य २८० वनपर्व ५९३ बदरतन मेकर ९३.६० 5 Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनवासी सम्प्रदाय ५९८ वन-संयुक्त्त ९९, १६३ वट्टतक जातक ३०० ( ७०६ ) वक्कुल- सुत्त १५७ वज्जिपुतक ४२२, ४२६, ४२८, ४४८, ५५१ वर्ण-परिवर्तन ३३ - वण्णनीतिगन्धो ५७७ वर्णव्यत्यय ३२, ७० वत्थूपम-मृत्त ( वत्थ सुन ) ९३ वनपत्थ-सुत्त ९४, १५१ वनवास (मैसूर का उत्तरी भाग) ५५७, ५६८, ५७२, ५७४ वलाह-संयुत्त १००, १६८ वशिष्ठ २८१ वसुमित्र ३५३, ३५५. ४२३, ४२४, ४४९ वंग १५९. ८९८ वंगीश ( वंगीस ) ७८, १६३, ५२५ वंगीस-मंयुत्त ९९, १९३ व्यंजन अनुरूपता ६३.६४ व्यंजन - विपर्यय ६३ व्यंजनों के उच्चारण स्थान में परिवर्तन ५९ ६१, ६३ ६६-६७ वृज्जि ८८ देखिये ' वज्जि भी व्यंजन- परिवर्तन ३७, ५४-६७ व्यवहार सत्य ३५० वस्कार (वर्पकार ) १२५ वप्प ३२५ वम्मित्र-सूत्त १८ १५१ वलाहक- कायिक १६८ वलय ( विर) २८७ वर्षा-वास ३२९, こ बसल सुत्त २१२ वसुबन्धु ३३४, ३५५, ८६४ वग्निम्मा-नियम ३३२ वरुण ८७८ जिपुत्र ८२३ देखिये ' वज्जिपुत्तकभी ' वृत्तरत्नाकर ६३८, ६४२ वृत्ति (मोग्गल्लान व्याकरण पर ) ६०८ वृत्तोदय टीका ६४१ वंश (वंस) शब्द का अर्थ और इतिहास से भेद ५४७-४८ वंश ग्रन्थ ४९५, ५०२, ५०६, ५३६, ५३७, ५४०, ५४१, ५४२, ५४४, ५४५, ५४६, ५४८, ५६७, ५६०, ५७, ५७३, ५७६ माहित्य ५०७-५८२ मत्थदीपनी (महावंस की टीका ) ५८१ व्यंजनविपर्यय ६५-६६ वाचकोपदेस (व्याकरण) ६०७ वाचनामग्ग ११, २० वाचस्पति ४६४ वाचस्पति मिश्र ५३९ वास्सिर महासामि ( वागीश्वर महा स्वामी) ५०५ वाचित ५७९ वाचिम्सुर ५९४, ६०५ वास्सिर ( सिंहली भिक्षु, मात्ति के शिष्य ) ५३८, ५३०, ५४०. --की प्रधानरचनाएं ५३८-५४०, ५६८, ५६९ वाजिरी ४२६ वाडुआ - औरमित्र २२२, २२१ वात्मीपुत्रीय ४०३, ४०४, ४२६ वात्स्यायन ४६८ वार्तिककार ( कात्यायन ) ६०३ वाक्य-विचार २९ वानर जातक २८३ वानरिन्द जानक २८० वामक १८ २०१ वामदेव १४०, २५१ व्याकरण साहित्य ४८१.५३७.५४५, ५४६.५६६ व्याकरण सूत्र १२८ Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७०७ ) व्याकृत ३५५ विदर्शना ४६९ वायु-धातु ४०३ विदर्शना-भावना २६१ वाराणसी १५९, १६३, १७०, २७४, विद्यालंकार परिवेण ६०८, ११० २८६, ३२४, ३२५, ४९४, ५२५, विदिशा ५७४ ५६३, ५२०, ६३६ विदुर २९३ व्यापाद १५४ विधर २९३ व्यापाद-धातु विधुर पंडित जातक २८६. ६३५ वाल्मीकि रामायण १११,०२९, २५५, विधुशेखर भट्टाचार्य विंटरनित्ज़ (एम०)८,८७,१२९,१३०, वाशिष्ट १४२, १४३ १३२, १३३, १३४, १६१, १६४, वाशिष्ठी २७० २००, २०१.२५५, २७१.२७३, वासवदना ५२७ २९१, २०३, २९४, ३१५, ३२६, वासेट १५९ २४१ ३८१. ३४५, ३५१, ४७०, ४७४, वासेट-मन ९७, १५६ ८७५, 6७७, ४७८, ४७९,४८४, वासेट्ठी २६८ ४९२. ५५८, ५८६, ५८९, ५९०, वाहीतिय-मुत्त १९४ ५९१. ५९३, ५९५, ५९८, ९३०, वालीक (प्राकृत) ३१ विक्रमसिंह ५४८ विडिग (ई०) १५, १६ विक्रमसिंह (सारिपुत्त के गिप्य ) ५९३ विन्ध्य प्रदेश १३, १४, १५, २१ विगति-प्रत्यय ८५८ विनय ७१, ८०, ८७. ११३, ११७, विचार १७१, २०३, ७०, ७८. १९८, ३३६, ३३७, ३३९, ३५७, ३८२, ३८. ३८९, ३९, ४१०. ३५८, ३७९. ५५६ ७३८ विनय गढत्य दोपनी ५४० विचिकित्मा१५८, :/.३.२.८३०, दिनयोत्तर सिंचय अट्ठकथा ६.९ ५३५ विनय नियम ३२८, ३२९, ३३२ विचिनाचार ८१३ विनयपत्रिका २५२, २५३ विचित्र गन्ध ८८१ विनय पिटक १३, २१, २२ ७५, विजय , ,१.५, ६, ७६०. ? ५७, ७८, ८३, ८५, १०२, १०७, विजयवाहु (द्वितीय, तृतीय) ,१८ ११५.११७, ११८, ११, १२, विजयवाह ३५१ १७३, १९८. २०१, २१०, २७५, वितर्क १७१, ३७०.३८. ३८०, ३०२-३३३. :३६, ३३८, 360, ३८०, ३८६, ३८१,०२,८०९, ३५१, ३५२, ८२२, ४२३, ४५४, ८१०,८३६, ५३४ ४९७, ५०५, ५०७, ५८०, ५५०, वित कमण्ठान-मत्त ९४, १५१ ६२८, ६३८, ६४३, ६८९ विमेमिका ८० विनय-पिटक के नियम ३१५-२२२ वननिय मनामन ८८० विनय-पिटक का विषय और उसका वितुर पुनकिय जातक ६३५ मंकलन- ल ३०९-३११ विदधि मग्नमंडन दीका ८० विनय-पिटक के भेद ३१-३१७ Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०. ) विनय-माता-बण्णना ६१२ विपाक चित्त ३७५.३६,६८१,३८३ विनय पिटक की अट्ठकथा (अर्थ कथा) ३.५, ५३६, ५३५ । ७८. ३०८, ५३८,३०? विपाक धम्म ३६० विनय पिटक की टीका ५४० विपश्यना १७० विनयपिटक-चल्ल-बग्ग ७६, ७८, ८. विपश्यना प्रज्ञा ५००, ५२८ विनय पालि ६८३ विपस्मी (विपश्यी) १८३ विनयचल बाग ३९ विप्रनाम (विप्पगाम) ७९८ विन्य परिवार ६९. विप्रय क्त-प्रत्यय ८५८ विनय प्रनिन्ति ४८८ विपाक-प्रत्यय ८५७ विन्य महादगा ६३८ विभक्ति-व्य यय ७० विनय पिटक-महावमा १७ देविय विभज्यवाद ८६. ३४३ ___महादग्ग' भी विभज्जवाद ४२ विनयविनिच्छप्पकरा : विभज्यवादी ७८. ८६. ८ विनयविनिच्छयो: विभत्यन्यदीपनी ६१० दिनयत्थमंजमा ५३९ विभत्यन्य टीका १२ विनय विनिच्छय की टीका ५८० विनिकथावण्णना ६१२ विनय समान दीपनी १० विभव्यन्यपकरण ६१२ विनयध मंजमं ५७ विभर ११, ११४, १५, ३२३,३४१. दिनय गाँठ पद ६:५ ३४. ३४३, ३८४, ३४५. ३४६ विनय गण्ठि ५७८ 335. ३५८. ३, ६, ३५७. १५२. विनय विनिच्छय ५ .:. ५ : ४. ', '. ५०६, ५७७ विभंग की अट्ठकथ! ५१३. '२८. विनय-कन्ध-निदेस :: विनय संगह ५३. की टीका , ४: विभग-वमा ? विनय-सम्प्रदाय : ०८ विभामा " विनासचण्टीका ८० विमला ०६९ विनयसंगहप्पकरण ८३ विमलाच लाहा ( डा०) १०५.१०3 विनयभंगपकरणं ,५० ००३,००,०८५, २८८.०८९ विनयमाहित्य ६०५ ४४. ८०, ८९.८. ५१२, ५१३. विनय मंग्रह अठ्ठयाय! । महा । विनय संग्रह अट्ठकथा (चल) ६२१ विनय समुठान दीपनी ,४० ५७१ विनय लम कसे (बिनय समुत्कर्प) ६०, ६२७. २८, ६ विनयमारन्थदीपनी '२.०', विनय-सूत्र ३१६ विपाका ३६० विमतिच्छेदनी ५३, ५७८, ५८५ विमति विनोदिनी ६८३ विमविच्छेदन पञ्हो ४८६ विमलमार ५३९. विमल बुद्धि ५७८, ६०४ विमल बुद्धि (महाटीक) '५७९, विमान वस्तु ११४ Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७०९ ) विमानवत्थु १०३, १०७, १८, १९६, वीमंमा (मीमांमा) ४६० १९७, २०० २०, २४४, ०४५, वीमंसाधिपति ४६० वीममा-समाधि ८०८ विमान वत्थुस्स विमलविलासिनी वीर्य (विरिय) १७०, १७१, ५३४, नाम अट्ठकया ५७८ विरग्ध ६४२ बीर्याधिपति ८६० विरग्ध-टीका ६४२ वीसतिजातक-अट्ठकथा ६४० विरतियाँ (तीन) ५३५ वीसति वण्णना ५४३ विरोचन जातक २८२ वत्तिमोग्गल्लान ६४० विलारक्त जातक २८० वृत्तोदय ५७८: ६१६, ६४१ विवत् वर ४३ वृत्तोदय-टीका विश्वामित्र १४२, २९१ वृत्तोदय विवरणं ५७९ विशाखा ५२६ वेखणस-सुत्त ९६, १२७, १५९ विष्णुदास (वेण्हदास) ५०८ वेठदीपक ५७१, ५७२ विष्णु-माप्त २९२ वेणीमाधव वाडुआ २२१, ३५५ ६२९, विसर्ग ३६, ३७,४४-४५ ६३०,६३१, ६३४ देखिए 'वाडआ' भी विसर्जनीय या विसर्ग ३६ वेणुवन (वेलुवन) १५३, ३२५, ५२५, विमद्धिमग्ग (विसुद्धिमग्गो) १ १०, ७५, १०९, ११०, १३०, २७, वेतुल्लक (वैतुल्यक-वैपुल्यक) ४२६, ३३०, ४२१. ५७७, ५८६.६०१ ४२८ देखिए 'वैतुल्यक' भी विमुद्धिमग्ग अट्ठकथा ५३१, ६४० । वेद २२, २९, ७०, ११५ विसद्धिमाग चल नवटोका ५८? वेदग (वेदज्ञ) १५६, १७६, २४३ विसुद्धिमग्ग को टोका ५४५, ६४० वेद-देदांग २९१ विद्धिमग्ग गन्धि ५८१ वेदविधिनिमित्तनिरुत्तिवण्णना ६४१ विहार मीना :::, ५८२, ६४२ वेदना १५२, १६६, १६७, १६८, विशेष भागीय १८८ ३४७, ८६, १, ४, ८, विजान १५२, १६५, १६६, १६८, ४०१, ४०६, ४०७, ४१२, २४१, ३४७, ४०१, ४०२, ४०६, ४५४, ४५५, ४६८, ४८२, ४८३, १५८, ४२५. 6८२, ४८३, ५०५. वेदनानुपश्यना १७०, २४६, ३५५, विज्ञानानन्यायतन १६९, ५२१ ८०७ विज्ञानानत्यायतन कृशल चित ३७९ वेदना-विज्ञान ३४७ विज्ञानकायपाद ११५, २५६, ३५३ वेदना-संयुत्त १००, १६८ विज्ञान धातु ४०३ वेदना-स्कन्ध ३४१, ४, ६:८,४१५, विज्ञानवाद ४२८ विज्ञान स्कन्ध ३४०. ३.४ वेदव्भ जातक ८८ वोतसोक (स्थविर) २०४ कदल्ल १०२. १०३ बीमंसक-सुत्त ९५, १५२ वेपुल्लबुद्धि ५८० Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७१० ) वेय्याकरण १०२, २७७, ४८१, ६०२ शक्र १४५, १४६, १६४, २४३ वेरंजक-मुन ९४, १५२, १०३ शब्द कल्पद्रुम १२४, ५०० वेरंजक-ब्राह्मण-सुत्त १२९ शतपथ ब्राह्मण २९०, २९१ वेरंजा ५२५, ५२६ शतक काव्य ५८९ वेरंजकण्डवगणना २ शरण-त्रय ०३ वेल्स (एच० जी०) ६१९ शमथ १७. वेस्सन्तर-जातक २०९, २६४, २८५, शरीर के बत्तीस अंग २०८ शंख-लिखित ब्रह्मचर्य ३०७ वेस्सभ १४३ शाक्य १३८,१६९, १५९, २६९,५७१ वैतुल्यक (वैपुल्य) ४२६, ४४१, ४४२, शाक्य मुनि ३०७६२१, ४४७, ४४९ श्वास-प्रश्वास ८८७ वैदिक आख्यान २९१ गाश्वतवाद १३५, १३६, ४२८ वैदिक परम्परा १२८, २४१, ०८९, श्यामावती ३.2 ४६८, ४७१ शाक्य और वद्धिस्ट ऑरीजिन्स वैदिक भाषा ६, ८, २२, २८. --की (श्रीमती गयस डेविड्म) ६, ७, विशेषताएँ २५-३०, --का ध्वनि-समूह ३५, ५२, ७? स्यारामातिकव्य-निम्नय ६४२ वैदिक वाङ्मय १२४ श्यारामितिकव्य ६४२ वैदिक माहित्य १२८, २९१ गास्त्र संग्रह ३५३ वैदेह स्थबिर ५४१,-की दो प्रसिद्ध गां-जन आग ४२१ रचनाएँ ५८3. ५९५, ५१.८ शाल (कोमल में ग्राम) १७ वैभार गिरि : ८६ शहवाजगढी (पेशावर जिला) ६१८ वैभापिक ३७५ श्यामा (भिक्षणी) २६८ वैगाली ७७, ८८, १४५, १५९, २१२, शाक्य महिलाये २८ ३०७, ०१. २८६, ३२६, ३३८, शारिपुत्र (महाकौप्टिल) ३५३ २५, २६, ५६३, ५७१, ५७२, शिवुन्न्मि ३११, ६.३१ ५७४,का गणतन्त्र १४५, की १८, १,३१८. . संगीति ३३९, ३५२ शिआपद १८०, ३०, ३१८, ८८८ वैगेपिक-सूत्र १२४ शिखी १४३ वैस्टगाई १०, १४ निगपाल वध ,१.१ वोदोपचा (बद्धप्रिय-बरमी राजा) ६०० शिव स्थविर १० वोपदेव ६००, ६०७ शिशूपचाला २६८, 52 गीलव ५१ २३० श गील १५, १.3 गद ६६, १६९.११.२, 30, 2८८. शीलभद्र (भिअ) २२, ८.१०.०४ गील सम्पत्ति १८५ मन्द-अग्यतन ८०१ नील-निर्देश । मोनिदेगो) ,१७शब्द-सावन १.६८ Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७११) शील यज्ञ १४० ४५०, ४५२, ४८४. ४९८, ५०५: शीलव्रतपरामर्श १५४ शुक्र २३४ श्री मेववर्ण (सिरि मेघव ण) ५६४ शुभा २६८ श्रीराजाधिराज सिंह ५६५ शुभ १४२ श्रीपद (बद्ध का चरण-चिन्ह ) शुक्रतारा २४५ शुनः शेप की कथा २९० श्री महासिंह सुधर्मराज (बरमी राजा) शुद्धोदन २६८ शुग ११६ श्री विक्रम राज सिह (सिरि विक्कम शून्यता ४४३ राज सिंह) ५६५ शंकर ४५४ श्री संवोधि (सिरि सम्बोधि--लंकाशूरसेन (सूरसेन) १४५, ११५, ४२२ धिराज) ५७५ श्वेतकेतु आरुणेय ४९४ श्री हर्प ४६४ शेक्सपीयर २९६ श्रुतमयी प्रज्ञा ४११ शैल (ब्राह्मण) १५९ श्रुति ४८० शैला (भिक्षुणी) २७२ श्रेडर ८७८ शैक्ष्य ३१३, ३१४, ३५५, ४१८. ४३३, शैक्ष्य-अशेध्य ३५५ शोभन (चित्त) ३८६, ५३४ श्रोत्र ३३०, ३४८,४०२, ४०३,४०४, शोभन-चित्त-साधारण ३८७ ४०६, ४३५, ४४० । शोभन चेतसिक ३८७ श्रोत्र-आयतन ४०१ शोणा (भिक्षुणी) २६८ श्रोत्र-विज्ञान १६५,३४८,३८१, ३८२. शोभा (भिक्षुणी) २६८ ४०३, ४०४, ४६१ शोभित स्थविर २३०, ३८७ श्रोत्र संस्पर्गजा (वेदना) ८०० शौरमेनी १८, २८, ३१. ३२.---का श्रोत मूत्र १०८ पालि से सम्बन्ध ३:-३८, ३१. श्रद्धा १७१, २२३, ५३, प श्रद्धेन्द्रिय ४३१, ४८८ पडायतन ४५४ श्रगाल माता १८४ पाण्णागारिक ४२४ श्रमण गोतम १८१ धावक ०३ श्रावक संघ ३२७ मंगीति पर्यायपाद ? १५.३५३. ३५८. श्रावस्ती (मावत्थि) १८. १०६, १५६. १५९, १८३, १८८. १०.३, २२६. मंगीति-पन्यिाय-मत्त १३.१०१.१०. २०७, ०३०. २८६, ११, ५१५. १७१, १८१, १०, ३३४.३४. ५२४, ५२६. ३२१ ३४२,३५५, ६२९ श्रीमती गयम डेविडम् (मी० ए० मगारव-सुत्त १.७, १५६ एफ०) १२३, ९६.३१०.३८०. मगाथवग्ग 22, १६..? ६४५. ३९.१, १५.४२१.४४३. सगाथवन्त संयन-अटकया ६३९. Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७१२ ) सगाथवग्ग संयुत्त ६३९ ५४८, ५६७-६८, '७२, ५९१, समास के कारण वरों के मात्राकाल में परिवर्तन ५१-५२ सद्धम्म जोतिका ५३२ सर्ग ५४८ मद्धानन्द ५६३, ५११ संगहवार ४६७ सदकलिका १३ सर्ववर्मा ६०३ मद्दकारिका ६४१ सम्मोह विनोदनी ५१३, ५२८ मद्दत्थभेदचिन्ता ५७२.३०५, १४१, मंगीतियाँ ८१, १९४, १८, ३१०, ___-को टोका ६४१ मददन्थ भेद चिन्ताय महाटोकं ५८० मप्पुग्मि-सन १७, १५७ सद्दन्थभेद चिन्ताय मज्झिम टाकं ५८१ मम्मप्पधान-विभग ८०८ सददत्थभेद चिन्ता निस्लम ६४२ मगाथवगसंयुक्त टीका ६३९ मदद विन्दु ५७९, ६०६,६०७, ६१३ मागल २८३, ८७३, ४८०. ४९८,५६३ संघरक्षित (स्थविर-सम्बन्धचिन्ता के संगीतिकार २२५, २२६ लेखक) ६०४ मागलका ८७९ मन्देमकया ५४८ मासनपट्टान ८६६ मंघपाल स्थविर ५०८ सामनाम-मन १७, १६, १६०, स्वागत (निक्षु) १८४ मन्दक मन १५५ मामंडक, मयत १००, १६९ संघ ३२१, ३२२,३७, ३३२ माम जानक मंधागम ८८७ मंगारव १५०. संघादिमेम कथा सिगाल १८८ सार्वचित साधारण ३० सिंगवेर सवात सत्य :५० मदगमकर ६० सिगालोवाद-सुन :८८, ६२९, ६३२ परभू (सर) १२. सिमाल जानक०८८ ननेध कथा ५४६ सिलव' लेवी, देखिये लेवी' मच्चविभंग-सुल २११ नाच्द-संयुन १०१, ३२ सनिया (अनोक की पुत्री) ५५१, मच्चसह-अग्यिं 500 मच्चविभंग-मुत्त ५८, १५., . ४ . न्टेन कोना १३, १४, १५, मच्च विभग ३८२ ,४०५ सिम्पलिफाइड ग्रामर ऑव दि पालि । मच्च-गयुन १०१ मच्चकिर जातक :०० नाना ,... मच्चमन (मन्य होत) '.३२, ५३०. ५८० ना जाता ८. : ९९, ३०० सञ्चखेपटोका (स्थावर विपर-कृत) म नमः १७. ०६, ५८१, मध्वसंवेर ५७८ Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७१३ ) सच्छिकिरिया १३६ सहसराम ( बिहार ) ६१८ संघरक्खित ( सिंहली भिक्षु सारिपुत्त के शिष्य ) ५३८, ५३९, ५४० स्कन्ध ८७, ३४५, ३४, ३२४, ३९६, ३९८-४००, ४१, ४१३, ४१६, ४३०, ४६० समणमंडिका मुत्त १६, १५५ समर्थ रामदास २५० -समरसेकर ५४८ सकृदागामी ४१८, ४१९, ४२८, ४३३, ५२२ सक्क-संयुत्त १०६, १०७, १६४, १७३ सम्मित्तिय ४२२ ४०३, ४२४, ४२५, ४२९, ८३०, ८३१, ४३४, ४३५, ४३६. ८३७, ४४८, ४४८ स्कुलादायि १५९ सकलिक सुत्त १७३ सुक्ख-सञ्ज्ञा ४६९ मनत्कुमार ब्रह्मा १४५ ससराज जातक ३०० मसुमार- जातक २८३ सकृदागामिफल :९० सिद्धत्य ५४१ निथिक ४२६ ४३४, ४४०, ४८१, ४४२, ४४९ निदार्थ ७३ साकेत १७७, ४९४ किलेस ४६९, ४७० संकिलेस - वासना - निव्वेव-भागिय ४६९ संॠन्तिक ४२२ ४२३ संकिलेस भागिय ४६९ सिक्खापद १०७ सिक्खापदविभंग ( शिक्षा पदविभंग ) ३२७, ४१० सिवि जातक २९९ सिविराज चरियं २९९ किच्च २४९ ४६ सेक्रेड बुक्स ऑव दि ईस्ट १०२, १२३, ३४०, ४७५, ४९२, ४९४, ५५०, ६०० मीनाद वग्ग ९३, १४, १५०-१५१ सेक्ख-सुत्त ९५, १५३ मंखार यमक ४५० मंखपाल जातक २८८ संखारुपपत्ति-सुत्त १५७ सुचिलोम २४० मद्दनीति (सद्दनीतिपकरणं ) ५७९, ६०३, ६१०-६११, ६१३, का उपकारी साहित्य ६११, ६४० सद्दविनिच्छ्य_ ६१३ मद्दमारत्थजालिनी व्याकरण की टीका ) ६०६ सद्दसारत्यजालिनिया टीका ५८० सदवृत्ति ६१२ नद्दवृत्तिपकासनं ५७९, ५८० सद्दावतार ६४१ ( कच्चान सद्दवृत्तिकाननस्स टीकं ५८० सद्धम्मकित्ति (एकक्खरकोस ) सद्धम्मप्पकासिनी ५३२, ५७८ मम्मट्ठीका ५३२ सद्धर्म पंडरीक १०२ मम्मोपायन ५४२, ५८४, ५१५ ५९६ सद्धम्म विलास ६०६ मम्मगुरु (सद्दवृत्ति) ५७९, ६१२, ६१३ सद्धम्म दीपक ६४१ सद्धम्मट्ठि टीकं ५७८ सद्धम्मालंकार ५४३, ५८८ सद्धम्मुपाय ६४१ सतपर्णी गुहा ५२६ सुमार गिरि १७, ५२५ सम्बन्ध चित्ता ५७८, ६०४, ६०५, ६१६ सम्बन्ध-चिन्ता टीका ५३२, ६४१ Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७१४ ) सद्धम्मसंगह ३ मतिपठान विभग ३४२. ३९३. सद्धानन्द ३ ४०३, ४०८ सच्च ६७ सतकणिक जातक २८६ संघावशेष ३१३, ३१४, ३१८, ३१९ सति पट्ठान २१० संघादिसेस १९, २०, ३०२, ३२६ सतिपट्ठान-संयुत्त १००, १३०, १:३ सप्तशतिका ८३ मंजावेदयित-निरोध १५२ सच्च-यमक ४५० वर-सन्धि ५३-५ सच्च संखेप टीका (सुमंगल-कृत) ५४० स्वर-भक्ति के कारण स्वरामम ५०-५१ सेछ जातक ६३५ स्वर-विपर्यय ४५ सञ्जय वेलठ्ठिपुत्त १:७, १३८, १७६, सतिपट्टान नुत्त ९३, १५०, १७०, ४८० ३९३, ४०७, ४०८ सुजात जातक ६३५ सतीशचन्द्र विद्याभूषण ६०३ सुअता-वग्ग ९७, ९८ समन्तवामाविका १०. ३१०, ३३१ मुमीम-जातक २८3, ९४ ४०. ४.७, ८९८, ५०४, ५०, मुजाता १८४, २६८, २६९, ५१३, ५१८, ५२३, ५३०, ५६८, म्बगघात के कारण स्वर-परिवर्तन ८६, ६.०, ५३०, ५७१, ५५०, ५७७. ४८,८९ स्ट्रांग (एम० ए०) ५६८, ५६९ समन्वयामादिका की निदानकथा ८१८ मिथ (वी. ए.) १०१, ५५०, ६१८, समन्तामादिका की बाहिरकथा ११३ ममन्तपानादिका की बाहिर निदग्न समना ०६० वणना ४९६ सौत्रान्तिक ८२३, ४२८ । नम्नधान-संयत्न १०१ सानुनासिक , ८३.५०.५१.५ः, ५५ समन्तकट पर्वत ५०८ सुजतो गहुतो जातक ६३५ ।। मांत्रीमा ८९, २०१. २६०, ५३६ मुञता वग्ग ९,७-१८. १५७ ५६...७३, ६३२ और भारत स्ट्रीड २७: के अभिलेख ४-६ , १७, मत्रायतन वा ९८.१.१, १००, १५८, . १६८, १० न्यालकोट ८७३ मडायतन-विभंग-मुन १८.३८०. सात धातुए ४१३ म्यान {द्यीन) ३९२, ५३५ सहायतन नयन १००, १०९, १६९, माम इन-सुन ९ः, १५६, १७२, १३.६११. ६३९ अतिबल ३८ नाम जानव०० सत्यतत्वावधि ६४१ मामफल मत्त .. १३०, अन्तन्तिक १०८ .:.:.2, ६. १७.२४६. मत्त निपात की अट्ठकथा ६०१ सनक निपात १०१, १८, १८२,१०१ नामसकल गुन-व णना १,२ सानिमारकर ४०१ सामावति (श्यामावती) १८ Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७१५ ) सद्धम्मसिरि (सदत्व भेदचिन्ता) ५७९ साधुविलासिनी ५८३ सद्धम्मजोतिपाल ५३८, ५४०, ५७९- सुधीरमुखमंडन ६१३ ५८० संधिभेद जातक २८३ सद्धम्मनन्दी ६१२ सोधनहार ४६८ सब्बासव-मुत्त ९३, १४९ सिंधु २७४ सब्बदाठ जातक २८४ सम अत्रिय ट्राइम आंद एन्नियन्ट संयुत्त निकाय ९१, ९९, १०१, ११३, इंडिया (लाहा) २८८ १२२, १२९. १३०, १३१, १६०-। सुप्रवासा कोलिय-दुहिता १८४, २२७, १७८. १८०, १८१, १८२, १८८, २२८, १.८, २०१, २१०, ३०६, ३४२, सुप्पारक ५५१. ५६३ ३४७, ३४८, ३४९, ४४३, ४९७, मनक्षत्र लिच्छवित्र १४०, १४६, १५० ५१३, ५१४, ५६७, ६२४ सुत्त १३२, १०२, १०३, १०८, ४२०, संयुत्त-निकाय की अट्ठकथा ५१३, ४२१, २७४, ३२७, ३२८, ३३५, ५२४, ५३८ ४७९, २२५, ११५, १२४, २२६ संयुक्त व्यंजन ३७, ३८, ४१, ४२, ५८५, ५१३ । - ४३, ४४, ४८, ५०, ५१, ५२, सुत्त पिटक १७, ७४,८१, ९१, १०४, ६२-६७ १११-३०१, १९९, २२२, २२५, संयुक्त स्वर ३५, ३७, ४४, ७२ ३३४, ३३५, ३४०, ३८२, ३४६, संयोजन १५४, ४३२ ३५०, ३५१, ३५२, ८९७. ५२३ संयुक्तकागम ११३ सुत्तनिदेस (छपदकृत व्याकरण-ग्रन्थ) सं कृत '2, ११, २२, २३, २५, २०. -का पालि से सम्बन्ध ३०-३१, मुत्तावली ६४१ का ध्वनि-समूह ३६, ३७, ३८, ३०, सुत्तनिपान २०, ३२१. ६३०, ६३२, ४१, ४२, ४३, ४४, ४५. ४६, १०१, १०२, १०६. १०६, १९७, ४७, ४८. ५२, ५३, ५४, ५५, ११४, ५९३. ३५.२८८ ५६,५७, ५८, ६२, सुत्तमाला ११ स्मृति १७०, १७१, ३८७ मुत्तनि म ५८० स्मति प्रस्थान १४६, १४७, १५०, सुत्तनिपात की अट्ठकथा ५१३, ५२६ १५८, १७० मुत्तों की शैली १२८. १३१ स्मृति-सम्प्रजन्य १७०, १७३ संगीतियाँ १८२ सिद्धार्थ (भिक्ष) ४. ५.६, १६, मुत्तसंगह ११२, १९९. ८९, २३,२८, ३० सुत्तन्त ३४३,३४८, ३४७,३९७,४०६, स्मृति-विनय ३१९ ४०.८१८, ८६३ । संघर्ग खत (खुद्दकसिक्खा. सम्वन्ध- सुमंगल विलामिनी १. २. १९९., __ चिन्ता, वुत्तोदय के लेखक) ६१६ ३३८. ३३१.. ५.२३, ५२३, २४, सद्धम्मदीपिका ६४१ ५३०,५३८.५७३, ६०, ममंगल महल-मत्त १७५ विलामिनी की निदान कथा १९६. संघरविवत ५७८ (सुवोधालङ्कार) Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुद्दस्सन २८७ सुदत्त गृहपति १८४ सुद्धट्ठक २४१ सुब्रह्मा ५८६ सुवणसामयिं ३०१ सुभ-सुत्त ९७ सुवोधालंकार ५७८, ६१६, ६४१ मुनक्खत - सुत्त ९७, १५६ सुनक्षत्र लिच्छविपुत्र १४०, १४६ ( ७१६ ) मुप्रबुद्ध २३० सुप्रिया ( उपासिका) सुपण्णसयुत्त १००, १६७ सुमेव कथा ५९९ मुमंगल ५४२, ५६५, ५९४ सुमंगलाचार्य ५६५ सुरट्ठ २८७ सुरियपरित सुत्त २११ सत्तक्खतु-परम ४३८ सत्य ( चार आर्य ) २९९, ४१२५२१ सात बोध्यंग १८०, ४९० सीमा विवाद - विनिच्छय ५४४ सीमालङ्कार नंगह ५७, ६४३ सुत्त विभंग ९१, १०६, ३२२, ३२४ स्तुपार्ह व्यक्ति ५७१ सुत्तन्तिक ७५, १०८, ३४९, ६३४ सुतसोम चरियं ३०० सुत्तवादी ४२२, ४२३ सुभूति चन्दन ३१२ सुगंध - कला ५९९ सूत्र ग्रन्थ ११, २८ संखा रक्खन्धो ३९४, ३९८ संख्य अट्ठकथा ४९७, ४९८ संखपाल चरियं ३०० सांख्य दर्शन १२९ सालेयक - सुत्त ९४, १५२ सालक जातक २७५ सिखी १४३ संखेय्य परिवेण ४८०, ४८१ १८४ सेखिया ३१३, सेखिय धम ३१५, संघा दिसेसा संखेय वण्णना ५८० साख्य योग ४८० साख्य सूत्र १२४ मुखम ३९९ सुख धातु ४०३ सेल-सुन ९६, १५६ सुखावती व्यूह ४४६ सीलवंस ४९९, ५४२, ६०७ सुखा-न- दुःखा १६८ सुख १७१, ४०२, ४०३, ४०४, ४०६ ४०९, ४१०, सुखवग्ग २१८, २२४ सुखोदय २८० सखपाल जातक ३०० सेखिय कथा ५०४ संख्या योग ४८० सेखिय धम्मा ३१२, ३२२ सुख वेदना ३४८, ८०५ सात अनुशय १८२ सिआम ( स्याम देश) ७२,९१, १०९, २००, २०१, २७४, २९०, २९४, ३३१, ३३२, ४९२, ५४५, ६०५, सिआमी ( स्यामी ) २००, २७३, ४१२, ४३२, ४५२, ४५५, ४५६, ६४४ सुतन्त आधार ३९८ सुत्त विभाग ३४४ समीपवर्ती व्यंजनों का स्वरों पर प्रभाव ૪૬ सुन्दरिक भारद्वाज २८० सुवर्ण - भूमि ८९ २८८, ५५६, ५६८, ५७२, ५७८ सीमालंकार संगह ५३९, ५४०, ५७९ ६४३ सीमालंकारस्म टीका ५७९ सीहचम्म जानक २८२ Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीहलवत्थु ५८१, ६४० सति ३९० सीहविक्कीलित ४६९ सतिन्द्रिय (स्मृति इन्द्रिय) ३८९ सीहलट्ठकथा महावंस ५४९, ५५३ सोलह महाजनपद १९५, २८६ सुरेन्द्रनाथ मित्र २२१ मोम (स्थविर) ५५७, ५७२ सुरापान जातक २८७ स्तम्भलेख (सात) ६१८, ६२६ सुरुन्धन २८७ सोत विज्ञान ३४६ सुरुचि जातक २८ सोसनिकंग ४९१ सेल-मुत्त ९६, १५६ सो-सोर-थर-पा : सेवितब्ब-असेवितब्ब नुत्त ९७, १५७ ।। सोरट्ठ (मौराष्ट्र) ११६, १९८ सुत्तन्त-भाजनिय ३४४, ३९६, ३९८, सहस्सवत्थप्पकरण ५८४, ५९९-६००, ४०१, ४०२, ४०३, ४०४, ४०५, ६४० ४०६, ४०७, ४०९ सहस्स वग्ग २१५-०१७. २२१, २२०, सुत्त निपात की प्राचीनता २३६ २२३ स्रोत आपति ३०८, ८३३, ५२२ सहस्सरंसिमालिनी ६८० सुतसोम जातक २८६ सहजात प्रत्यय ४४१. ४५७ सात संवोध्यंग १८२ सहेतुक चित्त ३९९,५३३,५३५, ५३६ सिरिया ८९ सवण्णनानयदीपनी ? सोतत्तगीनिदानं ५७९ सारत्थदीपनी ४७८, ५८९. ६०६. सोतप्पमालिनी ५८१ ६४३ सोतापत्ति संयुत्त १०१, १७२ सारत्थप्पकासिनी ४९७. ५१६, ५२४, सोतमालिनी ६४१ ५३८, ५७७ सेतकेतु जातक २९१ सारत्थमंजूसा ५३८. ५७९. सेनाँ ११९, २२१, ४७७. ६३१ सारत्थमंगह ५८०, ६४२ सेनानी (गांव) १७३ सारनाथ १०१.८७०, ८१,६१९, सेनानी दुहिता १८८ ६३२ सोणदण्ड (ब्राह्मण) १३९ सारसंगह ५४१. १८१ सोणदण्ड-सुत्त ९२, १३०, १३८, १७२ सारसंगह निम्मा ६४२ सोण ७५ सारदस्सी '५८३ सोण कोडिवीस ८३, ५५२ सारिपुत्त (मारिपुत्र) १०९, १२५, सोणक ३१०, ५६२,५६८ १४९, १५७, १६९, १७०, १७४, सोणत्तर ४८० १७५, १८३, २४१, ३२१, ३३६, सबजैकटम ऑव डिसकोर्स ४२१ ४२४, ५००, ५३८, ५४०, ५४१, सत्त-अठ्ठ-नव-निपात जातक अठ्ठ ५७५, ५७९, ५८०, ६०४, ६०५, __ कथा ६४० ६१०,६१६ सत्थेकविपस्वप्रकाश ६४१ सारिपुत्त-सुत २३५ स्रोत आपन्न ४१८, ४१९, ४२८, सारिपुत्त संयन १००, १०६, १६१, ४२९, ४३१, ४३८, ४८० सुत्त-निपात (अट्ठकथा सहित) ६४० सिंहल २, ९, ७२, १२०. :९१, २०१, Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७१८ ) ३२६, ३३६, ३३८, ३५१, ४७१, ६०२, ६१५, ६१६, ६४५, ५३९, ५४०, ५४१, ५४२, ५५०, ५५१, ५५२, ५६१, ५६३, ५६४, संस्कृत व्याकरण ६८, ७०, ६०१, ५६५, ५६७, ५९३, ६१०, ६११, ६०३, ६१०, ६११ मिहली अट्ठ कथाएं (प्राचीन) ४९५, संस्कार १५७, १६५, १६६, १६७, १६८, ४०१, ४३०, ४५०, ४५५, ८९.७, ८९.८, ४९९, ५००, ५०१, ५०८, '५०१. ५२३, ५८९, ५५३, ५०५, ५२१, ५३६ संस्कृत ग्रन्थ ७३, ६०३, ६३८ मिहली (परम्पग, भाषा, साहित्य । संस्कृत धर्मपद २२२, २२३ आदि) १०, ११, १२, १४, १५, संस्कृत नाहित्य ११२ १६०. १७८, १९.९, २७३, ३३७, संस्कृत त्रिपिटक १७९ ३५१, ३०, ८१०, ८१८, ४२२, संस्कृत वाङ्मय ६४३ ००, ५०, ५०८, ५४२, ५४८, संस्कार स्कन्ध ३४९, ४१७, ४४४ ४९. ५०, ५५२, ५५३, ५७०, संयोजन ४३८, ४४६ ५३५. .८, ५९५, ५९६, ५९७, संस्कार चेतना ४०७ ५०.८, ५९१.६०४, ६०५, ६०६, सेसकसिणनिददेसो ५२० ६०९, १०, ८१८, ६४० मामनवंस ५०२, ५०३, ५०६, ५४४, सिंह सेनापति ११३ ५४८, ५६७, ५८१-५८२, ६०६ मुभापित काव्य २४० सिंहवाह ५५१ मुभ-सा ४६९ सिंहा २६८ मुभणकूट वणना ५७९ स्थविरवाद बौद्ध धर्म (उसको परम्परा, सुभ मुत्त ८६, १२, १२९, साहित्य आदि) ८८, ९१. १०८, सुभद्र ७६, ७८, ७८ ११२, ११४. ११६, ११३, १९७, ७९, ८० १८८,४८८ २००, २१२, २३, २२९, २८१, सुभ (ब्राह्मण) १५९ २९०, ३०८, ३३६. :३८, ३३९, मुभूति (सिंहली विद्वान्) ६०३, ६०४, ३५१, ३५०, १ 0६, ४२७, ४२८, ८३०, ४३२, ३८, ८३५, ६०५, ६०६, ६०७, ६१०,६१२, ४७६, ४७८, ८८८, ४९२, ८९३, मुभूति (उद्ध-भिक्षु) १८३ मूलचारक ६४१ मर्वास्तिवादी वौद्ध धर्म (उसकी सोमप्रिय (ब्रह्मचारी) ५९६ परम्परा, आचार्य, माहित्य आदि) मोभित ३३६ ११३, ११४, ११५, ११६, ११७, मंस्कृत भाषा ६८, ७१, ११६, १२०, २००, ३११, ३१२, ३२४, ३३९, २३०, २३२, २३५, २६४, ४४७, ३५३, ३५४, ३८०, ३९२, ४२२, ४४९, ४७६,५४७, ५८३, ५९१, ४२३, ४२४ ८२५, ४२८, ४२९, ५९२, ५९३, ५९४, ६००, ६०१, ४३०,४३८, ५६५ Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९) हिंदुइम एंड बुद्धिज्म (चार्ल्स इलियट) हत्थिगाम १४५ हिंदुकुश (पर्वत) २९४ हरनिय जातक ६३५ हीनयान २९० हरित मातक जातक २८७ हीनयानी ३११, ३५२ हरिद्दवसन (क बा) १५९ ह्री ३८७, ५३५ हल्श (डा०) २०४ हेतु ३६३, ४५८, ४७०,--दाब्द का हस्तक आलवक १८४ अर्थ ५३३ हन्थवनगल्लविहारवंस ५७४ देग्विये हेतु-पच्चयो ४५८ अत्तनगलुविहारवंम' हेतु-प्रत्यय ३५६, ४५७, ४५८ ह्रस्व मात्राकाल का नियम ४२-४३ । हेतुवादी (वौद्ध मंप्रदाय) ४२६, ४४१, ह्रस्वस्वर ३७.४०. ४२, ३, ५२ ४४२, ४४५, ४४७, ४४८ हंस जातक ६३५ हेतुविन्दु ६४२ हार्डी (ई) ३४०, ४७१ हेतुविन्दु-टीका ६४२ हितोपदेश २९४ हेमकमाणव पुच्छा २४१ हिमवान (हिमवन्त) प्रदेश ८९, ५२० हेमचन्द्र (वैयाकरण) ३१ हिमालय प्रदेग ८८, २९२ हेमचन्द्र राय चौधरी (डा०) १७६, हिमालय पर्वत ४८० २९१, २९२, २९३, २९५, ४७३ हिमाचल-प्रदेश १, ४८१ हेमवन २४०, ४२४ हिंगुवल जिनरतन (बरमी भिक्षु) ६११ हमवत-मुत्त २४० हिन्दो १२, ३०, ४९२ हेमरस्मिथ ६१० हिन्दी भाषा का इतिहान (धोनेन्द्र हवावितरण निधि संस्करण २७३, वर्मा) ७२ हिन्दी साहित्य सम्मेलन २७२, ५५ हिस्ट्री आँव इण्डियन लिटरेचर जान-दर्शन २२३ (विन्टरनिज) ज्ञान प्रस्थान-शास्त्र ११५, ३५३,३५८ ज्ञान-विप्रयुक्त ३७७, ३७८, ३८२, देखिये 'इण्डियन लिटरेचर ३८४, ३८५ हिस्ट्री ऑव पालि लिटरेचर (लाहा) ज्ञानयज्ञ १३९ ८, ११, १२, १८, २२, २४, १०६, ज्ञान-संप्रयुक्त ३७३.६७८, ३८२, १०७, २०३, २२०, ३४२, ३४३, ३८४, ३८५ ३४४, २५६, ४९८, ५,४, ५५६, ज्ञानातिलोक (महास्थविर) ३४१, ५५३, ५६२, ५६८, ५८२, ५८५, ३४५, ३५१, ३५८, ३९३, ८१२, ५८६, ५९३, '५९८,१०,६१०. ४१८, ४२२, ४२५, ४२६, ४२७, ६१४, ६२९ ४४३, ४४९, ४५५ Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २-उद्धत पालि शब्दों की अनुक्रमणी अज्झेन ४९ अञमञ्जपच्चयो ४६१ अकल २०, ५९ अज्ञा ४०६ अकालिक १७५ अज्ञाताविन्द्रिय ४०६ अकुलला (धम्मा) ३६०, ३७९-३८१, अट्ट ६७ ४०१, ४०२ देखिये 'अकुशल' अट्ठ ३७ (नामानुक्रमणी) भी । अत्तनोपद ६८ अक्खि ६३ अत्तमझा ४६९ अगति २३१ अत्ता १६७, ४६४ अगरु ५२ अतिवोन ४९ अगलु ५२ अतिरेक ३३४, ३४६ अगन्थनिया (धम्मा) ३६६ अतीतवत्थु २७७ अग्ग ४७ अग्गि ३७, ४५, ६४ अतीता ३६२ अतीतारम्मणा ३६३ अग्गीहि ३८ अंकुस ४६९ अत्थपटिसम्भिदा ४११ अंगुल-अंगुलि-अंगली ५ अत्थवण्णना २७७ अचेतनिक ४३७ अत्थि-पच्चयो ४६३ अचेतसिका (धम्मा) ३६८ अदुक्खमसुखाय वेदनाय सम्पयुत्ता अच्चन्तनियामता ४४४ (धम्मा) ३६० अच्छ ३९, ४० अदोसो ३८८ अच्छे र (अलयिर, अच्छरिय) ४९. अधिकरणसमथा धम्मा (सात) ३१२, ३१९-३२१, ३२२ देखिये अजानन्तेन ८८९ 'अधिकरणशमथ' (नामानुक्रअजिरवती २० मणी) भो। अज्झत्तवहिद्धा ३६३ अधिगिच्य १९ अज्झत्तवहिद्धारम्मणा ३६३ अधिपति-पच्चयो ४६० अज्झत्ता ३६३ अधिमोक्खो ३८७, ३९२ अज्झत्तारम्मणा ३६३ अनण ४० अज्झतिक आयतन ३४८ अनत्तलक्खण ५८९ अज्झत्तिका (धम्मा) ३६९ अनत्तसा ४६९ अज्झत्तं ३९९ अनत्ता ४५३, ५२२ Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनन्तर - पच्चयो ४६० अनभिज्जा ३९० अनमतग्ग १६५ अनागता ( धम्मा ) ३६२ अनागतारम्णा ( धम्मा) ३६३ अनारम्मणा ( धम्मा ) ३६८ अनासव ४३२ अनासवा ( धम्मा ) ३६५ अनिच्च सञ्चा ४६९ अनसन - अप्पटिघा ( धम्मा ) ३६३ अनिद्दस्सना ३६४ अनियत ३१३ अनियता (धम्मा) ३१२, ३१६, ३१७, ३२२, ३९२, ३७२ अनिय्यानिका ( धम्मा ) ३७२ अनुत्तरा ( धम्मा ) ३७३ अनुपपत्रा ( धम्मा ) ३६२ अनुपादानिया ( धम्मा ) ३७० अनुपादिना ( धम्मा ) ३६९ अनुपादिन्नुपादानिया (धम्मा ) ३६० अनोत्तप्प ३८८, ३९० अपचयगामिनो ( धम्मा ) ३६१ अप्पच्चया ( धम्मा ) ३६८, ३९५ अपटिया (अम्मा) ३६४ अप्पमाणा ( धम्मा ) ३६२ अप्पमाणारम्मणा ३६२ अपरगोयान ५८ अपरण्ह ६५ अपरसेलिय ४४८ ( ७२१ ) अपरामट्ठा ( धम्मा ) ३६८ अपरियापन्न ३९९ अपरियापन्ना ( धम्मा) ३७२ अपात ४० अपीतिका (धम्मा) ३७० अपेखा (अपेक्खा ) ४२ अव्बहति ८२ अभमत्त (अभामत्त ) ५२ अभिनन्दुति ५३ अभि- विनय ३३४ अभ्यापादो ३९० अमूढ़ - विनय ३१९, ३२० अमोहो ३८९, ३९४ अम्ब ३०, ५२ अम्हना ६६ अय्य (अरि) ६४ अरणा (धम्मा) ३७३ अरूपावचरा ( धम्मा ) ३३० अरूपिनो ( धम्मा ) ३६८ अरंजर ४६, ६१ अलिक ४८ अलोभो ३८७ ३८९ अवट ३० अवस्सं ६५ अव्याकत १५८ अव्याकता ( धम्मा ) ३६०, ४०१. अव्याको ४०१ अविगत पच्चयो ४६३ अविचारा (धम्मा) ३७२ अविज्जा ४६९, देखिये अविद्या (नामानुक्रमणी) भी । अतिक्क - अविचारा ( धम्मा) ३६१ अतिक्क-विचारमत्ता ( धम्मा ) ३६१ अविऩक्का ( धम्मा ) ३७२ अवीवदाता २३६ अवेच्च ५३ अवंग ५७ असत्ता ८३१. ४८१ अस्स ६५ अस्मादं ४३८ असु ४८ असुभसञ्ञ ४६९ असेक्खा (धम्मा ) ३६१ असेख ४७० असेखभागिय ४६९ अमंकिलिट्ठ असंकिलेसिका ( धम्मा ) ३६० Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ har ( ७२२ ) असंकिलिट्ठ-मंकिलसिका (धम्मा) आसवविप्पयुत्ता (धम्मा) ३६५ आमदविप्पयुत्ता अनासवा (धम्मा) असंकिलिट्ठा (धम्मा) ३७० 'असंकिलेसिका ३७० आसवविष्पयुत्ता सासवा (धम्मा) असंखता (धम्मा) ३६४ असंखता धातु ३९५ आसवसम्पयुत्ता (धम्मा) ३६५ असंयोजनिया (धम्मा) ३६५ आसवसम्पयुत्ता चेव नो च आमवा अहिरीकं ३८८, ३९ (धम्मा) ३६५ अहिंकार ४७ आसवा (धम्मा) ३६४ अहेतुक (चित्त) ५३३, ५३२ आसवा चेव आसवसम्पयुत्ता च अहेतुका (धम्मा) ३६४ (धम्मा) ३६५ आसवा चैव सासवाचा ३६५ आ आयस्मन्न ४६ आचरिय (आचेर) ५० आसेवन-पच्चयो ४६२ आचरिय-मुट्ठि ४६६ आहार-पच्चयो ४६२ आचयगामिनो (धम्मा) ३६१ आहुनेय्य ३२७ आजिर (अजिर) ४८ आदिनवं ४६८ आननि ४६८ इक्क ३९, ४० आनापानमति १५३ इण ३९, ४० आन ज ४४६ इत्थी ५० आमिमदायाद ३२७ इदंपि ५३ आरन्त्रिकंग ४९१ इध ५८ आरभरे २७ इन्द (शब्द की निरुक्ति) ६०१ आभितु २७ इरियति ५० आरभिम् ०८ इसिपतन २० आरभिन्या ? ७, २६ इस्मग्यि ४४ आरम्मण ६१ आरम्मण पच्चयो ८५० आगेग (अनोग) ८८ उच्छ (इक्षु) ४५ आलभितु १३, २७ उज (उज्ज) ३९ आलायम २७, २८ उण्डा ६१ आलविक , आलाकि ? उनिट्ठ ६७ आलिन्द (अलिन्द) ४८ उदाहु २०, ४८, ५७ आवनहार ४६८ उदिय्यति ६४ आवुध ६१ उदुक्खल ४२ आवमो ? उद्देम ३४०, ३४४, ३५१ Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ७२३ ) उपथेय्य ५९ उसु ४५ उपादानविप्पयुत्ता (धम्मा) ३७० उसुमा ५१ उपादानविप्पयुत्ता अनुपादानिया उस्टान ६२४ (धम्मा) ३७० उस्सुक ४४ उपादान विप्पयुत्ता उपादानिया उसूया (असुय्या) ४५ (धम्मा) ३७० उपादान सम्पयुत्ता (धम्मा) ३७० उपादा (धम्मा) ३६९ ऊहादेति ५० उपादाना (धम्मा) ३७० उपादाना चेव उपादानसम्पयुत्ता (धम्मा ) ३७० उपादानसम्पयना चेव नो । उपादाना एक २७ (धम्मा) ३७० एक्कं ३८ उपादानिया चेव नो च उपादाना एकग्गता ३८६ (धम्मा) ३७० एके ७ उपादाना व उपादानिया च (धन्मा) गएको २७ ३७० एकोदि १९, २० उपादानिया (धम्मा) ३. एकवीजी ४३८ उपादिन्ना (धम्मा) ३६५. एकारिम (एकादस) ६० उपादिन्नुपादानिया (धम्मा) २६० एडक ५ उाहनदान ५२ एदिःख (एरिक्ख) ४३ उ ग्वा (उपेक्वा ) ४०, ४०८ एदिसक ४३ उपकवा पारमिता ३०१ ए दिस (एरिस) ४३ उवा सहगता (धम्मा) २६१.३६८. एगवण ८४ ३७९ एरिक्खा (एदिक्खा) ६० पप्पन्ना (धम्मा) ३६ः एरेस (एदिस) ६० उप्पादिनो (धम्मा) ३६ः । एल ६० उपक्वासहचग (धम्मा) ३७ उपतो ५३ उप्पज्जति : हवं १८ उपधि २३५ उबिग्ग ६४ उम्मलेति ६४ ओक ४७ उम्हयति (उम्हयने) ५० ओक्कामुख ३८ उयम ६०४ ओट्ठ ३८ उलक ८६ ओनष्प ५०, ३८९, ३९० उसन ३९ ओधि ४९ उसह ६०४ ओपम्म २०१ Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७२४ ) ओरम ३७, ४४ ओवरक ५० कक्क ६४ कक्खल ५७ कच्चान (कच्चायन) ४९ कच्छ ६३ कण्णभि २९ कण्णेहि २९ कणेरु ६१ कत ४० कथेति ४९ कम्मा ६७ कल्ल ६५ कलन्द ७७ कवि (कपि) ५७ कविठ्ठ ५८ कम्म-पच्चयो ४६२ कम्मास ६४ कपिल्लका ६१ कयोणि ५९ कह ५१,६६ करोति ५४ कसट ३४, ५० कस्सक ६४ काकणिका ४६ कातवे ३० कातून ७० काल ४१ कालुसिय ५० किण्ण ६५ कित ३९, ४० किलन्तो ६२ किलेसो ६२ किब्बिस ६४ किलेसविप्पयुत्ता (धम्मा) ३७० किलेसविप्पयुत्ता असंकिलेसिका (धम्मा) ३७१ किलेससम्पयुत्ता ३७१ किलेससम्पयुत्ता चेव नो च किलेसा ३७१ किलेमा ३७० किलेसा चेव संकिलसिका ३७१ किलेमा चेव संकिलिट्ठा च ३७१ किलेसा चेव किलेससम्पयुत्ता च ३७१ कुटस्य (कृतस्य) ३९ कुत्त ४० कुत्ति ४० कुष्पटिच्चस्सन्ति २३६ कुब्बन्ति ६४ कुरुंग ८६ कुमिनअर (कुसिनार) ५८ कुसीत २०, ५९ कुटट्ठ ६७ केन चि विधेय्या ३६४ केन चि न विनेय्या ३६४ केवट्ट को ४५ कोट्टित ७८ कोमिय ५८ खनति ५४ खम्भो ६२ खलुपच्छाभत्तिकंग ४९१ खायित ५८ खीरं ४१ खील ५६ खुज्ज ५६ खुद्द ४४ खुधा ६३ खेल ५७ Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७२५ ) गणनायं ४१ गथित (गधित) ५८ गन्थनिया ३६६ गन्थ-विप्पयुत्ता ३६६ गन्थविप्पयुत्ता अगन्थनिया ३६६ गन्थविप्पयत्ता गन्थनिया ३६६ गन्थ-सम्पयुत्ता ३६६ गन्थसम्पयत्ता चेव नो च गन्धा ३६६ गन्था ३६६ गन्था चैव गन्थनिया च ३६६ गन्था चेव गन्थसम्पयुत्ता च ३६६ गधिति २० गन्तवे ३० - गमिस्सिति ३४ गरहति ५१ गरहा ५१ चित्त-लहुता ३९० चित्तविप्पपुत्ता ३६८ चित्तविसंसट्ठा ३६८ चित्तसम्पयुत्ता ३६८ चित्तसमुठाना ३६८ चित्तसंसट्ठा ३६८ चित्तसहभुनो ३६९ चित्तसंट्टसमुठाना ३६९ चित्तसंसस-ममुट्ठानानुपरिवत्तिनो चित्त - संमट्ठ - ममुट्ठान - सहभुनो चित्ता २९ चित्तानुपरिवत्तनो ३६९ चिन्तामया पञ्जा ४११ चित्तुज्जुकता ३९० चेतिय ३८,४३ चेमे ५३ मोरो ५४ गहित ४८ गाम २ गिरिमिव ५३ गेम्क ७ छ छकल ५९ छागिका ६३ वटो ५५ चक्खु ३४८ चजति ६२ चत्तारो मे ५३ चतुक्क ४४३ चतुव्यूह-हार ४६८ चन्दिमा ४७ चरामसे २३६ चरिम ४७ चापक २०, ५९ चित्त-पस्सद्धि ३९० चित्तमुदुता ३८७ जच्चा ६७ जेनत्व २३६ जनेत्त्वा २३६ जनो ५४ जल्लिका ५६ जिगुच्छति ४६ जिण्ण ४१ जिम्ह ६५ जिया ५० जिव्हा ६६ जिव्हामूलीय ३६ जीवन्तो (जीवतो) जण्हा ६६ Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७२६ ) तेमे ५३ जैति ४० थ म झान १६८ झाम ६३ भान-पच्चयो ४६२ थरु ३३ थीन ४८ थपो . थेर ५० to ठापेति ६३ ठितो ६३ दक्खिणा ६३ ददल्लति ६० इसति ५५ डहनि बाद ७, ६० तक्क ६५ तच्छति : दमिल ? दामनेन पहातब्बा ३६१ दस्सनेन पहातबहेतुका ३६१ दात पि ५३ दानि ? दाय दाव ? दामिगण ५० दिगिननम्नवन ३८० दिदिटकोनात-भागिय ४९९ दिदि-नक्लेिम-भागिय ८६० दिमालोचन ८६. दीव १ दीघमदधान दिघमज्ञान) : नाहा ६६, १६९, ४७० तण्हावादान-भागिय ४६८, ४६५ ताहामंकिलेस भागिय ८६९. दृसम्म ८६१ तमिणा ? तंति , ७, ८. ९ ताईदि ,८ त्वाय : तिकिच्छति 0 नियविन्यारक :१९, ३००, ३०१ निन्थ : तिन , निनिम्म ५ तीह ८ त्वीन .. दुबवाय वेदनाय सम्पयना ६० दुग्गताह ' द्वोह ८८. दुचरित-वादान-भागिय ४६१. दुचन्ति-स्टेिस-भागिय ८६० दुवे । hoto Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवाति ५३ देवानं ४२ देवासे ३० देवेभि २० देवेह २९ देवो ४५ देसनाहार ४६८ देसो ५६ देहनो ६१ वेल्हक ६० दोस ४९ ४६९ धम्मता २५८ धम्मराजा ४ ध धम्मा २५, २६९ धम्मासे ३० धारोप २६ धेनु ४५ न न अरूपावचरा (धम्मा ) ३७२ नग्ग ५१ नत्थि -पच्चयो ४६३ नदति (नदी) ५१ नदि ४१ न दस्सनेनन पहातहेतुका ३७१ निब्बेधभागिय ४६९ ( ७२७ ) न भावनाय पहातव्वा ३७१ न भावनाय पहातव्वहेतुका ३७२ न-पीतिसहगता ३७२ नय ४६७ नय-मनुट्ठान ४६७ नयिदं ५३ न पावरा (धम्मा ) ३७२ नवति ४७ न सुखसहगता ३३२ न हेतु ३६३ न हेतु अहेतुका ३६४ न हेतु सहेतुका ३६४ नामेति ५५ निच्चमा ४६९ निड्ड (नेड्ड ) ४२ निद्देनवार ४५१, ४६७ निदाना ८०७ नित ६४ निप्परित्राय देमना ३५० निर्मन पटिनभिवा ४११ नियता ७२ निय्याति ६४ दिव्यानि ३७२ निमनिया पाचित्तिया ३१३, ३२० निमणिया पाचित्तिया धम्मा ३१२, ३१३ ३९७-३१८ निस्तयो पच्चयो ४६२ निमित निस्मोको ४५ नीयाति ४२ नीदरण १२९ नीता ३६७ नववियुक्ता अनीवरणिया ३६७ नीरणविपयुक्त्ता नीवणिया ३६७ नीवपत्ता ३६७ नीवरणपता चेत्र तोच नीवरणा ३६३ नीवरण ३६७ नोवरणा चैव नीवरणिया च ३६७ नीवरणा व नीरणमम्पयुक्त्ता च ३६३ नोवरपिया ३६० नोवरणिया चैव न च नीवरणा ३६७ ने ३८, ६८ नेत्रगामिनो न अपचयगामिनो ३६१ नेव तन्मतेन न भावनाय पहातव्वहेतुका ३६९ भावना पहाता ३६१ Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७२८ ) नेव विपाक-न-विपाक-धम्मा ३६० पतिनां ६९ नेव सेक्खा न अमेवा ३६१ नेसज्जिकंग ८९१ पथवी-पव्वी-पुथवी, पृथ्वी, पुठुवी ४० नो आसवा ३६८ पदट्ठानहार ८६८ नो उपादा ३६९. पन ५२ नो उपादाना ३७० नो किलेसा ३७० पटंग ५९ नो गन्था ३६ पट्ठाय ६७ नो चित्तममुहाना ३६८ पट्टान ४६८ नो चिनस नो ३६१. पटच्चर ५ नो चिनसंमट्ट-ममुहाना ३६१ पटिगच्च (पटिकच्च) ५७ नो-चित्त-संमट्ठ- -ममुट्ठान- महमुनो पटिमा ६० पटिविस्मक ८४ नो-चित्त - मनमट्ठ - समुट्टानानु पटिच्चसमुप्पाद ८६८ परिवत्तिनो ३६९ पटिदेमनिया धम्माः १२, ३१३, ३१८ नो चिता ३६८ पटिमल्लान ४९ नो चित्तानपरिवत्तिनो ३६९ पटिसंवा ८३१ नो नीवरणा ३६ पठभ६० नो परामामा ३६७ पठवी ६० नो संयोजना ३६५ प्रणनि २८ नगल ३३, ६१ पणीता ६० पत्ति २६ परक्कम १२८ पक्रिरिय ८३ परम्मपद ६८ पग्गहा ३९० परामासनम्पयुत्ता ३६८ पग्दरति ६६ परामासविप्पयुत्ता अपरा मट्ठा ३६८ पच्चनीका (पच्चनिका) ५१ परामासविप्पयुना परामट्ठा ३६८ पच्चय धम्म ४६०, ५५९ परामट्ठा ३७८ पच्छाजात-प्रत्यय ४२ परामासा ३६७ "यच्चयासे २३६ परामाका चेव परामट्ठा च ३६८ पच्चयुप्पत्र ४६१, ४६९ परामट्ठा चेव नो च परामामा ३६८ पच्दुप्पनारम्मण ३६३ परामास विप्पयुत्ता ३६८ पच्चरे २२ परिज्ञा-बार ४५१,४५२ पन्दप्पत्ता ३६२ परियाय (पलियाय) ४. ९ पज्जलति ६५ परिदत्तनहार ४६८ पतिवार ४५१ परिक्खा-हार ८६८ पञतिहार ४६८ परिधापयित्वा ५० पन्या ६० परिचय ६५ Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिता ३६१ परिम ४७ परित्तारम्मण ३६२ परिक्खारहार ४७० पलच्चर ५ पलिखनति ६१ पलिघ २० पलिख (पलिघ ) ५९ एलिसजति ६१ पल्लि ८ पकम ६२४ पवत्ति-वार ४५९ पवेधति २० पसंद ५७ वसन्ती ६२ पसुत ४७ परिव्वक ८८ पसद्धि ४०८ 'चट्टारावज्जन ३८८ पाकट ५२ प्राणमतसहस्रादि २७, २८ चित्तिया धम्मा ३१० ३१४, ३१८ पावित्तिय २०, ३१३. ३२२, ३२३ पाटलिपालि ८ प्राणशतसहस्रानि १७, २७, २८ पाति २६ पानिय ४८ मानससहसानि २७, २८ पानानि २८ पापुरण २०, ४७, ५१ पाराजिक २० पाराजिकाधम्मा ३१५, ३१६ पारुपन (पापुरण) ६१, ३०१, ५८२ पाल ५, ६ पालि ४, ५, वचन ५, ५६ राहुणेय्य ३२७ पित ७१ ( ७२९ ) ܀ 69 पतिपक्खती ४० पितुस्स ७१ पितुघातक ४० पिथीयति ५९ पिफ्फल ६७ पियदसिना प्रियदसि प्रियदशिन १७, २७ पिय ३७ पियदसिने २८ प्रियदर्शि १७, २७, २८ पियस २८ प्रियम २८ प्रियदसिनो २८ पियदसि २७.२८ पलक्खु ५० पिसील २६ पीतिसहगता ३६१, ३७२ पुच्छति ३९ पुत्तिमा ४७ पुत्र ५२ पुव्वण्ह् ६५ पुर २७, २८ पुरा १७, २७, २८ पुरिस ५६ पुरिसकारे ३३ पुरे ३३ पुरेजात - पच्चयो ४६१ पुलुवं १७, २७, २८ पक्ख ३४ पेतवत्थु २४४ पेय्यालं ६, १२८ पोम्वर ३८ पोखरणी ४६ पोण २६, ४९ पोर ४४ पोलय ५४ Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७३० ) फलं ५५ फळिक ५७ फस्सो ३८९ फेग्गु ३७ फोट्टब्ब ३४८ वधि ७० वधी ७० वहिद्धा ३६३ ३९०४ वहिद्धारम्मणा ३६३ बहिनी (बहिणी) ५६ वहिरो ५४ वहपकारं ५३ बुद्धानं सामुक्कंसिका धम्मदेसना १२७, ६२९. बुद्धासे ३०, ६९ वुद्धेहि ७० बुधे १७ ब्रूहेति ४० भ भिक्खूमु ३८ भिक्खूहि ३८ भगवा ६८ भारिय ३४ भामरे २९ भावनाय पहातब्बा ३६१ भावनाय पहातब्बहेतुका ३६१ भिक्खवे २२, २३, २४, ३३ भिमक्क ६७ भेमज ६७ मक्खिका ६३ मग ३९, ४०, ८९ मगजिन २३९ मग्ग-पच्चयो ४६२ मगो २७, २८ मग्गहेतुका ३६२ मग्गाधिपतिनो ३६२ मगारम्मणा ३६२ मच्चस्सवोदके ५३ मच्छेर ५० मत ४० मन्थि ५३ मद्दव ४१ मय्ह ६५ मरियादा ५० 'ममे' २९ माँगता ३६? महग्गगतारम्मणा ३६२ माकुण (मकुण) ४३ मागन्दिय २० मातिकत्थदीपनी ५७९. मातिपक्खतो ८० मातुघातक ४० मुख ३७, ५५ मुखपाठसेन ३० मुखोदकं ५३ मुग्ग ६४ मुच्चति ६७ मुतिंग २०, ५९ मुतीमा ४६ मुदिता (मुदुता) ४६. मुळाल ६० मूल या मल ४० मेना ८४ मोचेति ४९ मोर (मयूर। ५० मोन्यि :८, ८३ मकम ६. Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७१ ) यट्टिका (लठ्ठिका भी) ५५ यथरिव ५३ यथाज्ज्झासयेन ४३ यथासन्थतिकंग ४९१ यमामसे २९ यस्सिन्द्रियाणि ५३ याव ५५ यागु ४९ युत्तिहार ४६८ येव ३३ लाजा १७, २७ लाजिना २७ लाजिने २८ लुज्जति ५५ लुद्द ४४, ५५ लोकस्साति ५३ लोण ४९ रजपथ (रजापथ) ५२ र ७१ राओ २८ राजा १७, २७ राजिने २७, २८ राजिनो ७१ राजुल ४७ रुक्ख ४० रुक्वो ३७ रुहिर (रुधिर) ५८ रूपा ०१ रूपानि (लपानि भी) ५५ रूपिनो (धम्मा) ३६४ वक ३९ व क (वाक) ४२ वजिर ५१ वहति ६७ वडिङ ४० वध ३७ व्यसन ४८ वाक ६४ वादो ५५ वासना-भागिय ४६९ वासना-निवेध-भागिय ४६९ व्याकतो ५३ व्यावट ६० व्याध ४८ विकट (विकृत) ३९ विचय-हार ४६८ विच्छिक ३९ वितको ३८६, ३९२ वित्थ २६ विपस्सना ४६९ विप्पयत्त ४१२, ४४० विप्फार ४३६ विप्पयुत्तेन विप्पयुत्तं ४१४ विप्पयुत्तेन संगहितं असंगहितं ४१४ विप्पयुत्तेन सम्पयुत्तं ४१३ विप्पहातवे ५० विभत्ति-हार ४६८ विभागवार ४६७ विह्मय ६६ . ल लखणहार ८६८ लग्ग ६४ लघमेम्सति ५३ लहु ५८ लाखा ४१ लाघुलोवादे १७, १९. Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७३२ ) विमोख (विमोक्ख) ४२ विरियिन्द्रिय ३८९ दिल्ल ६५ वीतिवत्त ४८ वीरियं ३८७ वीमंसति ६१ वीसति (वीसं) ४३ वुच्चति ६५ बुद्धि ४० वे ४४ वेलु ५, ३३, ६२ वेण्ह ३८ वेवचन-हार ४६८ स-उत्तरा २७३ सक्कटभासाय २. सका निरुत्ति २६ सकाय निरुत्तिया २२. २३. २४, २५, २६ सक्किति ३४ मक्खि (सक्खि) ३३ सखिभाव (सखीभाव) : सचायं ५३ सत-सद- सय-सअ-सौ--५८ सतिमती (सतीमती) ५१ सत्त ६३ सत्थवाहो ५६ सद्द ६३ संगहित ४१२ सह ६६ सन्तीरण ३८३ सनिद्दस्सन-सप्पटिघा ३३३ सनिहस्सना ३६४ सप्पच्चया ३६४ मप्पटिघा ३६४ सप्पीतिका ३७२ समन्तीध ५३ ममहतासे २३३ मम्मुज्जनी ४६ सम्मुति ४७ सय्ह ६५ सम्मदत्थो ५३ सवनीय ५६ सरणा ३७३ सराव २६ सविचारा ३७२ सवितक्क-सविचारा ३६० मवितक्का ३७२ ससंखारिक ३७७.८७ सहित (मंहिता) ५ सहेतुका ६६४ महेतुका चेव न च हेतु ३६८ संकिलिट्ठ-संकिलेसिका ३६० मंकिलिला ३७० संकिलेसिका ३७० मक्खली (मस्खलिका) ४६ संकुण ६० संखता :६८ संगहितेन सम्पयुत्त विप्पयुनं ४१४ मंगहितेन असंगहितं ४१३ सम्पयोगो विप्पयोगो ४२३ सम्पयुत्तेन विप्पयुत्तं ४१३ सम्पयत्तेन संगहितं असंगहितं ८१४ मम्पयुत्तेन सम्पयुत्तं ४१४ मंयोजन-विप्पयुत्ता ३६५ मंयोजनविप्पयुत्ता संयोजनिया ३६६. मंयोजनविप्पयुत्ता असंयोजनिया ३६६ संयोजनसम्पयत्ता चेव नो च संयोजना मंयोजनसम्पयुत्ता ३६, मंयोजना ३६५ मंयोजनिया ३६५ संयोजना च संयोजनिया च ३६५ मंयोजना चेव संयोजन-सम्पयुत्ता ३६५ संयोजनिया चेव नो च संयोजना ३६५ Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७३३ ) सुपिन ४९ सुरिय (मुय्य) ४३ सुमुग्ग ४५ सुव (सुक) ५८ सुर्वे ३३ सुसु ४५ सुस्म ४८ सेक्खा (धम्मा) ३६१ सेम्ह ३८. ६५ मेय्यथा ३३ सेय्या ३८ सोत्थान ४९ मोप्प ८९, ६४ संवरी (सावरी) ४३ समयो ३९० सागल ५७ साज्ज ४३ साण ४० सायति (सादियति) ५८ सारम्मणा ३६८ सावित्थी २२ सासवा ३६५ सासवा चेव नो च आसवा ३६५ साहु (साधु) ५८ सिंगिवेर ४६ सिनान ३४ सिनेह ५१ सिन्धव । सिम्बल ५२ सिम्बली ५२ सिरिंसप ४५ सीह ४३ सुक्क ६५ सुखसहगता ३६०, ३७२ सुखुमाल (सुकुमार) ५९ सुखाय वेदनाय सम्पयुत्ता ३६० सुखुम ५१ सुजा ५७ सुणाहि ७० सुणोथ ७० सुतमया पञ्जा ४११ सुनख (शुनक) ५९ सुंक (मूक) ४० मुमुग्ग ४५ हट ५९ हदय ३९ हसितुप्पाद-चित्त ३८४ हान भागीय १४८ हार ४६७ हार-विभंग ४६७ हार-सम्पात ४६७ हिरि २४०, ३९० हिरिबलं ३८९ हिय्यो ५० हिलाद ५१ हीना ३६२ हेतू चेव सहेतुका च ३६४ हेतू चेव हेतुसम्पयुत्ता च ३६४ हेतुविप्पयुत्ता ३६४ हेतुसम्पयुत्ता चेव न च हेतू ३:४ Page #755 --------------------------------------------------------------------------  Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धिपत्र पृष्ठ ९ भूमिका ११ भूमिका १२ भूमिका नड़े १७ ००० ६० १२१ १२८ १२९ W७ २५२ पंक्ति अशुद्ध नई पाड़ता पडता १५-१६ पालि साहित्य संबंधी लेख पद-संकेत की प्रथम पंक्ति हम इस शब्द-शोधन शब्द-साधन पद-संकेत की अंतिम पंक्ति प्रकृष्टं विदुः प्रकृष्टं प्राकृतं विदुः १७ ऐरिस एरिस २१ मिनयेक मिनयेफ पद-संकेत की पांचवीं पंक्ति पूर्वागात पूर्वागत करिस्ममि करिस्सामि वोझङ्ग बोझङ्ग सम्मोधि सम्बोधि उपसम्पता उपसम्पदा भनन्त भदन्त अनुभव अनुश्रव सवेब सब्वेव अटकथाय अट्ठकथाय पद-संकेत की दूसरी पंक्ति बुद्धकोप पालि-सात्यि पालि-साहित्य धम्मकित्ति महासामि महामंगल (धर्मकीर्ति महास्वामी) पद-संकेत की अंतिम पंक्ति जा तो जातो विसुद्धमम्ग विसुद्धिमग मज्झिम-निकया मज्झिम-निकाय पद-संकेत की पहली पंक्ति विसुद्धिमग्गो विसुद्धिमग्गे विशेप कार्यकर्मज्ञता कायकर्मज्ञता Avm... २७८ ३३० ४८७ ४९७ 2 ४०९ बुद्धघोष ५०४ ५०७ विषय ११ Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्ध ५४० ५४० ५४० ५४२ ५५० ५५६ or or or m. ५६७ ५६५ ५७२ ५७५ ५७५ ( २ ) अशुद्ध विनया, विनिच्छयटीका विनयविनिच्छय-टीका बुद्धदत्त बुद्धदत्तकृत दाढावंस' दाठावंस बुद्धघोसुप्पति बुद्धघोसुप्पत्ति ग्रन्थों ग्रन्थ सातद सातवें संगति संगीति समाश्रमणीय समाश्रयणीय इतिपतन इमिपतन खुदक खुद्दक बद्धकोष बुद्धघोष समन्तयामीदिका समन्तपासादिका २२४६ दाठवंस दाठावंस गन्वंस गन्धवंस मुद्दकमाठठ्ठकथा खुद्दकपाठट्ठकथा पमरत्यविनिच्छयं परमत्थविनिच्छयं मुबोवलंकार मुबोवालंकार नवमोग्गलान नवमोग्गल्लान महत्थभेदचित्ताय सइत्थभेदचिन्ताय उन्न उन्नत विटरनिरत्न विटरनित्ल पणिनीय पाणिनीय ग्रन्थ उपकार उपकारी मोविल मेबिल विनत्यत्यप्पकरण विभत्यत्थपकरण ल्पकाश्यपसिद्धि रूपसिद्धि विजितावीसे विजितावी सो गजैनितक राजनैतिक कमोटी पर खरा कमौटो पर उतना खरा ५७७ ५७८ ५७८ ५७९ ५८० ५८३ ५९५ ६०१ ६११,६१२,६१३ ६१२ ३१३ ' "' Page #758 --------------------------------------------------------------------------  Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -வதாக * Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 D.G.A. 80. CENTRAL ARCHAEOLOGICAL LIBRARY NEW DELHI Issue recorl, Call No.- EUR91.3709/!ra-8684 Author Uradhyaya, Barat 3inh, Titlemli sahitya ka itibasa. Borrower's Name Date of Issue Date of Return "A book that is shut is but a block" CHAEOLOGIC CENTRAT GOVT. OF INDIA Department of Archaeology NEW DELHI. L LIBRARY Please help us to keep the book clean and moving. S. 8., 148. N. DELHI.