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( ५६२ ) होगा। काल-क्रम के अलावा भारतीय इतिहास के लिए इन लंका के इतिहासग्रन्थों का और भी प्रभुत महत्त्व है। भारतीय इतिहास की अनेक घटनाओं का वे अद्भुत रूप से समर्थन करते हैं। उदाहरणत: अशोक के पहले के राजाओं यथा नन्दों, चन्द्रगुप्त (चन्दगुन) और बिम्बिसार के वर्णन, विम्बिसार और अजातशत्र के पारस्परिक सम्बन्ध और बुद्ध के साथ उनका समकालिक होना, भगवान् बुद्ध का बिम्बिमार से आयु में पाँच वर्ष बड़ा होना, चन्द्रगुप्त और उसके ब्राह्मण मन्त्री चाणक्य (चणक्क) के विवरण, और सब से अधिक अशोक का वुद्ध-परिनिर्वाण के २१८ वर्ष बाद अभिषिक्त होना, आदि तथ्य ऐसे है जो इन सिंहली इतिहास-ग्रन्थों ने भारतीय इतिहास के समर्थन स्वरूप दिये हैं। 'महावंस' में वर्णित तृतीय बौद्ध संगति के सभापति मोग्गलिपुत तिस्स और उनके द्वारा देश-विदेश भेजे हुए मज्झिम (हिमवन्त-प्रदेश के धर्मोपदेशक) आदि धर्मोपदेशकों की बात मही है, इसे साँची स्तुप में प्राप्त धातु-डिब्बियों के ऊपर उत्कीर्ण लेखों से समर्थन प्राप्त होता है। वहाँ प्राप्त एक डिदिया पर लिखा हुआ है "सपुरिसस मज्झिमस" (सत्पुरुष मज्झिम का) और एक दूसरी पर लिखा है 'सपुरिसस मोगलिपतस' (सत्पुरुप मोग्गलिपुत्त का ) । साँची-स्तूप की एक पापाणवेप्ठनी पर उरुवेला से लंका को वोधि-वृक्ष की टहनी ले जाये जाने का चित्र अंकित है। उससे भी 'महावंस' में वर्णित महेन्द्र द्वारा धर्न-प्रचार के कार्य को ऐतिहामिक समर्थन प्राप्त होता है। इसी प्रकार पुरातत्त्व सम्बन्धी खोजों तथा चीनी यात्रियों के वर्णनों से अशोक तथा देवानंपिय तिस्स का समकालिक होना भी प्रमाणित होता है। तीन बौद्ध संगीतियों का विवरण भी जो 'महावंस' और 'दीपवंस' में दिया हआ है, तत्त्वतः ऐतिहासिक आधार पर हो आश्रित है । अतः इन इतिहास-ग्रन्यों के वर्मन ऐतिहासिक दृष्टि से भी समाश्रमणीय हैं, । विशेषतः उत्तरकालीन इतिहास के सम्बन्ध में तो इनका साक्ष्य अधिक स्पष्ट और प्रामाणिक है ही। 'महावन का विशेष महत्त्व तो लंका के धार्मिक इतिहास के रूप मे ही है। सर्व-प्रथम तो उपालि से लेकर महेन्द्र तक के विनय-धरों की जो कालानुक्रम-पूर्वक परम्परा यहाँ दी हुई है, वह लंका
और भारत दोनों देशों में बुद्ध-धर्म के विकास की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। यह परम्परा इस प्रकार है. (१) उपालि , (२) दासक, (३) सोणक, (४) सिग्गव, (५) मोग्गलिपुत तथा (६) महिन्द। सर्वास्तिवादियों के मतानुसार