________________
(४६२) चार पहोर दीवस तणा आरंभ करतां जाय ॥ एक पहोर वा अर्ध तो धर्म करो सुखदाय ॥४॥ चेतन चेत तुं चित्त विशें आ संसार असार ॥ आव्यो तिम जाईश वली कोई न राखणहार ॥ ५॥ चार पहोर धंधो करे चार पहोर रहे सई ॥ प्रभुनाम घडी ना लीयो मुक्ति क्याथी होई ॥६॥ चिंतासें चतुराई घटे घटे रूप ओर रंग॥ चिंता बडी अभागणी करे जोरको भंग ॥७॥ चकी चले तो चलन दे तुं कायको रोय ॥ खीलेशे बिलगा रहे पीस शके नहि कोय ॥८॥ छानी नहि रहे चतूरथी को अंतरनी वात ॥ वैद्य पारखे कर ग्रही जिम ते रोगनी जात ॥१॥ जन्म जरा मृत्यु वली रोग शोक दुःख जोई ॥ स्वार्थीआ सहु परिजना धर्म कर्या सुख होई ॥१॥ जेशो बंधन प्रेमको तेसो बंधन ओर ॥ काठहि भेदे कमलको छेद न निकशे भोर ॥२॥ जोतां कोई जणाय नही साहुकार के चोर ॥ दीवानथी दरवारमा छे अंधारूं घोर ॥३॥