Book Title: Niti Tattvadarsh Yane Vividh Shloak Sangraha
Author(s): Ravichandra Maharaj
Publisher: Ravji Khetsi
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NASANAMANANDNANDNANDINITIANE ANAN पक PANUANY मुनि महाराजश्री रविचंद्रजी संगृहीत नीति तत्त्वादर्श याने विविध श्लोक संग्रह. प्रकाशकः-- शा. रवजी खेतसी. ठे० भात बजार-मुंबई. -క్యాంశాలు संवत १९७३. सने १९१७. मूल्य रु. १-४-०. Cover Printed at Krishna P. Press, 9 Anantwadi Bombay 2. Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरविचंद्र ग्रंथमाला - नं० १. मुनिमहाराज श्रीरविचंद्रजी संगृहीत सार्थ नीतितत्वादर्श याने विविध श्लोक संग्रह.. केटलाक सद्गृहस्थान समक्ष छपावी प्रसिद्ध करनार शा. रवजी खेतसी नानी खाखरवाला. सं. १९७४. मूल्य रु.१-४. 12 सर्व हक्क स्वाधीन. सन १९१७. Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुद्रक रा. चिंतामण सखाराम देवळे, मुंबईवैभव प्रेस, सर्व्हट्स् ऑफ शयों सीसामीज् होम, सँढर्ट रोड, गिरगांव-मुंबई. प्रकाशकः१. शा. रवजी खेतसी, "ठि-भातबजार मुंबई नं. ३. Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 安安凉凉冬 क お समर्पण. acco शांत, दांत, परमोपकारी गुरुमहाराज श्रीरविचंद्रजी महाराज. दुनयाना अज्ञानरूप अंधकारने प्ररास्त करवाज आपश्रीए रवि-चंद्र एटले सूर्य अने चंद्रना अभिधान ( स्वरूप ) ने धारण कर्युं छे, ते सत्यज छे. भगवंतना पावन वचनामृतनुं पान करावी भव्य जनोने आप मोक्षनो सीधो रस्तो बतावी जे उपकार करो छो. तेनुं यथार्थ वर्णन नज थइ शके. ए विगेरे आपना असाधारण गुणोने स्मरणमां लावी आ उपयोगी ग्रंथ साथे आपनुं पवित्र नाम जोडीने हुं मारी किंचित् फरज बजावी प्रहर्षित थाउं छं. भवदीय चरणोपासक, रवजी खेतसी. प Setetet«« BREE Page #5 --------------------------------------------------------------------------  Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | At મિમી , ' નિ , * ૮ સી . A , : - S M શ્રીમાન ગુરૂવર્ય શ્રી રવિચંદ્રજી મહારાજ. */ | L જન્મભૂમિ નવિનાર (કચ્છ). દીક્ષા – સંવત ૧૯૪૩. સંવત ૧૯૬૩. Krishua Press Bombay 2. Page #7 --------------------------------------------------------------------------  Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोल... गच्छतः स्खलनं क्वापि भवत्येव प्रमादतः । हसंति दुर्जनास्तत्र समादधति सज्जनाः ॥ ' रस्ते चालतां प्रमादना योगे वखतपर क्यां स्खलना थइन जाय छे. परंतु दुर्नम जनो पोताना स्वभाव प्रमाणे ते प्रसंगे हास्यादिक चेष्ठा करे छे अने सज्जन जनो पोताना स्वभाव प्रमाणे कइंक युक्तिथी समाधान करे छे. C नीति - ए धर्मनो पायो छे' आ पुराणी कहेवत अक्षरशः सत्य छे. जेटले अंशे नीतिरूप पायो मजबूत हशे, तेटले अंशे धर्मरूप इमारत मजबूताईमां रही शकशे. आज काल नीतिमार्गंनी दरकार कर्या विना आपणे धर्म साचववानी उमेदवारी करवा आगल पडता भाग लेवा जइए छीए. आथी एम कहेवानी जरूर नथी के तेम न करवुं. परंतु निर्बळ पायांनी इमारतनी जेम तेवा विचारो अंतरमां एकीभाव पामवाना नथी. धर्मभावना के धर्मवासना एवी होवी जोइए के गमे तेवा अणीना प्रसंगे पण तेनो लेशमात्र लोप न याय. हाल आपणा अंतरमां धार्मिक विचारोए जे अस्थिरतामु रूप धारण कर्यु छे, तेनुं मुख्य कारण मात्र नीतिनी निर्मळता छे. Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आथी आपणने ए मार्गनी संपूर्ण सांगोपांग मायिती छे अने आपणाथी ते प्रमाणे वर्तवानुं बनी शकतुं नथी एम नथी, परंतु आपणे नीतिनी केटलीक बाबतोथीन अज्ञात छीए. आवी अज्ञानताने लीधे आपणुं जीवन केटलुं बधू भयंकर बनतुं जाय छे- ए आपणा ख्यालमां नथी. - आपणे सारी रीते जाणीए छीए के भीत विना चित्र न नीकळे, वस्त्रमाथी मेल दूर कर्या विना तेनापर रंग न चडी शके, खेतरने बराबर खेड्या विना तेमां वावणी करवामां आवे तो बहुधा ते परिश्रम निष्फळ थाय छे, तेम नीतिमार्गना अस्तित्व विना धर्माराधननी सफळता संभवती नथी. आ आपणी अक्षम्य अज्ञानता निरस्त थाय अने शनैः शनैः नीतिनुं साम्राज्य स्थापन थाय एवा हेतुथी अने तेना परिणामे धर्मभावनानी दिव्य प्रभा विश्वव्यापी थइ अनेक भव्य जनोनो उद्धार थाय-एवा हेतुथी आ पुस्तक प्रगट करवामां आवेल छे. जेमा मूळ संस्कृत श्लोको के जे प्राचीन महर्षिओना बनावेल अनेक ग्रंथोमांथी संगृहीत करवामां आवेल छे. आज काल आपणामां संस्कृत विद्यानो ओछो प्रचार होवाथी मात्र मूल श्लोको राखवा जता-तेनो भावार्थ गुरुगम विना समजवो मुश्केल थइ पडे-ए मुश्केलीओ दूर करवा मूल श्लोको साथे भावार्थ पण छपाववामां आवेल छे. जेथी वाचकोने श्लोको समजवामां अधिक सुगमता थइ पडशे. . छतां ग्रंथ गौरवना Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भयथी कोइ स्थले विस्तृत अर्थ करवामां आवेल नथी, त्यां वाचकोए गुरुामथी या तो पोतानी बुद्धिथी अर्थनुं समाधान करी देवु. आ आ ग्रंथ छपाववा माटे केटलाक सद्गृहस्थोए द्रव्यनी सहायता आपी छे ते बदल तेमनो उपकार मानवामां आवे छे. आ स्थळे कोइ धर्मबंधुने शंका थशे के ' ग्रंथ छपावका माटे मदद मळ्या छतां पुस्तकी किंमत राखवामां आवी छे, तेनुं कारण शुं ? ? बाबत माटे एज स्पष्टीकरण छे के घणीवार एवं बने छे के कोइ उपयोगी पुस्तक प्रगट करवुं होय - तो ते बदल मदद मेळववी बहु मुश्केल थइ पड़े छे. ए मुश्केली दूर करवा आ पुस्तकनी जे आवक थशे, तेनो उपयोग मुनि रविचंद्रजी महाराजनी अनुमति प्रमाणे बीजा आवा उपयोगी ग्रंथ छपाववा माटे करवामां आवशे. जेथी आ पुस्तक लेनारने ' एक पंथ ने दो काज ' जेवुं थशे. वळी आ पुस्तकमा विविध श्लोकोनो संग्रह करवामां गुरुवर्य मुनिश्री रविचंद्रजी महाराजे अथाग परिश्रम लीधो छे एटलुं ज नहि पण तेमनी प्रेरणाथीज आ रसिक पुस्तक प्रगट करवानुं मने भाग्य प्राप्त थयुं छे एम कहेवामां लेश पण अतिशयोक्ति जेवुं नथी. माटे आ स्थळे ते गुरुश्रीनो अंतरथी उपकार मानवामां हुं मारा अहो भाग्य समजुं छं. Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..... श्लोकोनुं भाषांतर करी आपवामां तथा एक सपासमामां कवि स्का नशी मेणशी दुर्मराकरे आ पुस्तक माटे तनसोड परिश्रम लीयो छे, ते बदल तथा अ पुस्तकमा प्रांत भागमां गुजराली दोहा दाखल करवामा आख्या छ, तनो संग्रह करकामां शा. नानजी रामजी सलचाणा कळाए श्रम लीयो छे, तेमन केटलीक रकमी भराषवामां शा. जेवत पचाण मोटी खाखरवाळाए कईक श्रम उठाव्यों छे ते बदल ए सर्वनी आ स्थळे आभार मानवानी हुं मारी फरज समजें कु. कार्तिक शुक्ल १ वि.सं. १९७४ । । प्रकाशक. Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाराज श्रीरविचंद्रजी संग्रहीत नीति तत्त्वादर्श. Takia सार्थः अहंतो भगवंत इंदमहिताः सिद्धाश्च सिद्धिस्थिता आचार्या जिनशासनोन्नतिकराः पूज्या उपाध्यायकाः । श्रीसिद्धांतसुपाठका मुनिवरा रत्नत्रयाराधकाः पंचैते परमेष्ठिनः प्रतिदिनं 'कुर्वंतु वो मंगलम् ॥१॥ अपारे खलु संसारसागरे सारसंयमम् । यानपात्रसमं प्राप्य यांतिधीराः परं पदम् ॥१॥ भावार्थ-अपार एवा संसार-सागरमां नाव समान एवा श्रेष्ठ संयमने प्राप्त करीने धीर पुरुषो परम पदने पामे छे. १ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) अशिक्षिता अपि नृणां प्रादुःष्यति कुबुद्धयः । सुशिक्षिता अपि नृणां प्रच्यवते शुभाः क्रियाः । २ ॥ भावार्थ - अहो ! मनुष्योने कुबुद्धि शिक्षण विना पण उत्पन्न थाय छे अने शुभ संस्कारो ( क्रियाओ ) शीखव्या छतां नष्ट थइ जाय छे. २ अनंता गृहचिंतेयं तोयराशिसमा नृप । यदेकया स्त्रिया नष्टा गाथापंचशती मम ॥३॥ भावार्थ - हे राजन् ! आ गृहचिंता - समुद्रनी जेम अनंत छे; कारणके एक स्त्रीना योगे मारी दररोजनी पांच पांच सो गाथाओ नष्ट थई. ३ अनभ्यासात्कलीनाशे यद्योषिद्दोषपोषणम् । तत्कोलखादिते क्षेत्रे महिषीसुतकुट्टनम् ॥ ४ ॥ भावार्थ - अभ्यास न करवाथी कळानो नाश थाय अने तेथी स्त्रीने दोष देवो-ते डुक्करथी खवायेला क्षेमां पाडाने मार मारवा बरोबर छे. ४ अगम्यां भूरिमायानां व्यक्तमुक्ताफलागमाम् । साधुशालां पुनर्द्वरे जहुः सिंहगुहामिव ॥ ५ ॥ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३ ) मावार्थ - बहु मायावी ( शृगाल ) जनोने अगम्य अने ज्यां मुक्ताफलोनो प्रगटरीते आगम छे एवी साधुशालाने दुष्ट जनो सिंह गुफानी जेम दूर तजी दे छे. ५ अहो न वः स्वयं प्रज्ञा नवा गीतार्थसंगतिः । यदेवं व्यक्तनिःशूकाः शृणुतागमभाषितम् ॥ ६ ॥ 1 भावार्थ - अहो ! तमे आवा साक्षात् निर्दय ( क्रूर ) छो तेथी एम लागे छे के तमने पोताने प्रज्ञा (बुद्धि) नथी तेमज कोइ गीतार्थ ( साक्षर ) नी संगति पण नथी; माटे तमे आगम ( शास्त्र ) नुं कथन सांभळो. ६ अनर्थदंडं जानानः को धीमानंतकांतिकम् । नयत्येतावतो जंतून निर्मतून्केलिकौतुकैः ॥ ७ ॥ भावार्थ - अनर्थदंडने जाणतां छतां कयो धीमान् ( सुज्ञ ) पुरुष पोताना क्रीडाकौतुकथी आटला बधां निरपराधी प्राणीओने मरण पमाडे ? ७ अन्यो हृदि वचस्यन्य - श्चान्य एव पुमान् दृशि । एवं यासां विरोधोंऽगे कस्ताभ्यः सुखमिच्छति?८ भावार्थ - - जे स्त्रीओ पोताना हृदयमां अन्य पुरुषने Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) चिंतवे छे, अन्य साथे वातचित करे छे अने अन्य तरफ नजर करे छ; अहो! जेमना अंगमा पण आवो विरोध छे, ते स्त्रीओथी सुखनी आशा कोण राखे ? ८ अभूदिभस्य हृयन्यद् व्याधस्यान्यत्पुनर्हदि । अहेश्चान्यविधिस्त्वन्य-देव चक्रे तदस्य धिक्॥९॥ भावार्थ-हार्थी जुदो विचार करतो हतो, व्याध (शीकारी) अन्य कांइ चिंतवतो अने सर्प वळी इतर कई चिंतन करतो; एवामां विधाताए कंई जुदुंज कयु. माटे दैवने धिक्कार थाओ. ९ अनुयांती विधु कांतं रात्रिस्तारकभूषणा । न भास्करकरस्पर्श-मपि सेहे पतिव्रता ॥१०॥ भावार्थ-चंद्ररूप पोताना कांत (पति)नी पाछळ अनुसरनारी तथा तारक (तारा) रूप भूषणवाळी एवी रजनी (रात्रि) पतिव्रता स्त्रीनी जेम सूर्य ( परपुरुष) ना कर (किरण) नो स्पर्श मात्र पण सहन करती नथी. १० अस्तं प्रयाति सूरोऽपि वारुणीसंगतो ध्रुवम् । । यदहं वारुणीयोगे जीवनस्मि तदद्भुतम् ॥११॥ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५ ) भावार्थ- सूर्य पण वारुणी ( पश्चिम दिशा ) ना योगे अस्त थाय छे, छतां बहु आश्चर्यनी वात छे के वारुणी (मदिरा) नो संग थया छतां हुं जीवतो छं. ११ अहो नीचरता नार्यो मक्षिकासख्यमिति । चंदनमिव प्रोत्सृज्य श्लेष्मणे स्पृहयंति याः ॥१२॥ भावार्थ - अहो ! नीच पुरुषोमां अनुरक्त एवी स्त्रीओ खरेखर मक्षिकाओ जेवी छे. कारण के जेओ चंदननो त्याग करीने श्लेष्म (लींटा ) उपर इच्छा राखे छे. १२ अंतः कचवराकीर्णे बहिश्च मसृणत्वचि । खरीपुरीषसंकाशे मा मुहः स्त्रीशरीरके ॥ १३ ॥ भावार्थ - हे जीव ! अंदर तो कचरा ( अशुचि ) - श्री व्याप्त अने बाह्य स्निग्ध (कोमळ ) त्वचायुक्त तथा गधेडानी लाड ( विष्टा ) समान एवा स्त्रीशरीरमां तुं मोह न पाम. १३ अदृश्यं भाग्यहीनाना - मस्पर्श्य सर्वपाप्मनाम् । संकरं सारविद्याना -मविद्यानां भयंकरम् ॥१४॥ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मावार्थ--भाग्यहीन जनोने अदृश्य, पूर्ण पापीओने अस्पये, सार विद्याओना समूहरूप तथा अविद्याओने भयरूप एवा महात्माने कोइ भाग्यशाळीज जोइ शके छे. १४ अधर्मकर्म यन्मूढ कुरुषे यौवनांधितः। अंतःस्थशिखिशाखीव वीक्ष्यसे तेन वाईके १५ भावार्थ-हे मूढ ! तुं यौवनना मदथी अंध बनीने जे अधर्मकर्म करे छे, तेथी वृद्धावस्थामां अंदरमा रहेल अग्निवाळा वृक्षना जेवी तारी दशा थशे. १५ अशस्त्रं मारणं मंत्र-हीनमुच्चाटनं परम् । निरनिज्वालनं स्त्रीभिः सपत्नी नाम मन्यते १६ __भावार्थ--स्त्रीओ पोतानी शोक्यना नामने शस्त्र विनानुं मारण, मंत्र विनानुं तद्दन उन्मूलन अने अग्नि विनानुं ज्वालन समजे छे. १६ । अविद्यं जीवनं शून्यं दिक् शून्या चेदबांधवा । पुत्रहीनं गृहं शून्यं सर्वशन्यं दरिद्रता ॥१७॥ भावार्थ-विद्या विनानुं जीवन शून्य छे, बांधक Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७) विना दिशा शून्य छे, पुत्र विना गृह (घर) शून्य अने जो दरिद्रता होय तो सर्व शून्य लागे छे. १७ अनुचितकारंभः स्वजनविरोधो बलीयसा स्पर्धा प्रमदाजनविश्वासो मृत्युद्वाराणि चत्वारि॥१८॥ भावार्थ-अनुचित कार्यनो आरंभ, स्वजनो साथे विरोध, पोताथी वधारे बलवान् साथे सरसाई अने स्त्रीजननो विश्वास-ए चार मृत्युना द्वार छे. १८ अतिभुक्तवतां पुंसां चिंतारहितचेतसाम् । अतिप्रवासश्रांतानां निदाहि सुलभा मता॥१९॥ मावार्थ-अति भोजन करनारा, चिंतारहित मनवाळा अने बहु प्रवास (पंथ ) करतां श्रमित थयेला एवा पुरुषोने निद्रा तरत आवी जाय छे. १९ अपरीक्ष्य न कुर्वीत मर्मज्ञं स्वानुजीवितम् । मर्मज्ञो दुर्जनो लोकः संतापयति सजनम् ॥२०॥ भावार्थ-सुज्ञ जनोओ पूर्ण विचार कर्या विना मर्म. ज्ञने सेवक न करवो; कारण के तेम करतां मर्मज्ञ दुर्जनो सज्जनने संतापे छे. २० Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (<) अन्यायोपार्जितं द्रव्यं दश वर्षाणि तिष्ठति । प्राप्ते चैकादशे वर्षे समूलं च विनश्यति ॥ २१ ॥ भावार्थ — अन्यायथी पेदा करेलुं धन मात्र दश वरसज घरमां टकी शके छे. अगीयारमुं वरस थतां समूळ नष्ट थाय छे. २१ अनर्घ्यमपि माणिक्यं हेमाश्रयमपेक्षते । अनाश्रया न शोभंते पंडिता वनिता लताः॥२२॥ भावार्थ - अमूल्य माणिक्य ( माणेक ) ने सुवर्णनो आश्रय लेवानी जरूर पडे छे. पंडितो, स्त्रीओ, अने लताओ आश्रय विना शोभतां नथी. २२ अजरामरवत्प्राज्ञो विद्यामर्थं च चिंतयेत् । गृहीत इव केशेषु मृत्युना धर्ममाचरेत् ॥ २३ ॥ भावार्थ - विद्या अने वित्त मेळवतां सुज्ञ पुरुषे 'हुं अजर-अमर छु' एम चिंतवनुं अने धर्म साधती वखते 'मृत्यु जाणे आवने केश पकड्या छे' एम विचारखुं. २३ अहो दुर्जनसंसर्गान्मानहानिः पदे पदे । पावको लोहसंगेन मुद्गरैरभिहन्यते ॥ २४ ॥ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९.) भावार्थ-अहो! दुर्जनना संगथी पगले पगले अपमान थाय छे. लोहना संगथी अग्निने मुद्गरनो मार खावो पडे छे. २४ अल्पानामपि वस्तूनां संहतिः कार्यसाधिका। तृणैर्गुरुत्वमापन्न-बध्यते मत्तदंतिनः ॥२५॥ भावार्थ-अल्प (तुच्छ) वस्तुओने पण एकत्र करतां ते एक कार्य साधनारी थई पडे छे. जुओ घणा तणखलां एकठां करी दोरडं बनावतां तेनाथी मदोन्मत्त हाथीओ बंधाय छे. २५ अवश्यं यातारश्चिरतरमुषित्वापि विषया वियोगे को भेदस्त्यजति न जनो यत्स्वयममुम् । बजंतः स्वातंत्र्यादतुलपरितापाय मनसः स्वयं त्यक्ता ह्येते शमसुखमनंतं विदधति ॥२६॥ . भावार्थ-लांबो वखत रहीने पण विषयो छेवटे जवाना तो अवश्य छेज. तो पछी तेनो वियोग थतां भेद शो छे.? कारण के जो लोको तेनो त्याग न तो विषयो पोते तेनो त्याग करे छ, अने स्वतंत्रपणा Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १० ) थी जतां विषयो मनने बहुज संताप उपजावे छे. पण जो पोते तेने तजी दीधा होय, तो अनंत शमसुख प्राप्त थाय छे. २६ अशनं मे वसनं मे जाया मे बंधुवर्गो मे । इति मे मे कुर्वाणं कालवृको हंति पुरुषाजम् ॥ २७॥ भावार्थ - - मारुं भोजन, मारां वस्त्रो, मारूं मकान, मारी स्त्री, मारा बांधवो, एम मारूं मा करतां पुरुषरूप बकराने कालरूप वरू मारी नाखे छे. २७ अपदो दूरगामी च साक्षरो न च पंडितः । अमुखः स्फुटवक्ता च यो जानाति स पंडितः ॥ २८ भावार्थ- पग विना जे दूर गमन करे छे, साक्षर छतां जे पंडित नथी अने मुखरहित छतां जे स्फुट वक्ता छे-आ समस्याने जाणे ते पंडित समजवो (कागळ ) २८ अहो नु कष्टं सततं प्रवासस्ततो तिकृष्टं परगैहवासः । कष्टाधिका नीचजनस्य सेवा ततोऽतिकष्टं धनहीनता च ॥ २९ ॥ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११ ) भावार्थ - अहो ! सतत प्रवास-ए पण एक कष्ट छे, ते करतां परघर रहेवुं - ए ते करतां वधारे कष्ट छे, नीच नरनी सेवा करवी - ए अधिक कष्ट छे, अने धनहीन जीवन गुजारवुं - ए वधारामां वधारे कष्ट छे. २९ अनुचितफलाभिलाषी दैवेन निवार्यते बलात्पुरुषः । द्राक्षाविपाकसमये मुखरोगो भवति : काकानाम् ॥ ३० ॥ भावार्थ - अनुचित फलना अभिलाषी पुरुषने दैव बलात्कारथी अटकावे छे. द्राक्षाफळना पाकवखते कागडाओना मुखमां रोग थाय छे. ३० अर्थानामर्जने दुःख - - मर्जितानां च रक्षणे । आये दुःखं व्यये दुःखं धिगर्थं दुःखभाजनम् ॥३१॥ भावार्थ - धनने पेदा करवामां जेम दुःख छे, तेनुं रक्षण करवामां पण दुःख छे. अहो ! द्रव्य मळे के जाय तो पण दुःखज छे. माटे दुःखभाजन एवा धनने धिःकार थाओ. ३१ अनंतैः पार्थिवैर्भुक्ता कालेनोव धनानि च । मेलितानि परं त्यक्त्वा गतास्ते स्वकृतैः सह ॥ ३२॥ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) भावार्थ — अवसर जतां संख्याबंध राजाओंए आ वसुधाने भोगवी अने धन एकतुं कर्यु, परंतु तेओ बधा ते पृथ्वी अने धननो त्याग करीने पोताना कर्मो साथे चाल्या गया. ३२ . अवंशपतितो राजा मूर्खपुत्रो हि पंडितः । अधनेन धनं प्राप्तं, तृणवन्मन्यते जगत् ॥ ३३ ॥ भावार्थ - अकुलीन राजा, पंडित थयेल मूर्खपुत्र, अने धनने पामेल निर्धन - ए जगतने तृणवत् माने छे. ३३ अतिसंचयकर्तॄणां वित्तमन्यस्य कारणम् । अन्यैः संचीयते यत्ना--न्मध्वन्यैः परिभुज्यते ३४ भावार्थ - अति संचय करनाराओनुं धन बीजाना उपभोगमां आवे छे. जुओ परिश्रम वेठीने मक्षिकाओ मधनो संचय करे छे अने तेनो उपभोग अन्य जनो करे छे. ३४ अहो दारिद्यमाहात्म्यं यस्य पंचानुजीविनः । ऋणं दौर्भाग्यमालस्यं बुभुक्षापत्य संततिः॥३५॥ भावार्थ - अहो ! दारिद्र्यनुं माहात्म्य तो जुओ के Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३) जेनी पाछळ ऋण, दौर्भाग्य, आलस्य, क्षुधा अने बहु संतति-ए पांच लागेलाज छे. ३५ __ अदत्तदानाच्च भवेद्दरिदी दरिदभावाद्वितनोति पापम् । पापं हि कृत्वा नरकं प्रयाति पुनर्दरिदी पुनरेव पापी ॥ ३६॥ भावार्थ-अदत्तदान (चोरी) थी प्राणी दरिद्र थाय छे, दरिद्रताथी ते पाप करे छे, पाप करवाथी ते नरके जाय छे. एटले पुनः दरिद्री अने पापी थाय छे. ३६ अधमा धनमिच्छंति धनमानौ च मध्यमाः। उत्तमा मानमिच्छंतिमानो हि महतां धनम् ३७ 'भावार्थ-अधम जनो मात्र धननेज इच्छे छे, मध्यम जनो धन अने मान-बन्नेने इच्छे छे, उत्तम जनो मात्र माननेज चाहे छे, कारण के महापुरुषो माननेज पो; तानुं धन माने छे. ३७ अहो अहीनामपि खेलनेभ्यो दुःखानि दूरं नृपसेवनानि । एकोऽहि ना मृत्युमुपैति दष्टः सपुत्रपात्रस्तु नृपेण दृष्टः ॥ ३८ ॥ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) - भावार्थ-अहो ! सर्पना साथे रमवा करतां पण राजानी सेवा वधारे भयंकर होय छे. कारण के सर्प दशे तो एकनुंज मरण थाय, अने राजाना दशवाथी पुत्रपौत्रसहित मरणने शरण थर्बु पडे छे. ३८ अर्थातुराणां न सुहन्न बंधुः क्षुधातुराणां न वपुर्न तेजः । कामातुराणां न भयं न लज्जा चिंतातुराणां न सुखं न निदा ॥ ३९॥ भावार्थ-धनलुब्ध जनाने कोइ मित्र के बंधु होतो नथी, क्षुधातुरने शरीर के तेज न होय, कामातुरने भय के लाज न होय अने चिंतातुरने सुख के निद्रा न होय.३९ अर्था नराणां पतिरंगनानां वर्षा नदीनामृतुराद तरूणाम् । सद्धर्मचारी नृपतिः प्रजानां गतं गतं यौवनमानयंति॥४०॥ भावार्थ-धन पुरुषना गयेल यौवनने पार्छ लावे छ, पति स्त्रीना,वर्षा नदीओना, वसंतऋतु वृक्षोना अने सद्धर्मचारीराजा प्रजाना गत यौवनने पार्छ सतेज करे छे. अनादरो विलंबश्च वैमुख्यं विप्रियं वचः॥ पश्चात्तापश्च पंचामी सदानं दूषयंति हि ॥४१॥ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ--अनादर, विलंब, विमुखपणुं, अप्रिय वचन अने पश्चात्ताप ए पांच सुपात्रदानने दूषित करे छे. ४१ अंगजाताद्विनश्यति केऽपि दुष्टवणादिव । फलात्कर्षाधव इव लभंते ताडनां परे ॥४२॥ भावार्थ-दुष्ट वणना जेम पोताना संतानथी केटलाक नष्ट थाय छे अने केटलाक बोरडीनी जेम ताडनाने सहन करे छे. ४२ अपरीक्ष्यातं प्रांते विशीर्ण कूटहेमवत् । कलत्रं क्लेशयत्येव नरं सर्वस्वनाशतः॥४३॥ भावार्थ--बराबर तपास कर्या विना स्वीकारेल स्त्री प्रांते सर्वस्वनो नाश थतां नकली सुवर्णनी जेम ते पुरुपने क्लेशकारी थाय.छे. ४३ अमुच्यमाना ज्वलिता-लानवत्तापहेतवः। नार्योऽनार्योंचिता दूरे विमुक्ता यैजयंतु ते॥४४॥ भावार्थ-अनार्य जनोने उचित एवी स्त्रीओने न मूकवाथी ते बळता थांभलानी जेम तापकारी थाय छे. जेमणे एमनो दूरथी त्याग कर्यो छे.तेओ जयवंत रहो.४४ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६ ) अभूत्प्रभुप्रसादेऽपि नायं न्यायविवर्जितः । राजमानोऽप्यमर्यादा यादोनाथो भवेत्किमु ४५ भावार्थ -- प्रभुनो प्रसाद छतां ते न्यायरहित पुरुष न थयो. बहु पाणी आवतां पण शुं समुद्र मर्यादारहित बने ? ४५ अस्ताघे श्रुतपाथोधौ निलीनं मीनवन्मनः । अशकध्ध्वंसकः काम-बकस्तस्य न घर्षितम् ॥४६॥ भावार्थ - ज्यारे पुरुषनुं मन अगाध श्रुतसागरमां मीननी जेम लीन थई जाय छे. त्यारे कामरूप क्रूर बगलो तेना पर तराप मारी शकतो नथी. ४६ अंगं गलितं पलितं मुंडं दशनविहीनं जातं तुंडम् | वृद्धो याति गृहीत्वा दंडं तदपि न मुंचत्याशापिंडम् भावार्थ - अहो ! अंग गळी गयुं, माथे केश बधाश्वेत थया, दांत पडी गया अने चालतां लाकडी लेवी पडे छे-छतां जीवने आशा मूकती नथी. ४७ अनुकूले विधौ देयं यतः पूरयिता हरिः । प्रतिकूले विधौ देयं यतः सर्वं हरिष्यति ॥ ४८ ॥ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७ ) भावार्थ - देव अनुरूप होय, त्यारे दान आपवु, कारण के हरि पोते आपशे अने जो दैव प्रतिकूळ, होय तो पण दान आपवुं. कारण के मळेल पण हाथमांथी चाल्युं जशे . ४८ अनित्यानि शरीराणि विभवो नैव शाश्वतः । नित्यं संनिहितो मृत्युः कर्तव्यो धर्मसंग्रहः ॥४९॥ भावार्थ - शरीर अनित्य छे, वैभव शाश्वत नथी अने मृत्यु दिवसे दिवसे पासे आवतुं जाय छे; माटे धर्मनो संचय करवो उचित छे. ४९ अतिकुपिता अपि सुजना योगेन मृदूभवंति न तु नीचाः । हेम्नः कठिनस्यापि द्रवणोपायोऽस्ति न तृणानाम् ॥ ५० ॥ भावार्थ- सज्जन पुरुषो अति कोपायमान थया छतां कई उपायथी शांत (मृदु ) थाय छे. पण नीच जनो कोमल थता नथी. सुवर्ण कठिन छतां तेने गाळवानो इलाज छे, पण तृणने गाळवानो उपाय नथी. ५० अहो राहुः कथं क्रूर-चंद्रं गिलति मुंचति । गिलंति न हि मुंचति दुर्जनाः सज्जनत्रजम् ॥५१॥ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८) भावार्थ-अहो! राहुने क्रूर केम कही शकाय कारण के ते चंद्रने गळीने मूकी दे छे. परंतु दुर्जनो सज्जनोने गळतां ( सतावतां) मूकता नथी. ५१ ___ अण्वपि गुणाय गुणिनां महदपि दोषाय दोषिणां सुकृतम् । तृणमपि दुग्धाय गवां दुग्धमपि विषाय सर्पाणाम् ॥५२॥ भावार्थ-गुणी जनोने अल्प पण वधारे गुणकारी थाय छे अने दोषी जनोने बहु पण केवळ दोषना निमित्तभूत थाय छे. गायोने घास दूधरूप थाय छे अने सोने दुध झेररूप थाय छे. ५२ अनृतं साहसं माया मूर्खत्वमतिलोभता। अशौचत्वं निर्दयत्वं स्त्रीणां दोषाःस्वभावजाः ५३ भावार्थ-असत्य, साहस, माया, मूर्खता, अति लोभ, अपवित्रता अने क्रूरता-ए दोषो स्त्रीओमां स्वभावथीज सिद्ध होय छे. ५३ अजीर्णं तपसः क्रोधो ज्ञानाजीर्णमहंकृतिः। परतापिक्रिया जीर्ण-मन्ना जीर्णं विसूचिका ॥५४ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९ ) भावार्थ - तपनुं अजीर्ण क्रोध, ज्ञाननुं अजीर्ण अहंकार, क्रियानुं अजीर्ण परताप ( परनिंदा ) अने अन्ननुं अजीर्ण विसूचिका कहेवाय छे. ५४ अपकारिषु मा पापं चिंतयस्व कदाचन । स्वयमेव पतिष्यंति कूलजाता इव द्रुमाः ॥ ५५ ॥ भावार्थ -- हे जीव ! अपकारी जनो उपर तूं कदापि बुरुं चिंतवीश नही. कारण के तेओ तटपरना वृक्षोनी जेम स्वयमेव पतित थइ जशे . ५५ अंगनानामिवांगानि गोप्यंते स्वगुणा यदा । तदा ते स्पृहणीयाः स्यु- स्तदा चात्यंतनिर्मलाः ५६ भावार्थ - स्त्रीओना शरीरनी जेम जो स्वगुणो गोपववामां आवे, तोज ते स्पृहणीय अने अत्यंत निर्मळ रही शके छे. ५६ अमृतं शिशिरे वन्हि - रमृतं क्षीरभोजनम् । अमृतं राजसन्मान-ममृतं प्रियदर्शनम् ॥ ५७ ॥ भावार्थ -- शियाळामां अग्निं अमृत समान लागे छे, भूखे लाने क्षीरभोजन, राजसन्मान अने प्रिय जनोनो भेळाप ए चार अमृत समान कहेल छे. ५७ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०) अनभ्यासे विषं शास्त्र-मजीर्णे भोजनं विषम् । विषंगोष्ठी दरिद्रस्य वृद्धस्य तरुणी विषम् ॥५०॥ ___ भावार्थ--अभ्यास विना शास्त्र विष समान छे, अजीर्षपर भोजन, दरिद्रनी गोष्ठी बोलवू अने वृद्ध पुरुषने तरुणस्त्री विषसमान छे. ५८ अलसो मंदबुद्धिश्च सुखितो व्याधितस्तथा। निदालःकामुकश्वेति षडेते शास्त्रवर्जिताः ॥५९॥ भावार्थ-आलसु, मंदबुद्धि, सुखी, रोगी, निद्रालु अने कामी-ए छ प्रकारना जनो शास्त्ररहित भणवामां अयोग्य होय छे. ५९ ___ अभालस्य भाले कथं पट्टबंधः अकणे अनेत्रे कथं गीतनृत्यम् । अकंठस्य कंठे कथं पुष्पमाला अपादस्य पादे कथं मे प्रणामः ॥ ६ ॥ भावार्थ-जेने भाल नथी तेना ललाटपर पट्टबंध शीतेि रहे, जेना नेत्र अने कर्ण नथी, तेनी आगळ नृत्य अने गीत केम थाय, जेने कंठ नथी, तेना गळामा पुष्पमाळा शी रीते आरोपण थाय अने जेना चरण नथी, तेना पगे प्रणाम केम थाय ? ६० Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१ ) अपवित्रः पवित्रः स्या - हासो विश्वेशतां भजेत् । मूर्खो लभेत ज्ञानानि मंक्षु दीक्षाप्रसादतः ॥ ६१ ॥ भावार्थ - अहो ! दीक्षाना प्रसादथी अपवित्र प्राणी सत्वर पावन थाय छे, दास सर्वोत्कृष्ट थाय छे, अने मूर्ख - एक सारो ज्ञानी थई जाय छे. ६१ अभ्रच्छाया तृणादग्निः खले प्रीतिः स्थले जलम् । वेश्यारागः कुमित्रं च षडेते बुबुदोपमाः ॥ ६२ ॥ भावार्थ - वादळानी छाया तणखलानो अग्नि, खलनी प्रीप्ति, स्थलमां जळ, वेश्यानो राग अने कुमित्र ए छए पाणीना परपोटा समान विनश्वर होय छे. ६२ अर्थनाशं मनस्तापं गृहे दुश्चरितानि च । वंचनं चापमानं च मतिमान्न प्रकाशयेत् ॥ ६३॥ भावार्थ - - द्रव्यनो नाश, मननो संताप, घरना दुराचरण, वंचन ( छेतराया ते ) अने अपमान - आटली वातो सुज्ञजने क्यां प्रगट न करवी. ६३ अग्निरापः स्त्रियो मूर्खाः सर्पो राजकुलानि च । नित्यं यत्नेन सेव्यानि सद्यः प्राणहराणि पद ६४ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२ ) भावार्थ -- अग्नि, जळ, स्त्री, मूर्ख, सर्प, राजकुळ - ए बहु संतापथी सेववा लायक छे. कारण के ए छए तरत प्राण हरनारा छे. ६४ अग्निर्विप्रो यमो राजा समुद्रमुदरं गृहम् । एतानि न च पूर्यते पूर्यमाणानि नित्यशः ॥ ६५ ॥ भावार्थ - - अग्नि, ब्राह्मण, यम, राजा, समुद्र, उदर अने घर - एमने निरंतर पूरवा छतां ते पूराता नथी. ६५ असारस्य पदार्थस्य प्रायेणाडंबरो महान् । न हि स्वर्णे ध्वनिस्तादृक यादृक्कांस्येऽभिवीक्ष्यते ॥ ६६ ॥ भावार्थ - प्रायः असार पदार्थनो आडंबर मोटो होय. जुओ सुवर्ण करतां कांसामां अवाज वधारे जीवामां आवशे. ६६ अंके स्थितापि युवतिः परिरक्षणीया संसेवितोऽपि नृपतिः परिशंकनीयः । शास्त्रं सुनिश्चितधिया परिचिंतनीयं शास्त्रे नृपे च युवतौ च कुतो वशत्वम् ॥ ६७ ॥ भावार्थ - उत्संग ( खोला) माँ स्थित छतां स्त्रीनी Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३ ) रक्षा करवी, सारीरीते सेव्या छतां राजाथी सदा शंकता रहेवुं अने निश्चित बुद्धिथी शास्त्रनुं चिंतवन करवुं. कारण के शास्त्र, राजा अने स्त्रीमां वशत्व ( वशपणं ) क्यांथी ? ६७ अविनीतभृत्यजनो नृपतिरदाता शठानि मित्राणि । अविनयवती च भार्या मस्तकशूलानि चत्वारि ॥ ६८ ॥ भावार्थ -- अविनीत नोकर कृपण राजा, शठ ( लुच्चा ) मित्रो अने अविनीत स्त्री- ए चारे मस्तकना शूळरूप समजवा. ६८ अमौलिदेहमस्तंभं गेहं रूपमयौवनम् । अवृतिक्षेत्रमस्वामि - सैन्यं कुलमनंगजम् ॥ ६९ ॥ अस्मृतिश्रुतिरज्ञानं व्रतं धनमनर्जनम् । अमूलः पादपो धर्मो विनश्यत्यदयस्तथा ॥ ७० ॥ भावार्थ -- मस्तक विनानुं शरीर, स्तंभ विनानुं घर, यौवन विनानुं रूप, वाड विनानुं क्षेत्र, स्वामी विनानुं सैन्य, पुत्र विनानुं कुल, स्मृति विनानुं शास्त्र, ज्ञान Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४) विनानुं व्रत, पेदाश विनानुं धन, 'मूळ विनानुं वृक्ष अने दया विनानो धर्म-सत्वर विनष्ट थाय छे.६९/७० अहो मोहाजनो जन्मजराचं दूषणवजम् ।। न पश्यति भवे कामी कलत्र इव दुर्नयम् ॥७१॥ भावार्थ-अहो ! मोहनी प्रबळताथी लोको कामी पुरुष स्त्रीना दुराचरणनी जेम संसारमा जन्म जरादि दूषणोने जोइ शकता नथी. ७१ अज्ञानतिमिरांधानां ज्ञानांजनशलाकया। चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥७२॥ भावार्थ-अज्ञानरूप तिमिरथी अंध बनेला जीवोना जेणे ज्ञानरूप अंजनशळीथी नेत्रो उघाड्याछे एवा श्रीगुरुने नमस्कार छे. __ अतिपरिचयादवज्ञा संततगमनादनादरो भवति । मलये भिल्लपुरांधि-श्चंदनतरुकाष्ठमिंधनं कुरुते ॥ ७३॥ . भावार्थ-अतिपरिचय करवाथी अवज्ञा थाय छे, अने कोईने त्यां निरंतर गमन करवाथी अनादर थाय Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५ ) छे, जुओ, मलयाचलमां भीलडीओ चंदनना काष्ठने इंधण तरीके वापरे छे. ७३ अनंतपारं किल शब्दशास्त्रं स्वल्पं तथायुर्बहवश्व विघ्नाः । सारं ततो ग्राह्यमपास्य फल्गु हंसयथा क्षीरमिवांबुमध्यात् ॥ ७४ ॥ भावार्थ — शब्दशास्त्रनो पार आवे तेम नथी अने आयुष्य तो अल्प छे वळी तेमां पण विघ्नो घणा छे; माटे हंस जेम पाणीमांथी दूध लई ले, तेम सुज्ञ जनोए असारनो त्याग करीने तेमांथी ग्राह्य सारनो स्वीकार करी लेवो. ७४ अनेकसंशयोच्छेदि परोक्षार्थस्य दर्शकम् । सर्वस्य लोचनं शास्त्रं यस्य नास्त्यंध एव सः ७५ भावार्थ – अनेक संशयाने छेदनार परोक्ष वस्तुने दर्शावनार तथा सर्वना लोचन समान एवं शास्त्र जेनी पासे नथी - ते खरेखरा अंध समानज छे. ७५ अर्थेन किं कृपणहस्तमुपागतेन शास्त्रेण किं बहुशठाचरणाश्रितेन । रूपेण किं गुणपराक्रमवर्जितेन मित्रेण किं व्यसनकालमनागतेन ॥७६॥ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) भावार्थ-कृपणने हाथ चडेल धनथी शुं ? बहुज प्रपंची आचरण करवामां आवे तो शास्त्रथी शुं ? गुण के पराक्रमरहित रूपथी शुं ? अने आपत्ति वखते मदद न आपे तो तेवा मित्रथी शुं ? ७६ __ अवसरपठितं सर्व सुभाषितत्वं प्रयात्यसूक्तमपि । क्षुधि कदशनमपि नितरां भोक्तुः संपबते स्वादु ॥ ७७ ॥ ____भावार्थ--अवसरे बोलवामां आवेल खराब बोल पण सारा लागे छे, ज्यारे क्षुधा लागे, त्यारे खानारने खराब भोजन पण बहुज स्वादिष्ट लागे छे. ७७ अपूर्वः कोऽपि कोशोऽयं विद्यते तव भारती। व्ययतो वृद्धिमायाति क्षयमायाति संचयात् ७८ __ भावार्थ हे भारती! तारो मंडार कोइ अपूर्वज लागे छे के जेनो व्यय करवाथी वृद्धि पामे छे अने संचय करवाथी क्षय पामे छे. ७८ अनपेक्षितगुरुवचना सर्वान् ग्रंथीन विभेदयति सम्यक् । प्रकटयति पररहस्यं विमर्शशक्तिनिजा जयति ॥ ७९ ॥ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७ ) भावार्थ - ज्यां गुरुवचननी अपेक्षा नथी अने जे अंतरनी सर्व ग्रंथि ( गांठ ) ने बराजर भेदीने परम रहस्यने प्रगटावे छे एवी विमर्श ( विचार ) शक्ति जयवंत वरते छे. ७९ अज्ञः सुखमाराध्यः सुखतरमाराध्यते विशेषज्ञः । ज्ञानलवदुर्विदग्धं बह्मापि नरं न रंजयति ॥ ८० ॥ भावार्थ - अज्ञ पुरुष सुखे समजी शके छे, अने विशेषज्ञ तो बहुज सहेलाईथी समजी शके छे, परंतु जे ज्ञानलवथी अर्धदग्ध छे, तेवा पुरुषने ब्रह्मा पण समजावी शके नहि. ८० अविनयभुवामज्ञानानां शमाय भवन्नपि प्रकृतिकुटिलाद्विद्याभ्यासः खलत्वविवृद्धये । फणिभयभृतामस्तूच्छेदक्षमस्तमसामसौ विषधरफणारत्नालोको भयं तु भृशायते ॥ ८१ ॥ भावार्थ - अविनयना स्थानरूप एवा अज्ञानने दूर करनार होवा छतां, स्वभावे कुटिलपासेथी विद्याभ्यास करतां खळपणानो वधारो थाय छे. जो के सर्पनी फ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८ ) णामां रहेल रत्ननो प्रकाश, सर्प समान भयंकर एवा अंधकारने दूर करे छे, छतां तेमां भय तो बहुज रहेल छे. अपेक्षते न च स्नेहं न पात्रं न दशांतरम् । सदा लोकहिते युक्ता रत्नदीपा इवोत्तमाः ॥ ८२ ॥ भावार्थ - स्नेहनी जे अपेक्षा करता नथी, तेमज पात्रके दशांतरने पण जे जोता नथी तेमज निरंतर लोकहितमा नियुक्त एवा सज्जनो रत्नना दीवा जेवा होय छे. ८२ अप्रियवचनदरिद्वैः प्रियवचनाढ्यैः स्वदारपरितुष्टैः। परपरिवादनिवृत्तैः कचित्क्वचिन्मंडिता वसुधा ॥ ८३ ॥ भावार्थ - अप्रिय वचन न बोलनारा, प्रिय वचन बोलवामां सदा तत्पर, स्वद्वारा संतोषी अने परनिंदाथी निवृत्त थयेला एवा नररत्नोथीज आ वसुधा कंइ विभूषित थयेल छे. ८३ अपि विभवविहीनः प्रच्युतो वा स्वदेशान्नहि खलजनसेवां प्रार्थयत्युन्नतात्मा ॥ तनु तृण Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२९) मुपभुक्ते न क्षुधात्र्तोऽपि सिंहः पिबति रुधिरमुष्णं प्रायशः कुंजराणाम् ॥ ८४॥ भावार्थ-उन्नतात्मा पुरुष धनहीन होय वा स्वदेशथी भ्रष्ट थयेल होय छतां ते दुर्जन सेवानो स्वीकार करवा चाहता नथी. कारण के सिंह क्षुधाथी पीडित छतां ते लेश पण घासनी दरकार न करतां प्रायः हस्तीओना उष्ण रुधिरने पीये छे. ८४ । __ असाधुः साधुर्वा भवति खलु जात्यैव पुरुषो न संगाद्दौर्जन्यं न हि सुजनता कस्यचिदपि । प्ररूढे संसर्गे मणिभुजगयोर्जन्मजनिते मणि हेर्दोषान् स्पृशति न तु सर्पो मणिगुणान् ॥८५॥ __ भावार्थ-पुरुष पोतानी जातिने लीधेज सज्जन के दुर्जन बने छे, पण संगथी कोईने सुजनता के दुर्जनता प्राप्त थती नथी. कारण के मणि अने सर्पनो, जन्मथी संसर्ग होवा छतां सर्पना दोष मणिमां आवता नथी अने मणिना गुण सर्पमा आवता नथी. ८५ अत्यार्यमतिदातार-मतिशूरमतिव्रतम् । प्रज्ञाभिमानिनं चैव श्रीयानोपसर्पति ॥८६॥ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०) भावार्थ-पोतानी मर्यादाने मुकी देनार, अति दातार, अति शूर, व्रतनुं उलंघन करनार तथा पोतानी प्रज्ञानुं अभिमान करनार-अवा पुरुष पासे जाणे भय पामती होय-तेम लक्ष्मी आवती नथी. ८६ अर्थार्थी जीवलोकोऽयं श्मशानमपि सेवते। जनितारमपि त्यक्त्वा निःस्वं गच्छति दूरतः८७ • भावार्थ-लोको द्रव्यना लोभथी श्मशानने पण सेवे छे, अने पोतानो पिता पण जो निर्धन होय, तो तेनो दूरथीज त्याग करी दे छे. ८७ ___ अयश्चणकचर्वणं फणिफणामणे:कर्षणं करेण गिरितोलनं जलनिधेः पदा लंघनम् । प्रसुप्तहरिबोधनं निशितखड्गसंस्पर्शनं कदाचिदखिलं भवेन्न च शठाइनस्यार्जनम् ॥ ८८॥ __ भावार्थ-कदाच लोखंडना चणा चवाय, सर्पनी फणामांथी माणि खेंची शकाय, हाथथी पर्वत तोली शकाय, कदाच पगे समुद्रनुं उल्लंघन थाय, सुता सिंहने जगाडी शकाय अने तीक्ष्ण खड्नो स्पर्श पण कदाच Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३१) थाय, तथापि शठ जनपासेथी धनोपार्जन तो कदापि नज थइ शके ८८ अर्थी करोति दैन्यं लब्धार्थो गर्वमपरितोषं च । नष्टधनश्च सशोकं सुखमास्ते निःस्पृहः पुरुषः९९ भावार्थ--ज्यांसुधी पुरुषने धननो लोभ होय, त्यांसुधी ते दीन बने छे, धन मळ्या पछी ते गर्विष्ठ अने असंतोषी थाय छे, अने धननो नाश थतां ते शोकमां गरकाव थई जाय छे. आ उपरथी एम लागे छे के जगतमां निःस्पृह पुरुषज सुखी छे. ८९ अदोहः सर्वभूतेषु कर्मणा मनसा गिरा । अनुग्रहश्च दानं च शीलमेतद्विदुर्जनाः ॥ ९० ॥ भावार्थ--मन, वचन अने कर्मथी सर्व प्राणीओपर अद्रोह, अनुग्रह अने दान-एने शिष्ट जनोए सदाचार कहेल छे. ९० अकुलीनः कुलीनश्च मर्यादा यो न लंघयेत् । धर्मापेक्षी मृदुतिः स कुलीनशतैर्वरम् ॥ ९१॥ भावार्थ--पोते अकुलीन (सारा कुलमा उत्पन्न Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२) थयेल न होय) के कुलीन होय छतां मर्यादानो त्याग न करे, धर्मनी अपेक्षा करे तथा कोमळ अने जितेंद्रिय होय-ते सेंकडा कुलीनो करतां वधारे कुलीन छे.९१ अश्वः शस्त्रं शास्त्रं वीणा वाणी नरश्च नारी च । पुरुषविशेष प्राप्ता भवंति योग्या अयोग्याश्च ९२ भावार्थ--अश्व, शस्त्र, शास्त्र, वीणा, वाणी, नर अने नारी-ए पुरुष विशेषने पामीने योग्य के अयोग्य थाय छे. ९२ अघटितघटितं घटयति सुघटितघटितानि दुर्घटीकुरुते । विधिरेव तानि घटयति यानि पुमान्नैव चिंतयति ॥ ९३॥ भावार्थ-जे कार्य बनवू बहु मुश्कल छ तेने दैव सुगम करी आपे छे, अने जे सुगम रीते थई शके तेने ते दुर्घट करी दे छे. जे पुरुषना ख्यालमांज नथी तेवां कार्योने पण विधाता घटित करी दे छे. ९३ । असंभवं हेममृगस्य जन्म तथापि रामो लुलुभे मृगाय॥ प्रायःसमापनविपत्तिकाले धियोऽपि पुंसां मलिना भवंति ॥ ९४॥ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३ ) भावार्थ - जगतमां सुवर्णमृगनो जन्म थवो खरेखर !! असंभवित छे. तथापि राम तेने माटे मोह पाम्यो आथी एम लागे छे के ज्यारे विपत्तिकाल समीप आवे छे, त्यारे पुरुषोनी मति मलिन थई जाय छे. ९४ अयुक्तं बहु भाषते यत्र कुत्रापि शेरते । नग्मा विक्षिप्य गात्राणि बालका इव मद्यपाः ९५ भावार्थ - मद्यपान करनारा लोको बालकोनी जेम बहुज अयुक्त बोल्या करे छे, ज्यां त्यां सूवे छे अने अवयवाने विक्षिप्त करी नग्न थईने तेओ ज्यां त्यां पड्या रहे छे. ९५ अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम् । उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुंबकम् ॥ ९६ ॥ भावार्थ-आ मारुं अने आ पारकुं-एवी गणना तो हलका मनवाळा पुरुषोनेज होय छे. परंतु उदार पुरुष तो समस्त वसुधाने पोताना कुटंब समानज गणे छे. ९६ अविद्वानपि भूपाल विद्यावृद्धोपसेवया । परां श्रियमवाप्नोति जलासन्नतरुर्यथा ॥ ९७ ॥ ३ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४) मावार्थ-राजा पोते कदाच अविद्वान् होय छतां विद्यावृद्ध पुरुषनी सेवा करवाथी ते परम संपत्तिने पामे छे. जुओ, जलनी समर्मापे रहेल वृक्ष सदा रमणीयज रहे छे. ९७ अनुगंतुं सतां वर्त्म कृत्स्नं यदि न शक्यते। स्वल्पमप्यनुगंतव्यं मार्गस्थो नाक्सीदति॥९८॥ भावार्थ--सज्जन पुरुषोना मार्गनुं सर्वथा कदाच अनुगमन न थइ शके तो किंचित् पण तेनुं अनुकरण करवु योग्य छे. कारण के मार्गस्थ पुरुष सदिातो नथी ९८ अजायुद्धमृषिश्राद्धं प्रभाते मेघडंबरम् । दंपत्योः कलहश्चैव परिणामे न किंचन ॥ ९९ ॥ __ भावार्थ-अजा (बकरा) ओनुं युद्ध ऋषियोनुं श्राद्ध, प्रभाते वरसादनो आडंबर अने दंपतीवच्चे कलह-एर्नु परिणाम कांड न मळे. ९९ अतिदानाद् बलिर्बद्धो ह्यतिमानात्सुयोधनः। विनष्टो रावणो लौल्या-दति सर्वत्र वर्जयेत् १०० __ भावार्थ-अतिदान थी बलिराजाने बंधावू पडयुं अतिमानथी सुयोधन हेरान थयो अने अति लोलुपता Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५ ) श्री रावण विनष्ट थयो. माटे अतिनो सर्वत्र त्याग करवो. १०० अवृत्तिकं त्यजेद्देशं वृत्तिं सोपद्रवां त्यजेत् । त्यजेन्मायाविनं मित्रं धनं प्राणहरं त्यजेत् ॥ १०१ ॥ भावार्थ - ज्यां पोतानुं गुजरान न चाली शके तेवा देशनो त्याग करवो, ज्यां घणी मुश्केलीथी अथवा तो उपद्रवयुक्त पोतानुं गुजरान चाली शके तेवा स्थाननो, कपटी मित्रनो अने प्राणने हरण करनार धननो त्याग करवो. १०१ अलिरनुसरति परिमलं लक्ष्मरिनुसरति नयगुणसमृद्धिम् । निम्नमनुसरति सलिलं विधिलिखितं बुद्धिरनुसरति ॥ १०२ ॥ भावार्थ - भमरो, सुगंधने अनुसरे छे, लक्ष्मी, न्याय अने गुणोनी समृद्धिने अनुसरे छे, पाणी, नीचाण भागने अनुसरे छे अने बुद्धि, विधिना लेखने अनुसरे छे. १०२ अप्रतिबुद्धे श्रोतरि वक्तुर्वाक्यं प्रयाति वैफ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६ ) ल्यम् । नयनविहीने भर्त्तरि लावण्यमिवेह खंजनाक्षीणाम् ॥ १०३ ॥ भावार्थ — जो श्रोता प्रतिबोध न पामे, तो वक्तार्नु वाक्य निष्फळ थाय छे. कारण के जो पति नेत्रहीन होय - तो स्त्रीओनुं लावण्य शा कामनुं ? १०३ असती भवति सलज्जा क्षारं नीरं च शीतलं भवति । दंभी भवति विवेकी प्रियवक्ता भवति धूर्तजनः ॥ १०४ ॥ भावार्थ - असती ( कुलटा ) प्रायः सलज्ज होय छे, खारुं पाणी वधारे शीतल होय, कपटी वधारे विवेकी होय अने धूर्त्त जन मीढुं बोलनार होय छे. १०४ असितगिरिसमं स्यात्कज्जलं सिंधुपात्रे सुरतरुवरशाखालेखिनी पत्रमुर्वी । लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालं तदपि तव गुणानां नाथ पारं न याति ॥ १०५ ॥ भावार्थ - मेरु पर्वत समान काजळना ढगने समु द्वरूप खडीयामां नाखीने शाही बनावीए, कल्पवृक्षनी Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७ ) शाखांनी कलम बनाववामां आवे अने वसुधाने पत्र ( कागळ ) बनाववामां आवे अने ए साधनोथी सरस्वती पोते तैयार थईने सदाकाळ लख्या करे तथापि हे भगवन् ! आपना गुणोनो पार पामी न शकाय. १०५ अचिंतितानि दुःखानि यथैवायांति देहिनाम् । सुखान्यपि तथा मन्ये दैवमत्रातिरिच्यते ॥ १०६ ।। - भावार्थ —— जेम प्राणीओना माथे अणधार्यां दुःखो आवी पडे छे-तेम सुखो पण अणधार्यांज प्राप्त थाय छे, एम समजी शकाय छे-अहीं दैवज प्रधान छे. १०६ अयाचितः सुखं दत्ते याचितश्च न यच्छति । सर्वस्वं चापि हरते विधिरुच्छृंखलो नृणाम्॥१०७ भावार्थ - विधाता खरेखर उच्छृंखल लागे छे. कारण के ते कोइवार माग्या विना सुख आपे छे अने मागतां नथी आपतो अने वळी कोई वार सर्वस्व हरी पण ले छे. १०७ अर्थेन तु विहीनस्य पुरुषस्याल्पमेधसः । क्रियाः सर्वा विनश्यंति गीष्मे कुसरितो यथा१०८ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८ ) भावार्थ - धनहनि अने अल्पमतिवाळा पुरुषनी बधी क्रियाओ उनाळामां जेम साधारण नदीओ सुकाईं जाय छे. तेम ते नष्ट थई जाय छे. १०८ अवद्यमुक्ते पथि यः प्रवर्त्तते प्रवर्त्तयत्यन्यजनं च निःस्पृहः । स एव सेव्यः स्वहितैषिणा गुरुः स्वयं तरंस्तारयितुं क्षमः परम् ॥ १०९ ॥ भावार्थ - जे निर्दोष मार्गमां पोते प्रवृत्त छे अने पोते निःस्पृह थईने जे अन्य जनोने तेवा मार्गमां प्रवर्त्तावे छे. पोतानुं कल्याण इच्छनार भव्य जीवे तेवा गुरुनी भक्ति करवी. कारण के ते पोते तरतां अन्यने तारवाने पण समर्थ होय छे. १०९ अकरुणत्वमकारणविग्रहः परधने परयोपिति च स्पृहा । सुजनबंधुजनेष्वसहिष्णुता प्रकृतिसिद्धमिदं हि दुरात्मनाम् ॥ ११० ॥ भावार्थ – निर्दयता, अकारण कलह, परधन अने परस्त्रीनी इच्छा, स्वजनसंबंधीओमां इर्ष्या करवी -ए दूषणो दुरात्माओमां स्वभावसिद्ध होय छे. ११० Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३९) अवश्यंभाविभावानां प्रतिकारो भवेद्यदि। तदा दुःखै लिप्येरन् नलरामयुधिष्ठिराः॥११॥ भावार्थ--अवश्य थनार भाविभावनो जो प्रतिकार होय, तो नल, राम अने युधिष्ठिरने दुःखो पण सहन करवां पडत नहि. १११ अकर्त्तव्येष्वसाध्वीव तृष्णा प्रेरयते जनम् । तमेव सर्वपापेभ्यो लज्जा मातेव रक्षति ॥११२॥ __ भावार्थ-कुलटानी जेमतृष्णा, लोकोने अकार्योमां प्रेरणा करे छे अने मातानी जेम लज्जा सर्वपापोथी तेनुं रक्षण करे छे. ११२ अकारणाविष्कृतवैरदारुणादसजनात्कस्य भयं न जायते । विषं महाहेरिव तस्य दुर्वचः सुदुःसहं संनिहितं सदा मुखे ॥१३॥ भावार्थ-कारण विना प्रगट करेल वैरथी दारुण एवा दुर्जनथी कोने भय उत्पन्न न थाय ! कारण के महा सर्पनी जेम तेना मुखमां सदा दुर्वचनरूप दुःसह विष भरेलुज छे. ११३ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४० ) अंतर्विषमया ह्येता बहिश्चैव मनोरमाः । गुंजाफलसमाकाराः स्वाभावादेव योषितः॥११४॥ भावार्थ - अहो ! स्त्रीओ स्वभावथीज चणोठीनी जेम मात्र बहारथी मनोहर देखाय छे, पण अंतरमां खरेखर ते विषमय छे. ११४ अकृत्यं मन्यते कृत्यं अगम्यं मन्यते सुगम । अभक्ष्यं मन्यते भक्ष्यं स्त्रीवाक्यप्रेरितो नरः ॥११५॥ भावार्थ — स्त्रीना वचनथी प्रेरायेलो पुरुष, अकृत्यने कृत्य माने छे, अगम्यने गम्य माने छे अने अभक्ष्यने ते भक्ष्य माने छे. ११५ अलसस्य कुतो विद्या अविद्यस्य कुतो धनम् । अधनस्य कुतो मित्र - ममित्रस्य कुतः सुखम् ११६ भावार्थ - आलसुने विद्या क्यांथी, अज्ञानने धन क्यांथी, निर्धनने मित्र क्यांथी अने मित्रहीनने सुख क्यांथी ? ११६ अरावप्युचितं कार्य - मातिथ्यं गृहमागते । छेत्तुमप्यागते छायां नोपसंहरते द्रुमः ॥ ११७ ॥ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४१ ) भावार्थ - शत्रु पण घरे आवे तो तेनुं उचित आतिथ्य करवुज जोईए जुओ, वृक्ष, पोताने छेदवा आवेल माणसपरथी पोतानी छाया खेंची लेतो नथी. ११७ अतिथिर्बालकः पत्नी जननी जनकस्तथा । पंचैते गृहिणा पोप्या इतरे च स्वशक्तितः ॥११८॥ भावार्थ- पोतानी शक्ति होय तो अन्यनुं पोषण करवुं, परंतु अतिथि, बालक, पत्नी जननी अने पिताए पंचनुं तो गृहस्थने अवश्य पोषण करवानुं छे. ११८ अधना धनमिच्छंति वादमिच्छंति गर्विताः । मानवाः स्वर्गमिच्छंति मोक्षमिच्छंति देवताः ११९ भावार्थ – धनहीन जनो धनने इच्छे छे, गर्विष्ठ जनो वादने इच्छे छे, मनुष्यो स्वर्गने इच्छे छे अने देवताओ मोक्षने इच्छे छे. ११९ अनर्थित्वान्मनुष्याणां भयात्परिजनस्य च । मर्यादायाममर्यादाः स्त्रियस्तिष्ठति सर्वदा ॥ १२०॥ C भावार्थ - मनुष्य ने अनर्थ करनार होवाथी, परिजनोने भय उपजावनार होवाथी तथा पोतानी मर्या Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४२ ) दामां अमर्यादितपणे चालवाथी स्त्रीओ सदा हीनोपमामांज रहे छे. १२० अपंडितास्ते पुरुषा मता मे ये स्त्रीषु च श्रीषु च विश्वसंति । श्रियोहि कुर्वंति तथैव नार्यो भुजंगकन्यापरिसर्पणानि ॥ १२१ ॥ भावार्थ - जे पुरुषो लक्ष्मी तथा स्त्रीओमां विश्वास बांधे छे-ते खरेखर अज्ञ जनो छे. भुजंगकन्यानी जेम लक्ष्मी चपळ (वक्र) होय छे तेम स्त्रीओ पण चंचळज होय छे. १२९ 4 अन्यं मनुष्यं हृदयेन कृत्वा अन्यं ततो दृष्टिभिराह्वयति । अन्यत्र मुंचंति मदप्रसेकमन्यं शरीरेण च कामयते ॥ १२२ ॥ भावार्थ - अहो ! स्त्रीओनी कुटिलता तो जुओ के जेओ हृदयम एकने धारण करे छे, नजरथी बीजाने निहाले छे, वीजा उपर कटाक्षपात करे छे अने अन्यनी साथे ते भोग भोगववा तैयार थाय छे. १२२ अग्राह्यं हृदयं तथैव वदनं यद्दर्पणांतर्गत भावः पर्वतसुक्ष्ममार्गविषमः स्त्रीणां न विज्ञायते । चित्तं Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४३) पुष्करपत्रतोयतरलं विद्वद्भिराशंसितं नारी नाम विषांकुरैरिव लता दोपैः समं वर्धिताः ।। १२३॥ भावार्थ-दर्पणनी अंदर प्रतिबिंबित थयेल स्त्री-. ओनुं वदन अने मुख-ए खरखर अग्राह्य छे. वली पर्वतमा आवेल सुक्ष्म मार्गनी जेम विषम एवो स्त्रीओनो भाव तो जाणी शकातोज नथी. तेमज तेमनुं चित्त तो जाणे कमळना पत्रपर जळबिंदु होय, तेवू चपळ कहेवामां आवेल छे. अहो ! विषलतानी जेम स्त्रीओ दोषोनी साथे साथेज वृद्धि पामी होय तेम लागे छे.१२३ __ अभ्युत्थानमुपागते गृहपतौ तद्भाषणे नम्रता तत्पादार्पितदृष्टिरासनविधिस्तस्योपचर्या स्वयम्। सुप्ते तत्र शयीत तत्पथमतो जह्याच्च शय्यामिति प्राच्यैः पुत्रि निवेदितः कुलवधूसिद्धांतधर्मागमः॥१२४॥ भावार्थ--पोतानो पति घर आवे त्यारे अभ्युत्थान करवू, बोलवामां तेनी सामे नम्रता दर्शाववी तेना चर-. Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४४ ) मां दृष्टि थापवी, आसन आपकुं, तेनी सेवा करवी, ते शयन करे त्यारे पोते सुबुं अने तेनी पहेलां, जाग्रत थ - ए प्रमाणे हे पुत्री ! पूर्वपुरुषोओ ए कुलीन कांताओना सिद्धांतना धर्मागम कहेल छे, १२४ अधिकारात्रिभिर्मासैर्महापापात्रिभिर्दिनैः । शीघ्रं नरकवांछा चे-हिनमेकं पुरोहितः ॥ १२५ ॥ भावार्थ - अधिकारथी ऋण महिनामां अने महापापथी त्रण दिवसमां नरक मळे. छतां शीघ्र जो नरकनी इच्छा होय तो एक दिवस पुरोहित थवुं. १२५ अजातमृतमूर्खाणां वरमाद्यौ न चांतिमः । सकृद्दुःख करावाद्या-वंतिमस्तु पदे पदे ॥ १२६ ॥ भावार्थ - जन्म न पामेल, मरण पामेल अने मूर्ख - ए aण प्रकारना पुत्र मां प्रथमना बे सारा कहेल छे अने छेवटनो सारो नहि. कारण के प्रथमना तो मात्र एकज वार दुख आपे छे अने छेवटनो ( मूर्ख) तो पगले पगले दुःखदायक थइ पडे छे. १२६ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४५) आदरेण यथा स्तौति धनवंतं धनेच्छया। तथा चेद्विश्वकर्तारं को न मुंचति बंधनात ॥॥ भावार्थ-जेम धनजी इच्छाथी माणस धनवंतने आदरथी आराधे छे, तेम जो भगवंतने भजे तो कोण संसारथी मुक्त न थाय ? १ आज्ञाभंगो नरेंद्राणां गुरूणां मानमर्दनम् । वृत्तिच्छेदश्च विप्राणामशस्त्रो वध उच्यते ॥२॥ भावार्थ--राजाओनी आज्ञानो भंग करवो, गुरु (वडील)नु अपमान कर, अने ब्राह्मणोनी आजीविकानो उच्छेद करवो-ए शस्त्ररहित वध गणाय छे. २ आचारः कुलमाख्याति वपुराख्याति भोजनम् । संभ्रमः स्नेहमाख्याति देशमाख्याति भाषितम् ३ __ भावार्थ--आचारथी कुल समजाय छे. शरीरथी भोजन, संभ्रम (विलास) थी स्नेह अने भाषाथी देश समजाय छे.३ आर्ता देवान्नमस्यंति तपः कुर्वति रोगिणः। निर्धना विनयं यांति क्षीणदेहाः सुशीलिनः॥४॥ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६) भावार्थ--आर्त्तजनो देवीने नमे छे, रोगी जनो तप करे छे, निर्धनो विनयी होय छे अने कृश (क्षीण देहवाला जनो सुशील होय छे. ४ आयुषो राजचित्तस्य पिशुनस्य धनस्य च । खलस्नेहस्य देहस्य नास्ति कालो विकुर्वतः॥५॥ भावार्थ-आयुष्य, राजचित्त, पिशुन,धन,दुर्जन नेह तथा देह-अमने बदली जतां वखत लागतो नथी. ५ आयु कर्म च वित्तंच विद्या निधनमेव च । पंचैतानि हि सृज्यंते गर्भस्थस्यैव देहिनः ॥६॥ भावार्थ--आयु, कर्म, धन, विद्या अने मरण ए पांच, गर्भमां आवतांज प्राणीनी साथे सरजाय छे. ६ आचार्येषु नटे धूर्ते व्यासवेश्याबहुश्रुते । पदसुमाया न कर्त्तव्या माया तत्रैव निर्मिता॥७॥ भावार्थ--आचार्य, नट, धूर्त, व्यास, वेश्या अने बहुश्रुत ए छ प्रकारना पुरुषो साथे माया (कपट) न करवी. कारण के माया त्यां निर्मितज होय छे. ७ आत्मबुद्धिः शरीरादौ यस्य स्यादात्मविभ्रमात् । बहिरात्मा स विज्ञेयो मोहनीस्तत्र चेतनः॥८॥ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४७) भावार्थ-आत्मानी भ्रांतिथी जेने शरीरादिकमां आत्मबुद्धि होय. ते जीव बहिरात्मा जाणवो. कारण के त्यां मोहनीय कर्मनो सद्भाव होय छे, ८ आरोग्यभाग्यसौभाग्य-रूपभूपादिसंपदः। कृपालुतालतायाः स्यात् पुष्पौधो निर्वृतिः फलम् भावार्थ-आरोग्य, भाग्य, सौभाग्य, रूप अने राज्य विगेरेनी संपत्ति-ए बधादयारूप लताना पुष्पोसमजवा, अने मोक्ष-ए तेनुं फल छे. ९ आवर्तः संशयानामविनयभवनं पत्तनं साहसानां दोषाणां संनिधानं कपटशतमयं क्षेत्रमप्रत्ययानाम् । स्वर्गद्वारस्य विनो नरकपुरमुख सर्वमायाकरंडं स्त्रीयंत्र केन स्रष्टं विषममृतमयं प्राणिनामेकपाशः ॥१०॥ भावार्थ-संशयोना आवर्त (घुमरी ) रूप, अविनयना भवनरूप, साहसना नगररूप, दोषोना भंडाररूप, सेंकडो कपटयुक्त, अविश्वासना क्षेत्ररूप, स्वर्गद्वारना विघ्नरूप, नरक-नगरना मुखरूप, सर्व मायाना करंडीयारूप अने प्राणीओने एक पाशरूप एवं आ स्त्रीरूप Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४८ ) यंत्र कोणे बनावेल छे, के जे विषमय छतां अमृतमय भासे छे. १० आपदि मित्रपरीक्षा शूरपरीक्षा रणांगणे भवति । विनये वंशपरीक्षा स्त्रियः परीक्षा निर्धने पुंसि ॥ ११ ॥ भावार्थ- आपत्तिमां मित्रनी परीक्षा थाय छे, रणांगणमां शूरनी परीक्षा, विनयथी वंशनी परीक्षा अने पुरुष निर्धन थतां स्त्रीनी परीक्षा थाय छे. ११ प्रारभ्य ह्यल्पमेवाज्ञाः कामं व्यग्रा भवंति च । महारंभाः कृतधिय-स्तिष्ठति च निराकुलाः॥१२॥ भावार्थ-अज्ञ जनो अल्प कार्यनो आरंभ करतां पण अत्यंत व्यग्र बनी जाय छे अने बुद्धिमंत जनो मोटा कामनो आरंभ करतां पण निराकुल रहे छे. १२ आरभ्यते न खलु विघ्नभयेन नीचैः प्रारभ्य विघ्नविहता विरमंति मध्याः । विघ्नैः पुनः पुनरपि प्रतिहन्यमानाः प्रारब्धमुत्तमजना न परित्यजंति ॥ १३ ॥ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४९) भावार्थ-कायर जनो विघ्नना भयने लीघे कार्यनो आरंभज करता नथी, साधारण जनो विनोथी हताश थईने कार्यथी विराम पामे छे, पण उत्तम जनो वारंवार विनोथी पराभव पामतां पण आरंभेल कार्यनो कदापि त्याग करता नथी. १३ आज्ञा कीर्तिः पालनं सज्जनानां दानं भोगो मित्रसंरक्षणं च । येषामेते पदगुणाश्च प्रवृत्ताः कोऽर्थस्तेषां पार्थिवोपाश्रयेण ॥१४॥ ___ मावार्थ-आज्ञा, कार्ति, सज्जन पालन, दान, भोग। अने मित्र-संरक्षण ए छ गुणो जेमने छ, तेमने राजानो आश्रय लेवानी शी जरुर छ ? १४ __ आदित्यस्य गतागतैरहरहः संक्षीयते जीवितं व्यापारैर्बहुकार्यभारगुरुभिः कालोन विज्ञायते। दृष्ट्वा जन्मजराविपत्तिमरणं त्रासश्च नोत्पद्यते पीत्वा मोहमयी प्रमादमदिरामुन्मत्तभूतं जगत्१५ भावार्थ-दररोज सूर्यना गमनागमनथी जीवित क्षय थतुं जाय छे, मोटा व्यापारमा व्यग्र थतां जतो Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५० ) चखत जणातो नथी, जन्म, जरा, विपत्ति अने मरण जोइने पण त्रास थतो नथी. अहो ! खरेखर ! महा मोहरूप प्रबळ मदिराना पानथी आ जगत् बहुज उन्मत्त बनी गयुं छे. १५ आयुर्वर्षशतं नृणां परिमितं रात्रौ तदर्थं गतं तस्यार्धस्य परस्य चार्धमपरं बालत्ववृद्धत्वयोः । शेषं व्याधिवियोगदुःखसहितं सेवादिभिनयते वेगे वारितरंगबुद्बुदचले सौख्यं कुतः प्राणिनाम्॥ भावार्थ - बहु तो मनुष्यनुं आयु सो वरसनुं गणाय. तेमांथी अर्ध आयु रात्रिनुं चाल्युं जाय, अने बाकीना अर्धमांथी बालपणुं अने वृद्धपणुं बाद करतां चतुर्थांश रहे. ते पण व्याधि, वियोग, दुःख अने सेवादिकथी समाप्त थाय छे. अहो ! जलतरंगना परपोटा समान चंचल एवा आ संसारमां प्राणीओने सुखज कयां छे ! आशा नाम मनुष्याणां काचिदाश्चर्यशृंखला | यया बद्धाः प्रधावंति मुक्तास्तिष्ठति पंगुवत्॥१७॥ भावार्थ - अहो ! आशा - ए मनुष्योने कोइ विचित्र Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५१) प्रकारनीज शृंखला छे. जेनाथी बद्ध थयेला माणसो दोडता फरे छे अने अनाथी मुक्त थयेला पंगुनी जेम बेसी रहे छे. १७. ___ आरंभगुर्वी क्षयिणी क्रमेण लघ्वी पुरा वृद्धिमती च पश्चात् । दिनस्य पूर्वाईपराईभिन्ना छायव मैत्री खलसज्जनानाम् ॥१८॥ भावार्थ-जेम दिवसना पूर्वभागनी छाया प्रथम मोटी अने पछी आस्ते आस्ते नानी थती जाय छे अने बपोर पछी प्रथम नानी अने पछी आस्ते आस्ते मोटी थती जाय छे, तेम दुर्जन अने सज्जनोनी मित्रता समजवी एटले दुर्जननी मैत्री अनुक्रमे ओछी थती जाय अने सज्जननी मैत्री अनुक्रमे वृद्धि पामती जाय छे. १८ आशाया ये दासा-स्ते दासाःसंति सर्व लोकस्य। आशा येषां दासी तेषां दासायतेलोकः ॥१९॥ __भावार्थ-जेओ आशाना दास छे, तेओ सर्व लोकना दास छे, अने जेमणे आशाने दासी बनावी छे, तेमनी आगळ लोको दास थइने रहे छे. १९ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५२) आकारैरिंगितैर्गत्या चेष्टया भाषणेन च। नेत्रवत्रविकारैश्च लक्ष्यतेऽतर्गतं मनः ॥ २० ॥ . भावार्थ-आकार, इंगित, गति, चेष्टा, भाषण तथा नेत्र अने मुखविकारथी अंतरतुं मन जाणी शकाय छे. २० ___ आहारनिदाभयमैथुनानि सामान्यमेतत्पशुभिर्नराणाम् । ज्ञानं विशेष खलु मानुषाणां ज्ञानेन हीनाः पशवो मनुष्याः॥२१॥ __ भावार्थ-आहार, निद्रा, भय अने मैथुन ए चारे मनुष्यो अने पशुओमां सामान्य होय छे. पण मनुष्योमां ज्ञान अधिक होय छे. जो ज्ञान न होय तो ते पशु समान गणाय छे. २१ । आहारो द्विगुणः स्त्रीणां निदा तासां चतुर्गुणा। षड्गुणो व्यवसायश्च कामश्चाष्टगुणः स्मृतः॥२२॥ भावार्थ-पुरुषो करतां स्त्रीओने बमणो आहार होय, चार गणी निद्रा होय, छ गणो व्यवसाय होय अने आठ गणो काम कहेल छे. २२ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५३) आस्तामपत्यं त्रैलोक्या-धिपत्यमपि दुर्घटम् । न यतः प्रयतस्त्वं तं धर्ममेव विधेहि भोः ॥२३॥ ___ भावार्थ हे जीव, संतान तो शुं परंतु त्रणे लोकनुं स्वामित्व पण दुर्लभ नथी. माटे धर्मनी आराधना कर के जेथी कंइ पण दुर्लभ न थाय. २३ आहारं षड्रसाधारं देहस्थित्यर्थमेव सः। अभुंक्त तृप्तिमापच्च शास्त्रैर्न च रसैः पुनः॥२४॥ __ भावार्थ-संत जनो मात्र देहस्थितिने माटेज षट्रस आहार करे छे, पण तृप्ति तो तेओ षट्रसोथी नहि पण शास्त्ररसथीज तृप्ति पामे छे. १२४ आलयं धीरधर्माणां प्रलयं च कुकर्मणाम् । अशोकानोकहस्याधः साधुमेकं ददर्श सः॥२५॥ भावार्थ-धीर-धर्मना स्थानरूप अने कुकर्मना प्रलयरूप एवा एक साधुने तेणे अशोक वृक्षनी नीचे जोया. २५ आदियंते जडा एव योषितः सुखवांछया। " हुताशनाशया गुंजाः शीतार्ता इव वानराः२६ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५४) भावार्थ-शातात थयेला वानरा जेम अग्मिनी आशाथी चणोठीओनो आश्रय ले, तेम अज्ञ जनो सुखनी वांछाथी स्त्रीओनो आदर करे छे. २६ आस्तां परपुमान्यूना पित्रा भ्रात्रा सुतेन वा । एकाकिना सहैकांते न स्थातव्यं कुलस्त्रिया२७ भावार्थ--युवान पर पुरुष तोशु, पण पोताना पिता, माइ के पुत्र साथे पण कुलीन स्त्रीए एकांतमां बेसवं नहि. २७ आरक्षेण तपसा विकारास्तस्करा इव । यत्पुराहरिता नैव प्रवेष्टुं पुनरीशते ॥ २८॥ भावार्थ-आरक्षक (कोटवाल) जेम चोरोने दूर हांकी काढे, तेम भव्य जीव तपथी विकारोने दूर करे छे के जेथी ते पाछा उद्भवता नथी. २८ आपत्स्वेव हि महतां शक्तिराभिव्यज्यते न संपत्सु । अगुरोस्तथा न गंधःप्रागस्ति यथामिपतितस्य ॥ २९॥ भावार्थ-महापुरुषोनी शक्ति संपत्तिमां नहि पण Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५५) आपत्तिमांज समजी शंकाय छे. जुओ, अगरुनी सुगंध अग्निमां नाख्या पछी जेवी जणाय छे तेवी प्रथम जणाती नथी. २९ आक्रोशितोऽपि सुजनोन वदत्यवाच्यं निष्पीडितो मधुरमुद्वमताक्षुदंडः। नीचो जनो गुणशतै रपि सेव्यमानो हास्येन यद्वदतितत्कलहेऽप्यवाच्यम् ॥ ३० ॥ भावार्थ-सत्पुरुषपर आकोश करतां पण ते कदापि असत्य बोलतो नथी. जुओ, शेलडीना सांठाने पीलतां पण ते मधुर रसने आपे छे. अने नीच जननी अनेक प्रकारे अनुकूल रीते खुशामत करतां पण ते कलहमा जे अवाच्य होय ते हसता हसतां बोली दे छे. ३० आजन्मसिद्ध कौटिल्यं खलस्यच हलस्यच । सोढुं तयोर्मुखाक्षेप-मलमेकैव सा क्षमा ॥३१॥ भावार्थ- खलपुरुष अने हलनुं कौटिल्य जन्मथीज सिद्ध छे. ते बन्नेना मुखना आक्षेपो सहन करबाने एके क्षमा अने पृथ्वी ज समर्थ छे. ३१ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६ ) आपतं हससि किं दविणांध मूढ लक्ष्मीः स्थिरा न भवतीति किमत्र चित्रम् । एतान्प्रपश्यसि घटाञ्जलयंत्रचके रिक्ता भवंति भरिता भरिताश्च रिक्ताः ॥ ३२ ॥ भावार्थ - धनमां अंध बनेला हे मूढ ! निर्धन पुरुघने जोइने तं शामाटे हसे छे. कारण के लक्ष्मी स्थिर कदापि रहेती नथी, तो तेमां आश्चर्य शुं छे ? जुओ, आ जळयंत्र ( अरघट्ट) मां खाली घडा भराय छे अने भरेला खाली थाय छे. ३२ आसे चेत्स्वगृहे कुटुंबभरणं कर्त्तुं न शक्तोऽस्म्यहं सेवे चेत्सुखसाधनं मुनिवनं मुष्णंति मां तस्कराः । श्वभ्रे चेत्स्वतनुं त्यजामि नरकाद्भीरात्महत्यावशान्नो जाने करवाणि दैव किमहं मर्तं न वा जीवितुम् ॥ ३३ ॥ भावार्थ - जो पोताना घरे रहुं हुं तो कुटुंबनुं भरण पोषण करवाने हुँ शक्तिमान् नथी, जो सुखना साध Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५७ ) नरूप एवा मुनिवननुं सेवन करवा जाउं छु, तो तस्करो ( चोरो) मने लुंटी ले छे अने जो आत्महत्याने वश थई पोताना शरीरने पडतुं मूकुं हुं, तो नरकनो भय लागे छे. माटे हे दैव ! मारे मरखुं के जीववुं ते हुं समजी शकतो नथी. ३३ आत्मार्थं जीवलोकेऽस्मिन् को न जीवति मानवः । परं परोपकारार्थं यो जीवति स जीवति ॥ ३४ ॥ भावार्थ — आ जगतमां पोताना स्वार्थनी खातर कयो पुरुष जीवतो नथी ? परंतु परोपकारनी खातर जे जीवे छे. तेज खरी रीते जीवे छे. ३४ आधारो यस्त्रिलोक्या जलधिजलधरार्केदवो यन्नियोज्या भुज्यंते यत्प्रसादादसुरसुरनराधी - श्वरैः संपदस्ताः । आदेश्या यस्य चिंतामणिसुरसुरभिकल्पवृक्षादयस्ते श्रीमाञ्जैनेंदधर्मः किसलयतु स वः शाश्वतीं मोक्षलक्ष्मीम् ॥ ३५ ॥ भावार्थ - जे त्रणे लोकना आधाररूप छे समुद्र, 7 Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५८ ) मेघ, सूर्य अने चंद्र जेनी सदा आज्ञामां रहे छे, जेना प्रसादथी सुरासुर अने राजाओ विविध संपत्तिनो उपभोग करे छे, तथा चिंतामणि, कामधेनु अने कल्पवृक्षादिक जेनी आज्ञा उठाववाने तत्पर छे एवो श्रीजिनेंद्रधर्म, तमोने शाश्वत मोक्षलक्ष्मीना असाधारण कारणभूत थाओ. ३५ इभरथतुरगैः प्रयांति मूढा धनहीना विबुधाः प्रयांति पद्भ्याम् || गिरिशिखरगतापि काकपंक्तिर्नहि तुलनामुपयाति राजहंसैः ॥ १ ॥ मावार्थ - मूढजनो हाथी, अश्व के रथथी प्रयाण करे अने धनहीन विबुध जनो पगे चाले, छतां पर्वतना शिखरपर रहेल कागडाओ जेम राजहंसोनी तुलना न करी शके-तेम तेओ सुज्ञजनोनी बरोबरी करी शकता नथी. १ इक्षुदंडास्तिलाः शूद्राः कांता कांचनमेदिनी । चंदनं दधि तांबूलं मर्दनं गुणवर्धनम् ॥ २ ॥ भावार्थ - शेलडी, तल, शूद्र, कांता, कांचन, वसुधा, चंदन, दहीं अने तांबूल - एने मर्दवाथी तेमां गुण वधे छे. २ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५९ ) इंद्रियाणि पशून्कृत्वा वेदीं कृत्वा तपोमयीम् । अहिंसामाहुतिं कृत्वा आत्मयज्ञं यजाम्यहम् ॥ ३॥ भावार्थ - - इंद्रियाने पशु, तपने वेदिका अने अहिंसाने आहुति बनावीने हुं आत्मयज्ञ करूं छं. ३ इह विश्वजनप्रेय - श्छायानां सर्वशर्मणाम् । धर्मोऽनुपहतो हेतु - बीजं भूमिरुहामिव ॥ ४ ॥ भावार्थ -- आ जगतमां वृक्षोना बीजनी जेम समस्त जनोने अतिप्रिय एवा सर्व सुखोनो एक अखंडित धर्मज हेतु छे. ४ इह लोकसुखे रक्ताः परलोकपराङ्मुखाः । ही कुर्वंति जनाः पापं भवलक्षविनाशकम् ॥ ५ ॥ भावार्थ - अहो ! लोको परलोकथी विमुख थईने मात्र आभवना सुखमां रक्त बनीने पाप करे छे के जेथी तेओ लाखो भवो सुधी दुःख भोगवे छे. ५ इह दुःखं न यः प्राप्तो दुःखं हर्त्तुं न यः क्षमः । दुःखे श्रुतेन यो दुःखी दुःखं किं तस्य कथ्यते ६ ॥ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६० ) भावार्थ — जेणे जगतमां दुःखनो अनुभव कर्यो नथी, जे दुःख दूर करवा समर्थ नथी अने दुःख सांमळतां जे दुःखी न थाय, तेनी पासे दुःख कहेवाथी शो फायदो ? ६ sat कैरविणी aौ कमलिनी धाराधरे बहिणी हंसी तद्विगमे महोदधिजले मत्सी मृगीव स्थले श्रीदेवी भजते मुदं जलशये गौरी गिरीशे तथा स्वच्छंदं रमते विचित्ररुचिकं चेतः कचित्कस्यचित् ॥ ७ ॥ भावार्थ -- चंद्रमां कैरविणी, रविमां कमलिनी, मेघमां मयूरी, मेघाभावमां हंसी, समुद्रजलमां माछली स्थलमां मृगली, विष्णुमां श्रीदेवी, अने महादेकमां गौरी - ओम स्वच्छंदते विचित्र रुचिवालं मन कोइनुं क्यों अने कोइनुं क्यों रम्या करे छे. ७ इदं कृतमिदं कृत्य - मिति ध्यायंत एव हि । आक्रांताः स्मः कथं वैरि-धाट्येव जरयानया ८ भावार्थ - आ कर्तुं अने आ करवानुं छे एवा विचा Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६१) रमां विचारमांज वैरीनी धाडनी जेम आ जराथी अमे केम आक्रात थइ गया छीए. ८ __ इक्षोरयात्कमशः पर्वणि पर्वणि यथा रसविशेषः । तद्वत्सजनमैत्री विपरीतानां तु विपरीता ॥९॥ भावार्थ-शेलडीना सांठामा जेम उपरथी कातळी कातळीए विशेष रस होय-तेम सज्जन जनोनी मैत्री समजवी अने दुर्जनोनी मैत्री ते करतां विपरीत समजवी. ९ इंदात्प्रभुत्वं ज्वलनात्प्रतापं क्रोधो यमाद्वैश्रवणाच्च वित्तम् । पराक्रमं रामजनार्दनाभ्यामादाय राज्ञः क्रियते शरीरम् ॥ १०॥ . भावार्थ-इंद्र पासेथी प्रभुत्व, अग्निपासेथी प्रताप, यमपासेथी क्रोध, कुबेरपासेथी धन तथा राम अने विष्णु पासेथी पराक्रम लईने राजानुं शरीर बनाववामां आवे छे. १० इंदुं निंदति तस्करो गृहपति जारो सुशीलं खलः साध्वीमप्यसती कुलीनमकुलो जहाजरंतं Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६२ ) युवा | विद्यावंतमनक्षरो धनपतिं नीचश्च रूपोज्ज्वलं वैरूप्येण हतः प्रबुद्धमबुधो कृष्टं निकुष्टो जनः ॥ ११ ॥ भावार्थ - तस्कर चंद्रमाने निंदे छे, जार गृहस्थने निंदे छे, दुर्जन सुशीलने अने कुलटा सती ( साध्वी ) ने निंदे छे, अकुलीन कुलीनने अने युवान घरडाने निंदे छे, निरक्षर विद्यावंतने तथा नीच ( दरिद्र ) धनवंतने, कुरूपी रूपवंतने मिंदे छे, तेमज मूर्ख सुज्ञने तथा नीच उच्चनी निंदा करवा मंडी जाय छे. ११ इदमेव नरेंद्राणां स्वर्गद्वारमनर्गलम् । यदात्मनः प्रतिज्ञा च प्रजा च परिपाल्यते ॥ १२ ॥ भावार्थ -- राजाओने अनिवार्य एज स्वर्गद्वार छे के पोतानी प्रतिज्ञा अने प्रजानुं बराबर तेमणे पालन करवुं. १२ इतो न किंचित्परतो न किंचिद्यतो यतो यामि ततो न किंचित । विचार्य पश्यामि जगन्न किंचित स्वात्मावबोधादधिकं न किंचित् ||१३|| Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६३) भावार्थ-अहीं पण कांइ नथी, अने त्यां पण कांड नथी, ज्यां जाउं, त्यां कांइ नथी. विचार करी जोतां जगत पण कांइ नथी अने पोताना आत्मबोध विना बीजुं कांइ अधिक नथी. १३ ____ इयमुन्नतसत्त्वशालिनां महतां कापि कठोरचित्तता । उपकृत्य भवंति दूरतः परतः प्रत्युपकारशंकया ॥१४॥ भावार्थ-अहो! उन्नत अने सत्त्ववंत महापुरुषोना मननी आ पण एक कठोरता छे. कारण के तेओ परोपकार करीने अन्यपासेथी प्रत्युपकारनी शंकाथी तरत दूरज थइ जाय छेः १४ ___ इदं हि माहात्म्यविशेषसूचकं वदंति चिह्न महतां मनीषिणः । मनो यदेषां सुखदुःखसंभवे प्रयाति नो हर्षविषादवश्यताम् ॥१५॥ - भावार्थ-सुज्ञ जनो कहे छे के-महापुरुषोना विशेष माहात्म्यने सूचवनार आ एक मुख्य चिह्न छे, ते ए के तेमने ज्यारे सुख के दुःख उपस्थित थाय, त्यारे तेओ हर्ष के विषादने वश थता नथी. १५ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६४) उद्यमे नास्ति दारिद्यं जपतो नास्ति पातकम्। मौनेन कलहो नास्ति नास्ति च जायतो भयम्॥१॥ __ भावार्थ-उद्यम करतां दारिद्य जाय, जाप करतां पातक जाय, मौन सेवतां कलह न थाय अने जागताने भय न रहे १ ___ उद्योगिनं पुरुषसिंहमुपैति लक्ष्मीर्दैवं प्रधानमिति कापुरुषा वदंति । दैवं विहाय कुरु पौरुषमात्मशक्क्या यत्ने कृते यदि न सिद्धयति कोऽत्र दोषः॥२॥ भावार्थ-लक्ष्मी उद्योगी पुरुषनेज वरे छे. दैव प्रधान छे, एम मात्र कायर पुरुषोज बोले छे. माटे देवने मूकीने आत्मशक्तिथी पुरुषार्थ कर अने यत्न करतां पण कदाच कार्यसिद्धि न थाय, तो तेमा दोष शो छे-तेनी तपास करो. २ उद्योगः कलहः कंडू द्यूतं मयं परस्त्रियः। आहारो मैथनं निदा सेवनानु विवर्धते ॥३॥ भावार्थ-उद्योग, कलह, खंजवाड, द्यूत, मद्य, प. Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६५ ) रखी, आहार, मैथुन अने निद्रा-ए सेववाथी वध्या करे छे. ३ उत्खातं निधिशंकया क्षितितलं ध्माता गिरेर्धातवो निस्तीर्णः सरितां पतिर्नृपतयो यत्नेन संतोषिताः । मंत्राराधनतत्परेण मनसा नीता श्मशाने निशा प्राप्तः काणवराटकोऽपि न मया तृष्णेऽधुना मुंचमाम् ॥ ४ ॥ भावार्थ – निधाननी शंकाथी पृथ्वीतलने खोदी जोयुं, पर्वतनी धातुओने धमी, समुद्र तर्यो, यत्नथी राजाओने संतुष्ट कर्या, अने मंत्राराधनमां तत्पर रहीने रात शमशानमा गाळी - तथापि एक काणी कोडी पण प्राप्त न थई, माटे हे तृष्णा ! हवे मने मूकी दे. ४ उपायात्तीर्यते वार्द्ध-बंध्येते च हरिद्विपौ । उपायाद्विरिरुल्लंघ्यः किं चोपायान्न सिध्यति ५ भावार्थ - उपायथी समुद्र तरी शकाय, सिंह अने हाथी बांधी शकाय अने उपायथी पर्वत ओळंगी शकाय-अहो ! उपायथी शुं सिद्ध थतुं नथी ? ५ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६६ ) उद्यमं कुर्वतां पुंसां भाग्यं सर्वत्र कारणम् । समुद्रमथनाल्लेभे हरिर्लक्ष्मीं हरो विषम् ॥ ६ ॥ भावार्थ — उद्यम करतां पण पुरुषोने लाभालाभनुं कारण भाग्य छे. समुद्रमथन करतां हरिने लक्ष्मी मळी अने शंकरने विष मळ्युं. ६ उत्तमं स्वार्जितं प्रोक्तं मध्यमं पितुरर्जितं । कनिष्ठं भ्रातृवित्तं च स्त्रीवित्तमधमाधमम् ॥ ७॥ भावार्थ- पोते उपार्जन करेल धन उत्तम कहेल छे, पितानुं कमावेल मध्यम, भाइनुं कनिष्ठ अने खीं कमावेल धन अघमाधम कहेल छे. ७ उत्तमस्य क्षणं क्रोधो द्वियामं मध्यमस्य तु । अधमस्य त्वहोरात्रं चिरं क्रोधोऽधमाधमः ॥८॥ भावार्थ - उत्तम पुरुषोने मात्र एक क्षणवार क्रोध रहे, मध्यमने बे पहोर, अधमने अहोरात्र अने अधमाधमने चिरकाल क्रोध रहे छे. ८ उद्यमन हि सिद्ध्यंति कार्याणि न मनोरथैः । नहि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशति मुखे मृगाः ॥ ९ ॥ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६७) मावार्थ--उद्यमथी कार्य सिद्ध थाय छे पण मात्र मनारेथ करवाथी कईं बनतुं नथी कारण के सुतेला सिंहना मुखमां आवीने मृगला पेसता नथी. ९ उपकारिषु यः साधुः साधुत्वे तस्य को गुणः। अपकारिषु यःसाधुःस साधुः सद्भिरुच्यते॥१०॥ __ भावार्थ-उपकारी: जनोपर जे आदर राखे तेना साधुपणानो शो गुण ? पण जे अपकारी जनो पर आदर राखे तेज खरेखर साधुजन-सज्जन कहेवाय छे.१० उदयति यदि भानुः पश्चिमायां दिशायां प्रचलति यदि मेरुः शीततां याति वह्निः। विकसति यदि पमं पर्वताये शिलायां नहि चलति नराणां भाविनी कर्मरेखा ॥११॥ भावार्थ-कदाच पश्चिम दिशामां सूर्य उगे, मेरुपर्वत कदाच चलायमान थाय अग्नि कदाच शीतल थाय, अने पर्वतना अग्रभागपर शिलापर कदाच पद्म विकसित थाय, छतां पण मनुष्योने भावी कर्मरेखा अन्यथा नथी थती. ११ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६८ ) उपकारोऽपि नीचाना - मपकाराय जायते । पयःपानं भुजंगानां केवलं विषवर्धनम् ॥ १२ ॥ भावार्थ - अधम जनोने करेल उपकार पण अपकाररूप थाय छे. सर्पोने दुध पीवरावां तेनाथी विष वधे छे. १२ उत्सवे व्यसने चैव दुर्भिक्षे शत्रुविग्रहे । राजद्वारे श्मशाने च यस्तिष्ठति स बांधवः ॥ १३॥ भावार्थ -- उत्सवमां, संकटमां, दुकालमां शत्रुविग्रहमां, राजद्वारमां अने स्मशानमां जे सहाय करवा आवे-उभो रहे ते बंधु समजवो. १३ उत्तमाः सुखतो बोध्या दुःखतो मध्यमाः पुनः। सुखतो दुःखतो वापि बोधमर्हति नाधमाः ॥ १४ ॥ भावार्थ - - उत्तम जनो सुखे बोध पामी शके, मध्यम जनो दुःखे बोध पामे अने अधम जनो तो सुखे के दुःखे बोधज पामी शकता ( पामवाने लायक ) नथी. १४ उद्यमः साहसं धैर्यं बलं बुद्धिपराक्रमौ । षडेते यस्य विद्यते तस्य देवोऽपि शंकते ॥ १५ ॥ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६९) भावार्थ--उद्यम, साहस, धैर्य, बल, बुद्धि, अने पराक्रम-ए छ गुणो जेनामां छे, तेनाथी देवता पण शंके छे. १५. ___ उत्तिष्ठति निजासनानतशिरः पृच्छंति च स्वागतं संतुष्यंति भजति यांति च चिरं प्रेमोः पमां संगतिम् । सिंचंतो वचनामृतेन सततं संतसमीपागते किंवा न प्रियमप्रियेऽपि हि जने कुर्वति जल्पंति च ॥ १६ ॥ भावार्थ-सज्जन पुरुषो कोइ अप्रिय जन पण योतानी समीपे आवे, तो प्रथम आसन परथी उठी मस्तक नमावे छे, तेने स्वागत पूछे, पोते प्रसन्न थइ चिरकाल प्रेमालाप अने संगत करे, तथा वचनामृतथी तेनुं सिंचन करे. अहो! अथवा तो तेओ शुं प्रिय करता अने बोलता नथी. १६ ___ उपकर्ता स्वतः कश्चि-दपकर्ता च कश्चन । चैत्रस्तरुषु पत्राणि कर्ता हर्ता च फाल्गुनः १७ भावार्थ-कोई स्वतः उपकारी होय छे, अने कोइ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (190) अपकारी होय छे. जुओ चैत्र मास वृक्षोपर पत्रो लावे छे अने फाल्गुन मास ते पत्रोने पाडी नाखे छे. १७ उत्तमैः सह सांगत्यं पंडितैः सह सत्कथा । अलुब्धैः सह मित्रत्वं कुर्वाणो नावसीदति ॥१८॥ भावार्थ — उत्तम जनोनी संगति, पंडितोनी साथे वार्तालाप अने निर्लोभी साथे मित्राई करतां माणस कदी संताप पामतो नथी. १८ उत्पन्नपरितापस्य बुद्धिर्भवति यादृशी । तादृशी यदि पूर्वं स्यात् कस्य स्यान्न समीहितम् १९ भावार्थ- परिताप उत्पन्न थतां जेवी बुद्धि थाय, तेवी जो पूर्वे होय, तो कोने इष्टसिद्धि न थाय ? १९ उपदेशो हि मूर्खाणां प्रकोपाय न शांतये । पयःपानं भुजंगानां केवलं विषवर्धनम् ॥ २० ॥ भावार्थ- मर्ख जनोने उपदेश आपवा जतां ते शांतिने बदले कोष उत्पन्न करे छे. सर्पोने दूध पातां केवळ विष वधे छे. २० उच्चैरध्ययनं चिरंतनकथा स्त्रीभिः सहाला - पनं तासामर्भकलालनं पतिनुतिस्तद्दानमिथ्या Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७१) स्तुतिः । आदेशश्च करावलोकनमथो पांडित्यलेशः कचिद् होरागारुडमंत्रवादविधयो भिक्षोगुणा द्वादश ॥२१॥ ___भावार्थ--उंचेथी भणवू, लांबी कथा करवी, स्त्री ओनी साथे आलाप, तेमना बाळकोने रमाडवा, श्रीमंतने नमस्कार, तेना दाननी मिथ्यास्तुति, आदेश,हस्तावलोकन अने लेश पांडित्य तथा होरा, गारुड मंत्र, वादविगेरे करवू-ए भिक्षुकना बार गुणो कहेला छे.२१, उत्तमोऽप्रार्थितो दत्ते मध्यमः प्रार्थितः खलु। याचकैर्याच्यमानोऽपि दत्ते न त्वधमाधमः॥२२॥ भावार्थ--उम जन माग्या विना आपे छे, मध्यम मागतां आपे छे अने अधमाधम तो याचकोथी याचना कराया छतां दान आपतो नथी. २२ उपकर्ता कलाचार्यो भर्ती माता पिता गुरुः। नैते धिक्कारमर्हति गर्हितानां शतैरपि ॥२३॥ भावार्थ-उपकारी, कलाचार्य, भरण-पोषण करनार, माता, पिता अने गुरु-एओ कदाच सेंकडो अवगुणोसहित होय, तो पण धिक्कारने पात्र नथी. २३ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७२) उद्धता स्वैरचारा च किरती दुर्वचो रजः। तृणं वात्येव दुष्टा स्त्री भ्रमयत्यचिरान्नरम् ॥२४॥ भावार्थ-उद्धत, स्वेच्छाचारिणी, अने दुष्ट वचनरूप रजने नाखती एवी दुष्ट स्त्री, तृणने वंटोळीयानी जेम पुरुषने अतिशय भमावे छे. २४ उदीयाय दिनेशोऽथा-नेशनैशं तमो भुवि । तस्या आस्येऽनपत्यस्य,दुःखोत्थं ववृधे पुनः २५ भावार्थ-सूर्योदय थतां वसुधातलनुं रात्रिसंबंधी अंधकार बधो दूर थई गयो, परंतु तेणीना मुखपर अनपत्यना दुःखथी उत्पन्न थयेल शोक तो वधतोज गयो. २५ ___ उदारा नो दारा विवृतविनया नापि तनया विदग्धा न स्निग्धा द्विरदतुरगा नापि च रमा। नच स्वामी चामीकरनिकरदातापि शरणं विना जैनं धर्मं भवति भवकूपे निपतताम् ॥ २६ ॥ भावार्थ-रूपवती रमणीओ, विनयी पुत्रो, चालाक संबंधीओ, हाथी के अश्वो, लक्ष्मी अथवा बहु धन Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपनार स्वामी ( शेठ) अमांना कोई पण, संसाररूप कुवामां पडता प्राणीओने जैन धर्म विना शरण नथी. २६ उपकामंति बाह्यारी जेतुं जगति जन्मिनः। कामाद्यैर्हतसर्वस्वं न स्वं जाति बालिशा॥२॥ __भावार्थ-अहो! जगतमां प्राणीओ बाह्य शत्रुओने जीतवानो परिश्रम करे छे, पण ते अज्ञ जनो कामादि शत्रुओ पोतानुं सर्वस्व हरी ले छे-ते जाणता नथी. २७ उपकर्तुं प्रियं वक्त कर्तुं स्नेहमकृत्रिमम् । सजनानां स्वभावोऽयं केनेंदुःशिशिरीकृतः॥२८ भावार्थ-उपकार करवो, मधुर बोलवू अने अकृत्रिम (निष्कपट) स्नेह राखवो-ए सज्जनोनो स्वभावज होय छे. जुओ, चंद्रमाने कोणे शीतल बनावेल छे. २८ उत्तमः क्लेशविक्षोभं क्षमः सोढुं न हीतरः। मणिरेव महाशाण-घर्षणं न तु मृत्कणः॥२९॥ भावार्थ-उत्तम पुरुष क्लेशनी तकलीफने सहन क Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७४) रवा समर्थ छे, पण बीजा कोई साधारण माणसथी तेम बनी शकतुं नथी. कारणके मणिज महाशराणना घसाराने सहन करी शके छे पण माटीनो कण शराणने सहन करी शकतो नथी. २९ उपकृति साहसिकतया क्षतिमपि गणयंति नो गुणिनः । जनयंति हि प्रकाश दीपशिखाः स्वांगदान ॥ ३० ॥ भावार्थ - गुणवंत जनो उपकार करवाना साहसि कपणाथी पोताना नुकशाननी कदापि दरकार करता नथी. जुओ, दीपशिखाओ स्वांग ( पोताना अंग ) ने बाळीने पण जगतने प्रकाश आपे छे. ३० उपकर्तुमप्रकाशं क्षंतुं न्यूनेष्वयाचितं दातुम् । अभिसंधातुं च गुणैः शतेषु केचिद्विजानंति ॥ ३१ भावार्थ — उपकारने प्रकाशित न करवो, पोताथी न्यून ( उतरता ) होय - तेमनी उपर क्षमा करवी, याचना विना दान आपवुं अने गुणो साथे जोडाई रहेबुं - ए तो सेंकडो जनोमां कोई विरलाज जाणता हशे. ३१ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७५ ) उत्तिष्ठ क्षणमेकमुद्वह सखे दारिद्र्यभारं मम श्रांतस्तावदहं चिरान्मरणजं सेवे त्वदीयं सुखम् । इत्युक्तं धनवर्जितस्य वचनं श्रुत्वा श्मशाने शवो दारिद्यान्मरणं वरं वरमिति ज्ञात्वैव तूष्णीं स्थितः भावार्थ — कोई निर्धन दरिद्र, एक मुडदाने कहे छे के - हे मित्र ! एक क्षणवार उठ अने आ मारो दारिनो भार उचकी ले. कारण के हुं घणा वखतथी थाकी गयो छु, तेथी तारा मरणना सुखनो हुं अनुभव लउं ए रीते धनहीननुं वचन सांभळीने श्मशानमां पडेल शब ( मुडदुं ) बोल्युं के - ' अहो ! तारा दारिद्र्यथी मारे मरण हजार दरज्जे सारुं छे' एम सांभळीने ते निर्धन गुपचुप थई गयो. ३२ उत्तमा आत्मना ख्याताः पितुः ख्याताश्च मध्यमाः। अधमा मातुलात्ख्याताः श्वशुराच्चाधमाधमाः ३३ भावार्थ — उत्तम जनो पोताना बळथी (गुणोथी) प्रख्यात थाय छे, मध्यम जनो पिताना नामे प्रख्यात थाय छे, अधम जनो मामाना नामथी प्रख्यात थाय छे अने अधमाधम जनो ससराना नामे प्रसिद्धिने पामे छे. ३३ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७६ ) उदये सविता रक्तो रक्तश्चास्तमये तथा । संपत्तौ च विपत्तौ च महतामेकरूपता ॥ ३४॥ भावार्थ - उदय अने अस्त थती वखते जेम सूर्य रक्त- एटले एकरूप होय, तेम महापुरुषो संपत्ति अने विपत्तिमां एकरूपज होय छे. ३४ उदारस्य तृणं वित्तं शूरस्य मरणं तृणम् । विरक्तस्य तृणं भार्या निःस्पृहस्य तृणं जगत् ॥ भावार्थ - उदार पुरुषने धन-ए तणखला समान छे, शूरवीरने मरण तृणसमान छे, विरक्तने स्त्री तृण समान अने निःस्पृहने जगत् तृणसमान छे. ३५ उत्तमं स्वार्जितं भुक्तं मध्यमं पितुरर्जितम् । कनिष्ठं भ्रातृवित्तं च स्त्रीवित्तमधमाधमम् ||३६| हे भावार्थ- पोते कमावेल ( उपार्जन करेल ) धन भोग - ते सर्वोत्तम छे, पितानुं कमावेल धन - मध्यम गणा छे, भानुं धन - कनिष्ठ अने स्त्रीनं कमावेल धन अधमाधम कहेवाय छे. ३६ एते सत्पुरुषाः परार्थघटकाः स्वार्थान्परित्यज्य ये सामान्यास्तु परार्थमुद्यमभृतः स्वार्थाविरो Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७७) धेर्ने ये । तेऽमी मानवराक्षसाः परहित स्वार्थाय निघ्नति ये ये तु नंति निरर्थकं परहितं ते के न जानीमहे ॥१॥ भावार्थ-सत्पुरुषो पोताना स्वार्थनो भोग आपीने परोपकार करे छ, सामान्य जनो पोताना स्वार्थ साथे परहित करे छे, पोताना हितनी खातर परना हितने बगाडे छे-ते नरराक्षसो समजवा अने जेओ निरर्थक परहितने आडे आवे छे एटटुंज नहि पण बगाडे छेतेमने कोण कहेवा-ते अमे समजी शकता नथी. १ एकोऽपि गुणवान्पुत्रो निर्गुणैः किं शतैरपि । एकश्चंदो जगच्चक्षु-नक्षत्रैः किं करिष्यते ॥२॥ भावार्थ-सेंकडो निर्गुणी पुत्री करतां एक गुणी पुत्र सारो. एक चंद्रज जगतना चक्षुरूप छे, नक्षत्रोथी शुं थवानुं छे ? २ एकेनापि सुपुत्रेण सिंही स्वपिति निर्भया । सहैव दशभिः पुत्रै-रिं वहति गर्दभी ॥३॥ भावार्थ-एक सुपुत्रने लीधे सिंहण निर्भय थइने Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७८ ) सुए छे अने गधेडी पोताना दश पुत्रो साथे मार उपाडे छे. ३ एकोदरसमुत्पन्ना एकनक्षत्रजातकाः । न भवंति समाः शीलै - यथा बदरीकंटकाः ॥४॥ भावार्थ - एक उदरमां उत्पन्न थया छतां अने एक नक्षत्रमां जन्म्या छतां बोरडीना कंटकोनी जेम मनुष्योना स्वभाव समान थता नथी. ४ एकोऽहमसहायहं कृशोऽहमपरिच्छदः । स्वप्ने striविधा चिंता मृगेंद्रस्य न जायते ॥ ५ ॥ भावार्थ - ' हुं एकलो, सहायरहित, कृश अने परिवार विनानो छु - एवी चिंता स्वप्ने पण मृगेंद्र ( सिंह ) ने कदापि थती नथी. ५ एकं वस्त्रवलोकनेन वचनेनान्यं परं विभ्रमै - रन्यं भूस्तनदर्शनप्रभृतिभिर्व्यामोहयंति स्त्रियः इत्येवं कुटिलासु कृत्रिमकृत स्नेहासु तास्वप्यलं रे चित्त रतिं करोषि विमुखं सिद्धांगना संगमाव६ भावार्थ - एकने वस्त्रविलोकनथी, बीजाने वचन Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७९) थी, त्रीजाने विलास-विभ्रमथी अने अन्य कोईने भ्रकुटि तथा स्तनादिना दर्शनथी स्त्रीओ अत्यंत मोह पमाडे छे. तो हे चित्त ! आवी कुटिल अने कृत्रिम स्नेहवाळी स्त्रीओमां अत्यंत रति लावीने मुक्तिरूप स्त्रीना संगमथी केम विमुख थतो जाय छे !६. एकेन वनवृक्षेण पुष्पितन सुगंधिना। वासितं तद्वनं सर्वं सुपुत्रेण कुलं यथा ॥ ७॥ __ भावार्थ-जेम सुपुत्रथी कुल वासित थाय, तेम पुष्प तथा सुगंधयुक्त एकज वनवृक्षथी समस्त वन सुवासित थाय छे. ७ एता असारसंसार-जंगलाध्वनिचारिणः । सुखयंति जनान् दृष्टा मिष्टांभः कूपिका इव।।८॥ भावार्थ-मिष्ट जळनी वावडीओनी जेम आ अंगनाओ असार-संसाररूप मार्गमां चालता पुरुषोने सुख पमाडे छे-एम अज्ञ जनो समजे छे. ८ एकांते प्रमदाभोगभागपि ब्रह्मनिर्मलः । स्वयमाश्रवमुख्योऽपि वारिताश्रवविप्लवः ॥९॥ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८०) भावार्थ-अहो! आश्चर्यनी वात छे के ते एकांत प्रमदानो भोगी छतां निर्मळ ब्रह्मचारी हतो अने पोते आश्रवमां मुख्य छतां आश्रवना विप्लव-पराभवने तेणे दूर करले हतो.९ एकः क्षमावतां दोषो द्वितीयो नोपपद्यते । यदेनं क्षमया युक्त-मशक्तं मन्यते जनः॥१०॥ ___ भावार्थ-क्षमावंत जनोमां बीजं कई नहि, पण एक दोष उपस्थित थाय छे, ते ए के लोको क्षमाशीलने अशक्त माने छे. १० एकेन राजहंसेन या शोभा सरसो भवेत् । न सा बकसहस्रेण परितस्तीरवासिना ॥११॥ ___ भावार्थ-एकज राजहंसथी सरोवरनी जे शोभा थाय छे, तेवी शोभा, चारे बाजु तीरपर वसता हजार बगलाओथी थवानी नथी. ११ एकोहि दोषो गुणसंनिपाते निमजतींदोरिति यो बभाषे । न तेन दृष्टं कविना समस्तं दारिद्य• मेकं गुणकोटिहारि ॥ १२॥ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८१) भावार्थ-'जेम चंद्रमामां कलंक ढंकाइ जाय छे, तेम घणा गुणोमां एकाद दोष ढंकाई जाय छे, एम जे कविओ बोली गया छे, तेणे समस्त वस्तुस्थिति जा. णीज नथी. कारण के एक दारिद्य करोडो गुणोनो नाश करे छे. १२ एकेन शुष्कवृक्षण दह्यमानेन वह्निना । दह्यते तदनं सर्वं दुप्पुत्रेण कुलं यथा ॥१३॥ भावार्थ-अग्निथी बळता एक शुष्क वृक्षथी जेम समस्त वन दग्ध थाय छे, तेम दुष्पुत्रथी कुळ पायमाल थाय छे. १३ एकेनापि हि शूरेण पदाक्रांतं महीतलम् । क्रियते भास्करेणेव स्फारस्फुरिततेजसा ॥१४॥ ___ भावार्थ-अत्यंत स्फुरायमान तेजयुक्त एवो एक शूरवीर पण सूर्यनी जेम समस्त महीतलने पोताना पद ( किरण ) थी आक्रांत करे छे. १४ एकचको रथो यंता विकलो विषमा हयाः। आकमत्येव तेजस्वी तथाप्यर्को नभस्तलम्॥१५॥ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८२ ) भावार्थ - पोताना रथनुं एक चक्र छतां, सारथि विकल (पंगु ) छतां अने अश्वो विषम छतां, तेजस्वी सूर्य प्रतिदिन नभस्तलनुं आक्रमण करे छे. १५ एकतश्चतुरो वेदा बह्मचर्यं तथैकतः । एकतः सर्वपापानि मद्यपानं तथैव च ॥ १६ ॥ भावार्थ – एक बाजु चार वेद अने एक बाजु ब्रह्मचर्य ए बने समान छे. तेम एक बाजू सर्व पापो अने एक बाजु मद्यपान - ए बने समान छे. १६ एतदर्थं कुलीनामां नृपाः कुर्वंति संग्रहम् । आदिमध्यावसानेषु न ते यास्यति विक्रियाम् १७ भावार्थ - राजाओ कुलीन जनोनो संग्रह एटला माटेज करे छे के तेओ आदि, मध्य के अंते कदापि पलटता नथी. १७ एताः स्वार्थपरा नार्यः केवलं स्वसुखे रताः । न तासां वल्लभः कोऽपि सुतोऽपि स्वसुखं विना १८ भावार्थ - अहो ! स्वार्थतत्पर आ स्त्रीओ मात्र पोताना सुखमांज रक्त छे. तेमने पोताना सुख विना Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८३) पुत्र पण वल्लभ थतो नथी, तो अन्यनी शी वान करवी ? १८ ऋणकर्ता पिता शत्रु-र्माता च व्यभिचारिणी। भार्या रूपवती शत्रुः पुत्रः शत्रुरपंडितः॥१९॥ भावार्थ-ऋण (करज ) करनार पिता ते शत्रुसमान छ, व्यभिचारिणी माता-शत्रु समान छे, अत्यंत रूपवती स्त्री शत्रुसमान छे अने मूर्ख पुत्र पण शत्रुसमानज छे. १९ ऋणशेषश्चामिशेषः शत्रुशेषस्तथैव च । पुनः पुनः प्रवर्तते तस्माच्छेषं न रक्षयेत् ॥ २० ॥ __ मावार्थ-ऋण (करज) अग्नि अने शत्रु-एमांना जो कोई शेष रही जाय, तो पुनः पुनः ते प्रवर्ते छे. माटे शेषज रहेवा न देवु-ए सर्वोत्तम छे. २० ऐश्वर्यस्य विभूषणं सुजनता शौर्यस्य वाक्संयमो ज्ञानस्योपशमः कुलस्य विनयो वित्तस्य पात्रे व्ययः । अक्रोधस्तपसःक्षमा बलवतां धर्म Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८४) स्य निर्व्याजता सर्वेषामपि सर्वकारणमिदं शीलं परं भूषणम् ॥१॥ भावार्थ-ऐश्वर्य (मोटाई ) नुं भूषण सौजन्य (सुजनता) छे, शौर्यनुं भूषण वाणीनो संयम छे, ज्ञान- भूषण उपशम छे, कुळनुं भूषण विनय छे, धनभूषण सुपात्रदान छे, तपनुं भूषण अक्रोध (क्रोधाभाव) छे, बलवंतोनुं भूषण क्षमा छे, धर्मनुं भूषण निष्कपटता छे-ए रीते सर्वनुं भिन्न भिन्न कारण बतावेल छे, परंतु शील-ए सर्वना परम भूषणरूप छे, एटलुंज नहि, पण सर्वना ते कारणरूप छे. १ ऐश्वर्यं महतां वक्तुं शकेणापि न शक्यते । अनुभूतो घृतास्वादो यथा वक्तुं न शक्यते॥२॥ भावार्थ-अनुभवमां आवेल होय छतां जेम घृतनो स्वाद मुखथी कही न शकाय, तेम महात्माओनुं ऐश्वर्य कहेवाने इंद्र पण शक्तिमान् नथी. २ ऐंदी ही कुंठिता शक्तिः श्रीजिनानां गुणस्तुतौ। दिव्यशक्तिजुषाऽप्येष वार्षिः किं परिमीयते॥शा Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८५) भावार्थ-श्री जिनमगवंतनी यथार्थ रीते स्तुनि करवामां चंद्रनी शक्ति पण कुंठित (अशक्त) थई जाय छे. दिव्य शक्तिने धारण करनार होय-तेनाथी पण शुं समुद्र मापी शकाय? ३ ओंकारं बिंदुसंयुक्तं नित्यं ध्यायति योगिनः। कामदं मोक्षदं चैव ओंकाराय नमो नमः॥१॥ भावार्थ-बिंदुयुक्त ओंकार-के जेनुं योगी जनो निरंतर ध्यान करे छे, जे इच्छाओने पूर्ण करे छे एटलुज नहि, पण जे मोक्षने आपे छे-एवा ओंकारने वारंवार नमस्कार छे. १ ओजस्विनां यथा कार्यं दुःशक्यं नास्ति किंचन। तथैव प्रियवक्तृणां कार्य हि सुकरं मतम् ॥२॥ भावार्थ-जेम ओजस्वी पुरुषोने कंई पण कार्य दुःशक्य नथी, तेम प्रिय बोलनारा जनोने पण बघु कार्य सुगम होय छे. २ . ओष्ठममृतवन्मत्वा स्त्रीणां ये कामप्रेरिताः। . चुंबनाय प्रवर्तते धिक तेषां जीवनं सखे ॥३॥ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८६ ) भावार्थ — जेओ स्त्रीओना ओष्ठने अमृत समान मानीने कामथी प्रेरणा पामतां चुंबन करवाने प्रवर्त्तमान थाय छे. हे मित्र ! तेमना जीवनने धिक्कार छे ॥ ३ ॥ औरसं कृतसंबंधं तथा वंशक्रमागतम् । रक्षकं व्यसनेभ्यश्च मित्रं ज्ञेयं चतुर्विधम् ॥ १ ॥ भावार्थ - औरस ( एक उदरथी उत्पन्न थयेल ), संबंधथी करवामां आवेल, तथा वंशना क्रमे आवेल अने संकटी बचावनार - एम चार प्रकारना मित्र कहे- ' वामां आवेल छे. ॥ १ ॥ औदार्यं प्रभुता धैर्य - मार्जवं मृदुता क्षमा । महतां हितसक्तानां गुणा एते स्वभावजाः ॥ २ ॥ भावार्थ- परोपकार करवामां आसक्त एवा महात्माओमां औदार्य, प्रमुता, धैर्य, सरलता अने मृदुता ( कोमळता) तथा क्षमा ए स्वाभाविक गुणो होय छे. २ औत्सुक्यं किं बिभर्घ्यंगे प्रविलोक्य सुखानि हि । विद्युत्तेजांसि किं ह्यत्र प्रयांति स्थिरतां कदा ||३|| भावार्थ - हे भव्यात्मन् ! आ संसारना विनश्वर Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७) सुखोने जोईने शा माटे फूलीने फांकडो बने छ ? वीजळीनो प्रकाश क्यां स्थिर रही शक्यो छे ? ३ कुसंगासंगदोषेण साधवो यांति विक्रियाम् । एकरात्रिप्रसंगेन काष्ठघंटा विटंबना ॥१॥ ___ भावार्थ-कुसंगना दोषथी साधुओ पण विकारदशाने प्राप्त थाय छे. कारण के एक रात्रिना कुसंगप्रसंगथी गायने काष्ठ-घंटानी विटंबना सहन करवी पडी. १ - कुग्रामवासः कुनरेंद्रसेवा कुभोजनं कोधमुखी च भार्या । पुत्रश्च मूर्यो विधवा च कन्या विनामिना तेऽतिदहंति कायम् ॥२॥ भावार्थ-कुग्राममा वास, खराब राजानी सेवा, खराब भोजन, क्रोधमुखी स्त्री, मूर्ख पुत्र अने जेने विधवा कन्या (पुत्री) होय-तेओ अग्नि विना पोताना शरीरने बाळी नाखे छे. २ कुत्र विधेयो यत्नो विद्याभ्यासे सदौषधे दाने। अवधीरणा व कार्या खलपरयोषित्परधनेषु ॥३॥ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८८) कुत्र विधेयो वासः सजननिकटेऽथवा काश्याम् । कः परिहार्यो देशः पिशुनयुतो लुब्धभूपश्च॥४॥ भावार्थ-यत्न क्यां करवो ? विद्याभ्यास, सारा औषध अने दानमां. अवज्ञा क्यां करवी ? दुर्जन, परस्त्री अने परधनमां. वास क्यां करवो ? सज्जन पासे अथवा काशीमां. कया देशनो त्याग करवो ? ज्यां लुच्चा माणसो होय अने लोभी राजा होय-तेनो. ३४ कुले कलंकोऽपयशः पृथिव्यां मनोनुतापः स्वमहत्वनाशः । जन्मन्यमुष्मिन्नपरत्र सौख्यं द्यूताच्चतुर्वर्गविनाश एव ॥ ५॥ भावार्थ--पोताना कुलने कलंक लागे, जगतमां अपयश फेलाय, मनने संताप थाय, पोताना महत्वनो नाश थाय-एम आ जन्ममां तेम पर जन्ममां पण जेनाथी सुख नज मले, एवा द्यूत (जुगार ) थी खरेखर चारे वर्गोनो नाश थाय छे. ५ कुदेशं च कुवृत्तिं च कुभार्यां कुनदीं तथा । कुदव्यं च कुभोज्यं च वर्जयेत्तु विचक्षणः ॥६॥ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८९) भावार्थ--कुदेश, कुवृत्ति, कुभारजा, कुनदी, कुद्रव्य अने कुभोजन-ए छएनो सुज्ञ जनोए त्याग करवो. ६ कलासीमा काव्यं सकलगुणसीमा वितरणं भये सीमा मृत्युः सकलसुखसीमा सुवदना । तपःसीमा मुक्तिः सकलकृतसीमा श्रुतभृतिः प्रिये सीमाह्लादःश्रवणसुखसीमा जिनकथा॥७॥ भावार्थ--कलाओनी सीमा काव्य, बधा गुणोनी सीमा दान, भयनी सीमा मरण, समस्त सुखनी सीमा सुलक्षणी स्त्री, तपनी सीमा मुक्ति,बधा कार्योनी सीमा ज्ञानाभ्यास, प्रियजननी सीमा आनंद अने श्रवणसुखनी सीमा जिनकथा छे. ७ कूमध्यान्नृपतिर्विनश्यति यतिः संगात्सुतो लालनाद्विषो नाध्ययनात्कुलं कुतनयाच्छीलं खलोपासनात् । ह्रीमद्यादनवेक्षणादपि कृषिः स्नेहः प्रवासाश्रयान् मैत्री चाप्रणयात्समृद्धिरनयात्त्यागात्प्रमादानम् ॥ ८॥ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९०) भावार्थ-कुमंत्रीथी राजा, संगथी यति, लालनथी पुत्र, अनभ्यासथी ब्राह्मण, कुपुत्रथी कुल, दुर्जनोपासनाथी शील, मद्यथी लज्जा, संभाळ न राखवाथी खेती, प्रवासथी स्नेह, अप्रणयथी मैत्री, अनीतिथी समृद्धि अने त्याग तथा प्रमादथी धन विनष्ट थाय छे.८ कृतकर्मक्षयो नास्ति कल्पकोटिशतैरपि। अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम् ॥९॥ भावार्थ सेंकडों के कोटियुगोजतां पण कृतकर्मनो क्षय थतो नथी. करेल शुभाशुभ कर्म अवश्य भोगववांज पडे छे. ९ कचिद्वीणानादः क्वचिदपि च हाहेति रुदितं क्वचिद्विद्वद्गोष्ठी कचिदपि सुरामत्तकलहः । कचिदम्या रामा कचिदपि जराजर्जरतनुर्न जाने संसारः किममृतमयः किं विषमयः ॥१०॥ भावार्थ-क्यांक वीणाना नाद थाय छे अने क्यांक हाहा-एवं रुदन थाय छे, क्यांक विद्वानोनी गोष्ठी चाली रही छे अने क्यांक मदिराथी मदोन्मत्त कलह Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९१ ) चाली रह्यो छे, क्यांक रम्य रमणी छे अने क्यांक जराथी जर्जरित शरीर जोवामां आवे छे. तेथी अहो ! आ संसार अमृतमय छे के विषमय छे, ते समजातुं नथी. १९० कृतार्थः स्वामिनं द्वेष्टि कृतदारस्तु मातरम् । जातापत्या पतिं द्वेष्टि गतरोगश्चिकित्सकम् ॥११॥ भावार्थ - कृतार्थ थयेल पुरुष शेठपर द्वेष करे छे, स्त्री परणतां ते मातापर, संतानवाळी स्त्री पतिपर अने रोगरहित थयेल वैद्यपर द्वेष करे छे. १९ कतौ विवाहे व्यसने रिपुक्षये यशस्करे कर्मणि मित्रसंग्रहे । प्रियासु नारीष्वधनेषु बंधुषु धनक्षये तेषु न गण्यते बुधैः ॥ १२ ॥ भावार्थ - यज्ञमां, विवाहमां, संकटवखते, रिपुक्षयमां कोइ यशस्वी कर्ममां, प्रिय स्त्रीओमां अने निर्धन बांधवोमां - सुज्ञ जनो धननो क्षय थतां तेमने गणता नथी. १२ कचिद्र भूमौ शय्या काचिदपि च पर्यंकशयनं Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९२ ) क्वचिच्छाकाहारी कचिदपि च शाल्योदनरूचिः। कवित्कंथाधारी कचिदपि च दिव्यांबरधरो मनस्वी कार्यार्थी न गणयति दुःखं नच सुखम् १३ भावार्थ - क्यांक भूमिपर शयन करवुं पडे अने क्यांक पलंगमां पोढवानुं मले, क्यांक मात्र शाकनो आहार मळे अने क्यांक ओदन (भात) विगेरे मळे, क्यांक मात्र जीर्ण वस्त्र या गोदडी मळे अने क्यांक दिव्य वस्त्र मळे - छतां कार्यार्थी सज्जन तेवा दुःखसुखने गणतो नथी. १३ किमिच्छति नरः काश्यां भूपानां को रणे हितः । को वंद्यः सर्वदेवानां दीयतामेकमुत्तरम् ॥ १४ ॥ भावार्थ - काशीमां मनुष्य शुं इच्छे ? रणसंग्राममां राजाओनो हितकारी कोण ? अने सर्व देवाने वंद्य कोण ? एनो एक शब्दमां उत्तर आपो. १४ काके शौचं द्यतकारेषु सत्यं सर्पे क्षांतिः स्त्रीषु कामोपशातिः । क्लीवे धैर्यं मद्य तत्त्वचिंता राजा मित्रं केन दृष्टं श्रुतं वा ॥ १५ ॥ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९३) भावार्थ-कागडामां शौच, जुगारीमां सत्य, सर्पमा क्षमा, स्त्रीओमा कामनी शांति, नपुंसकमां धैर्य, मदिरामस्तमां तत्त्वचिंतन अने राजा मित्र-ए कोइए जोयुं के सांभळ्युं छे ? अर्थात् ए गुणो उपरोक्तमां कदापि संभवता नथी. १५ काक आहूयते काकान् याचको न तु याचकान्। काकयाचकयोर्मध्ये वरंकाको न याचकः॥१६॥ __ भावार्थ-कागडो पोतानी जातना कागडाओने बोलावे छे, पण याचक अन्य याचकोने बोलावतों नथी. माटे काग अने याचकमां, याचक करतां काग श्रेष्ठ छे. १६ करे श्लाघ्यस्त्यागः शिरसि गुरुपादप्रणमनं मुखे सत्या वाणी श्रुतमवितथं च श्रवणयोः। हृदि स्वच्छा वृत्तिर्विजयि भुजयोः पौरुषमहो विनाप्यैश्वर्येण प्रकृतिमहतां मंडनमिदम् ॥१७॥ - भावार्थ-हस्तमा उत्तम दान, मस्तके गुरु चरणने प्रणाम, मुखमां सत्य वाणी, श्रवणमां सत्य श्रुत (शास्त्र) Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९४) सांभळवू, अंतरमा स्वच्छ वृत्ति अने बंने भुजामां विजयी पौरुष-अहो ! ऐश्वर्य विना पण महापुरुषोने आ स्वभावथी सिद्ध मंडन छे. १७ । कृत्याकृत्यविभागस्य ज्ञातार स्वयमुत्तमाः। उपदेशे पुनर्मध्या नोपदेशे नराधमाः ॥१८॥ __ भावार्थ-उत्तम जनो कृत्याकृत्यना विभागने पोते जाणे छे, मध्यम जनो उपदेशमां कुशल अने अधम जनो तो उपदेश (कहेवा) मां पण अयोग्य होय छे.१८ कुपात्रे रमते नारी गिरौ वर्षति माधवः। नीचमाश्रयते लक्ष्मीः प्राज्ञः प्रायेण निर्धनः १९ ___ भावार्थ-स्त्री प्राये कुपात्रे रमे छे, वरसाद पर्वतपर वधारे वरसे छे, लक्ष्मी नीचनो आश्रय ले छे अने विद्वान् प्रायः निर्धन होय छे. १९ कुशास्त्रपाठमात्रेण सदा पंडितमानिनः। तत्त्वतो नास्तिकपाया अपात्रमिति शंसिताः २० भावार्थ-कुशास्त्रना पाठमात्रथी सदा पोताने पंडित माननाराओने नास्तिक कह्या छे अने तत्त्वर्थी तेओने कुपात्र कहेवामां आव्या छे. २० Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९५ ) कृपणेन समो दाता न भूतो न भविष्यति । अस्पृशन्नेव वित्तानि यः परेभ्यः प्रयच्छति ॥ २१॥ भावार्थ - कृपणसमान दाता थयो के थवानो पण नथी. कारण के पोताना धनने अड्या शिवाय ते बीजाओने आपी दे छे. २१ कृतकारितानुमति - प्रभेदारंभवर्जिताः । मोक्षैकतानमनसो यतयः पात्रमुत्तमम् ॥ २२ ॥ भावार्थ - कृत, कारित अने अनुमोदन तथा आरंमरहित अने मोक्षमांज एकतान राखनारा यति महात्माओनेज उत्तम पात्र कहेल छे. २२ कुटुंब कार्याण्यतिदुर्भराणि समुद्रकुक्षेः समरूपकाणि । रात्रिर्विभाता गृहचिंतयैव नष्टं गतं श्लोकशतं नरेंद्र ॥ २३ ॥ भावार्थ - हे राजन् ! समुद्रनी कुक्षिसमान कुटुंबना कार्यो अति दुर्भर छे. घरनी चिंतामां रात्रि पूर्ण थतां प्रभात थई गयुं अने तेनी साथे मारा सो श्लोक नष्ट थया. कुरंगमातंग पतंग भृंग - मीना हताः पंचभिरेव - Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९६ ) पंच । एकः प्रमादी स कथं न हन्या-द्यः सेवते पंचभिरेव पंच ॥ २४॥ ___ भावार्थ-हरण, हस्ती, पतंग, भ्रमर, अने मत्स्य ए पांचे पांच इंद्रियोना योगे मरण शरण थाय छे. तो जे एक प्रमादी थईने पांच इंद्रियोना पांच विषयोने सेव्या करे छे-ते केम विनष्ट न थाय ? २४ __ कुशलजननवंध्यां सत्यसूर्यास्तसंध्यां कुगतियुवतिमालां मोहमातंगशालाम् । शमकमलहिमानी दुर्यशोराजधानी व्यसनशतसहायां दूरतो मुंच मायाम् ॥ २५॥ __ मावार्थ-जे अकुशळने करे छे, जे सत्यरूप सूर्यने संध्यासमान छे, कुगतिरूप युवतिनी जे माळारूप छे, मोहरूप मातंग (हाथी ) नी जे शालारूप छे, शमरूप कमळने जे हीम समान, दुर्यशनी राजधानीरूप, अने जे सेंकडो संकटोने लावी आपे एवी मायाने हे भव्यो! तमे दूर तजी दो. २५ कामक्रोधस्तथा हर्षो मायालोभौ मदस्तथा। Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९७ ) षडर्गमुत्सृजेदेनं तस्मिस्त्यक्ते सुखी नृपः॥२६॥ भावार्थ-काम, क्रोध, हर्ष, माया, लोभ अने मद एछनो त्याग करवाथीज राजाए सुखनी आशा राखवी. कुलं च शीलं च सनाथता च विद्या च वित्तं च वपुर्वयश्च । वरे गुणाः सप्त विलोकनीया अतः परं भाग्यवशा च कन्या ॥ २७ ॥ ___ भावार्थ- कुल, शील, कुटंब, विद्या, धन, शरीर अने वय-ए सात गुणो वरमां जोवा जोइए. ते पछी कन्या- भाग्य. २७ कचित्कलाप्रकर्षोऽपि सुकलत्राद्भवेन्नृणाम् । पश्य पूर्णिमया चंदः किं न पूर्णकलः कृतः॥२८॥ भावार्थ-कोइ वार सुकलन (गुणी स्त्रीथी) पण पुरुषोनो कळा प्रकर्ष थाय छे. जुओ, पूर्णिमाथी चंद्रमा पूर्णकळावान् कहेवाय छे. २८ कस्य लक्ष्मीः सुताः कस्य कस्य वेश्मेति चिंतय। तदेति याति चात्मेय-मेकमेव भवाद्भवम् ॥२९॥ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९८) भावार्थ-लक्ष्मी, पुत्रो अने घर कोनां ? हे मव्यात्मन् ! तूं विचार कर के, आ आत्मा पोते एकलोज भवोभवमां भम्या करे छे. २९ कला कुलीनतारूपसौभाग्यप्रमुखा गुणाः। धनहीना न शोभंते विसर्पिर्भोजनं यथा ॥३०॥ भावार्थ-कला, कुलीनता, रूप, अने सौभाग्य प्रमुख गुणो, घृत विनाना भोजननी जेम धन विना शोभता नथी. ३० कुट्टिनीयं गुरुपाया यस्याः शिक्षामिमां स्मरन् । न पुनर्निपतिष्यामि वाक्पाशे पणयोषिताम्३१॥ भावार्थ-अहो! आ कुट्टिनी मारे गुरुसमान छे, के जेना आ शिक्षाबोलने संभारतां हुं हवे कदापि वेश्याओना वाणीरूप पाशमां पडीश नहि. ३१ केचिजीवंति जीवंतो म्रियते च मृताः पुनः। मृता अप्यपरे जीवंत्यहं जीवन्मृतः पुनः॥३२॥ भावार्थ-केटलाक पुरुषो जीवतां सुधी जीवे छे, पण मरण पछी तेमनुं नाम के निशान रहेतुं नथी. Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९९ ) अने केटलाक मुआ छतां नामनाने लईने तेओ जीवताज छे. पण अहो ! हुं तो जीवतां सुवा जेवो छं. ३२ कलाकुलीनतारूप-विद्यावीर्यादयो गुणाः ॥ दैवदावानलस्याग्रे यांति जीर्णतृणोपमाम् ॥ ३३ ॥ भावार्थ – कला, कुलीनता, रूप, विद्या, अने वीर्यादि गुणो बधा, देवरूप दावानळनी आगळ जीर्ण तृण समान छे. ३३ केयूरा न विभूषयंति पुरुषं हारा न चंद्रोज्वला न स्नानं न विलेपनं न कुसुमं नालंकृता मूर्धजाः । वाण्येका समलंकरोति पुरुषान्या संस्कृता धार्यते श्रीयंते खलु भूषणानि सततं वाग्भूषणं भूषणम् ॥ ३४ ॥ भावार्थ - बाजुबंध, चंद्रसमान उज्वळ हारो, स्नान, विलेपन, कुसुम के माथाना सुंदर केशो पण पुरुषने शोभावता नथी, परंतु संस्कृत (संस्कार पामेल) वाणीज एक पुरुषोने समलंकृत करे छे. कारण के अन्य बधां Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१००) भूषणो क्षय थई जाय छे, पण वाणीरूप अक्षय भूषण ते खरेखर भूषणज छे. ३४ को ज्वलज्ज्वलनज्वालां सचैतन्यः पिपासति। को वा स्फारस्फटारत्नं फणीभर्तुर्जिघृक्षति ॥३५॥ को जायतो मृगेंदस्य केसराण्युद्दिधीर्षति । पादाभ्यां पृथिवीशं को विशंकः स्कंतुमिच्छति३६ भावार्थ-कयो सचेतन अग्निनी बळती ज्वालानुं पान करवा इच्छे, फणीधरनी भयंकर फणा उपरतुं रत्न कोण लइ शके ? जागता मृगेंद्रना केसर (स्कंधना वाळ ) कोण खेंची शके ? तेम पोताना बापने पुत्र विना निःशंक थइने पोताना चरणथी राजाने कोण प्रहार करे ? ३५ ३६ क्रियते निवृतेर्हेतो-र्जाया सा यदि निर्गुणा। तदायःशूलिकापोतं नरं मन्यामहे वरम् ॥ ३७॥ भावार्थ-जगतमां सुखनी खातर स्त्रीनी साथे संबंध करवामां आवे छे, ते जो निर्गुणी होय तो ते पुरुष करतां शूलीए परोवेल सारो.एम मारूं मानवु छे. Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कदलीव फलं भोग-सुखं स्वादु मनोहरम् । संदृश्यं क्षीयते नृणां प्रायशः पुण्यभावना ॥ ३८॥ ___ मावार्थ--भोगसुख, स्वादिष्ट अने मनोहर फलने जोतां कदलीनी जेम पुरुषोनी पुण्यभावना क्षीयमान थाय छे. ३८ कर्मणा ग्लानतां नीतो न वैद्यैः किं चिकित्स्यते। मंत्रायैः स्यान्न किं धीमान् जडीभूतोऽपि कर्मणा ॥ ३९॥ भावार्थ-कर्मथी ग्लानि आवतां शुं वैद्यो पोताना उपायो नथी अजमावता? कर्मथी जड छतां मंत्रादिकथी पुरुष शं धीमान् थइ शकतो नथी ? ३९ कर्मणा पातितो नद्यां तार्यते तारकैर्न किम्। नात्मा किं कर्मभिर्बद्धो मुक्तौ धर्मेण नीयते॥४०॥ मावार्थ--कर्मथी नदीमां पडेलने शुं तारू जनो बचावी नथी लेता ? तेम कर्मथी बद्ध आत्मा शं धर्मथी मोक्षे जइ शकतो नथी ? अर्थात् जइ शके छे ४० Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०२) कलाकौशलकारुण्य-कवितादिगुणावली। विलीयते ध्रुवं नारी-संगादत्र कथां शृणु ॥४१॥ भावार्थ-कळा, कौशळ, कारुण्य अने कवितादि गुणो, खरेखर ! एक स्त्रीना संगथी अवश्य विलय पामे छे. आ संबंधमां दृष्टांत छे-ते गुरुगमथी जाणवू. ४१ कोकिलानां स्वरं रूपं स्त्रीणां रूपं पतिव्रतम्। विद्या रूपं कुरूपाणां क्षमा रूपं तपस्विनाम्॥४२॥ भावार्थ-कोकिलाओनुं स्वर छे एज रूप, स्त्रीओनुं पतिव्रत एज रूप, कुरूपीओनुं विद्या-एज रूप अने तपस्वीओनुं क्षमा-एज रूप छे. ४२ कोऽतिभारः समर्थानां किं दूरे व्यवसायिनाम् । को विदेशः सुविद्यानां कः परः प्रियवादिनाम्४३ भावार्थ-समर्थ पुरुषोने भार शो ? व्यवसायी जनोने दूर शुं छे ? सुज्ञोने विदेश केवो अने प्रियवादीआने शत्रु केवो ? ४३ को देशःकानि मित्राणिकः कालःको व्ययागमौ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०३ ) कश्चाहं का च मे शक्ति रिति चिंत्यं मुहुर्मुहुः ॥४४ भावार्थ – देश शो, मित्रो कोण, काल कयो, व्यय अने आगम कया अने मारी शक्ति शुं छे ? एम वारंवार चिंतववुं. ४४ कौशेयं कृमिजं सुवर्णमुपलादिंदीवरं गोमयात्पंकात्तामरसं शशांक उदधेर्गोपित्ततो रोचना ॥ काष्ठानिरहेः फणादपि मणिर्द्वर्वापि गोरोमतः प्राकाश्यं स्वगुणोदयेन गुणिनो यास्यति किं जन्मना ॥ ४५ ॥ भावार्थ - कृमिमांथी रेशम, पत्थरमांथी सुवर्ण, गोमय - उकरडामांथी कमळ, कादवमांथी ताम्ररस, समुद्रमाथी चंद्रमा, गायना पित्तमांथी रोचना, काष्ठमांथी अग्नि, सर्पनी फणामांथी मणि अने गायना रोममांथी चामर एम गुणी जनो जन्मथी नहि पण पोताना गुणोदयथी प्रकाश पामे छे. ४५ कस्तूरी पृषतां रदाः करटिनां कृत्तिः पशूनां Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०४) पयः धेनूनां छदमंडलानि शिखिनां रोमाण्यवीनामपि । पुच्छस्नायुवसाविषाणनखरस्वेदादिकं किंचन स्यात्कस्याप्युपकारि मर्त्यवपुषो नामुष्य किंचित्पुनः॥४६॥ भावार्थ-हरिणोनी कस्तुरी, हाथीओना दांत, प. शुओनुं चामडुं, गायोनुं दूध, मोरना पीछां, गाडरोना रोम, तेमज पुच्छ, स्नायु, चरबी, शृंग, नख विगेरे कोइन कंइ उपयोगमां आवे छे, पण मनुष्यना शरीरमांनुं कंइ पण उपयोगमा आवतुं नथी. ४६ __कालः संप्रति वर्त्तते कलियुगः संतो नरा दुर्लभा देशाश्च प्रलयं गता करभरैर्लोभं गताः पार्थिवाः। नानाचौरगणा मुशंति पृथिवीमार्यो जनः क्षीयते पुत्रस्यापिन विश्वसंति पितरः कष्टं युगे वर्त्तते ॥४७॥ __ भावार्थ-हमणा कलियुग वर्ते छे, संत जनो दुर्लम छे, देशो प्रलय थता जाय छे, करना वधाराथी राजा Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०५ ) ओ लोभिष्ट बनता जाय छे, विविध चोर लोको वसुधाने लुंटे छे, आर्य जनो क्षीण थता जाय छे अने पिता पुत्रनो पण विश्वास करता नथी. अहो ! आ समयमां खरोखर दुनीया बहु कष्ट भोगवे छे. ४७ कषाया यस्य नोच्छिन्ना यस्य नात्मवशं मनः । इंद्रियाणि न गुप्तानि प्रव्रज्या तस्य निष्फला ४८ भावार्थ - जेना अंतरमांथी कषायो गया नथी, जेने मन पोताने स्वाधीन नथी, अने इंद्रियो जेने गुप्त नथी, तेनी प्रव्रज्या निष्फल थाय छे. ४८ कर्त्तुस्तथा कारयितुः परेण तुष्टेन चित्तेन तथानुमंतुः । साहाय्यकर्तश्च शुभाशुभेषु तुल्यं फलं तत्त्वविदो वदंति ॥ ४९ ॥ भावार्थ- पोते करनार, अन्य पासे करावनार तथा संतुष्ट मनथी अनुमोदन तथा सहाय करनार ए बधाने शुभाशुभमां तुल्य फल मळे छे, एम तत्त्वज्ञ जनों कहे छे. ४९/ कापि धर्मक्रिया सिद्धिं नाश्रुते जीवितं विना । Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०६ ) तस्माज्जीवितदानेन किं पुण्यमुपमीयताम् ॥ ५० ॥ भावार्थ- जीवित विना कोइ पण धर्मक्रिया सिद्ध ती थी. माटे जीवितदान आपतां पुण्यनुं प्रमाण न थइ शके. ५० क तिग्मांशुः क खद्योतः क मेरुः क च सर्षपः । saraौकः क नानाकुः क साधुः क पुनर्गृही ५१ भावार्थ- सूर्य क्यां अने आगीयो क्यां ? मेरुगिरि क्यां अने सरसव क्यां, स्वर्ग क्यां अने राफडो क्यां, तेम साधु क्यां अने गृहस्थ क्यां १५१ कंपः प्रकंपनस्यापि धृत्या वृत्त्यापनीयते । न तु केनापि चापल्यं त्याज्यते कामिनीमनः ५२ भावार्थ -- प्रकंपन (वायु) नो कंप पण धृति अने इलाजथी दूर करी शकाय, पण खीना मननी चपलताने कोइ दूर करी शकतुं नथी. ५२ क कल्पवल्ली क तृणं क मणिः क्व च कर्करः । क राजहंसी व बकः क करेणुः क बर्करः ॥५३॥ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०७) मावार्थ-कल्पलता क्या अने तृण क्यां, मणि क्यां अने कांकरो क्यां, राजहंसी क्यां अने बगलो क्यां वळी हाथणी क्यां अने क्यां बकरो. ५३ ___ कुर्याः प्रेयसि दीनसाध्वतिथिषु स्वस्योचितां सत्कियां दानाद्यैः परितोषयेः परिजनं श्वश्रू च सम्यग्भज। नेपथ्यं परिवर्जयेः परमनोधैर्यापनोदक्षमं प्रायेणावसथे स्व एव निवसेः शीलं सदा पालयेः ॥ ५४॥ मावार्थ-हे प्रियतमा ! दीन, साधु तथा अतिथि जनोने दानादिकथी संतुष्ट कर, पोताने उचित सलिया कर, परिजन अने सासुनी सेवा-भक्ति कर, अन्यना धैर्यमां खलेल करनार वस्त्र-वेशनो त्याग कर, वळी बहुधा पोतानाज आवासमा रहे अने निरंतर शीलनी संभाळ राख. ५४ कुटुंबं वा शरीरं वा भुक्त्वा भवति दूरतः । अत्मैव सहते जंतु-जातपातनपातकम् ॥५५॥ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०८) भावार्थ-कुटुंब के शरीर-भोग भोगवीने दूर थइ जाय छे अने जीवहिंसानुं पातक एकला आत्मानेज भोगव, पडे छे. ५५ कृत्याकृत्यविचारेण यदपालि कलेवरम् । वैरिण्या जरसा प्रांते मिलितं तद्विनंक्ष्यति ॥५६॥ भावार्थ हे आत्मन् ! कृत्याकृत्यनो विचार कर्या विना ते जे आ शरीरनुं पालन कयें. पण अंते वैरिणी जराथी एकत्र थयेल बधानो विनाश थई जशे. ५६ कथमिह मनुष्यजन्मा संपविशति सदसि विबुधगमितायाम् । येन न सुभाषितामृतमाह्लादि निपीतमातृप्तेः ॥ ५७ ॥ भावार्थ-ते मनुष्यजन्म शाकामनो ? के जेणे पंडितोनी सभामां जईने तेमना सुभाषितामृतनुं संपूर्णरीते पान करीने आनंद प्राप्त करेल नथी. ५७ किं हारैः किमु कंकणैः किमसमैः कर्णावतंसैरलं केयूरैर्मणिकुंडलैरलमलं साडंबरैरंबरैः । Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०९) पुंसामेकमखंडितं पुनरिदं मन्यामहे मंडन यन्निष्पीडितपार्वणामृतकरस्यंदोपमाः सूक्तयः५८ भावार्थ-हारो, कंकणो के असाधारण कर्णाभरणोथी पण शुं ? बाजूबंध, मणिना कुंडलो अने दबदबाभरेला वस्त्रोथी पण शुं ? हुं धारुं छु के निर्मळ पूर्णिमाना चंद्रमाना अमृत समान किरणोना झरणरूप सुवचनो-आ एकज पुरुषोना अखंडित मंडनरूप छे. ५८ कवयः परितुष्यंति नेतरे कविसूक्तिभिः।। नाकूपारवत्कृपा वर्धते विधुकांतिभिः ॥ ५९ ॥ भावार्थ-कविजनोना सुवचनोथी कविओ विना अन्य कोइ परितुष्ट थता नथी. कारण के चंद्रमानी कांतिथी समुद्रनी जेम कुवानुं जळ वधतुं नथी. ५९ किं कुलेन विशालेन विद्याहीनस्य देहिनः । अकुलीनोऽपि विद्यावा-न्देवैरपि स पूज्यतेद० भावार्थ-जो मनुष्य विद्याहीन होय, तो पछी तेना विशाल कुळथीःशुं ? कारण के अकुलीन छतां ते विद्यावान् होय-तो ते देवोने पण पूजनीय थाय छे.६० Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११० ) क्षारं जलं वारिमुचः पिबंति तदेव कृत्वा मधुरं वति । संतस्तथा दुर्जनदुर्वचांसि पीत्वा च सूक्तानि समुद्रिरंति ॥ ६१ ॥ भावार्थ — जेम वादळांओ समुद्रनुं खारूं पाणी पीने तेज पाणी मधुर करीने जगतने आपे छे. तेज प्रमाणे संत जनो दुर्जनोनां दुर्वचनोनुं पान करीने पुनः तेओ मधुर - सारां वचनो बहार कहाडे छे. ६१ केनांजितानि नयनानि मृगांगनानां को वा करोति रुचिरांग रुहान्मयूरान् । कश्वोत्पलेषु दलसंनिचयं करोति को वा करोति विनयं कुलजेषु पुंसु ॥ ६२ ॥ भावार्थ -- मृगलीओना नेत्रोने आंजीने कोणे मनोहर बनाव्या छे, मयूरोने कोणे सुंदर अंगवाळा बनाव्या छे ? कमळोमां पत्रोनो संचय कोणे कर्यो छे ? तेम कुलीन पुरुषोमां विनय-गुण कोणे आरोपित कर्यो छे! केनादिष्टौ कमलकुमुदोन्मीलने पुष्पवंतौ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १११ ) विश्वं तोयैः स्नपयितुमसौ केन वा वारिवाहः । विश्वानंदोपचयचतुरो दुर्जनानां दुरापः श्लाघ्यो लोके जयति महतामुज्ज्वलोऽयं निसर्गः ॥ भावार्थ - कमळ अने कुमुदने विकस्वर करनार सूर्य तथा चंद्रने कोणे आदेश कर्यो छे ? तेमज जळथी जगतने स्नान करावनार मेघने कोणे आज्ञा करी छे ? माटे दुर्जनोने दुर्लभ तथा विश्वने आनंद पमाडवामां तत्पर एवा महा पुरुषोनो उज्वळ स्वभावज जगतमां प्रशस्त रीते जयवंत वर्ते छे. ६३ कस्यादेशात्क्षपयति तमः सप्तसप्तिः प्रजानां छायाहेतोः पथि विटपिनामंजलिः केन बद्धः । अभ्यर्थ्यंते जललवमुचः केन वा वृष्टिहेतोर्जात्यैवैते परहितविधौ साधवो बन्द्धकक्ष्याः ॥ ६४ ॥ भावार्थ -- जगतमां सूर्य नारायण कोना हूकमथी अंधकारनो नाश करे छे, मार्गमां छायानी खातर वृक्षोनी आगळ अंजलि कोणे जोडी छे ? वृष्टिनी खातर मेघना Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११२ ) पासे कोण प्रार्थना करवा जाय छे ? कारण के परनुं हित करवामां साधु जनो ( सज्जनो ) स्वभावथीज सदा तत्पर थयेला जोवामां आवे छे. ६४ क्षुद्राः संति सहस्रशः स्वभरणव्यापारमात्रोद्यताः स्वार्थी यस्य परार्थ एव स पुमानेकः सतामग्रणीः । दुष्पूरोदरपूरणाय पिबति स्रोतः पतिं वाडवो जीमूतस्तु निदाघपीडितजगत्संतापविच्छित्तये ॥ ६५ ॥ भावार्थ - मात्र पोताना उदरनुंज भरण पोषण कर नारा हजारो क्षुद्रजनो हशे, परंतु परमार्थनेज पोतानो स्वार्थ माननार एवा संतजनोमां अग्रेसर पुरुष तो कोइ एक विरलोज हशे जुओ, वडवानल पोताना दुष्पूरण उदरने पूरवा माटे सागरना जळनुं पान कर्या करे छे अने मेघ उनाळाथी पीडायेला जगतना संतापने दूर करवा पोते वृष्टि करे छे. ६५ क्षारो वारिनिधिः कलंककलुषश्चंदो रविस्तापकृत पर्जन्यश्चपलाश्रयोऽभ्रपटलादृश्यः सुव Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११३) र्णाचलः । शून्यं व्योम रसा द्विजिह्वविधृता स्वर्धामधेनुः पशुः काष्ठं कल्पतरुर्दशत्सुरमाणस्तत्केन साम्यं सताम् ॥६६॥ भावार्थ-समुद्र, क्षार छे, चंद्रमा कलंकथी मलिन छे, सूर्य ताप करनार छे; मेघ, चपला (विजळी) ना आश्रयरूप छे, मेरुपर्वत वादळांओथी अदृश्य छे आकाश शून्य छे, वसुधा, शेषनागथी धारण करायेली छे, कामधेनु पशु छे, कल्पवृक्ष काष्ठ छे, अने चिंतामणि-पत्थर छे-तो संत जनोने कोनी उपमा आपीए १६६ ___ कस्मादिंदुरसौ धिनोति जगतीं पीयूषगभैः करैः कस्माद्वा जलधारयैव धरणिं धाराधरः सिंचति । भ्रामं भ्राममयं च नंदयति वा कस्मात्रिलोकी रविः साधूनां हि परोपकारकरणे नोपाध्यपेक्षं मनः ॥ ६७ ॥ भावार्थ-आ चंद्रमा पोताना अमृतमय किरणोथी वसुधाने शा माटे धवलित करे छे, धाराधर (मेघ) Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११४) पोतानी जळधाराथी धरणीपर शा माटे सिंचन करे करे छे, अने आ दिवाकर-सूर्य, आकाशमां भमी म. मीने त्रणे लोकने शा माटे आनंद पमाडे छे ? माटे परोपकार करवामां साधुजनो (सज्जनो)नुं मन, उपाधिनी अपेक्षा करतुं नथी. ६७ किं कूर्मस्य भरव्यथा न वपुषि मां न क्षिपत्येष यत्कि वा नास्ति परिश्रमो दिनपतेरास्ते न यन्निश्चलः । किं चांगीकृतमुत्सृजन हि मनसा श्लाघ्यो जनो लजते निर्वाहः प्रतिप्रन्नवस्तुषु सतातद्धि गोत्रव्रतम् ॥ ६८ ॥ भावार्थ-शुं काचबाने भारनी पीडा थती नहि होय, के जे पृथ्वीने मूकी देतो नथी, शुं सूर्यने परिश्रम नहि थतो होय, के जे निश्चय थईने बेसी रहेतो नथी, कारण के उत्तम जन, अंगीकार करेलनो त्याग करतां मनमां लज्जित थाय छे. वळी अंगीकृतनो निर्वाह करवो-ए तो प्रधान पुरुषोनु कुळक्रमागत व्रत छे. ६८ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११५) कुटिला लक्ष्मीर्यत्र प्रभवति न सरस्वती वसति तत्र । प्रायः श्वश्रूनुषयोर्न दृश्यते सौहृदं लोके६९ भावार्थ-ज्यां कुटिल लक्ष्मीनो निवास छे, त्यां सरस्वती आवीने वास करती नथी. कारण के जगतमां तपास करतां प्रायः सासु-वहुनी मित्राई जोवामां आवती नथी. ६९ करान्प्रसार्य रविणा दक्षिणाशावलंबिना। न केवलमनेनात्मा दिवसोऽपि लघूकृतः ॥७॥ ___ भावार्थ-दक्षिण आशा (दिशा)नु अवलंबन करनार सूर्ये पोताना कर (किरणो) पसारीने तेणे मात्र पोतानीज लघुता करी छे, तेम नथी, परंतु तेणे दिवसने पण लघु (टुंको ) बनावी दीधो छे. ७० कथं नाम न सेव्यते यत्नतः परमेश्वराः। । अचिरेणैव ये तुष्टाः पूरयति मनोरथान्॥ ७१॥ भावार्थ-परमात्मानी यत्नपूर्वक शा माटे सेवा न करवी ? कारण के अल्प समयमांज संतुष्ट थतां जेओ मनना मनोरथ पूरण करे छे. ७१ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९६) कल्पद्रुमः कल्पितमेव दत्ते सा कामधुक्कामितमेव दोग्धि । चिंतामणिश्चिंतितमेव दत्ते सतां हि संगः सकलं प्रसूते ॥७२॥ ___ भावार्थ-जुओ, कल्पवृक्ष मात्र कल्पित (धारेल) वस्तुनेज आपे छे, कामधेनु मात्र इच्छितज आपे छे, अने चिंतामणि मात्र चिंतन करेलज आपे छे, परंतु संत जनोनो संग एकी साथे बधुं आपवाने समर्थ छे.७२ कल्याणकांक्षिणां नृणा-मुपदेशः सुधायते। भवाभिनंदिनां चित्रं स एव गरलायते॥७३॥ भावार्थ-पोताना कल्याणने इच्छनारा पुरुषोने सदुपदेश सुधा-अमृत समान लागे छे अने बहु आश्चर्यनी वात छे के तेज उपदेश भवाभिनंदी (संसारासक्त ) जीवोने झेर समान लागे छे. ७३ ___ कुलस्यार्थे त्यजेदेकं ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेत् । ग्रामं जनपदस्यार्थे आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत्॥४॥ भावार्थ-जो समस्त कुळनो बचाव थतो होय-तो एकनो त्याग करवो, गामना बचावनी खातर कुळनो Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११७ ) त्याग करवो, देशनो बचाव थतो होय-तो गामनो त्याग करवो अने आत्माना बचावनी खातर समस्त पृथ्वीनो त्याग करवो. ७४ । क्षमातुल्यं तपो नास्ति न संतोषात्परं सुखम् । न तृष्णायाः परो व्याधि-न च धर्मो दयापरः॥७५ भावार्थ-क्षमा समान तप नथी, संतोष समान सुस मथी, तृष्णा समान कोई व्याधि बथी अचे दया समान कोई श्रेष्ठ धर्म नथी. ७५ कॉऽधो योऽकार्यरतः को बधिरो यःशृणोति न हितानि । को मूको यः काले प्रियाणि वक्तुं न जानाति ।। ७६॥ ___ भावाथे-अंध कोण ? के जे अकार्य करवामां सदा तत्पर छे, बधिर (व्हेरो) कोण ? के जे हितवचन सांभळतो नथी अने मुंगो कोण ? के जे अवसर आये प्रियवचन बोली जाणतो नथी. ७६ केचिदज्ञानतो नष्टाः कोचिन्नष्टाः प्रमादतः। केचिज्ज्ञानाक्लपेन केचित्रष्टैस्तु नाशितागात Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११८) भावार्थ-केटलाक जनो अज्ञानथी पायमाल थया, केटलाक प्रमादथी पायमाल थया, केटलाक ज्ञानना मदथी पायमाल थया अने केटलाकोने दुर्जनोए पायमाल कर्या. ७७ खल्वाटो दिवसेश्वरस्य किरणैः संतापितो मस्तके वांछन् देशमनातपं विधिवशात्तालस्य मूलं गतः। तत्रस्थस्य महाफलेन पतता भग्नं सशब्दं शिरः प्रायो गच्छति यत्र भाग्यरहितस्तत्रैव यांत्यापदः॥१॥ भावार्थ-मस्तकनी टालवाळो कोई पुरुष सूर्यना किरणोथी संताप पामीने छायामां जवानी इच्छाथी दैवयोगे ते तालवृक्षना मूळपासे गयो, त्यां माटुं फळ पडवाथी मोटा अवाज साथे तेनुं मस्तक भग्न थयु. अहो! भाग्यरहित पुरुष ज्यां जाय, त्यां तेनी पाछळ प्रायः आपत्ति आवेज छे ? खलः सक्रियमाणोऽपि ददाति कलहं सताम् । दुग्धोतोऽपि किं याति वायसः कलहंसताम्॥२॥ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११०.) भावार्थ-खल पुरुषोनो सत्कार करवा छतां ते सज्जनोने कष्ट आपे छे. कागने घणा दूध धोवा छतां शु ते हंस बनी शके ? २ खरं श्वानं गजं मत्तं रंडां च बहुभाषिणीं। राजपुत्रं कुमित्रं च दूरतः परिवर्जयेत् ॥३॥ भावार्थ-खर, श्वान, मदोन्मत्त हाथी, बहु बोली कुलटा, राजपुत्र अने कुमित्रनो दूरीज त्याग करवो ३ खलानां कंटकानां च द्विविधैव प्रतिक्रिया। उपानद् मुखभंगो वा दूरतोवा विसर्जनम् ॥४॥ भावार्थ-दुर्जनो के कंटकोनो बेरीतेज प्रतीकार थइ शके तेम छे. उपानह ( पगर) मुखमंग अथवा तो तेमनो दूरथी त्याग करवो. ४ खलोऽपि गवि दुग्धं स्या-दुग्धमप्युरगे विषम् । पात्रापात्रविशेषेण सत्पात्रे दानमुत्तमम् ॥५॥ भावार्थ-खोळ पण गायना खोराकमा आवतां ते दूध बने छे अने सर्पने पीवरावतां दूध पण विष Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२०) बनी जाय छे. एम पात्रापात्रना विशेषपणाथी सुपात्रे दान आपq-ते सर्वोत्तम छे. ५ __ खद्योतो द्युतिमत्सु काचशकलं रत्नेष्वगेषु स्नुही मेषो योद्धृषु खेचरेषु मशको भारक्षमेधूंदिरः। प्रेतो नाकिषु गोष्पदं जलधिषु स्थानेषु नाकुर्यथा तत्तज्जातिविडंबनाय विहितो धात्रा मनुष्येष्वहम् ॥६॥ भावार्थ-तेजस्वीओमां खद्योत (आगीओ), रत्नोमां काच, वृक्षोमां थोर, लडनारा प्राणीओमा घेटो, खेचरो (पक्षीओ) मां मच्छर, भार उपाडानारामां उंदर, देवोमा प्रेत, सागरमां गोष्पद अने स्थानोमा राफडो-ए रीते ते ते जातिनी विडंबनाने माटे विधाताए उक्त वस्तुओ रचेल छे-तेम मनुष्योमां मने मात्र विडंबना पमाडवाज सर्जेल छे. ६ खिन्नं चापि सुभाषितेन रमते स्वीयं मनः सर्वदा श्रुत्वान्यस्य सुभाषितं खलु मनः श्रोतुं पुनवाँछति। अज्ञाज्ञानवतोऽप्यनेन हि वशीकर्तुं Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२१ ) समर्थो भवेत् कर्त्तव्यो हि सुभाषितस्य मनुजैरावश्यकः संग्रहः ॥ ७॥ भावार्थ - मन खेद पामेल होय छतां, सुभाषितथी ते पोते सर्वदा रमण करे छे. वळी अन्यनुं सुभाषित सांभळीने ते पुनः सांभळवाने उत्सुक थाय छे. एनाथी अज्ञजनो अने सुज्ञ जनो बधां वश करी शकाय छे. माटे दरेक पुरुषे सुमाषितनो संग्रह करवो - ते आवश्यक छे. खलः सर्षपमात्राणि परछिद्राणि पश्यति । आत्मनो बिल्वमात्राणि पश्यन्नपि न पश्यति ८ भावार्थ - खल पुरुष परना किंचिन्मात्र छिद्रने पण जोया करे छे अने पोताना मोटा छिद्रोने साक्षात् जोया छतां ते जोई शकतो नथी. अर्थात् ते अंधज छे. ८ खलो न साधुतामेति सद्भिः संबोधितोऽपि सन् । सरित्पूरप्रपूर्णोऽपि क्षारो न मधुरायते ॥ ९ ॥ भावार्थ- सज्जनो तरफथी सद्बोध मळ्या छतां खल पुरुष सुजनताने पामतो नथी. जुओ, नदीओना पूरकी भराया छतां क्षार समुद्र मधुर थतो नथी. ९ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२२) खलस्य महतोऽपूर्वः कोपाग्निः कोऽपि चित्रकृत। एकस्य शाम्यति स्नेहा-वर्धतेऽन्यस्य वारितः१० भावार्थ-सज्जन अने खल पुरुषनो कोपाग्नि कंइ विचित्र प्रकारनोज लागे छे. कारण के सज्जननो कोपाग्नि स्नेह (तेल) थी शांत थाय छे अने खलनो कोपानि शांत वचनरूप जळथी सिंचतां ते वधतो जाय छे. १० खलं च प्रथमं वंदे सजनं तदनंतरम् । मुखप्रक्षालनात्पूर्व गुदाप्रक्षालनं यथा ॥११॥ भावार्थ-दुर्जनने हुं प्रथम वंदन करुं छु अने सज्जनने ते पछी वंदन करूं छु. कारण के मुख प्रक्षालन कर्या पहेलां गुदाप्रशालन करवू पडे छे. ११ खलास्तु कुशलाः साधु-हितप्रत्यूहकर्मणि । निपुणाः फणिनः प्राणा-नपहर्तुं निरागसाम१२ भावार्थ-खल जनो सज्जनोना हितमां विघ्न कर. वाने कुशल होय छे. जुओ, सो निरपराधी जनोना प्राणो हरवाने चालाक होय छे. १२ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२३ ) खद्योतो द्योतते तावद्यावन्नोदयते शशी । उदिते तु सहस्रांशौ न खद्योतो न चंद्रमाः ॥ १३॥ भावार्थ - - खद्योत ( आगीओ ) त्यां सुधीज प्रकाशे छे के ज्यांसुधी चंद्रमा पोते उदय पामतो नथी. परंतु ज्यारे सूर्यनो उदय थाय-त्यारे खद्योत अने चंद्रमा बने लुप्त थइ जाय छे. १३ गर्वं नोद्वहते न निंदति परं नो भाषते निष्ठुरं प्रोक्तः केनचिदप्रियाणि सहते क्रोधं न चालंबते । श्रुत्वा काव्यमलक्षणं परकृतं संतिष्ठते मूकवद्दोषाञ्छादयते स्वयं न कुरुते ह्येतत्सतां चेष्टितम् १ भावार्थ - गर्व न करे, परनी निंदा न बोले, निष्ठुर बोल न कहे, कोई अप्रिय वचन बोले तो सहन करी ल, क्रोध न लावे, परनुं बनावेल काव्य लक्षणरहित सांभळतां मौन रहे, दोषने आच्छादित करी मूके अने पोते दोष न करे - ए संत जनोनुं लक्षण छे. १ गुणिनः समीपवर्ती पूज्यो लोकस्य गुणविहीनोऽपि । विमलेक्षणप्रसंगा - दंजनं प्राप्नोति काणाक्षि २ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२४ ) भावार्थ -- गुणीजननी पासे रहेतां गुणहीन पण लोकने पूज्य थाय छे. निर्मल नेत्रना प्रसंगथी काणी चक्षु पण अंजनने पामी शके छे. २ गुणा यत्र न पूज्यंते का तत्र गुणिनां गतिः । नमक्षपनकग्रामे रजकः किं करिष्यति ॥ ३ ॥ भावार्थ -- ज्यां गुणोनो अनादर थाय छे, त्यां गुणिजनो केम मान पामी शके ? वस्त्र विनाना लोकोना गाममां धोबी आवीने शंकरशे ? ३ गुणा गौरवमायांति न महत्योऽपि संपदः । पूर्णेदुः किं तथा वंद्यो निष्कलंको यथा कृशः॥ ४॥ भावार्थ -- गुणोज गौरव पामे छे, मोटी संपत्तिने मान मळतुं नथी. निष्कलंक अने कृश चंद्र वंद्य छे, पण पूर्ण चंद्रने कोइ नमतुं नथी. ४ गुणेष्वेवादरः कार्यः किमाटोपैः प्रयोजनम् । विक्रियते न घंटाभि र्गावः क्षीरविवर्जिताः ॥५॥ भावार्थ - - गुणोनोज आदर करवो, आडंबरनुं कंड प्रयोजन नथी. क्षीर विनानी गायी, कांइ घंट बांधवाथी वेचाती नथी. ५ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२५) गतिभंगः स्वरो दीनो गात्रस्वेदो महाभयम् । मरणे यानि चिह्नानि तानि चिह्नानि याचके॥६॥ भावार्थ--गतिनो भंग, दीन स्वर, शरीरपर परसेवो अने महाभय-ए मरणना लक्षणो याचकमां पण उपलब्ध थइ शके छे. ६ । ग्रामोनास्ति कुतः सीमा पत्नी नास्ति कुतः सुतः प्रज्ञा नास्ति कुतो विद्या धर्मो नास्ति कुतः सुखम्७ __ भावार्थ--गाम नथी तो सीमा ( मर्यादा) क्याथी होय, पत्नी नथी तो पुत्र क्याथी, बुद्धि न होय तो विद्या क्याथी अने धर्म न होय तो सुख क्याथी थाय.७ ग्रामेऽभिरामं शून्यत्वं न वासस्तस्करैः कृतः। वरं मौग्ध्यं न वैदग्ध्यं कुसंसर्गसमुद्भवम् ॥८॥ भावार्थ--गाममां शून्यता हाय त सारी, पण चोरोनुं वास ते सारं नहि. कुसंगथी थयेल चालाकी. करतां मूर्खाइ हजार दरज्जे सारी छे. ८ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२६ ) गणिकाः कणिकामात्रसुखसंपत्तिहेतवः । सर्वतः पर्वतपायं दुःखं ददति रागिणाम् ॥९॥ ___ भावार्थ--गणिकाओ एक लेशमात्र सुखनी हेतुभूत छे, पण रागी जनोने ते सर्वत्र पर्वत जेटलं दुःख तो अवश्य आपेज छे. ९ गुणाः सर्वत्र पूज्यंते पितृवंशो निरर्थकः। वासुदेवं नमस्यंति वसुदेवं न ते जनाः ॥१०॥ ___ भावार्थ-गुणोज सर्वत्र पूजाय छे, पण पितानो वंश निरर्थक छे. जुओ, जे लोको वासुदेवने नमे छे, तेओ वसुदेवने नमता नहता. १० गुणिनोऽपि निरीक्ष्यते केऽपि केपि नराः क्वचित्। गुणानुरागिणः किंतु दुर्लभास्त्रिजगत्यपि ॥११॥ __ भावार्थ-कोइ कोइ गुणी जनो हजी क्यांक जोवामां आवे छे, पण गुणानुरागी जनो तो त्रणे जगतमां पण दुर्लभ (प्रायविरलाज ) हशे. ११ गुणो भूषयते रूपं शीलं भूषयते कुलम् । सिद्धिर्भूषयते विद्यां भोगो भूषयते धनम् ॥१२॥ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२७) भावार्थ-गुण रूपने शोभावे छे, शील कुळने शोभावे छे, सिद्धि विद्याने शोभावे छे, अने भोग धनने शोभावे (सार्थक करे ) छे. १२ गुणवजनसंसर्गा-द्याति स्वल्पोऽपि गौरवम् । पुष्पमालानुसंगेन सूत्रं शिरसि धार्यते ॥१३॥ __ भावार्थ-गुणी जनना संगथी साधारण जन पण गौरवने पामे छे. पुष्पमाळाना अनुसंगथी दोराने पण लोको मस्तकपर धारण करे छे. १३ गुणैरुत्तुंगतां याति नोचैरासनसांस्थतः। सुमेरुशिखरस्थोऽपि काकः किं गरुडायते ॥१४॥ __ भावार्थ-गुणोथीज लोको उच्चताने पामे छे, मात्र उंचे आसने बेसवाथी मोटाइ आवती नथी. मेरुपर्वतना शिखरपर बेसवाथी काग कांइ गरुड बनी जतो नथी.१४ गात्रं संकुचितं गतिर्विगलिता भ्रष्टा च दंतावलिः दृष्टिनश्यति वर्धते बधिरता वक्त्रं च लालायते । वाक्यं नादियते च बांधवजनैौर्या Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२८ ) न शुश्रूयते हा कष्टं पुरुषस्य जीर्णवयसः पुत्रो - ऽप्यमित्रायते ॥ १५ ॥ भावार्थ - अहो ! वृद्धावस्था आवतां गात्र संकोचने पामे छे, गति गलित अने दंतावलि भ्रष्ट थइ जाय छे, दृष्टि नाश पामे छे, बधिरता वधे छे अने मुखमांथी लाळ पडवा मांडे छे, स्वजनो वचन मानता नथी, स्त्री सेवा साधती नथी अने पोतानो पुत्र पण एक शत्रु जेवो बनी जाय छे. अहो ! वृद्ध पुरुषने एवी रीते अनेक संकष्ट सहन करवां पडे छे. १५ गंधः सुवर्णे फलमिक्षुदंडे नाकारि पुष्पं खल चंदनेषु । विद्वान्धनाढ्यो न तु दीर्घजीवी धातुः पुरा कोऽपि न बुद्धिोऽभूत् ॥ १६ ॥ भावार्थ- सुवर्णमां सुगंध, शेलडीमां फळ अने चंदनमां पुष्प तथा विद्वान्ने धनाढ्य न बनाव्या. अहो ! तेथी एम लागे छे के पूर्वे विधाताने कोइ दीर्घदर्शी बुद्धि आपनार न हतो, नहि तो एम न करत. १६ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२९ ) गर्भस्थं जायमानं शयनतलगतं मातुरुत्संगंसंस्थं बालं वृद्धं युवानं परिणतवयसं विश्वमार्यं खलं वा । वृक्षाग्रे शैलशृंगे नभसि पथि, जले कोटरे पंजरे वा पाताले वा प्रविष्टं हरति च सततं दुर्निवार्यः कृतांतः ॥ १७ ॥ भावार्थ - प्राणी जोइए तो गर्भभां होय, जन्मतो होय, शय्यामां पड्यो होय, माताना खोळामां बेठो होय, बाल, वृद्ध, युवान, पाकी वयनो, आर्य के दुर्जन होय, वळी ते वृक्षना अग्रभागपर होय, पर्वतना शिखरपर होय, आकाश, मार्ग के जळमां होय, कोटर, पंजर के पातालमा पेठो होय, छतां काळ तेने अवश्य हरी ले छे. तेथी कृतांत खरोखर दुर्निवार्य छे. १७ गते शोको न कर्त्तव्यो भविष्यं नैव चिंतयेत् । वर्त्तमानेन योगेन वर्त्तते हि विचक्षणाः ॥ १८ ॥ भावार्थ -- गइ वस्तुनो शोक न करवो, अने भवि - ष्यना माटे चिंता न करवी. चतुर जनो सदा वर्तमान योगथीज वर्ते छे. १८ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३०) गुरुणां विद्यया विद्वान पितृवित्तेन वित्तवान् । शूरः परसहायेन नंदिष्यति कियच्चिरम् ॥१९॥ भावार्थ- गरुनी विद्याथी विद्वान बनी बेठेल, पिताना धनथी धनवान् थयेल अने परनी सहायताथी शूरवीर थयेल केटलो वखत टकी शकशे. १९ गतागतं जगत्यत्र ऋतवः पद प्रकुर्वते । अंगे ग्रीष्मो दृशोर्वर्षा मातस्ते ध्रुवतां ययु.॥२०॥ भावार्थ-आ जगतमां छए ऋतुओ गमनागमन कर्या करे छे. परन्तु हे मात ! तारा अंगमां गीष्म अने दृष्टिमां वर्षाऋतु खरेखर स्थिरता पामी गइ लागे छे.२० गतः परिजनः सर्वः क्षीणं च प्राक्तनं धनम् । मरूभूमाविव मयि कुतस्तत्कमलोदयः॥२१॥ भावार्थ-मारा परिजन बधा चाल्या गया अने मारुं प्राक्तन धन बधुं क्षीण थई गयुं. तो मरुभूमि ( मारवाड) ना कमळनी जेम मारी पासे हवे लक्ष्मीनो उदय क्यांथी होय ? २१ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३१ ) गुणग्रामभवे विश्व - व्यापके सद्यशःपटे । उत्पादयति मालिन्यं नृणां शशिमुखी मषी २२ भावार्थ - गुणग्रामथी उत्पन्न थयेल अने विश्वमांव्यापक एवा पुरुषोना यशरूप पटने स्त्रीरूपी मसी मलिन बनावे छे. २२ ग्रीष्मादनु भवेद्दृष्टी रात्रेरनु भवेद्दिनः । वियोगादनु संयोगः स्यान्न वेति वद स्वसः ॥ २३ ॥ मावार्थ - ग्रीष्मऋतु पछी वरसाद, रात्रि पछी दिवस अने वियोग पछी संयोग थाय के नहि ? हे मारी प्रियबेन ! ते कहो. २३ गंगा पापं शशी तापं दैन्यं कल्पतरुस्तथा । पापं तापं च दैन्यं च नंति संतो महाशयाः ॥२४॥ भावार्थ - गंगा पापने हरे छे, चंद्रमा तापने हरे छे अने कल्पवृक्ष दीनता ( गरीबाईने ) हरे छे. परंतु संत महाशयो तो पाप, ताप अने दीनता - ए त्रणेनो नाश करे छे. २४ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३२ ) गिरयो गुरवस्तेभ्योऽप्युर्वी गुर्वी ततोऽपि जगदंडम् तस्मादप्यतिगुरवः प्रलयेऽप्यचला महात्मानः २५ भावार्थ - पर्वतो मोटा होय छे, ते करतां पृथ्वी मोटी छे, ते करतां जगत् ( ब्रह्मांड ) मोटुं छे अने ते करतां पण प्रलय वखते अचल एवा महात्माओ सर्व करतां मोटा छे. २५ गुणायंते दोषाः सुजनवदने दुर्जन मुखे गुणा दोषायते तदिदमपि नो विस्मयपदम् । महामेघः क्षारं पिबति कुरुते वारि मधुरं फणी क्षीरं पीत्वा वमति गरलं दुःसहतरम् || २६ || भावाथ - सज्जन पुरुषना मुखमां दोष ते गुणरूप थइ जाय छे अने दुर्जनना मुखमां गुण- ते दोषरूप थइ जाय छे-ए कांई बधारे आश्चर्यकारक नथी. कारण के महामेघ समुद्रनुं खारुं पाणी पीने मधुर जळ जगतने आपे छे अने सर्प दूध पीने पण अत्यंत दु:सह एवा विषने बहार कहाडे छे. २६ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३३) गेहं दुर्गतबंधुभिर्गुरुगृहं छात्रैरहंकारिभिर्हदें पत्तनवंचकैर्मुनिजनैःशापोन्मुखैराश्रमान्। सिंहायैश्च वनं खलैर्नृपसभां चौरैर्दिगंतानपि संकीर्णा न्यवलोक्य सत्यसरलः साधुः क विश्राम्यति २७ भावार्थ-घर-गरीब बांधवोथी व्याप्त छ, गुरुर्नु भवन-अहंकारी विद्यार्थीओथी व्याप्त छ, हाट-नगरना धूर्तजनोथी व्याप्त छ, आश्रमो-शाप आपवामां तत्पर अवा मुनिजनोथी व्याप्त छ, सिंहादिक क्रूर प्राणीओथी वन व्याप्त छ, खलजनोथी राजसमा व्याप्त छे अने चोरलोकोथी वारे दिशाओ व्याप्त छए प्रमाणे सर्वत्र संकीर्णता जोइने सत्य-सरल साधुजनो क्या विश्राम लेशे ? २७ गौरवं प्राप्यते दाना-नतु वित्तस्य संचयात् । स्थितिरुच्चैः पयोदानों पयोधीनामधःस्थितिः२८ भावार्थ-धननुं दान आपवाथी गौरव प्राप्त थाय छे, परंतु तेनो संचय करवाथी गौरव प्राप्त थतुं नथी. जुओ, मेघ जळनो व्यय करवाथी उंचे रहे छे अने Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३४) समुद्र-तेनो संचय करवाथी तेनी अधःस्थिति जोवामा आवे छे. २८ ___ गंधाढ्यां नवमल्लिका मधुकरस्त्यक्त्वा गतो यूथिकां तां दृष्ट्वाशु गतः स चंदनवनं पश्चात्सरोज गतः। बद्धस्तत्र निशाकरेण सहसा रोदित्यसौ मंदधीः संतोषेण विना पराभवपदं प्राप्नोति सर्वो जनः ॥ २९॥ भावार्थ-मधुकर (भ्रमर) गंधयुक्त नवमल्लिकाना त्याग करीने हाथीओना टोळामां गयो, त्यांथी ललचाईने चंदनवनमां गयो, अने त्यांथी कमळपर आव्यो, त्यां चंद्रमाना योगे तरत बंधाई गयो अने ते मंदबुद्धि अत्यंत गुंजारव (रुदन ) करवा लाग्यो. खरेखर संतोष विना सर्व जनो पराभवना स्थाननेज पामे छे. २९ गतं तत्तारुण्यं तरुणिहृदयानंदजनकं । विशीर्णा दंतालिनिजगतिरहो यष्टिशरणा। जडीभूता दृष्टिः श्रवणरहितं कर्णयुगलं मनो मे निर्लजं तदपि विषयेभ्यः स्पृहयति॥३॥ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३५) भावार्थ - अहो ! तरुणीजनने आनंद आपनार एवं तारुण्य चाल्युं गयुं, दांत बधा जीर्ण थईने पडी गया, चालवानुं तो मात्र हवे लाकडीना आधारेज रह्यं, दृष्टि झांखी पडी गई, अने कर्णयुगलमां सांभळवानी शक्ति न रही, तथापि मारुं निर्लज्ज मन विषयोनी खातर तलप्या करे छे. ३० गुणेन स्पृहणीयः स्यान्न रूपेण युतो जनः । सौगंध्यवज्यं नादेयं पुष्पं कांतमपि कचित् ॥ ३१॥ भावार्थ- पुरुष गुणथी वधारे माननीय थाय छे पण रूपथी ते मान्य थतो नथी. कारण के सुगंधरहित मनोहर पुष्प छतां ते क्यां आदर पामतुं नथी. ३१ गुणा गुणज्ञेषु गुणीभवति ते निर्गुणं प्राप्य भवंति दोषाः । सुस्वादुतायाः प्रवहंति नद्यः समुद्रमासाद्य भवंत्यपेयाः ॥ ३२ ॥ भावार्थ - गुणज्ञ जनोने गुणो-ते गुणरूपेज प्रणमे छे अने तेज गुणो निर्गुण पुरुषने पामतां दोषरूप थइ जाय छे. जुओ, नदीओनुं पाणी बहु स्वादिष्ट होय Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३६) छे, छतां ते ज्यारे समुद्र साथे मळे छे, त्यारे खारु बनी जाय छे. ३२ ___ गुणेषु यत्नः पुरुषेण कार्यो न किंचिदप्राप्यतमं गुणानाम् । गुणप्रकर्षादुडुपेन शंभोरलंध्यमुल्लंधितमुत्तमांगम् ॥३३॥ ___ भावार्थ-पुरुषोए गुणोने माटे सतत प्रयत्न क. रवो-ते उत्तम छे. कारण के गुणना प्रकर्षथी चंद्रमा शंकरना अलंघनीय मस्तकपर चडी बेठो छे. ३३ __ गज जगमयोरपि बंधनं शशिदिवाकरयोग्रहपीडनम् । मतिमतां च समीक्ष्य दरिद्रतां विधिरहो बलवानिति मे मतिः ॥ ३४॥ भावार्थ-गज (हाथी) अने सर्पने बंधन, चंद्र तथा सूर्यने ग्रहथी पीडन अने बुद्धिमंतोनी निर्धनताने जोइने! अहो विधाताज बलवान् छे-एम मारु मानवं छे. ३४ घृतं न श्रूयते कण-दधि स्वप्नेऽपि दुर्लभम् । मुग्धे दुग्धस्य का वार्ता तकं शकस्य दुर्लभम् ॥१॥ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३७ ) भावार्थ - हे मुग्धे ! घीनुं नाम काने सांभळ्युं नथी अने दहीं तो स्वप्नमां पण दुर्लभ छे. तो दुधनी शी वात ? माटे इंद्रने पण दुर्लभ एवी छाश लइ आव. १ घृष्टं घृष्टं पुनरपि पुनश्चंदनं चारुगंधं छिन्नं छिन्नं पुनरपि पुनः स्वाददं चेक्षुदंडम् । तप्तं तप्तं पुनरपि पुनः कांचनं कांतवर्णं न प्राणांते प्रकृतिविकृतिर्जायते सज्जनानाम् ॥ २ ॥ भावार्थ - चंदनने मले वारंवार घसो, तथापि ते वधारे सुगंधि थशे, शेलडीने भले छेदी नाखो, तो पण ते स्वाद आपशे, कांचनने भले गमे तेटलं तपावो, तथापि ते पोताना वर्णने मुकशे नहि; तेम सज्जन जनो प्राणांते पण पोतानी मानसिक - मर्यादा मूकता नथी. अर्थात् तेमनो स्वभाव बदलतो नथी. २ घृष्टे नेत्रे करौ घृष्टौ घृष्टा जिह्वा रदैः समम् । घृष्टानि पदकायूंषि घृष्टं नांतर्गतं मनः ॥ ३ ॥ भावार्थ - नेत्र अने हाथ घसाइ गया, दांतोनी Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३८ ) साथे जीभ घसाइ गइ अने पग तथा आयु पण घसाइ गयां, छतां हजी अंतरनुं मन न घसायुं. ३ घृतकुंभसमा नारी तप्तांगारसमः पुमान् । तस्माद् घृतं च वह्निं च नैकत्र स्थापयेद् बुधः ॥४॥ भावार्थ - स्त्री - ए घृतना कुंभ समान छे अने पुरुष - ए तप्त अंगार समान छे. माटे सुज्ञ जनो घृत अने अनेि एकत्र ( एक स्थळे ) स्थापन करता नथी. ४ घर्मार्त्तं न तथा सुशीतलजलैः स्नानं न मुक्तावलिर्न श्रीखंडविलेपनं सुखयति प्रत्यंगमप्यर्पितम् । प्रीत्यै सज्जनभाषितं प्रभवति प्रायो यथा चेतसः सद्युक्या च पुरस्कृतं सुकृतिनामाकृष्टिमंत्रोपमम् ॥ ५ ॥ भावार्थ - घाम ( गरमी ) थी पीडित थयेल पुरुषने अत्यंत शीतल जळथी स्नान करतां शांति वळती नथी, मोतीनी माळा के दरेक अंगे करेल चंदनना वि. लेपनथी पण तेने शांति थती नथी. के जेम. पुण्यना आकृष्टिमंत्र समान अने सारी युक्तिथी बोलवामां आ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३९) वेल सज्जन पुरुषना सुभाषितथी तेना चित्तने जे शांति उपजे छे-तेवी शांति तो खरेखर ! उपर कहेल पदा र्थोथी तो नथीज थती. ५ चिंतया नश्यति रूपं चिंतया नश्यति बलम् । चिंतया नश्यति ज्ञानं व्याधिर्भवति चिंतया॥१॥ ___ मावार्थ-चिंताथी रूप, बळ अने ज्ञान नष्ट थाय छे अने वधारे रहेवाथी व्याधि उत्पन्न थाय छे. १ चिंता चिता समानास्ति बिंदुमात्रविशेषतः। सजीवं दहते चिंता निर्जीवं दहते चिता ॥२॥ भावार्थ-चिंता अने चितासमानज छे, पण तेमा एक बिंदु अधिक छे. तेथी चिंता सजीवने बाळे छ अने चिता निर्जीवने बाळे छे. २ चत्तारि परमंगाणि दुल्लहाणि च जंतुणो। माणुसत्तं सुईसद्धा संजमं मियवीरियं ॥३॥ ___ भावार्थ-आ जगतमां प्राणीओने चार अंग अतिशय दुर्लभ छे. तेमां प्रथम मनुष्यत्व, श्रुत शांभलवू, नेते धर्मपर श्रद्धा, संयम मां आत्मवीर्य-ए चार छः ३ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४०) चत्वारो नरकद्वाराः प्रथमं रात्रिभोजनम् । परस्त्रीगमनं चैव संधानानंतकायके ॥४॥ भावार्थ-प्रथम रात्रिभोजन, परस्त्रीगमन, बोळ अथाणुं अने अनंतकायतुं भक्षण-ए चार नरकना द्वार कहेवामां आव्या छे. ४ ।। चौर्यं पापद्रुमस्येह वधबंधादिकं फलम् । जायते परलोके तु फलं नरकवेदना ॥ ५॥ भावार्थ-चोरीरूप पापवृक्षतुं फळ आ लोकमां वध, बंधादिक प्राप्त थाय छे अने परलोकमां नरकनी वेदना भोगववी पडे छे. ५ चेतोहरा युवतयः स्वमनोनुकूलाः सद्बांधवाः प्रणयगर्भगिरश्च भृत्याः। गर्जति दंतिनिवहास्तरलास्तुरंगाः संमीलने नयनयोन हि किंचिदस्ति ६ भावार्थ-पोताना मनने अनुकूळ अने सौंदर्यवती युवतिओ होय, सारा बांधवो होय, प्रेमाळ वचन बोलनारा चाकरो होय, हाथीओ गाजता होय, अने Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४१ ) चपळ अश्वो होय - पण ज्यारे आंख मींचाई, एटले कंइ पण नथी. ६ चत्वारः प्रहरा यांति देहिनां गृहचेष्टितैः । तेषां पादे तदर्थे वा कर्त्तव्यो धर्मसंग्रहः ॥ ७ ॥ अ भावार्थ — घरनां कार्योमां मग्न थयेला प्राणीओना चारे प्रहर चाल्या जाय छे. माटे तेमां एक प्रहर, थवा अर्ध प्रहर धर्मसंग्रह करवो - ते भव्य जनोने उ-चित छे. ७ चक्षुर्दग्धं परस्त्रीभि - हस्तौ दग्धौ प्रतिग्रहैः । जिह्वा दग्धा परान्नेन गतं जन्म निरर्थकम् ॥८॥ भावार्थ- परस्त्रीओनुं अवलोकन करवाथी नेत्र दग्ध थयां, बीजाओनी वस्तुओ लेतां हस्त दुग्ध थया अने परनुं अन्न जमतां जीभ दग्ध थई-एम बधो जन्म: निरर्थक गयो. ८ चित्तज्ञः शीलसंपन्नो वाग्मी दक्षः प्रियंवदः । यथोक्तवादी स्मृतिमान् दूतः स्यात्सप्तभिर्गुणैः ९ भावार्थ- परना मनने जाणनार शीलसंपन्न, बोल Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४२) वामां चालाक, दक्ष, प्रियवादी, यथार्थ बोलनार अने स्मरणमा राखनार-ए सात गुणो दूतमा होवा जोइए.९ चितां प्रज्वलितां दृष्ट्वा वैद्यो विस्मयमागतः । नाहं गतो न मे भ्राता कस्येदं हस्तलाघवम् ॥१०॥ भावार्थ-प्रज्वलित चिताने जोइने वैद्य विस्मय पाम्यो के-अहीं हुं तेमज मारो भाई पण त्यां गया नथी, छतां आ हस्तलाघव (हाथ-चालाकी ) कोनी हशे. १० च्युता दंता सिताः केशा हनिरोधः पदे पदे। पातसजमिमं देहं तृष्णा साध्वी न मुंचति ॥११॥ भावार्थ-दांत बधा पतित थया, केश बधा सफेत थया अने पगले पगले दृष्टि अटकवा लागी तथा आ देह जाणे हवे पडवानी तैयारी करतो होय ते छतां अहो ! तृष्णारूप सती मूकती नथी. ११ चिरं ध्याता रामा क्षणमपि न रामप्रतिकृतिः परं पीतं रामाधरमधु न रामांघिसलिलम् । Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४३) नता रुष्टा रामा यदरचि न रामाय विनतिर्गतं मे जन्माग्र्यं न दशरथजन्मा परिगतः ॥१२॥ भावार्थ - अहो ! रामा ( स्त्री ) नुं में निरंतर ध्यान धयुं, पण श्रीपरमात्मानी मूर्तिनुं एक क्षणभर पण ध्यान न धर्यु, स्त्रीना अधरामृतनुं बराबर रीते पान कयुं, परंतु परमात्माना चरणामृतनुं पान न कर्यु, रुष्टमान थयेल रमणीना चरणे पड्यो, परंतु परमात्माना पगे न पड्यो. अहो, एम करतां मारो जन्म गयो छतां श्री परमात्मा मने प्राप्त न थया. १२ चांडालश्च दरिद्रश्च द्वावेतौ सदृशाविह । चांडालस्य न गृह्णति दरिद्रो न प्रयच्छति ॥ १३॥ भावार्थ-चांडाळ अने दरिद्र - ए बने समान कहेला छे.. जुओ, चांडालनुं दान कोई लेता नथी अने दरिद्र पोते दान आपतोज नथी. १३ चंद्रः क्षयी प्रकृतिवक्रतनुर्जडात्मा दोषाकरः स्फुरति मित्रविपत्तिकाले । मूर्ध्ना तथापि विधृतः परमेश्वरेण नैवाश्रितेषु महतां गुणदोषशंका ॥ १४ ॥ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४४ ) भावार्थ - जुओ, चंद्र क्षय पामे छे, स्वभावे वक शरीरवाळो छे, जडात्मा छे, दोषाकर एटले रात्रिने करनार छे अने मित्र (सूर्य) ना विपत्तिकाळे ते स्फुरायमान थाय छे, अहो ! तथापि शंकर तेने मस्तकपर धारण करे छे. माटे महापुरुषो पोताना आश्रि तोमा गुण के दोषनी शंकाज करता नथी. १४ चलं वित्तं चलं चित्तं चले जीवितयौवने । चलाचलमिदं सर्वं कीर्तिर्यस्य स जीवति ||१५|| भावार्थ - जगतमां धन चलायमान छे, मन चलायमान छे, जीवित अने यौवन पण चलायमानज छे, एटलुंज नहि पण आ बधुं चलायमानज छे. तेथी जेनी कीर्ति जाग्रत छे-तेज जीवंत छे. १५ चंदनं शीतलं लोके चंदनादपि चंद्रमाः । चंद्रचंदनयोर्मध्ये शीतला साधुसंगतिः ॥ १६ ॥ भावार्थ-जगतमां चंदन शीतल कहेवाय छे अने चंदन करतां पण चंद्रमा अधिक शीतल छे. वळी चंदन तथा चंद्रमा करतां पण साधुजनोनी संगत अधिक शीतल छे. १६ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४५ ) चातकस्त्रिचतुरान्पयःकणान् याचते जलधरं पिपासया । सोऽपि पूरयति विश्वमंभसा हंत त महतामुदारता ॥ १७ ॥ । भावार्थ - चातक पिपासाने लीधे मेघपासे मात्र जळना त्रण चार बिंदुनी याचना करे छे अने मेन समस्त जगतने जळथी पूरी दे छे. अहो ! जुओ तो खरा के महाजनोनी उदारता केवी होय छे ? १७ चलंति गिरयः कामं युगांतपवनाहताः । कृच्छ्रेऽपि न चलत्येव धीराणां निश्चलं मनः १८ भावार्थ - प्रलयकाळना पवनथी आघात पामेल पर्वतो कदाच अत्यंत चलायमान थाय, तथापि कष्ट आव पडतां पण धीरं पुरुषोनुं निश्चळ मन कदापि चलायमान थतुं नथी. १८ चित्ते भ्रांतिर्जायते मद्यपानाद् भ्रांते चित्ते पापचर्यामुपैति । पापं कृत्वा दुर्गातं यांति मूढा - स्तस्मान्मयं नैव पेयं न पेयम् ॥ १९ ॥ १० Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४६ ) भावार्थ - - मद्य - मदिरानुं पान करवाथी चित्तमां भ्रांति उत्पन्न थाय छे चित्त भ्रमित थवाथी ते पापकर्मतरफ प्रेराय छे अने पापना प्रतापे ते मूढ जनो दुर्गतिमां जाय छे. माटे मद्यपान कदापि नज करवुं. १९ चत्वारो धनदायादा धर्माभिनृपतस्कराः । तेषां ज्येष्ठावमानेन त्रयः कुप्यंति बांधवाः ॥ २०॥ भावार्थ - धर्म - अग्नि, राजा अने तस्कर (चोर) ए चार धनना भागीदार होय छे. तेर्मा प्रथमनुं अपमान करवामां आवे तो त्रणे (अग्नि, नृप अने तस्कर) afra कोपायमान थाय छे. २० , चांडालः पक्षिणां काकः पशूनां चैव कुक्कुरः । कोपो मुनीनां चांडाल - चांडालः सर्वनिंदकः २१ भावार्थ- पक्षीओमां कागडो-ए चांडाल छे, पशुओमां कुतरो चांडाल, मुनिओमां क्रोध चांडाल अने निंदा करनार - ते सर्व करत मोटो चंडाळ छे. २१ चातकः स्वानुमानेन जलं प्रार्थयतें दातु । स स्वौदार्यतया सर्वां प्लावयत्यंबुना महीम २२ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४७ ) भावार्थ - चातक पोताना अनुमानथी मेघ पासे पाणीनी प्रार्थना करे छे. परंतु ते तो पोतानी उदारताथी समस्त पृथ्वीने जळमय बनावी दे छे. २२ चित्रकृदधकर्त्ता च कुवैद्यः कुनरेश्वरः । चत्वारो नरकं यांति पंचमो ग्रामकूटकः ॥ २३॥ भावार्थ — चित्रकार, पाप करनार, खराब वैद्य, अन्यायी राजा अने पांचमो गामने सतावनार - ए पांचे नरके जाय छे. २३ चैत्ये पूजा गुरौ भक्ति-दींने दानं जपस्तपः । सर्वाधिदुर्गभंगाय पंचैते वज्रमुद्गराः ॥ २४ ॥ भावार्थ – चैत्यपूजा, गुरुभक्ति, दनिने दान, जप तथा तप-ए पांच-सर्व आधिरूप किल्लाने भेदवामाटे वज्रना मुद्गर समान छे. २४ चेन्मुंचति घनोंऽगारांश्चेन्मज्जयति तारकः । राजा चेत्कुरुतेऽन्यायं का तत्र स्यात्प्रतिक्रिया२५ भावार्थ- जो मेघ अंगारा वरसावे, तारु पोते डूबे या डूबाडे अने राजा पोते अन्याय करे - त्यां बीजो उपाय शुं चाले. २५ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४८ ) छिन्नोऽपि चंदनतरुर्न जहाति गंधं वृद्धोऽपि वारणपतिर्न जहाति लीलाम् | यंत्रार्पिता मधुरतां न जहात्यपीक्षुः क्षीणोऽपि न त्यजति शीलगुणान् कुलीनः ॥ १ ॥ भावार्थ - चंदनवृक्ष कापतां पण ते सुगंध छोडतो नथी, वृद्ध थया छतां गजेंद्र पोतानी लीलाने ततो नथी अने शेलडीने यंत्रमां पीळवा छतां ते मधुरताने मूकती नथी, तेम कुलीन पुरुष, क्षीण थया छतां पोताना शीलादि गुणोने तजतो नथी. १ छिन्नमूलो यथा वृक्षो गतशीर्षो यथा भटः । धर्महीनो धनी तद्वत् कियत्कालं ललिप्यति २ - भावार्थ – मूलहीन वृक्ष अने शिररहित सुभटनी जेम धर्महीन धनवान् केटलो वखत सुख भोगवी शकशे ? अर्थात् नहि ज टकशे. २ छिन्नोऽपि रोहति तरु-चंद्रः क्षीणोऽपि वर्धते लोके । इति विमृशंतः संतः संतप्यते न लोकेऽस्मिन् ॥ ३ ॥ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४९ ) भावार्थ- वृक्ष छेदवामां आवतां पण ते पुनः नवपल्लवित थाय छे, चंद्र क्षीण छतां ते पुनः वृद्धि पामे छे- एम धारीने संत जनो आ जगतमां संतप्त थता नथी. ३ छायामन्यस्य कुर्वंति तिष्ठति स्वयमातपे । फलान्यपि परार्थाय वृक्षा सत्पुरुषाः इव ॥ ४॥ भावार्थ - जे पोते आतप ( तडका ) मां रहीमे अन्यने शीतल छाया आपे छे, एटलुंज नहि, पण जेओ जगतने फळो आपीने परोपकार करे छे-एवा वृक्षो ते खरेखर ! सत्पुरुषो जेवाज कहेवाय छे. ४ जामाता जठरो जाया जातवेदा जलाशयः । पूरिता नैव पूर्यंते जकाराः पंच दुर्भराः ॥ १ ॥ जननी जन्मभूमिश्च जाह्नवी च जनार्दनः । जनकः पंचमश्चैव जकाराः पंच दुर्लभाः ॥ २ ॥ भावार्थ - जमाइ, जठर, जाया, (स्त्री) अनि अने जलाशय - ए पांच जकार पूरतां पण पूराय नहि, माटे दुर्भर कहेल छे. अने जननी, जन्मभूमि, गंगा, (तीर्थ) Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . (१५० ) जनार्दन (भगवान् ) अने जनक-ए पांच जकार दुर्लभ कहेवामां आव्या छे. १-२ जनिता चोपनेता च यस्तु विद्यां प्रयच्छति । अन्नदाता भयत्राता पंचते पितरः स्मृताः॥३॥ __भावार्थ-जन्म आपनार, धर्ममार्ग बतावनार, शुभ विद्या आपनार, अन्नदाता अने भयथी बचावनार ए पांचने पितासमान कहेल छे. ३ जीवंतोऽपि मृताः पंच व्यासेन परिकीर्तिताः । दरिदो व्याधितो मूर्खः प्रवासी नित्यसेवकः ४ __ भावार्थ-व्यासमुनिए कह्यु छ के-दरिद्र, रोगी, मूर्ख, प्रवासी (नित्य मुसाफर ) अने सदा सेवक-ए पांच जीवता छतां मृतसमान छे.४ जलदो भास्करो वृक्ष-श्चंदमा धर्मदेशकः। एतेषामुपकाराणां नास्ति सीमा महीतले ॥५॥ भावार्थ--मेघ, सूर्य, वृक्ष, चंद्रमा अने धर्मोपदेश आपनार-ए पांचेना उपकारोनी जगतमां सीमा (हद ) नथी. अर्थात् बहु उपकारी छे. ५ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५१ ) जाड्यं धियो हरति सिंचति वाचि सत्यं मानोन्नतिं दिशति पापमपाकरोति । चेतः प्रसादयति दिक्षु तनोति कीर्ति सत्संगतिः कथय किं न करोति पुंसाम् ॥ ६ ॥ भावार्थ - अहो ! जे बुद्धिनी जडताने दूर करे छे, वाणीमां सत्यनुं सिंचन करे छे, मानोन्नतिमां लावे छे, पापने दूर करे छे, चित्तने प्रसन्न राखे छे अने चारे दिशामां कीर्त्तिने विस्तारे छे. हे मित्र ! सत्संगथी पुरुषोने शुं प्राप्त न थाय ? ६ जैनो धर्मः प्रकटविभवः संगतिः साधुलोके विद्वद्गोष्ठी वचनपटुता कौशलं सत्क्रियासु । साध्वी लक्ष्मीश्चरणकमलोपासना सद्गुरूणां शुद्धं शीलं मतिरमलिना प्राप्यते भाग्यवाः॥७ भावार्थ — प्रगट प्रभावी जैनधर्मनी प्राप्ति, साधुजनोनो संग, सुज्ञ जनो साथे गोष्टी, वचनपटुता, सत्क्रियाओमां कुशलता, सारी ( पुण्यानुबंधी ) लक्ष्मी, स Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५२) द्गुरुना चरण-कमळनी उपासना, शुद्ध शील अने निर्मळ मति-ए भाग्यवंत जनोनेज प्राप्त थई शके छे.७ जिनेंदपूजा गुरुपर्युपास्तिः सत्त्वानुकंपाशुभपात्रदानम् । गुणानुरागः श्रुतिरागमस्य नृजन्मवृक्षस्य फलान्यमूनि ॥ ८॥ __ भावार्थ-जिनपूजा, गुरुमहाराजनी सेवा, प्राणीओनी दया, सुपात्रे दान, गुणानुराग अने शास्त्रश्रवणए छ नरजन्मरूप वृक्षना फळा छे. ८ जठरामिः पचत्यन्नं फलं कालेन पच्यते । कुमंत्रैः पच्यते राजा पापी पापेन पच्यते॥९॥ भावार्थ-जठराग्नि अन्नने पचावे छे, काळ फळोने पकावे छे, राजा कुमंत्रीओथी पचे छे अने पापी पोताना पापथीज पच्या करे छे. ९ जल्पंति सार्धमन्येन पश्यंत्यन्यं सविभ्रमाः। हृद्तं चिंतयंत्यन्यं प्रियः को नाम योषितः॥१० भावार्थ- अहो ! स्त्रीओ एक पुरुष साथे वातो Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५३ ) करे छे, अन्यने विभ्रमथी निहाळे छे अने हजी त्रीजाने अंतरथी चिंतवे छे, तो स्त्रीओने प्रिय कोण होय ?१० जीवाः सुखेच्छवः सर्वे सुखं धर्मात्मजायते । जीवनं तस्य कारुण्यं प्राहुः स्तन्यं शिशोरिव ११ __ भावार्थ-सर्व जीवोने सुखनी इच्छा होय छे, ते सुख धर्मथीज थइ शके; अने बाळकने स्तनना दूधनी जेम ते धर्मनुं जीवन दयाज कहेवामां आवेल छे. ११ जालान्मुच्येत मानोऽपि वीतंसाद्याति पक्ष्यपि । गजोऽपि गच्छत्यालाना-स्त्रीपाशान्न पुनर्नरः१२ भावार्थ-माछलु कदाच जाळथी मुक्त थइ शके, पक्षी पाशमाथी मुक्त थइ शके, अने हाथी कदाच आलान-स्तंभाथी मुक्त थई शके, परंतु पुरुष स्त्रीना पाशमाथी कदापि मुक्त थइ शकतो नथी. १२ जैनश्रुतामृतास्वाद-मनुसूयापि पापिनि । किं सुरापानव्यसने रसने गलितासि नः॥१३॥ भावार्थ-हे रसना ! जैनशास्त्रामृतनुं पान करतां पण हजी हे पापणी! तुं सुरापानना व्यसनमां केम आसक्त थइ गइ छे. १३ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५४ ) जाता ये योषितामिष्टा-स्ते भ्रष्टा एव धर्मतः। विषवल्लीवनं लीनाः कचिजीवंति ते नराः॥१४ ___ भावार्थ-जे पुरुषो स्त्रीओने इष्ट थया, तेओ धर्मथी भ्रष्ट थाय छे. विषवल्लीना वनमां लीन थया पछी तेओ शुं जीववाना हता ? १४ जंतुघातं प्रकुर्वति क्षणिकस्वात्मतृप्तये । शीतलेशापनोदाय दवदानमिवाधमाः॥१५॥ भावार्थ-पोताने क्षणिक तृप्ति थाय तेने माटे जेओ प्राणीओनो वध करे छे, ते अधम जनो अल्पशीतने दूर करवा दावानल सळगाव्या जेवू करे छे. १५ जयंति जितमत्सराः परहितार्थमभ्युद्यताः पराभ्युदयसुस्थिताः परविपत्तिखेदाकुलाः। महापुरुषसत्कथाश्रवणजातकौतुहलाः । समस्तदुरितार्णवप्रकटसेतवः साधवः ॥ १६ ॥ भावार्थ-जेमणे मत्सरनो जय कयों छे, जे परो. पकार करवाने सदा तत्पर छे, अन्यना अभ्युदयने माटे जे प्रयत्नशील छे, परनी विपत्ति जोइने जे खेदाकुळ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५५ ) थाय छे, महापुरुषोनी सत्कथा सांभळवाने जे सदा कौतुकी छे तथा समस्त पापरूप समुद्रना साक्षात् सेतु (पुल) रूप एवा साधुमहात्माओ सदा जयवंत वर्ते छे. १६ जनयंत्यर्जने दुःखं तापयंति विपत्तिषु । मोहयंति च संपत्तौ कथमर्थाः सुखावहाः ॥ १७ भावार्थ - अहो ! जेने उपार्जन करतां कष्ट थाय छे, नाश थतां जे संताप उत्पन्न करे छे, प्राप्त थतां जे अत्यंत मोह पमाडे छे तो लक्ष्मी सुखकारी छे - एम केम कही शकाय ? १७ जलबिंदुनिपातेन क्रमशः पूर्यते घटः । स हेतुः सर्वविद्यानां धर्मस्य च धनस्य च ॥ १८ ॥ भावार्थ - - पाणीना बिंदु बिंदुथी जेम अनुक्रमे घडो भराय छे, ते प्रमाणे सर्व विद्याओ, धर्म अने धननो पण आस्ते आस्ते संग्रह थई शके छे. १८ जले तैलं खले गुह्यं पात्रे दानं मनागपि । प्राज्ञे शास्त्रं स्वयं याति विस्तारं वस्तुशक्तितः १९ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५६ ) भावार्थ-पाणीमां तेल, खळ पुरुषमा गुह्य, (छानी. वात) सुपात्रे दान अने सुज्ञ जनमां शास्त्र-ए अल्प छतां वस्तुशक्तिथी स्वयमेव विस्तारने पामे छे. १९ जानीयात्संगरे भृत्यान् बांधवान्व्यसनागमे । आपत्कालेषु मित्राणि भार्यां च विभवक्षये २० भावार्थ रणसंग्राममां सेवकोनी खबर पडे छे, संकटवखते बांधवोनी खबर पडे छे, आपत्तिसमये मिबोनी अने निर्धनता वखते स्त्रीनी खबर पडे छ अर्थात् तेमनी कसोटी थाय छे. २० जातेति कन्या महती हि चिंता कस्मै प्रदेयति महान्वितर्कः । दत्ता सुखं यास्यति वा न वोत कन्यापितृत्वं खलु नाम कष्टम् ॥ २१॥ भावार्थ-कन्या जन्म पामे, एटले मोटी चिंता थई पडे छे के हवे आ कोने आपवी ? वळी आप्या पछी पण हमेशां विचार थया करे छे के ए सुखी थशे के नहि ? अहो ! खरेखर ! कन्याना पिता थq-ए पण मोटामां मोटुं कष्ट छे. २१ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५७ ) जानंति पशवो गंधा- द्वेदाज्जानंति पंडिता: । चाराजानंति राजान-श्चक्षुर्म्यामितरे जनाः २२ भावार्थ --- पशुओ गंधथी जाणी शके छे, मंडितो वेद ( शास्त्राभ्यास ) थी जाणी शके छे, राजाओ चरपुरुषोथी जाणी शके छे अने इतर जनो बधा चक्षुथी जाणी अने जोइ शके छे. २२ राजन दुधुक्षसि यदि क्षितिधेनुमेतां तेनाद्य वत्समिव लोकममुं पुषाण । तस्मिंश्च सम्यगनिशं परिपोष्यमाणे नानाफलैः फलति कल्पलतेव भूमिः ||२३|| भावार्थ - हे राजन् ! जो तारे आ पृथ्वीरूप गायने दोहवानी इच्छा होय, तो आ लोकोनुं वत्सनी जेम पोषण कर. एनुं सम्यक् प्रकारे निरंतर परिपोषण करवाथी कल्पलतानी जेम ए भूमि विविध फळो आपी तने आनंदित करशे. २३ जलमग्निर्विषं शस्त्रं क्षुद्व्याधिः पतनं गिरेः । निमित्तं किंचिदासाद्य देही प्राणान् विमुंचति २४ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५८) भावार्थ-जळ, अग्नि, विष, शस्त्र, क्षुधा, व्याधि अने पर्वत परथी पतन-एमांगें कंइक निमित्त लइने जीव प्राणोथी मुक्त थाय छे ( मरण पामे छे ). २४ जडे प्रभवति प्रायो दुःखं विभ्रति साधवः। शीतांशावुदिते पद्माःसंकोचं यांति वारिणि २५ भावार्थ-जड (अज्ञ) पुरुषनी सत्ता वधतां प्राये साधुजनो संताप पामे छे. कारण के चंद्रमानो उदय थतां पद्मो पाणीमां संकोच पामे छे. २५ जवो हि सप्तेः परमं विभूषणं अपांगनायाः कृशता तपस्विनः । द्विजस्य विद्या नृपतेरपि क्षमा पराक्रमः शस्त्रबलोपजीविनाम् ॥ २६ ॥ __ भावार्थ-अश्वनुं भूषण वेग छे, स्त्रीनुं भूषण लज्जा छे, तपस्वीनुं भूषण दुर्बळता छ, ब्राह्मणनुं भूषण विद्या छे, राजानुं भूषण क्षमा अने शूरवीरोनुं भूषण पराक्रम छे. २६ जातमात्रं न यः शत्रु व्याधि वा प्रशमं नयेत् । अतिपुष्टांगयुक्तोऽपि स पश्चात्तेन हन्यते ॥२७॥ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५९ ) भावार्थ--शत्रुके व्याधि, उत्पन्न थतांज जे तेनो नाश करतो नथी, ते अत्यंत पुष्ट छतां पछीथी तेना. वडे नाश पामे छे. २७ टंकच्छेदे न मे दुःखं न दाघे न च घर्षणे । एतदेव महदुःखं गुंजया सह तोलनम् ॥१॥ भावार्थ--सुवर्ण कहे छ के-टंकथी मारो छेद थतां मने दुःख नथी, तेम तपावतां या घसतां पण मने कंड खेद थतो नथी, परंतु खेद मात्र एटलोज छे के चणो. ठीनी साथे मने तोळे छे-तेथी मने बहुज दुःख थाय मारी हलकाइ थाय छे. १ तेजोमयोऽपि पूज्योऽपि घातिना नीचधातुना। लोहेन संगतो वह्निः सहते घनताडनम् ॥१॥ भावार्थ-पोते तेजोमय अने पूज्य छतां अग्नि, घाती अने नीच धातु एवा लोहना संगथी घणनी ताडनाने सहन करे छे. १ तृतीयं लोचनं ज्ञानं द्वितीयो हि दिवाकरः। अचौर्यहरणं वित्तं विना स्वर्णं विभूषणम् ॥२॥ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६० ) भावार्थ - - ज्ञान - ए बीजं लोचन छे, दिवाकर - सूर्य समान छे. वळी ते बीजा थी न चोरी शकाय ते धन छे अने सुवर्ण विना पण ते भूषण समान छे. २ तावन्माता पिता चैव तावत्सर्वेऽपि बांधवाः । तावद्भार्या सदा हृष्टा यावल्लक्ष्मीः स्थिरा गृहे ॥ ३ भावार्थ - माता, पिता, बधा बांधवो अने स्त्री पण त्यां सुधीज राजी - अनुकूल रहे छे, के ज्यां सुधी घरमां लक्ष्मी स्थिर छे. ३ तावन्महत्त्वं पांडित्यं कुलीनत्वं विवेकिता । यावज्ज्वलति नांगेषु हंत पंचेषुपावकः ॥ ४ ॥ भावार्थ - महत्त्व, पांडित्य, कुलीनता अने विवेकिता त्यां सुधीज रहे छे-के ज्यां सुधी कामाग्नि अंगमां जाग्रत थयो नथी. त्यक्तेऽपि वित्ते दमितेऽपि चित्ते ज्ञातेऽपि तत्त्वे गलिते ममत्वे । दुःखैकगेहे विदिते च देहे तथापि मोहस्तरुणप्रवाहः ॥ ५ ॥ भावार्थ - धननो त्याग कर्या छतां, मनने काबुमां राख्या छतां, तत्त्वने जाण्या छतां ममत्वने गाळ्या Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६१) छतां अने शरीरने दुःखनुं स्थान मान्या छतां अहो ! मोहनो प्रवाह तो हजी ताजोज छे. ५ ते पुत्रा ये पितुर्भक्ता स पिता यस्तु पोषकः । तन्मित्रं यत्र विश्वासः सा भार्या यत्र निर्वृतिः६ भावार्थ-पुत्रो तेज के जे पिताना भक्त होय, पिता तेज के जे पोषक होय, मित्र तेज के जेमा विश्वास रहे अने स्त्री तेज के ज्यां कांई सुखनी आशा राखी शकाय ते शिवाय आ चारे व्यर्थ.६ । तृणं ब्रह्मविदः स्वर्ग-स्तृणं शूरस्य जीवितम् । विरक्तस्य तृणं नारी निरीहस्य तृणं नृपः ॥७॥ भावार्थ-ब्रह्मज्ञानीने स्वर्ग तृणसमान छे, शूरवींरने पोतानुं जीवित तृण जेवू छे, विरक्तने स्त्री अने निरीह-निर्ममने राजा तृणसमान छे. ७ तव प्रसादप्रासाद-शृंगाग्रमधितस्थुषः । प्रभूयते विपद्व्याघी धावमानापि नार्दितुम् ॥८॥ भावार्थ-हे विभो ! तमारा प्रसादुरूप प्रासादना Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६२) अग्रभाग पर स्थिति करतां विपत्तिरूप वाघण दोडती पण मारो पराभव करवा समर्थ थई शकती नथी.८ तनया यस्य भूयांसः स स्यात्प्रायेण निर्धनः । धनं यस्य न तस्यामी धिम् विधे तव चेष्टितम् ९ भावार्थ-जेने घणा पुत्रो होय-ते बहुधा निर्धन होय छे, अने जे धनवंत होय, तेने पुत्रो होता नथी. अरे ! विधाता ! तने धिक्कार थाओ. ९ तत्पालौ केनचिन्नाना-दर्शनद्रुममध्यगः ॥ भाग्येन लक्ष्यते जैनो धर्मः कल्पद्रुमोपमः ॥१०॥ __ भावार्थ-दयारूप नदीनी पाळपर विविध दर्शनोंना मध्यमां आवेल कल्पवृक्षसमान जैन धर्म कोई महाभाग्ययोगेज लक्ष्यमां आवी शके छे. १० त्रिदोषगहनस्यास्य प्रतीकारो विकारिणः । को नाम सुश्रुतादन्यो यौवनस्यामयस्य च ॥११॥ भावार्थ-त्रिदोषथी गहन अने विकारमय एवा यौवन तथा रोगनो सुश्रुत ( वैद्य) विना अन्य शुं प्रतीकार ( इलाज ) होइ शके ? ११ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६६) तन्वंग्यश्च भुजंग्यश्च तुल्याः साधुभिरूचिरे । इमा विशेषतो वेश्याः शुभलेश्या निशुभिकाः१२ भावार्थ-स्त्रीओ अने सर्पिणीओने सज्जनोए समान कहेल छे. परंतु शुभलेश्यानो नाश करनारी वेश्याओने ते करतां पण वधारे अधम गणेल छे. १२ तदाहतेषु चैत्येषु मांगल्यः कंबुरध्वनत् । निशि प्रसुप्तं श्रीधर्मभूपमुबोधयन्निव ॥१३॥ भावार्थ-ते वखते आहत चैत्योमां मांगलिक शंखनो ध्वनि थयो, ते जाणे रात्रे सुतेल श्रीधर्मराजाने जगाडतो होय-तेवो भासतो हतो. १३ तप्तविहे अपि स्वर्ण-मौक्तिके जगतः श्रिये । सौरभ्यहेतू श्रीखंडागरू छिन्ने दहत्यपि ॥१४॥ .. भावार्थ-सुवर्णने तपावतां अने मोतीने वींधतां पण ते जगतने शोभा आपे छे. तेम चंदन तथा अगरुने घसतां के बाळतां ते सुगंधज आपे छे. १४ तुंगं स्थिरं विशालं च कुलं अंशयति क्षणात् । महिला मुक्तमर्यादा वार्दिवेलेव पर्वतम् ॥१५॥ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६५) मावार्थ-मर्यादाने मूकनार, समुद्रवेळ जेम पर्वतने, तेम स्त्री, उंचा, स्थिर विशाल एवा कुलने सत्वर भ्रष्ट ( कलंकित ) करे छे. १५ तद्यावन्न जराभ्येति तावन्निजहिते यते। न पालिः शक्यते बद्धं पयःपूरे प्रसर्पति ॥१६॥ ___ भावार्थ-ज्यांसुधी जरा-राक्षसी आवीने घेरी न ले, त्यांसुधीमां मारे पोताना हित माटे सतत उद्यम करवो योग्य छे. कारण के पाणी प्रसर्या पछी पाळ बांधवी बहु मुश्केल थई पडे छे. १६ तं प्राप्यापि प्रमादेन विचारजडबुद्धयः। एरंडमिव मन्वानाः केऽपि स्युर्दुःखभाजनम् १७ भावार्थ-आवा सर्वोत्कृष्ट मनुष्यजन्मने पामीने पण केटलाक विचारमा जडबुद्धि जनो तेने एरंड समान मानीने दुःखना भाजन थाय छे. १७ त्यजेदधिपमन्यायं वयस्यं दांभिकं त्यजेत् । दृष्टापायं त्यजेद्दासं त्यजेद्धमै दयोज्झितम्॥१८॥ भावार्थ-अन्यायी स्वामीनो त्याग करवो, दांभि Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६५ ) क ( कपटी ) मित्रनो त्याग करवो, साक्षात् ज्यां भय जीवामां आवे एवा निवासस्थाननो त्याग करवो अने दयाहीन धर्मनो पण त्याग करवो. १८ तत्यजे यच्चिरंभुक्त-मपि सांसारिकं सुखम् । न जातु तत्र सोऽरंस्त निर्मोक इव पन्नगः ॥ १९ भावार्थ - चिरकाळ भोगवेल छतां सांसारिक सुखने त्याग करतां कांचळी विनाना सर्पनी जेम ते त्यागी पुरुष पुनः तेमां कदापि रमतो नथी. १९ तस्करस्य कुतो धर्मो दुर्जनस्य कुतः क्षमा । वेश्यानां च कुतः स्नेहः कुतः सत्यं च कामिनाम् २० भावार्थ - चोरने धर्म, दुर्जनने क्षमा, वेश्याने प्रेम अने कामी जनीने सत्य क्यांथी होय ? २० तक्षकस्य विषं दंते मक्षिकाया विषं शिरः । वृश्चिकस्य विषं पुच्छे सर्वांगे दुर्जनस्य च ॥ २१॥ भावार्थ- सर्पना दांतमां विष होय छे, मक्षिकाना शिरमां, वींछीना पुंछमां अने दुर्जनना सर्वांगे विष रहेल होय छे, सर्पादिथी पण दुर्जन बुरो. २१ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६६) तादृशी जायते बुद्धि-र्व्यवसायोऽपि तादृशः। सहायास्तादृशाश्चैव यादृशी भवितव्यता॥२२॥ भावार्थ-जेवी भवितव्यता होय, तेवी बुद्धि उ. त्पन्न थाय, तेवो व्यवसाय मळे अने सहाय पण तेवाज प्रकारनी मळे छे. २२ तावत्सर्वगुणालयः पटुमतिः साधुः सतां वल्लभः शूरः सच्चिरितः कलंकरहितोमानी कृतज्ञः कविः। दक्षो धर्मरतः सुशीलगुणवांस्तावत्प्रतिष्ठान्वितो यावनिष्ठुरवज्रपातसदृशं देहीति नो भाषते ॥२३ भावार्थ-त्यांसुधीज माणस सर्व गुणोनुं स्थान, पटु बुद्धिवाळो, साधु, संतजनोने वल्लभ, शूरवीर, सारा आचारवाळो, कलंकरहित, मानी, कृतज्ञ, कवि, दक्ष, धर्मसहित, सुशील अने प्रतिष्ठायुक्त रही शके छे के ज्यांसुधी ते निठुर वज्रपात समान कठोर एबुं वचन बोलतो नथी. २३ __ त्यजति मित्राणि धनैर्विहीनं पुत्राश्च दाराश्च सुहृद्गणाश्च । तमर्थमंतं पुनराश्रयंति अर्थों हि लोके पुरुषस्य बंधुः ॥२४॥ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६७ ) भावार्थ - धनहीन जनने मित्रो, पुत्रो, स्त्री अने संबंधीओ तजी दे छे अने तेज जो धनवान् होय तो तेनो बधा जनो आश्रय करे छे. जगतमां खरेखर ! धन- ए पुरुषनो बंधु छे. २४ त्याज्या हिंसा नरकपदवी नानृतं भाषणीयं स्तेयं हेयं सुरतविरतिः सर्वसंगान्निवृत्तिः । जैनो धर्मो यदि न रुचितः पापपकावृतेभ्यः सर्पिर्दुष्टं किमिदमियता यत्प्रमेही न भुंक्ते ॥ २५ ॥ भावार्थ-नरकना स्थानरूप हिंसानो त्याग करवो, असत्य न बोलवुं, चोरी न करवी, मैथुनथी निवृत्त थवं अने सर्व प्रकारना संगथी निवृत्त रहेवुं - आवा प्रकारनो जैनधर्म- जो पापपंकथी खरडायला जनोने न रुचे, तो तेथी प्रमेहीने घृत न भावे, तेथी शुं त खराब छे एम कही शकाशे ? २५ तावद्भयस्य भेतव्यं यावद्भयमनागतम् । आगतं तु भयं दृष्ट्वा प्रहर्तव्यमशंकितैः ॥ २६ ॥ भावार्थ - ज्यांसुधी मय आवेल न होय, त्यां Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६८) सुधीज भयथी डरवानुं छे, पण मयने माथे आवेल जोइने निडर-दृढ थइने तेनी सामे उभा रहे. २६ तोयं निर्मथितं घृताय मधुने निप्पीडितः प्रस्तरः पानार्थं मृगतृष्णिकोर्मितरला भूमिः समालोकिता । दुग्धा सेयमचेतनेन जरती दुग्धाशया सूकरी कष्टं यत्खलु दीर्षया धनतृषा नीचो जनः सेवितः ॥ २७ ॥ भावार्थ-अहो ! अचेतन जेवा में घृतनी खातर पाणी वलोव्युं, मधनी खातर पाषाण पील्युं, जळपाननी खातर मृगतृष्णिकाना तरंगोथी तरल एवी भूमिर्नु अवलोकन कर्यु, दूधनी इच्छाथी वृद्ध मुंडणने दोही अने बहु खेदनी वात छे के धननी लांबी इच्छाथी नीच जननी पण में सेवा करी. २७ तरुमूलादिषु निहितं जलमाविर्भवति पल्लवायेषु । निभृतं यदुपक्रियते तदपि महांतो वहंत्युच्चैः ॥ २८॥ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६९) . भावार्थ-वृक्षोना मूळीयामां नाखवामां आवेल जळ पल्लवोना अग्रभागपर प्रगट थाय छे. ते प्रमाणे गुप्त रीते कई उपकार करवामां आवे, तो पण महर पुरुषो तेने बहुज उत्कृष्ट समजीने धारण करे छे. २८ ते साधवो भुवनमंडलमौलिभूता ये साधुतां निरुपकारिषु दर्शयंति। आत्मप्रयोजनवशीकृतखिन्नदेहः पूर्वोपकारिषु खलोऽपि हि सानुकंपः॥ भावार्थ-तेज साधुओ भुवन मंडळना मुगटरूप छे के जेओ निरुपकारी जनो तरफ पण पोतानी सजनता प्रदर्शित करेछे. कारण के पोताना प्रयोजननी खातर वशीभूत तथा पर उपकारथी विमुख थयेल एवो खलपुरुष पण पूर्वना उपकारी जनोपर तो अनुकंपाज दर्शावे छे. २९ तृष्णां छिंधि भज क्षमा जहि मदं पापे रति मा कृथाः सत्यं ब्रूह्यनुयाहि साधुपदवीं सेवस्व विद्वजनान् । मान्यान्मानय विद्विषोऽप्यनुनय Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७० ) ह्याच्छादय स्वान् गुणान् कीर्तिं पालय दुःखिते कुरु दयामेतत्सतां लक्षणम् ॥ ३० ॥ भावार्थ - हे भव्यात्मन् ! तृष्णानुं छेदन कर, क्षमानुं सेवन कर, मदनो त्याग कर, पापमां रति मा राख, सत्य बोल, साधुमार्गने अनुसर, सुज्ञ जनोनी सेवा कर, पूज्य जनोनो सत्कार कर, शत्रुओने शिक्षा आपपोताना गुणोने गुप्त राख, कीर्तिना काम कर अने दुःखी जनोपर दया कर-कारण के ए संत जनोनुं लक्षण छे. ३० तुरगशतसहस्रं गोगजानां च लक्षं कनकरजतपात्रं मेदिनीं सागरांताम् । विमलकुलवधूनां कोटिकन्याश्च दद्यान्नहि नहि सममेतैरन्नदानं प्रधानम् ॥ ३१ ॥ भावार्थ — सेंकडो के हजारो अश्वो आपो, गायो अने लाखो हाथीओ आपो, सुवर्ण के चांदीना पात्रो आपो अथवा सागर सुधीनी भूमि दानमां आपो अगर कोटि कुलीन कन्याओ आपो परंतु ते अन्नदा 4 Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७१) ननी तुलना करी शके तेम नथी. कारण के बधा शास्त्रोमा अन्नदानने प्रधान कहल छे. ३१ । तृणादपि लघुस्तूलस्तूलादपि च याचकः। वायुना किन नीतोऽसौ मामयं प्रार्थयेदिति ३२ भावार्थ-तणखला करता रु हलकुं होय छे, रुः करतां पण याचक हलको गणाय छे. कारण के ' आ मारी पासे वखतसर कंइ मागशे' एम धारीनेज वायु तेने लई-घसडी जतो नथी. ३२ तृणं चाहं वरं मन्ये नरादनुपकारिणः । घासो भूत्वा पशून्पाति भीरून्पाति रणांगणे ३३॥ भावार्थ-उपकार विनाना पुरुष करतां तणखटुं पण वधारे सारं छे. कारण के ते खोराक थईने पशुओनुं पालन करे छे. अने रणसंग्राममां बीकण जनोनुं. ते रक्षण करे छे ३३ ते धन्याः पुण्यभाजस्ते तैस्तीर्णः क्लेशसागरः। जगत्संमोहजननी यैराशाशीविषी जिता ॥३४॥ भावार्थ-खरेखर ! जगतमां तेज पुरुषो धन्य, पु Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७२) ण्यवंत छे तथा तेओज आ संसार-सागरने तर्या छ, के जेओ, जगतने मोह उपजावनार ओवी आशा-रूप सर्पिणीने जीत्या छे. ३४ तृष्णा चेह परित्यज्य को दरिदः क ईश्वरः। तस्याश्चेत्प्रसरोदत्तो दास्यं च शिरसि स्थितम् ३५ भावार्थ-जो तृष्णानो त्याग करवामां आवे-तो पछी कोण दरिद्र अने श्रीमंत छे. परंतु जो तेने अवकाश आपवामां आवे, तो सेवकपणुं तेना, शिरपरज बेठेल छे. ३५ तेनाधीतं श्रुतं तेन तेन सर्वमनुष्ठितम् । येनाशाः पृष्ठतः कृत्वा नैराश्यमवलंबितम् ॥३६॥ भावार्थ-तेणेज अध्ययन कर्यु, श्रवण कर्यु अने आचर्यु प्रमाण छे, के जेणे आशाने अलग करीने निराशानुं अवलंबन कयुं छे. ३६ विविधाः पुरुषा राजन्नुत्तमाधममध्यमाः। नियोजयेत्तथैवैतांत्रिविधेष्वपि कर्मसु ॥ ३७॥ भावार्थ-हे राजन् ! जगतमां उत्तम, मध्यम अने Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७३) अधम-एम त्रण प्रकारना पुरुषो होय छे. माटे तेमने अनुकूळ त्रण प्रकारना कर्ममा जोडवा ते वधारे उचित छे. ३७ त्यजेत्क्षुधातॊ महिलां सपुत्रां खादेत्क्षुधार्ता भुजगी स्वमंडम् । बुभुक्षितः किं न करोति पापं क्षीणा नरा निष्करुणा भवंति ॥ ३८ ॥ भावार्थ-क्षुधार्त पुरुष पुत्रसहित पोतानी स्त्रीने तजी दे छे, क्षुधार्त नागण पोताना बच्चानुं भक्षण करी जाय छे. अहो बुभुक्षित (क्षुधात ) पुरुष शुं पाप न करे ? कारण के क्षीण पुरुषो निर्दय (क्रूर.) बनी जाय छे. ३८ त्याज्यं न धैर्य विधुरेऽपि काले धैर्यात्कदा चिद्गतिमाप्नुयात्सः। यथा समुदेऽपि च पोतभंगे सांयात्रिको वांछति तर्जुमेव ॥ ३९ ॥ भावार्थ-संकट वखते पण पुरुषोए पोतानुं धैर्य गुमावी देवू न जोइए, कारण के धैर्यथी वखतसर ते पोतानी मूळ स्थितिने पामी शके छे. जुओ समुद्रमा Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७४) वहाण भांगे, त्यारे नाविक (खारवो ) तरवानेज इच्छे छे. ३९ _तृणानि नोन्मूलयति प्रभंजनो मृदूनि नीचैः प्रणतानि सर्वतः । समुच्छ्रितानेव तरून्प्रवाधते महान्महत्स्वेव करोति विक्रमम् ॥४॥ भावार्थ-चारे बाजु नीचे नमी गयेला, अने कोमळ एवा तृणखलाने पवन उखेडतो नथी. परंतु ते उंचा (उन्नत) वृक्षोनेज निर्मूळ करे छे. महान् तो मोटाओनी साथेज पोताना पराक्रमने अजमावे छे.४० तावत्कुलस्त्रीमर्यादा यावल्लजावगुंठनम् । हृते तस्मिन्कुलस्त्रीभ्यो वरं वेश्यांगनाजनः॥४॥ ___ भावार्थ-कुलीन कांताओ त्यांसुधीज मर्यादामां रही शंके छे, के ज्यांसुधी तेओ लज्जारूप वस्त्रथी आच्छादित छे. ज्यारे ते वस्त्र हराई जाय छे, त्यारे तेमना करतां वेश्याओ सारी समजवी. ४१ त्यागो गुणो वित्तवतां वित्तं त्यागवतां गुणः । परस्परवियुक्तौ तु वित्तत्यागौ विडंबना ॥४२॥ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७५ ) भावार्थ - धनवंतोनो गुण दान छे, अने दातारोनो गुण- ते धन छे. परंतु जो धन अने दान - ए बने वियुक्त थाय तो विडंबना मात्रज छे. ४२ द्यतादाज्यविनाशनं नलनृपः प्राप्तोऽथवा पांडवा मद्यात्कृष्णनृपश्च राघवपिता पापर्द्धितो दूषितः । मॉसाच्छ्रेणिकभूपतिश्च नरके चौर्याद्विनष्टा न के वेश्यातः कृतपुण्यको गतधनोऽन्यस्त्रीहतो रावणः भावार्थ --- जुगारथी नळराजा तथा पांडवोए पोतानुं राज्य खोयुं, मद्यथी कृष्णराजा तथा शिकारथी राघव पिता दूषित थयो, मांसथी श्रेणिकराजा नरकमां पड्यो, चोरीथी केटलाये विनष्ट थया, वेश्याना संगे कृतपुण्य निर्धन बन्यो अने अन्य स्त्रीना संगथी रावण रणमां रोळायो. १ देवयात्रा विवादेषु संभ्रमे राजदर्शने । संग्रामे हट्टमार्गे च स्पृष्टास्पृष्टिर्न दुष्यति ॥ २॥ भावार्थ – देवयात्रा, विवाद, संभ्रम ( मूर्च्छा ), राजदर्शन, संग्राम अने हाटमागमां स्पर्शास्पर्शनो दोष लागतो नथी. २ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७६) दाने तपसि शौर्ये च विज्ञाने विनये नये । विस्मयो न हि कर्त्तव्यो बहुरत्ना वसुंधरा॥३॥ ___ भावार्थ-दान, तप, शौर्य, विज्ञान विनय अने नय-एमां विस्मय न पामवो. कारण के 'बहुरत्ना वसुंधरा, कहेवाय छे. ३ देवो गुरुः पिता माता सखा स्वामी त्वमेव मे। तत्प्रसद्य विपन्मयां मां कृपालय पालय ॥ ४ ॥ भावार्थ-हे नाथ ! आपज मारा देव, गुरु, पिता माता, मित्र, अने स्वामी छो. हे दयानिधान ! आप प्रसन्न थइने विपत्तिमां मग्न थयेल मारा आत्मानुं रक्षण करो. ४ देवता दुर्बला यत्र यत्र कुंठाः पराक्रमाः। मंत्रादिभिरसाध्यं य-त्तधर्मेणाशु साध्यते॥५॥ ___ भावार्थ-ज्यां देवताओ पण दुर्बळ थई जाय छे, ज्यां पराक्रमो बधा कुंठित छे अने जे मंत्रादिकथी पण असाध्य छ-ते धर्मथी सत्वर साध्य थाय छे. ५ दैवायत्ताः श्रियः सर्वा नूनं गौणो गुणाग्रहः। कुर्विदाः पतिता गर्ते शश्वगुणरता अपि ॥६॥ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७७ ) भावार्थ - लक्ष्मी बधी दैवाधीन छे अने गुणो ए तेना करतां गौण छे. कारण के वणकरो सदा गुण ( तंतु ) रक्त छतां खाडामां पड्या रहे छे. ६ दोषा योषासु निःशेषा अपि प्राप्तपदाः सदा । पुनः स्त्रीलिंगसाधर्म्या - न्मन्ये मायामहाग्रहाः ॥ ७ भावार्थ- समस्त दोषो स्त्रीओमां स्थान करीने रहेला होय छे. तेमां पण वळी स्त्रीलिंगना साधर्म्यथी हुं धारुं छु के ते मायारूप महाग्रहो संयुक्त होय छे. ७ देहच्छाया विभूषा च स्वामित्वमभिमानिता ।. सुखं च पंच नारीणां न संत्यसति वल्लभे ॥८॥ भावार्थ- पोताना वल्लभ ( पति ) ना अभावे स्त्रीओने देहकांति, शणगार, स्वामित्व, अभिमानिता, अने सुख-ए पांच वाना न होय. ८. देशाटनं पंडितमित्रता च वारांगना राजसभाप्रवेशः । अनेकशास्त्राणि विलोकितानि चातुर्यमूलानि भवंति पंच ॥ ९ ॥ १२ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७८) भावार्थ-देशाटन, पंडितो साथे मित्रता, वारांगनाओ साथे परिचय तथा राजसभामा प्रवेश अने अनेक शास्त्रोनुं अवलोकन-ए पांच चतुराइना मूल छे.९ दुर्जनं सजनं कर्तु-मुपायो न हि भूतले। अपानं शतधा धौतं न श्रेष्ठमिन्द्रियं भवेत् ॥१०॥ भावार्थ-दुर्जनने सज्जन बनाववानो उपाय कोइ जगतमा नथी. अपान (गुदास्थान) ने सोवार धोया छता ते श्रेष्ठ इंद्रिय थवानी नथी. १० . दुष्टस्य दंडं सुजनस्य पूजा न्यायेन कोशस्य च संपवृद्धिः । अपक्षपातो निजराष्ट्रचिंता पंचापि धर्मा नृपपुंगवानाम् ॥ ११॥ __ भावार्थ-दुष्टने दंड आपवो, सुजननो सत्कार करवो, न्यायथी भंडारनी वृद्धि करवी, पक्षपातनो त्याग अने पोताना देशनी चिंता राखवी-राजाओना ए मुख्य पांच धर्मों छे. ११ दूरस्थं जलमध्यस्थं धावंतं धनगर्वितम् । क्रोधवंतं मदोन्मत्तं नमस्कारोऽपि वर्जयेत्॥१२॥ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७९) भावार्थ-दूर रहेल, पाणीना मध्य भागमा रहेल, दोडनार, धनथी गर्विष्ठ थयेल, क्रोधी अने मदोन्मत्त एमने नमस्कार पण न करवो. १२ 'दानेन पाणिनं तु कंकणेन स्नानेन शुद्धिर्न तु चंदनेन । मानेन तृप्तिनं तु भोजनेन ज्ञानेन मुक्तिर्न तु मुंडनेन ॥ १३॥ . भावार्थ-हस्त, कंकणथी नहि पण दानथीज शोभे छ, शुद्धि, चंदनथी नहि पण स्नानथी थाय छ, तृप्ति, मोजनथी नहि पण मानथी अने मुक्ति, मुंडनथी नहि पण ज्ञानथीज (मले छे) थाय छे. १३ दश धर्मं न जानन्ति जीवाः कर्मानुसारतः तस्मादेतेषु सर्वेषु न प्रसज्जेत पंडितः॥ (मत्तः प्रमत्त उन्मतः श्रांतः क्रोधी बुभुक्षितः। त्वरमाणश्च लुब्धश्च भीतः कामी च ते दश)१४ भावार्थ-मत्त, मदोन्मत्त, उन्मत्त, श्रांत, क्रोधी, क्षुधातुर, उतावलो (चपळ ) लुब्ध, भीत (बीकण ) अने कामी ए दश प्रकारना जीवो कर्म बहुलताने Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८०) लीधे धर्मने जाणी शकता नथी. माटे सुज्ञ जनोए ए बधाओने समजाववानों वधारे परिश्रम न वेठवो. १४ दाता न दापयति दापयिता न दत्ते यो दानदापनपरो मधुरं न वक्ति । दानं च दापनमयो मधुरा च वाणी त्रीण्यप्यमूनि खलु सत्पुरुषे वसंति १५ भावार्थ-जे दाता होवा छतां दान अपावे नहि, जे अपावनार होवा छतां आपे नहि अने दान देवा देवराववामां जे तत्पर छतां मधुर बोलतो नथी. दान आपवू, अपावq अने मधुर वाणी बोलवी-ए त्रणे गुणो तो मात्र सत्पुरुषमांज विद्यमान होय छे. १५ दुर्जनः परिहर्त्तव्यो विद्ययालंकृतोऽपि सन् । मणिना भूषितः सर्पः किमसौ न भयंकरः॥१६॥ भावार्थ-विद्याथी अलंकृत छतां दुर्जननो त्याग करवो उचित छे. मणिथी विभूषित सर्प शुं भयंकर न होय ? १६ दानं सुपात्रे विशदं च शीलं तपो विचित्रं Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८१ ) शुभभावना च । भवार्णवोत्तारणसत्तरंडं धर्मं चतुर्धा मुनयो वदंति ॥ १७ ॥ भावार्थ -- सुपात्रदान, निर्मळ शील, विविध तप, शुभ भावना-संसार - सागरनो पार पामवा श्रेष्ठ नावसमान एवा धर्मने मुनिजनो चार प्रकारे कहे छे. १७ देवं श्रेणिकवत्प्रपूजय गुरुं वंदस्व गोविंदवद्र दानं शीलतपः प्रसंग सुभगां चाभ्यस्य सद्भावनाम् श्रेयांसश्च सुदर्शनश्च भगवानाद्यः स चक्री यथा धर्मे कर्मणि कामदेववदहो चेतश्चिरं स्थापय ॥१८ भावार्थ - हे भव्यात्मन् ! श्रेणिकराजानी जेम देवनी पूजा कर, गोविंदनी जेम गुरुने वंदन कर, श्रेयांसकुमारनी जेम दान, सुदर्शननी जेम शील, महावीर प्रभुनी जेम तप अने भरतचक्रीनी जेम सद्भावनानो अभ्यास कर तथा धर्मकर्ममां कामदेवनी जेम मनने चिरकाळ सुधी स्थापन करी दे. १८ दीपो हंति तमःस्तोमं, रसो रोगमहाभरम् । सुधाबिंदुर्विषावेगं धर्मः पापभरं तथा ॥ १९ ॥ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८२ ) भावार्थ — जेम दीपक, अंधकारना समूहने दूर करे छे, रस, रोगना समूहने, अमृतबिंदु, विषना आवेगने हणे छे, तेम धर्म पापसमूहनो नाश करें छे. १९ दुःखं वरं चैव वरं च भैक्ष्यं वरं च मौख्यं हि वरं रुजोऽपि । मुत्युः प्रवासोऽपि वरं नराणां परं सदाचारविलंघनं नो ॥ २० ॥ भावार्थ - दुःख वेठवुं सारुं, भिक्षान्नथी उदरपोषण करवुं सारं, मूर्खाइ अने रोग पण सारा, मृत्यु अने प्रवास ( मुशाफरपणुं ) पण सारा, परंतु पुरुषोए सदाचारनं उल्लंघन करवुं - ते सारुं नहि. २० दिनमेकं शशी पूर्णः क्षीणस्तु बहुवासरान् । सुखाद दुःखं सुराणाम-प्यधिकं का कथा नृणाम् २१ भावार्थ - चंद्र, एक दिवस पूर्ण होय छे अने बहु दिवस क्षीण रहे छे, तेम सुखथकी दुःख देवताओने पण अधिक होय छे तो माणसोनी शी वात ? २१ दधत्यार्त्तं सुखीकर्त्तुं संतः संतापमात्मना । सुदुःसहं सहते हि तरवस्तपनातपम् ॥ २२ ॥ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८३ ) भावार्थ-संत जनो आर्त्तजनोने सुख पमाडवा पोते संतापने सहन करे छे. जुओ, वृक्षो अत्यंत दुःसह सूर्यना तापने सहन करे छे अने बीजाओने छाया करे छे. २२ दुर्जनः कालकूटं च ज्ञातमेतौ सहोदरौ। अग्रजन्मानुचन्मा च न विद्मः कतरोऽनयोः २३ मावार्थ-एम लागे छे के दुर्जन अने कालकूट-ए बने सगाभाई होवा जोइए; पण तेमां मोटो भाई अने नानो भाई कयो ते अमे जाणता नथी. __ दुर्जनदूषितमनसां पुंसां सुजनेऽपि नास्ति विश्वासः। बालः पयसा दग्धो दध्यपि स फूत्कृत्य भक्षयति ॥२४॥ भावार्थ-दुर्जनोथी दूषित थयेला मनवाळा पुरुषोने सुजनमां पण विश्वास रहेतो नथी. दूधथी दाझेल बाळक छाशने पण फूंकीने पीए छे. २४ दुःखे दुःखाधिकान्पश्येत् सुखे पश्येत्सुखाधिकान् आत्मानं शोकहर्षाभ्यां शत्रुभ्यामिव नार्पयेत् २५ भावार्थ-आत्माए दुःखमां अधिक दुःखीने जोवा Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८४ ) अने सुखमां अधिक सुखीने जोवा-ए रीते शत्रुरूप हर्ष अने शोकने पोतानो आत्मा अर्पण न करवो.२५ ददाति प्रतिगृह्णति गुह्यमाख्याति पृच्छति। भुंक्ते भोजयते चैवं पद्धिं प्रीतिलक्षणम् ॥२६॥ __ भावार्थ-आपे अने ग्रहण करे, गुप्त वात कहे, पूछे, जमे अने जमाडे-ए छ प्रीतिना लक्षणो छे. २६ दानानि शीलानि तपांसि पूजा सत्तीर्थयात्रा प्रवरा दया च । सुश्रावकत्वं व्रतपालनं च सम्यक्त्वपूर्वाणि महाफलानि ॥२७॥ भावार्थ-दान, शील, तप, पूजा, सुतीर्थयात्रा, प्रवर दया, सुश्रावकपणुं अने व्रतपालन-ए जो सम्यक्त्वपूर्वक आचयाँ होय-तो महाफळ दायक थाय छे.२७ दानं भोगो नाश-स्तिस्रो गतयो भवंति वित्तस्य। यो न ददाति न भुक्ते तस्य तृतीया गतिर्भवति २८ भावार्थ-दान, भोग अने नाश-धननी आ त्रणज गति कहेल छे. जे दान आपतुं नथी अने जे भोगमां भोगवतो नथी, तेनी लक्ष्मीनी त्रीजी गति थाय छे.२८ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८५ ) दाता सदैवाक्षयवैभवः स्याद्धनीपकस्तादृश एव निःस्वः । नद्यो भृता अप्यचिरेण रिक्ताः कूपः पयोभिस्तु तथैव पूर्णः ॥ २९ ॥ भावार्थ - दाता हमेशां अक्षय वैभववाळो : थाय छे अने धनने संघरी राखनार निर्धन बनी जाय छे. जुओ, जळथी भरेल नदीओ थोडा वखतमां खाली थई जाय छे अने कुवो पाणीथी पूर्णज रहे छे. २९ दानेन भूतानि वशीभवंति दानेन वैराण्यपि यांति नाशम् । परोऽपि बंधुत्वमुपैति दाना-त्ततः पृथिव्यां प्रवरं हि दानम् ॥ ३० ॥ भावार्थ - दानथी प्राणीओ वश थाय छे, दानथी वैर शांत थाय छे अने दानथी शत्रु पण बंधुभावने पामे छे, माटे जगतमां दान- ए सर्वोत्तम गुण छे. ३० दिवा पश्यति नोलूकः काको नक्तं न पश्यति । अपूर्वः कोऽपि कामांधो दिवा नक्तं न पश्यति ३१ भावार्थ - घूडपक्षी दिवसे जोई शकतो नथी अने रात्रे काग जोई शकतो नथी. पण कामांध पुरुष तो Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८६ ) ए बनेथी कोई अपूर्वज छे के जे दिवसे के राते जोई शकतोज नथी, सर्वदा अंध छे. ३१ देहीति वचनं श्रुत्वा देहस्थाः पंच देवताः। नश्यति तत्क्षणादेव श्रीह्रीधीधृतिकीर्तयः॥३२॥ भावार्थ-' आपो' एवं वचन सांभळतां देहमा रहेल लक्ष्मी, लज्जा,बुद्धि,धृति अने कीर्ति ए पांच देवताओ तरतज भागी जाय छै. ३२ दुरितवनधनाली शोककासारपाली भवकमलमराली पापतोयप्रणाली । विकटकपटपेटी मोहभूपालचेटी विषयविषभुजंगी दुःखसारा कृशांगी॥३३॥ भावार्थ-पाप-वनने सिंचवामां मेघमाळारूप, शोकरूप सरोवरनी पाळरूप, संसाररूप कमळनी राजहंसीरूप, पापरूप पाणीनी नीकरूप, विकट कपटनी पेटीरूप, मोहराजानी दूतीरूप अने विषय-विषनी नागणरूप एवी स्त्री खरेखर मात्र दुःखरूपज छे. ३३ दर्शनाद्धरते चित्तं स्पर्शनाइरते बलम् । संगमाइरते वीर्य नारी प्रत्यक्षराक्षसी ॥३४॥ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८७ ) मावार्थ - दर्शनथी जे मनने हरे छे, स्पर्शथी बळने हरे छे, अने संगमथी वीर्यने हरे छे, माटे अहो ! स्त्री साक्षात् राक्षसी समानज छे. दाराः परभवकारा बंधुजनो बंधनं विषं विषयाः । कोऽयं जनस्य मोहो ये रिपवस्तेषु सुहृदाशा३५ भावार्थ- स्त्रीओ परभवना कारागृहरूप छे, बंधुजनो बंधनरूप छे अने विषयो विषरूप छे. अहो ! तथापि लोकोने आ मोह केवो छे के जेओ शत्रुओम पण मित्रनी आशा राखी बेठा छे. ३५ दानशीलं तपः संपद्भावना भजते फलम् । स्वादः प्रादुर्भवेद्भोज्ये किं नाम लवणं विना ३६ भावार्थ - दान, शील अने तप-ए भावनाथी सफळ थाय छे. शुं लवण विना भोजनमां स्वाद आवी शके ? ३६ द्यूतं च मांसं च सुरा च वेश्या पापर्द्धि चौर्यं परदारसेवा । एतानि सप्त व्यसनानि लोके घोरातिघोरं नरकं नयंति ॥ ३७ ॥ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८८ ) भावार्थ- द्यूत, मांस, मदिरा, वेश्या, शिकार, चोरी अने परस्त्री गमन-ए सात व्यसनोनुं सेवन करवाथी प्राणीओने अत्यंत भयंकर नरकमां घसडावुं पडे छे. ३७ ददतु ददतु गालीगलिमंतो भवंतो वयमिह तदभावाद्गालिदाने त्वशक्ताः । जगति विदितमेतद्दीयते विद्यमानं न हि खरविषाणं कोऽपि कस्मै विदत्ते ॥ ३८ ॥ भावार्थ- सज्जन पुरुषो कहे छे के हे दुर्जनो ! तमे गाळीओवाला हो- तेथी भले अमने गाळीओ आपो. पण दिलगीर छीए के अमारी पासे ते गाळीओ न होवाथी अमे तमने ते आपी शकता नथी. वळी जगतमां एवो प्रसिद्ध न्याय छे के विद्यमान वस्तुज आपी शकाय. कारण के खरंग कोइ कोइने आपी शकतुं नथी. ३८ देहिनेह भवारा विरामभ्रमकारिणा । दुःप्रापोऽनल्पसंकल्प-कल्पद्रुर्मानवो भवः ॥ ३९ ॥ भावार्थ - आ संसाररूप बगीचामां सुखनी भ्रांति - मां भमनार प्राणीने, समस्त संकल्पोने पूरवामां कल्पवृक्ष समान मानवभव अति दुर्लभ छे. ३९ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८९ ) दृढगाढनवबह्म-गुप्तिभित्त्यंतरास्थितम् । नारीकटाक्षनाराचै-रविध्यत न तन्मनः॥४०॥ भावार्थ-दृढ अने गाढ नव ब्रह्मगुप्तिरूप भीतनी अंदर रहेल तेना मनने स्त्रीकटाक्षरूप बाणो वींधी शक्या नहि. ४० दाक्षा म्लानमुखी जाता शर्करा चाश्मतां गता। सुभाषितरसस्याये सुधा भीता दिवं गता ॥४॥ भावार्थ—सुभाषित रसनी आगळ द्राक्षानुं मुख म्लान ( झां ) थई गयुं, साकर कांकरा जेवी थई गई अने सुधा भय पामीने स्वर्गमा भागी गई. ४१ दंतिदंतसमानं हि निःसृतं महतां वचः। कूर्मग्रीवेव नीचानां पुनरायाति याति च ॥४२॥ __ भावार्थ-महापुरुषोनुं वचन, हाथीओना दंतसमान होय छे. अने नीच जनोनुं वचन काचबानी ग्रीवा (डोक) जेवूहोय छे-जे वारंवार फर्या करे छे. ४२ दृष्ट्वापि दृश्यते दृश्यं श्रुत्वापि श्रूयते पुनः। सत्यं न साधुवृत्तस्य दृश्यते पुनरुक्तता ॥४३॥ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९० ) भावार्थ - एकने एक दृश्य जोइने फरी वार पण जोवामां आवे छे अने सांभळेल फरीवार सांभळवामां पण आवे छे, परंतु खरेखर ! साधुजननुं सत्य वचन एकजरूपे रहे छे. ४३ दानाय लक्ष्मीः सुकृताय विद्या चिंता पर - विनिश्चयाय | परोपकाराय वचांसि यस्य वैद्यस्त्रिलोकीतिलकः स एकः ॥ ४४ ॥ भावार्थ - जे पोतानी लक्ष्मीने दानमां वापरे छे, विद्याने सुकृतमां वापरे छे, परम ब्रह्मनो निश्चय करवामां जे पोताना मनने रोके छे अने पोतानां वचनो जे परोपकारने माटे वापरे छे-त्रणे लोकमां तिलक समान एवो ते एकज पुरुष सर्वने वंदनीय छे. ४४ दृश्यते भुवि भूरिनिंबतरवः कुत्रापि ते चंदनाः पाषाणैः परिपूरिता वसुमती वज्रोमणिर्दुर्लभः । श्रूयंते करटारवाश्च सततं चैत्रे कुहूकूजितं तन्मन्ये खलसंकुलं जगदिदं द्वित्राः क्षितौ सज्जनः। भावार्थ - जगतमां नींबडाना वृक्षो घणा जोवामां आवे छे, परंतु चंदनवृक्षो क्यांकज हशे समस्त पृथ्वी Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९१) पाषाणोथी परिपूर्ण लागे छे, पण वज्रमणि तो दुर्लभ होय छे.चारे बाजु काकशब्दो सांभळवामां आवे छे, पण कोयलना मधुर शब्दो तो चैत्र महिनामांज संभळाय छे-तेथी एम लागे छे के आ जगत खलजनोथीज व्याप्त छे-तेमा मात्र बेत्रणज सत्पुरुष हशे. ४५ दुर्जनस्य विशिष्टत्वं परोपद्रवकारणम् । व्याघस्योपवासेन पारणं पशुमारणम् ॥ ४६॥ भावार्थ-दुर्जन पुरुषy विशिष्टपणुं परने उपद्रवना कारणरूप थाय छे. कारण के वाघ कदाच उपवास करे-तो ते पारणु पशुओने मारीनेज करे छे. ४६ दुर्जनः सुजनो न स्या-दुपायानां शतैरपि । अपानं मृत्सहस्रेण धौतं चास्यं कथं भवेत्॥४॥ भावार्थ-सेंकडो उपायो करो, तथापि दुर्जन-ते कदापि सज्जन थवानो नथी. कारण के सेंकडो वलके हजारो माटीथी धोवामां आवे, तथापि अपान (गुदास्थान ) कदापि मुख थई शकेज नहि. ४७ दुर्जनेन समं सख्यं प्रीतिं चापि न कारयेत् । उष्णो दहति चांगारःशीतः कृष्णायते करः४८ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९२) भावार्थ-दुर्जन पुरुषनी साथे मित्राई के प्रीति कदापि करवीज नहि. जुओ, अग्नि ( अंगार) गरम होय तो हाथने बाळे छे अने शीतल होय-तो हस्तने. कालो करे छे. ४८ दुर्जनः प्रियवादी च नैतद्विश्वासकारणम् । मधु तिष्ठति जिह्वाये हृदि हालाहलं विषम् ॥४९॥ भावार्थ-दुर्जन अने प्रियवादी ए बने विश्वास करवा लायक नथी कारण के तेमनी जीभपर तो मध रहे छे. परंतु तेमना हृदयमां तो हालाहल विष व्यापी रहेलं होय छे. ४९ दानं न दत्तं न तपश्च तप्तं नाराधितौ शंकरवासुदेवौ॥अमौ रणे वा न हुतश्च कायः।शरीर किं प्रार्थयसे सुखानि ॥५०॥ . भावार्थ-दान न दीधुं, तप न तप्यु, शंकर के वि. ष्णुनी आराधना न करी अने अग्नि के रणसंग्राममां कायानी आहुति न आपी-तो हे शरीर ! तुं सुखोनी प्रार्थना शा माटे करे छे. ५० Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९३ ) दायादाः स्पृहयंति तस्करगणा मुष्णांत भूमीभुजो दूरेणच्छलमाकलय्य हुतभुग्भस्मीकरोति क्षणात् । अंभः प्लावयते क्षितौ विनिहितं यक्षा हरति ध्रुवं दुर्वृत्तास्तनया नयंति निधनं धिग्धिधनं तद्बहु ॥ ५१ ॥ भावार्थ - भागीदारो जेनो भाग मागवाने तत्पर थाय छे, तस्करो तथा राजाओ छळ जोइने जेनुं हरण करवा आवे छे, अग्नि, जेने क्षणवारमां भस्मीभूत करे छे, जळ जेने तरत प्रवाहमां घसडी जाय छे पृथ्वीमां जो दाटेल होय, तो यक्षो जेनुं हरण करी जाय छे अने दुराचारी पुत्रो जो जागे, तो जेने सदंतर नाश पमाडे छे - एवा बहु धनने पण वारंवारं धिक्कार थाओ. ५१ द्वाविमावभास क्षेप्यौ गाढं बध्वा गले शिलाम् । धनिनं चाप्रदातारं दरिद्रं चातपस्विनम् ॥ ५२ ॥ भावार्थ - दरिद्र छतां तप नहि करनार अने धन १३ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९४) वान् छतां कृपण होय-ए बनेने गळामां गाढ शिला बांधीने पाणीमां नाखी देवा जोईए. ५२ दग्धं खांडवमर्जुनेन हि वृथा कल्पद्रुमैर्भूषितं दग्धा वायुसुतेन रावणपुरी लंका पुनः स्वर्णभूः। दग्धः पंचशरः पिनाकपतिना तेनाप्ययुक्तं कृतं दारिद्यं जनतापकारकमिदं केनापि दग्धंन हि ५३ भावार्थ-अर्जुने, कल्पवृक्षोथी विभूषित एवा खांडववनने वृथा बाळी नाख्युं, हनुमाने सुवर्णनी लंकाने पण व्यर्थ बाळी नाखी, अने शंकरे कामदेवने बाळी नाख्यो-ते पण अयुक्तज कयें, परंतु एवो कोई न जाग्यो, के लोकोने संताप करनार एवा दारिद्यने जेणे भस्मीभूत करी नाख्युं होय. ५३ दारिद्याद ह्रियमति ह्रीपरिगतः सत्त्वात्परिभ्रश्यते निःसत्त्वः परिभूयते परिभवानिर्वेदमापद्यते । निर्विण्णः शुचमेति शोकनिहतो बुद्ध्या परित्यज्यते निर्बुद्धिःक्षयमेत्यहो निधनता सर्वापदामास्पदम् ॥ ५४॥ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९५) भावार्थ-दारिद्यथी मनुष्य लज्जाने पामे छे, लज्जाने लीधे ते सत्त्वथी भ्रष्ट थाय छे, सत्त्वहीन थतां ते पराभवने पामे छे, पराभवथी ते खिन्न थाय छ, खिन्न थतां ते शोकाकुल थाय छ, शोकथी ते बुद्धिहीन बने छे अने निर्बुद्धि क्षय पामे छे. अहो! निर्धनता-ए सर्व आपत्तिना स्थानरूपज छे. ५४ दानोपभोगवंध्याया सुहृद्भिर्या न भुज्यते । पुंसां यदि हिसा लक्ष्मी-रलक्ष्मी कतमा भवेत् ___ भावार्थ-जे लक्ष्मी, दान अने उपभोगथी वंध्य ( रहित ) छे अथवा जे मित्रोना उपभोगमा आवती नथी-तेवी लक्ष्मीथी जो पुरुषो धनवान् गणाता होयतो पछी अलक्ष्मी (निर्धनता ) केवी होय ? ५५ दानेन श्लाध्यतां यांति पशुपाषाणपादपाः । दानमेव गुणः श्लाघ्यः किमन्यैर्गुणकोटिभिः ५६ भावार्थ-दानथी तो पशु, पाषाण अने वृक्षो पण प्रशंसापात्र बने छे. माटे एक दानगुणज सर्वोत्तम गणाय छे. अन्य कोटि गुणोथी पण शुं ? ५६ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९६ ) दातव्यं भोक्तव्यं सति विभवे संचयोन कर्तव्यः पश्येह मधुकरीणां संचितमर्थं हरंत्यन्ये ॥ ५॥ भावार्थ-जो धन होय-तो भोगव, अने दान आपवू, परंतु तेनो संचय न करवो. जुओ, मधमाखीओ मधनो संचय करे छे. पछी तेनुं अन्य जनो हरण करी जाय छे. ५७ देयं भो ह्यधने धनं सुकृतिभिर्नो संचितं सर्वदा श्रीकर्णस्य बलेश्च विक्रमपतेरद्यापि कीर्तिः स्थिता। आश्चर्यं मधु दानभोगरहितंनष्टं चिरात्संचितं निर्वेदादिति पाणिपादयुगलं घर्षत्यहो माक्षिकाः॥५८॥ भावार्थ-सज्जनोए धननुं निर्धन जनोने दान आपq युक्त छे. पण तेनो संचय करतां तो ते रहेतुंज नथी. जुओ, कर्ण, बलि अने विक्रमराजानी कीर्ति दानथी अत्यारसुधी पण विद्यमान छे. आश्चर्यनी वात छे के दान के भोगमा उपभोग न लेतां चिरकाळथी संचित करेल मधु नष्ट थयु, आ कारणथीज जाणे खेद पामीने मक्षिकाओ पोताना हाथ पग घसती होय-तेम मालुम पडे छे. ५८ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९७ ) द्वारं द्वारं रटंतीह भिक्षुकाः पात्रपाणयः । दर्श यंत्येव लोकाना-मदातुः फलमीदृशम् ॥५९॥ भावार्थ-जुओ, भिक्षुको हाथमां पात्र लइने द्वार द्वार प्रति भटके छे अने लोकोने एम जणावे छ के-आ अमने दान न देवानुं फल प्राप्त थयुं छे. माटे तमे न आपशो, तो अमारा जेवा थशो. देहाति वक्तुकामस्य यदुःखमुपजायते । दाता चेत्तद्विजानीया-द्दद्यात्स्वपिशितान्यपि ६० भावार्थ-' आपो' एम बोलवा जतां बोलनारने जे दुःख थाय छे, ते जो बराबर जाणवामां आवे, तो दाता पोतानुं मांस पण आपी देवाने तैयार थइ जाय. ६० दिनयामिन्यौ सायंप्रातः शिशिरवसंतौ पुनरायातः । कालः क्रीडति गच्छत्यायु-स्तदपि न मुंचत्याशावायुः ॥ ६१॥ भावार्थ-दिवस, रात, सायंकाल, प्रभात शियालो Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९८) अने वसंतऋतु, गमनागमन करतां काळ क्रीडा कर्या करे छे, तथापि आशारूप वायु मूकतो नथी. ६१ दंतैरुचलितं धिया तरलितं पाण्यंधिणा कंपितं हरभ्यां कुमलितं बलेन गलितं रूपश्रिया प्रोषितम् । प्राप्तायां यमभूपतेरिह महापाट्यां धरायामियं तृष्णा केवलमेकिकैव सुभटी धीरा पुरो नृत्यति ॥ २॥ भावार्थ-अहो ! दांतो शिथिल थइ गया, बुद्धि चपळ थवा आवी, हाथ-पग कंपवा लाग्या, नेत्रो संकुचित थवा लाग्या, बळ गलित थवा आव्यु, रूप-लक्ष्मी दूर चाली गइ, ए प्रमाणे यमराजानी आ पृथ्वीपर महाधाटी (धाड) प्राप्त थतां शरीरमां उपरना चिन्हो जणावा लाग्या, परंतु केवळ एक सुभटी एवी तृष्णाज धीर थइने आगळ आवी नृत्य करी रही छे. ६२ द्वाविमौ पुरुषौ लोके सुखिनौ न कदाचन । यश्चाधन कामयते यश्च कुप्यत्यनीश्वरः ॥६॥ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९९ ) मावार्थ -- जगतमां आ बे पुरुष कदापि सुखी थइ शकता नथी के जे धन-हीन छतां अनेक प्रकारनी इच्छाओ करे अने जे ऐश्वर्य पुण्यहीन - रहित छतां कोपायमान थाय छे. ६३ द्वाविमौ पुरुषौ लोके स्वर्गस्योपरि तिष्ठतः । प्रभुश्च क्षमया युक्तो दरिद्रश्च प्रदानवान् ॥६४॥ भावार्थ - जगतमां आ बे पुरुषो स्वर्गनी पण उपर रहे तेवा होय छे के जे पोते सत्तावान् छतां क्षमाधारी होय अने जे पोते निर्धन छतां दान आपनार होय छे. ६४ दारियान्मरणाद्वा मरणं संरोचते न दारिद्यम् । अल्पक्लेशं मरणं दारिद्र्यमनंतकं दुःखम् ॥ ६५ ॥ मावार्थ - हे मित्र ! दारिद्र्य अने मरण बनेमांथी मने मरण वधारे पसंद छे, पण दारिद्र्य नथी. कारण के मरणथी अल्प दुःख थाय छे अने दारिद्र्य निरंतर अनंत दुःखने उपजावनार छे. ६५ दीपनिर्वाणगंधं च सुहृद्वाक्यमरुंधतीम् । न जिघंति न शृण्वंति न पश्यंति गतायुषः ॥६६॥ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 200 ) " भावार्थ - जे पुरुष दीपनिर्वाणना गंधने सुंधी शकतो नथी, जे मित्रना वचनने सांभळतो नथी अने जे अरुंधती (नक्षत्र) ने जोइ शकतो नथी - तेनुं आयुष्य अल्प छे - एम समजवुं. ६६ धनधान्यप्रयोगेषु विद्या संग्रहणेषु च । आहारे च विहारे च त्यक्तलज्जः सदा भवेत् ॥ १॥ भावार्थ - धन, धान्यना प्रयोगमां, विद्या ग्रहण करवामां तेमज आहार-विहारमां सदा लज्जारहित रहेवुं. १ धिक्प्रदानमसत्कारं पौरुषं धिक्कलंकितंम् । जीवितं मानहीनं धिक् धिक्कन्यां बहुभाषिणीम२ भावार्थ — सत्काररहित दानने धिक्कार छे, कलंकित पुरुषार्थने धिक्कार, मानहीन जीवनने धिक्कार अने बहु बोली कन्याने धिक्कार थाओ. २ धनं सनिधनं प्रांते वनिता जनितार्तयः । भोगा रोगास्पदं कूट-कोटीकटु कुटुंबकम् ॥ ३ ॥ भावार्थ - धन प्रांते नष्ट थाय छे, स्त्रीओ पीडाने Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०१ ) उत्पन्न करे छे, भोगो रोगोना स्थान छे अने कुटुंब अनेक प्रपंचकोटीथी कटु छे. ३ धन्यास्ते मुनयो धीराः शीलसंनाहशालिनः । योषावाग्विशिखा येषां हृदयं व्यथयंति न ॥४॥ भावार्थ - शीलरूप बख्तरथी सुशोभित एवा धीर मुनिओज धन्य छे, सदा सुखी अने के जेमना हृदयने स्त्रीन्स वचनरूप बाणो भेदी शकता नथी. ४ धर्मः स्वर्मणिसंकाशो धर्मः शर्मवनीघनः । धर्मो वर्ष द्विषां भीतौ धर्मः कर्महतिक्षमः ॥ ५॥ 1 भावार्थ - धर्म - ए चिंतामणि रत्न समान छे, धर्मए सुखरूप वनने मेघ समान छे, धर्म - ए रिपुसंकटमां बख्तर समान छे अने बधा अशुभ कर्मोंने चकचूर करवाने ते समर्थ छे. ५ धनं कापि यशः कापि पुण्यं कापि यथाक्रमम् | नीचमध्योत्तमैः प्रार्थ्य - मुपकारतरोः फलम् ६ भावार्थ-नीच जनो उपकाररूप वृक्षना फळरूप धनने मागे छे, मध्यम जनो कंइ यशने अने उत्तम जनो पुण्यनेज मागे छे. एटले इच्छे छे. ६ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०२) धान्याय भूहलैः कृष्टा रत्नेभ्यो मथितोऽबुधिः। परार्थनिरताः संतःस्वं दुःखं गणयंति न॥७॥ भावार्थ-धान्यनी खातर पृथ्वीने हळोथी खेड. वामां आवे छे अने रत्नोनी खातर समुद्रनुं मथन करवामां आव्यु. परकार्य साधवामां तत्पर एवा सत्पुरुषो पोताना दुःखने गणकारता नथी. ७ ध्रुवं ध्वजगजश्रोत्र-वीचिविद्युद्धनौकसः। चापल्य-विद्याचार्यस्य विनेया वनिताहृदः॥८॥ __ भावार्थ-ध्वज, हस्तीकर्ण, तरंग, वीजळी, अने वानर-ए स्त्रीहृदयना चापल्यरूप विद्याचार्यना शिष्यो छे.८ धैर्यं यस्य पिता क्षमा च जननी शांतिश्चिरं गेहिनी सत्यं सूनुरयं दया च भगिनी भ्राता मनःसंयमः। शय्या भूमितलं दिशोऽपि वसनं ज्ञानामृतं भोजन-मेते यस्य कुटुंबिनो वद सखे कस्माद्भयं योगिनः ॥९॥ भावार्थ-जेने धैर्यरूप पिता छे, क्षमारूप माता Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०३ ) छ. शांतिरूप स्त्री छे, सत्यरूप पुत्र छे, दयारूप भगिनी छे. मनोनिग्रहरूप भ्राता छे. भूमितलरूप शय्या छे, दिशाओरूप वस्त्र छे अने जेने ज्ञानामृतरूप भोजन छे. हे मित्र ! जे योगिराजने आवा कुटुंबीओ छे तेने कोनाथी भय संभवे ? अर्थात् ते सदा निर्भयज होय छे. ९ ध्यानशस्त्रं बकानां च वेश्यानां मोहशस्त्रकम् । साधुत्वशस्त्रं धूर्तानां परमाणार्थहारकम् ॥१०॥ भावार्थ--बगलाओगें ध्यानरूप शस्त्र, वेश्याओगें मोहरूप शस्त्र अने धूर्त जनोनुं साधुत्वरूप शस्त्र-ए परना प्राण अने अर्थने हरनार होय छे. १० धनैर्निष्कुलीनाः कुलीना भवंति धनरापदं मानवा निस्तरंति । धनेभ्यः परो बांधवो नास्ति लोके धनान्यर्जयध्वं धनान्यर्जयध्वम् ॥ ११॥ भावार्थ--अकुलीन जनो पण धनथी कुलीन बने छे, धनथी माणसो आपत्तिने ओलंगी जाय छे, जगतमां धन करतां बीजं कोइ परम बंधु नथी, माटे धननेज मेळववामां मच्या रहो. ११ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०४ ) धनदो धनमिच्छूनां कामदः काममिच्छताम् । धर्म एवापवर्गस्य पारंपर्येण साधकः ||१२|| भावार्थ - धनने इच्छनारा जनोने धन आपनार अने काम-सुख इच्छनाराओने काम आपनार एवो धर्म परंपराथी मोक्षने साधी आपे छे. १२ धर्मो जगतः सारः सर्वसुखानां प्रधानहेतुत्वात् । तस्योत्पत्तिर्मनुजा - त्सारं तेनैव मानुव्यम् ॥ १३ ॥ भावार्थ - सर्व सुखोनो प्रधान हेतु होवाथी धर्मएज जगतमां सार वस्तु छे. तेनी उत्पत्ति मनुष्यथी थती होवाथी मनुष्यपणाने साररूप कहेल छे. १३ धर्मार्थकाममोक्षाणां यस्यैकोऽपि न विद्यते । अजागलस्तनस्येव तस्य जन्म निरर्थकम् ||१४|| भावार्थ - धर्म, अर्थ, काम अने मोक्ष- ए चारमांनुं एक पण जेनी पासे नथी. तो बकरीना गळामां रहेल स्तननी जेम तेनो जन्म निरर्थक छे. १४ धर्मशोकभयाहार - निद्राकामकलिकुधः । Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०५ ) यावन्मात्रा विधीयते तावन्मात्रा भवत्यमी ॥ १५॥ भावार्थ - धर्म, शोक, भय, आहार, निद्रा, काम, कलह अने क्रोध - एमने जेटला वधारवा होय, तेटला वधी शके छे अने घटाड्या घटी शके छे. १५ धर्मस्य फलमिच्छंति धर्मं नेच्छति मानवाः । फलं पापस्य नेच्छंति पापं कुर्वंति सादराः ॥ १६ ॥ भावार्थ - मनुष्यो, धर्मना फळने इच्छे छे, पण धर्मने इच्छता नथी. वळी तेओ पापना फळने इच्छता नथी, पण पाप तो उत्साहथी कर्या करे छे. १६ धर्मज्ञो धर्मकर्त्ता च सदा धर्मप्रवर्तकः । सत्त्वेभ्यो धर्मशास्त्रार्थ - देशको गुरुरुच्यते ॥ १७॥ भावार्थ - धर्मने जाणनार, धर्मने आचरनार सदा धर्मनो प्रवर्तक, तथा प्राणीओने धर्म तथा शास्त्रार्थ समजावनारने गुरु कहेल छे. १७ धर्मो यश नयो दाक्ष्यं मनोहारि सुभाषितम् । इत्यादिगुणरत्नानां संग्रही नावसीदति ॥ १८ ॥ भावार्थ - धर्म, यश, न्याय, दक्षता, अने मनोहर Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०६ ) सुभाषित-इत्यादि गुणोनो संग्रह करनार कदापि सीदातो-दुःखी थतो नथी. १८ धनेषु जीवितव्येषु स्त्रीषु चाहारकर्मसु । अतृप्ता प्राणिनः सर्वे यातायास्यंति यांति च १९ भावार्थ-धन, जीवितव्य, स्त्रीसेवन अने आहारादि कर्ममां सर्व प्राणीओ अतृप्त रह्या थकाज गया, जाय छे अने जशे. कोई तृप्त थतुंज नथी. १९ धन्ययातिप्रसादेऽपि नावगण्यः पतिः स्त्रिया। धान्यं पादेन मृगाति नातिधातोऽपि यद्बुधः२० भावार्थ-पोताना पतिनो अत्यंत प्रसाद छतां पण भाग्यवती स्त्रीए पतिनी कदापि अवगणना न करवी. अति धराया छतां सुज्ञ जन पोताना पगवती धान्यने मईतो नथी. २० धर्मो जिनोदितोऽसारे संसारेऽत्र मलीमसे। इवावकरके रत्नं सुभाग्यैरेव लभ्यते ॥ २१॥ भावार्थ-आ असार अने मलीन अनेक दुःखोनी खाणरूप संसारमा जिनकथित धर्मज उकरडामां रत्ननी जेम ते सुभाग्येज प्राप्त थई शके छे. २१ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०७ ) धन्याः शुचीनि सुरभीणि गुणोंभितानि वाग्वीरुधः स्ववदनोपवनोद्गतायाः । उच्चित्य सूक्तिकुसुमानि सतां विविक्तवर्णानि कर्णपुलिनेष्ववतंसति ॥ २२ ॥ भावार्थ - तेज पुरुषो धन्य छे के जेओ पोताना मुखरूप बगीचामां उत्पन्न थयेल एवी वाणीरूप लताना पवित्र, सुरभियुक्त, विविध वर्णोवाळा तथा गुणोथी संयुक्त एवा सुवचनरूप पुष्पोने एकत्र करीने सज्जनोना कर्णरूप पाळपर आरोपण करे छे. २२ धनिनोऽपि निरुन्मादा युवानोऽपि न चंचलाः॥ प्रभवोऽप्यप्रमत्तास्ते महामहिमशालिनः ॥ २३ ॥ भावार्थ- पोते धनवंत छतां जे अभिमानी न होय, युवान छतां जे चंचल न होय अने सत्ताधारी छतां जे अप्रमत्त होय - एवा पुरुषोज आ जगतमां महामहिमाशाळी होय छे. २३ धवलयति समग्रं चंद्रमा जीवलोकं किमिति निजकलंकं नात्मसंस्थं प्रमार्ष्टि । Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०८) भवति विदितमेतत्यायशः सजनानां __ परहितनिरतानामादरो नात्मकार्ये ॥२४॥ भावार्थ-जुओ, चंद्रमा पोतानामां रहेल कलंकने साफ न करतां समस्त जीवलोकने धवलित (श्वेत) बनावे छे. माटे परहितमां तत्पर एवा सज्जनोने प्रायः पोताना कार्यमा आदर होतो नथी-ए वात सुविदितज छे. २४ धर्मे तत्परता मुखे मधुरता दाने समुत्साहिता मित्रेऽवंचकता गुरौ विनयिता चित्तेऽतिगंभीरता आचारे शुचिता गुणे रसिकता शास्त्रेड तिविज्ञानिता रूपे सुंदरता हरौ भजनिता सत्स्वे व संदृश्यते ॥२५॥ भावार्थ-धर्ममां तत्परता राखवी, मुखमां मधुरता दानमा उत्साहिता, मित्र तरफ अवंचकता (निष्कपटभाव) गुरुतरफ विनय, अंतःकरणमां अतिगंभीरता, आचारमा पवित्रता, गुणमां रसिकता, शास्त्रमा Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०९ ) अस्वंत विज्ञानिता, रूपमां सुंदरता अने प्रभु तरफ माक्तिभाव ए गुणो तो सत्पुरुषोमांज जोवामां आवे छे. २५ धनेन किं यो न ददाति याचके बलेन किं यश्च रिपुं न बाधते । श्रुतेन किं यो न च धर्ममाचरेत् किमात्मना यो न जितेंदियो भवेत् २६ __ भावार्थ-जो याचकने आपवामां न आवे तो तेवा धनथी शृं? जो शत्रुने निर्मूल करवामां न आवे तो तेवा बहथी पण शुं? जो धर्म आचरवामां न आवे तो तेवा श्रुतज्ञानथी शुं ? अने जो इंद्रियोनी जय करवामां न आवे तो तेवा आत्माथी पण शुं ? २६ धनानि भूमौ पशवश्च गोष्ठे भार्या गृहद्वारि जनः श्मशाने । देहश्चितायां परलोकमार्गे कर्मानुगो गच्छति जीव एकः ॥ २७ ॥ भावार्थ-धन जमीनमां पड्युं रहेशे, पशुओ वाडामा रहेशे, स्त्री घरना बारणा पासे उभी रही जशे, स्वजनो स्मशान सुधी आवशे अने आ देह १४ . Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१० ) चितापर्यंत आवीने भस्म थइ जशे अने जीव एकलो पोताना कर्मोने अनुसरीने परलोकना मार्गे प्रयाण करशे फक्त पुन्यने पापज साथे चालशे. २७ धनमपि परदत्तं दुःखमौचित्यभाजां भवति हृदि तदेवानंदकारीतरेषाम् । मलयजरसबिंदुर्बाधते नेत्रतर्जनयति च स एवाह्लादमन्यत्र गात्रे २८ भावार्थ - बीजाए आपेल धनथी पण कुलीन जनोने अंतरमां दुःख थाय छे, अने साधारण जनोने तेज धनथी आनंद थाय छे. चंदन रसनो बिंदु जो नेत्रमां नाखीए तो ते पीडा करे छे अने तेज बिंदु जो अन्य अवयवोमां लगाडेल होय तो ते आनंदकारी थाय छे. २८ धनिनोऽप्यदानभोगा गण्यंते धुरि महाद रिद्राणाम् । हंति न यतः पिपासामतः समु दोऽपि मरुरेव ॥ २९ ॥ भावार्थ- पोते धनवंत छतां जो ते दान आपता न होय अने भोग पण भोगवता न होय-तो ते महा Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २११ ) दरिद्रोमां मुख्य शिरोमाणि छे. , कारण के जो पिपासाने निवारण न करे तो समुद्रपण मरु ( मारवाड ) समानज छे. २९ धनानि जीवितं चैव परार्थे प्राज्ञ उत्सृजेत् । तनिमित्तो वरं त्यागो विनाशे नियते सति ३० भावार्थ-सुज्ञ पुरुषे पोताना धन अने जीवितने परोपकार निमित्ते वापरवा-ए वधारे उचित छे. कारण के जो तेनो सदुपयोग करवामां न आवे तो तेनो विनाश तो अवश्य थवानोज छे. ३० धर्म प्रसंगादपि नाचरंति पापं प्रयत्नेन समाचरंति । आश्चर्यमेतद्धि मनुष्यलोकेऽमृतं परित्यज्य विषं पिबंति ॥ ३१॥ . भावार्थ-अहो ! जुओ तो खरा, जगतमां लोको प्रसंगोपात्त पण धर्मर्नु आचरण करता नथी अने खास प्रयत्नपूर्वक पापर्नु आचरण करे छे. एज आश्चर्य छे के तेओ अमृतनो त्याग करीने विषपान करवा तत्पर थाय छे. ३१ । Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१२ ) धर्मार्थी यत्र न स्यातां शुश्रूषा वापि तद्विधा । तत्र विद्या न वक्तव्या शुभं बीजमिवोपरे ||३२|| भावार्थ - धर्म, अर्थ अने तेवा प्रकारनी सेवा पण ज्यां नथी, त्यां क्षारभूमिमां सारा बीजनी जेम विद्या न प्रकाशवी अर्थात् त्यां विद्या बिलकूल निष्फळ थइ जाय छे. ३२ न निर्वहत्यहंकारः पुरुषैः सह योषिताम् । सव्यः करः सभूषोऽपि मलस्यैवापनुत्तये ॥ १ ॥ भावार्थ- पुरुषोनी साथे बीओनो अहंकार नभी शकतो नथी. डाबो हाथ विभूषित होय, छतां पण तेनाथीज मळ दूर करवामां आवे छे. १ निर्धनोऽपि कुरूपोऽपि निःश्रीकोऽपि व्यसन्यपि । सेव्यो देव इव प्रेयान् रामया शुभकाम्यया ॥ २ ॥ भावार्थ- पोतानो पति निर्धन, कुरूप, शोभाहीन तथा व्यसनी छतां शुभने इच्छनार कुलीन स्त्रीए तेनी देवनी जेम सेवा करवी. २ न भोगैर्भूरिभिर्भुक्कै - रुपर्युपरि तृप्यति । Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३) संसारी विविधाहारै-भस्मकव्याधिमानिव ॥ ३॥ भावार्थ-उपराउपरी बहु भोगो भोगव्या छतां विविध आहारथी भस्मक व्याधिवाळानी जेम संसारी जीच कदापि तृप्त थइ शकतोज नथी. ३ - निंदंतु नीतिनिपुणा यदि वा स्तुवंतु लक्ष्मीः समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम् । अद्यैव वा मरणमस्तु युमांतरे वा याय्यात्पथः प्रविचलंति पदं न धीराः॥४॥ भावार्थ-नीतिमां निपुण पुरुषो भले निंदा के स्तुति करे, लक्ष्मी पोतानी इच्छा प्रमाणे आवे के चाली जाय, अने मरण कदाच भले आज आवे याती बीजा युगमा आवे छतां धीर जनो न्यायमार्गथी एक पंगलुं पण चलायमान थता नथी. ४ नीचाश्रयो न कर्त्तव्यः कर्तव्यो महदाश्रयः। अजासिंहप्रसादेन आरूढा गजमस्तके ॥५॥ भावार्थ-मीचनो आश्रय न करवो, पण मोटामो Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१४) आश्रय करवो. सिंहना प्रसादथी बकरी हाथीना मस्तकपर आरूढ थई शकी. ५ नास्ति मेघसमं तोयं नास्ति चात्मसमं बलम् । नास्ति चक्षुःसमं तेजो नास्ति लक्ष्मीसमं प्रियम्द भावार्थ-मेघ समान जळ नहि, आप समान बळ नहि, चक्षुसमान तेज नहि अने लक्ष्मीसमान कंड प्रिय नथी. ६ नागुणी गुणिनं वेत्ति गुणी गुणिषु मत्सरी । गुणी च गुणरागी च विरलः सरलो जनः ॥७॥ भावार्थ-अगुणी गुणीने जाणी शकतो नथी अने गुणी, गुणीजनोपर मत्सर राखे छे. तेथी एम लागे छे के गुणीओमां तथा गुणानुरागीओमां सरलजन तो विरलाज हशे. ७ न देवे देवत्वं कपटपटवस्तापसजना जनो मिथ्यावादी विरलतरवृष्टिर्जलधरः। प्रसंगो नीचानामवनिपतयस्तस्करसमा । जना भ्रष्टा नष्टा अहह कलिकाले प्रभवति॥८॥ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१५.) मावार्थ-देवमां देवत्व रयुं नथी, तापसो बधा प्रपंचना पूतळा बनता जाय छे, लोको मिथ्यावादी . थता जाय छे, मेघो बहुज ओछो वरसे छे, नीच जनोनो प्रसंग वधतो जाय छे, राजाओ तस्कर जेवा बनता जाय छे. अहो ! कळिकाळनो प्रभाव वधी जवाथी लोको भ्रष्ट नष्ट थई गया छे. ८ नीचः श्लाघ्यपदं प्राप्य स्वामिनं हंतुमिच्छति मूषको व्याघतां प्राप्य मुनिं हंतुं गतो यथा ॥९॥ भावार्थ-उंदर व्याघ्रपणाने पामतां जेम मुनिने हणवा गयो, तेम नीज जनो उंच पदवी पामीने प ताना स्वामीनेज हणवा इच्छे छे. ९ नैवाकृतिः फलति नैव कुलं च शीलं विद्यापि नैव न च यत्नकृतापि सेवा । भाग्यानि पूर्वतपसा खलु संचितानि काले फलंति पुरुषस्य यथैव वृक्षाः॥१०॥ मावार्थ-आकृति, कुळ के शील फळता नथी, विद्या के यत्नथी करवामां आवेल सेवा पण फळती Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१६ नथी, परंतु अवसरे वृक्षोनी जेम पूर्वतपथी संचेल भाग्यज पुरुषने फळे छे. १० नरपतिहितकर्ता द्वेष्यतां याति लोके जनपदहितकर्ता त्यज्यते पार्थिवेन । इति महति विरोधे वर्तमानेऽसमाने नृपतिजनपदानां दुर्लभः कार्यकर्ता ॥११॥ भावार्थ-राजानो हितकर्ता लोकोमा द्वेषपात्र थाय छे, अने देशनो हितकर्ता राजाथी तजाय छे. ए रीते असमान अने महान् विरोध वर्तमान थतां राजा अने देशचें कार्य करनार पुरुष दुर्लभ छे. ११ नकः स्वस्थानमासाद्य गजेंदमपि कर्षति । स एव प्रच्युतः स्थाना-च्छुनापि परिभूयते ॥१२ ___ भावार्थ-नक (जळजंतु विशेष) पोताना स्थानमा रहेतां गजेंद्रने पण घसडी जाय छे, परंतु तेज पोताना स्थानथी भ्रष्ट थतां एक सामान्य कुतराथी पण पराभव पामे छे. १२ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१७ ) न हि जन्मनि ज्येष्ठत्वं ज्येष्ठत्त्वं गुण उच्यते गुणाहरुत्वमायाति दधि दुग्धं धृतं यथा ॥१३॥ भावार्थ-जन्ममां श्रेष्ठता नथी, पण गुणमां श्रेष्ठता छे. दहीं, दूध अने घृत-ए गुणथीज गुरुत्व ( मोटाइ) ने पामे छे. १३ निःस्वो वष्टि शतं शती दश शतं लक्षं सहनाधिपो लक्षेशः क्षितिराजतां क्षितिपतिश्चकेशतां वांछति । चक्रेशः सुरराजतां सुरपतिर्ब्रह्मास्परं वांछति ब्रह्मा विष्णुपदं हरिः शिवपदं तृष्णावधि को गतः॥१४॥ भावार्थ-निर्धन पुरुष सोने इच्छे छे, सोवाळी हजारने अने हजारवाळो दश हजारने, तथा दश हजारवाळो लाखने इच्छे छे, लक्षाधिपति, राज्यने अने राजा चकवर्ती थवाने इच्छे छे, चक्रवर्ती इंद्रपदने अने इंद्र, ब्रह्मानी पदवीने चाहे छे, ब्रह्मा विष्णुना पदने अने विष्णु, शिव (शंकर ) ना पदने इच्छे छे. एम तृष्णानो कोण पार पामी शके ? १४ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१८) नांतकस्य प्रियः कश्चिन्न लक्ष्म्याः कोऽपि वल्लभः। नाप्तोजरायाःकोऽप्यस्ति यूयं तदपि सुस्थिताः१५ भावार्थ-यमराजने कोई प्रिय नथी, लक्ष्मीने कोइ वल्लभ नथी, अने जराने कोई आप्त ( प्रिय ) नथी. अहो ! तथापि तमे सुस्थित थइने बेठा छो. १५ न्ययाधे दुर्लभं पुष्पं, दुर्लभं स्वातिजं पयः। दुर्लभं मानुषं जन्म दुर्लभं देवदर्शनम् ॥१६॥ भावार्थ-वटवृक्षमा पुष्प दुर्लभ छे, स्वाति नक्षत्रनुं जळ, मानुषजन्म अने देव-दर्शन-ए बधां दुर्लम होय छे. १६ निदा मूलमनर्थानां निदा श्रियो विघातिनी। निदा प्रमादजननी निदा संसारवर्द्दिनी ॥१७॥ __ भावार्थ-निद्रा-ए अनर्थोनुं मूल छे, निद्रा-लक्ष्मीनो नाश करनारी छे, निद्रा-प्रमादने जन्म आपे छे अने संसारने वधारनारी छे. १७ नित्यमित्रसमो देहः स्वजनाः पर्वसन्निभाः। Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१९ ) नमस्कारसमो ज्ञेयो धर्मः परमबांधवः ॥ १८ ॥ भावार्थ - देह - ए नित्यमित्र समान छे, स्वजनो - ते पर्वमित्र समान अने धर्म - ए नमस्कार मित्र समान परम बांधव संकटोमां थी उगारनार छे. १८ निदाघे संतप्तः प्रचुरतरतृष्णातुरमनाः सरः पूर्णं दृष्ट्वा त्वरितमुपयातः करिवरः । तथा पंके ममस्तटनिकटवर्त्तन्यपि यथा न नीरं नो तीरं द्वयमपि विनष्टं विधिवशात् ॥ १९ ॥ भावार्थ - उनाळामां संतप्त अने अत्यंत तृषातुर थल कोइ हाथी, पूर्ण सरोवरने जोइने तरत त्यां आव्यो, अने तटनी पासे रहेला कादवमां ते एवी रीते. निमग्न थइ गयो के जेथी दैवयोगे ते नीर अने तीर - बंनेथी भ्रष्ट थयो. १९ नाभिषेको न संस्कारः सिंहस्य क्रियते मृगैः । विक्रमार्जित सत्त्वस्य स्वयमेव मृगेंद्रता ॥ २० ॥ भावार्थ – सिंहने मृगलाओ अभिषेक के संस्कार क Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२० ) रता नथी, परंतु पराक्रमथी प्राप्त थयेल सत्त्वने लीधे तेने स्वयमेव मृगेंद्रता - सिंहपणुं छे. २० नालिकेरसमाकारा दृश्यंते केऽपि सज्जनाः । अन्ये तु बदराकारा बहिरेव मनोरमाः ॥ २१ ॥ भावार्थ-केटलाक सज्जनो नाळीयेर समान जो. वामां आवे छे. बाकीना तो बोरनी जेम मात्र बहा रथी मनोहर देखाय छे, अंतरमां घणा दुष्ट होय छे. २१ नमंति फलिता वृक्षा नमति विबुधा जनाः । शुष्ककाष्ठं च मूर्खाश्च भज्यंते न नर्मति च ॥ २२ ॥ भावार्थ - फलित वृक्षो अने विबुध जनो नमे छे, परंतु शुष्ककाष्ट अने मूर्ख जनो भग्न थाय ( तपासतां भांगी पड़े छे ) छतां नमता नथी. २२ नाहं काको महाराज हंसोऽहं विमले जले | नीच संगप्रसंगेन मृत्युरेव न संशयः ॥ २३ ॥ भावार्थ हे महाराज ! हुं काग नथी, पण निर्मळ सरोवरमा रहेनार हंस हूं. नीचना संगथी अवश्य भरणज थाय छे, एवी मने हवे खात्री थई. २३ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२१) न हि मे पर्वता भारा न मे भाराश्च सागराः। कृतनाश्च महाभारा भारा विश्वासघातकाः २४ भावार्थ-पृथ्वी कहे छे के मने पर्वतोनो भार लागतो नथी, तेम सागरोनो पण भार जणातो नथी. पण कृतघ्न अने विश्वासघातक ए बे प्रकारना जनोज मने वधारे भारे लागे छे. २४ न विना परवादेन हृष्टो भवति दुर्जनः। काकः सर्वरसान्पीत्वा विनाऽमेध्यं न तृप्यति २५ भावार्थ-दुर्जन पुरुष परनिंदा विना आनंदित थतो नथी. जुओ. कागडो सर्व रसोनुं पान करतां पण विष्टा विना ते तृप्त थतो नथी. २५ नारीनुन्नो न कुरुते किमनात्मवशो नरः । वात्यरितो दहत्यत्र पावकः पावनं वनम् ॥२६॥ __ भावार्थ-स्त्रीथी प्रेराइने, पराधीन थयेल पुरुष शु शुं अनर्थ करतो नथी? कारण के वंटोळीयाथी प्रेरायेल अग्नि पावन वनने भस्मीभूत करी दे छे. २६ निर्हेतुकोपकारी यो भृशं प्रशमवानपि । Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२२ ) लुप्तसप्तभयभ्रांति-रपि प्रतिभयान्वितः॥२७॥ भावार्थ-जे अत्यंत प्रशमवान् , निर्हेतुक उपकारी अने सात भयनी भ्रांतिथी जे मुक्त छतां ते प्रतिभा (बुद्धि ) युक्त होय छे. २७ न दानेन न मानेन न कलाभिः कुलेन च । एताः कृतांतवत्रा भवंति स्ववशा वशाः॥२८॥ __ भावार्थ-कृतांत समान क्रूर स्त्रीओ दान, मान, कळा के कुळथी स्वाधीन करी शकाती नथी. २८ न जीवहिंसा नासत्य-भाषा न स्तन्यमैथुने । न परिग्रहवैयग्र्यं येषां ते मुनिपुंगवाः॥ २९॥ ___ भावार्थ-जेओ जीवहिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन अने परिग्रहथी मुक्त छे, तेज महात्माओ गणाय छे.२९ न प्रेमधाम वनिता न नितांतपुष्टा लक्ष्म्योन लक्षणलसद्धपुषस्तनूजाः । नो वा निरंतरहृदः सुहृदः कदाचिदालंबनं निपततां नरकांधकूपे ३० मावार्थ-नरकरूप अंधकूपमां पडतां प्राणीओने . प्रेमपात्र वनिता आलंबनरूप थती नथी, अग Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२३ ) णित लक्ष्मी के सारा लक्षणवाळा पुत्रो पण आलंबनरूप थता नथी. तेमज एक हृदयवाळा मित्रो पण कोइवार आलंबनरूप थता नथी एक धर्म विना. ३० निबद्धं प्राग्भवे कर्म जंतुना यच्छुभाशुभम् । प्रभूयंते निरोढुं त-द्विपाकं नाकिनोऽपि न॥३॥ भावार्थ-पूर्वभवमां जंतुए जे शुभाशुभ कर्म बांधेल छे, तेनो विपाक अटकाववाने देवताओ पण समर्थ थइ शकता नथी. ३१ निविशे वायुविवशे वह्नौ जशिमि वा विषम् निये जिह्वामपि च्छित्त्वा शीलं लंपामि नो पुनः भावार्थ-वायुथी उछळता अग्निमां हुं पडीश, विषभक्षण करीश अने जीम छेदीने मरण पामीश, परंतु शीलनो लोप कदापि करनार नथी. ३२ न हि स्वगृहविद्यायां शिष्याः प्रायेण सादराः । स्वरूपायामपि स्वीय-कामिन्यां कामुका इव ॥ ३३॥ भावार्थ-पोतानी स्त्री रूपवती छतां कामी पुरुषो Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२४ ) जेम परस्त्रीमा आसक्त रहे छे, तेम पोतानी गृहवि. द्यामां प्रायः शिष्यो आदररहित होय छे. ३३ न च राजभयं न च चौरभयं इह लोकसुखं परलोकहितम् । वरकीर्तिकरं नरदेवनतं श्रमण त्वमिदं रमणीयतरम् ॥ ३४॥ भावार्थ-अहो ! ज्यां राजभय, के चोरभय नथी, जेथी आ लोकमां सुख अने परलोकमां हित थाय छे, जे श्रेष्ठ कीर्तिने उत्पन्न करनार छे अने जेने देवो तथा मनुष्यो नमे छे-एबुं श्रमणत्व-साधुपणुं अत्यंत रमणीय ग्रहण करवा योग्य छे. ३४ निर्दयत्वमहंकार-स्तृष्णा कर्कशभाषणम् । नीचपात्रप्रियत्वं च पंच श्रीसहचारिणः॥३५॥ मावार्थ-निर्दयता, अहंकार, तृष्णा, कठोर भाषण अने नीच पात्रनी प्रियता-ए पांच दोषो लक्ष्मीना सहचारीसर्वदा साथेज रहे छे. ३५ नयेन नेता विनयेन शिष्यः शीलेन लिंगी Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२५ ) प्रशमेन साधुः । जीवेन देहः सुकृतेन देही वित्तेन गेही रहितो न किंचित् ॥ ३६ ॥ भावार्थ — न्यायथी नेता, विनयथी शिष्य, शीलथी संन्यासी ( ब्रह्मचारी ), प्रशमथी साधु, जीवथी देह, सुकृतथी आत्मा, अने धनथी गृहस्थ शोभे छे. पण जो तेओ ए गुणो विनाना होय तो कंइ पण कामना नथी. ३६ न दातुं नोपभोक्तुं वा शक्नोति कृपणः श्रियम् । किं तु स्पृशति हस्तेन नपुंसक इव स्त्रियम् ॥ ३७ भावार्थ - कृपण पोतानी लक्ष्मीने भोगवी शकतो नथी, तेम ते दान पण करी शकतो नथी. परंतु ते स्त्रीने नपुंसकनी जेम मात्र तेनो हस्तथी स्पर्श कर्या करे छे. ३७ नवगुप्तिसनाथेन ब्रह्मचर्येण भूषिताः । दंतशोधनमात्रेऽपि परस्वे विगतस्पृहाः ॥ ३८ ॥ भावार्थ - जेओ नव गुप्तियुक्त ब्रह्मचर्यथी विभू १५ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२६ ) षित होय छे, तेओ दंतशोधन निमित्ते नजीवी जेवी परवस्तुमां पण स्पृहा राखता नथी तेओज मुनिराज छे. ३८ नैव स्त्रीणां प्रियः कोऽपि न चाढ्यो न च रूपवान्। गावस्तृणमिवारण्ये आकांक्षंते नवं नवम् ||३९|| भावार्थ - स्त्रीओने धनवान् के रूपवान् कोइ पण प्रिय न होय, जगतमां घासने गायोनी जेम तेओ नवा नवा पुरुषने इच्छती जाय छे. ३९ न काष्ठे विद्यते देवो न शिलायां न कर्दमे । भावेषु विद्यते देव-स्तस्माद्भावो हि कारणम् ॥४० ४० भावार्थ - काठ, पाषाण के कादवमां कंइ देव नथी, पण देव तो भावमांज छे. माटे सद्गतिमेलववानुं भाव एज मुख्य कारण छे. न सदश्वाः कशाघातं न सिंहो घनगर्जितम् । परैरंगुलिनिर्देशं न सहते मनस्विनः ॥४१॥ भावार्थ- नामीचो अश्व चाबुकना प्रहार तथा Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२७ ). सिंह मेघना गर्जारवने सहन करतो नथी, तेम सुज्ञ जनो अन्यना अंगुलि निर्देशने सहन करता नथी. ४१ नदीतटेषु ये वृक्षा या च नारी निराश्रया । मंत्रहीनाश्च राजानो न भवंति चिरायुषः ॥ ४२॥ भावार्थ- नदी किनारापरना वृक्षो, निराधार स्त्री अने प्रधान विनाना राजाओनुं राज्य ए दीर्घायुषी थइ शकता नथी. ४२ न विना मधुमासेन अंतरं पिककाकयोः वसंते च पुनः प्राप्ते काकः काकः पिकः पिकः४३ भावार्थ – वसंत विना कोयल अने कागडानुं अंतर जाणी शकातुं नथी. पण ज्यारे वसंतऋतु आवे छे, त्यारे कोयल ते कोयल अने काग ते काग - ए भेद देखाई आवे छे. ४३ नास्ति कामसमो व्याधि-र्नास्ति क्रोधसमोऽनलः । नास्त्यज्ञानसमं दुःखं नास्ति मोहसमो रिपुः ॥ ४४ भावार्थ - काम समान व्याधि नथी, क्रोध समान Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२८ ) अग्नि नथी, अज्ञान समान दुःख नथी अने मोह समान कोई शत्रु नथी. ४४ नृपस्य चित्तं कृपणस्य वित्तं मनोरथं मानसदुर्जनं च । स्त्रियश्चरित्रं पुरुषस्य भाग्यं देवो न जानाति कुतो मनुष्यः ॥ ४५ ॥ भावार्थ - राजानुं चित्त, कृपणनुं धन, मनोरथ दुर्जननी दुष्टता, स्त्रीनुं चरित्र अने पुरुषनुं भाग्य - ए देव पण न जाणी शके, तो मनुष्य क्यांथी जाणी शके ? ४५ नराणां नापिको धूर्त्तः पक्षिणां चैव वायसः । चतुष्पदां शृगालस्तु स्त्रियां धूर्ता च मालिनी४६ भावार्थ- पुरुषोमां हजाम धूर्त्त, पक्षीओमां काग धूर्त्त, पशुओमां शृगाल धूर्त्त अने स्त्रीओमां मालणने धूर्त्त कहेल छे. ४६ निर्धनानामनाथानां पीडितानां नियोगिभिः । वैरिभिश्चाभिभूतानां सर्वेषां शरणं नृपः ॥४७॥ भावार्थ – निर्धन, अनाथ, अधिकारी जनोथी Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२९ ) त्रास पामेल तथा वैरीओथी परामव पामेल ए बधाने राजाज शरण होय छे. ४७ नक्षत्रभूषणं चंदो नारीणां भूषणं पतिः। पृथिवीभूषणं राजा विद्या सर्वस्य भूषणम्॥४८॥ __ भावार्थ-नक्षत्रनुं भूषण चंद्र छे, स्त्रीओर्नु भूषणं पति छ, राजा पृथिवीनुं भूषण छे अने विद्या-ए सर्वनुं भूषण छे. ४८ न च विद्यासमो बंधुनच व्याधिसमो रिपुः। न सौजन्यसमो स्नेहो न च दैवात्परं बलम् ४९ भावार्थ-विद्या समान बंधु नथी, व्याधि समान शत्रु नथी, सौजन्य समान स्नेह नथी अने दैव समान इतर बळ नथी. ४९ न ध्यातं पदमीश्वरस्य विधिवत्संसारविच्छित्तये स्वर्गद्वारकपाटपाटनपटुर्धर्मोऽपिनोपार्जितः। , नारीपीनपयोधरोहयुगलं स्वप्नेऽपि नालिंगितं. मातुः केवलमेव यौवनवनच्छेदे कुठारा वयम् ५० Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३० ) भावार्थ – संसारनो उच्छेद करवा विधिपूर्वक ईश्वरपद्नुं पण ध्यान न धर्युं, स्वर्गना द्वार उघाडवामां समर्थ एवा धर्मनुं पण उपार्जन न कर्यु तेमज स्त्रीना पीन स्तन तथा उरुयुगलनुं स्वप्नमां पण आलिंगन न कयुं, तेथी अमे केवल माताना यौवनरूप वनने छेदवामां मात्र कुठाररूपज थया. ५० नभोभूषा पूषा कमलवनभूषा मधुकरो वचोभूषा सत्यं वरविभवभूषा वितरणम् । मनोभूषा मैत्री मधुसमयभूषा मनसिजः सदो भूषा सूक्तिः सकलगुणभूषा च विनयः॥ ५१ ॥ भावार्थ - आकाशनं भूषण सूर्य छे, कमळवननुं भूषण मधुकर छे, वचननुं भूषण सत्य छे, द्रव्यकुं भूषण दान छे, मननुं भूषण मैत्री, वसंतसमयनुं भूषण कामदेव, सुवचन ए सभानुं भूषण छे अने विनय - ए बधा गुणोनुं भूषण छे. ५१ न निमित्तद्विषां क्षमो नायुर्वैद्यकविद्विषाम् । गुरुद्विषां न हिज्ञानं न मुक्तिर्देवविद्विषाम् ॥ ५२॥ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३१) भावार्थ-कंई पण निमित्तने लइने द्वेष करनाराओने कुशळ न होय, वैद्योपर द्वेष करनाराओ अल्पायुषी होय, गुरुना द्वेषीओने ज्ञान न मळे अने देवना द्वेषीओने मोक्षनी प्राप्ति न थाय. ५२ निदैतः करटी हयो गतजवश्चंदं विना शर्वरी निर्गधं कुसुमं सरो गतजलं छायाविहीनस्तरुः। सूपो निर्लवणः सुतो गतगुणश्चारित्रहीनो यतिनिर्देवं भुवनं न राजति तथा धर्म विना मानवः५३ भावार्थ-दंत विनानो हस्ती, वेग विनानो अश्व, चंद्र विनानी रात्रि, गंध विनानुं पुष्प, जळ विनानुं सरोवर, छाया विनानुं वृक्ष, लवण विनानुं मोजन, विनय विनानो पुत्र, चारित्रहीन यति, अने देव विनानुं जेम मंदिर न शोभे, तेम धर्म विना मनुष्य शोभतो नथी. ५३ निर्लेपो निःकलः शुद्धो निष्पन्नोऽत्यंतनिर्वृतः । निर्विकल्पश्च सिद्धात्मा परमात्मेति वर्णितः ५४ भावार्थ-निर्लेप, निष्कल, शुद्ध, संपूर्ण, अत्यंत Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३२) निर्वृत, निर्विकल्प अने सिद्धात्मा-आ विशेषणोयुक्त परमात्मा कहेल छे. ५४ निःशेषक्षत्रनक्षत्र-चके चक्रेश्वरः श्रिया। यच्चंदमायितं धत्ते तद्धर्मस्य विजूंभितम् ॥५५॥ भावार्थ-समस्त क्षत्रियोरूप नक्षत्रोना समूहमा ' लक्ष्मीथी जे चक्रवर्ती चंद्रमापणाने धारण करे छे, ते धर्मनुं फळ समजवू. ५५ निष्कलः कुकलत्रेण मिलितः स्यान्महानपि । कलाहीनः कुहूयोगे किं न राजापि जायते ५६ भावार्थ-महान् पुरुष पण नठारी स्त्रीना योगे कळारहित बने छे. जुओ, अमावास्याना योगे चंद्रमा पण कळाहीन थई जाय छे. ५६ निश्चलः स्नेहलः कोऽत्र कः प्रकाशो निरंतरः। को वा सर्वोत्तमो लाभः किं च रूपमवित्रसम्५७ निश्चलः स्नेहलो धर्म-श्चित्प्रकाशो निरंतरः। विद्या सर्वोत्तमो लाभः शीलं रूपमविस्रसम्॥५८ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३३ ) 4 भावार्थ - आ जगतमां निश्चल स्नेह क्यो ? निरंतरनो प्रकाश क्यो, सर्व करतां उत्तम लाभ क्यो अने अभंग रूप क्यूं ? एना उत्तरमां जणावे छे के-निश्चळ स्नेही - ते धर्म, निरंतरनो प्रकाश-ते ज्ञान, सर्वोत्तम लाभ-ते विद्या अने अभंग रूप - ते शील छे. ५७ ५८ निश्चितं पुण्यवानस्मि यत्प्रापं तव दर्शनम् । त्वां ह्यपुण्या न वीक्षंते कौशिका इव भास्करम् ५९ भावार्थ - हे भगवन् ! हुं आपनुं दर्शन पाम्यो, तेथी अवश्य पुण्यवान् छं. कारण के घूवड जेम सूर्यने न जोई शके-तेम पुण्यहीन जनो आपने जोई शकता नथी. ५९ नं जल्पतामपि तथा भिये मम नृणामृणम् । अजल्पतोऽपि देवस्या - नंतसंसारकृद्यथा ॥ ६० ॥ मावार्थ- न बोलता पण अनंत संसारने वधारनार एवा देवना ऋणथी मने जेटलो भय छे, तेटलो भय, सामे आवीने बोलता एवा मनुष्योना ऋणथी नथी. ६० नारी मृदुः सुखं निंद्या निपुणैर्न पुनः पुमान् । हिमो दहति वृंताकी यथा न तु तथा वटम् ॥ ६१ ॥ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३४ ) भावार्थ – निपुण जनो जेम कोमळ एवी स्त्रीनी सुखे निंदा करे छे, पण तेवीरीतें पुरुषनी निंदा करता नथी, कारण के हिम रींगणीने जेम बाळी शके छे, वटवृक्षने बाळी शकतो नथी. ६१ तेम नायं प्रयाति विकृतिं विरसो न यः स्यान्न क्षीयते बहुजनैर्नितरां निपीतः । जाड्यं निहंति रुचिमेति करोति तृप्तिं नूनं सुभाषितरसोऽन्यरसातिशायी ॥ ६२ ॥ भावार्थ - जे कदापि विकृतिने पामतो नथी, जे विरस थतो नथी, बहु जनो अत्यंत जेनुं पान करे, छतां जे कदापि क्षीयमाण थतो नथी, जे जडताने दूर करे छे, सहुने पसंद पडे छे अने जे संपूर्ण तृप्तिने पमाडे छे, तेथी सुभाषितरस खरेखर ! अन्य सर्व रसो करतां उत्कृष्ट छे. ६२ नमो नमः काव्यरसाय तस्मै निषिक्तमतः पृषतापि यस्य । सुवर्णतां वक्त्रमुपैति साधोर्दुर्वर्णतां याति च दुर्जनस्य ॥ ६३॥ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३५) मावार्थ ते काव्यरसने वारंवार नमस्कार थामो के जेना एक बिंदुमात्रथी जे अंतर आई थयेल होयतो साधुपुरुषर्नु मुख सुवर्णताने पामे छे अने दुर्जन पुरुपर्नु मुख दुर्वर्णताने पामे छे. ६३ निर्गुणेष्वपि सत्त्वेषु दयां कुर्वति साधवः। न हि संहरते ज्योत्स्नां चंदश्चांडालवेश्मसु॥४॥ भावार्थ-सत्पुरुषो, निर्गुणी प्राणीओपर पण दया करे छे. कारण के चंद्रमा पोतानी ज्योत्स्ना (चांदनी) चंडालना मकानपरथी कांइ संहरी लेतो नथी. ६४ न यत्नकोटिशतकै-रपि दुष्टः सुधीर्भवेत्। किं मर्दितोऽपि कस्तूर्या लसुनो याति सौरभम् ॥६५॥ ___ भावार्थ सेंकडो के कोटि यत्नो करवामां आवे, तो पण दुष्ट कदापि सुज्ञ थतो नथी. लसणने कस्तुरी साथे मर्दन करीए, तो पण तेनामां कस्तुरीनी सुवास आवतीज नथी. ६५ न वित्तं दर्शयेत्याज्ञः कस्यचित्स्वल्पमप्यहो। मुनरपि यतस्तस्य दर्शनाच्चलते मनः॥६६॥ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३६ ) भावार्थ- सुज्ञ पुरुषे कोइने स्वल्प पण धन बतावधुं नहि कारण के तेमां एवं कांइ वीजळी बळ छे के तेने जोतां मुनिनुं मन पण चलायमान थाय छे. ६६ न नरस्य नरो दासो दासश्चार्थस्य भूपते । गौरवं लाघवं वापि धनाधन निबंधनम् || ६७ ॥ भावार्थ - हे राजन् ! मनुष्य, मनुष्यना दास नथी, परंतु ते धनना दास छे. गौरव अने लाघव प्राप्त थ ते धन अने निर्धनतानुंज कारण छे. ६७ न योजनशतं दूरं बाध्यमानस्य तृष्णया । संतुष्टस्य करप्राप्तेऽप्यर्थे भवति नादरः ॥ ६८ ॥ भावार्थ – जे माणस तृष्णाथी पीडाय छे, तेने सो योजन पण दूर नथी, अने संतुष्ट पुरुषने द्रव्य पोताना हाथमां प्राप्त थया छतां तेमां तेनो आदर होतो नथी. ६८ नास्त्यन्या तृष्णया तुल्या कापि स्त्री सुभगा कचित् या प्राणानपि मुष्णंती भवत्येवाधिकं प्रिया ॥ ६९ ॥ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३७) भावार्थ-अहो ! आ जगतमां तृष्णा समान अन्य कोई सौमाग्यवती स्त्री भाग्येज हशे. कारण के जे प्राणोने हरण करे छे, छतां लोकोने ते अधिक अधिक प्रिय थती जाय छे. ६९ निरुत्साहं निरानंदं निर्वीर्यमरिनंदनम् । मा स्म सीमंतिनी काचि-जनयेत्पुत्रमीदृशम् ७० भावार्थ-हे जननी ! उत्साहरहित, आनंदरहित, निर्वीर्य अने शत्रुओने आनंद पमाडनार एवा कोई पुत्रने जन्म आपीश नहि. ७० न तथा शशी न मलिलं न चंदनरसो न शीतला छाया। आह्लादयति पुरुषं यथा हि मधुराक्षरा वाणी ॥ १॥ भावार्थ-जेवी रीते पुरुषने मधुराक्षरयुक्त वाणी आनंद पमाडे छे, तेम चंद्रमा, जळ, चंदनरस के शीतल छाया आनंद पमाडी शकता नथी. ७१ नरस्याभरणं रूपं, रूपस्याभरणं गुणः। गुणस्याभरणं ज्ञानं ज्ञानस्याभरणं क्षमा ॥७२॥ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३८) भावार्थ--पुरुषनुं रूप-ए तेना आभरण समान छे, रूपनुं आभरण गुण छे, गुण, आमरण ज्ञान छे, अने ज्ञान- आमरण क्षमा छे. ७२ न चौरचोर्यं न च राजहार्यं न भ्रातृभाज्यं न च भारकारी । व्यये कृते वर्धत एव नित्यं विद्याधनं सर्वधनप्रधानम् ॥ ७३॥ भावार्थ-जेने चोर चोरी शकतो नथी, राजा हरण करी शकतो नथी, जेमांथी, भाइओ भाग पडावी शकता नथी, जे लेश पण भार न करे अने जेनो व्यय करवा जतां वध्या करे छे एq विद्यारूप धन ते सर्व प्रकारना धन करतां श्रेष्ठ छे. ७३ नदुर्जनःसजनतामुपैति बहुप्रकारैरपि सेव्यमानः। भूयोऽपि सिक्तः पयसा घृतेन न निंबवृक्षो मधुरत्वमेति ॥ ७४॥ भावार्थ:-अनेक प्रकारे तेनी सेवा कर्या छतां दुर्जन पुरुष कदापि सज्जनताने धारण करतो नथी. Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३९ ) भले वारंवार दूध के घृतथी सिंचन करवामां आवे, तथापि निंबवृक्ष कदापि मधुरपणाने पामतुं नथी. ७४ नाहं स्वर्गफलोपभोगतृपितो नाभ्यार्थितस्त्वं मया संतुष्टस्तृणभक्षणेन सततं साधो! न युक्तं तव । स्वर्ग यांति यदि त्वया विनिहता यज्ञे ध्रुवं प्राणिनो यज्ञं किं न करोषि मातृपितृभिः पुत्रैस्तथा बांधवैः॥७५॥ __ भावार्थ हे राजन् ! हुं स्वर्गनुं सुख भोगववाने इच्छातुर नथी,तेमज में ते बाबतने माटे तारी पासे कंइ प्रार्थना पण करी नथी, वळी हे सज्जन ! निरंतर तृणभक्षण करवाथी अमे संतुष्ट रहीए छीए-माटे तने आम करवू योग्य नथी, वळी यज्ञमां मरायला प्राणीओ जो अवश्य स्वर्गेज जता होय, तो तुं तारा माबाप, पुत्रो तथा बांधवोनो यज्ञ केम करतो नथी. ७५ न द्विषंति न याचते परनिंदां न कुर्वते। अनाहूता न चायांति तेनाश्मानोऽपि देवताः७६ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४०) मावार्थ-जे कोईनी उपर द्वेष करता नथी, को. ईनी पासे जे कंइ मागता नथी, परनिंदा जे करता नथी अने बोलाव्या विना जे आवता नथी, तेथी ते पाषाणो ( पत्थराओ) पण देव कहेवाय छे. ( मनाय छे). ७६ नृणां धुरि स एवैको यः कश्चित्त्यागपाणिना। निर्मार्टि प्रार्थनापांसु-धूसरं मुखमर्थिनाम् ॥७७॥ भावार्थ-जगतमा सर्व पुरुषो करता अग्रेसर तेज एक पुरुष छे, के जे पोताना दान देवाना हाथथी, प्रार्थनारूप धूळथी कंईक झांखा थयेल याचकोना मुखने साफ करे छे. ७७ पदे पदे निधानानि योजने रसकूपिका। भाग्यहीना न पश्यति बहुरत्ना वसुंधरा ॥१॥ भावार्थ-पगले पगले निधानो होय छे, अने यो जने योजने रसकुंपिका होय छे, पण भाग्यहीन जनो ते जोई शकता नथी. कारण के बहुरत्ना वसुंधरा कहेवाय छे. १ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४१ ) प्रथमे नार्जिता विद्या द्वितीये नार्जितं धनम् । तृतीये नार्जितो धर्म-श्चतुर्थे किं करिष्यति ॥ २ ॥ भावार्थ - जेणे प्रथम वयमां विद्या मेळवी नथी, बीजी अवस्थामां धन मेळव्युं नथी अने श्रीजी अवस्थामां धर्म मेळव्यो नथी-ते चोंथी अवस्थामां शुं करवानो हतो ( त्रणमांथी एके नहि थशे ) २ प्रत्यक्षे गुरवः स्तुत्याः परोक्षे मित्रबांधवाः । कर्मांते दासभृत्याश्च पुत्राश्चैव मृताः स्त्रियः ॥ ३॥ भावार्थं - गुरुमहाराजनी तेमनी सामें प्रत्यक्ष स्तुति करवी, मित्र के बांधवानी परोक्ष एंटले. तेमनी गेरहाजरीमां स्तुति करवी, दास के सेवकोनी तेमज पुत्रोनी कार्यना प्रांत स्तुति करवी अने स्त्रीओनी तेमना मरण पछीज स्तुति करवी. ३ पुष्पैरपि न योद्धव्यं किं पुनर्निशितैः शरैः । युद्धे विजयसंदेहः प्रधानपुरुषक्षयः ॥ ४ ॥ १६ • Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४२ ) भावार्थ-फूलोथी पण युद्ध न करवू, तो पछी तीक्ष्ण बाणोथी तो युद्ध थईज केम शके ? कारण के युद्धमा विजयनो तो संदेह होय छे, पण तेमां प्रधान पुरुषोनो क्षय तो थायज छे. ४ पंडितोऽपि वरं शत्रु-र्न मूो हितकारकः । वानरेण हतो राजा विपचौरेण रक्षितः॥५॥ भावार्थ-पंडित शत्रु पण सारो अने मूर्ख हितकरनार पण सारो नहि. जुओ, शास्त्रमा वात छे के वानरे राजानो नाश कर्यो अने चोर ब्राह्मणे तेने बचाव्यो. ५ प्रमदा मदिरा लक्ष्मी-विज्ञेया त्रिविधा सुरा। दृष्टैवोन्मादयत्येका पीता चान्यातिसंचयात्॥६॥ भावार्थ-स्त्री, मदिरा ( दारु ) अने लक्ष्मी एम त्रण प्रकारे सुरा (दारु ) कहेल छे. प्रथम मात्र जोवाथीज उन्माद उपजावे छे, बीजी पान करवाथी अनेत्रीजी अतिसंचयथी उन्माद उपजावे छे. ६ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४३ ; परदारं परद्रव्यं परवादं परस्य च । परिहासं गुरोः स्थाने चापल्यं च विवर्जयेत् ॥७॥ भावार्थ- परस्त्री, परद्रव्य, परनिंदा, अने परपरि - हास तथा गुरुनी आगळ चापल्य- एनो सदा त्याग करवो. ७ पुत्रप्रयोजना दाराः पुत्रः पिंडप्रयोजनम् । हितप्रयोजनं मित्रं धनं सर्वप्रयोजनम् ॥ ८ ॥ भावार्थ - संतति (पुत्र ) नी खातर स्त्री करवामां आवे छे, पिंडनी खातर पुत्रनी जरूर छे, हितनी खातर मित्रनी जरूर छे अने सर्व कार्योनी खातर धननी जरूर छे. ८ पादपानां भयं वाता त्पद्मानां शिशिराद्भयम् । पर्वतानां भयं वज्रा - त्साधूनां दुर्जनाद्भयम् ॥९॥ भावार्थ - वृक्षाने वायुथी भय रहे छे, कमळोने शीत ऋतु - हिमथी भय रहे छे, पर्वतोने वज्रथी अने साधुओने दुर्जनथी भय रहे छे. ९ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४४) परीक्षणीयो यत्नेन स्वभावो नेतरे गुणाः। व्यतीत्य हि गुणान् सर्वान् स्वभावो मूनि वर्तते१० भावार्थ-बराबर यत्नपूर्वक स्वभावनीज परीक्षा करवानी जरूर छे, अन्य गुणोनी परीक्षा करवानी जरूर नथी. कारण के बधा गुणोने ओळंगीने स्वभाव मगजमा रहे छे. १० परोपकाराय न कीर्तये न न प्रीतये नो सुकृताय लक्ष्मीः। सुखाय नोक्तं निजबांधवानां द्यूताहृता केवलपातकाय ॥११॥ भावार्थ-जुगारथी ग्रहण करेल लक्ष्मी, परोपकारमा काम आवती नथी, तेनाथी कीर्तिनो लाभ थतो नथी, प्रीति के सुकृतमां पण ते काम आवती नथी तेमज पोताना स्वजन संबंधीओना सुख निमित्ते पण तेनो उपयोग थइ शकतो नथी, परंतु मात्र ते पातकना निमितेज थाय छे. ११ पत्रं नैव यदा करीरविटपे दोषो वसंतस्य किं नोलूकेन विलोक्यते यदि दिवा सूर्यस्य किं दूष Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४५) णम् । धारा नैव पतंति चातकमुखे मेघस्य किं दूषणं यद्धात्रा निजभालपट्टलिखितं तन्मार्जितुं कःक्षमः॥१२॥ मावार्थ-केरडाना वृक्षमा मूळथी पत्रज न थाय तेमा वसंतऋतुनो शो दोष ? घूवड पक्षी दिवसे जोइ न शके तेमां सूर्यनो शो दोष ? चातकना मुखमा 'धारा न पडे तेमां मेघनो शो दोष ? विधाताए पोताना ललाटपर जे लेख लख्या छे. - तेने मुंसाडवाने कोण समर्थ छे. १२ । पिवंति नद्यः स्वयमेव नांभः स्वयं न खादंति फलानि वृक्षाः। नादंति शस्यं खलु वारिवाहाः परोपकाराय सतां विभूतयः॥१३॥ __ मावार्थ-नदीओ पोते कंइ पाणी पीती नथी, वृक्षो पोते पोताना फळो खाता नथी, अने जलधरो पोते (धान्य ) मोलर्नु भक्षण करता नथी. माटे सज्जनोनी समृद्धि मात्र परोपकार निमित्तेज होय छे. १३ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४६ ) पात्रे धर्मनिबंधनं परजने प्रोद्यद्दयाख्यापकं मित्रे प्रीतिविवर्धनं रिपुजने वैरापहारक्षमम् । भृत्ये भक्तिभरावहं नरपतौ सन्मानपूजापदं भट्टादौ च यशस्करं वितरणं न काप्यहो निःफलम् 3 भावार्थ - अहो ! दान, कदापि क्यां निष्फळ थतुंज नथी. जुओ, सुपात्रे आपवाथी ते धर्मनुं हेतुभूत थाय छे, परजनने आपवाथी, दयाने सूचवनार बने छे, मित्रने आपतां प्रीतिमां वधारो करावे छे, शत्रुजनोने आपवाथी वैरभावने शांत करे छे, चाकरने आपतां ते अधिक भक्तिशाली बने छे, राजाने आपतां सन्मानने अपावे छे, अने भाट विगेरेने आपवाथी यशने विस्तारे छे एम सर्वत्र फळीभूतज थाय छे. १४ प्रातर्मूत्रपुरीषाभ्यां मध्याह्ने क्षुत्पिपासया । तृप्ताः कामेन बाध्यते प्राणिनो निशि निद्रया १५ भावार्थ - प्राणीओ प्रभाते मळ - मूत्रथी तथा Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४७ ) बपोरे क्षुधा - तृषाथी बाधित थाय छे. वळी तृप्त थतां रात्रे काम अने निद्राथी बाधित थाय छे. १५ परोक्षे कार्यहंतारं प्रत्यक्षे प्रियवादिनम् । वर्जयेत्तादृशं मित्रं विषकुंभं पयोमुखम् ॥ १६ ॥ भावार्थ — प्रत्यक्ष प्रिय बोलनार अने परोक्षमां कार्यनो ध्वंस करनार एवा ते मुखपर दुध भरेल अने अंदर विषथी भरेल धडास मान मित्रनो सर्वथा दूरथीज त्याग करवो योग्य छे. १६ पापान्निवारयति योजयते हिताय गुह्यं निग्रहति गुणान् प्रकटीकरोति । आपगतं च न जहाति ददाति काले सन्मित्रलक्षणमिदं प्रवदंति संतः ॥ १७ ॥ भावार्थ - - जे पापथी अटकावे छे, हितमां नियुक्त करे छे, गुह्यने छुपावे छे, गुणोने प्रगट करे छे, आपत्ति वखते कदापि जे तजे नहि अने अवसर आवे जे मदद आपे छे - ए प्रमाणे संत जनोए सन्मित्रना लक्षणो कह्या छे. १७ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४८ ) परैः प्रोक्ता गुणा यस्य निर्गुणोऽपि गुणी भवेत् । इंद्रोऽपि लघुतां याति स्वयं प्रख्यापितैर्गुणैः॥ १८ ॥ भावार्थ -- जेना अन्य जनो गुण गाय, ते कदाच निर्गुणी होय, छतां पण गुणी गणाय छे. कारण के इंद्र पण जो पोताना गुणो पोते गावा बेसे, तो ते लघुताने पामे छे. १८ परोपकारशून्यस्य धिग्मनुष्यस्य जीवितम् । धन्यास्ते पशवो येषां चर्माप्युपकरोति हि ॥ १९ ॥ भावार्थ- परोपकार विनाना मनुष्यना जीवितने धिक्कार छे. अहो ! पशुओ पण धन्य छे के जेमनुं जामडुं पण लोकोना उपयोगमां आवे छे. १९ पूज्यपूजा दया दानं तीर्थयात्रा जपस्तपः । श्रुतं परोपकारश्च मर्त्यजन्मफलाष्टकम् || २० || भावार्थ -- पूज्य जनोनी पूजा करवी, दया पाळवी दान करवुं, तीर्थयात्रा करवी, जप, तप, शास्त्रश्रवण तथा परोपकार - ए मनुष्यजन्मना अष्ट फलो छे. २० Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४९ ) पिता योगाभ्यासो विषयविरतिः सा च जननी विवेकः सौदर्यः प्रतिदिनमनीहा च भगिनी । प्रिया क्षांतिः पुत्रो विनय उपकारः प्रियसुहृत् सहायो वैराग्यं गृहमुपशमो यस्य स सुखी ॥ २१ ॥ भावार्थ - - जेने योगाभ्यासरूप पिता छे, विषयविरतिरूप जेने माता छे, विवेकरूप जेने भ्राता छे, निरंतरनी अनिच्छारूप जेने भगिनी छे क्षमारूप पत्नी छे, विनयरूप जेने पुत्र छे, पर उपकाररूप जेने प्रिय मित्र छे, वैराग्यरूप जेने सहाय छे अने उपशमरूप जेने भवन छे- तेज महात्मा परम सुखी छे. २१ प्रहरद्वयमार्गेऽपि नराः कुर्वंति शंबलम् । न कुर्वति परत्रार्थे वर्ष कोटी प्रयाणके ॥ २२ ॥ भावार्थ -- अहो ! जुओ तो खरा के बे पहोरनी मुसाफरी करवा जतां पुरुषो भातानी गोठवण करे छे, अने परलोकसंबंधी कोटी वर्षोना प्रयाणमां पण पुण्यरूप भाता माटे काळजी राखता नथी. २२ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५०) प्रमादः परमद्वेषी प्रमादः परमं विषम् । प्रमादो मुक्तिपूर्दस्युः प्रमादो नरकालयः॥२३॥ भावार्थ-प्रमाद-ए परम शत्रु छे, प्रमाद-ए तीव्र विष छे, प्रमाद-ए मुक्ति-नगरीना चोररूप छे, अने प्रमाद ए नरकनुं स्थान छे. २३ पुमानत्यंतमेधावी त्रयाणां फलमश्नुते । अल्पायुरनपत्यो वा दरिदो वा न संशयः॥२४॥ भावार्थ-अत्यंत धीमान् ( बुद्धिशाळी ) पुरुष, अल्प आयुष्यवाळो, संतानरहित अथवा तो दरिद्रए वणर्नु अवश्य फळ भोगवे छे. २४ ।। पृथ्व्यप्तेजोमरुगुणां जीवान् श्रद्दध्महे कथम् । प्रत्यक्षादिप्रमाणाना-भगम्यान्व्योमपुष्पवत्।२५। ___ भावार्थ-पृथ्वी, अप, तेजस्, वायु, अने वनस्पति-ए विगेरेमां जीवो छे, एम अमाराथी केम मानी शकाय ? कारण के प्रत्यक्षादि प्रमाणोने ते अगम्य होवाथी आकाशपुष्प समान छे, एम नास्तिक जनो कहे छे. २५ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५१ ) पुष्पोच्चयः पयः क्रीडा दोला स्त्री नाट्यगीतयः । हास्यं कौतुकता चेति यौवनद्रोः फलावली २६ भावार्थ- पुष्पो चुंटवा, जळक्रीडा करवी, दोला (हींडोळा ), स्त्रीविलास, नाटक, गीति, हास्य अने कौतुकपणुं - ए यौवनरूप वृक्षना फळो छे. २३ परं करोमि किं नारी - वाग्दाक्षिण्यनियंत्रितः । सुवृत्तोऽपि गले बद्धः स्त्रीभिः क्षिप्तोऽवटे घटः २७ भावार्थ - अहो ! शुं करूं के स्त्रीना वचन दाक्षिव्यथी हुं नियंत्रित ( ब ) थई गयो छं. जेम घडो सुवृत्त ( गोळाकार ) होय, छतां स्त्रीओ तेने गळामां दोरडी बांधीने कुवामां नाखे छे. २७ पित्रादिषु प्ररूढस्य स्नेहस्यापि न दुर्घटम् । धान्यवद्दलनं यत्र स्त्रीघरट्टः स नूतनः ॥ २८ ॥ भावार्थ - अहो ! आतो स्त्रीरूप घरट्ट ( घंटी ) कोई विचित्र प्रकारनोज छे, के जेमां मातापितादिकनो स्नेह पण धान्यनी जेम सत्वर दलित थई जाय छे. २८ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५२ ) परस्परं विरोधिन्यो यासां चित्तवचःक्रियाः। तासु लोभाभिभूतासु विश्रंभः शंभलीषु कः।२९। भावार्थ-जेमनी मन,वचन-अने कायानी क्रियाओ पण परस्पर विरोधी ( भिन्न ) छे एवी लोभथी पराभूत थयेल कुटणी जेवी स्त्रीओभां विश्वास केवो ? २९ परार्थैकधियो धन्या मध्यास्तु स्वार्थसाधकाः । न परार्थं न च स्वार्थ साधयंत्यधमाः पुनः॥३०॥ भावार्थ-जेओ सदा परोपकार करवामांज तत्पर छे, तेओ धन्य छे, मध्यम पुरुषो स्वार्थ साधवाने तत्पर होय छे, अने अधम पुरुषो परमार्थ के स्वार्थ कई पण साधी शकता नथी. ३० प्रिये मम न विश्वासः कोऽपि कालस्य रक्षसः। क्रीडाकंदुकवद्यस्य पातोत्पातरतो रविः ॥३१॥ भावार्थ-हे प्रिये ! मने कालरूप राक्षसनो जरा पण विश्वास नथी. केमके जेनी पासे सूर्य खेलवाना दडानी जेम कुद्या करे छे. ३१ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५३ ) प्रेयः प्राप्तिमनोरथः खलु रथो हार्दं बलं - शंबलं तृष्णा दीपधरा पुरः प्रचलितोत्कंठा सखी पार्श्वतः सौभाग्यप्रमदः प्रदत्तशकुनो दोषाश्च संप्रेषका मार्गज्ञः स्मर एव पुंखितशरस्तस्याः प्रयाणेऽभवत् ॥ ३२ ॥ भावार्थ - अहो ! जे कुलटा स्त्री होय छे, तेने पोताना जारनी प्राप्तिना मनोरथरूप रथ होय छे, अंतरनुं बळ - जेने भातुं होय छे, जेने तृष्णा-ते आगल दीपक धरनारी होय छे, अने बने बाजु उत्कंठारूप सखी, जेनी साथे चाले छे, सौभाग्यनो संमद, जेने शकुन बतावनार होय छे, दोषो, जेने मोकलनारा होय छे, अने बाण सज्ज करीने कामदेव, जेनी साथे मार्गना भोमीयो चाले छे-आवा संयोगथी व्यभिचारिणी स्त्री पोताना इष्ट स्थान तरफ प्रयाण करे छे. ३२ प्रजानां धर्मषड्भागो राज्ञो भवति रक्षितुः । अधर्मस्यापि षड्भागो जायते यो न रक्षति ३३ • Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५४) भावार्थ:--प्रजानुं रक्षण करनार राजाने प्रजाना धर्मनो छठो भाग मळे छे, तेम जो रक्षा न करे, तो तेने अधर्मनो पण छट्ठो भाग मळे छे. ३३ पंगुमंधं च कुब्जं च कुष्टांगं व्याधिपीडितम् । आपत्सु च गतं नाथं न त्यजेत्सा महासती ३४ __ भावार्थ-पोतानो पति कदाच पांगळो होय, आंधळो होय, कुबळो के कोढीयो होय, व्याधिथी पी. डातो होय, आपत्तिमा आवी पड्यो होय-एवा पण पोताना धणीनो जे स्त्री त्याग के अनादर न करे-ते महासती जाणवी. ३४ पिता रक्षति कौमारे भर्ता रक्षति यौवने । पुत्राश्च स्थविरे भावे न स्त्री स्वातंत्र्यमर्हति॥३५॥ भावार्थ-कौमार-अवस्थामां पिता, जेनुं रक्षण करनार होय छे, यौवन वयमां पति, जेनुं रक्षण करे छे, अने वृद्धपणामां पुत्रो जेनी रक्षा करे छे, पण स्त्री कदापि स्वतंत्रताने योग्य नथी. ३५ . पूगीफलानि पत्राणि राजहंसास्तुरंगमाः। स्थानभ्रष्टा न शोभंते सिंहाः सत्पुरुषा गजाः३६ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५५ ) भावार्थ- पूगीफलो (सोपारी), पांदडां, राजहंसो, अश्वो, सिंहो, सत्पुरुषो अने हाथीओ-ए स्थानथी भ्रष्ट थया पछी शोभा पामता नथी. ३६ प्राप्य रत्नत्रयं पुत्रः संयमश्री समन्वितः । किं दूरादहमायातो न जातो भवतो मुद्दे ॥ ३७॥ भावार्थ — रत्नत्रय ( ज्ञान, दर्शन अने चारित्र ) ने प्राप्त करीने संयम - लक्ष्मीथी संयुक्त थयेल हुं तमारो पुत्र दूरथी आव्या छतां तमारा हर्षानिमित्ते न थयो. ३७ प्रयाणेऽप्यल्पकालीने जनाः कुर्वंति सूत्रणाम् । परलोकप्रयाणे किं निश्चिंता हंत जंतवः ॥३८॥ भावार्थ - अल्प काळना प्रयाण माटे पण लोको तैयारी करे (विचार करे) छे, तो परलोकना प्रयाण माटे ते निश्चिंत थई बेठा छे-ते आश्चर्यनी वात छे. ३८ पंचेंद्रियहया लोलाः प्रकृत्या दुर्मदा अपि । त्याजिता गुरुवाग्वल्गाभियोगात्तेन चापलम ३९ भावार्थ-स्वभावे चपळ अने दुर्मद छतां तेणे पं Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५६ ) चेंद्रियरूप अश्वोने गुरुवाणीरूप चाबुकना प्रयोगथी चपलतारहित कर्या. ३९ प्रकृत्या निम्नगं वारि प्रकृत्या चंचलः कपिः। भवंति विषयासक्ताः प्रकृत्यैव शरीरिणः॥४॥ __ भावार्थ-पाणी स्वभावे जेम नीचे गमन करनार होय छे, अने वानर स्वभावे जेम चपळ होय छे, तेम प्राणीओ स्वभावथीज विषयासक्त होय छे. ४० पंचाश्रवाद्विरमणं पंचेंद्रियनिग्रहः कषायजयः। दंडत्रयविरति-श्चति संयमाः सप्तदश ॥४१॥ भावार्थ-पांच आश्रवोथी विराम पाम, पांच इंद्रियोनो निग्रह करवो, चार कषायोनो जय करवो अने त्रण दंडथी विरमवू-ए रीते संयमना सत्तर भेद थाय छे. ४१ प्रस्तावसदृशं वाक्यं सद्भावसदृशं प्रियम् । आत्मशक्तिसमं कोपं यो जनाति स पंडितः ४२ भावार्थ-अवसरने उचित वाक्य, जे जाणे छे सद्भावने उचित प्रिय, जे जाणे अने आत्मशक्तिने उचित कोपने जे जाणे छे-ते पंडित समजवो. ४२ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५७ ) पृथिव्यां त्रीणि रत्नानि जलमन्नं सुभाषितम् । मूढैः पाषाणखंडेषु रत्नसंज्ञा निवेशिता ॥ ४३ ॥ भावार्थ- पृथ्वीमां जळ, अन्न अने सुभाषित - ए त्रणज रत्नो छे. पण मूढ जनोए वृथा पाषाण - पत्थरने रत्न बनावेल ( रत्ननुं नाम आपेल छे. ४३ परवित्तव्ययं वीक्ष्य खिद्यते नीचजातयः । यवासको न किं शुष्या - द्वारि व्ययति वारिदे ४४ भावार्थ-नीच जनो बीजाना धननो व्यय थतो जोइने अंतरमां बहुज खेद पामे छे. मेघना पाणीनो व्यय थतो जोइन शुं जवासीओ सुकाइ जतो नथी ? अर्थात् सुकाइ जाय छे. ४४ पश्चाद्दत्तं परैर्दत्तं लभ्यते वा न लभ्यते । स्वहस्तेन च यद्दत्तं लभ्यते तन्न संशयः ॥ ४५ ॥ भावार्थ - मरण पछी आपवामां आवेल या तो बीजाओए जे आपेल ( दान करेल ) होय - तो तेनुं फळ प्राप्त थाय अथवा न पण थाय. पण पोताना हाथे जे दान करेल होय-तेनुं फल तो अवश्य मळेज छे. ४५ १७ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५८ ) पृथिव्यामंबुपूर्णायां चातकस्य मरुस्थली । सत्यमेतदृषेर्वाक्य-मदत्तं नैव लभ्यते ॥ ४६ ॥ भावार्थ- पृथ्वी जळथी पूर्ण छतां चातकने ते मारवाडनी भूमि समानज छे. कारण के पूर्वना महर्षिओ सत्य कही गया छे के ते अदत्त कदापि लेतो नथी. ४६ पंच नश्यंति पद्माक्षि क्षुधार्त्तस्य न संशयः तेजो लज्जा मतिर्ज्ञानं मदनश्चापि पंचमः ॥४७॥ भावार्थ - हे कमलाक्षी ! क्षुधार्त्त ( भूखथी पीडाता) ने लज्जा, तेज, मति, ज्ञान अने काम - ए पांच वाना अवश्य नष्ट थाय छे: ४७ प्रायः पुमांसः सरलस्वभावा रंडास्तु कौटि ल्यकलावरंडाः । भर्तुर्ययाचे कथमन्यथास्मिन काले वरं केकयनंदनेयम् ॥ ४८ ॥ भावार्थ - प्रायः पुरुषो बधा सरल स्वभावी होय छे अने स्त्रीओ कौटिल्यकळाथी भरपूर होय छे. जो एम न होय तो वखत आवतां कैकेयीए दशरथ राजा पासे केम वरदान माग्यं ? ४८ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५९) प्राप्य चलानधिकारान् शत्रौ मित्रे च बंधुवर्गे च । नापकृतं नोपकृतं न सत्कृतं किं कृतं तेन ॥ ___ भावार्थ-चलित अधिकार पामीने जेणे शत्रने हराव्यो नहि, मित्रोपर उपकार न कर्यो अने बंधुओनो सारी रीते सत्कार न कर्यो, तो पछी तेणे शुं कर्यु ? ४९ पितृभिस्ताडितः पुत्रः शिष्यस्तु गुरुशिक्षितः। घनाहतं सुवर्णं च जायते जनमंडनम् ॥५०॥ भावार्थ-पिता के पोताना वडिलोथी ताडन पामेल पुत्र, गुरुथी शिक्षा पामेल शिष्य अने हथोडाथी आघात पामेल सुवर्ण-ए व्रणे लोकोना मंडन-रूप थाय छे. ५० प्रारंभे गर्भगंडोला बाल्ये विड्गर्तशूकराः। तारुण्ये च मदाच्छौंडाःप्रायःपुत्राः सहस्रशः५१ __ भावार्थ-प्रारंभमां जे गर्भना कीडा जेवा होय छे, बाल्यावस्थामां जे विष्ठाना डुक्कर जेवा अने तरुणावस्थामां जे मदथी मदोन्मत्त होय छे, ते पुत्रो तो प्रायः हजारो मळी शके तेम छे. ५१ . Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६० ) परस्त्रीसंगतिर्मानभंगाय महतामपि । ऋषिपत्नीरतेराप किं फलं नाकिनायकः ॥ ५२॥ भावार्थ- परस्त्रीना संगथी मोटा पुरुषोनो पण मानभंग थाय छे. ऋषिपत्नी साथे रतिविलास करतां इंद्र शुं फल पाम्यो ? ५२ प्रत्युत विकारकारणमुपदेशो विषयकलुषिते मनसि । अश्मनि हुतवहदीप्ते धूमोद्वाराय जलसेक : भावार्थ-ज्यांसुधी मन विषयथी कलुषित होय, त्यांसुधी उपदेश उलटो विकारना कारणरूप थाय छे. अग्निथी दीप्त थयेल पांषाणपर पाणी छांटतां उलटा तेमांथी धुमाडा नीकळे छे. ५३ प्रायः परःशताः संति भुवि शूराः सहस्रशः । जयत्यक्षाणि यः पंच स वीरोऽतिबलः सुधीः५४ भावार्थ- पृथ्वीपर बहुधा हजारो शूरा जनो हशे, परंतु जे पांच इंद्रियोने जीते तेज सुज्ञ, अतिबलिष्ठ अने वीर छे. ५४ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६१ ) ग्राज्याः प्रीतिभिदः संति केऽपि प्रीतिकरा अपि । भग्नां संदधति प्रीतिं ये स्वल्पा जगतीह ते ५५ भावार्थ - घणा लोको प्रीतिने तोडनारा होय छे, केटलाक प्रीति करनारा होय छे अने जेओ भग्न प्रीतिने सांधनार होय तेवा जनो तो जगतमां खरेखर विरलाज हशे . ५५ पदेनैकेन मेधावी पदानां विंदते शतम् । मूर्खः पदसहस्रेण पदमेकं न विंदते ॥ ५६ ॥ भावार्थ- पंडित पुरुष मात्र एक पढ्थी सेंकडो पदोनो बोध मेळवी ले छे अने मूर्ख पुरुष हजारो प्रदोथी एक पदनुं पण ज्ञान मेळवी शकतो नथी. ५६ पंचैतानि पवित्राणि सर्वेषां धर्मचारिणाम् । अहिंसा सत्यमस्तेयं त्यागो मैथुनवर्जनम् ॥ ५७ ॥ भावार्थ - अहिंसा, सत्य, अस्तेय ( चोरी न करवी ते ), ब्रह्मचर्य ( स्त्रीसंगनो त्याग ) अने अपरिग्रह ए पांच महानियमोने तो सर्व धर्मोवाळा एकसरखी ते पवित्र जमाने छे. ५७ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६२ ) प्रयातु लक्ष्मीश्चपलस्वभावा गुणा विवेकप्रमुखाः प्रयांतु । प्राणाश्च गच्छंतु कृतप्रयाणा मा यातु सत्त्वं तु नृणां कदाचित् ॥ ५८ ॥ भावार्थ - चपल स्वभाववाळी लक्ष्मी भले चाली जाय, विवेक विगेरे गुणो पण भले चाल्या जाय एटलुंज नहि परंतु प्राणी पण भले प्रयाण करीने चालता थाय, परंतु पुरुषोमांथी एक सत्त्वगुणनो कदापि लोप न थजो. ५८ पात्रे दानं गुरुषु विनयः सर्वसत्त्वानुकंपा न्याय्या वृत्तिः परहितविधावादरः सर्वकालम् । कार्यो न श्रीमदपरिचयः संगतिः सत्सु सम्यग् राजन् ! सेव्यो विशदमतिना सैप सामान्यधर्मः भावार्थ- सुपात्रे दान आपवुं, वडीलोनो विनय साचववो, सर्व प्राणीओपर दया राखवी, न्यायपूर्वक पोतानुं वर्तन राख, सदा काळ परोपकारमां आदर राखवो, लक्ष्मीनो मद कदापि न करवी अने सत्पुरुबोनी संगति करवी - हे राजन् ! आ सामान्य धर्म सुज्ञ जनोने निरंतर सेवनीय छे. ५९ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६३ ) पक्षपातो न मे वीरे न द्वेषः कपिलादिषु । युक्तिमद्वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रह. ॥ ६० ॥ भावार्थ - ( श्री हरिभद्र सूरि महाराजे कह्युं छे के ) वीर परमात्मा उपर मारो पक्षपात नथी अने बीजा कपिलादिक उपर मारे द्वेषभाव नथी. परंतु जेमनुं वचन युक्तिवाळं छे-तेनो आदर करवो - ए मारु कर्तव्य छे. ६० प्रत्यक्षतो न भगवानृषभो न विष्णुरालोक्यते न च हरो न हिरण्यगर्भः । तेषां स्वरूपगुणमागमसंप्रभावाज् ज्ञात्वा विचारयथ कोऽत्र परापवादः भावार्थ - हमणा विष्णु, शंकर, ब्रह्मा के भगवान् ऋषभ कोई साक्षात् नथी, परंतु शास्त्रना प्रभावथी तेमना गुण अने स्वरूप जाणीने विचार करो के तेम शुं न्यूनाधिकता छे ? ६१ पंडिते हि गुणाः सर्वे मूर्खे दोषाश्च केवलाः । तस्मान्मूर्खसहस्रेभ्यः प्राज्ञ एको विशिष्यते ॥ ६२॥ भावार्थ-पंडितमां बधा गुणो रहेला छे अने मूर्ख Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६४ ) जनमां केवल दोषोज रहेला होय छे. माटे हजारो मूर्ख जनो करतां सुज्ञ पुरुष एक पण विशेष (श्रेष्ठ ) छे. ६२ परोपदेशे पांडित्यं सर्वेषां सुकरं नृणाम् । धर्मे स्वीयमनष्टानं कस्यचित्समहात्मनः॥१३॥ भावार्थ-बीजाने उपदेश आपवामां पोतानी पंडिताइ वापरवी-ए तो बधा माणसोने सुलभज छे, परंतु पोते ते प्रमाणे धर्माचरण करQ-ए तो कोइ महात्माथीज बनी शकतुं हशे. ६३ ।। परदुःखं समाकर्ण्य स्वभावसरलो जनः । उपकारासमर्थत्वात्प्राप्नोति हृदये व्यथाम् ॥१४॥ भावार्थ-परनुं दुःख सांभळीने स्वभावे सरळ माणसो तेनापर उपकार करवाने असमर्थ होवाथी पोताना अंतरमा खेद पामे छे. ६४ पात्रं पवित्रयति नैव गुणान् क्षिणोति स्नेहं न संहरति नापि मलं प्रसूते । दोषावसानरुचिरश्च लतां न धत्ते सत्संगमः सुकृतसद्मनि कोऽपिदीपः भावार्थ-सुकृतरूप भवनमां सत्संगमरूप दीवो Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६५ ) कोइ विचित्र प्रकारनोज छे के जे पोताना पात्रने पवित्र करे छे, गुणो ( वाट ) ने कदापि क्षीण करतो नथी, स्नेहने संहरतो नथी, वळी जे मल (मस ) ने प्रगटावतो नथी, प्रभाते पण जे तेवोने तेवोज तेजस्वी रहे छे अने जे चंचलपणाने धारण करतो नथी. ६५ प्रथमवयसि पीतं तोयमल्पं स्मरंतः शिरसि निहितमारा नालिकेरा नराणाम् । ददति जलमनल्पास्वादमाजीवितांतं न हि कृतमुपकारं साधवो विस्मरंति ॥६६॥ ___ भावार्थ--प्रथम अवस्थामां पान करेल अल्प जळनुं तेनुं स्मरण करता नाळीयेरो पोताना शिरपर भार सहन करीने तेना बदलामा पोताना जीवननो अंत लावीने पण मनुष्योने अत्यंत स्वादिष्ट जळ आपे छे. माटे सत्पुरुषो करेला उपकारने कदापि भूली जता नथी. ६६ प्रिया न्याय्या वृत्तिर्मलिनमसुभंगेऽप्यसुकरं त्वसंतो नाभ्यर्थ्याः सुहृदपि न याच्यः कृशधनः। Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६६ ) विपद्युच्चैः स्थेयं पदमनुविधेयं च महतां सतां केनोद्दिष्टं विषममसिधाराव्रतमिदम् ॥६७॥ भावार्थ — न्यायनुं वर्त्तनज जेमने अत्यंत प्रिय छे, प्राणांत कट आवी पडतां पण जेओ मलिन वासनाने कदापि धारण करता नथी, दुर्जनोनी जेओ क्यारे पण अभ्यर्थना करता नथी, क्षीण धनवाळा मित्रनी पासे जेओ कंइ पण याचना करता नथी, विपत्तिमां पण जेओ उच्च स्थितिए रहे छे अने महापुरुषोना मार्गे जेओ अनुसरे छे-अहो ! विषम असिधारा समान सज्जनाना आवा प्रकारना व्रतनो कोणे उपदेश आप्यो छे ? ६७ पोतो दुस्तरवारिराशितरणे दीपोंऽधकारागमे निर्वाते व्यजनं मदांधकरिणां दर्पोपशांत्यै सृणिः। इत्थं तद्भुवि नास्ति यस्य विधिना नोपायचिंता कृता मन्ये दुर्जनचितवृत्तिहरणे धातापि भग्नोद्यमः ॥ ६८ ॥ भावार्थ — दुस्तर सागर तरवाने माटे नाव बनावी Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६७) छे, अंधकारनो प्रतीकार करवा दीवा बनाव्या छ, पवनना अमावे पवन लेवा माटे पंखा बनाव्या छे तथा मदोन्मत्त हाथीओना दर्पने शांत करवा जेणे अंकुश बनाव्या छे-ए प्रमाणे जगतमां एवू कांड नथी, के जेने माटे विधाताए चिंता करी न होय. परंतु हुं धारूं छु के दुर्जन पुरुषनी चित्तवृत्तिने काबूमा लाववा विधातानो पेरिश्रम पण निष्फळ थइ गयो.६८ पने मूढजने ददासि दविणं विद्वत्सु किं मत्सरो नाहं मत्सरिणी न चापि चपला नैवास्ति मूर्खे रतिः । मूर्खेभ्यो दविणं ददामि नितरांतत्कारणं श्रूयतां विद्वान्सर्वगुणेषु पूजिततनुर्मूर्खस्य नान्या गतिः ॥ ६९ ॥ __ भावार्थ हे लक्ष्मी ! तुं मूढ जनोने धनवंत बनावे छे अने विद्वानोपर मत्सर धारण करे छे तेनुं कारण शुं ? लक्ष्मी कहे छ के-हुं विद्वानोपर मत्सर धारण करती नथी, अने चंचल पण नथी, तेमज मूर्ख जनो उपर मारे प्रीति नथी, परंतु मूर्ख जनोने धन आपुं । Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६८ ) तेनुं कारण सांभळो - विद्वान् सर्व गुणोने लीधे सर्वत्र माननीय छे, परंतु मूर्खने अन्य कंइ गतिज नथी. ६९ प्रीतिं न प्रकटीकरोति सुहृदि द्रव्यव्ययाशंकया भीतः प्रत्युपकारकारणभयान्नाकृष्यते सेवया । मिथ्या जल्पति वित्तमार्गणभयात्स्तुत्यापि न प्रीयते कीनाशो विभवव्ययव्यतिकरत्रस्तः कथं प्राणिति ॥ ७० ॥ भावार्थ — जे द्रव्यव्ययनी शंकाथी मित्र तरफ प्रीतिने प्रगटावतो नथी, प्रत्युपकार करवाना कारणे भय पामीने जे सेवाथी आकर्षातो नथी, धन मागवाना भयथी जे मिथ्या बकवाद करे छे तथा स्तुति करतां पण जे प्रसन्न थतो नथी. अहो ! धनव्ययना व्यतिकरथी त्रास पामेल कृपण पुरुष केम जीवे छेते समजातुं नथी. ७० पंगो वंद्यस्त्वमसि न गृहं यासि योऽर्थी परेषां धन्योंऽध त्वं धनमदवतां नेक्षसे यन्मुखानि । Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६९) श्लाघ्यो मूक त्वमपि कृपणं स्तौषि नार्थाशया यः स्तोतव्यस्त्वं बधिर न गिरं यः खलानां शृणोषि ___ मावार्थ-हे पंगु ! तुं पण खरेखर ! वंदनीय छे, कारण के याचक थईने तुं बीजाओना घरे जई शकतो नथी. हे अंध ! तुं पण धन्य छे, के धनथी मदोन्मत्त थयेलाओना मुखने तुं जोई शकतो नथी. हे मुंगा! तुं पण श्लाघनीय छे के धननी आशाथी तुं कृपणनी स्तुति करी शकतो नथी अने हे बधिर (व्हेरा)! तुं पण प्रशंसापात्र छे के तुं खलजनोनी वाणी सांभळी शकतो नथी. ७१ परोपकारः कर्त्तव्यः प्राणैरपि धनैरपि परोपकारजं पुण्यं न स्यात्क्रतुशतैरपि ॥७२॥ ___ भावार्थ-पोताना प्राणो अने धननो भोग आपीने पण परोपकार करवो. कारण के परोपकारथी जे पुण्य प्राप्त थाय छे, तेटलुं पुण्य सेंकडो यज्ञोथी पण मळी शकतुं नथी. ७२ परोपकृतिकैवल्ये तोलयित्वा जनार्दनः। गुर्वीमुपकृति मत्वा ह्यवतारान्दशायहीत् ॥७३॥ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७०) भावार्थ--परोपकार अने मोक्ष-ए बनेने तोळतां परोपकारने महान् मानीने विष्णु भगवाने दश अवतारो धारण कर्या. ७३ परोपकाराय फलंति वृक्षाः परोपकाराय वहंति नद्यः । परोपकाराय दुहंति गावः परोपकारार्थमिदं शरीरम् ॥ ७४॥ भावार्थ-जुओ, परोपकारनी खातर वृक्षो जगतमां फळे छे, परोपकारनी खातर नदीओ वह छे, परोपकारनी खातर गायो दूजे छे. माटे आ शरीर परोपकार माटेज पेदा थयेल छे. ७४ ___ पद्माकरं दिनकरो विकचीकरोति चंदो विकासयति कैरवचक्रवालम् । नाभ्यार्थितो जलधरोऽपि जलं ददाति संतः स्वयं परहितेषु कृताभियोगाः॥७५॥ भावार्थ—सूर्य, पद्मोने विकसित बनावे छे, चंद्रमा कैरवो (कमळो) ने विकस्वर करे छे, मेघ प्रार्थना विना जगतने जळ आपे छे, माटे संतजनो स्वयमेव परोपकार करवामां तत्पर होय छे. ७५ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७१ ) पात्रमपात्रीकुरुते दहति गुणं स्नेहमाशु नाशयति । अमले मलं नियच्छति दीपज्वालेव खलमैत्री ॥ ७६ ॥ भावार्थ - अहो ! खळ पुरुषनी साथे करवामां आवेल मैत्री खरेखर दीपज्वाळानी जेम पात्रने मलिन करे छे, गुणने भस्मीभूत बनावे छे, स्नेहनो तरत नाश करे छे, अने निर्मळने अपवित्र बनावे छे. ७६ पिबंति मधु पद्मेषु भृंगा : केसरधूसराः । हंसाः शैवालमश्नंति धिग्दैवमसमंजसम् ॥ ७७ ॥ भावार्थ - कमळरजथी मलिन थईने भमराओ कमळोमां मधुपान करे छे अने हंसो शैवालनुं भक्षण करे छे. आवा दैवना असमंजसपणाने ( अयोग्यपणाने) धिक्कार थाओ. ७७ पिता रत्नाकरो यस्य लक्ष्मीर्यस्य सहोदरी । शंखो रोदिति भिक्षार्थी फलं भाग्यानुसारतः ७८ भावार्थ - रत्नाकर जेनो पिता छे अने लक्ष्मी जेनी सगी बहेन छे एवो शंख भिक्षार्थी थईने रोया करे छे. माटे भाग्यानुसारेज फळ मळे छे. ७८ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७२ ) पर्जन्य इव भूताना-माधारः पृथिवीपतिः। विकलेऽपि हि पर्जन्ये जीव्यते न तु भूपतौ ७९ __ भावार्थ-मेघनी जेम प्राणीओना आधाररूप राजा कहेल छे. कदाच मेघ विकळ (कोपायमान ) थाय तो जीवी शकाय, परंतु राजा कोपायमान थाय, तो जीवq मुश्केलज थई पडे. ७९ फलं प्रलंबशिरोऽधिरोहि निरीक्ष्य ताम्यंत्यलसाः प्रकृत्या । तदेव कृत्वा कुटिकाप्रयोगं गृह्णति ये वीर्यधना जनाः स्युः ॥१॥ भावार्थ-लांबा ( उंचा) वृक्षना शिखरपर लटकता फळने जोइने स्वभावे आलसु पुरुषो मनमा बहुज खेद पामे छे. अने तेजस्वी तथा धीर जनो पोतानी बुद्धिनो प्रयोग करीने ते फळने ग्रहण करी ले छे. १ फलं स्वेच्छालभ्यं प्रतिवनमखेदं क्षितिरुहां पयः स्थाने स्थाने शिशिरमधुरं पुण्यसरिताम् । Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७३ ) मृदुस्पर्शा शय्या सुललितलतापल्लवमयी सहते संतापं तदपि धनिनां द्वारि कृपणाः॥२॥ भावार्थ-दरेक वनमा विना कष्टे वृक्षोना फळो स्वेच्छाथी मळी शके तेम छ, दरेक स्थाने पवित्र नदीओनुं शीतल अने मधुर जळ पण सुलभ्य छे तेमज कोमळ स्पर्शयुक्त सुललित लता अने पल्लवमय शय्या पण मळी शके तेम छे, छतां कृपण जनो धनवंतोना द्वार आगळ वृथा संतापने सहन करी रह्या छे. २ फलहीनं नृपं भृत्याः कुलीनमपि चोन्नतम् । संत्यज्यान्यत्र गच्छंति शुष्कं वृक्षमिवांडजाः॥३ __भावार्थ-राजा कुलीन तथा उन्नत छतां जो फळहीन होय, तो सेवको, पक्षीओ जेम शुष्क वृक्षनो तेम तेनो त्याग करीने अन्यत्र चाल्या जाय छे. ३ फलार्थी नृपतिर्लोकान्पालयद्यत्नमास्थितः। दानमानादितोयेन मालाकारोंऽकुरानिव ॥४॥ भावार्थ-माळी जेम अंकुरोने पाळे, तेम फलना अर्थी राजाए दान अने मानपूर्वक यत्नथी लोकोनुं पालन कर. ४ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७४ ) फलाशिनो मूलतृणांबुभक्षा विवाससो निस्तरशायिनश्च । गृहे विमूढा मुनिवच्चरंति तुल्यं तपः किं तु फलेन हीनम् ॥ ५ ॥ । भावार्थ - कंद-मूळ, फळ तथा तृण-जळनुं भक्षण करनार, वस्त्ररहित ( मलिन वस्त्रधारी ) अने जमीनपर शयन करनार ए रीते मूढ जनो पोताना घरे मुनिनी जेम आचरण करे छे, एटले तेटलुंज कष्ट सहन करता होवा छतां तेओने तेनुं कई पण फळ तो मळतुंज नथी. ५ फणींद्रस्ते गुणान्वक्तुं लिखितुं हैहयाधिपः । द्रष्टुमाखंडलः शक्तः काहमेष क ते गुणाः ॥६॥ भावार्थ - हे विभो ! शेषनाग, तमारा गुणो कहेवाने समर्थ छे, तमारा गुणो लखवाने सहस्रबाहु (हजार हाथवाळो - अर्जुन ) समर्थ छे अने जोवाने इंद्रज समर्थ छे. तो तमारा गुणो क्यां अने हुं पामर क्यों ? ६ बालानामबलानां च नृपाणां च विशेषतः । तथा च पापक्तानां दुर्निवार्यः कदाग्रहः ||१| Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७५) भावार्थ-बालको, स्त्रीओ, पापीओ अने विशेषथी राजाओनो कदाग्रह दुर्निवार्य (दुःखे वारी शकाय तेवो) होय छे. १ बलादसौ मोहरिपुर्जनानां ज्ञानं विवेकं च निराकरोति । मोहाभिभूतं हि जगद्विनष्टं तत्त्वार्थबोधादपयाति मोहः॥२॥ भावार्थ-अहो ! आ मोहरिपु, बलात्कारथी लोकोना ज्ञान अने विवेकने विनष्ट करे छे. मोहथी पराभूत थतां जगत् विनष्ट थतुं जाय छे, छतां तत्त्वार्थना बोधथी मोह दूर थई शके छे. २ ब्रह्मा येन कुलालवनियमितो ब्रह्मांडभांडोदरे विष्णुर्येन दशावतारगहने क्षिप्तः सदा संकटे। रूदो येन कपालपाणिपुटके भिक्षाटनं कारितः सूर्यो भ्राम्यति नित्यमेव गगने तस्मै नमः कर्मणे३ भावार्थ-ब्रह्माने जेणे जगतमां कुंभारनी जेम नियमित कर्यों (नीम्यो ), विष्णुने जेणे दश अवतारथी गहन एवा सदा संकटमा नाख्यो, शंकरने जेणे हाथ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७६ ) मां खोपरी लेवरावीने भिक्षाने माटे भटकतो कर्यो अने सूर्यने जे निरंतर आकाशमां भ्रमण करावे छे एवा कर्मने नमस्कार थाओ. ३ बालको दुर्जनश्चौरो वैद्यो विषाश्च पुत्रिकाः। अर्थी नृपोतिथिर्वेश्या न विदुः सदृशां दशाम४ भावार्थ-बालक, दुर्जन, चोर, वैद्य, ब्राह्मण, पुत्री, राजा, अतिथि अने वेश्या-ए सहश (समान ) अवस्थाने जाणता नथी. ४ बुभुक्षितैाकरणं न भुज्यते पिपासितैः काव्यरसो न पीयते । न छंदसा केनचिदुद्धृतं कुलं हिरण्यमेवार्जय निष्फला गुणाः ॥५॥ भावार्थ-क्षुधातुर माणसोने व्याकरण खावामां काम आवतुं नथी, पिपासित जनो काव्यरसथी पोतानी पिपासा छुपावी शकता नथी, तेमज छंदथी कोईए पोताना कुळनो उद्धार कर्यो नथी. माटे हे भद्र! द्रव्य उपार्जन कर. कारण के ते विना बधा गुणो निष्फळ छे. ५ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७७ ) बुद्धेः फलं तत्त्वविचारणं च देहस्य सारं बतधारणं च । अर्थस्य सारं किल पात्रदान वाचः फलं प्रीतिकरं नराणाम् ॥६॥ . भावार्थ-तत्त्वनो विचार करवो-ते बुद्धि, फळ छे, व्रत धारण करवू-ए देहनो सार छे, सुपात्रे दान आपq-ए द्रव्यनो सार छे अने मनुष्योने प्रीतिकर थq-ए वाणीनुं फळ छे. ६ बालःप्रायोरमणासक्त-स्तरुणःप्रायोरमणीरक्तः वृद्धः प्रायश्चितामम-स्तदहो धर्मे कोऽपि न लमः भावार्थ-अहो ! बालक होय, त्यांसुधी प्रायः रमवामां आसक्त होय छे, तरुण थतां ते रमणीमां आसक्त बने छे, अने वृद्ध थतां चिंतामां मग्न थाय छ, तथापि बहु आश्चर्यनी वात छे के कोइ धर्ममा प्रवृत्त थतुं नथी. ७ बहूनामप्यसाराणां समुदायो जयावहः । तृणैः संजायते रज्जु-र्वध्यते येन दंतिनः॥ ८॥ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७८ ) भावार्थ-बहु असार वस्तुओनो पण समुदाय जयावह (बलिष्ठ ) थाय छे. जुओ, तरणाथी बनाववामां आवेल दोरडाथी मोटा हाथीओ बंधाइ जाय छे. बालस्त्रीमंदमूर्खाणां नृणां चारित्रकांक्षिणाम् । अनुग्रहार्थं तत्त्वज्ञैः सिद्धांतःप्राकृतः कृतः॥९॥ भावार्थ-बाळ, स्त्री, मंद अने मूर्ख एवा चारिबने इच्छता जनोना अनुग्रह निमित्ते तत्त्वज्ञ जनोए सिद्धांतो बधा प्राकृतमां बनाव्या छे. ९ बलं मूर्खस्य मौनत्वं तस्करस्यानृतं बलम् । दुर्बलस्य बलं राजा बालस्य रुदितं बलम् ॥१०॥ भावार्थ-मूर्ख जननु मौन-ए बळ छे, चोरनुं असत्यए बळ छे, दुबेळगें राजा-ए बळ छे अने बाळकनुं रुदन-ए बळ छे. १० बाह्मणजातिरद्विष्टो वणिग्जातिरवंचकः। प्रियाजातिनिरीालुः शरीरी न निरामयः॥११॥ भावार्थ-बाह्मण जाति द्वेषरहित होती नथी, Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७९ ॥ वणिग्जाति अवंचक होती नथी, स्त्रीजाति इारहित न होय अने शरीरधारी रोगरहित न होय. ११ बालसखीत्वमकारणहास्यं स्त्रीषु वादमसजनसेवा । गर्दभयानमसंस्कृतवाणी षट्सु नरो लघुतामुपयाति ॥ १२॥ भावार्थ-बाळकोनी साथे मित्राई करवाथी, अकारण हास्य करवाथी, स्त्रीओनी साथे वाद करवाथी, दुर्जन जनोनी सेवा करवाथी, गधेडानुं वाहन करवाथी अने संस्कार विनानी वाणी बोलवाथी पुरुष लघुताने पामे छे. १२ बालादपि हितं ग्राह्य-ममध्यादपि कांचनम् । नीचादप्युत्तमां विद्यां स्त्रीरत्नं दुष्कुलादपि॥१३॥ भावार्थ-बाळक पासेथी पण हितवचन ग्रहण करवू, अशुचि पदार्थमांथी पण कांचन ग्रहण करईं, नीच पासेथी उत्तम विद्या अने नीच कुळमाथी स्त्रीरत्ननो स्वीकार करवो. १३ बहिर्भावानतिक्रम्य यस्यात्मन्यात्मनिश्चयः । सोऽतरात्मा मतस्तज्जै-विभ्रमध्वांतभास्करैः॥१४ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८० ) भावार्थ – बाह्य भावनो त्याग करीने जेनो आत्मामां आत्मनिश्चय छे, विभ्रमरूप अंधकारने दूर करवामां भास्कर समान एवा आध्यात्मिक जनो तेने अंतरात्मा कहे छे. १४ बोधिर्मूलं कृपास्कंधः शाखा दानादयो गुणाः । पत्राणि संपदः कीर्त्तिः पुष्पं यस्य फलं शिवम् १५ । भावार्थ - जे धर्मरूप वृक्षनुं मूल सम्यक्त्व छे, दया जेनो स्कंध छे, दानादिक गुणो जेनी शाखाओ छे, संपत्तिरूप जेना पत्रो छे, कीर्तिरूप जेनुं पुष्प छे अने मोक्षरूप जेनुं फळ छे. १५ बंधवो बंधनं योषा सदोषा विषया विषम् । जानतोऽपीत्यनार्या हि स्वकार्याय पराङ्मुखाः १६ भावार्थ-बांधवो बंधन समान छे, स्त्रीओ सदोष ( दोषसहित ) अने विषयो विष समान छे-एम जाणता छतां अनार्य जनो पोतानुं हित साधवाने विमुख रहे छे. १६ बहुप्रिया च या नारी यो भृत्यो बहुनायकः । बहूच्छिष्टं च यद्भैक्ष्यं तद्बुधः परिवर्जयेत् ||१७|| Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८१ ) भावार्थ-बहुजनोने प्रिय स्त्री, बहु नायकोकाळो सेवक, अने घणानुं एढुं भोजन-ए वणनो सुज्ञ जनोए त्याग करवो. १७ बिभरांचक्रिरे स्नेहा-द्या निजांगवदंगनाः। पत्युर्मुत्युक्षणे ताः स्युः स्वस्वार्थप्राप्तितत्पराः१८ भावार्थ-जे स्त्रीओने स्नेहथी पोताना शरीरनी जेम संभाळवामां आवे छे, ते स्त्रीओ पोताना पतिना मरणसमये पोतानो स्वार्थ साधवाने तत्पर थह जाय छे. १८ बधिरयति कर्णविवरं वाचं मूकयति नयनमंधयति । विकृतयति गात्रयष्टिं संपदोगोऽयमद्भुतो राजन् ॥ १९ ॥ भावार्थ-हे राजन् ! आ संपत्तिरूप रोम, खरेखर अद्भुतज छे, के जे कर्णने बधिर (बहेरा) बनावे छे, वाणीने बंध करे छे, लोचनने अंध बनावे छे तथा शरीरना अवयवोने जे विकारमय बनावी दे छे. १९ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८२ ) ब्रह्मघ्ने च सुरापे च चौरे भगवते तथा । निष्कृतिर्विहिता लोके कृतने नास्ति निष्कृतिः भावार्थ-ब्रह्महत्या करनार, मद्यपान करनार, चोरी करनार अने बतनो भंग करनार-एमनो दुनीयामां हजी छुटको थई शके, परंतु कृतघ्न (कर्या गुणने हणनार ) नो छुटकारो कदापि थई शकतो नथी. २० बहवः पंगवोऽपीह नराः शास्त्राण्यधीयते । विरला रिपुखड्गाय-धारापातसहिष्णवः ॥२१॥ ___ भावार्थ-आ जगतमां एवा पंगु ( पांगळा ) जनो पण घणा हशे के जेओ शास्त्रोनो अभ्यास करे छे, परंतु शत्रुनी तरवारना झपाटा सहन करनारा तो विरला जनोज हशे. २१ बालस्यापि रवेः पादाः पतंत्युपरि भूभृताम् । तजसा सह जाताना वयः कुत्रापयुज्यते ॥२२॥ भावार्थ-बाल-रविना किरणो पण पर्वतो उपर पडे छे. कारण के जेओ तेजनी साथे जन्म पामे छे, तेमना वयर्नु कांई प्रमाण रहेतुं नथी. २२ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८३) बंधनस्थो हि मातंगः सहस्रभरणक्षमः अपि स्वच्छंदचारी श्वा स्वोदरेणापिदुःखितः २३. भावार्थ-हाथीने बंधनमा रहे£ पडे छे, छतां ते हजारोनुं भरण पोषण करवाने समर्थ छे अने श्वान (कुतरो) स्वच्छंदचारी छतां ते पोताना उदरना निमित्ते पण दुःखी थाय छे. २३ भव्या मानुष्यतां भाग्यैः प्राप्य रत्नखनीमिव । विषयाश्मविवेकेन कार्यो रत्नत्रयाग्रहः ॥१॥ भावार्थ-हे भव्य जनो ! भाग्ययोगे रत्नोनी खाणनी जेम मनुष्यजन्म पामीने विषय-पत्थरना विवेकथी अर्थात् तेनो त्याग करीने रत्नत्रय (ज्ञान, दर्शन, चारित्र ) नो आदर करवो उचित छे. १ भुंजते स्वकृतं कर्म विश्वे विश्वेऽपि जंतवः । शोकमात्रफला होते पितृभ्रातृसुतादयः ॥२॥ भावार्थ-जगतमां समस्त जंतुओ मात्र पोताना करेलां कर्मज भोगवे छे. अने पिता, भ्राता तथा सुतादिक छे, ए तो केवळ शोक उत्पन्न करावनाराज छे. २ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८४) भवलक्षसुखं शीलं विषयाः क्षणसौख्यदाः। विचक्षणः क्षणार्थं को भवानेकान् विनाशयेत् ३ भावार्थ-शील, लाखो भवना सुखने आपनार छे अने विषयो एक क्षणमात्रना सुखने आपनार छे. तो एक क्षणवारना मुखोनी खातर कयो विचक्षण पुरुष अनेक भवोने बगाडे. ३ . भेदाः पंच प्रमादस्य मदनस्येव सायकाः। व्यामोह्य सर्वं कुर्वंति ही जनं नरकाध्वगम्॥४॥ भावार्थ-कामदेवना पंच बाणोनी जेम प्रमादना पांच भेदो कहेला छे, के जे सर्व जनोने व्यामोह पमाडीने नरकना पथिक बनावे छे. ४ भगिनीत्युच्यमानापि सपत्नी न भा भवेत् । ख्यातापि शर्कराख्यातो व्यथयत्येव वालुका॥५ __ भावार्थ-सपत्नी (शोक्य) ने भगिनीना नामथी बोलावतां पण ते शुभ न थाय. कारण के वालुकाने शर्कराना नामथी बोलावतां पण ते अवश्य व्यथा तो करेज छे. ५ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८५ ) भोगान्न कामये तस्मान भूषां न पुनः श्रियम् । एतदिच्छामि यच्चात्म-चित्तादुत्तारयेन्न माम् ॥६॥ भावार्थ - हुं भोगोने इच्छती नथी, अने तेटला माटे अलंकार के शोभाने पण हुं चाहती नथी. परंतु हुं एटलुंज इच्छं छं के मने मारो स्वामी पोताना मन थी दूर न करे. ६ भिक्षाशनं तदपि नीरसमेकवारं शय्या च भूः परिजनो निजदेहमात्रम् । वस्त्रं च जीर्णशतखंडमयी च कथा हा हा तथापि विषयान्न परित्यजति भावार्थ — एक तो नीरस भिक्षाभोजन अने ते पण एकवार, भूमिरूप शय्या, वळी पोताना मात्र देहरूप परिजन, जीर्ण वस्त्र, अने अत्यंत खंडित गोदडी होवा छतां अहा ! बहु खेदनी वात छे के विषयोने तेओ तजता नथी. ७ भोगे रोगभयं सुखे क्षयभयं वित्ते नृपालाद्भयं मौने दैन्यभयं बले रिपुभयं रूपे जराया भयम् । Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८६ ) शास्त्रे वादभयं गुणे खलभयं काये कृतांताद्भयं सर्वं वस्तु भयान्वितं भुवि नृणां वैराग्यमेवाभयम् ८ भावार्थ - भोगमां रोगनो भय छे, सुखमां क्षयनो भय छे, शरीरने यमनो भय छे, मौनमां गरीबाईनो भय छे; धनने राजानो भय छे, बळने शत्रुनो भय छे, रूपमां जरानो भय छे, शास्त्रमां वादनो भय छे, गुणोने खलोनो भय छे. अहो ! जगतमां ज्यां जुओ त्यां तमाम वस्तुओ भयथी भरेली छे, मात्र एक वैराग्यज अभय ( भयरहित ) छे. ८ भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्तास्तपो न तप्तं वयमेव तप्ताः । कालो न यातो वयमेव यातास्तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः ॥ ९ ॥ भावार्थ - अहो ! भोगो तो भोगवाया नहि, पण अमे पोतेज भोगवाई गया, तप तो तप्युं नहि, पण अमे पोतेज तप्त थई गया, काल तो न गयो, पण अमे पोतेज चालता थया अने तृष्णा तो जीर्ण न थई, पण अमे पोतेज जीर्ण थई गया. ९ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८७ ) भवकोटीदुः प्रापामवाप्य नृभवादिसकलसामग्रीम् भवजलधियानपात्रे धर्मे यत्नः सदा कार्यः ॥१०॥ भावार्थ-करोडो भवो भमतां पण अत्यंत दुर्लभ एवी नरजन्मादिक बधी सामग्री पामीने संसार - सागरमां नाव समान एवा धर्मने माटे सदा अस्खलित प्रयत्न करवो भव्यजनोने उचित छे. १० भवबीजांकुरजनना रागद्याः क्षयमुपागता यस्य बह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै ॥११॥ V भावार्थ – संसाररूप बीजना अंकुरने उत्पन्न कर नारा एवा रागादिक जेमना क्षय थया छे एवा ब्रह्मा, हो विष्णु हो शिव के जिनेश्वर होय - तेमने नमस्कार छे. ११ भवेत् त्रिदशकोटीर-कोटी रत्नांचितक्रमः । प्रभुस्त्रिभुवनस्यापि प्राकृतैः सुकृतैर्जिनः ॥ १२ ॥ भावार्थ - इंद्रोए पोताना मुगट जेमना चरणमां मूकेल छे तथा त्रण भुवनना स्वामी एवा जिनेश्वर पण पूर्वकृत पुण्याने लीवेज जीव थई शके छे. १२ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८८) भवाभोधौ विपद्वारि-पूरभाजि निमजताम् । नरजन्मतरीलाभे भवान्निर्यामकायते ॥१३॥ भावार्थ-विपत्तिरूप जळप्रवाह युक्त एवा भवसागरमां मनुष्य-जन्मरूप नावनी प्राप्ति थतां निमग्न थतां प्राणीओने हे भगवन् ! आप नियमिक (नाविक) समान छो. १३ भक्तिर्दूरेऽस्तु चैत्यस्य कुसुमाभरणादिका। गतरोगेव वैद्यस्य नासौ नतिमपि व्यधात् ॥१४॥ __ भावार्थ-कुसुम अने आभरणादिक, चैत्यनी भक्ति तो दूर रहो, परंतु वैद्यने जेम रोगरहित पुरुषनी जेम ते भगवंतने नमस्कार पण करतो न हतो. १४ भर्ता यद्यपि नीतिशास्त्रनिपुणो विद्वान्कुलीनो युवा दाता कर्णसमः प्रसिद्धविभवः स्त्रीसंगदक्षो गुरुः । स्वप्राणाधिककल्पिता स्ववनिता स्नेहात्सदा पालिता कांता तं पशुवद्विहाय तरुणी जारं पतिं वांछति ॥१५॥ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८९ ) भावार्थ-कदाच पोतानो पति नीतिशास्त्रमा कुशळ होय, विद्वान्, कुलीन अने युवान होय, कर्ण समान दातार होय, प्रसिद्ध वैभववाळो होय, स्त्रीसमागममां दक्ष होय, घणा जनोने माननीय होय, तथा पोतानी स्त्रीने निरंतर पोताना प्राण करतां पण अधिक गणीने स्नेहथी तेनुं पालन करतो होय, तथापि तरुणी कांता पशुनी जेम तेनो त्याग करीने जार पतिने इच्छे छे. १५ भीमं वनं भवति तस्य पुरं प्रधानं सर्वो जनः सुजनतामुपयाति तस्य । कृत्स्ना च भूर्भवति सनिधिरत्नपूर्णा यस्यास्ति पूर्वसुकृतं विपुलं जनस्य भावार्थ-जे पुरुषना पूर्व सुकृत विपुल छे, तेने भयंकर वन-ते एक सारा नगेर समान थई जाय छे, सर्व लोको तेनी साथे सुजनता राखे छे अने समस्त पृथ्वी निधान अने रत्नोथी पूर्ण-तेना जोवामां आवे छे. १६ भनाशस्य करंडपीडिततनोानेंदियस्य क्षुधा . कृत्वाखुर्विवरं स्वयं निपतितो नक्तं मुखे भोगिनः। Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २९० ) तृप्तस्तत्पिशितेन सत्वरमसौ तेनैव यातः पथा लोकः पश्यतु दैवमेव हि नृणां वृद्धौ क्षये कारणम् __भावार्थ-जेनी आशा भग्न थयेल छे, करंडीयामां जेनुं शरीर पीडाय छे अने क्षुधाथी जेनी इंद्रियो ग्लानि पामेल छे एवा सर्पना मुखमा रात्रे उदर विवर करीने पोते पड्यो. तेना मांसथी ते सर्प तृप्त थयो अने तेज मार्गे पेलो सर्प सत्वर बहार चाल्यो गयो. माटे हे लोको ! तमे जुओ के माणसोनी वृद्धि (समृद्धि) अने क्षयमां दैवज मुख्य कारण छे. १७ भमा हि शाखा न विलंबनीया भनेषु चित्तेषु कुतः प्रपंचः । गंतव्यमन्यत्र विचक्षणेन पूर्णा मही सुंदर सुंदरेति ॥१८॥ __ भावार्थ-भग्न शाखार्नु अवलंबन न करवू. ज्यां चित्तज भग्न होय, त्यां कोई पण कार्यनी विचारणा क्यांथी होई शके ? माटे हे सुंदरी ! आ पृथ्वी सुंदर अने पूर्ण छे, तो अन्यत्र जq योग्य छे. १८ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २९१ ) भो भो भव्या भवारण्ये भ्रमता भविना भृशम् । आसाद्यतेऽमृतरस - समानो मानवो भवः ॥ १९ ॥ भावार्थ - हे भव्य जनो ! आ मव-अरण्यमां भमतां भव्य जनो, अमृतरस समान मानवभव महामुश्केलीथी पामी शके छे. १९ भूर्जलं ज्वलनो वायु - स्तरवश्चेति पंचधा । भवत्येकेंद्रिया जीवा - स्ते ह्यसंख्या दृगध्वगाः २० भावार्थ- पृथ्वी, पाणी, अग्नि, वायु अने वनस्पतिए पांच प्रकारना जीवो एकेंद्रिय गणाय छे. ते असंख्य अने दृष्टिने अगोचर छे. २० भो भो केलिप्रियाः केऽपि कारयति वधं सुराः । केलिमात्रं भवेत्तेषा - मन्येषां जीवितत्रुटि ः॥ २१॥ भावार्थ - हे लोको ! केटलाक क्रीडामां आसक्त थयेला देवताओ वध करावे छे. एटले जो के तेमने तो एक खेलमात्र थाय छे, पण अन्य जीवोना जीवननो अंत आवी जाय छे. २१ भद्रे वाणि ममानने कुरु दयां वर्णानुपूर्व्या चिरं Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २९२) चेतः स्वास्थ्यमुपैहि याहि करुणे प्रज्ञे स्थिरत्वं बज लजे तिष्ठ पराङ्मुखी क्षणमहो तृष्णे पुरःस्थीयतां पापोयावदहं बवीमिधनिनांदेहीतिदीनंवचः२२ भावार्थ-हे भली वाणी! अक्षरानुक्रमथी जरावार तुं मारा मुखपर दया कर, हे चित्त ! तुं जरा शांत थई जा, हे करुणा ! तुं दूर चाली जा, हे प्रज्ञा ! तुं हवे जरा स्थिर थई जा, हे लज्जा ! तुं तारुं मुख फेरवीने बेसी रहे, अने हे तृष्णा ! तुं जरा मारी आगळ आवीने उभी रहे, के ज्यांसुधी पापी एवो हुँ' आपो: ए प्रमाणे धनवंतो पासे दीन वचन बोलवाने तत्पर थाउं. २२ भवंति नरकाः पापा-त्पापं दारिद्यसंभवम् । दारिद्यमप्रदानेन तस्मादानपरो भवेत् ॥ २३॥ भावार्थ-पाप करवाथी प्राणीओ नरकमां जईने उत्पन्न थाय छे, ते पाप दरिद्रताने लीधे तेमने करवू पडे छे अने दारिद्य-ते दान न आपवानुं फळ छे, मादे दान आपवा सदा तत्पर रहेवू-ए उत्तम छे. २३ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २९३ ) भ्रातआंतरशेषयाचकजने वैरायसे सर्वदा यस्माद्विकमशालिवाहनमहीभृन्मुंजभोजादयः। अत्यंत चिरजीविनोन विहितास्ते विश्वजीवातवो मार्कडधुवलोमशप्रभृतयः सृष्टाः प्रभूतायुषः ॥२४॥ __ भावार्थ-हे विधाता बंधु ! तुं खरेखर ! बधा याचक जनो साथे सदा वैरभाव राखे छे. कारण के जगतना जीवनरूप एवा विक्रम, शालिवाहन, मुंज अने भोज विगेरे राजाओने ते अत्यंत लांबी आवरदावाळा न बनाव्या अने मार्कंड, ध्रुव, लोमश विगरेने लांबी आवरदावाळा बनाव्या. २४ भवंति नम्रास्तरवः फलोद्गमैनवांबुभिभूरिविलंबिनो घनाः। अनुद्धताः सत्पुरुषाः समृद्धिभिः स्वभाव एवैष परोपकारिणाम् ॥२५॥ भावार्थ-फळोनी उत्पत्ति थतां वृक्षो नम्र बने छ, नवीन जळथी मेघ अत्यंत नीचे नमी जाय छे, समूद्धिथी सत्पुरुषो सदा अनुद्धत (नम्र ) रहे छे-ए प्र. माणे परोपकारी पुरुषोनो आ स्वभावज छे. २५ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २९४ ) भ्रांतं देशमनेकदुर्गविषमं प्राप्तं न किंचित्फलं त्यक्त्वा जातिकुलाभिमानमुचितं सेवा कृता निष्फला । भुक्तं मानविवर्जितं परगृहेष्वाशंकया काकवत्तृष्णे जृंभसि पापकर्मनिरते नाद्यापि संतुष्यसि ।। २६ ।। भावार्थ – अनेक किल्लाओथी विषम एवा देशमां भ्रमण कर्युं छतां कंई फळ प्राप्त न थयुं, पोतानी जाति अने कुलाभिमान तजी दईने सेवा करी - ते पण निष्फळ निवडी, पारका घरे कागडानी जेम मानरहित थईने आशंकाथी भोजन कर्यु, छतां पण पापकर्ममां आसक्त एवी हे तृष्णा ! तुं अद्यापि संतुष्ट न थई. २६ भाग्यवंतं प्रसूयेथा मा शूरं मा च पंडितम् । शूराश्च कृतविद्याश्च वने सीदंति पांडवाः ॥२७॥ भावार्थ - हे जननी ! तुं कोई भाग्यवंतने जन्म आपजे, परंतु शूरवीर के पंडितने जन्म आपीश नहि. जुओ, शूरवीर अने विद्वान पांडवो वनमां सीदाय छे. २७ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २९५ ) भगवंतौ जगन्नेत्रे सूर्या चंद्रमसावपि । पश्य गच्छत एवास्तं नियतिः केन लंघ्यते ॥२८॥ भावार्थ — जगतना नेत्ररूप एवा भगवान् सूर्य अने चंद्रमा पण जुओ, दररोज अस्तदशाने पामे छे. माटे. दैवने कोण ओळंगी शके ? २८ भ्रमन्वनांते नवमंजरीषु न षट्पदो गंधफलीमजि धत् । सा किं न रम्या स च किं न रंता बलीयसीकेवलमीश्वरेच्छा ॥ २९ ॥ भावार्थ- समस्त वनमां नवीन मंजरीओपर फरत भमरो चंपककलिकाने सुंधी न शक्यो तो शुं ते रम्य नथी, अथवा भ्रमर पोते रमण करनार नथी ? परंतु अहीं ईश्वरेच्छाज बलवान् छे. २९ भूशय्या ब्रह्मचर्यं च कृशत्वं लघु भोजनम् । सेवकस्य यतेर्यद्वद्विशेषः पापधर्मजः ॥ ३० ॥ मावार्थ - पृथ्वीपर शयन करवुं ब्रह्मचर्य पाळवु, कृशता अने लघु ( शुष्क ) भोजन - ए सेवक अने Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २९६ ) यति - ए बनेने समान छे, परंतु पाप अने धर्ममां बंनेनो बहु तफावत पडी जाय छे. ३० मंत्राणां परमेष्ठिमंत्र महिमा तीर्थेषु शत्रुंजयो दाने प्राणिदया गुणेषु विनयो ब्रह्म व्रतेषु व्रतम् । संतोषो नियमे तपस्सु च शमस्तत्त्वेषु सद्दर्शनं सर्वज्ञोदित सर्वपर्वसु परं स्याद्वार्षिकं पर्व च ॥१॥ - भावार्थ — सर्व मंत्रोमां पंचपरमेष्ठी मंत्रनो महिमा उत्कृष्ट छे, सर्व तीर्थोमां शत्रुंजय तीर्थ उत्कृष्ट छे, गुणोमां विनय, व्रतोमां ब्रह्मचर्य व्रत, दानमां अभयदान, नियममां संतोष, तपमां समता, तत्त्वोमां सम्यक्त्व, अने सर्वज्ञकथित सर्व पर्वामां वार्षिक ( सांवत्सरिक ) पर्व उत्तम छे. १ मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना कुंडे कुंडे नवं पयः । तुंडे तुंडे नवा वाणी बहूनां नैकपरूता ॥ २ ॥ भावार्थ — कपाळे कपाळे भिन्न मति होय छे, दरेक कुंडमां नवुं ( भिन्न ) पाणी होय छे, दरेक मुखमां न Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २९७ ) वीन वाणी होय छे-एम बधानी एकरूपता होती नथी.२ महतामापदं दृष्ट्वा को न नीचोऽपि तप्यते। काकोऽप्यंधत्वमायाति गच्छत्यस्तं दिवाकरे॥३॥ भावार्थ-महापुरुषोनी आपत्ति जोईने कयो नीच जन पण संताप न पामे ? कारण के दिवाकर अस्त थतां काग पण अंधत्वने पामे छे. ३ मक्षिकाः क्षतमिच्छंति क्षतमिच्छंति पार्थिवाः। दुर्जनाः क्षतमिच्छंति शांतिमिच्छंति सजनाः४ भावार्थ-मक्षिकाओ क्षत ( गुमडां) ने इच्छे छे, राजाओ क्षत (भंगाण ) ने इच्छे छे, दुर्जनो क्षत (विघ्न) ने इच्छे, पण सज्जनो तो शांतिनेज इच्छे छे.४ __ मूर्खत्वं च सखे ममापि रुचिरं यस्मिन्यदष्टौ गुणा निश्चिंतो बहुभोजनोऽत्रपमना नक्तं दिवा शायिकः । कार्याकार्यविचारणांधबधिरो मानापमाने समः प्रायेणामयवर्जितो दृढवपुर्मूर्खः सुखं जीवति ॥५॥ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २९८ ) भावार्थ हे मित्र ! मूर्खपणुं मने पण सारूं लागे छे. कारण के जेमां आठ गुणो बराबर जोवामां आवे छे-ते एके-एक तो ते निश्चित हशे. बहु खानार हशे, निर्लज्ज मनवाळो हशे, रातदिवस सुनार हशे, कार्याकार्यनो विचार करवामां ते अंध अने बहेरो हशे. मान के अपमानमा समान हशे बहुधा रोगरहित हशे, अने शरीरे मजबूत हशे, अहो, आ गुणोयुक्त मूर्ख सुखे पोतानुं जीवन गुजारे छे. ५ मत्तेमकुंभदलने भुवि संति शूराः केचित्प्रचंडमृगराजवधेऽपि दक्षाः।किंतु ब्रवीमि बलिनांपुरतः प्रसह्य कंदर्पदर्पदलने विरला मनुष्याः ॥६॥ भावार्थ-जगतमा मदोन्मत्त हाथीओना कुंभस्थ. लने भेदवामां शूरवीर पुरुषो घणा हशे, वळी प्रचंड सिंहनो वध करवामां पण केटलाक दक्ष जनो हशे, परंतु हुँ छाती ठोकीने बलवंत जनोने कई छं के-कंदर्प (कामदेव) ना दर्प (गर्व ) ने गाळनारा (दलनारा) एवा पुरुषो तो विरलाज हशे. ६ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २९९ ) माता शत्रुः पिता वैरी येन बालो न पाठितः । न शोभते सभामध्ये हंसमध्ये बको यथा ॥ ७ ॥ भावार्थ — जे पोताना बाळकने भणावता नथी, ते माता शत्रुसमान छे अने पिता तेना वैरी समान छे. कारण के हंसोना टोळामां बगलानी जेम ते मूर्ख पुत्रपंडितोनी सभामां शोभा पामतो नथी. ७ मूर्खनिर्धनदूरस्थ-शूरमोक्षाभिलाषिणाम् । त्रिगुणाधिकवर्षाणां चापि देया न कन्यका ॥८॥ भावार्थ – मूर्ख, निर्धन, दूर रहेनार, शूरवीर, मोक्षाभिलाषी अने त्रण गणा वरस मोटो एवा वरने कन्या न आपवी. ८ माता यदि विषं दद्यात् पिता विक्रयते सुतम् । राजा हरति सर्वस्वं का तत्र परिदेवना ॥ ९॥ भावार्थ - जो माता पोते पोताना पुत्रने विष आपे,पिता पुत्रने वेचे अने राजा लुंट चलावे - तेमां विलाप शुं करवाना होय ? ९ मही रम्या शय्या विपुलमुपधानं भुजलता Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०० ) वितानं चाकाशं व्यजनमनुकूलोऽयमनिलः । स्फुरद्दीपचंदो विरतिवनितासंगमुदितः सुखं शांतः शेते मुनिरतनुभूतिर्नृप इव ॥ १० ॥ भावार्थ – जेने भूमिरूप रम्य शय्या छे, भुजलताजेने विपुल ओशीकुं छे, आकाश-जेने वितान ( चंद्रवो) छे, अनुकूल पवन-जेने पंखो छें, स्फुरायमान चंद्रजेने दीपक छे, अने विरति - वनिताना संगथी जे प्रमुदित थयेल छे - एवा अतुल समृद्धिमान् शांत मुनि, राजानी जेम सुखे शयन करे छे. १० मक्षिका मशको वेश्या मूषको याचकस्तथा । ग्रामणीर्गणिका चैव सप्तैते परभक्षकाः ॥ ११ ॥ भावार्थ - मक्षिका ( माखी) उंदर, वेश्या, मच्छर, याचक, गामनो मुखी अने गणिका - ए साते परने खानार होय छे. ११ मित्रवदुद्यमा ज्ञेया आलस्यं मित्रवदिपुः । विषवच्चामृता विद्या परस्त्रीचामृतं विषम् ॥ १२ ॥ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०१ ) भावार्थ-उद्यम-ए मित्र समान छे, आलस्य-ए मित्रवत् छतां शत्रु छे, विद्या ए विषवत् छतां अमृत समान छे अने परस्त्री ए अमृत छतां विषसमान छे. १२ मुक्तस्य हारो न च मर्कटस्य मिष्टान्नहारो न च गर्दभस्य । अंधस्य दीपो बधिरस्य गीतं मूर्खस्य किं ज्ञानकथाप्रसंगः॥१३॥ भावार्थ-मर्कट (वानर) ने मोतीनो हार न शोभे, गर्दभने मिष्टान्ननो आहार न होय, अंधने दीपक बधिर (बहेरा ) नी आगळ गीतगान अने मूर्खनी साथे ज्ञानकथानो प्रसंग केवो ? १३ मनो मधुकरो मेघो मानिनी मदनो मरूत् । मा मदो मर्कटो मत्स्यो मकारा दश चंचलाः १४ भावार्थ-मन, मधुकर (भमरो), मेघ, स्त्री, कामदेव, पवन, लक्ष्मी, मद, वानर अने मत्स्य-ए दश मकार चंचल होय छे. १४ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०२) मा जीवतु परावज्ञो दुःखदग्धस्तु यो जनः। तस्याजननी चैवास्तु जननी क्लेशकारिणी॥१५॥ भावार्थ-परनी अवज्ञा करनार पुरुष, आ जगतमां न जीवो. जे दुःखदग्ध माणस छे, तेने जन्म आपनार जननीने पण केश न थाओ, अर्थात् ते जननी (माता) तेवा पुरुषने जन्म पण न आपो. १५ मौनान्मूकः प्रवचनपटुर्वातुलो जल्पको वा धृष्टः पार्चे वसति च तदा दूरतश्चाप्रगल्भः। क्षांत्या भीरुर्यदि न सहते प्रायशो नाभिजातः सेवाधर्मः परमगहनो योगिनामप्यगम्यः ॥१६॥ भावार्थ-अहो ! सेवाधर्म केटलो बधो गहन छ के जे योगीओने पण अगम्य छे. मौन धरतां तेने मुंगो कहेवामां आवशे, जो ते बोलवामां पोतानी चालाकी वापरे-तोःते वातुल अथवा बहु बोलको छएम कहेवामां आवशे, पासे आवीने बेसे, तो ते धृष्ट छे अने दूर जह बेसे तो तेने गाफिल कहेवामां आवशे, Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०३) क्षमा करशे, तो ते बीकण अने सहन नहि करे तो ते अकुलीन छे एम कहेवामां आवशे-सेवा साधवा जतां गुण-ते दोषरूप गणाई जाय छे. १६ मृत्योर्बिभेषि किं मूढ भीते मुंचति किं यमः।.. अजातं नैव गृह्णाति कुरु यत्नमजन्मनि॥१७॥ भावार्थ-हे मूढ ! मरणथी तुं शामाटे भय पामे छे, शुं तुं भय पामीश, तेथी तने यम मूकी देशे ? जो तुं जन्म्यो न होत, तो तने यम लई शकत नहि. माटे तुं जन्म न पामे, एवो रस्तो शोधी ले. १७ माता तीर्थ पिता तीर्थ तीर्थं च ज्येष्ठबांधवाः। वाक्ये वाक्ये गुरुस्तीर्थं सर्वतीर्थं जनार्दनः॥१८॥ मावार्थ-माता अने पिता-ए तीर्थ छ, वडीलो अने बंधुओ तीर्थरूप छे, वाक्य वाक्यमां गुरु तीर्थ छे अने विष्णु, सर्वतीर्थरूप छे. १८ महानुभावसंसर्गः कस्य नोन्नतिकारकः। रथ्यांबु जाह्नवीसंगात् त्रिदशैरपि वंद्यते॥१९॥ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०४ ) भावार्थ - अहो ! महापुरुषोना संसर्गथी कोनी उन्नति न थाय ? गंगाना संगथी साधारण शेरीनुं जळ पण देवाने वंदनीय थाय छे. १९ मुखं वलिंभिराक्रांतं पलितैरंकितं शिरः । गात्राणि शिथिलायंते तृष्णैका तरुणायते ॥२०॥ भावार्थ - मुखमाँ करचली पडी, माथे धोळा वाळ फेरी वळ्या अने शरीरना अवयवो बघा शिथिल थई गया, छतां जुओ तो एक तृष्णा, तरुणीनी जेम तरुण थती जाय छे. २० मानं मुंचति गौरवं परिहरत्यायाति दीनात्मतां लज्जामुत्सृजति श्रयत्यकरूणां नीचत्वमालंबते । भार्याबंधु सुहृत्सुतेष्वपकृतीर्नानाविधाश्चेष्टते किं किं यन्न करोति निंदितमपि प्राणी क्षुधापीडितः ॥ २१ ॥ भावार्थ - अहो ! एवं शुं छे के जे क्षुधाथी पीडा Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०५ ) येल प्राणी निंदिताचरण करे छे माननो ते त्याग करे छे, गौरवने ते तजी दे छे, ते एकदम दीन बनी जाय .छे, लज्जाने ते तिलांजलि आपे छे, क्रूरतानो आश्रय करे छे, नीचपणानुं ते अवलंबन करे छे, स्त्री, बंधु, मित्र अने सुतादिक उपर ते अपकार करवा तत्पर थई जाय छे-एवी रीते क्षुधाक्रांत प्राणी विविध प्रकारनी चेष्टा करे छे. २१ मया श्रियोऽर्जनोभोगा-दर्थकामौ कृतार्थितौ । अथैतद्दयमूलस्य धर्मस्यावसरो मम ॥२२॥ भावार्थ-लक्ष्मीने उपार्जन करतां अने भोगवतां में अर्थ अने कामने कृतार्थ कर्या छे. माटे हवे ए बने पुरुषार्थना मूलरूप एवा धर्मनो मारे अवसर छे. २२ मिथ्यात्वतिमिरध्वस्त-विवेकमयलोचनाः। दूरीभवति किंपाक-बुद्ध्या तस्मात्सुबुद्धयः २३ __ भावार्थ-मिथ्यात्वरूप अंधकारथी विवेकरूप लोचननो लोप थतां किंपाक-फळनी बुद्धिथी सुबुद्धि अत्यंत दूर जाय छे. २३ २० Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०६ ) मोहावर्त्तममानमानमकरं रागोर्मिसंवर्मितं तृष्णावेगमनंग संग सलिलं पापौघपंकाकुलम् । ये क्वापि स्खलिता न यौवनसरित्पूरं तरंतो महासत्त्वास्ते खलु तारकाः किमितरैर्वंध्यावतारैर्नरैः अ भावार्थ - ज्यां मोहरूप आवर्त ( घुमरी ) छे, परिमित मानरूप ज्यां मगर छे, रागरूप ज्यां तरंगो उछळी रह्या छे, तृष्णारूप ज्यां वेग छे, अनंग ( कामदेव ) ना संगरूप ज्यां पाणी छे अने पापनो समूहरूप ज्यां बहु कादव छे एवा यौवनरूप नदीना पूरने तरतां जेओ स्खलना पाम्या नथी, खरेखर ! ते महासत्त्वशाली पुरुषोज तारक छे, पण अन्य वंध्य अवतारवाळा पुरुषोथी शुं ? २४ मायिचित्त इवागाधे निर्ममज्ज हदे ततः । देवतातिशयात्तत्र तरति स्म तरंडवत् ॥ २५ ॥ मावार्थ - कपटी जनना अंतरनी जेम अगाध एवा हृदां ते निमग्न थइ गयो, परंतु त्यां देवताना अतिश शयथी ते नावनी जेम तरवा लाग्यो. २५ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०७ ) मातृकुक्षिदरीसिंहा बाल्ये बंधुदृशां सुधा। यौवने कुलधौरेया द्वित्रा एव सुताः पुनः ॥२६॥ भावार्थ-पोतानी मातानी कुक्षिरूप गुफामा सिंह समान, बाल्यावस्थामा पोताना बांधवोनी दृष्टिने अमृत समान तथा यौवनावस्थामा कुळनो भार उपाडवामां धुरंधर-एवा तो मात्र कुळदीपक बेत्रण पुत्रो. ज हशे. २६ माधुर्य लवणे सारं रंभायां सुस्वरः खरे। ' पावित्र्यं वर्चसो गेहे स्वादु पानीयमूषरे ॥२७॥ स्नेहो भस्मनि वैशचं मण्यां शैत्यमिवानले। सौम्य वापि सुखं नास्ति व्यापकापद्भरे भव॥२८॥ भावार्थ-हे सौम्य ! लवण (लूण) मां माधुर्य (मीठाश), रंभा (कदली) मां सार, गधेडामा सुस्वर, चमारना घरमां पवित्रता, खारीजमीनमां मधुर जळ, भस्म (राख) मां स्नेह (चीकाश), मसीमां उज्वलता अने अग्निमां शीतलता मळवी मुश्केल छे, तेम Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०८) आपत्तिथी व्याप्त एवा आ संसारमा क्यां पण सुख छेज नहि. २७-२८ मुखे मधुरमंते च कुपथ्यमिव दारुणम् । ये स्त्रीणां बहुमन्यते वचस्तेषां कुतः सुखम्॥२९॥ भावार्थ-मुख (प्रारंभ ) मां मधुर पण प्रांते कुपथ्यनी जेम दारुण ( भयंकर ) एवा स्त्रीओना वचनने जेओ बहुमान आपे छे, तेमने सुख क्याथी होय १२९ मौनमूनोदरत्वं वा ज्ञानं दानं जपस्तपः। मोघं दयां विना सर्व-मेतत्कृषिरिवांबुदम् ॥३०॥ भावार्थ-मौन, उणोदरी तप, ज्ञान, दान, जप अने बाह्य तथा आभ्यंतर तपस्या-ए बधा दया विना, वरसाद विनानी खेतीनी जेम नकामा छे. ३० मायाखानिम॒षासत्रं, वैरस्योत्पत्तिभूमिका। कुसंगरंगो दुर्बुद्धि-सीमा सीमंतिनीजनः॥३१॥ ___ भावार्थ-स्त्रीओ, माया ( कपट) नी एक खाणरूप होय छे, असत्यनी दानशाळारूप, वैरनी उत्पत्ति Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०९ ) भूमिका, कुसंगमां आसक्त अने दुर्बुद्धिनी सीमा होय छे. ३१ महिलास्नेहममानां मक्षिकाणामिवांगिनाम् । सत्पक्षबलहीनानां मृत्युः संन्निहितो ध्रुवम् ||३२|| मावार्थ — स्त्रीओना स्नेहमां ( पक्षे तेलमां ) निमग्न. थयेला प्राणीओने सत्पक्षना बळहीन मक्षिकाओनी जेम मृत्यु, खरेखर सत्वर पकडे छे. ( अर्थात् मरण तेमनी बहुज नजीक होय छे. ) ३२ महात्मन्नेकरूपाः स्युः किं समस्ता अपि स्त्रियः । समाः समग्रा नांगुल्योऽपि हि पाणौ नृणां यतः ३३ भावार्थ — हे महात्मन् ! बधी स्त्रीओ शुं एकसरखी होय छे ? शुं माणसोना हाथनी बधी आंगळीओ एकसरखी होय छे ? ३३ S मार्गभ्रंशे मृतौ पत्यु- र्वियोगे तनुजन्मनाम् । सरित्प्लावे दृढं बंधे जीविताद्येन नाच्यवम्॥ ३४॥ भावार्थ – कोई दुःख दग्ध स्त्री विचार करे छे केमार्गथी भ्रष्ट थतां, पतिनुं मरण थतां पुत्रोनो वियोग Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१०) थतां, नदीमां डूबतां अने दृढ बंधनमां बंधाया छतां हुँ जीवितथी मुक्त न थई. ३४ महेला अवहीलंति मार्दवभ्राजिनं जनम् । आरोहंति तरोर्मूर्ध्नि पश्य वल्लयःक्षमाभुवः॥३५ ___ भावार्थ-स्त्रीओ सरळ माणसनी अवहीलना करे छे. जुओ, जमीनमांथी उत्पन्न थयेल लताओ वृक्षना शिरपर आरूढ थई जाय छे. ३५ मृत्युरत्युत्तमो वक्र-नवककचदारणैः। न तु सापत्न्यदुःखेन जीवितव्यमपि स्त्रियाम३६ ___ भावार्थ-वक्र अने नवीन करवत मूकावीने गुजरी जवू-ए वधारे सारुं छे, पण स्त्रीओने सपत्नी (शोक्य) ना दुःखमां जीवन गुजारQ-ते सारुं नथी. ३६ ___ मातेव रक्षति पितेव हिते नियुक्त कांतेव चापि रमयत्यपनीय खेदम् । लक्ष्मी तनोति वितनोति च दिक्षु कीर्तिं किं किं न साधयति कल्पलतेव विद्या __भावार्थ—जे मातानी जेम माणसनुं रक्षण करे छे, पितानी जेम हितमां जोडे छे, कांता ( व्हाली स्त्री) Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३११ ) नी जेम खेदने दूर करीने आनंद पमाडे छे, लक्ष्मीने विस्तारे छे, कीर्तिने चारे दिशामा फेलावे छे - एम कल्पलतानी जेम विद्या शुं शुं साधी शकती नथी. ३७ मूर्खचिह्नानि पडिति गर्यो दुर्वचनं मुखे । विरोधी विषवादी च कृत्याकृत्यं न मन्यते ॥ ३८॥ भावार्थ - मूर्ख जनना मूख्य छ लक्षणो कहेला छेते आ प्रमाणे- तेमां प्रथम पोते गर्व राखे, दुर्वचन बोले विरोध राखे, अप्रिय बोले अने कृत्याकृत्यने न मानेए मूर्खना छ लक्षणो छे. ३८ मूर्खो हि जल्पतां पुंसां श्रुत्वा वाचः शुभाशुभाः । अशुभं वाक्यमादत्ते पुरीषमिव शूकरः ॥ ३९ ॥ भावार्थ- शुभाशुभ बोलनारा पुरुषोनी वाणी सां भळीने मूर्ख जनो तेमांथी शूकर ( भुंड ) जेम विष्टाने ग्रहण करे तेम अशुभ वाक्यने ग्रहण करी ले छे. ३९ मूर्खोऽपि मूर्ख दृष्ट्वा च चंदनादपि शीतलः । यदि पश्यति विद्वांसं मन्यते पितृघातकम् ॥४०॥ भावार्थ - मूर्ख जनो मूर्खने जोईने ते चंदन करतां Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३१२) पण शीतल बनी जाय छे अने जो विद्वान् कोई तेना जोवामां आवे, तो तेने पोताना पितानो घातक माने छे. ४० मदोपशमनं शास्त्रं खलानां कुरुते मदम् । चक्षुःप्रकाशकं तेज उलूकानामिवांधताम् ४१ ___ भावार्थ-मदने शांत करनार शास्त्र पण खल ज. नोने ते मद उत्पन्न करे छे. जुओ, तेज चक्षुने प्रकाश करनार छे, छतां घूवड पक्षीओने ते अंध बनावी दे छे. ४१ महतां प्रार्थनेनैव विपत्तिरपि शोभते । दंतभंगो हि नागानां श्लाघ्यो गिरिविदारणे ४२ ___ भावार्थ-महापुरुषो पासे प्रार्थना करतां कदाच विपत्ति आवे, तो पण सारी. कारण के पर्वतने फाडवा जतां हस्तीओना दांत भांगे, तो ते प्रशंसनीय गणाय छ. ४२ मुखेन नोगिरत्यूचं हृदये न नयत्यधः । जरयत्यंतरे साधु-र्दोषं विषमिवेश्वरः॥४३॥ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१३) भावार्थ-सत्पुरुष, शंकर जेम विषने तेम दोषने बहार प्रकाशतो नथी, अंतरमा उतारीने ते वारंवार संभारतो नथी, परंतु ते पेला दोषने पोताना हृदयमांज जीर्ण करी दे छे.४३ मान्या एव हि मान्यानां मानं कुर्वंति नेतरे। शंभुर्बिभर्ति मृ ९ स्वर्भानुस्तं जिघृक्षति ॥४४॥ भावार्थ-सारा पुरुषोज माननीय जनोनो सत्कार करे छे, इतर जनो तेम करता नथी. जुओ, शंभु-शंकर चंद्रमाने पोताना मस्तकपर धारण करे छे अने राहु तेने ग्रहण करवाने इच्छे छे. ४४ महतां तादृशं तेजो यत्र शाम्यंत्यनौजसः। . अस्तं यांति प्रकाशेन तारका हि विवस्वतः।४५ __ भावार्थ-मोटाजनोमां एवा प्रकारचें कांह असाधारण तेज होय छे के जेमां बळहीन जनो अंजाई जाय छे. जुओ सूर्यना तेजथी ताराओ अस्त थई जाय छे. ४५ मूकः परापवादे परदारनिरीक्षणेहियश्चांधः। पंगुः परधनहरणे स जयति लोकत्रये पुरुषः ४६ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१४ ) भावार्थ — जे परापवाद बोलवामां मुंगो छे, परस्त्रीने जोवामां जे अंध समान छे अने परद्रव्यनुं हरण करवामां जे पांगलो छे-ते पुरुष त्रणे लोकमां जयवंत रहो. ४६ मा भूत्सज्जनयोगो यदि योगो मा पुनः स्नेहः । यदि स्नेहो विरहो मा यदि विरहो जीविताशा का भावार्थ - सज्जन पुरुषनो योग कदापि न थजो, कदाच योग थाय तो त्यां स्नेह न थशो, वळी स्नेह थाय, तो तेनो विरह म थजो अने जो विरह थयो, तो पछी जीवितनी आशा केवी ? ४७ मनसि वचसि काये पुण्यपीयूषपूर्णास्त्रिभुवनमुपकारश्रेणिभिः प्रीणयतः । परगुणपरमाणून्पर्वतीकृत्य नित्यं निजहृदि विकसंतः संति संतः कियंतः ॥ ४८ ॥ भावार्थ - मन, वचन अने काया ए त्रणे योगमां जे पुण्यरूप अमृतथी परिपूर्ण छे, उपकारोनी श्रेणिथी जे त्रणे भुवनने प्रसन्न करे छे अने परना परमाणुमात्र गुणने पर्वत समान गणीने जे निरंतर पोताना अंत Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१५) रमां आनंद पामनारा छे-एवा संतजनो जगतमा खरेखर बहु थोडाज हशे. ४८ मुखं पद्मदलाकारं वाचा चंदनशीतला । हृदयं कोधसंयुक्तं त्रिविधं धूतलक्षणम् ॥४९॥ भावार्थ-जेनुं मुख, पद्मना दळ समान लागे छे, वाणी चंदन समान शीतल भासे छे अने हृदयमा कोध भरेलो होय-एत्रणे प्रकारनाधूर्त्तना लक्षण छे.४९ मालिन्यमवलंबेत यदा दर्पणवत्खलः। तदैव तन्मुखे देयं रजो नान्या प्रतिक्रिया॥५०॥ __भावार्थ-दर्पणनी जेम खलपुरुष ज्यारे मलिनताने धारण करे, त्यारे तेना मुखमां धूळज नाखवी. कारण के तेनी अन्य कांइ प्रतिक्रिया नथी. ५० मायामयः प्रकृत्यैव रागद्वेषमदाकुलः। महतामपि मोहाय संसार इव दुर्जनः॥५१॥ . भावार्थ-दुर्जननी' जेम आ संसार स्वभावथीज मायामय, राग, द्वेष अने मदथी मरेल होवाथी महापुरुषोने पण ते मोह उपजावे छे. ५१ Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१६) मृद्घटवत्सुखभेद्यो दुःसंधानश्च दुर्जनो भवति । सुजनस्तु कनकघटवद् दुर्भद्यश्चाशु संधेयः॥५२॥ भावार्थ-दुर्जन पुरुष, माटीना घटनी जेम सुखे भेदी शकाय अने दुःखे सांधी शकाय तेवो होय छे अने सज्जन पुरुष, सुवर्णना घटनी जेम दुःखे भेदी शकाय अने सुखे सांधी शकाय तेवा होय छे. ५२ माता निंदति नाभिनंदति पिता भ्राता न संभाषते भृत्यः कुप्यति नानुगच्छति सुतः कांता च नालिंगते। अर्थप्रार्थनशंकया न कुरुते संभाषणं वै सुहृ-तस्माद्रव्यमुपार्जयस्व सुमते द्रव्येण सर्वे वशाः ॥ ५३॥ भावार्थ-हे भद्र ! जो द्रव्य न हशे, तो माता निंदा करवा मांडशे, पिता प्रेमनो त्याग करशे, भाई बोलावशे पण नहि, सेवक कोप करशे, पुत्र अनुकूळ नहि चाले, स्त्री प्रेम तजी देशे अने द्रव्य मागवानी शंकाथी मित्र पण बोलावशे नहि. माटे द्रव्यर्नु उपार्जन करो. कारण के द्रव्यथी बधा वशवर्ती थाय छे. ५३ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३१७ ) मातरं पितरं पुत्रं प्रातरं वा सुहृत्तमम् । लोभाविष्टो नरो हंति स्वामिनं वा सहोदरम्५४ __ भावार्थ-लोमनी लालचमां लपटाई गयेल पुरुष पोताना माबाप, पुत्र, भ्राता, प्रिय मित्र, स्वामी अथवा सहोदरनो पण नाश करे छे. ५४: मा धनानि कृपणः खलु जीवस्तृष्णयार्पयतु जातु परस्मै । तत्र नैष कुरुते मम चित्रं यत्तु नार्पयति तानि मृतोऽपि ॥ ५५॥ भावार्थ-कृपण पुरुष तृष्णाने लीधे कदाच जीवतां अन्यने धन न आपे, तो तेमां कंइ आश्चर्य जेवं नथी. परंतु जे मरण पामतां छतां ते पोतार्नु धन परने. आपतो नथी-एज आश्चर्य छे. ५५ मनिंदया यदि जनः परितोषमेति नन्वप्रयत्नसुलभोऽयमनुग्रहो मे।श्रेयोऽर्थिनोऽपि पुरुषः परतुष्टिहेतोर्दुःखार्जितान्यपि धनानि परित्यजंति ॥ भावार्थ-जो मारी निंदाथीज लोकोने आनंद थतो होय, तो विना प्रयत्ने लभ्य एवो मारा पर एक. Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१८ ) प्रकारनो तेओ अनुग्रह ( उपकार ) करे छे. कारण के कल्याणना अभिलाषी जनो अन्यने संतोष पमाडवा, दुःखे प्राप्त थइ शके एवा धननो पण परित्याग करी दे छे. ५६ मदसिक्तमुखैर्मृगाधिपः करिभिर्वर्तयते स्वयंहतैः । लघयन्खल तेजसा जगन्न महानिच्छति भूतिमन्यतः ॥ ॥ ५७ ॥ भावार्थ - वनराज ( सिंह ) पोते मारेल अने मदजळथी आर्द्र थयेल हस्तीओथीज पोतानुं गुजरान चलावे छे, तेम पोताना तेजथी जगतने अंजावनार महापुरुषो अन्य पासेथी पोतानो उत्कर्ष इच्छता नथी. ५७ मज्जतोऽपि विपत्पयोधिगहने निःशंकधैर्यावृताः कुर्वंत्येव परोपकारमनिशं संतो यथाशक्ति वै । राहोरुग्रकरालवक्रकुहरग्रासाभिभूतोऽप्यलं चंद्रः किं न जनं करोति सुखिनं ग्रासावशेषैः करैः भावार्थ - विपत्तिमा अगाध समुद्रमां डुबवा छतां Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१९ ) निःशंक धैर्यने धारण करनारा संतजनो तो निरंतर यथाशक्ति परोपकार कर्याज करे छे. जुओ, राहुना भयंकर मुखमां सपडाया छतां चंद्रमा पोताना शेष किरणोथी जगतजनोने अत्यंत आनंद पमाडे छे. ५८ महीपतेः संति न यस्य पार्श्वे कवीश्वरास्तस्य कुतो यशांसि । भूपाः कियंतो न बभूवुरुया नामापि जानाति न कोऽपि तेषाम् ॥ ५९॥ ___ भावार्थ--जे राजानी आगळ कवीश्वरो हाजर नथी, तेनो यशोवाद क्यांथी ? कारण के पूर्वे आ पृथ्वीउपर केटलाए राजाओ थई गया छे के जेनुं नाममात्र पण हालमां कोई जाणतुं नथी. ५९ मुक्ताफलैः किं मृगपक्षिणां च मिष्टानपानं किमु गर्दभानाम् । अंधस्य दीपो बधिरस्य गीतं मूर्खस्य किं धर्मकथाप्रसंगः ॥६॥ भावार्थ-मृगला अने पक्षीओने मुक्ताफळोथी शृं? गधडाओने मिष्टान्नपानथी शुं ? अंधने दीपकथी शो फायदो अने बहेराने गीतथी शं? तेम मूर्ख जनने धर्मकथाथी शो फायदो थवानो हतो ? ६० Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२०) मनस्वी म्रियते कामं कार्पण्यं न तु गच्छति । अपि निर्वाणमायाति नानलो याति शीतताम६१ ___ भावार्थ-मनस्वी ( पंडित ) पुरुष बिलकुल मरवू कबूल करशे, परंतु ते कृपणताने कदापि धारण करशे नहि. अग्नि निर्वाण पामशे (बुझाई जशे ) ते भले पण ते शीतल कदी पण थशे नहिं.६१ ___ मा धाव मा धाव विनैव दैवं नो धावनं साधनमास्ति लक्ष्म्याः। चेद्दावनं साधनमस्ति लक्ष्म्याः श्वा धावमानोऽपि लभेत लक्ष्मीम् ॥ ६॥ __ भावार्थ-अरे ! लक्ष्मीलुब्ध ! भाग्य विना लक्ष्मीनी खातर तुं आम दोडादोडी न कर. कारण के ते दोडादोडी कांई लक्ष्मी मेळववानुं खास साधन नथी. जो ते धननुं साधन होत, तो श्वान बहु दोडे छे. छतां लक्ष्मीने पामी शकतो नथी. ६२ मलयाचलगंधेन विंधनं चंदनायते । तथा सजनसंगेन दुर्जनः सजनायते ॥ ६३॥ भावार्थ-मलयाचल पर्वतना गंधने लीधे अन्य Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२१ ) काष्ठ जेम चंदनना भावमां खपे छे, तेम सज्जनना संगथी दुर्जन पण सज्जन समान थई जाय छे. ६४ यस्य नार्था न वा कामो न वा प्रणयिपोषणम् । द्विपदस्य पशोस्तस्य व्यसनं शास्त्रसंग्रहः ॥ १॥ भावार्थ - जेनी पासे द्रव्य नथी, जे कामनो उपभोग अथवा तो पोताना स्नेहीओनुं पोषण करी शकतो नथी एवा द्विपद ( बे पगवाळा ) पशुने शास्त्रसंग्रह करवो - एतेने केवळ दुःखरूप छे. १ यौवने नीचसंसर्गा-त्कालुष्यं निर्मले कुले । के के नो जनयंति न पटे पंकलवा इव ॥ २ ॥ भावार्थ - - यौवनावस्थामां नीच जनोना संसर्गथी वस्त्रमां कादवना छांटा जेम कलुषता करे-तेम कया पुरुषो पोताना निर्मळ कुळने डाघ लगाडता नथी. २ यज्जराजर्जरो यूना दृढमुष्ट्या हतोऽश्नुते । कष्टं संघटनेनापि तस्मादेकेंद्रियोऽधिकम् ॥ ३॥ भावार्थ - एक युवान पुरुष, दृढ मुष्टिथी जराजर्जरित थयेल माणसने मारे अने तेने जे दुःख उपजे, ते २१ Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२२ ) करतां माणसना संघटाथी एकेंद्रियने अधिक दुःख थाय छे. ३ यत्कर्मादीर्घदृश्वानः कुर्वंति कुमतीरिताः । कालेऽनुशेरते तेन तेऽनिशं स इव द्विजः ॥ ४ ॥ भावार्थ - लांबो विचार कर्या विना कुमतिथी प्रेराइने जेओ कार्य करवाने तत्पर थाय छे, तेओ पेला ब्राह्मणनी जेम अवसर आवे अतिशय संताप पामे छे. ४ यः शास्त्रे पारगः प्रेक्षा - पूर्वकारी कलास्पदम् । सोऽपि लीलायितं वेत्ति नहि धातुरिव द्विजः ५ भावार्थ - जे शास्त्रमां पारंगत विचारपूर्वक काम करनार तथा जे कळाओनुं स्थान छे, एवो पुरुष पण पेला ब्राह्मणनी जेम विधातानी लीलाने जाणी शकतो नथी. ५ यथा गुणकरं वैद्यो–पदेशात्कृतमौषधम् । तथा गुरूपदेशेन स्मृतो मंत्रः फलप्रदः ॥ ६ ॥ भावार्थ — जेम वैद्यना उपदेश प्रमाणे करवामां आवेल औषध गुणकारी थाय छे, तेम गुरुमहाराजना Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२३) उपदेशथी स्मरण करवामां आवेल मंत्र फळने आपनार थाय छे. ६ यथा कृषिः कृता काले चैव शस्यस्य वृद्धये । तथा फलति धर्मोऽपि काले गुर्वाज्ञया कृतः॥७॥ भावार्थ-अवसर आवे खेती करवाथी जेम धान्यनी वृद्धि थाय छे, तेम गुरु आज्ञाथी अवसरे आराधवामां आवेल धर्म अवश्यमेव फळीभूत थाय छे. ७ यदि त्रिलोकी गणनापरा स्यात् तस्याः समाप्तिर्यदि नायुषः स्यात् । पारे परार्धं गणितं यदि स्याद्गणेयनिःशेषगुणोऽपि स स्यात् ॥८॥ __ भावार्थ-जोत्रणे लोक गणना करवा तत्पर थाय, वळी तेना आयुष्यनी कदापि समाप्ति न थाय अने परार्ध करतां वधारे गणितशास्त्र होय, तोज तेमना (भगवंतना) गुणो समस्त प्रकारे गणी शकाय.८ या त्रिलोकेऽपि धीराणां चरत्यस्खलिता मतिः। सापि न स्त्रीमनोवल्लीवनं गाहितमीश्वरी ॥९॥ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२४ ) भावार्थ — जे धीर पुरुषोनी मति त्रणे लोकमां अस्खलित थईने चाली शके छे, ते मति पण स्त्रीना मनरूप लतावननुं अवगाहन करवाने समर्थ नथी. अर्थात धीर जनो पण स्त्रीचरित्रनो पार पामी शकता नथी. ९ यच्चेतसि न तद्वाचि वाचि यत्न कर्मणि । स्वात्मन्येव कलिः स्त्रीणां कथं ताः परशर्मणे ॥ १० भावार्थ — जेमना मनमां छे-ते वचनमां नथी अने वचनमां छे-ते कर्ममां नथी- एम जे स्त्रीओ पोताना आत्मामांज भिन्नताने धारण करे छे, तेओ बीजाने शी रीते सुख आपे ? १० यदीयं हृदयं मुक्तास्रक् सिषेव सुसंहिता । अध्येतुमिव नैर्मल्यं सद्गुणानां सौ स्थितिः ११ भावार्थ - मोतीनी माळा, निर्मळतानो अभ्यास करवा जे सतीना हृदयनुं सेवन करती हती: खरेखर ! सद्गुणोनी आज स्थिति छे. ११ ये बहिर्महिमाधारा उदारा राजपूजिताः । गृहायाताः कुभार्यातो दासवत्तेऽपि विभ्यति१२ Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२५) भावार्थ-जेओ बहार मोटा महिमावाळा, उदार अने राजाओने पण माननीय गणाय छे, तेवा पुरुषो पण पोताना घरे आवतां कुभार्याथी एक दासनी जेम भय पामता रहे छे. १२ यथा सरो विना नीरं विना वीरं वरूथिनी। प्रासादश्च विना केतुं विना हेतुं यथा वचः १३ यथा भूपो विना न्यायं विना चायं यथा व्ययः। चक्षुर्विना यथैवास्यं लास्यं तूर्यं विना यथा १४ यथा वक्षो विना हारं सदाचारं विना गुरुः । तथा न मे गृहं चित्ता--नंदनं नंदनं विना॥१५॥ __ भावार्थ:-जेम पाणी विना सरोवर, सुभट (वीर) विना सेना, ध्वजा विना प्रासाद, अने विना कारण वचन शोभतुं नथी, जेम न्याय विना राजा, आवक विना खरच, चक्षु विना मुख अने वाद्य विना नृत्य शोभतुं नथी, वळी जेम हार विना वक्षस्थळ अने सदाचार विना गुरु शोभता नथी, तेम अंतरने आनंद आपनार एवा नंदन (पुत्र) विना मारं घर शोभतुं नथी. १३ १४ १५ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२६ ) यदशक्यप्रतीकारं देवैः किमुत मानवैः । श्रोतुर्वृथा व्यथाकारि तदुःखं किं प्रकाश्यते १६ भावार्थ-मनुष्यो तो शुं पण देवताओ पण जे दुःखनो प्रतिकार करवाने असमर्थ छ, अने श्रोताने वृथा संताप करनार एवं दुःख, शा माटे कोईनी पासे प्रकाशित करवू ? १६ ये सुखानि समीहंते नरा धर्मप्रमद्वराः । जडा बीजमनूपानाः फलाय स्पृहयंति ते ॥१७॥ ___ भावार्थ-जे पुरुषो धर्म करवामां अत्यंत प्रमादी होवा छतां सुखने तो इच्छेज छे, ते मूर्ख जनो बीजने वाव्या शिवाय फळनी इच्छा राखे छे. १७ योधं विना न संग्रामो न ग्रामो मानुषं विना । न सद्भावं विना सख्यं न सौख्यं सुकृतं विना१८ भावार्थ-सुभट विना संग्राम न थाय, मनुष्यो विना गाम न वसे, सद्भाव विना मित्राइन बने अने सुकृत विना सुखनी प्राप्ति न थाय. १८ यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा शास्त्रं तस्य करोति किम् । Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२७) लोचनाभ्यां विहीनस्य दर्पणः किं करिष्यति १९ भावार्थ-जेने पोतानेज प्रज्ञा (बुद्धि) नथी, तेने शास्त्रथी शो लाभ थवानो हतो ? जे लोचनहीन (अंध) छे, तेने दर्पण बताववाथी शो फायदो ? १९ __ यस्यास्ति वित्तं स नरः कुलीनः स पंडितः स श्रुतिमान् गुणज्ञः । स एव वक्ता स च दर्शनीयः सर्वे गुणाः कांचनमाश्रयंति ॥ २० ॥ __ भावार्थ-जेनी पासे धन छे, तेज माणस कुलीन, पंडित, शास्त्रज्ञ, गुणज्ञ, वक्ता अने दर्शनीय (रूपाळा) पण तेज छे. कारण के बधा गुणो द्रव्यने अनुसरीने रहेला छे. २० यस्यास्तस्य मित्राणि यस्यास्तस्य बांधवाः। यस्याथः स पुमाल्लोक यस्यार्थः सच पडितः २१ भावार्थ-जेनी पासे धन छे, तेना घणा मित्रो थाय छे, तेना घणा बांधवो थाय छे, वळी जेने धन छे, तेज लोकमां प्रतिष्ठित पुरुष गणाय छे अने पंडित पण धनवान्ज गणाय छे. २१ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२८) यथा धेनुसहस्रेषु वत्सो विंदति मातरम् । तथा पूर्वकृतं कर्म कर्तारमनुगच्छति ॥ २२ ॥ भावार्थ-जेम वाछरडं, हजारो गायोमा पोतानी माताने शोधी ले छे, तेम पूर्वे करवामां आवेल कर्म, कर्ताने शोधी ले छे ( अनुसरे छे.) २२ यावंति पशुरोमाणि पशुगात्रेषु भारत । तावद्वर्षसहस्राणि पच्यते पशुघातकः ॥ २३ ॥ भावार्थ-हे भारत ! पशुना शरीरपर जेटला रोम (केश) होय छे, तेटला हजार वरसोसुधी पशुघातक पापथी नरकमां दुःख भोगवे छे. २३ यद्धात्रा निज भालपट्टलिखितं स्तोकं महद्वा धनं तत्प्राप्नोति मरुस्थलेऽपि नितरां मेरौ ततो नाधिकम् । तद्दीरो भव वित्तवत्सु कृपणां वृत्तिं वृथा मा कृथाः कूपे पश्य पयोनिधावपि घटो गृह्णाति तुल्यं जलम् ॥ २४॥ भावार्थ-पोताना ललाटपट्टपर विधाताए जे Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२९ ) ओछु के वधारे धन लखेल छे, तेटलुं धन तो कदाच मारवाडमां जाओ, तो पण अवश्य मळवानुंज छे, तेमज मेरुपर्वतपर जतां तेथी अधिक लेश पण मळवानुं नथी. माटे हे भद्र! तुं धनवंतोमां धीर बनी जा, वृथा कृपण वृत्तिने धारण न कर. जुओ, कुवामां के समुद्रमां घट तो समान जळनेज ग्रहण करे छे. २४ यत्रात्मीयो जनो नास्ति भेदस्तत्र न विद्यते । कुठारैर्दंडनिर्मुक्तैर्भियंते तरवः कथम् ॥ २५ ॥ भावार्थ - ज्यां आत्मीय (संबंधी ) जन नथी, त्यां कोई प्रकारनो भेद रहेतो नथी. कारण के दंड विनाना कुहाडा वृक्षने भेदी शकता नथी. २५ यदा किंचिज्ज्ञोऽहं द्विप इव मदांधः समभवं तदा सर्वज्ञोऽस्मीत्यभवदवलिप्तं मम मनः । यदा किंचित्किंचिद्बुधजन सकाशादवगतं तदा मूर्खोऽस्मीति ज्वर इव मदो मे व्यपगतः २६ भावार्थ — ज्यारे हुं कंइक लेशमात्र जाणतो हतो, त्यारे हाथीनी जेम मदांध बनी गयो हतो, अने हुं Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३०) सर्वज्ञ छ, एम मारुं मन अत्यंत गर्विष्ठ थई गयुं हतुं पण ज्यारे सुज्ञ जनोना संगथी कई कंई मारा जाणवामां आव्यु, त्यारे मने लाग्युं के ' हुँ मूर्ख छ । एम मारा मनमांथी ज्वरनी जेम मद दूर थई गयो. २६ यावत्स्वस्थमिदं शरीरमरुजं यावच्च दूरे जरा यावचेंद्रियशक्तिरप्रतिहता यावत्क्षयो नायुषः । आत्मश्रेयसि तावदेव विदुषा कार्यः प्रयत्नो महान् संदीप्ते भवने हि कूपखननं प्रत्युद्यमः कीदृशः२७ भावार्थ-ज्यांसुधी आ शरीर निरोगी छे, ज्यांसुधी जरा दूर छे, ज्यांसुधी इंद्रियोनी शक्ति अप्रतिहत (सहीसलामत) छे अने ज्यांसुधी आयुष्यनो क्षय थयो नथी, त्यांसुधीमांज सुज्ञ पुरुषे आत्मकल्याणने माटे प्रयत्न करवो समुचित छे. कारण के आग लागे, त्यारे कुवो खोदवानो प्रयत्न करवो, ते शा कामनो ? २७ यत्नेन पापानि समाचरंति धर्मं प्रसंगादपि नाचरंति । आश्चर्यमेतद्धि मनुष्यलोके क्षीरं परित्यज्य विषं पिबति ॥२८॥ Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३१ ) - मावार्थ - अहो ! लोको पापने तो प्रयत्नपूर्वक आचरे छे अने धर्मनुं तो प्रसंगे पण आचरण करता नथी. खरेखर ! जगतमां बहु आश्चर्यनी बात छे के प्राणीओ क्षीरनो त्याग करीने विष पीवा जाय छे. २० यौवनं धनसंपत्तिः प्रभुत्वमविवेकिता । एकैकमप्यनर्थाय किमु यत्र चतुष्टयम् ॥ २९ ॥ भावार्थ — यौवन, धनसंपत्ति, प्रभुत्व ( मोटाई ) अने अविवेकिता - एमांनुं एक एक पण अनर्थकारी थाय छे, तो ज्यां चार होय, त्यां तो कहेवुंज शुं ? २९ यदकार्यं न कर्त्तव्यं प्राणैः कंठगतैरपि कार्यं यदेव कर्त्तव्यं प्राणैः कंठगतैरपि ॥ ३० ॥ भावार्थ - जीव जाय तो पण अकार्य कदी न करवुं अने जे करवानुं छे, ते प्राणो कंठे आवतां पण अवश्य करवुंज. ३० यं दृष्ट्वा वर्धते क्रोधः स्नेहश्च परिहीयते । सुविज्ञेयो मनुष्येण एष मे पूर्ववैरिकः ॥ ३१ ॥ भावार्थ — जेने जोवाथी क्रोध वधे अने स्नेह परि Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३२ ) क्षीण थाय, तो ' आ मारो पूर्वनो वैरी छे' एम पुरुषे निश्चय समजी लेवुं. ३१ यदि संति गुणाः पुसां विकसंत्येव ते स्वयम् । न हि कस्तूरिकामोदः शपथेन निवार्यते ॥ ३२ ॥ भावार्थ - जो माणसोमां गुणो होय, तो ते पोतानी मेळेज विकसित थाय छे. कस्तूरीनी सुगंध कांइ शपथ (सम ) आपवाथी अटकावी शकाती नथी. ३२ यथा चतुर्भिः कनकं परीक्ष्यते निघर्षणच्छेदनतापताडनैः । तथा चतुर्भिः पुरुषः परीक्ष्यते श्रुतेन शीलेन गुणेन कर्मणा ॥ ३३ ॥ भावार्थ — निघर्षण, ताप, छेदन अने ताडन - ए चार प्रकारथी जेम सुवर्णनी परीक्षा थई शके छे, तेम श्रुत, शील, गुण अने कर्म - ए चार प्रकारथी पुरुषनी परीक्षा थई शके छे. ३३ येषां न विद्या न तपो न दानं ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः । ते मर्त्यलोके भुवि भारभूता मनुष्यरूपेण मृगाश्चरंति ॥ ३४ ॥ Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३३ ) मावार्थ — जेमने विद्या, तप, दान, ज्ञान, शील, मुण के धर्म नथी, ते लोको आ मूमिपर भाररूप छे. खरेखर ! तेओ मनुष्यरूपधारी मृगलाओज छे. ३४ यज्जीवस्योपकारि स्या-त्तद्देहस्यापकारकृत् । यच्छरीरोपकारि स्या- त्तजीवस्थापकारकृत् ३५ भावार्थ — जे जीवने उपकार करनार छे, ते देहनो अपकार करनार छे अने जे शरीरनो उपकार करनार छे. ते जीवनो अपकार करनार छे. ३५ यदत्र क्रियते कर्म तत्परत्रोपभुज्यते । मूलसिक्तेषु वृक्षेषु फलं शाखासु जायते ॥ ३६ ॥ भावार्थ - जे आ लोकमां कर्म करवामां आवे छे, ते परभवमां जीवने भोगववुं पडे छे. कारण के वृक्षोने मूळमां पाणी सिंचवामां आवतां फळो तो शाखाओमांज उत्पन्न थाय छे. ३६ यत्नानुसारिणी विद्या लक्ष्मीः पुण्यानुसारिणी । दानानुसारिणी कीर्त्तिर्बुद्धिः कर्मानुसारिणी ३७ भावार्थ - यत्नानुसारे विद्या प्राप्त थाय छे, पुण्या Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३४ ) नुसारे लक्ष्मी मळे छे, दानानुसारे यश अने कर्मानुसारे बुद्धि उत्पन्न थाय छे. ३७ यथा गजपतिः श्रांत-श्छायार्थी वृक्षमाश्रितः। विश्रम्य तं द्वमं हंति तथा नीचः स्वमाश्रयम्॥३८ भावार्थ-जेम श्रमित थयेल गजपति छायानी इ. च्छाथी वृक्षनो आश्रय करे छे, अने विश्राम पामीने ते वृक्षनो नाश करे छे, तेम नीच जनो पोताना आश्रयनो नाश करे छे. ३८ यौवनं जरया ग्रस्तं शरीरं व्याधिपीडितम् । मृत्युराकांक्षति प्राणां-स्तृष्णैका निरुपदवा ॥३९ भावार्थ-यौवन जराथी ग्रस्त छे, शरीर व्याधिथी पीडित छे अने मृत्यु प्राणो लेवाने तत्पर छे, पण एक तृष्णा उपद्रवरहित छे. ३९ ये मजति निमजयंति च परास्ते प्रस्तरा दुस्तरा वार्थी वारि तरंति वानरभटान्संतारयंतेऽपि च । नैते यावगुणान वारिधिगुणानोवानराणां गुणाः श्रीमद्दाशरथेः प्रतापमहिमा सोऽयं समुज्जूभते४० Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३५ ) भावार्थ-जे दुस्तर शिलाओ पोते डूबे अने बीजाने डूबाडे छे, ते शिलाओ समुद्रना जळमां तरे अने वानर-सुभटोने तारे-ए कांइ पत्थरना गुणो, समुद्रना गुणो के वानरोना गुणो समजवाना नथी, परंतु ते समुज्वळ महिमा श्रीमान् रामचंद्रजीनो समजवो. ४० यास्याम्यायतनं जिनस्य लभते ध्यायंश्चतुर्थ फलं षष्ठं चोत्थितुमुद्यतोऽष्टममथो गंतुं प्रवृत्तोऽध्वनि। श्रद्धालुर्दशमं बहिर्जिनगृहात्प्राप्तस्ततो द्वादशं मध्ये पाक्षिकमीक्षिते जिनपतो मासोपवासंफलम् भावार्थ-'हुँ भगवंतना मंदिरमा जइश' एवो संकल्प करवाथी एक उपवासनो लाभ थाय, ते नि. मित्ते उठवाने तैयार थतांबे उपवासनो लाभ अने मार्गे चालतां त्रण उपवासनो लाभ मळे छे, श्रद्धा करतां चार उपवास अने जिनमंदिरनी बहार आवतां पांच उपवासनो लाभ थाय, गंमारामां दाखल थतां पंदर उपवासनो लाभ अने भगवंतने साक्षात् जोतां (निहाळतां) एक मासना उपवासनो लाभ थाय छे.४१ Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३६ ) यदि वहति चिदंडं नग्नमुंडं जटां वा यदि वसति गुहायां वृक्षमूले शिलायाम् । यदि पठति पुराणं वेदसिद्धांततत्त्वे यदि हृदयमशुद्धं सर्वमेतन्न किंचित् ॥४२॥ भावार्थ-भले त्रिदंडने धारण करो, शिर नग्न रा. खीने मुंडावो अथवा तो माथे जटा धारण करो, गुफामां अगर वृक्षना मूळमां शिलापर वास करो, पुराण अथवा वेदके सिद्धांत तत्त्वनो अभ्यास करो, तथापि जो हृदय अशुद्ध छे, तो ते बधुं नकामुं छे. ४२ यदेव रोचते यस्य तदेव तस्य सुंदरम् । श्रीखंडे न तथा प्रीति-यथा रुदस्य भस्मनि ॥४३ भावार्थ-जे वस्तु जेने रुचे, तेना मनने तेज वस्तु सुंदर छे. शंकरनी प्रीति भस्म ( राख ) मां छे, तेवी चंदनमां नथी. ४३ __ यत्रोदकं तत्र वसंति हंसा यत्रामिषं तत्र पतंति गृधाः । यत्रार्थिनस्तत्र रमंति वेश्या यत्राकृतिस्तत्र गुणा वसंति ॥४४॥ Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३३७ ) भावार्थ-ज्यां पाणी होय, त्यां हंसो रहे छे, ज्यां मांस होय, त्यां गीध पक्षीओ आवीने पडे छे. ज्यां धनवंत जनो होय छे, त्यां वेश्याओ रमण करे छे, अने ज्यां सुरम्य आकृति होय, त्यां गुणो रहेला होय छे. ४४ यदि स्थिरा भवेद्विद्युत्तिष्ठति यदि वायवः । दैवात्तथापि नारीणां न स्थेम्ना स्थीयते मनः४५ भावार्थ-कदाच वीजळी स्थिर थइ जाय अने दैवयोगे कदाच वायु पण स्थिर स्तंभी रहे, तथापि स्त्रीओनुं मन कोइ रीते स्थिर रहीज न शके. ४५ यथा मौलिः प्रतीकेषु हृषीकेषु यथेक्षणम् । यथा सुरदुःसालेसु विशालेषु यथा नभः॥४६॥ यथा हरिरम]षु महँषु च यथा नृपः। दयाधर्मस्तथा धर्म-कृत्येषु स्यात्पुरस्सरः॥४७॥ भावार्थ-जेम अंगना अवयवोमा मस्तक, इंद्रियोमां जेम चक्षु, वृक्षोमां जेम कल्पवृक्ष, विशाल पदार्थोमां जेम आकाश, देवताओमां जेम इंद्र, अने मनुष्योमा . २२ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३८ ) जेम राजा उत्कृष्ट छे, तेम सर्व धर्मकृत्योमां दयाधर्म सर्वोत्कृष्ट ( अग्रेसर ) छे. ४६-४७ युवानो यत्र खेलंति विमानेष्वेव वेश्मसु । मेषोन्मेषादिचेष्टाभि-र्मन्यते मानवा इति ॥ ४८ ॥ यत्र जैनगृहाग्रस्थ-कल्याणकलशोद्भवैः । गभस्त्यगस्तिभिर्ग्रस्ताः पौराणां दुरितार्णवाः४९ भावार्थ - जाणे विमानो होय. तेवा भवनोमां ज्यां युवान पुरुषो क्रीडा करता हता, पण तेओ चक्षुना मेषोन्मेषमात्रथीज आ मनुष्यो छे, एम जाणी शकाता हता. वळी ज्यां जिनमंदिरोना शिखरपर रहेल सुवर्ण - कलशथी प्रगट थता किरणरूप अगस्ति (ऋषि)ओ नागरिक जनोना पापरूप समुद्रनुं पान करी जता हता. ४८-४९ ये संयोगास्तनुमता - माद्यमुन्मादकारणम् । तेषां निष्ठा वियोगो हि व्यापाराणां विपद्यथा ५० भावार्थ- संयोगो छे-ते प्राणीओने मुख्य उन्मादना कारण छे, वळी कार्यो करतां जेम विपत्ति आवी Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३९ ) पडे, तेम ते संयोगो वियोगना रूपमां तो अवश्यमेव बदलाई जवानाज छे. ५० यो मित्रामित्रयोः शक्तो नोपकारापकारयोः । धत्ते तस्यायशोवल्ली-बीजतां दीर्घजीविता ॥५१॥ भावार्थ - जे पुरुष मित्रोपर उपकार करवाने स समर्थ नथी अने शत्रुओपर अपकार करवाने समर्थ नथी, तेनुं दीर्घ जीवन, मात्र अपयशरूप लताने धारण करे छे ( वृद्धि प्रमाडे छे ). ५१ यासां कुक्षिमुरीचक्रु-र्जिनचक्रधरादयः । जंगमा रत्नखनय - स्ता निंद्याः किमु योषितः ॥ ५२ भावार्थ - जिनेश्वरो अने चक्रवर्तीओने पण जेमना उदरमां अवतार लेवो पड्यो, तथा जे जंगम रत्नखाण समान गणाय छे, एवी स्त्रीओ शुं कदापि / निंदनीय होइ शके ? ५२ ये हप्ता ये सदाचारा ये च भारक्षमा भुवि । स्त्रीभिस्तेऽप्यभिभूयंते रश्मिभिर्वृषभा इव ॥ ५३॥ भावार्थ - जेओ सदाचारी, समर्थ अने राज्यनो Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४०) भार उपाडवाने समर्थ छे, तेवा पुरुषो पण दोरडीओथी जेम बळदो पराभव पामे तेम स्त्रीओथी अत्यंत पराभव पामे छे. ५३ ये स्वतोऽप्यधिकं स्निग्धैः कवलैः पोषिताः सुताः तेऽपि दारूणि दत्वांते दुःखानि भुंजते धनम्५४ ___ भावार्थ-पोताना करतां पण अधिक स्निग्ध (कोमळ ) एवा कोळीया खवरावीने जे पुत्रोने सारी रीते पोष्या, तेओ पण प्रांते दारुण दुःखो आपीने धननो उपभोग लेवा तत्पर थइ जाय छे. ५४ । ___ यस्य वक्रकुहरे सुभाषितं नास्ति नाप्यवसरे प्रजल्पति । आगतः सदसि धीमतामसौ लेप्यनिर्मित इवावभासते ॥ ५५ ॥ ___ भावार्थ-जेना मुखमां सुभाषित नथी तेमज जे अवसरे धीमंत ( विद्वानो)नी सभामां आवीने कई बोली शकतो नथी-ते माटीथी बनाववामां आवेल पुतळा जेवो छे. ५५ यत्र विद्वजनो नास्ति श्लाघ्यस्तत्राल्पधीरपि । निरस्तपादपे देशे एरंडोऽपि द्रुमायते ॥५६॥ Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __( ३४१) - भावार्थ-ज्यां विद्वान् जनोनो अभाव होय छे त्यां अल्प बुद्धिमान् पण वखणाय छे. कारण के वृक्ष विनाना देशमां एरंडो पण वृक्षसमान गणाय छे. ५६ यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञाशास्त्रं तस्य करोति किम् । लोचनाभ्यां विहीनस्य दर्पणः किं करिष्यति५७ भावार्थ-जेने पोताने प्रज्ञा (बुद्धि ) न होय, तेने शास्त्र शा कामर्नु ? कारण के नेत्र विनाना मनुष्यने दर्पण शुं काम आवे. ५७ यस्य नास्ति विवेकस्तु केवलं यो बहुश्रुतः। न स जानाति शास्त्रार्थान् दर्वी पाकरसानिव५८ भावार्थ-जेने विवेक नथी, परंतु केवळ जे बहुश्रुत छे, ते चाटवो जेम रसोइना सवादने जाणी न शके, तेम शास्त्रार्थने जाणी शकतो नथी. ५८ __ ये संसत्सु विवादिनः परयशःशूलेन शल्याकुलाः कुर्वति स्वगुणस्तवेन गुणिनां यत्नाद्गुणाच्छादनम् । तेषां रोषकषायितोदरदृशां कोपो Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४२) प्णनिःश्वासिनां दीप्ता रत्नशिखेव कृष्णफणिनां विद्या जनोद्वेजिनी ॥ ५९॥ भावार्थ-जेओ विद्वानोनी सभाओमां विवाद करवा तत्पर थई जाय छे, जेओ परना यशरूप शूळथी शल्ययुक्त बनी व्याकुळ थाय छे, वळी पोताना गुणोना स्तवनथी जेओ गुणीजनोना गुणोने यत्नपूर्वक आच्छादित करे छे, रोष अने कषायथी जेमना हृदय अने दृष्टि व्याप्त छे तथा कोपथी जेमना श्वासोच्छ्रास पण गरम थई गया छे एवा जनोने प्राप्त थयल विद्या ते काळा सोनी देदीप्यमान मणिनी जेम लोकोने भयंकर थई पडे छे. ५९ यद्यपि बहु नाधीषे तथापि पठ पुत्र व्याकरणम् । स्वजनः श्वजनो माभू-त्सकलं शकलं सकृच्छकृत भावार्थ-हे व्हाला वत्स ! जो तारे वधारे न भप, होय, तथापि तुं व्याकरणनो अभ्यास तो जरूर करजे. कारण के ते विना स्वजन-ते श्वजन (श्वान), सकल-ते शकल (एक विभाग) अने सकृत् ( एकवार )-ते शकृत् (विष्टा) थई जशे. (बोलाई जशे.)६० Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४३ ) यथा चित्तं तथा वाचो यथा वाचस्तथा क्रिया। चित्ते वाचि कियायां च साधूनामेकरूपता॥६॥ - भावार्थ-जेवू मनमा तेवू वाणीमा अने जेवं वा णीमां तेवू क्रियामा एम मन, वचन अने क्रियामा सत्पुरुषोनी एकरूपता होय छे. ६१ यः प्रीणयेत्सुचरितैः पितरं स पुत्रो ___ यद्भर्तुरेव हितमिच्छति तत्कलत्रम् । तन्मित्रमापदि सुखे च समकियं यः देतत्त्रयं जगति पुण्यकृतो लभंते ॥ ६२॥ भावार्थ-जे पोताना सदाचारथी माबापने प्रसन्न राखे ते पुत्र समजवो, जे पोताना स्वामीनुं हितज इच्छे ते स्त्री अने सुख दुःखमां जे समानपणे वरते ते मित्र समजवोए त्रणे वस्तुने जगतमां पुण्यवंत प्राणीओज पामी शके छे. ६२ ये जाते व्यसने निराकुलधियःसंपत्सु नाभ्युन्नताः प्राप्ते नैव पराङ्मुखाः प्रणयिनि प्राणोपयोगैरपि Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४४) ह्रीमंतः स्वगुणप्रकाशनविधावन्यस्तुतौ पंडितास्ते भूमंडलमंडनैकतिलकाः संतः कियंतो जनाः ___ भावार्थ-जेओ संकट वखते धीर थइने मनमां लेश पण आकुल व्याकुल थता नथी, संपत्तिमा जेओ गर्विष्ठ बनता नथी, पोताना स्नेही के स्वजनोने विपत्ति वखते जेओ पोताना प्राणो पण अर्पण करवा अचकाता नथी, पोताना गुणो प्रकाशवामां जेओ लज्जा पामे छे अने अन्यना गुणो प्रकाशवा के गावामां जेओ पोतानी पंडिताइ वापरे छे अवा भूमंडलना अलंकाररूप संतजनो जगतमा खरेखर विरलाज हशे. ६३ ये दीनेषु दयालवः स्पृशति यानल्पोऽपि न श्रीमदो व्यया ये च परोपकारकरणे हृष्यंति ये याचिताः । स्वस्थाः संति च यौवनोन्मदमहाव्याधिप्रकोपेऽपि ये तैः स्तंभैरिव सुस्थितैः कलिभरक्लांता धरा धार्यते ॥ ६४॥ भावार्थ-दीन जनोपर जेओ सदा दयाभावी Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४५ ) वरते छे, जेओ लक्ष्मीनो लेश पण मद करता नथी, परोपकार करवामां जेओ सदा तत्पर रहे छे, कोइ याचना करवा आवे, त्यारे जेओ हर्षित थाय छे, यौवनमां जेओ उन्मत्त थता नथी अने महाव्याधिनो प्रकोप थतां पण जेओ स्वस्थ रहे छे तेवा अचल स्तंभ समान नररत्नो, कळिकालना भारथी श्रांत थयेल ( थाकी गयेल) आ पृथ्वीने धारण करी रह्या छे. ६४ यथा वृष्टिः समुद्रेषु भुक्तस्योपरि भोजनम् । एवं प्रीतिः खलैः सार्ध-मुत्पन्नेऽर्थेऽवसीदति ६५ भावार्थ — जेम समुद्रमां वरसाद अने जम्या उपर भोजन वृथा छे, तेम खल जनो साथै प्रीति करवाथी अवसर आवे ते नकामी थइ जाय छे. ६५ ये श्रमं हर्त्तुमहिंते महतां चिरसंभृतम् । वंद्यास्तेऽसरलात्मानो दुर्जनाः सज्जना इव ॥६६॥ भावार्थ - जेओ महापुरुषोना चिरकालना श्रमने दूर करवा इच्छे छे ते असरल (वक्र ) आशयवाळा दुर्जनो पण सज्जनोनी जेम वंदनीय छे. ६६ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४६) यत्स्मृत्वैव परां यांति संतः संतापसंततिम् । तदसंतो हसंतोऽपि हेलयैव हि कुर्वते ॥ ६७ ॥ भावार्थ-जे कर्मनु स्मरणमात्र करतां पण संतजनो अतिशय संतापने पामे छे, तेवु कर्म, दुर्जनो हसता हसतां एक लीलामात्रमा करी नाखे छे. ६७ येषां प्राणिवधः क्रीडा नर्म मर्मच्छिदो गिरः। कार्य परोपतापित्वं ते मृत्योरपि मृत्यवः॥६॥ __ भावार्थ-प्राणीओनो वध करवो एज जेमनी क्रीडा छे, अन्यना मर्मने भेदनार जेमनी नर्मवाणी (मश्करी) छे, अने अन्यने संताप उपजावनार जेमचें कार्य छे तेवा पुरुषो यम करतां पण वधारे भयंकर समजवा.६८ यथा परोपकारेषु नित्यं जागर्ति सजन. । तथा परापकारेषु जागर्ति सततं खलः॥६९॥ भावार्थ-जेम सज्जनो परोपकार करवाने सदा तत्पर छे, ते खल पुरुष अन्यनो अपकार (हानि) करवामां सदा तैयार रहे छे. ६९ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४७ ) यद्यदिष्टतमं तत्तद्देयं गुणवते किल । अत एव खलो दोषान् साधुभ्यः संप्रयच्छति ७०० ___ भावार्थ जे जे अत्यंत इष्ट छे, ते ते गुणवंतने आपवू, अटला माटेज खलजनो संत पुरुषोने दूषणो आपे छे.७० ___ यद्वदंति चपलेत्यपवादं नैव दूषणमिदं कमलायाः । दूषणं जलनिधेर्हि भवेत्तद्यत्पुराणपुरुपाय ददौ ताम् ॥ ७१॥ भावार्थ- लक्ष्मी चपळ छे' एम लोको जे लक्ष्मीने दूषण आपे छे, तेमां लक्ष्मीनो दोष जरा पण नथी, परंतु तेना पिता समुद्रनो दोष छे, के जेणे पुराणपुरुष ( कृष्ण-वृद्ध) ने ते परणावी. ७१ यत्राभ्यागतदानमानचरणप्रक्षालनं भोजनं सत्सेवा पितृदेवतार्चनविधिः सत्यं गवां पालनम्। धान्यानामपि संग्रहो न कलहश्चित्तानुरूपा प्रिया हृष्टा प्राह हरिं वसामि कमला तस्मिन्गृहे निश्चला Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४८ ) भावार्थ-एकदा लक्ष्मी, विष्णु ने कहेवा लागी के हे स्वामिनाथ ! ज्यां अतिथिओने दान मान साथे चरण प्रक्षालन करीने भोजन आपवामां आवे छे, ज्यां सत्सेवा थाय छे, ज्यां माबाप अने देवताओनी पूजा करवामां आवे छे, ज्यां सत्य छे अने ज्यां पोताना वचननुं पालन करवामां आवे छे, ज्यां धान्यनो संग्रह करवामां आवे छे, ज्यां कलहनुं नाम पण नथी तथा ज्यां पतिना मनने अनुकूळ स्त्री छे एवा भवनमा हे नाथ ! हुं निश्चळ थइने निवास करूं हूं. ७२ . यदा तु भाग्यक्षयपीडितां दशां नरः कृतांतोपहितांप्रपद्यते । तदास्य मित्राण्यपि यांत्यमित्रतां चिरानुरक्तोऽपि विरज्यते जनः॥७३॥ भावार्थ-ज्यारे भाग्यनो क्षय थतां पुरुष यम समान भयंकर दशाने प्राप्त थाय छे, त्यारे तेना मित्रो पण शत्रु जेवा बनी जाय छे अने चिरकाळना अनुरक्त जनो पण विरक्त बनी जाय छे. ७३ यैः कारुण्यपरिग्रहान गणितः स्वार्थः परार्थ पति यैश्चात्यंतदयापरैर्न विहिता बंध्यार्थिनां Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४९ ) प्रार्थना । ये चासन्परदुःखदुःखितधियस्ते साधवोऽस्तं गताश्चक्षुः संहर बाष्पवेगमधुना कस्या - ग्रतो रुद्यते ॥ ७४ ॥ भावार्थ- दयानी लागणीथी परमार्थ करवा जतां जेओ पोताना स्वार्थने गणता न हता, अत्यंत करुणा दृष्टिने लीधे जेमणे अर्थीजनोनी प्रार्थनानो कदापि भंग न कर्यो, तथा परना दुःखने जोइने जेओ अति दुःखी थता हता - अहो ! एवा परोपकारी सज्जनो बधा अस्त थया. तो हे चक्षु ! हवे तारा अश्रुवेगने अटकावी राख, कारण के अत्यारे कोइनी पासे रुदन करवानो वखत नथी. ७४ यद्ददाति यदश्नाति तदेव धनिनो धनम् । अन्ये मृतस्य क्रीडति दारैरपि धनैरपि ॥ ७५ ॥ भावार्थ - जे दान करवामां आवे छे, भोगववामां आवे छे तेज धनवन्तोनुं धन छे. पछी तो ते धन अने स्त्रीओ साथै अन्य जनो करता जोवामां आवे छे. ७५ अने जे मरण क्रीडा Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (340) यदुर्गामटवीमति विकटं कामंति देशांतरं गाते गहनं समुद्रमथनक्लेशं कृषिं कुर्वते । सेवंते कृपणं पतिं गजघटासंघट्टदुः संचरं सर्पति प्रधनं धनांधितधियस्तल्लो भविस्फूर्जितम् भावार्थ - - लक्ष्मीनी लालचमां लपटाइने जेओ भयंकर अटवीमां भटके छे, विकट देशांतरमां भ्रमण करे छे, समुद्रमथनना गहन क्लेशने सहन करे छे, खेतीवाडी करे छे, कृपण स्वामी ( शेठ ) नी सेवा करे छे, तथा हाथीओनी घटाथी ज्यां बहुज मुश्केलीथी संचार थइ शके तेवी रणभूमिमां जेओ प्रवेश करे छे-आ बधो लोभनो प्रताप समजवो. ७६ याचितो यः प्रहृष्येत दत्त्वा च प्रीतिमान् भवेत् । तं दृष्ट्वाप्यथवा श्रुत्वा नरः स्वर्गमवाप्नुयात् ७७ भावार्थ - जेनी पासे याचना करतां हर्ष पामे छे अने आपीने जे अति प्रेमाळ बने छे तेवा पुरुषने जोडने अगर सांभळीने भव्य जीवो स्वर्गने प्राप्त करी शके छे. ७७ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५१ ) युध्यते पक्षिपशवः पठति शुकसारिकाः । दातुं शक्नोति यो वित्तं स शूरः स च पंडितः ७८ भावार्थ - युद्ध तो पक्षी अने पशुओ पण करे छे तथा शुक अने सारिका ( मेना) भणे छे, परंतु जे दान आपवाने शक्तिमान् छे तेज शूरवीर अने पंडित छे. ७८ याचना हि पुरुषस्य महत्त्वं नाशयत्यखिलमेव तथा हि । सद्य एव भगवानपि विष्णुवमनो भवति याचितुमिच्छन् ॥ ७९ ॥ भावार्थ — कोइनी पासे याचना करवी - ते पुरुषना समस्त महत्त्वनो तरतमां नाशज करे छे, जुओ, याचना करवा जतां विष्णु भगवानने पण तरत वामननुं रूप करवुं पडयुं छे. ७९ यथा होकेन चक्रेण न रथस्य गतिर्भवेत् । एवं पुरुषकोरण विना दैवं न सिध्यति ॥ ८० ॥ भावार्थ — जेम एक चक्र ( पैडा ) थी रथनी गति थइ शकती नथी - तेम उद्यम विना दैव सिद्ध थतुं नथी. Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५२ ) यत्र नास्ति दधिमंथनघोषो यत्र नो लघुलघूनि शिशुनि । यत्र नास्ति गुरुगौरवपूजा तानि किं बत गृहाणि वनानि ॥ ८१ ॥ भावार्थ - ज्यां दधि बलोववानो घोष थतो नथी, ज्यां नाना नाना बालको रमता नथी अने वडीलोनो सत्कार करवामां आवतो नथी ते घरो नहि पणवनो समजवा. ८१ यः सुंदरस्तद्वनिता कुरूपा या सुंदरी सा पतिरूपहीना । यत्रोभयं तत्र दरिद्रता च विधेविचित्राणि विचेष्टितानि ॥ ८२ ॥ भावार्थ - जो पुरुष सुंदर हशे, तो तेनी स्त्रीमां माल न हशे अने जो स्त्री सुंदर हशे, तो तेनो पति कदरूपो हशे कदाच बंने रूपाळा हशे, तो त्यां दरिव्रता हो. अहो ! विधातानी चेष्टाओ बधी विचित्र प्रकारनीज लागे छे. ८२ · रेजि कुरु मर्यादां भोजने वचने तथा । वचने प्राणसंदेहो भोजने च हाजीर्णता ॥ १ ॥ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५३) भावार्थ-हे जीभलडी ! तु मोजन अने वचनर्मा मर्यादा राख. कारण के वचनमां मर्यादा न राखवाथी प्राणनो संदेह वखतसर उपस्थित थाय छे अने भोजनमां मर्यादा न राखवाथी अजीर्ण-दोष उत्पन्न थाय छे. १ राजा वेश्या यमो वह्नि-स्तस्करोबालयाचकः । परदुःखं न जानाति ह्यष्टमो ग्रामकंटकः॥२॥ मावार्थ-राजा, वेश्या, यम, अग्नि, तस्कर (चोर), बाळक, याचक अने गामनो मुखी पटेलीओ ए आठ परना दुःखने जाणता नथी. २ राजपत्नी गुरोः पत्नी मित्रपत्नी तथैव च। पत्नीमाता स्वमाता च पंचैता मातरः स्मृताः३ भावार्थ-राजपत्नी, गुरुनी पत्नी, मित्रनी पत्नी, पोतानी स्त्रीनी माता तथा पोतानी माता-ए पांच मातासमान कहेल छे. ३ रथस्यैकं चक्रं भुजगयमिताः सप्त तुरगा निरालंबो मार्गश्चरणविकलः सारथिरपि । Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५४) रविः पारं याति प्रतिदिनमपारस्य नभसः क्रियासिद्धिः सत्त्वे वसति महतां नोपकरणे ४ ___ भावार्थ-पोताना रथनु एकज चक्र छतां, सात अश्वो पण सर्पोथी नियंत्रित छता अने निरालंब मार्ग तथा सारथि पण चरणरहित (पंगु) होवा छतां सूर्य, प्रतिदिन अपार आकाशनो पार पामे छे. खरेखर महापुरुषोना सत्त्व ( पराक्रम) मांज क्रियानी सिद्धि रहेल छे, पण तेमना उपकरणोमां नथी. ४ राज्ञि धामाण धामष्ठाः पापे पापाः सम समाः। लोकास्तमनुवर्तते यथा राजा तथा प्रजा ॥६॥ ___ भावार्थ-जो राजा धर्मिष्ठ होय, तो प्रजा धर्मी बने छे, राजा, पापी होय, तो ते पापिष्ठ अने राजा बनेमां समान होय, तो ते समान थाय छ, लोको राजानुंज अनुकरण करे छे. एटले जेवो राजा होय, तेवी प्रजा थाय छे. ५ __ रत्नैर्महाहैस्तुतुपुर्न देवा न भेजिरे भीमविषेण भीतिम् । सुधां विना न प्रययुर्विरामं न निश्चितार्थाद्विरमंति धीराः ॥६॥ Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५५) भावार्थ--कीमती रत्नोथी देवो संतुष्ट न थया, अने भयंकर विषथी तेओ भय न पाम्या. तेम छतां सुधा ( अमृत ) विना तेओ पाछा न हठ्या. कारण के धीर जनो पोताना निश्चयथी पाछा हठता नथी.६ राज्यं सुसंपदो भोगाः कुले जन्म सुरूपता। पांडित्यमायुरारोग्यं धर्मस्यैतत्फलं विदुः॥१॥ __ भावार्थ-राज्य, सुसंपत्ति, सारा कुळमां जन्म, पांडित्य, दीर्घ आयु अने आरोग्य-आ बंधु धर्मर्नु फल समजवु. ८ राज्यं निःसचिवं गतपहरणं सैन्यं विनेत्रं मुखं वर्षा निर्जलदा धनी च कृपणो भोज्यं तथाज्यं विना । दुःशीला दयिता सुहृनिकृतिमानराजा प्रतापोज्झितः शिष्यो भक्तिविवर्जितो न हि विना धर्म नरः शस्यते ॥८॥ भावार्थ-प्रधान विनानुं राज्य अने हथीयार विनानुं सैन्य जेम शोभतुं नथी, नेत्र विनानुं मुख, जळ विनानी वर्षाऋतु तथा कृपण धनिक जेम वख Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५६ ) णातो नथी, घृत विनानुं भोजन, शीलरहित स्त्री अने कपटी भित्र जेम शोभतो नथी, प्रतापहीन राजा भक्तिरहित शिष्य जेम शोभता नथी, तेम धर्म विना पुरुष शोभतो नथी. ८ राजदंडभयात्पापं नाचरत्यधमो जनः । परलोकभयान्मध्यः स्वभावादेव चोत्तमः ॥ ९ ॥ भावार्थ - अधम जनो राजदंडना भयथी पाप आचरता नथी, मध्यम जनो परलोकना भयथी पाप आचरता नथी अने उत्तम जनो स्वभावथीज पापाचरण करता नथी. ९ रूपयौवनसंपन्ना विशालकुलसंभवाः । विद्याहीना न शोभंते निर्गंधा इव किंशुकाः ॥१० भावार्थ - भले रूप अने यौवन संपन्न होय, तथा विशाळ कुलमां जन्म पाम्या होय छतां गंध विनाना केशुडांना पुष्पोनी जेम विद्याहीन जनो शोभता नथी १० रागद्वेषौ यदि स्यातां तपसा किं प्रयोजनम् । तावेव यदि न स्यातां तपसा किं प्रयोजनम् ॥११ Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५७ ) तो: भावार्थ- जो राग अने द्वेष विद्यमान होय, तपनुं शुं प्रयोजन छे ? अने कदाच ते बंने नष्ट थया होय, तो पण तपस्यानुं शुं प्रयोजन छे ? ११ रिक्तपाणिर्न पश्येयू राजानं देवतां गुरुम् । नैमित्तिकं स्वप्नविदं फलेन फलमादिशेत् ॥ १२ ॥ भावार्थ – राजा, देव, गुरु निमित्तने जाणनार तथा स्वप्नपाठक - एटला पासे खाली हाथे न जवुं. कारण के फळथी फळनी प्राप्ति थाय - एम कहेल छे. १२ राजा कुलवधूर्विप्रा नियोगी मंत्रिणस्तथा । स्थानभ्रष्टा न शोभते दंताः केशा नखा नराः १३ भावार्थ -- राजा, कुलीन कांताओ, अधिकारी, मंत्रीओ दंत, केश, नख, तथा पुरुषो - ए. बधा स्थानभ्रष्ट थतां शोभता नथी. १३ रसाय पीडितोऽपीद्धमप्यंबु शस्यकृत् । भृशं कुसुंभमंजिष्ठे रंगाय क्षुण्णखंडिते ॥ १४ ॥ भावार्थ — शेलडीने बहु पीडतां पण ते मधुर रस आपे छे, पाणीने बांधामां बांधी मूकतां ते धान्यने Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५८ ) नीपजावे छे, कसुंबाने वधारे घुटतां अने मजीठने वधारे खांडतां ते रंग आपे छे. १४ रहो हुतवहोदचि - कलां वीक्ष्य योषितम् । नृणां द्रवीभवत्येव मनो मदनवन्मृदु ॥ १५ ॥ भावार्थ – अग्निनी उछलती ज्वाळाओने जोड़ने जेम कोमळ मीण गळी जाय छे, तेम एकांतमां स्त्रीने जोतां माणसोनुं मन अवश्य द्रवीभूतज थइ जाय छे. १५ रुष्टा तुष्टा च जाताहं स तु तुष्टः सदाभवत् । रात्रिः श्वेता च कृष्णा च दिवसस्त्वेकरूपभाक् १६ · भावार्थ - अहो ! हुं तो रुष्टमान, अने तुष्टमान थइ अने ते मारो स्वामी तो सदा संतुष्टज रह्यो रात्रि श्वेत अने कृष्ण होय छे, पण दिवस तो सदा एक रूपवाळोज होय छे-आ एक स्त्रीना विचारो छे. १६ रुद्रोऽदिं जलधिं हरिर्दिविषदो दूरं विहायः श्रिता भोगींद्राः प्रबला अपि प्रथमतः पातालमूले स्थिताः । लीना पद्मवने सरोजनिलया मन्येऽ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५९ ) र्थिसार्थाद्भिया दीनोन्दा रपरायणाः कलियुगे सत्पुरुषाः केवलम् ॥ १७ ॥ भावार्थ - शंकर हिमालयमां छुपाई गयो, विष्णु समुद्रमां जइने सुइ गयो, देवताओ दूर आकाशमां चाल्या गया, नागेंद्रो तो पोते प्रचल छतां प्रथमथीज पाताळमां पेसी गया अने कमलासना लक्ष्मी पद्मवनमां लीन थइ गइ, आथी एम लागे छे के याचकजनोना भयथीज आ बधा उक्त स्थानोमा चाल्या गया हशे, परंतु आ कलियुगमां दीन जनोनो उद्धार करनारा एवा केवल सत्पुरुषोज मोजुद छे. १७ रविश्चंद्रो घना वृक्षा नदी गावश्च सज्जनाः । एते परोपकाराय युगे दैवेन निर्मिताः ॥ १८ ॥ भावार्थ - सूर्य, चंद्र, मेघ, वृक्षो, नदी, गायो अने सज्जनो - एमने मात्र परोपकार करवानी खातरज जगतमां विधाताए निर्माण कर्या छे. १८ रक्तत्वं कमलानां सत्पुरुषाणां परोपकारित्वम् । असतां च निर्दयत्वं स्वभावसिद्धं त्रिषु त्रितयम् Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६० ) भावार्थ — कभळोमां रक्तत्व ( रताश ) सत्पुरुघोमां परोपकारीपणुं अने दुर्जनोमां निर्दयता - ए त्रणमां त्रण गुण स्वभावथीज सिद्ध होय छे. १९ लालयेत्पंच वर्षाणि दश वर्षाणि ताडयेत् । प्राप्ते तु षोडशे वर्षे, पुत्रं मित्रवदाचरेत् ॥ १ ॥ भावार्थ- पुत्र पांच वरसनो थाय त्यांसुधी तेनुं लालन-पालन करवुं, त्यार पछी दश वरस सुधी तेनो वाक आवे, तो तेने ताडन करवुं, पण सोळमा वरस पछी तो पुत्रनी साथे मित्रनी जेमज वर्त्तवुं. १ लिखिता चित्रगुप्तेन ललाटेऽक्षरमालिका | तां देवोऽपि न शक्नोति उल्लिख्य लिखितुं पुनः२ भावार्थ - विधाताए ललाट-पटपर जे अक्षरमाळा लखी छे, तेने उत्थापन करीने बदलाववाने कोई देव पण शक्तिमान नथी. २ लक्ष्मीर्दानविवेक संगममयी श्रद्धामयं मानसं, धर्मः शीलदयामयः सुचरितश्रेणीमयं जीवितम् । Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६१) बुद्धिः शास्त्रमयी सुधारसमयं वाग्वैभवोज्जूंभितं व्यापारश्च परार्थनिर्मितिमयः पुण्यैः परं प्राप्यते३ भावार्थ-दान अने विवेकना विलासमय लक्ष्मी, श्रद्धायुक्त मनोभाव, शील अने दयामय धर्म, सदाचारनी श्रेणीमय जीवित, शास्त्रना विचारमय बुद्धि, सुधारस समान वचननो विलास अने परोपकारमय व्यापार-ए परम पुण्यथीज प्राप्त थई शके छे. ३ लोकः पृच्छति मे वातौ शरीरे कुशलं तव । कुतः कुशलमस्माक-मायुर्याति दिने दिने॥४॥ ___ भावार्थ-लोको मने समाचार पूछे छे के तभारा शरीरे कुशळ छे ? पण अमने कुशळ क्याथी होय. कारण के दिवसे दिवसे अमारं आयुष्य ओछु थतुं जाय छे. ४ लोभमूलानि पापानि रसमूलाश्च व्याधयः । स्नेहमूलानि दुःखानि त्रीणि त्यक्त्वा सुखीभव ५ भावार्थ-पापो बधां लोभथी, व्याधिओ बधी रसथी अने दुःखो बधा स्नेहथी उत्पन्न थाय छे, माटे एत्रणेनो त्याग करीने हे मित्र ! तुं सुखी था. ५ Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६२) लालनाद बहवो दोषा-स्ताडनाद् बहवो गुणाः । तस्मात्पुत्रं च शिष्यं च ताडयेन च लालयेत्॥६॥ भावार्थ-पुत्रने लडाववाथी तेमा घणा दूषणो जन्म पामे छे अने तेने शिक्षा करवाथी घणा गुणो उत्पन्न थाय छे. माटे पुत्रने के शिष्यने लाड लडाववा करतां तेने ताडन करवू-ए वधारे सारं छे. ६ लोभोऽयं भापितो वीत-रागैः कास्थामलप्स्यत। नाभविष्यन्महास्थान-स्वरूपा यदमी द्विजाः॥७ __भावार्थ-वीतरागोए भय पमाडेल आ लोभ, जो महास्थानरूप आ ब्राह्मणो न होत, तो क्यां स्थान पामी शकत. ७ लभते निर्मलात्मापि नीचसंगाद्गुणच्युतिम् । पश्य क्षारीभवेन्मेघ-पयः पतितमखरे ॥८॥ भावार्थ-नीच जनोना संगथी निर्मलात्मा पण गुणोथी भ्रष्ट थाय छे. जुओ, मेघनुं पाणी खारी भू. मिमां पडतां ते खारूं थई जाय छे. ८ । लभेत सिकतासु तैलमपि यत्नतः पीडयन् Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६३ ) पिबेच्च मृगतृष्णिकासु सलिलं पिपासार्दितः । कदाचिदपि पर्यट शशविषाणमासादयेन्नतु प्रतिनिविष्टमूर्खजनचित्तमाराधयेत् ॥ ९ ॥ भावार्थ-कदाच यत्नथी पीलतां वेणुमांथी पण तेल नीकळे, पिपासाथी आर्त्त थयेल कदाच मृगतृष्णिका ( झांझवा ) मांथी जळपान करी शके अने वसुधातलपर भ्रमण करतां कदाचित शशलानुं शृंग पण क्यां प्राप्त थई जाय, तथापि कदाग्रहथी ग्रस्त थयेल मूर्खजननुं मन कदापि आराधी न शकाय ( वश न थाय ). ९ लक्ष्मीमंतो न जानंति प्रायेण परवेदनाम् । शेषे धराभरक्लांते शेते नारायणः सुखम् ॥ १० ॥ भावार्थ — धनवंत जनो प्राये परनी पीडा जाणता नथी. जुओ, शेषनाग पृथ्वीना भारतळे दबाय छे अने विष्णु सुखे आराम करे छे. १० लक्ष्म्या परिपूर्णोऽहं न भयं मेऽस्तीति मोह - निंदैषा।परिपूर्णस्यैवेंदोर्भवति भयं सिंहिका सूनोः Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६४) भावार्थ-'हुं लक्ष्मी थी भरपूर छु, तेथी मने हवे कोइ प्रकारनो भय नथी, ए विचार मात्र मोहनिद्राज छे. कारण के जुओ, परिपूर्ण चंद्रमाने पण राहुथी भय प्राप्त थायज छे. ११ लोभाविष्टो नरो वित्तं वीक्षते न स चापदम् । दुग्धं पश्यति मार्जारो यथा न लगुडाहतिमा१२ भावार्थ-लोभथी व्याकुल थयेल पुरुष धनने जुए छे, पण ते भविष्यनी आपदाने जोइ शकतो नथी. जुओ, बिलाडो दुधने जुए छे, परंतु ते लाकडीना मारने जोइ शकतो नथी. १२ लोकयात्राभयं लज्जा दक्षिण्यं त्यागशीलता। पंच यत्र न विद्यते न कुर्यात्तत्र संस्थितिम्॥१३॥ ___ भावार्थ-लोकयात्रा, अभय, लज्जा, दाक्षिण्य अने दान- पांच ज्यां न होय-त्यां निवास करवो उचित नथी. १३ लुब्धानां याचकः शत्रु-श्चौराणां चंदमा रिपुः। जारस्त्रीणां पतिः शत्रु-मूर्खाणां बोधको रिपुः१४ Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६५) भावार्थ-लोभीजनोने याचक शत्रु समान लागे छे, चोरजनोने चंद्रमा शत्रु जेवो लागे छे, कुलटा बीओ पोताना पतिने शत्रु समान गणे छे अने मूर्ख जनोने बोध आपनार (उपदेशक ) ते कट्टाशत्रु समान भासे छे. १४ व्यवसायं विना नार्थो न श्रुतार्थो धियं विना। न वारिदं विना वृष्टिन पुष्टिर्भोजनं विना ॥१॥ भावार्थ-व्यवसाय विना द्रव्यनो लाभ न थाय, बुद्धि विना शास्त्रार्थनो बोध न थाय, मेघ विना वृष्टि न थाय अने भोजन विना पुष्टि न थाय. १ वध्वालानं विना जात-तारुण्यारण्यचारिणः । गजा इव भवत्येवां- गजा न्यायदुमद्रुहः॥२॥ भावार्थ-तारुण्यरूप अरण्यमा संचरनारा पुत्रो, स्त्रीरूप आलानस्तंभ विना हाथीओनी जेम न्यायरूप वृक्षनुं उन्मूलन करनारा नीवडे छे. २ विचारपयसां कामगवी-र्वाचो महात्मनाम् । दूषयंत्यो न मे नार्यो मार्जार्य इव संमताः॥३॥ Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६६ ) भावार्थ- विचाररूप दूधने पेदा करवामां कामधेनु समान एवी महात्माओनी वाणीने पण दूषित करनार eat मार्जारी ( बिलाडी ) समान स्त्रीओ मने संमत नथी. ३ व्यवहारपरिज्ञान- मंतरेण पुमान्ननु । पठितोऽपि भवेन्मूर्खः प्रियश्रोत्रियविप्रवत् ॥ ४ ॥ भावार्थ — व्यवहारना परिज्ञान विना पुरुष भणेल होय, तथापि ते प्रिय श्रोत्रिय ब्राह्मणनी जेम मूर्ख गणाय छे. ४ वरं वज्रनिपातेन शतधा चूर्णितं शिरः । न तु निर्धर्मनारीवाग्विश्वा सोपहतं मनः ॥ ५ ॥ भावार्थ- वज्रना पडवाथी शिरना सेंकडो कटका थई जाय, ते सारा, पण अधर्मी स्त्रीना वचनपरना विश्वासथी जो मन हणायेल होय, तो ते खराब छे. ५ वनितावाक्यजंबाले विघ्ने पुण्याध्वचार्यपि । स्खलित्वा निपतत्येव बुद्धिमान्बलवानपि ॥ ६ ॥ भावार्थ- पुण्यना मार्गेज सदा चालनार एवो बुद्धिमान् या बलवान् पुरुष होय, छतां ते स्त्रीवाक्य Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६७, रूप कादवना विघ्नमा स्खलना पामीने अवश्य पतित थायज छे..६ विषवृक्ष इवापास्यो भ्रष्टशीलः पुमानपि। कल्पवल्ल्य इवोपास्याः सुशीला महिला अपि __ भावार्थ-पोताना सदाचारथी भ्रष्ट थयेल एवा पुरुषनो पण विषवृक्षनी जेम त्याग करवो अने जो स्त्री सुशील होय, तो तेनो कल्पलतानी जेम सदा आदर करवो. ७ विजतेव्या लंका चरणतरणीयो जलनिधिविपक्षः पौलस्त्यो रणभुवि सहायाश्च कपयः । तथाप्याजौ रामः सकलमवधीदाक्षसकुलं क्रियासिद्धिः सत्त्वे वसति महतां नोपकरणे ९ __भावार्थ-लंकाने जीतवी, पगे समुद्र तरवो, रावण जेवो शत्रु अने रणसंग्राममां सहाय करनारा वानरोहता तथापि रामचंद्रे बधा राक्षसकुळनो नाश करी दीधो. आ परथी एम साबीत थाय छे के क्रिया सिद्धि-तो महापुरुषोना सत्त्वमांज रहेल छे, पण तेमना साधनोमां नथी. ९ Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६८) वैद्या वदंति कफपित्तमरुद्विकारं ज्योतिर्विदो ग्रहगतिं परिकल्पयंति । भूतोपसर्गमिति मंत्रविदो वदंति प्राचीनकर्म बलवन्मुनयो वदंति१० ___ भावार्थ-वैद्योने ज्यारे व्याधिसंबंधी कांइ कारण पूछवामां आवे, त्यारे तेओ कफ, पित्त अने वायुनो विकार बतावे छे, ज्योतिषीओ ग्रहनी वक्रता बतावे छे, भुवाओने पूछवामां आवतां तेओ भूतनो वळगाळ बतावे छे अने महात्माओने पूछतां तेओ प्राचीन कर्म बळवान् छे-एम बतावे छे. १० विना गुरुभ्यो गुणनीधिभ्यो जानाति तत्त्वं न विचक्षणोऽपि । आकर्णदी|ज्वललोचनोऽपि दीपं विना पश्यति नांधकारे ॥११॥ भावार्थ-गुणोना निधान एवा गुरु महाराज विना विचक्षण पुरुष पण तत्वने जाणी शकतो नथी. कारण के कान सुधी लांबा लोचन होवा छतां ते दीपक विना अंधकारमा जोइ शकतो नथी. ११ वेश्या रागवती सदा तदनुगा षड्भी रसैर्भोजनं Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६९) शुभं धाम मनोहरं वपुरहो नव्यो वयःसंगमः कालोऽयं जलदाविलस्तदपि यः कामं जिगायादरात्तं वंदे युवतिप्रबोधकुशलं श्रीस्थूलिभदं मुनिम् भावार्थ-अहो! ज्यां वेश्या सदा अनुरूप अने रागवती हती, ज्यां षड्रस-भोजन अने रमणीय भवन, मनोहर शरीर अने यौवनावस्थानो योग, तथा वरसाद ऋतु-ए प्रमाणे संयोगो होवो छतां कामदेवने जेणे लीलामात्रथी जीती लीधोः एवा युवतिजनने प्रतिबोध पमाडनार श्रीस्थूलिभद्र महामुनिने नमस्कार थाओ. १२ वृतिश्चेत्खादति क्षेत्रं चेनिहंति पिता सुतम् । जलं चेज्ज्वालयत्यंगं दीपः किरति चेत्तमः॥१३॥ भावार्थ-जो वाड पोतेज क्षेत्रनुं भक्षण करवा तत्पर थाय, पिता पोतेज पोताना पुत्रनो घात करवा तैयार थाय, पाणी जो अंगने बाले अने दीपक जो अंधकारने फेंके तो क्यां पोकार करवो. १३ वरं बुभुक्षासहनं गहनं सेवितं वनम् । न तृप्तिरपि दुःकर्म-प्रभवैर्विभवैः पुनः॥ १४ ॥ २४ Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७०) भावार्थ-क्षुधा सहन करवी अथवा तो भयंकर वनमां जइने वसवू ते सारूं छे, परंतु दुष्कर्मथी पेदा थता वैभवथी तृप्ति करवी ते सारी नथी. १४ वायुना यत्र नीयंते कुंजराः षष्ठिहायनाः। गावस्तत्र न गण्यते मशकस्य च का कथा॥१५॥ भावार्थ-ज्यां छ वरसना हाथीओने वायु घसडी जाय छे, अने गायोनी ज्यां गणनाज नथी, त्यां म. शक (मच्छर ) नी तो वात जशी करवी ? १५ वने रतिविरक्तानां रक्तानां च जने रतिः । अनवस्थितचित्तानां न वने न जने रतिः॥१६॥ __ भावार्थ-विरक्त जनोने वनमां आनंद मळे छे, अने संसारी जनोने माणसोमां आनंद उपजे छे, पण जेओ अनवस्थित मनवाळा छे, तेओ तो वनमां के जनमां क्यां पण आनंद पामी शकता नथी. १६ वृश्चिके मांत्रिका भग्नाः क्षये भग्ना भिषग्वराः। स्वभावे तार्किकाभग्नाः स्त्रीषु भग्नं जगत्त्रयम्१७ भावार्थ-मांत्रिको वींछीना वेण उतारतां थाक्या, Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ((258) वैद्यो क्षयरोगनो प्रतीकार करता करतां भांग्या अने तार्किक जनो स्वाभाविक पदार्थने सिद्ध करतां थाक्या तथा स्त्रीओमां त्रणे जगत भग्न थयुं. १७ विग्रहमिच्छंति भटा वैद्याश्च व्याधिपीडितं लोकम् मृतक बहुलं च विप्राः क्षेमसुभिक्षं च निर्ग्रथाः १८ भावार्थ - सुभट जनो लडाइने इच्छे छे, वैद्यो व्याधिथी पीडाता लोकोने इच्छे छे, ब्राह्मणो वणाना मरणने इच्छे छे अने निग्रंथो सुभिक्ष ( सुकाळ ) अने कुशळने इच्छे छे. १८ वैद्यो हि नीरुजं दत्ते गीः प्रज्ञां भूपतिर्धनम् । त्वमेकः सर्वकार्येषु प्रभुः केनोपमीयसे ॥ १९ ॥ मावार्थ —–वैद्य कदाच प्रसन्न थाय, तो ते आरोग्य आपे छे, वाणी ( सरस्वती ) प्रज्ञा ( बुद्धि ) ने आपे छे, अने राजा संतुष्ट थाय तो धन आपे छे, पण हे नाथ ! आप एकला सर्व कार्योमां समर्थ छो, एटले आपनी कोइनी साथे उपमा आपवी घटती नथी. १९ विषवल्ली विनाशाय प्रायः पार्श्वे निषेदुषाम् । भवद्वयविनाशाय ध्यातमात्रा अपि स्त्रियः ॥२०॥ Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७२) भावार्थ-विषलता जेम पासे बेसनाराओनो प्रायः विनाश करे छ, तेम स्त्रीओनुं चिंतनमात्र करतां-ते बने भवोनो विनाश करे छे. २० विद्यमानापि विद्या चेदुःखिनां नोपयुज्यते । समानेऽनुपकारित्वे तत्ते मे च किमन्तरम् ॥२॥ __ भावार्थ-विद्या विद्यमान छतां ते जो दुःखी जनोना उपयोगमां न आवे, तो अनुपकारित्व (उपकाराभाव ) समान होवाथी तारामां अने मारामां अंतर शुं छे ? २१ व्याजे स्यादिगुणं वित्तं व्यवसाये चतुर्गुणम् । कृषौ दशगुणं प्रोक्तं पात्रेऽनंतगुणं भवेत्॥२२॥ __भावार्थ-व्याजमां धन बमणुं थाय छे, व्यापारमां चारगणुं थाय, खेतीमां दशगणु थाय, अने सुपात्रे अनंतगणु थाय एम कहेवामां आवेल छे. २२ विहाय पौरुषं यो हि दैवमेवावलंबते । प्रासादसिंहवत्तस्य मूर्ध्नि तिष्ठति वायसाः॥२३॥ भावार्थ-जे लोको पौरुष ( पुरुषार्थ ) नो त्याग Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७३) करीने मात्र देवनुज आलंबन लेवा जाय छे, प्रासादना शिखर पर रहेल सिंहनी जेम तेमना मस्तकपर कागडा बेसे छे. २३ व्याधितस्यार्थहीनस्य देशांतरगतस्य च । नरस्य शोकदग्धस्य सुहृदर्शनमौषधम् ॥२४॥ . भावार्थ--व्याधिग्रस्त, धनहीन, देशांतर गयेल, अने शोकदग्ध-एवा पुरुषने मित्रनुं दर्शन-ते औषधरूप छे. २४ वरं वनं व्याघगजेंद्रसेवितं द्रुमालयः पक्कफलांबु भोजनम् । तृणानि शय्या परिधानवल्कलं न बंधुमध्ये धनहीनजीवितम् ॥ २५॥ भावार्थ-व्याघ्र अने गजेंद्रोथी सेवित एवा वनमां वास करवो-ते सारं छे, वृक्षोमां घर करी रहेg सारं, पाका फळ अने जंगलना जळगें भोजन करवु-ते सारं, तणखलानी शय्यामां शयन करवू सारं अने वल्कलना वस्त्रो पहेरवां सारां-पण पोताना बंधुओमां धनहीन थईने रहेवू-ते सारं नहि. २५ Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७४ ) विद्या विवादाय धनं मदाय शक्तिः परेषां परपीडनाय । खलस्य साधोर्विपरीतमेतद् ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय ॥ २६ ॥ भावार्थ - दुर्जन पुरुष पोतानी विद्यानो विवादमां उपयोग करे छे, धन प्राप्त थतां मदोन्मत्त बने छे अने शक्ति मळतां ते बीजाओने सतावे छे अने सत्पुरुष विद्याने ज्ञानमां वापरे छे, धनने दानमां अने शक्तिने परना रक्षणमां वापरे छे - एम बनेमां विपरीतता रहेल छे. २६ विरला जानंति गुणान् विरलाः कुर्वति निर्धने स्नेहम् । विरलाः परकार्यरताः परदु:खेनातिदुःखिता विरलाः ॥ २७ ॥ 1 भावार्थ - जगतमां गुणोने जाणनारा पुरुषो विरला होय छे, निर्धनपर स्नेह करनारा विरला होय छे, परकार्य करनारा विरला होय छे, अने परदुःखथी दुःखित थनारा तो विरलाज होय छे. २७ वृक्षेषु कल्पविटपी मनुजेषु चक्री शैलेषु कांच Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७५ ) नागरिस्त्रिदशेषु शक्रः । संजीवनेषु जलदः सुभगेषु लक्ष्मीः कृत्येषु धर्ममयकृत्यमपि प्रधानम् २८ भावार्थ - वृक्षोमां जेम कल्पवृक्ष, माणसोमां जेम चक्रवर्ती, पर्वतोमां जेम मेरुपर्वत, देवताओमां जेम इंद्र, संजीवनोमां जेम मेघ अने सुभग ( भाग्यवंत ) जनोमां जेम लक्ष्मी - तेम सर्व कृत्योमां धर्मकृत्य सर्वोत्कृष्ट छे. २८ व्याकुलेनापि मनसा धर्मः कार्यो निरंतरम् । मेढीबद्धोऽपि हि भ्राम्यन् घासग्रासं करोति गौः भावार्थ-व्याकुल मनथी पण धर्म तो निरंतर करवोज. कारण के खीले बांधेल बळद पण फरतो फरतो ते घासचारो चर्या करे छे. २९ विशिष्टकुलजातोऽपि यः खलः खल एव सः । चंदनादपि संभूतो दहत्येव हुताशनः ॥ ३० ॥ भावार्थ - विशिष्ट कुळमां जन्म पाम्या छतां जे दुर्जन छे-ते तो दुर्जनज रहेवानो. कारण के चंदनथी उत्पन्न थयेल अग्नि पण बाळे तो छेज. ३० वासो बहूनां कलहो वार्त्ता चैव द्वयोरपि । एक एव चरेद्योगी कुमार्या इव कंकणम् ॥ ३१ ॥ Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७६ ) भावार्थ-घणा जनोनो एकीसाथे निवास-ते कलहरूप छे अने ज्यां बे होय, त्यां वार्ता थाय. माटे कुमारीना कंकणनी जेम योगीए एकलाज रहे, वधारे सारं छे. ३१ व्यादीभ्रुण चलेन वक्रगतिना तेजस्विना भोगिना नीलाब्जातिनाहिना वरमहं दष्टो न तच्चक्षुषा । दृष्टः संति चिकित्सका दिशि दिशि प्रायेण धर्मार्थिनो मुग्धाक्षीक्षणवीक्षितस्य न हि मे मंत्री नवाप्यौषधम् ॥ ३२॥ भावार्थ-लांबो, चलायमान, वांकी गतिथी चालनार, तेजस्वी अने नील कमळ समान श्याम एवो कदाच मने सर्प दशे तो सारं. पण स्त्रीनी नजर मारापर न पडे तो सारं. कारण के सर्पना वैद्यो तो केटलाक चारे दिशामां धर्मनी खातर मने मळी शकशे, परंतु पेली मुग्धाक्षीना लोचननो जो विकार लाग्यो, तो मने मंत्र के औषध क्या मळनार नथी. ३३ वरं प्राणपरित्यागो न तु व्रतस्य खंडनम् । प्राणत्यागे क्षणं दुःखं नरकं व्रतखंडने ॥ ३३॥ Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७७ ) भावार्थ - प्राणनो त्याग करी देवो ते सारं छे, पण व्रतनो भंग करवो - ते सारुं नहि. कारण के प्राणनो त्याग करतां मात्र एक क्षणवार दुःख थाय छे अने व्रतनो भंग करतां नरकतुं दुःख भोगववुं पडे छे. ३३ वरं प्रज्वलिते वह्ना वह्नाय निहितं वपुः । -न पुनर्गुणसंपन्ने कृतः स्वल्पोऽपि मत्सरः ॥ ३४ ॥ भावार्थ – प्रज्वलित अग्निमां शरीरने तरत झपलावी देवुं - ते सारुं छे, पण गुणसंपन्न पुरुषनो लेश पण मत्सर करवो, ते सारुं नथी. ३४ वृक्षं क्षीणफलं त्यजंति विहगाः शुष्कं सरः सारसा निर्दव्यं पुरुषं त्यजति गणिका भ्रष्टं नृपं मंत्रिणः । पुष्पं पर्युषितं त्यजति मधुपा दग्धं वनांतं मृगाः सर्वे कार्यवशाज्जनोऽभिरमते तत्कस्य को वल्लभः ॥ ३५ ॥ भावार्थ- वृक्षने फळहीन जोइने पक्षीओ तेनो त्याग करे छे, शुष्क सरोवरने जोईने हंसो तेनो त्याग Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७८) करे छ, द्रव्यहीन पुरुषनो गणिकाओ तथा भ्रष्ट राजानो मंत्रीओ त्याग करे छे, गंध विनाना पुष्पनो मधुकरो अने दग्ध वननो मृगलाओ त्याग करे छे. अहो! खरेखर बधा लोको पोताना स्वार्थने लीधेज पासे आवे छे. तेथी एम जणाय छे के कोइ कोइने वल्लम नथी. ३५ वस्त्रहीनस्त्वलंकारो घृतहीनं च भोजनम् । स्तनहीना च या नारी विद्याहीनं च जीवनम् ३६ भावार्थ-वस्त्रहीन अलंकार, घी विनानुं भोजन, स्तन विनानी स्त्री अने विद्या विनानुं जीवन खरेखर ! वृथा छे. ३६ विद्या शस्त्रं च शास्त्रं च द्वे विद्ये प्रतिपत्तये। आद्या हास्याय वृद्धत्वे द्वितीयादियते सदा॥३७॥ भावार्थ-शस्त्रविद्या अने शास्त्रविद्या ए बे विद्या जगतमां वधारे उपयोगनी छे, तेमां शस्त्रविद्या तो वृद्धावस्थामां हांसी करावे छेज अने शास्त्रविद्या सदा उपयोगमां आवे छे. ३७ Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७९ ) वित्तेन किं वितरणं यदि नास्ति दीने किं सेवया यदि परोपकृतौ न यत्नः । किं संगमेन तनयो यदि नेक्षणीयः किं यौवनेन विरहो यदि वल्लभायाः ३८ भावार्थ- जो दिन जनोने दान आपवामां न आवे तेवा धनथी शुं ? जो परोपकारमां प्रयत्न करवामां न आवे तो सेवाथी शुं ? जो दर्शनीय ( देखावडो ) पुत्र न थाय - तो स्त्रीसंगथी शुं १ अने जो व्हालीनो विरह होय, तो तेवा यौवनथी शुं ? ३८ विद्यातीर्थे जगति विबुधाः साधवः सत्यतीर्थे. गंगातीर्थे मलिनमनसो योगिनो ध्यानतीर्थे । धारातीर्थे धरणिपतयो दानतीर्थे धनाढ्या लज्जातीर्थे कुलयुवतयः पातकं क्षालयति ॥ ३९॥ . भावार्थ - जगतमां सुज्ञ जनो विद्यारूप तीर्थमां पोताना पातकने धुए छे, साधुओ सत्य - तीर्थमां, म-लिनमनवाळा गंगा- तीर्थमां, योगीओ ध्यान - तीर्थमां, राजाओ धारा - तीर्थमां, धनवंतो दान - तीर्थमां, अने Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८० ) कुलीन कांताओ लज्जा - तीर्थमां पोताना पातकने प्रक्षाले छे. ३९ विद्यार्थी च धनार्थी च स्त्रियोऽर्थी च विशेषतः । अलसा न भवत्येते तथैवं कौतुकप्रियाः ॥ ४० ॥ भावार्थ - विद्यार्थी, धनार्थी, कौतुकार्थी अने विशेपथी स्त्रीनो अर्थी - एटला प्रकारना पुरुषो आळसु होता नथी. ४० विषस्य विषयस्यैव दृश्यते महदंतरम् । उपभुक्तं विषं हंति विषयः स्मरणादपि ॥ ४१ ॥ भावार्थ - विष अने विषयमां बहुज मोटुं अंतर जोवामां आवे छे. कारण के विष तो उपभोगथी मारे छे अने विषय तो स्मरणमात्रथी पण मारे छे. ४१ विदुषां च कुलीनानां धनिनां धर्मिणामपि । ततस्तद्विपरीतानां प्रीतिः सादृश्यतो भवेत् ॥४२॥ भावार्थ - विद्वानो, कुलीन जनो, धनवंती, धर्मी जनो अने तेमनाथी विपरीत एटले मूर्ख, अकुलीन विगेरे - एमनी परस्पर प्रीति समानताथी थाय छे. ४२ Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८१ ) वने रणे शत्रुजलाग्निमध्ये महार्णवे पर्वतमस्तके वा सुप्तं प्रमत्तं विषमस्थितं वा रक्षति पुण्यानि पुराकृतानि ॥ ४३ ॥ भावार्थ - वनमां, रणसंग्राममां, शत्रु, जळ के अग्निना मध्यभागमां, महासागरमां अथवा तो पर्वतना म स्तकपर प्राणी सुतेल होय, प्रमत्त के बुरी अवस्थामां पडेल होय, छतां पूर्वे करेल पुण्यो तेनी रक्षा करे छे. ४३ वैरूप्यं व्याज पिंडः स्वजनपरिभवः कार्यकालानिपातो विद्वेषो ज्ञाननाशः स्मृतिमतिहरणं विप्रयोगश्च सद्भिः । पारुष्यं तीर्थसेवा कुलगुरुचलना धर्मकामार्थहानिः कष्टं भो षोडशैते निरुपचयकरा मद्यपानस्य दोषाः ॥ ४४ ॥ भावार्थ - विरुपता, कपटभाव, स्वजनथी परिभव, कार्य-कालनी भ्रष्टता, विद्वेष, ज्ञाननो नाश, स्मरण अने मतिनो भ्रंश, संत जनो साथै वियोग, कठिनता, तीर्थसेवा तथा कुलगुरुथी विमुखता, तथा धर्म, काम अने अर्थनी हानि - अहो ! बहु खेदनी वात छे के म Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८२) द्यपानथी नीपजता, क्षयकारी आ सोळ दूषणो बता. बवामां आव्या छे. ४४ वनेऽपि सिंहा मृगमांसभक्षिणो बुभुक्षिता नैव तृणं चरंति । एवं कुलीना व्यसनाभिभूता न नीचकर्माणि समाचरंति ॥४५॥ भावार्थ-मृगना मांसनुं भक्षण करनारा सिंहो क्षुधातुर थतां वनमां तेओं कदापि घासनुं भक्षण करता नथी. तेम कुलीन जनो संकटमां आव्या छता तेओ कदापि नीच कर्मों करता नथी. ४५ व्यापारांतरमुत्सृज्य वीक्षमाणो वधूमुखम् । यो गृहेष्वेव निदाति दरिदाति स दुर्मतिः॥४६॥ भावार्थ-जे अन्य प्रवृत्तिनो त्याग करी मात्र पोतानी स्त्रीना मुखने जोतां जोतां घरमांज आळसु थइने पड्यो रहे छे, ते दुर्मति तरतमां दरिद्र थई जाय छे.४६ विद्वानेव विजानाति विद्वजनपरिश्रमम् । नहि वंध्या विजानाति गुर्वीप्रसववेदनाम् ॥४७॥ Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३८३) . भावार्थ-विद्वानोना परिश्रमने तो जे विद्वान् होयतेज जाणी शके छे. वंध्या स्त्री कांई सगर्भा स्त्रीना प्रसवनी वेदनाने जाणती नथी. ४७ वह्निस्तस्य जलायते जलनिधिः कुल्यायते तत्क्षणान्मेरुः स्वल्पशिलायते मृगपतिः सद्यः कुरंगायते। व्यालो माल्यगुणायते विषरसः पीयूपवर्षायते यस्यांगेखिललोकवल्लभतमं शीलं समुन्मीलति ॥४८॥ भावार्थ-समस्त लोकोने वल्लभ एबुं शीयळ जेना शरीरमां उल्लासमान छे, तेने आग्नि जळसमान भासे छे, समुद्र एक नीक समान लागे छे, मेरुपर्वत एक नानी शिलासमान लागे छे, सिंह, गरीब हरिण समान भासे छे, भयंकर सर्प, पुष्पमाळा समान लागे छे, अने विष, तेने अमृतनी धारा समान लागे छे. ४८ वृक्षायवासी न च पक्षिराजस्त्रिनेत्रधारी न च शूलपाणिः। त्वग्वस्त्रधारी न च सिद्धयोगी जलं च विभ्रन्न घटो न मेघः॥४९॥ Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८४ ) - भावार्थ — जे वृक्षना अग्रभाग पर रहेनार छतां पक्षिराज नथी, त्रण नेत्रवाळो छतां (शंकर) नथी, वल्कलवस्त्रने धारण करनार होवा छतां सिद्धयोगी नथी अने पाणीने धारण करनार होवा छतां घट के मेघ नथी. खरेखर ! ते नाळीयेर हशे ४९ वरं करीरो मरुमार्गवर्त्ती यः पांथसार्थं कुरुते कृतार्थम् । कल्पद्रुमैः किं कनकाचलस्थैः परो - पकारप्रतिलंभदुःस्थैः ॥ ५० ॥ भावार्थ - मारवाडनी भूमिमां रहेल केरडानुं वृक्ष सारु के जे मुसाफरोने कृतार्थ करे छे, परंतु मेरुपर्वत पर आवेल कल्पवृक्षोथी शुं ? के जेओ कंई पण परोपकार करता नथी. ५० वरं पर्वतदुर्गेषु भ्रांतं वनचरैः सह । न मूर्खजनसंसर्गः सुरेंद्रभवनेष्वपि ॥ ५१ ॥ भावार्थ - भयंकर पर्वतो अने वनोमां जंगली प्राणीओ साथे भ्रमण करवुं ते सारुं छे, पण इंद्र महाराजना भवनमां पण मूर्खजन साथै संसर्ग करवो- ते सारुं नथी. ५१ Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८५ ) विद्या नाम नरस्य रूपमधिकं प्रच्छन्न गुप्तं धनं विद्या भोगकरी यशः सुखकरी विद्या गुरूणां गुरुः । विद्या बंधुजनो विदेशगमने विद्यां परं दैवतं विद्या राजसु पूजिता न हि धनं विद्याविहीनः पशुः ५२ भावार्थ - विद्या - ए पुरुषनुं अधिक रूप छे, ते प्रच्छन्न अने गुप्त धन छे, विद्या - मोग यश अने सुखने आपनार छे, ते गुरुनी पण गुरु छे, परदेशगमनमां ते बंधुजनोनी गरज सारे छे, विद्या-ए परम दैवत छे, धन नहि पण विद्या राजाओमां पण पूजाय छे, माटे जे विद्याहीन छे, ते साक्षात् पशुसमान छे. ५२ विद्वत्त्वं च नृपत्वं च नैव तुल्यं कदाचन । स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान्सर्वत्र पूज्यते ॥ ५३॥ भावार्थ - विद्वानपणुं अने राजापणुं - ए कदापि समान तो गणी शकायज नहि. कारण के राजा पोताना देशमांज मात्र पूजाय छे, अने विद्वान् सर्वत्र पूजाय छे. ५३ २५ Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८६ ) वपुः पवित्रीकुरु तीर्थयात्रया चित्तं पवित्रीकुरु धर्मवांछया। वित्तं पवित्रीकुरु पात्रदानतः कुलं पवित्रीकुरु सच्चरित्रतः॥५४॥ ___ भावार्थ-हे भद्र ! तुं तीर्थयात्राथी तारा देहने पावन कर, धर्मनी वांछनाथी तारा चित्तने पवित्र कर, सुपात्र दानथी तारा धनने पवित्र कर अने सदाचार थी तारा कुळने पवित्र कर. ५४ वृद्धस्य मृतभार्यस्य पुत्राधीनधनस्य च । स्नुषावचनदग्धस्य जीवितान्मरणं वरम् ॥५५॥ ___ भावार्थ-वृद्ध, जेनी स्त्री मरण पामेल छे, जेनुं धन पुत्राधीन छे अने जे स्त्रीना वचनथी दग्ध थयेल छे-तेवा पुरुषने जीववा करतां मरवू ते वधारे सारं छे. विश्वासायतनं विपत्तिदलनं देवैः कृताराधनं मुक्तेः पथ्यदनं जलानिशमनं व्याघोरगस्तंभनम् । श्रेयः संवननं समृद्धिजननं सौजन्यसंजीवनं कीर्तेः केलिवनं प्रभावभवनं सत्यं वचः पावनम् Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८७ ) भावार्थ - पवित्र एवं सत्यवचन ते विश्वासना स्थानरूप छे, विपत्तिने ते दळनार छे, देवोने ते आराध चालायक छे, मुक्तिमार्गमां ते एक भातारूपं छे, जळ अने अग्निना उपद्रवने ते दूर करनार छे, वाघ, अने सर्पने ते स्तंभनार छे, कल्याण तथा समृद्धिने ते उत्पन्न करनार छे, सौजन्यना ते जीवनरूप छे, कीर्तिना केलिवन समान अने प्रभावना ते भवनरूप छे. ५६ वंद्यते यदवंद्योऽपि यदपूज्योऽपि पूज्यते । गम्यते यदगम्योऽपि स प्रभावो धनस्य तु ॥ ५७॥ भावार्थ – अवंद्य पण बंदाय, अपूज्य पण पूजाय अने अगम्य पण गम्य थाय ते मात्र धननोज प्रभाव समजवो. ५७ वरं रेणुर्वरं भस्म नष्टश्रीर्न पुनर्नरः । मुक्तवैनं दृश्यते पूजा कापि पर्वणि पूर्वयोः ॥ ५८ ॥ भावार्थ - रज अने भस्म सारां, परंतु धनहीन पुरुष सारो नहि जुओ रज अने भस्म कोई पर्वना दिवसे पूजाय छे, पण धनहीन तो नकामोज छे. ५८ Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८८ ) वेश्यासौ मदनज्वाला रूपेंधनसमन्विता । कामिभिर्यत्र हूयंते यौवनानि धनानि च ॥५९॥ भावार्थ-वेश्या-ए मदननी ज्वाला छे तथा ते रूप-इंधनथी युक्त छे. ज्यां कामी जनो बिचारा पोताना यौवन अने धनने होम्या करे छे. ५९ विषयगणः कापुरुषं करोति वशवर्त्तिनं न सत्पुरुषम् । बध्नाति मशकमेव लूतातंतुर्न मातंगम् ॥ ६०॥ भावार्थ-विषयो मात्र कायर पुरुषोनेज वश कर छे, परंतु सत्पुरुषने ते वश करी शकता नथी. कारण के कोयवाडाना तंतु मच्छरने बांधी शके छे, पण मातंग (हस्ती) ने ते बांधी शकता नथी. ६० वैद्यराज नमस्तुभ्यं यमराजसहोदर। यमस्तु हरति प्राणान् वैद्यः प्राणान् धनानि च ६१ भावार्थ-हे वैद्यराज! तने नमस्कार छे. खरेखर ! तुं यमराजनो भाई लागे छे. यम तो मात्र प्राणोनेज Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८९ ) हरे छे अने वैद्य तो प्राण अने धन-ए बनेनुं हरण करे छे. ६१ वैरवैश्वानरव्याधि-वादव्यसनलक्षणाः । महानर्थाय जायंते वकाराः पंच वर्धिताः ॥ ६२ ॥ - भावार्थ वैर, अग्नि, व्याधि, वाद अने व्यसन-ए पांच बकार वधारवामां आवे तो ते महा अनर्थकारी थाय छे. ६२ वक्रत्वेन यथा लोके गौरवं नार्जवे तथा । द्वितीयायां शशी वंद्यः पूर्णिमायां यतो न हि ॥ ६३॥ भावार्थ वक्रपणाथी लोकोमां जेवुं गौरव प्राप्त थाय छे, तेवुं सरलतामां गौरव नथी. जुओ, बीजनो चंद्र वंदनीय गणाय छे, तेम पूर्णिमानो चंद्र वंद्य गणातो नथी. ६३ - बरं कारागृहक्षिप्तो वरं देशांतरभ्रमी । वरं नरकसंचारी न द्विभार्यः पुनः पुमान् ॥ ६४ ॥ भावार्थ - केदखानामां पड्या रहेवुं - ते सारु, परदे - देशमां भमघुं, ते पण सारुं अने नरकमां संचार करवो - ते सारं, पण पुरुषे बे स्त्री करवी सारी नहि. ६४ Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३९०) विपदि धैर्यमथाभ्युदये क्षमा सदसि वाक्पटुता युधि विक्रमः । यशसि चाभिरुचिर्व्यसनं श्रुतौ प्रकृतिसिद्धमिदं हि महात्मनाम ॥१५॥ भावार्थ-विपत्ति आवे त्यारे धैर्य धारण कर, अभ्युदयमा क्षमा, सभामा वाणीनी पटुता, रणसंग्राममा पराक्रम, यशमां अभिरुचि, तथा शास्त्रमा व्यसन-आ गुणो, महात्माओमां स्वभावथीज सिद्ध होय छे. ६५ विद्या नाम नरस्य कीर्तिरतुला भाग्यक्षये चाश्रयो धेनुः कामदुधा रतिश्च विरहे नेत्रं तृतीयं च सा। सत्कारायतनं कुलस्य महिमा रत्नैर्विना भूषणं तस्मादन्यमुपेक्ष्य सर्वविषयं विद्याधिकारं कुरु ६६ भावार्थ-विद्या-ए पुरुषनी अतुल कीर्तिरूप छे, भाग्यनो क्षय थतां ते आश्रयरूप छे, ते कामधेनु समान छे, विरहमां ते रतिरूप छे, ते तृतीय नेत्र समान छे, ते सत्कारना स्थानरूप छे, पोताना कुळना ते महिमारूप छे, अने रत्न विना ते भूषणरूप छे-माटे Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३९१) हे मित्र ! अन्य सर्व बाबतनी उपेक्षा करीने मात्र विद्यानीज उपासना कर. ६६ वेश्यानामिव विद्यानां मुखें कैः कैर्न चुंबितम् । हृदयग्राहिणस्तासां द्वित्राः संति न संतिवा॥६॥ भावार्थ-वेश्याओनी जेम विद्याओना मुखनुं पण कोणे कोणे चुंबन करेल नथी ? परंतु तेने हृदयथी ग्रहण करनारा तो मात्र बेत्रणज हशे, अथवा तो ते पण नहि होय. ६७ विदुषां वदनाद्वाचः सहसा यांति नो बहिः। याताश्चेन्न परांचंति द्विरदानां रदा इव ॥ ६८॥ भावार्थ-विद्वान जनोना मुखथी विचार विना वाणी बहार नीकळती नथी. अने बहार नीकळ्या पछीते हाथीओना दांतनी जेम पाछी फरती नथी. ६८ विद्या विनयोपेता हरति न चेतांसि कस्य मनुजस्य । कांचनमणिसंयोगो नो जनयति कस्य लोचनानंदम् ॥ ६९॥ भावार्थ-विनययुक्त विद्या कया मनुष्यना मनन Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३९२) हरण करती नथी. कारण के कांचन अने मणिनो संयोग कोना लोचनने आनंद न पमाडे. ६९ वरं दरिदः श्रुतिशास्त्रपारगो न चापि मूर्यो बहुरत्नसंयुतः । सुलोचना जीर्णपटापि शोभते न नेत्रहीना कनकैरलंकृता ॥ ७० ॥ ___ भावार्थ-दरिद्र छतां जो शास्त्रनो पारंगत होय तो ते सारो परंतु बहु धनयुक्त मूर्ख सारो नहि. सारा लोचनवाळी स्त्री जीर्णवस्त्रथी पण शोभे छे परंतु ते नेत्रहीन होय अने आभूषणोथी अलंकृत करवामां आवेल होय छतां ते शोभती नथी. ७०। ___ व्यालं बालमृणालतंतुभिरसौ रोडुं समुज्जभते छेत्तुं वज्रमणीशिरीषकुसुमप्रांतेन संनह्यते। माधुर्यं मधुविंदुना रचयितुं क्षारांबुधेरीहते नेतुं वांछति यः खलान्पथि सतां सूक्तैः सुधास्यंदिभिः ___ भावार्थ-जे पुरुष अमृत समान मधुर वचनोथी खल पुरुषोने सन्मार्गे लाववानो प्रयत्न करे छे, ते कोमळ मृणाल (तंतु ) थी मदोन्मत्त हाथीने बांध Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३९३) वानी कोशीश करे छे, कुसुमना कोमळ पत्रथी बज्रमणिने भेदवानो प्रयत्न करे छे अने ते एक मधना बिंदु. थी लवण समुद्रने मधुर करवा जेवू करे छे. ७१ विकृतिं नैव गच्छंति संगदोषेण साधवः । आवेष्टितं महास-श्चंदनं न विषायते ॥ ७२ ॥ भावार्थ-साधुजनो संगना दोषथी विकार पामता नथी. जुओ, चंदन महासर्पोथी वीटायेल छतां ते कांइ विषमय बनी जतुं नथी. ७२ वित्ते त्यागः क्षमा शक्तौ दुःखे दैन्यविहीनता। निर्दभता सदाचारे स्वभावोऽयं महात्मनाम् ७३ ___ भावार्थ-धन छतां दान आपq, शक्तिमा क्षमा, दुःखमां प्रसन्नता अने सदाचारमा निष्कपटता-ए महात्माओनो स्वभावज छे. ७३ वदनं प्रसादसदनं सदयं हृदयं सुधामुचो वाचः। करणं परोपकरणं येषां केषां न ते वंद्याः ॥७४॥ भावार्थ-जेमर्नु मुख सदा प्रसन्न छ, हृदय दयामय छे अने जेमनी वाणीमाथी सदा अमृत झरे छ Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३९५) तथा जेमना कार्यो मात्र परोपकारनी खातरज छे-ते कोने वंदनीय न होई शके ? ७४ विषमगता अपि न बुधाः परिभवमिश्रां श्रियं हि वांछंति । न पिबंति भौममंभः सरजसमिति चातका एते ॥ ७५॥ भावार्थ-बुधजनो संकटमां आव्या छतां पराभवमिश्र लक्ष्मीने इच्छता नथी. कारण के चातको तरस्या छतां रज सहित एवं भूमिर्नु पाणी पीता नथी. ७५ व्रते विवादं विमति विवेके सत्येऽतिशंकां विनये विकारम् । गुणेऽवमानं कुशले निषेधं धर्मे विरोधं न करोति साधुः ॥ ७६ ॥ ___ भावार्थ-साधुपुरुष व्रतमा विवाद, विवेकमां विकळता, सत्यमा शंका, विनयमां विकार, गुणमां अ. वज्ञा, कुशळमां निषेध अने धर्ममां विरोध करता नथी. ७६ वंद्यः स पुंसां त्रिदशाभिनंद्यः कारुण्यपुण्यो Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३९५ ) पचयक्रियाभिः संसारसारत्वमुपैति यस्य परोपकाराभरणं शरीरम् ॥ ७७ ॥ भावार्थ — कारुण्यरूप पुण्यना समूहयुक्त क्रियाओथी जेनुं शरीर परोपकाररूप भूषणसहित थईने संसारना सारपणाने पाम्युं छे - ते पुरुषोने तेमज देवोने: वंदनीय केम न होय १७७ वांछा सज्जनसंगमे परगुणे प्रीतिर्गुरौ नम्रता विद्यायां व्यसनं स्वयोषिति रतिर्लोकापवादाद्धयम् । भक्ति: शूलिनि शक्तिरात्मदमने संसर्गमुक्तिः खलेष्वेते येषु वसति निर्मलगुणास्तेभ्यो नरेभ्यो नमः ॥ ७८ ॥ भावार्थ — जेओ सत्समागमनी सदा इच्छा राखे छे, परगुणमां प्रेम धरावे छे, गुरुतरफ जेओ विनय दर्शावे छे, विद्यामां जेओ सदा शोखीन छे, स्वदारामांज जेओ संतोषी छे, लोकापवादथी जेओ भय राखे छे, भगवंतपर जेओ भक्ति धरावे छे, इंद्रियदमनमां जेओ शक्ति धरावे छे अने जेओ दुर्जनोना Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३९६ ) संगथी सदा विमुख रहे छे. तथा जेओ निर्मळ गुणोने धारण करे छे-तेवा नररत्नोने नमस्कार छे. ७८ वर्जनीयो मतिमता दुर्जनः सख्यवैरयोः। श्वा भवत्यपकाराय लिहन्नपि दशन्नपि ॥ ७९॥ __भावार्थ-मतिमान् पुरुषे दुर्जन साथे मित्राई अने वैरभाव पण न राखवो कारण के श्वान चाटे अथवा करडे तो पण तेथी अनर्थज थाय छे. ७९ वृथा ज्वलितकोपानेः परुषाक्षरवादिनः। दुर्जनस्यौषधं नास्ति किंचिदन्यदनुत्तरात् ॥८॥ भावार्थ-क्रोधाग्मिने वृथा प्रज्वलित करनार तथा कठोर वाक्य बोलनार एवा दुर्जनने अनुत्तर ( जवाब न आपवो) शिवाय अन्य कंइ औषध नथी. ८० वरमत्यंतविफलः सुखसेव्यो हि सज्जनः। न तु प्राणहरस्तीक्ष्णःशरवत्सफलः खलः॥८॥ ___ भावार्थ-कंई पण फळ प्राप्त न थाय, छतां सजन पुरुषनी सेवा करवी ते सारी छे, परंतु तीक्ष्ण बाणनी जेम प्राणर्नु हरण करनार एवा खल पुरुषनी सेवा करवी-ते फलसहित होय तो पण ते खराब छे.८१ Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३९७) विद्यया विमलयाप्यलंकृतो दुर्जनः सदसि मास्तु कश्चन । साक्षरा हि विपरीततां गताः केवलं जगति तेऽपि राक्षसाः ॥ ८२॥ भावार्थ-निर्मळ विद्याथी अलंकृत छतां कोई दुर्जन सभामां दाखल न थजो. कारण के साक्षरा ए शब्दने पलटावतां ते केवळ जगतमां राक्षसतरीके वपराय छे. ८२ विद्वानुपालंभमवाप्य दोषानिवर्ततेऽसौ परितप्यते च । ज्ञातस्तु दोषो मम सर्वथेति पापो जनः पापतरं करोति ॥ ८३॥. भावार्थ-विद्वान पुरुष अवगणना पामीने ते पोताना दोषथी निवृत्त थाय छे एटलुंज नहि परंतु ते दोषने माटे पश्चात्ताप करे छे अने पापी जन 'आ मारो दोष सर्वथा जाणवामां तो आवी गयो छेज' एम धारीने ते वधारे ने वधारे पापमां आसक्त थाय छे.८३ वंद्यानिंदति दुःखितानुपहसत्याबाधते बांधवाञ्छरान्द्रष्टि धनच्युतान्परिभवत्याज्ञापयत्या Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३९८) श्रितान् । गुह्यानि प्रकटीकरोति घटयन्यत्नेन वैराशयं ब्रूते शीघमवाच्यमुज्झति गुणान्गृह्णाति दोषान्खलः ॥ ८४॥ भावार्थ-खल पुरुष वंदनीय जनोनी निंदा करे छे, दुःखी जनोपर हसे छे, पोताना बांधवोने ते सतावे छे, शूर-बलवंत जनोपर द्वेष धरे छे, निर्धनोने हेरान करे छे, आश्रितोपर हुकम चलावे छे, गुप्त वातने प्रगट करे छे, खास प्रयत्नपूर्वक वैरभावने जाग्रत करे छे, तरत अकथ्य ( न बोलवा लायक ) बोले छे, गुणोनो त्याग करे छे अने दोषोनो ते स्वीकार करे छे. ८४ वरमसिधारा तरुतलवासो वरमिह भिक्षा वरमुपवासः । वरमपि घोरे नरके पतनं न च धनगर्वितबांधवशरणम् ॥ ८५॥ भावार्थ-तरवारनी धारनो झाटको सारो, वृक्षतळे वास करवो सारो, भिक्षा मागवी सारी, अथवा उपवास करवो सारो अने छेवटे घोर नरकमां पडवू सारुपरंतु धनथी गर्विष्ठ थयेला बांधवोनुं शरण लेQ-ते सारूं नथी. ८५ Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१९) वाणी दरिदस्य शुभा हितापि ह्यर्थेन शब्देन च संप्रयुक्ता । न शोभते वित्तवतां समीपे भेरीनिनादोपहतेव वीणा ॥ ८६ ॥ भावार्थ-दरिद्र पुरुषनी वाणी शुभ, हितकारी तथा अर्थ अने शब्दोथी विभूषित छतां ते धनवंतोनी पासे आदरपात्र थती नथी. कारणं के भेरीना नाद पासे वीणानो अवाज शुं काम आवे ? ८६ वासश्चर्म विभूषणं शवशिरो भस्मांगलेपः सदा ह्येको गौः स च लांगलाद्यकुशलः संपत्तिरेतादृशी। इत्यालोच्य विमुच्य शंकरमगादत्नाकरं जाह्नवी कष्टं निर्धनिकस्य जीवितमहो दारैरपि त्यज्यते ॥ ८७ ॥ __ भावार्थ-जेने मात्र चर्मरूप वस्त्र छे, मुडदांना मुंड ( मस्तक ) रूप जेने भूषण छे, सदा भस्मरूप जेने अंगलेप छे, जेने एक पोठीओ ( बळद) छे अने ते पण हळ विगेरेमां काम न आवे तेवो छ, आवा प्र Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (800) कारनी संपत्ति जोई विचारी गंगा शंकरनो त्याग करीने रत्नाकर पासे गई. अहो ! निर्धन पुरुषनुं जीवन खरेखर ! अत्यंत कष्टरूप छे के जे पोतानी : स्त्रीथी पण तजाय छे. ८७ विना कार्येण ये मूढा गच्छति परमंदिरम् । अवश्यं लघुतां यांति कृष्णपक्षे यथा शशी ॥८८॥ भावार्थ - जे मूर्ख जनो प्रयोजन विना अन्यना घरे जाय छे, तेओ कृष्णपक्षना चंद्रमानी जेम अवश्यमेव लघुताने पामे छे. ८८ वाणी रसवती यस्य भार्या पुत्रवती सती । लक्ष्मीर्दानवती यस्य सफलं तस्य जीवितम् ८९ भावार्थ - जेनी वाणी मीठाशभरी छे, जेनी स्त्रीसती अने पुत्रवती छे तथा जेनी लक्ष्मी - दानयुक्त छे, तेनुं जीवित सफळ छे. ८९ विद्या मित्रं प्रवासेषु भार्या मित्रं गृहेषु च । व्याधितस्यौषधं मित्रं धर्मो मित्रं मृतस्य च ९० भावार्थ - प्रवास ( मुसाफरी ) मां विद्या मित्रनी Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०१) गरज सारे छे, घरमा स्त्री-मित्र समान छ रोगीने औषध मित्र समान छे अने परलोकमां धर्म मित्र समान छे. ९० विश्वासप्रतिपन्नानां वंचने का विदग्धता । अंकमारुह्य सुप्तानां हंतुः किं नाम पौरुषम् ॥९॥ भावार्थ-जे पोताने विश्वासे रहेला छे-तेमने छेतरवामां कोई प्रकारनी चालाकीनी जरूर पडती नथी. कारण के जेओ पोताना उत्संग (खोळा ) मां सुतेला छे, तेमनो घात करनार शुं शूरवीर गणाय ? ९१ वारिजेनेव सरसी शशिनेव निशीथिनी। यौवनेनेव वनिता नयेन श्रीमनोहरा ॥९२॥ भावार्थ-सरोवर कमळोथी शोभे छे, रात्रि-चंद्रमाथी शोभे छे, स्त्री-यौवन-(लावण्य ) थी शोभे छ अने लक्ष्मी-न्यायथी अधिक शोभे छे. ९२ __ श्रीशांतिनाथादपरो न दानी दशार्णभदादपरो न मानी । श्रीशालिभदादपरो न भोगी श्रीस्थूलिभदादपरो न योगी ॥१॥ Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (802) भावार्थ — श्रीशांतिनाथ करता बीजो कोई दाता नथी, श्रीदशार्णभद्र समान कोई मानी नथी, श्रीशालिभद्र समान कोई भोगी नथी अने श्रीस्थूलीभद्र समान कोई योगी नथी. १ श्लोकार्थेन प्रवक्ष्यामि यदुक्तं ग्रंथकोटिभिः । परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम् ॥ २ ॥ भावार्थ — जे तत्त्व कोटी ग्रंथोमां कहेवामां आव्युं छे ते हुं तमने मात्र अर्धश्लोकमां कही बतावुं छु, ते ए के परोपकार करवाथी पुण्य उपार्जन थाय छे अने परने दु:ख देवाथी पाप बंधाय छे. २ शतं विहाय भोक्तव्यं सहस्रं स्नानमाचरेत् । लक्षं विहाय दातव्यं कोटिं त्यक्त्वा जिनं भजेत् ३ भावार्थ- सो काम तजीने भोजन करी लेवुं, हजार काम तजीने स्नान करवुं लाख काम तजीने दान आप अने कोटि काम तजीने अरिहंतनी सेवा करवी. शतेषु जायते शूरः सहस्रेषु च पंडितः । वक्ता दशसहस्रेषु दाता भवति वा न वा ॥ ४ ॥ Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०३) भावार्थ-सेंकडो पुरुषोमां एकावज शूरवीर थायले, हजारोमा एकाद पंडित थाय छे, दश हजारमा एकाद वक्ता थाय छे अने दाता तो थाय के न पण थाय. ४ शरदिन वर्षति गर्जति वर्षति वर्षासु निःस्वनो मेघः । नीचो वदति न कुरुते न इति सुजनः करोत्येव ॥५॥ भावार्थ-शरदऋतुमां मेघ गाजे छे, पण वरसतो नथी अने वर्षाऋतुमां गाज्या विना ते वरसे छे. नीच पुरुष बोले छे पण करतो नथी अने सुजन बोलतो नथी, छतां करी बतावे छे. ५ .. शैले शैले न माणिक्यं मौक्तिकं न मजे मजे। माधवो न हि सर्वत्र चंदनं न वने वने ॥६॥ ___ मावार्थ-दरेक पर्वतमां माणिक्य न झेय, रेक हाथीना कुंभस्थळमां मोती होता नथी अने जेम दरेक वनमां चंदन होतुं नथी, तेम साधु पुरुषो पण सर्वत्र होता नथीं. ६ शुचिर्भूमिगतं तोयं शुचिर्नारी पतिवता । Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०४) शुचिर्धर्मपरो राजा ब्रह्मचारी सदा शुचिः ॥७॥ - भावार्थ-भूमिपर पडेल पाणी पवित्र गणाय छे पतिव्रता स्त्री, धर्मतत्पर राजा तथा ब्रह्मचारी-ए सदा पवित्र गणाय छे. ७ शिष्टे संगः श्रुतौ रंगः सद्ध्याने धीघृतौ मतिः। दाने शक्तिर्गुरौ भक्तिः षडेते सुकृताकराः॥८॥ भावार्थ-सज्जन पुरुषनो संग करवो शास्त्रमा सद्भावना, ध्यान तथा धीरजमां बुद्धिने स्थापन करवी, दानमां शक्ति अने गुरुमां भक्ति-ए छ पुण्यना स्थान छे. ८ श्रीमजिनेशनमनं तिलकत्यलीके वक्षःस्थले विमलमालति सद्विवेकः। ताडंकति श्रवणयोः सुगुरूपदेशस्त्यागस्तु कंकणति पाणितले सतां हि भावार्थ-सज्जन पुरुषो पोताना ललाटपर श्रीमान जिनेश्वर प्रभुने नमन करवारूप तिलकने धारण करे छे, वक्षस्थळमां तेओ सद्विवेकरूप माळाने धारण करे छे, कर्णमा सुगुरुना उपदेशरूप कुंडलने धारण करे Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०५ ) छे अने हस्तमां दानरूप कंकणने तेओ धारण करे छे. ९ शशिनि खलु कलंकः कंटकाः पद्मनाले जलधिजलमपेयं पंडिते निर्धनत्वम् । स्वजनजनवियोगो दुर्भगत्वं सुरूपे धनवति कृपणत्वं रत्नद्वेषी विधाता ॥१०॥ भावार्थ-जेणे चंद्रमा कलंकनो आरोप कर्यो, कमळमां कांटा बनाव्या, समुद्रनुं पाणी जेणे खारूं बनाव्यु, पंडितमा जेणे निर्धनता आरोपी, स्वजन जननो वियोग, सुरूपमां दुर्भगत्व अने धनवंतने जेणे कृपणो बनाव्या-तेथी खरेखर विधाता रत्नद्वेषी लागे छे. १० शुनः पुच्छमिव व्यर्थं विना ज्ञानं हि जीवितम् । न गुह्यरक्षणे दक्षं न दंशमशकापहम् ॥११॥ भावार्थ-ज्ञान विनानुं जीवित, कुतरानी पूंछडीनी जेम वृथा छे, कारण के ते गुप्त भागने छुपाववामां तथा दंश के मच्छरने दूर करवामां निरुपयोगी छे.११ शक्यो वारयितुं जलेन दहनश्छत्रेण सूर्या Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४०६ ) तपो नागेंद्रो निशितांकुशेन समदी दंडेन गोगर्दभौ । व्याधिर्भेषजसंग्रहेण विविधैर्मंत्र प्रयोगैर्विषं सर्वस्यौषधमस्ति शास्त्रविहितं मूर्खस्य नास्त्यौषधम् ॥ १२ ॥ भावार्थ- पाणीथी अग्निनुं निवारण थइ शके छे छत्रथी सूर्यनो ताप निवारी शकाय छे, तीक्ष्ण अंकुशथी मदोमत्त हाथी कबजामां लावी शकाय छे, दंडवती गाय, बळद गईभ ताबामां रही शके छे, औपधथी व्याधि अटकावी शकाय छे तेमज विविध मंत्र प्रयोगोथी विष वारी शकाय - ए बधाने माटे शास्त्रविहित औषध बताववामां आवेल छे, पण मूर्खने माटे शास्त्रमां पण क्यां औषध बतावेल नथी. १२ शैशवेऽभ्यस्तविद्यानां यौवने विषयैषिणाम् वार्द्धके मुनिवृत्तीनां योगेनांते तनुत्यजाम् ||१३|| भावार्थ- बाल्यावस्थामां विद्याभ्यास करनारा, यौवनावस्थामां विषय सेवनार वृद्धावस्थामां मुनि स Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०७) मान व्रत आचरनार तथा प्रांते योगसाधनाथी देहमुक्त थनार-एवा प्राचीन आर्य जनो हता. १३ श्रीमदीरजिनो दृढपहरपाः स्वीयप्रतिज्ञादृढः श्लाध्यो बाहुबली बलोऽप्यविचलः सन्नंदिषेणो बती । आनंदः सदुपासको व्रतरुचिः सा सुंदरीत्यादयः कर्मोन्मूलनकोविदेन तपसा देवासुरैवंदिताः॥१४॥ भावार्थ--श्रीमान् वीरप्रभु, पोतानी प्रतिज्ञामां दृढ एवा दृढ प्रहारी, प्रशंसनीय बाहुबळी, अविचल बळराजा, व्रती नंदीषेण, सदुपासक आनंद तथा व्रतनी रुचिवाळी एवी सुंदरी-ए विगेरे बधा, कर्मनो नाश करवामां समर्थ एवा तपने लीधे देवोने पण वंदनीय थया छे.. शिरसा धार्यमाणोऽपि सोमः सौम्येन शंभुना। तथापि कृशतां धत्ते कष्टं खलु पराश्रयः॥१५॥ भावार्थ-सौम्य एवा शंकर, चंद्रने पोताना मस्त Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४०८ ) कपर धारण करे छे, छतां ते कृशताने पामे छे. अहो ! खरेखर ! पराधीनता - ए महाकष्ट छे. १५ शर्वरीदीपकचंदः प्रभाते रविदीपकः । त्रैलोक्यदीपको धर्मः सुपुत्रः कुलदीपकः ॥ १६ ॥ भावार्थ - चंद्रमा - ए रात्रिनो दीवो छे, सूर्य - ए प्रभातनो दीवो, धर्म - ए त्रणे लोकना दीपरूप छे अने सुपुत्र - ए कुळना दीपकरूप छे. १६ शकटं पंचहस्तेन दशहस्तेन वाजिनम् । हस्तिनं शतहस्तेन देशत्यागेन दुर्जनम् ॥ १७ ॥ भावार्थ - गाडाथी पांच हाथ दूर रहेवुं, अश्वथी दश हाथ दूर, हाथीथी सो हाथ दूर अने दुर्जनथी देशनो त्याग करीने पण दूर रहेवुं. १७ शीतमन्नं सुताजन्म दुर्वातैर्दूषिता कृषिः । स्वजनैः सह मालिन्यं स्वादहीनं चतुष्टयम् ॥ १८ ॥ भावार्थ - शीतल भोजन, पुत्रीनो जन्म, खराब वायुथी दूषित थयेल खेती, अने स्वजनो साथे कुसंपए चार स्वाद विनाना छे. १८ Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४०९ ) शौर्येण वा तपोभिर्वा विद्यया वा धनेन वा । अत्यंतमकुलीनोऽपि कुलीनो भवति क्षणात् १९ भावार्थ — अत्यंत अकुलीन छतां पुरुष, शौर्य, तप, विद्या अथवा धनथी तरत ते कुलीन थई शके छे. १९ शीतार्तानामिवार्चिष्मान् दिग्मूढानामिवांशुमान्। आतुराणामिव भिषय दुःखिनां त्वं गतिर्जिन २० भावार्थ - टाढी पीडाता प्राणीओने अग्नि जेम प्रिय लागे, दिग्मूढ थयेलाने सूर्य जेम समज पाडे अने व्याधिग्रस्त जनोने वैद्य जेम प्रिय लागे, तेम हे नाथ ( वीतराग ) ! जगतमां दुःखी थता प्राणीओना तमेज एक आधाररूप छो. २० शैत्यं नाम गुणस्तवैव तदनु स्वाभाविकी स्वच्छता किं ब्रूमः शुचितां व्रजंति सुधियः स्पर्शेन यस्यापरे । किंवातः परमस्ति ते स्तुतिपदं यज्जीवितं देहिनां त्वं चेन्नीचपथेन गच्छसि पयः कस्त्वां निरोद्धुं क्षमः भावार्थ - हे जळ ! तारामां नाम प्रमाणे शैत्य गुण रहेल छे, स्वाभाविकी स्वच्छता छे, वळी वधारे क Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४१०) हीए तो तारा स्पर्शथी अन्य अशुचि पदार्थों पण पवित्र थाय छे, वळी ते करतां आगळ वधीने कहेवा जइए, तो तुं प्राणीओना एक जीवनरूप छे-ए कांड ओर्छ स्तुतिपद नथी. आटलुं छतां जो तुं नीच मार्गे गमन करीश, तो पछी तने अटकाववाने कोण समर्थ छ ? २१ शिरःशून्याः कलाः सर्वा एकां धर्मकलां विना । इतितं धर्मबोधाय श्रेष्ठी साध्वंतिकेऽमुचत् ॥२२॥ __ भावार्थ-एक धर्मकळा विना बीजी बधी कळाओ मस्तक विनानी छे-एम धारीने श्रेष्ठीए पोतानों पुत्रने धर्मबोध पमाडवा साधु पासे मूक्यो. २२ श्यामताभिमता देहे पांडजन्मा न गौरता । तमः सर्वोत्तमं मन्ये न प्रदीपन महः॥२३॥ __ भावार्थ-पांडुरोगथी पेदा थयेल गौरता करतां तो शरीरे श्यामता श्रेष्ठ छे. आगना प्रकाश करतां तो अंधकार सर्वोत्तम छे. २३ श्रेयांसि बहुविघ्नानि भवंति महतामपि । Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४११ ) श्रेयोविधौ विलंबते तत एव न धीधनाः ॥२४॥ भावार्थ - महापुरुषोने पण सारा काममां सो विघ्नो नडे छे. ते कारणथी धीमंत जनो सारुं काम करवामां विलंब करता नथी. २४ श्रस्तं रूपं बलं लुप्तं रूद्धः कंठो हृता रदाः । जरेयताप्यतुष्टा मे चेतनामपि लिप्सते ॥ २५ ॥ मावार्थ - अहो ! जरा - राक्षसीए मारूं रूप, बळ अने दांत हरी लीधा अने कंठ निरुद्ध करी मूक्यो. आटलेथी ते संतुष्ट न थइ, तेथी ते हजी मारी चेतनाने पण लेइ लेवाने इछे छे. २५ शोभते विदुषां मध्ये नैव निर्गुणमानसः । अंतरे तमसां दीपः शोभते नर्कितेजसाम् ॥ २६ ॥ भावार्थ - निर्गुणी पुरुष विद्वानोनी सभामां शोभतो नथी. कारण के दीवो तो अंधकारमां शोभे, परंतु ते सूर्यना तेज आगळ शोभा पामतो नथी. २६ शुद्धः स एव कुलजश्च स एव धीरः विपत्स्वपि न मुंचति यः स्वभावम् । Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४१२ ) तप्तं यथा दिनकरस्य मरीचिजालैदेहं त्यजेदपि हिमं न तु शीतलत्वम् ॥ २७ ॥ भावार्थ – तेज पुरुष शुद्ध, कुलीन, धीर अने प्रशंसनीय छे के जे विपत्ति पडतां पण पोताना स्वभावने मूकतो नथी. जुओ, सूर्यना किरणोथी अत्यंत तप्त थइने हिम पोताना देहने गाळी मूकशे, परंतु ते पोतानुं शीतलपणुं कदी पण मूकशे नहि. २७ शूराः संति सहस्रशः प्रतिपदं विद्याविदोऽनेकशः संति श्रीपतयो निरस्तधनदास्तेऽपि क्षितौ भूरिशः । ये कर्मण्यनिरीक्ष्य वान्यमनुजं दुःखादितं यन्मनस्ताद्रूप्यं प्रतिपद्यते जगति ते सत्पूरुषाः पंचषाः ॥ २८ ॥ भावार्थ - जगतमां पगले पगले हजारो शूरवीर पुरुषो हो, अनेक विद्वानो हशे, कुबेरने पण परास्त करनार एवा श्रीमंतो पण संख्याबंध हशे, परंतु अन्य पुरुषने दुःखथी आकुळ- व्याकुळ जोईने तेना कर्मत Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४१३) रफ नजर न करता जेमनुं मन तद्रूप बनी जाय छेतेवा सत्पुरुषो तो जगतमा मात्र पांच छज हशे. २८ शमयति यशः क्लेशं सूते दिशत्यशिवां गति जनयति जनोद्वेगायासं नयत्युपहास्यताम् । भ्रमयति मर्तिमानं हति क्षिणोति च जीवितं क्षिपति सकलं कल्याणानां कुलं खलसंगमः २९ भावार्थ-खलपुरुषनो संग करवाथी यशनो नाश थाय छे, केशनो जन्म थाय छे, दुर्गति प्राप्त थाय छे, लोकोने ते उद्वेग उत्पन्न करे छ, हांसीपात्र बनावे छे, मतिमां भ्रम पेदा करे छे, मान ( सत्कार ) ने हणे छ जीवितने क्षीण करे छे अने समस्त कल्याणने अस्त करी दे छे. २९ ___ शीलं शातयति श्रुतं शमयति प्रज्ञां निहंत्यादरं दैन्यं दीपयति क्षमा क्षपयति बीडामपि ास्यति । तेजो जर्जरयत्यपास्यति मति विस्तारयत्यर्थितां पुंसः क्षीणधनस्य किं न कुरुते वैरं कुटुंबग्रहः ॥ ३०॥ Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४१४) भावार्थ-ज्यारे पुरुष निर्धन थाय छे, त्यारे तेनुं शील तथा श्रुत क्षीण थाय छे, प्रज्ञा (बुद्धि) हणाइ जाय छ, दीनता वधे छे, क्षमा अने लज्जा दूर थई जाय छे, तेज जर्जरित बने छ, मति भ्रमित थाय छे, याचकता वधे छे अने वधारामां तेनुं कुटुंब पण तेनी साथे विरोध करवा तत्पर थाय छे. ३० शीलं रक्षतु मेधावी प्राप्तुमिच्छुः सुखत्रयम् । प्रशंसां वित्तलाभं च प्रेत्य स्वर्गे च मोदनम् ३१ ___ भावार्थ--प्रशंसा, धनलाभ अने परभवमां स्वर्गना सुखो-ए त्रण प्रकारना सुखने जो प्राप्त करवानी इच्छा होय-तो धीमान् पुरुषोए पोताना शीलनुं बराबर संरक्षण करवू. ३१ शशिनीव हिमाद्नां धर्मार्तानां रवाविव । मनो न रमते स्त्रीणां जराजीणेंद्रिये पतौ ॥३२॥ भावार्थ-शीतथी अकळायला पुरुषोने जेम चंद्रमापर आदर न होय अने गरमीथी अकलायता पुरुषोने जेम सूर्यपर आदर न होय-तेम जराथी जीर्ण Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४१५ ) अने क्षीण थयेला पतिपर स्त्रीओ अनुराग धरावती नथी. ३२ शीततापादिकष्टानि सहते यानि सेवकः । धनाय तानि चाल्पानि यदि धर्माय मुच्यते ३३ भावार्थ - - नोकर पुरुष धननी खातर जे शीत, तापादिक कष्टो सहन करे छे, ते करतां अल्प कष्ट पण जो ते धर्मनी खातर सहन करे, तो दुःखमुक्त थई जाय. ३३ शत्रुर्दहति संयोगे वियोगे मित्रमण्यहो । उभयोर्दुःखदायित्वं को भेदः शत्रुमित्रयोः ॥ ३४॥ भावार्थ -- शत्रु ज्यारे संयोग थाय ( मळे ) त्यारे बाले अने मित्र वियोग थतां बळतरा करे- एम बने शत्रु अने मित्र दुःखदायक छे तो ए बनेमां भेद शो!३४ शूराश्च कृतविद्याश्च रूपवत्यश्च योषितः । यत्र यत्र गमिष्यंति तत्र तत्र कृतादाः ॥ ३५ ॥ मानार्थ - शूरवीर पुरुषो, विद्वानो अने रूपवती स्त्रीओ ज्यां जाय, त्यां आदर ( सत्कार ) पामे छे. ३५ Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४१६ ) शाठयेन धर्मं कपटेन मित्रं परोपतापेन समृविभावम् । सुखेन विद्यां परुषेण नारीं वांछंति ये व्यक्तमपंडितास्ते ॥ ३६ ॥ भावार्थ - जेओ शठताथी धर्मने इच्छे, कपटथी मित्रने, परने सतावीने समृद्धिने, सुखथी विद्याने अने कठोर बोलथी जेओ स्त्रीने वश करवा इच्छे छे तेओ देखती तेज मूर्ख छे. ३६ शोभते विद्यया विप्राः क्षत्रिया विजयश्रिया । श्रियोऽनुकूलदानेन लज्जया च कुलांगनाः ॥३७॥ भावार्थ - विद्याथी ब्राह्मणो शोभे छे, क्षत्रियो विजयलक्ष्मीथी शोभे छे, अनुकूळ दानथी लक्ष्मी शोभे छे अने लज्जाथी कुलीन कांताओ शोभे छे. ३७ पर्णो भिद्यते मंत्र - चतुः कर्णश्च धार्यते । द्विकर्णस्य तु मंत्रस्य बह्माप्यंतं न गच्छति ॥ १ ॥ . भावार्थ - - कोइ पण छानी वात छ काने पडतां ते फेलाइ जाय छे, अने चार काने होय, त्यांसुधी कदाच Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४१७ ) ते वधारे बहार न पडे. परंतु जो बे काने होय, तो साक्षात् ब्रह्मा पण तेनो अंत न लावी शके. १ षड्दोषाः पुरुषेणेह हातव्या भूतिमिच्छता। निदा तंदा भयं कोध आलस्यं दीर्घसूत्रता॥२॥ ___ मावार्थ-पोतानी आबादी इच्छनार पुरुषे निद्रा, तंद्रा (सुस्ती) भय, क्रोध, आलस्य अने दीर्घसूत्रता ए छ दोषोनो अवश्यमेव त्याग करवोज जोइए. २ स्वतो वा परतो वापि यस्य नास्ति विवेकह। अस्तोकतोयकूपांतः-पातस्तस्य न चित्रकृत्॥॥ भावार्थ--पोतानी अथवा तो बीजानी सहायथी जेनामां विवेकहष्टि नथी, ते घणा जळवाळा कुवामां पडे-तेमां कांइ आश्चर्य नथी. १ साम्यमेति श्रिया हीनो नरो निर्वाणवह्निना। यथा तथा वा श्रीरा जातिकर्मकुलैरलम्॥२॥ __ भावार्थ--लक्ष्मी विनानो पुरुष भस्मना ढग समान छे. माटे गमे ते रीते लक्ष्मी उपार्जन करवी. जाति, कर्म के कुळथी शुं १२ Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४१८) स्वां कीर्तिमपि शृण्वंतो लजंते केचिदुत्तमाः। स्वामकीर्तिं स्वकर्णाभ्यां शृण्वतोऽपि न मे त्रपा भावार्थ--केटलाक उत्तम जनो पोतानी कीर्ति सांभळ्या छतां तेओ लज्जा पामे छे अने पोतानी अपकीर्ति साक्षात् श्रवणे सांभळतां पण मने लज्जा थती नथी.३ सुलभा कलभाश्चादि-संपत्तिरपि देहिनाम् । वल्लभो धीमतामेक एव धर्मः सुदुर्लभः॥४॥ भावार्थ-आ जगतमां प्राणीओने हाथी, घोडा विगेरेनी संपत्ति सुलभ छे, परंतु धीमंत जनोने अत्यंत वल्लभ एवो एक धर्मज दुर्लभ छे. ४ । स्नेहो भस्मनि वैशयं मण्यां शैत्यमिवानले। सौम्य कापि सुखं नास्ति व्यापकापद्भरे भवे॥५॥ भावार्थ-हे सौम्य! भस्ममां जेम स्नेह (चीकाश), मषीमां जेम श्वेतता अने अग्निमां जेम शीतलता नथी, तेम आपत्तिथी व्याप्त एवा आ संसारमा सुख क्या पण नथी. ५ Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ {r} सरितः सिकता बिंदू - नव्धव्योम्नि च तारकाः ॥ संख्यातुमीशते दक्षा न दोषान्योषितां पुनः ॥६॥ भावार्थ —केटलाक दक्ष जनो नदीओनी रेती (वेळ), समुद्रना बिंदुओ अने आकाशमा तारा मापी शकशे, परंतु स्त्रीओना दोषोनी गणत्री करवाने कोई समर्थ नथी. ६ समानयोनी वनवृक्षवासिनौ सितच्छवी व्योमगती उभावपि । तथापि दुर्वागिति निंदितो जनैर्द्विकः पिकस्तु प्रियवागिति स्तुतः ॥ ७॥ भावार्थ - समानं योनि, एक वनमा एकज वृक्षमां वसनार, श्याम, आकाशगामी ए रीते बने समान छतां दुर्वचनना योंगे काग निंदा पामे छे अने प्रिय वचनना योगे कोयल प्रशंसा पामे छे. ७ सद्भावो नास्ति वेश्यायां स्थिरता नास्ति संपदाम विवेको नास्ति मूर्खाणां विनाशो नास्ति कर्मणाम् भावार्थ — वेश्याओमां सद्भाव होतो नथी, संपत्ति Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२०) मां स्थिरता न होय, मूर्ख जनोमां विवेक न होय तथा कर्मनो नाश नथी.८ स्थिरा कीर्तिरकीर्तिश्च स्थिरं कर्म शुभाशुभम् । स्थिरं दानं सुपात्रेषु स्थिरा मैत्री सतां जने ॥९॥ भावार्थ-लोकोमा कीर्ति के अकीर्त्ति स्थिर थई जाय छे, शुभाशुभ कर्म स्थिर थाय छ, सुपात्रे दान अचळ रहे छे अने सज्जनोनी मैत्री अचळ होय छे. ९ सुखी न जानाति परस्य दुःखं न यौवनस्था गणयंति शीलम् । आपद्रुता निष्करुणा भवंति आर्ता नरा धर्मपरा भवंति ॥१०॥ भावार्थ-सुखी मनुष्य परना दुःखने जाणतो नथी, युवक जनो शीलनी दरकार करता नथी, आपत्तिमां आवेला जनो करुणाहीन थइ जाय छे अने दुःखी जनो धर्मपरायण थता जोवामां आवे छे. १० सत्यं चेत्तपसा च किं शुचि मनो यद्यस्ति तीर्थेन किं सद्विद्या यदि किं धनैः सुमहिमा यद्यस्ति किं मंडनैः । लोभश्चेदगुणेन किं पिशुनता यद्यस्ति Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४२१ ) किं पातकैः सौजन्यं यदि किं निजैरपयशो यद्यस्ति किं मृत्युना ॥ ११ ॥ भावार्थ - जो सत्य होय, तो तपथी शुं ? जो मन पवित्र होय तो तीर्थयात्रा करवाथी शुं ? सद्विद्या होय तो धनथी शुं ? सारो महिमा होय तो आचरणोथी १ लोभ होय तो दुर्गुणथी शुं ? पिशुनता होय तो पातकथी शुं ? सुजनता होय तो स्वजनोथी शुं अने जो अपयश छे, तो मरणथी शुं ! ११ सर्वस्य गात्रस्य शिरः प्रधानं सर्वेंद्रियाणां नयनं प्रधानम् । सर्वौषधीनामशनं प्रधानं सर्वेषु पेयेषु पयः प्रधानम् ॥ १२ ॥ भावार्थ - शरीरना बधा अवयवोमां मस्तक श्रेष्ठ छे, सर्व इंद्रियोमां लोचन श्रेष्ठ छे, सर्व औषधिओमां अशन ( भोजन ) प्रधान छे अने सर्व पेय ( पान करवालायक ) पदार्थोमां पय ( दुध अथवा पाणी ) प्रधान छे. १२ सत्यशीलतपोऽस्तेय - पांडित्यप्रमुखोऽखिलः । गुणग्रामः कृपाहीनो निर्नाथनगरोपमः ॥ १३ ॥ Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२२) भावार्थ-सत्य, शाल, तप, अस्तेय, अने पांडित्य विगेरे जे गुणो छे-ते दया विना नाथ विनाना नगर समान समजवा. १३ सुकृतस्यात्र किं सारं किं सारं नरजन्मनः। विद्यायाश्चापि किं सारं किं सारं शर्मणां पुनः१४ भावार्थ-आ जगतमां सुकृतनुं सार शुं ? मनुष्य जन्मनुं सार शुं ? विद्यानुं सार शुं ? अने सुखोजें मार शुं ? १४ संतप्तायसि संस्थितस्य पयसो नामापि न ज्ञायते मुक्ताकारतया तदेव नलिनीपत्रस्थितं राजते। स्वात्यां सागरशुक्तिमध्यपतितं तन्मौक्तिकं जायते प्रायेणाधममध्यमोत्तमगुणः संसर्गतो जायते १५ भावार्थ-तप्त लोखंडनी उपर जळबिंदु पडवार्थी तेनुं नाम पण जणातुं नथी, तेज जळबिंदु ज्यारे कमळना पत्रपर जो रहेल होय-तो ते मोती समान शोभे छे अनै तेज बिंदु स्वाति नक्षत्रमा समुद्र नी छींपमां पडे तो तेनुं मोती बंधाय छे-माटे प्रायः Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२३) अधम, मध्यम अने उत्तम गुण संसर्गथीज थवा पामे छे. १५ सन्मार्गस्खलनं विवेकदलनं प्रज्ञालसोन्मूलनं गांभीर्योदहनं धृतेश्च शमनं नीचत्वसंपादनम् । सध्यानावरणं त्रपापहरणं पापपपापूरणं धिक्कष्टं परदारवीक्षणमपि त्याज्यंकुलीनेन तत् १६ भावार्थ- अहो परस्त्रीने जोवा मात्रथी पण पुरुष सन्मार्गथी स्खलना पामे छे, विवेकथी ते भ्रष्ट थाय छे, प्रज्ञारूप लताने ते छेदी नाखे छे, गांभीर्य अने धीरजनो ते लोप करे छे, नीचपणाने उत्पन्न करे छे, सुध्यानने आच्छादित करे छे, लज्जाने दूर करे छे, पापरूप परबने ते पूरण करे छ, माटे कुलीन जनने ते सदा त्यागवा योग्य छे. १६ स्वस्तुतेः परनिंदायाः कर्त्ता लोकः पदे पदे। परस्तुतेः स्वनिंदायाः कर्ता कोऽपि न विद्यते १७ भावार्थ-पोताना वखाण अने परनी निंदा करनारा लोको पगले पगले जेवामां आवशे, पण परनी Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२४) स्तुति अने पोतानी निंदा करनार कोइ एकाद मळवो पण दुर्लभ छे. १७ सुतीक्ष्णापि कृपाणिर्या स्वकायं न छिनत्ति सा। योजैनो जैनविद्वेषी स तस्या अतिरिच्यते ॥१८॥ भावार्थ-अत्यंत तीक्ष्ण तरवार पण पोताना अवयवोने छेदती नथी, तो जे पोते जैन छतां जैननो द्वेषी छे, ते तरवार करतां पण वधारे भयंकर छे. १८ __स्वयं महेशः श्वशुरो नगेशः सखा धनेश स्तनयो गणेशः । तथापि भिक्षाटनमेव शंभोबलीयसी केवलमीश्वरेच्छा ॥ १९ ॥ भावार्थ-पोते महेश, छे, जेनो ससरो हिमालय छे, जेनो मित्र कुबेर छे, जेनो पुत्र गणेश-आम होवा छतां शंकरने भिक्षाटन करवू पडे छे-माटे खरेखर ! इश्वरेच्छा बलिष्ठ छे. १९ । संपत्सरस्वती सत्यं संतानः सदनुग्रहः । संतः सुकृतसंभारः सकाराः सप्त दुर्लभाः ॥२०॥ Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२५) मावार्थ-संपत्ति, सरस्वती, सत्य, संतान, सारो अनुग्रह, सज्जनसंग अने सुकृत समूह-ए सात सकार दुर्लभ छे. २० सत्यं रूपं श्रुतं विद्या कौल्यं शीलं बलं धनम् । शौर्यं च चित्रभाष्यं च दशैते स्वर्गयोनयः ॥२२॥ - भावार्थ-सत्य, रूप, श्रुत, विद्या, कुलीनता, शील, बल, धन, शौर्य अने विचित्र भाषण-ए दश स्वर्गयोनिने सूचवनार छे. २१ ___ सुखस्य दुःखस्य न कोऽपि दाता परो ददातीति कुबुद्धिरेषा । अहं करोमीति वृथाभिमानः स्वकर्मसूत्रग्रथितो हि लोकः ॥ २२॥ भावार्थ-सुख के दुःख कोई आपनार नथी, ते अन्य कोई आपे छे, ए मात्र भ्रांति छे. वळी आ हुं करूं छु-ए अभिमान पण वृथा छे. कारण के लोको पोताना कर्मरूप तंतुथी ग्रथित थयेलाज छे. २२ सुलभाः पुरुषा राजन् सततं प्रियवादिनः । अप्रियस्य च पथ्यस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभः २३ Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . (४२६) भावार्थ-हे राजन् ! निरंतर मीढुं बोलनारा पुरुषो मळवा सुलभ छे पण अप्रिय छतां पथ्य बोलनार तथा सांभळनार पुरुष मळवो दुर्लभ छे. २३ साधुरेवार्थिभिर्याच्यः क्षीणवित्तोऽपि सर्वदा। शुष्कोऽपि हि नदीमार्गः खन्यते सलिलार्थिभिः ___ भावार्थ-सर्वदा धनहीन छतां याचकोए साधुपासे याचना करवी-ते अनुचित नथी. कारण के नदीनो मार्ग शुष्क छतां जळना अभिलाषी जनो तेने खोदे छे. स्मितेन भावेन मदेन लजया पराङ्मुखैरईकटाक्षवीक्षितैः। वचोभिरीाकलहेन लीलया समस्तपार्वैः खलु बंधनं स्त्रियः॥२५॥ ___ भावार्थ-हास्यतरंगथी, मदथी, लज्जाथी, सिंहावलोकननी जेम आडी नजरथी कटाक्षपात करतां, वचनथी, इर्ष्या अने कलहथी, तेमज लीलाथी-एम विचार करतां स्त्रीओ समस्त प्रकारे बंधनरूपज छे. २५ स्मृता भवति तापाय दृष्ट्वा तून्मादकारिणी । स्पृष्ट्वा भवति मोहाय सा नाम दयिता कथम् २६ Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४७) . भावार्थ-जेने संभारना संताप थाय, जोतां उन्माद थाय अने जेनो स्पर्श करतां मोह उत्पन्न थाय-ते दयिता शी रीते होई शके ? २६ सत्यपूतं वदेद्वाक्यं वस्त्रपूतं पिबेजलम् । दृष्टिपूतं न्यसेत्पादं मनःपूतं समाचरेत् ॥ २७ ॥ _भावार्थ-सत्यथी पावन थयेल वचन बोलवू, वस्त्रथी गळेल पाणी पीयू, दृष्टिथी जोइने पग मूकवो अने पवित्र मनथी आचरण करवू. २७.. स्वाधीनेऽपि कलत्रे नीचः परदारलंपटो भवति। संपूर्णेऽपि तडागे काकः कुंभोदकं पिबति ॥२८॥ भावार्थ-पोतानी स्त्री स्वाधीन छतां नीच जन परस्त्रीमां आसक्त थाय छे. कारण के तळाव पाणीथी पूर्ण छतां कागडो कुंभनुं जळ पीवा जाय छे. २८ सुरूपं पुरुषं दृष्ट्वा पितरं भ्रातरं सुतम् ।। देहः क्विंदति नारीणा-मामपात्रमिवांभसा ॥२९॥ भावार्थ-पोताना प्रिंता, भ्राता के पुत्र एवा रूपवान् पुरुषने जोतां जळथी काचा कुंभनी जेम स्त्रीओनुं शरीर विशेष आर्द्र बनतुं जाय छे. २९ Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . (४२८) स पंडितो यः करणैरखंडितः स तापसो यो निजपापतापकः । स दीक्षितो यः सकलं समीक्षते स धार्मिको यः परमर्म न स्पृशेत् ॥३०॥ __ भावार्थ-तेज पंडित छे के जे जितेंद्रिय छे, तेज तापस के जे पोताना पापने नष्ट करनार छे, तेज दीक्षित के जे बधुं जोइ शके छे अने तेज धार्मिक के जे परना मर्मने प्रगट करतो नथी. ३० सुकरं मलधारित्वं सुकरं दुस्तरं तपः । सुकरोऽक्षनिरोधश्च दुष्करं चित्तरोधनम् ॥३१॥ __ भावार्थ-मेलने धारण करवू-ते सुगम छे, दुस्तर तप तपq-ते पण सुगम छे, इंद्रियोने तावामा राखवी ते पण सुगम छे, पण मनने वश राखवू-ते दुष्कर छे३१ सुकृतस्य कृपा सारं सत्कर्म नरजन्मनः। विद्यायास्तत्त्वधीः सारं संतोषः शर्मणां पुनः ३२ भावार्थ-मुकृतनुं सार कृपा छे, नरजन्मनुं सार सत्कर्म छे, विद्यानुं सार तत्त्वबुद्धि छे अने सुखनुं सार संतोष छे. ३२ Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२९) सा ममापदपि प्रीत्यै यथा त्वं ध्यायसेऽनिशम् । साम्राज्येनापि तेनालं यत्र त्वं न प्रपद्यसे॥३३॥ । भावार्थ हे भगवन् ! ज्यां आपनुं निरंतर ध्यान थइ शके-एवी आपत्ति पण मने पसंद छे अने ज्यां आपनुनाम याद करवामां न आवे, तो तेवा साम्राज्यथी पण शुं फळ छे ? ३३ सदश्या सगुणा नम्रा स्मर्त्तव्या संकटे दृढा । अभंगुरैश्च भाग्यैः स्याद्धनुर्यष्टिरिवांगना॥ ३४॥ भावार्थ-श्रेष्ठ वंश (वांस ) थी उत्पन्न थयेल, गुण (दोरी) युक्त, नम्र, संकटमां स्मरण करवा लायक अने दृढ-एवी धनुर्यष्टि, समान अंगना (स्त्री) घणा भाग्ययोगेज प्राप्त थइ शके. ३४ सामान्यरिपुभीत्यापि न निदांति सुखं जनाः । नित्यं मृत्युरिपुः पार्चे मूढाः स्वस्थास्तथाप्यहो३५ भावार्थ-एक सामान्य शत्रुनी धास्तीमां पण लोको सुखे निद्रा करी शकता नथी. तो मृत्युरूप शत्रु निरंतर पासे होवा छतां, अहो ! मूढ जनो स्वस्थ थइ बेठा छे. ३५ Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४३० ) साधवः शमयत्यर्ति-मिति सत्यैव वाग्यतः । एषां साक्वापि शिक्षा या लोकद्वैताधिबाधिता३६ भावार्थ- संतजनो पीडाने शमावे छे-ए वचन बिलकुल सत्य छे. कारण के एमनी कोई एवा प्रकारनी शिक्षा ( बोध ) छे, के जेथी उभयलोकनी आ धिनुं निवारण थाय छे. ३६ r सत्काव्येभ्योऽपि भूपानां प्रायो नीचोक्तयः प्रियाः । दुर्वृत्ता दयिता दास्यः कुलस्त्रीभ्योऽपि कामिनाम् ॥ ३७ ॥ भावार्थ - राजाओने प्रायः सारा काव्यो करतां नीचोक्तिओ वधारे प्रिय होय छे. कारण के पोतानी कुलीन कांताओ करतां दुष्ट दासीओ वधारे पसंद होय छे. ३७ स्वयमेव कृतं सरस्त्वया तरवश्च स्वयमेव रोपिताः । विधृताः स्वकृतोपयाचिते छगल त्वं विविवीति रौषि किम् ॥ ३८ ॥ भावार्थ - तें पोते सरोवर कराव्युं, पोते वृक्षो रोप्या Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) अने पोते करेल मानतामां हमणा तु पोतेज पकडायो छे-तो हे छगल ! हवे शा माटे रोवे छे ? ३८ सर्वे यत्र विनेतारः सर्वे पंडितमानिनः । सर्वे महत्त्वमिच्छंति कुलं तच्चावसीदति ॥ ३९॥ भावार्थ-ज्या सर्व नेता थइ बेसे, ज्यां सर्वे पोताने पंडित माननार बने अने ज्यां बधा महत्त्वने इच्छे-तेओर्नु कुळ खरेखर ! सीदाय छे. ३९ सेवा श्ववृत्ति यैरुक्ता न तैः सम्यगुदीरितम् । स्वच्छंदचारी कुत्र श्वा विक्रीतासुः क सेवकः४० ___ भावार्थ सेवाने श्वानवृत्ति समान कहेनाराओए मोटी भूल करी छे. कारण के स्वेच्छाचारी श्वान क्या अने पोताना जीवितने वेचनार सेवक क्या ? ४० सीदंति संतो विलसंत्यसंतः पुत्रा नियंते जनकश्चिरायुः। परेषु मैत्री स्वजनेषु वैरं पश्यतु लोकाः कलिकौतुकानि । ४१॥ मावार्थ-अहो ! ज्यां संतजनो सीदाय छे अने दुर्जनो विलास करे छे, पुत्रो गुजरी जाय छे अने पिता Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृद्ध छतां जीवे छे, स्वजनो साथे वैरभाव चाले अने इतर जनो साथे मित्राई थती जोवामां आवे छे-हे लोको ! तमे जुओ तो खरा के आ कळिकाळमां आज काल केवां कौतुक चाले छे. ४१ सेवकः स्वामिनं द्वेष्टि कृपणं परुषाक्षरम्। आत्मानं किं न स दृष्टि सेव्यासव्यं न वेत्ति यः४२ भावार्थ-सेवक पोताना कृपण अने कर्कश बोल-- नार स्वामी उपर द्वेष करे छे. परंतु जे सेव्यासेव्यने जाणतो नथी, ते पोताना आत्मा उपर केम द्वेष करतो नथी ! ४२ ___ स्वायत्तमेकांतगुणं विधात्रा विनिर्मितं छादनमज्ञतायाः । विशेषतः सत्त्वविदां समाजे विभूषणं मौनमपंडितानाम् ॥४३॥ भावार्थ-विधाताए अज्ञानताने आच्छादित करवा एक स्वाधीन अने एकांत गुणकारी गुण बनावेल छे-ते ए के सुज्ञ जनोनी सभामां मूर्ख जनोए विशेषथी मौन धरी रहेg एज भूषण छे. ४३ Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४३३) स्थानभ्रष्टा न शोभंते दंताः केशा नखा नराः। इति संचिंत्य मतिमान् स्वस्थानं न परित्यजेत् भावार्थ--दंत, केश, नख के पुरुषो ए स्थानभ्रष्ट थवाथी शोभता नथी. एम धारीने धीमान् पुरुषे पोताना स्थाननो त्याग करवो नहि. ४४ सभायां व्यवहारे च वैरिषु श्वशुरौकसि । आडंबराणि पूज्यंते स्त्रीषु राचकुलेषु च ॥४५॥ भावार्थ-सभामां, व्यवहारमां, शत्रुओर्मा, ससराना घरे, स्त्रीओमां अने राजभवनमां आडंबर पूजाय छे. ४५ सुवंशो योऽप्यकृत्यानि कुरुते प्रेरितः स्त्रिया । स्नेहलं दधि मनाति पश्य मंथानकोन किम् ४६ भावार्थ-कुलीन पुरुष पण स्त्रीथी प्रेराइने अकृत्यों करवा तत्पर थइ जाय छे. जुओ! रवै स्निग्ध दधिनुं मथन नथी करती शुं ? ४६ - सर्पाः पिबंति पवनं न च दुर्बलास्ते शुष्कैस्तृ णैर्वनगजा बलिनो भवंति । कंदैः फलैर्मुनिवराः Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४३४) क्षपयंति कालं संतोष एव पुरुषस्य परं निधानम्॥ भावार्थ-सर्पो पवननुं पान करे छे, छतां दुर्बळ नथी, शुष्क घासने भक्षण करनारा वनहाथीओ सदा बलिष्ठ रहे छे अने मुनिवरो (तापसो) कंदमूळ के फळोथी गुजरान चलावे छे. माटे संतोष-एज पुरुषy परम निधान छे. ४७ __ स्वस्त्यस्ति सजनेभ्यो येषां हृदयानि दर्पणनिमानि । दुर्वचनभस्मसंगादधिकतरं यांति निर्मलताम् ॥४८॥ मावार्थ-सज्जनोने सदा स्वस्ति छे, के जेमना हृ. दयो दर्पणसमान छे. वळी दुर्वचनरूप भस्मना संगथी जे अधिकाधिक निर्मळ थता जाय छे. ४८ सर्पाणां च खलानां च चौराणां च विशेषतः। अभिप्राया न सिध्यंति तेनेदं वर्तते जगत्॥४९॥ __ भावार्थ-सर्पो, दुर्जनो अने विशेषथी चोर लोकोना अभिप्रायो सिद्ध थता नथी, तेथी आ जगत् चाली रहुं छे. ४९ Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४३५ ) स्वभावो नोपदेशेन शक्यते कर्तुमन्यथा। वक्रमेव शुनः पुच्छं षण्मासनलिकाधृतम् ॥५०॥ भावार्थ-पडेल स्वभाव, उपदेशथी पण अन्यथा करवा शक्य नथी. कुतरानी पूंछडीने छ मास नळीमां नाखो, तो पण ते वक्रनी वक्रज रहेवानी. ५० संतोषस्त्रिषु कर्त्तव्यः स्वदारे भोजने धने। त्रिषु चैव न कर्त्तव्यो दाने चाध्ययने तपे ॥५॥ भावार्थ-स्वदारा, भोजन अने धन-ए ऋण वस्तुमां संतोष करवो, अने दान, अभ्यास तथा तपमा संतोष न करवो. ५१ स्थाने निवासः सकलं कलत्रं पुत्रः पवित्रः स्वजनानुरागः । न्यायान्न वित्तं स्वहितं च चित्तं निर्दभधर्मस्य सुखानि सप्त ॥ ५२॥ भावार्थ-पोताना स्थाने निवास, सद्गुणी बी, पवित्र पुत्र, स्वजनोपर अनुराग, न्याययुक्त भोजन अने धन तथा जेमा पोतार्नु हित समायेलुं छे एवं चिच-ए निर्दभ (निष्कपट) धर्मना सात सुखी छे. (दमरहित धर्म करवाथी ए सात सुखो प्राप्त थाय छे.) ५२ Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४३६ ) सुभाषितेन गीतेन युवतीनां च लीलया। मनो न भिद्यते यस्य स योगी ह्यथवा पशुः ५३ भावार्थ-सुभाषित संगीत अने स्त्रीओनी.लीलाथी जेना मनने लेश पण असर थती नथी ते योगी छे अथवा तो ते पशुज समजवो. ५३ सर्वासामपि नारीणां मध्ये श्रीः सुभगा खलु । स्पृहयंति महांतोऽपि यां स्वेच्छाचारिणीमपि५४ भावार्थ-सर्व स्त्रीओमां लक्ष्मी-ए खरेखर ! भाग्यवती छे, के जे स्वेच्छाचारिणी छे छतां तेने महास्माओ पण चाहे छे. ५४ सत्यैकभूषणा वाणी विद्या विरतिभूषणा । धर्मैकभूषणा मूर्ति-लक्ष्मीः सहानभूषणा ॥५५॥ ___ भावार्थ-वाणीनुं भूषण सत्यज छे, विद्यानुं भूषण विरति छे धर्मनुं भूषण मूर्ति छे अने सुपात्र दानभूषण लक्ष्मी छे. ५५ सम्यग्दर्शनवंतस्तु देशचारित्रयोगिनः । यतिधर्मेच्छवः पात्रं मध्यमं गृहमेधिनः॥५६॥ Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४३७ ) ___ मावार्थ-सम्यग्दर्शनवंत, देशविरतियुक्त तथा यतिधर्मने इच्छनार एवा गृहस्थो मध्यम पात्र कहेवाय छे. ५६ सम्यक्त्वमात्रसंतुष्टा व्रतशीलेषु सस्पृहाः। तीर्थप्रभावनोद्युक्ता-स्तृतीयं पात्रमुच्यते ॥५७॥ भावार्थ-सम्यक्त्वमात्रमा संतुष्ट, व्रत अने शीलमां स्पृहावाळा तथा तीर्थनी प्रभावना करवामां तत्पर एवा भव्य जीव तृतीय पात्र गणाय छे. ५७ सैव भूमिस्तदेवांभः पश्य पात्रविशेषतः। आने मधुरतामेति कटुत्वं निंबपादपे ॥५८॥ भावार्थ-तेज भूमि अने तेज पाणी छतां जुओ, पात्रना भेदी आम्रमां मधुरताने पामे छे अने निंबमां कडवाशने पामे छे. ५८ स्वस्थानादधिकं मानं दूरेऽपि लभते गुणी। यथा विदेशे न तथा महा? मणिरंबुधौ॥ ५९॥ भावार्थ-गुणी जन पोताना स्थान करतां दूर पण Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४३८ ) अधिक माननेज पामे छे. जुओ, कींमती मणि समुद्र करतां विदेशमा वधारे आदरने पामे छे. ५९ स्वाधिकैः सह संबंधं न बध्नंति सुबुद्धयः । पल्वलं विपुलस्रोतः- स्रोतसा दीर्यते न किम ६० भावार्थ - चतुर जनो पोताना करतां चडीयाता माणसो साथ संबंध बांधता नथी. जुओ, खाबोचीयुं पाणीना विशाल प्रवाहथी शुं विदीर्ण थई जतुं नथी ? सुखं दुःखं भवेन्नृणां भवे कर्मविपाकतः । अपि पाकरिपुः कर्म विपाकाच्च न मुच्यते ॥ ६१|| भावार्थ- संसारमां सुख के दुःख-ए पुरुषोने कर्मना विपाकथीज प्राप्त थाय छे. इंद्र पण कर्मना विपाकथी मुक्त थई शकतो नथी. ६१ संसारकटुवृक्षस्य द्वे फले मृतोपमे । सुभाषितरसास्वादः संगतिः सुजने जने ॥ ६२ ॥ भावार्थ- संसाररूप कटुवृक्षना बें फळ अमृतसमान छे. तेमां प्रथम सुभाषित - रसनो आस्वाद अने बीजुं सत्संग. ६२ Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४३९ ) सर्वद्रव्येषु विचैव द्रव्यमाहुरनुत्तमम् । अहार्यत्वादनर्घत्वा दक्षयत्वाच्च सर्वदा ॥ ६३ ॥ भावार्थ — सर्व द्रव्योमां विद्यानेज अनुपम द्रव्य कहेल छे. कारण के ते कोइनाथी हरण न थई शक, अमूल्य अने सर्वदा अक्षय छे. ६३ सद्विद्या यदि का चिंता वराकोदरपूरणे । शुकोऽप्यशनमाप्नोति राम रामेति च ब्रुवन् ६४ भावार्थ — जो सद्विद्या पोतानी पासे मोजुद छे, तो पछी बिचारा रांक उदरने पूरवानी शी चिंता ? कारण के रामनामनुं उच्चारण करतां शुक ( पोपट ) पण पोताना उदरनुं पोषण करे छे. ६४ सुकवेः शब्दसौभाग्यं सुकविर्वेत्ति नापरः । कलादवन्न जानाति परः कंकणचित्रताम् ॥६॥ भावार्थ - सुकविना शब्द सौभाग्यने सुकवि विना अन्य कोई जाणी शकतुं नथी. कारण के कंकणनी कारीगिरीने सुवर्णकार विना अन्य कोण जाणी शके १६५ सत्यं तपो ज्ञानमहिंसता च विद्वत्प्रणामं च Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४४०) सुशीलता च । एतानि यो धारयते स विद्वान्न केवलं यः पठते स विद्वान् ॥६६॥ __ भावार्थ-सत्य, तप, ज्ञान, दया, सुज्ञजनोने प्रणाम अने सुशीलता-ए गुणोने जे धारण करे छे-ते विद्वान् समजवो. केवळ जे मुखपाठमात्रज करे छे, ते विद्वान् नथी. ६६ संपदो महतामेव महतामेव चापदः। वर्धते क्षीयते चंदो न तु तारागणः कचित्॥६७॥ __ भावार्थ-संपत्ति के आपत्ति पण महापुरुषोनेज प्राप्त थाय छे. जुओ, चंद्रमा वधे छे अने क्षय पामे छे. परंतु ताराओ कई वृद्धि के क्षय पामता नथी. ६७ संपत्सु महतां चित्तं भवत्युत्पलकोमलम् । आपत्सु च महाशैल-शिलासंघातकर्कशम्॥६॥ __ भावार्थ-संपत्तिवखते महापुरुषोनुं मन कमळसमान कोमळ रहे छे अने विपत्ति वखते ते महापर्वतनी शिला समान कर्कश बनी जाय छे. नहि तो आपत्ति सहन केम थई शके ? ६८ Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४४१) सजनस्य हृदयं नवनीतं यद्वदंति कवयस्तदलीकम् । अन्यदेहविलसत्परितापा-त्सजनो दवति नो नवनीतम् ॥ ६९॥ __ भावार्थ-सज्जन पुरुषोनुं हृदय नवनीत (माखण) जे, मृदु होय छे एम जे कविओ बोली गया छ-ते मिथ्या छे. जुओ, बीजाना देहने परिताप थवाथी सज्जनपुरुषy अंतर पीगळी जाय छे, परंतु माखण पीगळतुं नथी.६९ सौजन्यधन्यजनुषः पुरुषाः परेषां दोषानपास्य गुणमेव गवेषयंति । त्यक्त्वा भुजंगमविषाणि पटीरगर्भात सौरभ्यमेव पवनाः परिशीलयंति ७० भावार्थ-सौजन्यने धारण करनारा पुरुषो बीजाओना दोषने तजी दईने त्यां गुणनीज गवेषण करे छे. जुओ, चंदनना वृक्षो साथे सचोट थई गयेला सपोना विषने ग्रहण न करतां पवन तेना अंतर्गर्भमांथी मात्र सौरभ्य (सुगंध) नेज ग्रहण करीने फेलावे छे.७० सौजन्यामृतसिंधवः परहितप्रारब्धवीरव्रता Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४४२) वाचालाः परवर्णने निजगुणालापे च मौनव्रताः। आपत्स्वप्यविलुप्तधैर्यनिचयाः संपत्स्वनुत्सेकिनो मा भूवन्खलवक्त्रनिर्गतविषज्वालातताः सजनाः __ भावार्थ--जेओ सौजन्यामृतना सागर छे, परनुं हित करवामां जेओ सदा शूरवीर छे, अन्यना गुण गावामां जेओ वाचाळ छे, पोताना गुण कहेवामां जेओ मौन धरी रहे छे, आपत्तिमां जेओ अडग रहे छे अने संपत्तिमां जेओ छलकाई जता नथी एवा सज्जनो, खलजनोना मुखथी नीकळती दुर्वचनरूप विषज्वाळाथी दग्ध न थाओ. ७१ स्वगुणानिव परदोषान्वक्तुं न सतोऽपि शक्नुवंति बुधाः । स्वगुणानिव परदोषानसतोऽपि खलास्तु कथयति ॥ ७२॥ भावार्थ-सुज्ञ जनो जेम पोताना गुणो बोलता नथी, तेम परना छता दोषो कहेवाने पण तेओ हींमत करता नथी. अने दुर्जनो जेम पोताना अछता गुणो बोले छे, तेम परना अछता दोषो बोलवाने पण तेओ बहादूर बनी जाय छे. ७२ Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ OM (४४३) संति स्वादुफला वनेषु तरवः स्वच्छं पयो नैझर वासो वल्कलमाश्रयो गिरिगुहा शय्या लतावल्लरी । आलोकाय निशासु चंदकिरणाः सख्यं कुरंगैः सह स्वाधीने विभवेप्यहो नरपति सेबंत इत्यद्भुतम् ॥ ७३॥ भावार्थ-जंगलोमा स्वादिष्ट फळोवाळा वृक्षो मोजुद छे, झरणाओगें स्वच्छ जळ छे, वल्कलेना वेस्त्र छे, गिरिगुफानो आश्रय छे, लतासमूहनी शय्या छे, रात्रे प्रकाशने माटे चंद्रना किरणो छे, अने मृगलांओ साथे मैत्री थई शके तेम छ-ए प्रमाणे स्वतंत्र वैभव छतां लोको राजानी सेवा करे छे-ए आश्चर्यनी वात छे. ७३ संतोषामृततृप्तानां यत्सुखं शांतचेतसाम् । कुतस्तद्धनलुब्धानामितश्चेतश्च धावताम् ॥७॥ __ भावार्थ-संतोषामृतथी तृप्त थयेला शांत मनवाळा लोकोने जे सुख छ-तेवू सुख धनमां लुब्ध थईने आमैतम दोडता लोभी जनोने क्याथी होय ? ७४ Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४४४ ) सर्वत्र संपदस्तस्य संतुष्टं यस्य मानसम् । उपानद्गूढपादस्य ननु चर्मावृतैव भूः ॥ ७५ ॥ मावार्थ - जेना मनने संतोष छे, तेने सर्वत्र संपत्तिज छे. कारण के. जेणे पगमां जोडा ( उपानह ) पहेर्यां छे, तेने समस्त पृथ्वी चामडाथी जाणे मढेल होय - तेवी लागे छे. ७५ सर्वत्र गुणवानेव चकास्ति प्रथितो नरः । मणिर्मूर्ध्नि गले बाहौ पादपीठेऽपि शोभते ॥७६॥ भावार्थ - सर्वत्र प्रसिद्ध थयेल गुणवान् पुरुषज शोभे छे. मणिने माथे, गळे, हाथे के पगे बांधवामां आवे, तो पण ते शोभेज छे, ७६ स्वयं कर्म करोत्यात्मा स्वयं तत्फलमश्नुते । स्वयं भ्रमति संसारे स्वयं तस्माद्विमुच्यते ॥७७॥ भावार्थ - आत्मा पोते कर्म करे छे, पोते तेनुं फळ भोगवे छ, पोते संसारमां भमे छे अने पोतेज ते कर्मथी विमुक्त थई शके छे. ७७ स्वदेशजातस्य नूनं नरस्य गुणाधिकस्यापि Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४४५ ) भवेदवज्ञा । निजांगना यद्यपि रूपराशिस्तथापि लोकः परदारसक्तः ॥ ७८ ॥ भावार्थ — पोताना देशमां उत्पन्न थयेल पुरुष कदाच गुणवान् होय - तथापि तेनी अवज्ञा थाय छे. जुओ, पोतानी स्त्री रूपवती छतां लोको परस्त्रीमा आसक्त थता जोवामां आवे छे. ७८ संपूर्ण कुंभो न करोति शब्दमर्धो घटो घोषमुपैति नूनम् । विद्वान्कुलीनो न करोति गर्व गुणैर्विहीना बहु जल्पयंति ॥ ७९ ॥ भावार्थ — भरेलो घडो शब्द करतो नथी पण अर्ध ( अधुरो) घडो छलकाय छे. तेम विद्वान् अने कुलीन पुरुष कदापि गर्व करतो नथी, परंतु गुणहीन जनोज बहु बकवाद करे छे. ७९. हस्ती स्थूलतरः स चांकुशवशः किं हस्तिमात्र कुशो दीपे प्रज्वलिते प्रणश्यति तमः किं दीपमात्रं तमः । वज्रेणापि हताः पतंति गिरयः Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४४६) किं वज्रमात्रो गिरिस्तेजो यस्य विराजते स बलवान् स्थूलेषु कः प्रत्ययः ॥१॥ ___ भावार्थ-हस्ती स्थूल छतां ते अंकुशने वश थाय छे, तेथी शं हस्ती जेवो मोटो अंकुश छ ? दीपक प्रज्वलित थतां अंधकार नष्ट थाय छे, तेथी शुं दीपक तिमिर समान विस्तृत छे ? वज्रथी हणाया पर्वतो पतित थाय छे तेथी पर्वतो जेवू मोटुं वज्र होय छे ? ना, परंतु जेनामां तेज छे-ते पुरुष बलवान् छे. स्थूल वस्तु होय, तेथी शुं? १ हर्तुतिन गोचरं किमपिशं पुष्णाति सर्वात्मना ह्यर्थिभ्यः प्रतिपद्यमानमनिशं प्राप्नोति वृद्धिं पराम् । कल्पांतेष्वपि न प्रयाति निधनं विद्याख्यमंतर्धनं येषां तान्प्रति मानमुज्झत नृपाः कस्तैः सह स्पर्धते ॥२॥ भावार्थ-जे हरण करनारने अगोचर छे, सर्वरीते कंई विचित्र प्रकारना सुखनुं जे पोषण करे छे, अर्थिजनोने आपवा जतां जे निरंतर वृद्धि पामे छे अने Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . (४४७) कल्पांते पण जेनो नाश थतो नथी-एवं विद्यारूप अंतर्धन जेमनी पासे छे, हे राजाओ ! तमे तेमना तरफ अभिमान करशो नहि, कारण के तेमनी साथे हरीफाई कोण करी शके ? २ हृदयानि सतामेव कठिनानीति मे मतिः। खलवाग्विशिखैस्तीक्ष्णै भियंते न मनाग्यतः ३ मावार्थ-हुं धारूं छु के संतजनोना हृदयो कविनज होय छे. कारण के दुर्जनोना वचनोरूप तीक्ष्ण बाणोंथी जे कदापि भेदाता नथी. ३ हे लक्ष्मि क्षणिके स्वभावचपले मूढे च पापाधमे न त्वं चोत्तमपात्रमिच्छसि खले प्रायेण दुश्चारिणि।ये देवार्चनसत्यशौचनिरता ये चामि धर्मे रतास्तेभ्यो लजसि निर्दये गतमतिर्नीचो जनो वल्लभः॥४॥ भावार्थ-क्षणिक, स्वमाये चपळ, मूढ, पापाधम, खल अवे निर्दय एवी हे लक्ष्मी ! तुं खरेखर ! दुश्चारिणी लागे छ तेथी उत्तम पात्रने तुं इच्छति नथी. जे लोको देवपूजामां तत्पर, सत्य, शौच अने धर्ममां सदा Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४४८) आसक्त छे तेमनाथी तो तुं जाणे लज्जा पामे छ मात्र बुद्धिहीन अने नीच जनज तने वल्लभ छे. ४ । हे दारिद्य नमस्तुभ्यं सिद्धोऽहं त्वत्प्रसादतः । पश्याम्यहं जगत्सर्वं न मां पश्यति कश्चन ॥५॥ भावार्थ-हे दारिद्य ! तने नमस्कार छे. तारा प्रसादथी हुँ सिद्ध थई गयो छु. तेथी हुँ बधा जगतने जोई शकुं छु, पण मने कोई जोई शकतुं नथी. ५ हंसः श्वेतो बकः श्वेतः को भेदो बकहंसयोः। नीरक्षीरविभागे तु हंसो हंसो बको बकः ॥६॥ भावार्थ-हंस पण श्वेत अने बगलो पण श्वेत होय छे, तो हंस अने बगलामां भेद शो? खरेखर! नीर अने क्षीरना विभागमां हंस ते हंस अने बगलो ते बगलो गणाशे. ६ हतं ज्ञानं क्रियाहीनं हताश्चाज्ञानिनो नराः। हतं चानायकं सैन्य-मभतरो हताः स्त्रियः॥७॥ भावार्थ-क्रियाहीन ज्ञान, अज्ञ जनो, नायक विनागें सैन्य अने भार विनानी स्त्रीओ-ए बधा नकामा छे. ७ Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४४९ ) हालाहलो नैव विषं विषं रमा जनाः परं व्यत्ययमत्र मन्वते । निषीय जागर्ति सुखेन तं शिवः स्पृशन्निमां मुह्यति निद्रया हरिः ॥ ८॥ भाषार्थ - हलाहल ते विष नथी, पण रमा (ललना ) एज विष छे, पण आश्चर्यनी बात छे के आ संबंधां लोकोनी मान्यता उलटी रीते चाले छे. कारण के जुओ विषनुं पान करीने शंकर सुखे जाग्रत रहे छे अने रमानो स्पर्शमात्र करतां हरि निद्राथी व्यामोह पामे छे..८ हीयते हि मतिस्तात हीनैः सह समागमात् । समैश्च समतामेति विशिष्टैश्च विशिष्टताम् ॥ ९ ॥ भावार्थ- हे तात ! हीन जनोनी साथै समागम करवाथी मति हीन थाय छे, समानशील जनोनी साथे समागम करतां समान अने विशिष्ट जनो साथै समागम करतां मति विशिष्टताने पामे छे. ९ हृदयं हरति नार्यो मुनेरपि भ्रूकटाक्षविक्षेपैः । दोर्मूलनाभिदेशं प्रदर्शयन्त्यो महाचपलाः ॥ १०॥ भावार्थ — भ्रकुटी अने कटाक्षपातथी तथा स्तन २९ Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४५०) अने नाभिप्रदेशने दर्शावती एवी महाचपळ स्त्रीओ मुनिना हृदयने पण चलायमान करी दे छे. १० हस्तादपि न दातव्यं गृहादपि न दीयते । परोपकरणार्थाय वचने किं दरिदता ॥ ११॥ ___ भावार्थ-हाथमांथी के घरमांथी कांई आपq प. डतुं नथी, अने परोपकार थई शके, तो वचनमात्रमा शा माटे दरिद्रता वापरवी ? ११ हालाहलं खलु पिपासति कौतुकेन कालानलं परिचुचुंबिषति प्रकामम् । व्यालाधिपं च यतते परिरब्धुमद्धा यो दुर्जनं वशयितुं कुरुते मनीषाम् ॥१२॥ भावार्थ-जे पुरुष दुर्जनने वश करवाने इच्छे छे, ते कौतुकथी हालाहल पीवानी चाहना करे छे, विकराल अग्निने ते अत्यंत चुंबन करवा जाय छे अने दुष्ट (भयंकर) सर्पने ते आलिंगन करवानो यत्न करे छे.१२ हर्षशोको समौ यस्य शास्त्रार्थे प्रत्ययः सदा। नित्यं भृत्यानपेक्षा च तस्य स्याद् धनदा धरा १३ Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४५१ ) भावार्थ-जेने हर्ष अने क्रोध समान छे, शास्त्रमा जेने श्रद्धा छे अने निरंतर जे सेवकोनी अपेक्षा राखतो नथी-तेने वसुधा धन आपनार नीवडे छे. १३ हस्तस्य भूषणं दानं सत्यं कंठस्य भूषणम् । श्रोत्रस्य भूषणं शास्त्रं भूषणैः किं प्रयोजनम् १४ ___ मावार्थ-हाथर्नु भूषण दान छे, कंठतुं भूषण सत्य छे, अने काननुं भूषण शास्त्र छ-तो अन्य भूषणोनुं शुं प्रयोजन छ ? १४ हृदयतृणकुटीरे दीप्यमाने स्मरामा बुचितमनुचितं वा वेत्ति कः पंडितोऽपि । किमु कुवलयनेत्राः संति नो नाकनार्य त्रिदशपतिरहल्यां तापसी यत्सिषेवे॥१५॥ मावार्थ-हृदयरूप पर्णकुटीमां ज्यारे कामाग्नि देदीप्यमान थाय छे त्यारे कोई पंडित पण उचित के अनुचितने जाणतो नथी. नहि तो इंद्रने शुं देवांगनाओनो तोटो हतो के जेथी अहल्या तापसीजें तेणे सेवन कर्यु. १५ Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४५२ ) अथ गुजराति श्लोक अति निद्रा कौतुकरुची काम क्रोध शृंगार ॥ स्वाद लोभ साते तजो प्रथमथीज पठनार ॥ १ ॥ अपयश पसरे जगतमां ज्ञान ध्यान मतिहीन ॥ चित्त भ्रम अरति वशे पररमणी आधीन ॥ २ ॥ आयुः घटे दिन दिनप्रति काल रहे नित्य पास ॥ मूरख ममता किम करे क्षणमे जाशे शाश ॥ ३ ॥ एक दीवस पूरण शशी क्षीण घणा दिन होय ॥ सुख थकी तिम दुःख घणुं आपद अंत न जोय ॥ ४ ॥ अपना अपना इष्टको मनन करे सहु कोय ॥ इष्ट विणा मानवी फोकट शक्ति खोय ॥ ५ ॥ आछे दिन पीछे गये हरिसें कीयो न हेत ॥ अब पिछतायें क्या हूवे चीडीयां चुनगई खेत ॥ ६ ॥ आदर्या अध विच रहे कर्म करे सो होय || मन माने आनंद कर मन माने तो रोय ॥ ७ ॥ आलस मूंडी भूतडी व्यंतरनो वलगार ॥ पेशे जेहना अंगमां बहुत करे बिगार ॥ ८ ॥ Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४५३ ) आव्युं नहि भयः ज्यां लगे बीक राखवी- वित्त ॥ पासे आव्युं जोइने कर जेम ऊचित्त ॥ ९ ॥ अति घणुं नवि ताणीयें ताण्ये त्रूटी जाय ॥ चुदया पछी जो सांधीयें विचें गांठ रही जाय ॥ १० ॥ अवगुण उपर गुप्ण करे ए सज्जन अभ्यास ॥ चंदनने परजाल आपे सरस सुवास ॥ ११ ॥ आलसुने उपचार नहि लोभीने नहि. सुख ॥ कायरने हिमत नहि संतोषीने नहि दुःख ॥ १२ ॥ एक एक अक्षर वडे भणे ग्रंथ विचार ॥ आँटे आटे काप पैडुं कोश हजार ।। १३ ॥ औषध छे सवि, सेमना उपाय सहुना होय 11औषध नहिज स्वभावनुं करी शके जग कोय ॥ १४ ॥ अतिभलुं नहीं वरषकुं अतिभलुं नही धूप ॥ अतिभलुं नही बोलवु अतिभलं नहि चूप ॥ १५ ॥ आतम अनुभव वासना कोईक नकली रीत ॥ नाक न पसरे- वासना कान करे प्रतीत ॥ १६ ॥ आप आपनी मरजी गरज जगत जप्पाय ॥ बगर दरद घर वैद्य ने निर्थे नहि कोइ जाय ॥ १७ ॥ Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ { ४५४ } आव नही आदर नही नहि नयनोमे नेह॥ तस घर कबु न जाइ जो कांचन वरपे मेह ॥ १८॥ आव है आदर है है नयनोमे नेह ॥ तस घर कबुन छोडीए जो पत्थर वरषे मेह ॥ १९॥ अणसमजुनी आगलें करवो नहि हितबोध ॥ बतावतां लइ आरसी नकटो करसे क्रोध ॥ २०॥ आठ पहोर सतसंग करे सदा विवेकी संग॥ तुलसी कोन वियोगसे लाग्यो नहि प्रभु रंग ॥२१॥ अंतर कपटी मुख रसी नाम प्रीतको लेत ॥ रहो दूर ए मित्रसे दगाखोर दुःख देत ॥ २२ ॥ अरथी जो लज्जा धरे सरे न स्वार्थ काम ॥ जो गणिका सरमाय तो मले न कवडी दाम ॥ २३ ॥ अदेखानी आंखभा कमला केरो रोग ॥ पीलुं देखे पर विशे रोग तणे संयोग ॥ २४ ॥ अरथीने अकल नहि कामी न गणे दोष ॥ स्नेही संकट नवि गणे लोभी नहि संतोष ॥ २५॥ आखानी आशा थकी अरधो तजवा जाय ॥ खोवे बने खांतथी ए मूरखनो राय ॥२६ ॥ Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४५५ ) आवरदा ओछी रही प्रभुथी कीयो न प्रेम ॥ खाई गया तीड खेत्रने पछी पस्तावुं केम ॥ २७ ॥ इच्छे जेवुं अवरनुं तेवुं आपणुं थाय ॥ मानो नही तो करी जुओ जेथी तरत जणाय ॥ १ ॥ इच्छे सुख डाइथी ते क्यांथी मलनार ॥ आकतणुं बी वावतां आंबो नहिज थनार ॥ २ ॥ इच्छे भुंडुं अवरनुं तेनुं हुं थनार ॥ अन्य काज खाडो खणे तेमां ते पडनार ॥ ३ ॥ उजड खेडा फिर वशे निर्धनीयां धन होय ॥ गया न यौवन संचरे मुवा न जीवे कोय ॥ १॥ उंचा कुल किश कामका ज्यां नही प्रभुको नाम ।। इशशे तो शूकज भला जश मुख बोले राम ॥ २ ॥ उपजे मति जन मन विशे जेहवं भावी होय ॥ शुद्ध मार्ग सूजे नही कोइ समजावे तोय ॥ ३ ॥ उघाडा दीवाविशे पतंग जेम जपलाय ॥ तिभ नारीना नेत्रमां भ्रष्ट जनो भरमाय ॥ ४ ॥ उंचूं जोतो बलदीओ नीचूं जोती नार ॥ एकल हड्डो वाणीओ ए व्रण दूर निवार ॥ ५ ॥ Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४५६ ) काको गढ काया तणो विणसंतां नहि वार ॥ चेती लेजे जीवडा करी चित्त विचार ॥ १ ॥ कर्या कर्मनो क्षय नथी कोडी वर्ष हजार ॥ अवश्य भोगववा पडे शुभ अशुभ विचार ॥ २ ॥ कुले कलंक अपयश करे महत्व सदा हरनार धन नाशे अरति अधिक तजीयें मित्र जुगार ॥ ३ ॥ कृत्याकृत्य विचारने उत्तम जाणे आप मध्यम गुरु उपदेशथी अधम न जाणे पाप ॥ ४ ॥ कठीन पंथ हे साधुका जेसा ताड खजूर ॥ चढे तो चाखे प्रेमरस पडे तो चकनाचूर ॥ ५ ॥ कठीन पंथ हे साधुका खराखरीको खेल ॥ नानीजीको घर नही शेठो होय तो जेल ॥ ६ ॥ कुकवि चितारो पारधी कुवणिक ने भाट ॥ गांधी नरक सिधाविया वैद्य देखाडे वाट ॥ ७ ॥ काल करे सो आज कर आज करे सो अब ॥ अवसर बित्यो जात है फिर करेगा कब ॥ ८ ॥ करी भरोंशो कर्मनुं कहे थशेज थनार ॥ आप तजे उद्योगने ए पण एक गिमार ॥ ९ ॥ Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४५७) कामी कुल न ओळसे लोमीन गोलपा . मरण वेला नहि ओळखे भूख्यो मखे अखाज ॥१०॥ काम पड्याथी जाणीये जे नर जेहको होगी . तपाव्या विण खोटुं खरं. कहे कसोनुं कोर ॥११॥ करत करत अभ्यासशें जडमति होत सुजान रसडी आवत जावतसे शिलापर होत निसान ॥१२ कदी कष्ट पाम्या विना गुण पामे नहि कोयः॥ वध बंधन सहे. फूल जो तो गुणवालुं धाव ॥ १३ ॥ कटु लामे कल्याणना वचन विचारो आप ॥ कटु औषध पीधा विमा मटे न तनको ताप ॥१४॥ कोयल नव दीये कोईने हरे ना कोईलु जागा मीठा क्चनथी सर्व- कोकालपर अनुराम ॥ १५ ॥ काया काचो कुंम छ जीव मुसाफर पास ॥ तारो त्यां लगे जाणजे ज्यां लगे श्वासोश्वाश। १६॥ काला केश मटी गया कन्या सर्व सफेत ॥ यौवन जोर जतुं रयु चेत चेत नर नेता ॥ १७॥ कामी क्रोधी कृपण नर मानीने मद अंध। चुगल जुबारी चोरटा देखत आठे अंधः॥ १८॥ - Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४५८) केशरीकेश भुयंगमणी शरणागत सूराय ॥ सतीपयोधर कृपणधन चढति हत्थ मुआय ॥ १९ ॥ कुलहीणानी चाकरी दुर्जन केरो संग ॥ परनारीनी प्रीतडी जाण घडीनो रंग ॥ २० ॥ कटका काच बीलोरना साकर सम देखाय ॥ भूलें भोजनमा मले जीमतां जीवज जाय ॥ २१ ॥ काक बेठायो पांजरे पढीयो चारे वेद ॥ विवेक वात शीख्यो नही रह्यो ढेढ को ढेढ ॥ २२ ॥ कुलधन बल भलें पामीआ शीख्या शास्त्र विचार ॥ तुलसी प्रभु भक्ति विना चारे वरण चमार ॥ २३॥ कला काव्य श्रुत ज्ञानमां सज्जनना दिन जाय ॥ निद्रा काम किलेशमां मूरख काल गमाय ॥ २४ ॥ कोमल बुद्धि बालको वालो तेम वलाय ॥ . शूका तरुपरे वालतां पछी ते त्रूटी जाय ॥२५॥ कदी घर घोडा हाथीआ रमणी सुंदर गात ॥ एक दिन एवो आवशे भूख्या न मले भात ॥ २६ ॥ कवीजन काव्य करी मरे गुण चाखे गानार ॥ सोनी घाट घडी मरे राय शजे शणगार ॥ २७ ॥ Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४५९) कोवेला गज घोडला चामर छत्रनी छाय ॥ कोवेला पगें चालवू ताती वेलुमाय ॥ २८॥ कृपण धन संचय करे अभण बेशे राज ॥ माखी मधने संग्रहे ए सहु परने काज ॥ २९॥ कडवी होय लींबडी मीठी तेहनी छाय॥ बांधव होय अबोलडा तोय पोतानी बांय ॥ ३० ॥ कपटीके मन कपट बशे सूरा मन संग्राम ॥ लोभीके मन धन बशे कबीरके मन राम ॥ ३१ ॥ कांचन तजवो सहेल है सहेल प्रियाको नेह ॥ ईर्ष्या निंदा परतणी कठीन त्यागवी तेह ॥ ३२॥ कुंजर मुखशे कण गिरे खूटे नहि तस आहार ॥ कीडी सो कण ले चली तृप्त हूओ परिवार ॥ ३३ ।। करज करी धन वावरे फूलाव्यो फूलाय ॥ वलतो विमासण करे ए मूरखनो राय ॥ ३४ ॥ करे अकारज आपनुं थाय कुमति जे वार ॥ हाथ चढयु हथीआर ते मारे पगे ममार ॥ ३५॥ काजल तजे न श्यामता सज्जन तजे न हेत ॥ दुर्जन तजे न कुटिलता ए जाणो शंकेत ॥ ३६ ॥ Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६०) कृतघ्नने जे आपीयुं खाय त्यां लगी प्रीत॥ खातांसुधि भसे नही श्वान तणी ए रीत ॥ ३७॥ कुल कुपुत्र नथी कामनो तेहथी शोभा जाय । आंचल कंठे बकरीने पण दूध नही दोवाय ॥ ३८॥ क्षमा आपतां वांकनी रस मनमा रेलाय ॥ शीक्षा करता थाय रस पण तेहवो नवि थायः ॥ ३९ ॥ खल सज्जन गति आठ नव अंक समान विचार ॥ द्विगुन ब्रिगुन फुनि पंचगुन घटत रहत इक सार ॥१॥ खबर नहि पा पल तणी करे कालकी बात ॥' जीवत पर यम फिरत है जलबिलू पर वात ॥२॥ खेत्र बगडयो तणखले सभा बोलतां कूड ॥ भक्ति बगडी लालचे ज्यु. केशर पडी धूळ ॥३॥.' गुण तो एक जणाय नही अवमुण गण्या न जाय ॥ मिथ्या मान धरे घणो ए मूरखनो राय ॥१॥ गुण जे कर्या गमारने धरी धूळमां धूळ ॥ बावलीयो बलीयो बनी सदाय आपे झूल ॥२॥ गणे न कोई गरीबने धनपतिने सहु धाय ॥ छींक खाय जो धनपति तोय खमां कहेवाय ॥३॥ Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६१ ) गुणी सुपुत्र एकथी 'आखं कुल वखणाच ॥ एकज चंदन वृक्षथी जिम वन वासित थाय ॥ ४ ॥ गुरु लोमी शिष्य लालचु बिहुँहिं खेले दाच ॥ बूंडे दोनुं बापडा बेठ पत्थरकी नाव ॥ ५॥ गुणी जन गुप्त रहे नही विण यतने पंकाय ॥ दिनकर वादल दलविशें दाट्यो पण देखाय ॥ ६ ॥ गुण कीधे जे गुण करे ते व्यवहारी नेह ॥ अवगुण कीधे गुण करे सज्जन कहीयें तेह ॥ ७ ॥ गला काट कलमा पढे मुखरों कहे हलाल ॥ साहेब के दरबारमे होशे कोन हवाल ॥ ८ ॥ घेलीमाथे बेडलो वानर कोठें हार ॥ जुगारी पास पैसो रह्यो जतां न लागे वार ॥ १ ॥ . चीता बंडी अभागणी मांस बींदुको खाय ॥ रती रती भर संचरे तीला मर मर जाय ॥ १ ॥ चार अंग दुर्लभ अति आदि नर अवतार ॥ श्रुत श्रवण श्रद्धा शुद्धि चोथो संयम सार ॥ २ ॥ चैतन्य सरजे सुखदुःखो भोक्ता तेहिज होय ॥ पर ऊपर दोषज दीये ते सही मूरख जोय ॥ ३ ॥ Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६२) चार पहोर दीवस तणा आरंभ करतां जाय ॥ एक पहोर वा अर्ध तो धर्म करो सुखदाय ॥४॥ चेतन चेत तुं चित्त विशें आ संसार असार ॥ आव्यो तिम जाईश वली कोई न राखणहार ॥ ५॥ चार पहोर धंधो करे चार पहोर रहे सई ॥ प्रभुनाम घडी ना लीयो मुक्ति क्याथी होई ॥६॥ चिंतासें चतुराई घटे घटे रूप ओर रंग॥ चिंता बडी अभागणी करे जोरको भंग ॥७॥ चकी चले तो चलन दे तुं कायको रोय ॥ खीलेशे बिलगा रहे पीस शके नहि कोय ॥८॥ छानी नहि रहे चतूरथी को अंतरनी वात ॥ वैद्य पारखे कर ग्रही जिम ते रोगनी जात ॥१॥ जन्म जरा मृत्यु वली रोग शोक दुःख जोई ॥ स्वार्थीआ सहु परिजना धर्म कर्या सुख होई ॥१॥ जेशो बंधन प्रेमको तेसो बंधन ओर ॥ काठहि भेदे कमलको छेद न निकशे भोर ॥२॥ जोतां कोई जणाय नही साहुकार के चोर ॥ दीवानथी दरवारमा छे अंधारूं घोर ॥३॥ Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६३ ) ज्यां जेनो महि पारखो त्यां तेनो नहि काम ॥ धोबी विचास क्या करे सन्यासीका गाम ॥ ४ ॥ जल सर्प सोनी अने राजा बेसार परदेशी ए पांचथी सदा चेतीने चाल ॥ ५॥ जिशें प्रभुको डर नहि नही पंचकी लाज ॥ उसशे छेड क्युं कीजीएं चूप भली महाराज ॥ ६ ॥ जगत पड्युं मुख कालने केडा मोर जनार ॥ घंटीने घाले पड्या दाणा लोट थनार ॥ ७ ॥ जेशी प्रीति हराममे तेसि हकमे होय ॥ चला जाय बैंकूठमे पला न पकडे कोय ॥ ८ ॥ जब तुं आव्यो जगतमां लोक हशे तुं रोय ॥ एसी करणी ना करें पीछेशें हांशी होय ॥ ९ ॥ जूठा बोला नरतणुं सघलूं जूठ मनाय ॥ विछु करडे भांडने तो साचे जूठ मनाय ॥ १० ॥ जेना मनमां जे गम्युं तेहने तेनुं काम ॥ आकतणा कीडा तणुं आंबामां नहि ठाम ॥ ११ ॥ जो जामें निशदिन बशे सो तामे परवीन ॥ गज कु सरिता ले चली उलटा चालत मीन ॥ १२ ॥ Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६४ ) जरने बस आ जगत सहु जरथी विनय विवेक ॥ जर खरचे सलुमले मले न अकल एक ॥ १३ ॥ जब लग तेरा पुन्यका पूगे नही करार ॥ तब लग तकसीर माफ है अवगुण करो हजार ॥ १४ ॥ जो मति पीछे उपजे सो मति आगल होय ॥ काज न बगडे आपणुं दुर्जन हशे न कोय ॥ १५ ॥ जलकी शोभा कमल है तनकी शोभा पील ॥ धनकी शोभा धर्म है कुलकी शोभा शील ॥ ९६ ॥ जोड्या बे ऋण दोहरा तेथी न कवि कहेवाय ॥ राखे हलदर गांठीओ गांधी केम गणाय ॥ १७ ॥ जननी जणाने जन मला कां दाता कां सूर ॥ नहि तो रहे बांजणी मत गुमावीश नूर ॥ १८ ॥ जीवजीवके आसरे जीव करत है राज ॥ तो रहेता प्रभु आसरे क्युं बगडेगा काज ॥ १९ ॥ जीवंतां जो जश नही जश वीण क्युं जीवंत ॥ जश लईने जे आथम्या ते रवि पेला ऊगंत ॥ २० ॥ जे जन पामे पूरणता ते कढ़ी नव फूलाय ॥ पूरण घट छलके नही अपूरण होई छलकाय ॥ २१ ॥ Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६५) जेनी संगतथी कदी थोडं पण दुःख थाय। वली तेनी साथे वसे ते मूरखनो राय ॥२२॥ जेना मनमा जे गम्युं ते तेना गुण गाय ॥ झेर तणा जमनार ते अमृत जाणी खाय ॥२३॥ जेना मनमा जे गमे गुण तेना ते गाय ॥ काग लींबोडी खात है कोयल आंबरस खाय ॥२४॥ जगडो करी निज नारीथी बाले निज घरबार ॥ वलती विमासण करे ए पण एक गमार ॥ २५॥ ज्या भणेल नहि भूपती त्यां अंधेर जणाय ॥ अधिकारी अवलं करे लांच लेइने न्याय ॥ २६ ॥ जे जन जब जूठो पडे एक वार को काम सुणतां संशय ऊपजे तेहना बोल तमाम ॥ २७॥ . जामे जतनी बुद्धि है इतनो कहे बनाय ॥ वांको बुरो न मानीये ओर क्याथी लाय ॥ २८ ॥ जल ज्युं प्यारा माछली लोभी प्यारा दाम ॥ मातने प्यारा बालका भक्ति प्यारी राम ॥ २९॥ जन्मी तरत जाणे नही हित अहित विचार ॥ जाणे जेम तेम समजी ले नानपणे नरनार ॥ ३०॥ ३० Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६६ ) ari करतां त्रेपन वया जपमालाना मणियां गया । कथा सुणी सुणी फुट्या कान तोय न आवी हइडे शान।। तन कसोटी देत है पण मन कसोटी नाहीं ॥ राफड कूटे लकडीशें पण मणिधर न मरे मांहीं ॥ १ ॥ तुलसी हाय गरीबकी कबुं न खाली जाय ॥ मुआ ढोरके चांमशे लोहा भस्म हो जाय ॥ २॥ तजवा लायक तरत छे जगमां चाकर चार ॥ तस्कर रोगी आलसु प्रत्युत्तर पठनार ॥ ३॥ तुलसी तलब न छोडीये निश्वें लीजे नाम ॥ मन मजूरी देत है तो क्युं रखेगा राम ॥ ४॥ तुलसी चेतन खेत है मन वच कर्म कीशान ॥ पाप पुन्य दो बीज है बोवे शो लणे निदान ॥ ५ ॥ तुलसी शुद्ध स्वभावने करी शके कुसंग ॥ चंदने विष व्यापे नही वलगी रहत भुजंग ॥ ६ ॥ तीर लगो गोला लगो लगो मरमके वाय ॥ नयना किसी मत लगो उनका नहि उपाय ॥ ७ ॥ तुलसी तर्ष्या पीनेशें घटे न सरिता नीर ॥ धर्म कीये धन ना घटे साथ करे रघुवीर ॥ ८ ॥ Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६७) तुलसी मनका दुःखकी प्रगट न करीये वात ॥ लीये न बेंची कोई ते भर्म जाय लाकात ॥९॥ तब लग तो सर्वे मला जब लग पदे म बोल ॥ काक कोयलका होत हे ऋतुवसंतमे तोल ॥१०॥ ते सुख सुख नहि मानिये अंतें आपद खान ॥ तजीयें सोनुं तरत ते जेहथी बेटे कान ॥ ११॥ ताबुस घेला तुरकडा विवाह घेली नार। होली घेला हंडुडा ए त्रणे एक अवतार ॥ १२॥ दश दृष्टांते दोहिलो पाम्यो नर अवतार । धर्म विना धोखो थशे जातां नरकद्वार ॥१॥ दुःखशें दर मत मानवी पडति बडति सदाच । मगन रहो धीरज धरो शशी पितक मम लार्य ॥२॥ दुर्जन संगतथी सदा सज्जमने दुःख धाय ।। एकवार कुसंगयी गाय गले घेट पाय ।।३।। दुर्जन संग न कीजिये दुर्जनथी सुख दूर ।। हंस काकनी प्रीतिथी पाम्बी दुःख मरपूर ॥१॥ दुर्जनकी कृपा बुरी भली सज्जनको त्रास ॥ जब सूरज गरमी करे तब वरसमकी ऑसि ॥ ५॥ Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६८ ) दुर्जनकृत निंदा थकी सज्जन नवि निंदाय ॥ रविभणी रज नाखतां आपें अंधो थाय ॥ ६ ॥ दुःख देवुं पण दैवनुं दया भरेलु काम ॥ अति दयाथी रोगीने आपे वैद्यो डाम ॥ ७ ॥ दुःख आवे रवुं नही कर्म बनावट काम ॥ उद्यम करतां मानवी पामे सिद्धि तमाम ॥ ८ ॥ दया धर्मको मूल है पाप मूल अभिमान ॥ तुलसी दया न छोडीएं जबलग घटमे प्रान ॥ ९ ॥ दाताने मन धन नही सूरामन नही श्वास ॥ पतिव्रताने प्राण नही देह न समजे दास ॥ १० ॥ देशाटनना लाभथी बधे बुद्धिबल आप ॥ अनुभव लईने नवनवा कदी न खाय थाप ॥ ११ ॥ दया ते सुखनी वेलडी दया ते सुखनी खाण ॥ अनंता जीव मुक्तें गया दया तणे परिमाण ॥ १२ ॥ दोलत बेटी सम कही खरची कबुन जाय ॥ पाली पोसी मोटी करी पण परघर चलि जाय ॥ १३ ॥ धर्म करंतां धन वधे धन वध मन वध जाय ॥ मन वध्ये महिमा वधे वधत वधत वध जाय ॥ १ ॥ Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६९ ) धर्म करतां स्वर्ग सुख धर्म करत निर्वाण | धर्म मर्म जाण्या विना नर तिरियंच समान ॥ २ ॥ धर्म ध्यान कीधो नही राख्यो मन अभिमान ॥ एक आंख तो फूट गई होशे डूजी समान ॥ ३ ॥ धर्म नियम पाल्या विना प्रभु भजवा ते व्यर्थ ॥ औषध खातां शुं थशे जो पाले नहि पथ्य ॥ ४ ॥ धन यौवन कछु ना रहे ना रहे गामने ठाम ॥ सज्जन जगमें यश रहे कर दो किशीका काम ५॥ धन मेलवतां दुःख घणुं साचवतां पण दु:ख ॥ आवेलं फरी जाय तो जाय समूलुं सुख ॥ ६ ॥ धन दईने तन राखीयें तन दई राखो लाज ॥ धन दो तन दो लाज दो एक प्रेमने काज ॥ ॥ धूता होय सुलख्खणा वेश्या होय सलज्ज ॥ खारा पाणी निर्मला ए त्रणे होय अकज्ज ॥ ८ ॥ धीरा धीरा रावतां धीरे सब कुछ होय ॥ माली सींचे चोघणा रुत विण फल न होय ॥ ९ ॥ धीरजशें निज धाममें हाथी सवा मण खाय ॥ टुकडा एकके कारणे श्वान घरोघर जाय ॥ १० ॥ Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४७० ) धन वंछे एक अधम नर उत्तम वछे मान ॥ ते धानक शत्रु छंडीएं जीहां लहियें अपमान ॥ ११ ॥ निवरो नर निंदा बिना कहो करे शुं काम ॥ पर जिंदा धंधो करी लहे नरक दुःख दाम ॥ १ ॥ नमन नम्म फरक है बहुत नमे नादान | दगलबाज दोगुन नमे चित्ता चोर कमान ॥ २ ॥ निर्लज्ज नर लाजे नही करतां कोटी धिक्कार ॥ नाक कषायुं तो कहे अंगें ओछो भार ॥ ३॥ नाणुं बिन नीति तणुं घरमां नही रहेनार ॥ मीआंजी लावे मूठीएं अला ऊंठ हरनार ॥ ४ ॥ निंदा हमारी जो करे मित्र हमारा सोय ॥ बिन साबू बिन पानीयें मेल हमारा धोय ॥ ५ ॥ नीची नजरें चालतां मोटा ऋण गुण थाय ॥ दया पले कांटो टले पग पण नवि खरडाय ॥ ६ ॥ नावुं धोवुं बहु जलें मनको मेल न जाय ॥ मीम सदा जलमे वशे धोतां कलंक न जाय ॥ ७ ॥ नीच स्वभावना मानवी कढ़ी न उत्तम होय ॥ atri काला कोलशा ते नवि उज्ज्वल जोय ॥ ८ ॥ Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४७१) नारी देह दीकी करी पुरुष पतंगीआ होय ॥ जग सघटुं खूची रह्यं निकशे विरला कोय ॥ ९॥ नारी मदन तलावडी बूड्यो सयल संसार ॥ जाण अजाण सहुको पडे कोई नहि काढणहार॥१०॥ नारी नीच स्वभावनी जगमां करी जगेश॥ नर भूली तेहमा भमे पामे दुःख विशेष ॥ ११॥ . नारी गुमावे तीन गुन जो नर पाशे होय ॥ भक्ति मुक्ति निज ज्ञानधन पेठ शके नहि कोय ॥१२॥ निंदक सरिखो पापीओ भुंडो कोई न दीठ ॥ वली चंडाल समते कह्यो निंदक मुख अदीठ ॥१३॥ नही कहेवी कोईने मुखथी कडवी वाण ॥ छेदे ते जन हृदयने जिम भेदे छे बाण ॥१४॥ नीकी सो फीकी लगे बिन अवसरकी बात ॥ फीकी सो नीकी लगे कहीयें समयपर बात ॥१५॥ परघर दुःख न रोवणुं वेची न शके कोय ॥ भरम गुभावे आपणुं खरेज मूरख होय ॥१॥ परधन जाकुं झेर है परस्त्री मात समान ॥ एम करतां प्रभु ना मिले तो तुलसीदाश जमान ॥२॥ Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४७२) पागभाग प्रकृति सुरत बोली अकल विवेक ॥ अक्षर मिले न एकठा सोधो मुलक अनेक ॥३॥ पाणीमें पाणी मिले मिले कीचमे कीच ॥ साधुमे साधु मिले मिले नीचमे नीच ॥ ४॥ ... पारसमे ओर संतमे बडो अंतरो जान ॥ वो लोहा कांचन करे वो करे आपसमान ॥५॥ पहेले पोरे सहु कोइ जागे बीजे पहोरे रोगी॥ त्रीजे पहोरे तस्कर जागे चोथे पहोरे योगी॥६॥ पावसेरके पात्रमे केशे शेर समाय ॥ छोटे नरके पेटमे बडी बात न समाय ॥ ७ ॥ प्रीत थवी तो सहेल है निभाववी मुस्केल ॥ पीतां केफ पडे मजा जीरववा नहि सहेल ॥ ८॥ प्रेमें प्राण टकी रहे प्रेमे प्राणज जाय ॥ प्रेमे प्राण अपाय छे प्रेमें प्राण रखाय ॥९॥ पडति इच्छे परतणी चढति आप चहाय ॥ पण पापी शुं करी शके धार्यु धणीनुं थाय ॥१०॥ प्रभुनामकी लूट है लूंट शके तो लूंट ॥ अंतकाल पस्तायगो प्राण जायगा छूट ॥११॥ Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४७३) प्रभु साथे प्रीतडी वेश्या साथे हसवू ॥ दो दो बाता किम बने लोट खावु ने भस, ॥ १२ ॥ पीपलपान खरंत हसती कुंपलीआ॥ अम वीति तुम वीतशे धीरी बापलीआ ॥ १३ ॥ परनारीकी प्रीतडी जेशी लसन खान ॥ . खूणे बेसी खाइए तोय प्रगट निदान ॥ १४ ॥ पंडितनी पंक्ति विशें नही अभण शोभाय ॥ हंसनी हार थकी जुओ जूहूँ बगलं जणाय ॥१५॥ प्रीत करिये सराफकी जेशो शिरको वाल ॥ कटे कटावे फिर हुवे कबु न छोडे ख्याल ॥१६॥ परनारीनी प्रीतमां लंपट थई लपटाय ॥ जर जशने जोवन खहे ए. मूरखनो राय ॥ १७ ॥ पामर उचके पालखी बेशे धनीका बाल ॥ ... हुकम चलावे हाम धरी पैसाथी महीपाल॥१८॥ पतिव्रता भूखे मरे ने छीनाल खाय लाडु ॥ गांडा घेला घोडे चडे ने दाया खेंचे गाडं। १९ ॥ पंथी जीव पामी गयो नरभव नगर बजार ॥ सोदागर समजी जई करो पुन्य वेपार ॥२०॥ Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४७४) फाटयुं पगर्नु पगरखु नवं लेतांशी वार ॥ ए, मरण वहुर्नु गणे कहिये तेह गमार ॥१॥ बल थकी बुद्धि वडी जो उपजे उरमाय ॥ जंबुके जिम नाखीयो कूपमांहि मृगराय ॥१॥ बडे बडे कु दुःख पडे छोटेशें दुःख दूर ॥ तारे शब न्यारे रहे ग्रहे चंद्र ओर सूर ॥२॥ बनीयां फूल गुलाबका धूप पडे करमाय ॥ पत्थर मार्या नहि मरे पण मंदीशे मर जाय ॥३॥ बगडे सारु सहजमा सुधरे नही सदाय ॥ फाटयुं दूध फरी कदी दूध नही ते थाय ॥ ४ ॥ बहोत गई थोडी रही ते पण चाली जाय ॥ सुकृत कर्म कर्या विना फोकट नरभव जाय ॥५॥ बुरुं न ईच्छिये पारकुं लई विवेक मनमाय ॥ भुंडूं करतां परतणुं प्रथम आपणुं थाय ॥६॥ बीडीथी आयुष घटे तन धन बलनी हाण ॥ भ्रष्ट हुवे निजधर्मथी बीडी त्यजो सुजाण ॥७॥ ब्रह्म चिन्ह वातो करे चले आपकी चाल । जंबुक मन फुल्यो फरे ओढ सिंहकी छाल ॥८॥ Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४७५ ) बीत गई थोडी रही मन आकुल मत होय ॥ धीरज शबको मित्र है करी कमाई मत खोय ॥ ९ ॥ बुद्धिशाली ने वली गुणीयल पुरुषज होय ॥ वचन पालबाथी अधिक प्रिय बीजं नव कोय ॥ १० ॥ बाजीगर बाजी रचे करे कमलको फूल ॥ दोय घडीका देखना आखर धूलकी धूल ॥ ११ ॥ बुद्धिमानने जगतमां नथी शत्रुनो त्रास ॥ वरसालें पलळे नही जो होय छत्री पाश ॥ १२ ॥ बीडी म पीशो बांधवा बीडीथी बल जाय ॥ वीर्य हटे आयुष घठे अंते अंधो थाय ॥ १३ ॥ बाललग्न कुचालथी थाय घणुं नुकशान ॥ प्रजा बधी निर्बल हुवे थई न शके विद्वान ॥ १४ ॥ बांधी मूठी लाखकी उघाडी वा खाय ॥ लाख मूलको कागडो क्रोडे कोठी जाय ॥ १५ ॥ बेसण न दीये बोल कोल जावा न दीये कुललाज ॥ पोल फ्लंग विच दोलतां उदय भयो प्रजराज ॥ १६ ॥ बालपणाम पुरुष जे विद्या भण्यो न होय ॥ पशुतुल्य ते जगतमां अवयव नरमा जोय ॥ १७ ॥ Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४७६ ) बार बोलावण बेसणुं बीडोने बहु मान ॥ जश घर पांच बबा नही ते घर जाण मशाण ॥१८॥ बार कोशपर बोली बदले तरुवर बदले शाखा ॥ जाते दाडे केश बदले पण लख्खण न बदले लाखा १९ भणतां पंडित निपजे लखतां लहीयो थाय ॥ चार चार गाउ चालतां लांबो पंथ कपाय ॥१॥ भूल थई के चेतवू एज खरो उपाय ॥ भूल्यो त्यांथी गण फिरी जेथी भूल न थाय ॥२॥ भाग्यहीन जल थल भमे अगर गगन पाताल ॥ घर उठी वनमां चले त्यांपण अग्नि जाल ॥३॥ भेद ज्ञान साबू भयो समरस निर्मल नीर ॥ धोबी अंतर आतमा धोवे निज गुण चीर ॥४॥ भोंय सूवारं भूखे मारूं तनकी पाडूं खाल ॥ ईतना करतें ना डरे तो पीछे करुं निहाल ॥५॥ भूख न जाणे भावतुं प्रीत न जाणे जात ॥ निद्रा न जाणे साथरो ज्यां सूता त्यां रात ॥६॥ भाग्यहीनकू ना मिले भली वस्तुको योग । द्राख पके जब बागमें काग मुख होत हे रोग ॥७॥ Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४७७) भणतरथी भांगे नही भख तरसनो मोग ॥ दिलगीरी उपजे दशगणी जो न मिले उद्योग ॥८॥ भ्रष्ट करे भणनारने उपजी आलस अंग ॥ भक्ति करतां भक्तने करे भजनमा भंग ॥९॥ मिलतां कुटील मित्रने पलमा मृत्य पमाय ॥ सूडीथी सोपारीनो चोकश चूरो थाय ॥१॥ मन मेला तन उजला बगला कपटी अंग ॥ तातें तो कौआ मला तनमन एकज रंग ॥२॥ मृषा न बोलो मानवी जूठ थकी यशनाश ॥ प्रतीत नाले लोकमां धर्म न आवे पास ॥३॥ मात पिता बेटा बहु स्वार्थीआ सहु जाण ॥ स्वार्थ चूक्वाथी पछे आवशे मूकी मशाण ॥४॥ मोटाने कहेवाय नहीं नानाने कहेवाय ॥ शाशुमा शो वांक पण बहुनो वांक कढाय ॥५॥ मृग नाममे कस्तुरी ढुंढत आप बनमाहिं ॥ घटघट ब्रह्म व्यापी रह्यो मूरख सोधत क्याहि ॥६॥ माया काली नागणी तीन लोककु खाय ॥ जीवे काले कालजा मुवे नरक लइ जाय ॥ ७॥ Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४७८ ) मरणा मरणा क्या करो मरी न जाणे कोय ॥ मरणा एसा कीजियें फरी मरणा नवि होय ॥ ८ ॥ मारुं मारुं शुं करे नथी तारुं तिलमार ॥ सहु छोडी चाल्या जशुं पुत्र नारी परिवार ॥ ९ ॥ मधुर वचन शुणीने मिटे आवेलं अभिमान ॥ जरा जले दूधनुं मिटे जिम उभारानुं तान ॥ १० ॥ मटे नहि मरता लगे पडी टेव प्रख्यात ॥ फाटे पण फोटे नहि पडी पटोरे भांत ॥ ११ ॥ मूरखने प्रतिबोधतां मति पोतानी जाय ॥ टपलो शराण चढावतां आरीशो नव थाय ॥ १२ ॥ मान मले छे गुणवडे गुण विण मान न होय ॥ पोपट पाले प्रीतथी काग न पाले कोय ॥ १३ ॥ मन गयो तो जाने दे मत जाने दे शरीर ॥ ना खेचे कमान तो क्या लगेगा तीर ॥ १४ ॥ माखी मकोडो मूरखनर माथु खोसी मरंत ॥ भमर भौरींगने चतुर नर डंसी दूर फरंत ॥ १५ ॥ मन विना मलवु किस्युं चाववुं दांत विण ॥ गुरु विना भणवुं तिस्युं जीमवुं जेम अलूण ॥ १६ ॥ Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४७९ ) मागन कदी आलश करे तस्कर जाय न जाय ॥ चाकर बिचारा क्या करे लूण पराया खाय ॥ १७ ॥ मन कर्तव्य न्यारा फरे तन संतनके संग ॥ तुलसी एही वियोगसे लाग्यो नहि प्रभुरंग ॥ १८ ॥ महा महीनानु मावतुं जंगल मंगल गीत ॥ समय विनानुं बोलवु त्रणनी एकज रीत ॥ १९ ॥ यौवन धन जाशे जरुर उडे जेम कपूर ॥ भगवतने भज भावथी झुं हंसा चाटे धूळ ॥ १ ॥ योग्य खरच करतुं भलुं अधिक न करवुं क्यांइ ॥ लेखण मरी लखवुं भलुं पण रेडी नहि रुसनाई ॥ २ ॥ रयणी गुमावी सोवतां दिन परनिंदा मांय ॥ हीरा जेवो मनुष्यभव कवडी बदले जाय ॥ १ ॥ राग विना रागोडवुं निर्धनीयो फूलाय ॥ निर्बल सबलने गुण करे ते सहु फोकट जाय ॥ २ ॥ रोगराहत देह ज्यां लगें इंद्रिय पंच बलवान ॥ जरा दूर वली ज्यों लगें करो धर्म शुभ ध्यान ॥ ३ ॥ रूप ज्ञान वली बल घटे विवेक पण होय राख ॥ चिंताथी व्याधि वधे जिम वणिक एक लाख ॥ ४ ॥ Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४८० ) राग द्वेष नाठा नहीं क्रोधादिक वली चार ॥ तपस्यादिकथी शुं हुवे परनिंदा नहि पार ॥ ५ ॥ रईयत सब राजी रहे घटे न रावतमान || उपज वधे ज्युं राजकी सो प्रधान प्रमान ॥ ६॥ रस अनरस समज्या विना करे प्रेमनी वात ॥ विछुमंत्र जाणे नहि साप उपाडे हाथ ॥ ७ ॥ राज मिले पैसो मिले सब सुख मिलना सहेल ॥ मित्र रत्न संसारमें मिलना है मुश्कील ॥ ८ ॥ रे मन तज अब श्यामता केश करत उपदेश ॥ हम बदले तुम युं रहे एही बडो अपशोश ॥ ९ ॥ रातें वेला सूईने वेला उठे जेह ॥ विद्याधन वाधे धर्म रहे निरोगी देह ॥ १० ॥ लोभी नर धन संग्रहे अजाण बेशे राज ॥ भार उपाडे बलदीयो ए सहु परने काज ॥ १ ॥ लाखो पण अवगुण तजी एक ग्रहे गुण धीर ॥ सज्जन हंस सम लेखीयें नीर तजी पीये क्षीर ॥ २ ॥ लिखना पडना चातुरी ए सब बातां सहेल ॥ काम दमन मन वस करन गगन चढन मुश्केल ॥ ३ ॥ Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लीये लूटी धन कृपणन का राजा का चोर ॥... खंखेराय छे सासडे बोरडी केश बोर ॥४॥... लाड वडे अवगुण लहे शुम भत्ति आपे मार ॥ तेथी बालक ताडीएं लाड न गुण करनार ॥ ५॥ विपद् बराबर सुख नही जो थोरे दिन होय ॥. इष्ट मित्र बंधु प्रिया जान परत सब कोय ॥ १॥ .. वाहि व्यसन व्याधि अने वैरवाद व्यभिचार ॥ वकार छ वधवा थकी दुःखतणा दातार ॥२॥ व्यापारें धन संपजे खेतीथकी अनाज ॥ अभ्यासे विद्या मिले खडग बले मिले राजा ॥३॥ वा फरे बादल फरे फिरे नदीका पूर ॥ उत्तम बोल्या नवी फिरे जो पश्चिम उगे सूर ॥४॥ विण बोलाव्यो बहु बके विण तेडाव्यो जाय ॥ . विवेकने नहि ओलखे ते मूरखनो राय ॥५॥ विण परण्यो ते परणवा परण्यो तजचा चाय ॥ . . पहेलांने पाछल थकी बिहुँ जणा पस्ताय ॥६॥ व्यसनी कपटी लुब्ध नर वृथा बचन वदनार ॥ ... मित्राई महिए चारथी तेज सुखी संसार ॥७॥ Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४८२) "विद्यारूपी धनतणुं नूतन अजब गणाय ॥ खरच्या विण खूटी पडे वधे जेम वपराय ॥८॥ वातथकी वखणाय नर वातथकीज निंदाय ॥ वातथकी हलको पडे वातें कीमत थाय ॥९॥ वीती वात विसारी दे भविस्य वेलुं भाल ॥ जे बनी आवे सहजमां ते हित सदा संभाल ॥ १० ॥ विवेक विनानो मानवी जाणो पशुसमान ॥ वानरने पण छे जुओ हाथ पाय मुख कान ॥ ११ ॥ वींछी केरी वेदना जेहने वीती होय ॥ जाणे ते जन एकलो अवर न जाणे कोय ॥ १२ ॥ विद्या रही जे पुस्तकें धन परहाथे जेह ॥ काम न आवे समयपर फोकट जाणो तेह ॥ १३ ॥ विष वेश्या नारी नदी अग्नि जुवारी काल ॥ .. ए साते नहि आपणा वली विशेषे भूपाल ॥ १४ ॥ विद्या पहेली वय विशें बीजी वयमां धन ॥ न कर्यो धर्म त्रीजी वयें निस्फल खोयो तन ॥ १५॥ विद्याथी जे वेगलो शूका काष्ठसम एह ॥ विद्या जेहने मुख वसी मोटो जन जग तेह ॥ १६ ॥ Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४८३) बगर कारणे आमतेम खाली धका खाय ॥ उद्यम कांई करे नही ए मूरखनो राय ॥१७॥ समजु शंके पापथी अणसमजु हरखंत ॥ व लूखा व चीकणा ईणविध कर्म क्र्धत ॥१॥ सज्जन न तजे सज्जनता कीजें बहुत बिगार ॥ ज्युं चंदन छेदे त्युंहिं सुरभि करत कुठार ॥२॥ समज्या समज्या एकमत समजु टाले दोष ॥ समज समजने जीवडा गया अनंता मोक्ष ॥३॥ सोई नाके सिंधर पोवे ते किम आगो पेसे ॥ स्यादवाद विण धर्म प्ररुपे ते शालो शाल न बेसे ॥४॥ सत्य साचवे तेहने खल जन शुं करनार ॥ श्वान करडी नवि शके जे गज शिर असवार ॥ ५॥ सत्य संताडयुं नवि रहे खरे खरो ए खेल ॥ जिम आवे उपर तरी जल तरियेथी तेल ॥६॥ सात वेथना सर्व जन कीमत अकल तुल्य ॥ सरखा कागल हुंडीना पण आंक प्रमाणे मूल्य ॥७॥ सजन सम विचारियें अपना कुलकी रीत ॥ बराबरीशे कीजीयें विवाह वैर और प्रीत ॥८॥ Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४८४ ) सहुथी भुंडी चाकरी तेथी मुंडो भार ॥ तेहथी भुंडं जाच सोमने कहेवुं दातार ॥ ९ ॥ शज्जन शब जग सरस हे जब लग पड्यो न काम ॥ हेम हुतासन परखीये पीतल निकशे श्याम ॥ १० ॥ शठनी संगतथी सहे भला जनो दुःखमार ॥ माकडना मेलापथी खाय खाटलो मार ॥ ११ ॥ सज्जन मिलापी बहोत हे ताली मित्र अनेक ॥ जेने दीठे दिलठरे सो लाखनमे ओक ॥ १२ ॥ सिंहां संगम पुरुष वचन केल फले एकवार ॥ त्रीया तोरण हमीर हठ चडे न बीजी वार ॥ १३ ॥ स्वभाव जो सुधर्यो नहि भण्यो नही सुधरेल || छे चोरो यूरोपमां बहु भणतर भणेल ॥ १४ ॥ साहेब जरुखे बेठके सबका मुजरा लेत ॥ जेशी जनुकी चाकरी तेसी तिनुकु देत ॥ साधुकी संगत भली निस्फल कदी न होय ॥ चंदन पासे रुखडा ते पण चंदन जोय ॥ १६ ॥ सज्जन एसा कीजीए जेशा टंकण खार ॥ आप जले पर रीजवे भांगा सांधणहार ॥ १७ ॥ सज्जन एसा कीजिए जेशा ज्युवारी खेत ।। मूलसहित शिर कापतां तोए न मेले मीठ ॥ १८ ॥ १५ ॥ Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४८५ ) सबके आगे होयके कबुन कीजे वात ॥ सुधरे तो जरा जश हुवे बगडे गाली खात ॥ १९ ॥ सोम शियालने काचबो परघर पोला थाय ॥ सामो आवे आपघर सौ शंकेली जाय ॥ २० ॥ सदा न लक्ष्मी स्थिर रहे सदा न सुखनो संग || सदा न कायम सवलता सदा न चडतो रंग ॥ २१ ॥ सज्जन सज्जन जोइने मन संतोषी थाय ॥ जोइ चकोरा चंदने जेम मनमां मकलाय ॥ २२ ॥ समज्या विण जे नर धरे हृदय विशें अति रोष ॥ पाछलथी पस्ताय छे देखे ज्यां निजदोष ॥ २३ ॥ समय समयनी छायडी सुख दुःखनो नही पार ॥ पुन्य पाप दोय जोडला एमां सो अहंकार ॥ २४ ॥ साधु पूछे सतीने माली पूछे कूआ || ब्राह्मण पूछे कुंभारने आगाममां केटला मूआ ॥ २५ ॥ सत्य साचवे तेहने दुर्जन शुं करनार ॥ श्वान करडी नवि शके जे गज शिर असवार ।। २६ ।। संपद गई पाछी मले गया वले छे वहाण ॥ गत अवसर आवे नहि गया न आवे प्राण ॥ २७ ॥ सज्जन शहुने प्रिय पण दुर्जनने मनकाल ॥ जगत चक्षु रवि उदय छे घूक गणे विकराल ॥ २८ ॥ Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४८६) सबलाथी सडुको बीए नबलानेज नडाय ॥ वाघ तणु मागे नही भोग भवानिमाय ॥ २९ ॥ समज समज मन मानवी मरण तणुं भय राख ॥ काल विशे कर कालजी थर्बु बलीने राख ॥ ३० ॥ साधु भूखा भावका धनका भूखा नाही ॥ जो साधू धनका भूखा वोही साधु नाही ॥ ३१ ॥ साधु शब्दमे परखीये विपत पडे घरनार ॥ सूरा तबहीं परखीए जब निकशे तलवार ॥ ३२ ॥ संत पोकारी युं कहे सोधो आप शरीर ॥ पांचे इंद्रिय वस करो तो मले मोक्षमंदिर ॥ ३३॥ सज्जन तजे न सज्जनता दुर्जन तजे न वैर ॥ शाकर न तजे सरसपणुं शोमल तजे न झेर ॥ ३४ ॥ सुधरे नहि कुवाणीथी कीधे बहुत उपाय ॥ शीख भलीपरे आपतां काक न कोयल थाय ॥३५॥ संतोषसम नहि ओर सुख तप नहि क्षमा समान ॥ ज्ञानसमो कोई दान नही धर्म न दयासमान ॥३६॥ सहज मिला सो दूध बराबर मागलीया सो पाणी॥ खेच लीया सो रक्त बराबर संत पुरुषकी वाणी ॥३७॥ सत्य कदी नवि छोडीए सर्व सुखोनो धाम ॥ अमर थयुं सत्ये जुओ हरिश्चंद्रनु नाम ॥ ३८ ॥ Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४८७ ) 1. सज्जन चित्तमां नवि धरे दुर्जन जनको बोल ॥ मारतां पत्थर अंबने तो फल दीये अमूल ॥ ३९ ॥ संपथी संपद संपजे संपे जाय किलेश || ज्यां नही संपसदागम त्यां नहि सुख लव लेश ॥४०॥ स्त्री पियर नर साशरे संजमीयां सहवास ॥ एता हुवे अलखामना जो मंडे स्थिर वास ॥ ४१ ॥ स्त्री प्राय कहेवाय छे कजीआनी करनार ॥ चार मले जो चोटला भांगे जन घरबार ॥ ४२ ॥ श्रवण नयन मुखनाशिका सहुने एकज ठाय ॥ कृत्याकृत्य जुओ सर्वना जुदा आठहि जाम ॥ ४३ ॥ सर्वनुं हेत अहेत ते नेत्रथकी परखाय ॥ भलं. मुंडुं आरसी वडे जेम जरुर जणाय ॥ ४४ ॥ समय समय बलवान है नहिज पुरुष बलवान ॥ काबे गोपी लुंटीया ए अर्जुन ए बान ॥ ४५ ॥ स्ववस रंकपणुं भलुं नही परवस रंगरोल ॥ वर पोतानी पातली नहि परनुं घृत गोल ॥ ४६ ॥ सोबत करतां श्वानकी दो बातोका दुःख ॥ बीज्यों काटे पायुंको रीज्यो चाटे मुख ॥ ४७ ॥ शेठ तणा शाला थवा नकी सहु हरखाय ॥ कोई गरीब जो कहे कदी जीवडो नीकली जाय ॥४८॥ Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८८) सेवा करतां संतनी मिले मुक्तिमें धाम ॥ दुर्जन पासे असतां पडे कुटाईं चाम ॥ ४९ ॥ सर्प नारी समुद्रनो करीए नही विश्वास ॥ जालविये तो जीवियें नही तो थाय विनाश ॥५०॥ सज्जन एसा कीजीयें जाम लखन बत्तीस ॥ भीड पडे भाजे नहीं सोपे आपनो सीस ॥ ५१ ॥ हदमा रहिये हरघडी मन चायुं नव थाय ॥ हस्ति पण अंकुशवस अटक्यो नवि अटकाय ॥१॥ होन पदारथ हीतहे बिसर जात शब सुद्धि ॥ जेसी लखी नसीब में तेसी उकलत बुद्धि ॥२॥ हलदी जरदी ना तजे खट रस तजे न आम ॥ गुणीजन गुणने ना तजे अवगुण तजे न गुलाम ॥३॥ हिंसा दुःखनी वेलडी हिंसा दुःखनी खाण ॥ अनंता जीव नरके गया हिंसा तणे परिमाण ॥४॥ हठ अति नव कीजिये हठशे काज न होय ॥ ज्युं ज्युं भीनी कामली त्युं त्युं भारी होय ॥ ५॥ a समाप्त. Farmffitifimins Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ખાસ કરછી જન કામના હિતાર્થે પ્રગટ થતું પણ દરેક કોમના મનુષ્યોને એક સરખું ઉપયોગી . લે કાઈ પણ માસિક હોય તો તે માત્ર કચ્છી જૈન મિત્ર " સચિત્ર માસિકજ છે. કારણ કે આ માસિકમાં રસિક પણ બોધદાયક હા ! આ, સુંદર કાવ્યા. ઉતમ લેખો તથા ઈનામના હરિફાઇએ તેમજ મહાન પુરૂષોના જીવન ચરિત્ર સાથે ફોટાઓ, રંગબેરંગી મન મેહક બોધદાયક ચિત્રો અને જાહેર દેખાવા માટા ખર્ચે પ્રસિદ્ધ કરવા માં આવે છે. આ માસિક માટે જાણીતા માન પત્રોના અધિપતીઓએ તથા જાહેર પ્રજાએ એકી અવાજે વખાણી ઉતમ અભિપ્રાયે જાહેર કરેલ છે, જેઓ હજુ સુધી આ નાસિકના ગ્રાહક થયા નથી. તેઓને ગ્રાહક થવાસ ભલામણ કરવા માં આવે છે આવા મોંઘવારીના વખન છતાં વાર્ષિક લવાજમ ભેટના ઉત્તમ પુસ્તક તથા ટપાલ ખરડ સાથે માત્ર રૂપીઆ ત્રણ છે. લખા:આ. વ્યવસ્થાપક " કચ્છી જૈન મિત્ર ' માસિક. માંડવી, સુબઈ.