Book Title: Niti Tattvadarsh Yane Vividh Shloak Sangraha
Author(s): Ravichandra Maharaj
Publisher: Ravji Khetsi
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(४७७)
भणतरथी भांगे नही भख तरसनो मोग ॥ दिलगीरी उपजे दशगणी जो न मिले उद्योग ॥८॥ भ्रष्ट करे भणनारने उपजी आलस अंग ॥ भक्ति करतां भक्तने करे भजनमा भंग ॥९॥ मिलतां कुटील मित्रने पलमा मृत्य पमाय ॥ सूडीथी सोपारीनो चोकश चूरो थाय ॥१॥ मन मेला तन उजला बगला कपटी अंग ॥ तातें तो कौआ मला तनमन एकज रंग ॥२॥ मृषा न बोलो मानवी जूठ थकी यशनाश ॥ प्रतीत नाले लोकमां धर्म न आवे पास ॥३॥ मात पिता बेटा बहु स्वार्थीआ सहु जाण ॥ स्वार्थ चूक्वाथी पछे आवशे मूकी मशाण ॥४॥ मोटाने कहेवाय नहीं नानाने कहेवाय ॥ शाशुमा शो वांक पण बहुनो वांक कढाय ॥५॥ मृग नाममे कस्तुरी ढुंढत आप बनमाहिं ॥ घटघट ब्रह्म व्यापी रह्यो मूरख सोधत क्याहि ॥६॥ माया काली नागणी तीन लोककु खाय ॥ जीवे काले कालजा मुवे नरक लइ जाय ॥ ७॥

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