Book Title: Kushalchandrasuripatta Prashasti
Author(s): Manichandraji Maharaj, Kashtjivashreeji Maharaj, Balchandrasuri
Publisher: Gopalchandra Jain

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Page 58
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ४८ ) पहुंचाय देते हैं ॥२॥ पढ़ते गुणते कहते सुनते जो शान उपजता है, वह वाधिक ज्ञान है। परंतु मानसिक शान अंतर तेजी का कारण नहीं है ॥ ३॥ यथार्थ ज्ञान होने से हृदय में प्रकाश होता है। अंतर गत समझ पड़ती है, सब तरह की आशा छूट जाती है ॥४॥ निजस्वरूप को पाकर, हर दम वह मगन रहता है। और उसका ईश्वर से चकोरवत् प्रेम बढ़ता है ५ ईश्वर का प्रतिबिंब शान है। शान में ईश्वर श्राप नहीं है। ज्ञान की भक्ती व साधन से अथवा शान साधन से और भक्तिसाधन से ईश्वर से मिलाप होना सही है। ॥६॥ ख्याति, लाभ, पूजन, से शान मंद पड़ता है । जिस तरह श्रोस धूलि मेघ से निर्मल चंद्र मंद तेज होता है ॥७॥ जब तक यह शान भिन्न है, तब तक ही संसार है, ऐसा ठहराय के देव गुरु याने वृहस्पति विचार करते हैं। नारद वचन "परम प्रेम भक्ति कही दो प्रकार की" परम प्रेम सहित जो भक्ति सो दो प्रकार की है। शान सहित भक्ति १ और शान रहित भक्ति २, यह २ दो प्रकार है। जिसमें अंतर से तो हरि के पूजोपचार की तैयारी है, और ऊपर से रति विचार की तैयारी कर रहा है। वह भक्ति अंतर भाव को आश्रयण करके शान सहित कही जाती है ॥ २॥ और जो बाह्य से प्रतिबिंब याने ईश्वर की मूर्ति की उसी तरह पूजा की तैयारी करता है और अन्तर से रति विचार की तैयारी है, यह शान रहित भकि हे ॥३॥ प्रतिबिंब से बिंबक भी झलक के उठेगा, उंची नजर कर, वह शुद्ध स्वरूप श्राप झलक के उठेगा, याने प्रगट हो जायगा ॥४॥घही खिलाड़ी नगत में नानारूप कर खेल रहा है। और घट घट के राग रंग झेल रहा है ॥५॥ मेरे सरीखे सब उसके फरमाबरदार है । दम दम पर हुक्म बजाते हैं, कोई उजर For Private And Personal Use Only

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