Book Title: Kushalchandrasuripatta Prashasti
Author(s): Manichandraji Maharaj, Kashtjivashreeji Maharaj, Balchandrasuri
Publisher: Gopalchandra Jain
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ऐसा चितवन करे सो मनुष्य धन्य है॥४॥ यह पद्मावती देवी भगवान् श्री पार्श्वनाथ जी की शासन अधिष्ठात्री देवी हैं ।
'पूज्य सोई अरिहंत, न और" । पूज्य वही है, जो अरिहंत है, और पूज्य नहीं है, जगत पूज्य ईश्वर है, अथवा प्रणव ॐकार भी उसी तरह पूज्य है, क्योंकि जैन मत में पद ५ परम इष्ट उपासना किये जाते हैं, वे यह है १ अरिहंत २ अशरोर (सिद्ध), ३ श्राचार्य, ४ उपाध्याय, ५ मुनि, इन पांचों पदों का एक एक प्रथम अक्षर जैसे-श्र, अ, आ, उ, मु, को व्याकरण रीति से संधी करके "ॐ" सिद्ध होता है ॥ १॥ और जो अरिहंत की गद्दी पर बैठते हैं, सो श्रीपूज्य कहे जाते हैं, उनकी नवांगी पूजा श्रादि होते हैं। प्रकारांतर से वह अरिहंतो का ही बहुमान है। वे ही अरिहंत के वचनों का उपदेश करने से गुरु कहे जाते हैं । श्वेतांबर जैन श्रीपूज्ययति प्राचार्यों का आज भी श्वेतांवर जैन श्रीसंघ उसी भाव से श्रादर करते हैं, दिगंबरों में श्रीपूज्य भट्टारकों का होता है। यह व्यवहार जैन मत में है, इस पर भी थोड़ा विचार कर ले ॥२॥ गायत्री प्रणव का प्रतिबिम्ब है। जिसमें चौबीस अक्षर हैं, वही जैन मत में २४ तीर्थकर अवतार हुए हैं। संतन के सिर के मोर समान है ॥३॥ "प्रणव" मुख्य देव जैन मत में हैं, मन में विचार कर लो, और देव सब इसकी परछाई है. इसको अच्छी तरह समझ. इसमें कुछ झकझोर मत कर ।
"चार मूल साधन, और करुणा" दान १, शील २, तप ३, भाव ४, ये चार मूल साधन, और करुणा, यह ५ रतन कहे जाते हैं, इनमें करुणा मुख्य है, क्योंकि. करुणा से चारो साधन प्रतिदिन बढ़ते हैं, और करुणा विगर ४ साधनपूर्ण फल देते नहीं ॥१॥ इन्द्रिय, मन, मति, ये जीवों के प्रत्यक्षकरण है, इनमें से एक भी जिसको प्रत्यक्ष नहीं है, तो बे
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