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सुख नहीं मिलता ( गाथा ७५)
* हमारे इस जीवन के या पूर्व जीवन के अपराध के बिना हमारा कोई कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता । प्रतिपल इतनी श्रद्धा रखनी चाहिये ।
* गुणों की वृद्धि किये बिना, गुणों को क्षायिक बनाये बिना मोक्ष प्राप्त हो जायेगा, यह न मानें । कर्मों ने हमारे गुण दबा दिये हैं ।
* आत्मिक सुख का अंश भी अमृत तुल्य है, जो संसार के समस्त चक्रवर्तियों के सुख से बढ़कर है, यह मानें । यह जानने वाले मुनि संसार के सुख को दुःख एवं दुःख को सुखरूप जानते हैं ।
यदा दुःखं सुखत्वेन, दुःखत्वेन सुखं यदा । मुनि वेत्ति तदा तस्य, मोक्षलक्ष्मीः स्वयंवरा ॥
योगसार
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सीमंधर स्वामी को हम प्रार्थना करें और वे जब आ जायें तब उनके हम आतुर होकर दर्शन करेंगे ? या यह कहेंगे हैं कि 'समय नहीं है ?'
हमारे भीतर आत्मदेव बिराजमान है, सदा रहे हुए ही हैं । उनके दर्शन की क्या कभी इच्छा होती है ?
कौनसा कर्म रुकावट करता है जो इच्छा भी उत्पन्न करने नहीं देता ? वह है दर्शन मोहनीय कर्म । भगवान हमारे भीतर ही बैठे हैं, परन्तु हम रुचिहीन हैं ।
दर्शन की इच्छा हो वह सम्यग्दर्शन, जानकारी प्राप्त हो वह सम्यग्ज्ञान,
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उन प्रभु के साथ मिलन हो वह सम्यक्चारित्र । चारित्र मोहनीय प्रभु के मिलन को रोकता है । भीतर विद्यमान प्रभु को मिलने की इच्छा उत्पन्न कराने के लिए ही ज्ञानी हमें बाहर रहे जिनालय के दर्शन करने का कहते हैं । इसीलिए प्रभुदर्शन आत्म-दर्शन की कला मानी जाती है ।
यहां करीबन तीनसौ की संख्या है । उनमें से किसी को भी उत्कण्ठा उत्पन्न होगी तो मार्गदर्शन प्राप्त हो सकेगा । इसके
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कहे कलापूर्णसूरि - २