Book Title: Kahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Author(s): Muktichandravijay, Munichandravijay
Publisher: Vanki Jain Tirth

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Page 521
________________ मैं आपको ही पूछता हूं - 'मैं इतना बोलता हूं - आपमें भक्ति की, अध्यात्म की रूचि उत्पन्न हुई ? यहां से सुन कर जाओगे, फिर इस पर कुछ विचार करोगे या जीवन चलता है वैसे ही चलने दोगे ? प्रतीत होता है कि प्रत्येक काल में अध्यात्म-प्रेमियों को ऐसा ही अनुभव होता होगा । आज भी यदि देवचन्द्रजी पुनः जन्म लें तो यही पंक्ति बोलेंगे । कदाचित् वे इससे भी अधिक कठोर पंक्ति बोलें । आज तो जड़वाद की ही बोलबाला है। अध्यात्मवाद का तो भयंकर अकाल है । * इस ग्रन्थ में (चंदाविज्झय पयन्ना में) उपसंहार करते समय अन्त में समाधि-मरण की बात करते हैं । समाधि-मरण पर इतना बल इसलिये दिया जाता है कि इस पर ही सम्पूर्ण जीवन का आधार है । यदि मृत्यु के समय हम समाधि चूक गये तो समाप्त ! राधावेध चूक गये ! सद्गति रूपी द्रौपदी नहीं मिलेगी । श्री कृष्ण जैसे समकिती को भी अन्त में कैसा भयंकर रौद्रध्यान आ जाता है ? ये सभी दृष्टान्त हमारे कान में एक ही बात कहते हैं कि मृत्यु में समाधि अत्यन्त ही दुर्लभ है । समाधि मृत्यु के लिए भीतर रहे शल्यों का उद्धार होना चाहिये । सशल्य मृत्यु सद्गति प्रदान नहीं करती । लक्ष्मणा जैसी महासती साध्वी का भी सशल्यता के कारण संसार बढ़ गया । इन सब बातों पर हम पहले विचार कर चुके हैं । (वाचना के पश्चात् एक सज्जन ने खड़े होकर पूछा ।) प्रश्न - आपकी बातें अच्छी लगती है, परन्तु हमारा मन अध्ययन में किस कारण से नहीं लगता ? उत्तर - ज्ञानावरणीय कर्म का जोर है । हमारा मन इधरउधर बिखरा हुआ है। अनेक इच्छाएं हमारे मस्तिष्क में घूम रही हैं । अतः हमारा मन धार्मिक पढाई में नहीं लगता । एक ही इच्छा रखें कि मुझे धार्मिक अध्ययन ही करना है । फिर किसकी शक्ति है जो आपकी पढ़ाई रोक सके । (कहे कलापूर्णसूरि - २ ooooooooooooooooo ५०१)

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