Book Title: Kahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Author(s): Muktichandravijay, Munichandravijay
Publisher: Vanki Jain Tirth

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Page 528
________________ जैसी मिठाई होने पर भी नहीं चली क्योंकि किसी ने देखी नहीं थी । सबको लगा कि बकरी के गोबर जैसे ये क्या हैं ? पड़े रहे, परन्तु एक बार चखने के पश्चात् उसका असली स्वाद मालूम हुआ । आत्मा का स्वाद एक बार मिल जाये, फिर बाहर का सब फीका लगेगा । "तुज समकित रस स्वादनो जाण, पाप कुभक्ते बहु दिन सेवियु जी; सेवे जो कर्मने जोगे तोहि, वांछे ते समकित अमृत धुरे लिख्यं जी ।" - उपा. यशोविजयजी म.सा. * बाहर का भोजन अथवा पानी अधिक लिया जाये तो अजीर्ण हो जाता है, परन्तु यहां अधिक हो जाये तो भी अजीर्ण नहीं होता । ___ "अति सर्वत्र वर्जयेत्" - यह उक्ति अन्यत्र सत्य होगी, यहां नहीं । पिओ, जितना ज्ञान का अमृत पी सको । खाओ, जितने खा सको क्रिया सुरलता के फल । अजीर्ण हो जाये तो जवाबदारी मेरी ! आत्मा तृप्त हो, इसके लिए ही तो हम सब एकत्रित हुए आज तलहटी में दृश्य देखा न ? सभी समुदायों के महात्मा कैसे प्रेम से एकत्रित हुए थे? शासन अपना है। यहां कौन पराया है ? यह उदार दृष्टि रखें । ___कई बार दो वर्ष हमारे पास अध्ययन करने के पश्चात् कोई मुमुक्षु कहता है - 'अब मैं वहां दीक्षा लूंगा ।' मैं उसे प्रेम से आज्ञा देता हूं। चाहे जहां दीक्षा ले । आखिर शासन एक ही है न ? * आज प्रातः सबको दस मालाएं गिनने की शपथ दी थी । यहां बैठे महात्माओं को भी दस माला गिनने का अनुरोध करता हूं । यह भी एक अभ्यंतर तप है । पांच प्रहर का स्वाध्याय नहीं कर सकते हो तो २० माला गिन लो । आपकी गिनती बकुश - कुशील में नहीं होगी। इसमें (५०८Womwwwmomsons कहे कलापूर्णसूरि - २)

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