Book Title: Jiva aur Karmvichar Author(s): Publisher: ZZZ Unknown View full book textPage 7
________________ न और कर्म- विचार । [५ मूक है। परंतु उस अमूर्तीक रूपमें हो कर्मको छाया आत्मापर पट रही है। जिस प्रकार अमूर्तीक आकाश पर अभ्रको छाया प ड़ती है । ऐसा भी नहीं समझना चाहिये कि आत्मा प्रथम बद्ध नहीं थी कमोंके संयोगसे पुन, बंधा हो गई। ऐना भी नहीं मानना चाहिये कि आत्मा प्रथम गुण रहिन था पीछेले कमोंके संयोगले सगुण बन गया है । आत्मा अनादि कालसे हो अशुद्ध है। अशुद्धताका कारण भात्माकी वैभाविक शक्ति है । समस्त द्रव्योंमें परिणमन होता है । परंतु अशुद्ध पुल और मशुद्ध जीवों का विभाव परिणमन होता है । घाकी द्रव्योंमें स्वभाव परिणमन ही होता है शुद्ध जीव में भी स्वभाव परिणमन होता है । जीव में विभाव-परिणमन अनादिकाल्से है इस विभाग परिणमनमे ही चौरासी लाख जातियोंमें जन्मता और मरता है। · संसारी श्रात्माका स्वरूप और कर्म संबंध | आत्मा अनादिकाल से ही शुद्ध है । जिम प्रकार सुवर्णकी मिट्टी में सुवर्ण अनादिकालते हो अशुद्ध अवस्था में है । ऐसा नहीं है कि सुवर्ण किसीने मिट्टी में मिला दिया हो । या प्रथम शुद्ध हो, मिट्टी में मिलने के बाद अशुद्ध होगया हो । परतु स्वभावरूपसे ही मिट्टी में सुवर्ण अपनी अशुद्ध अवस्थामें है । ठीक इसी प्रकार भरमा अनादि कालसे स्वयमेव स्वभावरूपसे अशुद्ध है । वह अशुद्धता आत्मामें भाविक शकिके कारणसे फर्मसंयोग रूप हो रही है। वैभाविक शक्तिके द्वारा आत्माका परिणमन विभावरूपPage Navigation
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