Book Title: Jiva aur Karmvichar
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 15
________________ जीप और कर्म-विचार | [१३ रूपाप धारण करते करते अनंतकाल हो गया । परन्तु कर्मोको सत्ता जीवके साथ होने से विभिन्न प्रकारको रूप धारण की अवस्था नहीं मिटती है । एक ओके आसुओंको एकत्रित किया जाय तो दिनने दो समुद्र भर सक्त है इसलिये आप अब अनुमान कीजिये कि एक जीवने कितने रूप धारण किये यह सब फल मका ही है । 1 शुद्ध जीवका स्वभाव भ्रमण करों से रहित है | परंतु अशुद्ध जीवया स्वभाव भ्रमण परनेफा है शुद्ध जीव ऊर्ध्वगति से जिस लोक के संभाग में विराजे हैं, वे वैसे ही सदैव के लिये स्थित रहेंगे परंतु अशुद्ध जीव विविध प्रकारके आहार-भय-मैथुन और परिग्रहके योगसे सर्वत्र भ्रमण करता है । निन्तर भ्रमण करना है । इस लेक्में भ्रमण करता है और फ्लोष में भी भ्रमण करता है । घूमना घूमना घूमना ही समान हो रहा है । धागमन करता है । संक्रमण करता है । एक शरीग्यो छोडकर दूसरे शरीर की प्राप्ति के लिये त्रिलोक मे सर्वत्र भ्रमण करता है । कर्मोकी परात्रीनता से जीवका भ्रमण करने का स्वभाव हो गया है । इसी प्रकार अशुद्ध जीव आहार-भय मैथुन और परिग्रह संज्ञाऑसे सदैव याफुटित दुःखी संवहन और पीडित हो रहा है । एक क्षण मात्र भी ज्ञात नहीं है I एक क्षणभर भी निराकुल नहीं है । एक क्षण मात्र अपने स्वरूपमें स्थित होकर परमानदमें निमग्न नहीं है, सतत ही संकुशित है, सतत पीड़ित है, सततही दुखी है, सतत चिन्तातुर है, सतत भयभीत है सात प्रकारके भयोसे क्लेदिन हैं ।

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