Book Title: Jiva aur Karmvichar
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 11
________________ जीव गौर फर्म-विवार । होती है इसलिये मोहनीय फर्मके उदयसे जीवका परिमान भी विपरीत-हानप या संशयरूप बना रहता है। शन मोर बुद्धिको विपरीतता अथवा (अज्ञान जो मोहनीय कम के उससे हुआ है) भागों से बात्मा के परिणामोंमे रिशेपलप नात्रतम् सपायोका रस नितर भरा रहता है। जिससे मात्मा रागडेप फे अनिष्टानिष्ट विषयों में यात्म और भनात्म भावना वर पने मन पवन-कारसे हिंसादिका भयं कर कार्य करता है जिससे यह नसाय पुदगल वर्गणाओंको बज कर लेता है। अश्या भपने ज्ञान दर्शन गुणोंको घात कर भगान भारले असंख्य कामणिवर्गणाओंको सब पर लेना। मोहनीर कर्म जोग साधनादिकाल सबधित हो रहा है संसारी जीवोंको अशुद्धनाका मूल कारण एक मदनीय कर्म है। मोहनीय कर्मसे जीव रागढ पना होता है। रागद्वे पसे आत्मीय गुणोंका घात करना , मात्मगुणोंका घात दोनेसे कर्मबंधरूप होता है अथवा अशुद्धरूप ढाता है । अशुद्ध अवस्थामे जावका स्वरुप शुद्ध स्वरूासे बिलकुल विपरीत होता है। शुद्ध अवस्थामें जीवका स्वहर अमूर्तीक है। अशुद्ध अवस्थामै जीवका स्वरूप मूर्तीक है (झाप, रस, गध, स्पश सहिन होता है ) शुद्ध अवस्थामे जीवका सारूप केवलज्ञान सहित प्रिलोकफा सानी ओर दृष्टा है। परंतु अशुद्ध अवस्था जात्रका झान मत्यंत स्वल्प और विपरीत हो जाता है धनहानि काय, पृथ्वी काय, यप काय, तेज फाय और घायु-कायके जीनोंका ज्ञान बिल. कुल नदी सा है।

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