Book Title: Jiva aur Karmvichar
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 12
________________ १०] जीव और कर्म-विचार। निगोदिया जीवोंमें अक्षरके अनतर्वे भाग प्रमाण ही शान रह जाता है। यद्यपि ज्ञानका आभाव सर्वथा नहीं है नोभी यक्षरके अनंत भाग प्रमाण ज्ञानकी प्रतीति सर्व-साधारण, विवार. शील मनुष्योंको नहीं होती है दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय,चार इन्द्रिय जीवोंमें ज्ञानकी इतनी सदना है कि जो न कुछ के बराबर है। पंचेन्द्रिय जीघोंमें ज्ञानका प्रकर्प अधिक है। सलारी जीवोंका परिज्ञान इन्द्रिय और मनके आधीन है इसलिये वह ज्ञान पराश्रित होनेसे अपरिपूर्ण है, अनंत पदार्थोक्रो एक साथ परिज्ञान नहीं करा सका है। इसलिये अशुद्ध संसारी जीवों की आत्मा कथंचित् अमूर्तीक पदार्थों के ज्ञान-रहित मूर्तीक ज्ञान-लहित है। शुद्ध जीव तर्ना नहीं है न कर्मफलका भोका ही है। परंतु अशुद्ध जीव कर्मों का कर्ता है और उसके फलका भोक्ता भी है। अशुद्ध जीव कर्मों को नवीन रूपमे ग्रहण करता है और उसका फल इन्द्रिय, शरीर, आयु और श्वासोश्वास रूप प्राणोंको धारण करता है, जन्म-मरणको प्राप्त होता है। सुख-दुस रूप अवस्थाको प्राप्त होता है । नर-नारकादि पर्यायाँको धारण करता है। चाह्यमें धन धान्यादि रूप कुटंब परिवार आदि फलको प्राप्त होता है भोगने वाला होता है। संसारमें जिनती वस्तुएं प्रत्यक्ष दीख रही हैं उन सबका भोका यह जीव है और इस जीवने ही अपने कर्मोंके फलसे उन वस्तुओंको प्राप्त किया है। जीवाने जैसा पाप या पुण्य

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