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जसराज के दोहे याद मिलेंगे परन्तु वे यह नही जानते कि उनका प्रिय कवि
जसराज कौन हुआ है। भारतीय जनता काव्य रसिक तो अतिमात्रा में है परन्तु कवि जीवन की ओर यहाँ विशेष ध्यान कभी नही दिया गया। यही कारण है कि भारत के अनेक मनीषी कवियों को देशव्यापी सम्मान एव गौरव प्राप्त होने पर भी उनका इतिवृत्त लगभग अज्ञात सा ही है ।
जसराज अठारहवीं सदी के सुप्रसिद्ध जैन कवि जिनहर्प हैं। वे खरतर गच्छीय मुनि शान्तिहर्ष के शिष्य थे। उनकी साहित्य सेवा लगभग पचास वर्षों तक सतत चलती रही और उन्होंने अनेक सरस तथा उपयोगी रचनाए प्रस्तुत की ।
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कवि जिनह की भाषा सुललित प्रसाद गुण सम्पन्न एव परिमार्जित है । उसका साहित्यिक स्वरूप बडा मधुर एव आकर्षक है । सरस्वती का कवि को यह वरदान है । कवि ने जन्म भर सरस्वती की उपासना की है और प्रायः उनकी सभी रचनांए वदना - पूर्वक प्रारम्भ हुई हैं ।
प्रस्तुत प्रकाशन में कवि को अनेक फुटकर रचनाओं को सम्मिलित किया गया है कवि की राजस्थानी भाषा भी अत्यन्त सुललित एव साहित्यिक है । उदाहरण लीजिए
मभा पूरि विक्रम्म, राइ बैठो सुविसेसी । तिण अवसर आवीयउ, एक मागध परदेसी ॥ ऊभो दे आसीस, राइ पूछइ किहां जासौ । अठा लगें आवीयो, कोइ तें सुप्यो तमासो ॥ कर जोडि एम जंपइ वयण, हुकम रावलो जो लहु । जिनहर्ष सुणण जोगी कथा, कोलिंग वाली हैं कहु ॥ १ ॥