Book Title: Jayanand Kevali Charitra
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 6
________________ अमात्य ने उनके आशय को न जानते हुए भक्ति से अत्याग्रह करने पर भी कुछ न लेने से अमंगल का विचारकर रोषपूर्वक कहा "यह अमृत के समान आहार नहीं सूझता तो क्या विष सूझता है ? या क्या तेरे नेत्र चले गये हैं ?" अति रोष में आकर प्रीतिसुन्दरी भी बोल उठी "जैन साधु दाक्षिण्य रहित होता है । दाक्षिण्य तो शुद्ध कुल में होता है । लगता है कि ये निम्नकुल के हैं ।" तब दूसरी पीछे न रही, उसने शुध्यति का अर्थ देखना करके कहा 'प्रकट प्रकाश में भी न शुध्यति' ऐसा बोलनेवाला अन्धा है । इसे भील को दे देना चाहिए । इस नगर में अनेक याचक हैं । उनको दान देंगे और मंगल करेंगे । दान तो जहाँ कहीं भी दिया जाय वह निष्फल नहीं होता ।'' इस प्रकार दुष्टवाक्यों से तीनों ने अशुभ कर्मोपार्जन कर लिया । मुनि तो रोष-तोष में सम परिणामी थे । घर के बाहर आ गये। "यही तो थी जैन साधु की पहचान । कहा है "सोहा भवे उग्गतवस्स खंती" उग्रतपस्वी की शोभा क्षमा से हैं । आत्मा अमंगल और मंगल की वास्तविकता से अनभिज्ञ होता है, तब मंगल को अमंगल और अमंगल को मंगल मान स्वयं का अहित कर लेता है । मंत्री परिवार इस विषय में विचार रत था । तभी उसका धर्मरुचि मित्र जो कि श्रावक था किसी कार्य से आया । धर्मी आत्मा की मित्रता आत्मा को दुर्गति से बचा देती है । आत्मा का प्रबल पुण्य उदय में आनेवाला होता है, तब दुर्गति में जाने की तैयारी वाले को बचानेवाला मिल ही जाता है । ऐसा ही हुआ मंत्री परिवार के लिए ।

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