Book Title: Jayanand Kevali Charitra Author(s): Jayanandvijay Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti View full book textPage 5
________________ उस राजा का एक ज्योतिषविशारद वसुसार नामक पुरोहित था । राजा, मंत्री आदि सभी सद्गुणों के कारण धर्म के योग्य थे । परंतु बोधि की सामग्री के अभाव से पूर्व में मिथ्यादृष्टि थे । पुरोहित तो गुण रहित और स्वकुलाचार का आग्रही था । इस प्रकार उनका समय व्यतीत हो रहा था । शास्त्रकारों ने इसीलिए कहा हैं कि जब तक सम्यग्दर्शन प्राप्त होने का समय परीपक्व न हो, तब तक उसके योग्य सामग्री की प्राप्ति भी नहीं होती । जब समय परीपक्व हो जाता है तो अपने आप उसके योग्य सामग्री की प्राप्ति हो जाती है । तभी तो कहा है" "भवस्थिति परिपक्व थया विण कोई न मुक्ति जावे ।" एकबार मतिसागर के घर तीन ज्ञान संयुक्त, युवावस्थावान्, सौभाग्यशाली, तप से देदीप्यमान कोई राजर्षि मासक्षमण के पारणे के दिन गोचरी के लिए घूमते हुए आ गये । मंत्री भी उन मुनि भगवंत को देखकर अवसर पर पधारे, ऐसा मानकर आनंदित हआ। उसके पश्चात् प्रथम प्रिया प्रीतिसुन्दरी को दान देने के लिए आदेश दिया । दान प्रिय वह भी हर्षित होती हुई बड़े भाजन में से क्षीर वहोराने हेतु क्षीर ले आयी । तब क्षीर के कुछ छींटे भूमि पर गिर गये । मुनि ने कहा यह शुद्ध नहीं है। (मुनि को नहीं कल्पता) । उसे छोड़कर अग्नि पर रहे हुए भाजन में से चावल देने के लिए उद्यत हुई तो मुनिभगवंत ने कहा यह भी नहीं कल्पता । फिर वह सचित्त पदार्थ से ढंकी हुई दाल देने के लिए उद्यत हुई तब भी साधु ने कहा "साधु को नहीं खपता" फिर सचित्त धान्य पर का घी, शक्कर, दो दिन पूर्वका दहीं का भी मुनि ने निषेध किया । तब कल बनाये हुए मोदक लाकर देने लगी तो 'एतेऽपि न शुध्यन्ति' यह भी नहीं सुझते ऐसा कहा ।Page Navigation
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