Book Title: Jainology Parichaya 05
Author(s): Nalini Joshi
Publisher: Sanmati Tirth Prakashan Pune

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Page 9
________________ पाठ २ आचार्य हेमचन्द्र और राजा कुमारपाल ईसवी की दसवीं सदी से गुर्जर (गुजरात) प्रदेश में श्वेताम्बर साधुओं का 'चन्द्र' गच्छ नाम से प्रसिद्ध विहार करनेवाला गच्छ था । ग्यारहवीं सदी में चन्द्र गच्छ के देवचन्द्र नामक आचार्य 'धंधुका' नाम के गाँव में पहँचे । उनका प्रवचन सुनने के लिए 'मोढा' वैश्य परिवार के 'चच्च' और 'चाहिनी' ये पति-पत्नी अपने छोटे बालक के साथ वहाँ पहुँचे । बालक चंगदेव' बहुत तेजस्वी एवं बुद्धिमान था । आचार्य देवचन्द्र और चंगदेव दोनों के मन में एकदूसरे के प्रति, धर्मसम्बन्धित अनुराग उत्पन्न हुआ । देवचन्द्र ने मन ही मन जाना की यह तेजस्वी बालक आगे जाकर, जैनधर्म का खूब प्रचार-प्रसार करेगा । चंगदेव के मामाजी के से आ. देवचन्द्र ने 'चच्च और चाहिनी' से 'चंगदेव' को धर्मसमर्पित करने की प्रार्थना की । उस समय 'चंगदेव' की आयु नौ साल की थी (इ.स.१०९८)। गच्छप्रवेश के बाद चंगदेव का नाम 'सोमचन्द्र' रखा । उसी समय से बालक का अध्ययन शुरु हुआ । उसकी स्मरणशक्ति और धारणाशक्ति बहुतही तीव्र थी । समग्र जैन और ब्राह्मण ग्रन्थों का अध्ययन उन्होंने बहुतही अल्प अवधि में कर लिया । सर्व शास्त्रों में और ध्यानयोग में भी प्राविण्य प्राप्त किया । उम्र के सोलहवें साल में ही सोमचन्द्र समग्र विद्या एवं शास्त्र में पारंगत हुए । इ.स.११०६ में उनको आचार्यपद पर अभिषिक्त किया । तभी से वे 'आचार्य हेमचन्द्र' अथवा 'हेमचन्द्राचार्य' नाम से विख्यात हए । स्वर्ण जैसी तेजस्विता और चन्द्र जैसी शीतलता होने के कारण उनका नाम बहुतही अर्थपूर्ण था । आचार्यपद की प्राप्ति के बाद वे मख्यत: गर्जर प्रान्त में जैनधर्म के उद्धार और प्रचारकार्य में कार्यरत हुए । उन्होंने सोचा, 'जब तक कोई राजा महाराजा इस धर्म का नायक न हो, तब तक यह संकल्प सिद्ध होना मुश्किल है।' विविध देशों में विहार करते हुए, प्रतिबोध देते हुए गुर्जर राज्य का प्रुमख नगर अणहिल्लपुर पाटण में उन्होंने प्रवेश किया । उस समय गुर्जर देश का आधिपत्य चौलुक्य वंश के राजा 'सिद्धराज जयसिंह' कर रहे थे । हेमचन्द्र के विद्वत्ता की ख्याति सुनकर, सिद्धराज उनके दर्शन के लिए उत्कंठित हए । राजा पर हेमचन्द्र की विद्वत्ता और चारित्र का बहुत प्रभाव पडा । राजा ने हेमचन्द्र से कहा, 'आप कृपा कर, निरन्तर यहाँ आया करें और धर्मोपदेश द्वारा हमें सन्मार्ग बताया करें ।' राजसभा में हेमचन्द्र का निरन्तर आगमन होने लगा । तत्त्वचर्चा में वे माहीर थे । देशदेशान्तरों से आये हए विद्वानों की सभा में उनका वादविवाद-पटुत्व सिद्ध हआ । हेमचन्द्र के प्रभाव से सिद्धराज के मन में जैनधर्म के विषय में आदरभाव निर्माण हआ । सिद्धराज का कुलपरम्परागत धर्म 'वैष्णव' था । यद्यपि उन्होंने कुलधर्म का त्याग नहीं किया था तथापि जैनधर्म के प्रति विशेष भक्तिभाव रहता था। 'आचार्य हेमचन्द्र' और 'सिद्धराज जयसिंह' का साहचर्य बहत साल तक रहा । इस न्यायी और विद्याप्रेमी राजा ने ४९ वर्ष राज्य किया । ईसवी सन ११४२ में महाराज सिद्धसेन का देहान्त हुआ । हेमचन्द्र ने 'सिद्धहैमशब्दानुशासन' नाम का अपना महान व्याकरण-ग्रन्थ' महाराज सिद्धराज को समर्पित किया था। सिद्धराज के मृत्यु के उपरान्त लगभग दस-पन्द्रह साल आ.हेमचन्द्र ने अन्य प्रदेशों में विहार किया । उनके अद्भुत प्रभाव से साधुसंघ और श्रावकसंघ को वृद्धि हुई । बीच-बीच के वर्षावासों में हेमचन्द्र ने अपनी अपूर्व ज्ञानशक्ति से अपार ग्रन्थराशि का निर्माण किया । सिद्धराज के बाद गुर्जर भूमि के अधिपति महाराज कुमारपाल हुए । उन्होंने दस-बारह साल राज्य की सीमा बढाने के प्रयास किये । दिग्विजय प्राप्त करके उन्होंने अनेक राजाओं को वश किया । अतुलनीय पराक्रम से पूरा राज्य निष्कण्टक किया । अपनी सीमा के अन्तर्गत शान्ति का साम्राज्य फैलाने की कोशिश की । कालाकौशल की वृद्धि होने लगी।

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