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कुमारपाल की शासनव्यवस्था पर हेमचन्द्र बहतही प्रसन्न हुए । उन्होंने पुनः पाटण नगर में प्रवेश किया । श्रीसंघ ने बडी धामधूम से हेमचन्द्राचार्य का नगर-प्रवेश-समारोह करवाया । इतिहास कहता है कि, कुमारपाल महाराज को आ.हेमचन्द्र ने दो बार प्राणान्तिक संकट से बचाया था । अतः नगरप्रवेश के उपरान्त कुमारपाल हेमचन्द्राचार्य के एकनिष्ठ भक्त बनें।।
हेमचन्द्र उत्कृष्ट योगी, परमदयालु और नि:स्पृह थे । यद्यपि राजा उनका भक्त था तथापि उनको धनमान-पूजासमकमान आदि की जरुरत नहीं थी । आ. हेमचन्द्र की शिक्षा के अनुसार, राजा कुमारपाल ने अपने राज्य में प्राणिहिंसा के ऊपर रोक लगाया । पूर्ण अहिंसा का प्रचार किया । द्यूत-मांस-मद्य-शिकार आदि दुर्व्यसनों का बहिष्कार करवाया । कुमारपाल ने ईसवी सन ११६० में शुद्ध श्रद्धानपूर्वक जैनधर्म की गृहस्थदीक्षा का स्वीकार किया ।
आ.हेमचन्द्र द्वारा रचित ग्रन्थसम्पत्ति देखकर हम आश्चर्यचकित होते हैं । व्याकरण-न्याय-काव्य - कोष-अलंकार-छन्द-नीति-स्तोत्र आदि सब विषयों पर उन्होंने अनेक ग्रन्थ लिखें । तत्कालीन सर्व धर्म के विद्वानों ने उन्हें 'कलिकालसर्वज्ञ' यह उपाधि समर्पित की । उन्होंने ‘कुमारपालचरित' नामक ग्रन्थ की रचना की थी । उसमें यह खूबी थी कि एक प्रकार से पढ़ें तो वह कुमारपाल राजा की जीवनी थी । दूसरे प्रकार से पढ़ें तो प्राकृत व्याकरण के नियमों के बहुत सारे उदाहरण उसमें निहित थे । 'देशीनाममाला' नाम का उनका ग्रन्थ भी अपूर्व है क्योंकि समकालीन प्रादेशिक बोलीभाषाओं के शब्दों की वह डिक्शनरी थी।
आ. हेमचन्द्र का शिष्यसमूह बहुत बड़ा और प्रभावशाली था । ईसवी सन १९७३ में उन्होंने निर्मल समाधिसहित प्राणत्याग किया।
कुमारपाल के शासनकाल में 'अणहिल्लपुर-पाटण', भारत के सर्वोत्कृष्ट नगरों में से एक था । व्यापार तथा कलाकौशल के कारण वह नगर समृद्धि के शिखर पर था । एक दन्तकथा के अनुसार, उस समय उस नगर में १८०० करोडपति रहते थे । कुमारपाल प्रजा का पालन पत्रवत् करते थे । प्रजा की स्थिति लिए गुप्त वेश में शहर भ्रमण करते थे । प्रजा के ऊपर के 'कर' और 'दण्ड' बहुत कम कर दिये थे।
राजा कुमारपाल बडे सत्यनिष्ठ थे । जिनेन्द्र भगवान की नित्य पूजा करते थे । अभक्ष्य पदार्थों का भक्षण उन्होंने कभी नहीं किया । दीनदुःखी और याचकों को अगणित द्रव्यदान करते थे। गरीब जनता की निर्वाह के लिए हर साल लाखों रुपये राज्य के खजाने में से दिये जाते थे । उन्होंने जैन शास्त्रों का उद्धार कराया । अनेक पुस्तकभण्डार स्थापन किये । सैंकडो पुरातन जैन मन्दिरों का जीर्णोद्धार किया ।
तारंगा आदि तीर्थक्षेत्रों पर शिल्पकला के अद्वितीय नमूने और अनुपमेय मन्दिर बनाये । कुमारपाल ने जैनधर्म का उत्कृष्टता से पालन किया और सारे गुजरात को एक ‘आदर्श जैन राज्य बनाया ।
अपने गुरु हेमचन्द्र की मृत्यु के छह महिने बाद ईसवी सन ११७४ में, ८0 वर्ष की आयु भोगकर, महाराज कुमारपाल स्वर्गवासी हए । सच्चे अर्थ में, हेमचन्द्र-कुमारपाल की जोडी 'महर्षि-राजर्षि' के रूप में इतिहास में अमर रहेगी ।
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स्वाध्याय : प्रश्न : राजा कुमारपाल की विशेषताएँ लगभग पन्द्रह पंक्तियों में लिखिए ।
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