Book Title: Jainology Parichaya 05
Author(s): Nalini Joshi
Publisher: Sanmati Tirth Prakashan Pune

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Page 13
________________ कुप्तकालीन जैन मूर्तियाँ ईसा की चौथी शती से पायी जाती है। प्रतिमाओं पर पृथक्-पृथक् चिह्नों का प्रदर्शन आठवीं शती से धीरे-धीरे प्रचार में आया । इसलिए उसके बाद की मूर्ति के पादपीठ पर वृषभ, गज, बन्दर, अश्व आदि चिह्न दिखायी देते हैं । धातु से निर्मित प्रतिमाएँ भी प्राचीन काल से पायी जाती है । ये प्रतिमाएँ प्राय: ब्रान्झ से बनायी जाती थी । बहुतसी जैन धातु प्रतिमाएँ प्रिन्स ऑफ वेल्स संग्रहालय में सुरक्षित हैं । मैसूर के अन्तर्गत श्रवणबेलगोला के विन्ध्यगिरि पर विराजमान ‘बाहुबलि' की पाषाणप्रतिमा सबसे ऊँची और प्रसिद्ध है । पूरे भारतभर में बाहुबलि की मूर्तियाँ अनेक स्थल पर पायी जाती है। जैन मूर्तिकला में तीर्थंकरों के अतिरिक्त जिन अन्य देवीदेवताओं को रूप प्रदान किया गया है उनमें यक्ष और यक्षिणियों की प्रतिमाएँ ध्यान देने योग्य है । चक्रश्वरी, धरणेन्द्र-पद्मावती, अंबिकादेवी, सरस्वती, अच्युतादेवी आदि अनेक मूर्तियाँ विविध आख्यानों से सम्बन्धित हैं। जैन चित्रकला : जैन चित्रकला के सबसे प्राचीन उदाहरण तामील प्रदेश के तंजोर के समीप 'सितन्नवासल' की गुफा में मिलते हैं । इस गुफा का अलंकरण (चित्रकारी) महेन्द्रवर्मा ने सातवीं शती में किया था । यह राजा चित्रकला का इतना प्रेमी था कि उसने 'दक्षिण चित्र' नामक शास्त्र का संकलन किया था । जैन चित्रकारी में भित्तिचित्र, ताडपत्रीय-चित्र, कागजपर-चित्र, काष्ठ-चित्र एवं वस्त्रपटपर चित्रित नमूने पाये जाते हैं । एलोरा के जैन मन्दिरों में भी छत पर चित्रकारी पायी जाती है । तिरुमलाई के जैन मन्दिर में, श्रवणबेलगोला के जैन मठ में भी जैन चित्रकारी के सुन्दर उदाहरण विद्यमान है। जैन शास्त्रभाण्डारों में जो ताडपत्रपर लिखित हस्तलिखित है उनमें भी चित्रकारी के नमूने अंकित हैं। जैसे ही कागज का आविष्कार हआ वैसे भारत में ग्यारहवीं शती के आसपास चित्रकारी से युक्त कागज की पोथियाँ प्राप्त होती हैं । चान्दी और सोने से बनायी गयी स्याही से पोथियों पर हंस, फूलपत्तियाँ अथवा कमल आदि चित्रित किये गये हैं । जैन शास्त्रभाण्डारों में काष्ठ के ऊपर चित्रकारी के भी कुछ नमूने प्राप्त होते हैं । ये काष्ठ, पोथियों की रक्षा के लिए ऊपर-नीचे रखे जाते थे । काष्ठ के समान, वस्त्रपटों पर भी यक्ष-यक्षिणि, समवसरण, नवग्रह आदि के चित्र पाये जाते हैं। पुणे में स्थित भाण्डारकर प्राच्यविद्या संस्था में, ताडपत्रपर लिखित और कागज पर लिखित, बहुत पुरानी हस्तलिखित पोथियाँ (पाण्डुलिपियाँ) संग्रहीत की हुई हैं । कई पोथियों में 'मिनिएचर पेन्टिग्ज्' पायी जाती है। एक-दो वस्त्रपट भी सुरक्षित रखे हैं । मनमोहक रंगों से खींचे गये चित्र की रेखाएँ और रंग किसी भी व्यक्ति को आकर्षित करते हैं । हस्तलिखित शास्त्र के विशारद कहते हैं कि, 'भारत में प्राप्त सभी हस्तलिखितों में जैन पोथियाँ संख्या से अधिक और सबसे सुन्दर है।' जैनविद्या के प्रत्येक अभ्यासक को चाहिए कि वह तत्त्वज्ञान और साहित्य से भी ज्यादा रुचि 'जैन कला' में रखें क्योंकि पुराने जमाने से अल्पसंख्याक होनेवाले जैन समाज ने भारतीय कलाओं को अभूतपूर्व योगदान दिया है, जो जैनियों की रसिक कलादृष्टि के मूर्त आविष्कार हैं । * (डॉ. हीरालाल जैन द्वारा लिखित, “भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान' इस किताब के आधार से प्रस्तुत पाठ लिखा हुआ है ।)

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