Book Title: Jain Siddhant Prakaran Sangraha
Author(s): 
Publisher: Ajramar Jain Vidyashala

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Page 8
________________ जैन सिद्धांत प्रकरण संग्रह. ॥ अथ श्री नवतत्वनो थोकडो ॥ ॐ श्रीपार्श्वनाथाय नमः ॥ अथ श्री नवतख लिख्यते ॥ हवे विवेकि सम्यक्त्वदृष्टि जीवने, नव पदार्थ जेहवा छे तेहवा तथारुप बुद्धिममाणे गुरु आम्नायथि धारवा, ते नवपदार्थना नाम कहेछे. जीवतव, अजीवतत्व, पुण्यतत्व, पापतत्व, आश्रवतत्व, संवरतत्व, निर्जरातत्व, बंधतत्व, मोक्षतत्व. हवे जीवतत्व ते केहने कहिये. चैतन्यलक्षण, सदासउपयोगी, असंख्यात प्रदेशी, सुखदुःखनो जाण, सुखदुःखना वेदक तेहने जीवतत्व कहिये. अजीवतत्व ते केहने कहीये, जडलक्षण, चैतन्यरहित, तेहने अजीवतत्व कहिये. पुण्यतत्व ते शुभ कमाणिये करी, शुभ कर्मने उदये करी, जेहना फल आत्माने भोगवतां मीठां लागे तेहने पुण्यतत्व कहिये. पापतत्व ते अशुभ कमाणिये करी, अशुभ कर्मने उदये करी, जेहना फल आत्माने भोगवता कडवां लागे, तेहने पापतत्व कहिये. आश्रवतत्व ते, अवतने अपच्चखाणे करी, विषय कषायने सेववे करी, आत्मारुपतलावने विषे इंद्रियादिक घडनाले छिद्रेकरी, कर्म पापरुप जलना प्रवाह आवे, तेहने आश्रवतत्व कहिये. संवरतत्व ते जीवरुप तलावने विषे, कर्मरुप जल आवतां व्रतपच्चखाणादिक द्वार देवेकरी रोकीये, तेहने संवरतत्व कहिये. निर्जरातत्व ते आत्माना प्रदेशथि बार भेदे तपस्याये करी देशथकि कर्मनुं निर्जर झरीने दुर था, तेहने निर्जरातत्व कहिये. बंधतत्व ते आत्माना प्रदेशने कर्मपुद्गलना दल खीरनीरनी परे, लोहपिंड अग्निनी परे, लोलीभूत

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