Book Title: Jain Nyaya Panchashati
Author(s): Vishwanath Mishra, Rajendramuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 105
________________ 88 जैनन्यायपञ्चाशती जिज्ञासा में कहा है-'शब्दगुणकमाकाशम्'। शब्द आकाश का गुण है। वह ध्वन्यात्मक और वर्णात्मक भेद से दो प्रकार का होता है। व्याकरणशास्त्र में शब्द का आकाशदेश स्वीकार किया गया है, आकाश का गुण नहीं। व्याकरणमहाभाष्य में कहा है-'श्रोत्रोपलब्धिर्बुद्धिनिर्ग्राह्य प्रयोगेणाभिज्वलितः आकाशदेशः शब्दः'। इसका तात्पर्य है-शब्द का ज्ञान श्रोत्र के द्वारा होता है। वह बुद्धि से ग्राह्य है और प्रयोग से प्रकाशित होता है। ऐसा शब्द आकाशदेश है। इस प्रकार व्याकरणमत में शब्द को आकाश का गुण नहीं माना गया है। ___इसी प्रकार मीमांसा दर्शन में भी शब्द के आकाशगुण का निराकरण कर उसे द्रव्यत्व ही स्वीकार किया है। वहां कहा है श्रोत्रमात्रेन्द्रियग्राह्यः शब्दः शब्दत्वजातिमान्। द्रव्यं सर्वगतो नित्यः कुमारिलभते मतः॥ वियद्गुणत्वं शब्दस्य केचिदूचुर्मनीषिणः। प्रत्यक्षादिविरोधात् तद् भट्टपादैरुपेक्षितम्॥ इसका तात्पर्य यह है कि शब्द श्रोत्र-इन्द्रिय मात्र से ग्राह्य है। यह सर्वगत है, नित्य है और द्रव्य है। वह आकाश का गुण नहीं है, क्योंकि शब्द को आकाश का गुण स्वीकार करना प्रत्यक्ष विरोध है। गुण गुणी में रहता है। शब्द आकाश में नहीं देखा जाता, क्योंकि आकाश अमूर्त है। जैसे-ज्ञान आत्मा का गुण है। ज्ञान और आत्मादोनों अमूर्त हैं। मूर्त शब्द अमूर्त आकाश का गुण नहीं हो सकता। इसलिए शब्द द्रव्य ही है, आकाश का गुण नहीं। अभ्राणीव प्रचीयन्ते शब्दाख्याः परमाणवः'बादल की तरह शब्द के परमाणु फैलते हैं-इस कथन के द्वारा भर्तृहरि ने भी शब्दों को परमाणुप्रचय कहा है। इससे शब्द को द्रव्य ही कहा जा सकता है। इसलिए वह आकाश का गुण नहीं है। जैनदर्शन के अनुसार पुद्गलों का संघात और भेद होने से जो ध्वनिरूप परिणमन होता है, वह शब्द कहा जाता है। उसकी उत्पत्ति असम्बद्ध पुद्गलों के सम्बन्ध से अथवा सम्बद्ध पुद्गलों के सम्बन्धविच्छेद से होती है। वह शब्द पुद्गलों का प्रचय (समूह) है। जो वर्ण, गंध, रस और स्पर्श युक्त होते हैं, वे पुद्गल हैं । यही Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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