Book Title: Jain Nyaya Panchashati
Author(s): Vishwanath Mishra, Rajendramuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 115
________________ 98 जैनन्यायपञ्चाशती न्यायप्रकाशिका ___तमः कृष्णं भवतीति सार्वजनीनोऽनुभवः। एतेनेदं सिद्धयति यत् तमो रूपवत् अस्तीति। एवमेव इयमप्यनुभूतिर्भवति लोकस्य यत् तमः शीतलं भवतीति। एतेन इदं सिद्धयति यत् तमः स्पर्शवदस्तीति। अनेन प्रकारेण इदं विज्ञातं भवति यत् तमसि रूपवत्ता स्पर्शवत्ता च वर्तत एव। रूपं स्पर्शश्चेति द्वयमिदं पुद्गलस्य लक्षणमस्ति।मीमांसा-दर्शनानुसारंतमसि गुणस्य क्रियायाश्च प्रतीत्या तमो द्रव्यमस्तीति न संशयः। उक्तञ्च गुणकर्मादिसद्भावादस्तीति प्रतिभासतः। प्रतियोग्यस्मृतेश्चैव भावरूपं ध्रुवं तमः ॥ ‘तम द्रव्य है इस बात को पुष्ट करते हुए कह रहे हैं कि तम (अंधेरा) काला होता है-यह सार्वजनीन अनुभव है। इससे यह सिद्ध होता है कि तम रूपवान् है। इसी प्रकार यह भी अनुभूति होती है कि तम शीतल होता है। इस प्रकार यह विदित होता है कि तम रूपवान् हैं तथा उसका स्पर्श भी होता है। रूप और स्पर्श-ये दोनों पुद्गल के लक्षण है। तम में इन दोनों के रहने के कारण यह बात निर्विवाद है कि तम पौद्गलिक हैं। मीमांसा दर्शन के अनुसार तम में गुण और क्रिया की प्रतीति होती है। इसके लिये प्रयोग होता है कि नीला अंधेरा चलता है। यहां नील विशेषण के द्वारा तम की रूपवत्ता तथा चलन क्रिया से उसकी क्रियावत्ता की प्रतीति होती ही है। गुण और क्रिया के आश्रय को द्रव्य कहा जाता है। इस रीति से तम की द्रव्यता असंदिग्ध है। कहा भी गया है गुणकर्मादिसदभावादस्तीति प्रतिभासतः। प्रतियोग्यस्मृतेश्चैव भावरूपं ध्रुवं तमः॥ . (४६) तमसो द्रव्यत्वं द्रढयतितम के द्रव्यत्व को पुष्ट कर रहे हैं। १. मानमेयोदयः, पृ. १५२, श्लो.८॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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