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जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन
तथा जल में तृषा को दूर करने का सामर्थ्य होता है, अतः इनसे मदशक्ति का उत्पन्न होना सम्भव है, जबकि पंचभूतों में से पृथ्वी आदि किसी भी भूत में चैतन्य नहीं होता, अतः पंचभूतों से चैतन्य की उत्पत्ति हेतु जो दृष्टान्त दिया गया है वह विषम या अनुचित है। यदि पंचभूतों में चैतन्य स्वीकार किया जाए तो उनसे उत्पन्न जीव का कभी मरण नहीं हो सकेगा, क्योंकि मृत शरीर में भी पृथ्वी आदि पांच भूतों का सद्भाव रहता है। इससे यह मान्यता भी खण्डित हो जाती है कि पंच भूतों के नष्ट होते ही देही आत्मा का भी नाश हो जाता है।
शीलाङ्काचार्य ने एक तर्क यह भी प्रस्तुत किया है कि मिट्टी से निर्मित पुतली में पांचों महाभूत होते हैं, फिर भी उसमें जड़ता ही देखी जाती है, चेतना नहीं।
आत्मा की सिद्धि अनुमान एवं आगम प्रमाण से भी होती है। शीलाङ्काचार्य ने अनुमान प्रमाण से आत्मा की सिद्धि करते हुए कहा है- आत्मा है, क्योंकि उसके ज्ञानादि असाधारण गुण उपलब्ध होते हैं, जिस प्रकार चक्षु इन्द्रिय का साक्षात् ज्ञान नहीं होता है, वह उसके असाधारण गुण रूपविज्ञान की शक्ति से अनुमित होती है, उसी प्रकार आत्मा भी उसके असाधारण चैतन्य गुण से ज्ञात होता है। आत्मा का असाधारण गुण चैतन्य है तथा पृथिवी आदि भूतों में इसका निराकरण करने पर ही यह असाधारण गुण ज्ञात होता है। मैं सुखी हूँ, मैं दुःखी हूँ' आदि अनुभवों में आत्मा प्रत्यक्ष से तथा “अस्थि मे आया उववाइए" वाक्यों में आगम प्रमाण से सिद्ध है।
पंचभूतों से पृथक् शाश्वत आत्म-तत्त्व को स्वीकार करना आवश्यक है, अन्यथा बंध-मोक्ष एवं पुण्य-पाप आदि की व्यवस्था नहीं बन सकेगी। जैनदर्शन का मंतव्य है कि द्रव्यार्थिक नय की दृष्टि से जीव या आत्मा शाश्वत है तथा पर्यायार्थिक नय की दृष्टि से वह अशाश्वत या अनित्य है। आत्मा की पर्यायों में परिवर्तन होते हुए भी द्रव्यार्थिक नय की दृष्टि से जो आत्मा कमों का कर्ता होता है वही उसके फल का भोक्ता भी होता है। उत्तराध्ययनसूत्र में स्पष्टरूपेण कहा गया है
अप्पाकत्ता विकत्ताय, दुहाणयसुहाणय।
अप्पा मित्तममित्तंचदुप्पट्ठिओसुप्पट्ठिओ।।" आत्मा ही अपने दुःख एवं सुख का कर्ता एवं विकर्ता है। वह सन्मार्ग में